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हर चूल्‍हे में आग रहे और आग लगे बन्‍दूकों को

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उस यात्रा से कवि की तस्‍वीर, जिसका जिक्र इस फ़साने में है

-अशोक कुमार पाण्डेय

कश्मीर बहस-3


'कश्मीर बहस' की तीसरी किस्त में एक कविता बहस को आगे बढाएगी. अशोक जी यह कविता उनकी एक कश्मीर यात्रा से उपजी है.. -मॉडरेटर






कश्मीर जुलाई के कुछ दृश्य

1
पहाड़ों पर बर्फ़ के धब्बे बचे हैं 

ज़मीन पर लहू के 

मैं पहाड़ों के क़रीब जाकर आने वाले मौसम की आहट सुनता हूँ 
ज़मीन के सीने पर कान रखने की हिम्मत नहीं कर पाता

2
जिससे मिलता हूँ हंस के मिलता है
जिससे पूछता हूँ हुलस कर बताता है खै़रियत

मैं मुस्कराता हूँ हर बार
हर बार थोड़ा और उन सा हो जाता हूँ

3
धान की हरियरी फसल जैसे सरयू किनारे अपने ही किसी खेत की मेढ़ पर बैठा हूँ
ताहद्दे-निगाह चिनार ही चिनार जैसे चिनारों के सहारे टिकी हो धरती
इतनी ख़ूबसूरती
कि जैसे किसी बहिष्कृत आदम चित्रकार की तस्वीरों में डाल दिए गए हों प्राण

मैं उनसे मिलना चाहता था आशिक की तरह
वे हर बार मिलते हैं दुकानदार की तरह

और अपनी हैरानियाँ लिए 
मैं इनके बीच गुज़रता हूँ एक अजनबी की तरह

4
ट्यूलिप के बागीचे में फूल नहीं हैं
ट्यूलिप सी बच्चियों के चेहरों पर कसा है कफ़न सा पर्दा
डरी आँखों और बोलते हाथो से अंदाज़ा लगाता हूँ चित्रलिखित सुंदरता का

हमारी पहचान है घूंघट की तरह हमारे बीच
वरना इतनी भी क्या मुश्किल थी दोस्ती में?

6
रोमन देवताओं सी सधी चाल चलती एक आकृति आती है मेरी जानिब
और मैं सहमकर पीछे हट जाता हूँ


सिकंदर की तरह मदमस्त ये आकृतियाँ
देख सकता था एक मुग्ध ईर्ष्या से अनवरत 
अगर न दिखाया होता तुमने टीवी पर इन्हें इतनी बार.

6
यह फलों के पकने का समय है
हरियाए दरख्‍़तों पर लटके हैं हरे सेब, अखरोट 
खुबानियों में खटरस भर रहा है धीरे-धीरे

और कितने दिन रहेगा उनका यह ठौर
पक जाएँ तो जाना ही होगा कहीं और

क्या फर्क पड़ता है दिल्ली हो या लाहौर! 

7
देवदार खड़े है पंक्तिबद्ध जैसे सेना हो अश्वस्थामाओं की
और उनके बीच प्रजाति एक निर्वासित मनुष्यों की

कहीं आग लग गयी, कहीं गोली चल गयी
जहाँ आग लगी वह उनका घर नहीं था
जहाँ गोली चली वह उनका गाँव नहीं था
पर वे थे हर उस जगह

उनके बूटों की आहट थी ख़ौफ़ पैदा करती हुई
उनके चेहरे की मायूसी थी करुणा उपजाती

उनके हाथों में मौत का सामान है
होठों पर श्मशानी चुप्पियाँ

इन सपनीली वादियों में एक ख़लल की तरह है उनका होना
उन गाँवों की ज़िंदगी में एक ख़लल की तरह है उनका न होना

8
(श्रीनगर-पहलगाम मार्ग पर पुलवामा जिले के अवंतीपुर मंदिर के खंडहरों के पास) 

आठवीं सदी सांस लेती है इन खंडहरों में
झेलम आहिस्ता गुजरती है किनारों से जैसे पूछती हुई कुशल-क्षेम
ज़मींदोज दरख्‍़तों की बौनी आड़ में सुस्ता रही है एक राइफल
और ठीक सामने से गुज़र जाती है भक्तों की टोलियाँ धूल उड़ातीं

ये यात्रा के दिन हैं
हर किसी को जल्दी बालटाल पहुँचने की
तीर्थयात्रा है यह या विश्वविजय पर निकले सैनिकों का अभियान?

तुम्हारे दरवाजे पर कोई नहीं रुकेगा अवंतीश्वर
भग्न देवालयों में नहीं जलाता कोई दीप
मैं एक नास्तिक झुकता हूँ तुम्हारे सामने श्रद्धांजलि में 

9
पहाड़ों पर चिनार हैं या कि चिनारों के पहाड़
और धरती पर हरियाली की ऐसी मखमल कि जैसे किसी कारीगर ने बुनी हो कालीन
घाटियों में फूल जैसे किसी कश्मीरी पेंटिंग की फुलकारियाँ

बर्फ़ की तलाश में कहाँ-कहाँ से आये हैं यहाँ लोग
हम भी अपनी उत्कंठायें लिए पूछते जाते हैं सवाल रास्ते भर

जनवरी में छः-छः फीट तक जम जाती है बर्फ़ साहब तब सिर्फ विदेशी आते हैं दो चार
फिरन के भीतर भी जैसे जम जाता है लहू
पत्थर गर्म करते हैं सारे दिन और गुसल में पानी फिर भी नहीं होता गर्म
समोवार पर उबलता रहता है कहवा...अरे हमारे वाले में नहीं होता साहब बादाम-वादाम
इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब, कश्मीर गुलजार हो गया
अब इधर कोई पंगा नहीं एकदम शान्ति है
घोड़े वाले बहुत लूटते हैं, इधर के लोग को बिजनेस नहीं आता
पर क्या करें साहब! बिजनेस तो बस छह महीने का है
और घोड़े को पूरे बारह महीने चारा लगता है
आप पैदल जाइयेगा रास्ता मैं बता दूंगा सीधे गंडोले पर
ऊपर है अभी थोड़ी सी बर्फ़.... 

यह आखिरी बची बर्फ़ है गुलमर्ग के पहाड़ों पर
अनगिनत पैरों के निशान, धूल और गर्द से सनी मटमैली बर्फ़
मैं डरता हूँ इसमें पाँव धरते और आहिस्ता से महसूसता हूँ उसे
जहाँ जगहें हैं खाली वहाँ अपनी कल्पना से भरता हूँ बर्फ़
जहाँ छावनी है वहाँ जलती आग पर रख देता हूँ एक समोवार
गूजरों की झोपडी में थोड़ा धान रख आता हूँ और लौटता हूँ नुनचा की केतली लिए

मैं लौटूंगा तो मेरी आँखों में देखना
तुम्हें गुलमर्ग के पहाड़ दिखाई देंगे
जनवरी की बर्फ़ की आगोश में अलसाए

10
यहाँ कोई नहीं आता साहब
बाबा से सुने थे क़िस्से इनके
किसी भी गाँव में जाओ जो काम है सब इनका किया
फारुख़ साहब तो बस दिल्ली में रहे या लन्दन में
उमर तो बच्चा है अभी दिल्ली से पूछ के करता है जो भी करता है
आप देखना गांदेरबल में भी क्या हाल है सड़क का..

डल के प्रशांत जल के किनारे
संगीन के साये में देखता हूँ शेख साहब की मजार
चिनार के पेड़ों की छाँव में मुस्कराती उनकी तस्वीर

साथ में एक और क़ब्र है 
कोई नहीं बताता पर जानता हूँ
पत्नियों की क़ब्र भी होती है पतियों से छोटी 

11
तीन साल हो गए साहब
इन्हें अब भी इंतज़ार है अपने लड़के का
उस दिन आर्मी आई थी गाँव में
सोलह लाशें मिलीं पर उनमें इनका लड़का नहीं था
जिनकी लाशें नहीं मिलतीं उनका कोई पता नहीं मिलता कहीं

इस साल बहुत टूरिस्ट आये साहब
गुलजार हो गया कश्मीर फिर से
बस वे लड़के भी चले आते तो....

12
गुलमर्ग जायेंगे तो गुजरेंगे पुराने श्रीनगर से
वहीं एक गली में घर था हमारा
सेब का कोई बागान नहीं, न कारख़ाने लकड़ियों के
एक दुकान थी किराने की और 
दालान में कुछ पेड़ थे अखरोट के
तिरछी छतों के सहारे लटके कुछ फूलों के डलिए
एक देवदारी था मेरे कमरे के ठीक सामने
सर्दियों में बर्फ से ढक जाता तो किसी देवता सरीखा लगता
हजरतबल की अजान से नींद खुलती थी
अब शायद कोई और रहता है वहाँ ...

वहाँ जाइए तो वाजवान ज़रूर चखियेगा...
गोश्ताबा तो कहीं नहीं मिलता मुग़ल दरबार जैसा
डलगेट रोड से दिखता है शंकराचार्य का मंदिर...
थोड़ा दूर है चरारे शरीफ़ ..
पर न अब अखरोट की लकडियों की वह इमारत रही न ख़ानक़ाह
कितना कुछ बिखर गया एहसास भी नहीं होगा आपको
हम ही नहीं हुए उस हरूद में अपनी शाखों से अलग...

मैं तुम्हें याद करता हूँ प्रांजना भट्ट हजरतबल के ठीक सामने खड़ा होकर
रूमी दरवाजे पर खड़ा हो देखता हूँ तुम्हारा विश्वविद्यालय 
डल के किनारे खड़ा बेशुमार  चेहरों के बीच तलाशता हूं तुम्‍हारा चेहरा
चिनार का एक ज़र्द पत्ता रख लिया है तुम्हारे लिए निशानी की तरह ...

13
जुगनुओं की तरह चमचमाते हैं डल के आसमान पर शिकारे
रंगीन फव्वारों से जैसे निकलते है सितारे इतराते हुए
सो रहे है फूल लिली के दिन भर की हवाखोरी के बाद
अलसा रहा है धीरे-धीरे तैरता बाजार

और डल गेट रोड पर इतनी रौनक कि जन्नत में जश्न हो जैसे

अठखेलियाँ रौशनी की, खुशबुओं की चिमगोइयां 
खिलखिलाता हुस्न, जवानियाँ, रंगीनियाँ...

बनी रहे यह रौनक जब तक डल में जीवन है
बनी रहे यह रौनक जब तक देवदार पर है हरीतिमा
हर चूल्हे में आग रहे 
और आग लगे बंदूकों को.
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अशोक कुमार पाण्डेय कवि और लेखक हैं. 
इनकी तीन किताबें,  'मार्क्स-जीवन और विचार' (संवाद प्रकाशन),
'शोषण के अभयारण्य- भूमण्डलीकरण और उसके दुष्प्रभाव' 
तथा कविता संकलन 'लगभग अनामंत्रित'  (शिल्पायन) से प्रकाशित हुई हैं.




कश्मीर बहसके पिछले आलेख यहाँ पढ़ें-






You Strike & We will Strike back !

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Feroze Mithiborwala

-Feroze Mithiborwala

The message of ‘21/2 Hyderabad serial terror attack’

"...This working class strike surmounted all calculations due to the scale at which the enraged working classes participated. This strike has shaken up the corporate-political elite & that is why they have struck back with a serial terror attack, where now more than 15 citizens have died & 50 grievously injured..."

You strike !
The strategic& political target of the terror attack, is the historic 2-day Strike of the Working classes, where more than 12 crore or 120 million workers both from the organized & unorganized sectors participated & brought India to a halt. This working class strike surmounted all calculations due to the scale at which the enraged working classes participated. This strike has shaken up the corporate-political elite & that is why they have struck back with a serial terror attack, where now more than 15 citizens have died & 50 grievously injured. The terror attack was orchestrated in Dilsukh Nagar, where there is a busy market & many cinema halls.

If the working class unrest takes the proportions which we witness in many nations across the world such as Greece & Spain, the ruling elite will witness a massive crisis, due to the growing burdens of price-rise, decreasing wages, increasing scams, spiraling inflation, the growing insecurity of the peasantry, workers& laboring classes, as well as the ever-widening rich-poor divide.

The sheer scale of the two-day strike has taken the entire country by surprise, as the Left-Working class forces were supposed to have lost ground against the neo-liberal corporate juggernaut. Even cities & towns in the Northern belts, where the working class movements have been historically weak, have witnessed massive marches & even militant struggles. Towns such as Noida & Gurgaon that adjoin New Delhi, have witnessed the most militant & popular mobilization. The nervous & cold-blooded ruling corporate elite had to hit back & they have promptly, without wasting a moment, as they can see trouble brewing in the distance.
We don't discuss !

All it requires is for the black-ops teams to place the bombs in various parts of the city& quietly walk away & then sit back & watch the mayhem & terror on the TV screens, even whilst TV anchors call upon the very same ‘leaders’, who know exactly what is going on, who address us calling for unity & calm, whilst chuckling to themselves within & mocking at a frightened & gullible population.

The other reasons for the terror attack also need to be analysed. The false-flag terror cell, again the handiwork of the Deep-State & the Black-ops cells that function within every Government & security apparatus.

Then are the other factors that needed to be swept below the carpet of blood. There was a dire need to change the contours of the debate away from the BJP-RSS terror network & the statement that was made by the Home Minister Sushil Kumar Shinde. This terror attack will lessen the heat on the RSS-BJP brigade. Also it was in the background of the Shinde remark on RSS terror, that the Government went ahead & murdered Afzal Guru. This card was aimed at the General Elections of 2014, where the Congress is aiming at the conservative Hindu vote, whilst knowing that the liberal secular Hindu vote is safely in the bag, whilst the Minorities have nowhere to go, with Modi's dark shadow looming large. Yes, it was not a hanging, it was sheer murder& more & more voices across the country were being raised. Thus now this terror attack in Hyderabad will deal with all these issues.

हैदराबाद आतंकी हमला: 12 मरे 78 घायल, 2 दिन पहले जानकारी के बावजूद सरकार क्यों नहीं रोक सकी हमला?
We will strike back !
And Hyderabad has been marked out as the target for the fact that since the last few months, it is this city that has emerged as the most communally sensitive due to the Charminar-Temple dispute & the infamous Akbaruddin Owaisi statement. Thus it will be easy to portray the handiwork of ‘Sleeper Cells’ of disgruntled Muslim youth, who will begin to be picked up from the lanes of this city. Most of the unfortunate victims will be police informers & petty criminals who will be entrapped into owning up for this terror attack. Also the National Investigation Agency has stated that the Mecca Masjid terror attack was the handiwork of RSS related terror cells such as the Abhinav Bharat & the Sanatan Sanstha, even whilst the falsely accused Mulsim youth have been found to be innocent & thus too Hyderabad has been targeted.

On our part, we have to continue to persevere with analysing & exposing the politics of terror, which has now become a perverse gory art-form in the hands of the ruling elite. The politics of communal riots & terror are part of state-craft & a strategy used to control & manipulate entire populations. The agenda is to create a perpetual state of fear & a climate of chaos & confusion, thus ensuring that the exploitation & oppression carry on with the least resistance of the masses, who will remain divided along communal fault-lines. But the people will see through these devious designs, though there is a lot of work to be done, a path strewn with struggle.

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Feroze is a Mumbai based anti-imperialist activist. 
He is a key figure of India-Palestine Solidarity Forum. 
He can be contacted at feroze.moses777@gmail.com 

एक दलदल में फंसा है कश्मीर!

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-प्रेम पुनेठा

कश्मीर बहस - 4


अन्तराष्ट्रीय कूटनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीरका राजनीतिक संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार इस चर्चा की वजह बनी है कश्मीर के एक नागरिक को भारतीय चुनावी राजनीति की उठा-पटक के लिए 'जनमानस की सामूहिक अंतरात्माकी दुहाई देकर फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना. अफजल गुरू की फांसी के बाद अखबारोंचैनलोंइंटरनेट और फोन आदि पर रोक लगाते हुये भारतीय राज्य ने समूचे कश्मीर को भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया. यह बताता है कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर है. ऐसे में कश्मीर की आवाम की तरफ से उठती आज़ादी की मांग दुनिया भर के अमनपसंद लोगों को सहमत करती है. लेकिन यह बात इतनी ही सरल भी नहीं है. इसके पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में पर्याप्त बहस भी है.praxis में हम इस बहस को खोलना चाह रहे हैं. इसे हमने 'कश्मीर बहस'नाम दिया है. यह आलेख इस बहस की चौथी किस्त है...  
-मॉडरेटर
प्रेम पुनेठा

 

"...कश्मीर का मामला भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अस्तित्व का सवाल है। कश्मीर भारत की धर्मनिरपेक्षता का आधार है क्योंकि हिन्दू बहुल देश में यह मुस्लिम बहुल राज्य है, पाकिस्तान के लिए इसलिए कि उसकी सीमाओं से लगा एक मुस्लिम बहुल राज्य उसके पास नहीं है। इसलिए वह बार-बार कहता है कि पार्टिशन पूरा नहीं हुआ है।..."



श्मीर संयुक्त राष्ट्र में गए सबसे पुराने विवादों में से एक है। समय के साथ यह विवाद और पेचीदा, और गहरा हुआ है। अपनी शुरुआत में यह दो देशों भारत और पाकिस्तान के बीच तक सीमित था और झगड़ा था कि कश्मीर भारत में रहेगा या पाकिस्तान में लेकिन अब एक तीसरी धारा भी मौजूद है, जो कश्मीर को एक देश के रूप में देखना चाहती है। पिछले लगभग ढाई दशक से कश्मीर हिंसाग्रस्त है, विशेषकर घाटी। 
कश्मीरका मामला भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अस्तित्व का सवाल है। कश्मीर भारत की धर्मनिरपेक्षता का आधार है क्योंकि हिन्दू बहुल देश में यह मुस्लिम बहुल राज्य है, पाकिस्तान के लिए इसलिए कि उसकी सीमाओं से लगा एक मुस्लिम बहुल राज्य उसके पास नहीं है। इसलिए वह बार-बार कहता है कि पार्टिशन पूरा नहीं हुआ है।

कश्मीरके सवाल को देखा जाए तो यह कहीं न कहीं देश के अंदर उपराष्ट्रीयताओं के संघर्ष की तरह है। भारतीय राष्ट्रीयता सबसे नई परिकल्पना और अवधारणा है, जबकि उपराष्ट्रीयताएं कहीं पुरानी है। और भारत के एकीकरण से पहले यह उपराष्ट्रीयताएं उसकी पहचान रही हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज में व्यक्ति अपनी उपराष्ट्रीयता की पहचान के लिए अत्यन्त दुराग्रही है। 

पहचानकी यही ललक कई बार उपराष्ट्रीयताओं को भारतीय राष्ट्रीयता के साथ संघर्ष में ले आती हैं। यह संघर्ष अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग तरीके से दिखाई देता है। पूर्वोत्तर में यह अलग राज्य के साथ ही प्रभुसत्ता के लिए संघर्ष करता हुआ भी दिखता है। इसके अलावा देश के अन्य हिस्सों में जो पृथक राज्य के आंदोलन हैं उनके मूल में पहचान की ललक ही है। 

भारतीयराज्य व्यवस्था ने इसे सबसे पहले भाषाई आधार पर राज्य बनाकर सुलझाने का प्रयास किया लेकिन यह एक आयामी था और सबकी इच्छाओं को पूरा करने में असमर्थं साबित हुआ। यही कारण है कि अभी भी अलग राज्य के आंदोलन जारी है। इसके साथ ही केंद्र के खिलाफ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का मजबूत होना उपराष्ट्रीयताओं के प्रति लोगों की इच्छाओं का ही प्रतिनिधित्व करता है।

कश्मीरकी समस्या भी कहीं न कहीं इसी उपराष्ट्रीयता से जुडी है। 1947 में कश्मीर के अंदर शेख अब्दुल्ला के रूप में ‘कश्मीरियत’ उपराष्ट्रीयता का प्रतिनिधत्व करने वाला एक व्यक्तित्व मौजूद था। लेकिन बाद में उनको राजनीतिक परिदृश्य से हटा दिया गया। इसके बाद कोई भी ऐसा राजनीतिक व्यक्त्वि नहीं उभरा जो कश्मीरियत का प्रतिनिधित्व करता हो। जो भी वहां पर चुनाव हुए, वह कांग्रेस का ही प्रतिनिधित्व करती रही। यानि एक तरह से दिल्ली। बाद में इंदिरा गांधी के समझौते के बाद शेख अब्दुल्ला की वापसी हुई। लेकिन वे लंबे समय तक जीवित नहीं रहे। वे कश्मीर में क्षे़त्रीयता की पहचान तक भी बने रहे। 

सहीबात तो यह है कि दिल्ली के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ जो राजनीतिक स्पेस था उसे कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ही भरते थे। उनके बाद आने वाले फारूक अब्दुल्ला उस तरह से कश्मीरियत की पहचान नहीं बन सके। जब उन्होने राजीव गांधी के दौर मे कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो राज्य में विरोधी पक्ष का राजनीतिक स्पेस खाली हो गया। लोगों को लगा कि नेशनल कांफ्रेस और कांग्रेस तो एक ही हैं। 

तबघाटी में पैदा हुए राजनीति स्पेस को भरने के प्रयास शुरू हुए। कोई भी राजनीतिक दल नहीं था, जो इस जगह को ले पाता। तब इस स्पेस को उस विचार ने भरना शुरू किया जो कश्मीर की आजादी की बात करते थे। तब तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी सरकारें जनता की समस्याओं को सुलझाने में लगातार नाकाम साबित हो रही थीं। यह स्थिति सीधे-सीधे दिल्ली या भारतीय राज्य के खिलाफ जा रही थी क्योंकि जनता में यह बात पैठ कर गई कि उसकी समस्याओं की जड़ भारत सरकार है। 

वैसेअखिल भारतीय दलों की एक प्रवृत्ति रही है कि वे कभी नहीं चाहती कि उपराष्ट्रीयता की भावना मजबूत हो क्याकि यदि उपराष्ट्रीयता मजबूत हो गई तो वह एक क्षेत्रीय दल को भी पैदा कर देगी और केंद्र में वह कमजोर हो जाएगी। कश्मीर में भी कांग्रेस ने यही किया। उसने कश्मीरियत को कभी मजबूत नहीं किया। कश्मीरी भाषा के स्थान पर उर्दू को राजकाज की भाषा बनाकर कश्मीरी उपराष्ट्रीयता को उभरने ही नहीं दिया। 

कमजोरकश्मीरी उपराष्ट्रीयता का फायदा पाकिस्तान ने उठाया और लोगों की नाराजगी विशेषकर युवाओ को भारत विरोधी प्रचार से प्रभाव में लिया। जहां आजादी के नारे गूंजने लगे। लेकिन आजादी की यह मुहिम अपने शुरूआत में ही लड़़खड़ा गई। जिस मुहिम से कश्मीरियत को मजबूती मिलनी चाहिए थी उसने कश्मीरियत को ही खंडित कर दिया। इसका कारण अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका और पाकिस्तान का मिलकर चल रहा जेहाद था। 

इसीजेहादी विचारधारा का पाकिस्तान ने कश्मीर में भी निर्यात किया। उसने एक व्यवस्थित तरीके से धीरे-धीरे स्वतंत्र कश्मीर की मांग करने वाले संगठनों को किनारे कर दिया और पाक समर्थक संगठनों को मजबूत किया। कश्मीर के अंदर भी पाकिस्तानी और विदेशी जेहादी ज्यादा हो गए। इसका नतीजा यह निकला कि कश्मीरियत का एक प्रमुख हिस्सा रहे कश्मीरी पंडितों को इस मुहिम ने घाटी छोड़कर जाने के लिए मजबूर दिया। 

इससेपूरा संघर्ष उपराष्ट्रीयता न रहकर एक प्रतिक्रियावादी इस्लामिक आतंकी मुहिम बन गया। यह इसलिए हुआ कि पाक समर्थक हथियारबंद संगठनों के दबाव में कश्मीरियत की बात करने वाले नेता और तंजीमें पाकिस्तान पर निर्भर थे। पाकिस्तान को कश्मीरियत से कोई लेना देना नहीं है। उसके लिए कश्मीर का मतलब सिर्फ घाटी में रहने वाले मुसलमान ही हैं। आजादी का मतलब घाटी के मुसलमानों की अलगाववादी और पृथकतावादी मांग और उसका पाकिस्तान में विलय है। इस मांग से जिन नेताओं ने थोड़ा सा भी बाहर निकलने की कोशिश की उनकी हत्या हो गई। बाद में शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे संगठनों ने कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में बुलाने के जो थोड़े से प्रयास भी किए वे बेकार साबित हुए क्योंकि दोनों वर्गों के बीच संदेह बहुत गहरे हो गए थे। 

कश्मीरमें जितने भी राजनीतिक संगठन और पार्टियां है उनके लिए आजादी का मतलब अलग-अलग ही नहीं बल्कि एक दूसरे का विरोधी भी है। कोई इसका अर्थ भारत में रहकर अधिक स्वायत्ता चाहता है तो कोई पूरा प्रभुसत्ता संपन्न देश और कोई कश्मीर का पाकिस्तान में विलय। तब लाख टके का सवाल यही है कि कश्मीर समस्या का समाधान क्या होगा। 

तो भारत और न ही पाकिस्तान एक अलग कश्मीर देश के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार होंगे। वैसे भी आजादी के मतलब अलग देश को मानने वालों के पास केवल घाटी में समर्थन है। फिर अंतरराष्टीय स्तर पर बंदूक के आंतंक से किसी राज्य का निर्माण अब संभव नहीं है। पाकिस्तान भी कश्मीरी जेहादियों को पहले की तरह समर्थन नहीं दे पाएगा। 

दूसरीओर भारत और पाकिस्तान अपने हिस्से के कश्मीर को किसी भी कीमत पर अपने हाथ से जाने नहीं देंगे। उनकी कोशिश तो दूसरे के हिस्से में गए भूभाग को अपने देश की सीमाओं में शामिल करने की होगी। लेकिन जनता के लिए आजादी का क्या मतलब होगा इसकी बात कोई नहीं करता। आजादी की मांग करने वाले नेताओं ने जनता की आकांक्षाओं को वहां पहुंचा दिया है कि वे कोई समझौता भी कर सकने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं। उनकी एकजुटता का आधार भारत विरोध है। अगर भारत विरोध न रहे तो उनका संगठन बिखर जाएगा। आज कश्मीर की हालत दलदल में फंसे हाथी की तरह हो गई है जो सहायता के लिए चिंघाड़ तो सकता है लेकिन बाहर नहीं आ सकता। दिल्ली की राजनीतिक निष्क्रियता ने कश्मीरी जनता को ज्यादा अलगाव में डाल दिया है। 


प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

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कश्मीर बहसके पिछले आलेख/कविता यहाँ पढ़ें-


अस्मिता की राजनीति असली संघर्षों से ध्यान बंटाती हैं: आनंद तेलतुंबड़े

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http://static.manoramaonline.com/ranked/online/MM/The_Week/COVER_STORY/THE_ENIGMA_CALLED_GANDHI/72-Anand-Teltumbde.jpg
आनंद तेलतुंबड़े 




नंद तेलतुंबड़े आइआइटी खड़गपुर में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं. उन्होंने भारत में जाति, वर्ग, राजनीतिक अर्थशास्त्र और लोकतांत्रिक राजनीति पर क़रीब दो दर्जन किताबें लिखी हैं. उन्हें देश और दुनिया में मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है और काफी सम्मान के साथ पढ़ा-सुना जाता है. वे इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली के महत्वपूर्ण लेखक हैं. परसिस्टेंस ऑफ़ कास्ट, ऑन इम्पेरियलिज्म एंड कास्ट और ग्लोबलाइजेसन एंड दलित उनकी कुछ चर्चित किताबें हैं. तेलतुंबड़े के व्यक्तित्व में सिद्धांत और लोकतांत्रिक आंदोलनों से जुड़ाव का एक अद्भुत सामंजस्य है. वे राजनीतिक अर्थशास्त्र की अनदेखी करने वाली अस्मिता की राजनीति की आलोचना करते हैं. अंग्रेजी और मराठी पाठकों के लिए वे जाने-पहचाने नाम हैं. हिंदी की महत्वपूर्ण पत्रिका समयांतर के ताज़ा विशेषांक 'पूंजीवाद का संकट और मार्क्सवाद की चुनौतियां' के लिए उनसे स्तंभकार और पत्रकार भूपेन सिंह ने भारत में जाति और मार्क्सवाद से जुड़े सवालों पर बातचीत की. यहाँ भी पढ़ें...
-मॉडरेटर
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जाति व्यवस्था के ऐतिहासिक कारणों को आप कैसे देखते हैं?

भारतीय जाति व्यवस्था की गुत्थी को सुलझाने की कोशिश कई विद्वानों ने की है लेकिन उनके बीच इस सिलसिले में कोई एक राय नहीं है. एक तरह का श्रेणीक्रम या स्तरीकरण हर प्राचीन समाज में रहा है, इसके आधार पर कुछ लोग भारतीय जाति व्यवस्था की विशिष्टता को नकारने की कोशिश करते हैं,लेकिन इसे उनकी अज्ञानता या जान-बूझकर बनाई गई मान्यता के तौर पर नकारा जाना चाहिए. जाति व्यवस्था की विशिष्टता इसके निरंतर अस्तित्व में बने रहने से जुड़ी है. इतिहास के एक दौर में बाक़ी समाज इस तरह के श्रेणीक्रम से ख़ुद को मुक्त करने में कामयाब हो पाए लेकिन जाति व्यवस्था का अब भी कोई समाधान नहीं निकल पाया है. लोगों को न तो इस बात का पता है कि यह बेहूदा व्यवस्था कैसे अस्तित्व में आयी और न ही वे यह जानते हैं कि कैसे इसका ख़ात्मा किया जा सकता है.
इसलिएमैं यह नहीं कहूंगा कि मेरे पास इस सवाल का कोई सीधा ज़वाब है. लेकिन मैं यह ज़रूर समझता हूं कि इस सवाल का ज़वाब भारत की विशिष्ट स्थितियों में ही तलाशा जाना चाहिए. इस तरह के सरलीकरण बिल्कुल भी ठीक नहीं कि कुछ आर्य यहां आए और उन्होंने इस विशाल महाद्वीप पर अपने विचार थोप दिए.
मैं भारत की प्राकृतिक परिस्थितियों की विशिष्टता को समझने की कोशिश करता हूं.यहां की समतल ज़मीन, बारिश की प्रचुरता, धूप और उपजाऊ मिट्टी इत्यादि ने घुमंतु जातियों के लिए बिना किसी ढांचागत बदलाव से गुजरे खेती करने की स्थितियां मुहैया कराई. दूसरी जगहों, पर दास प्रथा जैसी स्थितियों का उदय हुआ क्योंकि वहां की प्राकृतिक स्थितियों में अच्छी खेती के किए बेहतर हालात नहीं थे. जिस विशाल भूंखंड और बड़ी संख्या में दासों के अस्तित्व को वहां ज़रूरी बना दिया, निश्चित समय में काम पूरा करने के लिए ऐसा करना ज़रूरी था.
अतिरिक्त उत्पादन के विवाद से बचने के लिए उन्होंने कुछ विभाजन भी स्वीकार किए. यह प्रारम्भिक विभाजन, वक़्त बीतने के साथ राजशाही के उभार और जटिल जाति व्यवस्था के रूप में सामने आए. राजशाही के भौगोलिक विस्तार के लिए होने वाली भयानक लड़ाइयों के माध्यम से बाहरी जनजातियों की अधीनता ही बाद में अस्पृश्यता के रूप में सामने आई होगी.

जाति के समूल नाश के लिए आप गांधी, अंबेडकर और मार्क्सवाद की भूमिका को कैसे देखते हैं?

जाति और समुदायों को लेकर गांधी की चिंता मुख्य तौर पर उनके बीच सामाजिक सामन्जस्य बनाने से जुड़ी थी, उभरते हुए पूंजीपति वर्ग के विकास के लिए इस तरह के भारत का निर्माण करना ज़रूरी था. गांधी उसी वर्ग के एक प्रतिनिधि भी थे. वैसे गांधी जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ थे भी नहीं. उन्होंने एक तरह से जाति धर्म का महिमामंडन ही किया, उनका कहना था कि लोग जाति से जुड़े कामों को हीन या श्रेष्ठ मानने के बजाय अपने जाति के कर्तव्य को निभाते रहें. इस बात पर ज़ोर देने के लिए उन्होंने जातीय तौर पर भंगी के लिए निर्धारित काम करने ख़ुद ही शुरू कर दिए. उनके काम करने का तरीक़ा असली अंतर्विरोधों की अनदेखी करने वाला था, इसके लिए वे बहुत ही लचर तर्क देते हैं. जैसे, श्रमिक और पूंजी के अंतर्विरोध के लिए वे ट्रस्टीशिप,हिंदू-मुस्लिम अंतर्विरोध के लिए साम्प्रदायिक सद्भाव और अछूतों के महिमामंडन के लिए हरिजन जैसे शगूफे छोड़ते हैं. उन्होंने इनमें से किसी भी अंतर्विरोध को सुलझाने की कोशिश नहीं की.
जैसाकि हम सब जानते हैं, अंबेडकर जाति के समूल नाश (एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट) के नारे के साथ विशेष तौर पर सामने आए. वे पहले स्वप्नदृष्टा थे जिन्होंने समझा कि जाति के जिंदा रहते हुए भारत का कोई भविष्य नहीं हो सकता. लेकिन जाति संबंधी उनका विश्लेषण भी उनकी वैचारिक सीमाओं से बाहर नहीं निकल पाता. वे जाति की जड़ हिंदू धर्मशास्त्रों में देखते हैं. जिसकी वजह से वे धर्मांतरण को एक समाधान के तौर पर देखते हैं. यह पहले से विद्यमान धार्मिक समुदाय में विलय करने की एक सामुदायिक रणनीति (कम्युनिटेरिन स्ट्रेटजी)में प्रतिविंबित हुआ. इस बात को उन्होंने 1936 में अपने कार्यकर्ताओं को ऐसे ही समझाया. अफसोस कि आगे चलकर उन्होंने बौद्ध धर्म को स्वीकारा जिसका भारत में कोई सामाजिक अस्तित्व ही नहीं था. हम देखते हैं कि धर्मांतरण के उनके इस उपाय ने काम नहीं किया और जाति हमें आज भी पहले से ज़्यादा जटिलता के साथ मुंह चिड़ा रही है.
मार्क्सने मानवीय दुनिया की हर बुराई द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के वैज्ञानिक तरीक़े से ख़त्म करने की कोशिश की. उनके मुताबिक़ यह दृष्टिकोण इतिहास के सभी बदलाओं को दर्ज करता है. जाति से संबंधित संदर्भ उनके पत्रकारीय लेखन और एसियाटिक मोड ऑफ़ प्रोडक्शन (एएमपी) के सैद्धांतीकरण में देखने को मिलते हैं. मार्क्स ने जातियों को एक सामंती व्यवस्था के तौर पर देखा और उनका मानना था कि पूंजीवादी विकास के हमले से इसका नाश हो जाएगा. मार्क्स को ग़लत साबित करने की कोशिश करने वाले कई लोग सोचते हैं कि जाति व्यवस्था के संदर्भ में वे पूरी तरह अप्रासंगिक हैं. मैं समझता हूं कि यह फतवा ग़लत है. पूंजीवादी विकास ने जाति के कर्मकांड वाले पहलू को ज़रूर प्रभावित किया और जिन जातियों को हम आज देखते हैं वे शासक वर्गों की साजिश का नतीज़ा हैं जिन्हें उन्होंने आधुनिक संस्थाओं के माध्यम से नया जीवनदान दिया.
मार्क्सको बेस और सुपर स्ट्रक्चर से संबंधित उनके रूपक की वजह से ज़्यादा ग़लत तरीक़े से समझा गया, जिसे ख़ास तौर पर भारतीय मार्क्सवादियों ने ऐसा अटल सत्य(डॉग्मा) बना दिया जिसने अंबेडकर के संघर्ष समेत बाक़ी सभी गैर आर्थिक संघर्षों की अनदेखी की. इसने इस भूभाग के सर्वहारा के बीच बहुत गहरी और स्थाई दरार पैदा कर दी,यह सचमुच में बहुत दुखदायी है. मैं समझता हूं कि जाति के एक विभाजक श्रेणी होने की वजह से यह आमूल सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्ष का आधार नहीं बन सकती, इसलिए इसका समूल नाश किया जाना ज़रूरी है. इस बात को ध्यान में रखते हुए एक दूसरी श्रेणी की तरफ़ देखने की ज़रूरत हैं जो निश्चित तौर पर वर्ग है. मैं मार्क्सवादी विश्लेषण को अंबेडकर के जाति विहीन समाज के सपने को पूरा करने के लिए एक ज़रूरी हथियार के तौर पर देखता हूं.

अस्मिता की राजनीति को लेकर आपके क्या विचार हैं, ख़ास तौर पर भारतीय संदर्भ में आप इसे कैसे देखते हैं?

एकसामाजिक प्राणी होने के कारण इंसान जन्म लेते ही कई तरह की अस्मिताओं को धारण करना शुरू कर देता है जो उसके साथ लंबे अंतराल तक बनी रहती हैं. इन अस्मिताओं के कई राजनीतिक महत्व होते हैं इसलिए यह स्वाभाविक लग सकता है कि ख़ास अस्मिता से जुड़े लोग उनका इस्तेमाल अपनी राजनीति के लिए करते हैं. लेकिन मेरी राय में सभी तरह की अस्मिताओं की राजनीति विभाजनकारी, न्याय और मुक्ति के असली मुद्दे से ध्यान भटकाने वाली हैं. मेरी नज़र में सार्वभौमिक जैसी माने जाने वाली राष्ट्रीय अस्मिता भी इसका अपवाद नहीं है.
इस पर बहस हो सकती है कि मुक्ति का मुख्य मुद्दा क्या है लेकिन यदि कोई तथ्यात्मकता के साथ मानवीय स्थितियों का विश्लेषण करे तो, मुझे नहीं लगता कि इसमें कोई ज़्यादा विवाद हो सकता है. मानव समाज में बुराई की मुख्य जड़ को व्यक्ति के संग्रह की प्रवृत्ति में देखा जा सकता है और अस्मिताएं इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए एक माध्यम का काम करती हैं. इसलिए अस्मिताओं पर लड़ाई को केंद्रित करना असली बीमारी से मुंह मोड़कर सिर्फ़ लक्षणों का इलाज़ करने की तरह है. सिर्फ़ तर्क के लिहाज़ से अगर कोई गहरे तौर पर सचेतन हो तो कुछ अस्मिताएं इतिहास के किसी ख़ास दौर में रणनीतिक तौर पर राजनीति का आधार हो सकती हैं. उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ राष्ट्रीयताओं के आंदोलन इसका उदाहरण हैं. लेकिन कुछ अस्मिताएं मूलत: बिल्कुल भी काम की नहीं हैं, मैं समझता हूं जातिगत अस्मिता इनमें से एक हैं.

कुछ लोग महिषासुर के मिथक और मैकाले का महिमामंडन करते हुए एक ख़ास तरह कीअस्मितागत राजनीति कर रहे हैं, क्या आप समझते हैं कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की अनदेखी और इस तरह के प्रतीकों का इस्तेमाल कर जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई लड़ाई लड़ी जा सकती है?

नहीं.मैं नहीं समझता कि महिषासुर के मिथक या मैकाले का महिमामंडन कर जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ कोई प्रभावी लड़ाई लड़ी जा सकती है. जो लोग इस तरह की कोशिश करते हैं वे इस बात को प्रदर्शित करते हैं कि जाति सिर्फ़ एक मिथक है जिसका मुक़ाबला प्रतिमिथक के आधार पर ही किया जा सकता है. ऐसा करने वाले लोग जाति व्यवस्था की विरूपता की अनदेखी करते हैं.इस तरह की स्थापनाएं सनसनी पैदा करने के साथ ही मीडिया और लोगों का ध्यान आकर्षित करती हैं. उन्हें काफ़ी पब्लिसिटी मिलती है.
कुछवक़्त पहले मैंने सुना कि अंग्रेजी देवी और थॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दलितों की मुक्ति का प्रतीक बनाने की कोशिश की जा रही है. इस तरह की विचित्र स्थापनाएं भी काफ़ी सनसनी पैदा करती हैं इसलिए इन्हें मीडिया में काफ़ी जगह मिली. ऐसी बातें पूरी तरह शासक वर्गों के हितों का पोषण करती हैं और उत्पीड़ितों का ध्यान उनके असली दोषियों से हटाती है. यह अमूर्त चीज़ों को निशाना बनाती हैं इसलिए बिना किसी चीज़ को दांव पर लगाये इस तरह के नारे उछालकर मज़ा लेने वाले मध्यवर्ग के बड़े हिस्से को अपील करती हैं.
समय-समय पर इस तरह के मिथक गढ़े जाते हैं और उन्हें जाति व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ने वाले सांस्कृतिक हथियार के तौर पर पेश किया जाता है. लेकिन यह सिर्फ़ सत्ता में जड़ जमाये वर्गों और जातियों की व्यवस्थागत करतूतों और उनके उपकरण, भारतीय राज्य से दलितों का ध्यान हटाने का काम करते हैं.

कुछ लोग दावा करते हैं कि मार्क्सवाद जाति के मुद्दे को नहीं सुलझा सकता है.आप क्यो सोचते हैं?

एकविज्ञानके तौर पर मार्क्सवाद जाति के मुद्दे को ज़रूर सुलझा सकता है और इसे ऐसा करना भी चाहिए. यह बाक़ी तमाम बुराइयों का भी ख़ात्मा कर सकता है लेकिन ध्यान देने की बात है कि इसे बरतने वालों ने जिस तरह से इसे कट्टरपंथ या डॉग्मा में बदल दिया है, उससे बाहर निकलना पड़ेगा.
मार्क्सवादकहें या चाहे जो भी नाम इसे दें, मेरे हिसाब से यह प्राकृतिक विज्ञानों की तरह ही समाज का एक विज्ञान है, और इसे कोशिश करनी चाहिए कि यह नए सबूतों के बल पर लगातार ख़ुद को सही करता रहे. मार्क्सवाद कोई मार्क्स और एंगेल्स की तरफ़ से कहे गए विचारों की कब्र में पड़ी लाश नहीं है. दुनिया में हो रहे बदलाओं, ख़ास तौर पर विज्ञान और तकनीकी तरक्की के बाद, मार्क्स की बहुत सारी स्थापनाओं में सुधार की ज़रूरत है. अफसोस की बात यह है कि बहुत सारे मार्क्सवाद समर्थकों ने इसे आज लगभग धर्म जैसा बना दिया है. जाति के मुद्दे पर काम करते हुए मार्क्सवादी दृष्टिकोण ज़रूर उपयोगी है लेकिन ज़रूरत इस बात की है कि यह भारतीय समाज का वर्गीय विश्लेषण सही तौर पर करे और उसमें जातियों को लोगों के जीवित संसारकी तरह शामिल करे.
लेकिनशुरुआती कम्युनिस्टों ने अपनी ब्राह्मणवादी संस्कृति के मुताबिक़ भारतीय समाज को समझने के लिए रूसी मॉडल की नकल की और वर्गों के सवाल को वर्ग और जाति की मूर्खतापूर्ण बहस में उलझा दिया.
यहमार्क्सवाद नहीं है. उन्होंने लेनिन के वर्ग की परिभाषा को नहीं, उनके ढांचे को भारत के वर्ग विश्लेषण के लिए अपनाया. अगर वे उनकी परिभाषा को समझते तो भारत के वर्ग विश्लेषण में जाति, जो कि यहां का एक लाइफ़ वर्ल्ड रहा है, जो बेस से सुपरस्ट्रक्चर तक लोगों के जीवन को निर्देशित करता दिखाई देता है, को सम्मलित करते. न कि उसको किनारे रखकर वर्ग और जाति के वेवकूफी भरे द्वैत का निर्माण करते. इस तरह भारत का वर्ग संघर्ष जाति के विरुद्ध का भी संघर्ष बनता. तब यहां पर जाति से मुक्ति के आंदोलन की ज़रूरत ही न होती. सारे सर्वहारा का (आधुनिक श्रमिक वर्ग और यहां का उत्पीड़ित ऑर्गनिक सर्वहारा) का यह एकीकृत आंदोलन बनता. यहां के कम्युनिस्टों की यह अक्षम्य भूल रही है कि वे भारत की क्रांति के लिए जाति और वर्ग संघर्ष को नहीं जोड़ पाए.

आप दलित पूंजीवाद और उसके विचारकों के बारे में क्या सोचते हैं?

यहबिल्कुल बकवास है. यह कुछ लोगों का दिमागी फितूर है, वे इसके माध्यम से मीडिया में सनसनी और जनता के बीच अस्मितागत भ्रम फैलाते हैं. मैं सोचता हूं कि मामला सिर्फ़ इतना ही नहीं है बल्कि यह विश्व पूंजीवाद के हितों को साधने वाली सोची-समझी रणनीति है. मीडिया इसमें निहित सनसनी और नव उदारवादी पोषक होने की वजह से इसे अहमियत देता है. दलित मध्यवर्गों को इसमें काफ़ी मज़ा आता है क्योंकि वे इसे अपनी अस्मिता के उत्थान के तौर पर देखते हैं बाक़ी बची दलित जनता एक भ्रम में उनके पीछे चलती रहती है, वैसे भी इस झूठी चेतना की वजह से वे कई सालों से ऐसा ही करते रहे हैं. भारतीय राज्य अतिउत्साह में रेड कार्पेट बिछाकर इसके झंडाबरदारों का स्वागत करता है. जिससे दलितों के असली ज्वलंत सवालों पर असर पड़ता है क्योंकि भारतीय राज्य इन नवधनाढ्यों को वरीयता देता है और इन तथाकथित दलित उद्यमियों को सार्जनिक ख़रीद और ठेकों में छूट देता है.
देखिए, कुछ व्यक्ति हमेशा अमीर रहे हैं, यहां तक कि कुछ दलित उद्यमी भी रहे हैं. उद्यमिता की आधिकारिक परिभाषा के मुताबिक़ उद्यमी वह है जो स्वरोजगार को अपनाता है. इस हिसाब से सड़क किनारे जूते सिलने वाले मोची भी उद्यमी है.
सरकारकी तरफ़ से 1990, 1998 और 2005 में किये गए आर्थिक सर्वेक्षण बताते हैं कि वैश्वीकरण के दौर में दलित उद्यमिता के अनुपात में गिरावट आई है, यह आंकड़े दलित पूंजीपतियों के झूठ और दुष्प्रचार की पोल खोल देते हैं. इसमें कुछ भी बुरा नहीं है कि दलित अपनी तरक्की के लिए पूंजीवादी व्यवसाय अपनाएं. लेकिन जब नब्बे फीसदी दलित मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने की जद्दोजहद कर रहे हों, ऐसे हालात में दलितों को पूंजीपति बन जाना चाहिए या वैश्वीकरण ने दलितों का उद्धार किया है जैसे बेवकूफ़ाना तर्क देने से बड़ा अपराध ग़रीब दलितों के ख़िलाफ़ और कुछ नहीं हो सकता.
ये सब बातें मैं पूरे दावे और अधिकार के साथ कह रहा हूं. मैंने देश के सबसे बढ़िया माने जाने वाले संस्थान से तकनीक और प्रबंधन की औपचारिक पढ़ाई की है. प्रैक्टिस्नर के तौर पर मैं एक होल्डिंग कंपनी के सीईओ का पद संभाल चुका हूं इसलिए मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं कि आधुनिक बिजनेस और उद्यमिता क्या है. देश के जाने-माने संस्थान में अंतरराष्ट्रीय प्रबंधन का प्रोफेसर होने और गरीब लोगों के पक्ष में काम करने वाले एक भरोसेमंद ऐक्टिविस्ट और सिद्धांतकार होने के नाते मेरा पक्ष बिल्कुल साफ़ है. मैं न तो किसी टुच्चे व्यक्तिगत स्वार्थ से प्रेरित होकर कोई जुमला उछाल रहा हूं और न ही फर्जी बौद्धिकों की तरह अधकचरी सैद्धांतिक लफ्फाजी कर रहा हूं.

दलित राजनीति के कुछ झंडाबरदार उपनिवेशवाद को सही ठहराते हैं, ख़ास तौर पर वे मैकाले की शिक्षा व्यवस्था की तारीफ़ करते हैं. वे अंग्रेजी भाषा और संस्कृति को ब्राह्मणवाद के ख़िलाफ़ एक हथियार के तौर पर देखते हैं. आप इस बारे में क्या कहना चाहेंगे?

शायदमैंने इस मुद्दे पर अपनी बात पहले कह दी है. इसमें कोई शक नहीं है कि जाति विरोधी संघर्ष में सांस्कृतिक पहलू बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन यह राजनीतिक अर्थशास्त्र की कीमत पर नही होना चाहिए. सांस्कृतिक तर्क अगर भौतिक सच्चाई से नहीं जुड़ा है तो यह बहुत ही फिसलन भरा रास्ता हो सकता है. यह लोगों के अस्मितागत अहंकार की संतुष्टि कर सकता है लेकिन अंतिम तौर यह उनके हितों के ख़िलाफ़ ही जाएगा.

आप भारतीय राज्य की जाति आधारित आरक्षण नीति को कैसे देखते हैं? क्या यह जाति के उन्मूलन में मददगार है या सिर्फ़ शासक वर्ग के लिए सेफ्टी वॉल्व का काम करती है?

बाबासाहेबअंबेड़कर के लिए आरक्षण निश्चित तौर पर एक भवंरजाल रहा होगा. वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि जाति का पूरी तरह ख़ात्मा कर दिया जाए. लेकिन उन्हें इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए दलितों को सक्षम भी बनाना था. दलितों के सशक्तिकरण का काम अनिवार्य रूप से जाति की अस्मिता के आधार पर ही किया जा सकता था. इस तरह देखा जाए तो जाति के समूल नाश और उसकी स्वीकारोक्ति के बीच एक अंतर्विरोध निहित है. वह दीर्घकालिक और अल्पकालिक उद्देश्यों के बीच का अंतरर्विरोध है. जहां एक मकसद था जाति का समूल नाश वहीं दूसरा मकसद यह सुनिश्चित करना था कि मौज़ूदा समाज में दलित रह पाएं इसलिए उन्होंने उनके जीवन और सशक्तीकरण के लिए आरक्षण को ज़रूरी समझा. मैं समझता हूं कि इस दुविधा का कोई आसान हल नहीं था जब तक कि वाम ताक़तें अपनी ऐतिहासिक भूमिका का निर्वाह करते हुए, जाति विरोधी संघर्ष को अपना ज़रूरी हिस्सा मानने वाला एक क्रांतिकारी वर्ग युद्ध न छेड़ देतीं. वामपंथी पार्टियां अपनी ब्राह्मणवादी प्रवृत्तियों की वजह से ऐसा करने में बुरी तरह नाकाम हो गईं. तब भी वहां इस बात के लिए जगह थी कि असली मक़सद की प्राप्ति के लिए आरक्षण जैसे किसी सपोर्ट सिस्टम को रचनात्मक तौर पर अपनाया जाए ताकि जाति के समूल नाश के लिए इसे एक पूरक के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके.  
इसमें कोई शक नहीं कि सामाजिक व्यवहार को ध्यान में रखते हुए दलितों के लिए आरक्षण ज़रूरी था. लेकिन ऐसा करते हुए यह ज़रूर समझना चाहिए कि किसकी अक्षमता को आरक्षण जैसी दवाई की ज़रूरत है. यह भारतीय समाज की अक्षमता थी, ना कि दलितों की.
इसलिएवह समाज की ज़िम्मेदारी रहती कि वह अपने इस अक्षमता को जल्द से जल्द नष्ट करे ताकि आरक्षण की ज़रूरत ना रहे. अगर ऐसा हुआ होता तो जाति के ख़ात्मे का ज़िम्मा पूरे समाज को जाता, ऐसा होना भी चाहिए था. समाज ने अपने इस अपराध को स्वीकार कर लिया होता और अपनी इस बुराई से मुक्ति पाने के लिए तुरंत संघर्ष छेड़ दिया होता. तब दलित लड़के-लड़कियों को किसी मनोवैज्ञानिक दबाव और सामाजिक प्रताड़ना को सहना ना पड़ता. इस तरह अपवाद के तौर पर अपनाई गई आरक्षण की नीति अपने आप ख़त्म हो जाती, जैसा कि इसको होना भी चाहिए.
आरक्षणमें जाति के आधार से बचा तो नहीं जा सकता था लेकिन परिवार को इसका फायदा लेने वाली इकाई बनाया जा सकता था. इस तरह उस कमज़ोरी से बचा जा सकता था जिसके तहत संपूर्ण जाति आरक्षण की कीमत चुकाती लेकिन उसका फायदा व्यक्ति विशेष को होता. इस तरह जो परिवार आरक्षण प्राप्त करता है धीरे-धीरे उसे भविष्य में आरक्षण पाने से रोका जा सकता था और उपजातियों के उभार (डायनामिक्स) से बचा जा सकता था जो उस नीति से पैदा हो रही थी. मौजूदा आरक्षण के तहत लगातार कम से कम परिवार आरक्षण का फायदा ले सकते हैं.जाति के अलावा कोई और आधार न होने की वजह से लोगों को जाति के संदर्भ में ही चीजों को देखने के लिए उकसाया जा सकता है. इस बात को अंबेडकर के जाति उल्मूलन के सपने का निषेध करने वाली दलित उपजातियों की आपसी लड़ाई में देखा जा सकता है.
वर्तमाननीति पिछड़ेपन पर ज़ोर देती हुई दलितों के पिछड़ेपन को आधार बनाती है. इस तरह यह भानुमती का ऐसा पिटारा खोल देती है जिसमें बाक़ी सभी जातियां भी पिछड़ेपन का दावा करते हुए आरक्षण की मांग करने लगती हैं. इस नीति को दलितों का बेवजह पक्ष लेने वाली माना जाता है, यह उन्हें पूरे समाज की शिकायत का केंद्र बनाती है. परिणामस्वरूप एक द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है, दलित पूरी  भावुकता के साथ आरक्षण के विशेषाधिकार को बनाए रखने वाली नीति को जारी रखना चाहते हैं और इस तरह जाति व्यवस्था की उम्र को और बढ़ा देते हैं. आरक्षण के पीछे दूसरा तर्क प्रतिनिधित्यामक तर्क है, यह भी स्वाभावित तौर पर सबको अपील करता है कि जब तक कोई लाभकारी वर्ग में पहुंचने के लिए तैयार न हो तब तक यह व्यवस्था ज़रूरी है. लेकिन कोई अच्छी तरह से इसकी पड़ताल करे तो पता चलेगा कि इस तर्क ने काम नहीं किया. इसलिए मैं कहूंगा कि सीमाओं के बावजूद आरक्षण की नीति जाति के समूल नाश के लक्ष्य का रास्ता तलाश सकती थी. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. शायद शासक वर्ग ऐसा ही चाहता था. अगर ऐसा होता तो आरक्षण के संबंध में जिन बुराइयों से हम जूझते हैं उनका ख़ात्मा हो गया होता. आपके सवाल पर वापस लौटते हुए मैं कहना चाहता हूं कि आरक्षण की वर्तमान नीति ने दलितों का भला करने के बजाय शासक वर्ग के ही हितों की पूर्ति की  है. आज के हालात को देखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण ने आरक्षण को निरर्थक बना दिया है. सार्वजनिक क्षेत्र की नौकरियां 1997 की अपनी बेहतरीन स्थिति से लगातार कम हो रही हैं. इसका साफ़ मतलब है कि आरक्षण एक तरह से तभी ख़त्म हो गया था. लेकिन आम दलितों के बीच निहित स्वार्थी तत्व उन्हें यह सब नहीं जानने देते. शायद वे ख़ुद भी इसे नहीं समझते या इसे समझने की इच्छा नहीं रखते. यह वास्तव में अफसोसजनक है.

आपकी राय में जाति का नाश करने के लिए सबसे तार्किक रास्ता क्या हो सकता है?

आज जातियां मुख्य तौर पर एक तरफ़ तो सांस्कृतिक अवशेष के तौर पर काम करती हैं वहीं दूसरी तरफ़ ये गरीबों का शोषण करने वाली शासक वर्गों की व्यवस्था है. जातियों के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए कई रणनीतियां हो सकती हैं.
एक प्रभावी और ढांचागत तरीक़ा तो यह हो सकता है कि लोगों को उत्पादन व्यवस्था से जोड़ा जाए, सहकारी मॉडल इसके लिए मददगार हो सकता है, जिससे लोगों के भौतिक हित एक-दूसरे से जुड़ जाएंगे. स्टेट्स एंड मायनॉरिटीज में अंबेडकर की तरफ़ से प्रस्तावित सहकारी खेती इसका एक अच्छा उदाहरण हो सकती है. मिथकों, सड़ी-गली परंपराओं और धार्मिक कर्मकांडों के ख़िलाफ़ लगातार लोगों को शिक्षित करने की प्रक्रिया चलती रहनी चाहिए. वामपंथ और दलित मिलकर लोगों के ठोस भौतिक मुद्दों को ध्यान में रखते हुए जाति रहित आंदोलन के निर्माण में बड़ी भूमिका निभा सकते हैं.
ये कुछ तरीक़े हैं जो निश्चित तौर जाति को कमज़ोर करेंगे. इस सबके बावज़ूद कुछ लोग इन सबकी अनदेखी करते हुए जातीय शोषण कर सकते हैं. उनके साथ कड़ाई से निपटने की ज़रूरत है. इसका इलाज है शॉक ट्रीटमेंट. आंदोलन को इतना मज़बूत होना चाहिए कि वह ऐसे लोगों की शारीरिक तौर पिटाई कर पाठ पढ़ा सके. यह एक भावुक जवाब नहीं है,यह ठोस वैज्ञानिक आधारों पर टिका है जिसे मैं किसी के सामने भी व्याख्यायित कर सकता हूं. यह वैज्ञानिकता पर टिके कुछ तरीक़े हैं जिन्हें मैं जाति विरोधी रणनीति के तौर पर सुझा सकता हूं.
भूपेन सिंह
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भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। 

कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

ठीक हुआ कि वो मर गई नहीं तो उससे भी अश्लील सवाल पूछे जाते : सूर्यानेल्ली की लड़की

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अरविंद शेष


"...मेरे लिए यह राहत की बात है कि दिल्ली की उस लड़की की मौत हो गई। वरना उसे सभी जगह ठीक वैसे ही अश्लील सवालों से रूबरू होना पड़ता जो उसे उस खौफनाक रात को भुगतना पड़ा। इसकी वजह बताने के लिए उसे बार-बार मजबूर किया जाता। और अकेले बिना किसी दोस्त के वह अपनी ही छाया से डरती हुई जिंदगी का बाकी वक्त किसी तरह काटती।..."

- सूर्यानेल्ली की लड़की

रसूख वाले बलात्कारी नहीं होते...

तान्या फ्रेडमेन का चित्र 'केवा' (ऑइल ऑन केनवास)
सूर्यानेल्ली में लगातार चालीस दिनों तक बयालीस वहशी धोखेबाज मर्दों ने बर्बरता की सारी हदें पार कर सूर्यानेल्ली की उस सोलह साल की बच्ची को जैसे चाहा रौंदा था और लगभग मर जाने के बाद उसके घर के आसपास फेंक दिया था। वह किसी तरह बच गई और आज तैंतीस साल की उम्र में भी वह अपने आसपास के अंधेरों  का सामना करती हुई अपनी लड़ाई को अंजाम देने के लिए अपने बूते खड़ी है। अरुंधति राय ने नहीं भी कहा होता तो भी मैं ठीक वही कहता- हां, वह मेरी हीरोईन है, वह सबकी नायिका है।

फिलहाल हकीकत यह है कि दूरदराज के इलाकों में होने वाली ऐसी तमाम घटनाएं हमारी संवेदना को नहीं झकझोर पाती हैं। सवाल करने वाले कर रहे हैं कि क्या हम केवल तभी परेशान होते हैं जब कोई घटना देश की राजधानी में हो, हमारे अपने वर्ग से जुड़ी हो। वरना दिल्ली में हुई सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद इंडिया गेट के व्यापक आंदोलन से निकले संदेश के बीच इसी दौर में बिहार में सहरसा जिले के एक गांव में किसी दलित और मजदूर परिवार की आठ साल की बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार करके बर्बरता की सारी हदें पार कर मार ही डाला जाता है... महाराष्ट्र के भंडारा में तीन नाबालिग बच्चियों से बलात्कार के बाद उनकी हत्या कर कुंए में फेंक ही जाती है... और इस तरह की तमाम घटनाएं अपनी त्रासदी के साथ लगातार घट ही रही हैं। लेकिन हमारे भीतर कभी भी गुस्सा पैदा नहीं होता... किसी टीवी वाले को इन घटनाओं पर लोगों को आंदोलित करने की जरूरत नहीं पड़ती...  इंडिया गेट पर कभी शोक की मोमबत्तियां नहीं जलाई जातीं...!

केरल में सूर्यानेल्ली की यह लड़की किसी तरह जिंदा बच गई थी। अगर देश के सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में दफन कर दिए गए मुकदमे पर सवाल नहीं उठाया होता तो इसमें भी अदालतों ने चुपचाप सभी अपराधियों को पवित्र ब्रह्मचारी घोषित कर ही दिया था। इसके बावजूद इस देश की महान पार्टी कांग्रेस के एक महान और "पवित्र" सांसद पीजे कूरियन यह कह ही रहे हैं कि उनके खिलाफ सीपीएम झूठा प्रचार कर रही है। इस देश में सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की सत्ताधारी पार्टी कूरियन का झंडा उठा कर कूद रही है... सत्ता की दावेदार एक पार्टी अपनी इस बात की फिक्र को दूर करने की फिराक में है कि उसके पूरे गिरोह के भगवा आतंकवाद के आरोप से मुक्त कर दिया जाए...। आगे क्या होगा, सभी अपराधी एक बार फिर से पवित्रीकरण की प्रक्रिया से गुजरेंगे या फिर सूर्यानेल्ली की लड़की पर ढाए गए जुल्म की सजा पा सकेंगे, यह हमारी व्यवस्था, अदालतों, राजनीतिक दलों के रुख पर निर्भर करेगा। लेकिन इसी के साथ राजधानी दिल्ली और ताकतवर मध्यवर्गीय संवेदनाओं से उपेक्षित ये तमाम घटनाएं एक बार फिर सचमुच की समाजी और इंसानी संवेदनाओं की परीक्षा की कसौटी पर भी गुजरेंगी...। रोजाना के अनगिनत ऐसे मामलों की तरह... ।

टाइम्स ऑफ इंडिया में सूर्यानेल्ली की लड़की की यह पीड़ा उसी के शब्दों में प्रकाशित हुई थी। अनुवाद करने की कोशिश मैंने ही की है। जहां भी जरूरी लगे, एक बार इस लिंक पर क्लिक कर लीजिएगा, लेकिन पढ़िएगा जरूर...  

मैं सचमुच अपने पहले प्यार का कत्ल कर देना चाहती थी...  

- सूर्यानेल्ली की लड़की

आपने शायद कभी मेरा नाम नहीं सुना हो! मुझे उस पहचान के साथ नत्थी कर दिया है, जिससे मैं छुटकारा नहीं पा सकती- मैं सूर्यानेल्ली की लड़की हूं। पिछले सत्रह सालों से मैं इंसाफ पाने की लड़ाई लड़ रही हूं। कुछ लोग मुझे बाल-वेश्या कहते हैं तो कुछ पीड़ित। लेकिन किसी ने मुझे दामिनी, निर्भया या अमानत जैसा कोई नाम नहीं दिया। मैं कभी भी इस देश के लिए गर्व नहीं बन सकती! या उस महिला का चेहरा भी नहीं, जिसके साथ बहुत बुरा हुआ।

मैं तो स्कूल में पढ़ने वाली सोलह साल की एक मासूम लड़की भी नहीं रह सकी, जिसे पहली बार किसी से प्यार हो गया था। लेकिन उसी के बाद उसने अपनी जिंदगी ही गंवा दी। अब तैंतीस साल की उम्र में मैं रोज  °डरावने सपनों से जंग लड़ रही हूं। मेरी दुनिया अब महज उस काली घुमावदार सड़क के दायरे में कैद है जो मेरे घर से चर्च और मेरे दफ्तर तक जाती है।

लोग अपनी प्रवृत्ति के मुताबिक मुझ पर तब तंज कसते हैं जब मैं उन चालीस दिनों को याद करती हूं, जब मैं सिर्फ एक स्त्री शरीर बन कर रह गई थी और जिसे वे जैसे चाहते थे, रौंद और इस्तेमाल कर सकते थे। मुझे जानवरों की तरह बेचा गया, केरल के तमाम इलाकों में ले जाया गया, हर जगह किसी अंधेरे कमरे में धकेल दिया गया, मेरे साथ रात-दिन बलात्कार किया गया, मुझे लात-घूंसों से होश रहने तक पीटा गया।

वे मुझसे कहते हैं कि मैं कैसे सब कुछ याद रख सकती हूं, और मैं हैरान होती हूं कि मैं कैसे वह सब कुछ भुला सकती हूं? हर रात मैं अपनी आंखों के सामने नाचते उन खौफ़नाक दिनों के साथ किसी तरह थोड़ी देर एक तकलीफदेह नींद काट लेती हूं। और मैं एक अथाह अंधेरे गहरे शून्य में बार-बार जाग जाती हूं जहां घिनौने पुरुष और दुष्ट महिलाएं भरी पड़ी हैं।

मैं उन तमाम चेहरों को साफ-साफ याद कर सकती हूं। सबसे पहले राजू आया था। यह वही शख्स था, जिसे मैंने प्यार किया था और जिस पर भरोसा किया था। और उसी ने मेरे प्यार की इस कहानी को मोड़ देकर मुझे केरल के पहले सेक्स रैकेट की आग में झोंक दिया। रोजाना स्कूल जाने के रास्ते में जिस मर्द का चेहरा मेरी आंखें तलाशती रहती थीं, वही उनमें से एक था जिसे मैंने शिनाख्त परेड में पहचाना था और अदालत के गलियारे में मेरा उससे सामना हुआ। उन दिनों... मैं सचमुच उसका कत्ल कर देना चाहती थी। हां... अपने उस पहले प्रेमी का...।

लगभग मरी हुई हालत में उन्होंने मुझे मेरे घर के नजदीक फेंक दिया। लेकिन मेरे दुख का अंत वहीं नहीं हुआ। मेरा परिवार मेरे साथ खड़ा था। मैंने यह सोच कर मुकदमा दायर किया कि ऐसा किसी और लड़की के साथ नहीं हो। मैंने सोचा कि मैं बिल्कुल सही कर रही हूं। लेकिन इसने मेरे पूरे भरोसे को तोड़ दिया। मेरे मामले की जांच के लिए जो टीम थी, वह मुझे लेकर राज्य भर में कई जगहों पर गई। उसने मुझे अनगिनत बार उस सब कुछ का ब्योरा पेश करने को कहा जो सबने मेरे साथ किया था। उन्होंने मुझे इस बात का अहसास कराया कि एक औरत होना आसान नहीं है, वह पीड़ित हो या किसी तरह जिंदा बच गई हो।

मेरे लिए यह राहत की बात है कि दिल्ली की उस लड़की की मौत हो गई। वरना उसे सभी जगह ठीक वैसे ही अश्लील सवालों से रूबरू होना पड़ता जो उसे उस खौफनाक रात को भुगतना पड़ा। इसकी वजह बताने के लिए उसे बार-बार मजबूर किया जाता। और अकेले बिना किसी दोस्त के वह अपनी ही छाया से डरती हुई जिंदगी का बाकी वक्त किसी तरह काटती।

मेरा भी कोई दोस्त नहीं। मेरे दफ्तर में कोई भी मुझसे बात नहीं करना चाहता। मेरे मां-बाप और कर्नाटक में नौकरी करने वाली मेरी बहन ही बस वे लोग हैं जो मेरी आवाज सुन पाते हैं। हां, कुछ वकील, पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता भी।

मैंने इन दिनों खूब पढ़ा है। फिलहाल केआर मीरा की एक किताब "आराचार" (द हैंगमैन) पढ़ रही हूं।

मेरे परिवार के अलावा कोई भी नहीं जानता कि मैं अपनी गिरती सेहत को लेकर डरी हुई हूं। लगातार सिर दर्द, जो उन चालीस दिनों की त्रासदी का एक हिस्सा है जब उन्होंने मेरे सिर पर लात से मारा था। मेरे डॉक्टर कहते हैं कि मुझे ज्यादा तनाव में नहीं रहना चाहिए। और मैं सोचती हूं कि सचमुच ऐसा कर पाना दिलचस्प है।

मेरा वजन नब्बे किलो हो चुका है। जब मैं अपनी नौकरी से नौ महीने के लिए मुअत्तल कर दी गई थी, उस दौरान मेरा ज्यादातर वक्त बिस्तर पर ही कटता था और इसी वजह से वजन भी बढ़ता गया। अब मैं कुछ व्यायाम कर रही हूं। पूरी तरह ठीक हो पाना एक सपना भर है। लेकिन कुछ प्रार्थनाएं मुझे जिंदा रखे हुए हैं।

भविष्य पर मेरा यह यकीन अब भी जिंदा है कि एक दिन सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैं हर सुबह और रात को प्रार्थना करती हूं। मैं नहीं पूछती कि फिर मुझे ही क्यों...! मैं उन दिनों भी उस पर भरोसा करती रही, जब मैं मुश्किल से अपनी आंखें खोल पाती थी या किसी तरह जिंदा थी। मैंने प्रार्थना की। मैं लैटिन चर्च से आती हूं जो कैथोलिक चर्च में सबसे बड़ा चर्च है। मगर पिछले सत्रह सालों से कहीं भी और किसी भी चर्च में मेरे लिए कोई प्रार्थना नहीं की गई। पवित्र मरियम को कोई गुलाब की माला अर्पित नहीं की गई और न ही कोई फरिश्ता अपने दयालु शब्दों के साथ मेरे दरवाजे पर आया।

लेकिन मेरा भरोसा टूटा नहीं है। इसने मुझे हफ्ते के सातों दिन चौबीसों घंटे चलने वाले टीवी चैनल देखने की ताकत बख्शी है, जहां कानून के रखवाले मुझे बाल-वेश्या बता रहे हैं, और कुछ मशहूर लोग इस बात पर चर्चा कर रहे हैं कि मेरे मुकदमा टिक नहीं पाएगा। यहां तक कि जब मैं दफ्तर में वित्तीय धोखाधड़ी के मामले में फंसाई गई हूं और मेरे माता-पिता बहुत बीमार चल रहे हैं, तब भी मैं खुद को समझाती हूं कि यह भी ठीक हो जाएगा... एक दिन..!!!
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 अरविंद शेष पत्रकार हैं. अभी  जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी. 
इनसे संपर्क का पता- arvindshesh@gmail.co
arvind.shesh@facebook.com 

और अंत में खुद के लिए खेलते सचिन

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नन्दलाल शर्मा

-नन्दलाल शर्मा

"...अप्रैल में सचिन उम्र के चालीसवें बसंत को गुडबॉय कहने जा रहे है। उससे पहले माइकल क्लार्क की अगुवाई वाले कंगारुओं के दल के सामने उन्हें यह साबित करना है कि उनके अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट करियर का सूरज अभी पश्चिम से काफी दूर है। जहां वह अस्त होगा। लेकिन ग्यारह खिलाड़ियों की एक टीम के साथ खेलते हुए जब आप खुद के लिए खेलते हैं, तो सबसे ज्यादा दर्द आपके चाहने वालों को होता है।..."

चेन्नई के चेपक स्टेडियम में धोनी ब्रिगेड कंगारुओं के खिलाफ एक इकाई के रूप में खेलती नजर आई। इसमें कोई शक नहीं कि अपने घर में टीम का प्रदर्शन प्रभावशाली रहा। लेकिन इसी मैच में एक शख्स खुद के लिए खेलता नजर आया। ढाई दशक से ज्यादा समय तक करोड़ों लोगों के लिए खेलने वाले सचिन रमेश तेंदुलकर आज खुद को साबित करने के लिए खेल रहे हैं। मजेदार बात ये है कि उन्हें स्वयं के बनाए मानकों को लांघना है या फिर उनकी चमक पिछले के बराबर रखनी है। 

http://topnews.in/sports/files/Sachin-Tendulkar1.jpgमेरीस्मृतियों में जो पहला वाकया दर्ज है वह 1999 में इंग्लैंड में चल रहे विश्वकप टूर्नामेंट का है। भारतीय टीम अपने दोनों शुरूआती मैच दक्षिण अफ्रीका और जिंबाब्वे से हार चुकी थी। उस समय मोहल्ले के चौक पर रखे एक रेडियो पर चालीस कान केन्द्रित होते। लेकिन उस दिन सब यहीं अफसोस जता रहे थे कि काश सचिन इस समय टीम में होते, तो हमारी उम्मीदें और जवां होती। गौरतलब है कि पिता के निधन के चलते सचिन टीम में नहीं थे। केन्या के खिलाफ सचिन टीम में लौटे और शानदार शतक से अपने चाहने वालों की उम्मीदें को पंख लगा दिए। लेकिन आज सचिन यह साबित करना चाह रहे है कि उनके पैरों की चपलता अब भी उतनी ही तेज है, उनकी कलाईयां अभी भी हजारों रन जुटा सकती हैं, शरीर घंटों साथ दे सकता हैं। लेकिन क्या वाकई?

बहुतसारे खेल प्रेमी, समीक्षक यह मानते है कि 1991-92 में कंगारूओं के खिलाफ पर्थ के वाका मैदान पर खेली गई 114 रनों की पारी ने सचिन को भारतीय बल्लेबाजी का स्तम्भ बना दिया। उनकी इस पारी ने साबित कर दिया कि वे अकेले दम पर किसी भी गेंदबाजी आक्रमण को नेस्तूनाबूंद कर सकते हैं। जबकि कुछ का मानना है कि 1889 में पाक दौरे पर ही विख्यात स्पिनर कादिर के खिलाफ लगातार गेंदों पर जड़े गए छक्कों ने उन्हें उम्मीदों का रखवाला बनाया। 89 और 92 के बाद एक पीढ़ी जवान हो चुकी हैं। जिसके मुंह ट्वेंटी-ट्वेंटी का चखना लग चुका है.. ऑस्ट्रेलियाई तेंदुलकर के देश में है। टीम में उनकी उपयोगिता को परखने के लिए.. ऑस्ट्रेलियाई टीम के साथ तेंदुलकर के करियर का वृत्त पूरा होता दिख रहा है। लेकिन वृत्त पूरा होने से पहले एक छोर ग्रे शेड लिए हुए है। याद रहे, कंगारूओं के घर में मिली 4-0 की हार के दौरान सचिन फेल साबित हुए। 

अप्रैलमें सचिन उम्र के चालीसवें बसंत को गुडबॉय कहने जा रहे है। उससे पहले माइकल क्लार्क की अगुवाई वाले कंगारुओं के दल के सामने उन्हें यह साबित करना है कि उनके अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट करियर का सूरज अभी पश्चिम से काफी दूर है। जहां वह अस्त होगा। लेकिन ग्यारह खिलाड़ियों की एक टीम के साथ खेलते हुए जब आप खुद के लिए खेलते हैं, तो सबसे ज्यादा दर्द आपके चाहने वालों को होता है। एक पेशेवर खिलाड़ी की फॉर्म और फिटनेस के बारे में उससे बेहतर कोई नहीं जानता और सचिन भी अपनी स्थिति से अपरिचित नहीं है। जब उन्हें लगा कि वनडे टीम में उन्हें जगह नहीं मिलने वाली, उन्होंने संन्यास की घोषणा करने में देर नहीं लगाई (हालांकि आप इस पर बहस कर सकते है)। सचिन यहीं पर स्वार्थी बन जाते है उन्हें मालूम है कि टेस्ट टीम में उनकी जगह को कोई खतरा नहीं है। वे खुद को जितनी बार चाहे आजमा सकते हैं। स्वयं को आजमाने और साबित करने की जिद लेकर सचिन कंगारूओं के खिलाफ खेल रहे है।  

मौजूदाश्रृंखला में उम्र का फैक्टर सचिन के खिलाफ जा रहा है। लेकिन उनके साथ अपार अनुभव है और इसी अनुभव के दम पर उन्हें बताना है कि उनके शाट्स की धार उतनी ही तेज है जितना वॉर्न और मैक्ग्रा के खिलाफ हुआ करती थी। उन्हें दिखाना है कि उनका डिफेंस उतना ही मजबूत है। जिसने अकरम और वकार को भी हांफने पर मजबूर किया। साथ ही प्रजेंस ऑफ माइंड उतना ही सशक्त है जिसे मुरलीधरन भांप नहीं पाएं। क्या सचिन उतनी सतर्कता और एकाग्रता दिखा पाएंगे? जैसा उन्होंने सिडनी 2004 में दिखाया था। जब अपने दोहरे शतक की पूरी पारी में उन्होंने ऑफ साइड में कवर क्षेत्र की ओर गेंद नहीं खेली।  

लेकिनपिछले दो सालों में सचिन का प्रदर्शन कई सारे सवाल खड़े करता है। भले ही उन्होंने रणजी में 108 और ईरानी ट्रॉफी में 140 रन की पारी खेली हो। लेकिन उनका पिछला शतक 2011 में दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ केपटाउन में था। उसके बाद 30 (मौजूदा श्रृंखला को छोड़कर) पारियों में सचिन तीन अंकों में नहीं पहुंच पाएं। पिछली 10 पारियों में उनका स्कोर 13, 19, 17, 27, 13, 8, 8,  76, 5 और 2 रन रहा है। यह सच है कि इस दौरान केवल सचिन ही संघर्ष नहीं कर रहे थे, बल्कि द्रविड़ को छोड़कर अमूमन सारे खिलाड़ी। 

सचिनके खेलने की एक सकारात्मक इच्छा के बावजूद गेंदबाज अब उनके खिलाफ अपना जाल बुनने लगे हैं। ध्यान दीजिए पिछली कई पारियों में सचिन लगातार बोल्ड हुए हैं। यहां तक की न्यूजीलैंड के तेज गेंदबाज मिल्स के सामने सचिन एक ही तरीके से पवेलियन का रास्ता नाप चुके हैं। 

सचिनके साथ या आसपास अपना करियर शुरू करने वाले अधिकांश खिलाड़ी अपने ग्लब्स टांग चुके हैं। सचिन नई पीढ़ी के साथ ड्रेसिंग रूम शेयर कर रहे है। पिछले नवंबर में उन्होंने कहा था कि ‘मैं टीम के लिए योगदान दे सकता हूं, मैं खेलूंगा, लेकिन सांसों की उसी आवृत्ति के साथ उन्होंने आगे जोड़ा, इसका फैसला मैं सीरीज दर-दर सीरीज करूंगा। ऐसे में सबकी नजरें इस श्रृंखला पर टिकी है कि क्या सचिन अपने बल्ले से सवालों के बुलबुले फोड़ पाएंगे या उनकी संख्या और स्वरुप विपक्षी गेंदबाज तय करेंगे।

नंदलाल पत्रकार हैं. 
फिलहाल जयपुर में एक हिंदी दैनिक में काम. 
संपर्क का पता - 

फार्मूले का ‘इनकार’ नहीं...

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उमाशंकर
-उमाशंकर सिंह

"...इस बदली हुई सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति का श्रेय बाजार लेता है और कहता है उसने लड़कियों को पुराने खांचे से लिबरेट किया है। स्त्रियों के इस ‘बंधे हुए लिबरेशन’ का लाभ भी पुरूषों को मिला है क्योंकि वे ही बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं और उसे ऑपरेट करते हैं। सविता सिंह की कविता है ‘अच्छा है मुक्त हो रही हैं स्त्रियां, मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए।’..."

http://4.bp.blogspot.com/-vPjdY-gz97E/UNrTRMtnHkI/AAAAAAAAIh4/sJD1l3Zj_5Y/s1600/Inkaar-Poster.jpgप्रेम हिंदी फिल्मकारों के लिए एक ऐसा कुआं है जिसमें वे किसी भी ज्वलंत, संवेदनशील और गंभीर विषय को डुबा कर उसकी जान ले सकते हैं। प्रेम के कुएं का यह विध्वंसक दुरूपयोग न केवल मसाला फिल्मकार करते हैं बल्कि उतने ही संजीदा कहे जाने वाले फिल्मकार भी करते हुए दिख जाते हैं। होना तो ये था कि प्रेम के संजीवनी जल का इस्तेमाल उन्हें समाज की विद्रपताओं के खिलाफ एक हथियार के रूप करना था पर हो ये रहा है कि वे प्रेम के हथियार से गंभीर मसलों का गला रेत देते हैं। आप राजनीतिक फिल्म देख रहे हों, आतंकवाद पर फिल्म देख रहे हों, सामाजिक मसले पर फिल्म देख रहे हों, पर आखिर में आपको पता चलता है कि आप तो एक स्टीरियो टाइप प्रेम कहानी देख रहे थे। सुधीर मिश्रा की सेक्सुअल हैरेसमेंट पर बनी बहुप्रचारित फिल्म ‘इनकार’ भी इसी अनिवार्य बॉलीवुड फिल्मी गति को प्राप्त हुआ है।

'दामिनी'रेप कांड के बाद उपजे जनाक्रोश के बाद रिलीज हुई या की गई फिल्म ‘इनकार’ सेक्सुअल हैरेसमेंट के लेबल में दी गई एक साधारण प्रेम की गोली निकलती है। वैसे तो महिलाओं के साथ सेक्सुअल असॉल्ट कोई नया मसला नहीं है, लेकिन जिस तरह से पिछले कुछ सालों में लड़कियों ने बड़े पैमाने पर घर की दहलीज को अपनी नियति मानने से इनकार कर बाहर की दुनिया में अपनी हिस्सेदारी करनी शुरू की है, सैक्सुअल हैरेसमेंट का दायरा काफी फैल गया है। इस बदली हुई सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक स्थिति का श्रेय बाजार लेता है और कहता है उसने लड़कियों को पुराने खांचे से लिबरेट किया है। स्त्रियों के इस ‘बंधे हुए लिबरेशन’ का लाभ भी पुरूषों को मिला है क्योंकि वे ही बाजार के बड़े खिलाड़ी हैं और उसे ऑपरेट करते हैं। सविता सिंह की कविता है ‘अच्छा है मुक्त हो रही हैं स्त्रियां, मिल सकेंगी स्वच्छंद संभोग के लिए।’

कहनान होगा कि पुरूषों की इस मानसिकता की वजह से वर्किंग प्लेस स्त्री उत्पीड़न के नए जोन बन गए हैं। साथ ही यह एक बड़े मुद्दे के रूप में उभरा है। जाहिर यह विषय एक फिल्मकार के रूप में आपसे ज्यादा होमवर्क, रिसर्च, विजन और संवेदनशील स्त्री आंख की मांग करता है। वैसे भी इस विषय पर बन रही फिल्म से उम्मीद भी ज्यादा होती है। तब तो और ज्यादा जब इसे बनाने वाले ’ये वो मंजिल तो नहीं’, ‘इस रात की सुबह नहीं’ और ‘हजारों ख्वाहिशें ऐसी’ जैसी फिल्म बनाने वाले सुधीर मिश्रा हों। पर इस विषय के फिल्मकार से जो अनकहीं मांगे हैं निर्देशक के रूप में सुधीर मिश्रा उसे पूरा करने में असफल रहते हैं। 

फिल्मशुरू होती है नायिका के अपने बॉस पर लगाए गए बोल्ड और साहसिक सैक्सुअल हैरेसमेंट के इल्जाम की सुनवाई से। सुनवाई के विभिन्न हर्फों से कहानी की विभिन्न शाखाएं फूटती हैं। विभिन्न कोणों से वह अलग-अलग भी नजर आती है पर नजरिये के फर्क से कहानी बदल सकती है पलट नहीं सकती, जैसा कि निर्देशक दिखाता है। फिल्मकार असल में अपने नायक के साथ खड़ा नजर आता है। यह फिल्मकार की पुरूष मानसिकता भी है और अपने नायक को डिफेंड करने और डिग्रेस होने से बचाने की निर्देशकीय मजबूरी भी।

हालांकिफिल्मकार अपने तई और हमारे समाज के एक तबके के मुताबिक स्त्रीवादी भी है। लेकिन फिल्मकार के स्त्रीवाद की सीमा भी है। वह वेश्यावृति को लीगलाइज करने को महिला अधिकार मानते हैं और इसे पेशे के चुनाव की आजादी से जोड़ के देखते हैं। फिल्म में नायक सरेआम इतनी बार और इतनी तरह से नायिका के कैरियर बनाने का श्रेय लेता है आपको कोफ्त हो सकती है। मानों उसने मिट्टी के पुतले में जान फूंका हो या नायिका की अपनी कोई प्रतिभा ही नहीं। 

एकस्तर पर यह फिल्म अपनी मातहत लड़की कर्मचारी या प्रेमिका के कद्दावर होने से हर्ट हुए मेल ईगो की कहानी लगती है तो एक लेवल पर अपने बॉस को यूज कर आगे बढ़ने वाले लड़की की। लड़की चूंकि अपने बॉस के साथ पहले सो चुकी है इसलिए वह ‘आगे क्या हैरेसमेंट करेगा’ के तर्क से कहानी आगे बढ़ती है और हम पाते हैं कि असल में यह एक कॉरपोरेट हाउस के पावर स्ट्रगल की कहानी है। फिल्म इस निष्कर्ष पर थोड़ा सा ठहरती हुई आगे बढ़ती है और अंत में आपको पता चलता है कि असल में ‘दो लड़ने वाले लड़के-लडकी की यह लड़ाई असल में प्यार है’ के पुराने फार्मूले का मामला है जिसे सूत्रबद्ध करते अभिनेता-निर्माता आमिर ने अपनी फिल्म ‘डेल्ही बेल्ही’ में ‘आई हेट यू, लाइक आई लव यू’ का नाम दे दिया था। 

इसतरह फिल्म अपने ढलान को पहुंचती है कि फिल्मकार सहसा याद आता है कि वह अपने तई नारीवादी है सो वह नायिका को ‘तुम मर्द...’.जैसे दो-एक डायलॉग दे देता है और कुछेक लड़कियों की कुछेक तालियां बटोरने की कोशिश करता है लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है। पुराने-नए सभी किस्म के दर्शक ऊब चुके होते हैं। फिल्म यहां भी खत्म की जा सकती थी पर फिल्मकार को अपने नायक की गरिमा की याद आती है। उसे पीछे कई दफा नायक के स्त्री-विरोधी हो जाने को भी बैलेंस करना है सो तब जब नायिका लगभग हार चुकी होती है वह थप्पड़ नुमा रिजाइन मेल करता है और एक साथ नायिका और दर्शकों की निगाह में ऊपर उठ जाता है। 

समाजमें ‘महाजनो येन गतः स पंथा’ का मुहावरा जरूर है पर फिल्म का मुहावरा ‘नायक येन गतः स नायिका पंथा’ है। सो नायिका भी नायक के नक्शेकदम पर निकल पड़ती है। दृश्य तो नहीं पर फिल्म के क्लाइमेक्स पर बज रहा गीत संकेत करता है कि दोनों मिलेंगे। वे इसी के लिए बने हैं। सैक्सुअल हैरेसमेंट का अभियोग तो असल में उनके प्रेम की एक परीक्षा ही थी जो वे कभी अपने मन से और थोड़ा औरों के हाथों यूज होकर दे रहे थे। हो गई सेक्सुअल हैरेसमेंट पर आधारित फिल्म की प्रेममय परिणति। 


उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी. 
 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं.
 इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं

सरोकारी सिनेमा का सफल उत्सव : आठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल

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Manoj Kumar Singh
मनोज कुमार सिंह
-मनोज कुमार सिंह

"...संजय काक ने कहा कि "कई चीजों के बारे में मुख्यधारा की सिनेमा में एक जो चुप्पी है, डाक्यूमेंटरी फिल्मों ने उसे तोड़ा है। हमारी दिलचस्पी इसमें है कि हम जो दिखा रहे हैं, लोग उसके बारे में सोचें और समझें।" उन्होंने कहा कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पूंजी के प्रवाह को समझना जरूरी है। जो लोग 15-20 करोड़ लगाते हैं, वे कोई रिस्क नहीं ले सकते।..."

 

झारखंड से कश्मीर तक जनता के संघर्षो का सच दिखाया फिल्मों ने  

ठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल, जो प्रतिरोध का सिनेमा अभियान का 29 वां आयोजन था, इस मायने में खास रहा कि यह सिनेमा की राजनीति की समझ को बढ़ाने में कामयाब रहा। फेस्टिवल की शुरुआत प्रो. रामकृष्णमणि त्रिपाठी सभागार (गोकुल अतिथि भवन) में चर्चित डाक्यूमेंटरी फिल्मकार संजय काक की नई फिल्म ‘माटी के लाल’ के प्रदर्शन से हुई, जिसमें बस्तर, उड़ीसा और पंजाब में गैरबराबरी और अन्याय के खिलाफ लोहा लेती जनता के संघर्षों और परिवर्तन की उनकी उम्मीद से दर्शकों का साक्षात्कार कराया गया है और उन्हें जनता की एक बड़ी लड़ाई से जुड़ने के लिए प्रेरित किया गया है।

इसकेपहले फेस्टिवल के उद्घाटन सत्र में संजय काक ने कहा कि जनविरोधी शक्तियां कितनी भी शक्तिशाली हों, हम उनके खिलाफ लड़ाई में डटे हुए हैं, हम उस लड़ाई से हटने वाले नहीं हैं। हम ऐसी फिल्में बनाते हैं, जो लोगों के जेहन में रहें। ‘जश्ने आजादी’ एक जटिल मुद्दे पर बनाई गई फिल्म थी, अब जो कश्मीर के अंधेरे पर थोड़ी रोशनी पड़ रही है, उसमें कहीं न कहीं उस फिल्म की भी भूमिका है।
22 से 24 फरवरी को आयोजित इस तीनदिवसीय फिल्म फेस्टिवल के दूसरे दिन प्रेस से मुलाकात के दौरान भी संजय काक ने कहा कि "कई चीजों के बारे में मुख्यधारा की सिनेमा में एक जो चुप्पी है, डाक्यूमेंटरी फिल्मों ने उसे तोड़ा है। हमारी दिलचस्पी इसमें है कि हम जो दिखा रहे हैं, लोग उसके बारे में सोचें और समझें।" उन्होंने कहा कि फिल्म निर्माण के क्षेत्र में पूंजी के प्रवाह को समझना जरूरी है। जो लोग 15-20 करोड़ लगाते हैं, वे कोई रिस्क नहीं ले सकते। अगर हम इस तरह फिल्में बनाएंगे तो उसमें प्रतिरोध का वह नजरिया नहीं रहेगा, जो हमारी डाक्यूमेंटरी फिल्मों में होता है। बॉलीवुड का सिनेमा सिर्फ नए-नए स्वाद और सनसनी की तरह किसी विषय को उठाता है। मसलन कभी वहां अपराध की दुनिया और 'भाई' थे, बाद में वह बदला और आतंकवाद की दुनिया आ गई। कश्मीर भी वहां उसी रूप में आया, जिसमें खुद कश्मीरियों का अपना नजरिया कहीं नहीं था। समानांतर सिनेमा के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि समानांतर सिनेमा लगभग खत्म हो गया है। अब जिसे बॉलीवुड में ‘कुछ हट के’ बनाई गई फिल्में कहा जाता है, वो भी बॉलीवुड की व्यवस्था का हिस्सा हैं। इसके विपरीत वैकल्पिक राजनैतिक सिनेमा का भविष्य काफी बेहतर लग रहा है। महिला प्रश्नों पर भी इस धारा के फिल्मकारों ने काफी महत्वपूर्ण काम किया है।" शिलांग से आए फिल्मकार-संपादक तरुण भारतीय का कहना था कि मुख्यधारा अपने आप में एक विचारधारा है। वहां तो अपने भीतर का डर सबसे ज्यादा सेंसर का काम करता है। किस विषय को लोग पसंद नहीं करेंगे, फिल्मकार पहले ही सोच लेते हैं। लेकिन राजनीतिक फिल्मकारों ने कई ऐसे विषयों को पकड़ा, जिन्हें मुख्यधारा के फिल्मकार नहीं उठाते। राजनीतिक फिल्में बनाना आसान है, पर राजनीतिक तरीके से बनाना बहुत कठिन है। हम राजनीतिक तरीके से फिल्में बनाने की कोशिश कर रहे हैं और जब तक वैकल्पिक राजनीति है, तब तक वैकल्पिक सिनेमा का खात्मा नहीं हो सकता।

‘सच्चाई का सच’: सिनेमा को देखने के तरीके पर विचारोत्तेजक संवाद

फेस्टिवलके दूसरे दिन तरुण भारतीय ने डाक्यूमेंटरी फॉर्म के प्रयोग और दुरुपयोग पर दर्शकों की समझदारी को उन्नत करने वाली एक बेहद महत्वपूर्ण प्रस्तुति दी। ‘सच्चाई का सच’ नामक प्रस्तुति में उन्होंने डाक्यूमेंटरी के प्रति बनी इस आम धारणा को तोड़ा कि वे हमेशा सच की ही दास्तान होती हैं। किस तरह जनता को जल, जंगल, जमीन पर उनके अधिकार से बेदखल करने के लिए उनका उत्पीड़न-दमन और हत्या करने वाली कंपनियां डाक्यूमेंटरी का इस्तेमाल अपनी विश्वसनीयता का कायम करने के लिए करती रही हैं, इस सच से तरुण भारतीय ने दर्शकों को रूबरू कराया। पहले उन्होंने एक आदिवासी तीरंदाज लड़की पर केंद्रित एक छोटी सी डाक्यूमेंटरी फिल्म दिखाई और फिर बताया कि किस तरह टाटा स्टील ने अपने प्रचार के लिए उस वक्त इसका इस्तेमाल किया, जब सिंगूर और कलिंगनगर में उसके द्वारा लोगों पर जुल्म किए जा रहे थे।

फिल्मकारऔर दर्शकों के बीच संवाद के दौरान सच की कई परतें खुलती गईं, दर्शकों ने भी अपनी समझ और अनुभवों को बांटा। तरुण ने दो मशहूर फीचर फिल्मों के अंशों के जरिए बताया कि फीचर फिल्मों में भी सच्चाई हो सकती है और यथार्थ को विश्वसनीयता के साथ निर्मित किया जा सकता है। इसलिए यह मानकर डाक्यूमेंटरी फिल्मों को नहीं देखा जाना चाहिए कि उसमें हमेशा यथार्थ ही दिखाया जाता है। दर्शकों को हमेशा शक करना चाहिए। भ्रष्टाचार और दमन के लिए कुख्यात कंपनियां क्यों डाक्यूमेंटरी का इस्तेमाल करती हैं, इसके बारे सोचना जरूरी है। उन्होंने लुजियाना स्टोरी नामक एक पुरानी डाक्यूमेंटरी का अंश दिखाते हुए बताया कि इस फिल्म को देखने के बाद लगता है कि तेल निकालने वाले दोस्त भी हो सकते हैं। इस फिल्म में प्रोड्यूसर का कहीं जिक्र नहीं है, पर तथ्य यह है कि इसे बनाने के लिए फिल्मकार को धन स्टैंडर्ड आॅयल कंपनी ने दिया था।

इसप्रस्तुति के दौरान स्त्री सशक्तीकरण पर आईआईएमसी के छात्रों द्वारा बनाई गई एक डाक्यूमेंटरी के अंत में वेदांता जैसी कंपनी के नाम को देखकर दर्शक चैंके और तुरत उड़ीसा में इस कंपनी के विरोध में चल रहे आंदोलनों का संदर्भ फिल्मकार और दर्शकों की जुबान पर आ गया। फिर यह समझ बनी कि किसी भी फिल्म, डाक्यूमेंटरी या न्यूज चैनल पर आंख मूंदकर भरोसा करना उचित नहीं, क्योंकि वे सच्चाई नहीं, बल्कि अपना नजरिया पेश करते हैं। इस कारण हर चीज को सवालिया निगाह से देखना जरूरी है। एक दर्शक ने स्वाइन फ्लू के नाम पर आतंकित करके मास्क बेचने के कारोबार और दूसरी ओर इन्सेफ्लाइटिस जैसी गंभीर बीमारी के प्रति शासन-प्रशासन की संवेदनहीनता के संदर्भ को सामने रखा, तो दूसरे दर्शक ने फिल्म स्टारों और एनजीओ द्वारा कारपोरेट कंपनियों के हित में काम करने का आरोप लगाया। तीसरे दर्शक ने सवाल उठाया कि जब सबकुछ छद्म है तो विश्वास किस पर किया जाए?

तरुण भारतीय ने कहा कि अविश्वास का उल्टा विश्वास नहीं होता, बल्कि अविश्वास का उल्टा सवाल पूछने वाले लोग हैं। सवाल पूछने का रास्ता कठिन और लंबा है। पर यह जरूरी है क्योंकि हम झूठ पर लंबा जी नहीं सकते। मोहभंग और सवालों से डरना नहीं चाहिए। 

मॉडरेटर संजय काक ने कहा कि हम अविश्वास से नहीं अंधविश्वास से कतराते हैं। जब मैंने अपने पिता को कश्मीर की खबरों के बारे में कई बार कहा कि उन पर आप विश्वास न करें, तो वे बिगड़ गए, पर सच तो यही है कि दिल्ली के अखबारों के जरिए कश्मीर की खबरें नहीं जानी जा सकतीं। उन्होंने एक फिल्म अभिनेता से जुड़ी घटना बताते हुए कहा कि वे अपने लाव-लश्कर के साथ एक आंदोलन के समर्थन में आए, पर उस आंदोलन ने एक शीतल पेय कंपनी के विरोध की अपनी वजहों से अवगत कराया तो वे झूठ बोल गए कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं है कि उस कंपनी की वजह से किसान ताबाह हो रहे हैं। बाद में वह अभिनेता एक विज्ञापन में यह कहते हुए दिखे कि वे वह शीतल पेय इसलिए पीते हैं कि उस पर उनका विश्वास है।
संजयकाक ने कहा कि हम जिस माहौल में है वहां तकलीफ झेलकर भी सवाल उठाने होंगे। धार्मिक अंधविश्वास के खिलाफ जैसे लोग लड़ते थे, उसी तरह मीडिया के अंधविश्वास के खिलाफ भी लड़ना होगा।


‘यह कठपुतली कौन नचावे’: आस्कर अवार्ड्स की राजनीति पर किताब

फेस्टिवलके उद्घाटन सत्र में बलिया के लेखक-प्राध्यापक रामजी तिवारी की पुस्तक ‘आस्कर अवाड्र्स: यह कठपुतली कौन नचावे’ का लोकार्पण हुआ। इस पुस्तक में लेखक ने यह दिखाया है कि ऑस्कर अवाड्र्स प्रायः अमेरिकी राजनीतिक-आर्थिक हितों के लिहाज से संचालित रहे हैं और उसके सांस्कृतिक वर्चस्व का एक जरिया रहे हैं, जबकि जिन फिल्मों को वहां से जब पुरस्कृत किया गया, उसी दौर में दुनिया में एक से एक बड़े फिल्मकारों ने महान फिल्में बनाई। यह किताब यह भी दिखाती है कि किस तरह आस्कर अवार्डेड फिल्में अमेरिकी साम्राज्यवाद के बर्बर युद्ध सैन्यनीति और उसके जरिए की गई जन हत्याओं के मामले में चुप्पी साधे रही हैं। यह पुस्तक प्रतिरोध का सिनेमा के अभियान के तहत ही द गु्रप और जसम द्वारा प्रकाशित की गई है और आस्कर अवार्ड के बारे में आंख खोल देने वाले कई तथ्यों से पाठकों को अवगत कराती है।

दमन और प्रतिरोध के कई दास्तानों से रू ब रू हुए दर्शक

फेस्टिवलमें दूसरे दिन की शुरुआत तपन सिन्हा निर्देशित बहुचर्चित फिल्म ‘एक डॉक्टर की मौत’ से हुई, जो मौजूदा तंत्र में प्रतिभाओं के उत्पीड़न के यथार्थ को दिखाती है। एक डॉक्टर जो कोढ़ का इलाज विकसित कर लेता है, किस तरह नौकरशाही से प्रताडि़त होकर भारत छोड़कर दूसरी जगह काम करने के प्रस्ताव को मंजूर कर लेता है, इस फिल्म में यह दिखाया गया। 

बीजू टोपोनिर्देशित फिल्म ‘प्रतिरोध’ ने रांची के निकट नगड़ी गांव में जमीन के लिए चल रहे आंदोलन से दर्शकों को रूबरू कराया। एक ओर अमोल, अनुराग, अर्पिता, अवधूत और श्वेता निर्देशित ‘भारत माता की जय’ में मुंबई के मिल मजदूरों के इलाके में स्थित एकल परदे वाले भारत माता सिनेमा हाॅल से जुुड़ी कहानियों के जरिए दर्शक मजदूरों के संस्कृति और जीवन से गुजरे तो दूसरी ओर लखनऊ फिल्म सोसाइटी और जन संस्कृति मंच की ओर से बनाई गई फिल्म ‘अतश’ में वे शायर तश्ना आलमी से मिले। ‘अतश’ के निर्देशक अवनीश सिंह हैं और प्रोड्यूसर बीएस. कटियार हैं। आजादी’ और ‘लोकतन्त्र’ के मायने किसी कश्मीरी के लिए क्या होते हैं, आमिर बशीर निर्देशित फिल्म ‘हारुद’ इस सवाल से वाबस्ता थी। इस फिल्म ने दर्शकों को काफी संवेदित किया। 

फिल्मों में पुराने श्वेत-श्याम फिल्मों के फुटेज के इस्तेमाल तथा उनके संग्रहण और ऐतिहासिक महत्व को दर्शाने वाली दिलचस्प प्रस्तुति थी ‘खोया पाया फुटेज’, जिसे अमेरिका से आई फिल्म स्काॅलर ललिथा गोपालन ने पेश किया।

तीसरेदिन की शुरुआत बच्चों की फिल्म ‘गट्टू’ से हुई। उसके बाद विश्वप्रसिद्ध निर्देशक रॉबर्ट ब्रेस्सों की क्लासिक फिल्म ‘मुशेत’ दिखाई गई, जिसने पितृसत्तात्मक परिवार और समाज में एक स्त्री की त्रासद जिंदगी के यथार्थ को दर्शाया। आठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल स्त्री संघर्ष और स्त्री मुक्ति के नाम समर्पित था। स्त्रियों की मुक्ति और बराबरी के संघर्ष के प्रति शुरू से ही प्रतिरोध का सिनेमा अभियान अपनी एकजुटता जाहिर करता रहा है। इस बार फेस्टिवल में प्रतिरोध का सिनेमा अभियान और जन संस्कृति मंच से जुड़े फोटोग्राफर विजय कुमार की कैमरा डायरी ‘दिसंबर 16’ और इमरान द्वारा दिल्ली गैंगरेप के बाद के आंदोलन के विडियो का कोलाज ‘रोड टू फ्रीडम’ दिखाया गया, जो महिलाओं के संघर्ष और प्रतिरोध के प्रति इस अभियान की प्रतिबद्धता को जाहिर करता है। 

साहित्यऔर सिनेमा के परस्पर रिश्ते की झलक भी प्रतिरोध का सिनेमा आयोजन के दौरान दिखती रही है, चाहे भाषा और क्षेत्र कोई भी हो, पर जीवन की मुश्किलों और संघर्ष की समानता उन पात्रों से आम दर्शकों को बड़ी सहजता से जोडती है। पंजाबी के विख्यात उपन्यासकार गुरदयाल सिंह के उपन्यास ‘अन्हे घोरे दा दान’ पर इसी नाम से बनाई गई फिल्म को देखना दर्शकों के लिए खास अनुभव था। 2012 में प्रदर्शित गुरविंदर सिंह निर्देशित यह फिल्म झूमते सरसों के खेतों और हवेलियों वाली बॉलीवुडिया छवि के विपरीत जातिवाद के जहर से जूझते पंजाब के गांवों के छोटे और दलित किसानों की व्यथा-कथा को आवाज देती है। 

नई दुनिया का स्वप्न देखने वाले शायर को अली सरदार जाफरी को याद किया गया

तीन दिवसीय आठवें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के आखिर में उर्दू के तरक्कीपसंद शायर अली सरदार जाफरी की जन्मशताब्दी पर डॉ. अजीज अहमद ने उनकी नज्मों को प्र्रस्तुत किया। भारत प्रगतिशील साहित्य-संस्कृति और मिली जुली तहजीब को ताकत प्रदान करने वाली उनकी अदबी शख्सियत के बारे में भी बताया गया।

किताबों की खरीद और कविता पोस्टरों का अवलोकन 

आयोजन स्थल पर लेनिन पुस्तक केंद्र, गोरखपुर फिल्म सोसाइटी, गार्गी प्रकाशन की ओर से किताबों और फिल्मों के सीडी के स्टॉल भी दर्शकों का आकर्षण थे। आरिफ अजीज लेनिन की स्मृति में एक गैलरी बनाई गई थी, जिसमें कविता-चित्र प्रदर्शनी लगाई गई थी। फेस्टिवल के दौरान गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के पूर्व अध्यक्ष प्रो. राममणि कृष्ण त्रिपाठी और संस्थापक सदस्य आरिफ अजीज लेनिन की स्मृति में एक मिनट का मौन रखा गया।

इस फिल्म फेस्टिवल में जर्मनी के फिल्मकार मैक्स क्रामर और दक्षिण भारत के फिल्मकार आर.बी.रमणी भी मौजूद थे। प्रतिरोध का सिनेमा अभियान को और व्यापक और शक्तिशाली बनाने के संदर्भ में आयोजकों और दर्शकों के बीच उत्साहजनक बातचीत के साथ आठवां गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल संपन्न हुआ। आठवें गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल के संयोजक चंद्रभूषण अंकुर थे।


मनोज  गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक हैं.

manojkumar.singh.96@facebook.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

मीडिया, राष्ट्रीयता और पूंजीवाद

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भूपेन सिंह
-भूपेन सिंह

"...आख़िर मीडिया और राष्ट्रवाद के जटिल रिश्तों के पीछे किस तरह का राजनीतिक अर्थशास्त्र और दर्शन काम करता है? इतना तो तय है कि अगर भारत में निजी मीडिया का इतना विस्तार नहीं हुआ होता तो कुछ ही दिन के भीतर पूरा देश युद्दोन्माद की चपेट में नहीं आता. इसका पुख्ता प्रमाण यह भी है कि हाल के वर्षों में भारत-पाक सीमा पर गोलीबारी की घटनाओं में बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है. लेकिन निजी मीडिया का उभार छोटी-छोटी झड़पों को भी राष्ट्रीयता की चासनी में पेश कर राष्ट्रवाद भड़काने से नहीं चूकता..."

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दोहज़ार तेरह के साल की शुरुआत में आठ जनवरी को जम्मू-कश्मीर में भारत-पाक सीमा पर दो भारतीय जवान मारे गए थे. भारतीय सेना ने कहा कि पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा पार कर उस पर हमले किए और दो सैनिकों को मार डाला. भारतीय टेलीविजन पर तुरंत यह ख़बर छा गई और देश की सबसे बड़ी ख़बर बन गई. चैनलों की देशभक्ति उबाल खाने लगी और पूरे देश में युद्धोन्माद का माहौल बन गया. टेलीविजन चैनलों के स्टूडियो में दुनियाभर की हथियार कंपनियों के लिए सलाहकार का काम करने वाले सेना के कई पूर्व जनरल और रक्षा विशेषज्ञ उछल-उछलकर पाकिस्तान पर हमला बोलने की वकालत करने लगे. 



टाइम्स नाव चैनल का अर्णव गोस्वामी इस मामले मे सबका गुरु साबित हुआ. बाक़ी चैनल भी चीख-चीखकर यह बताना नहीं भूले की मारे गए सैनिकों में से एक का गला काटा गया है. कई ने तो तथ्यों से छेड़छाड़ करते हुए यह भी बताया कि पाकिस्तान ने निर्ममता से दो भारतीय सैनिकों का गला काट दिया है. जबकि पाकिस्तान ने इस घटना में हाथ होने से सीधे मना कर दिया और पूरी घटना की जांच संयुक्त राष्ट्र जैसी स्वतंत्र ऐजेंसी सी कराने की मांग की. इस घटना के ठीक दो दिन पहले पाकिस्तान ने भी भारतीय सेना पर आरोप लगाया था कि उसने नियंत्रण रेखा के पार घुसकर सैनिक चौकी में हमला किया और एक पाकिस्तानी सैनिक की हत्या कर दी. भारतीय सेना ने यह कबूल किया कि दोनों ओर से गोलीबारी हुई थी लेकिन उसक सैनिकों ने सीमा पार नहीं की. पूंजी और सत्ता के गुलाम दोनों देशों के मीडिया ने दूसरे पक्ष की बातों को अहमियत नहीं दी और तथ्यों की अनदेखी करते हुए एक-दूसरे के ख़िलाफ़ ज़हर उगलते रहा.

मुख्यधाराके मीडिया ने इस तरह का माहौल बनाया कि दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद की प्रवक्ता भारतीय जनता पार्टी और सहयोगी संगठनों समेत पूंजीपतियों के साथ मिलकर समाजवाद की कल्पना करने वाली समाजवादी पार्टी ने भी तुरंत पाकिस्तान को सबक सिखाने की मांग कर डाली. भारत में होने वाली हॉकी लीग में खेलने आए पाकिस्तानी खिलाड़ियों के ख़िलाफ प्रदर्शन हुए और उन्हें बिना मैच खेले ही वापस जाना पड़ा. कलाकारों और संस्कृतिकर्मियों को भी इसी तरह की स्थितियों का सामना किया. पाकिस्तान की मशहूर रंगकर्मी मदीहा गौहर के ग्रुप अजोका को भी इसका शिकार होना पड़ा. उन्हें राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ से भारत रंग महोत्सव में सहादत हसन मंटो पर केंद्रित नाटक कौन है ये गुस्ताख़खेलने के लिए दिल्ली आमंत्रित किया गया था. लेकिन सीमा पर तनाव को लेकर मीडिया कवरेज का ही असर था कि ऐन वक़्त पर उनके नाटक को मंचन की इजाज़त देने से मना कर दिया गया. 

यहबात और है कि कुछ प्रगतिशील युवाओं की पहलकदमी पर उसी दिन नाटक का मंचन दिल्ली में दो जगहों पर किया गया. पहला मंचन शाम को केंद्रीय दिल्ली के अक्षरा थियेटर में हुआ और दूसरा शो रात ग्यारह बजे से जेएनयू में हुआ. दोनों जगह ऑडिटोरियम में तिल रखने की भी जगह नही बची थी. युद्धोन्माद भड़काने वाले मीडिया, ख़ास तौर पर टेलीविजन मीडिया को जनता के बीच इस तरह की युद्ध विरोधी सांस्कृतिक एकता की बारीक़ियां नज़र नहीं आई.

उपरोक्तघटना मीडिया और राष्ट्रवाद के रिश्तों की भारतीय परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से पड़ताल करने की मांग करती है. वहीं इससे यह भी सवाल उठता है कि आख़िर मीडिया और राष्ट्रवाद के जटिल रिश्तों के पीछे किस तरह का राजनीतिक अर्थशास्त्र और दर्शन काम करता है?इतना तो तय है कि अगर भारत में निजी मीडिया का इतना विस्तार नहीं हुआ होता तो कुछ ही दिन के भीतर पूरा देश युद्दोन्माद की चपेट में नहीं आता. इसका पुख्ता प्रमाण यह भी है कि हाल के वर्षों में भारत-पाक सीमा पर गोलीबारी की घटनाओं में बड़े पैमाने पर गिरावट आयी है. लेकिन निजी मीडिया का उभार छोटी-छोटी झड़पों को भी राष्ट्रीयता की चासनी में पेश कर राष्ट्रवाद भड़काने से नहीं चूकता. इस बार भी मीडिया ने जनता के बीच युद्धोन्माद का एजेंडा सेट कर दिया और अमनपसंद लोग देखते रहे गए. चिंता की बात यह है कि आज भी कुछ कट्टर मार्क्सवादी मीडिया की अहमियत को अच्छी तरह नहीं स्वीकारते और सिर्फ क्रांति में ही जनवादी मीडिया की संभावना को तलाशते हैं.

भारतकी कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी कभी मीडिया से जुड़े कामों (जनमत निर्माण) को अपने प्रमुख कार्यभारों में शामिल नहीं किया. दरअसल इस दृष्टि का मूल, बेस और सुपरस्ट्रक्चर की रूढ़ हो चुकी मार्क्सवादी बहस में टिका है जो यह मानती है कि उत्पादन संबंधों में आए बदलाव या क्रांति के बाद मीडिया और संस्कृति से जुड़े सुपरस्ट्रक्चरल स्थितियां भी अपने आप बदल जाएंगी. क्रांति से पहले सुपर स्ट्रक्चर के मुद्दों को ज़्यादा अहमियत न देने के कारण ही मीडिया और संस्कृति के मुद्दे अक्सर बदलाव की लड़ाई के मुख्य कार्यभारों में शामिल नहीं हो पाते हैं. 

इटलीके मार्क्सवादी विचारक अंतोनियो ग्राम्शी ने सुपर स्ट्रक्चर के मुद्दों को पहली बार अच्छी तरह पहचाना और स्वीकार किया कि मार्क्सवाद के हिसाब से तो यूरोप में पूंजीवाद के विकास के साथ सामंतवादी संस्कृति का नाश हो जाना चाहिए था. लेकिन पूंजीवाद की तरफ़ क़दम बढ़ा चुके इटली में फासीवाद और मुसोलिनी के उद्भव ने उन्हें यह समझने में मदद की कि सांस्कृतिक मुद्दे भी बदलाव की लड़ाई के कितने अहम हिस्से बन जाते हैं. ग्राम्शी ने इस बात पर भी जोर दिया कि शासक वर्ग किस तरह सूचना, ज्ञान और संस्कृति के क्षेत्र में अपने महारथियों को उतारकर सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करता है. 

इससिलसिले में जर्मनी में हिटलर के सूचना मंत्री गोयबल्स का यह कथन दुनियाभर में जनपक्षीय बदलाव की चाह रखने वाले कभी नहीं भूल सकते कि कोई झूठ सौ बार दोहराने से सच की तरह लगने लगता है. हिटलर ने एक तरह के छद्म राष्ट्रवाद को उभारकर प्रोपेगेंडा के इस सूत्रवाक्य को यहूदियों, जिप्सियों और बाक़ी अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ चरम पर जाकर बर्बर तरीक़े से इस्तेमाल किया. इतिहास गवाह है कि हिटलर और मुसोलिनी ने राष्ट्रवाद और मीडिया का इस्तेमाल फासीवादी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए किस तरह किया. आज भी दुनियाभर में निजी या सरकारी नियंत्रण वाला मीडिया अपनी संरचनात्मक बाध्यता की वजह से हमेशा शासक वर्ग के हित पोषित करता है और राष्ट्रीयता के नाम पर निर्दोष लोगों को बरगलाता है. बड़ी पहुंच वाला स्वतंत्र और जनपक्षीय मीडिया न होने की वजह से वैकल्पिक विचार रखने वालों के पास ऐसा कोई उपाय नहीं होता कि वे राष्ट्रवाद के छद्म से बहुसंख्यक जनता  को आगाह कर पाएं.

वर्तमानभारतीय मीडिया की संचरना और उसकी कार्य पद्धति पर अगर नज़र दौड़ाई जाए तो वह भी उन्हीं विचारों और कामों को ज़्यादा उछालता है जिससे शासक वर्ग को फायदा पहुंचे. अपनी विश्वसनीयता को बनाए रखने के लिए वह कभी-कभी अपवाद स्वरूप जनपक्षीय मुद्दों को भी अहमियत देता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह जन पक्षधर है. मौक़ा मिलते ही वह आमूल बदलाव के आंदोलनों का मज़ाक उड़ाने से नहीं चूकता है. भारतीय संदर्भों में द हिंदू और जनसत्ता जैसे प्रगतिशील और वामपंथी रुझान के माने जाने वाले कॉरपोरेट अख़बार भी इसका अपवाद नहीं हैं. 

इनस्थितियों से यह तर्क उभरकर आता है कि क्रांतिकारी सामाजिक बदलाव चाहने वालों को मीडिया की अहमियत को भी समझना पड़ेगा. जनमत निर्माण तैयार करने की इसकी ताक़त के पूंजीवादी हाथों में केंद्रित होने पर यह बड़े बदलाव के हर रास्ते में रोड़े अटकाने का काम कर सकता है, करता है, इसलिए उन्हें उत्पादन संबंधों में बदलाव की लड़ाई लड़ने के साथ-साथ मीडिया जैसे सांस्कृतिक मोर्चे पर भी लड़ाई जारी रखनी पड़ेगी, वरना बदलाव की ताक़तों के लिए शोषित जनता को झूठी चेतना (फॉल्स कॉन्शियसनेस) से मुक्त करना मुश्किल से मुश्किल होता चला जाएगा. इसका मतलब यह नहीं कि मीडिया के बदलने से दुनिया भी बदल जाएगी इसलिए सारी लड़ाई मीडिया को बदलने में केंद्रित कर दी जाए. यहां पर इस उत्तर आधुनिक तर्क से सावधान रहने की ज़रूरत बनी रहेगी कि राजनीतिक अर्थशास्त्र की मौत हो चुकी है इसलिए मास मीडिया ही सामाजिक बदलाव का सबसे अहम औज़ार बन चुके हैं.

यहएक स्थापित तथ्य है कि पंद्रहवी शताब्दी में प्रिंटिंग प्रेस ने अस्तिव में आकर राष्ट्रीयता के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की. प्रिंटिंग तकनीक और पूंजीवाद के विकास ने हस्तलिखित सामग्री को मुद्रित कर मास प्रोडक्शन (बड़े पैमाने पर उत्पादन) करना शुरू कर दिया. जिस वजह से मुद्रित सामग्री ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के बीच पहुंचने लगी. सूचनाओं और विचारों के प्रसार से लोगों की सामुदायिकता (साझी भावनाओं और सांस्कृतिक प्रतीकों) का विकास हुआ आधुनिक राष्ट्र की अवधारणा आकार ग्रहण कर मजबूत होने लगी. तब उत्पादन के नए साधन पूंजीपतियों के ही हाथ आ गए थे और वे अपने मुनाफ़े के लिए प्रिंटिग तकनीक का इस्तेमाल कर रहे थे. 

बेनेडिक्टएंडरसन जैसे विद्वान ने अपनी किताब इमेजिन्ड कम्युनिटी में इस बात पर जोर देते  हुए प्रिंट कैपिटलिज्म की विस्तार से चर्चा की है. एंडरसन राष्ट्र को एक काल्पनिक समुदाय (इमेजिन्ड कम्युनिटी) से ज़्यादा कुछ नहीं मानते हैं. दरअसल राष्ट्र भाषा, संस्कृति और भौगोलिकता समरूपता के आधार पर अपनी एक अस्मिता का निर्माण करता है. लेकिन इस अस्मिता के निर्माण में हमेशा समाज के प्रभावशाली तबके अपनी भूमिका निभाते हैं. ग़रीब और वंचित लोगों के लिए किसी राष्ट्र का कोई मतलब नहीं होता. राष्ट्रीयता की अवधारणा आगे बढ़कर आधुनिक राष्ट्र राज्य के रूप में सामने आयी. आधुनिक राष्ट्र राज्यों का उदय सामंतवाद से पीछा छुड़ाकर हो रहा था. उसी दौरान राष्ट्र राज्य की सम्प्रभुता का दावा भी सामने आया और इसे एक तरह से सार्वभौमिक सत्य की तरह पेश करने की कोशिश शुरू हुई.

औद्योगीकरणऔर पूंजीवादी उत्पादन प्रणाली कुछ राष्ट्रों को मज़बूत बना रही थी तो वहीं कच्चे माल के लिए दुनिया के ग़रीब इलाक़ों को वे अपना उपनिवेश भी बना रहे थे. इस तरह भारत समेत तीसरी दुनिया के कई उपनिवेशों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास उपनिवेशवाद के दौर में हुआ और उपनिवेशवाद से लड़ने में राष्ट्रीय आज़ादी की लड़ाइयों ने एक अहम भूमिका निभाई. इस लिहाज़ से देखा जाए तो राष्ट्रीयता की लड़ाई एक हद तक आज भी साम्राज्यवाद और आर्थिक वैश्वीकरण के ख़िलाफ़ लड़ने में भूमिका निभा सकती है लेकिन इसकी प्रतिक्रिया अक्सर संकीर्ण राष्ट्रवाद का गुणगान करने में ही होती है. 

भारतजैसा राष्ट्र-राज्य, भाषा और संस्कृति के मामले में कई विविधताओं से भरा हुआ है इसलिए समाजशास्त्री यहां पर कई तरह की राष्ट्रीयताओं के अस्तित्व को स्वीकारते हैं. भारतीय मीडिया के समाज शास्त्र का अध्ययन करने वाले राबिन जैफ्री भारत के एक राष्ट्र के रूप में आकार ग्रहण करने या राष्ट्र निर्माण में मीडिया और पूंजीवाद के विकास की अहम भूमिका देखते हैं. अपनी किताब इंडियाज न्यूज़पेपर रिवोल्यूशन और मीडिया एंड मॉडर्निटी में वे इस बात का ज़िक्र विस्तार से करते हैं. पूरे भारतीय भूभाग में भाषाई विविधता के बावजूद किस तरह बाक़ी राजनीतिक-सांस्कृतिक प्रतीक मीडिया की मदद से एक साझेपन का भाव पैदा करते हैं, इस बात का ज़िक्र उन्होंने किया है. वह यह भी पहचानने की कोशिश करते हैं कि किस तरह बड़ी पूंजी पर टिका मीडिया अपने हित में भारतीय राष्ट्रवाद का प्रवक्ता बनकर काम करता है. यहीं पर मीडिया के स्वार्थों का एक बिल्कुल स्पष्ट अंतरविरोध सामने आता है, एक तरफ तो कॉरपोरेट मीडिया युद्धोन्माद पर टिके दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद को हवा देता है लेकिन वहीं साम्राज्यवाद और बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आगे समर्पण को वह राष्ट्र का विकास मानता है. देशभर के संसाधनों की लूट में जुटी बहुराष्ट्रीय कंपनियों का हमदर्द बनने की पीछे यह एक मुख्य कारण है.

नब्बे के दशक में जब से भारत ने नई आर्थिक नीतियों को अपनाकर पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के नए प्रयोग शुरू किए, भारतीय बाज़ार नए मीडिया उत्पादों से पट गए हैं. यह स्थिति लगातार देश में मध्यवर्ग का विस्तार कर रही है और इस भ्रम को जीवित रखे हुए है कि ट्रिकल डाउन थ्योरी काम कर रही है और एक दिन विकास का शहद रिस कर सबसे कमज़ोर और ग़रीब इंसान तक ज़रूर पहुंचेगा. मध्यवर्ग के लिए इससे सुविधाजनक तर्क और कुछ नहीं हो सकता. क्रय शक्ति बढ़ने के साथ उसकी इच्छाओं में भी अपार बृद्धि हुई है और बड़ी पूंजी पर टिका मीडिया उसमें उपभोग के नए-नए तरीक़े सुझा रहा है. 

यूरोपमें इस तरह की स्थिति काफ़ी पहले ही आ चुकी थी जिसकी पहचान करते हुए जर्मनी में फ्रैंकफर्ट स्कूल के अडोर्नो और होर्खाइमर जैसे विद्वानों ने छह सात दशक पहले ही मीडिया के इस विकास को संस्कृति उद्योग का नाम दिया था. तब उन्होंने कहा था कि यह जनता के वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाकर एक झूठी चेतना का निर्माण करता है, उसके बीच एक झूठी ज़रूरतें पैदा करता है. आज के भारतीय मीडिया पर अगर नज़र डाली जाए तो यह साफ़ हो जाता है कि वह संस्कृति उद्योग के पूंजीवादी उद्देश्यों को पूरा  करने में जी-जान से जुटा है. उसके लिए सामाजिक सरोकारों या समता पर आधारित समाज का कोई मतलब नहीं है. वह समाजवादी आदर्शों का मज़ाक उड़ाने के साथ मीडिया मालिकों और पूंजीवादी राजसत्ता का गुणगान करता है.

संख्या के लिहाज़ से भारतीय मीडिया के सामने दुनिया को कोई देश नहीं टिकता है. दो हज़ार बारह तक देश में कुल 82,222 समाचार पत्र और 831 टेलीविजन चैनल पंजीकृत हो चुके थे. लेकिन पूंजी का केंद्रीकरण बढ़ने के साथ ही दुनियाभर के मीडिया में भी संकेंद्रण बढ़ रहा है. पूरी दुनिया के मीडिया को अगर टाइम वार्नर, न्यूज़ कॉरपोरेशन, डिज्नी, बर्तेल्स्मान, वायाकॉम, सोनी और विवेंडी इंटरनेशनल जैसी बहुराष्ट्रीय कंपनियां नियंत्रित कर रही है. भारतीय मीडिया में भी इन कंपनियों की उपस्थिति काफ़ी मजबूत है. 

भारतीयमीडिया को भी किसी न किसी विदेशी कंपनियों की मदद से देश की कुछ  गिनी-चुनी बड़ी कंपनियां नियंत्रित कर रही हैं. बेनेटएंड कोलमैन, टीवी 18, इंडिया टुडे समूह, सन समूह, जी टी.वी, मलयालम मनोरमा समूह, ए.बी.पी समूह, कस्तूरी एंड संस जैसी कंपनियां इनमें प्रमुख हैं. इन कंपनियों में बड़े पैमाने पर नेताओं और देश के उद्योगपतियों का भी पैसा लगा हुआ है. यह विशालकाय कंपनियां छोटी कंपनियों को बाज़ार में टिकने नहीं दे रही हैं जिससे देश में मीडिया के एकाधिकार का ख़तरा बढ़ता ही जा रहा है. 

यहबात बिल्कुल साफ़ है कि अगर मीडिया पर कुछ गिने-चुने पूंजीपतियों का ही अधिकार स्थापित हो जाएगा तो वह हर संभव जनता की परिवर्तनकामी चेतना को कुंद करने का काम करेंगे और मुनाफे के लिए युद्धोन्माद से लेकर भ्रष्ट्राचार का कोई भी हथकंडा अपनाने से नहीं चूकेंगे. ऐसे में विकल्प तलाशने वालों के लिए बड़ी पूंजी पर टिके इस मीडिया का मुकाबला करना कठिन होता जाएगा. वैसे भी वैकल्पिक पत्रकारिता करने वाले छोटा मीडिया पूंजीवादी मीडिया के सामने पूरे समंदर की एक बूंद जितनी जनसंख्या को भी प्रभावित करने में भी सक्षम नहीं है. मीडिया की ताकत और जनमत निर्माण में उसकी भूमिका को ध्यान में रखकर अगर वाम-लोकतांत्रिक ताक़तों ने जनता से संवाद करने के लिए अपना मीडिया तंत्र विकसित करने की कोशिश नहीं की तो उन्हें हाथिये में जाने से कोई रोक नहीं सकता.

प्रख्यातअमेरिकी विद्वान हर्मन और चोम्सकी कई साल पहले अपनी किताब मैन्युफैक्चरिंग कंसेंट: पॉलिटिकल इकोनॉमी ऑफ मास मीडिया में कह चुके हैं कि बड़ी पूंजी पर टिका मास मीडिया जनता में किस तरह झूठी सहमति या राय का निर्माण करता है. वह असली मुद्दों से ध्यान हटाकर पूंजीवादी नीतियों का प्रोपेगेंडा करता है. यहां तक कि अब यह भी कहा जाने लगा है कि पूंजीवादी मीडिया सहमति का ही निर्माण नहीं करता बल्कि वह असहमति का भी निर्माण करने लगा है. हाल के दौर में कई जनआंदोलनों को पूंजीवादी मीडिया का निर्माण माना जा रहा है जो वास्तव में सत्ता पर सवाल उठाने के बजाय कुछ नए कानूनों बनाने तक ही लड़ाई को सीमित कर देते हैं. वे विशाल जनता को इस भ्रम में उलझाकर दावा करते  हैं कि एक कानून बनाने से देश पूरी तरह बदल जाएगा. मीडिया को इस तरह के मुद्दे काफ़ी पसंद आते हैं. बदलाव की चाह रखने वाली ताक़तों को बहुत ही सावधानी से इस तरह के आंदोलनों का मूल्यांकन कर अपना पक्ष तय करना होगा.

विश्वपूंजीवाद और मीडिया से जुड़ी जटिल स्थिति को ध्यान में रखकर आज सामाजिक बदलाव की चाह  रखने वालों के बीच जनपक्षधर मीडिया के निर्माण का सवाल मुंह बाये खड़ा है. मार्क्सवादी नज़रिए से जहां मीडिया के पूंजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र पर चोट करनी  होगी, वहीं इसे आमूल परिवर्तन की लड़ाई से भी जोड़ना पड़ेगा. इसके लिए मीडिया के पूंजीवादी मालिकाने को निशाना बनाना और उन्हें प्रश्रय देने वाली पूंजीवादी राष्ट्रीय नीतियों का विरोध ज़रूरी है. 

पूंजीके गुलाम बन चुके विद्वान दावा करते हैं कि वर्तमान हालात में पूंजीवादी मीडिया का कोई विकल्प नहीं है. ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि बदलाव की लड़ाई एक दिन में पूरी नहीं हो जाती. असंभव को संभव बनाने की इच्छा ही यथास्थिति को तोड़ने में मददगार हो सकती है. नया रचने का साहस ही किसी लड़ाई की मूल प्रेरणा बनता है. ऐसे में भले ही पूरा मीडिया तुरंत न बदले लेकिन स्थितियों में कुछ न कुछ बदलाव दिखने लगते हैं. दूसरी तरह के विद्वान मानते हैं कि पूंजीवादी मीडिया में कुछ सुधार कर, एक तरह का नियमन कर उसे सुधारा जा सकता है.इस तरह का दृष्टिकोण उदारवादी पूंजीवाद के तर्कों से बाहर नहीं निकल पाता है. जिसमें एक तरह से पूंजीवाद को विकल्पहीन ठहराने की हड़बड़ी और स्वार्थ होता है.

अंतमें कहा जा सकता है कि भारतीय मीडिया का भविष्य बहुत हद तक इस बात पर निर्भर करेगा कि भविष्य के भारत की राजनीति और अर्थनीति कैसी होगी लेकिन इसी के साथ यह भी सही है कि अगर जनपक्षीय भविष्य का कोई सपना देखता है तो वह मीडिया को जनपक्षीय बनाने की लड़ाई छेड़े बिना संभव नहीं हो सकता. इसके लिए अनिवार्य तौर पर मीडिया के पूंजीवादी स्वामित्व का ख़ात्मा करना होगा, तभी अस्मिता से जुड़े राष्ट्रवाद जैसे भावुक मुद्दे शोषित-उत्पीड़ित जनता को ज़्यादा वक़्त के लिए बेवकूफ़ नहीं नहीं बना पाएंगे. कोई बरगलाने की कोशिश करेगा भी तो लोग एकजुट होकर उसे करारा ज़वाब देंगे.

भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। 
कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

ग्रामीणों के प्रति इंसेंसटिव, 'ईको-सेंसटिव ज़ोन'

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जीवन चन्द्र 'जेसी'

-जीवन चन्द्र 'जेसी'


"...इको सेन्सटेटिव जोन बनाने से नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र में निवास करने वाले ग्रामीणों का जीवन यापन मुश्किल ही नहीं असम्भव हो जायेगा। क्योंकि वे ना तो पशुपालन ही कर पायेंगे और ना ही खेती या अपना घर बनाने के लिए ईमारती लकड़ी व पत्थरों की व्यवस्था ही कर पायेंगे। जीवन यापन करने के लिए वनों पर आधारित व्यवसायिक गतिविधियां भी नहीं कर पायेंगे।..."

http://www.myclimate.org/fileadmin/images/ksp/ksp_international/737_stoves_and_biomass_briquettes_utterkhand/737_uttarakhand-0.jpg
न् 2004 गोवा फाउण्डेशन द्वारा दायर रिट पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिसम्बर 2006 को जारी आदेश में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को निर्देषित किया गया था कि वह राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों से 27 मई 2005 के मंत्रालय के पत्र के सन्दर्भ में नेश्नल पार्कों व वन्य जीव अभ्यारण्य (सैन्चुरी) लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेंसटिव जोनघोषित किये जाने का प्रस्ताव लें अन्यथा न्यायालय, 21 जनवरी 2002 के प्रस्तावों को लागू करने का निर्देश देता है। अर्थात नेश्नल पार्को और सेन्चुरियों से लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेन्सेटिव जोन घोषित माना जायेगा।

सात जनवरी 2013 को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी पत्र में पूरे देश के 650 राष्ट्रीय पार्को व सेन्चुरी से लगे 10 किमी क्षेत्र को ईको सेन्सटिव जोन घोषित किये जाने के सन्दर्भ में सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों को निर्देषित किया गया है। पत्र में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य को 15 फरवरी 2013 तक नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्रों को इको सेन्सेटिव जोन’ घोषित किये जाने का प्रस्ताव मंत्रालय को भेजे जाने का अन्तिम अवसर दिया जाता है। प्रस्ताव नहीं मिलने पर वन्य जीव संरक्षण रणनीति-2002 के तहत अधिसूचित एवं 2011 के दिशानिर्देष लागू माने जायेंगें। अर्थात नेश्नल पार्को एवं वन्य जीव अभ्यारण्यों (सेन्चुरीयों) से लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेन्सेटिव जोन घोषित माना जाएगा।

पूरे उत्तराखण्ड में नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र की जनता में इस फैसले का विरोध शुरू हो गया है। उत्तराखण्ड राज्य में नेश्नल पार्क व सेन्चुरी (वन्य जीव अभ्यारण्य) हैं तथा उत्तराखण्ड में 65 फीसदी भूमि पर वन हैं। और मात्र 13फीसदी भूमि ही कृषि भूमि हैजिसके कारण ग्रामीणों का जंगलों व वन भूमि पर ही निर्भरता है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के ग्रामों में ग्रामीणों के पास नाप भूमि के अतिरिक्त ग्राम समाज की कोई भूमि नहीं है इसलिए अस्पताल हों या स्कूल वह सभी नाप भूमि पर बनते हैं। उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में नाप भूमि के अलावा समस्त भूमि वन भूमि हैजिसके कारण नाप भूमि वन भूमि से जुड़ी हुई है। कहीं-कहीं पर नाप भूमि वन भूमि से घिरी हुई है। पशुओं के लिए घास चारा पत्तियों से लेकर जलावन लकड़ी तक आवास बनाने के लिए ईमारती लकड़ी से लेकर पत्थरों के लिए ग्रामीणों की निर्भरता जंगलों व वन भूमि पर है। इसलिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 का प्रतिगामी प्रभाव हुआ है।

पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इको सेंसटिव जोन बनाये जाने के लिए जो दिशा निर्देश जारी हुए हैं उससे साफ जाहिर है कि प्रदेश व केन्द्र की सरकारों द्वारा उत्तराखण्ड की विशिष्ट स्थितियोंभौगोलिक परिस्थितियों व भूमि बन्दोबस्त व्यवस्था की अनदेखी की गयी है। प्रदेश व केन्द्र की सरकारों को चाहिए की वह उत्तराखण्ड की विशिष्ट स्थितियों और भौगोलिक परिस्थितियों को उच्चतम न्यायालय में रखे जिससे इको सेन्सटिव जोन बनाये जाने की प्रक्रिया को रोका जा सके। लेकिन राज्य व केन्द्र की सरकारें तो यहां की ग्रामीण जनता को जमीन से जंगल से उजाड़ने पर तुली हुईं हैं। इको सेन्सटेटिव जोन बनाने से नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र में निवास करने वाले ग्रामीणों का जीवन यापन मुश्किल ही नहीं असम्भव हो जायेगा। क्योंकि वे ना तो पशुपालन ही कर पायेंगे और ना ही खेती या अपना घर बनाने के लिए ईमारती लकड़ी व पत्थरों की व्यवस्था ही कर पायेंगे। जीवन यापन करने के लिए वनों पर आधारित व्यवसायिक गतिविधियां भी नहीं कर पायेंगे।

शताब्दियों से ग्रामीणों का जंगलों से अटूट सम्बन्ध रहा है ग्रामीणों ने बिना सरकार की सहायता से जंगलों को पाला पोसा है उनका संवर्द्धन किया है और अपने लिए उसका उचित दोहन किया है। परन्तु पारिस्थितिकी सन्तुलन (इको सिस्टम) कभी असन्तुलित नहीं हुआ वहीँ पारिस्थितिकी सन्तुलन को सरकार की जनविरोधी नीतियों, खनन माफियाओं और वन माफियाओं-तस्करों ने बिगाड़ा है। माफियाओं व तस्करों ने ही पहाड़ के जंगलों को तबाह किया हैसरकारें माफियाओंतस्करों पर तो रोक नहीं लगाती उल्टा ग्रामीणों पर ही काले वन कानूनों व पारिस्थितिकी सन्तुलन के नाम पर इको सेन्सटिव जोन घोषित किये जाने जैसे जनविरोधी फैसले थोप रही है। 

पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामीणों का जंगलों से जो सम्बन्ध और निर्भरता है इको सेन्सटिव जोन बनाये जाने से काश्तकारों व मजदूरों का जीना मुश्किल हो जायेगा और नेश्नल पार्को और वन्य जीव विहार(सेन्चुरियों) से लगे आबादी वाले क्षेत्रों के ग्रामीणों के लिए अपनी जमीन व जंगल से बेदखल होने का संकट बढ़ गया है। नन्दादेवी नेश्नल पार्कविनोक माउन्टेन क्लेव वन्य जीव विहारनन्दौर वन्य जीव अभ्यारण्य से लगे क्षेत्रों को इको सेन्सेटिव बनाये जाने का प्रस्ताव फरवरी 2013 को शासन को भेज दिया गया है। सीमा विवादजनाक्रोश व विरोध को देखते हुए कुछ नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों को विवादित माना गया है। लेकिन देर सबेर सभी नेश्नल पार्को व सेन्चुरियों से लगे 10 किमी के क्षेत्रों को इको सेन्सटिव जोन बनाया जाना है। इस जनविरोधी फैसले के खिलाफ नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्रों की जनता को एक जुटता के साथ इको सेंसटिव जोन बनाये जाने के खिलाफ अपने विरोध-प्रतिरोध को और ज्यादा धारदार बनाना होगा।

जीवन चन्द्र उत्तराखंड के सक्रिय जन-आंदोलनकारी और पत्रकार हैं.
उत्तराखंड से निकलने वाले अखबार 'प्रतिरोध के स्वर' का संपादन
इनसे संपर्क का पता है- jivan.jc@facebook.com

एक दामिनी अभी जिंदा है, आइये उसे न्याय दिलाएं !

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आशीष कुमार ‘अंशु
-आशीष कुमार 'अंशु'

"...एक अनुमान के अनुसार लगभग पचास फीसदी बलात्कार के मामले राजस्थान में न्याय की राह देख रहीं हैं और चालिस फीसदी मामलों को राज्य की पुलिस ने गलत ठहरा कर खारिज कर दिया है। ऐसे में बिहार से आए एक मजदूर परिवार की कहानी को कौन सुनता?..." पर आप सुनें... 


"सीकर में जिस बच्ची के साथ गलत हुआ, वास्तव में यह मामला दिल्ली से कम नृशंस नहीं है। लेकिन यह लड़की अल्पसंख्यक समाज से ताल्लुक रखती है। इसलिए इसे महत्व नहीं दिया गया। सीकर के लोगों ने भी मामले को महत्व नहीं दिया क्योंकि लड़की बिहार की है।"

सीकर में एक नाबालिग लड़की के नृशंश बलात्कार के मामले में जयपुर में राजस्थान अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष माहिर आजाद से बात हुई तो उन्होंने उपरोक्त शब्दों में स्वीकार किया कि लड़की को न्याय मिलने में देरी इसीलिए हो रही है क्योंकि वह बच्ची नाबालिग है। एक परिवार अपराधियों की गिरफ्तारी के लिए और कितना इंतजार करे जबकि घटना को लंबा वक्त गुजर गया।

घटनापिछले साल ईद के दिन की है। जब अपनी बहनों के साथ फिल्म देखकर आ रही एक ग्यारह साल की बच्ची को कुछ लोग जबरन अपने साथ गाड़ी में बिठाकर ले गए। उस पर घंटो गाड़ी में सवार युवक ज्यादती करते रहे लेकिन पुलिस उन्हें तलाश नहीं पाई और अपराधी उसे मरने की हालत में लहू लुहान करके सड़क पर फेंक गए। पुलिस पूरी रात उस बच्ची को तलाशती रही। वह नहीं मिली। वह बच्ची खून से लथपथ हालत में पन्द्रह घंटे बाद, अगले दिन साढे़ ग्यारह बजे मिली। सीकर में उसका ईलाज शुरू हुआ लेकिन डॉक्टरों ने उसके अंदरूनी हिस्सों में लगी चोट की गंभीरता को समझते हुए, उसे जयपुर रेफर किया। इस घटना को अब छह महीने होने को जा रहा है। वह बच्ची इस वक्त जयपुर हाउस (दिल्ली) में जिन्दगी और मौत से लड़ रही है। आने वाले महीनों में उसके तीन ऑपरेशन होने हैं।

इसकेपहले बच्ची का ईलाज जेके लोन अस्पताल (जयपुर ) में चल रहा था। वहां उसे हमेशा ह्त्या का डर सताता रहा। राजस्थान में नागरिक समाज ने इस घटना पर बातचीत बंद कर दी थी। दिसम्बर में दिल्ली-दामिनी की घटना के बाद सामाजिक कार्यकर्ताओं को इसकी याद आई। इस तरह पांच महीने पुराना मामला मानो एक बार फिर से मीडिया में आया। बच्ची के दरभंगा (बिहार) से होने के कारण इस मामले में बिहार की सरकार भी सक्रिय हुई। यह बच्ची अपने पिता की मृत्यु के बाद अपनी बड़ी बहन के पास सीकर (राजस्थान) रहने आई थी। साथ में उसकी एक बडी बहन और मां भी आए। बहुत ही गरीबी में कट रही जिन्दगी में अचानक ईद के दिन मानों भूचाल आ गया।

एकअनुमान के अनुसार लगभग पचास फीसदी बलात्कार के मामले राजस्थान में न्याय की राह देख रहीं हैं और चालिस फीसदी मामलों को राज्य की पुलिस ने गलत ठहरा कर खारिज कर दिया है। ऐसे में बिहार से आए एक मजदूर परिवार की कहानी को कौन सुनता?

सामाजिककार्यकर्ता नसीमा खातून के अनुसार- ‘आज कोई इस बच्ची की आवाज नहीं सुन रहा। कल खुदा ना करे कुछ गलत हो, लेकिन कुछ लोग अपना सिर पीटने के लिए, उस दिन के इंतजार में है। इस बच्ची को जिन्दगी की अभी जरूरत है, मदद के लिए अभी हाथ बढ़ाइए। आज उसे अच्छे से अच्छा ईलाज चाहिए। आज आप जितना कर सकते हैं, कीजिए- कहीं मदद के लिए हाथ बढ़ाते-बढ़ाते बहुत देर ना हो जाए।’

दिल्लीदामिनी घटना के बाद बीते गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री दोनों ने दिल्ली गैंग रेप की घटना की निन्दा की, वहीं दूसरी तरफ जयपुर के अस्पताल में सीकर की पीड़िता, जिन्दगी मौत से जुझ रही थी।

जयपुरकी बात करूं तो वहां के सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच जब पीड़िता के अपराधियों - जो जमानत पर खुले में घूम रहे हैं- की गिरफ्तारी की बात होनी चाहिए थी। उसके अच्छे स्वास्थ्य की बात होनी चाहिए। उस वक्त वहां मिलने वाले अधिक सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता उन पांच लाख रुपयों की ही बात करते मिले जो उस बच्ची को राजस्थान के मुख्यमंत्री कोष से दिया गया था। यह रकम फिक्स डिपोजिट के तौर पर पीड़िता को दिया गया। स्वास्थ्य पर और उस बच्ची के अपराधियों की गिरफ्तारी और उन्हें कड़ी से कड़ी सजा मिलने की बात पर किसी का स्पष्ट बयान नहीं है। बाद में पीड़िता के परिवार वालों ने साफ तौर पर मीडिया से कहा कि उन्हें सरकार से किसी भी तरह की आर्थिक मदद नहीं चाहिए। वे सारा पैसा सरकार को लौटाना चाहते हैं, जो उन्हें मिला है।

वास्तवमें राजस्थान में चुनाव करीब हैं और यह बात जाहिर है कि सरकारें चुनावी मौसम में न्याय से अधिक समीकरणों पर विचार करती है।

पीपुल्सयूनियन फॉर सिविल लिबर्टिज की सचिव कविता श्रीवास्तव का कहना था-
‘सीकर बलात्कार मुद्दे पर कुछ लोग राजनीति कर रहे हैं। इस तरह एक संवेदनशील मुद्दे का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए।’

12जनवरी को जब बच्ची का ईलाज हुआ, उस वक्त डॉक्टरों ने विश्वास दिलाया था कि बच्ची एक दो सप्ताह के अंदर घर चली जाएगी। लेकिन अब डॉक्टरों की तरफ से नया बयान आया है कि लड़की को तीन महीने और अस्पताल में बिताना होगा। लड़की की बहन ने बातचीत में बताया कि कोई डॉक्टर नहीं बताता कि मेरी बहन का क्या ईलाज चल रहा है? सबकुछ चुपके-चुपके कर रहे हैं। हमें ईलाज को लेकर अंधेरे में क्यों रखा जा रहा है। एक बार कहा जाता है कि दीदी को जल्दी ही अस्पताल से घर जाने दिया जाएगा और अगले ही दिन डॉक्टर उसे लेकर ऑपरेशन थिएटर में चले जाते हैं।

बच्ची के परिवार के लोग पहले से चाहते थे कि उसका ईलाज बाहर हो अथवा बाहर के डॉक्टरों की देखरेख में हो। जयपुर का जेके लोन अस्पताल बच्ची के लिए सुरक्षित नहीं है। मीडिया और कुछ ईमानदार सामाजिक कार्यकर्ताओं की मांग और दबाव के बाद अन्तिम में बच्ची को जेके लोन अस्पताल से निकाल कर दिल्ली के एम्स में दाखिल कराया गया। अब बच्ची राजस्थान भवन (दिल्ली) में है। आने वाले समय में उसके कुछ ऑपरेशन होने हैं।

इसपूरे मामले में राजस्थान महिला आयोग की अध्यक्ष लाड कुमारी जैन ने कहा- ‘पहले दिन उस बच्ची से जब हम मिले, वह बातचीत करने की हालत में नहीं थी। पांच महीने पुरानी यह खबर अब अचानक इतनी बड़ी खबर कैसे बन गई?अपराधियों को जरूर सजा मिलनी चाहिए। लेकिन हम सबको ट्रायल कोर्ट बनने से भी बचना चाहिए। इसके साथ-साथ इस तरह के कानून की जरूरत भी है कि इस तरह के मामले में एंटी सिपेटरी बेल दोषियों को नाम मिले।’

गौरतलबहै कि जेके लोन अस्पताल में जिन छह डॉक्टरों की एक बोर्ड बच्ची के ईलाज पर नजर रखने के लिए बनाई गई थी, उस बोर्ड ने भी प्रशासन को भेजे अपने रिपोर्ट में बच्ची का ईलाज बाहर कराने की अनुशंशा की थी। बोर्ड के सदस्यों का मानना था कि चूंकि पिछले कुछ समय में परिवार के लोगों का विश्वास डॉक्टरों पर कम हुआ है, इसलिए वे मानते हैं कि बच्ची का ईलाज बाहर होना चाहिए। डॉक्टर एलडी अग्रवाल प्रारंभ से ही बच्ची के ईलाज से जुड़े हैं और वे यूनिट हेड थे । डॉक्टर अग्रवाल मानते हैं- ‘यदि बच्ची का ईलाज लंबा खिंच रहा है और बार-बार स्वस्थ्य होने के करीब पहुंच कर वह फिर बीमार हो जाती है तो वह यह बच्ची से अधिक हम डाक्टर्स के लिए शर्मनाक है।’

बहरहाल स्वास्थ्य की लड़ाई अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के डॉक्टर और बच्ची/बच्ची के परिवार वाले मिल कर लड़ रहे हैं लेकिन उसके लिए न्याय की लड़ाई अब भी अधुरी है। उस बच्ची के अपराधियों को कड़ी से कड़ी सजा मिलनी चाहिए। अपराधियों को सजा मिले इस मुद्दे पर बात करने के लिए ना राजनीतिक दल तैयार हैं और ना राजस्थान के सभ्य समाज फिर क्या अपराधी यूं ही बच जाएंगे। अगले अपराध को अंजाम देने के लिए।


आशीषसे संपर्क का पता http://facebook.com/ashishkumaranshu

ह्यूगो चावेज़: इक्कीसवीं सदी के समाजवाद का योद्धा

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जेल से छूटने के बाद चावेज ने सिमोन बोलिवार की विरासत को आगे ले जाने का निर्णय लिया. चावेज ने पूरे देश मे 100 दिनों का निर्णायक दौरा किया. उनको मिल रहे व्यापक जन समर्थन से परेशान होकर मीडिया ने उन्हे हाशिये पर पटकने का पूरा प्रयास किया. उनके "नरभक्षी" होने तक की आफ़वाह उड़ाई गई.

सोवियत  संघ का पतन हो चुका था. तीसरी दुनिया के तमाम देश नव-उदारवाद और अमेरिकी साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेक रहे थे. पूंजीवाद दुनियाभर मे "कोई विकल्प नहीं है" के शोर में तांडव कर रहा था. उसी समय लैटिन अमेरिका के छोटे से देश वेनेजुएला की जनता एक नए किस्म के अनुभव से दो-चार होने जा रही थी.  बसंत अपनी दस्तक दे रहा था. 4फरवरी 1992का दिन था. नव-उदारवाद के भाड़े के टट्टू "कार्लोस अंदरेज परेज" की सरकार का तख़्ता पलटने का पहला प्रयास हुआ.  भीतरघातियों की वजह से विद्रोहियों को कामयाबी नहीं मिली. चावेज को गिरफ्तार कर लिया गया. तब जनता को विद्रोही स्वर मे संबोधित कराते हुए उसने कहा:
"कॉमरेडअफसोस है की राजधानी में जो लक्ष्य हमने तय किए थे हम उन्हें नहीं पा सके. आप जहां भी है, आप अच्छा लड़े. नए अवसर आएंगे. देश निर्णायक रूप मे बेहतर भविष्य की और बढ़ेगा. हम असफल हुए हैं सिर्फ अभी के लिए".
उसके शब्द अभी के लिए’ (Por Ahora ) ने चमत्कारिक रूप से देश की मेहनतकश जनता में उम्मीद की नयी किरण जागा दी.

1998 का चुनाव:

जेल से छूटने के बाद चावेज ने सिमोन बोलिवार की विरासत को आगे ले जाने का निर्णय लिया. चावेज ने पूरे देश मे 100 दिनों का निर्णायक दौरा किया. उनको मिल रहे व्यापक जन समर्थन से परेशान होकर मीडिया ने उन्हे हाशिये पर पटकने का पूरा प्रयास किया. उनके "नरभक्षी" होने तक की आफ़वाह उड़ाई गई. परंतु जनता मीडिया के जन विरोधी चरित्र से अच्छी तरह वाकिफ थी. चावेज को मेहनतकश जनता का व्यापक समर्थन हासिल हुआ. वे राष्ट्रपति चुने गए. 1998 से अब तक वहां की जनता ने चावेज के बारे मे लिए गए अपने निर्णय को अपरिवर्तित रखा.   चावेज़ की इस लोकप्रियता के पीछे उनके समाजवादी मॉडल का बड़ा हाथ रहा. खनिज तेल वेनेज़ुएला के आर्थिक ढांचे का महत्वपूर्ण हिस्सा है. चावेज़ के राष्ट्रपति बनाने से पहले यह संसाधन वहां के पूंजीपतियों के कब्जे में था. चावेज़ ने इसे सार्वजनिक कर दिया. ११९८ में १०,००० कम्यून बनाये गए जो नीति-निर्माण में सरकार का सहयोग करते हैं. इन कम्यून की संख्या अब ३०,००० से अधिक है. इन्हें वहां  Communes in Constructio के नाम से जाना जाता है. ये कम्यून सरकारी खर्च को तय करने में निर्णायक भूमिका निभाते हैं. इन प्रयासों का परिणाम साफ़ दिखा. १९९८ से २००७ तक गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में ५५ फीसदी की गिरावट आई. नए संविधान के तहत प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा और रोजगार जैसी सुविधाएं मिलने लगीं. सत्ता के विकेंद्रीकरण और सामाजिक न्याय की नीति ने चावेज़ को वेनेज़ुएला की जनता के आँखों का तारा बना दिया. 

2002 का तख़्ता पलट: पूंजीवाद की नाकाम साजिश:

लैटिन अमेरिका की जनता के पास अमेरिका प्रायोजित तख़्ता पलट का व्यापक अनुभव है. निकारगुआ की सेंडिनिस्ता सरकार हो या चिली की सल्वादोर अलेंदे की सरकार, पूंजीवाद का विरोध करने की कीमत वहां की जनता ने तख़्ता पलट के रूप मे चुकाई है. ऐसे में अपनी नाक के नीचे अमेरिका चावेज को कैसे सहन कर सकता था. 2002 के अप्रैल महीने में वेनज़ुएला मे फिर एक अमेरिका प्रायोजित तख़्ता पलट का प्रयास हुआ.  चावेज़ को बंदी बना कर अज्ञात स्थान पर ले जाया गया. पर वहीं की जनता का गुस्सा फूट पड़ा. 48 घंटे में वहां की जनता ने तख्ता पलट के प्रयास को असफल कर दिया. बुर्जुआ मीडिया के तमाम प्रयासों पर भी पानी फेर दिया गया. ये वेनेज़ुएला की जनता का अमेरिकी साम्राज्यवाद के मुंह पर करारा तमाचा था. आयरलैंड के फ़िल्मकार किम बार्टले और ओब्रायन की डॉक्यूमेंटरी फिल्म Revolution Will Not Be Televised इस पूरे प्रकरण के उतार-चढ़ावों को बहुत ही बढ़िया तरीके से प्रस्तुत करती है.

21वीं सदी का समाजवाद

2005 में हुए World Social Foraum के जमावड़े में चावेज ने 21वीं सदी के समाजवाद की अपनी परिकल्पना को सामने रखा. उन्होंने कहा कि 21वीं सदी का समाजवाद बुनियादी तौर पर जनवादी होगा. सोवियत रूस, पूर्वी यूरोप और चीन के अपने अनुभवों से हम जानते हैं की समाजवाद की २०वीं सदी की परिकल्पना में कई खामियां हैं. लैटिन अमेरिका और तीसरी दुनिया में चल रहे वाम आन्दोलन भी इस बात को स्वीकारते हैं.  दिसम्बर २००६ में चावेज़ की पहल पर वेनेजुएला की तमाम वामपंथी पार्टियों का एकीकरण  कर “United Socialist Party of Venezuela” नामक नई पार्टी का गठन हुआ. वाम एकता का ये बेहतरीन उदाहरण है. नयी पार्टी की घोषण के समय चावेज़ ने कहा की अब पूरानी पार्टी को भुला दिया जाना चाहिए, उनके पुराने झंडे और पुराने ढांचे को भी भुला दिया जाना चाहिए क्योंकि पितृभूमि के लिए अब ये महत्वपूर्ण नहीं है”.    नवउदारवाद के खिलाफ लड़ाई में चावेज़ ने लैटिन अमेरिका में महानायक की भूमिका निभाई. 2004 में बने Bolivarian Alliance for the Americas का वेनेज़ुएला संथापक सदस्य रहा. आज 8 लैटिन अमेरिकी और कैरेबियाई देश इस संगटन के सदस्य हैं. इन सभी देशों की समाजवादी सरकारें नवउदारवाद के खिलाफ इस संयुक्त मोर्चे से अपनी लड़ाई जारी रखे हुए हैं. चावेज़ की पहल पर विश्व बैंक के एकाधिकार को तोड़ने के लिए वेज़ुएला, अर्जेंटिना, ब्राज़ील और बोलीविया जैसे देशों ने नया वित्तीय संगठन Bank Of South  खड़ा किया. यह वित्तीय संगठन लैटिन अमेरिका के देशों को आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए बिना किसी राजनैतिक शर्त के मदद देता है. 
                               विनय सुल्तान से vinaysultan88@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.

Spew Venom, Enjoy Life

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                                                   Who Scripted Mr Varun Gandhi's Acquittal !

- subhash gatade

"This is not a hand (Congress symbol), it is the power of the lotus (BJP symbol). It will cut the head of... Jai Shri Ram," a PTI report quoted Varun Gandhi (29) as telling an election meeting in Pilibhit, his attack directed at the Muslims. At another meeting, the PTI report said, he said: "If anyone raises a finger towards Hindus or if someone thinks that Hindus are weak and leaderless, if someone thinks that these leaders lick our boots for votes, if anyone raises a finger towards Hindus, then I swear on Gita that I will cut that hand."
Varun Gandhi’s hate-Muslim speech makes his BJP squirm
Express News Service : Lucknow, Tue Mar 17 2009, 02:04 hrs


Mr Varun Gandhi, BJP M.P. was all smiles when he emerged from the courts which had acquitted him in the second hate speech case. Expressing confidence in the Indian Constitution and India's Legal System he said 'truth has prevailed'. Only a few days ago another court in UP had acquitted him of the first hate speech case. It may be added that when extracts of the speeches he had allegedly delivered during election campaign in 2009 had appeared in a section of the press, the then Mayawati government had promptly filed cases against him and ordered his arrest and had to spend some time behind bars before bail was ultimately granted to him then.

It is interesting to recall how BJP, had then reacted to his alleged hate speeches. Officially it was stated then that the BJP party squirmed  when his controversial speeches had made headlines, with one of its spokesperson claiming that Varun's outburst "did not reflect BJP's traditional culture". It it was a different matter that the then party president Mr Rajnath Singh had gone to visit him in jail supposedly to show solidarity

Coming back to the case and looking at the legal proceedings, one finds that there are many gaps, which have allowed this acquittal to happen. In fact, the role of the Akhilesh Yadav led government in the whole case has also come under scanner. Few months back  newspapers carried out a report wherein it was mentioned that Akhilesh led government was contemplating withdrawal of cases against the young M.P.  As this report - which was never confirmed nor rejected - raised an uproar in the state, no formal withdrawal of cases was done. A fact which has been noted by activists is that once it was known that state government was not keen to follow the case witnesses started turning hostile..
Another point concerns the issue of voice sample.  The forensic report had stated that unless and until they get a voice sample they would not be able to confirm it whether the said speeches were made by Mr Varun or not. It is really surprising that despite repeated instructions by the honourable court Mr Gandhi had not agreed to submit his voice sample to the police which would have validated the prosecution's charge against him. According to him his speeches had been edited by local channels to make it seem like he was promoting communal hatred. Interestingly the broadcasters were unable to furnish the original, unedited footage to the police. 51 witnesses produced by the prosecution did not indict him for delivering speeches to provoke communal hatred.The same witnesses were used for the second case. The courts also did not deem it necessary to call reporters of the TV channels as well as the print media, which had carried report about the controversial speeches.
A statement issued by 'Rihai Manch' - A forum for the release of innocent Muslims imprisoned in the name of Terrorism' , Lucknow, (email- rihaimanchindia@gmail.com) has thrown light on the way the witnesses in the case turned hostile - en masse. According to them it cannot be called mere coincidence that  during hearings in the said cases held on 24th November and 29th November, total 18 witnesses turned hostile,  The press release further underlined that when Mr Gandhi refused to give voice samples to the public prosecutor, he neither apprised the courts of Mr Gandhi's refusal nor deemed it necessary to  emphasise the point and ensure that it was done.According to them it rather vindicates the fact that the state government was keen to release Mr Varun Gandhi and not to punish him.
'Rihai Manch' also questioned the role of the judiciary in the whole case. It added when advocate Asad Hayat, associated with the Manch put forward a prayer before the CJM court in Pilibhit on 25th February that since Mr Varun Gandhi's said speeches had hurt his religious feelings therefore the channels who had shown his speeches be called as witnesses. The petition also requested to the honourable courts to ensure Mr Varun Gandhi's voice sample be taken and if he does not comply then consider it adverse inference in his case and declare that it was his speech only. The court did not admit the petition and because of the insistence of public prosecutor rejected it on 27th February.
Mr Asad Hayat then put a revision application in the high court and also petitioned the CJM's court a second time that since an application is pending before the high court in connection with rejection of his case on 27th February, it is requested that the CJM's court does not decide on the matter till the high court gives its decision. Here also because of the resistance put forward by the public prosecutor, the CJM court rejected his application on 4 th March and finally gave its verdict on  th March.
One does not know what will happen next. With more than eleven communal riots in a period of less than a year, under a government which has received fullsome support from the minorities, Akhilesh Yadav led government has exhibited its ineptness in handling communal elements. If justice is to be done in the hate speech case it is incumbent that the state government challenge this decision by moving a fresh application in the high courts. Looking at the fact that there is a world of difference between what the Samajwadi Party claims and does, the possibility seems really dim.

Subhash Gatade is a senior journalist and political activist. He can be contacted at subhash.gatade@gmail.com

'औरत' पैदा नहीं होती बनाई जाती है!

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कंचन जोशी

-कंचन जोशी

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष

"...सिमोन का कथन था कि औरत पैदा नहीं होतीबनाई जाती हैयानि औरत होना एक मानसिकता हैइसी प्रकार बलात्कार भी एक मानसिकता है जो सदियों से औरत पर सत्ता को साबित करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती रही हैये मानसिकता हमारा समाज किशोरों को बकायदा हस्तांतरित कर रहा हैहमारी फौजें भी कश्मीरउत्तरपूर्व से लेकर छातीसगढ़ तक इसी संस्कृति का झंडा उठाए घूमती हैं..."

‘Liberty guiding the people’
by- Eugene Delacroix (french painter) 
क्टूबर माह की एक घटना है. मेरे कक्षा की एक छात्रा मेरे पास आकर शिकायत करती है कि कक्षा का एक छात्र उसे 'बलात्कार' की धमकी दे रहा है. मेरे लिए ये सब बहुत अप्रत्याशित था क्योंकि दोनों ही एक ही कक्षा नौ के विद्यार्थी थे. और बात सिर्फ इतनी सी थी कि लड़की ने किसी बात पर लड़के की शिकायत कर दी थी, जिससे लड़का भड़क गया. और उसने यह धमकी दे डाली. लड़के के पिता को बुलाया गया, लड़के को उन्ही के सामने समझाया गया, लेकिन बाद में उस लड़के ने स्कूल छोड़ दिया. यह शायद मेरी कमी भी रही. मेरे जैसे अनेक शिक्षक साथियों को ऐसे घटनाक्रमों से अक्सर दो चार होना पड़ता होगा. यह मामला सामान्य मामलों से इतर आपवादिक रहा जिसमें लड़के ने स्कूल छोड़ दिया (यह भी त्रासद ही है) वरना अधिकतर ऐसे मामलों में स्कूल छोड़ने वाली छात्राओं की संख्या बहुत अधिक है.

वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के मामलों में 33 हजार से अधिक किशोरों को गिरफ्तार किया गया जिसमें से ज्यादातर 16 से 18 वर्ष के आयुवर्ग के हैं। यह आंकड़ा पिछले एक दशक में सर्वाधिक है।आंकड़ों से यह भी स्पष्ट होता है कि किशोरों द्वारा बलात्कार के मामलों में भी बढोत्तरी हुई है। वर्ष 2011 में इस तरह के 1419 मामले दर्ज हुए जबकि 2001 में यह आंकड़ा 399 था।

यहबड़ी चिंता का सबब है कि जिस कच्ची उम्र में किशोर समाज को धीरे-धीरे समझने की कोशीश कर ही रहा होता है उस उम्र में हमारा समाज उसे पुरुषत्व के पाश्विक अहंकार का बोध भी देने लगता है. पैदा होते ही हमारे घरों के वातावरण उसे जिस पहली सत्ता का आभास देते हैं वह पिता की सत्ता होती है. इसी सत्ता की छाँव में वो अपना आगे का सफ़र तय करता है. किशोरावस्था में विद्यालयों में वह इसी सत्ताबोध के साथ आता है. और बुरी बात यह है कि हमारे अधिकाँश शिक्षण संस्थान इस बोध से उसे कभी मुक्त भी नहीं कर पाते. 

दिल्लीमें हालिया बर्बरता का मुख्य अभियुक्त अभी अपने जीवन के इसी पड़ाव पर था. अब सवाल उस संस्कृति पर खड़ा होने लगता है जो हमारे समाज में किशोरों को परोसी जा रही है. यह तो बड़ी स्पष्ट सी बात है कि अपने प्रारंभ से भारत का तथाकथित सभी समाज स्त्री विरोधी रहा है. भारतीय उपमहाद्वीप की आदिवासी और दलित संस्कृतियों में एक हद तक स्त्री को बराबरी का हक मिला रहा है, किन्तु उच्च जातियों में स्त्री सदैव अधिक शोषित दमित रही है. तथाकथित सभ्यता के प्रसार के साथ ही स्त्री को बाँध के रखने वाली यह संकृति घर-घर में पैठ बना चुकी है.

किशोरावस्थामें कदम रखने के साथ ही घुट्टी में घोलकर पिलाई गयी यह संस्कृति अपना रंग दिखाने लगती है, यहाँ बड़ा होता लड़का अपनी-अपनी सत्ता के अभिमान को प्राप्त करता जाता है, और लड़की अपनी बंदिशों के लिए तैयार की जाती है. किशोरावस्था की दहलीज में लड़कों को मर्द बननेकी सलाहें और शिक्षा मिलने लगती है, और लड़कियों को पत्नीबनने के लिए तैयार किया जाने लगता है. बहुत सामान्य सी बात कहूँ तो हमारे गाँवों के विद्यालयों में लड़कों को गणित और लड़कियों को गृहविज्ञान की कक्षाओं में बाँट दिया जाता है

शारीरिकपरिवर्तनों के साथ जहाँ लड़कों में आत्मविश्वास बढ़ता है वहीँ यही शारीरिक परिवर्तन सामंती अपसंस्कृति की बदौलत लड़की को असुरक्षा के गहरे आभास से भर देते हैं. इसी परिवर्तन के दौर में किशोर मन जब समाज में अपनी पहचान तलाश रहा होता है तब वह घर की सामंतशाही से इतर जिस दूसरी संस्कृति से टकराता है वह बाजार की वह संस्कृति है जो औरत को एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत करती है

विभिन्नसंचार साधनों के साथ हमारे घरों में पैठ बनाती यह संस्कृति किशोर मानस पर गहरा प्रभाव डालती है. इस संस्कृति में औरत मात्र सजावट का साधन है जिसे किसी भी उत्पाद की पैकिंग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा होता है. अब ऐसे सांस्कृतिक माहौल में पल रहे किशोरों में अगर बलात्कार की कुंठित मानसिकता नहीं पनपेंगी तो क्या पनपेगा?

हमारासमाज किशोर मन को इस प्रकार शिक्षित ही नहीं कर पता कि वह लड़की को साथी के रूप में मान्यता दे. माँ, बहन और पत्नी इन रूपों से इतर स्त्री की स्वीकार्यता समाज में बन ही नहीं पाती, और ये रूप पुरुष की सत्ता के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं. प्रेमिका के रूप में भी वो प्रेमी की सत्ता से बहुत कम ऊपर उठ पाती है.

सिमोनका कथन था कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है. यानि औरत होना एक मानसिकता है. इसी प्रकार बलात्कार भी एक मानसिकता है जो सदियों से औरत पर सत्ता को साबित करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती रही है. ये मानसिकता हमारा समाज किशोरों को बकायदा हस्तांतरित कर रहा है. हमारी फौजें भी कश्मीर, उत्तरपूर्व से लेकर छातीसगढ़ तक इसी संस्कृति का झंडा उठाए घूमती हैं

कश्मीरमें कुपवाड़ा जिले में कोनम-पोशपोरा के गाँव जहाँ 23 फ़रवरी  1991 में सेना ने सौ महिलाओं के साथ बलात्कार किया, उत्तरपूर्व में मनोरमा देवी की वहशियाना हत्या और छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी की बर्बर प्रताडना इसका उदाहरण है. इनमे किसी भी मामले में कोई सजा आज तक नहीं हुई, और सोनी सोरी मामले में तो तो जिम्मेदार अधिकारी को बाकायदा पुरस्कृत किया गया है

हमारेदेश के विधानसभाओं और संसद में ऐसे कई लोग बैठे हैं जो बलात्कार के मामलों में मुक़दमे झेल रहे हैं. हमारा मीडिया और सिनेमा अपने कथानकों में बलात्कार को मसाले के बतौर परोसता है. और ये सब अनन्तः इसी समाज में हमारे आने वाली पीढ़ी को जा रहा है जो इसे जाने अनजाने अपने दिलो दिमाग में ज़ज्ब कर रही है. इस तरह हम जाने अनजाने एक एक ऐसी संस्कृति को आगे बढ़ाते जा रहे हैं जिसमे बलात्कार दमन का एक मान्य हथियार बनता जा रहा है.

जरूरतहै कि सबसे पहले इस बाज़ार और सामंती संस्कृति के मिले जुले ज़हर के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति को समाज में बढ़ाया जाए. हम अपनी बेटियों को 'औरत' बना देने के इस मिशन से तौबा करके उन्हें इंसान के रूप में बढ़ने का मौका दें. हम अपने बेटों को 'मर्द' बनाने से बाज़ आयें और इस समाज के बन चुके मर्दोंकी छाया से उन्हें मुक्त करें

बाज़ारऔर रूढियों के इस मकडजाल के इतर संस्कृति जब तक हम नयी पीढ़ी को नहीं देंगे तब तक बलात्कार की मानसिकता के खिलाफ बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. किशोरियों को सीता-सावित्री के आदर्शों में जकडकर हम उन्हें सामंती बंधनों की ओर ही ले जाते हैं. ये आदर्श केवल पति की चिताओं पर जल मरने वाली गूंगी गाथाएँ ही पैदा करते हैं. जब तक श्रम में साझेदारी की संस्कृति हम किशोरों को नहीं देते तब तक हम कभी भी एक अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकते

लड़कियोंके साथ रोज ब रोज बंदिशों, अश्लील विज्ञापनों, भद्दे मजाकों और छेड़ाखानी के रूप में जो बलात्कार हो रहे हैं उनके खिलाफ किसी भी कानून के अतिरिक्त एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की आवश्यकता है जो हमारे किशोरों को लोकतान्त्रिक, सहिष्णु और समतावादी दृष्टिकोण प्रदान कर सके. अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो ना तो दिल्ली के उस किशोर जैसे वहशीपन को रोक पाएँगे ना संस्कृति रक्षा के दूसरे वहशीपन को, जिसका शिकार औरतें धर्म के नाम पर होती हैं.

कंचन उत्तराखंड के एक सुदूर गांव 'पोखरी' अध्यापक हैं.
इनसे संपर्क का पता - kanchan.joshi.54@facebook.com

Afzal Guru Hanging : A Kashmiri Perspective

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DrSheikh Showkat Hussain
Dr. Sheikh Showkat Hussain
-Dr. Sheikh Showkat Hussain

"...Kashmiri perception finds reflection rather confirmation from the letter of Afzal Guru to his lawyer. He has clearly stated that those who assigned the job of facilitation of accommodation for attackers were members of the notorious task force of J&K police. Since two year long mobilization of forces failed to yield any results the operation needed to be covered up, for that purpose some Kashmiri had to be implicated and hanged..."

A conflict zone often becomes an arena of dirty games of intelligence agencies where morality, law and human life take a back seat and everything is decided on the basis of tactical considerations. On advent of Bill Clinton, Kashmir experienced massacre of innocent Sikh villagers to portray Kashmir Muslims as a xenophobic community before the visiting dignitary. In order to cover-up the operation some Muslim boys were picked up and gunned down as culprits. The fact was confirmed by Pandian Commission.   In 2010 some boys from Sopore were lured for recruitment as porters in army and subsequently gunned down on line of control as intruders for securing gallantry awards for ‘valiant soldiers’. 

Having lived in such an atmosphere Kashmiris have become skeptical. It is this skepticism that made them to perceive parliament attack as an orchestrated act. Mostly people over here perceive it to be an act of same type as was accomplished prior to 1971 war through hijacking of an aeroplane from New Delhi and its burning down at Lahore airport. At that time immediately euphoria overtook JKLF camp which was a little known and marginalized group at that juncture. They perceived it to be repetition of what Palestinians were doing through hijacking of aeroplanes and getting a lot of media coverage. 

Maqbool Bhat welcomed Hashim Qureshi but subsequently it was established through a Pakistani court of law that the action was an operation of security agencies. Simply a prelude to 1971 war, aimed at blocking of the air transit facility between East Pakistan and West Pakistan and the act provided a pretext for India to do so. There were so many in India who wished to go for similar adventurism on analogy of 9/11 attacks that were used by Americans as a ploy to target Afghanistan. 

Parliament attack occurred in this scenario and no one among Kashmiri militant groups owned it. BJP wanted to use parliament attack as a pretext for a similar attack against Pakistan. Bereft of any understanding of futility of such an exercise in a nucleraised sub-continent BJP government in fact did mobilize more than five hundred thousand troops on Pakistan border after this attack. The mobilization remained there for 22 months without any result. 

Kashmiri perception finds reflection rather confirmation from the letter of Afzal Guru to his lawyer. He has clearly stated that those who assigned the job of facilitation of accommodation for attackers were members of the notorious task force of J&K police. Since two year long mobilization of forces failed to yield any results the operation needed to be covered up, for that purpose some Kashmiri had to be implicated and hanged. 

A Kashmiri because he is presumed to be a terrorist unless otherwise proved.  Afzal thus became an scapegoat whose guilt couldn't be established thus had to be targeted more to ‘satisfy collective conscience of society‘rather than demands of justice. Afzal joined militancy as a nationalist. Like other JKLF militants he surrendered and wanted to live a normal life. Far from embarking upon rehabilitation of former militants state in Kashmir makes it a point to unable such persons to settle down. For every job one has to get a non-involvement certificate from police which is seldom issued. Vulnerable, jobless former militants are then used for accomplishment of all the dirty jobs relevant or irrelevant to operations of security agencies. 

Guru too faced the same situation. He addresses his last letter to whole Ummah. His participation in insurgency and tryst with Indian security establishment transformed him and he became a religious person. From a nationalist he became a devout pan-Islamist. A militant who had given up the gun was pushed to gallows thus making him a martyr for his nation. A state which boasts about democracy and human rights wasn't courteous enough to facilitate or allow a decent burial to a martyr. Right to decent burial is an inherent and inalienable right available to every human being even if he happens to be a rival combatant. 

It is enshrined in Geneva Conventions to which India is a party. Denial of this right and no-communication to family constitutes a crime against humanity and a blot on human rights record of India.  Ordeals of Afzal Guru remain the experience of all those who had given up the gun in varying degrees. They are pushed to a situation where inhuman and degrading treatment becomes their destiny. One whole generation of Kashmir is being articulated in the same way.

Timing and manner of hanging Afzal Guru is reflection of the parochial mindset that has been hallmark of Indian politics since pre-partition days. Pandit Nehru vetoed the Cabinet Mission Plan to ensure his ascendance to prime minister’s position without any hindrance. He became prime minister but British India got divided in two dominions. Indira Gandhi promoted extremism in Punjab to score electoral gains against Akalis and was consumed by it. India had to pay a heavy price in the form of Punjab insurgency. Rajiv Gandhi resorted to adventurism in Sri Lanka and became a victim of it. He opened the doors of Babri Masjid and ensured Congress ouster from power. With elections in near future Afzal Guru’s hanging was pursued with political motives igniting the dormant volcano of Kashmir, deepening the state’s sense of deprivation with unanticipated immediate and remote repercussions for whole of the subcontinent.

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Dr. Sheikh Showkat Hussain is an Associate Professor at Central University of Kashmir
He can be contacted at showkat_Hussain@rediffmail.com . 

कश्मीरी नजरिये से अफजल गुरु की फांसी

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-डॉ. शेख शौकत हुसैन

( शीर्षक से मूल आलेख अंग्रेजी में प्रकाशित किया गया था. हिंदी के पाठकों के लिए इसका अनुवाद अभिनव श्रीवास्तवने किया है.  -मॉडरेटर)
DrSheikh Showkat Hussain
डॉ. शेख शौकत हुसैन

"...अफजल गुरु को दी गयी फांसी का तरीका और समय भारतीय राजनीति की उस मानसिकता की झलक देता है जो विभाजन से पहले ही उसकी विशेषता रही है. पंडित नेहरू ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को बिना किसी रुकावट के बिल्कुल सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकृत कर दिया था. वह प्रधानमंत्री बन गए लेकिन ब्रिटिश भारत दो रियासतों में बंट गया..."



http://kashmirvoice.org/wp-content/uploads/Afzal-Guru4.jpgविवादितक्षेत्र अक्सर खुफिया एजेंसियों की गंदी चालों और क्रियाकलापों के अखाड़े में तब्दील हो जाते हैं   जहां नैतिकता, कानून और मानव जीवन गर्त में चले जाते हैं और सब कुछ रणनीतिक बातों को ध्यान में रखते हुये तय किया जाता है. बिल क्लिंटन के कश्मीर आगमन पर कश्मीरी मुस्लिमों को विदेशी और अजनबी से डरने वाले समुदाय के रूप में दिखाने के लिये घाटी में कुछ सिक्ख ग्रामीणों के जनसंहार को अंजाम दिया गया था. इस कार्रवाई को छिपाने के लिये कुछ मुस्लिम लड़कों को पकड़ा गया और अपराधी बताकर उनकी हत्या भी कर दी गयी. इस तथ्य की पुष्टि पांडियन कमीशन ने भी की. इससे पहले साल 2010 में सोपोर गांव के कुछ लड़कों को सेना में कुली की भर्ती का लालच दिया गया और बाद में कुछ ‘बहादुर सैनिकों’ के लिये वीरता पुरस्कार हासिल करने के मकसद से उन्हें घुसपैठिया बनाकर सीमारेखा के पास मार दिया गया.

ऐसेमाहौल में रहते हुये कश्मीर की जनता अगर संशयग्रस्त हो गयी, तो इस पर आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिये. इसी संशयवाद के चलते उन्होंने संसद हमले को गुप-चुप और योजनाबद्ध ढंग से हुयी घटना के तौर पर देखा. घाटी के अधिकांश लोग इसेसाल 1971के युद्ध से पहले हुई उस घटना की तरह देख रहे थे जिसमें नई दिल्ली से एक विमान का अपहरण किया गया और फिर उसे लाहौर हवाई अड्डे के पास लाकर जला दिया गया था. इस घटना ने उस वक्त लगभग अपरिचित और प्रभावहीन जेकेएलएफ कैम्प के बीच एक उत्साह पैदा कर दिया. आलम ये था कि इस घटना को उन दिनों मीडिया में सुर्खियां बटोर रहे फिलीस्तीनियों और उनके द्वारा किये जा रहे विमानों के अपहरण की घटनाओं के दोहराव के रूप में देखा गया. मकबूल भट्ट ने तब हाशिम कुरैशी का स्वागत किया लेकिन इसके साथ-साथ एक पाकिस्तानी अदालत ने यह भी बताया कि इस घटना को सुरक्षा एजेंसियों ने अंजाम दिया था.

भारतमें ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो चाहते थे कि भारत भी (इस घटना की प्रतिक्रिया में) वैसे ही दुस्साहसी कार्रवाई करे जैसे अमेरिका ने 9/11हमले के बाद अफगानिस्तान पर निशाना साधने के बहाने  की थी. कमोबेश इसी पृष्ठभूमि में संसद पर हमला हुआ और किसी भी कश्मीरी सैन्य संगठन ने इसकी जिम्मेदारी नहीं ली. भाजपा संसद हमले को पाकिस्तान पर हमला करने के बहाने के रूप में इस्तेमाल करना चाहती थी.एक परमाणु संपन्न उपमहाद्वीप में इस तरह की कार्रवाई के नतीजों से महरूम भाजपा सरकार ने संसद हमले के बाद पांच हजार से अधिक सैनिकों को पाकिस्तान की सीमा रेखा पर इकठ्ठा कर दिया था. सीमा पर यह लामबंदी करीब 22 महीनों तक बगैर किसी नतीजे के चली. 

अफजलगुरु ने अपने वकील को जो पत्र लिखा था उसमें एक कश्मीरी की भावना की पुष्टि नहीं तो कम से कम एक झलक तो जरूर मिलती है. पत्र में उसने साफ लिखा है कि जिन लोगों को हमलावरों के रहने-खाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है वे जम्मू कश्मीर की कुख्यात पुलिस बलों के सदस्य हैं. सैन्य बलों के मोबलाइजेशन दो साल से लंबे चले अभियान की असफलता को छिपाने के लिये कुछ कश्मीरियों को फंसाकर फांसी देना जरूरी था. इस काम के लिये अफजल गुरु को बलि का बकरा बनाया गया. एक ऐसा व्यक्ति जिसका अपराध साबित नहीं हो सका और जिसको न्याय से ज्यादा ‘सामाजिक अंतःचेतना की संतुष्टि’ के लिये निशाना बनाया गया. 

जेकेएलएफ के अन्य उग्रवादियों की तरह वह आत्मसमर्पण कर सामान्य जीवन बिताना चाहता था. कश्मीर में विभिन्न इलाकों में पूर्व उग्रवादियों के पुनर्वास के लचर इंतजाम ऐसे लोगों के नहीं बस पाने का प्रमुख कारण बनते हैं. किसी छोटे से रोजगार के लिये पुलिस से  किसी पूर्व घटना में शामिल नहीं होने संबंधी प्रमाण पत्र लेना होता है,जो कभी-कभार ही मिल पाता है. तब कमजोर और रोजगारविहीन पूर्व उग्रवादियों का इस्तेमाल सुरक्षा एजेंसियों द्वारा अपने गंदे और प्रासंगिक-अप्रासंगिक कामों को पूरा करवाने में किया जाता है. 

अफजल ने भी ऐसी ही स्थितियों का सामना किया. राजद्रोह में उसकी भगीदारी और भारतीय सुरक्षा तंत्र से उसकी खुफिया ने उसको बदल दिया और वह एक कट्टर इस्लामी बन गया. एक ऐसे उग्रवादी को फांसी की ओर धकेल दिया गया जिसने बंदूक का रास्ता छोड़ दिया था. इसीलिये अपने राष्ट्र के लिये वह शहीद बन गया. एक राज्य जिसे अपने लोकतंत्र और मनावाधिकारों पर गर्व है, इतनी उदारता का परिचय नहीं दे सका कि एक शहीद के शरीर के दाह-संस्कार का इंतजाम पूरी शिष्टता और सभ्यता के साथ करवा सके. इस अधिकार का उल्लंघन और अफजल के परिवार को कोई भी सूचना नहीं देना मानवता के खिलाफ अपराध है. भारत के मानवाधिकार रिकार्ड पर यह एक धब्बा है. वे उन हालातों में धकेल दिये जाते हैं जहां अमानवीयता और अपमानित किया जाने वाले व्यवहार ही उनकी किस्मत बन जाता है. कश्मीरी जनता की एक पूरी पीढ़ी ही ऐसे हालातों में ढल गयी है. 

अफजलगुरु को दी गयी फांसी का तरीका और समय भारतीय राजनीति की उस मानसिकता की झलक देता है जो विभाजन से पहले ही उसकी विशेषता रही है. पंडित नेहरू ने प्रधानमंत्री पद पर अपनी दावेदारी को बिना किसी रुकावट के बिल्कुल सुनिश्चित करने के लिए कैबिनेट मिशन योजना को अस्वीकृत कर दिया था. वह प्रधानमंत्री बन गए लेकिन ब्रिटिश भारत दो रियासतों में बंट गया. इन्द्रा गांधी ने पंजाब में अकाली से खिलाफ वोटबैंक में बढ़त पाने के लिए अतिवाद को बढ़ावा दिया और इसी में खप गईं. भारत को पंजाब के उग्रवाद के रूप में भारी कीमत चुकानी पड़ी. राजीव गांधी ने श्रीलंका में ऐसे ही दुस्साहस का सहारा लिया और उसका शिकार बन गए. उन्होंने बाबरी मस्जिद के दरवाजे खोले और कांग्रेस को सत्ता से बाहर करना सुनिश्चित कर दिया. 

निकटभविष्य में चुनावों के चलते राजनीतिक मकसद से प्रेरित अफजल गुरु की फांसी ने कश्मीर के सुप्त ज्वालामुखी को भड़का दिया है, राज्य (भारतीय) के प्रति मजबूत हुआ अविश्वास पूरे उपमहाद्वीप के लिए तात्कालिक और दूरगामी अप्रत्याशित नतीजे सामने लाएगा.

अंग्रेजी में मूल आलेख यहाँ पढ़े- 
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    डॉ. शेख शौकत हुसैन कश्मीर विश्वविद्यालय में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं
showkat_Hussain@rediffmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

जत्थों से राह बनाता वाम

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...इस बीच माकपा के बड़े नेताओं ने देश के चार स्थानों से संघर्ष संदेश जत्थे निकाले हैं। इन जत्थों की यात्रा उन्नीस मार्च को दिल्ली में एक रैली के साथ पूरी होगी। तब यह मूल्यांकन का वक्त होगा कि दस हजार किलोमीटर तक संघर्ष का संदेश देने के बाद आखिर में ठोस क्या हासिल हुआ?..."



मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव प्रकाश करात ने अगले आम चुनाव से पहले किसी तीसरे मोर्चे के गठन की संभावना से इनकार कर वाजिब रुख जताया है। इसलिए कि देश को इस वक्त जरूरत ऐसे मोर्चों की नहीं है, जिनमें विचारधारा का कोई साम्य नहीं हो। अगर विकल्प का मतलब सत्ता से सिर्फ नेताओं या पार्टियों का बदल जाना है, तो ऐसे अनुभवों से अनेक बार गुजर चुकने के बाद देश की प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक शक्तियों को ऐसे परिवर्तन का संभवतः कतई इंतजार नहीं होगा। प्रश्न यह है कि क्या देश में किसी ऐसे विकल्प की गुंजाइश है, जो राजनीतिक विमर्श एवं नीतियों में वाम झुकाव का प्रेरक बने?

इस बीच माकपा के बड़े नेताओं ने देश के चार स्थानों से संघर्ष संदेश जत्थे निकाले हैं। इन जत्थों की यात्रा उन्नीस मार्च को दिल्ली में एक रैली के साथ पूरी होगी। तब यह मूल्यांकन का वक्त होगा कि दस हजार किलोमीटर तक संघर्ष का संदेश देने के बाद आखिर में ठोस क्या हासिल हुआ? बहरहाल, कसौटी अगर मध्यवर्गीय बहस एवं मुख्यधारा मीडिया में मिला महत्त्व ही हो, यह अंदाजा लगाना आसान है कि ये यात्राएं राजनीतिक विमर्श एवं नीतियों पर बिना कोई फर्क डाले महज एक घटना बन कर रह जाएंगी।

इससंदर्भ में यह बात इसलिए अहम है, क्योंकि मीडिया में इन यात्राओं में उठे जिन मुद्दों की चर्चा हुई है, वो मोटे तौर पर वे नहीं हैं, जिनके आधार पर बुनियादी तबकों की गोलबंदी हो सकती है। इसके विपरीत महंगाई, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता जैसे मुद्दे हैं, जो अक्सर मध्य वर्ग को आकर्षित करते हैं। खासकर भ्रष्टाचार और नारी स्वतंत्रता के मुद्दों पर हाल में मध्य वर्ग में हलचल दिखी है। अनेक जानकारों की राय है कि मध्य वर्ग की बढ़ी सांख्यिक ताकत ने अब उसे किसी भी संघर्ष में अपिहार्य बना दिया है। मौजूदा हालात में परिवर्तन के लिए उसमें उभरती बेचैनी एक सकारात्मक घटनाक्रम है। फिर भी यह सवाल अपनी जगह कायम है कि क्या वाम राजनीति के लक्ष्य में निहित आमूल बदलाव की संभावना के साथ अपेक्षाकृत संपन्न एवं सुविधाप्राप्त पृष्ठभूमि से आए मध्य वर्ग के अधिकांश हिस्सों का तारतम्य बनने की जमीन तैयार हो गई है?

अगरहम जनतांत्रिक दायरे में संभव वाम मुद्दों की पहचान करें, तो उपरोक्त प्रश्न का उत्तर ढूंढना आसान हो सकता है। महंगाई, भ्रष्टाचार और सांप्रदायिकता आबादी के ज्यादातर हिस्सों को प्रभावित करने वाले बड़े मुद्दे हैं। लेकिन ये वाम राजनीति के विशिष्ट मुद्दे हो सकते हैं, यह कहना कठिन है। इन मुद्दों पर आखिर असहमत कौन है? विपक्ष में रहते हुए कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी दोनों महंगाई और भ्रष्टाचार के सवाल पुरजोर ढंग से उठाती हैं। जबकि यह सबको मालूम है कि दोनों के पास इन बुराइयों से जनता को निजात दिलाने का कोई कार्यक्रम नहीं है। कांग्रेस उनके साथ सांप्रदायिकता को भी जोड़ लेती है, जबकि इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट या निष्ठावान रुख अपनाने से वह अक्सर कतरा जाती है। फिर भी यह हकीकत है कि इन मुद्दों पर सियासी पहल अक्सर इन पार्टियों के हाथ में ही रहती है। 

स्पष्टहै, इन मुद्दों पर आधारित राजनीतिक गतिविधियों के जरिए वाम राजनीति को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। बहरहाल, माकपा की मांगें सिर्फ इन तक सीमित नहीं हैं। बल्कि पार्टी ने साथ-साथ भूमि सुधार एवं आवास स्थल के अधिकार, शिक्षा एवं स्वास्थ्य के अधिकार, रोजगार के अधिकार, सरकारी नौकरियों में अनुसूचित जाति-जनजातियों के लिए आरक्षित खाली पदों को भरने और महिला अधिकार के संरक्षण सहित सामाजिक न्याय से जुड़ी मांगों को भी उठाया है। ये वो मांगें हैं, जो मध्य वर्ग और मीडिया को आकर्षित नहीं करतीं। इन मांगों से जुड़ा संघर्ष जैसे ही दस्तक देता है, संघर्ष के मुद्दे खबर या चर्चा से गायब हो जाते हैं और संघर्ष के कारण महानगर के संपन्न लोगों को होने वाली कथित दिक्कतें सुर्खियों पर छा जाती हैं। इसकी बेहतरीन मिसाल फरवरी में ट्रेड यूनियनों की अपील पर हुई दो दिन की राष्ट्रीय हड़ताल है। जिस हड़ताल ने आम जन-जीवन पर व्यापक असर डाला और जिसमें श्रमिक वर्ग के लाखों लोगों ने भागीदारी की, वह आखिर मीडिया और मध्य वर्ग का कितना ध्यान खींच पाया? व्यापकता और गहराई दोनों लिहाज से अहम यह संघर्ष सत्ता प्रतिष्ठान पर उसी अनुपात में प्रभाव नहीं छोड़ सका, तो उसका कारण यही है कि राजनीतिक स्तर पर उसकी नुमाइंदगी करने वाली ताकतें कमजोर हैं, जबकि मीडिया जैसे माध्यमों की उस संघर्ष के उद्देश्यों से सहमति नहीं है।  

यहकहना सही नहीं होगा कि वाम पार्टियां वर्ग-दृष्टिकोण के इस अंतर को नहीं समझती हैं। इसके बावजूद संघर्ष के लिए मुद्दों एवं स्थान के चयन में स्पष्टता क्यों नहीं झलकती, यह समझना कठिन है। असली सवाल है कि वाम मोर्चा राष्ट्रीय राजनीति में बेहतर दखल की स्थिति में फिर कैसे वापस आ सकता है? क्या देश भर में उन मुद्दों पर संघर्ष का संदेश फैलाना इसका रास्ता है, जो जुबान की ताकत रखने वाले वर्गों को आकर्षित कर सके? या फिर इसका रास्ता यह है कि वाम पार्टियां पहले उन जगहों पर संघर्ष को संकेद्रित करें, जहां उन तबकों के बीच उनका आधार है, जिन्हें लेफ्ट राजनीति की जरूरत है और जो स्वाभाविक रूप से वाम पार्टियों के लिए सियासी लड़ाई के बुनियादी वर्ग हैं?

उन्हीं आधार वर्गों और आधार इलाकों के जरिए वाम मोर्चे ने 2004 में अपनी वो हैसियत बनाई, जिससे वह सामाजिक जनतांत्रिक कार्यकर्मों को न सिर्फ राष्ट्रीय एजेंडे पर ला सका था, बल्कि उनके अनुरूप दूरगामी महत्त्व के कई कानूनों को बनवाने में भी उसने प्रमुख भूमिका निभाई। वो कानून अपने-आप में उद्देश्य नहीं हैं, बल्कि वे समता एवं न्याय के दीर्घकालिक संघर्ष में एक छोटा मुकाम हैं। अगर उनसे इस विचारधारत्मक समझ को काट दिया जाए, तो मनरेगा या वनाधिकार कानून या मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अधिकार कानून या प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून अथवा सभी बुजुर्गों को पेंशन के लिए अब उठी मांग नव-उदारवादी दायरे में महज खैरात नजर आने लगते हैं। फिर भी ये कदम या उनके लिए संघर्ष बदलाव की बड़ी लड़ाई की राह में आरंभिक बिंदु अवश्य हैं। इसीलिए ऐसे मुद्दों लेकर संघर्ष के मैदान में उतरना सकारात्मक है, लेकिन इनका संदर्भ सीमित है। जब तक वाम राजनीति की ताकत प्रभावी हस्तक्षेप की नहीं बनती, यह संदर्भ समग्र रूप ग्रहण नहीं कर सकेगा।

इसताकत को प्राप्त करने की क्षमता आज भी भारत में सिर्फ संगठित वामपंथ के पास है, जिसका व्यावहारिक स्वरूप माकपा के नेतृत्व वाला वाम मोर्चा है। इसीलिए इस मोर्चे की सोच और गतिविधियों पर प्रगतिशील एवं जनतांत्रिक लोगों की निगाह रहती है। संघर्ष संदेश यात्रा की शुरुआत पर माकपा ने कहा- “संघर्ष संदेश जत्थे आगे और अधिक बड़े आंदोलनों तथा वाम और जनतांत्रिक शक्तियों के एकजुट होने का पूर्व-संकेत देंगे। ये जत्थे यह पैगाम देंगे कि सिर्फ वाम और जनतांत्रिक aशक्तियां ही बुर्जुआ-जमींदार राज का वास्तविक विकल्प बन सकती हैं।” क्या ऐसा सचमुच होगा? यह बात पक्के भरोसे के साथ कही जा सकती है कि ऐसा तब तक नहीं होगा, जब तक पश्चिम बंगाल और केरल में वाम मोर्चा अपनी खोयी जमीन फिर से पाता न दिखे, क्योंकि आज भी त्रिपुरा के अलावा वही इसके मुख्य आधार इलाके हैं। क्या जिन मुद्दों को लेकर पार्टी संघर्ष यात्रा निकाली है, वे इसमें सहायक बनेंगे? बहरहाल, जब तक ऐसा नहीं होता, तीसरे मोर्चे जैसे प्रयोजनों की बात वाम राजनीति के लिए लिहाज से अप्रासंगिक है।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

एबीवीपी का छात्रों के अनशन पर हमला!

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-सरोज कुमार 
सरोज कुमार


"...यह
 अनशन विश्वविद्यालय प्रशासन से मांग करने को लेकर था। यानि यह विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ था ना कि एबीवीपी या किसी अन्य संगठन के खिलाफ। फिर एबीवीपी की ओर से हमला क्यों हुआ। साफ पता चलता है कि हमला प्रशासन की शह पर हुआ है।विश्वविद्यालय प्रशासन किसी भी तरह छात्रों का अनशन तुड़वाना चाह रही थी। उनको झुकता न देख उसने एबीवीपी के आशीष सिन्हा के नेतृत्व में हमला करवाया..."


टना विश्वविद्यालय में एबीवीपी का असली चरित्र एक बार फिर देखने को मिला । छात्रसंघ अध्यक्ष एबीवीपी के आशीष सिन्हा के नेतृत्व में बाहरी गुंडों ने पांच दिनों से धरने पर बैठे एआईएसफ के छात्रों पर हमला कर मारा पीटा। उन्होंने एआईएसएफ के बैनर-पोस्टर फाड़ कर हटा दिया और गाली गलौज भी की। एबीवीपी के गुंडों ने छात्रसंघ महासचिव अंशु कुमार को भी नहीं बख्शा और उनके साथ भी धक्का-मुक्की और मारपीट की। एक छात्र अविनाश को बुरी तरह मारा पीटा। यह पूरा हमला प्रशासन के सामने हुए और वह मूकदर्शक बनी रही। आशीष सिन्हा भाजपा विधायक अरुण कुमार सिन्हा का बेटा है।


इस हमले में विश्वविद्यालय प्रशासन की भूमिका भी खुलकर सामने आई है। प्रॉक्टर की भूमिका संदिग्ध है। छात्रों का आरोप है कि प्रॉक्टर के ईशारे पर ही यह हमला हुआ है। यह आरोप यों ही नहीं लगाया जा रहा है। एआईएसएफ के छात्र छात्रवासों में बुनियादी सुविधाएं मुहाल करनेएक छात्र गोपाल का नाम काटे जाने पर उसके साथ न्याय करने समेत छात्रसंघ के अधिकारों पर अंकुश लगाने के विरोध में विश्वविद्यालय मुख्यालय पर पिछले पांच दिनों से अनशन कर रहे हैं।

यह अनशन विश्वविद्यालय प्रशासन से मांग करने को लेकर था। यानि यह विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ था ना कि एबीवीपी या किसी अन्य संगठन के खिलाफ। फिर एबीवीपी की ओर से हमला क्यों हुआ। साफ पता चलता है कि हमला प्रशासन की शह पर हुआ है। विश्वविद्यालय प्रशासन किसी भी तरह छात्रों का अनशन तुड़वाना चाह रही थी। उनको झुकता न देख उसने एबीवीपी के आशीष सिन्हा के नेतृत्व में हमला करवाया। प्रॉक्टर का विरोध पहले भी एआईएसफ और आइसा जैसे संगठन करते रहे हैं। पहले भी छात्रसंघ चुनावों में उसकी भूमिका की जांच की मांग की गई थी। चुनावों में एबीवीपी के आशीष सिन्हा के पक्ष में काम करने का आरोप भी उनपर लग चुका है। इसलिए वह उनसे खार खाया हुए थे साथ ही इस अनशन के उनकी मुश्किलें बढ़ा दी थी। ऐसे में कुलपति ने भी अनशनरत छात्रों से मिल कर उनकी मांगों पर विचार करने का आश्वासन दिया था। और प्रॉक्टर और डीन ऑफ स्टूडेंट समेत अन्य प्रोफसरों की टीम बना छात्रसंघ को साथ बैठा उनकी मांगों पर विचार करने का प्रयास किया था। लेकिन प्रॉक्टर कृतेश्वर प्रसाद डीन ऑफ स्टूडेंट के खिलाफ मोर्चा खोले रहते हैं। यहीं कारण रहा कि एबीवीपी हमला करने के साथ ही प्रॉक्टर की शह पर एआईएसएफ और डीन ऑफ स्टूडेंट के खिलाफ भी नारेबाजी करते रहे। एबीवीपी डीन ऑफ स्टूडेंट पर एआईएसएफ से मिलीभगत का आरोप लगा रहा था। मामला साफ है कि जब एआईएसएफ विश्वविद्यालय प्रशासन के खिलाफ धरने पर था तो एबीवीपी ने हमला क्यों किया। कुलपति भी इस मामले में उदासीन बने रहे।

गुरुवार को भी एआईएसएफ के छात्र धरने पर बैठे हुए थे। महासचिव अंशु कुमारी और उपाध्यक्ष समेत एआईएसएफ के कुछ छात्र और छात्राएं धरने पर मौजूद थी। अनशन विश्वविद्यालय मुख्यालय में ही चल रहा था। करीब 11 बजे दिन में आशीष सिन्हा करीब 30-40 बाहरी गुंडों के साथ परिसर में पहुंचा। पहले तो बाहर में उसने आर्ट कॉलेज के एक छात्र अविनाश कुमार को बुरी तरीके से मारा पीटा। फिर गुंडों के साथ अंदर घुस कर धरने पर बैठे महासिचव अंशु कुमारी और गोपाल के साथ धक्का-मुक्की और मारपीट करने लगे। गुंडों ने अंशु कुमारी को भी थपप्ड़ जड़े। उनके बैनर-पोस्टर फाड़ डाला और उनको गालियां दीं। बाद में मौजूद कर्मचारियों और मौजूद पुलिसवालों ने मुख्यालय कार्यालय का दरवाजा बंद कर एबीवीपी के गुंड़ों को बाहर किया। हाल ये बना रहा कि एआईएसफ के अनशनरत छात्रों समेत अन्य कर्मचारियों को मुख्यालय के अंदर घंटों कैद रहना पड़ा। वहीं एबीवीपी वाले आशीष के नेतृत्व में दरवाजे पर ही बैठ उनको धमकाते रहे।

छात्रसंघ महासिचव अंशु कुमारी ने बताया कि एबीवीपी वालों के हमले के वक्त उन्होंने फिर स्थानीय पुलिस और विश्वविद्यालय प्रशासन को फोन करती रही। वहां तैनात पुलिसवालों के सामने ही हमला हुआ पर किसी ने उन्हें रोका नहीं। और तो और घटना के दो-तीन मिनट पहले ही जहां प्रॉक्टर का नंबर ऑन बता रहा था। हमला होते ही उन्होंने फोन किया तो प्रॉक्टर ने फोन ऑफ कर लिया। साफ जाहिर होता है कि प्रॉक्टर को इसी जानकारी रही थी। एबीवीपी वाले हमला कर परिसर में ही घंटों जमे रहे। बाद में स्थानीय पुलिस डीएसपी और थानेदार पहुंचे। लेकिन उल्टे डीएसपी एआईएसफ के खिलाफ ही बोलते रहे। वह अनशन को ही गलत बताते रहे। जबकि साफ है कि अनशन पर विचार करना प्रशासन का काम था ना कि एबीवीपी का।

करीब एक-देढ़ घंटे बाद एआईएसएफ के समर्थन में भी कुछ छात्र जुटने लगे। एबीवीपी वाले बाहरी गुंडे तो मौजूद थे ही। हंगामा बढ़ने के आसार पर पुलिस ने फिर एबीवीपी और बाकी छात्रों को परिसरा से हटाया और पुलिस बल तैनात कर दिया। जबकि यहीं पुलिस पहले मूकदर्शक बनी हुई थी। साफ है कि एबीवीपी का आशीष सिन्हा जो चाहता था वह पूरा हो चुका था। प्रशासनिक अधिकारियों और पुलिस का समर्थन उसे यों ही नहीं मिला हुआ है। वह भाजपा विधायक अरुण कुमार सिन्हा का बेटा है। चुनावों के दौरान भी उसे इसी तरह समर्थन और गोलबंदी जुटाई गई थी।

इस हमले के बाद भी अनशनरत छात्रों का हौसला कम नहीं हुआ है। वे अनशन पर डटे हुए हैं। इनमें से एक छात्र महेश की हालत ज्यादा खराब थी। उसे दो बारी पीएमसीएम में भर्ती करना पड़ा था। फिर भी वह वापस आर धरने पर डटे हैं। निखिल कुमार भी इसी हाल में धरने पर बैठे हैं। दोनों की हालत बिगड़ती जा रही है लेकिन प्रशासनिक रवैएया उदासीन ही नहीं एबीवीपी जैसे हमले करवा अनशन खत्म करवाने का है।
महासचिव अंशु कुमारी को भी धमकी मिलती रही है। कैबिनेट के चुनाव के दौरान भी उन्हें एबीवीपी के गुंड़ों ने बुरा परिणाम भुगतने की धमकी दी थी। इस बार भी उन्हें ऐसी ही धमकियां दी गई हैं। बावजूद इसके उनके उत्साह में कमी नहीं हुआ है। वे बेखौफ हो कर कहती हैं , "ऐसे धमकियों से हम सबों का संघर्ष रुकने वाला नहीं हैं। मुझे एबीवीपी के गुंडें धमकियां देते रहे हैंजान से मारने तक की धमकी मिलती है। इस बार भी उन्होंने मारपीट के साथ ही धमकी भी दीइनसे हम डरने वाले नहीं हैं।"

इस मामले में एआईएसएफ की ओर से एबीवीपी के आशीष सिन्हाआलोक वत्सनिशांत कुमार समेत 50 लोगों पर स्थानीय थाने में प्राथमिकी दर्ज कराई गई है। वहीं अंशु कुमारी ने मानवाधिकार आयोगमहिला आयोगजेंडर सेंसटाइजेशन सेल और महिला थाने में भी शिकायत दर्ज कराई है।

सरोज युवा पत्रकार हैं. अभी पटना में एक दैनिक अखबार में काम . 
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.  

गंभीर मसले का हल्का-फुल्कापन

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उमाशंकर सिंह
-उमाशंकर सिंह

"...बीते एक बरस के सिनेमा पर गर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि यह करवट बदल कर उस तरफ अपना मुंह मोड़ रहा है जहां से थोड़ी दूरी से ही, थोड़ा धुधला और बदले हुए रूप में ही सही, लेकिन हिंदुस्तानी समाज दिखता है। इससे फिल्मों के विषय की कई प्रचलित वर्जनाएं बीते एक वर्ष में टूटी है।..."


पिछले 15-16 सालों में हिंदी सिनेमा का जिस तरह विकास हुआ, उसने उसे फार्म के स्तर पर तो थोड़ा बहुत समृ़द्ध किया लेकिन उसकी चौहद्दी को इतना संकरा कर दिया कि हिंदुस्तान जैसे व्यापक और डाइवरसिटी वाले देश के अधिकांश मसले उससे बाहर हो गए। मध्यवर्ग, उसका जीवन, सपना उसका रोमांस और उसकी सफलता के मायावी किस्सों ने हैरतअंगेज कथा-रूप में हिंदी सिनेमा के कंटेट पर लगभग एकाधिकार सा कर लिया। जाहिर है विषय वस्तु के स्तर पर बहुत से मसले उसके लिए अछूत से हो गए। लेकिन साहित्य या कला की यह मजबूरी है कि वह अपने समाज के विविध पहलुओं को नजरअंदाज कर अपनी ताजगी लंबे समय तक बरकरार नहीं रख सकता। यही बात सिनेमा के संदर्भ में भी कही जा सकती है।


बीते एक बरस के सिनेमा पर गर हम गौर करें तो हम पाते हैं कि यह करवट बदल कर उस तरफ अपना मुंह मोड़ रहा है जहां से थोड़ी दूरी से ही, थोड़ा धुधला और बदले हुए रूप में ही सही, लेकिन हिंदुस्तानी समाज दिखता है। इससे फिल्मों के विषय की कई प्रचलित वर्जनाएं बीते एक वर्ष में टूटी है। इसकी शुरूआत तिंग्मांसू धूलिया निर्देशित ‘पान सिंह तोमर’ से होती है और बरास्ते युवा निर्देशक दिवाकर बनर्जी के ‘शंघाई’ की गलियों की भूलभूलैया में खोते-भटकते प्रकाश झा के ‘चक्रव्यूह’  में फंसते-निकलते हुए मनोरंजक अंदाज में विशाल भारद्वाज के मटरू के मनडोला गांव में बिजली गिराती है। ‘पान सिंह तोमर’ ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू की बिजली का मनडोला’ सभी फिल्में एक स्तर पर जमीन अधिग्रहण के खिलाफ है। हिंदुस्तान में जमीन का सवाल जाति के सवाल के बिना इकहरा और अधूरा है। जमीन बचाने की लड़ाई लड़ रही इन फिल्मों से छूटे जाति के अहम सवाल को उठाती है संजीव जायसवाल की ‘शूद्र’ जो बाबा साहब अंबेडकर को समर्पित है। कुछ वर्ष पहले तक इसकी कल्पना तक मुश्किल थी। दलित आंदोलन सिनेमा की अपेक्षा साहित्य में ज्यादा सघन है लेकिन यह जानकारी इन पंक्तियों के लेखक को नहीं है कि क्या हिंदी की कोई कृति बाबा साहब अंबेडकर को समर्पित है।
      
पिछलेसाल सबसे पहले लड़ाका धावक पान सिंह तोमर अपनी जमीन और जमीर बचाने के लिए बंदूक उठाता है और बीहड़ चला जाता है। जमीन पा लेने के बाद ‘सरेंडर’ कर आराम से जीवन जीने के विकल्प को वह चुन सकता था लेकिन उसे मालूम है ‘सरेंडर’ चाहे अपने से ताकतवर लोगों के सामने करें या सरकार के सामने जाता वह ‘जमीर’ ही खोना है जिसे प्रेमचंद ने ‘मरजाद’ कहा था। वहां उसकी जमीन कोई सांवैधानिक शक्ति या संस्था नहीं, समाज के ताकतवर लोग हड़प रहे हैं। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था वहां उस ताकतवर इंडिविजुअल के पक्ष में अपने चरित्र  के अनुसार ही खड़ी थी।

‘शांघाई’तक आते आते आजाद भारत की लोकतांत्रिक सरकार खुद जमीन हड़पने वाली पार्टी बन गई। पर चूंकि लोकतंत्र है जिसका अर्थ लोगों ने भेड़ के स्वेच्छा से भेड़ियों के हाथों शिकार होने को माना है सो पहले वह ‘विकास’ के लॉलीपॉप को दिखाकर छोटे कृषकों को खुद से जमीन देने के लिए तैयार करता है। किसानों की जमीन छीनने का यह सबसे पुराना नुस्खा है। पहले उसे कर्ज में फंसाओ, फिर विकास का झांसा दो इसमें आ जाए तो ठीक नहीं तो दूसरे तरीके तो हैं ही। भूमि अधिग्रहण की पहली फिल्म 1946 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने कृष्ण चंदर की कहानी पर ‘धरती के लाल’ नाम से बनाई थी। तब से लेकर ‘दो बीघा जमीन’, ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू के... मनडोला’ तक यह हो रहा है।

विकासका जो सपना ‘शांघाई’, ‘चक्रव्यूह’ और ‘मटरू...’ में राजनेता दिखाते हैं वह आजादी के तुरंत बाद विमल रॉय के ‘दो बीघा जमीन’ में जमींदार ठाकुर हरनाम सिंह के शंभु महतो को दिखाए गए सड़क-बिजली के सपने का ही परिष्कृत रूप है। पर शंभू महतो ने ‘जमीन तो किसान की मां होती है हुजूर, मां को कैसे बेच दूं’ कहकर साफ मना कर दिया था। उस वक्त जमींदार ने उसकी राजनीतिक हत्या नहीं कराई, लेकिन अपने ऋण दुश्चक्र में फंसा कर हड़प लिया। लेकिन अब वैसा नहीं है। अब तो कुछ लोग और कुछ आंदोलन यदि इसमें आड़े आते हैं तो राजनीतिक हत्याएं तक की-नकराई जाती हैं ( शांघाई)।

इसक्रम में ‘चक्रव्यूह’ में नक्सलवाद का खुला शंखनाद है तो ‘मटरू...’ में उसकी उथली लेकिन काफी हद तक मनोरंजक प्रतिछाया। ‘चक्रव्यूह’ नक्सलवाद पर बेस्ड नहीं है जैसा बताया या प्रचारित किया गया। वह नक्सलवाद के बैकड्राप पर दो दोस्तों की कहानी है जो बेकेट के तर्ज पर गढी गई है।

विशालभारद्वाज ‘मटरू...’ तक फार्म के एक खास उत्कर्ष को पा चुके हैं लेकिन उनका कंटेंट उनके फार्म के साथ तालमेल नहीं बिठा पाता। वैसे ही जैसे इमरान खान और अनुष्का शर्मा पंकज कपूर और शबाना आजमी के अभिनय के साथ कदलताल नहीं बिठा कर एक विछोभ प्रस्तुत करते हैं। उनका फार्म और उनका कंटेंट एक दूसरे को को-ऑपरेट नहीं कर, कंट्राडिक्ट करता है। सिनेमा मनोरंजन का माध्यम है। इसलिए गंभीर कंटेट को मनोरंजक बनाना फिल्मकार की मजबूरी है, लेकिन ऐसा वहीं तक किया जाना चाहिए जहां तक आपकी फिल्म का प्रीमाइस इजाजत देता हो। उसके आगे यदि आप बढ़े तो फिल्म में हास्य नहीं रहता, फिल्म हास्यास्पद हो जाती है खासकर तब जब आप चीजों को ‘जाने भी दो यारों’ की तरह ब्लैक कॉमेडी से अभिव्यक्त नहीं कर  रहे हैं। मटरू के साथ भी यही हुआ है। 


उमाशंकर पत्रकार भी हैं और कहानीकार भी. 
 आज-कल फिल्मों के लिए स्क्रिप्ट लिख रहे हैं.
 इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं

बलूचिस्तान का सवाल!

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विनय सुल्तान
-विनय सुल्तान

"...बलूचिस्तानका जिक्र होने पर जो तस्वीर दिमाग में उभरती है वो है लम्बी दाढ़ी. पगड़ी और हाथ में AK 47 लिए हुए मौलाना किस्म के ही की. ये तस्वीर हमें इस्लामिक क्रांति के पूर्वाग्रहों के सांचे में एकदमफिट होती नज़र आती है. लेकिन यहाँ मामला एकदम उल्टा है..."


रान, अफगानिस्तान, पंजाब, सिंध और अरब सागर मिल कर जो चौहद्दी बनाते हैं उन्ही के बीच हैबलूचिस्तान. ईरान केपठार का ये पूर्वी भाग पिछले छः दशक से एक अनचाहे युद्ध और रक्तपात की और जबरन ठेल दिया गया है. कलात,लसबेला,मकरान और खरान राज्यों वाला ये क्षेत्रपाकिस्तान के कुल क्षेत्रफल का 44फीसदी है. यहाँ कुल 18प्रमुख जनजातिया हैं और सांस्कृतिक रूप से यहाँ का समाज अभी भी कबीलाई है.

इतिहासकी खिड़की से देखने पर पता लगता है की अपनी उबड़-खाबड़ और बंजर जमीन की वजह से ये क्षेत्र मुग़ल,अफगान और ईरान साम्राज्य की महत्वकंक्षाओ के कभी जगह नहीं बना पाया. इस तरह यहाँ का समाज लम्बे समय से खुद को राजनीतिक रूप से स्वतंत्र या अर्ध-स्वतंत्र रख पाया. १८३९ में अंग्रेजो ने इस क्षेत्र पर पहली बार हमला किया और बलूचिस्तान एक “Princely State “ में तब्दील हो गया.

बलूचिस्तान : दूसरा कश्मीर

जबभारत और पाकिस्तान का बंटवारा हो रहा था तब देशी रियासतों के पास स्वतंत्र रहने का कोई विकल्प नहीं रखा गया था. कलात के तत्कालीन खान अहमद यार खान जिन्ना के “इस्लामिक लोकतान्त्रिक गणराज्य “ के प्रस्ताव को गले नहीं उतार पाए और उन्होंने आज़ादी को एक बेहतर विकल्प के रूप में चुना. इस पर उन्हें सैन्य कार्यवाही की धमकी दी गई. इस प्रकार कश्मीर की कहानी एक बार फिर से दोहराई गई.

15अप्रैल 1948  को बलूचिस्तान का पाकिस्तान में विलय हो गया. जिस तरह से कश्मीर के मामले में जनमत संग्रह का झांसा दिया गया था उसी तरह से “पूर्ण स्वायत्ता” और ब्रिटिश राज की राजनीतिक स्थिति को यथावत लागूकरने का झांसा अहमद यार खान को भी दिया गया था. बलूच जनता में विद्रोह के बीज विलय के साथ ही पड़ गए थे. जनता सड़को पर उतर गई और इस विलय का व्यापक विरोध हुआ. उसके बाद बलूचिस्तान में विद्रोह और दमन का जो दौर शुरू हुआ वो आज भी बदस्तूर जारी है.

बलूच राष्ट्रीयता: एक उलझी हुई गुत्थी

बलूचिस्तानका जिक्र होने पर जो तस्वीर दिमाग में उभरती है वो है लम्बी दाढ़ी. पगड़ी और हाथ में AK 47 लिए हुए मौलाना किस्म के विद्रोही की. ये तस्वीर हमें इस्लामिक क्रांति के पूर्वाग्रहों के सांचे में एकदम फिट होती नज़र आती है. लेकिन यहाँ मामला एकदम उल्टा है. जन “इस्लामिक गणराज्य पाकिस्तान बन रहा था तब बलूचिस्तान पर कब्ज़े के उसके तर्क लगभग वही थे जो आज के दौर की इस्लामिक क्रांति के हैं. बलूच राष्ट्रीयता का तर्क इसके खिलाफ खड़ा होता है.

ईरान,अफगानिस्तान और मुग़ल साम्राज्यों के बीच पले-बढे बलूचिस्तान ने ये सबक बचपन में ही सीख लिया था की मज़हब और सियासी आज़ादी एकदम अलहदा मसाले हैं. धर्म किसी भी मायने में राष्ट्रीयता को तय नहीं करता. बलूचिस्तान के राष्ट्रवादी नेता नवाब खैर बक्स मर्री एक इंटरव्यू में इसी बात को साफ़ करते हुए कहते हैं “हम अपने धार्मिक विश्वास की वजह से मुसलमान है. राष्ट्रीयता का इससे कोई लेना-देना नहीं है. मेरा श्रेत्र और मेरी जनजाति मेरे लिए पहली प्राथमिकता है.” 

पाकिस्तानबनने के बाद पंजाब का राजनैतिक वर्चस्व पुरे पाकिस्तान पर हावी रहा है. बलूचिस्तान अब तक मुख्यधारा की राजनीती में किसी भी प्रकार के महवपूर्ण प्रतिनिधित्व से वंचित रहा है. सबसे बड़ा सूबा होने के बावजूद यहाँ के लोगो मिल रही शिक्षा और स्वास्थ जैसी बुनियादी जन-सेवा देश में सबसे घटिया हैं. बलूचिस्तान का राष्ट्रिय आन्दोलन इन्ही असमानताओं पर टिका हुआ है. ये श्रेत्र लगातार सामाजिक और आर्थिक विकास के मामले में अछूत बना हुआ है. 2009में जब गिलानी सरकार ने “आगाज़-ए-हकूक-ए-बलूचिस्तान” नाम से विशेष पैकेज दिया तो यहाँ की अवाम ने उसे जकात कह कर ठुकरा दिया.

बलूचिस्तानप्राकृतिक संसाधनों के मामले में बहुत धनि श्रेत्र है. सोना,तम्बा,जिंक, खनिज तेल और गैस सहित यहाँ 127खनिज उपलब्ध हैं. इन संसाधनों के दोहन का कोई प्रत्यक्ष लाभ यहाँ की जनता को नहीं हो रहा है. बलूच लिबरेशन आर्मी के नेता बलूच खान अल-जजीरा को दिए इंटरव्यू में कहते है “ जितने प्राकृतिक संसाधन हमारी जमीन पर हैं वो आम बलूच की खुशहाल जिंदगी के लिए बहुत ज्यादा हैं. पर पंजाबी और दुसरे लोग इसका फायदा उठा रहे हैं.” 

इसकेअलावा मध्य-पूर्व से आने वाली आयल पाईप लाइन इसी क्षेत्र से हो कर गुजराती हैं. पश्चिमी एशिया और मध्य-पूर्व के व्यापार मार्गों का ये केंद्र है. ग्वादर बंदरगाह इस श्रेत्र को पाकिस्तानी अर्थव्यवथा के लिए महत्वपूर्ण बना देता है.दर-असल प्राकृतिक सम्पन्नता और महत्वपूर्ण भौगोलिक स्तिथि बलूचिस्तान के वर्तमान की सबसे बड़ी त्रासदी भी है. ये पाकिस्तान के बेरहम साम्राज्यवादी शिकंजे के जकडे जाने को एक आधार भी प्रदान करती हैं.

अंतर्राष्ट्रीय अखाडा

ईरान और अफगानिस्तान से सटे होने की वजह से बलूचिस्तान न सिर्फ पाकिस्तान बल्कि अमेरिका के लिए भी महत्वपूर्ण हो जाता है. बुश सर्कार के द्वारा शुरू हुई “ आतंक के खिलाफ जंग” अब अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर भारी पड रही है. ऐसे में पाकिस्तान को और अधिक अनुदान देना अमेरिका को ना-गंवारा गुजर रहा है. ऐसी स्थिति में आजाद बलूचिस्तान अमेरिका के लिए हर मायने में फायदे का सौदा साबित होगा. फ़रवरी 2012में हाउस ऑफ़ रिप्रजेंटेटिवमें बलूचिस्तान की आज़ादी का पुरजोर समर्थन करने का प्रस्ताव पारित कर अपने मंसूबे भी जाहिर कर दिए हैं. 

लम्बेसमय से पाकिस्तान भारत पर भी बलूच विद्रोहियों को आर्थिक और सामरिक मदद देने का आरोप लगता आया है.पर जैसा की इन दोनों मुल्को के साथ होता आया है एक आरोप लगता है और दूसरा सिरे से नकार देता है.पर भारत के बलूचिस्तान में हस्तक्षेप से साफ़ इंकार भी नहीं किया जा सकता.

इसकेअलावा चीन और यूरोपीय यूनियन की खास नज़र बलूचिस्तान पर बनी हुई है. असीम प्राकृतिक संसाधनों की वजह से ये श्रेत्र अंतर्राष्ट्रीय शिकारियों की नज़र में नर्म गोस्त की तरह उभरता है.हाल ही में बलूचिस्तान अंतर्राष्ट्रीय खनन माफियाओं के लिए खोला जा चूका है. ग्वादर बंदरगाह संसाधनों की लूट को आसान बनाने के लिए ही विकसित किया गया था. Antofagasta, बैरिक गोल्ड और  BHP Billitonजैसे गिद्ध अपनी उपस्थिति यहाँ दर्ज करवा चुके हैं.

बहरहालHuman Right Watch  की रिपोर्ट बलूचिस्तान की दर्दनाक कहानी बयां करती है. 2002से 2005 के बीच 4000 बलूचो को सेना द्वारा गिरफ्तार किया गया था जिनमे से सिर्फ 200  लोगो को ही कचहरी में पेश किया गया. जनवरी 2011से जुलाई 2011तक डेढ़ सौ लोगो की हत्या सेना द्वारा की गई. राजनैतिक और मानवअधिकार कार्यकर्ताओं की बड़े पैमाने पर हत्या हो रही है. पूरा बलूचिस्तान सेना और अर्धसैनिक बालो की शिकारगाह बना हुआ है. “kill and dump operations” अब तक कितने आम बलूच हलाक हो चुके हैं इसका सही हिसाब-किताब न तो सरकार के पास है और न ही किसी मानवाधिकार संगठन के पास है.

इसीबीच पिछली 13जनवरी को लोकतान्त्रिक तौर पर चुनी हुई सरकार को हटा कर बलूचिस्तान में फिर से राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया है. पिछले दो महीनो से बलूचिस्तान कर्फ्यू, दमन और हत्याओं का शिकार है. इन तमाम हालातों के बीच एक बेहतर कल का सपना मरने के बजाए और ज्यादा मजबूत हो रहा है. असहनीय वेदना और अत्याचार के खिलाफ लगातार जो विद्रोही स्वर गूंज रहा है, वो है “आज़ादी”....


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