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मौत के 38 साल बाद जी उठे डॉ. निर्मल!

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Kamlesh Verma
कमलेश
-कमलेश

"...बिहार के किसानों के युद्ध के नायक रह चुके डॉ. निर्मल की प्रतिमा उनके अपने कॉलेज दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर में क्या लगी, राजनीतिक हलकों से लेकर चिकित्सकों तक के बीच जैसे तूफान खड़ा हो गया है। भाजपाइयों ने दरभंगा से लेकर पटना तक में सरकार पर दबाव डाला और स्वास्थ्य मंत्री बने अश्विनी कुमार चौबे ने यह घोषणा की कि सरकार दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर से डॉ. निर्मल की प्रतिमा को हटा लेगी। सरकार की इस घोषणा का विरोध शुरू हो गया है, कई सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार और डॉ. निर्मल के बैच के छात्र रहे कई डॉक्टर सरकार के इस फैसले का विरोध करने दरभंगा पहुंच गये हैं..."




हते हैं फिनिक्स पक्षी अपनी राख से जी उठता है। पता नहीं मिस्र की यह कहावत सच है या नहीं लेकिन बिहार के किसानों के युद्ध के नायक रह चुके डॉ. निर्मल अपनी मौत के 38 वर्ष के बाद मानो अचानक जी उठे हैं। डॉ. निर्मल सिंह, कामरेड निर्मल और नक्सलवादियों की भाषा में शहीद डॉ. निर्मल। 

उनके नाम को लेकर जितनी बहस अभी चल रही है उतनी तो तब भी नहीं हुई थी जब उन्होंने मेडिकल शिक्षा का शानदार कॅरियर छोड़कर भोजपुर के धधकते खेत-खलिहानों में नक्सलवादी आन्दोलन की राह पकड़ी थी। पुलिस से घंटों लड़ाई लड़ने के बाद जब उनकी लाश पाई गई थी तब लोगों को पता चला था कि किसानों द्वारा चलाये जा रहे उस मुक्ति युद्ध में कितने मेधावी लोग अपनी जिन्दगी होम कर रहे हैं। 

उसीडॉ. निर्मल की प्रतिमा उनके अपने कॉलेज दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर में क्या लगी, राजनीतिक हलकों से लेकर चिकित्सकों तक के बीच जैसे तूफान खड़ा हो गया है। भाजपा के नगर विधायक संजय सरावगी के नेतृत्व में भाजपाई लोगों ने डॉ. निर्मल की प्रतिमा लगाये जाने का इस आधार पर विरोध किया कि एक नक्सली नेता की प्रतिमा कॉलेज परिसर में कैसे लग सकती है। 

भाजपाइयोंने दरभंगा से लेकर पटना तक में सरकार पर दबाव डाला और  विधान परिषद में भाजपा के कोटे से स्वास्थ्य मंत्री बने अश्विनी कुमार चौबे ने यह घोषणा की कि सरकार दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर से डॉ. निर्मल की प्रतिमा को हटा लेगी। अब सरकार की इस घोषणा को लेकर मानो पूरे बिहार में तूफान खड़ा हो गया है। सरकार की इस घोषणा का विरोध शुरू हो गया है और भाकपा, माकपा और भाकपा माले ने इसके खिलाफ आन्दोलन शुरू कर दिया है। मात्र यही नहीं कई सामाजिक कार्यकर्ता, साहित्यकार और डॉ. निर्मल के बैच के छात्र रहे कई डॉक्टर सरकार के इस फैसले का विरोध करने दरभंगा पहुंच गये हैं।  

निर्मलसिंह भोजपुर जिले के चरपोखरी प्रखंड के बरौरा के रहने वाले थे। वे एक मेधावी छात्र थे और 1968 में उन्होंने दरभंगा मेडिकल कॉलेज में दाखिला लिया था। भले वे मेडिकल कॉलेज में पढ़ रहे थे लेकिन समाज में व्याप्त गैरबराबरी उन्हें बराबर परेशान करती थी। उसी समय भोजपुर जिले में जगदीश मास्टर के नेतृत्व में नक्सलवादी आन्दोलन तेज हुआ। 1971 में वे बिहार में चल रहे नक्सलवादी आन्दोलन में शामिल हो गये और उन्होंने मेडिकल की पढ़ाई छोड़ दी। लोगों को इसका पता तब चला जब दरभंगा मेडिकल कॉलेज में एक बम विस्फोट के बाद नक्सलवादी आन्दोलन के समर्थन में पर्चे बांटे गये। नक्सलवादी संगठन के लिए भी वे एक अच्छे संगठनकर्ता साबित हुए। 

बाद में वे सीपीआई एमएल के तत्कालीन महासचिव जौहर के साथ एक पुलिस मुठभेड़ में मारे गये। यह मुठभेड़ भोजपुर जिले के बाबूबांध गांव में 1975 में हुई थी। कहते हैं, पूरी रात मुठभेड़ चली थी। नक्सली दस्ते की सारी गोलियां खत्म हो गईं लेकिन उन्होंने आत्मसमर्पण नहीं किया और आखिरकार लड़ते-लड़ते मारे गये। नक्सलवादी संगठन आज भी निर्मल को अपने नेता के रूप में श्रद्धा के साथ याद करते हैं। भोजपुर जिले में आज भी एक गीत गाया जाता है- जब-जब याद आवे बाबूबांध के कहनिया, अंखिया भरि आवे ए साथी.....। 

दरभंगाजिले में काम कर रहे भाकपा माले की केन्द्रीय कमेटी के सदस्य धीरेन्द्र कुमार झा बताते हैं कि पिछले साल दरभंगा मेडिकल कॉलेज के पूर्व छात्रों की एक बैठक हुई। इस बैठक में दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर के सौंदर्यीकरण का फैसला लिया गया। इसके तहत कई काम हुए मसलन तालाब बना, पार्क बना और कई पूर्व छात्रों के नाम पर नये काम शुरू हुए। इसी क्रम में पिछले 27 जनवरी को दरभंगा मेडिकल कॉलेज के परिसर में डॉ. निर्मल की भी मूर्ति लगाई गई। चूंकि वे भी इसी कॉलेज के छात्र थे इसलिए पूर्व छात्रों ने उन्हें भी याद किया। मूर्ति के निर्माण के लिए कॉलेज के पूर्व छात्रों ने जमकर मदद भी की। देश ही नहीं विदेशों में भी कार्यरत चिकित्सकों ने इसके लिए पैसे भेजें। उस समय कॉलेज के प्रभारी प्राचार्य डॉ. अजीत चौधरी थे। वे अभी कॉलेज में पैथोलॉजी विभाग के अध्यक्ष हैं। उनके अलावा कॉलेज के ही एक अन्य शिक्षक डॉ. बीएमपी यादव ने भी इसमें मदद की। वे डॉ. निर्मल के बैच के छात्र थे।

लेकिनइस प्रतिमा को लगाने के बाद भाजपा से जुड़े लोगों ने इसको लेकर जमकर हंगामा शुरू कर दिया। उन्होंने कॉलेज परिसर से प्रतिमा को हटाने की मांग की। मामला विधान परिषद में भी उठाया गया और वहां सरकार ने कहा कि उस प्रतिमा को तीन दिनों के भीतर हटा दिया जाएगा। अब सरकार के इस फैसले के खिलाफ दरभंगा में आन्दोलन शुरू हो गया है। राजधानी से साहित्यकार प्रेमकुमार मणि और वरिष्ठ चिकित्सक डॉ. राजेश्वर आदि ने दरभंगा पहुंचकर सरकार के फैसले का विरोध किया। मात्र यही नहीं तीनों वाम दलों के साथ-साथ राजद और जनता दल यू के भी जमीनी हिस्से ने प्रतिमा को हटाने का विरोध किया है। दूसरी तरफ प्रतिमा लगाने की अनुमति देने वाले तत्कालीन प्रभारी प्राचार्य के खिलाफ कॉलेज प्रशासन ने कारण बताओ नोटिस जारी कर दिया है और उनके खिलाफ मुकदमा भी कर दिया है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के प्रदेश अध्यक्ष डॉ. अरुण कुमार ठाकुर का कहना है कि वे चाहते हैं कि कॉलेज में शांति बहाल हो और चिकित्सक के खिलाफ की गई कार्रवाई वापस हो। उनका यह भी कहना है कि परिसर में लगी प्रतिमा के बारे में जनहित के अनुसार और नियमानुकूल फैसला लेना चाहिए। 

कमलेश वरिष्ठ पत्रकार हैं.
अभी एक दैनिक अखबार में नौकरी. 
इनसे  संपर्क का पता kamleshbux@gmail.com है.

कॉरपोरेट नहीं जनता बनाएगी पहाड़ों में जल विद्युत परियोजनाएं!

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-praxisप्रतिनिधि

'जनता  के जनतंत्र के लिए जनयात्रा'

"...उत्तराखंड के टिकाऊ जनपक्षीय विकास के लिए जनता की प्रोड्यूसर्स कंपनी बना कर पर्यावरण पक्षीय १ मेगावाट की छोटी परियोजना बनाई जा सकती हैं। इसमें पूरी तरह जनता की मिल्कियत होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि उलोवा कुमाऊं के पनार क्षेत्र की सरयू नदी पंर और चेतना आन्दोलन गढ़वाल क्षेत्र के छतियारा में बालगंगा नदी पर यह प्रयोग करने जा रहा है। जिसमें प्रोड्यूसर्स कंपनी एक्ट 2002 के तहत ग्रामीणों की दो प्रोड्यूसर्स कंपनियां सरयू हाईड्रो इलैक्ट्रानिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड और संगमन हाईड्रो इलैक्ट्रानिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड बना दी गई हैं। अब ग्रामीण ही कंपनी के मालिक हैं और कंपनी के मुनाफे में उनका ही हक होगा।..." 

 
त्तराखण्ड़ लोक वाहिनी, चेतना आन्देलन, महिला मंच और आजादी बचाओ आंदोलन द्वारा प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ 10 मार्च को जागेश्वर से शुरू हुई यात्रा का इग्यारहवें देहरादून में प्रेस वार्ता कर समापन किया गया। यात्रादल ने कुमांऊ और गढ़वाल के अपने पड़ावों दन्या, पनार, पिथौरागढ़, बागेश्वर, ग्वालदम, थराली, देवाल, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग, गोपेश्वर, रूद्रप्रयाग, अगस्तमुनि, श्रीनगर, घनसाली, फलिंडा, चमियाला, उत्तरकाशी, अस्सी गंगा के जलागम क्षेत्र संगमचट्टी और नई टिहरी में जनसभाओं के द्वारा  यात्रा के उद्देश्यों को लोगों को बताया।

उज्जवल होटल में हुई इस प्रेसवार्ता में उत्तराखण्ड लोक वाहिनी के केन्द्रीय अध्यक्ष डा0 शमशेर सिंह बिष्ट ने कहा कि यह यात्रा उत्तराखंड को नए सिरे से समझने और संघर्ष की नई रणनीति बनाने के लिहाज से महत्वपूर्ण रही है। पूरे उत्तराखंड में सरकारों की नीतियों के खिलाफ जबरदस्त आक्रोश है। बांधों से हो रही तबाही और लुट रहे प्राकृतिक संसाधनों के खिलाफ यह जनाक्रोश ही उत्तराखंड की आगामी राजनीति तय करेगा।

उन्होंनेकहा कि उत्तराखंड में हमें जल, जंगल, जमीन के प्राकृतिक संसाधनों पर जनता के हकों के लिए संघर्ष करना होगा। दलाल सरकारों और निजीकंपनियों को खुली लूट के लिए पहाड़ी नदियों को नहीं सौंपा जा सकता। उन्होंने कहा अंग्रेजों तक ने कुमांऊ वाटर रूल के तहत प्राकृतिक संसाधनों पर यहां के लोगों की मिल्कियत का अधिकार दिया था। उसके उलट देश के आजाद होने पर सरकार ने सबसे पहले लोगों को उनके प्राकृतिक अधिकारियों से वंचित करने का काम किया और उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद तो प्राकृतिक संपदा अब सरकार के हाथ में भी नहीं है। उसे सरकार ने माफियाओं के हाथ कर दिया है। इसलिए यहां बड़े स्थर पर खनन का अवैध कारोबार खूब पनप रहा है। खनन सिर्फ खडि़या का ही होता हो ऐसा नहीं है वह समूचे पहाड़ की सभ्यता और परम्परा को नष्ट कर रहा है।

उन्होंनेकहा कि उत्तराखंड के टिकाऊ जनपक्षीय विकास के लिए जनता की प्रोड्यूसर्स कंपनी बना कर पर्यावरण पक्षीय १ मेगावाट की छोटी परियोजना बनाई जा सकती हैं। इसमें पूरी तरह जनता की मिल्कियत होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि उलोवा कुमाऊं के पनार क्षेत्र की सरयू नदी पंर और चेतना आन्दोलन गढ़वाल क्षेत्र के छतियारा में बालगंगा नदी पर यह प्रयोग करने जा रहा है। जिसमें प्रोड्यूसर्स कंपनी एक्ट 2002 के तहत ग्रामीणों की दो प्रोड्यूसर्स कंपनियां सरयू हाईड्रो इलैक्ट्राॅनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड और संगमन हाईड्रो इलैक्ट्राॅनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड बना दी गई हैं। अब ग्रामीण ही कंपनी के मालिक हैं और कंपनी के मुनाफे में उनका ही हक होगा। ऐसी ही परियोजनाएं बनाकर पहाड़ से पलायन को रोका जा सकेगा।

उन्होंनेकहा कि आगामी २३ अप्रैल को वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के पेशावर कांड को याद करते हुए जागेश्वर में एक राष्ट्रीय कन्वेंशन किया जा रहा है। यह यात्रा उसकी प्रिप्रेशन/तैयारी यात्रा है। जिसमें कि जनता के खिलाफ बने कानूनों को ना मानने यानी सिविल ना-फरमानी का निर्णय लिया जाएगा।

महिलामंच की कमला पंत ने कहा कि उत्तराखंड बनने के बाद सपनों के उलट राज्य विकास के बजाय विनाश झेल रहा है। पहाड़ की शर्तों पर पहाड़ के विकास की अवधारणा बिल्कुल गायब है। पूरे प्रदेश में गावों के विकास के बजाय बांधों में उन्हें डुबो देने की परियोजनाएं चल रही हैं। और जो गांव बांध की जद में नहीं आते उन्हें सरकारी नीतियां ने पलायन की बाढ़ पैदा कर मैदानों की तरफ धकेला है। गांव के गांव खाली हो रहे हैं। गांवों में जो कुछ बच भी रहा है उसे शराब में डुबो देने के सारे प्रबंध हैं। उन्होंने कहा कि उत्तराखंड के ऐसे त्रासद दौर से उसे जनांदोलन ही उभार पाएंगे। और आंदोलनों को ही विकास का वैकल्पिक माॅडल भी सामने रखना होगा। यह यात्रा और सरयू और बालगंगा नदी की ये प्रस्तावित जन-परियोजनाएं इसी मुहीम का एक हिस्सा हैं।

प्रेसवार्ताको संबोधित करते हुए चेतना आन्दोलन के संयोजक त्रेपन सिंह चैहान ने कहा है कि वन अधिनियम 2006 के तहत कोई भी प्रोजेक्ट लगाने से पहले सरकार को ग्राम सभा की अनुमति लेनी पड़ती है। लेकिन उत्तराखण्ड़ में इस कानून का धड़ल्ले से उलंघन हो रहा है और खनन एवं बांधों के लिए अनुमती दे रही है जो सरासर गैर कानूनी है। उन्होंने कहा कि पहाड़ को तबाह करती इन बाँध परियोजनाओं का विरोध पहाड़ की जनता के लिए अनिवार्य हो गया है. इसके लिए जनता को अपने दुश्मनों को पहचानते हुए उनके खिलाफ संघर्ष करना होगा. उन्होंने कहा कि पहाड़ में शासन कर रही सारी मुख्य राजनीतिक पार्टियां पहाड़ विरोधी हैं. वे मुजफ्फर नगर कांड के प्रमुख दोषी अनंत कुमार सिंह और बुआ सिंह को सजा देने के बजाय लगातार उनकी पदोन्नति करती रही हैं. यह इनके पहाड़ी जनता के प्रति विरोधी नजरिये को दर्शाता है.

आज़ादी बचाओ आंदोलन के मनोज त्यागी ने कहा कि इस यात्रा का बड़ा उद्देश्य प्राकृतिक संसाधनों में स्थानीय जनता की मिल्कियत का है। यह संवैधानिक मांग है। ७३वां और ७४वां संविधान संसोधन, ग्राम सभाओं को अपने फैसले लेने का हक देता है. इसी के अनुसार पहाड़ की जनता का अपनी नदियों और अपने संसाधनों पर पहला हक है। उत्तराखंड पानी का प्रमुख स्रोत है। बाजार के सभी लोग अब इस पानी और बिजली के कारोबार में टूट पड़े हैं। इस सब में जनता के हकों की बात नदारद है। सरकारें कंपनियों को पानी सौंप कर उनके हकों को छीन रही हैं और वहीँ दूसरी ओर जनता की प्रोड्यूसर्स कंपनी को मदद पहुंचाने का उसका कोई इरादा नहीं दिखता। इसके लिए जनता को जन विरोधी नीतियों और कानूनों के लिए सिविल ना-फरमानी का ऐलान करना होगा।

उलोवाके पूरन चंद्र तिवारी ने सभा में कहा कि उत्तराखंड से लगातार हो रहे पलायन की वजह से यहाँ किसी भी किस्म के टिकाऊ विकास के मॉडल का न हो पाना है। अगर माइक्रो हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट जनता खुद अपनी कंपनी बना कर शुरू करे तो यहाँ पहाड़ के पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए एक स्थाई विकास का मॉडल खड़ा किया जा सकता है। उन्होंने कहा कि ये यात्रा इस सपने को गाँव-गाँव तक पहुचाने की एक मुहिम है.   

यात्रामें टिस मुंबई में माइक्रो हाइड्रो पर अध्ययन कर रहे अंकुर जायसवाल, इलाहबाद यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर प्रदीप कुमार, इलाहबाद यूनिवर्सिटी में ही गणित के सहायक प्राध्यपक स्वपनिल श्रीवास्तव, गांधी स्वराज विद्यापीठ की अध्यक्षा सुमन शर्मा, महिला मंच की पद्मा गुप्ता, सरयू हाईड्रो इलैक्ट्रानिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड के अध्यक्ष राम सिंह, बसन्त राम, और लक्षमण सिंह आदि लोग यात्रा में शामिल रहे। 

शी का सपना, ली के सुधार

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सत्येंद्र रंजन
                                                                                                                      -सत्येंद्र रंज

"क्या शी ने जिस चीनी सपने को जगाने की कोशिश की है, उसके जरिए वे चीन को वैचारिक एवं राजनीतिक-कार्यक्रम संबंधी गतिरोध से निकाल सकेंगे? अभी जिस अर्थ में वहां संपन्नता की बात होती है, वह पूंजीवादी व्यवस्थाओं की ट्रिकल डाउन (ऊपर से रिस कर लाभ के नीचे तक पहुंचने) सिद्धांत से अलग नजर नहीं आती। अब शी जिस सपने और ली जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, क्या उससे यही दिशा और आगे बढ़ेगी,या उससे कोई नया रास्ता सामने आएगा?"


शीजिनपिंग के राष्ट्रपति और ली किछियांग के प्रधानमंत्री चुने जाने के साथ चीन में क्रांति के बाद कम्युनिस्ट पार्टी की पांचवीं पीढ़ी के हाथ में नेतृत्व आने की प्रक्रिया पूरी हो गई है। चीनी सत्ता तंत्र में कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव/राष्ट्रपति के हाथ में व्यापक नीति निर्धारण की ताकत होती है, जबकि प्रधानमंत्री का पद प्रशासनिक महत्त्व का है- खासकर आर्थिक नीतियों के निर्माण एवं उन पर अमल की मुख्य जिम्मेदारी प्रधानमंत्री की होती है। इस अर्थ में महासचिव/राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की जोड़ी सत्ता के मुख्य पद हैं, जो कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यरो की स्थायी समिति के साथ मिल कर देश की नीति एवं प्रशासनिक दिशा तय करते हैं। 1989 में थ्येन-आन-मन चौराहे की घटना के समय हुई हलचल के बाद पार्टी में दस-दस साल तक एक टीम के सत्ता में रहने की रवायत बनी। 2002 के बाद अब 2012 में ऐसा हुआ, जब बिना किसी बड़ी उथल-पुथल के सत्ता हस्तांतरण का काम पूरा हो गया।

तीव्रआर्थिक विकास और उसके परिणामस्वरूप चीन के विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने के अलावा निवर्तमान हू जिन ताओ और वेन जिआबाओ के पिछले दस साल के दौर को मुख्य रूप दो दूसरे रुझानों के लिए याद रखा जाएगा। पहला यह कि इस दौर में कल्याणकारी कार्यों के संदर्भ में सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका पर फिर से जोर बढ़ा, जिससे जियांग जेमिन के युग में स्वास्थ्य एवं आवास जैसे क्षेत्रों में बढ़े निजीकरण की दिशा पलटी। दूसरा रुझान विषमता में भारी वृद्धि तथा बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार के मामलों के खुलासे का रहा, जिससे न सिर्फ चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की छवि खराब हुई, बल्कि उसकी जन-वैधता को लेकर कठिन प्रश्न भी खड़े हुए। हू जिनताओ ने देश के अंदर “सद्भावपूर्ण समाज” के निर्माण और बाहरी मामलों में चीन के “शांतिपूर्ण उत्थान” को अपना घोषित लक्ष्य बनाया था। दूसरा लक्ष्य तो चीन ने हासिल किया, लेकिन सद्भावपूर्ण समाज बनाने की दिशा में कितनी कामयाबी मिली, यह विवादास्पद है। अब जबकि चीन की सत्ता शी-ली की जोड़ी के हाथ में है, दुनिया की सबसे ज्यादा दिलचस्पी यही देखने में है कि इन दोनों के पास देश के लिए क्या एजेंडा है?   

हालके महीनों में इन दोनों नेताओं के दिए भाषणों एवं बयानों से इसका कुछ आभास हुआ है। ली किछियांग ने कुछ समय पहले कहा था- सुधार धारा में ऊपर तरफ नौकायन की तरह है। अगर आप आगे नहीं बढ़े, तो मतलब नीचे गिरना होगा। जो लोग सुधरने से इनकार करते हैं, हो सकता है कि उनसे कोई गलती नहीं हो, लेकिन उन पर अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को स्वीकार ना करने का इल्जाम लगता है।इस बीच शी जिनपिंग के “चीनी सपने” का जुमला खूब चर्चित हुआ है। अतीत में अमेरिकन ड्रीम दुनिया में चर्चित रहा। मार्टिन लूथर किंग जूनियर का ‘आई हैव अ ड्रीम’ भाषण अलग संदर्भों में एक ऐतिहासिक दस्तावेज बना। शी ने कुछ उसी तर्ज पर अपने’ झोंगुओ मेंग’ (चीनी सपने) को चर्चित बनाने की कोशिश की है। पिछले नवंबर में कम्युनिस्ट पार्टी का महासचिव बनने के बाद जब उन्होंने अपना पहला नीति-वक्तव्य दिया, तो उसमें उन्होंने कहा- हर व्यक्ति का अपना आदर्श है, उसे अपने सपने की तलाश है। मुझे पूरा विश्वास है कि जब चीनी कम्युनिस्ट पार्टी अपनी 100वीं सालगिरह मनाएगी (2021 में), तब तक हम बेशक एक संपन्न समाज बनाने का काम पूरा कर चुके होंगे। और जब चीनी जन गणराज्य अपनी 100वीं वर्षगांठ (2049 में) मनाएगा, हम एक समृद्ध, मजबूत, लोकतांत्रिक, सभ्य एवं सद्भावपूर्ण समाजवादी आधुनिक देश बन चुके होंगे और चीनी राष्ट्र पुनर्यौवन के पथ पर होगा। आधुनिक इतिहास में चीनी राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सपना है।

कहाजा सकता है कि एक दशक बाद (बीच में अगर कोई बड़ी उथल-पुथल नहीं हुई तो) शी जब अपने उत्तराधिकारी को सत्ता सौपेंगे, तब इसी सपने के साकार होने की कसौटी पर उनके कार्यकाल का मूल्याकंन किया जाएगा। बहरहाल, संपन्न समाज का अर्थ क्या है, इस मौके पर यह एक बड़ा सवाल है। क्यों? इसे समझने के लिए कुछ समय पहले ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट में दुनिया में बढ़ती विषमता पर छपी एक रिपोर्ट के इस हिस्से पर गौर करना उपयोगी होगा- पिछले 30वर्षों में चीनी अर्थव्यवस्था का रूपांतरण इतिहास की सबसे असाधारण विकास कथा है। लेकिन जिस बात पर कम ध्यान गया है वो यह कि चीन ने विषमता में सबसे बड़ा और सबसे तीव्र गति से बढ़ोतरी भी देखी है। चीन ने सन् 2000से आधिकारिक रूप से जिनी को-इफिसिएंट (विषमता मापने की कसौटी) को प्रकाशित नहीं किया है। लेकिन चाइना डेवलपमेंट रिसर्च फाउंडेशन के एक अध्ययन से संकेत मिलता है कि यह 1978में यह 0.3था, जो अब 0.48से भी ज्यादा हो गया है। माओ के समतावादी आतंक-राज्य के एक पीढी से कुछ ही अधिक समय बाद चीन में आमदनी का बंटवारा अमेरिका से भी अधिक विषम हो गया है।यहां आतंक-राज्य जैसे शब्द को बहुराष्ट्रीय पूंजी की पैरोकार पत्रिका की अपनी राय मान कर हम नजरअंदाज कर सकते हैं, लेकिन विषमता के जिस तथ्य का जिक्र इसमें हुआ है, उसका आज चीन के बड़े से बड़ा समर्थक भी खंडन नहीं करता।

हालांकियह स्वीकार करते हुए भी इस तरफ ध्यान दिलाया जाता है, जो उचित भी है, कि चीन की मूल व्यवस्था आज भी समाजवादी है। द मन्थली रिव्यूमें अपने ताजा लेख में समीर अमीन ने लिखा है- चीन ने एक खास रास्ते का अनुपालन 1980 से नहीं, बल्कि 1950 से ही किया है, हालांकि यह रास्ता ऐसे दौरों से गुजरा है, जो कई मामलों में अलग हैं। चीन ने एक सुसंगत, संप्रभु परियोजना विकसित की है, जो उसकी अपनी जरूरतों के लिए उपयुक्त है। यह निश्चित रूप से यह पूंजीवादी नहीं है। पूंजीवादी व्यवस्था में कृषि भूमि का माल (कॉमोडिटी) के रूप में इस्तेमाल उसकी तार्किक आवश्यकता है। (ऐसा चीन में नहीं है)। चीन की परियोजना तब तक संप्रभु बनी रहेगी, जब तक वह वित्तीय भूमंडलीकरण से बाहर रहता है।अमीन ने लिखा- सामाजिक सुरक्षा और पेंशन सिस्टम का साया 50 फीसदी शहरी आबादी को मिला हुआ है और योजना (जो आज भी चीन में प्रचलित है) के तहत आने वाले वर्षों में यह संरक्षण 85 फीसदी जनसंख्या तक प्रदान करने का अंदाजा लगाया गया है।अमीन ने ध्यान दिलाया है कि चीन ने अपनी विकास परियोजना में सामाजिक (समाजवादी नहीं) आयामों को सम्मिलित किया है। उनके मुताबिक, ये उद्देश्य माओवादी काल में भी मौजूद थेः निरक्षता का खात्मा, सबके बुनियादी स्वास्थ्य की देखभाल आदि। उत्तर माओवादी काल के पहले दौर में रुझान बेशक इन प्रयासों की अनदेखी का रहा। लेकिन इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि परियोजना के सामाजिक आयाम को वापस लाने की जद्दोजहद में जीत हासिल हो गई है। सक्रिय और ताकतवर सामाजिक आंदोलनों को देखते हुए यह अनुमान है कि यह दिशा आगे बढ़ेगी। 

अबदेखने की बात यही है कि ऐसा सचमुच किस हद तक होता है। बहरहाल, अगर ऐसा हुआ, तब भी एक बुनियादी सवाल बचा रह जाएगा, जिस पर हम बाद में आएंगे। उसके पहले चीन की हकीकत के बारे में समीर अमीन के इस दावे पर ध्यान देना उचित होगा- निश्चित रूप से विषमता में वृद्धि चीन समेत हर जगह जाहिर होती है, लेकिन यह कथन सतही और भ्रामक है। एक ऐसे मॉडल से प्राप्त लाभों का बंटवारा, जिसमें किसी को बाहर नहीं रखा जाता (और जिसमें गरीबी में कमी आती है- जैसाकि चीन में है) एक बात है, और ऐसे आर्थिक विकास से जुड़ी विषमता जिसका लाभ सिर्फ अल्पजन (आबादी के पांच से 30 प्रतिशत हिस्से तक) को मिलता है और बाकी लोगों की स्थिति हताशा-भरी बनी रहती है, बिल्कुल दूसरी बात है।

दरअसल,चीन अगर आज दुनिया में बहुत से लोगों की दिलचस्पी का विषय है, तो इसीलिए कि वहां मानव विकास का अनोखा प्रयोग हुआ, जिसकी अद्भुत उपलब्धियां हैं। इसलिए वो प्रयोग जिन दौरों से गुजरा, फिलहाल जिस दिशा में है और उसकी जो संभावनाएं नजर आती हैं, उस पर चर्चा, बहस और आलोचना से बचा नहीं जा सकता। बुनियादी सवाल यह है कि क्या आज का चीनी नेतृत्व सामाजिक कल्याण की योजनाओं पर खर्च के आंकड़े देकर जन-वैधता प्राप्त कर सकता है? या उसे वो अभिनव पथ भी ढूंढना होगा, जो समाजवाद/साम्यवाद की तरफ जाता दिखे? माओ जे दुंग ने “मुख्यालय पर बमबारी” के नारे साथ सांस्कृतिक क्रांति (जिस पर बाद में अराजकता में तब्दील हो जाने का आरोप है) की शुरुआत क्यों की थी? क्या इसलिए नहीं कि तब उन्होंने महसूस किया था कि पार्टी नेतृत्व पर दक्षिणपंथी रुझान वाले लोग हावी हो गए हैं? आज के पार्टी नेतृत्व का चरित्र आखिर क्या है? क्या उनकी भाषा और उनका कार्य-व्यवहार में दक्षिणपंथी रुझान जाहिर नहीं होते?

बो शिलाई को जैसा जन समर्थन मिला था, उससे साफ है कि चीन में वामपंथी रुझान के प्रति बड़ा जन समर्थन है। माओ का नाम आज भी लोगों को एकजुट करता है। बल्कि समाज में बढ़ती गैर-बराबरी, शहरीकरण और विकास योजनाओं को लागू करने में आमजन की राय की पूरी अनदेखी से पैदा हुए असंतोष के बीच यह नाम अतीत-मोह पैदा करने लगा है। यह स्थिति वहां एक तरह के गतिरोध की तरफ इशारा करती है, जिसमें विकास एवं सामाजिक सुरक्षा के तमाम दावों के बावजूद आज चीनी समाज फंस गया है। पिछले साल बो शिलाई प्रकरण ने पार्टी के भीतर गहराए भ्रष्टाचार और आपराधिक प्रवृति से परदा हटाया। वेन जियाबाओ सहित की नेताओं की अकूत संपत्ति संबंधी रपटों ने कम्युनिस्ट नेताओं के लालच को जाहिर किया, तो पार्टी के भीतर चारित्रिक पतन की कथाएं भी सामने आईं। उनसे सबसे अलग यह सवाल अहम है कि हू जिनताओ के सत्तारोहण के साथ पार्टी के भीतर सत्ता के विकेंद्रीकरण की जो योजना तैयार हुई थी, वह बिना अमल के क्यों रह गई? नव-जनवादी क्रांति के साठ साल बाद चीन के अपने लोकतंत्र का क्या स्वरूप है, अगर कम्युनिस्ट पार्टी इसे स्पष्ट नहीं कर पाती है, तो जैसे पश्चिमी मीडिया (देशों) द्वारा चीन (या किसी कम्युनिस्ट व्यवस्था पर) लगातार प्रहार एक अवांछित प्रवृत्ति के रूप नजर आता है, वैसे ही (कम्युनिस्ट) समाजवादी व्यवस्था का असली जनतंत्र होने का दावा भी खोखला ही माना जाएगा।

तो मुद्दा यही है कि क्या शी ने जिस चीनी सपने को जगाने की कोशिश की है, उसके जरिए वे चीन को वैचारिक एवं राजनीतिक-कार्यक्रम संबंधी गतिरोध से निकाल सकेंगे? अभी जिस अर्थ में वहां संपन्नता की बात होती है, वह पूंजीवादी व्यवस्थाओं की ट्रिकल डाउन (ऊपर से रिस कर लाभ के नीचे तक पहुंचने) सिद्धांत से अलग नजर नहीं आती। अब शी जिस सपने और ली जिन सुधारों की बात कर रहे हैं, क्या उससे यही दिशा और आगे बढ़ेगी, या उससे कोई नया रास्ता सामने आएगा? सुधारों का एक मतलब चीन का पश्चिमी ढंग से जनतंत्र की तरफ बढ़ना है। दूसरा मतलब अर्थव्यवस्था को अधिक से अधिक से सरकारी या योजना के नियंत्रण से मुक्त करना है। लेकिन एक वैकल्पिक मतलब पार्टी को जन आंकाक्षांओं से जोड़ना और सरकरी नीतियों की उस दिशा को पलटना भी है, जिसके परिणामस्वरूप समाज में विषमता और धन का पैदा हुआ मोह है। चीन आगे किस विकल्प को अपनाता है, उसमें पूरी दुनिया के समता एवं लोकतंत्र में आस्था रखने वाले लोगों की रुचि रहेगी। फिलहाल, वैकल्पिक रास्ते की उम्मीद कमजोर ही मालूम पड़ती है। 




सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.




सुशासन बाबू की चाटुकारिता और वाम से किनारा करता मीडिया

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विनय सुल्तान 

-विनय सुल्तान 



"...राष्ट्रीय मीडिया की चिंता में आया ये बदलाव यह भ्रम भी पैदा करता है कि  कहीं  प्रेस काउन्सिल  की रिपोर्ट "प्रेशर टेक्टिस"  तो नहीं बन गई। जिंदल कांड में हम मीडिया के इस गुण-धर्म को देख चुके हैं।..."
बिहार के मीडिया पर लम्बे समय से सवाल उठ रहे हैं। राज्य में सुशासन सरकार की सेंशरशिप इतनी तगड़ी है की संस्थागत अपराध भ्रष्टाचार,सामाजिक अन्याय और लैंगिक अत्याचार की खबरे या तो छपती ही नहीं हैं या फिर उन्हें मसालेदार कोणों से मनोरंजन के उद्देश्यों से छापा  जाता है।12 मार्च को आई प्रेस काउन्सिल की रिपोर्ट बिहार की मीडिया और सुशासन सरकार पर गंभीर प्रश्न खड़े करती है। रिपोर्ट के अनुसार बिहार के अख़बार सत्ता के अघोषित मुखपत्र की तरह काम कर रहे हैं। राष्ट्रीय मीडिया ने इस खबर को प्रमुखता से छापा। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर गहरी चिंताए जताई गई।


इस रिपोर्ट के आने के  महज पांच दिन बाद नितीश कुमार ने रामलीला मैदान में अधिकार रैली की। ये रैली सूबे को 'विशेष दर्जा' दिलाने को ले कर थी। ना ही सिर्फ खबरिया चैनलो ने इस रैली को बड़े पैमाने पर कवर किया बल्कि दुसरे दिन ये खबर प्रमुखता से छपी। देश के न्यूज़ चैनलों का कवरेज इस स्तर का था की वो लगातार दिखा रहे थे की जनता दल (यूनाइटेड) के नेता किस तरह ढोल नगाड़े के साथ रैली में आ रहे हैं और ये बिहारियों के लिए कितने बड़े गौरव का क्षण है।


टाइम्स, दी हिन्दू, इंडियन एक्सप्रेस, भास्कर, जनसत्ता, सहारा, जागरण, हिंदुस्तान समेत मुख्यधारा के तमाम अखबारों ने इसे पहले पन्ने पर जगह दी। हिंदुस्तान और जागरण ने तो अन्दर का एक पूरा पेज इस रैली को समर्पित कर दिया। इतना ही नहीं हिंदुस्तान बिहार ने विशेष दर्जे को लेकर सक्रीय रूप से लगभग एक महीने से अधिक विशेष कम्पैन चलाई। राष्ट्रिय मीडिया की चिंता में आया ये बदलाव यह भ्रम भी पैदा करता है की कंही  प्रेस काउन्सिल की रिपोर्ट "प्रेशर टेक्टिस"  तो नहीं बन गई। जिंदल कांड में हम मीडिया के इस गुण-धर्म को देख चुके हैं।

नितीश की अधिकार रैली के दो दिन बाद ही एक और बड़ा राजनैतिक जमावड़ा हुआ। यह 'विशेष दर्जा' की मांग से अधिक प्रासंगिक और जरुरी मांगो को ले कर था। माकपा की संघर्ष संदेश यात्रा में भूमि सुधार ,लैंगिक  समानता, शिक्षा, स्वास्थ, भ्रष्टाचार,खाद्य सुरक्षा जैसे महत्वपूर्ण मुद्दे उठाये गए थे। ये यात्रा देश के चार कोनो से से शुरू हो कर लगभग 11 हजार किलोमीटर का सफ़र तय करते हुए दिल्ली जुटी थी। इस यात्रा में  50 हजार से अधिक की संख्या में लोग थे जिसे किसी भी सियासी जलसे के लिहाज से कम नहीं कही जा सकता। दी हिन्दू को छोड़ कर किसी भी समाचार माध्यम ने इस राजनैतिक कार्यक्रम को कवर करने की जहमत नहीं उठाई। दी हिन्दू में ये खबर अंदरूनी पृष्ठों में जगह इस लिए पा गई क्योंकि इसका एक बड़ा पाठक वर्ग वामपंथी रुझानो वाला है। ऐसे में ये कवरेज विश्वसनीयता  का तकाजा भी थी। वामपंथ की न्यूज़ वैल्यू  इतनी कम होने का कारण मीडिया के स्वमित्व की संरचना है।

एक प्रतिष्ठित दैनिक में काम करने वाला मित्र बताता है की वामपंथी दलों की रिलीज बिना पढ़े ही कूड़ेदान में डाल दी जाती है। वामपंथ की नकारात्मक छवि का निर्माण करने वाली खबरों को खास तव्वजो दी जाती है। मसलन सीपीआई (माले) के कार्यकर्ताओं और पुलिस के बीच हुई झड़प को आई बी एन 7 ने " माले कार्यकर्ताओं ने काटा बवाल "  के नाम से पेश किया। ऐसा ही हाल में हुई आम हड़ताल में हुआ जब नोएडा की हिंसक घटनाए आम हड़ताल से ज्यादा छाई रही। अक्सर मजदूरों की हड़तालो को  जन- जीवन अस्त-व्यस्त करने वाली बताया जाता हैं। मीडिया का यह दोगला चरित्र दरअसल अपने हितो की रक्षा की कवायद है। पर यहाँ एक बात साफ हो जाती है कि  अभिव्यक्ति  के आज़ादी का तर्क असल में किसके उल्लू सीधे कर रहा है। क्या यह उन लोगो के हित में नहीं है जिनके हित सेंशरशिप से साधे जा रहे थे?


विनय  स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
इनसे vinaysultan88@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है 

प्रतिलिपियों की भीड़ में एक मौलिक कॉमरेड की स्मृति

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-प्रणय कृष्ण

आज चंद्रशेखर की शहादत दिवस है। 31 मार्च 1997 को सिवान में आरजेडी सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन के गुंडो ने चंद्रशेखर और उनके एक साथी की गोली मारकर हत्या कर दी थी। कॉ चंद्रशेखर को याद करते हुए प्रणय कृष्ण का एक संस्मरण हम यहाँ समकालीन जनमत से साभार दे रहे हैं ...
-संपादक

प्रणय कृष्ण 

"...चंदू के भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।..."

प्रतिलिपियों से भरी इस दुनिया में चंदू मौलिक होने की जिद के साथ अड़े रहे। प्रथमा कहती थी, ” वह रेयर आदमी हैं।” 91-92 में जेएनयू में हमारी तिकड़ी बन गई थी। राजनीति, कविता, संगीत, आवेग और रहन-सहन- सभी में हम एक से थे। हमारा नारा था,” पोयट्री, पैशन एंड पालिटिक्स”। चंदू इस नारे के सबसे ज्यादा करीब थे। समय, परिस्थिति और मौत ने हम तीनों को अलग-अलग ठिकाने लगाया, लेकिन तब तक हम एक-दूसरे के भीतर जीने लगे थे। चंदू कुछ इस तरह जिये कि हमारी कसौटी बनते चले गये। बहुत कुछ स्वाभिमान, ईमान, हिम्मत और मौलिकता और कल्पना- जिसे हम जिंदगी की राह में खोते जाते हैं, चंदू उन सारी खोई चीजों को हमें वापस दिलाते रहे।

इलाहाबाद,फ़रवरी 1997 की एक सुबह। कॉलबेल सुनकर दरवाजा खोला तो देखा कि चंदू सामने खड़े हैं। वही चौकाने वाली हरकत। बिना बताये चले जाना और बिना बताये, सूचना दिये अचानक सामने खड़े हो जाना। शहीद हो जाने के बाद भी चंदू ने अपनी आदत छोड़ी नहीं है। चंदू हर रोज हमारी चेतना के थकने का इंतजार करते हैं और अवचेतन में खिड़की से दाखिल हो जाते हैं। हमारा अवचेतन जाने कितने लोगों की मौत हमें बारी-बारी दिखाता है और चंदू को जिंदा रखता है। चेतना का दबाव है कि चंदू अब नहीं हैं, अवचेतन नहीं मानता और दूसरों की मौत से उसकी क्षतिपूर्ति कर देता है। यह सपना है या यथार्थ पता नहीं चलता, जब तक कि चेतन-अवचेतन की इस लड़ाई में नींद की दीवार भरभराकर गिर नहीं जाती।

हमारीतिकड़ी में राजनीति, कविता और प्रेम के सबसे कठिनतम समयों में अनेक समयों पर अनेक परीक्षाओं में से गुजरते हुये अपनी अस्मिता पाई थी, चंदू जिसमें सबसे पवित्र लेकिन सबसे निष्कवच होकर निकले थे।
चंदू का व्यक्तित्व गहरी पीड़ा और आंतरिक ओज से बना था जिसमें एक नायकत्व था। उनकी सबसे गहरी पहचान दो तरह के लोग ही कर सकते थे- एक वे जो राजनीतिक अंतर्दृष्टि रखते हैं और दूसरे वह स्त्री जो उन्हें प्यार कर सकती थी।

खूबसूरततो वे थे ही, लेकिन आंखे सबसे ज्यादा संवाद करती थीं। जिस तरह कोई शिशु किसी रंगीन वस्तु को देखता है और उसकी चेतना की सारी तहों में वह रंग घुलता चला जाता है, चंदू उसी तरह किसी व्यक्तित्व को अपने भीतर तक आने देते थे, इतना कि वह उसमें कैद हो जाये। कहते हैं कि मौत के बाद भी वे खूबसूरत आंखें खुली थीं। वे सोते भी थे तो आंखें आधी-खुली रहती थीं जिनमें जिंदगी की प्यास चमकती थी। फ़िल्में देखते थे तो लंबे समय तक उसमें डूबकर बातें करके रहते, उपन्यास पढ़ते तो कई दिनों तक उसकी चर्चा करते।

जिस दिन उन्होंने जेएनयू छोड़ा, उसी दिन आंध्रप्रदेश के टी. श्रीनिवास राव ने मुझे एक पत्र में लिखा,” आज चंद्रशेखर भी चले गये। कैंपस में मैं नितांत अकेला पड़ गया हूं।” श्रीनिवास राव एक दलित भूमिहीन परिवार से आते हैं। चंद्रशेखर के नेतृत्व में हमने उनके संदर्भ में एकेडमिक काउंसिल में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की थी। राव का एम.ए. में 55 प्रतिशत अंक नहीं आ पाया था जबकि एम.फिल., पी.एच.डी. में उनका रिकार्ड शानदार था। उनका कहना था कि पारिवारिक परिवेश के चलते एम.ए. में 55 प्रतिशत अंक नहीं पा सके जो यूजीसी की परीक्षा और प्राध्यापन के लिये आवश्यक शर्त है अत: पीएचडी में होते हुये भी उन्हें एम.ए. का कोर्स फिर से करने दिया जाए।

नियमोंसे छूट देते हुये और प्रशासन की तमाम हठधर्मिता के बावजूद यह लडा़ई हम जीत गये। मुझे याद है कि जब बिहार की स्थिति के मद्देनजर जे.एन.यू. की प्रवेश परीक्षा के केंद्र को बिहार से हटा देने का मुद्दा एकेडमिक कौंसिल में आया तो वे फ़ट पड़े और मजबूरन यह प्रस्ताव प्रशासन को वापस लेना पड़ा। निजीकरण के खिलाफ़ जे.एन.यू के कैंपस में तबका सबसे बड़ा और जीत हासिल करने वाला आंदोलन उनके नेतृत्व में छेड़ा गया। यह पूरे मुल्क में शिक्षा के निजीकरण के खिलाफ़ पहला बड़ा और सफ़ल आंदोलन था। शासक वर्गों की चाल थी कि यदि जे.एन.यू का निजीकरण कर दिया जाये तो उसे मॉडल के रूप में पेश करके पूरे भारत के सभी विश्वविद्यालयों का निजीकरण कर दिया जाये। चंद्र्शेखर छात्रसंघ में अकेले पड़ गये थे। तमाम तरह की शाक्तियां इस आसन्न आंदोलन को रोकने के लिये जुट पड़ीं थीं। लेकिन अप्रैल-मई 1995 में उनका नायकत्व चमक उठा था। इस आंदोलन के दौरान अगर उनके भाषणों को अगर रिकार्ड किया गया होता तो वह हमारी धरोहर होते। मुझे नहीं लगता कि क्लासिकीय ज्ञान, सामान्य जनता के अनुभवों, अचूक मारक क्षमता और उदबोधनात्मक आदर्शवाद से युक्त भाषण जिंदगी में फिर कभी सुन पाउंगा। वे जब फ़ार्म में होते तो अंतर्भाव की गहराइयों से बोलते थे। अंग्रेजी में वे सबसे अच्छा बोलते और लिखते थे, हालांकि हिंदी और भोजपुरी में उनका अधिकार किसी से कम नहीं था।

जे.एन.यू.के भीतर गरीब, पिछड़े इलाकों से आने वाले उत्पीड़ित वर्गों के छात्र-छात्रायें कैसे अधिकाधिक संख्या में पढ़ने आ सकें, यह उनकी चिंता का मुख्य विषय था। 1993-94 की हमारी यूनियन ने पिछड़े इलाकों, पिछड़े छात्रों और छात्रों के प्रवेश के लिये अतिरिक्त डेप्रिवेशन प्वाइंट्स पाने की मुहिम चलाई। इसका ड्राफ़्ट चंद्रशेखर और प्रथमा ने तैयार किया था, मेरा काम था बस उसी ड्राफ़्ट के आधार पर हरेक फोरम में बहस करना। 94-95  में जब चंद्रशेखर अध्यक्ष बने तो डेप्रिवेशन पाइंटस 10 साल बाद फिर से जे.एन.यू. में लागू हुआ।

चंद्र्शेखरबेहद धीरज के साथ स्थितियों को देखते, लेकिन पानी नाक के ऊपर जाते देख वे बारूद की तरह फ़ट पड़्ते। अनेक ऐसे अवसरों की याद हमारे पास सुरक्षित है। साथ-साथ काम करते हुये चंद्रशेखर और हमारे बीच काम का बंटवारा इतना सहज और स्वाभाविक था कि हमें एक-दूसरे से राय नहीं करनी पड़ती थी। हमारे बीच बहुत ही खामोश बातचीत चला करती। ऐसी आपसी समझदारी जीवन में किसी और के साथ शायद ही विकसित कर पाऊं।

रातमें चुपचाप अपनी चादर सोते हुये दूसरे साथी को ओढ़ा देना, पैसा न होने पर मेस से अपना खाना लाकर मेहमान को खिला देना, खाना न खाये होने पर भी भूख सहन कर जाना और किसी से कुछ न कहना उनकी ऐसी आदतें थीं जिनके कारण उनकों मेरी निर्मम आलोचना का शिकार भी होना पड़ता था। दूसरों के स्वाभिमान के लिये पूरी भीड़ में अकेले लड़ने के लिये तैयार हो जाने के कई मंजर मैंने अपनी आंखों से देखे हैं। एक बार एक बूढ़ा आदमी दौड़कर बस पकड़ना चाह रहा था और कंडक्टर ने बस नहीं रोकी। चंदू कंडक्टर से लड़ पड़े। कंडक्टर और ड्राइवर ने लोहे की छड़ें निकाल लीं और सांसदों के बंगले पर खड़े सुरक्षाकर्मियों को बुला लिया। तभी बस में चढ़े जे.एन.यू. के छात्र भी उतर पड़े और कंडक्टर, ड्राइवर और सुरक्षा कर्मियों को पीछे हटना पड़ा। चंदू सब कुछ दांव पर लगा देने वाले व्यक्ति थे। जीवन का चाहे कोई भी क्षेत्र हो- प्रेम हो, राजनीति हो या युद्ध हो। उन्होंने अपने लिये कुछ बचाकर नहीं रखा। वे निष्कवच थे, इसीलिये मेरे जैसों को उन्हें लेकर बहुत चिंता रहती।

चंदूके भीतर एक क्रांतिकारी जिद्दीपन था। जब किसी जुलूस में कम लोग जुटते तो मैं हताश होकर बैठ जाता। लेकिन चंदू अड़ जाते। उनका तर्क रहता,” चाहे जितने कम लोग हों, जुलूस निकलेगा।” और अपने तेज बेधक नारों से वे माहौल गुंजा देते। सीवान जाने को लेकर मेरा उनसे मतभेद था। मेरा मानना था कि वे पटना में रहकर युवा मोर्चा संभाले रखें। वे प्राय: मेरी बात का प्रतिवाद नहीं करते थे। लेकिन अगर वे चुप रह जाते तो मैं समझ लेता यह चुप्पी लोहे जैसी है और इस इस्पाती जिद्द को डिगा पाना असंभव है।

दिल्लीके बुद्धिजीवियों, नागरिक अधिकार मंचों, अध्यापकों और छात्रों, पत्रकारों के साथ उनका गहरा रिश्ता रहता आया। वे बड़े से बड़े बुद्धिजीवी से लेकर रिक्शावाले, डीटीसी के कर्मचारियों और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों को समान रूप से अपनी राजनीति समझा ले जाते थे। महिलाऒं में वे प्राय: लोकप्रिय थे क्योंकि जहां भी जाते खाना बनाने से लेकर, सफ़ाई करने तक और बतरस में उनके साथ घुलमिल जाते। छोटे बच्चों के साथ उनका संवाद सीधा और गहरा था।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में लगातार तीन साल तक छात्रसंघ में चुने जाकर उन्होंने कीर्तिमान बनाया था, लेकिन साथ ही उन्होंने वहां के कर्मचारियों और शिक्षकों के साझे मोर्चे को भी बेहद पुख्ता किया। छात्रसंघ में काम करने वाले टाइपिस्ट रावत जी बताते हैं कि जे.एन.यू. से वे जिस दिन सीवान गये, उससे पहले की पूरी रात उन्होंने रावतजी के घर बिताई।

फिल्मसंस्थान, पुणे के छात्रसंघ के अध्यक्ष शम्मी नंदा चंद्रशेखर के गहरे दोस्त थे। उनके साथ युवा फ़िल्मकारों का एक पूरा दस्ता अंतर्राष्ट्रीय फ़िल्म समारोह के अवसर पर चंद्रशेखर के कमरे में आकर टिका हुआ था। रात-रात भर फ़िल्मों के बारे में चर्चा होती, फिल्म संस्थान के व्यवसायीकरण के खिलाफ़ पर्चे लिखे जाते और दिन में चंद्रशेखर इन युवा फिल्मकारों के साथ सेमिनारों में हस्तक्षेप करते। फिल्म संस्थान के युवा साथी चंद्रशेखर के की इस शहादत पर मर्माहत थे और सीवान जाकर उन पर फ़िल्म बनाकर अपने साथी को श्रद्धांजलि देना चाहते थे। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के छात्र जब 11 अप्रैल के संसद मार्च में आये तो उन्होंने याद किया कि चंद्रशेखर ने किस तरह ए.एम.यू. के छात्रों पर गोली चलने के बाद उनके आंदोलन का राजधानी में नेतृत्व किया। जे.एन.यू. छात्रसंघ को उन्होंने देशभर यहां तक कि देश से बाहर चलने वाले जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ दिया। चाहे वर्मा का लोकतंत्र बहाली आंदोलन हो, चाहे पूर्वोत्तर राज्यों में जातीय हिंसा के खिलाफ़ बना शांति कमेटियां या टाडा विरोधी समितियां, नर्मदा आंदोलन हो या सुन्दर लाल बहुगुणा का टेहरी आंदोलन हो- चंदशेखर उन सारे आंदोलनों के अनिवार्य अंग थे। उन्होंने बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान और उत्तर-पूर्व प्रांत के सुदूर क्षेत्रों की यात्रायें भी कीं। मुजफ़्फ़रनगर में पहाड़ी महिलाऒं पर नृशंस अत्याचार के खिलाफ़ चंदू ने तथ्यान्वेषण समिति का नेतृत्व किया।

निजीकरणको अपने विश्वविद्यालय में शिकस्त देने के बाद उन्होंने अलीगढ़ विश्वविद्यालय में हजारों छात्रों की सभा को संबोधित किया। बीएचयू में उन्होंने इसे मुद्दा बनाया और छात्रों को आगाह किया और फिल्म संस्थान, पुणे में तो एक पूरा आंदोलन ही खड़ा करवा देने में सफ़लता पाई। आजाद हिंदुस्तान के किसी एक छात्र नेता ने छात्र आदोलन को ही सारे जनतांत्रिक आंदोलनों से जोड़ने का इतना व्यापक कार्यभार अगर किया तो सिर्फ़ चंद्रशेखर ने।

यहअतिशयोक्ति नहीं, सच है। 1995 में दक्षिणी कोरिया में आयोजित संयुक्त युवा सम्मेलन में वे भारत का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। जब वे अमेरिकी साम्राज्यवाद के खिलाफ़ राजनीतिक प्रस्ताव लाये तो उन्हें यह प्रस्ताव सदन के सामने नहीं रखने दिया गया। समय की कमी का बहाना बनाया गया। चंद्रेशेखर ने वहीं आस्ट्रेलिया, पाकिस्तान, बांगलादेश और दूसरे तीसरी दुनिया के देशों के प्रतिनिधियों का एक ब्लाक बनाया और सम्मेलन का बहिष्कार कर दिया। इसके बाद वे कोरियाई एकीकरण और भ्रष्टाचार के खिलाफ़ चल रहे जबर्दस्त कम्युनिस्ट छात्र आंदोलन के भूमिगत नेताऒं से मिले और सियोल में बीस हजार छात्रों की एक रैली को संबोधित किया। यह एक खतरनाक काम था जिसे उन्होंने वापस डिपोर्ट कर दिये जाने का खतरा उठाकर भी अंजाम दिया।

चंद्रशेखरएक विराट, आधुनिक छात्र आंदोलन की नींव तैयार करने के बाद इन सारे अनुभवों की पूंजी लेकर सीवान गये। उनका सपना था कि उत्तर-पश्चिम बिहार में चल रहे किसान आंदोलन को पूर्वी उत्तर-प्रदेश में भी फ़ैलाया जाये और शहरी मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी, छात्रों और मजदूरों की व्यापक गोलबंदी करते हुये नागरिक समाज के शक्ति संतुलन को निर्णायक क्रांतिकारी मोड़ दिया जाये। पट्ना, दिल्ली और दूसरे तमाम जगहों के प्रबुद्ध लोगों को उन्होंने सीवान आने का न्योता दे रखा था। वे इस पूरे क्षेत्र में क्रांतिकारी जनवाद का एक माड्ल विकसित करना चाहते थे जिसे भारत के दूसरे हिस्सों में उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया जा सके।

चंद्रशेखरने उत्कृष्ट कवितायें और कहानियां भी लिखीं। उनके अंग्रेजी में लिखे अनेक पत्र साहित्य की धरोहर हैं। वे फिल्मों में गहरी दिलचस्पी रखते थे। कुरोसावा, ब्रेसो, सत्यजित राय और न जाने कितने ही फिल्मकारों की वे च्रर्चा करते जिनके बारे में हम बहुत ही कम जानते थे। वे बिहार के किसान आंदोलन पर एक फिल्म बनाना चाहते थे जिसको उनकी अनुपस्थिति में उनके मित्र अरविन्द दास को अंजाम देना था। भिखारी ठाकुर पर पायनियर में उन्होंने अपना अंतिम लेख लिखा था जिसे प्रसिद्ध आलोचक मैनेजर पांडेय इस विषय पर लिखा गया अब तक का सर्वश्रेष्ठ बताते हैं।

उनकीडायरी में निश्चय ही उनकी कोमल संवेदनाओं के अनेक चित्र सुरक्षित होंगे। एक मित्र को लिखे अपने पत्र में वे पार्टी से निकाले गये एक साथी के बारे में बड़ी ममता से लिखते हैं कि उन्हें संभालकर रखने, उन्हें भौतिक और मानसिक सहारा देने की जरूरत है। इस साथी के गौरवपूर्ण संघर्षों की याद दिलाते हुये वे कहते हैं कि’ बनने में बहुत समय लगता है, टूटने में बहुत कम’। इस एक पत्र में साथियों के प्रति उनकी मर्मस्पर्शी चिंता छलक पड़ती है।

मैंने कई बार चंद्रशेखर को विचलित और बेहद दुखी देखा है। ऐसा ही एक समय था 1992 में बाबरी मस्जिद का ध्वंस। खुद बुरी तरह हिल जाने के बाद भी वे दिन रात उन छात्रों के कमरों में जाते जिनके घर दंगा पीड़ित इलाकों में पड़ते थे। उन्हें हिम्मत देते और फिर राजनीतिक लड़ाई में जुट जाते। कहा जाये तो जब तक वे रहे उनके नेतृत्व में धर्मनिरेपेक्षता का झंडा लहराता रहा। सांप्रदायिक फ़ासीवादी ताकतों को जे.एन.यू. में उन्होंने बुरी तरह हराया और देश भर में इसके खिलाफ़ लामबंदी करते रहे। छात्रसंघ में न रहने के बावजूद इसी साल आडवाणी को उन्होंने जे.एन.यू. में घुसने नहीं दिया।

चंदू का हास्टल का कमरा अनेक ऐसे समाज छात्रों और समाज से विद्रोह करने वाले, विरल संवेदनाओं वाले लोगों की आश्रयस्थली था जो कहीं और एड्जस्ट नहीं कर पाते थे। मेस बिल न चुका पाने के कारण छात्रसंघ का अध्यक्ष होने के बावजूद उनके कमरे में प्रशासन का ताला लग जाता। उनके लिये तो जे.एन.यू. का हर कमरा खुलता रहता लेकिन अपने आश्रितों के लिये वे विशेष चिंतित रहते। एक बार मेस बिल जमा करने के लिये उन्हें 1600 रुपये इकट्ठा करके दिये गये। अगले दिन पता चला कि कमरा अभी नहीं खुला। चंदू ने बड़ी मासूमियत से बताया कि 800 रुपये उन्होंने किसी दूसरे लड़के को दे दिये क्योंकि उसे ज्यादा जरूरत थी।

चंदू को उनकी मां से अलग समझा ही नहीं जा सकता। सैनिक स्कूल, तिलैया और फ़िर नेशनल डिफ़ेन्स एकेडमी, पुणे, फिर पटना और फिर जे.एन.यू.। इस लंबे सफ़र में पिछले 15-16 सालों से मां-बेटे एक दूसरे को खोजते रहे और अंतत: मां की गोद चंदू को शहादत के साथ ही मिली। मां जब कभी 360, झेलम ए.एन.यू.में आकर रहतीं तो पूरे फ़्लोर के सभी लड़कों की मां की तरह रहतीं। चंदू से गुस्सा हुयीं तो अयूब या विनय गुप्ता के कमरे में जाकर सो गयीं। फिर संदू उन्हें मनाते और वे भी डांटने-फ़टकारने के बाद बेटे की लापरवाही माफ़ कर देंतीं। एक बार उसी फ़्लोर पर दो छात्रों में जमकर लड़ाई हो गयी। मां ने तुरन्त हस्तक्षेप किया। बच्चों को डांट-फटकार और सांत्वना की घुट्टी पिलाकर झगड़ा खतम करा दिया।

1992की ही बात है। सीवान से खबर आयी कि मां को कुत्ते ने काट लिया है। चंद्रशेखर बुरी तरह विचलित हो गये। मैं उन्हें सीवान के लिये गाड़ी पकड़ाने दिल्ली रेलवे स्टेशन गया लेकिन उनकी हालत देखकर मुझसे रहा नहीं गया और मैं उनके साथ गाड़ी में सवार हो गया। मैं गोरखपुर उतरा और उनसे कहा कि वे सीवान जाकर तुरन्त फोन करें। शाम को उनका फोन आया कि मां ठीक-ठाक हैं तब जान में जान आई।

चंद्रशेखरकी सबसे प्रिय किताब थी लेनिन की पुस्तक ‘क्या करें’। नेरुदा के संस्मरण भी उन्हें बेहद प्रिय थे। अकसर अपने भाषणों में वे पाश की प्रसिद्ध पंक्ति दोहराते थे- ‘सबसे खतरनाक है हमारे सपनों का मर जाना।’ 1993 में जब हम जे.एन.यू. छात्रसंघ का चुनाव लड़ रहे थे तो सवाल-जवाब के सत्र में किसी ने उनसे पूछा,” क्या आप किसी व्यक्तिगत मह्त्वाकांक्षा के लिये चुनाव लड़ रहे हैं?” उनका जवाब भूलता नहीं। उन्होंने कहा,” हां, मेरी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा है- भगतसिंह की तरह जीवन, चेग्वेआरा की तरह मौत”। चंदू ने अपना वायदा पूरा किया।

चंदूकी शहादत का मूल्यांकल अभी बाकी है। उसके निहितार्थों की समीक्षा अभी बाकी है। पीढ़ियां इस शहादत का मूल्यांकन करेंगी। लेकिन आज जो बात तय है वह यह कि हमारे युग की एक बड़ी घटना है यह। इस एक शहादत ने कितने नये रास्ते खोल दिये अभी तक इसका मूल्यांकन नहीं हुआ है। लेकिन दिल्ली नौजवानों के नारों से गूंज रही है- चंद्रशेखर, भगतसिंह! वी शैल फ़ाइट, वी शैल विन।

रूढ़िवाद का पलटवार!

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सत्येंद्र रंजन
                                                                      -सत्येंद्र रंज

"...लेकिन बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। जिन लोगों ने आज स्त्रियों की हिफाजत का बीड़ा उठाया है, वे भी महिलाओं को -और प्रकारातंर में पूरे समाज को- कोई कम नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं। उन पर पितृ-संरक्षण देने का नजरिया इतना हावी है कि उन्हें इसका आभास भी नहीं होगा कि वे जो करना चाहते हैं, उनके कदमों का असल में उलटा असर होगा।..."

निर्भया बलात्कार कांड के खिलाफ जन प्रतिरोध से समाज में खुलेपन और स्त्री अधिकारों के प्रति नई जागरूकता की जो संभावना बनती दिखी, ऐसा लगता है कि उस पर रूढ़िवाद ने पलटवार किया है। पितृसत्तात्मक उसूलों में ढली मानसिकता आसानी से स्त्रियों पर अपने नियंत्रण और अपने संरक्षण की दीवारों से बाहर उन्हें निकलने देने को तैयार नहीं है। वरना, यह विडंबना ही है कि जो मुद्दा बलात्कार और यौन हिंसा के खिलाफ कानून बनाने और समाज में महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षित माहौल बनाने से जुड़ा है, उसमें बहस का केंद्र यह बन गया कि लड़कियों के यौन संबंध बनाने की सहमति देने की सही उम्र क्या होनी चाहिए! बलात्कार विरोधी प्रस्तावित कानून में अगर यह उम्र 16 वर्ष रखने का प्रावधान किया गया, तो उसका सिर्फ इतना मतलब था कि उस उम्र में होने वाली भूल सख्त सज़ा का कारण न बन जाए, जिससे कि दो नौजवानों की जिंदगी तबाह हो सकती है। लेकिन इसे इस रूप में पेश किया गया है, जैसे सरकार 16 वर्ष के किशोरों को यौन संबंध बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। 


छत्तीसगढ़के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा कि इससे देश का सामाजिक एवं सांस्कृतिक तानाबाना ही नष्ट हो जाएगा। ...और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को इसमें बाल विवाह को प्रोत्साहन नजर आया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक पार्टी के मुख्यमंत्री की राय तो फिर भी समझ में आती है, लेकिन यौन संबंध वैवाहिक रिश्ते के दायरे में ही रहने चाहिए, इस रूढ़िवादी मान्यता पर एक कम्युनिस्ट पार्टी अगर जोर दे, तो उससे समझा जा सकता है कि समाज में सामंती उसूल किस हद तक जड़ें जमाए हुए हैं।

डॉ.राम मनोहर लोहिया के सप्त-क्रांति के विचार में नर-नारी समता को प्रमुख स्थान प्राप्त है। लेकिन उनके विचारों पर चलने का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी को आज भय है कि अगर प्रस्तावित कानून में (स्त्री का) पीछा करने या घूरने तथा अनुचित ढंग से स्त्री के निजी एवं अंतरंग क्षणों को देखकर सुख लेने की प्रवृत्ति अपराध बना दी गई, तो उसका पुरुषों को फंसाने के लिए दुरुपयोग हो सकता है। सपा नेताओं से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या कोई भी ऐसा आपराधिक प्रावधान है, जिसका दुरुपयोग ना हो सकता हो? लेकिन जब सामाजिक मानसिकता में स्त्री को घूरना, उसका पीछा करना, उसके शरीर की नुमाइश और चरम स्थितियों में बलात्कार को पुरुष अपना हक समझते हों, तो यह स्वाभाविक ही है कि ऐसी क्रियाओं से महिलाओं को कानूनी संरक्षण देने की कोशिशों पर कई तरह के और कई कोणों से हमले किए जाएं। रुढ़िवाद का हमला कितना सशक्त है, यह इसी से साफ है कि आखिरकार सरकार को सहमति की उम्र और पीछा करने या घूरने संबंधी प्रावधानों पर कदम वापस खींचने पड़े हैं।

लेकिन बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। जिन लोगों ने आज स्त्रियों की हिफाजत का बीड़ा उठाया है, वे भी महिलाओं को -और प्रकारातंर में पूरे समाज को- कोई कम नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं। उन पर पितृ-संरक्षण देने का नजरिया इतना हावी है कि उन्हें इसका आभास भी नहीं होगा कि वे जो करना चाहते हैं, उनके कदमों का असल में उलटा असर होगा। 28 फरवरी को अगले वित्त वर्ष का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने महिलाओं के लिए अलग बैंक बनाने का एलान किया। आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हरियाणा के सोनीपत जिले में सिर्फ महिलाओं के लिए बने मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन कर आईं। अगर यह प्रवृत्ति आगे बढ़ी तो उसका अगला मुकाम सह-शिक्षा को खत्म कर लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूलों तक बात पहुंच सकती है! और फिर यह दीवार घरों, परिवारों और पूरे समाज में पुरुष और स्त्री के लिए अलग-अलग जगह और अलग-अलग दायरों को तय कर सकती है। लेकिन क्या समाज के आधुनिकीकरण की शुरुआत इसी दीवार को तोड़ने की कोशिशों से नहीं हुई थी? क्या नारी स्वतंत्रता का यह बेहद अहम मुद्दा नहीं है कि कैसे उनके लिए समाज में परंरागत रूप से तय अलग भूमिका को तोड़ा जाए और उन्हें पुरुषों के समकक्ष लाने एवं समान प्रतिस्पर्धा के लिए उनके तैयार होने की स्थितियां बनाई जाएं?

मनोविज्ञान की साधारण समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह जनता है कि समाज में स्त्री को लेकर पुरुष कुंठाओं का एक बड़ा कारण इन दोनों का अलगाव है। ऐसी दूरी सहज संबंधों के विकासक्रम को अवरुद्ध कर देती है, जिसका परिणाम खुद पुरुष के व्यक्तित्व में विकृतियों के रूप में उभरता है। स्त्री-द्वेष और महिलाओं पर हिंसा का कारण एक कारण उन पर नियंत्रण एवं अधिकार जताने का भाव होता है, लेकिन सहज संबंध ना बनने से पैदा होने वाली कुंठा ऐसी मनोविकृतियां पैदा करती है, जिसका परिणाम घूरने, पीछा करने और दर्शन-रति (वॉयरिज्म) के रूप में हो सकता है। इस लिहाज से वर्जनाओं को तोड़ना, रोक-टोक के चलन को कम से कम करना, शरीर संबंधी जुगुप्साओं को खत्म करना, यौन को लेकर अतिरंजित धारणाओं से मुक्ति पाना और युवक-युवतियों में सहज मेल-जोल को बढ़ावा देना स्वस्थ समाज के निर्माण की अनिवार्य शर्त है। अगर समाज में स्त्री को ऐसे स्व-निर्भर व्यक्ति के रूप में देखने का नजरिया बने, जो खुद अपनी पहचान से जीने में सक्षम हो, तो वहां उसके लिए सुरक्षा और स्वतंत्रता की स्थितियां स्वतः बन जाएंगी। यह न सिर्फ सैद्धांतिक रूप से सच है, बल्कि अनुभव-सिद्ध भी है।

इसीलिएयौन संबंधों को लेकर रूढ़िवादी मान्यताओं को पुनर्स्थापित करने तथा स्त्रियों के प्रति पितृ-संरक्षण का नजरिया अपनाने को चुनौती दिए जाने की जरूरत है। हाल के बलात्कार विरोधी प्रतिरोध की यही खासियत थी कि उसमें बड़ी संख्या में महिलाएं सड़क पर उतरीं और उन्होंने अपनी मांगों एवं नारों से पितृसत्ता को ललकारा। भारत में इतने जोरदार ढंग से महिलाओं ने पहले यह कभी नहीं जताया था कि उनके शरीर पर सिर्फ उनका हक है। यह बात सार्वजनिक दायरे में इतने स्पष्ट ढंग पहले कभी नहीं कही गई थी कि बलात्कार पीड़िता की जिंदगी अपवित्र नहीं होती और वह जिंदा लाश नहीं बन जाती, क्योंकि उसका व्यक्तित्व यौनांगों की शुचिता नहीं, बल्कि मन और मस्तिष्क से बनता है। 

इसविमर्श ने मध्यवर्गीय परिवारों और समाज में एक नए खुलेपन की संभावना पैदा की। लेकिन यह साफ है कि पितृसत्ता ने अब हमदर्द और संरक्षक बन कर स्त्रियों के लिए बनते सार्वजनिक दायरे (पब्लिक स्पेस) पर पलटवार किया है। आवरण महिलाओं की हिफाजत का है, लेकिन असल में कोशिश उस संस्कृति एवं सोच को बचाने की है, जिसकी वजह से महिलाएं घरों की चाहरदीवारी में कैद रहती आई हैं। इसलिए स्वस्थ एवं समतामूलक समाज के निर्माण का यह तकाजा है कि ऐसी कोशिशों को न सिर्फ बेनकाब, बल्कि नाकाम भी किया जाए। स्त्रियों ने सदियों से पुरुष प्रधान समाज और संस्कृति को बचाए रखने की कीमत अपनी स्वतंत्रता से चुकाई है। इतिहास के इस मोड़ पर, जब महिलाओं की आज की पीढ़ी ने लैंगिक वर्चस्व को अस्वीकार करने की तैयारी दिखाई है, तो इस बोझ से फिर से उन्हें दबाने के प्रयासों को उन्हें सिरे से ठुकरा देना चाहिए। आधुनिक भारत को ऐसी संस्कृति की जरूरत नहीं है, जिसकी बुनियाद स्त्रियों की यौन-शुचिता और शारीरिक पवित्रता की धारणाओं पर टिकी हो। ऐसी पुरातन संस्कृति को ठुकराने का संघर्ष लंबा और कठिन है, लेकिन हाल के प्रतिरोध ने यह दिखाया कि यह असंभव नहीं है। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
                                                                      satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है. 

क्रिकेट की आत्मा बचाने और बेचने का ‘टेस्ट’

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-नंदलाल शर्मा

नन्दलाल शर्मा

आईपीएल को बाजार के खिलाड़ियों ने कैसे उपयोग किया इसे भी दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। हममें से बहुतों को आईपीएल शुरू होने से पहले यह नहीं पता था कि एन. श्रीनिवासन की कंपनी का नाम इंडिया सीमेंट्स है। और इसका मालिक आगे चलकर भारतीय क्रिकेट पर कंट्रोल करेगा। इंडिया सीमेंट्स को जानने वाले कहते है कि यह विज्ञापनों को लेकर संकोची स्वभाव की कंपनी थीं। जिसे विज्ञापन बाजार में उतरने की सख्त जरुरत थीं। ताकि बाजार में अपने व्यापार को स्थापित कर सके।


टौदी मेमोरियल लेक्चर के दौरान बोलते हुए सुनील गावस्कर ने कहा, 'ग्लोबल स्तर पर क्रिकेट के प्रसार के लिए टी-20 और वनडे उचित फॉर्मेट है। लेकिन हमें क्रिकेट की आत्मा टेस्ट को बचाना होगा।' गावस्कर ने टेस्ट क्रिकेट को बचाने के लिए जो समाधान बताए उनमें सबसे प्रमुख था स्पोर्टिंग विकेट तैयार करना। लेकिन क्या स्पोर्टिंग विकेट तैयार करने से ही टेस्ट क्रिकेट की चुनौतियों का हल मिल जाएगा।


लिटिलमास्टर के इस बयान को गहराई से समझा जाए तो टेस्ट क्रिकेट के सामने खड़ी चुनौतियों के कई चेहरे उभर कर आते है और उनमें सबसे महत्वपूर्ण है 'बाजार का हाथकिसके साथ?' कहते हैकिसी भी वस्तु की कीमत मार्केट में उसकी मांग से तय होती है। ठीक यही चीज टेस्ट क्रिकेटवनडे और टी-20 पर भी लागू होती है। वर्तमान में शायद ही कोई ऐसा देश हो जहां भारत की तरह बाजार ने क्रिकेट को मार्केटिंगप्रमोशन और बेचने के लिए इस्तेमाल किया हो। गावस्कर अपने पूरे लेक्चर के दौरान टेस्टवनडे और टी-20 के इस आर्थिक पहलू पर नहीं बोलते। क्योंकि वह भी किसी ना किसी टेलीविजन चैनल के साथ जुड़ें हैं।

आइएटेस्टवनडे और टी-20 के इस आर्थिक पहलू को समझने के लिए वापस 1950 और 60 के दशक में चलते है। इसी दौरान दो महत्वपूर्ण अविष्कार हुएकार और टेलीविजन। इनमें से एक टेलीविजन ने क्रिकेट को देखनेदिखाने और चीजों को बेचने का तरीका बदल दिया। ध्यान देने वाली चीज यह है कि टेस्ट क्रिकेट के संदर्भ में मेमन ने 1992 में प्रकाशित अपनी किताब में लिखा है यही वह समय था जब पांच दिवसीय क्रिकेट अपने ही घर में क्राइसिस का सामना कर रहा था। टिकटों की बिक्री बहुत नीचे आ गिरी थी और स्टेडियम में ज्यादातर सीटें दर्शकों का इंतजार करती मिलती।

इसीसमय इंग्लैंड में स्थानीय क्लबों ने आर्थिक तंगी से निपटने और क्रिकेट के प्रति लोगों का रुझान बढ़ाने के लिए ओवरों की संख्या सुनिश्चित कर दी। यहां मैच के आखिर में रिजल्ट महत्वपूर्ण था। जो टेस्ट क्रिकेट में हमेशा संभव नहीं थामैचों के ड्रा होने की संभावना ज्यादा थी। ओवरों की तय संख्या ने हार और जीत की प्रतिशतता को एकाएक बढ़ा दिया। कैरी पैकर ने इसी फॉर्मूले को पकड़ा और इस खेल में परिवर्तन के बजाय क्रिकेट के कलेवर को ही बदल डाला। गौरतलब है कि 1970 में पैकर ने कहा था टीवी स्क्रीन के उस पार नई ऊर्जा और संभावना से भरपूर दर्शकों की एक विशाल संख्या बैठी हैजिसे इस खेल को बेचा जा सकता हैथोड़ा आकर्षक बनाकर।

ऑस्ट्रेलियाऔर इंग्लैंड (दो देशों के बीच खेली जाने वाली तत्कालीन श्रृंखलाओं में सबसे ज्यादा लोकप्रिय) के बीच खेली जानी वाली एशेज श्रृंखला के एक्सक्लूसिव प्रसारण के लिए पैकर को अनुमति नहीं मिली। लेकिन ज्यादातर क्रिकेटरों ने पैकर का समर्थन किया और इन्हीं बागी क्रिकेटरों के साथ पैकर ने वर्ल्ड सीरीज क्रिकेट (WSC) शुरू की। जो आगे चलकर वनडे क्रिकेट के रूप में सामने आया। वर्ल्ड क्रिकेट सीरीज ने केवल क्रिकेट को ही नहीं बेचा बल्कि पैकर ने चीजों को ऐसे मैनेज किया कि सारी वस्तुएं बेची जा सके। खिलाड़ियों को स्टार्स की तरह प्रोजेक्ट करनानाइट मैचों का आयोजनरंगीन कपड़ें और पिच के दोनों छोर पर कैमरा। क्रिकेट और टेलीविजन के इस कॉकटेल का जादुई असर हुआ। टेस्ट क्रिकेट को पीछे छोड़ बाजार के अनुकूल सीमित ओवरों का क्रिकेट ही मुख्य खेल बन गया। 
   
पैकरके फॉर्मूले का अल्ट्रा मॉडर्न स्वरूप आईपीएल और बाकी देशों में खेली जा रही टी-20 लीग है। टी-20 लीगों के चलते इस खेल में लाभ और हानि के प्रतिशत का ग्राफ बहुत आकर्षक बन गया है। आज टेस्ट खेलने वाले ज्यादातर देशों के पास अपनी प्रीमियर लीग है। क्योंकि वे जानते है कि आईपीएल जैसी प्रतियोगिताएं दुधारू गाय जैसी है। जहां विज्ञापन के तमाम फॉर्मूले अपनाए जा सकते हैं। लेकिन यहीं देश टेस्ट क्रिकेट को बचाने के लिए कितने लालायित है। इसका सार्थक रूप में कोई उदाहरण नहीं मिलता। लेकिन पैसे के लिए आईपीएल जैसी लीगों में खेलने के लिए खिलाड़ियों ने अपने बोर्ड से अब भी पंगा लिया है।

आईपीएलको बाजार के खिलाड़ियों ने कैसे उपयोग किया इसे भी दो उदाहरणों से समझा जा सकता है। हममें से बहुतों को आईपीएल शुरू होने से पहले यह नहीं पता था कि एन. श्रीनिवासन की कंपनी का नाम इंडिया सीमेंट्स है। और इसका मालिक आगे चलकर भारतीय क्रिकेट पर कंट्रोल करेगा। इंडिया सीमेंट्स को जानने वाले कहते है कि यह विज्ञापनों को लेकर संकोची स्वभाव की कंपनी थीं। जिसे विज्ञापन बाजार में उतरने की सख्त जरुरत थीं। ताकि बाजार में अपने व्यापार को स्थापित कर सके।

अपनी इस योजना को लागू करने के लिए इंडिया सीमेंट्स ने आईपीएल के पहले संस्करण में चेन्नई सुपर किंग्स नाम की फ्रेंचाइजी के तहत महेन्द्र सिंह धोनी (लगभग 6 करोड़) को 1.5 मिलियन में खरीद अपने प्रचार अभियान को गति दी। मजेदार बात ये है कि श्रीनिवासन ने इसी दौरान कहा था इंडिया सीमेंट्स अपनी आईपीएल टीम को कॉलिंग कार्ड की तरह इस्तेमाल करेगा। टीम की सफलता और लोकप्रियता को देखते हुए इंडिया सीमेंट्स ने सुपरकिंग्स नाम से अपने ब्रैंड को बाजार में उतारा और इसकी पैकेजिंग को टीम की जर्सी का रंग दिया। कहा जा सकता है इंडिया सीमेंट्स ने आईपीएल को मार्केटिंग व्हीकल के रूप में बखूबी इस्तेमाल किया।

श्रीनिवासनऔर इंडिया सीमेंट्स से दो कदम आगे बढ़ते हुए रिचर्ड ब्रैसनन और डोनाल्ड क्रैम्प को कॉपी करने वाले विजय माल्या ने तो आईपीएल के शुरूआत में ही यह स्पष्ट कर दिया कि रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु उनके बिजनेस को प्रमोट करने का जरिया है। चाहे वह उनकी एयरलाइंस हो या शराब। आईपीएल के मैचों पर नजर रखने वाले जानते है कि साइट स्क्रीन से लेकर मैदान का हर कोना विज्ञापनों से पटा होता है। चीयर गर्ल्स और ग्लैमर का कॉकटेल यहां भी है। क्रिकेट स्टार्स के साथ फिल्म स्टार्स की उपस्थिति स्टेडियम में बैठे लोगों को क्रेजी बना रही है। धोनी और हरभजन जैसे खिलाड़ी मेक इट लॉर्ज कहते हुए एक दूसरे चैंलेज कर रहे है। मैदान पर ड्रामाएक्शन और रिजल्ट सब कुछ है।

ऐसे में जब गावस्कर कहते है कि टी-20 और वनडेक्रिकेट के ग्लोबलाइजेशन के लिए उचित है। तब यह समझना मुश्किल हो जाता है एक आम व्यक्ति (जिसके बारे में कहा जाता है कि वह क्रिकेट मनोरंजन के लिए देखता है) जो टी-20 और वनडे के जरिए ग्लोबलाइज्ड हो रहे क्रिकेट का आदी हो चुका है। जिसे लाइव ड्रामा और एक्शन के साथ रिजल्ट चाहिए। वह थकाऊ टेस्ट क्रिकेट क्यों देखेगा। जब उसे रिजल्ट के लिए पांचवें दिन तक इंतजार करना पड़े। क्या स्पोर्टिंग विकेट बना देने से टेस्ट क्रिकेट की चुनौतियों का हल हो जाएगा? अफसोस गावस्कर सब कुछ जानते हुए भी अनजान बन रहे है। क्योंकि ज्यादातर देशों ने क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने का ठेका मल्टीनेशनल कंपनियों और बाजार को दे रखा है। जो अपना टेस्ट प्रॉफिट प्रतिशत के आधार पर चुनता है ना कि क्रिकेट की आत्मा को बचाने के लिए..।   

नंदलाल पत्रकार हैं 
फिलहाल जयपुर में एक हिंदी दैनिक में काम. 
संपर्क का पता - 



काश, काटजू कम बोलते!

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...काटजू साहब की चिंता के दायरे में सिर्फ प्रेस नहीं है। उन्हें देश को बताना है कि भारत में कितने मूर्ख हैं, हमारी राजनीतिक व्यवस्था किस तरह के लोगों के वोट से तय होती है, अतीत में भारत कितना महान था, गंगा-जमुनी तहजीब की क्या खासियत है, नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल का सच क्या है, अरुण जेटली विपक्ष के नेता होने लायक हैं या नहीं... और फिर उन्हें सेलेब्रिटी सजायाफ्ता अपराधियों को माफी दिलवाने का इनसानी फर्ज भी निभाना है।..."



स्टिस मार्कंडेय काटजू के भारतीय प्रेस परिषद का अध्यक्ष बनने से कुछ उम्मीदें जगीं तो उसकी पृष्ठभूमि थी। सुप्रीम कोर्ट का जज रहते हुए उन्होंने कई फैसले देते समय जो टिप्पणियां कीं, उनसे लोकतांत्रिक चेतना को बल मिला था। हालांकि एक मुस्लिम की दाढ़ी पर की गई टिप्पणी और एक फैसले में महिला के लिए कीप यानी रखैल शब्द के इस्तेमाल पर एतराज भी उठे, लेकिन विवाद उठने पर उन्होंने सुधार करने में देर नहीं लगाई। कोर्ट की अवमानना के मुद्दे पर तो उन्होंने जो वैचारिक हस्तक्षेप किया, वह अब भी प्रासंगिक है। इसलिए जब वे प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष बने और तुरंत मीडिया के विनियमन की बहस को आगे बढ़ाया, तो यह संभावना बनती दिखी कि अब ये बेहद जरूरी मसला गंभीरता से और ठोस रूप में राष्ट्रीय एजेंडे पर आएगा। मीडिया जगत में जारी बहसों से भी उसकी पृष्ठभूमि तैयार थी। ब्रिटेन में जस्टिस लॉर्ड ब्रायन हेनरी लेवसन समिति की रिपोर्ट के बाद यह मुद्दा राजनीतिक एजेंडे पर है। समिति की सिफारिशों को अमली जामा पहनाने की प्रक्रिया आगे बढ़ रही है। लेकिन भारत में यह मुद्दा कहीं आगे नहीं बढ़ सका है।

इसबीच काटजू जरूर उससे आगे बढ़ गए हैं। इतना अधिक कि जिन लोगों ने उनसे उम्मीद जोड़ी और उनके समर्थन में आगे आए थे, वे उनसे काफी पीछे छूट गए हैं। जाहिर यह हुआ है कि काटजू साहब की चिंता के दायरे में सिर्फ प्रेस नहीं है। उन्हें देश को बताना है कि भारत में कितने मूर्ख हैं, हमारी राजनीतिक व्यवस्था किस तरह के लोगों के वोट से तय होती है, अतीत में भारत कितना महान था, गंगा-जमुनी तहजीब की क्या खासियत है, नरेंद्र मोदी के विकास मॉडल का सच क्या है, अरुण जेटली विपक्ष के नेता होने लायक हैं या नहीं... और फिर उन्हें सेलेब्रिटी सजायाफ्ता अपराधियों को माफी दिलवाने का इनसानी फर्ज भी निभाना है। हां, इस बीच मीडिया जगत की यह चिंता उन्होंने जरूर की है कि पत्रकारिता में नौकरी पाने के लिए न्यूनतम योग्यता क्या हो, इस पर सुझाव देने के लिए एक समिति उन्होंने बना दी है। ये समिति बिना मीडिया घरानों की आंतरिक संरचना का ख्याल किए और बिना इस पर गौर किए कि आज देश में मीडिया के कारोबार का संदर्भ और परिप्रेक्ष्य क्या है, अपनी सिफारिशें पेश करेगी। उन सिफारिशों का क्या होगा- यह शायद समिति के सदस्यों और यहां तक कि जस्टिस काटजू को भी पता नहीं होगा।

बहरहाल, जिन दिनों मीडिया जस्टिस काटजू की चिंताओं में था, तब उन्होंने बताया था कि देव आनंद की मृत्यु की खबर लीड नहीं बननी चाहिए। सिनेमा और क्रिकेटरों की खबर छापने के लिए उन्होंने मीडियाकर्मियों को खूब फटकार लगाई थी। उसे यह सुनते हुए न्यूज डेस्क पर दशकों तक काम कर चुके पत्रकार (जिसमें इन पंक्तियों का लेखक भी शामिल है) आवाक थे। मनुष्य का जीवन और मनोविज्ञान जिन तर्कों और भावनाओं से चलता है, उस पर आधारित खबर की हमारी समझ गलत है- यह एक ऐसा व्यक्ति बता रहा था, जिसने शायद खुद कभी पत्रकारिता नहीं की हो। जिन लोगों ने ताउम्र अपनी रोजी-रोटी खबर के पेशे से कमाई है, उन्हें न्यूज सेन्स कानून के पेशे से आए व्यक्ति से सीखना पड़े, तो यह सचमुच दुर्भाग्यपूर्ण होगा। बहरहाल, सार्वजनिक जीवन में सबको अपने विचार रखने का हक है। जैसे पत्रकारों को न्यायिक फैसलों पर अपनी राय जताने का अधिकार है, जजों की संदर्भ से बाहर जाकर की गई टिप्पणियों पर एतराज करने हक है, वैसे ही किसी पूर्व जज- या किसी आम नागरिक को यह राय रखने का अधिकार है कि पत्रकारिता कैसे की जानी चाहिए। मगर जब यह राय प्रेस काउंसिल के अध्यक्ष पद पर आसीन व्यक्ति जताए, तब यह अपेक्षा लाजिमी हो जाती है कि वह राय ठोस धरातल पर आधारित हो और संबंधित पेशे के सामाजिक-आर्थिक संदर्भ के अनुरूप हो।

इसीतरह अगर कोई आम नागरिक या किसी दूसरे पेशे से जुड़ा व्यक्ति पत्रकारों को अनपढ़, अज्ञानी या समाज के प्रति गैर-जिम्मेदार माने तो उसे अपनी राय रखने के हक से महरूम नहीं किया जा सकता- हालांकि किसी भी पेशे के बारे में अपमानजक आम राय सार्वजनिक रूप से जताना कतई वाजिब नहीं होता और उसका विरोध जरूर होना चाहिए। ऐसा इसलिए कि किसी भी पेशे में सभी लोग एक जैसे नहीं होते। जैसे कानून की अभिनव और प्रगतिशील व्याख्याएं करने वाले जज होते हैं तो रूढि़वादी और लकीर के फकीर न्यायाधीशों का भी वजूद होता है, उसी तरह पत्रकारिता में विद्वान एवं निष्ठावान लोग हैं, तो पेशेवर कौशल में कमजोर और ऐसे लोग भी हैं जिनकी ईमानदारी संदिग्ध है। बहरहाल, अगर कमजोर या नाजानकार लोग भी पत्रकारिता में हैं, तो इसका कारण यह नहीं है कि पत्रकारिता में नौकरी पाने के लिए किसी न्यूनतम डिग्री की शर्त लागू नहीं है। हकीकत तो यह है कि गुजरते वक्त के साथ मीडिया घरानों में डिप्लोमा या डिग्रीधारी पत्रकारों की संख्या बढ़ती गई है। इसके बावजूद अगर पत्रकारों के स्तर से जस्टिस काटजू खुश नहीं हैं, तो इसका कारण कोर्स में कमजोरी या पत्रकारों की अयोग्यता नहीं है। इसकी वजह मीडिया घरानों का ढांचा है। मीडिया एक स्वंतत्र और निजी क्षेत्र का उद्योग है, जिसमें कैसे लोग रखे जाने हैं- यह इस उद्योग के प्रवर्तक (प्रोमोटर) अपनी और अपने बाजार की जरूरत के हिसाब से तय करते हैं। बाजार में अगर बड़ी संख्या में ऐसे प्रशिक्षित लोग हों जो जस्टिस काटजू की कसौटी पर खरे उतरें, तब भी मीडिया घरानों के लिए ऐसी कोई मजबूरी नहीं होगी कि वे उन्हें ही नौकरी दें। बल्कि तब भी वे वैसे ही लोगों को नौकरी देंगे, जिनकी उन्हें आवश्यकता होगी। आखिर इस हकीकत को बदलने का प्रेस काउंसिल के पास क्या फॉर्मूला है?

यहसहज अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसा कोई फॉर्मूला नहीं है। इसलिए कि मौजूदा परिस्थितियों में यह हो नहीं सकता। ऐसे में यह शक निराधार नहीं है कि पत्रकारों की न्यूनतम योग्यता तय करने जैसे शिगूफे महज उसी मीडिया की चर्चा में बने रहने के लिए छोड़े जाते हैं, जिससे हजार शिकायतें जताई जाती हैं। लेकिन मीडिया में चर्चित बने रहने का मोह अक्सर बड़े उद्देश्यों या संभावनाओं के लिए हानिकारक होता है। जस्टिस काटजू अगर खुद को मीडिया संबंधी उन्हीं बहसों तक सीमित रखते, जिसके साथ उन्होंने शुरुआत की थी, तो वे भारतीय लोकतंत्र की बेहतर सेवा कर सकते थे। लेकिन आज अक्सर उनकी सही बातों को भी बहुत से वैसे लोग भी गंभीरता से नहीं लेते, जो आम तौर उन्हें अच्छे इरादों वाला व्यक्ति समझते हैं और यह भी मानते है कि उनकी बातों में अतिशोयक्ति हो सकती है, लेकिन वे निराधार नहीं हैं।

मीडिया में सुधार मीडियाकर्मियों के प्रति अपमान-भाव रखते हुए नहीं हो सकता, जैसे कि देश की राजनीतिक व्यवस्था में सुधार आम जन के प्रति अपमान-भाव रखते हुए नहीं हो सकता। नब्बे फीसदी जनता हो सकता है कि मूर्ख हो, लेकिन वही भारत भाग्य विधाता है और तमाम सुधारों का लक्ष्य भी वही है। लोकतंत्र में आप ना तो अपनी सुविधा से अपनी अलग जनता चुन सकते हैं और ना ही जो यथार्थ है उसे झुठला सकते हैं। दुर्भाग्य से काटजू ऐसा ही करते नजर आते हैं। नतीजतन वे अपना प्रभाव खोते गए हैं। काश, वे कम बोलते!

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

बलात्कार और यौन हिंसा की समस्या : क्या होगा असल हल?

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"...बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोंगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरूष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरूषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरूष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है।..."

-डॉ. मोहन आर्या
Les Demoiselles d'Avignon (1907)
by 
Pablo Picasso

दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के बाद पैदा हुआ जनाक्रोश, वर्मा कमेटी की प्रशंसनीय सिफारिशें, उनके क्रियान्वयन वाले अध्यादेश के बारे में हुई बहसें, बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड और उनके बधियाकरण की मांग आदि बातें बलात्कार और यौन उत्पीड़न के विषय में जायज भावुक अतिरेक के इतर जाकर समस्या को और गहरे समझने की मांग करती है। कठोर कानून की मांग महिलाओं की समुचित सुरक्षा व्यवस्था की मांग आदि बेहदजरूरी मांग जनसमूहों द्वारा उठाई जा रही हैं। कुछ समझदार व्यक्ति और समूह महिलाओं को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज के निर्माण की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। कठोर कानून, यौन उत्पीड़न और बलात्कार के मामलों में त्वरित और समयबद्ध प्रक्रिया की व्यवस्था महिलाओं की समुचित सुरक्षा की व्यवस्था आदि उपाय अत्यावश्यकीय होते हुए भी फौरी कार्यवाहियां ही हैं। 

समाज की मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज का निर्माण ही मुख्य मुद्दा है। परंतु ये होगा कैसे? मानसिकता में बदलाव शून्य में नहीं हो सकता और नहीं बलात्कार की घटनाओं से पैदा हुई भावुकतापूर्ण सहानुभूति ही समाज की मानसिकता में बदलाव की ठोस बुनियाद हो सकती है। क्योंकि ये सहानुभूति उस विस्तृत और शक्तिशाली पितृसत्तात्मक ढांचे और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसके चलते पुरूष मानसिकता पैदा होती है। दरअसल यौन हिंसा और बलात्कार तो पितृसत्तात्मकता और अन्य वर्चस्वशाली ताकतवर व्यवस्थाओं के चलते पुरूषों द्वारा महिलाओं पर किए जाने वाले अनगिनत अत्याचारों में से केवल एक है। बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोंगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरूष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरूषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरूष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है। 

अशान्त क्षेत्रों में सशस्त्रबलों द्वारा किए गए जाने वाले बलात्कारों, दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ दबंगों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों, में पित्रसत्तात्मकता के साथ वर्चस्व की अन्य श्रेणियां मसलन नस्लीय घृणा, जाति व्यवस्था, संप्रभु का राजनीतिक वर्चस्व आदि भी गुंथे हुए दिखाई देते हैं। उपर्युक्त किस्म के बलात्कारों के साथ ही सांप्रदायिक दंगों के समय बड़े पैमाने पर होने वाले बलात्कार, विरोधी समुदाय को सबक सिखाने के हथियार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इसके अलावा यौन उत्पीड़न और बलात्कार के कई मामलों में महिलाओं के परिचितों, मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ौसियों का शामिल होना दिखाता है अन्यथा सामान्य पुरुषों द्वारा किया जाने वाला आचरण है। जो अपने संस्थागत वर्चस्व के चलते मौके का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं बलात्कार को उसके सही रूप में पितृसत्तात्मकता के साथ ही समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है।

बलात्कार दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की पैदाइश है

यूँ तो मानव समाज में पाए जाने वाले तमाम अपराध जैसे चोरी, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार आदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में गलत सामाजिक व्यवस्था और दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों के ही परिणाम हैं परंतु यौन हिंसा या बलात्कार अन्य किसी भी अपराध या प्रवृत्ति से आधारभूत रूप में भिन्न है। जहां अन्य अपराध या प्रवृत्तियां प्रकृति में मनुष्येत्तर प्राणियों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रियांओं के रूप में बेहद स्वनियंत्रित स्वरूप में मौजूद रहते हैं और प्राणियों के अस्तित्व और जीवन संघर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में दिखाई देते हैं वहीं बलात्कार सामान्यतया किसी भी मनुष्येत्तर प्राणिजाति में नहीं पाया जाता है। कुछ नगण्य अपवादों को छोड़ते हुए बहुत ही सामान्य प्रेक्षणों और प्रकृति विज्ञान की सामान्य समझ के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने का जोखिम उठाया जा सकता है कि बलात्कार केवल मनुष्य समाज में पाया जाने वाला घोर अप्राकृतिक अपराध है और आत्महत्या (जिसे अपराध की श्रेणी से हटाया ही जाना चाहिए) के अलावा एक मात्र ऐसी प्रवृत्ति है जिसका कोई प्राकृतिक जस्टिफिकेशन नहीं हो सकता है। 

यहां कई लोग तर्क दे सकते हैं कि बलात्कार पुरूषों की अनियंत्रित यौनइच्छा का परिणाम है जो कि विशुद्ध नैसर्गिक और प्राकृतिक कारणों से है और इसी तर्क की बुनियाद पर बलात्कार को रोकने के लिए कुछ बेहद गैरजिम्मेदाराना सुझाव दिए जाते हैं, मसलन वैश्यावृत्ति को वैध व्यवसाय के रूप में मान्यता देना और किशोरावस्था के तुरंत बाद ही अथवा किशोरावस्था में ही विवाह करा के सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध कराना। परंतु ऐसा कतई नहीं है जिन देशों में वैश्यावृत्ति वैध है वहां बलात्कार की घटनाएं नहीं होती हैं या फिर विवाहित पुरूष बलात्कार में शामिल नहीं होते हैं। विवाह या वैश्यावृत्ति द्वारा सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध होने पर भी पुरूष बलात्कारी होता है। अमूमन होता भी है। देखा गया है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले में अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनमें लिप्त पुरूष विवाहित होते हैं। विवाह संस्था के भीतर होने वाले यौन शोषण को शामिल कर लें (जैसा कि वाजिब रूप में वर्मा समिति की सिफारिश है) तो विवाहित पुरूषों का बहुत बड़ा हिस्सा यौन हिंसा में लिप्त पाया जाएगा। 

अतः वैश्यावृत्ति को वैधता प्रदान करना और जल्दी विवाह जैसे उपाय बलात्कार और यौन उत्पीड़न को रोकने में सफल तो होंगे ही साथ ही ये उस वर्चस्वशाली व्यवस्था को और मजबूत बनाएंगे जिससे पुरूष को बलात्कार करने का औचित्य और साहस मिलता है। क्यूंकि जल्दी विवाह और वैश्यावृत्ति दोनों से ही स्त्री की पुरूष पर निर्भरता अधिक स्थाई होती है।

पुनः लौटते हैं बलात्कार के कारण के रूप में पुरूषों की अनियंत्रित यौनेच्छा की ओर। यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि यौनेच्छा तो प्रकृति के विस्तार का आधार है। जो कि अनियंत्रित रूप में मनुष्येत्तर प्राणियों में भी पाई ही जाती है। परंतु प्रकृति में यौनेच्छा नर और मादा की संयुक्त यौनेच्छा और सामान्य सहवास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। यदि नर या मादा में से किसी एक की यौनेच्छा नहीं है तो प्रकृति में सहवास या इस स्थिति में कहें तो बलात्कार हो ही नहीं सकता। साथ ही प्राकृतिक चयन और जैवविकास की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के चलते प्रकृति में मादा को नर के चयन का विशेषाधिकार भी प्राप्त है। अर्थात प्रकृति में मादा के सहवास के लिए तैयार ना होने पर सामान्य सहवास हो ही नहीं सकता। और मादा के सहवास के लिए तैयार होने पर भी अपने लिए उपयुक्त साथी के चयन का अंतिम अधिकार भी मादा के पास होता है। नर केवल शारिरिक बल के आधार पर ऐसी मादा से सहवास नहीं कर सकता जिसकी उस समय यौनेच्छा ना हो और यौनेच्छा हो भी (जैसा कि मदकाल में होता है) तो नर को अन्य नरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके मादा के वैयक्तिक चयन (जो कि वास्तव में प्रजाति की जैवविकासीय प्रवृत्ति ही है) के पैमानों पर खरा उतरना होता है। (ऐसा प्रकृति में शुक्राणुओं और अंडाणुओं की संख्या के बीच भारी अंतर के कारण होता है) इसके उपरांत ही यौनेच्छा अपने स्वाभाविक परिणाम अर्थात सहवास तदोपरांत संतानोत्पत्ति तक पहुंच पाती है। 

अब यहां तर्क दिया जा सकता है कि मनुष्य ने अपने यौन व्यवहार को मनुष्येत्तर प्राणियों की तुलना में काफी विकसित किया है। और इसे संतानोत्पत्ति तक सीमित नहीं रखा है। साथ ही मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा प्रकृति के अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है। (हांलाकि ऐसा कुछ अन्य प्राणी जातियों में भी होता है।) जहां तक यौनव्यवहार को संतानोत्पत्ति तक सीमित ना रखने वाली बात है तो प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यौन व्यवहार को उसके कर्ता या माध्यम द्वारा अपने लिए किस रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है भले ही यौन व्यवहार मात्र-मात्र यौन आनंद के लिए किया उसके मूलभूत उद्देश्य और परिणाम की प्राकृतिकता का जैव वैज्ञानिक स्वरूप अपरिवर्तित रहता है, तो यह एक सामाजिक परिघटना है कि बलात्कार में यौन व्यवहार में वर्चस्व के एक औजार के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है और यौन परिपक्वता के बाद महिलाएं जैव-वैज्ञानिक तौर पर किसी भी समय सामान्य शारिरिक संबंधों के लिए तैयार रहती हैं परंतु एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य का यौन व्यवहार हारमोनल के साथ ही मनोवैज्ञानिक भी है। और इसीलिए मनुष्य के शारिरिक विषय में जैववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर ही महिलाओं के साथी के चयन का विशेषाधिकार समाप्त नहीं हो जाता है। और जटिल मानव समाज में महिला की सहमति ही इस चयन के विशेषाधिकार का मानवोचित रूप है। 

ऊपर की सारी कवायद का मेरा उद्देश्य यही दिखाना है कि बलात्कार प्राकृतिक जगत में ना पाई जाने वाली प्रवृत्ति है। प्रकृति में बलात्कार नहीं हो सकता और सामूहिक बलात्कार तो बिल्कुल नहीं। इस तरह अपने अस्तित्व और पहचान के जटिल प्रश्नों से उलझने वाली प्राणीजगत की श्रेष्ठतम मानव जाति इस प्राकृतिक पशुओं की प्राकृतिकता का अपमान होगा। इस तरह बलात्कार सभ्यता का संकट है। अब तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कार तो कुछ ही पुरूषों द्वारा किए जाते हैं। इसके लिए क्यों संपूर्ण मानव समाज व्यवस्था को पशुओं से बदतर माना जाना चाहिए। दरअसल बलात्कार अपनी अप्राकृतिकता के कारण उतना घृणित नहीं है जितना कि सामाजिक उत्पत्ति और सामजिक परिणामों के कारण।  इस बात को और समझने के लिए हम अनियंत्रित यौनेच्छा के तर्क की ओर पुनः लौटते हैं। अनियंत्रित यौनेच्छा तो महिलाओं की भी हो सकती है। क्या होगा यदि आनियंत्रित यौनेच्छा के वशीभूत होकर कोई महिला किसी असहाय पुरूष के साथ बलात्कार करे। बलात्कार के इस कृत्य का कोई सामाजिक कारण नहीं होगा परंतु इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे और पुरूष पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? हो सकता है पुरूष इसे अपने वैयक्तिक चयन के अधिकार का अतिक्रमण मानकर अप्रसन्नता प्रदर्शित करे और शारिरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से आहत भी हो। परंतु इस कृत्य के सामाजिक परिणामों की ओर गौर कीजिए, पुरूष अधिक से अधिक कुछ छोटे अंतराल तक उपहास का पात्र बन सकता है। हो सकता है उसे खुशनसीब का दर्जा भी दिया जाय। इस घटना के कोई मनोवैज्ञानिक और शारिरिक दुष्परिणाम हो भी तो इसके दूरगामी सामाजिक परिणाम उस पुरूष के प्रतिकूल नहीं होंगे। परंतु जब बलात्कार महिला के साथ किया जाता है तो यह बलात्कार के रूप में पुरूषों द्वारा महिला के सहमति के अधिकार का अतिक्रमण उन्हें शारिरिक या मनोवैज्ञानिक रूप से चोट पहुंचाने तक सीमित नहीं है, बलात्कार का वीभत्स रूप तो महिला के लिए बलात्कार के बाद सामने आता है और सारी उम्र उस महिला के जीवन पर छाया रहता है। शील भंग की दकियानूसी और घटिया सामाजिक अवधारणा महिला के सामाजिक जीवन को नष्ट कर देती है। बलात्कार की शिकार महिला के विवाह में कई दिक्कतें आती हैं अथवा विवाहित महिलाओं को कई बाद उनके पतियों द्वारा त्याग दिया जाता है। वो महिला किसी भी सामाजिक संबंध में सहज नहीं हो पाती है। बलात्कार की शिकार स्वयं होने के बावजूद वो एक किस्म के अपराधबोध या हीनताबोध से ग्रस्त रहती है। और उसे हमेशा अपनी पहचान छिपाकर रखनी पड़ती है। उसके सामान्य सामाजिक जीवन जीने की संभावना न के बराबर है इसलिए सूर्यनेल्ली प्रकरण में यौन हिंसा की शिकार द्वारा यह कहा गया कि दिल्ली में वीभत्स बलात्कार कांड की शिकार छात्रा की मौत होना उस छात्रा के लिए अच्छा ही हुआ। इस सबके कारण मनोवैज्ञानिक और शारिरिक न होकर मूलरूप में सामाजिक हैं।

स्त्री के द्वारा पुरूष के बलात्कार और पुरूष के द्वारा स्त्री के बलात्कार के सामाजिक परिणाम एक दूसरे से बहुत ही अलग हैं। इस तरह लिंग निर्धारण के समय का प्राकृतिक संयोग महिला के लिए एक सामाजिक दुर्घटना बनकर रह जाता है। चूंकि प्राकृतिक जगत में किसी खास लिंग का होना किसी दुर्घटना का कारण नहीं होता है इसी रूप में मनुष्य सभ्यता पशुओं से बदतर है। साथ ही महिलाओं द्वारा पुरूषों पर बलात्कार के नगण्य मामले ही प्रकाश में आए हैं। तो अनियंत्रित यौनेच्छा का तर्क पुनः खारिज होता है। अब यदि कोई प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं है और समाज में है तो इसके कारण प्राकृतिक से अधिक सामाजिक होने चाहिए। बलात्कार करते समय पुरूष की मस्कुलैनिटी ही निर्णायक कारक दिखती है। परंतु इस शारीरिक बल के पीछे निश्चित रूप से वे संस्थागत् बल कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जो कि हमारे समय में पुरूषों को प्राप्त है। 

हमारी सभ्यता, मूल्य, संस्कृति हर तरह से पुरूषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का अतिक्रमण कर सकते हैं। जब मैं हमारी सभ्यता मूल्य या संस्कृति का जिक्र करता हूं तो इसका तात्पर्य केवल भारतीय सभ्यता या संस्कृति से नहीं है यह सर्वलौकिक मानवीय सभ्यता का सामान्य अनुभव है। अब यह तर्क दिया जा सकता है कि लगभग सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाजों और सभ्यताओं में बलात्कार को गलत माना गया है और इसके उपचार के लिए कई नैतिक नियम और सजाएं भी तय की गई हैं। परंतु जैसा कि पहले कहा गया है कि बलात्कार को पितृसत्ता और वर्चस्व की अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से अलग करके एक अकेली घटना के रूप में नहीं समझा जा सकता है। यह सांस्कृतिक ढांचा जो कि तथकथित नैतिक नियमों और सजाओं/बहिष्कारों आदि के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है उस भौतिक ढांचे की बिल्कुल अनदेखी करता है या यह कहें कि जानबूझकर उसे बनाए रखता है जिसपर स्त्री और पुरूष के संबंध और समाज में उनकी स्थिति निर्धारित होती हैं। समाज के भौतिक सामातिक संबंधों में स्त्री के दोयम दर्जे की हैसियत को बनाए रखते हुए यदि उसकी सुरक्षा के तथाकथित नैतिक नियम बनाए जाएंगे तो ये नियम असफल ही हो जाएंगे भले ही कितनी भी कठिन सजाओं का प्रावधान किया जाय। और इस तरह के नियमों का खामियाजा स्त्रियों को ही अधिक भुकतना पड़ता है। सभी जानते हैं कि बलात्कार होने पर सबसे पहले महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। उन पर ही लक्ष्मण रेखाएं लाघने का आरोप लगाया जाता है। समाज में स्त्री पुरूष की स्थिति के विषय में हमारा सांस्कृतिक ढांचा गलत बुनियाद पर खड़ा है। और कुछ मातृसत्तात्मक और आदिम संस्कृतियों को छोड़कर ऐसा सभी संस्कृतियों में हुआ है। चूंकि वह भौतिक बुनियाद ही स्त्री विरोधी है जिस पर सांस्कृतिक ढांचा टिका है इसीलिए यह सांस्कृतिक ढांचा भी स्त्री विरोधी है। 

अब समझने का प्रयास करते हैं कि वह भौतिक बुनियाद क्या है जिसमें दोषपूर्ण सामाजिक संबंध पैदा होते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में इस भौतिक बुनियाद का काफी विश्वसनीय विश्लेषण किया है। वे दिखाते हैं कि पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरूष के बीच हुआ था। उनके अनुसार आदिम समाज में जब संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और प्रारंभ में जब सम्पदा कम थी तो सम्पत्ति पर गोत्र का अधिकार माना जाता था। साथ ही मातृसत्तात्मक व्यवस्था कायम थी अर्थात वंश स्त्री परंपरा के अनुसार चलता था और उत्तराधिकार प्रथा के तहत किसी सदस्य की मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति उसके गोत्र संबंधियों को मिलती थी ताकि सम्पत्ति गोत्र के भीतर ही रहें स्त्री वंश परंपरा के अनुसार संपत्ति मां की तरफ के रक्त संबंधियों को मिलती थी। 

एंगेल्स लिखते हैं प्रारंभ में माता के दूसरे रक्त संबंधियों के साथ-साथ बच्चों को भी मां की संपत्ति का भाग मिलता था। संभवतः बाद में बच्चों का प्रथम अधिकार मान लिया गया। यह अधिकार मां की संपत्ति में था परंतु उन्हें अपने पिता की सम्पत्ति नहीं मिल सकती थी क्योंकि वे अपने पिता के गोत्र के सदस्य नहीं होते थे और संपत्ति का गोत्र के भीतर रहना आवश्यक था। किसी पुरूष रेवड़ पशुपालक की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पहले उसके भाईयों और बहिनों को और बहनों के बच्चों को या मौसियों के वंशजों को मिलती थी। लेकिन उसके बच्चे उत्तराधिकार से वंचित थे। जैसे-जैसे भौतिक संपदा बढ़ी और परिवार के भीतर पुरूष का दर्जा महत्वपूर्ण हुआ पुरूष ने उत्तराधिकार की पुरानी मातृसत्ता को पलटने का काम किया। इसके लिए फैसला लिया गया कि गोत्र के पुरूष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग करके अपने पिताओं के गोत्र में शामिल कर दिए जाएंगे। इस तरह पैत्रक वंशानुक्रम और पैत्रक उत्तराधिकार स्थापित हुआ। फ्रैडरिक ऐंगल्स ने इस घटना को मानव जाति द्वारा अनुभूत सबसे निर्णायक क्रांतियों में से एक कहा है। इस घटना के विषय में माक्र्स लिखते हैं, ‘‘मनुष्य की अंतर्जात वाकछल प्रवृत्ति जिसके द्वारा वह वस्तुओं के नाम बदलकर स्वयं उन वस्तुओं को बदलने का प्रयास करता है। जब भी कोई प्रत्यक्ष हित जबरदस्त रूप में प्रेरित करता है वह परंपरा को तोड़ने के लिए परंपरा में खोट निकालता है।’’ 

एंगेल्स आगे लिखते हैं, मातृसत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय थी। अब घर के अंदर भी पुरूष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई, जकड़ दी गई। वह पुरूष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र बनकर रह गई। वीरगाथा काल के और उससे भी अधिक क्लासिकीय यूनानियों मंे नारी की गिरी हुई हैसियत खास तौर पर देखी गई। बाद में धीरे-धीरे तरह तरह के आवरणों में ढककर और सजाकर तथा आंशिक रूप से थोड़ी नर्म शक्ल देकर उसे पेश किया जाने लगा। पर वह दूर नहीं हुई।’’

इस तरह वह भौतिक आधार जिस पर स्त्री का सामाजिक अस्तित्व टिका हुआ है पित्रसत्तात्मक आधार है और यही आधार तमाम धर्मों संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्त्री के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है। इसी भौतिक आधार पर वह मूल्य प्रणाली पैदा होती है जिसके कारण पुरूष स्त्री के शरीर पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है और स्त्री से बिना शर्त समर्पण की उम्मींद करता है। इसने स्त्री को असहाय बनाकर रख दिया है। यह पित्रसत्तात्मक वर्चस्व अकेले या अन्य वर्चस्वशाली संस्थाओं के साथ मिलकर स्त्री के यौन संबंधों में सहमति के अधिकार को समाप्त करता है। 

धर्म, व्यक्तिगत नैतिकता, पूंजीवादी राज्य और कानून की नाकामी

यद्यपि हम धर्म एवं सांस्कृतिक ढांचे की बलात्कार को रोकने के संबंध में नाकामी की चर्चा कर चुके हैं। परंतु समाज में धर्म के व्यापक प्रभाव और मूल्य प्रणाली के निर्माण में इसकी भूमिका को देखते हुए यह विस्तृत जांच की मांग करता है। धर्म अपने दार्शनिक और आद्यात्मिक स्वरूप में जहां विश्व की समस्याओं का समाधान उन समस्याओं के भौतिक मूल की अनदेखी करके प्रस्तुत करता है वहीं अपने सामाजिक स्वरूप में धर्म ना केवल यथास्थितिवाद का पोषक है बल्कि स्वयं भी एक शोषक वर्चस्वशाली ढांचा तैयार करता है। धर्म एक तरफ तो अनुयायियों को व्यक्तिगत् नैतिकता की सतही अवधारणा देता है जिसे वह बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने का माध्यम मानता है। वहीं दूसरी ओर व्यापक संहिंताएं तैयार कर स्त्रियों की परतंत्रता को सुनिश्चित करता है। और इन संहिताओं का प्रभाव निश्चित तौर पर धर्म की नैतिकता की अव्यवहारिक मांग से अधिक पड़ता है। 

साथ ही धर्म कई बार स्त्रियों की अधीनता का इस्तेमाल समाज में वर्चस्व के अन्य ढांचों को बनाए रखने के लिए करता है। धर्म की स्त्रियों के विषय में दी गई व्यवस्थाओं और उनके कार्यात्मक अनुभवों से स्पष्ट है कि धर्म हमेशा से स्त्री विरोधी रहा है। यहां पर आदिम तथा मातृसत्तात्मक समाजों की धार्मिक रीति रिवाज, टोटमवाद इत्यादि की बात नहीं की जा रही है परन् धर्म के बहुराष्ट्रीय व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है। हिंदू धर्म को ही लें तो इसकी तमाम समाजिक संहिंताएं स्त्री विरोधी हैं। मनुस्मृति शूद्रों की गुलामी के साथ साथ स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज भी है। चूंकि ब्राह्मणवाद की तथाकथित श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था कि जातियों के बीच रक्त संबंध स्थापित न हो पाएं। इसके लिए स्त्रियों को गुलाम बनाए रखना आवश्यक था। 

डा0 अंबेडकर अपने शोध में दिखाते हैं कि किस तरह विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाकर अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोका गया। मनुस्मृति के श्लोक  5-157 और 5-161 में पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरूष का नाम लेने पर भी स्त्री को निंदा का पात्र बताया गया है। साथ ही मनु ने विधुर पुरूष के पुनर्विवाह पर रोक नहीं लगाई। परंतु यहां पर भी अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया कि 30 वर्ष की आयु का पुरूष 12 वर्ष की कुमारी से विवाह करे और 24 वर्ष की आयु का पुरूष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे (देखिए मनुस्मृति 9-24) ताकि यदि कोई पुरूष 24 या 30 की आयु में विदुर हो जाए तो अपने ही वर्ण की वयस्क स्त्री ना मिलने पर बच्चियों से विवाह कर सके। साथ ही धर्म की संहिताओं में स्त्रियों को स्वभाव से ही चंचल और चारित्रिक गुणों से ही रहित बताया गया है। कहा गया है कि पुरूषों को दूषित करना ही स्त्री का स्वभाव होता है (मनुस्मृति 2-213)। स्त्री की गुलामी के प्रबंध के लिए कहा गया है कि बाल्यकाल में स्त्री पिता के अधीन रहे यौनावस्था में पति के अधीन रहे, पति की मृत्यु पर पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतंत्र ना रहे। (मनुस्मृति श्लोक 5-149) कुछ जगहों पर तो हद ही कर दी गई है- न तो वे (स्त्रियां) रूप ही देखती हैं और न उम्र ही सुंदर हो या असुंदर पुरूष होने से ही वे उनके साथ भोग करती हैं (मनुस्मृति श्लोक 9-14)। इस तरह के अनगिनत उदाहरण और दिए जा सकते हैं। 

हिंदु धर्म में स्त्रियों की जो सामाजिक स्थिति है उसका आधार मनुस्मृति के नियम ही हैं। जब धार्मिक कानून में ही स्त्रियों का दोयम दर्जा स्वीकार कर लिया जाए तो आचरण में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता। हिंदु धर्म का सामाजिक आदर्श पूर्ण रूप से पित्रसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी है। अन्य धर्मों की स्थिति भी इस संदर्भ में अच्छी नहीं है। इस्लाम में स्त्री को स्वाभाविक तौर पर ही पुरूष के संरक्षण में रहने योग्य माना गया है- ‘पुरूष महिलाओं के पोषक और संरक्षक हैं उन विशिष्टताओं के आधार पर जो ईश्वर ने एक व्यक्ति को दूसरे पर दी हैं।’ (कुरान 4/34 संदर्भ इस्लाम सिद्वांत और स्वरूप, जफर रज़ा)

ईसाई धर्म की प्रोटेस्टेंट शाखा में पूंजीवादी प्रभाव के तौर पर स्त्रियों के संदर्भ में कुछ खुलापन अवश्य नज़र आता है। परंतु इसकी वही सीमाएं हैं जो पूंजीवादी समाज की सीमाएं हैं। इस पर अलग से चर्चा की जाएगी। ईसाई धर्म की कैथोलिक शाखा में कौमार्य की अवधारणा पर विशेष जोर दिया गया है। इतिहास है कि कैथोलिक शाखा के मठाधीशों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वतंत्र विचार वाली स्त्रियों को मृत्युदंड समेत कठोर सजाएं दी गई। बौद्ध धर्म पर अवश्य ही सिद्धांत के तौर पर स्त्री और पुरूष के भेद का निषेध किया गया है। कई स्थानों पर बुद्ध ने स्वयं कहा है कि निर्वाण प्राप्ति के लिए स्त्री और पुरूष का कोई भेद नहीं है और वे स्त्रियों की अपेक्षा किसी भी तरह से पुरूषों को विशेष नहीं मानते (अंगुत्तर निकाय 8ः2ः2ः1)। एक स्थान पर बुद्ध कहते हैं पुत्री, पुत्र से अधिक योग्य हो सकती है (संयुत्त निकाय)। परंतु साथ ही बुद्ध स्त्री और पुरूष की सामाजिक हैसियत के भौतिक आधार को परिवर्तित करने के प्रति सचेत नहीं दिखाई देते हैं। इसलिए वे कन्याओं को यह उपदेश देते हैं कि उन्हें पति से पहले सोकर उठने वाली और पति के बाद में सोने वाली होना चाहिए और काम करने वाली और चीजों को व्यवस्थित करने वाली होना चाहिए। (उग्ग्ह सुतंत अंगुत्तर निकाय) 

इस तरह चूंकि सभी धर्म (बौद्ध धर्म कुछ सीमा तक) स्त्री को पुरूषों से निम्न और प्राकृतिक तौर पर निर्भर मानते हैं अतः धर्म और उसके नैतिक नियमों का सांस्कृतिक ढांचा कभी भी पुरूष वर्चस्व के खिलाफ नहीं जाएगा। इसलिए धर्म बलात्कार को रोकने के लिए तो कुछ नहीं कर सकता साथ ही यौन नैतिकता के इसके नियम किस तरह स्त्रियों के ही खिलाफ जाते हैं इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। 

पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता: स्त्री बनाम आधुनिकता

राज्य कानून के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रया स करजा है परंतु इसमें सफलता नहीं मिली है। इसका कारण है राज्य कम से कम पूंजीवादी राज्य पितृसत्तात्मकता और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है। परंतु हां पूंजीवादी समाज व्यवस्था में सामंती जकड़ के ढीले होने से स्त्रियों के प्रति नजरिए में कुछ हद तक बदलाव जरूर आता है। पूंजीपादी राज्य और कानून पुरूष वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाता तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि पूंजीवादी राज्य को अपने कृत्य काफी सीमित रखने होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं तक पूंजीवादी राज्य की पहुंच उसके अपने अंतर्निहित चरित्र के कारण गलत सामाजिक संबंधों के उन्मूलन की हद तक होती ही नहीं है। साथ ही यदि कुछ सुधारात्मक कानून लाए भी जाएं तो उनका व्यापक विरोध भी होता है। याद करें हिंदु समाज में स्त्री पुरूष समानता के लिए अंबेडकर द्वारा किए गए हिंदु कोड बिल का क्या हश्र हुआ था। और किसी तरह कानून ले भी आया जाए जैसा कि हिंदु कोड बिल के प्रावधानों को अलग-अलग अधिनियमों के रूप में लाकर किया गया तो उसे लागू करने के क्या औजार राज्य के पास हैं। 

राज्य अपने आप को कानून बनाने तक सीमित रखता है। कानूनों से जुड़ा कोई वाद न्यायालय के समक्ष आने पर ही कानून लागू होता है। स्त्री को उत्तराधिकार दिलाने के लिए राज्य कोई व्यापक सामाजिक आंदोलन नहीं चलाता क्योंकि यह राज्य की प्राथमिकता में ही नहीं है। साथ ही समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से अधिक और कई मायनों  मंे अधिक ताकतवर हैं। अतः कानून बनाने की कवायद औपचारिकता मात्र रह जाती है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है। पूंजीवादी राज्य विधि के स्रोत के रूप में परंपरा को स्वीकार करता है।  इसी आधार पर कई समुदायों के पर्सलन लाॅ, विवाह व्यवस्था, तलाक आदि के प्रावधानों को राज्य स्वीकारता है। इन व्यवस्थाओं में स्त्री की स्थिति प्रथम दृष्टया ही दोयम दर्जे की होती है। उस समुदाय विशेष की स्त्री के उन व्यवस्थाओं से शोषण को रोकने के लिए राज्य कुछ नहीं करता है। राज्य की एजेंट अर्थात सरकार किसी बड़े समुदाय की नाराजगी झेलने के लिए किसी राजनैतिक कारणों से तैयार नहीं रहती है और सामान्यतया उदासीन और कभी कभी तो प्रतिक्रियावादी भूमिका में नजर आती है। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी की सरकार ने जो कृत्य किया उसे आजादी के बाद मुस्लिम महिलाओं के अधिकरों पर राज्य द्वारा किया गया सबसे बड़ा कुठाराघात माना जाना चाहिए। 

समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से कितनी ताकतवर हैं इसका उदाहरण हरियाणा सरकार की खाप पंचायतों की असंवैधानिक अधिकारिता के सामने घुटने टेकने से जाहिर होता है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी होगी जैसा कि उपर्युक्त मामले में दिखाई देता है तो राज्य भी पंगु हो जाता है। पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता का सबसे बड़ा कारण है स्त्री पुरूष संबंधों की उस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के प्रति उसकी अंतर्निहित अनिच्छा जिसके विषय में फ्रेड्रिक एंगेल्स के विचारों की हम चर्चा कर चुके हैं। पूंजीवादी कानून उत्तराधिकार की पित्रसत्तात्मकता को नष्ट नहीं करता बल्कि उसमें स्त्रियों को भी विधि के माध्यम से हिस्सा दिलाने का प्रयास करता है। (यह स्थिति भी केवल वास्तविक पूंजीवादी देशों में ही है।) चूंकि पुरूषों का सामाजिक वर्चस्व कायम रहता है इसलिए यह कवायद कभी अंजाम तक नहीं पहुंच पाती। 

अक्सर कहा जाता है कि जैसे जैसे आधुनिकता शिक्षा और तकनीक का प्रसार होगा स्त्री की स्वतंत्रता भी बढ़ती जाएगी। परंतु इस आधुनिकता की वही अंतर्निहित सीमाएं हैं जो कि पूंजीवादी समाज की हैं। आधुनिकता की एक अन्य समस्या स्त्रियों के विषय में इसका विकृत दृष्टिकोण भी है। सामंती समाज यदि स्त्री को ढकी हुई उपभोग की चीज मानता है तो आधुनिक पूंजीवादी समाज उसे उपभोग की खुली हुई चीज मानता है। यह सही है कि स्त्रियां सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं आधुनिकता ने स्त्रियों को अवसर प्रदान किए हैं परंतु इसने पुरूषों का स्त्रियों के प्रति दृश्टिकोण को बदल दिया है ऐसा कतई नहीं है। आधुनिकता और स्त्री आजादी के विषय में लिव इन रिलेशन का जिक्र करना समीचीन होगा। यह सामान्य समझदारी पर आधारित संबंध है परंतु इसके नतीजों के अंतिम नुकसान यदि कोई हों तो स्त्रियों को ही उठाने पड़ते हैं। और कभी कभी तो यह संबंध पुरूष स्त्रियों को धोखे में रखकर मात्र शारिरिक आवश्यकताओं के लिए ही बनाते हैं। इस आधुनिकता में कितने अंतर्विरोध हैं इसका प्रमाण पश्चिमी समाजों में हाईमैनोप्लास्टी का बढ़ता चलन है। क्या आधुनिकता के पास पुरूषों के कौमार्य की पुनस्र्थापना का आग्रह है? 

क्या है रास्ता?

हमने बलात्कार और यौन उत्पीड़न से बात शुरू की थी परंतु ये घटनाएं स्त्री-पुरूष की सामाजिक स्थितियों के साथ इस तरह गुथी हैं कि पितृसत्तात्मकता के नष्ट हुए बगैर ये बने ही रहेंगे। 

1. पितृसत्ता की समाप्ति आवश्यक है

एंगेल्स ने स्त्री पुरूष के बीच के वर्ग विभाजन के आधार के रूप में पितृसत्ता की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित की है। उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति के पितृसत्तात्मक स्वरूप को नष्ट करना आवश्यक है। परंतु पितृसत्ता का विकल्प क्या हो सकता है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था इसकी जगह ले सकती है? असल में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अपने अंतर्विरोधों के कारण ही पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ था। अतः मातृसत्ता पितृसत्ता का विकल्प नहीं हो सकती। सही कदम तो होगा कि उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति का स्वरूप ही न रहे। अतः संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक हो। जब संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक होता है तो स्त्री-पुरूष के संबंध बेहद स्वाभाविक एवं वर्चस्व रहित होते हैं। इसका उदाहरण प्रकृति से तादाम्य के साथ रहने वाली वे जनजातियां हैं जिनके समाज में संपत्ति का स्वरूप सामुदायिक होता है। इन समाजों में स्त्रियां उत्पादन प्रणाली में अपने योगदान के अनुंरूप और समाज के पुरूष सदस्य के समान ही अधिकार और स्वतंत्रता का आनंद उठाती हैं। इस तरह की आदिम और घुमंतू जनजातियों में स्त्री पुरूष भेद बेहद कम और बलात्कार जैसी घटनाएं भी नगण्य होती हैं। संपत्ति के निजी स्वरूप और उत्तराधिकार प्रणाली से ही स्त्री की गुलामी की शुरूआत हुई थी। अतः इस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के साथ ही यह गुलामी भी वास्तविक रूप से नष्ट होगी। कई लोग संपत्ति के सामाजिक स्वरूप वाली प्रणाली में परिवार और एकनिष्ट विवाह जैसी संस्थाओं के उन्मूलन हो जाने के खतरे की बात करते हैं। निजी संपत्ति के उन्मूलन से परिवार और एकनिष्ठ विवाह का उन्मूलन नही। होगा वरन् इनका शोषक और वर्चस्वशाली स्वरूप समाप्त होगा। जैसा कि एंगेल्स दिखाते हैं कि एकनिष्ठ विवाह निजी संपत्ति के उन्मूलन पर अधिक मजबूत होगा क्योंकि यह प्रेम और रूचियों की समानता पर आधारित होगा। यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ ही बलात्कार और यौन शोषण पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाएंगे। कुछ घटनाएं तब भी हो सकती हैं। परंतु तब पुरूष वर्चस्व की समाप्ति होगी और बलात्कार के सामाजिक परिणाम बदल जाएंगे। क्योंकि भौतिक आधार नष्ट होने से मूल्य प्रणाली भी बदल जाएगी। 

उपर्युक्त विश्लेषण की एक सीमा यह है कि इसमें सभी महिलाओं को एक ही समुदाय के रूप में प्रदशित किया गया है। महिलाएं वर्ग, जाति, रंग आदि कई वर्चस्व वाली श्रेणियों में बंटी हुई हैं अतः निजी संपत्ति के उन्मूलन का रास्ता इतना आसान नहीं। जैसा कि इस लेख की शुरूआत में ही स्पष्ट किया गया कि पितृसत्ता के साथ ही समाज की अन्य वर्चस्वशाली ढांचों के कारण महिलाएं अधिक असुरक्षित होती हैं। अतः महिला मुक्ति का प्रश्न मानव मुक्ति के अन्य प्रश्नों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। 

निजी संपत्ति के उन्मूलन का एजेंडा राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में माक्र्सवादियों का प्रमुख ऐजेंडा है और माक्र्सवादियों ने ही सही रूप में स्त्री की गुलामी की भौतिक बुनियाद को समझा है। परंतु राजनैतिक कार्यवाहियों में जेंडर के प्रश्न को माक्र्सवादियों ने उपेक्षित ही छोड़ा है। यह शुरूवात कम्युनिष्ट घोषणापत्र से ही हुई है जब माक्र्स और एंगेल्स घोषणा करते हैं कि कम्युनिष्टों पर ज्यादा से ज्यादा यह आरोप ही लगाया जा सकता है कि वे पुराने काल से चली आरही स्त्री की सर्वोपभोग्यता के गोपनीय रूप को समाप्त कर खुला कानूनी रूप देना चाहते हैं। यहां पर माक्र्स और एंगेल्स के मंतव्य पर कोई संदेह नहीं कि वे स्त्री की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं परंतु ‘स्त्री की सर्वोपभोग्यता का कानूनी रूप’ ये शब्द कम्युनिष्ट घोषणा पत्र जैसी महान कालजयी कृति में ना होते तो अच्छा था। ये बुर्जुआ नैतिकता का आग्रह नहीं परंतु स्त्री की ही सर्वोपभोग्यता ही क्यों पुरूष की क्यों नहीं? यह जायज प्रश्न माक्र्स से पूछा ही जाना चाहिए था। यही जेंडर का नाजुक प्रश्न है जिसपर निजी संपत्ति का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध राजनैतिक कौम से अधिक समझदारी और गंभीरता की अपेक्षा है। इसे मात्र अस्मिता का प्रश्न मानने से समस्याएं हल नहीं होंगी। 

2.सेक्सिज्म का विरोध करना होगा 

यह पूंजीवादी समाज की देन है कि यौन आवश्यकताओं को उनकी प्राकृतिकताओं से कहीं अधिक महत्व दिया जा रहा है। यह कुत्सित प्रचार किया जा रहा है कि भोजन की तरह ही यौन संबंध भी जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं। यह सोच प्राकृतिकता के बजाय कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। क्योंकि भोजन के बगैर जीवन संभव नहीं है परंतु यौन संबंधों के बगैर निश्चित संभव है। क्योंकि भोजन जीवन के लिए आवश्यक है तो यौन संबंध जीवन की निरंतरता के लिए। यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मेरे द्वारा ब्रह्मचर्य जैसी अव्यावहारिक अवधारणा का समर्थन नहीं किया जा रहा है। परंतु वर्तमान मुनाफा केंद्रित व्यवस्था। जिस रूप में यौनवाद को बढ़ावा दे रही है। उसका विरोध होना ही चाहिए क्योंकि यौनवाद अपने आधारभूत स्वरूप में ही स्त्री विरोधी है। यह यौनवाद का ही परिणाम है कि बाजार पुरूषों की उत्तेजना बढ़ाने वाले अनगिनत उत्पादों से भरा पड़ा है और इसका बाजार बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्मचर्य अव्यवहारिक है तो यौनवाद भी बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए इसका विरोध आवश्यक है साथ ही इसके पीछे बाजार की शक्तियों को बेनकाब करना भी।

3.धर्म की सत्ता का विनाश करना होगा

चूंकि धर्म आधारभूत रूप से स्त्री विरोधी है। अतः स्त्री मुक्ति के लिए धर्म की सत्ता का विनाश आवश्यक है। हमें धर्म का स्थान लेने में सक्षम ऐसे नैतिक ढांचे का आविस्कार करना होगा जो मनुष्यों के भौतिक संबंधों पर आधारित हो। 

4.कानून/सुरक्षा/न्यायिक व्यवस्था में सुधार

किसी बड़े सामाजिक आंदोलन के अभाव में तदर्थ उपाय तो करने ही होंगे। इसके लिए कठोर कानून और उसका समयबद्ध क्रियान्वयन आवश्यक है। परंतु बलात्कार के लिए मृत्युदंड एक गलत विचार है क्योंकि ऐसा होने पर बलात्कारी पीडि़त महिला की सुबूत मिलाने के लिए हत्या कर देगा। अभी हमारे पास कानूनी पहलुओं के विषय में वर्मा समिति की प्रशंसनीय और विस्तृत सिफारिशें हैं उन्हें पूरी तरह लागू करना होगा। 

मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इनसे mohanmanuarya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।


थैचर की कैसी विरासत?

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...रेगन और थैचर ने जो कहा, उसे भारत में मनमोहन सिंह-मोटेंक सिंह अहलूवालिया और उनके हामी अनगिनत राजनेताओं एवं नीतिकारों के मुंह से हमने सुना। नरेंद्र मोदी उसे और भी पुरजोर तरीके से कह रहे हैं। लेकिन विंडबना यह है कि थैचर-रेगन की नीतियों पर अमल से पिछले तीन दशक में यूरोप और अमेरिका में वित्तीय पूंजी और शेयर बाजारों के वर्चस्व में जो अर्थव्यवस्था विकसित हुई, वह आज गहरे संकट में है।..."

“आप चाहे उनके समर्थक हों या विरोधी, (यह हकीकत है कि) मार्गरेट थैचर ने पिछले साढ़े तीन दशक में ब्रिटिश राजनीति का एजेंडा तय किया। आज सार्वजनिक जीवन में जिन भी बहसों का महत्त्व है- चाहे वे आर्थिक हों, सामाजिक नीति के बारे में हों या कानून, संस्कृति या दुनिया से देश (ब्रिटेन) के संबंधों के बारे में- उन सब पर उस छाप का कुछ हिस्सा जरूर नजर आता है, जो उन्होंने 1979 से 1990 के अपने शासनकाल में छोड़ी। जब चुनावी लिहाज से वे अपनी पार्टी पर बोझ बन गईं और उन्हें पद से हटा दिया गया, उसके बीस साल बाद भी ब्रिटिश सार्वजनिक जीवन (का स्वरूप) असाधारण रूप से उन्हीं बहसों से निर्धारित होता है, जिनमें एक पक्ष उनका है जो उनके (थैचर के) शुरू किए रास्ते को आगे बढ़ाना चाहते हैं और दूसरा पक्ष उनका है जो उस रास्ते को बदल देना चाहते हैं।” 

ब्रिटिशअखबार द गार्जियन के संपादकीय का यह हिस्सा मार्गरेट थैचर के महत्व का यथार्थवादी बयान है। वे ब्रिटेन की पहली महिला प्रधानमंत्री थीं, यह तथ्य ही इतिहास में उनकी जगह सुरक्षित करने के लिए पर्याप्त होता। लेकिन उन्होंने नीतियों और शासन के क्रम में अपनी जो भूमिका निभाई, उसके मद्देनजर यह बात उनके संदर्भ में प्राथमिक महत्व की नहीं रह गई।

बल्किअगर हम मार्गरेट थैचर के साथ उसी दौर के अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन को जोड़ दें, तो दुनिया भर में आर्थिक नीतियों पर उन दोनों के प्रभाव को साफ देख सकते हैं और कह सकते हैं कि आज अधिकांश देशों में कम से कम जो आर्थिक बहसें हैं, उनमें एक पक्ष रेगन-थैचर की नीतियों के समर्थकों का है, और दूसरा उनका है जो अनुभव, परिणाम और अपने आदर्शों के आधार पर इन नीतियों की प्रासंगिकता और उपयोगिता को चुनौती देते हैं। थैचर 1979 में ब्रिटेन की प्रधानमंत्री बनीं, रोनाल्ड रेगन 1981 में अमेरिका के राष्ट्रपति बने। उसके बाद दोनों ने दूसरे विश्व युद्ध के बाद कल्याणकारी राज्य के लोकप्रिय हुए चलन को तोड़ा। 

सरकारकी भूमिका घटाना, ट्रेड यूनियनों की ताकत को बेअसर करना और उन्मुक्त पूंजीवाद का खुला समर्थन थैचर-रेगन नीतियों के मुख्य बिंदु थे, जो बाद में नव-उदारवाद या वाशिंगटन सहमति के नाम से दुनिया भर में प्रचिलत हुए। ब्रिटेन में थैचर ने इन नीतियों को इन जुमलों में व्यक्त किया- “बाजार की समझ सरकारों से बेहतर है”, “समाज जैसी कोई चीज नहीं होती” और “ट्रेड यूनियनों की ताकत बेरोजगारी का असली कारण है”। इन वाक्यों में जो विचार निहित हैं, उन्हें उन्होंने सख्ती से (आप चाहें तो  निर्ममता से भी कह सकते हैं) लागू किया।

इस क्रम में थैचर जनमत को दो चरम धुरियों में बांटने वाली शख्सियत बन गईं। उनके समर्थक उन्हें लौह महिला कहते थे, तो विरोधी उन्हें निर्दयी मानते थे। उनके समर्थक मानते हैं कि उन्होंने उद्यम और बाजार को विचारधारा के शिकंजों से आजाद कर उन्हें फूलने-फलने का मौका दिया। लेकिन विरोधी मानते हैं कि वे मानवीय विवेक पर एनिमल स्पीरिट की विजय का माध्यम बनीं, जिससे दुनिया में ऐसी अर्थव्यवस्था बनी जिसमें वित्तीय पूंजी का वर्चस्व कायम हुआ, जिसके परिणास्वरूप आर्थिक विषमता बढ़ी और अब कर्ज एवं अटकलों पर आधारित ये अर्थव्यवस्था अपने ही बोझ के नीचे दबकर चरमराने के कगार पर है।

थैचरने अपनी विरासत किन कदमों से बनाई अगर इस पर गौर करें, तो चार बातें सामने आती हैं। पहला यह कि उन्होंने ट्रेड युनियनों की ताकत खत्म की। खास कर खदान मजदूरों के संघर्ष को विफल कर उन्होंने ब्रिटिश व्यवस्था में मजदूरों की ताकत को दीर्घकालिक रूप से पंगु बना दिया। दूसरा पहलू उनकी आर्थिक नीतियां हैं, जिन्हें नव-दक्षिणपंथ पर पहला कारगर अमल माना गया। सार्वजनिक क्षेत्र अनुत्पादक और करदाताओं पर बोझ है, अतः निजीकरण ही धन पैदा करने का उचित रास्ता है- जैसे विचार नव-दक्षिणपंथी विचारक दशकों से व्यक्त कर रहे थे। लेकिन इसे अमली जामा पहनाने का काम जिस सख्ती से थैचर ने किया, वैसा करने का साहस उस समय तक कोई नहीं जुटा पाया था। 

थैचर की तीसरी पहल सार्वजनिक सेवाओं में सरकार की भूमिका को घटाना था। कहा जाता है कि सिर्फ राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजना को छोड़कर उनके दौर में हर कल्याणकारी सेवा में सरकार ने अपनी भूमिका बेहद सीमित कर ली। और उनकी अगली खास नीति थी- न्यूनतम सरकार, अधिकतम शासन। इस विचार की जड़ में यह बात है कि बाजार को नियंत्रण मुक्त कर दिया जाना चाहिए। लेकिन समाज को सुरक्षित (व्यवहार में असंतोष को नियंत्रित) करने के लिए अधिकतम शासन की जरूरत है। इसलिए पुलिस और सेना की ताकत बढ़ाने की आवश्यकता है। हड़ताली मजदूरों से निपटने या जब पोल टैक्स लगाने पर स्कॉटलैंड में दंगे हुए तो थैचर ने ऐसे ही शासन की बानगी दिखाई।    

बहरहाल,ऐतिहासिक नजरिए से देखें तो कोई नेता या विचारधारा अपने समय की उपज होती है। थैचर-रेगन जिस समय सत्ता में आएसोवियत संघ की समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में लोकप्रिय हुई कल्याणकारी राज्य की अवधारणा कहा जा सकता है कि अपना युग पूरा कर चुकी थी। सोवियत व्यवस्था अनेक प्रतिकूल परिस्थितियों से घिरने लगी थी। दूसरी तरफ कल्याणकारी राज्य के ही परिणामस्वरूप मध्य वर्ग यूरोप और अमेरिका में एक बड़ी ताकत बन गया था। नव-उदारवाद के आक्रामक होने के लिए वह माकूल मौका था। 
यह भी सिर्फ संयोग नहीं है कि थैचर-रेगन के काल में ही सोवियत संघ अपने विखंडन के कगार पर पहुंचा। 1980 के दशक के सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव ने ग्लासनोश्त (खुलेपन) और पेरेस्त्रोइका (पुनर्निर्माण) की नीतियां अपनाईं और पश्चिमी देशों की तरफ मेलमिलाप का हाथ बढ़ाया। उसमें समाजवादी व्यवस्था के विखंडन की संभावनाओं को भांपने में रेगन और थैचर दोनों सफल रहे। नतीजा यह हुआ कि जब वे दोनों सत्ता से विदा हुए, तब तक सोवियत व्यवस्था ढहने के कगार पर पहुंच चुकी थी। इससे उनकी नव-दक्षिणपंथी नीतियों के लिए दुनिया भर में अनुकूल स्थिति बनी। 
रेगनऔर थैचर ने जो कहा, उसे भारत में मनमोहन सिंह-मोटेंक सिंह अहलूवालिया और उनके हामी अनगिनत राजनेताओं एवं नीतिकारों के मुंह से हमने सुना। नरेंद्र मोदी उसे और भी पुरजोर तरीके से कह रहे हैं। लेकिन विंडबना यह है कि थैचर-रेगन की नीतियों पर अमल से पिछले तीन दशक में यूरोप और अमेरिका में वित्तीय पूंजी और शेयर बाजारों के वर्चस्व में जो अर्थव्यवस्था विकसित हुई, वह आज गहरे संकट में है। थैचरवाद के प्रभाव में ब्रिटेन में लेबर पार्टी और रेगनवाद के प्रभाव में अमेरिका में डेमोक्रेटिक पार्टी ने अपने लिए नई राजनीतिक जमीन की तलाश की। इसे नव-उदारवादी नीतियों पर राजनीतिक आम-सहमति के रूप में देखा गया। 
लेकिनमार्गरेट थैचर को अपने जीवनकाल में ही दुनिया की दिशा पलटते हुए देखना पड़ा। अमेरिका से शुरू होकर यूरोप तक फैली मंदी के बाद आज अमेरिका और यूरोप में भाषा बदल चुकी है। हड़तालों, वॉल स्ट्रीट पर कब्जा करने के आंदोलन और बढ़ती सामाजिक अशांति संकेत दे रही है कि थैचर-रेगन के दौर का प्रतिवाद अब ठोस रूप ले चुका है। एक के बाद दूसरे देश में वे पार्टियां चुनाव जीत रही हैं, जो उस दौर की नीतियों को पलटने का संकल्प जताती हैं। स्पष्टतः थैचर ने जब आखिरी सांस ली, तो परिदृश्य पर उनके विचारों की विफलता हावी हो चुकी थी। यही विडंबना उनकी विरासत है। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

Attend an exclusive screening of Coal Curse

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Coal Curse

A film on the political economy of coal in India

Coal Curse Coal Curse, film by Paranjoy Guha Thakurta, supported by Greenpeace, takes you on a journey to the land of dirty coal and the trails and tribulations of the people working in the coal mines.
The documentary film explores the political economy of coal in contemporary India with the situation in Singrauli as a case study. It highlights the scandal, popularly called Coalgate, and the consequences of coal mining in the Singrauli region in central India. It raises questions as to whether the mad rush to extract for coal is the best answer to secure India’s energy needs.

Register yourself to attend an exclusive screening of the film.
Event details:

Coal Curse, a film by Paranjoy Guha Thakurta, supported by Greenpeace.
Date: Tuesday, April 16, 2013.
Time: 4.30pm onwards
Venue: PVR Plaza, K block, Connaught Place.

The screening will be followed by a discussion on India’s energy crisis and possible solutions.


COAL CURSE

Synopsis - The documentary film explores the political economy of coal in contemporary India with the situation in Singrauli as a case study. Coal is used to generate more than half the electricity used in India. The black mineral is crucial for the manufacture of steel and cement, among other products. Coal is basic to the working of the economy.

After highlighting the scandal, popularly called Coalgate, the film then moves from a macro-level to examine the micro-level consequences of coal mining in the Singrauli region in central India. The ecology of this region, described as the “electricity hub” of northern India, and the livelihoods of many, particularly those belonging to indigenous communities, have been irreparably devastated by coal mining.

The documentary film juxtaposes contrasting claims and counter-claims. It raises questions as to whether the mad-rush to extract coal is the best answer to secure India’s energy needs. Despite the best efforts of the government to step up thermal power generation, there were two electricity grid failures in the whole of northern India in July 2012.

The narrative of the documentary is laced with chosen nuggets from oral history and human experiences, old and new, that vary with experience, knowledge and degrees of suffering. Over and above the hard evidence provided, both visual and statistical, the film narrates the views of agents of change, positive as well as negative, in local government agencies, political groups, industrial organisations, civil society bodies and among activists in rural areas and urban clusters.

About Paranjoy Guha Thakurta:

http://www.interet-general.info/IMG/Paranjoy-Guha-Thakurta-1.jpg

Paranjoy Guha Thakurta

Paranjoy Guha Thakurta is a renowned independent journalist with a career spanning nearly 35 years cutting across different media: print, radio, television and documentary cinema. He is a writer, speaker, anchor, interviewer, and a commentator. Some of the media organizations that he has worked with are Business India, BusinessWorld, The Telegraph, India Today, The Pioneer, and Television Eighteen. Paranjoy has closely followed the issues around coal in the past, along with various aspects of the Indian political economy. He has produced other documentaries on coal

कोयले के अभिशाप दर्शाने वाली फिल्म “कोल कर्स”

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मुन्ना कुमार झा
-मुन्ना कुमार झा

"...इस फिल्म में उस विरोधाभास को दर्शाया गया है जिसके मुताबिक सिंगरौली एक तरफ तो भारत में बिजली उत्पादन का केंद्र है, वहीं दूसरी ओर खोयला खनन के चलते यहां विस्थापन, बर्बादी और निराशा की कहानियां मौजूद हैं। सिंगरौली से देश के बड़े शहरों में बिजली की आपूर्ति की जाती है, दिल्ली जैसे शहर को 15 फीसदी बिजली यहीं से मिलती है।..."


प्रैल का महीना आते ही देश भर में बिजली का भीषण संकट शुरू हो जाता है। ऊर्जा संकट के ऐसे ही वक्त में सामाजिक सरोकारों के लिए मशहूर पत्रकार प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने नई दिल्ली में अपनी डॉक्यूमेंट्री फिल्म “कोल कर्स” को प्रदर्शित किया। इस फिल्म के जरिए एक बार फिर सवाल उठा है कि भारत कब तक अपनी ऊर्जा संबंधी जरूरतों के लिए कोयले पर निर्भर रहेगा। 43 मिनट की इस डॉक्यूमेंट्री फिल्म में मौजूदा समय के भारत में कोयले से जुड़ी राजनीति और अर्थव्यवस्था को दर्शाया गया है। फिल्म का उद्देश्य इस कारोबार से जुड़े भ्रष्टाचार के पहलूओं को सामने लाना है। कोलगेट स्कैम के दौरान देश की जनता इसे पहले देख चुकी है लेकिन निर्देशक इसकी हकीकत को जानने के लिए भारत के मध्य क्षेत्र स्थित सिंगरौली इलाके में चल रहे कोयला खनन उद्योग की पड़ताल बारीकि से करते हैं। इस फिल्म में उस विरोधाभास को दर्शाया गया है जिसके मुताबिक सिंगरौली एक तरफ तो भारत में बिजली उत्पादन का केंद्र है, वहीं दूसरी ओर खोयला खनन के चलते यहां विस्थापन, बर्बादी और निराशा की कहानियां मौजूद हैं। सिंगरौली से देश के बड़े शहरों में बिजली की आपूर्ति की जाती है, दिल्ली जैसे शहर को 15 फीसदी बिजली यहीं से मिलती है। 

इस फिल्म के प्रदर्शन के दौरान प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने कहा, “कोयला अर्थव्यवस्था को चलाने में आधार की तरह काम करता है, लेकिन इसके लिए हमें भारी कीमत चुकानी पड़ रही है। सिंगरौली में कोयला खनन का विपरीत असर आम लोगों के जीवन पर दिख रहा है, ख़ासकर स्थानीय आदिवासी समुदाय के लोगों को जितना नुकसान हुआ है, उसकी कभी पूर्ति नहीं की जा सकती। भारत के विकास के रास्तों के चलते आमलोगों को कितना नुकसान उठाना पड़ा है, इसका आज का सिंगरौली प्रतिमान बन गया है।”

फिल्मके प्रदर्शन के बाद भारत में मौजूदा ऊर्जा संकट के मुद्दे पर एक पैनल परिचर्चा का आयोजन भी रखा गया। इस परिचर्चा का संचालन प्रंजॉय गुहा ठकुराता ने किया जिसमें ऊर्जा, राजनीतिक और सिविल सोसायटी से जुड़े विशेषज्ञ शामिल हुए। इस परिचर्चा में भी कोयला खनन मामले से जुड़े भ्रष्टाचार का मुद्दा उभरकर सामने आया। इसके अलावा यह सवाल भी उठा कि क्या देश की ऊर्जा संबंधी जरूरतों को पूरा करने के लिए पागलपन की हद तक जारी कोयला खनन ही सबसे बेहतर उपाय है।

कोलगेटस्कैम को सामने लाने में अहम भूमिका निभाने वाले कोयला मंत्रालय के पूर्व सचिव पीसी पारेख भी इस परिचर्चा में शामिल हुए। उन्होंने कहा, “जब मैं कोयला मंत्रालय में सचिव था, तब मैंने कोयला ब्लॉक के आवंटन के लिए एक पारदर्शी नीलामी व्यवस्था का प्रस्ताव रखा था। इस प्रस्ताव को प्रधानमंत्री ने, जिनके पास कोयला मंत्रालय का भी प्रभार था, ने इसे स्वीकृति दे दी थी। लेकिन तत्कालीन दो कोयला राज्य मंत्री राव और शिबू सोरेन इसके पक्ष में नहीं थे। सोरेन तो बाद में केंद्रीय कोयला बने। इन लोगों ने इस प्रस्ताव को लेकर टालमटोल वाला रवैया अपनाया। मेरे विचार से नीलामी की प्रक्रिया को तब तक वैसे ही रखा गया जब तक अच्छे ब्लॉक का आवंटन नहीं होगा। नीलामी की प्रक्रिया के जरिए देने के लिए कोई ब्लॉक बचा ही नहीं।”

ऊर्जा की समस्या के समाधान के मसले पर भी पैनल में चर्चा हुई, जिसमें यह तथ्य उभरकर सामने आया कि अक्षय ऊर्जा क्षेत्र में निवेश के नजरिए से सबसे बड़ी बाधा नीतिगत खामियां हैं। यह कोई तकनीकी समस्या नहीं है। इस परिचर्चा में ऊर्जा के क्षेत्र में दक्षता हासिल करने पर कोयला की मांग घटने की संभवनाओं को तलाशने को लेकर सरकार की उदासीनता पर भी चर्चा हुई। 

ग्रीनपीसइंडिया की पर्यावरण और ऊर्जा क्षेत्र की कैंपेनर अरूंधति मुथू ने कहा, “देश उस मुकाम पर आ पहुंचा है जहां से उसे यह तय करना होगा कि वह किस तरह की ऊर्जा के लिए निवेश करना चाहता है। सस्ते कोयला का युग अब बीत चुका है। अक्षय ऊर्जा की कीमतों में कमी आ रही है और कोयले की कीमत लगातार बढ़ रही है। दोनों में अंतर तेजी से बढ़ रहा है। ऊर्जा सुरक्षा और ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता ऊर्जा के अक्षय स्त्रोतों से हासिल होगी। कोयला खनन के बदले में जिस तरह की तबाही देखने को मिल रही है, उसमें अक्षय ऊर्जा का स्त्रोत ही बेहतर विकल्प होगा।”

“कोल कर्स”फिल्म को ग्रीनपीस की मदद से बनाया गया है और आने वाले दिनों में इसका प्रदर्शन दूसरे शहरों में किया जाएगा। 

ज्यादाजानकारी के लिए संपर्क करें: 

• अरूंधति मुथू, कैंपेनर, ग्रीनपीस इंडिया; +91 9880639937 arundhati.muthu@greenpeace.org 
• मुन्ना कुमार झा, ग्रीनपीस इंडिया, 09570099300 munna.jha@greenpeace.org
• सीमा जावेद , सीनियर मीडिया आफिसर ग्रीनपीस +91 9910059765, seema.javed@greenpeace.org

जहां से मैं निकला हूं वहां पहाड़ में जरूर आज भी एक जगह खाली होगी : मंगलेश डबराल

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समकालीन हिंदी कविता/साहित्य जगत पर जब चर्चा करनी होगी तो कवि मंगलेश डबराल के नाम के बगैर यह अधूरी रह जायेगी. साथ ही हिंदी पत्रकारिता के पिछले कुछ दशकों का अगर उसके उतार-चढ़ावों के साथ रेखाचित्र खींचा जाएगा तो भी इसके चढ़ाव की रेखाओं में मंगलेश जी की कलम की स्याही को अलग ही पहचाना जा सकेगा. यहाँ हमारे सहयोगी अंकित फ़्रांसिस ने मंगलेश जी से उनके गृहराज्य उत्तराखंड, समकालीन साहित्य और देश-दुनिया के हालातों पर तफसील से बातचीत की है. मूलतः यह साक्षात्कार साप्ताहिक अखबार 'दि संडे पोस्ट' के एक विशेषांक के लिए लिया गया था. वहां इसका संपादित अंश प्रकाशित हुआ था. praxis में हम यह पूरा साक्षात्कार दे रहे हैं. 'दि संडे पोस्ट' का आभार...
-संपादक  

"...मैं सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं कि जैसे पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वो वहां तक आ जाता है। मैं भी पहाड़ से फिसल कर इस तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि निकला है पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर वहां पहाड़ में आज भी एक खाली जगह होगी।.."

उत्तराखंड से बात शुरू करते हैं, जहाँ से आप आते हैं. नए राज्य गठन को इन बारह सालों बाद किस तरह देखते हैं आप?

http://3.bp.blogspot.com/-1hp0ZV3WtiE/TunsY91EBUI/AAAAAAAAARM/g4Xz1D4YQ2U/s1600/ac-manglesh-dabral1.gifमंगलेश- मेरा ये मानना है कि जब तक हम उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र की तरह माने जाते थे तो हमारी एक अलग पहचान थी और वो थी पर्वतीय क्षेत्र की पहचान। उत्तराखंड के एक अलग राज्य बन जाने से पहली दुर्घटना ये हुई है कि वो अब ‘पर्वतीय राज्य’ नहीं रह गया है। जनसँख्या आधारित नए परिसीमन ने पहाड़ी क्षेत्र की अस्मिता पूरी तरह ही नष्ट कर दी है। पहाड़ी इलाकों से उत्तराखंड के तराई क्षेत्र या उधमसिंह नगर और हरिद्वार जैसे राज्य में दो अनचाहे मैदानी जिलों में जो पलायन हुआ है उसने एक तरफ तो गाँवों को जनसँख्या विहीन किया है वहीँ दूसरी तरफ इन जगहों का जनसँख्या घनत्व बढ़ाया है। वहीँ अन्य मैदानी इलाकों से भी उत्तराखंड के मैदानी इलाके की तरफ जो लोग आये हैं उनसे भी इन इलाकों की जनसँख्या बढ़ी है। इस पर जनसँख्या आधारित परिसीमन ने फिर से पहाड़ की राजनीतिक स्थिति उत्तरप्रदेश वाली ही कर दी है। 

आप पहाड़ के गांवों में जाकर देखिए कि गांव के गांव खाली हैं। मकानों पर ताले लटके हुए हैं। लोग शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं चूंकि वहां उनके लिए कुछ है ही नहीं। हमारी सरकार की उपेक्षा के चलते खेती चौपट हो गई है। इन्होंने न तो खेती के तरीके बदले और न ही पहाड़ के किसानों को किसी तरह के उन्नत बीज दिए। आज तक किसान वही पुरातन हल और बैल के सहारे काम चला रहे हैं। इसी के चलते किसानों ने खेती छोड़ दी और सभी शहरों की ओर भागने लगे। या फिर दिया तो मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना), जिसमें किसानी छोड़ों और मजदूर बन जाओ। आपने इससे एक समय अच्छे से खेती कर गुजर-बसर करने वाले किसानों को एक झटके में दिहाड़ी मजदूरों में बदल दिया। हमारी परंपरागत जमीन बंजर होती जा रही है। संस्कृति पर बात करें तो उत्तराखंड की संस्कृति तेजी से विलुप्त हो रही है। हमारे लोकगीत नष्ट होते जा रहे हैं लेकिन इस ओर किसी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया। आपके सामने एक पूरी ऐसी पीढ़ी है जो पहाड़ से पलायन कर मैदान में आ चुकी है। जिसका पहाड़ से संबंध अब खत्म होता जा रहा है। मैदान में आकर पहाड़ी भी मैदानी होते जा रहे हैं।

क्या आप भी पहाड़ी बनाम मैदानी वाली लड़ाई की आरे इशारा कर रहे हैं?

मंगलेश- नहीं मैं यहां स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मैं कोई पहाड़वादी नहीं हूं। पहाड़वाद से मुझे भी घृणा है लेकिन मुझे मेरी पहाड़ी पहचान से बेहद प्रेम है। पहाड़ी पहचान और पहाड़वाद दोनों को अलग करके समझना बहुत जरूरी है। पहाडि़यों में मैदानियों के प्रति किसी तरह के पूर्वाग्रह का होना भी बहुत गलत है। पहाड़ में मैदानियों का हमेशा स्वागत होना चाहिए। पिछले दिनों से उत्तराखंड में भी जो बाहरी लोगों को भगाइये वाली प्रवृत्ति उभरकर आई है इसकी मैं घोर निंदा करता हूं। भरत झुनझुनवाला के साथ जिस तरह का व्यवहार हुआ पिछले दिनों वो भी निंदनीय है। लेकिन सरकार को चाहिए था कि परिसीमन को इस तरह किया जाता कि हर क्षेत्र के लोगों का नेतृत्व बना रहता। इसे क्षेत्रफल के आधार पर किया जाता तो बेहतर रहता। क्योंकि पहाड़ में अपने विशेष भूगोल के चलते हमेशा से कम आबादी है जो कि इन नीतियों के चलते अब खत्म होने की कगार पर है। क्षेत्रफल के हिसाब से परिसीमन क्यों नहीं किया गया इस पर भी आगे गंभीरता से विचार करने की जरूरत है।

पलायन उत्तराखंड गठन के बाद भी सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। उधर सरकार पलायन को विकास की प्रक्रिया का तर्क बता खारिज कर देती हैकहां गलती हो रही है?

मंगलेश- देखिए दिक्कत ये है कि विकास का जो मॉडल अप्लाई किया जा रहा है उसमें पहाड़ और मैदान को एक मान लिया गया है। जिस मॉडल से देहरादून में विकास का सपना देखा जा रहा है उसी सपने को पहाड़ के सुदूर गांवों पर भी लाद दिया जा रहा है। हमने स्थानीय मॉडल विकसित ही नहीं किए हैं। आप टिहरी में इतना बड़ा बांध बनाते हैं जो कि पूरे क्षेत्र को ही निगलने का सबब बन सकता है। क्यों आप छोटे बांध बनाने पर राजी नहीं हैंबहुत सी ऐसी गाड़ हैं जिन पर सफलता से छोटे बांध बना सकते हैं। लेकिन चूंकि ये परियोजनाए विशाल नहीं होंगी तो आप और बनाने वाली कंपनियों को मुनाफखोरी का मौका नहीं मिल पायेगा। इसी के चलते न तो पॉलिटिकल पार्टी और न ही कंस्ट्रक्शन कंपनियों की इसमें रुचि है। ये कंपनियां चाहती हैं कि किसी एक जगह पर बड़ी परियोजना बने जिससे उनकी बचत ज्यादा हो और काम कम हो।

इन्हीं सब नीतियों के चलते उत्तराखंड के कई प्राकृतिक संसाधन बेकार जा रहे हैं। सरकार खामोश है क्योंकि अगर वो बोलती है तो कई बड़ी निजी कंपनियों के इनसे हित प्रभावित होते हैं। दरअसल इन राजनीतिज्ञों और कंपनियों के हित भी आपस में जुड़े हुए हैं। हमें ये समझना चाहिए कि ये जो तथाकथित विकास है वो किस के पक्ष में हो रहा है। आप मुट्ठी भर लोगों को दिन पर दिन अमीर बना कर आम आदमियों का विकास नहीं कर सकते।

सवाल ये है कि क्या पलायन कर रहे आदमी तक विकास पहुंच रहा हैमैं आपको बता दूं कि पलायित आदमी का विकास नहीं हो रहा है उल्टे उनकी छोड़ी जगहों पर बाहर के लोग जमीनें खरीद रहे हैं। आप पिछले कुछ सालों के आंकड़े देंखे तो पता चलेगा कि पहाड़ के पहाड़ खरीदे-बेचे जा रहे हैं। और सिर्फ पहाड़ का ही ये हाल नहीं है यहां से बाहर झांकिए तो पता चलता है कि देश में मुट्ठी भर लोगों तक ही विकास सिमटता जा रहा है।

इसी के चलते उत्तराखंड आज एक पहाड़ी राज्य नहीं रह गया है। जबकि आप देखिए बराबर में ही हिमाचल है और पंजाब से अलग होने के बाद उसने अपनी पहाड़ी राज्य की पहचान को बनाए रखा है। हिमाचल आज इसी वजह से समृद्धि की ओर बढ़ रहा है क्योंकि उसने सबसे पहले अपने मूल नागरिकों की ओर ध्यान दिया। उत्तराखंड की असफलता का प्रमुख कारण अब तक यह रहा है कि जिन लोगों ने मतलब कि उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी और उत्तराखंड क्रांति दल ने राज्य आंदोलन में बड़ी भूमिका निभाई वो राज्य विभाजन के बाद गठन में कोई भूमिका नहीं निभा सके।

आज उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी तो हाशिए पर है और उक्रांद का हाल किसी से छिपा नहीं है। तमाम उत्तराखंड के बुद्धिजीवी या आंदोलनकारी जिनकी वजह से आंदोलन मुमकिन हुआ उन्हें आज कोई पूछता नहीं। इन्हीं में से एक ग्रुप ने उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी बनाई है लेकिन सब इतने अलग-थलग है कि बदलाव संभव नहीं हो पा रहा है। दरअसल जो सारी बुराईयां उस समाज में व्याप्त थी वो इन दलों में भी आ गई और इनकी ये गत हुई।

इसका सबसे बड़ा नुकसान ये हुआ कि पिछले बारह सालों में जो भी सरकारें आईं भाजपा या कांग्रेस की उन्होंने अपनी मर्जी से बिना किसी डर के काम किया। आप देखिए कि पिछले बारह सालों में धार्मिक पर्यटन के अलावा किसी भी और चीज को बढ़ावा नहीं दिया गया है। उत्तराखंड में सिर्फ सरकार के चमचे अफसरों की पौबारह रही है और आज भी है।

अफसरशाही को बनाए रखने के लिए ही आज भी राजधानी देहरादून में बनी हुई है। बावजूद इसके कि देहरादून का हाल बहुत ही खराब हो चुका है। आज देहरादून में अथाह भीड़ हैपांव रखने तक की जगह नहीं है। आज देहरादून इतना फैल गया है जो कि कल्पना से परे है। आप सबकुछ केन्द्रीकृत करते जा रहे हैं। इसी के चलते उत्तराखंड की संस्कृति को भारी नुकसान हुआ है। इसकी चिंता किसी को नहीं है। किसी ने भी कोई ऐसी योजना नहीं बनाई जिससे उत्तराखंड के संस्कृतिकर्मीबुद्धिजीवीरंगकर्मीलेखककविशिल्पकारचित्रकार या वहां के जागर लगाने वाले और वहां के ढोल-नगाड़े बजाने वाले को कोई फायदा हुआ हो।

आप देखिए कि उत्तराखंड साहित्य परिषद ही कितने समय तक वहां निष्क्रिय रही उसका कोई अस्तित्व ही नहीं था। आज भी उसकी सक्रियता नाम मात्र ही ही दिखाई पड़ती है। सब मिला के बारह वर्षों का लेखा-जोखा यही है। अब बताइए कि राज्य बनाने से ही क्या हासिल हुआ?

आपको आपत्ति किन पर हैबाहर से जो लोग आकर उत्तराखंड में बस रहे हैं उनपर या पहाड़ से जो लोग मैदान में बस रहे हैं उन पर?

मंगलेश- आज पहाड़ और राज्य के बाहर के दोनों लोग उत्तराखंड के मैदानी इलाकों की भीड़ बढ़ा रहे हैं। दरअसल उत्तराखंड बनने के बाद भी राज्य में पहाड़ी और मैदानी संस्कृति में बड़ा अंतर था। आज चूंकि पहाड़ी लोग मैदान की तरफ भाग रहे हैं तो पहाड़ी संस्कृति पर संकट व्याप्त हो गया है। दूसरी तरफ खाली हो रहे पहाड़ों को मैदानी लोग खरीदते जा रहे हैं।

आप हाल-फिलहाल में खुद को पहाड़ से किस तरह जोड़ कर रख पाते हैं?

मंगलेश- इस तरह जोड़ कर रख पाता हूं कि मैं सोचता रहता हूं अक्सर पहाड़ के बारे में। मैं खुद को इस तरह देखता हूं कि जैसे पहाड़ से एक पत्थर फिसलता है और जहां तक बहाव होता है वो वहां तक आ जाता है। मैं भी पहाड़ से फिसल कर इस तरह आ गया मैदान में। मैं भी वही पत्थर हूं जो कि निकला है पहाड़ से और आज भी पहाड़ का ही है। जहां से मैं निकला हूं जरूर आज भी वहां पहाड़ में एक खाली जगह होगी।

कभी वो खाली जगह दोबारा भरने का इरादा है?

मंगलेश- देखिए मेरे जीवन में काफी संघर्ष रहा खासकर अजीविका के लिए। मेरी शिक्षा भी अधूरी ही छूट गई थी। तब तक मैं मार्क्सवाद के भी संपर्क में आ गया था। मार्क्सवाद का अध्ययन करने से एक ये गलतफहमी भी हो जाती है कि भई अब क्या पढ़ेंगेअब तो हमें सबकुछ आता हैहम इस दुनिया में क्या और क्यों होता है सब जान चुके हैं तो क्या फायदा पढ़ने का। इसी के चलते पढ़ाई भी छूट गई। इसी कारण अजीविका के लिए पत्रकारिता भी करनी पड़ी। बहरहाल उम्मीद करता हूं कि मैं वापिस लौटूंगा।

आपने मार्क्सवाद का जिक्र किया तो पिछले दस सालों में खासकर कुछ अमेरिकी चिंतक इस दौर को एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी’ का दौर कहकर प्रचारित कर रहे हैं। इसे किस तरह देखते हैं?

मंगलेश- ये जो विचारधाराओं के फ्रेम टूटने की बात है तो हां बाजार के बढ़ते प्रभाव के कारण ऐसा हुआ है और पिछले कई वर्षों से कुछ अमेरिकी चिंतक ये एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी वाली बात रट रहे हैं। दरअसल वो लोग सिर्फ आइडियोलॉजी ही नहीं इसे एंड आॅफ हिस्ट्री और एंड ऑफ़ सिविलाइजेशन भी कह रहे हैं। उनका कहना है कि आने वाले समय में सिर्फ एक ही सभ्यता बची रहेगी। खासकर सोवियत संघ के पतन के बाद से यह बात और जोर-शोर से कही जाने लगी कि अमेरिका ही सबकुछ है और वही बचा रहेगा।

लेकिन अमेरिकी विचारधारा क्या है वो सब जानते है कि वो बाजार है। दरअसल आर्थिक नवउदारवाद ही इन सब चीजों को अपने अनुसार नियंत्रित कर रहा है। यही बाजार को चला रहा हैसत्ता परिवर्तन कर रहा हैसरकारें चला रहा हैबगावत कर रहा है। यही यह प्रचारित कर रहा है कि विचारधाराएं समाप्त हो गई हैं। जब तक सोवियत संघ था चाहे जैसा भी था बचा-कुचाटूटा-फूटा तब तक यह बात कहने का साहस उसमे नहीं था। तब दुनिया बइपोलर थी और अमेरिका अकेली शक्ति नहीं था। जिस दिन सोवियत संघ का पतन हुआ उसी दिन हेनरी किसिंगर का एक लेख बड़े जोर-शोर से छपा। उस लेख में था कि जिस चर्च का निर्माण अमेरिका कर रहा था वो अब पूरा हो चुका है और अब पूरी दुनिया को इसमें आकर सिर झुकाना चाहिए। सिर्फ एक ध्रुवीय हो जाने के कारण ही वो एक विचारधारा इतनी हावी है।

लेकिन आप देखिए कि विचारधारा का अंत तो नहीं हुआ इसका उदाहरण लैटिन अमेरिका है। लैटिन अमेरिका के बारह देश इस समय वामपंथी हैं। यूरोप के लिथुवानिया और लातविया में अभी-अभी कम्युनिस्टों की जीत हुई है। यूरोप में सोशल डेमोक्रेट्स चुन कर आए हैं बड़े पैमाने पर। दूसरी तरफ यूरोप में पूंजीवाद जिस अभूतपूर्व संकट से गुजर रहा है वो इतना भीषण है कि लोग उससे छुटकारा पाने के लिए भी वामपंथ की ओर आ रहे हैं। आक्युपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन की राजनीति हांलाकि बहुत डिफाइन नहीं है लेकिन अपने लक्षणों में वो भी एक वामपंथी आंदोलन ही है। चाहे ये कम्युनिस्ट आंदोलन नहीं है।

अगर वो लोग कह रहे हैं कि ये एंड ऑफ़ आइडियोलॉजी है तो हमें नारा देना चाहिए बैक टू आइडियोलॉजी। और मै तो कहना चाहूंगा कि स्थिति जैसी है वैसे में तो ‘वी मस्ट गो टू आइडियोलॉजी’ से ही हमें ताकत मिलेगी और इसी से हम अपना स्वप्न फिर से पा सकते हैं। आप ये समझिए कि ये सच है कि समाजवादी सत्ताएं भी भ्रष्ट हो गई थीं। माना कि सोवियत संघ भी भ्रष्ट हो गया होगा लेकिन सत्ताओं के भ्रष्ट हो जाने से आइडियोलॉजी भ्रष्ट नहीं हो जाती। आज भी मार्क्सवाद ने मनुष्यों के जितने सवालों का जवाब दिया है उतने जवाब कोई आइडियोलॉजी नहीं दे पायी है। तमाम उत्तराधुनिकता फेल हो गई है। उत्तराधुनिकतावाद का भी वही हिस्सा बचा रह गया जो वामपंथ के ज्यादा करीब था। उत्तराधुनिकतावाद ने ताकत की जो चीड़-फाड़ और विवेचना की है वो वामपंथी विवेचना ही है। वामपंथ की बहुत सी चीजे आपको उत्तरआधुनिकतावाद में मिलती हैं। मैं ये मानता हूं कि मार्क्सवादी विचारधारा की प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी क्योंकि इसमें कुछ ऐसी चीजे हैं जैसे कि आर्थिक संबंध ही सामाजिक संबंधों का डिफाइन करते हैं और मानव संबंधों की भी राजनीति होती है। इससे बड़ा कोई सूत्र नहीं है किसी भी विचारधारा में।

उत्तराखंड के संदर्भ में वामपंथी आंदोलन की क्या भूमिका रही है?

मंगलेश- उत्तराखंड में कम्युनिस्ट पार्टी का गठन बहुत पहले ही हो चुका था और प्रजामंडल आंदोलन में बहुत से कम्युनिस्ट भी शामिल थे। तेलाड़ी में भी श्रीदेव सुमन और हमारे एक कम्युनिस्ट साथी शहीद हुए थे फिलहाल नाम याद नहीं आ रहा इसके लिए मुझे माफ करें। तो काफी समय से वामपंथी आंदोलन वहां मौजूद रहा है। मेरे खुद के दो जीजा वहां वामपंथी आंदोलन में शामिल रहे हैं। उत्तरकाशी और टिहरी में इन लोगों ने ही आंदोलन की नींव रखी। लेकिन जैसी हालत बाकी देश में है कम्युनिस्ट पार्टियों की वैसी ही यहां भी है।

कम्युनिस्टों की इस हालत की प्रमुख वजह क्या रही हैं?

मंगलेश- उन्होंने समाजवाद का स्वप्न देखना छोड़ दिया है। अब रह गया है कि कुछ सीट जीत लीजिए जब चुनाव आएं तो या किसान आंदोलन चलाइए। लेकिन जो मूलभूत समस्या है वो यही है कि लोग जमीन ही छोड़ चुके हैं। किसानी में ही किसी की कोई दिलचस्पी रही नहीं। ऐसे में सारा किसान आंदोलन किसानों के विस्थापन और पुनर्वास तक ही सिमट कर रह गया है। बस इन्हीं जगहों पर कम्युनिस्ट पार्टियां उत्तराखंड और पूरे देश में भी काम कर रही हैं। उत्तराखंड में तराई के क्षेत्रों में सितारगंज के पास पुनर्वास के लिए और भी जहां जमीन खतरे में हैं वहां पार्टी काम कर रही है। लेकिन जाहिर है कि जो राजनीति आ गई है वही उनपर भी हावी है। हमारे यहां जातिवाद बहुत प्रबल है अभी तक आप ब्राह्मण और राजपूत से ही बाहर नहीं आ पाए। सभी राजनीतिक पार्टियों ने इसे बढ़ावा दिया है।

क्या कम्युनिस्ट पार्टियों में भी जाति समस्या है?

मंगलेश- नहीं कम्युनिस्ट पार्टी में तो मुझे कहीं नहीं दिखाई पड़ा। हां कांग्रेस और भाजपा ने इसे खूब बढ़ावा दिया है। यही एक ऐसा मुद्दा है जिसे कम्युनिस्ट पार्टियां अभी तक नहीं सुलझा पायी हैं। किसान खेती छोड़ रहे हैं तो बुनियादी विरोधभास खत्म होता जा रहा तो ऐसे में आप क्या आंदोलन चलायेंगे। आप आदिवासियों को साथ लेकर आंदोलन चला सकते थे लेकिन उनमें भी उस चेतना का अभाव है अभी। पिछले दिनों इन सभी कम्युनिस्ट पार्टियों ने मिलकर चुनाव लड़ने की बात की और टिहरी उपचुनाव साथ ही लड़ा। हिमाचल में भी यही प्रयोग अपनाया जा रहा है। शिमला में अभी दो प्रशानिक सीटें कम्युनिस्ट पार्टियों के पास है। इस तरह की घटनाएं उम्मीद जगाती ही हैं। तो अगर सभी पार्टियां साथ आकर लड़े तो थोड़ी सी आशा जगती है। दूसरी बात कि खासकर पहाड़ में कम्युनिस्ट पार्टियों के पास कोई बड़ा नेता रह नहीं गया। फिलहाल बी आर कौसवाल हैंविद्या सागर नौटियाल चले गएकमलाराम नौटियाल थे वो भयंकर रूप से बीमार चल रहे हैं [कॉ. कमलाराम नौटियाल का भी पिछले दिनों निधन हो गया है (सं०)]। इसी के चलते आज कोई बड़ा नेता रह नहीं गया है। नौजवानों की ओर देखा जाए तो वे करियर बनाने में लगे हुए हैं जो कि एक बड़ी समस्या है।

राज्य आंदोलन में उक्रांद और उत्तराखंड संघर्ष वाहिनी की बड़ी भूमिका रही। आज उक्रांद के टूटने से केन्द्र की तरह ही उत्तराखंड में भी विकल्पहीनता की स्थिति पैदा हो गई है। इन हालातों में उत्तराखंड के राजनीतिक भविष्य को किस तर से देखते हैं?

मंगलेश- चुनावी राजनीति का जो भविष्य है वही भविष्य और हश्र उत्तराखंड का भी है। वैसे भी चुनावी राजनीति का भविष्य होता ही क्या है। आने वाले किसी भी चुनाव में चाहे वो लोकसभा हो या किसी राज्य के विधानसभा चुनाव या उत्तराखंड की ही बात करे तो सिर्फ स्थानीय फैक्टर ही काम करेंगे। केन्द्र में तो बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के कोई भी पार्टी सत्ता में नहीं आ सकती। सपाबसपाबीजदएआईडीएमके और टीएमसी की भूमिका बढ़ती जायेगी। उत्तराखंड में बसपा और सपा जल्दी ही भूमिका निभाने के लिए तैयार हो जायेंगी। जातिगत राजनीति के खिलाडि़यों का भविष्य वहां भी उज्जवल है। मैं इसे उम्मीद की तरह नहीं बोल रहा हूं लेकिन ये आशंका है। कांग्रेस और भाजपा की अभी भी उत्तराखंड में स्थिति मजबूत है। क्योंकि यहां इनका परंपरागत वोट बैंक जैसे कि कांग्रेस का ब्राह्मण और भाजपा का ठाकुर खिसका नहीं है।

उत्तराखंड की मिट्टी से जुड़े रचनाकारों का साहित्य में क्या योगदान रहा?

मंगलेश- उनका योगदान निश्चय ही बहुत उल्लेखनीय और महत्वपूर्ण है। आप सुमित्रा नंदन पंत से शुरू करें और चंद्र कुंवर बड़थ्वालबृजेन्द्र लाल शाहपीतांबर दत्त बड़थ्वालवीरेन डंगवाल और राजेश सकलानी को देंखे या इनके अलावा और भी कई बड़े नाम है जैसे विद्या सागर नौटियाल हैं इन सभी ने साहित्य में अभूतपूर्व योगदान दिया। कई ने तो नये मानदंड स्थापित किए। आप चंद्र कुंवर बड़थ्वाल को देंखे वे पंत जी के समय में इतनी आधुनिक कविता लिख रहे थे। आप अब पढ़ते हैं तो आपको आश्चर्य होता है कि उनकी इतनी आधुनिक दृष्टि उस समय में थी। तो उत्तराखंड के लेखकों का योगदान बहुत ही ऐतिहासिक और प्रशंसनीय रहा है। इसके अलाव जो आज भी लिख रहे हैं उत्तराखंड में जैसे कि सुभाष पंतराजेश सकलानीविजय गौड़ आदि अब भी काफी उल्लेखनीय काम कर रहे हैं। मैं आपको बता दूं कि सिर्फ साहित्य लेखन ही नहीं इतिहासजनजातीय और अन्य क्षेत्र के लेखनों में भी पहाड़ के लोगों ने काफी योगदान दिया है। इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि उनके पास रचनाकर्म और संस्कृति की एक समृद्ध विरासत रही है। आप अगर गिनने बैठे तो मनोहर श्याम जोशीहिमांशु जोशी और पंकज बिष्ट जैसे और भी सैंकड़ों नाम निकलते ही जायेंगे। लेकिन मैं आपको स्पष्ट कर दूं कि इसका ‘उत्तराखंड’ नाम के इस नए पर्वतीय राज्य से कोई संबंध नहीं है। ये सभी लोग इस राज्य गठन से बहुत पहले से लिख रहे हैं इसमें इसका कोई योगदान नहीं है।

सुमित्रा नंदन पंत के अलावा किस उत्तराखंड के कवि का योगदान सबसे ज्यादा रहा है?

मंगलेश- चन्द्रकुंवर बड़थ्वाल बहुत बड़े कवि हैं। इससे पहले कुमाऊं में गुमानी, और गढ़वाल में  मौलाराम आदि भी हुए हैं। वैसे स्पष्ट कर दूं कि मैं चन्द्र कुंवर बड़थ्वाल को पंत जी से ज्यादा बड़ा कवि मानता हूं। बड़थ्वाल ज्यादा बड़े कवि हैं और कई मायनो में हमारे लिए ज्यादा जरूरी हैं। इसके बाद लीलाधर जगूड़ीवीरेन डंगवालराजेश सकलानी आदि का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

आपने चन्द्र कुवर बड़थ्वाल जी का जिक्र किया। क्या आपको नहीं लगता कि उन्हें जो स्थान मिलना चाहिए था वो नहीं मिला?

मंगलेश- इसके कई कारण रहे। पहला तो ये कि उनका निधन काफी कम उम्र लगभग तीस-पैंतीस के रहे होंगे तभी हो गया था। दूसरी बात ये कि वो पहले लखनऊ में थे फिर अपने गांव चले आए। यहां आए तो उन्हें ट्यूबरोक्यूलोसिस हो गया। तब टीबी का कोई इलाज था नहीं। इसी के कारण उनकी मृत्यु भी हुई। हां मैं मानता हूं कि उनकी उपेक्षा हुई । उनके संग्रह भी ज्यादा नहीं आ पाए और आलोचकों ने उनपर उस समय ज्यादा विचार भी नहीं किया। उस समय छायावाद का जोर था और बड़थ्वाल छायावाद से भी उभरकर आगे आ गये थे। निराला से पत्र व्यवहार था उनका। उन्होंने छायावाद को तो लगभग छोड़ ही दिया था। उस समय निराला के अलावा सिर्फ चन्द्र कुंवर बड़थ्वाल ही थे जिन्होंने मुक्त छंद का प्रयोग किया।

एक और नाम है जिनकी उपेक्षा की गईशैलेश मटियानी!

मंगलेश- शैलेश जी और मेरा तो बहुत ही दोस्ताना संबंध रहा है। हां ये सच है कि उनकी उस समय काफी उपेक्षा की गई। लेकिन पहाड़ के बड़े लेखकों में शामिल हैं। मनोहर श्याम जोशीशैलेश मटियानीविद्यासागर नौटियालराधाकृष्ण कुकरेतीरमाप्रसाद घिल्डियाल पहाड़ी काफी लोग हैं जिन्होंने अच्छी कहानियां लिखी।

आप के शुरू के दो कविता संग्रह पहाड़ पर लालटेन’ और घर का रास्ता’ को छोड़ दें तो आप पर आरोप है कि आपकी बाद की कविताओं में पहाड़ पीछे छूटता गया।

मंगलेश- दरअसल हम जो देखना चाहते हैं वो ढूंढ ही लेते हैं। ऐसा कुछ नहीं है जो आप कह रहे हैं। मेरा बाद का एक संग्रह है आवाज भी एक जगह है’ में पहाड़ की उपस्थिति काफी है। इस संग्रह में पहाड़ के दो लोगों पर कविता है। एक ढोलवादक थे केशव अनुरागी और एक लोककवि थे गुणानंद पथिक जो कि कम्युनिस्ट पार्टी के भी सदस्य थे। गुणानंद जी वहां रामलीला आदि में भी हारमोनियम बजाया करते थे और मेरे पिता जी को भी हारमानियम उन्होंने ही सिखाया था। उसमें मोहन थपलियाल की मृत्यु पर भी कविता है। मोहन थपलियाल और पंकज बिष्ट दो उल्लेखनीय कहानीकार हैं पहाड़ के। मेरे इस संग्रह में पहाड़ लौटा है फिर से और मेरा जो नया संग्रह आने वाला है उसमें भी पहाड़ की अच्छी-खासी उपस्थिति देखने को मिलेगी आपको। लेकिन मैं एक बात मानता हूं कि मेरी कवितओं में पहाड़ मसलन उस तरह नहीं आता है जिस तरह जगूड़ी या बड़थ्वाल जी की कविताओं में है। इसका एक कारण ये है कि मेरी कविताओं में पहाड़ और मैदान का द्वंद ज्यादा है। इसमें इन दोनों क्षेत्रों की टकराहट ज्यादा महत्व रखती है। जैसे पहाड़ी नदी जब मैदान में आती है तो उसका बहाव अचानक रुक जाता है। आप ऋषिकेश जैसी जगहों पर जाकर देखिए वहां गंगा का पहाड़ीपन मिटा नहीं है लेकिन उसका मैदानीपन शुरू हो जाता है। तो जहां उसका पहाड़ीपन खत्म हो रहा है और मैदानीपन शुरू हो रहा है उस जगह के पानी में एक अजीब सी टकराहट है। लगता है कि जैसे पहाड़ी जो पानी है वो उसी गति से आगे बढ़ने के लिए जोर लगा रहा है लेकिन मैदानी भूगोल उसे रोक रहा है। यही अजीब सी टेंशन है मेरी कविताओं में।

तो क्या यह आप ही के भीतर जारी मैदान में पहाड़ी बने रहने का संघर्ष है?

मंगलेश- हां कहा जा सकता है कि ये वही जिद है। लेकिन आपको बता दूं कि मैं देहरदून आ गया था 1980 के आस-पास और देहरादून के बाद यहीं नीचे की ओर आता गया। उसके बाद तो पहाड़ जाता रहा लेकिन लौटा नहीं। तो इस तरह का तनाव शायद मेरी कविताओं में है। एक और बात कि मेरी कविताओं में पहाड़ के वर्तमान से ज्यादा उनकी स्मृति अधिक है। लेकिन स्मृति असल में कोई स्मृति नहीं होती है। अतीत कोई अतीत नहीं होता।  अतीत भी मनुष्य का वर्तमान ही होता है क्योंकि उसके भीतर ही कहीं रहता है।

उत्तराखंड का फणीश्वरनाथ रेणु किसे मानते हैं?

मंगलेश- हालांकि इस तरह की तुलना करना मुझे पसंद नहीं है। लेकिन मैं कहना चाहूंगा कि शैलेश मटियानी जी का महत्वपूण योगदान है। अगर ऐसी तुलना की जाय तो रेणु जी भी बिहार के शैलेश मटियानी होंगे।

अपने करीब किन रचनाकरों को पाते हैंकिन युवा रचनाकारों में संभावना देखते हैं?

मंगलेश- बहुत से लोग हैं जैसे कि कवियों में प्रभातव्योमेश शुक्लशिरीष कुमार मौर्यनीलेश रघुवंशीअनुज लगुन और मनोज कुमार झा हैं। कहानीकारों में योगेन्द्र आहूजा और चंदन पांडे जैसे लोग हैं जो कि काफी संभावनाशील हैं। 

उत्तराखंड या पहाड़ शब्द जब आपके कानों में पड़ता है तो ऐसे कौन से दृश्य या यादें हैं तो आज भी पहले की तरह ताजा हैं और आंखों के सामने घूम जाती हैं?

मंगलेश- हालांकि काफी अद्भुत प्रश्न है पर हां मेरे गांव की यादें है जो आज भी वैसे ही ताजा हैं। जिनके दृश्य आज भी एकदम स्पष्ट हैं। जैसे पहला कि मैं अपने बचपन में गांव में बहुत धूप सेंकता था। आज भी वही बिंब मेरे दिमाग में जिंदा है कि औंधा लेटे हुए अपनी पीठ पर मैं सूर्य को महसूस कर रहा हूं। दूसरी मुझे वे बूढ़े याद हैं जो अपने चश्में से बीड़ी सुलगाया करते थे। सूरज की धूप से वे जब बीड़ी सुलगा लेते थे तो ये मुझे बड़ा चमत्कार लगता था कि अचनाक धुंआ कहां से उठने लग गया। तीसरा महिलाओं का घास-लकड़ी लाना मेरी स्मृति में एकदम स्पष्ट है। जब शाम को मैं अपने पिताजी के साथ वापिस लौटता था तो बीस-पच्चीस महिलाएं पूरा दल बना करके बोझा लिए हुए लौटती थीं। अब चूंकि वो चप्पलें आदि नहीं पहने होती थीं तो उनके चलन से जो धम-धम की आवाज पैदा होती थी वो आज भी मेरे भीतर मुझे महसूस होती है। वहीं से मुझे आज भी प्रेरणा मिलती है कि अगर श्रम किया जाय तो धरती भी हिलती है। उस धम-धम की आवाज में मैं धरती को हिलता हुआ महसूस करता था।  पहाड़ की औरतें अथाह श्रम करती हैं। इसी पर मैने एक कहानी लिखी थी जिसमें जब लड़की पहाड़ से शादी कर मैदान आती है तो वो महीने भर तक सोती है। चूंकि मैने पाया कि उन्हें मैदान आकर ही अपनी थकान उतारने का मौका मिल पाता है। इसी से मैंने सीखा और अपने जीवन में मैं लगातार श्रम करता आया हूं। मैंने अपने जीवन में कभी मुफ्त की रोटी नहीं तोड़ी।  

प्राकृतिक सम्पदा की लूट, पानी नहीं कोक पियो!

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जीवन चन्द्र 'जेसी'

-जीवन चन्द्र 'जेसी'

"...प्रदेश में आज भी सैकड़ों गाँव पीने के पानी से वंचित हैं और दूसरी तरफ बहुगुणा सरकार कोका कोला कम्पनी के साथ एम.ओ.यू. साइन कर कोका कोला बाटलिंग प्लान्ट को पानी मुहैया कराकर जनता को रंगीन बोतल में कोक परोसना चाहती है, अब जनता पानी नहीं बल्कि कोक पीये।..." 

त्तराखण्ड की बहुगुणा सरकार ने बहुराष्ट्रीय कम्पनी कोका कोला के साथ एक एम.ओ.यू.(करार) साईन कर सहसपुर व विकास नगर के बीच में कोका कोला का बाटलिंग प्लान्ट लगाने की अनुमति दे दी है। इस एम.ओ.यू. को बहुगुणा सरकार अपने विशेष उपलब्धि मान रही है। बहुगुणा सरकार के अनुसार कोका कोला उत्तराखण्ड में 600 करोड रूपये का निवेश करेगी तथा प्लान्ट लगने से 1000 लोगों को रोजगार मिलेगा।
कोकाकोला कम्पनी का सहसपुर व विकास नगर के बीच में प्लान्ट लगाने के लिए सरकार कम्पनी को कृषि योग्य उपजाऊ 60 एकड़ भूमि कौडि़यों के भाव देगी और इस प्लान्ट को यमुना एवं टौस नदी का पानी दिया जायेगा। उत्तराखण्ड में मात्र 13 प्रतिशत भूमि पर ही खेती होती है। इस पर औ़द्योगीकरण के नाम पर, विकास के नाम पर, सिडकुल व कोका कोला प्लान्ट जैसे बहुराष्ट्रीय देशी-विदेशी कम्पनियों को सैकड़ों एकड़ कृषि भूमि कौडि़यों के भाव से बेची जा रही है। प्रदेश में आज भी सैकड़ों गाँव पीने के पानी से वंचित हैं और दूसरी तरफ बहुगुणा सरकार कोका कोला कम्पनी के साथ एम.ओ.यू. साइन कर कोका कोला बाटलिंग प्लान्ट को पानी मुहैया कराकर जनता को रंगीन बोतल में कोक परोसना चाहती है, अब जनता पानी नहीं बल्कि कोक पीये। पीने के पानी की व्यवस्था तो प्रदेश की जनता के लिए सरकार करना ही नहीं चाहती उसे तो बहुराष्ट्रीय कम्पनी को मुनाफा पहुँचाना है। प्रदेश का पानी कम्पनी के मुनाफे के लिए बेच रही है। 

बहुगुणासरकार क्या ऐसी विकास की तस्वीर पेश कर अपनी उपलब्धियों की वाह-वाही लूटना चाहती है जहाँ कृषि भूमि को कौडि़यों के भाव बेचा जा रहा है। जल सम्पदा को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुनाफे के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है और ग्रामीण जनता पीने के पानी से वंचित है और आम जनता गरीबी मँहगाई व बेरोजगारी से त्रस्त है। हरिद्वार व उधम सिंह नगर में औद्योगक आस्थान (सिडकुल) के बनने के इतने वर्षों बाद भी स्थानीय लोगों को रोजगार के लिए आज भी पलायन करना पड़ रहा है और जो लोग वहाँ नौकरी कर भी रहे हैं तो वे ढाई तीन हजार रूपये में अर्द्धगुलामी में जीवन जी रहे हैं। ऐसे में रोजगार के झूठे सपने दिखाकर प्रदेश की सरकार प्राकृतिक सम्पदा जल व जमीन को बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के हवाले कब तक करती रहेगी ? सरकार को जनहित में कोका कोला कम्पनी के साथ किये गये एम.ओ.यू. को तत्काल रद्द करना चाहिए।

बहुगुणा सरकार का देखो खेल
शराब सस्ती मँहगा तेल

उत्तराखण्डमें बहुगुणा सरकार ने नयी आबकारी नीति से शराब सस्ती कर गली नुक्कड़ पर शराब/बीयर/वाइन की दुकानें खोलकर कमर तोड़ मँहगाई, बेरोजगारी से जूझ रही जनता को बर्बादी का तोहफा दे दिया है। नशा मुक्त उत्तराखण्ड की अपेक्षा के साथ राज्य आन्दोलन लड़ा गया लेकिन राज्य बनने के बाद स्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ। राजनेताओ, नौकरशाहों, व माफियाओं के गठजोड़ ने उत्तराखण्ड को नशे में डुबाये रखने की हर सम्भव प्रयास किया जाता रहा है। गरीबी, मँहगाई, बेरोजगारी से जूझ रही जनता सरकारों की जन विरोधी नीतियों के खिलाफ अपने आक्रोश, विरोध व प्रतिरोध को उभरने से रोकने के लिए प्रदेश की भाजपा व कांग्रेस की सरकारों ने राजस्व जमा करने के नाम पर जनता को नशे में डुबाये रखने के लिए हर सम्भव कुप्रयास किया है। 
प्रदेशमें सैकड़ों गाँव स्वास्थ्य सुविधाओं, पीने के पानी, बिजली, सड़क से आज भी वंचित हैं। सैंकड़ों विद्यालय शिक्षक विहीन या एकल शिक्षक पर चल रहे हैं। लेकिन प्रदेश की सरकारों ने इन समस्याओं के समाधान की कोई समुचित व्यवस्था तो नहीं की परन्तु गाँव-गाँव में शराब की दुकानें जरूर खोल दीं। शराब की दुकानों के खिलाफ जब जनता ने विरोध शुरू किया तो सरकार ने मोबाईल वैन से शराब बेचना शुरू कर दिया। 
इसवर्ष उत्तराखण्ड सरकार ने नयी आबकारी नीति के तहत शराब को सस्ता कर दिया। शराब से 22 प्रतिशत वैट (कर) कम कर शराब को सस्ता कर दिया है। प्रदेश में कमर तोड़ मँहगाई में दो जून की रोटी की व्यवस्था करने में आम आदमी का तेल निकल रहा है लेकिन सरकार दाल, रोटी सस्ता करने के बजाय शराब सस्ता कर रही है।
राजस्वजमा करने के नाम पर सरकार शराब सिंडिकेट/माफिया का हित साध रही है और जनता के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही है। देश के संविधान (भाग-4 राज्य के नीति निर्देशक तत्व) के अनुच्छेद 47 में स्पष्ट उल्लेख किया गया है कि राज्य का यह प्राथमिक कर्तव्य होगा कि वह लोगों के पोषाहार, और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करे तथा हानिकारक, मादक पदार्थों का उपयोग प्रतिषेध करने का प्रयास करे, लेकिन उत्तराखण्ड में सरकार संविधान का उल्लंधन कर उत्तराखण्ड को नशा मुक्त करने के बजाय लोक स्वास्थ्य को खराब करने व समाज में शराबजनित अपराधों के कारण अराजकता फैलाने के लिए शराब को सस्ता कर गली नुक्कड़ पर शराब की दुकानें खोल रही हैं और घर-घर में शराब पहुँचा रही है, क्या एक लोक कल्याणकारी राज्य का यही दायित्व बनता है ? 


जीवन चन्द्र उत्तराखंड के सक्रिय जन-आंदोलनकारी और पत्रकार हैं.
उत्तराखंड से निकलने वाले अखबार 'प्रतिरोध के स्वर' का संपादन
इनसे संपर्क का पता है- jivan.jc@facebook.com

बलात्कार की ही तरह घोर अमानवीय व सम्मान का उल्लंघन है 'टू फिंगर टेस्ट'!

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नेहा झा
-नेहा झा

"...इस टेस्ट के परिणाम अगर सकारात्मक आ जायें तो बचाव पक्ष के वकील की चांदी हो जाती है। अब वो अदालत में साबित कर सकते हैं कि लड़की तो सेक्स की आदी थी और बलात्कार उसकी सहमति  से हुआ है। अब सवाल शादी शुदा महिलाओं से जुड़ता है। यानी किसी विवाहित महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसकी मेडिकल रिपोर्ट और बचाव पक्ष के वकील तो यही कहेंगे कि  मी लोर्ड महिला तो सेक्सुअली हेबिचुअल थी  इसलिए सबकुछ सहमति से ही हुआ होगा। दूसरा कि ऐसे टेस्ट शादी क बाद पति द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की अवधारणा को ही नकार देता है।..."

दिल्ली में जिस तरह एक पांच साल की बच्ची के साथ जघन्य बालात्कार व उसके बाद का घटनाक्रम सामने आया, वह पूरी व्यवस्था पर एक बार फिर प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। एक ओर जहां अबोध के साथ बालात्कार ही नहीं किया गया बल्कि वहशियाना तरीके अपनाए गए। बच्ची के शरीर में मोमबत्ती व शीशी मिले हैं। यह क्रूरता की इंतेहां है। लेकिन उसके बाद जिस तरह पुलिस ने घटना को दबाने के लिए बच्ची के परिजनों को 2 हजार रुपए घूस की पेशकश की वह पूरी व्यवस्था की पोल खोल कर रख देता है। पुलिस की हरकतें इतने तक ही नहीं रुकी बल्कि इस जघन्य हत्या के खिलाफ प्रदर्शन कर रही छात्रा को एक एसीपी ने थप्पड़ मारे, जिससे कि उसके कानों से खून बहने लगा। यह पूरा वाकया पूरी व्यवस्था पर सवाल खड़े करता है कि हमारा समाज, सत्ता, पुलिस समेत समाजिक संस्थानों का क्या रवैया रहता है। सभी पर भ्रष्टाचार से लेकर पुरुषवादी सामंती नजरिया किस तरह हावी है। यों ही नहीं इस तरह की लगातार घटनाएं सामने आ रही हैं। दो दिन पहले ही हमने देखा कि इसी तरह यूपी में भी पुलिस की ओर से बालात्कार व हत्या के विरोध में प्रदर्शन कर रही महिलाओं के साथ कैसा सलूक किया। लेकिन सवाल केवल यहीं तक नहीं है। व्यवस्था का रवैया बाद की कानूनी प्रक्रियाओं में भी स्पष्ट देखने को मिलता है।
दिल्लीगैंगरेप  के बाद से बलात्कार के मुद्दे पर जोर-शोर से देशभर में बातचीत हो रही  हैं। तमाम बहसों व एक बड़े आंदोलन के बाद भी कहीं कुछ बदलता नजर नहीं आ रहा। बलात्कार की ये घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। सरकार केवल बजट में लुभावने घोषणा कर निपट लेती है। और जस्टिस वर्मा की ज़रूरी सिफारशें ठंडे बस्ते में डाल दी गई हैं। लेकिन अब जरुरी है कि सामाजिक आंदोलनों के साथ ही सरकार को व्यवस्थागत खामियों को दूर करने के लिए मजबूर किया जाए। खासकर बलात्कार के बाद चलने वाली कानूनी जांच प्रक्रिया पर बहस बेहद जरुरी है।
बालात्कार पीड़ितों को पुरुषवादी समाज किस तरह से मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना देता है यह किसी से छिपा नहीं है। पुलिसिया जांच प्रक्रियाओं पर भी पुरुषवादी सामंती नजरिया हावी रहता है। इसी में एक है टू-फिंगर टेस्ट । अभी तीन दिन पहले ही 17 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के मामलों में अहम फैसला लेते हुए  टू फिंगर टेस्ट को अमान्य घोषित कर  दिया  है। कोर्ट ने इस टेस्ट को पीडिता की शारीरिक और मानसिक अखंडता का उल्लंघन बताते हुए इसे मान्यता देने से मना  किया है। यह बेदह जरुरी फैसला है। लेकिन चुनौती अब भी इसे पूरी तरह बंद कराए जाने की है। इसे पहले भी अमान्य बताया गया था पर ये टेस्ट धड़ल्ले से किये जा रहे हैं। जस्टिस वर्मा कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस टेस्ट का बलात्कार के मामलों से कोई लेने देना नही होता है। इस कमिटी ने रेप पीड़ित के मेडिकल के लिए नया प्रोफार्मा बनाया था जिसमे टू  फिंगर टेस्ट को निकाल  दिया था लेकिन अभी तक इसपर कोई कार्यवाही नहीं हुई है। पुलिस धड़ल्ले से बलात्कार मामले में ये जांच करवा रही है।
सामंतीपुरुषवादी सोच ने बलात्कार के मामलों में भी महिलाओं को ही हमेशा से कटघरे में रखने की कोशिश की है। मसलन ऐसे मामलों में कोशिश की जाती है की पीडिता का चरित्र बस किसी तरह गलत साबित हो जाए। चरित्र मापने के पैरामीटर तो हमारे यहाँ पहले से ही तय किये जा चुके हैं । कानून की शीर्ष संस्थाओं में ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोगों के लिए भी ये पैरामीटर बदलते नहीं हैं। उनके  लिए भी बलात्कार और लड़की के चरित्र को जोड़ कर देखा जाना फैसला लेने के लिए बेहद जरुरी है। बलात्कार के  उन मामलों में दोषी के हक़ में फैसला देना उनके लिए आसान हो जाता है जिसमे बचाव पक्ष का वकील साबित कर दे की लड़की का चरित्र ठीक नहीं था क्यूंकि उसका शीलभंग पहले से हुआ था,वो पहले से सक्रिय सेक्स लाइफ जी रही थी।
टू फिंगर टेस्ट से पता लगाने की कोशिश की जाती है की लड़की कुवांरी है या नहीं। इसके लिए डॉक्टर पीड़िता के योनि में ऊँगली प्रवेश कर इस आधार पर रिपोर्ट देता है कि उसकी दो उँगलियाँ योनि में आसानी से प्रवेश कर पाती हैं या उसे दिक्कत महसूस हुई, प्रवेश के दौरान खून निकला या नहीं।
इसटेस्ट के परिणाम अगर सकारात्मक आ जायें तो बचाव पक्ष के वकील की चांदी हो जाती है। अब वो अदालत में साबित कर सकते हैं की लड़की तो सेक्स की आदी थी और बलात्कार उसकी सहमति  से हुआ है। अब सवाल शादी शुदा महिलाओं से जुड़ता है। यानी किसी विवाहित महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसकी मेडिकल रिपोर्ट और बचाव पक्ष के वकील तो यही कहेंगे कि  मी लोर्ड महिला तो सेक्सुअली हेबिचुअल थी  इसलिए सबकुछ सहमति से ही हुआ होगा। दूसरा कि ऐसे टेस्ट शादी के बाद पति द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की अवधारणा को ही नकार देता है।

फोटो- विजय कुमार
साल 2002  में संसोधित साक्ष्य कानून बलात्कार में पीड़िता के पिछले सेक्स अनुभवों का जिक्र करने को निषिद्ध किया गया था लेकिन साल 2006 में ही पटना के एक हाई कोर्ट ने इस टेस्ट को आधार मानकर बलात्कार के एक दोषी को बरी कर दिया गया था। इसी तरह पिछले साल ही बिहार के नालंदा जिले में दो लड़कियों के साथ हुए बालात्कार को पुलिस यह कहते हुए जायज ठहराती फिर रही थी कि लड़कियां सेक्सुअली हैबिच्यूअल थी। साफ है कि यह टेस्ट न केवल पीड़ितों के अधिकारों, सम्मान व निजता का हनन है बल्कि दोषियों को ही बरी करवाने का जरिया बन जाता है। इसलिए विभिन्न सामाजिक, सरकारी व कानूनी व्यवस्थाओं पर बहस ही न हो बल्कि ऐसी घोर अलोकतांत्रिक प्रक्रियाओं पर सख्ती से लगाम लगाई जानी चाहिए।
इसजैसे तरीकों से कानून व्यवस्था बलात्कार के मामलों में लड़कियों की निजता को सरेआम नीलाम  कर हर दिन उसका बलात्कार करती है। ऐसे परीक्षणों का केवल अमान्य घोषित करने से कुछ नहीं रुकेगा। जरुरत है इसे पूरी तरह बैन कर ऐसा करने वालों पर कठोर कानूनी कारवाई की जाये। इस टेस्ट को पूरी तरीके से बैन करने के मामले में सुप्रीम में एक रिट भी डाली गई है, जिसपर कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाबी मांगा है। जरुरी है कि इसपर तत्काल कदम उठाते हुए इसे पूरी तरह बैन किया जाए।
नेहापत्रकार हैं. फिलहाल एक दैनिक अखबार में काम.
इनसे संपर्क का पता- neha.jha.9081323@facebook.com

पैसे का लोकतंत्र और पैसे की ख़बरें!

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भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह

"...सरकारी हलफनामे से ज़ाहिर होता है कि वह चह्वाण को बचाने के लिए अब तक प्रचलित न्यूनतम संवैधानिक व्यवस्था को भी पलटने की पूरी तैयारी में है. सरकार का कहना है कि चुनाव आयोग तभी किसी उम्मीदवार को अयोग्य घोषित कर सकता है जब वह अपने चुनाव ख़र्च के कागजात दिखाने में नाकाम हो, उन कागजात के सही या ग़लत होने पर आयोग कुछ नहीं कर सकता..."

केंद्र की यूपीए सरकार पेड न्यूज़ छापने वाले मीडिया संस्थानों के ख़िलाफ़ कोई कदम उठाने के मामले में तो पहले ही हाथ खड़े कर चुकी है, अब वह चुनावों के दौरान पैसा देकर ख़बर छपवाने वाले नेताओं को बचाने के लिए भी खुलकर सामने आ गई है. सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में पेश एक हलफनामे में कहा है कि चुनाव आयोग को किसी जन प्रतिनिधि को उसके चुनावी ख़र्चे के आधार पर अयोग्य घोषित करने का अधिकार नहीं है. वह चुनाव के दौरान ख़र्च के फ़र्जी कागजात पेश करने को भी इतना संगीन नहीं मानती कि इस आधार पर किसी नेता का पद छीन लिया जाए. सरकार ने महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेसी नेता अशोक चह्वाण के केस में एक ऐसा ही हलफ़नामा सुप्रीम कोर्ट को दिया है. 

अशोक चह्वाण 2009 में हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान पेड न्यूज़ मामले में बुरी तरह फंसे हैं. बचाव का कोई रास्ता न देख उन्होंने सुप्रीम कोर्ट जाकर किसी जनप्रतिनिधि की सदस्यता को ख़ारिज करने संबंधी चुनाव आयोग के अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी. सरकारी हलफनामे से ज़ाहिर होता है कि वह चह्वाण को बचाने के लिए अब तक प्रचलित न्यूनतम संवैधानिक व्यवस्था को भी पलटने की पूरी तैयारी में है. सरकार का कहना है कि चुनाव आयोग तभी किसी उम्मीदवार को अयोग्य घोषित कर सकता है जब वह अपने चुनाव ख़र्च के कागजात दिखाने में नाकाम हो, उन कागजात के सही या ग़लत होने पर आयोग कुछ नहीं कर सकता.

फिलहालसुप्रीम कोर्ट की तरफ़ से इस मामले में कोई फैसला नहीं आया है लेकिन सरकार की तरफ़ से ऐसा हलफ़नामा देना इस बात की पोल खोल देता है कि वह पेड न्यूज़ मामले में कितनी गंभीर है. पेड न्यूज़ मामले में चुनाव आयोग उत्तर प्रदेश के बिसौली की विधायक उमलेश यादव को चुनाव ख़र्च के फ़र्जी दस्तावेज़ दिखाने और पेड न्यूज़ छापने के मामले में दोषी करार देकर तीन साल के लिए उनकी सदस्यता निरस्त कर चुका है. उनके अलावा झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री मधु कौड़ा, मध्य प्रदेश में बीजेपी के मंत्री नरोत्तम मिश्रा और अशोक चह्वाण को भी आयोग की तरफ़ से पेड न्यूज़ के मामले में नोटिस दिया गया है और उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की प्रक्रिया जारी है. 

उमलेशयादव वाले मामले ने बाक़ी के आरोपी नेताओं को भी डरा रखा है इसलिए सत्ताधारी पार्टी ने अपने नेता अशोक चह्वाण को बचाने के लिए कमर कस ली है. अशोक चह्वाण पर पेड न्यूज़ के अलावा भी भ्रष्टाचार के कई मामले दर्ज हैं. मुंबई के कुख्यात आदर्श सोसायटी घोटाले में भी उनका नाम शामिल है, जिस वजह से 2010 में उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी गंवानी पड़ी थी. आदर्श सोसायटी को युद्ध में मारे गए सैनिकों की पत्नियों के लिए बनाया गया था लेकिन कई नेताओं और नौकरशाहों ने उन फ्लैट की आपस में ही बंदरबांट कर ली थी. अशोक चह्वाण ने भी अपने तीन रिश्तेदारों को उस बिल्डिंग में फ्लैट दिलवाए थे. इस मामले में पुख़्ता सबूत होने की वजह से आख़िरकार कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना पड़ा था. वैसे अशोक चह्वाण कांग्रेस के दुलारे हैं, तमाम आरोपों के बावजूद अब भी वे पार्टी के वरिष्ठ नेता हैं. कांग्रेस की नेतागिरी से उनका पुराना नाता है, उनके पिता शंकरराव चह्वाण भी कभी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. इस लिहाज़ से देखा जाए तो परिवारवाद से घिरी कांग्रेस में इस खानदान की जडें काफ़ी गहरी हैं.

अशोकचह्वाण दो हज़ार आठ में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने थे. 13 अक्टूबर 2009 को हुआ महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव उन्हीं की अगुवाई में लड़ा गया. तब, चह्वाण महाऱाष्ट्र के नांदेड़ ज़िले की भोखर सीट से चुनाव जीते थे. उन्होंने अपने चुनाव अभियान में सिर्फ़ सात लाख रुपए का ख़र्च दिखाया. रिप्रेजेंटेशन ऑफ़ पीपल एक्ट, 1951 की धारा 77 के अनुसार एक प्रत्याशी प्रचार के दौरान दस लाख रुपए तक ख़र्च कर सकता है. चह्वाण ने चुनावों के दौरान पानी की तरह पैसा बहाया लेकिन चुनावा आयोग के सामने ख़र्च के फ़र्जी दस्तावेज़ पेश किए. द हिंदू के मशहूर पत्रकार पी साइनाथ ने अशोक चह्वाण के झूठ की पोल खोलते हुए उन्हें चुनाव अभियान के लिए निर्धारित राशि से कई गुना ज़्यादा पैसा ख़र्च करने और अवैध पेड न्यूज़ छपवाने का ज़िम्मेदार ठहराया. 

दरअसलमहाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के दौरान वहां के प्रमुख अख़बारों ने प्रत्याशियों की ख़बर छापने के लिए अपने रेट तय कर लिए थे. जो प्रत्याशी पैसा चुका रहा था उसी  की ख़बरें छापी जा रही था बाक़ी की ख़बरों को अख़बार कोई अहमियत नहीं दे रहे थे. उस दौरान सबसे बड़ी हलचल अशोक चह्वाण की एक ख़बर ने पैदा की थी. जिसके बाद पेड न्यूज़ के बारे में कोई शक बाक़ी नहीं रह गया. चह्वाण की महानता के बारे में महाराष्ट्र के तीन बड़े अख़बारों-महाराष्ट्र टाइम्स (टाइम्स ग्रुप), लोकमत और पुढारी में एक ख़बर छपी. युवा गतिमान नेतृत्वनाम से छपी इस ख़बर की सभी पंक्तियां शब्दश: एक जैसी थी. पुढारी में यह ख़बर सात अक्टुबर को छपी तो बाक़ी दो अख़बारों में 10 तारीख़ को. बाद में प्रेस परिषद की सब कमेटी की पेड न्यूज़ पर तैयार रिपोर्ट में परंजॉय गुहा ठकुरता और के श्रीनिवास रेड्डी की रिपोर्ट ने इसे सीधे-सीधे पेड न्यूज़ का मामला करार दिया. यह तो पेड न्यूज़ का एक छोटा सा उदाहरण था वरना ऐसी ख़बरों की उस दौरान महाराष्ट्र के अख़बारों में भरमार थी. पेड न्यूज़ के इस मामले ने भारतीय समाचार माध्यमों की निष्पक्षता और पत्रकारीय उसूलों पर कई सवाल उठाए. मुनाफ़े की होड़ में जुटे मीडिया घरानों की असलियत भी इस घटना से सामने आई.

पेड़न्यूज़ के मामले में अख़बारों और पैसे वाले प्रत्याशियों का गठजोड़ नज़र आने के बाद, पी साइनाथ ने अशोक चह्वाण के चुनाव अभियान पर कड़ी नज़र रखी और पाया कि उन्होंने पेड न्यूज़ के अलावा भी चुनाव के दौरान बेहिसाब पैसा ख़र्च किया. साईसाथ ने 29 नवंबर 2009 को अपने अख़बार में इज द ईरा ऑफ़ अशोक अ न्यू ईरा ऑफ़ न्यूज (क्या अशोक चह्वाण का दौर ख़बरों का नया दौर है?) शीर्षक से एक लेख लिखा, जिसमें उन्होंने आंकड़ों के साथ बताया कि चह्वाण ने चुनाव आयोग को दिए अपने हिसाब में समाचार पत्रों में अपने विज्ञापन का ख़र्च सिर्फ़ पांच हज़ार तीन सौ उन्यासी रुपए दिखाया. लेकिन द हिंदू ने सैंतालीस पेज के रंगीन विज्ञापन इकट्ठा किए जिसमें अशोक चह्वाण के विज्ञापन छपे थे. यह सभी विज्ञापन महाराष्ट्र में सर्वाधिक प्रसार वाले दैनिकों में छपे थे. हिसाब लगाया जाए तो इनका ख़र्च ही करोड़ों रुपए में आएगा. 

इसकेअलावा, चुनाव के दौरान फिल्मी दुनिया के फर्जी नायकों को वोट बटोरने के लिए इस्तेमाल करने का चलन भी अब काफ़ी बढ़ चुका है. कई नायकों ने तो इसे धंधा बना लिया है और वे सीजन में करोड़ों रुपया वसूलते हैं. अशोक चह्वाण भी अपने प्रचार में ऐसे नायकों का इस्तेमाल करने से नहीं चूके. उन्होंने अपने चुनाव क्षेत्र में मुंबइया फिल्मों के सलमान ख़ान जैसे सितारों को प्रचार में उतारा. यह बात जग ज़ाहिर है कि इस तरह के किसी सेलिब्रिटी का शो आयोजित करने में लाखों-करोड़ों रुपए का ख़र्च आता है. लेकिन अशोक चह्वाण इस बात से साफ़ मुकर जाते हैं. पी साइनाथ ने 10 नवंबर दो हज़ार दस को द हिंदू में लो कॉस्ट, हाई सेलिब्रिटी (कम क़ीमत में मंहगे सितारे) नाम से एक और लेख लिखा. जिसमें अशोक चह्वाण के चुनावी ख़र्च पर कई सवाल उठाए गए. चह्वाण ने पूरे चुनाव के दौरान जो सात लाख रुपए का कुल ख़र्च दिखाया था, उसमें बाक़ी ख़र्चों के अलावा सलमान ख़ान की दो रैलियां भी शामिल थीं. पहली रैली का ख़र्चा सिर्फ़ चार हज़ार चार सौ चालीस और दूसरी का चार हज़ार तीन सौ रुपया दिखाया गया. दोनों रैलियों में से प्रत्येक में डेढ़ हज़ार रुपया लाउड स्पीकर में ख़र्च दिखाया गया और रैली की जगह का किराया सिर्फ़ पांच सौ रुपया. पंडाल की कीमत दो सौ रुपया और मंच पर लगे सोफ़ा के लिए भी दो सौ रुपए का ख़र्च दिखाया गया. इस सफ़ेद झूठ पर चह्वाण अब तक क़ायम हैं. 

माना की सलमान, चह्वाण से अपने संबंधों की वजह से उनके प्रचार में आए लेकिन क्या मुंबई से चह्वाण के चुनाव क्षेत्र तक भी वह अपने ही ख़र्च पर आए थे? क्या उनके रहने खाने-पीने में भी कोई ख़र्च नहीं हुआसबसे बड़ी बात कि एक मशहूर मुंबइया अभिनेता की एक रैली में सिर्फ़ चार-पांच हज़ार रुपए ख़र्च!  सितारे की रैली के लिए प्रचार में क्या कोई पैसा ख़र्च नहीं हुआ?ख़ैर, इस तरह के अनगिनत सवाल हो सकते हैं. जिसका जवाब कोई भी सामान्य बुद्धि वाला आदमी भी दे सकता है लेकिन लोकतंत्र की रक्षक सरकारों को यह नज़र नहीं आता है.

उपरोक्त बातों से पता चलता है कि देश में संसद और विधानसभाओं में पहुंचने के लिए कितना पैसा ख़र्च होता है. इससे हमारे लोकतंत्र के फरेब की भी एक झलक मिलती है. कहने भर के लिए यहां देश का कोई भी नागरिक चुनाव लड़ सकता है और विधायक, सांसद, मंत्री राष्ट्रपति कुछ भी बन सकता है. लेकिन हक़ीकत देखी जाए तो साफ़ हो जाता है भारत में मुख्यधारा की संसदीय राजनीति सिर्फ़ पैसे वालों के लिए आरक्षित है. एक सरकारी रिपोर्ट (अर्जुनसेन गुप्ता कमेटी) के मुताबिक़ जिस देश के क़रीब पिचहत्तर फ़ीसदी लोग पह दिन बीस रुपए से भी कम कमा रहे हों, क्या वे भी कभी चुनाव लड़ने के बारे में सोच सकते हैं? क्या उनके भी कोई लोकतांत्रिक अधिकार हैं

कुल मिलाकर चुनाव की प्रक्रिया ही ऐसी है कि जिसमें ग़रीब लोगों के लिए कोई ज़गह नहीं है. जो भी व्यक्ति चुनाव लड़ना चाहता है उसे एक निश्चित धनराशि के जमानत के नाम पर चुनाव अधिकारी के पास जमा करानी होती है. विधानसभाओं के लिए यह राशि दस हज़ार रुपए है और संसद के लिए पच्चीस हज़ार. क्या पिचहत्तर फ़ीसदी देश की ग़रीब आबादी चुनाव में इतना पैसा चुनाव लड़ने पर ख़र्च करना बर्दाश्त कर सकती हैमाना वह किसी तरह यह रक़म इकट्ठा कर भी ले, तो क्या अरबों-ख़बरों और अवैध धन वालों के सामने ग़रीब लोग चुनाव जीत सकते हैं?इन अर्थों में देखा जाए तो यह चुनावी खेल सिर्फ़ पैसे वालों का है और संसदीय मुख्यधारा की सभी पार्टियां इस झूठे खेल में गले-गले तक डूबी हैं. उनकी पार्टी के पास अरबों-खरबों रुपया कहां से आता है, इसका हिसाब देने के लिए वे तैयार नहीं. इतना बड़ा गोलमाल कर अगर कोई पार्टी नैतिकता, ईमानदारी या देशभक्ति की बात करे तो इससे बड़ा झूठ और क्या हो सकता है? ऐसे में अगर धन-पिपाशु और आपराधिक मुकदमों में फंसे लोग अवैध धन के बल पर विधानसभाओं और संसद में पहुंचते हैं तो वे बहुसंख्यक ग़रीब जनता के हित में खाक नीतियां बनाएंगे!

वैसे तो चुनाव आयोग की प्रक्रिया ही अपने आप में ग़रीबों को हाशिये पर ढकेलने वाली है. लेकिन इसने जितनी भी स्वतंत्रता और अधिकार हासिल किए थे उसे भी अब नए दौर का निजाम बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं है. जहां-जहां उसे लगता है कि पैसे वाले प्रभावशाली लोगों के अधिकारों पर चोट हो रही है वह पूरी बेशर्मी से ग़लत को सही ठहराने में जुट जाता है. चुनाव आयोग और प्रेस परिषद जैसी संस्थाओं की सीमाएं यहां अपने-आप साबित हो जाती हैं. चुनाव आयोग कुछ कहता रहे, प्रेस परिषद अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू कितना ही निष्पक्ष दिखने की कोशिश करें, लोकसभा-राज्यसभा में पेड न्यूज पर चर्चा हो जाए, होगा वही जो पूंजी के गुलाम नेता चाहेंगे. पेड न्यूज़ पर बहस के दौरान कई बार कुछ बुद्धिजीवी मित्र इस तरह बात करते हैं,जैसे मीडिया राजनीतिक पार्टियों और नेताओं को ब्लैकमेल कर रहा है. जबकि बात इतनी सरल और आसान नहीं है. सरकार ने निजी कंपनियों के मीडिया यानी मुनाफ़ाखोरों को इतनी छूट दी है कि उनके सारे हित पूंजीवादी आर्थिक नीतियों को सही साबित करने में ही जुड़े हैं. 

इऩ अर्थो में देखा जाए तो पैसे वाली पार्टियों और पैसे वाले मीडिया के हित एक हैं. पेड न्यूज़ के लिए निजी मीडिया मालिक और निजीकरण की वकालत करने वाली पार्टियां समान रूप से ज़िम्मेदार हैं और दोनों इसका इस्तेमाल कर फायदे में रहते हैं. सार्वजनिक तौर पर मुनाफ़ाखोर मीडिया और कांग्रेस-बीजेपी जैसी पार्टियों से जुड़े लोग पेड न्यूज़ की कितनी ही आलोचना क्यों न करें, इस विकृति से तब तक बचना मुश्किल है जब तक मीडिया मालिकों को प्रेस की स्वतंत्रता के नाम पर मुनाफ़ा कमाने की स्वतंत्रता मिलती रहेगी और पैसे वाले लोग लोकतंत्र के नाम पर विधानसभाओं और संसद में पहुंचते रहेंगे. अशोक चह्वाण वाले मामले में सरकार की बेशर्मी को भी इन्हीं संदर्भों में समझना ज़रूरी है.

भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। 
कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

एक 'फ़ौजी' से 'कॉमरेड' बना 'गढ़वाली'

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Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी
 -इन्द्रेश मैखुरी

"...23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में हुई इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि गढ़वाली सिपाहियों ने क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक आवेश में घटित घटना या कांड नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था जिसकी तैयारी चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे।..."

तेइस अप्रैल, 1930 को बिना गोली चले, बिना बम फटे पेशावर में इतना बड़ा धमाका हो गया कि एकाएक अंग्रेज भी हक्के-बक्के रह गये, उन्हें अपने पैरों तले जमीन खिसकती हुई-सी महसूस होने लगी। इस दिन हवलदार मेजर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में रॉयल गढ़वाल राइफल्स के जवानों ने देश की आजादी के लिए लडऩे वाले निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इंकार कर दिया। अंग्रेजों ने तो पठान स्वतंत्रता सेनानियों के विरूद्ध गढ़वाली फौज को उतारा ही इसलिये था कि हिंदू-मुस्लिम विभाजन का बांटो और राज करोखेल जो वे 1857 के ऐतिहासिक विद्रोह के बाद से इस देश में खेलते आये थे, उसे वे पेशावर में एक बार फिर सरंजाम देना चाहते थे। लेकिन 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में हुई इस घटना को इस तरह पेश किया जाता है जैसे कि गढ़वाली सिपाहियों ने क्षणिक आवेश में आकर यह कार्यवाही कर दी हो। जबकि वास्तविकता यह है कि यह क्षणिक आवेश में घटित घटना या कांड नहीं था। यह एक सुविचारित विद्रोह था जिसकी तैयारी चन्द्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी काफी अर्से से कर रहे थे।

अंग्रेजीफौज में भर्ती होने से पूर्व चन्द्र सिंह की कोई विधिवत शिक्षा नहीं हुई थी। गरीब परिवार में 24 दिसंबर, 1891 को जन्मे लड़के के पिता यदि पढ़ाई-लिखाई से ज्यादा गाय-भैंस चराने को महत्वपूर्ण समझते थे तो यह कोई अचरज की बात नहीं थी। घर से भागकर वह फौज में भर्ती हुए। अंग्रेज पढ़ाई-लिखाई तो कराते थे पर हिंदी रोमन लिपि में लिखवाते थे। ऐसा इसलिये क्योंकि अनपढ़ सिपाही यदि देवनागिरी लिपि पढऩा सीख जायेगा तो देश के अखबारों में अंग्रेजों के विरूद्ध हो रही उथल-पुथल को पढ़कर जानने लगेगा। (आश्चर्यजनक यह है कि रोमन लिपि में हिंदी यानि अंग्रेजी में हिंदी लिखने का कायदा हमारी फौजों में अब भी कायम है) फ्रांस, मैसोपोटामिया (अब ईराक) आदि की लड़ाइयों के दौरान ही अंग्रेजों के बर्ताव से चन्द्र सिंह को अपने गुलाम होने का बोध होने लगा था। फौज में रहते हुए ही जब वे देवनागिरी लिपि सीख गये तो उन्होने हिंदी अखबार पढऩा शुरू किया। पेशावर में तैनाती के दौरान भी पकड़े जाने का खतरा उठाते हुए चन्द्र सिंह अखबार खरीदकर लाते, अपने साथियों के साथ रात में दरवाजे पर कंबल लगाकर उसे पढ़ते और सबेरा होने से पहले पानी में गलाकर नष्ट कर देते थे। 

इसलियेपेशावर में पठानों पर गोली चलाने के लिये भूमिका बनाते हुए अंग्रेज अफसर ने जब यह समझाना चाहा कि पेशावर में 94 फीसदी मुसलमान हैं, दो फीसदी हिंदू हैं। मुसलमान हिंदू की दुकानों को आग लगा देते हैं, लूट लेते हैं। शायद हिन्दुओं को बचाने के लिये हमें बाजार जाना पड़े और इन बदमाशों पर गोली चलानी पड़े’’। तो चन्द्र सिंह ने अपने साथियों को समझाया कि इसने जो बातें कही हैं सब झूठ हैं। हिंदू-मुसलमान के झगड़े में रत्ती भर सच्चाई नहीं है। न ये हिंदुओं का झगड़ा है न मुसलमानों का। झगड़ा है कांग्रेस और अंग्रेज का। जो कांग्रेसी भाई हमारे देश की आजादी के लिये अंग्रेजों से लड़ाई लड़ रहे हैं, क्या ऐसे समय में हमें उनके ऊपर गोली चलानी चाहिये? हमारे लिये गोली चलाने से अच्छा यही होगा कि अपने को गोली मार लें।’’ यानि जिस दौरान अंग्रेज निहत्थे स्वतंत्रता संग्रामी पठानों पर गोली चलवाने का षडय़ंत्र रचना शुरू कर रहे थे, तब तक चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके साथी भी पेशावर में निहत्थों पर गोली न चलाने के अपने विद्रोही दृढ़ निश्चय पर पहुंच चुके थे।

अंग्रेजस्वयं इस विद्रोह के महत्व और इसके संभावित परिणाम के खतरे को भांप चुके थे। वे जानते थे कि यदि इस घटना की व्यापक चर्चा हुई तो गढ़वाली पल्टन से उठी ये बगावत की चिंगारी पूरी अंग्रेजी फौज के हिंदुस्तानी सैनिकों में आग की तरह फैल जायेगी। इसलिये जब चन्द्र सिंह और उनके साथियों पर मुकदमा चलाया गया तो 23 अप्रैल को गोली न चलाने का मुकदमा नहीं चला। बल्कि 24 अप्रैल की हुक्म उदूली का मुकदमा चलाया गया। 24 अप्रैल, 1930 को अंग्रेजों ने फिर गढ़वाली पल्टन को पेशावर में उतारना चाहा। परंतु चन्द्र सिंह ओर उनके साथियों की कोशिशों के चलते उनकी बटालियन बैरकों से बाहर ही नहीं निकली। हालांकि इस हुक्म उदूली में पूरी बटालियन शामिल थी लेकिन कोर्ट मार्शल की कार्यवाही उन 67 सैनिकों के खिलाफ हुई जिन्होने ”24 घंटे के भीतर इस्तीफा मंजूर हो’’, लिखे कागज पर हस्ताक्षर किये थे। इन 67 में से भी सात सरकारी गवाह बन गये तो कोर्ट मार्शल में 60 ही लोगों को सजा हुई थी।

पेशावरमें गढ़वाली पल्टन द्वारा किया गया विद्रोह भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, जिसके महत्व को कमतर करने की अंग्रेजों ने भरसक कोशिश की। परंतु आश्चर्यजनक तो यह है कि हमारे स्वाधीनता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे कमतर ही आंका है। इस घटना केमहत्व को रेखांकित करते हुए 8 जून, 1930 के लीडर ने समाचार छापा कि ”1857 के बाद बगावत के लिये भारतीय सिपाहियों का पहला कोर्ट मार्शल आजकल एबटाबाद के पास काकुल में हो रहा है।’’ यानि अखबार तो पेशावर विद्रोह को 1857 के बाद का सबसे बड़ा सैनिक विद्रोह आंक रहे थे। परंतु अहिंसा की माला जपने वाले स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं ने भी इसे अंग्रेजों की तरह ही अपराध समझा।

फ़्रांसिसी पत्रकार चार्ल्स पैत्राश द्वारा गढ़वाली सिपाहियों के बारे में पूछे गये सवाल का जवाब देते हुए गांधीजी ने कहा था कि "वह सिपाही जो गोली चलाने से इंकार करता है, अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है, इस प्रकार वह हुक्म उदूली का अपराध करता है। मैं अफसरों और सिपाहियों से हुक्म उदूली करने के लिये नहीं कह सकता। जब हाथ में ताकत होगी, तब शायद मुझे भी इन्हीं सिपाहियों से और अफसरों से काम लेना पड़ेगा। अगर मैं इन्हें हुक्म उदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे भी डर लगा रहेगा कि मेरे राज में भी वे ऐसा ही न कर बैठें।" यानि अंग्रेजों की फौज के प्रति की गयी प्रतिज्ञा को तो गांधीजी महत्वपूर्ण मान रहे थे, परंतु देश की आजादी के निहत्थे मतवालों पर गोली न चलाकर अपनी जान को खतरे में डालने के गढ़वाली सैनिकों के अदम्य साहस की उनकी निगाह में कोई कीमत नहीं थी। अहिंसा के अनन्य पुजारी आजादी के संग्राम में इन सिपाहियों के योगदान को नकारते हुए इस बात के लिये अधिक चिंतित थे कि सत्ता हाथ में आने के बाद उनके कहने पर भी ये सिपाही निहत्थी जनता पर गोली न चलाये तो क्या होगा? पर सैन्य विद्रोह को कमतर आंकने या उन्हें नकारनें की यह प्रवृति सिर्फ पेशावर विद्रोह के प्रति ही नहीं है। बल्कि 1946 में हुये नौसैनिक विद्रोह के प्रति भी गांधीजी, पटेल आदि नेताओं का यही उपेक्षापूर्ण रवैया था। नौसेना विद्रोह के नाविकों को तो पटेल ने गुंडातक कहा था। साहित्यकारों ने अलबता इन विद्रोहों के उचित महत्व को रेखांकित किया था। जहां पेशावर विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली की जीवनी राहुल सांकृत्यायन ने लिखी, वहीं नौसैनिक विद्रोह पर साहिर लुधियानवी ने लंबी कविता लिखी:

ऐ रहबरे मुल्को कौम बता
ये किसका लहू है कौन मरा

केवल पेशावर विद्रोह की महत्ता को नकारा गया बल्कि यह भी भरसक कोशिश की गयी कि इस विद्रोह के नायक चन्द्र सिंह गढ़वाली की राजनैतिक भूमिका और विचारधारा को छुपाया जाये। यह आजादी के आंदोलन का इतिहास लिखने की कांग्रेसी शैली रही है कि आजादी के आंदोलन का इतिहास या तो कांग्रेस का इतिहास नजर आता है या अंग्रेजों का इतिहास।

पेशावरमें तैनाती से पहले ही 1922 के आस-पास चन्द्र सिंह आर्य समाज के निकट आ गये थे। आर्य समाज के प्रभाव में वह ऊंच-नीच, बलि प्रथा, फलित ज्योतिष आदि धार्मिक पाखंडों के विरोधी हो गये थे। आर्य समाज द्वारा किये गये देश भक्ति के प्रचार का भी उन पर प्रभाव था। पेशावर विद्रोह के लिये काले पानी की सजा पाने के बाद विभिन्न जेलों में यशपाल, शिव वर्मा, रमेश चंद्र गुप्त, ज्वाला प्रसाद शर्मा जैसे कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के साथ रहते हुए साम्यवाद से उनका परिचय हुआ और धीरे-धीरे चन्द्र सिंह गढ़वाली का साम्यवाद की और झुकाव हुआ। गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबंधकी शर्त पर जब उनकी रिहाई हुई तो महात्मा गांधी के वर्धा आश्रम सहित विभिन्न स्थानों पर रहते हुए वह बंबई स्थित कम्युनिस्ट पार्टी के कम्यून में पहुंचे और विधिवत पार्टी सदस्य बने। वहां से रानीखेत में पार्टी का काम करने उन्हें भेजा गया। जहां अकाल, पानी की समस्या समेत विभिन्न सवालों पर उन्होने आंदोलन चलाया। गढ़वाल प्रवेश पर से प्रतिबंध हटने तथा अंग्रेजों के देश से चले जाने के बाद भी गढ़वाल में अकाल, पोस्ट ऑफिस के कर्मचारियों की हड़ताल, सड़क, कोटद्वार के लिये दिल्ली से रेल का डिब्बा लगे ऐसे तमाम सवालों पर उन्होंने आंदोलन किए। कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर कामरेड नागेंद्र सकलानी टिहरी राजशाही के विरुद्ध लड़ाई तेज करने कीर्तिनगर पहुंचे। यहां 11 जनवरी, 1948 को सकलानी के साथ ही मोलू भरदारी की भी शहादत हुई। मोलू भरदारी भी कम्युनिस्ट पार्टी के उम्मीदवार सदस्य थे। 

इनदोनों शहीदों के मृत शरीरों को लेकर चन्द्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में जनता नें टिहरी मार्च किया। ये शहादत टिहरी राजशाही के ताबूत में अंतिम कील सिद्ध हुई। यानि 1930 में हुये पेशावर विद्रोह से लेकर 1979 में जीवन के अंतिम क्षण तक चंद्र सिंह गढ़वाली निरंतर स्वाधीनता आंदोलन से लेकर तमाम जन संघर्षों में शामिल रहे। इसमें जेलों के भीतर की अव्यवस्था और राजनैतिक बंदियों के लिये की जाने वाली भूख हड़तालें भी शामिल हैं। परंतु आज टुकड़े-टुकड़े में हमारे सामने पेशावर विद्रोह के इस नायक का जो ब्यौरा पहुंचता है उसे देखकर ऐसा लगता है कि चन्द्र सिंह गढ़वाली वो सितारा था, जो 23 अप्रैल, 1930 को अपनी समूची रोशनी के साथ चमका और फिर अंधेरे में खो गया । जबकि 1930 के बाद आधी शताब्दी से अधिक के जनता के मुद्दों पर जूझते रहे। चन्द्र सिंह गढ़वाली स्वतंत्रता संग्राम और उसके बाद भी संघर्ष की अदम्य जिजिविषा के चलते उत्तराखंड के सबसे बड़े नेताओं में एक ठहरते हैं। लेकिन उन्हें निरंतर उपेक्षित किया गया। इसकी सीधी वजह यह थी कि कम्युनिस्ट पार्टी से जुडऩे के बाद उन्होंने कांग्रेसी खांचे में फिट होने से इन्कार कर दिया। राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखित उनकी जीवनी में यह दर्ज है कि 1946 में उनके गढ़वाल आने पर कांग्रेसियों ने जगह-जगह कोशिश की कि वह सीधे जनता से न मिल सकें। 

श्रीनगरमें तो भक्तदर्शन के नेतृत्व में कांग्रेसियों ने उनसे मिलकर कांग्रेस में शामिल होने और फिर एम. पी., एम. एल. ए. जो चुनाव वह चाहें लडऩे का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव को गढ़वाली जी ने कम्युनिस्ट पार्टी का सदस्य होने का हवाला देते हुए ठुकरा दिया। साथ ही उन्होंने कहा कि यदि कांग्रेसियों की उन पर इतनी श्रद्धा है तो वे एक सीट उनके लिये छोड़ दें। जाहिर-सी बात है कांग्रेस नें इसे स्वीकार नहीं किया। देश की आजादी के बाद टिहरी राज परिवार की राजमाता और राजा जिनके हाथ नागेंद्र सकलानी, श्रीदेव सुमन जैसे कितने ही शहीदों के खून से सने थे, कांग्रेस का दामन थामकर भारतीय संसद में पहुंच गये। परंतु सिद्धांतों पर अडिग रहने के चलते कम्युनिस्ट चन्द्र सिंह गढ़वाली को कांग्रेसियों ने भोंपू लेकर घूमने वाला पागल घोषित कर हंसी का पात्र बनाने की भरसक कोशिश की। चन्द्र सिंह गढ़वाली को नीचा दिखाने का कोई मौका उन्होंने हाथ से नहीं जाने दिया। यहां तक कि आजादी के बाद 1948 में तत्कालीन संयुक्त प्रांत की गोविंद बल्लभ पंत के नेतृत्व वाली सरकार ने उन्हें गिरफ्तार किया तो गिरफ्तारी के कारणों में पेशावर में हुए गदर का सजायाफ्ता’’ होना और कम्युनिस्ट पार्टी के जोरदार कार्यकर्ता’’ होना बताया गया है। इसकी खबर भारतीय अखबारों तथा लंदन के डेली वर्कर में छपने के बाद हुई फजीहत के चलते पंत की तरफ से माफी मांगी गयी और गिरफ्तारी नोटिस में पेशावर घटना के उल्लेख को आपत्तिजनक’’ माना। वह पेशावर विद्रोह के सैनिकों के पेंशन के मसले पर प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के पास पहुंचे। नेहरू जी से चन्द्र सिंह ने मांग की कि पेशावर कांड को राष्ट्रीय पर्व समझा जाय और सैनिकों को पेंशन दी जाये। जो मर गये उनके परिवार को सहायता दी जाये।’’ आजादी के आंदोलन की बड़ी शख्सियत और आजाद भारत के पहले प्रधानमंत्री ने उन्हें टका-सा जवाब दे दिया मान्यता? तुम तो बागी हो।’’

चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों का अंग्रेजों का विरोध करने से भी बड़ा संदेश संभवत: यह है कि सरकारी नौकर होने के बावजूद हमें अपने विवेक को नहीं खोना चाहिए। हमें देखना चाहिए कि हम जिस व्यवस्था की सेवा कर रहे हैं वह किस हद तक जन विरोधी है या हो सकती है। और यह संदेश ज्यादा गंभीर और शाश्वत किस्म का है इसलिए सत्ताधारियों के लिए बेचैन करने वाला है।

चन्द्र सिंह गढ़वाली की कांग्रेसियों द्वारा उपेक्षा का यह दौर उनके अंतिम दिनों तक चलता रहा और वैचारिक रूप से तो उन्हें मारने की कोशिशें आज भी जारी हैं। नारायण दत्त तिवारी, जिनकी सभा में कोटद्वार में लगी लाठियों के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली फिर बिस्तर से न उठ सके और पहली अक्टूबर, 1979को दुनिया से रुखसत हो गए, उन्हीं तिवारी ने उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनने के बाद वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली पर्यटन योजनाचलायी। एक ऐसा व्यक्ति जिसने फांका करना कबूल किया पर भ्रष्ट आचरण स्वीकार नहीं किया, उसके नाम पर ऐसी योजना चल रही है जो भ्रष्टाचार और कमीशनखोरी के लिये ही जानी जाती है। तिवारी से उन्हें इससे बेहतर श्रद्धांजलि की उम्मीद की भी नहीं जा सकती थी ।

चन्द्रसिंह गढ़वाली की स्मृति में 23 अप्रैल को पीठसैण में प्रतिवर्ष मेला लगता है। इस मेले में नेताओं के भाषण सहित सब कुछ होता है। बस यह बताने की हिम्मत कोई नहीं करता कि चन्द्र सिंह गढ़वाली की विचारधारा क्या थी। आजकल तो भाजपा वाले भी जोर-शोर से चन्द्र सिंह गढ़वाली का नाम लेते हैं।मुख्यमंत्री की हैसियत से भुवन चन्द्र खंडूड़ी पीठसैण और रमेश पोखरियाल निशंकभी पीठसैण के मेले में गए थे ।

पेशावर में निहत्थे पठानों पर गोली चलाने से इन्कार करने के बाद चन्द्र सिंह गढ़वाली भारत की गंगा-जमुनी तहजीब और हिंदू-मुस्लिम एकता के बड़े नायक के रूप में सामने आते हैं, जिन्होने अंग्रेजों की फूट डालो राज करोकी नीति को पलीता लगा दिया था। देश में मंदिर मस्जिद के नाम पर और उत्तराखंड में भी एम.एम.एस. कांड के नाम पर, मस्जिदों में मुर्दा पशु फेंकने, बरावफात के जुलूस पर पथराव करने जैसे तमाम सांप्रदायिक उन्मादी कारनामे सरकारी संरक्षण में करने वाले भाजपाई, चन्द्र सिंह गढ़वाली की हिंदू-मुस्लिम एकता की परंपरा से नजरें कैसे मिलायेंगे? वे तो अंग्रेजों की फूट डालो राज करोकी परंपरा के वारिस ही हो सकते हैं।

चंद्र सिंह गढ़वाली आजीवन कम्युनिस्ट रहे। कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव भी लड़ा और जन संघर्षों की अगुवाई भी उन्होनें की। चन्द्र सिंह गढ़वाली की समझौता विहीन संघर्षों की परंपरा को आज भी उत्तराखंड व देश में आगे बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन देश की दो बड़ी कम्युनिस्ट पार्टियां-भाकपा व माकपा कभी सांप्रदायिकता से लडऩे के नाम पर तो कभी किसी और नाम पर, मेहनतकश अवाम पर भरोसा करने के बजाय कभी कांग्रेस, कभी लालू, कभी मुलायम, कभी मायावती का तथाकथित तीसरा, चौथा मोर्चा बनाने में ही अपनी ऊर्जा खर्च करती रही हैं। आजादी से पहले ही जब बम्बई में चन्द्र सिंह गढ़वाली कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने तो उस वक्त उन्होंने पार्टी के तत्कालीन महासचिव कामरेड पी. सी. जोशी से कहा था कि कामरेड जोशी, नेहरू पर जो इतना विश्वास करते हैं वह ठीक नहीं है। नेहरू को मैं नजदीक से जानता हूं। जेल से बाहर निकलकर वे नरेन्द्र देव का भोंपू, पटेल की लाठी लेकर आयेंगे और हर तरह से पार्टी को दबा देने की कोशिश करेंगे।’’ 66  सालों के बाद जबकि कांग्रेस नेहरू वाली कांग्रेस भी नहीं रह गयी है, तब क्या भाकपा-माकपा के कामरेड कांग्रेस , लालू, मुलायम जैसों के पीछे दौडऩे के बजाय कामरेड चन्द्र सिंह गढ़वाली की बात पर गौर फरमाने की जहमत उठायेंगे?


कामरेडचंद्र सिंह गढ़वाली की सांप्रदायिक सद्भाव और समझौताविहीन संघर्षों की परम्परा को लाल सलाम .

इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

फारबिसगंज का क्रूर गोलीकांड और नीतीश का छ्द्म सेकुलरवाद

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सरोज कुमार
-सरोज कुमार

"...नीतीश कुमार जिस सेकुलर छवि व मुसलमानों के प्रति प्रेम को जाहिर कर रहे हैं वह फारबिसगंज जैसे मामले में हवा हो जाती है। पिछले दो सालों से अररिया जिले के फारबिसगंज गोलीकांड के पीड़ित इंसाफ व अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सुशासन बाबू की पुलिस-प्रशासन ने दोषियों की बजाय पीडि़तों के दमन में ही लगातार जुटी हुई है। अब पुलिस ने गोलीकांड में पुलिस की गोली से मारे गए 3 लोगों और मर चुके 3 अन्य लोगों समेत 50 ग्रामीणों पर ही वारंट जारी कर दिया है।..." 


बिहार का राजनैतिक खेल देश की राजनीति को प्रभावित करने की कोशिश कर रहा है। भाजपा के साथ जदयू गठबंधन की गहरी दोस्ती में चल रही उठापटक ने माहौल गरमा दिया। मोदी के रथ पर सवार होने की कोशिश कर रही भाजपा को अपने सहयोगियों के ही विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इसी में शामिल है सुशासन बाबू की जदयू। कहा तो ये भी जा रहा है कि नीतीश को आगे करने में भाजपा का ही एक धड़ा सक्रिय है। लेकिन फिलहाल इस ओर ना भी जाएं सामान्य तरीके से भी देखें तो भी नीतीश के सेकुलर तिकड़म और सुशासन का खेल साफ नजर आ जाएगा। नीतीश कुमार जिस सेकुलर छवि व मुसलमानों के प्रति प्रेम को जाहिर कर रहे हैं वह फारबिसगंज जैसे मामले में हवा हो जाती है। पिछले दो सालों से अररिया जिले के फारबिसगंजगोलीकांड के पीड़ित इंसाफ व अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। लेकिन सुशासन बाबू की पुलिस-प्रशासन ने दोषियों की बजाय पीडि़तों के दमन में ही लगातार जुटी हुई है। अब पुलिस ने गोलीकांड में पुलिस की गोली से मारे गए 3 लोगों और मर चुके 3 अन्य लोगों समेत 50 ग्रामीणों पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है किफारबिसगंज केभजनपुरा गांव के सारे पुरुष भागे फिर रहे हैं। और ये सारे गरीब मुसलमान ग्रामीण हैं। मुसलमानों की बड़ी आबादी वाला जिला अररिया  बिहार के सबसे पिछड़े जिलों में है जहां गरीबी बहुत ही ज्यादा है। लोगों को मूलभूत सुविधाएं भी नहीं मिल पाती। 

कैसे भूला जा सकता है मर रहे नौजवान पर कूदती सुशासन की पुलिस को...

अररियाजिले के फारबिसगंज के भजनपुरा गांव में 3 जून 2011 को लोकतंत्र के उस क्रूर प्रदर्शन को कैसे भूला सकता है। कैसे भूल सकते हैं हम कि पुलिस की गोलियों का शिकार हो घायल मुसलिम नौजवान पर नीतीश कुमार की पुलिस का जवान कूद-कूद कर उसे पैरों से रौंद रहा था? आखिर जिसपर जनता की सुरक्षा की जिम्मा हो वह कैसे इतना क्रूर अट्टाहस कर सकता है। इस दर्दनाक वीडियो देख साफ जाहिर होता है कि बिहार पुलिस का वह जवान किस तरह घृणा के वशीभूत अट्टाहस करते हुए गालियां बक रहा था और युवक को रौंद रहा था। यह उसी सामंती , सांप्रदायिक घृणा व हिंसा का ही नमूना था।
हमकैसे भूल सकते हैं कि अपने पति के लिए खाना लेकर जा रही यासमीन को भी पुलिस की छह गोलियां लगी थीं। वह सात महीने की गर्भवती थी। और उस आठ महीने के मासूम नौशाद का भी क्या कसूर था जिसे पुलिस ने गोलियों से भून दिया था। इनके अलावा एक और युवक यानि की कुल चार मुसलमान ग्रामीणों को पुलिस ने मार डाला था। मरने वाले दो यवुकों में एक 18 साल का मुख्तार अंसारी व 20 साल का मुश्ताक अंसारी थे।
औरपुलिस ने ये घोर दमनकारी कार्रवाई केवल इसलिए की क्योंकि भजनपुरा गांव के ग्रामीण अपने आम रास्ता को बंद किए जाने का विरोध कर रहे थे जिसका प्रयोग वे शहर जाने के लिए करते थे। उस सड़क की जमीन को ऑरो सुंदरम इंटरनेशनल कंपनी को दे दिया गया था जिसके शेयर हॉल्डरों में सत्तासीन भाजपा के नेता भी हैं। साफ है कि सत्ता व शासन के इशारे पर यह लोमहर्षक कार्रवाई की गई थी। यह पूरी कार्रवाई एसपी गरिमा मल्लिक व अन्य उच्चाधिकारियों की मौजूदगी में हुई। पर किसी ने इसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं की। वो तो किसी ने इस घटना के वीडियो को इंटरनेट पर डाल दिया जिससे की पूरी दुनिया में यह कार्रवाई पता चल गई।

अब पीड़ितों समेत शिकायत करने वाले 50 ग्रामीणों पर ही जारी कर दिया गया वारंट...

इसपूरे वाकये को याद करना इसलिए जरुरी है कि इसके बावजूद नीतीश की पुलिस ने ग्रामीण गरीब मुसलमानों का दमन जारी रखा है। पिछले करीब दो हफ्ते पहले पुलिस ने दो साल पहले हुई इस घटना में मारे गए 3 लोगों, मर चुके 3 अन्य लोगों, पीड़ित परिवार के 14 लोगों और जांच आयोग में गवाही व कोर्ट में हुई शिकायत में हस्ताक्षर करने वाले 23 प्रत्यक्षदर्शियों को मिला कर कुल 50 ग्रामीणओं पर ही वारंट जारी कर दिया है। हाल ये है कि भजनपुरा गांव के सारे पुरुष घर छोड़ कर भागे फिर रहे हैं। पुलिस लगातार गांव में जाकर घर की महिलाओं व बच्चों को परेशान कर रही है। वह रात को भी गांव में छापेमारी करने आ जाती है। साफ है कि सुशासन की पुलिस का रवैया वैसा ही बना हुआ है।
दो साल पहल घटना के बाद पुलिस ने ग्रामीणों पर ही तीन एफआईआर दर्ज कर दी थी कि उन्होंने पुलिस पर हथियारों से लैस होकर हमला बोल दिया था और इसी कारण गोली चलानी पड़ी। पुलिस ने 4000 लोगों पर एफआईआर दर्ज किया था। पुलिस ने 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। अब यह समझा जा सकता है कि मारा गया 8 माह का नौशाद या 7 महीने पेट से यासमीन कैसे हथियारो से पुलिस पर हमला बोल सकती थी? फारिबसगंज थाना में कांड संख्या 268/11, 273/11 और 273/11 में ग्रामीणों पर 307, 120, 427, 452, 436,379,149,148 व 147 जैसी धाराएं लगाई गई हैं। साफ है कि पुलिस कानून का उपयोग पीड़ितों के दमन में ही कैसे करती है।
वहींदूसरी ओर देश-दुनिया में इसकी खबर फैल जाने से विरोध सामने आए थे। नीतीश कुमार पर बहुत दबाव बनाने की कोशिश हुई फिर भी केवल मर रहे ग्रामीण युवक पर कूदने वाले पुलिस के जवान सुनील कुमार यादव को छोड़ किसी पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। केवल सुनील कुमार को गिरफ्तार किया गया था जिसे फिलहाल बेल मिल जाने की खबर है। वहीं घटना में शामिल एसपी व अन्य अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई। बाद में एसपी का प्रोमोशन भी कर दिया गया।
इसके अलावा ग्रामीणों की ओर से कोई एफआईआर दर्ज करने से पुलिस ने इंकार कर दिया। इसके बाद वे अररिया कोर्ट में चार शिकायत दर्ज कराई पर उसका कोई संज्ञान नहीं लिया गया। बाद में सुप्रीम कोर्ट में इसकी सीबीआई जांच के लिए जनहित याचिका डाली गई जिसपर अभी सुनवाई ही चल रही है। जिसपर पिछले 4 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार से 4 हफ्ते में पुलिस इंक्वायरी रिपोर्ट पेश करने को कहा है।

जांच आयोग का बढ़ता कार्यकाल, न्याय की वही देरी और पीड़ितों-गवाहों को मिल रही धमकियां...

ग्रामीणोंपर पुलिसिया वारंट तब जारी कर दिया गया है जबकि अभी इस गोलीकांड की न्यायिक जांच को बने आयोग ने रिपोर्ट सौंपी भी नहीं है। भारी दबाव के बीच नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली सरकार ने अपना दमनकारी चेहरा छिपाने के लिए एक सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग का गठन  कर दिया था। इसका गठन 22 जून 2011 को 6 माह के कार्यकाल के लिए किया गया था। इसकी सुनवाई भी अभी चल ही रही है। देखने वाली बात है कि इसने 6 महीने में कोई रिपोर्ट नहीं दिया फिर 22 दिसंबर 2011 को 6 माह की अवधि खत्म होने पर एक साल के लिए इसका कार्यकाल और बढ़ा दिया गया। उसके बाद फिर 22 दिसंबर 2012 को एक साल पूरा होने के कुछ ही दिन पहले इसका कार्यकाल तीसरी बार एक साल के लिए और बढा दिया गया। जाहिर है कि न्याय के लिए पड़ितों को पता नहीं कितना लंबा इंतजार करना पड़ेगा और उन्हें क्या न्याय हासिल होगा ये भी समझ नहीं आ रहा। फिलहाल जांच आयोग अररिया में इसकी सुनवाई कर रही है, जिसमें ग्रामीण व पीड़ित अपना बयान दर्ज करा रहे हैं।
वहीं दूसरी ओर स्थानीय पुलिस-प्रशासन, सत्तासीन सरकार के नुमाइंदों-नेताओं और कंपनी की ओर से लगातार ग्रामीणों को डराया धमकाया जा रहा है। ऐसा ही एक मामला बताते हुए सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र ने बताया कि एक गवाह युवती तालमुन खातून को स्थानीय जदयू नेता व प्रशासन ने इतना डराया कि वह सुनवाई नहीं दे सकी। बाद में ग्रामीणों की शिकायत व विरोध के बाद दुबारा उसकी गवाही हुई। इसी तरह की धमिकयों का सिलिसला जारी है।
वहींजांच आयोग को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता महेंद्र एक बात और बताते है कि आयोग में कंपनी की ओर से ही ज्यादा शपथपत्र दाखिल किए गए हैं यानि इनके पक्ष से कहीं ज्यादा गवाहियां होनी है। करीब 189 शपथपत्र दिए गए हैं जिनमें करीब 20 ही शपथपत्र पीड़ित पक्ष की ओर से हैं। वैसे एक थपथपत्र में कई लोगों के हस्ताक्षर हैं। वे ये भी बताते हैं कि सारे शपथपत्र एक ही फॉर्मेट में हैं।

पुलिस की झूठ पे झूठ....सारी कवायद ग्रामीणों को समझौता के लिए मजबूर करने की है....

पुलिसकी ओर से जारी किया गया वारंट हो या गवाहों को लगातार मिल रही धमकियां, ये सारी कवायद ग्रामीणों पर समझौता करने का दवाब बनाने के लिए की जा रही है। न्यायिक आयोग में चल रही सुनवाई हो या सुप्रीम कोर्ट में जनहित याचिका पर सुनवाई सत्ता-प्रशासन व कंपनी ग्रामीणों के संघर्ष व लड़ाई को दबाना चाहते हैं। वहीं दूसरी ओर ग्रामीण लगातार इसके खिलाफ खड़े हैं। ग्रामीणों पर गवाही न देने का दबाव बनाया जाता रहा है। बिना नाम के दर्ज हुए एफआईआर में गिरफ्तार करने की धमकियां दी जाती रही हैं।
इससेपहले भी पुलिस ने लगातार झूठ पे झूठ का सहारा लिया है। तत्कालीन एसपी गरिमा मल्लिक ने ग्रामीणों को हिंसा पर उतारु व हथियारों से लैस हमलावर बताते हुए 28 पुलिसकर्मियों के घायल होने की बात कही थी। लेकिन बाद में एक सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में यह झूठ निकल आया। गरिमा मल्लिक ने स्वयं समेत सारे घायलों का इलाज फारबिसगंज के रेफरल अस्पताल में होने की बात कही थी। लेकिन अस्पताल से बाद में मांगी गई सूचना में अस्पताल ने बताया कि वहां केवल दो लोगों (एसपी और एसडीओ) का ने इलाज करवाया था। जबकि एसपी की ओर से घायलों की दी गई सूची में एसडीओ का नाम ही नहीं था। वहीं सुप्रीम कोर्ट में मांगी गई स्टेटेस रिपोर्ट व जांच आयोग में दिए गए प्रतिवेदन में पुलिस की ओर से दी गई घायलों की सूची में घायल पुलिसकर्मियों का नाम अलग-अलग है। इतना ही नहीं बल्कि सूचना के अधिकार के तहत मांगी गई सूचना में कहा गया कि घटना के तीन दिन पहले से डीएम के कंट्रोल रुम के वायरलेस सेट से कोई बातचीत नहीं हुई। वहीं एसपी कार्यालय में वायरलेस सेट न होने की बात कही गई।

बिहार के मीडिया ने नीतीश का अफीम सूंघ लिया है....

वहींइस पूरे घटनाक्रम में भी बिहार की मीडिया का वहीं सरकारी भोंपू के साथ विकास के नाम पर बरगलाने वाला चेहरा ही सामने आया है। गोलीकांड के बाद भी उस दौरान बिहार के अखबारों ने इसे जरुरी खबर तो क्या ठीक-ठाक छापी जाने लायक खबर तक नहीं समझा था। इसे बिल्कुल ही नजरअंदाज कर दिया था। इसे मुद्दा बनने ही नहीं दिया। जैसे कि बिहार से सबसे बड़ा अखबार दैनिक हिन्दुस्तान  ने इस पूरी तरह ब्लैक आउट कर दिया। दैनिक जागरण व प्रभात खबर का रुख भी इसी के जैसा रहा। 
दिलीपमंडल ने अपने एक अध्ययन व रिपोर्ट में जो कि मोहल्ला लाइव व कथादेश में छपी थी दिखाया कि मीडिया ने बिहार में लोगों के लिए इस मुद्दे को मुद्दा नहीं बनने दिया। 5 जून से 11 जून तक की पटना संस्करण के पहले पन्ने की खबरों के अध्ययन में देखें तो दैनिक हिन्दुस्तान ने इसे पूरी तरह नहीं छापा। जबकि दिल्ली में बाबा राम देव मसले की खबरें, 'बचना है तो पेड़ लगाएं', 'संदेश बढाने फिर नीतीश पहुंचे धरहरा' या 'समंदर से निकला शुगर का रामबाण इलाज' जैसी खबरें पहले पन्ने पर प्रमुखता से छपती रहीं।  वहीं दैनिक जागरण ने फारबिसगंज पर इसी दौरान पहले पन्ने पर केवल दो दिन खबरें चलाई जिनका फ्लेवर सरकार के पक्ष में ही जाता था। 6 जून को एक कॉलम की खबर 'आरोपी होमगार्ड पर चलेगा हत्या का मुकदमा' और 11 जून को दो कॉलम की खबर 'मारे गए बच्चे परिजन को तीन लाख' की खबरें छपीं। 
वहींप्रभात खबर का भी हाल ऐसा ही रहा। साफ था कि अगर बिहार के तीनों प्रमुख अखबारे फारबिसगंज को मुद्दा न बनने देने पर तुल गए थे तो इसका मुद्दा बन पाना आसान नहीं था। और ये सारा तिकड़म सरकार के इशारे पर ही चल रहा था। जिसमें विज्ञापन से लेकर कंपनी में सत्ताधारी नेताओं की भागीदारी व सांप्रदायिक व गरीब विरोधी रंग मिला-जुला था।
इसबार भी अखबारों का हाल बिल्कुल वैसा ही रहा। दैनिक हिन्दुस्तान ने जहां इस 8 अप्रैल 2013 को ग्रामीणों पर वारंट की खबर को एक कॉलम, करीब 50 शब्दों में 15वें पन्ने पर छापा। तो 11अप्रैल को 15वें पन्ने पर ही दो कॉमल की खबर करीब 100 शब्दों में छापी। वहीं दैनिक ने भी 11 अप्रैल को अंदर के पन्ने पर ही करीब सौ-सवा सौ शब्दों की खबर छापी। 11 अप्रैल को ये खबर इसकारण भी छप भी गईं कि फारबिसगंज की पीड़ित परिवारों के परिजनों ने सामाजिक संगठनों क मदद से 10 अप्रैल को राजधानी पटना आकर संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया और अपनी आपबीती सुनाई। वरना यह माजरा पूरी तरह दबाया गया। 
संवाददातासम्मेलन को एसोसिएशन फॉर प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट(एपीसीआर), फारबिसगंज एक्शन कमिटी, मोमिन कांफ्रेंस और नेशनल एलॉयंस फॉर पीपुल्स मूवमेंट(एनएपीएम) ने आयोजित करने में पीड़ितों की मदद की।  फिर बाद में मीडिया नीतीश व मोदी के खेल में शामिल हो गई। बिहार की मीडिया का यह रुप लगातार देखने को मिला चाहे वह मधुबनी कांड हो, छठ हादसा हो या फिर शिक्षकों का सरकार की ओर से चलाया जा रहा दमनकारी अभियान। ये अखबार स्पष्ट रुप से सरकार के प्रवक्ता की तरह सामने आते रहते हैं। खासकर हिन्दुस्तान व प्रभात खबर की खबरों पर लगातार हम नजर रखें तो। संपादकीय लेख, टिप्पणियां व राजनीतिक संपादकों, ब्यूरों की खबरें सरकार के पक्ष में ही लिखी जाती रहती हैं और विरोधी खबरों को दबाया जाता है।

गैर-सेकुलर नीतीश का सेकुलरवाद...

इसपूरे मामले में नीतीश की पुलिस-प्रशासन व सत्ताधारी नेता, कहें तो नीतीश शासन फारबिसगंज के पीड़ितों के खिलाफ खड़ा है। स्थानीय पुलिस-प्रशासन व सरकारी नेता लगातार गरीब मुसलमानों पर दबाव बनाते रह रहे हैं। ठीक इसी समय नीतीश कुमार की नजर पीएम की कुर्सी पर है। जो इनके सहयोगी भी स्वीकार कर रहे हैं। इसके लिए नीतीश कुमार सांप्रदायिकता के खिलाफ बताते हुए मोदी के विरोध का स्वांग रच रहे हैं। मुसलमानों के प्रति प्रेम प्रदर्शित कर रहे हैं। नजर इस वोटबैकं पर है। वहीं दूसरी ओर फारबिसगंज के गरीब मुसलमानों के दमन में इनकी पुलिस-प्रशासन व नेता कोई कसर नहीं छोड़ रहे। दो साल बीत जाने पर भी इन गरीब मुसलमानों को न्याय के लिए भटकना ही नहीं पड़ रहा बल्कि उल्टे पुलिस ने अब इनपर ही वारंट जारी कर धड़-पकड़ कर रही है। रात को इनकी महिलाओं व बच्चों को पूछताछ के बहाने परेशान कर रही है। अब ये सब सरकार की शह पर नहीं हो रहा कैसे मान लिया जाए? अब ऐसे हाल में नीतीश किस मुंह के असांप्रदियक होकर मुसलमानों के हितैषी होने का दावा करते फिर रहे हैं। उस मारे गए आठ माह के नौशाद, सात माह की पेट से यासिमन व उन दो मुसलिम नौजवानों का हिसाब कौन देगा। भजनपुरा गांव में 90 प्रतिशत आबादी मुसलमानों की है। गुजरात में मोदी की शह पर पुलिस-प्रशासन-नेता की मिलीभगत से जिन मुसलमानों को मारा गया, इसे भी हम वैसे क्यों ना देखें? इस तथाकथित सेकुलर नीतीश के पास न्याय कहां हैं? बहरहाल नीतीश के सेकुलर नारों व मोदी विरोध के बीच भजनपुरा के ग्रामीण सत्ता की शह पर दमन जारी है।
सरोज युवा पत्रकार हैं. अभी एक दैनिक अखबार में काम . 
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

दामिनी/निर्भया या सकली देवी होने का अंतर!

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अरविंद शेष

-अरविंद शेष

"...लेकिन अपने बचे हुए का सबूत देने वाला वह समाज दरअसल किसका है? उसी दिन सामूहिक बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गई दस साल की या सामूहिक बलात्कार के बाद हाथ और गर्दन तोड़ कर मार डाली गई आठ साल की बच्ची के मामले लोगों के गुस्से में शामिल क्यों नहीं हो सके? सकली देवी के साथ जो हुआ, बर्बरता की वह कौन-सी सीमा है, जिसे अपराधियों ने पार नहीं की? मगर तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह बिकने वाली "चीज" नहीं थी। कुछ लोगों ने अपनी सीमा में इस खबर का प्रसार भी किया। इसके बावजूद मध्यवर्गीय और सामाजिक सत्ताधारी तबकों के साथ-साथ मीडिया का भी जमीर क्यों गहरी नींद में सोया रहा? कोई मुझे एक भी वाजिब वजह बताए कि सकली देवी के साथ जो हुआ, वह बर्बरता के पैमाने पर दिल्ली की घटना से कहीं ज्यादा वीभत्स होने के बावजूद नजरअंदाज करने लायक था!..."

इससाल एक जनवरी से पंद्रह अप्रैल तक अकेले दिल्ली में चार सौ तिरेसठ बलात्कार की घटनाएं पुलिस में दर्ज हुईं, इनमें दो सौ अड़तीस नाबालिग या बहुत कम उम्र की बच्चियां हैं। (बलात्कार के मामले दर्ज न होने की स्थितियों के बारे में तो शायद अब बात करना भी बेमानी है।) लेकिन पांच महीने के भीतर यह सिर्फ दूसरी बार है, जब दिल्ली की घटना के बाद दिल्ली और देश के दूसरी राज्य-राजधानियों में गम और गुस्सा उमड़ा है। जो हो, इससे यह उम्मीद बंधी है कि कभी न कभी इस आक्रोश में मुजफ्फरपुर के गांव मंडई की सकली देवी जैसी तमाम महिलाओं और देश के दूरदराज के इलाकों में मासूम बच्चियों के साथ हुई वीभत्सता और बर्बरता की पीड़ा को भी जगह मिलेगी। यह एक मांग भी है, क्योंकि जो अगुवा होते हैं, अगर वे किसी की अनदेखी करेंगे तो उनसे अपने लिए किसी जगह या सम्मान की उम्मीद करने का उन्हें हक नहीं है और उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल उठेंगे...!!!

पिछले महीने महिला दिवस के मौके पर सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश अल्तमस कबीर ने इस देश के बेईमान मध्यवर्ग और सत्ता-केंद्रों के खिलाफ एक जलता हुआ सवाल उछाला। उन्होंने कहा कि पिछले साल दिल्ली में सोलह दिसंबर को सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना दुखद जरूर थी, लेकिन यह ऐसा कोई अकेला मामला नहीं है। जिस दिन यह वारदात हुई उसके अगले दिन मीडिया की सुर्खियों में घटना के खिलाफ चीख-चीख कर आक्रोश जाहिर किए जा रहे थे। लेकिन उसी दिन दस साल की एक मासूम दलित बच्ची के साथ भी सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर उसे जिंदा जला दिया गया। मगर इस घटना को चुपके से दबा दिया गया, या फिर अंदर के पेज पर पांच से दस लाइनों में समेट दिया गया। दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की दिवंगत पीड़ित के परिवार को सरकार के साथ-साथ दूसरे कई पक्षों ने भी भारी मुआवजा और मदद दी, लेकिन उस मासूम छोटी-सी बच्ची के लिए क्या किया गया?

भारतके चीफ जस्टिस के इस सवाल का जवाब इस देश की सरकार, समाज और मीडिया के भाग्य-विधाताओं के पास शायद होगा, मगर वे कुछ नहीं बोलेंगे। लेकिन ऑनरेबल जस्टिस अल्तमस कबीर... मैं आपके इस सवाल का जवाब देना चाहता हूं। हां, जस्टिस कबीर... ऐसा इसलिए, क्योंकि इस देश में बलात्कार और बलात्कार में फर्क है।

इसदेश के सत्ताधारी सामाजिक वर्गों की महिला के खिलाफ यौन हिंसा की कोई घटना होगी तो राजधानी का राजपथ एक झटके में क्रांतिपथ की शक्ल में तब्दील हो जाएगा, लेकिन महिला किसी "नीच" कही जाने वाली जाति या वर्ग की हुई, तो जंतर-मंतर या इंडिया गेट पर मोमबत्तियां जलाना तो दूर, एक पल के लिए भी किसी को इस पर सोचना तक जरूरी नहीं लगेगा।

चुने हुए दुःख...

इससाल की होली गुजरे ज्यादा दिन नहीं बीते। मार्च के आखिरी दिनों में, जब यह हिंदू समाज होली की खुमारी उतारने में लगा हुआ होगा, बिहार के ही मुजफ्फरपुर में सकरा प्रखंड में मंडई गांव की सकली देवी (बदला हुआ नाम) अपने पति के साथ अपने एक संबंधी की मृत्यु के क्रिया-कर्म में शामिल होकर लौट रही थी, दोनों को घेर कर पति के हाथ-पैर बांध कर उसके सामने सकली देवी के साथ छह-सात लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया, विरोध करने पर उसके पूरे शरीर को दांतों से काटा गया, भयानक यातनाएं दी गईं, और निजी अंगों में कपड़े, पत्थर, मिट्टी और कीचड़ डाल कर क्षत-विक्षत कर दिया गया और तड़पते हुए मरने के लिए छो़ड़ दिया गया। किसी तरह पति और कुछ लोग उसे अस्पताल ले गए। लेकिन जब तक उसकी जान जा चुकी थी।

पुलिससे लेकर अस्पताल तक में पोस्टमार्टम रिपोर्ट में घपले के जरिए रफा-दफा करने की तमाम कोशिशों के बावजूद एकाध जगह आधी-अधूरी खबर छप गई। जनवादी महिला समिति ने स्थानीय स्तर पर जरूर विरोध प्रदर्शन किया। लेकिन दिल्ली की घटना के बाद "देश" को आंदोलित कर देने वालों को मुजफ्फरपुर की घटना में कुछ भी ऐसा नहीं लगा कि वह उसे उतना ही महत्त्व दे। दिल्ली की घटना के बाद दिल्ली के राजपथ, जनपथ, इंडिया गेट या जंतर मंतर की क्रांति से देश और दुनिया को हिला देने वाले देश के श्रेष्ठिवर्ग, क्रांति का ठेका उठाने वाले मध्यवर्ग की छाती मंडई जैसे गांवों की सकली देवियों के दुःख से नहीं फटती।

मैंनेदिल्ली की घटना के बाद आक्रोश और गुस्से से भरे स्त्री-पुरुषों को देखा था, कई-कई महिलाओं-युवतियों को हाथ में जलती मोमबत्ती लिए सचमुच के आंसुओं के साथ रोते देखा था। मीडिया किसके लिए आंदोलन को ताकत और प्रसार दे रहा था? हमारे देश के श्रेष्ठिवर्ग के लोग किसके लिए इतने आक्रोशित थे और मोमबत्ती थामे युवक-युवतियां किसके लिए रो रही थीं? दरअसल, ये लोग, इनके वर्ग सिर्फ "अपनों" को पहचानते हैं। और "अपनों" के साथ किसी भी तरह की त्रासदी घटे, दुख और गुस्सा लाजिमी है! वर्ग और अपनापे के साथ एक बड़ी शर्त यह है कि इस तरह की किसी घटना का दिल्ली में होना जरूरी है। मोहन भागवत जैसा आदमी यों ही यह मुनादी नहीं करता है कि बलात्कार शहरों-महानगरों में होता है, गांवों में नहीं। न मामला दर्ज होगा, न उसे गिना जाएगा।

बर्बरता के चेहरे... 

सकलीदेवी पर ढाए गए जुल्म का जितना ब्योरा सामने आ सका, उस घटना के दौरान के दृश्य की कल्पना भर समूची दुनिया का नाश कर देने के बराबर गुस्सा पैदा करती है। दिल्ली में सोलह दिसंबर को हुए सामूहिक बलात्कार की घटना के संदर्भ में सबसे ज्यादा जोर देकर यह कहा गया कि अपराधियों में से एक ने पीड़ित युवती के यौनांगों को लोहे के रॉड से क्षत-विक्षत कर दिया था। यह कुंठा, विकृति और वीभत्सता की पराकाष्ठा थी और यह अकेली वजह किसी संवेदनशील इंसान को अवसाद में डाल दे सकती है, या उसके गुस्से को बेलगाम कर दे सकती है। इसलिए दिल्ली के राजपथ से लेकर देश भर में जहां-जहां गुस्से का इजहार किया गया, वह किसी समाज के बचे होने का सबूत है।


लेकिनअपने बचे हुए का सबूत देने वाला वह समाज दरअसल किसका है? उसी दिन सामूहिक बलात्कार के बाद जिंदा जला दी गई दस साल की या सामूहिक बलात्कार के बाद हाथ और गर्दन तोड़ कर मार डाली गई आठ साल की बच्ची के मामले लोगों के गुस्से में शामिल क्यों नहीं हो सके? सकली देवी के साथ जो हुआ, बर्बरता की वह कौन-सी सीमा है, जिसे अपराधियों ने पार नहीं की? मगर तथाकथित मुख्यधारा के मीडिया के लिए यह बिकने वाली "चीज" नहीं थी। कुछ लोगों ने अपनी सीमा में इस खबर का प्रसार भी किया। इसके बावजूद मध्यवर्गीय और सामाजिक सत्ताधारी तबकों के साथ-साथ मीडिया का भी जमीर क्यों गहरी नींद में सोया रहा? कोई मुझे एक भी वाजिब वजह बताए कि सकली देवी के साथ जो हुआ, वह बर्बरता के पैमाने पर दिल्ली की घटना से कहीं ज्यादा वीभत्स होने के बावजूद नजरअंदाज करने लायक था!

चुप्पीकी राजनीति और चु्प्पी की साजिश की परतें उधेड़ना कोई खेल नहीं है। जिस चुप्पी को "महानता" के पर्याय के तौर पर प्रचारित किया जाता है है, उसी हथियार से व्यवस्था पर काबिज वर्गों ने अपनी सत्ता को बनाए रखने के लिए बड़ी-बड़ी लड़ाइयां जीती हैं। इसीलिए सकली देवी के साथ जो हुआ, वह इन वर्गों के जमीर को झकझोर नहीं पाता और दिल्ली की घटना से उपजे आक्रोश से देश और यों कहें कि दुनिया हिल उठती है।

लेकिन सकली देवी कौन थी...!!!

लेकिनसकली देवी कौन थी? अपने इलाके में मनरेगा और पीडीएस, यानी जनवितरण प्रणाली में घोटालों के खिलाफ आवाज उठाने वाली सकली देवी कौन थी? समूचे बिहार के हरेक पंचायत में शराब के दो ठेके खोल कर "सुशासनी" सरकार ने स्थानीय समाज को जिन दुःशासनों की फौज के हवाले कर दिया है, उनके खिलाफ खड़ा होने वाली और शराब के ठेके बंद करने के आंदोलन में मुखर वह सकली देवी किसकी दुश्मन थी?

ऐसीकोई भी सकली देवी हर उस शख्स की दुश्मन होगी, जिसकी सामाजिक सत्ता को उससे खतरा पैदा होता हो। सामाजिक सत्ताधारी तबकों ने अपने असली चेहरे का खुलासा करने वाले अपनी ही जाति-वर्ग के किसी व्यक्ति को जिंदा जला कर मारा डाला है, फिर कोई दलित, और उसमें भी एक स्त्री यह हिम्मत कैसे कर सकती है? निचली कही जाने वाली जातियों के लिए उत्पीड़न और यातना की तय कर दी गई नियति के निशाने पर जब स्त्री आती है तो सबसे बेशर्म बर्बरताएं और वीभत्सताएं भी शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं।

क्यायहां किसी को राजस्थान की वह साथिन भंवरी बाई याद आ रही है?

साथिन भंवरी की साथिन सकली...

साथिनभंवरी का भी कसूर क्या था, सिवाय इसके कि उसने अपने आसपास पिछड़ेपन, अशिक्षा और अज्ञान के अंधेरे में अपना वक्त काटते लोगों को थोड़ा हिलाने-डुलाने की कोशिश की थी? यह कोई मामूली खतरा नहीं था कि वे लोग नींद से जाग उठें, जिनका सदियों से सोए रहना ही इस समूची व्यवस्था के कायम रहने के लिहाज से ज्यादा बेहतर रहा है। इसलिए व्यवस्था के रखवालों ने पति के सामने भंवरी के साथ सामूहिक बलात्कार किया और एक तरह से भंवरी से उपजे "खतरों" को दफन करने की कोशिश की।

सकलीदेवी का "गुनाह" भी साथिन भंवरी के गुनाह जैसा था। कोई दलित और वह भी स्त्री अगर इस तरह के "गुनाह" करे तो उसके लिए वह सजा निर्धारित है जो भंवरी बाई को मिली, सकली देवी को मिली। भंवरी को जो सजा दी गई, वह उसके गांव के गुंडा सवर्ण सामंतों ने सुनाई थी तो भारत के कानून के मंदिरों में बैठे एक मनुपुत्र ने उससे भी बड़ा फैसला दिया था कि अगर एक ऊंची जात का आदमी किसी दलित को छू नहीं सकता तो उसके साथ बलात्कार कैसे कर सकता है! सकली देवी के साथ जो हुआ, उसके लिए स्थानीय पुलिस ने पहले उसके पति को ही गिरफ्तार कर लिया था। पति के हाथ-पांव बांध कर उसके सामने जिसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, यौनांगों में पत्थर, कपड़े, मिट्टी, कंकड़ आदि डाल कर क्षत-विक्षत कर दिया गया, उसके बारे में पुलिस ने घोषणा की कि उसके साथ बलात्कार की पुष्टि नहीं हुई। अब हम अदालत से "इंसाफ" के फैसले की मुनादी का इंतजार करेंगे, जिसकी बुनियाद पुलिस की एफआइआर और प्राथमिक जांच रिपोर्ट होती है, जिसका इंतजाम पुलिस ने पहले ही कर लिया है।

मोहनभागवत जैसा आदमी यों ही यह मुनादी नहीं करता है कि बलात्कार शहरों-महानगरों में होता है, गांवों में नहीं। दरअसल न मामला दर्ज होगा, न उसे गिना जाएगा।

बहरहाल,दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की बर्बरता (वैसे बलात्कार अपने आप में क्या बर्बरता का पर्याय नहीं है?) के खिलाफ इस देश के सभ्य समाज और मीडिया ने राजपथ को क्रांतिपथ बना दिया, तो सकली देवी के साथ कहीं त्रासद पैमाने की बर्बरता (अगर बर्बरता ही पैमाना है तो...) और वीभत्सता से उस सभ्य समाज और मीडिया का दिल क्यों नहीं दहला? क्या इसलिए कि सकली देवी इन सबके लिए कहीं से भी "अपनी" नहीं थी? अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति ने मुजफ्फरपुर में जरूर एक सार्थक विरोध आंदोलन किया, पटना में भी धरना दिया और सकली देवी के परिवार को थोड़ी राहत दिला सकी। लेकिन दिल्ली की घटना के खिलाफ राजपथ पर आंदोलन का आगाज करने वालों में सबसे अहम भूमिका निभाने वाली एडवा को सकली देवी के मामले को लेकर दिल्ली में अब तक एक औपचारिक प्रतिरोध दर्ज करना जरूरी क्यों नहीं लगा? जबकि सकली देवी एक मामूली दलित महिला, भारत में एक कमजोर वर्ग की गरीब नागरिक थी, बल्कि जनवादी महिला समिति की सदस्य भी थी।

अपने-अपने लोग...

दिल्ली की दोनों घटनाओं पर आक्रोश की लहरें पटना की सड़कों पर भी उमड़ीं। कई महिला संगठनों ने पटना में दिल्ली की घटना पर गम और गुस्से का इजहार किया। इसके अलावा, एपवा, यानी अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन एक जुल्मी विधायक की हत्या करने वाली रूपम पाठक की रिहाई के लिए अभियान चलाती है, मानव शृंखलाएं बनाती है, लेकिन उसकी नजर में सकली देवी की त्रासदी अनदेखा करने लायक क्यों थी? क्या इसलिए कि वह एपवा के बजाय एडवा की सदस्य थी? महिलाओं पर अत्याचारों के खिलाफ पटना की सड़कों पर सबसे मुखर दिखने वाली एपवा के लिए सकली देवी के साथ घटी घटना किस वजह से चुप रह जाने लायक थी? उससे यह मांग क्यों नहीं की जानी चाहिए कि रूपम पाठक के दुख के बराबर शिद्दत का प्रदर्शन वह सकली देवी के दुःख पर भी करती? किसी स्त्री पर ढाए गए जुल्म का विरोध करने के लिए अगर अपने समूह या वर्ग का चुनाव करना प्राथमिक शर्त है तो इंतजार करिए कि कब आपके वर्ग की कोई महिला दरिंदों का शिकार बने! फिर कोई आंदोलन खड़ा करिएगा और बताइगा कि आप दुनिया की महिलाओं के सम्मान, गरिमा और सुरक्षा की बहाली की लड़ाई लड़ रहे हैं।

दिल्ली में पांच साल की गरीब बच्ची के साथ हुई बर्बरता के बाद दिल्ली एक बार फिर खौली है। इस उबाल में सारे देश को शामिल होना चाहिए। जितना गुस्सा, सदमा और संवेदनाएं दिख रही हैं, उसे ज्यादा की जरूरत है। इस मामले में आरोपी पकड़ा गया। पुलिस वालों को धन्यवाद। विरोध में आंदोलन हो रहे हैं। आंदोलनकारियों को धन्यवाद! दुख जताने के लिए नरेंद्र मोदी के गुजरात के लिए भाड़े पर ब्रांड एंबेसडरी करने वाले अमिताभ बच्चन का भी धन्यवाद...! लेकिन जिस अपराधी के पकड़े जाने के बाद बिहार के मुजफ्फरपुर का नाम आज मशहूर हो गया है, महज एक पखवाड़े पहले उसी जिले के एक गांव मंडई में तो सकली देवी के साथ भी इससे ज्यादा बड़ी वीभत्सता हुई! मुजफ्फरपुर और मंडई का नाम किसने जाना? हां, याद आया! मुजफ्फरपुर पर चर्चा करने के लिए भी मुजफ्फरपुर का दिल्ली में होना जरूरी है...!!! वरना ऐसे तमाम मुजफ्फरपुर, सहरसा, बुलंदशहर, कैथल, करनाल, हिसार, जींद जैसे इलाकों की त्रासदी पर बात करना या उस पर उबलना गैरजरूरी है, क्योंकि वह दिल्ली नहीं है...!!!

खैरलांजीमें वीभत्सता और बर्बरता का जो नंगा नाच हुआ था, उस जैसी तमाम घटनाएं घटती हैं और चुपचाप दफन कर दी जाती हैं। किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। टुकड़ों में बंटे समाज की प्रतिक्रिया भी टुकड़ों में ही होगी। सभी अपने-अपने वर्गों की लड़ाई लड़ रहे हैं। इसमें जिस वर्ग के पास जितना ‘सामर्थ्य’ है, वह व्यवस्था पर उतना ‘सार्थक’ दबाव डाल पाता है। इसमें उन वर्गों की तकलीफ को व्यापक दुख के लायक नहीं समझा जाना स्वाभाविक है, जिनके पास न सत्ता-केंद्रों की ताकत है, न उनकी चीखें सुनने वाला कोई है।

टुकड़ों में क्रांति...

कुछघटनाओं के चर्चित होने के बाद आंदोलन करते दिखते लोगों को अभी इस सवाल से जूझना बाकी है कि दहेज से लेकर दूसरे तमाम घरेलू हिंसा और भेदभाव और दोयम दरजे पर आधारित समूची सामाजिक दृष्टि ही जहां मीसोजीनिस्ट, यानी स्त्री विरोधी हो, वहां एक बलात्कार को स्त्री की कोई एकमात्र पीड़ा मान कर कैसे इसके खिलाफ लड़ा जाएगा और क्या हासिल कर लिया जाएगा। वैसे जिस सामाजिक ढांचे में हम रहते हैं, उसमें हिंसा की हाइरार्की पर अलग से बात करने की जरूरत है।

बहरहाल, जस्टिस कबीर ने दस साल की एक दलित बच्ची के बलात्कार और उसे जिंदा जला देने की घटना का जिक्र किया। सोलह दिसंबर के ही एक दिन बाद बिहार के सहरसा जिले के बेलरवा गांव में भी एक आठ साल की दलित बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, उसके पांव और गर्दन तोड़ दिए गए, फिर उसे मार कर एक पोखर में फेंक दिया गया। कहीं ज्यादा वीभत्सता और बर्बरता के बावजूद उसी दौरान बलात्कार के खिलाफ धधकती ज्वाला में इन बच्चियों की त्रासदी को रत्ती भर भी जगह देने लायक नहीं समझा गया। हाशिये के बाहर मर-जी रहे समुदाय की महिलाओं-बच्चियों के साथ ये बर्बरताएं रोजाना की हकीकत हैं, मगर हमारे "आंदोलनकारी" वीर-बहादुरों के लिए ये कोई मुद्दा नहीं है या फिर "सेलेक्टिव" होना उनकी मजबूरी है। और जाहिर है, फिर सरकार को इस बात की फिक्र क्यों होगी!

इससवाल का जवाब वक्त मांगेगा कि दिल्ली की घटना के बाद राजधानी में राजपथ पर उमड़ी भीड़, मीडिया, नारीवादियों के संगठन और स्त्री अधिकारों के झंडाबरदार दूसरी तमाम महिला संगठनों की निगाह में सकली देवी की त्रासदी "इग्नोरेबल" क्यों रही? एक पिछड़े हुए राज्य के गुमनाम-से गांव में हाशिये पर मर-जी रही सकली देवी गरीब थी, दलित थी! शायद इसीलिए सकली देवी इस समाज की बेटी, बहन या मां नहीं हो सकती, दामिनी, अमानत या निर्भया नहीं हो सकती, स्त्री की त्रासदी का प्रतिनिधि मामला नहीं हो सकती है और देश का चेहरा होना तो न कभी मुमकिन रहा है, न शायद कभी होगा...!!!

चलते-चलतेः

दिल्लीमें पांच साल की बच्ची के साथ हुई बर्बरता का आरोपी बिहार के मुजफ्फरपुर जिले का निकला, इसलिए बिहार के सुशासन बाबू मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी घटना पर अपने दुखी मन का इजहार किया। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार साहब ने कहा कि दिल्ली की घटना बर्बर है, इसने मानवता को शर्मसार किया है और अपराधी को सबसे सख्त सजा दी जानी चाहिए। इसी तरह उनके उप-साहब उपमुख्यमंत्री सुशील मोदी ने भी कहा कि यह घटना मानवता पर कलंक है। दोनों ने अपने "भीतर की मानवीय संवेदना" का जो उदाहरण पेश किया है, उसके लिए इनके प्रति आभारी होना चाहिए, इनकी तारीफ की जानी चाहिए! लेकिन ये दोनों वही साहब हैं जिनकी संवेदना पर मुजफ्फरपुर के मंडई गांव में सकली देवी के साथ बर्बर बलात्कार और उसकी हत्या से कोई फर्क नहीं पड़ा और पटना के सामूहिक बलात्कार एक एमएमएस कांड से लेकर सहरसा तक के दर्जनों वीभत्स और बर्बर बलात्कार के मामलों पर कभी शर्म नहीं आई! क्यों? मंडई में उनकी पुलिस ने जो किया, उस पर भी उन्हें शर्म नहीं आई और दुःखी होना जरूरी नहीं लगा। क्यों? अक्सर औपचारिकता वह परदा होती है, जिसके तले तमाम पाखंडों को निबाहना आसान होता है...!!! 

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अरविंद शेष पत्रकार हैं. अभी  जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी. 
इनसे संपर्क का पता- arvindshesh@gmail.co
arvind.shesh@facebook.com 

"ठाकुर से लड़ब त जियब कइसे...हमरा बोले से हमरो मार देगा..."

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अविनाश कुमार चंचल
-अविनाश कुमार चंचल 

"...साहु लगातार धमकी और जबरदस्ती करने लगा कि जमीन का कब्जा हमको दे दो। लगातर धमकी और मारपीट होने लगी। इसी बीच उन लोगों ने अपने मवेशी को हमारे खेत में चराना शुरु कर दिया।  ऐसे ही एक दिन जब मेरे पति को पता चला कि हमारी खेत में मवेशी फसल चर रहा है तो वो बेटे के साथ खेत की तरफ दौड़े लेकिन लौट तो सिर्फ उन दोनों की लाशें ही आयी..."


मरौतिया देवी जब अपने दोनों हाथों को जोड़ धीमी आवाज में गांव के ठाकुरों द्वारा खुद पर किए गए जुल्म की कहानी सुनाती है तो हजारों-हजार साल से चुप उसकी पथराई आंखें खुद बोलने लगती हैं। झर-झर बहते आँसू और ठाकुरों का जुल्म। इनकी कहानी सुन  हाथों की मुट्ठियां अनायास ही तन जाती है। मध्य प्रदेश के सिंगरौली से 40 किलोमीटर दूर अमिलिया गांव की रहने वाली चमार समुदाय की अमरौतिया देवी के ऊपर जुल्म व शोषण की कहानी आज की नहीं है. ये सदियों से चली आ रही है...सन् उन्नीस सौ चौरासी से...।

1984 से 2013 तक सिर्फ निजाम बदले....शोषित नहीं...

अमरौतियादेवी याद करती है कि इंदिरा गांधी के मरने से पहले ही की बात है. साल कुछ याद नहीं। मध्य प्रदेश शासन की जमीन का खाता उनके नाम था। वे लोग उस जमीन पर खेती कर गुजर बसर कर रहे थे। कमाने वाला पति सुखदेव और हट्टा-कट्टा गवरु जवान बेटा रामरुख। दो बेटा गोद में और एक पेट में। सबकुछ ठीक-ठाक चल जाता। भरपेट खाना, महुआ-लकड़ी बेच कर कुछ रुपये भी। इसी बीच उस जमीन पर गांव के ही एक बड़े साहु की नजर लग गयी। साहु लगातार धमकी और जबरदस्ती करने लगा कि जमीन का कब्जा हमको दे दो। लगातर धमकी और मारपीट होने लगी। इसी बीच उन लोगों ने अपने मवेशी को हमारे खेत में चराना शुरु कर दिया।  ऐसे ही एक दिन जब मेरे पति को पता चला कि हमारी खेत में मवेशी फसल चर रहा है तो वो बेटे के साथ खेत की तरफ दौड़े लेकिन लौट तो सिर्फ उन दोनों की लाशें ही आयी.

अकेलीमां ने अपने बच्चों को संभाला, घर-गांव की मदद से किसी तरह बच्चे तो पल गये लेकिन जुल्म की कहानी नहीं रुकी। पूरे गांव में कुएं-चापाकल हैं लेकिन आज भी ये दलित परिवार नदी-नाले के पानी पर ही गुजर कर रहा है।

आज से पांच-सात पहले गांव के सरपंच ठाकुर रुदन सिंह ने उस विवादित जमीन पर अपना कब्जा जमा दिया। जब अमरौतिया देवी अपनी कहानी सुना रही थी तो बीच में उसका बेटा रामलल्लु टोकते हुए धीरे से कहता है- "यहां ठाकुरों की ही चलती है साहिब। ठाकुर रुदन ने जबरदस्ती हमारे जमीन पर तालाब खुदवा दिया। पुलिस-शासन सब ओकरे लिए है तो हम का कर सकब साहिब। बाप-भाई के मार दिया तो हमरा बोलने पर हमरो मार देगा। अब रोटी-भोजन चलाबे खातिर चुपचाप सह रहे हैं।"

कारपोरेट कंपनी बने नये ठाकुर...

पूंजीवादीव्यवस्था के समर्थक अक्सर ये दलील देते सुने जाते हैं कि इस सिस्टम ने हमारे सामंती समाज को बदल कर रख दिया है। कुछ लोगों ये भी कहते हैं कि पूंजीवादी व्यवस्था में जाति का जोर नहीं रहता। जबकि सच्चाई  है कि इस व्यवस्था का सबसे ज्यादा फायदा सामंती समाज को ही हुआ है। वैसे सोचने वालों को एक बार अमिलिया गांव आना चाहिए. एस्सार समूह ने इसी गांव के पास अपना चार हजार करोड़ की लागत से पावर प्लांट लगाया है। अब उन्हें इस प्लांट के लिए अमिलिया के आस-पास के महान क्षेत्र के जंगलों को काट कर पहाड़ खोदकर कोयला निकालना है. इसके लिए दलित-गरीबों की जमीन ही छीनी जा रही है। अमरौतिया देवी कहती है  "अब बचा-खुचा जमीन पर इ कंपनी वाला नया ठाकुर बन नजर लगा दिया है. अब अगर हम अपना जमीन-जंगल दे देंगे तो खाएंगे क्या साहिब."

पूंजीवादी लाभ भी ठाकुरों के लिए

अमरौतियाकी बात सही भी है यहां के ठाकुर समुदाय के पास विभिन्न जगहों पर सैकड़ों एकड़ जमीन पड़ी हुई है. ऐसे लोग अपनी जमीन का कुछ हिस्सा कंपनी के हाथों बेच रहे हैं. दूसरा इनके पास ट्रक,जीप जैसी गाड़ियां हैं जो कंपनी के काम में लग लाखों रुपये कमा रहे हैं, तीसरा इनके घरों के बच्चे पढ़े-लिखे हैं जिन्हें कंपनी में नौकरी भी मिल जाती है। ये ठाकुर लोग कंपनी के एजेंट बन कर अब गांव वालों पर दबाव बना रहे हैं कि वे भी जमीन बेच दें। ऐसे में साफ है कि ठाकुर पूंजीवादी लाभ में अपनी हिस्सेदारी के लिए गरीबो-दलितों के शोषण को और अधिक बढ़ा रहे हैं।

अमरौतिया जैसे दलित जिसके पास न राशन कार्ड है न कोई दूसरी सरकारी सुविधा। जो बस जंगल के सहारे ही जीवन को बीता रहे हैं। जिनके लिए न तो शिवराज सिंह चौहान की चमकती शासन व्यवस्था है और पुलिस..प्रशासन..और भगवान तो उन्हें आजतक नहीं मिले।

हर कदम धोखा ही धोखा....

सिंगरौलीमें आप देखेंगे कि हर तरीके से गरीबों का शोषण किया जा रहा है। भोले-भाले अनपढ़ गरीबों के नाम पर मोबाइल सिमकार्ड बेचने का फर्जीवाड़ा यहां आम है। आपके पास अगर कोई आईकार्ड नहीं है तो यहां के एजेंट आपके लिए पहले से ही आईकार्ड  रखते हैं। वे आपको बड़ी आसानी से बिना आईकार्ड लिए सिमकार्ड दे देंगे। ये सारा फर्जीवाड़ा भोले-भाले ग्रामीणों के नाम पर होता है। दरसल एजेंट इन अनपढ़ गरीबों का आईकार्ड किसी भी बहाने अपने पास रख लेते हैं। कोई उन्हें राशन कार्ड मुहैया करवाने के बहाने को कोई उन्हें अन्य सरकारी लाभ दिलवाने के बहाने उनका आईकार्ड और तस्वीरें रख लेता है। इन्ही तस्वीरों व आईकार्ड का इस्तेमाल कर वे बाहरी लोगों या कंपनी के लोगों को फर्जी सिम बेच देते हैं। और इस फर्जीवाड़े का पता अनपढ़ भोले भाले गरीबों को भी पता नहीं चल पाता। साफ है कि भोले-भाले ग्रामीणों को हर तरीके से बेवकूफ बनाया जा रहा है।

लोकतंत्र के फरेब में अमरौतियां जैसे लोगों की जगह कहां हैं....

अंग्रेजों से आजादी मिले करीब साढे छह दशक बीत गए हैं। कहते हैं भारत का लोकतंत्र सबसे बड़ा लोकतंत्र है। लेकिन क्या इस लोकतंत्र में अमरौतिया देवी जैसों की कोई जगह है। सदियों से चले आ रहे शोषण व दमन से जूझ रहे ये लोग ना तो कभी आजाद हो पाए हैं ना ही इन्हें जीने की मोहलत है। इस लोकतंत्र पर इनकी छाती पीट-पीट कर रोने का भी कोई असर नहीं होता। कथित विकास की दौड़ में ये लगातार मारे जा रहे हैं। सारी व्यवस्था, सरकार, पुलिस प्रशासन, धर्म, समाज सब सड़ चुका है। इनके नाम पर चलनेवाली सैंकड़ों योजनाएं किस मुंह में समा रही हैं कहने की जरुरत नहीं है। सदियों से चला आ रहा इनका सामाजिक शोषण लगातार नए-नए रुप धरता आया है। बहरहाल अमरौतिया देवी की कहानी किसी एक गरीब दलित की कहानी नहीं है बल्कि उस पूरे वर्ग की कहानी है जो विकास के नारों के बीच लोकतंत्र के सामने छाती पीट-पीट कर मातम मना रहा है लेकिन इनकी कोई सुनवाई नहीं।

अविनाश युवा पत्रकार हैं.  कुछ समय एक राष्ट्रीय दैनिक में काम.  
इनसे संपर्क का पता avinashk48@gmail.com है.
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