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नफरत फैलाने वाली ताकतें तो दोनों मुल्कों में बैठी हैं: मदीहा गौहर

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लगभग 30 साल से पाकिस्तान में महिलाओं के लिए थियेटर के जरिए मदीहा गौहर काम कर रही हैं। वह लाहौर में ‘अजोका’ नाम का चर्चित थियेटर चलाती हैं। अदाकारा बनने के जुनून के चलते उनकी शादी तक टूट गई थी। लेकिनवे अपने मिशन में डटी रहीं। हाल ही में वे दिल्ली के राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बुलावे पर ‘कौन है ये गुस्ताख’ का मंचन करने के लिए दिल्ली आर्इं। लेकिन सीमा पर हुए तनाव के चलते एनएसडी ने उनका कार्यक्रम रद्द कर दिया। फिर भी दिल्ली के स्वतंत्र थियेटर प्रेमियों ने अपने प्रयासों से नाटक का मंचन करवाया। महिलाओं की दशा-दिशा और भारत-पाकिस्तान के सांस्कृतिक रिश्तों पर उनसे अरुण पांडेय ने बातचीत की। उसी बातचीत के कुछ हिस्से...


अक्षरा थियेटर में दर्शकों से मुखातिब महीदा

आप लंबे समय से अपने देश पाकिस्तान में नाट्य आंदोलन में सक्रिय हैं। क्या लगता है आपको रंगमंच जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों से दोनों देशों की तस्वीर बदल सकती है?
तस्वीर बदल भी सकती है और नई तस्वीर बनाई भी जा सकती है। सांस्कृतिक कार्यक्रम बहुत गहरी छाप छोड़ते हैं। इसके चाहने वाले दोनों ओर (भारत-पाकिस्तान) हैं। दोनों ओर के मुद्दे लगभग एक जैसे ही हैं। भारत के कई थियेटर हैंजिनको पाकिस्तान में बहुत पसंद किया जाता है। यही स्थिति भारत की भी है। हम यहां कई नाटक कर चुके हैं। हमारा हर बार बहुत ही गर्मजोशी से यहां स्वागत किया जाता है। ड्रामे के जरिए आप लोगों के जज्बातों से हम भी जुड़ जाते हैं। मैं मानती हूं कि सीमाओं पर चाहे जितना तनाव होलेकिन सांस्कृतिक आदान-प्रदान की पहल जारी रहनी चाहिए। क्योंकि दोनों तरफ की आवाम तो मोहब्बत ही करना चाहती है। 

कई सालों से देखने को मिल रहा है कि दोनों देशों के रिश्ते बीच-बीच में दरकने लगते हैं। इसके पीछे आवाम और सत्ता की क्या भूमिका समझती हैं?
जीबात बनते-बनते कई बार बिगड़ी हैजरूरत इस समस्या के तह तक जाने की है। सच्चाई यह है कि पाकिस्तान और भारत में दोनों ओर ही नफरत की आग पर रोटियां सेंकने वालों की कमी नहीं है। जहां तक आवाम की बात हैतो वह अमन पसंद है। लेकिन सत्ता के स्तर से भी अच्छे प्रयास हुए हैं और सफल भी हुए हैं। आज अगर हम भारत में आकर यहां की सरकार के ऐतराज के बाद भी अपना ड्रामा दिखा पाए हैंतो सिर्फ यहां की आवाम की वजह से। कुछ गलत लोगों की सियासी चालों के कारण हम एक-दूसरे के दुश्मन तो नहीं बन सकते। 

आप तो पिछले तीन दशकों से महिला अधिकारों के लिए संघर्ष करती आई हैं। अब वहां की तस्वीर कितनी बदलती दिख रही है?  
पाकिस्तान में हमारे जैसे कई संगठन हैंजो महिलाओं के हक के लिए जूझकर काम कर रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद वहां महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी नहीं कही जा सकती। जनरल जियाउल हक के शासन में महिलाओं का बहुत दमन किया गया। उस समय की बनाई गई अवधारणाएं अभी तक पूरी तरह से बदली नहीं हैं। इस दिशा में काम किया जा रहा है। फिर भी छोटे-छोटे प्रयासों को देखते हुए उम्मीद तो की ही जा सकती है कि आने वाले समय में तब के मुकाबले हालात और बेहतर होंगे। 

बेनजीरजैसी कई महिलाएं बड़े पद संभाल चुकी हैं और भी कई महिलाएं बड़ी जिम्मेदारियां संभाल रही हैं। फिर भी पाकिस्तान में महिलाओं की तस्वीर ठीक नहीं समझी जा रही है। वहां कट्टरवादी ताकतें तेजी से उभर रही हैं। महिलाओं के लिए यह स्थिति कितनी बड़ी अग्नि परीक्षा है?
हालात काफी मुश्किल भरे हैं। यह बात सही है। बेनजीर भुट्टो भी बहुत मुश्किल हालात में उस मुकाम तक पहुंच पाई थीं। हकीकत यह है कि महिलाओं के मामले में बुनियादी सोच के बदलाव की जरूरत है। जिसके लिए इस्लामिक कानून को दुरुस्त किया जाना चाहिए। इसके बिना कोई बड़ा बदलाव मुमकिन नहीं है। कट्टरवादी ताकतें इस्लामिक कानून की आड़ में देश पर हावी होने की कोशिश करती हैं। इसी के चलते महिलाओं पर तमाम पाबंदियां लाद दी जाती हैं। यह सब इस्लाम के नाम पर किया जाता है। सबसे खराब बात तो यही है।


हाल में तालिबानी जमातों का भी प्रभाव पाकिस्तान में बढ़ा है। आप जैसी खुले सोच वाली नाट्यकर्मियों के सामने इससे कितनी मुश्किलें आ रही हैं?
तालिबानी ताकतेंतर्क नहीं समझतीं। वे सिर्फ अपने आदेश थोपना चाहती हैं। ये कट्टरवादी अपने खिलाफ किसी तरह की आवाज नहीं सुनना चाहते। हम अपने ड्रामों के जरिए   इस समस्या को उठाते हैं। कई बार हमें बड़ी तीखी आलोचनाओं को सुनना पड़ता है। औरतों का थियेटर में काम करनावो लोग ठीक नहीं मानते। फिर भी हम लोग काम कर रहे हैं। परेशानी तो जरूर होती हैलेकिन सांस्कृतिक क्षेत्र से जुड़े लोग लगातार इन ताकतों के दबाव का सामना करे रहे हैं। हमारी कोशिश होती है कि हमारे साथ ज्यादा से ज्यादा आम आवाम जुड़ेताकि कट्टरवादी ताकतें ज्यादा कामयाब न हों। हमारी यह जद्दोजहद जारी है। हमें कामयाबी ही मिलती जा रही है।   


आपने पिछले वर्षों में पाकिस्तान के कई हिस्सों में लगातार नाटक किए। लेकिनबलूचिस्तान में नहीं जा पार्इं। आखिरबलूचिस्तान कट्टर जमातों का टापू’ कैसे बन गया?
पूरे पाकिस्तान में हमने थियेटर किए हैं। जहां तक बलूचिस्तान की बात हैतो वहां पर एक भी नाटक नहीं किया जा सका। क्योंकि वहां की जो हालत हैउसे देखते हुए वहां से किसी ने बुलाया भी नहीं। फिर भी हम अपने स्तर पर बलूचिस्तान में वर्कशॉप कराते रहते हैं। वहां पर अलकायदा का पूरा प्रभाव रहता है। कट्टर इस्लामी ताकतों के लिए बलूचिस्तान सबसे मुफीद जगह है। हमने वहां भगत सिंह’ पर एक प्ले’ कियाजिसके खिलाफ बहुत आवाजें उठीं। क्या बताएं! बहुत ही मुश्किल हालात हैंउस इलाके के। 


पिछले दिनों मलाला यूसुफजई की बहादुरी खास चर्चा में रही है। इस मासूम बच्ची को तालिबानी कट्टरपंथियों ने निशाना बनाया था। लेकिन बहादुर मलाला को वहां खूब सपोर्ट मिला। मलाला प्रकरण का पाकिस्तान के अंदर क्या संदेश गया है?
इस पूरे मामले के बाद तालिबान का एक और क्रूर चेहरा सामने आया है। वे ज्यादा आक्रामक होने की कोशिश में हैं। लेकिनइसके मुकाबले के लिए भी लोग हौसला दिखा रहे हैं। पाकिस्तानी आवाम में कट्टरपंथियों के खिलाफ एक मजबूत सोच बन रही है। लोगों को अब समझ में आने लगा है कि सिर्फ सहने से कुछ बदलने वाला नहीं है। कुछ करना जरूरी है। लोगों ने किया भीआज मलाला कट्टरपंथियों के खिलाफ पूरे देश में एक रोल मॉडल बन कर उभरी है। 

भारत में भी कई सामाजिक संगठन महिलाओं के पहनावे पर सवालिया निशान लगाते हैं। लेकिनउनकी बातों का यहां जमकर प्रतिरोध भी होता है। आपके यहां पर स्थिति क्या है?
भारत के मुकाबले वहां की स्थिति बिल्कुल ठीक नहीं है। भारत में सबसे अच्छी बात यह है कि यहां सिविल सोसायटी बहुत मजबूत है। ग्लोबलाईजेशन के दौर में भी पाकिस्तान में मॉडलिंग जैसे पेशे को अपनाने की आजादी नहीं है। पहनावे को लेकर विरोध करने वालों का पाकिस्तान में भी विरोध होता है। लेकिन बहुत छोटे पैमाने पर कई बार तो रस्मी तौर पर। इस मामले में ग्लैमर की दुनिया से जुड़े लोग ही कुछ बोल पाते हैं। लेकिनसोचने समझने वाला आम आदमी भी यहां खुलकर अपनी आवाज नहीं उठा पाता। क्योंकि सिस्टम भी उसको किसी तरह का संरक्षण नहीं देता। 

आप तो जनरल जियाउल हक के दौर से जुनूनी सांस्कृतिक आंदोलन चला रही हैं। तब से अब तक स्थिति में कितना बदलाव आया है?
अजोका’ उसी जमाने में शुरू हुआ था। हमारे थियेटर ने जनरल जियाउल हक की संकीर्ण विचारधारा के खिलाफ जमकर काम किया। हम इस जुनून में जुटे हैं। यही कह सकते हैं कि हालात कुछ बेहतर हैं। लेकिनअभी बहुत काम करना बाकी है। सच्चाई तो यह है कि महिलाओं को ही नहीं आम लोगों को भी आज भी पूरी आजादी नहीं है। अगर आप सिस्टम और कट्टरवादी ताकतों के खिलाफ आवाज उठाते हैंतो आपका कत्ल भी किया जा सकता है। ऐसे बहुत से मामले सामने आए हैं। मौजूदा हालात में जो कुछ भी हो पा रहा हैउसके लिए भी हमें खास रणनीति बनानी पड़ती है। नाटक का विषय ऐसा चुनना पड़ता है कि उसका सत्ता के स्तर पर ज्यादा विरोध न होफिर भी अलकायदा जैसी कट्टरपंथी ताकतों का विरोधतो आज भी सहन करना पड़ता है। आवाम का सपोर्ट ही हमारी सबसे बड़ी ताकत बनती जा रही है। हम मुश्किलों में काम जरूर करते हैंलेकिन ना-उम्मीद नहीं हैं। 

आपने तो एक बार यहां तक कहा था कि पाकिस्तान में महिलाओं के मुकाबले जानवरों की कहीं ज्यादा इज्जत होती है। आपके नजरिए में अब इस स्थिति में कोई बदलाव आया है?
मैंने बताया ना,  महिलाओं के मामले में बहुत बदलाव नहीं आया है। लोग जानवरों पर पैसे खर्च करते हैंलेकिन महिलाओं को आजादी और सम्मान देने में कंजूसी करते हैं। क्योंकि उनकी सोच नहीं बदली है। सोवे बराबरी का दर्जा नहीं देना चाहते।


दिल्ली में पिछले दिनों एक गैंगरेप की बहुत चर्चा रही है। गैंगरेप के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर पूरे देश में आवाज उठी। इसकी गूंज आपके देश पाकिस्तान भी जरूर पहुंची होगी। आपके यहां बड़े शहरों में महिलाओं के प्रति अपराधों की क्या स्थिति हैभारत में हुए विरोध-प्रदर्शनों से क्या पाकिस्तान में महिला संगठनों को उम्मीद की कोई किरण दिखाई पड़ी है?
देखिएमहिला अपराधों के मामले में भारत और पाकिस्तान दोनों में बहुत अंतर नहीं है। अंतर बस इतना है कि भारत में प्रत्यक्ष रूप से महिला अपराधों के खिलाफ महिलाओं के साथ-साथ पुरुष वर्ग भी सामने आता है। दिल्ली में हुए गैंगरेप के बाद जिस तरह से पूरे भारत में विरोध हुआउसकी चर्चा पाकिस्तान में खूब हुई। पूरे प्रकरण के बाद पाकिस्तान में भी लोगों के   बीच एक समझदारी बनी है। लोग कम से कम सोशल मीडिया के जरिए आवाज उठा रहे हैं। साथ ही छोटे पैमाने पर लोग सड़कों पर भी उतर रहे हैं। यह एक नया ट्रेंड देखने में जरूर आया है। 

साझा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिए एक-दूसरे के कितना करीब आया जा सकता हैक्या इस पहल से भारत-पाक के बीच की कटुता कुछ कम हो सकती हैआप क्या उम्मीद करती हैं?
अगरभारत और पाकिस्तान के लोग तमाम कटुताओं के बाद भी एक-दूसरे से जुड़े हैंतो वह सांस्कृतिक कार्यक्रमों की ही ताकत है। पाकिस्तान के संगीत की एक अलग पहचान हैइसके बावजूद वहां पर  भारतीय संगीत बहुत पसंद किया जाता है। भारत की फिल्मों के लिए पाकिस्तानियों में गजब का जुनून बना रहता है। हम यही कह सकते हैं कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान सही मायने में जारी रहेतो नफरत कराने वाली ताकतें एक दिन जरूर शिकस्त खा जाएंगी।

भारत में सांस्कृतिक कार्यक्रमों की जो स्थिति और स्तर हैउस पर आपकी क्या राय है?
यहां पर बहुत वेरायटी है। तरह-तरह के मुद्दे हैं। लोगों का सपोर्ट है। भारत में कला और कलाकारों की बहुत इज्जत है। सबसे बड़ी बात है कि यहां पर सरकारी स्तर पर भी बहुत सराहनीय कार्यक्रम होते हैं। यहां लोग खुद स्वेच्छा से थियेटर से जुड़ते हैं। लड़कियों को भी बहुत तवज्जो दी जाती है। सबसे अच्छी बात यह है कि कहीं भी इसका विरोध नहीं होता। 


अरुण पांडे फैजाबाद के हैं और दिल्ली में एक  दैनिक अखवार से जुड़े हैं।

 इनकी मेल आई डी 


महिला मुक्ति की मज़बूत 'रिपोर्ट' और उदासीन सरकार

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सत्येन्द्र रंजन

-सत्येंद्र रंजन

"...गौरतलब है कि वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट को सिर्फ कुछ कानूनी प्रावधानों में हेर-फेर तक सीमित नहीं रखा, बल्कि बलात्कार या महिलाओं की असुरक्षा के प्रश्न को सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य और पितृ-सत्तात्मक संस्कृति के व्यापक दायरे में रखकर देखा है। उसने महिलाओं पर हिंसा के सवाल को संविधान से मिले मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के संदर्भ में रखा है, जिससे ऐसी घटनाओं में सरकारों की जवाबदेही तय होती है।..."


http://www.thehindu.com/multimedia/dynamic/01339/TH24_VERMA_1339760g.jpgस्टिस जेएस वर्मा के बयानों पर गौर करें, तो सिर्फ इसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि यूपीए सरकार ने महिलाओं की सुरक्षा के उपायों पर सुझाव देने के लिए तीन सदस्यीय समिति का गठन उसी सोच के साथ किया, जिसके तहत जांच समितियां या आयोग बनाए जाते हैं। अनुभव यही है कि ऐसा तूफान को गुजार देने के मकसद से किया जाता है। जब तक रिपोर्ट आती है, मामला ठंडा पड़ गया होता है और सरकारें सुझावों एवं सिफारिशों समेत उन रपटों को ठंडे बस्ते में डाल देती हैं। दिसंबर में दिल्ली में तेइस वर्षीया फिजियोथेरेपिस्ट छात्रा के साथ सामूहिक बलात्कार की बर्बर घटना के बाद देश भर में सड़कों पर उमड़े आक्रोश से अगर सचमुच सत्ता-प्रतिष्ठान की आत्मा हिली होती, तो वह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व प्रधान न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में बनी समिति के प्रति वैसी बेरुखी नहीं दिखाती, जैसा सामने आया है। चार बातें ध्यान खींचती हैं। सरकार ने समिति को राजधानी के विज्ञान भवन में दो कमरे और एक कार देने के अलावा कोई और सुविधा उपलब्ध नहीं कराई। गृह मंत्री सुशील कुमार शिन्दे ने एक बार भी समिति से संपर्क या संवाद करने की जरूरत महसूस नहीं की। कांग्रेस प्रतिनिधिमंडल ने आधी रात को जस्टिस वर्मा के निवास पर जाकर जबरन तभी अपना सुझाव-पत्र संपने की जिद की, जिस पर बाद में सोनिया गांधी ने जस्टिस वर्मा को फोन कर अफसोस जताया। और आखिर में यह कि वर्मा कमेटी ने अपनी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंपने के लिए वक्त मांगा, जो उसे नहीं दिया गया। अंततः गृह मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव ने सरकार की तरफ से वह रिपोर्ट ग्रहण की।


अगरसरकार सचमुच उस जन आक्रोश की कद्र करती, जिसके कारण इस समिति का गठन हुआ, तो उसके साथ ऐसी उपेक्षा कतई नहीं बरतती। सरकार को संभवतः यही उम्मीद रही होगी कि दूसरी कमेटियों की तरह यह समिति भी समय-दर-समय मांगती जाएगी और आखिर में निकल कर कुछ भी ठोस सामने नहीं आएगा। लेकिन समिति ने इस उम्मीद पर पानी फेर दिया। उसने तय समयसीमा से एक दिन पहले ही एक ऐसी रिपोर्ट सौंप दी, जो महिला अधिकार विमर्श को एक सर्वथा नई मंजिल पर ले गई है। इसके बावजूद वर्मा समिति की सिफारिशों पर अमल आसान नहीं है। दरअसल, समिति के प्रति उपेक्षा का रुख सरकार के सर्वोच्च स्तर से लेकर गृह मंत्रालय और पुलिस प्रशासन तक पर हावी रहा। इसलिए इस आशंका का मजबूत आधार है कि इन सिफारिशों को समिति-दर-समिति में उलझाने और उसके जरिए समय गुजारने की पूरी कोशिश होगी। हमें इस संभावना के प्रति जागरूक रहने की जरूरत है कि इस रिपोर्ट पर अमल ना होने देने के लिए सरकार, राजनीतिक समुदाय के ज्यादातर हिस्सों और अनेक संगठित सामाजिक वर्गों की गोलबंदी हो सकती है। यह खबर पहले ही एक वित्तीय अखबार में छप चुकी है कि कार्यस्थलों पर यौन उत्पीड़न रोकने के लिए समिति के सुझावों को लेकर कॉरपोरेट जगत में गहरा विरोध है। कॉरपोरेट अधिकारी यह नहीं चाहते कि यौन उत्पीड़न की शिकायतों की जांच उनके अंदरूनी दायरे से निकलकर किसी बाहरी निष्पक्ष संस्था के हाथ में जाए और आरोप लगाने वाली महिला के साथ आरोपी के मेलमिलाप (समझौता) कराने के प्रावधान को खत्म कर दिया जाए।     

गौरतलबहै कि वर्मा समिति ने अपनी रिपोर्ट को सिर्फ कुछ कानूनी प्रावधानों में हेर-फेर तक सीमित नहीं रखा, बल्कि बलात्कार या महिलाओं की असुरक्षा के प्रश्न को सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य और पितृ-सत्तात्मक संस्कृति के व्यापक दायरे में रखकर देखा है। उसने महिलाओं पर हिंसा के सवाल को संविधान से मिले मूलभूत अधिकारों के उल्लंघन के संदर्भ में रखा है, जिससे ऐसी घटनाओं में सरकारों की जवाबदेही तय होती है। महिला अधिकार आंदोलन जिन मुद्दों को लेकर दशकों से संघर्ष करता रहा, उनमें से अनेक को अपनी रिपोर्ट में शामिल कर वर्मा समिति ने उन्हें आधिकारिक स्वरूप प्रदान किया है। मसलन, उसने बलात्कार की परिभाषा फिर से तय करने, सक्रिय प्रतिरोध ना होने का मतलब यौन संबंध के लिए सहमति समझने की मान्यता खत्म करने और विवाह संबंध के भीतर के बलात्कार को अपराध बनाने की सिफारिश की है। समिति ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि वैवाहिक या किसी अन्य रिश्ते को यौन संबंध के लिए महिला की सहमति का सबूत नहीं माना जा सकता। इसलिए अगर महिला यह इल्जाम लगाती है कि संबंध की आड़ में वह यौन हिंसा का शिकार है, तो यह कानून के तहत जुर्म होना चाहिए।

यहतथ्य है कि बलात्कार की अधिकतर घटनाएं ग्रामीण इलाकों में होती हैं, जहां दलित एवं अन्य कमजोर वर्गों की महिलाएं ताकतवर लोगों का शिकार होती हैं। दिहाड़ी और विस्थापित मजदूर स्त्रियां के लिए लगातार खतरा बना रहता है। अशांत क्षेत्रों में सुरक्षा बलों के हाथों बलात्कार की खबर अक्सर आती है। दिल्ली बलात्कार कांड के बाद ये तमाम मुद्दे उठे। इसलिए यह प्रशंसनीय है कि वर्मा समिति ने इन सब पर गौर किया। चूंकि उसने बलात्कार या यौन हिंसा को संवैधानिक अधिकारों के दायरे में रखा, अतः अगर उसकी सिफारिशों को स्वीकार किया जाए, तो पीड़ित महिलाओं को सुरक्षा देना स्वतः सरकार की जिम्मेदारी बन जाती है। समिति ने बेलाग कहा है कि संसाधनों की कमी का बहाना बनाकर राज्य मौलिक अधिकारों की अनदेखी नहीं कर सकता। इसी तरह समिति ने बलात्कार के आरोपी सुरक्षाकर्मियों पर से सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून की ढाल हटाने का सुझाव देकर उपेक्षित क्षेत्रों की उत्पीड़ित महिलाओं की तरफ से लंबे समय से उठती मांग को आवाज दी है। दरअसल, समिति ने महिलाओं की सुरक्षा के विमर्श को पुलिस एवं चुनाव सुधारों की बहस तक ले जाकर इस चर्चा को समग्रता दी है। मुमकिन है कि इसके बावजूद समिति की रिपोर्ट से महिला आंदोलन की कुछ अपेक्षाएं पूरी नहीं हुई हों। मसलन, कुछ कार्यकर्ताओं ने ध्यान दिलाया है कि बलात्कार पीड़ितों के पुनर्वास और मुआवजे के मुद्दे पर समिति ने ध्यान नहीं दिया।

इसकेबावजूद इस तथ्य को लगभग आम-सहमति से स्वीकार किया गया है कि भारत में पहली बार यौन हिंसा के मुद्दे को “इज्जत” और “यौन शुचिता” की स्त्री विरोधी सोच से निकाल कर इसे आधुनिक, समतावादी और संवैधानिक संदर्भों में देखा गया है। इस तरह वर्मा समिति की रिपोर्ट दिल्ली बलात्कार कांड के बाद हुए प्रतिरोध के दौरान व्यक्त किए गए प्रगतिशील एवं मानवीय मूल्यों का मूर्त रूप बनी है। समिति “फांसी दो”, “बाल अपराधी तय करने की उम्र घटाओ”- जैसी प्रतिगामी मांगों से प्रभावित नहीं हुई। बलात्कार पीड़ित को “जीवित लाश” मानने जैसी स्त्री-विरोधी सोच को उसने अस्वीकार किया। प्रशासनिक कदमों, विधायी पहल, सामाजिक प्रयासों एवं सांस्कृतिक परिवर्तन की जरूरत को उसने स्पष्टता के साथ स्वर दिया। इन रूपों में यह रिपोर्ट हाल के उस आंदोलन की उपलब्धियां हैं, जिसका बखान राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और तमाम राजनीतिक नेताओं ने किया है। लेकिन उनसे ऊंचे शब्दावंडबरों की नहीं, बल्कि आगे बढ़़कर कदम उठाने की अपेक्षा है। दुर्भाग्य से इस बिंदु पर उम्मीद उनसे नहीं, बल्कि उन जन समुदायों- खासकर नौजवानों से है- जिनके प्रतिरोध ने महिलाओं के सवाल को राष्ट्रीय चिंता का प्रमुख मुद्दा बनाया है। अगर वे जाग्रत रहे, तो विचारों में हुई जीत व्यवहार में भी उतर सकेगी।


सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

नंदी साहब! अन्याय की जमीन पर नैतिकता की फसल नहीं उगती

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-रजनीश

"...भ्रष्टाचारको "उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे" की तर्ज़ पर देखने वाले इन लापरवाह  समाजशास्त्रियों में इतनी भी  क्षमता नहीं कि यह देख सकें कि इस लोकतंत्र के सभी खम्भों में अपने वाजिब हक से महरूम दलित, पिछडे और आदिवासियों के भ्रष्टाचार का "लेवल" कितना बड़ा होगा।..."


आशीष नंदी
शीष नंदी के भ्रष्ट "विकार" प्रदर्शन ने यह साबित किया है कि  इस देश का समाजशास्त्र सिर के बल खड़ा है और यहाँ का समाजशास्त्री बेईमान  होने के साथ-साथ धूर्त भी है। इनकी धूर्तता का आलम यह है कि ये अपनी बौद्धिक बेईमानी को "विमर्श" की चाशनी में लपेटकर परोसते हैं और ओट अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का लेते हैं। इनके लिए वर्षों से सत्ता प्रतिष्ठान के निर्णायक पदों से दलित, पिछड़े और आदिवासियों की, जो समाज की बहुसंख्यक आबादी हैं,  गैरमौजूदगी दिक्कततलब बात नहीं, लेकिन उनका भ्रष्टाचार "रेखांकित" करने लायक मुद्दा है। इनकी "मुस्कराहटों" पर कोई फर्क नहीं पड़ता,  जब इसी गणतंत्र में लोकतान्त्रिक रूप से निर्वाचित मुख्यमंत्री "भंगन" और "ललुआ" कहलाता है, लेकिन यही "भंगन" और "ललुआ" जब एक "फेनोमिना" बन जाता है तो  इनकी पेशानी पर तुरंत  पसीना  आ जाता है।

यहीनहीं, इनका बौद्धिक "जमीर" उस वक़्त भी नहीं जागता जब दलित युवकों को "उच्च" जाति  की युवतियों से प्यार करने के "जुर्म" में निर्दयता के साथ काट डाला जाता है और दलित, पिछडे और आदिवासी वर्ग  की महिलाओं को "डायन" बताकर सरेआम नंगा घुमाया जाता है। इनकी कलम तो तब भी नहीं चलती जब गीतिका और भंवरी जैसी महिलाओं को "अति महत्वाकांक्षी" करार देकर  गोपाल कांडाओं और महिपाल  मदेरणाओं को सम्मानित "समाज-सेवक" मान लिया जाता है।  

भ्रष्टाचारको "उसकी कमीज मेरी कमीज से सफ़ेद कैसे" की तर्ज़ पर देखने वाले इन लापरवाह  समाजशास्त्रियों में इतनी भी  क्षमता नहीं कि यह देख सकें कि इस लोकतंत्र के सभी खम्भों में अपने वाजिब हक से महरूम दलित, पिछडे और आदिवासियों के भ्रष्टाचार का "लेवल" कितना बड़ा होगा। अपने तर्कों में लालू, मुलायम, मायावती, ए राजा और मधु कोड़ा का नाम रटने वाले ये  "मेरिटवादी" समाजशास्त्री अगर ईमानदारी बरत सकते, तो जरूर बता देते कि सामाजिक व्यवस्था पर काबिज प्रभु वर्ग ने दलित-पिछड़ा "उभार" को कुंद करने के लिए कैसे अपने आजमाए हुए "ट्रिक" (याद करें बौद्ध धर्म का हश्र ) के साथ पहले  "हितैषी" का नकाब ओढ़कर सत्ता की "मलाई" चाटी  और फिर पैरों के नीचे "गड्ढे" खोद दिए। इस "हकीकत" को कुतर्क ठहराने से पहले यह याद रखने की जरूरत है कि अन्याय की ज़मीन पर नैतिकता की फसल नहीं उगा करती।

खैर
, "आयोडीन की कमी" की तर्ज़ पर तार्किकता की कमी के शिकार इन "साइंटिस्टों" से यह अपेक्षा तो नहीं ही की जा सकती कि वे इस बात की विवेचना करें कि हिन्दुस्तानी कॉरपोरेट जगत के किस "घराने" ने कितनी "मात्रा" में किसको अपना "नमक" खिलाकर अपना "एम्पायर"  बढाया और वंचित जमात, खासकर आदिवासियों, को जड़ से उखड़ने को मजबूर किया है।  इन "बुद्धिजीवियों" को मालूम है कि खेल के साथ  "खेल" (कामनवेल्थ गेम्स घोटाला ) करनेवाले से लेकर कोयले से अपना हाथ "काला" करनेवाले "उद्यमियों" पर बोलने से ऊँची "उड़ान" भरता उनका "करियर" एक ही झटके में "जमींदोज" हो जायेगा। और तो और,  "ईमानदारी" को  "प्रोत्साहित" करने के लिए ऐसे "उद्यमियों" द्वारा बांटे जानेवाले कुछ "अवार्ड" तो इन    "बुद्धिजीवियों" के "स्टेटस" में चार चाँद ही लगाते  हैं।   

लेकिनदोस्तों, "लेवल प्लेयिंग फील्ड" से मुकरकर गणतंत्र का "घी" (वो भी कम्बल ओढ़कर) पीना अब कतई संभव नहीं। 

रजनीशअंग्रेजी पत्रिका "यूटी वॉयस" के संपादक हैं।
इनसे संपर्क का पता rajps25@gmail.comहै।

विश्वरूपम बवालिया नहीं सवालिया फ़िल्म है!

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-दिलीप खान

Dilip Khan
दिलीप ख़ान

"...हासन सा’ब उमर से सवाल पूछते हैं कि उसने हिंदी कहां सीखी, तो जवाब मिलता है- अयोध्या, मुंबई, कश्मीर और मालेगांव के दौरे से। फ़िल्म को विशुद्ध मनोरंजन मानने वाले लोगों को ऐसे डॉयलॉग से कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन जब फ़िल्मों में किसी वास्तविक जगह और घटनाओं का ज़िक्र होता है तो उसे पेश करने में राजनीतिक ईमानदारी बरतनी चाहिए। उमर के जवाब से ये ध्वनित होता है कि इन जगहों पर अल-क़ायदा ने आतंकी वारदातों को अंजाम दिया और उसी मिशन को पूरा करने के लिए वो गलियों की खाक छानते रहे और हिंदी सीख ली। यानी अयोध्या में जब-कभी (याद है न कब?) जो-कुछ हुआ उसके लिए अल-क़ायदा और मुस्लिम ज़िम्मेदार है और मालेगांव में भी।..." 

विश्वरुपम फ़िल्म का एक दृश्य
तंकवाद के मसले पर जिस ट्रीटमेंट के साथ देश में फ़िल्में बनती रही हैं, विश्वरूपम उससे अलग नहीं है। हमें एक अदद अभिनेता की दरकार होती है जो पहले,  दूसरे रूप धरकर अपनी मासूमियत से लोगों को मोहे और फिर अचानक फुर्तीले, गठीले और बहादुर बनते हुए हमें अपनी ग़लती का एहसास करवाए और उस पर हमसे हॉल ही में ताली बजवाए। किसी देश के इंटेलिजेंस अधिकारी के किरदार को फ़िल्मों ने ज़्यादातर इसी रूप में हमारे सामने पेश किया है। ऐसी फ़िल्मों को देखते हुए दर्शकों की जो कुल भावना विकसित होती है उसकी दिशा अभिनेता के मायावी होने की ओर केंद्रित रहती है। राजनीतिक विषयों पर ध्यान नहीं जाता। मार-धाड़-एक्शन से भरपूर थ्रिलर फ़िल्मों में तो दर्शक चकित-चौकन्ने होकर अभिनेता के करतब देखता है। मसलन उनका अभिनेता कठिनतम क्षणों में भी हार नहीं मानेगा। वो 50-60 लोगों को कभी भी चित्त कर सकता है और ख़ासकर अगर फ़िल्मों में दक्षिण भारतीय टच ज़रा-सी भी रह जाए तो हीरो का फ़ौलाद में तब्दील होना लाजिमी है। 

बॉलीवुडमें ये गौरव सन्नी देओल और उनके पिताश्री धर्मेंद्र सहित बहुत कम लोगों को हासिल है। कमल हासन इस फ़िल्म के भीतर रॉ के अधिकारी हैं और हिंदी के अलावा मूल रूप से फ़िल्म तमिल में बनाई गई है तो ऊपर के सारे गुणों को अपने भीतर समेटे पर्दे पर वो नमूदार होते हैं। स्त्रैण व्यवहार के साथ कृष्ण और गोपी वाले गाने में नाचते हुए वो जब पहली बार फ़िल्म में दिखते हैं तो तालियां बजती हैं। डॉ निरुपमा (पूजा कुमार) का ऑफ़िस में अफ़ेयर है और उसको शक रहता है कि उनके पति विश्वनाथ (कमल हासन) की ज़िंदगी भी बिना किसी अफ़ेयर के नहीं चलती होगी, चाहे वो औरत के साथ हो या फिर किसी मर्द के साथ।

तो,सबकुछ पारिवारिक नोंक-झोंक व शक-सुबहा के इर्द-गिर्द चलता रहता है और इसी क्रम में पत्नी एक प्राइवेट जासूस, कमल हासन के पीछे लगा देती है। होता कुछ ख़ास नहीं है बुद्धू से दिखने वाले विश्वनाथ को पता चल जाता है कि पत्नी ने उसके पीछे जासूस छोड़ रखा है जो खोजी कुत्ते की तरह उसके पीछे चिपका हुआ है। शेखर कपूर की सलाह पर कमल हासन उससे पीछा छुड़ाने के लिए तेज दौड़ लगाता है और एक दीवार की ओट से चकमा देकर उसी दिशा में वापस भाग लेता है। अब एक नौसिखिए की तरह वो जासूस सामने की इमारत में ताक-झांक करता है और फिर जो कुछ होता है, फ़िल्म की असल शुरुआत भी वहीं से होती है। इमारत से निकलने वाला आदमी जासूस के सर पर ज़ोर से लोहे का सरिया दे मारता है और बाद में पड़े कुछ और चोटों से उसकी मौत हो जाती है। असल में वो इमारत उमर (राहुल बोस) की प्रयोगशालानुमा जगह है, जहां आतंकी गतिविधियों को उनके शागिर्द अंजाम देने का हुनर सीखते हैं। 

अबयहां से घटनाओं की कड़ियां जुड़ती चली जाती हैं। जासूस की डायरी से क्लाइंट का नाम पता हासिल करने के बाद अंतत: पत्नी के बॉस-कम-प्रेमी दीपक के रास्ते, विश्वनाथ  और डॉ निरुपमा आतंकियों के कब्जे में आते हैं। और यहीं पर निरुपमा के साथ-साथ दर्शकों को पहली बार पता चलता है कि कमल हासन असल में है कुछ और ही बला। वो सिर्फ़ घुंगरू बांध के नाचता नहीं है, बल्कि दर्ज़नों लोगों को अकेले मारकर बिल्कुल हीरो की माफिक पिछले दरवाज़े से पत्नी के साथ भाग लेता है। उमर (राहुल बोस) कमल हासन को पहचानता है और यही पहचान दिखाने के लिए फ़िल्म फ्लैशबैक में चली जाती है। फिर अमेरिका से निकलकर फ़िल्म सीधे अफ़गानिस्तान में आ गिरती है। फ़िल्म में भारत कहीं नहीं है, है तो सिर्फ़ अमेरिका और अफ़गानिस्तान। हालाँकि, ज़िक्र में भारत भी है, पाकिस्तान भी, नाइजीरिया भी और कुछ और देश भी। भारतीय ज़मीन पर तो विश्वरूपम-2 उतरेगी जिसकी मुनादी फ़िल्म के बिल्कुल आखिर में की जाती है। ख़त्म होने के बाद। तो, रहस्योद्घाटन ये होता है कि कमल हासन और उमर (राहुल बोस) ने अल-क़ायदा में साथ-साथ काम किया है।  

कश्मीरके मुजाहिद के तौर पर कमल हासन का नया परिचय हमें मालूम होता है और नया नाम भी- विसाव अहमद कश्मीरी। ये भी पता चलता है कि उसके पिताजी उससे भी बड़े मुजाहिद थे। विसाव अहमद कश्मीरी (हासन) के नाम पर 5 लाख रुपए (शायद रुपए ही) का ईनाम भारत सरकार ने घोषित कर रखा है ये पोस्टर पूरी फ़िल्म में दो-तीन बार स्क्रीन पर चमकता है। और कहानी यही कहती है कि ईनामी आतंकवादी होने की वजह से भारत छोड़कर वो अंतरराष्ट्रीय आतंकवादी नेटवर्क के साथ जुड़कर कुछ अलग करना चाहता है। राहुल बोस अल-क़ायदा से जुड़ा है। हासन उसके पास पहुंचता है और पहली मुलाक़ात में ही ये साबित करता है कि वो न सिर्फ़ शानदार लड़ाका है, बल्कि लोगों को जानने-पहचानने का भी उसमें बेहद बारीक हुनर है। अल-क़ायदा के लड़ाकों को प्रशिक्षित करने के क्रम में ही वो, उमर यानी राहुल बोस के काफ़ी करीब हो जाता है। वो उमर से अमेरिकी बंधकों का ठिकाना जानना चाहता है, अल-क़ायदा के लड़ने के तरीके जानना चाहता है और ये भी जानना चाहता है कि अफ़गानी उमर को हिंदी बोलना कैसे आता है? इस दौरान छोटी-छोटी घटनाओं के आइने से ये दिखाया गया कि हासन के भीतर बर्बरता का एलिमेंट मुजाहिद बनने के हिसाब से कम है।

अल-क़ायदा के मुजाहिद उमर की भूमिका में राहुल बोस
बहरहाल,मैं यहां पूरी कहानी लिखने की बजाय फ़िल्म से निकल रहे संदेश पर बात करना पसंद करूंगा। फ़्लैशबैक के तीन-चार इस्तेमाल से अलग-अलग सेगमेंट में बंटी विश्वरूपम में दर्शकों के सामने खुलासा होता है कि कमल हासन न तो सामान्य गृहस्थ है और न ही आतंकवादियों के गुट का कोई लड़ाका, बल्कि वो भारतीय खुफ़िया एजेंसी का कोई अधिकारी है। एक जांबाज अधिकारी! और अल-क़ायदा के भीतर सेंधमारी कर वो उसे भीतर से नष्ट करने की तैयारी में था। उसी क्रम में जब हासन सा’ब उमर से सवाल पूछते हैं कि उसने हिंदी कहां सीखी, तो जवाब मिलता है- अयोध्या, मुंबई, कश्मीर और मालेगांव के दौरे से। फ़िल्म को विशुद्ध मनोरंजन मानने वाले लोगों को ऐसे डॉयलॉग से कोई आपत्ति नहीं होगी, लेकिन जब फ़िल्मों में किसी वास्तविक जगह और घटनाओं का ज़िक्र होता है तो उसे पेश करने में राजनीतिक ईमानदारी बरतनी चाहिए। उमर के जवाब से ये ध्वनित होता है कि इन जगहों पर अल-क़ायदा ने आतंकी वारदातों को अंजाम दिया और उसी मिशन को पूरा करने के लिए वो गलियों की खाक छानते रहे और हिंदी सीख ली। यानी अयोध्या में जब-कभी (याद है न कब?) जो-कुछ हुआ उसके लिए अल-क़ायदा और मुस्लिम ज़िम्मेदार है और मालेगांव में भी। विश्वरूपम के रिलीज होने से महीनों पहले कोर्ट का (जिस पर लोग यक़ीन करते हैं) फ़ैसला आ गया कि मालेगांव धमाके में पकड़े गए 9 मुस्लिम निर्दोष हैं। साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर एंड कंपनी ने उस धमाके में संलिप्तता पर अपनी सहमति जाहिर की है। फ़िल्म में कई जगह ऐसी चालाकियां बरती गई हैं।

फ़िल्म साल 2011 आस-पास चलती है, जब बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति हैं और अफ़गानिस्तान पर हमले को जायज ठहराने वाला सबसे बड़ा प्रमाणपत्र ओसामा-बिन-लादेन मारा जाता है। फ़िल्म के शुरुआती कुछ दृश्यों में ओबामा को टीवी पर भाषण देते दिखाया जाता है और विश्वरूपम इसी से काल को भी स्थापित करता है। फ़िल्म के भीतर ये दिखाया गया है कि दुनिया भर के मुस्लिम आतंकवादी एक-दूसरे से गहरे नेटवर्क के साथ जुड़े हैं और अफ़गानिस्तान में लगभग हर घर में बम-बारूद-बंदूक का जखीरा है और लोग धर्म के नाम पर ही मर-मिटने को तैयार हैं। वे बंदूक चलाते हैं धर्म के नाम पर, हत्या करते हैं धर्म के नाम पर और धर्म के नाम पर खुद को उड़ा लेना चाहते हैं। सबकुछ धर्म तय कर रहा है। 9/11 कब का बीत चुका है और लादेन को ढूंढने के लिए अमेरिका और नाटो ने अफ़गानिस्तान को गर्द में तब्दील कर दिया है। लेकिन नहीं, वे सिर्फ़ लादेन को ही नहीं ढूंढ रहे हैं बल्कि अपने बंधक सैनिकों को बचाने के लिए वो बम फोड़ते हैं। नाटो की ज़्यादातर कोशिश ‘निर्दोषों’ को गुफा से बाहर निकालकर दुनिया की रोशनी दिखाने की है। और, भारत उसका सक्रिय सहयोगी है। अफ़गानिस्तान का मिशन, नाटो ने भारतीय मदद से जारी रखा है। 

फ़िल्मये भी दिखाती है कि अफ़गानिस्तान में अभी नाटो के रहने की कितनी ज़रूरत है! [अब ये तथ्य दिमाग में मत लाइए कि 2014 तक सैन्य वापसी की बात अमेरिका सहित नाटो कर रहे हैं क्योंकि फ़िल्म ने शुरुआत में ही घोषणा कर दी है कि वो काल्पनिकता की डोर थामे है। ये भी दिमाग़ में मत लाइए कि हॉलीवुड की कई फ़िल्में सिर्फ़ अमेरिकी साम्राज्यवाद को लोकप्रिय संस्कृति के जरिए वैधता देने के लिए बनाई गईं।] फ़िल्म की माने तो ये वापसी वैश्विक शांति के लिए ग़लत साबित होगी। संक्षेप में कहें तो विश्वरूपम ‘वॉर ऑन टेरर’ की अमेरिकी मुहिम को जायज ठहराने के लिए मनोरंजक तरीके से जनमत निर्माण करती है। 

राहुलबोस एक अच्छे अभिनेता हैं इस स्थापना को इस फ़िल्म के मार्फ़त कुछ और अंक हासिल कर उन्होंने मज़बूत किया है। डॉ. निरुपमा की भूमिका में पूजा कुमार को देखकर बरबस चक्रव्यूह फ़िल्म की रिया मेनन (एशा गुप्ता) याद आएगी जिन्हें पता ही नहीं कि भोलेपन को भी किस भोलेपन के साथ निभाना होता है। शेखर कपूर और कमल हासन बड़े नाम हैं और एक्टिंग के जरिए उन्होंने निराश भी नहीं किया। फ़िल्म में ख़र्चा हुआ है इससे इनकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि बुढ़ाते कमल हासन को स्टंट कराते दिखाने में ही काफ़ी मेहनत और धन जेब से निकल गया होगा। एडिटिंग बहुत अच्छी नहीं है, दो-तीन जगह तो जर्क साफ़-साफ़ पता चल रहा था और हिंदी का जो प्रिंट हमने देखा वो शायद बिना कट के रिलीज हुई फ़िल्म थी, तो वास्तविक एडिटिंग में ही कोई गड़बड़ी है। 

ये फ़िल्म मिक्स फ्रूट चाट है। इसमें 'दबंग' भी है, 'ए वेडनसडे' भी, 'रोजा' भी और 'द हीरो' भी। रिलीज होने पर बवाल उन लोगों ने काटा होगा जिन्हें इससे पहले की फ़िल्मों के बारे में कोई जानकारी नहीं रही होगी। जो भारतीय फ़िल्म परंपरा से परिचित हैं वो काहे को बवाल काटे भई! नमाज अता कर बम फोड़ना है, फोड़ो। फ़िल्म देखने आप जाएंगे तो पाएंगे कि रॉ के अधिकारी विश्वनाथ (कमल हासन) इतने जांबाज हैं कि समूची एफ़बीआई को अकेले हैंडल करते हैं, अपने इशारों पर नचाते हैं और पूरी फ़िल्म में हैरान-परेशान रहने वाली अपनी पीएचडी पत्नी के साथ मिलकर अमेरिका को नाभिकीय बम (सिसमिक बम) के प्रकोप से बचा डालते हैं। जाहिर है इतने बहादुर प्रोटैगोनिस्ट अगर निर्माता-निर्देशक और कहानीकार की जेब में हो तो फ़िल्म का सीक्वल ज़रूरी है। तो, अमेरिका को बचाने की अपार सफ़लता के बाद अगली फ़िल्म में विश्वरूपम साहब भारत में होंगे और भारत को बचाएंगे। इंतज़ार कीजिए विश्वरूपम-2 का दबंग-2, रेस-2, जिस्म-3 के माफ़िक। 


दिलीपपत्रकार हैं. अभी राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता dilipkmedia@gmail.com है.

ज़ुबान पर पहरे का निज़ाम

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

 "...सरकारों और न्यायपालिका के रुख के नतीजा यह होगा कि आशीष नंदी (या कोई बुद्धिजीवी) अब गंभीर और जटिल विषयों पर चर्चा के दौरान भी नाप-तौल कर बोलेंगे। कमल हासन (या कोई फिल्मकार) आगे अपनी किसी फिल्म में कोई सीन या संवाद डालने के पहले सौ बार सोचेंगे। इसका संदेश हर कला और अभिव्यक्ति के माध्यम से जुड़े लोगों तक जाएगा। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल जरूर उठेगा कि क्या यही वो उदार या लोकतांत्रिक भारत है, जिस पर हम गर्व करते हैं? क्या सचमुच यह वही समाज है, जिसके निर्माण की कल्पना भारतीय संविधान में की गई है?..."

 
न्याय एवं समता के सिद्धांतों आधारित विवेकपूर्ण समाज के निर्माण का लक्ष्य तय करने वाले किसी संविधान में नागरिकों के मूल अधिकारों के वर्णन की आवश्यकता इसीलिए होती है, क्योंकि इन अधिकारों को ताकतवर तथा दबंग समूहों एवं विवेकहीन शक्तियों से खतरा लगातार बना रहता है। ऐसे संविधान के तहत निर्मित राज्य-व्यवस्था का यह दायित्व होता है कि वह सामाजिक स्वार्थों तथा ऐतिहासिक पूर्वाग्रहों से संचालित ताकतों से खतरा आने की स्थिति में व्यक्ति के अधिकारों की रक्षा करे। राज्य-व्यवस्था के अंग अगर इस जिम्मेदारी से मुंह मोड़ने लगें, तो उस स्थिति को न सिर्फ नागिरक स्वतंत्रताओं, बल्कि पूरी संवैधानिक व्यवस्था के लिए भी खतरे की घंटी मानना चाहिए। दुर्भाग्य से भारत में यह खतरा बढ़ता ही जा रहा है।
 
सवालयह है कि अगर संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भारत के नागरिकों का मूल अधिकार है,तो इसके संरक्षण का दायित्व किसका है? स्पष्ट है कि सरकारें लंबे समय से यह जिम्मेदारी नहीं निभा रही हैं। इस बात की मिसाल वैसे तो अनगिनत हैं, लेकिन अगर हम एमएफ हुसेन के मामले पर ही गौर कर लें, तो साफ हो जाता है कि कैसे कुछ कट्टरपंथी-उग्रवादी समूह बेखौफ किसी व्यक्ति की अभिव्यक्ति की आजादी का खुलेआम हनन करने में कामयाब हो सकते हैं। कुछ समय पहले तक न्यायपालिका ऐसे मामलों में निर्णायक दखल देती थी, जिससे कम से कम सिद्धांत रूप में सरकारों की जवाबदेही तय होती थी।
 
लेकिनहाल में स्थितियां उलटती नजर आई हैं। कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम के मामले में अंततः वही हुआ, जो मुस्लिम संगठन चाहते थे। केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड से पास इस फिल्म के कुछ दृश्यों और संवादों को उन्होंने अपने मजहब के खिलाफ माना। उन्होंने धमकियां दीं तो तमिलनाडु सरकार ने कानून-व्यवस्था पर अमल की अपनी जिम्मेदारी निभाने के बजाय फिल्म की रिलीज पर रोक लगा दी। कमल हासन हाई कोर्ट गए, तो हाई कोर्ट के जज ने कहा कि वे 26 जनवरी को खुद फिल्म देखेंगे और 28 जनवरी को फैसला देंगे। लेकिन 28 जनवरी को यह आश्चर्यनजक सलाह देते हुए निर्णय एक दिन टाल दिया कि अगर फिल्म निर्माता और मुस्लिम संगठन आपस में समझौता कर लें तो बेहतर होगा। पूछा जा सकता है कि अगर विवाद के ऐसे मामले भी आपसी बातचीत से ही निपटाने हों, तो न्याय-व्यवस्था की आखिर जरूरत क्या है? बहरहाल, एक दिन बाद उन्होंने प्रतिबंध हटाने का आदेश दिया, लेकिन यह राहत क्षणिक साबित हुई, क्योंकि अगले दिन डिवीजन बेंच ने फिर से फिल्म की रिलीज पर रोक लगा दी। कमल हासन के लिए संदेश साफ था। कुछ ही दिन पहले फिल्म डैम 999 पर प्रतिबंध के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने टिपप्णी की थी कि तमिलनाडु सरकार की कानून व्यवस्था संबंधी चिंताओं को हलके से नहीं लिया जा सकता। अतः फिल्म बनाने में सौ करोड़ रुपए लगा चुके कमल हासन ने अंततः कट्टरपंथी समूहों से समझौता कर लेने में ही अपनी भलाई समझी और फिल्म के सात दृश्य और कुछ संवाद काटने पर राजी हो गए। यानी सेंसर के सुपर ऑथरिटी भारी पड़े!
 
जयपुरसाहित्य उत्सव में एक टिप्पणी के कारण जेल जाने का खतरा झेल रहे मशहूर समाज मनोवैज्ञानिक आशीष नंदी ने सुप्रीम कोर्ट की पनाह ली, तो सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी गिरफ्तारी पर तो रोक लगा दी, लेकिन उसके साथ ही जजों ने उन्हें जो सलाह दी, वह लोकतांत्रिक संवाद में यकीन रखने वाले किसी व्यक्ति को परेशान कर सकती है। नंदी से कहा गया कि वे ऐसी बात नहीं कह सकते जिससे किसी समूह की भावनाएं आहत हों। विवाद भड़कने के तुरंत बाद नंदी ने सफाई दी थी कि अनुसूचित जाति-जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों के नेताओं के भ्रष्ट होने संबंधी उनके बयान को संदर्भ से काटकर देखा जा रहा है। जब अदालत का ध्यान इस तरफ खींचा गया कि नंदी की बात जिस तरह पेश की गई, वो उनका मतलब नहीं था, तो जजों ने कहा कि आखिर वे ऐसी बात क्यों बोलते हैं, जो उनका मतलब नहीं होता? सामाजिक विडंबनाओं पर कोई बुद्धिजीवी कैसे बोले, अगर यह उसे बताया जाने लगे तो किसी समाज में बहस, विमर्श,शास्त्रार्थ का क्या होगा, इसकी कल्पना भी भयावह लगती है। अपनी उलटबासियों के लिए मशहूर कबीर ने खुद को इसी तरह की सलाह के दायरे में घेर लिया होता, तो वे क्या कह पाए होते, इसका हम सहज अंदाजा लगा सकते हैं।
 
सत्तामें बैठे नेताओं द्वारा अपने संवैधानिक कर्त्तव्य पर वोटों के समीकरण को तरजीह देने का परिणाम है कि पिछले वर्ष सलमान रुश्दी को जयपुर साहित्य उत्सव में भाग लेने से रोक दिया गया और इस वर्ष वे कोलकाता नहीं जा सके। चरममंथी समूहों के आगे आत्म-समर्पण की दूसरी मिसाल यह है कि इसी वर्ष शुरू हुई हॉकी इंडिया लीग में शामिल किए गए पाकिस्तान के खिलाड़ी वापस भेज दिए गए। ऐसे संगठनों के ही भय से भारत में हो रहे महिला क्रिकेट विश्व कप का कार्यक्रम बदलना पड़ा। पाकिस्तान के सारे मैचों को कटक में कराने का निर्णय हुआ। यहां मुद्दा यह नहीं है कि जब नियंत्रण रेखा पर तनाव बढ़ रहा हो, तो पाकिस्तानी खिलाड़ियों को भारत में खेलना चाहिए या नहीं? मुद्दा यह है कि यह फैसला कौन करेगा? क्या किसी सांप्रदायिक संगठन, समूह या पार्टी को कानून अपने हाथों में लेकर यह तय करने की इजाजत होनी चाहिए?
 
सरकारोंऔर न्यायपालिका के रुख के नतीजा यह होगा कि आशीष नंदी (या कोई बुद्धिजीवी) अब गंभीर और जटिल विषयों पर चर्चा के दौरान भी नाप-तौल कर बोलेंगे। कमल हासन (या कोई फिल्मकार) आगे अपनी किसी फिल्म में कोई सीन या संवाद डालने के पहले सौ बार सोचेंगे। इसका संदेश हर कला और अभिव्यक्ति के माध्यम से जुड़े लोगों तक जाएगा। लेकिन इसके साथ ही यह सवाल जरूर उठेगा कि क्या यही वो उदार या लोकतांत्रिक भारत है, जिस पर हम गर्व करते हैं? क्या सचमुच यह वही समाज है, जिसके निर्माण की कल्पना भारतीय संविधान में की गई है?
 
गौरतलबहै कि अगर भारत जैसे विशाल एवं विभिन्नतापूर्ण समाज में किसी समूह का आहत होना अभिव्यक्ति के मूल अधिकार की सीमा को तय करने की कसौटी बन गया, तो उसका व्यावहारिक मतलब यही होगा कि किसी कुरीति,सामाजिक बुराई, अंधविश्वास, पाखंड, उभरते अवांछित राजनीतिक रुझानों आदि के खिलाफ कुछ भी बोलना कठिन हो जाएगा। सामाजिक गतिविधियों, राजनीतिक रुझानों और सांस्कृतिक धाराओं की समझ पैदा करने अथवा उनमें सुधार के उद्देश्य से कही गई बातों और नफरत फैलाने वाले वक्तव्यों के बीच फर्क करने का विवेक अगर समाज खो देता है, तो यह लोकतंत्र की बुनियाद पर प्रहार होगा। हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए भारतीय संविधान के लागू होने का मतलब यह नहीं था कि भारतीय समाज अनिवार्य रूप से लोकतांत्रिक है। उसका अर्थ यह था कि देश ने लोकतंत्र, समता एवं न्याय के मूल्यों से संचालित व्यवस्था की तरफ बढ़ने का संकल्प किया। इसके लिए संविधान में आवश्यक प्रावधान किए गए। लेकिन संविधान के प्रावधान एवं भावनाएं व्यवहार में तभी उतर सकते हैं, जब राज्य-व्यवस्था उसके प्रति आस्थावान एवं प्रतिबद्ध हो। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि आज जातिवादी, सांप्रदायिक एवं कट्टरपंथी ताकतें एजेंडा तय कर रही हैं और राज्य-व्यवस्था के विभिन्न अंग उससे समझौता कर रहे हैं।
 

 
सत्येंद्र रंजनवरिष्ठपत्रकार एवं स्तंभकारहैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

राजेन टोडरिया : एक लड़ाकू पत्रकार का राजनीतिक भटकाव

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-इन्द्रेश मैखुरी
Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी

 "...शिमला से उनके वापस लौटने के बाद हम एक दुसरे ही राजेन टोडरिया को देखते हैं. उस राजेन टोडरिया को जो वामपंथ की बात तो करता हैअपने वामपंथी होने का हवाला भी देता हैलेकिन उग्र पहाड़ीवाद और अन्धक्षेत्रियतावाद से भी लबरेज है. ये वो राजेन टोडरिया है जो वामपंथ के जुडाव के दौर में पढ़े गयी रसूल हमजातोव की पुस्तक -मेरा दागिस्तान- का बार-बारलगभग हर बार हवाला देता हैलेकिन अपना नायक और नायकत्व उसे राज ठाकरे और उसकी उन्मादी राजनीति में ही नजर आता है..."

राजेन टोडरिया
क ऐसा व्यक्ति अचानक गुजर जाएजिसके साथ हाल के दिनों में आपके तीखे वैचारिक मतभेद रहे हों और बेहद तीखी बहस में आप रहे होंतो उनके बारे में कैसे लिखा जाएभारतीय परम्परा यह है कि मृत्युपरांत व्यक्ति के बारे में सब अच्छा ही बोला और लिखा जाता है. एक रास्ता यह भी है कि जब हमारा इतना झगड़ा था तो लिखा ही क्यूँ जाएपर झगड़ा कोई व्यक्तिगत तो था नहींवैचारिक था. इसमें वे एक धारा के प्रतिनिधि थे और मैं एक विचारधारा का. मैं बात कर रहा हूँ  5 फरवरी  2013 को इस दुनिया से रुखसत हुए प्रख्यात पत्रकार राजेन टोडरिया जी की.

राजेनटोडरिया को मैंने सबसे पहले देखा 1995 या संभवत:1996 रहा होगा. पुराना टिहरी तब ज़िंदा थाडुबोए जाने का इन्तजार करता हुआ और नयी टिहरी गतिविधियों का केंद्र बन चुका था. उत्तरकाशी से डा.नागेन्द्र जगूड़ी के कहने पर मैं नयी टिहरी गयाराजेन टोडरिया द्वारा शराब के खिलाफ चलाये जा रहे आंदोलन के जुलूस में शामिल होने. पहली बार नयी टिहरी भी देखा और राजेन टोडरिया को भी. उनका लिखा तो अमर उजाला में पढते ही थे. शब्दों का महीन जाल वे माहिर कारीगर की तरह बुनते थे और इस कारीगरी से लोग मोहित भी होते,प्रभावित भी. मैं  बी.ए. का विद्यार्थी था और ऐसे सामाजिक जीवन जीने वाले लोगों को देख कर चमत्कृत रहता था,टोडरिया जी को देख कर भी हुआ.


राजेनटोडरिया लंबे अरसे तक टिहरी में अमर उजाला के ब्यूरो चीफ रहे. वे शायद इस देश में इकलौते सरकारी कर्मचारी होंगे जो कि दैनिक अखबार की पत्रकारिता भी करते थे या फिर यूँ कहें कि इकलौते पत्रकार थेजो दैनिक अखबार की पत्रकारिता में बिना अपना सरकारी नौकरी वाला चोला उतारे ही, चले आये थे. सरकारी नौकरी और पत्रकारिता को एक साथ साधने के लिए ही स्वास्थ्य विभाग में नौकरी करने वाले राजेंद्र टोडरिया,पत्रकारिता जगत में एस.राजेन टोडरिया हो गये.एस. यानि स्मिता जो कि उनकी पत्नी का नाम था. स्त्रियों को पतियों का नाम अपने नाम के साथ जोड़ते देखा थापरन्तु अपनी पत्नी का नाम, अपने नाम के आगे जोड़ते हुए (उसके पीछे व्यावसायिक मजबूरी ही क्यूँ ना हो)किसी और पुरुष को तो मैंने नहीं देखा.

राजेनटोडरिया ने लगभग बत्तीस वर्षों तक पत्रकारिता की. इस दौरान वे शिमला में अमर उजाला के ब्यूरो चीफ और दैनिक भास्कर के स्थानीय संपादक रहे.

राजेनटोडरिया का कम्युनिस्ट आंदोलन से भी सम्बन्ध रहा था. अस्सी के दशक में भाकपा(माले) द्वारा देश के तमाम प्रगतिशीलवामपंथी रुझान वाले जनसंगठनों को एक मंच पर लाने के लिए इंडियन पीपल्स फ्रंट(आई.पी.एफ.) नामक संगठन बनाया गया. उत्तराखंड से जो लोग आई.पी.एफ.की राष्ट्रीय परिषद में लिए गए,राजेन टोडरिया भी उनमें से एक थे.एक बौद्धिक व्यक्ति के रूप में उनके विकास में वामपंथ के साथ उनके जुडाव ने एक अहम भूमिका निभाई थी.

लेकिनशिमला से उनके वापस लौटने के बाद हम एक दुसरे ही राजेन टोडरिया को देखते हैं. उस राजेन टोडरिया को जो वामपंथ की बात तो करता हैअपने वामपंथी होने का हवाला भी देता हैलेकिन उग्र पहाड़ीवाद और अन्धक्षेत्रियतावाद से भी लबरेज है. ये वो राजेन टोडरिया है जो वामपंथ के जुडाव के दौर में पढ़े गयी रसूल हमजातोव की पुस्तक -मेरा दागिस्तान- का बार-बार, लगभग हर बार हवाला देता हैलेकिन अपना नायक और नायकत्व उसे राज ठाकरे और उसकी उन्मादी राजनीति में ही नजर आता है. राज ठाकरे मार्का राजनीति के,सब गैर पहाड़ियों को खदेड़ दो का उन्माद पैदा करने की कोशिश में शायद यह बात उनकी मुट्ठी से रेत की तरह फिसल गयी कि जिस- मेरा दागिस्तान-को वे अपनी सबसे प्रिय पुस्तक बताते हैं,उसमें तो कहीं पर भी ना घृणा है और ना ही उन्माद. वो तो दागिस्तान और उसके रहने वालों की, उनके सुख-दुःख और संघर्षों की बेहद खूबसूरत दास्तान है. 'मेरा दागिस्तान' हर बाहरी व्यक्ति को खदेड़ने का तालिबानी फतवा नहीं देती. बल्कि इसके ठीक विपरीत इसके पहले ही पन्ने पर लिखा है:

मेरे घर की अगर उपेक्षा,कर तू जाए राही ,
तुझ पर बादल-बिजली टूटेंतुझ पर बादल-बिजली !
मेरे घर से अगर दुखी मन हो, तू जाए राही,
मुझ पर बादल-बिजली टूटेंमुझ पर बादल-बिजली

कहाँ सब बाहर वालों को खदेड़ने का राज ठाकरे मार्का उन्माद और कहाँ ये अवार जाति की कामना कि यदि कोई मेरे घर से दुखी हो कर जाए तो मुझ पर वज्रपात होइन दोनों का क्या मेल?

रसूलहमजातोव कहता है कि मैं हर जगह खुद को अपने दागिस्तान का विशेष संवाददाता मानता हूँ.” लेकिन साथ ही यह जोड़ना नहीं भूलता कि मगर अपने दागिस्तान में मैं समूची मानवजाति का विशेष संवाददाताअपने सारे देश(यानि रूस)यहाँ तक कि सारी दुनिया का प्रतिनिधि बनकर लौटता हूँ.” (मेरा दागिस्तान,खंड-एक,पृष्ठ-32). कहाँ रसूल हमजातोव की ये व्यापक और खुली दृष्टि और कहाँ राज ठाकरे वाली तंगनजरी. टोडरिया जी देश के दूसरे हिस्से से लौटे थे. उनके पैर रसूल हमजातोव के नक्शेकदम पर भी जा सकते थे. लेकिन जिस लेनिन के क्रांतिकारी विचार ने रसूल हमजातोव को तराशा था,उस लेनिन के विचार को तो वे कबका अलविदा कह चुके थे. इसलिए जबान पर रसूल हमजातोव होते हुए भी उन्होंने रास्ता राज ठाकरे वाला ही पसंद आया.

टोडरियाजी टिहरी बाँध विरोधी आंदोलन में भी सक्रीय रहे थे. लेकिन पिछले कुछ सालों से वे जलविद्युत परियोजनाओं के आक्रामक समर्थक हो गए थे. एक जमाने में टिहरी को डुबोए जाने के खिलाफ उन्होंने ये बेहतरीन कविता लिखी थी :

किसी शहर को डुबोने के लिए,
काफी नहीं होती है एक नदी,
सिक्कों के संगीत पर नाचते,
समझदार लोग हों,
भीड़ हो मगर बटी हुई,
कायरों के पास हो तर्कों की तलवार,
तो यकीन मानिये,
शहर तो शहर,
यह काफी है,
देश को डुबोने के लिए ।

टिहरीबाँध के खिलाफ कविता में आक्रोश प्रकट करने वाले टोडरिया जी कुछ समय से उन लीलाधर जगूड़ी के साथ जलविद्युत परियोजनाओं के समर्थन में आक्रामक अभियान चलाये हुए थे,जिन्होंने टिहरी को जल्द डुबोए जाने की कामना करती,लंबी उत्सवी कविता लिखी :

बिना डरे इसे डूब जाने दो
कुछ ज्यादा ही धीरे-धीरे डूब रहा है टिहरी
श्रीदेव सुमन को चौरासी दिन और पिचासी रातों में मारा गया था
इसे डूबने में चौरासी महीने और लगें तो भी इसे डूब जाने दो
टिहरी के चेहरे पर पानी आने दो
बिना डरे इसे डूब जाने दो
...................................................
गंगा और भिलंगना के मुहाने पर पहली बार न्याय का संगम हुआ
इसे ऊपर तक छलछलाने दो
..................................................
टिहरी डूबेगा तो देश उबरेगा

यदिआप दोनों कविताओं को एक साथ पढ़ें तो दोनों कवितायेँ, एक-दूसरे के खिलाफ आमने-सामने खड़ी दिखाई देती हैं. जहां टोडरिया की कविता विकास के विनाशकारी मॉडल को खारिज करती हैवहीँ लीलाधर जगूड़ी की कविता दरअसल किसी कवि से ज्यादा व्यवस्था के पक्के आदमी के उदगार हैंजिसके लिए लोगों काशहरों का डूबना भी उत्सव हैजिस उत्सव को वो बार-बारअधिक से अधिक बार मनाना चाहता है.

विडम्बनादेखिये कि पिछले कुछ सालों में ये दोनों कविता लिखने वाले एक साथ थेहर हाल में परियोजनाएं बनेंकिसी भी कीमत परइस नारे के साथ. टोडरिया की छोटी लेकिन धारधार कविता की धार जगूड़ी की व्यवस्थापरस्ती वाली कविता से लोहा ना ले सकी. दोनों एक ही सुर में-इसको भी डूब जाने दोउसको भी डूब जाने दोये डूबेगा तो उत्तारखंड उबरेगावो डूबेगा तो उत्तराखंड उबरेगा-का सरकारी सपना लोगों को दिखाने  लगे. टोडरिया तो न केवल लीलाधर जगूड़ी से,बल्कि अवधेश कौशल से भी अपने जैसे लड़ाकू तेवरों की उम्मीद कर रहे थे. उन्होंने दोनों से ये घोषणा भी करवा दी कि जलविद्युत परियोजनाएं शुरू ना हुई तो वे 15 अगस्त 2012 को अपनी पद्मश्री वापस लौटा देंगे. पर ये दोनों टोडरिया ना थेजो गलत या सही जो भी होलड़ना जानता था. ये तो व्यवस्था के पाले-पोसे लोग थेजिन्हें छींकने के लिए भी सरकारी सरपरस्ती चाहिए होती हैउनका  जीवन दर्शन लड़ाई नहींजोड़-तोड़ है. इसलिए आज टोडरिया तो दुनिया में नहीं हैं पर पद्मश्री दोनों के पास महफूज है.

उग्र पहाड़ीवाद और आक्रामक परियोजना समर्थन के बीच भी कई और मुद्दों पर टोडरिया जी का रुख बेहद प्रगतिशील था.प्रमोशन में आरक्षण के खिलाफ चले कर्मचारी आंदोलन को उन्होंने अपने लेखों में सवर्णवादी उन्माद करार दिया.ये इसलिए काबिले गौर है क्यूंकि आरक्षण के मामले में तो अच्छे भले प्रगतिशीलों की प्रगतिशीलता धरी रह जाती है और उनके भीतर का सवर्ण उछल कर मैदान में उतर पड़ता है,आरक्षण के बहाने दलितों की ऐसी-तैसी करने. राज ठाकरे के साथ मोर्चा बनाने की खुल्लमखुल्ला घोषणाओं के बावजूद मोदी और मोदी मार्का धर्मान्धता की राजनीति के खिलाफ उन्होंने खूब लिखा. भारत-पाकिस्तान के बीच युद्धोन्माद पैदा करने की कोशिशों की खिलाफत भी उनके लिखे हुए में दिखती है.

यह थोड़ा चौंकाता है कि एक ही व्यक्ति जो कि अच्छा-भला पढ़ा लिखा हैविभिन्न विचारधाराओं और विमर्शों से वाकिफ हैवह एक ही साथ कुछ मामलों में प्रगतिशील और कुछ मामलों में अंधक्षेत्रीयतावादी नजरिया अपनाता है. उत्तराखंड बनने के बाद इस राज्य में संसाधनों की लूट बढ़ी है और जिनके लिए राज्य की बात थीवे सब हाशिए पर हैंये बिलकुल सही बात थी. टोडरिया अगर इस बात को चिन्हित कर रहे थे तो ठीक ही कर रहे थे. लेकिन इसका जो समाधान वो तजवीज कर रहे थेवो दिक्कत तलब था. जिस बाल ठाकरे-राज ठाकरे मॉडल को वे पहाड़ के लिए आवश्यक मान रहे थेवो तो अपने मूल राज्य-महाराष्ट्र में भी संसाधनों पर आम आदमी के अधिकार के लिए नहीं था. वो तो वहाँ के ट्रेड यूनियन आंदोलन को,मजदूरों के अधिकारों की लड़ाई को नेस्तनाबूद करने के लिए था. ये उस विघटनकारी राजनीति ने कर दिखाया और इसी सेवा के ऋण से उऋण होने के लिए व्यवस्था ने मरने के बाद भी बाल ठाकरे को राजकीय सम्मान बख्शा.

गौर से देखें तो टोडरिया जी का उग्र पहाड़ीवादपहाड़ के संकट के साथ ही उनके अपने अस्तित्व के संकट को भी प्रकट करता था. आखिर एक पढ़े-लिखे और महत्वाकांक्षी व्यक्ति के लिए वर्तमान व्यवस्था में तरक्की काआगे बढ़ने का क्या रास्ता हैसमझदार लोग ये ही समझाते रहते हैं कि आगे बढ़ना है तो विचार कोजनपक्षधरता को खूँटी पर टांग दोतभी कोई बंद दरवाजा खुलेगा. एक पत्रकार जो शासन-सत्ता चलाने वालों को करीब से देखता है और पाता है कि ये तो खोखले और जड़मूर्ख हैं. तो उसके भीतर ये महत्वाकांक्षा जाग ही सकती है कि इस जगह पर तो उसे होना चाहिए. उनकी जगह पाने के लिए वो उनके साथ एकमेव तो नहीं होताअपनी तरह से अपना अलग रास्ता बनाने की कोशिश करता हुआ दिखता हैअपने पर चिपके पुराने वामपंथी लेबल को खुरच-खुरच कर मिटाने की कोशिश भी करता है. लेकिन अफ़सोस अंततः उनका अलग रास्ता भी, उन्हीं जड़मूर्खों की व्यवस्था की सेवा का  रास्ता था. व्यवस्था चलाने वाले कितने ही जड़मूर्ख क्यूँ ना दिखाई  देंअपने बुद्धिमान विरोधियों को अपनी सेवा में लगे नफीस दस्ताने में बदलने में उनका कोई सानी नहीं है.

लड़ाकूहोना एक महत्वपूर्ण गुण हैलेकिन इसके साथ-साथ आप जनता के योद्धा है या फिर व्यवस्था के हाथ की तलवारये जानना भी जरुरी होता है. अफ़सोस टोडरिया जी ये बात तमाम बहसों मेंआपके साथ हो ना सकी और अब कभी हो भी ना सकेगी.
सलाम,आख़री सलाम  .......


इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

लोकतंत्र के लिए एक मुकम्मल दिन: अरुंधति राय

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रुंधति राय
-अरुंधती राय
नुवाद: रेयाज उल हक 
साभार: द हिंदू


"...संसद हमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?..."


हीं था क्या? मेरा मतलब, कल का दिन. दिल्ली में बसंत ने दस्तक दी. सूरज निकला था और कानून ने अपना काम किया. नाश्ते से ठीक पहले, 2001 में संसद पर हमले के मुख्य आरोपी अफजल गुरु को खुफिया तरीके से फांसी दे दी गई और उनकी लाश को तिहाड़ जेल में मिट्टी में दबा दिया गया. क्या उन्हें मकबूल भट्ट की बगल में दफनाया गया? (एक और कश्मीरी, जिन्हें 1984 में तिहाड़ में ही फांसी दी गई थी. कल कश्मीरी उनकी शहादत की बरसी मनाएंगे.) अफजल की बीवी और बेटे को इत्तला नहीं दी गई थी. ‘अधिकारियों ने स्पीड पोस्ट और रजिस्टर्ड पोस्ट से परिवार वालों को सूचना भेज दी है,’ गृह सचिव ने प्रेस को बताया, ‘जम्मू कश्मीर पुलिस के महानिदेशक को कह दिया गया है कि वे पता करें कि सूचना उन्हें मिल गई है कि नहीं.’ ये कोई बड़ी बात नहीं है, वो तो बस एक कश्मीरी दहशतगर्द के परिवार वाले हैं.

एकताके एक दुर्लभ पल में राष्ट्र, या कम से कम इसके मुख्य राजनीतिक दल, कांग्रेस, भाजपा और सीपीएम (‘देरी’ और ‘समय’ पर छोटे-मोटे मतभेद को छोड़ दें तो) कानून के राज की जीत का जश्न मनाने के लिए एक साथ आए. राष्ट्र की चेतना ने, जिसे इन दिनों टीवी स्टूडियो के जरिए लाइव प्रसारित किया जाता है, अपनी सामूहिक समझ हम पर उड़ेल दी – धर्मात्माओं सरीखे उन्माद और तथ्यों की नाजुक पकड़ की वही हमेशा की खिचड़ी. यहां तक कि वो इन्सान मर चुका था और चला गया था, झुंड में शिकार खेलने वाले बुजदिलों की तरह उन्हें एक दूसरे का हौसला बढ़ाने की जरूरत पड़ रही थी. शायद अपने मन की गहराई में वे जानते थे कि वे सब एक भयानक रूप से गलत काम के लिए जुटे हुए हैं.


तथ्य क्या हैं?


13दिसंबर 2001 को पांच हथियारबंद लोग इम्प्रोवाइज्ड एक्सप्लोसिव डिवाइस के साथ एक सफेद एंबेस्डर कार से संसद भवन के दरवाजों से दाखिल हुए. जब उन्हें ललकारा गया तो वो कार से निकल आए और गोलियां चलाने लगे. उन्होंने आठ सुरक्षाकर्मियों और माली को मार डाला. इसके बाद हुई गोलीबारी में पांचों हमलावर मारे गए. पुलिस हिरासत में दिए गए कबूलनामों के अनेक वर्जनों में से एक में अफजल गुरु ने उन लोगों की पहचान मोहम्मद, राणा, राजा, हमजा और हैदर के रूप में की. आज तक भी, हम उन लोगों के बारे में कुल मिला कर इतना ही जानते हैं. तब के गृहमंत्री एल.के. अडवाणी ने कहा कि वे ‘पाकिस्तानियों जैसे दिखते थे.’ (उन्हें पता होना ही चाहिए कि ठीक-ठीक पाकिस्तानी की तरह दिखना क्या होता है? वे खुद एक सिंधी जो हैं.) सिर्फ अफजल के कबूलनामे के आधार पर (जिसे सुप्रीम कोर्ट ने बाद में ‘खामियों’ और ‘कार्यवाही संबंधी सुरक्षा प्रावधानों के उल्लंघनों’ के आधार पर खारिज कर दिया था) सरकार ने पाकिस्तान से अपना राजदूत वापस बुला लिया था और पांच लाख फौजियों को पाकिस्तान से लगी सरहद पर तैनात कर दिया था. परमाणु युद्ध की बातें होने लगीं थीं. विदेशी दूतावासों ने यात्रा संबंधी सलाहें जारी कर दी थीं और दिल्ली से अपने कर्मचारियों को बुला लिया था. असमंजस की यह स्थिति कई महीनों तक चली और भारत के हजारों करोड़ रुपए खर्च हुए.


14दिसंबर, 2001 को दिल्ली पुलिस स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मामले को सुलझा लिया है. 15 दिसंबर को उसने दिल्ली में ‘मास्टरमाइंड’ प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और श्रीनगर में फल बाजार से शौकत गुरु और अफजल गुरु को गिरफ्तार किया. बाद में उन्होंने शौकत की बीवी अफशां गुरु को गिरफ्तार किया. मीडिया ने जोशोखरोश से स्पेशल सेल की कहानी का प्रचार किया. कुछ सुर्खियां ऐसी थीं: ‘डीयू लेक्चरर वाज टेरर प्लान हब’, ‘वर्सिटी डॉन गाइडेड फिदायीन’, ‘डॉन लेक्चर्ड ऑन टेरर इन फ्री टाइम.’ जी टीवी ने दिसंबर 13 नाम से एक ‘डॉक्यूड्रामा’ प्रसारित किया, जो कि ‘पुलिस के आरोप पत्र पर आधारित सच्चाई’ होने का दावा करते हुए उसकी पुनर्प्रस्तुति थी. (अगर पुलिस की कहानी सही है, तो फिर अदालतें किसलिए?) तब प्रधानमंत्री वाजपेयी और एल.के. आडवाणी ने सरेआम फिल्म की तारीफ की. सर्वोच्च न्यायालय ने इस फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से यह कहते हुए मना कर दिया कि मीडिया जजों को प्रभावित नहीं करेगा. फिल्म फास्ट ट्रेक कोर्ट द्वारा अफजल, शौकत और गीलानी को फांसी की सजा सुनाए जाने के सिर्फ कुछ दिन पहले ही दिखाई गई. उच्च न्यायालय ने ‘मास्टरमाइंड’ प्रोफेसर एस.ए.आर. गीलानी और अफशां गुरु को आरोपों से बरी कर दिया. सर्वोच्च न्यायालय ने उनकी रिहाई को बरकरार रखा. लेकिन 5 अगस्त, 2005 के अपने फैसले में इसने मोहम्मद अफजल को तिहरे आजीवन कारावास और दोहरी फांसी की सजा सुनाई.


कुछवरिष्ठ पत्रकारों द्वारा, जिन्हें बेहतर पता होगा, फैलाए जाने वाले झूठों के उलट, अफजल गुरु ’13 दिसंबर, 2001 को संसद भवन पर हमला करने वाले आतंकवादियों’ में नहीं थे न ही वे उन लोगों में से थे जिन्होंने ‘सुरक्षाकर्मी पर गोली चलाई और मारे गए छह सुरक्षाकर्मियों में तीन का कत्ल किया.’ (ये बात भाजपा के राज्य सभा सांसद चंदन मित्रा ने 7 अक्तूबर, 2006 को द पायनियर में लिखी थी). यहां तक कि पुलिस का आरोप पत्र भी उनको इसका आरोपी नहीं बताता है. सर्वोच्च न्यायालय का फैसला कहता है कि सबूत परिस्थितिजन्य है: ‘अधिकतर साजिशों की तरह, आपराधिक साजिश के समकक्ष सबूत नहीं है और न हो सकता है.’ लेकिन उसने आगे कहा: ‘हमला, जिसका नतीजा भारी नुकसान रहा और जिसने संपूर्ण राष्ट्र को हिला कर रख दिया, और समाज की सामूहिक चेतना केवल तभी संतुष्ट हो सकती है अगर अपराधी को फांसी की सजा दी गई.’


संसदहमले के मामले में हमारी सामूहिक चेतना का किसने निर्माण किया? क्या ये वे तथ्य होते हैं, जिन्हें हम अखबारों से हासिल करते हैं? फिल्में, जिन्हें हम टीवी पर देखते हैं?


कुछलोग हैं जो यह दलील देंगे कि ठीक यही तथ्य, कि अदालत ने एस.ए.आर. गीलानी को छोड़ दिया और अफजल को दोषी ठहराया, यह साबित करता है कि सुनवाई मुक्त और निष्पक्ष थी. थी क्या?


फास्ट-ट्रेक कोर्ट में मई, 2002 में सुनवाई शुरू हुई. दुनिया 9-11 के बाद के उन्माद में थी. अमेरिकी सरकार अफगानिस्तान में अपनी ‘विजय’ पर हड़बड़ाए हुए टकटकी बांधे थी. गुजरात का जनसंहार चल रहा था. और संसद पर हमले के मामले में कानून अपनी राह चल रहा था. एक आपराधिक मामले के सबसे अहम चरण में, जब सबूत पेश किए जाते हैं, जब गवाहों से सवाल-जवाब किए जाते हैं, जब दलीलों की बुनियाद रखी जाती है – उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में आप केवल कानून के नुक्तों पर बहस कर सकते हैं, आप नए सबूत नहीं पेश कर सकते – अफजल गुरु भारी सुरक्षा वाली कालकोठरी में बंद थे. उनके पास कोई वकील नहीं था. अदालत द्वारा नियुक्त जूनियर वकील एक बार भी जेल में अपने मुवक्किल से नहीं मिला, उसने अफजल के बचाव में एक भी गवाह को नहीं बुलाया और न ही अभियोग पक्ष द्वारा पेश किए गए गवाहों का क्रॉस-एक्जामिनेशन किया. जज ने इस स्थिति के बारे कुछ पाने में अपनी अक्षमता जाहिर की.


तबभी, शुरुआत से ही, केस बिखर गया. अनेक मिसालों में से कुछेक यों हैं:


पुलिस अफजल तक कैसे पहुंची? उनका कहना है कि एस.ए.आर. गीलानी ने उनके बारे में बताया. लेकिन अदालत के रिकॉर्ड दिखाते हैं कि अफजल की गिरफ्तारी का संदेश गीलानी को उठाए जाने से पहले ही आ गया था. उच्च न्यायालय ने इसे ‘भौतिक विरोधाभास’ कहा लेकिन इसे यों ही कायम रहने दिया.


अफजलके खिलाफ सबसे ज्यादा आरोप लगाने वाले दो सबूत एक सेलफोन और एक लैपटॉप था, जिसे उनकी गिरफ्तारी के वक्त जब्त किया गया. अरेस्ट मेमो पर दिल्ली के बिस्मिल्लाह के दस्तखत हैं जो गीलानी के भाई हैं. सीजर मेमो पर जम्मू-कश्मीर पुलिस के दो कर्मियों के दस्तखत हैं, जिनमें से एक अफजल के उन दिनों का उत्पीड़क था, जब वे एक आत्मसमर्पण किए हुए ‘चरमपंथी’ हुआ करते थे. कंप्यूटर और सेलफोन को सील नहीं किया गया, जैसा कि एक सबूत के मामले में किया जाता है. सुनवाई के दौरान यह सामने आया कि लैपटॉप के हार्ड डिस्क को गिरफ्तारी के बाद उपयोग में लाया गया था. इसमें गृह मंत्रालय के फर्जी पास और फर्जी पहचान पत्र थे जिसे आतंकवादियों ने संसद में घुसने के लिए इस्तेमाल किया था. और संसद भवन का एक जी टीवी वीडियो क्लिप. इस तरह पुलिस के मुताबिक, अफजल ने सभी सूचनाएं डीलीट कर दी थीं, बस सबसे ज्यादा दोषी ठहराने वाली चीजें रहने दी थीं, और वो इसे गाजी बाबा को देने जा रहा था, जिनको आरोप पत्र में चीफ ऑफ ऑपरेशन कहा गया है.


अभियोगपक्ष के एक गवाह कमल किशोर ने अफजल की पहचान की और अदालत को बताया कि 4 दिसंबर 2001 को उसने वह महत्वपूर्ण सिम कार्ड अफजल को बेचा था, जिससे मामले के सभी अभियुक्त के संपर्क में थे. लेकिन अभियोग पक्ष के अपने कॉल रिकॉर्ड दिखाते हैं कि सिम 6 नवंबर 2001 से काम कर रहा था.


ऐसी ही और भी बातें हैं, और भी बातें, झूठों के अंबार और मनगढ़ंत सबूत. अदालत ने उन पर गौर किया, लेकिन पुलिस को अपनी मेहनत के लिए हल्की की झिड़की से ज्यादा कुछ नहीं मिला. इससे ज्यादा कुछ नहीं.


फिरतो वही पुरानी कहानी है. ज्यादातर आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों की तरह अफजल कश्मीर में आसान शिकार थे – टॉर्चर, ब्लैकमेल, वसूली के पीड़ित. जिसको संसद पर हमले के रहस्य को सुलझाने में सचमुच दिलचस्पी हो, उसे सबूतों की एक घनी राह से गुजरना होगा, जो कश्मीर में एक धुंधले जाल की तरफ ले जाती है, जो चरमपंथियों को आत्मसमर्पण कर चुके चरमपंथियों से, गद्दारों को स्पेशल पुलिस ऑफिसरों से, स्पेशल ऑपरेशंस ग्रुप को स्पेशल टास्क फोर्स से जोड़ती है और यह रिश्ता ऊपर, और आगे की तरफ बढ़ता जाता है. ऊपर, और आगे की तरफ.


लेकिनअब इस बात से कि अफजल गुरु को फांसी दी जा चुकी है, मैं उम्मीद करती हूं कि हमारी सामूहिक चेतना संतुष्ट हो गई होगी. या हमारा खून का कटोरा अभी आधा ही भरा है?

praxis में इसे हाशियासे साभार लिया जा रहा है।

कश्मीर की एक यात्रा : अफजल गुरु, तबस्सुम और ग़ालिब

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अमिताव कुमार

-अमिताव कुमार

पिछले दिनों मोदी के हिंदुत्व के बरक्श अदनी दिख रही कांग्रेस ने (कसाब के बाद) अफजल गुरु को फांसी में लटका कर 'भारतीय जनमानस (हिंदुवादियों और 'देशभक्तों') की सामूहिक अंतरात्मा'(national conscience) को तुष्ट करते हुये, मोदी/बीजेपी को, 2-0 से बढ़त ले कर जबरदस्त पटखनी दी है. लेकिन वोट बैंक के ध्रुवीकरण की इस शियासत के बीच कश्मीर, भारत से खुद को फिर अलग पा रहा है. यहाँ हम न्यूयॉर्क में भारतीय मूल के लेखक-पत्रकार अमिताव कुमार का कश्मीर का एक यात्रावृतांत प्रकाशित कर रहे हैं. ये यात्रा उन्होंने अफजल गुरु की पत्नी तबस्सुम से बातचीत के लिए ही की थी. ये वृतांत 'तबस्सुम' के बहाने कश्मीर की 'सामूहिक अंतरात्मा' की तस्वीर पेश करता है. देखें...

-मॉडरेटर  

दिल्ली से जम्मू, फिर आगे श्रीनगर तक हवाई-यात्रा करने के बाद, मैं टैक्सी से उत्तर की ओर पाकिस्तान बार्डर के पास स्थित सोपोर के लिए चला. मैं कश्मीर आया था तबस्सुम गुरु से मिलने जिसका पति दिल्ली में मौत का मुंतज़िर है. लेकिन जब मैं उसके सामने उपस्थित हुआ तो उसने हाथ हिलाकर मुझसे मिलने से मना कर दिया. पत्रकारों से मिलने की उसकी कोई इच्छा नहीं थी.

भारतीयसंसद पर 2001 में हुए हमले में उसकी भूमिका के लिए मोहम्मद अफ़ज़ल गुरु को फ़ांसी की सज़ा सुनाई गई थी. इस मामले में एक अन्य व्यक्ति को 10 साल की सज़ा सुनाई गई थी, जबकि दो अन्य बरी कर दिए गए थे. अफ़ज़ल गुरु को फ़ांसी 20 अक्टूबर,2006 को लगनी थी, लेकिन राष्ट्रपति के नाम रहम की अपील दायर किए जाने के चलते उसे रोक दिया गया था. सर्वोच्च न्यायालय ने अफ़ज़ल की अपील पर सुनवाई के बाद फैसले में यह माना कि अफ़ज़ल के खिलाफ़ सबूत महज परिस्थितिजन्य थे और यह भी कि पुलिस ने कानूनी प्रक्रिया का पालन नहीं किया था. बावजूद इसके, फैसले में कहा गया कि भारतीय संसद पर हमले ने, "पूरे देश को हिला कर रख दिया और समाज की सामूहिक अंतरात्मा तभी संतुष्ट होगी जब अपराधी को मॊत की सज़ा दी जाए."

जवाबमें कश्मीरी न्रेताओं के एक समूह ने एक प्रस्ताव पास किया जिसके एक अंश में कहा गया कि, "हम कश्मीर के लोग यह पूछना चाहते हैं कि भारतीयों की सामूहिक अंतरात्मा इस बात से क्यों विचलित नहीं होती कि एक कश्मीरी को निष्पक्ष सुनवाई और खुद के प्रतिनिधित्व का मौका दिए बगैर मौत की सज़ा सुनाई गई है?"

अफ़ज़लके परिवार की हैसियत वकील कर पाने की नहीं थी और अदालत द्वारा नियुक्त किया गया वकील कभी पेशी के दौरान हाज़िर ही नहीं हुआ. एक दूसरी वकील नियुक्त की गई लेकिन वह अपने मुवक्किल से निर्देश लेने को तैयार ही नहीं थी. उसने साक्ष्यरहित दस्तावेज़ों को अदालत में दाखिल किए जाने को सहमति दे दी. अफ़ज़ल ने इसके बाद अदालत को चार वरिष्ठ वकीलों के नाम दिए, लेकिन उन सबने अफ़ज़ल का प्रतिनिधित्व करने से इनकार कर दिया. अदालत ने एक और वकील चुना, उसने भी कहा कि वह अफ़ज़ल की तरफ़ से अदालत में पेश नहीं होना चाहता और अफ़ज़ल ने भी कहा कि उसका उस वकील पर भरोसा नहीं था. लेकिन अदालत अड़ गई- इसी वजह से कश्मीरी नेताओं ने पूछा कि क्या यह अफ़ज़ल की गलती थी कि भारतीय वकीलों ने उसकी निष्पक्ष सुनवाई को सुनिश्चित करने की बजाय एक कश्मीरी को मरने देना "ज़्यादा देशभक्तिपूर्ण" समझा. 

कोईनासमझ व्यक्ति ही यह मानेगा कि कश्मीर में चल रहा संघर्ष कट्टरपंथी लड़ाकों और बहादुर सैनिकों के बीच है. वास्तविक तस्वीर ज़्यादा स्याह और पेचीदा है. एक व्यवस्था जिसमें पारम्परिक आर्थिक क्रिया-कलाप ठप्प पड़ गए हों और संसाधनों का प्रवाह एक स्तर पर सुरक्षा-तंत्र पर आधारित राज्य-व्यवस्था पर निर्भर हो, उसमें शोषकों की तरह देखे जाने वाले लोगों पर निर्भरता की भीषण दारूण भावना से बचना नामुमकिन सा है. इस परिस्थिति ने एक पेचीदे मानसिक विभाजन को जन्म दिया है. अरुंधती राय ने लिखा है, " कश्मीर एक घाटी है जो विद्रोहियों, भगोड़ों, सुरक्षाबलों, मुखबिरों, धन-उगाही करनेवालों, जासूसों, दोहरे एजेंटों, भारत और पाकिस्तान- दोनों की गुप्तचर एजेंसियों, ब्लैकमेल करने वालों और होनेवालों, मानवाधिकारवादियों, एन.जी.ओ.वालों तथा अपार अवैध हथियारों और पैसों से लबालब है....यह कहना आसान नहीं है कि वहां कौन किसके लिए काम कर रहा है."

तबस्सुमगुरु ने सन 2004 में कश्मीर टाइम्स में "न्याय के लिए एक पत्नी की गुहार' नाम से एक वक्तव्य जारी कर मानो रात में बिजली की एक कौंध से इस धूसर परिदृश्य को आलोकित कर दिया. यह वक्तव्य जितनी यंत्रणा में लिखा गया है, उतना ही निर्भीक भी है. महज 1500 शब्दों वाला यह वक्तव्य सैन्य कब्ज़े की कीमत को पूरी तरह उघाड़ते हुए दिखला देता है कि पुलिस और सुरक्षाबलों ने किस तरह कश्मीरियों को उनके ही दमन में सहयोगी बनने को विवश कर दिया. तबस्सुम अपने पति की कहानी से ही शुरू करती है.
१९९०में, दूसरे हज़ारों कश्मीरी युवाओं की ही तरह अफ़ज़ल गुरु भी कश्मीर की मुक्ति के आंदोलन में शामिल हुआ. वह डाक्टरी की पढ़ाई कर रहा था, लेकिन उसे छोड़ ट्रेनिंग लेने पाकिस्तान चला गया. लेकिन तीन महीने बाद ही उसका मोहभंग हो गया और वह वापस लौट आया. सीमा सुरक्षाबल ने उसे समर्पण कर चुके विद्रोही का प्रमाण-पत्र दिया. डाक्टर बनने का उसका सपना टूट चुका था और उसने मेडिकल आपूर्तियों तथा शल्यचिकित्सा में काम आने वाले उपकरणों का कारोबार शुरु किया. अगले ही साल 1997 में उसका विवाह हुआ. अफ़ज़ल तब 28 का और तबस्सुम 18 की थी.

समर्पणके बाद अक्सर ही अफ़ज़ल को उत्पीड़ित किया जाता और उस पर उन कश्मीरियों की जासूसी करने का दबाव बनाया जाता जिन पर विद्रोही होने का संदेह था. (सार्त्र ने पचास साल से भी पहले लिखा था, " यातना का उद्देश्य महज किसी आदमी की ज़बान खुलवाना ही नहीं होता, बल्कि उसे दूसरों के साथ विश्वासघात करने के लिए राज़ी कराना होता है. यातना का उद्देश्य यह होता है कि उसका शिकार इंसान अपनी चीखों के बीच दूसरों और खुद अपनी निगाह में एक आज्ञाकारी निम्नतर पशु में ढल जाए.") एक रात, स्पेशल टास्क फ़ोर्स के सदस्यों नें अफ़ज़ल को उठा लिया और उसे एस.टी.एफ़. कैम्प में यातना दी गई. 

तबस्सुमकी अपील में जिनका नाम लिया गया है, उन अधिकारियों में से एक द्रविंदर सिंह ने खुलकर कहा कि उसके कामकाज के तौर-तरीकों में यातना देना एक ज़रूरत की तरह है. एक रिकार्ड किए गए इंटरव्यू में द्रविंदर सिंह ने अफ़ज़ल गुरु के बारे में बताते हुए एक पत्रकार से कहा, "मैंने अपने कैम्प में उससे पूछ-ताछ की और उसे यातना दी. हमने लिखत-पढ़त में उसकी गिरफ़्तारी कहीं दर्ज़ नहीं की. हमारे कैम्प में उसे दी गई यातनाओं के बारे में उसका बयान सही है. ऐसा किया जाना उन दिनों प्रक्रिया का हिस्सा था. हमने उसकी गांड में पेट्रोल डाला और उसे बिजली के झटके दिए. लेकिन मैं उसे तोड़ नहीं सका. हमारी कड़ी से कड़ी पूछ-ताछ के बावजूद उसने हमारे सामने कुछ भी नहीं उगला." अफ़ज़ल को यातना देनेवालों ने उससे एक लाख रुपयों की मांग की जिसे तबस्सुम ने शादी में मिले थोड़े से गहने सहित सब कुछ बेचकर अदा किया. 

2004में लिखे गए अपने वक्तव्य में तबस्सुम गुरु ने अपनी यातनाओं को दूसरे तमाम कश्मीरियों के अनुभवों की रौशनी में देखा और प्रस्तुत किया. उसने लिखा, "आपको लग रहा होगा कि अफ़ज़ल किसी विद्रोही गतिविधि में शामिल रहा होगा जिसके चलते सुरक्षाबल उससे जानकारी उगलवाले के लिए यातनाएं दे रहे थे. लेकिन आपको कश्मीर के हालात समझना चाहिए जहां हर औरत, मर्द और बच्चे के पास आंदोलन की कुछ न कुछ जानकारी होती है भले ही वह उसमें शामिल न भी हो. लोगों को मुखबिरों में तब्दील करके वे भाई को भाई के खिलाफ़, पत्नी को पति के खिलाफ़ और बच्चों को मां-बाप के खिलाफ़ खड़ा कर देते हैं." 

एस.टी.एफ़.कैम्प से निकलने के बाद (जहां उससे पूछ-ताछ करनेवालों ने उसके शिश्न में बिजली के तार छुआए थे) अफ़ज़ल को चिकित्सा की ज़रूरत थी. 6 महीने बाद वह दिल्ली चला आया. उसने तय किया था कि जल्दी ही वह तबस्सुम और अपने नन्हे बालक गालिब को भी दिल्ली में उसी घर में ले आएगा जो उसने किराए पर ले रखा था. लेकिन दिल्ली में रहते हुए उसे उसी एस.टी. एफ़ अधिकारी द्रविंदर सिंह का फ़ोन मिला जिसने पहले उसे यातना दी थी. सिंह ने अफ़ज़ल से कहा कि वह चाहता है कि अफ़ज़ल उसका एक छोटा सा काम कर दे. उसे मोहम्मद नाम के एक आदमी को कश्मीर से दिल्ली लाने का काम सौंपा गया जो उसने कर दिया. वह उस दुकान पर भी मोहम्मद के साथ गया जहां से उसने एक कार खरीदी. इस कार का बाद में संसद पर हमले में उपयोग हुआ और मोहम्मद की शिनाख्त हमलावरों में से एक के बतौर हुई.

अफ़ज़ल अभी श्रीनगर में सोपोर जाने वाली बस का इंतज़ार ही कर रहा था कि उसे गिरफ़्तार करके एस.टी. एफ़ के मुख्यालय लाया गया और बाद में वहां से उसे दिल्ली लाया गया. वहां उसने मारे गए आतंकवादी मोहम्मद को एक ऐसे आदमी के बतौर पहचाना जिसे वह जानता था. उसके बयान के इस हिस्से को तो अदालत ने माना, लेकिन उस हिस्से को नहीं जिसमें उसने कहा था कि वह एस.टी. एफ़ के निर्देशों पर काम कर रहा था.

जबमैं किराए की गाड़ी से सोपोर पहुंचा, मैंने सैनिकों को गलियों और छतों पर गश्त करते देखा. श्रीनगर में भी सैनिक थे, लेकिन यहां का मंज़र ही दूसरा था. रास्ते में हम सड़क के किनारे लगे उन तमाम साइनबोर्डों को छोड़ते आए थे जिन पर सेना और अर्द्ध-सैनिक सुरक्षाबलों ने "कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है" जैसे संदेश पुतवा रखे थे. इस कस्बे में महज छोटे-छोटे अधबने मकान और उदास दुकानें हैं. मैंने कार से बाहर निकलकर उस अस्पताल के बारे में मालूम करने की कोशिश की जिसमें तबस्सुम काम करती थी.

वहभर्ती वार्ड वाले ब्लाक में कैशियर की मेज़ पर थी, एक लम्बी महिला, जिसने हरे रंग की शलवार-कमीज़ पहन रखी थी और सर दुपट्टे से ढंक रखा था. उसने कहा कि वह मुझसे बात नहीं करना चाहती. मैं श्रीनगर के दोस्तों को फ़ोन करने बाहर निकला और उनसे मुझे पता चला कि एक-दो हफ़्ते पहले दिल्ली से आए दो पत्रकारों ने आकर स्टिंग आपरेशन किया था. अफ़ज़ल के भाई मुकदमे में उसकी पैरवी के लिए पैसे इकट्ठा कर रहे थे, लेकिन उन पैसों का इस्तेमाल संपत्ति खरीदने में कर रहे थे. पत्रकार गुप्त कैमरा लाए थे और उन्होंने तबस्सुम से पूछा कि क्या उसे नहीं लगता कि कश्मीरी नेतृत्व ने उससे दगा किया.

मैंनेतय किया कि इंतज़ार करूंगा. आखिर मैं इतनी दूर तक आ चुका था. मरीज़ लगातार अस्पताल के दरवाज़े की तरफ़ आते ही चले जा रहे थे. एक खच्चर वाले टांगे से एक बीमार महिला उतारी गई. मेरा ड्राइवर यह जानकर कि मैं न्यूयार्क से आया हूं, यह जानना चाहता था कि वर्ल्ड रेसलिंग फ़ेडरेशन (डब्लू.डब्लू. एफ़.) के कुश्ती के मैच अमरीका में कहां आयोजित होते हैं. हम आपस में थोड़ी देर बात करते रहे, फ़िर वापस अस्पताल में दाखिल हुए. 'बाह्य रोगी ब्लाक' जहां लिखा था, वहां भारी भीड़ इंतज़ार कर रही थी. ज़्यादातर लोग कारिडोर में खड़े थे और एक दूसरे से रगड़ते हुए आगे पहुंचने की जी-तोड़ कोशिश कर रहे थे. ऐसा करने के लिए जितनी ऊर्जा की ज़रूरत होती है, वह एक स्वस्थ इंसान में ही हो सकती है. कुछ ही कुर्सियां थीं जिन पर बैठे लोगों ने कुछ ऐसी भंगिमा अपना रखी थी मानो कई दिनों से अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे हों. दीवाल पर लिखा हुआ था, "इंतज़ार के समय का सदुपयोग करें-- काम जो करने हैं, उनकी योजना बनाएं-- ध्यान लगाएं-- प्रणायाम करें-- किसी दैवी नाम का स्मरण करें-- किताबें पढ़ें." मैंने कुछ देर इन इबारतों को पढ़ा फिर झल्लाकर मैंने तय किया कि तबस्सुम से कह देता हूं कि अब मैं जा रहा हूं. उसने सर हिलाया, फीकी सी मुस्कान चेहरे पर तैरी और फिर अलविदा कहा.

अस्पतालके बाहर की सड़क के किनारे अखरोट और भिसा के पेड़ों की कतारों थी. इस सड़क से मैं बर्फ़ से लदी पहाड़ियों को देख सकता था. शफ़ी के पास वे तमाम नुस्खे थे जिन्हें उसके अनुसार आज़मा कर मैं तबस्सुम को बातचीत के लिए तैयार कर सकता था. उसने कहा कि मुझे उससे यह कहना चाहिए था कि मैं जो लिखूंगा, उससे उसके पति को मदद मिलेगी. लेकिन मैंने दिल्ली मे भीड़ के द्वारा अफ़ज़ल का पुतला जलाए जाने की तस्वीरें देखी थीं, दक्षिणपंथी भारतीय जनता पार्टी के कार्यकर्ताओं ने उसे फ़ांसी की सज़ा सुनाए जाने की खुशी में अदालत के कमरे के बाहर की सड़कों पर पटाखे छोड़े थे, अखबार और टेलिविज़न, दोनों उसे आतंकवादी हमले का मास्टरमाइंड बता रहे थे. मैं तबस्सुम को कैसे आश्वस्त करता कि जो मैं लिखता उससे अफ़ज़ल की मदद हो सकती थी?

जबपत्रकारों ने तबस्सुम से अफ़ज़ल के भाइयों के बारे में पूछा तो उसने कहा कि उसने कभी किसी से अपने पति के मुकदमे की बाबत पैसा नहीं मांगा. उसने कहा, "मेरा ज़मीर नहीं कहता." मैंने उस वक्तव्य के बारे में फिर सोचा जब मैंने दिल्ली में संजय काक की फ़िल्म 'जश्ने-आज़ादी' देखी. यह फ़िल्म कश्मीर में हिंसा की जो कीमत अदा की गई उसका दस्तावेज़ है. झोंपड़ी में रह रही एक दिन-हीन महिला से पूछा जाता है कि क्या गलत तरीके से मार दिये गए उसके परिवार के एक सदस्य की मौत का मुआवज़ा सेना ने उसे दिया, जिसका कि वादा किया गया था. उस औरत ने छाती पीटते हुए कहा, "वे मेरे बच्चे को मेरी गोद से छीन ले गए. मैं सूअर का मांस खा लूंगी, लेकिन सेना से मुआवज़ा स्वीकार नहीं करूंगी."

कश्मीरसे न्यूयार्क (जहां मैं काम करता हूं) लौटकर, मैंने ओरहान पामुक का 'इस्तानबुल' शीर्षक संस्मरण पढ़ा. अपनी जवानी में पामुक एक पेंटर बनना चाहते थे, और वे अभी भी अपने शहर को एक कलाकार की निगाह से देखते थे. पामुक ने लिखा, "शहर को स्याह और सफ़ेद में देखना, उस पर जमे धूसरपन को देखना और उस उदास अकेलेपन में सांस लेना जिसे उसके निवासियों ने अपनी नियति की तरह गले लगा रखा है, के लिए महज इतना ही ज़रूरी है कि आप किसी अमीर पश्चिमी शहर से उड़कर सीधे उन भीड़-भड़क्केवाली गलियों में गुज़रें: अगर उस समय सरदी है, तो गलाता पुल पर हर आदमी वैसे ही पीले, मटमैले भूरे और बदरंग कपड़े पहने मिलेगा." 

इनशब्दों को पढ़कर, मुझे फ़िर श्रीनगर का ध्यान आया. मैं एक अमीर पश्चिमी शहर से हवाई उड़ान के ज़रिए आया था और वहां की हर चीज़ मुझे वैसी ही बदरंग दिखाई दी थी, गंदे मिलिट्री हरे रंग में लिपटी हुई. हर वो घर जो नया था, भड़कीला और अश्लील जान पड़ता था या फ़िर आश्चर्यजनक तरीके से अधूरा. बहुत सी इमारतों के शटर गिरे हुए थे, या फ़िर वे जलकर काली हो चुकी थीं, या फ़िर उनमें से कई महज रख-रखाव के अभाव में ढह रहीं थीं. पामुक लिखते हैं कि जो लोग इस्तानबुल में रहते हैं, वे रंग पसंद नहीं करते क्योंकि वे उस शहर का शोक मना रहे होते हैं जिसके उज्जवल अतीत पर डेढ़ सौ साल के पतन की गर्द ने उसे धूसर बना दिया है. मुझे लगता है कि पामुक खालिस गरीबी का भी चित्रण कर रहे हैं. 

'जश्न-ए-आज़ादी' ने मुझे एक दूसरा श्रीनगर दिखाया. फ़िल्म का उत्कर्ष इस बात में निहित है कि उसने हिंसा के बावजूद दर्शकों के दिमाग में विचारों और रंगों के लिए जगह पैदा की. फ़िल्मकार ने धूसरपन और उदासी के बीच बारंबार स्मृति की कौंध को ढूंढ निकाला : ज़मीन पर पड़े खून के धब्बों की स्मृति, पहाड़ियों के हुस्न और लाल अफ़ीम के पौधों की स्मृति, माओं की सिसकियों और ग्रामीण कलाकारों के रंगे-पुते चेहरों की स्मृति. स्मृतियां-- मृतकों की, बर्फ़बारी की, हर जगह खुद रही नई कब्रों की और आज़ादी के लिए नारे लगाते चमकदार चेहरों की भी. 

चारदशक से भी ज़्यादा समय पहले लिखे यात्रा-संस्मरण में वी.एस. नायपाल ने लिखा था,"गंदगी से बजबज गलियों से दिखनेवाली उन तंग जगहों में कालीनों, शालों और कम्बलों पर शानदार आकृतियों में चमकदार रंगों की बहार होती थी. फ़ारस से अर्जित ये आकृतियां और रंग कश्मीर में जैसे स्वत: उग आए हों अपनी सारे खरेपन और विविधता के साथ...." काक की फ़िल्म में चटकदार रंग तब ही दीख पड़ते हैं, जब हम कश्मीरी पहनावे में फ़ोटो खिंचाते,प्लास्टिक के फूलों के गुलदान हाथ में लिए पर्यटकों को देखते हैं. 

जब मैं अफ़ज़ल और तबस्सुम गुरु की उदासी के बारे में सोचता हूं, तो मैं रंग नहीं, बल्कि आख्यान खोजता हूं जो उनके जीवन को अर्थ दे सके. यही वह चीज़ है जो तबस्सुम की कही कहानी में ताकतवर है. उसने अपने अनुभवों को तारतम्य दे दिया, इस तरह कि दूसरे कश्मीरी दम्पत्तियों के अनुभव भी उनमें मुखरित हो उठे. 

पामुकके 'इस्तानबुल' की ही तरह मैंने कश्मीर की झलक ऐसी ही एक दूरदराज़ जगह के बारे में बनी एक और फ़िल्म में भी पाई. हानी अबू-असद की फ़िल्म 'पैराडाइज़ नाउ' वेस्ट बैंक के दो दोस्तों- सईद और खालिद की कहानी है जिन्हें तेल अवीव पर आतंकवादी हमले के लिए भर्ती किया गया है. ये दोनों वेस्ट बैंक में आ बसे आप्रवासी के वेश में एक शादी में जा रहे हैं. ये दोनों जिन्हें आगे बमबारी करनी है, बार्डर पर आकर बिछड़ जाते हैं, और योजना रोक दी जाती है. इस घटनाक्रम ने खालिद के मन में कुछ सोच-विचार और शंकाओं को प्रेरित किया. लेकिन सईद कटिबद्ध है. उसे कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही थी, इसका पता हमें तब चलता है जब हाल ही में फ़िलिस्तीन लौटी सुहा नाम की युवती के साथ वह एक घड़ी की दुकान में प्रवेश करता है और सुहा लक्ष्य करती है कि उस दुकान पर वीडियो भी उपलब्ध थे. इन वीडियो कैसेटों में शत्रुओं के साथ सहयोग करने वालों को मौत के घाट उतारते दिखाया गया था. सुहा को झटका लगता है. वह पूछती है, "क्या तुम्हें लगता है कि इन वीडियो कैसेटों की यहां इस तरह से बिक्री एक सामान्य बात है?" सईद जवाब में कहता है, " यहां क्या चीज़ सामान्य है?". फिर वह खामोश ढंग से सुहा को बताता है कि उसका पिता भी शत्रुओं का सहयोगी था और उसे भी मौत के घाट उतार दिया गया.

नाबलुसमें कारों के परखच्चे लगातार ही उड़ते रहते हैं. कुछ भी काम नहीं करता. घर या तो बम धमाकों से तबाह कर दिये गए या फिर अधूरे दिखते हैं. नाबलुस में भी बच्चे उसी तरह हिंसा से डरे दिखाई देते हैं जैसे कि श्रीनगर में. मैं अफ़ज़ल और तबस्सुम के बच्चे गालिब और हज़ारों दूसरे कश्मीरियों के बारे में सोचता हूं. यह कल्पना करना भयावह भले हो लेकिन मुश्किल नहीं कि उन्हें भी एक दिन वे शब्द मिल ही जाएंगे जिनमें वे सईद की तरह ही अपना साक्ष्य दर्ज़ कराएंगे. वे शब्द सईद शब्दों की तरह होंगे जिन्हे वह आत्मघाती हमले पर जाने से पहले एक खाली कमरे में कैमरे के सामने बोलता है :

"कब्ज़े के अपराध अंतहीन होते हैं. इनमें भी सबसे भयंकर अपराध होता है लोगों की कमज़ोरियों का शोषण कर उन्हें अपने ही शत्रु का सहयोग करने पर मजबूर करना. ऎसा करके वे न केवल प्रतिरोध को खत्म करते हैं, बल्कि उनके परिवारों को तबाह करते हैं, उनके आत्मसम्मान को नष्ट करते हैं, एक पूरी जनता को तबाह करते हैं. जब मेरे पिता को मौत के घाट उतारा गया, तब मैं दस साल का था. वे अच्छे आदमी थे. लेकिन वे कमज़ोर हो चले थे. इसके लिए मैं कब्ज़े को दोषी मानता हूं. उन्हें समझना चाहिए कि अगर वे मुखबिरों को तैयार करते हैं , तो उन्हें इसकी कीमत चुकानी होगी. आत्मसम्मान के बगैर ज़िंदगी बेकार है. खासकर तब जब वह हर दिन आपको अपमान और कमज़ोरी की याद दिलाती हो और दुनिया महज उपेक्षा और कायरता के साथ देखती चली जाती हो."

समकालीन जनमत से साभार


बेवजह नज़रबंदी का लेखा-जोखा

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इफ्तिखार गिलानी

अफजल गुरु की फांसी के दिनइफ्तिखार गिलानी ने अपनी ५ घंटे के लिए की गई नज़रबंदी के बाद ये पोस्ट लिखी थी। पेश है दिलीप खानद्वारा किया उसका हिंदी तर्जुमा-

सुबह 10.30 बजे ऑफिस जाने के लिए मैं कार में बैग रख ही रहा था कि मैंने देखा दो लोग मेरे पास आए हैं। वे मुझसे गिलानी साहब के घर के बारे में जानना चाहते थे। मैंने ये सोचते हुए कि ये लोग किसी कूरियर एजेंसी से आए होंगे, पूछा कि आप लोग किस गिलानी साहब का पता पूछ रहे हैं? उन्होंने जवाब दिया कि इसी मोहल्ले में रहने वाले कश्मीरी नेता का पता। मैंने कहा कि वे दूसरे ब्लॉक में रहते हैं और ये कहते हुए उन्हें दिशा समझाने लगा। उनमें से एक ने मुझसे आग्रह किया कि मैं उनके साथ वहां तक चलूं। मैंने वैसा ही किया। 

रास्ते में उन्होंने मुझे बताया कि वो दिल्ली स्पेशल सेल से ताल्लुक रखते हैं। जब हम खिरकी एक्सटेंशन के जेडी 18ई ब्लॉक पहुंचे तो मैंने देखा कि गली में सादे कपड़ों में कुछ लोग पहले से जमा हैं। मैंने पहले तल्ले की तरफ़ उंगली से इशारा किया और कहा कि जिस गिलानी साहब को वो खोज रहे हैं वो वहां रहते हैं। जैसे ही ये कहकर मैं चलने को हुआ, उन लोगों ने मुझे पकड़ लिया और कहा कि उन्हें बात करने के लिए बस कुछेक मिनट और चाहिए। इसके बाद तकरीबन घसीटते हुए मुझे पहले तल्ले पर ले जाया गया। उन लोगों ने मेरा पर्स, पहचान पत्र, चाबी वगैरह जब्त कर लिया। लेकिन, तब तक मेरा फोन उन लोगों के हत्थे नहीं चढ़ा था। फ्लैट पर पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां पहले से और भी लोग मौजूद हैं। जैसे ही वो आपस में बातचीत करने में मशगूल हुए मैं बाथरूम चला गया और वहां से अपने दफ़्तर और कुछ दोस्तों को एसएमएस भेजने में कामयाब हुआ। जैसे ही मैं बाहर निकला, उन लोगों की निगाह फोन पर पड़ी और फिर उन लोगों ने उसे अपने कब्जे में कर लिया।
15मिनट बाद मैंने देखा कि सादे कपड़े पहने दो मर्द पुलिसवालों के साथ मेरी पत्नी भी वहां पहुंच रही हैं। घर पर मेरे बच्चे तन्हा थे। मैंने उनसे बार-बार जानना चाहा कि मुझे नज़रबंद करने का वो कारण बताएं। ऐसा पूछने पर हर बार वो काफी उखड़ जाते और मुझे गंभीर परिणाम की चेतावनी देते हुए धमकाने लगते। मैं ये भी जानना चाहता था कि अगर नज़रबंद ही करना था तो मुझे मेरे अपने घर की बजाय सैयद अली शाह गिलानी के घर पर क्यों किया गया, और मेरे बच्चों को हमसे दूर क्यों रखा गया? 

[लगभग] पांच घंटे बाद बाहर मैंने कई आवाज़ें सुनीं। एक अधिकारीनुमा व्यक्ति भीतर आया और ज़ोर से कहा कि मैं आज़ाद हूं और अपने घर जा सकता हूं। बाजू की गली में मैंने हिंदुस्तान टाइम्स के औरंगजेब नक़शबद्नी (Aurangzeb Naqashbadni) और ब्यूरो प्रमुख सैकत दत्ता सहित दफ़्तर के कई लोगों को देखा। वे लोग गृह मंत्रालय और दिल्ली पुलिस में अपने हर मुमकिन संपर्क का इस्तेमाल कर चुके थे। जब मैं घर पहुंचा तो देखा कि मेरे ड्राइंग और लिविंग रूम में 7-8 लोग मौजूद है। उन लोगों ने हमारे बच्चों को बेडरूम में बंद कर रखा था। 

हमलोगों के वहां पहुंचने के बाद एक-एक कर वो बाहर निकलने लगे। अगर मैं सिर्फ ये कहूं मेरे बच्चे दहशत में थे तो ये मामले के असर को कम करना होगा। उन्होंने (बच्चों ने) हमें बताया कि किस तरह हमारी ग़ैरमौजूदगी में वे लोग दरवाज़े को धड़ाम से मारते हुए उन्हें बेडरूम में कैद कर दिया। 

सार्वजनिकतौर पर मैं बार-बार कह चुका हूं कि अपने ससुर सैयद अली गिलानी की राजनीति से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। पिछले दो दशक से ज़्यादा समय से मैं दिल्ली में पत्रकारिता करते हुए जी रहा हूं। सुरक्षा एजेंसियों और ख़ासकर दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के रवैये से मैं बुरी तरह खिन्न और व्याकुल हूं। मैं काफ़ी डरा हुआ महसूस कर रहा हूं। अपने बच्चों को शांति और करुणा के माहौल में पालने की मैं पूरी कोशिश करता हूं। मैं नहीं जानता कि एक शांतिप्रिय और क़ानून को मानने वाले व्यक्ति के तौर पर खुद को साबित करने के लिए मुझे क्या करना होगा। जैसा कि फ्रेडरिक डगलस ने कहा है कि एक राष्ट्र का जीवन तभी तक सुरक्षित है जब तक वह ईमानदार, सच्चा और भद्र हो। मैं इसमें जोड़ना चाहूंगा कि इससे बयानबाजी पर उतारू (आक्रामक) वर्ग को तात्कालिक लाभ तो मिलता दिखेगा लेकिन लंबे समय में दमन, उत्पीड़न और (नागरिकों के) अधिकारों को रौंदने से कोई राष्ट्र कमज़ोर और असुरक्षित ही होगा।

मुसीबत में पी जे कुरियन

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रमेश भगत

-रमेश भगत

"...कुरियन की मुश्किलें इस वजह से और बढ़ गई हैं कि इस सामूहिक बलात्कार मामले के मुख्य आरोपी धर्मराजन ने कहा है कि इस घटना के वक्त खुद कुरियन गेस्ट हॉउस में ही मौजूद थे. उसने यह भी कहा है कि तत्कालीन जांच अधिकारी और वर्तमान राज्य सूचना आयुक्त सी बी मैथ्यू ने इस मामले में कुरियन का नाम ना लेने के लिए उस पर दबाव बनाया था..."

पी जे कुरियन
सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने राज्यसभा के उपसभापति और कांग्रेस सांसद पी जे कुरियन के लिए मुसीबत खड़ी कर दी है। सुप्रीम कोर्ट ने सुर्यनेल्ली सेक्स स्कैंडल मामले की सुनवाई करते हुए उसने केरल हाई कोर्ट को आदेश दिया है कि वो फिर से इस मामले की सुनवाई करे और सभी आरोपी फिर से अदालत में जमानत की अपील करें।


कुरियनकी मुश्किलें इस वजह से और बढ़ गई हैं कि इस सामूहिक बलात्कार मामले के मुख्य आरोपी धर्मराजन ने कहा है कि इस घटना के वक्त खुद कुरियन गेस्ट हॉउस में ही मौजूद थे. उसने यह भी कहा है कि तत्कालीन जांच अधिकारी और वर्तमान राज्य सूचना आयुक्त सी बी मैथ्यू ने इस मामले में कुरियन का नाम ना लेने के लिए उस पर दबाव बनाया था. 
बहुचर्चितसुर्यनेल्ली सेक्स स्कैंडल सन् 1996 में केरल के इडुक्की जिले के सुर्यनेल्ली में हुआ था। मामला यह था कि 16 साल की एक लड़की को कुछ लोगों ने अपहरण कर लिया। 40 दिनों तक 42 लोगों ने लड़की के साथ बलात्कार किया। उनमें एक आरोपी राज्यसभा के उपसभापति पीजे कुरियन भी हैं।
6 सितंबर2000 को विशेष अदालत ने 35 लोगों को दोषी ठहराते हुए विभिन्न शर्तों पर कठोर कारावास की सज़ा सुनाई थी। पर इन 35 लोगों में पीजे कुरियन का नाम नहीं था। पीजे कुरियन के खिलाफ पीड़िता ने अलग से शिकायत की। लेकिन केरल हाई कोर्ट ने 35 लोगों को बरी कर दिया और सिर्फ़ एक व्यक्ति को सेक्स व्यापार का दोषी मानते हुए पाँच साल की क़ैद और 50 हज़ार रुपए का जुर्माना लगाया था। वर्ष 2005 में लड़की के परिजनों ने सुप्रीम कोर्ट में इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपील की।
सुप्रीमकोर्ट के आदेश के बाद केरल का राजनीतिक पारा चढ़ गया है। मुख्य विपक्षी दल सीपीएम ने राज्य सरकार से इस मामले की फिर से जांच करवाने की मांग की है। विपक्षी दलों ने राज्यसभा के उपसभापति के पद से भी पीजे कुरियन का इस्तीफा मांगा है। अपनी मांगों के समर्थन में सीपीएम के साथ विपक्षी दलों ने विधानसभा से लेकर सड़कों तक विरोध-प्रदर्शन किया।
लेकिनराज्य सरकार विपक्षी दलों की मांग से इत्तेफाक नहीं रखती। केरल के कांग्रेसी मुख्यमंत्री ओमान चांडी का कहना है कि पीजे कुरियन पर लगे आरोपों की जांच पहले ही की जा चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने भी पीजे कुरियन को निर्दोष माना है। लिहाजा फिर से जांच का सवाल ही नहीं उठता है।’’
पीजेकुरियन ने भी अपने ऊपर लगे आरोपों को साजिश करार दिया है। उनका कहना है कि पुलिस ने उन पर लगे आरोपों की 4 बार जांच की है। उन्हे दोषी नहीं पाया गया है। लेकिन बलात्कार पीड़िता के घरवालों का आरोप है कि पीजे कुरियन ने अपने राजनीतिक पहुंच का फायदा उठाया है। पीड़िता के घरवालों ने कांग्रेस अध्यक्षा सोनिया गांधी को पत्र लिखकर पीजे कुरियन को राज्यसभा के उपसभापति पद से हटाने और उनपर कड़ी कार्रवाई करने की मांग की है। इस पर कांग्रेस का कहना है कि आरोप की न्यायिक जांच हुई है और पार्टी इस बारे में भावना में बहकर कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर सकती है।
पार्टीकासमर्थनपानेकेबावजूदपीजेकुरियनकीमुश्किलेकमहोतीनहींदिखरहीहै। मामलेकेअहमगवाहबीजेपीकेएकस्थानीयनेताएसकेराजननेयहकहकरसनसनीफैलादीहैकिपुलिसकीओरसेअदालतमेंपेशकियागयाउनकाबयानवहनहींथाजोउन्होंनेदर्जकरायाथा।राजननेयहभीकहाहैकिवहजांचटीमकाहिस्सारहेपूर्वएडीजीपीसीबीमैथ्यूजकेखिलाफकानूनीकार्रवाईशुरूकरेंगे।

इसमामले पर फैसला देने वाले केरल हाई कोर्ट के तात्कालीन न्यायाधीश ने भी बयान देकर विवाद खड़ा कर दिया है। पूर्व न्यायाधीश का कहना है कि पीड़िता का बाल वेश्यावृत्ति में इस्तेमाल किया गया था, उसके साथ बलात्कार नहीं हुआ था।

सुप्रीमकोर्टकेआदेशकेबादभीमामलासुलझताहुआनहींलगरहाहै।राज्यमेंविपक्षीदलोंनेसरकारपरदवाबबनानाशुरूकरदियाहै।वहींकेंद्रसरकारभीइसमामलेपरज्यादादिनचुपनहींरहसकतीहै।कुछहीदिनोंबादराज्यसभामेंजस्टिसवर्माकमेटीकीसिफारिशोंपरआधारितविधेयकपेशहोगा।ऐसेमेंविपक्षीदलइसबातकोमुद्दाबनासकतेहैकिबलात्कारकेआरोपीकेसामनेहीबलात्काररोकनेकाविधेयककैसेपेशकियाजासकताहै?

रमेशपत्रकार हैं. अभी ईएमएमसी में कार्यरत. 
rameshbhagat11@gmail.com इनकी ई-मेल आईडी है.

देहरादून में कश्मीरी छात्रों का प्रदर्शन और गिरफ्तारी

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 -प्रेक्सिस प्रतिनिधि

"...कश्मीर की आजादी के पक्ष में और अफजल को फांसी दिए जाने के विरोध में ये छात्र बैनर और पोस्टर लिए परेड मैदान में एकत्र हुए थे। प्रत्यक्षदर्शियों कहना है कि ये लोग कश्मीर की आजादी को लेकर भी नारे लगा रहे थे।अब दूसरी ओर इन आंदोलनकारी छात्रों के कई तरह से प्रताड़ित होने का भय है। कालेज और शिक्षण संस्थानों से उनके नामांकन को रद्द किया जा सकता है। घर के मालिक इन्हें कमरा देने से मना सकते हैं।"   

फजल गुरु को फांसी दिए जाने के विरोध में देहरादून के घंटा घर में कश्मीरी छात्रों ने प्रदर्शन किया। छात्रों ने फांसी दिए जाने के विरोध के साथ ही कश्मीर घाटी में चल रहे सैनिक उत्पीड़न रोकने की मांग की। पुलिस ने 16 प्रदर्शऩकारियों को गिरफ्तार किया है। स्थानीय मीडिया इसे राष्ट्र विरोधी घटना की तरह प्रस्तुत कर रहा है। हालांकि पुलिस ने इसे एक सामान्य प्रदर्शन बताया है। और गृह मंत्रालय से भी पुलिस को इन छात्रों की गिरफ्तारी के सम्बन्ध में किसी किस्म के निर्देश मलने से इनकार किया है।

कश्मीरकी आजादी के पक्ष में और अफजल को फांसी दिए जाने के विरोध में ये छात्र बैनर और पोस्टर लिए परेड मैदान में एकत्र हुए थे। प्रत्यक्षदर्शियों कहना है कि ये लोग कश्मीर की आजादी को लेकर भी नारे लगा रहे थे। अब दूसरी ओर इन आंदोलनकारी छात्रों के कई तरह से प्रताड़ित होने का भय है। कालेज और शिक्षण संस्थानों से उनके नामांकन को रद्द किया जा सकता है। घर के मालिक इन्हें कमरा देने से मना सकते हैं। देहरादून में करीब 2000 कश्मीरी छात्र  पढ़ाई कर रहे है जबकि करीब 5000 कश्मीरी छात्र उत्तराखंड के अन्य इलाकों में पढ़ रहे है।
पुलिसके द्वारा गिरफ्तार किए गए छात्र उत्तरांचल कालेज आप साइंस एंड टेक, एसजीआरआर कालेज,  सांई इंस्टिट्यूट और डीएवी कालेज के हैं। गिरफ्तार छात्रों में आबिद नजर पुत्र नजीर अहमद, अनंतनाग, बिलाल अहमद पुत्र अब्दुल असहद, सोपोर, मुद्दसर नासीर पुत्र नासीर अहमद, पुलवामा, अदीर पुत्र अब्दुल अजीज अनंतनाग, वाहीद पंडित पुत्र सनद पंडित, सोपोर, मुद्दसर अहमद पुत्र गुलाम मोहम्मद बारामूला, सफकत पुत्र गुलाम मोहिदीन बडगाम, आमीर निसार पुत्र निसार अहमद चनापुरा श्रीनगर, राशिद बारामूला, गुलाम नबी पुत्र गुलाम रसूल बारामूला, शेख अमजर पुत्र अब्दुल अहमद, सोपोर, अफिल बिलाल पुत्र गुजाम मोहम्मद बारामूला शामिल हैं।

दिल्ली में दो प्रदर्शन, भगवा गुंडे और पुलिसिया गठजोड़

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-अंजनी कुमार
अंजनी कुमार

"...कोई भी विरोध का स्वर उठता पुलिस उसे घसीटते हुए अपने गुंडों  में ले जाकर छोड़ जाती और मार पिटाई का दौर शुरु हो जाता। ये गुंडे खुलेआम डंडा लिए घूम रहे थे, मार रहे थे, बदतमीजिया कर रहे थे और पुलिस इनके साथ साथ घूमते हुए अफजल गुरु को फांसी देने वालों की खिलाफत करने वालों के प्रतिरोध को तोड़ रही थी। लगभग तीन घंटे चली इस घटना में विरोध करने वाले 22 लोगों को डिटेन किया गया।..."

ह महाराष्ट्र का धूले नहीं है। फैजाबाद और बरेली नहीं है। यह बस्तर नहीं है। नंदीग्राम और लालगढ़ नहीं है। यह सलवा जुडुम नहीं है, हरमद वाहिनी नहीं है, गुजरात का मोदी का हत्यारा अभियान नहीं है। यह दिल्ली है। लेकिन 1984 नहीं है। यह दिल्ली विश्वविद्यालय है और जंतर-मंतर का 100 मीटर का ‘लोकतांत्रिक’ गलियारा है। 9 जनवरी 2013 को अफजल गुरु की फांसी का विरोध कर जनवादी लोगों को पुलिस, इंटलिजेंस, आरएसएस अपने पूरे गिरोह के साथ जंतर मंतर पर हमला करने में लगा रहा। आएएसएस बकायदा टेंट लगाकर लाडडस्पीकर से जोर जोर से अफजल गुरु की फांसी का विरोध करने वालों को मारने पीटने का आदेश और संचालन कर रही थी। कोई कश्मीरी युवा दिख जाय या कोई नारा लगा दे, इन पुलिस और आरएसएस के गुंडों से पहले मीडिया अपना कैमरा लिए उस तरफ दौड़ जाता। और फिर मार पिटाई के दृश्य का फिल्मांकन शुरु हो जाता। कोई भी विरोध का स्वर उठता पुलिस उसे घसीटते हुए अपने गुंडों  में ले जाकर छोड़ जाती और मार पिटाई का दौर शुरु हो जाता। ये गुंडे खुलेआम डंडा लिए घूम रहे थे, मार रहे थे, बदतमीजिया कर रहे थे और पुलिस इनके साथ साथ घूमते हुए अफजल गुरु को फांसी देने वालों की खिलाफत करने वालों के प्रतिरोध को तोड़ रही थी। लगभग तीन घंटे चली इस घटना में विरोध करने वाले 22 लोगों को डिटेन किया गया। लगभग 4.30 बजे की शाम को जंतर मंतर पर 40 लोगों ने अफजल गुरु की फांसी के विरोध में नारा लगाया और पहले से तय ‘जनता पर युद्ध विरोधी मंच’ के कार्यक्रम के अनुसार गांधी शांति प्रतिष्ठान के लिए गए। वहां पहुंचने के पहले पुलिस की भारी संख्या, दर्जनों गाडि़यां और वाटर कैनन के साथ उपस्थित थी। कार्यक्रम खत्म होने तक वे इसी तरह बने रहे। 


6 जनवरी 2013 को खालसा कालेज से लेकर श्री राम कालेज ऑफ कामर्स के गेट तक नरेंद्र मोदी के समर्थकों की भारी भीड़ है। वे स्वागत के लिए खड़े हैं। पुलिस नरेंद्र मोदी और इन समर्थकों की सुरक्षा में मुस्तैद है। दिल्ली विश्वविद्यालय के आट्र्स फैकल्टी के श्री राम कालेज ऑफ कामर्स की तरफ वाले गेट पर नरेंद्र मोदी की खिलाफत करने वाले छात्रों की भीड़ है। उन्हें पुलिस के दो बैरियर, वाटर कैनन और आंसूगैस, लाठी और बंदूक के साथ तैनात है। बैरियर पर नरेंद्र मोदी विरोधी छात्र, संगठन, अध्यापकों के हुजूम के पीछे की तरफ से पुलिस की विशाल फौज खड़ी है। अचानक विरोध करने वाले छात्रों के बीच एबीवीपी और छद्म नाम वाले बैनरों के साथ आरएसएस पुलिस के सहयोग से घुसती है। यह एक दृश्य है। पुलिस बैरियर के इस तरफ और उस तरफ दोनों ही ओर पुलिस की सुरक्षा व सहयोग से आरएसएस और गुडा तत्वों का हमला शुरु होता है। पुलिस लाठी चार्ज करती है। नरेंद्र विरोधी छात्रों को न केवल पुलिस साथ उनके बुलाए गुंडे भी मारते हैं। पुलिस विरोधी छात्रों को गिरफ्तार करना शुरु करती है। फिर यह काम रुक जाता है। इस दौरान पुलिस ने पांच अध्यापकों को मार कर घायल कर चुकी है। एक छात्र को गंभीर हालत में अस्पताल ले जाया जाता है। एक बेहोश हो जाता है। अध्यापक, छात्र अपनी एकता को बनाए रखते हुए अपना विरोध जारी रखा। गुंडा तत्वों से निपटा। पुलिस उन्हें सुरक्षित कर एक कोने में खड़ा किए रही। एक बार फिर लाठी चार्ज हुआ। पुलिस ने छात्रों को गिरफ्तार किया। कई छात्रों को मारा। इस बीच आरएसएस और पुलिस के गुंडे पुलिस की गाड़ी पर खड़े होकर नरेंद्र मोदी का झंडा लहरा रहे थे। राॅड और डंडे लहरा रहे थे। गालिया बक रहे थे और मौका मिलने पर मार पिटाई के लिए आगे आ रहे थे। पुलिस की अभूतपूर्व सुरक्षा में आरएसएस और उनके गुंडों का यह खेल रात के दस बजे तक चलता रहा। विरोध कर रहे छात्रों और संगठनों डीएसयू, आइसा, एसएफआई, एसआईओ, सीएफआई और अध्यापकों ने अपनी मोर्चेबंदी जारी रखी। और पुलिस और गुंडा तत्वों के खिलाफ मामला दर्ज कराया। उसके दूसरे दिन पता चला कि पुलिस ने छात्रों और अध्यापकों पर केस दर्ज कर दिया है। पुलिस के अनुसार इन्होंने सुरक्षा के लिए ‘खतरा उत्पन्न’ किया। इस दौरान एक भी आरएसएस या गुंडा तत्वों की गिरफ्तारी नहीं की गई। उन्हें अंत तक सुरक्षित रखा गया।

6 जनवरीको नरेंद्र मोदी का भाषण हुआ। और उसके अगले दिन भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने उसे प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया। दिल्ली विश्वविद्यालय को लांचिंग पैड बनाया गया। छात्र यूनियन के नाम से नरेंद्र मोदी को बुलाने की रस्म अदा की गई। छात्रों और अध्यापकों को इस बात की भनक कार्यक्रम घोषित होने के दो दिन पहले लगी। सवाल उठा कि किसने बुलाया। एक ठोस बात आई: अरुण जेतली ने। अरुण जेतली श्री राम कालेज ऑफ कामर्स के गवर्निंग बॉडी का सदस्य हैं। जाहिरा तौर पर इसमें वह लोग काफी संख्या में हैं जिन्हें मोदी के आने से कोई दिक्कत नहीं है। यह कालेज इसी गवर्निंग बॉडी से चलता है। छात्र और अध्यापक का इस कालेज में क्या हैसियत बनती है। यह दुकान है जहां शिक्षा का कारोबार चल रहा है। यही स्थिति दिल्ली विश्वविद्यालय की है। छात्र अध्यापक पाठ्यक्रम, शिक्षा पद्धति, फीस, कैंटीन और यहां तक की पुलिस व वीसी की कथित सुरक्षा व्यवस्था को लेकर आंदोलन करें, धरना दें, ...कोई फर्क नहीं पड़ रहा। यह दिल्ली है और यहां के हालात ऐसे ही बदल रहे हैं। यह लैंड ग्रैबिंग नहीं है। यह एजुकेशन ग्रैबिंग है। यह विशाल मकान जिसमें शिक्षा का कारोबार चल रहा है, उस पर कब्जा का अभियान है। और इसके लिए नरेंद्र मोदी के शब्दों में अच्छे ब्रांड वाले फैक्ल्टी व कॉलेज को ‘विशेष पैकेज’ दिया जाएगा। इस काम को निपटाने वालों को ऊंचा पद और पैसा दिया जाएगा। इस भाषण पर खाये अघाए घरों से आने वाले छात्र तालियां पीट रहे थे। यह शिक्षा का नया तंत्र है जो आम घरों से आए छात्रों को खदेड़कर बाहर कर रहा है। इस तंत्र में इस बात की फिक्र ही नहीं है कि 20 रुपए पर जिंदगी बसर करने वाले परिवारों के बच्चे पढ़ने के लिए कहां जाएंगे? कर्ज में डूबते मध्यवर्ग का विशाल हिस्सा अपने बच्चों को लेकर कहां जाएगा? दलित, आदिवासी, मुसलमानों के बच्चे किन स्कूलों में पढ़ेंगे? ये सवाल इस तंत्र के लिए वैसे ही हैं जैसे इस देश की सरकारों के लिए महिलाओं की सुरक्षा का सवाल। ये खदेड़ते रहेंगे और देश की इज्जत का छौंक बघारेंगे।

दिल्ली की इन दोनों घटनाओं को अंजाम देने वाली केंद्र और राज्य दोनों ही कांग्रेस की सरकार है। दिल्ली विश्वविद्यालय का कुलपति और कुलाधिपति दोनों ही कांग्रेस की विचारधारा के माने जाते हैं। बरेली, प्रतापगढ़ और फैजाबाद में पुलिस की देखरेख में आरएसएस के गुंडों द्वारा मुस्लिम परिवारों को मारा जाना, उनके घरों और दुकानों को जलाना भाजपा सरकार के नेतृत्व में नहीं सपा की मुलायम-अखिलेश यादव की सरकार कर रही है। और इसके खिलाफ बसपा, कांग्रेस को बोलने की मशक्कत भी नहीं करनी पड़ी। सड़क पर उतर कर विरोध करने की बात ही कुछ और है। धूले और फैजाबाद से लेकर दिल्ली तक घटनाओं के इस बढ़ते सिलसिले को चिदंबरम के इस बयान के मद्देनजर देखने की जरूरत है: आर्थिक वृद्धि राष्ट्रीय सुरक्षा का केंद्रीय मसला है।’ यह ठीक उसी दिन का बयान है जिस दिन नरेंद्र मोदी श्री राम कालेज ऑफ कामर्स के छात्रों और उपस्थित चंद अध्यापकों और बुलाए गए अतिथियों को संबोधित कर रहा था। यूरोपीय यूनियन और अमेरीका ने मोदी के लिए रास्ता साफ करना शुरु कर दिया है। साम्राज्यवादियों की लूट का केंद्र बने भारत में फासीवादी तंत्र को आगे ले जाने का निर्णय सरकारी तंत्र, लंपट तत्व, हुक्मरान पार्टियों और हिंदुत्व के ब्राह्मणवादी बहुमत के साथ लागू होना शुरु हो गया है। अपने पड़ोसी देश पर कब्जा करने की आकांक्षा, कश्मीर को विवादग्रस्त बनाए रखने के साथ साथ फौज पर कब्जा बनाए रखने की नीति, साम्राज्यवादी देशों के साथ (जिसमें रूस भी शामिल है) फौजी गठजोड़ और मोदी बनाम राहुल का खेल देश को किस तरफ ले जाएगा, का उत्तर बहुत साफ है। दुनिया की आर्थिक वृद्धि की गिरावट ने अमेरीका और यूरोपीय यूनियन के गिरेबान को पकड़ा हुआ है। भारत में यह सारे निवेश और सट्टेबाजी के बावजूद 5 से 6 प्रतिशत से ऊपर तैयार नहीं है। ऐसे में ‘विकास’ और ‘आर्थिक वृद्धि’ को राष्ट्रीय सुरक्षा से जोड़कर देखना और कुछ नहीं बल्कि फासीवाद के आमफहम परिभाषाओं के तहत ही उसका आगमन है।   


सबसे बड़ा लोकतंत्र और कश्मीर में नज़रबंद चौथा स्तंभ

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अंकित फ्रांसिस 

-अंकित फ्रांसिस
(ग्रेटर कश्मीर के प्रकाशक राशिद मख्दूमी
से बातचीत पर आधारित आलेख)
 

"..कोई एडवाइजरी नहीं जारी की गयी, कोई लिखित सूचना नहीं लेकिन देश की रक्षा और एकता का हवाला दे (दिल्ली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रीझने वाले ध्यान से पढ़े) अखबारों और तमाम तरह के सूचना पहुंचाने वाले माध्यमों पर रोक लगा दी गयी. पूरे कश्मीर को किसी अन्धकार युग में चार दिनों तक इसलिए धकेल दिया गया चूंकि दिल्ली हुकूमत की नींद में कोई डरावना सपना शामिल न हो जाय..."



9 फरवरी की एक आम ठंडी सुबह एक सुनी हुई सी कहानी केवल मुख्य पात्र बदलकर टीवी चैनलों ने सुनानी शुरू की. इस बार भी फांसी हुई, देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने वाले को दी गई और एक बार फिर इतने खुफिया तरीके से अंजाम दी गई कि लुटियन टीले पर गिद्ध की तरह मंडराने वाले पत्रकारों को इसकी भनक तक नहीं लगी. इसके अलावा आप अगर और थोडा आगे जाकर खबर के गुण-धर्म मापें तो उनमें रत्ती भर फर्क निकाल पाना मुश्किल हो जाएगा. इसके बाद जंतर-मंतर पर उमड़ी उन्मादियों की एक भीड़ ने लड़कियों तक को नहीं बख्शा और देश की एकता बने रहने के लिए उन्हें बाल पड़कर जी भरकर घसीटने से भी गुरेज नहीं किया. इस घटना के दौरान ‘आपकी सेवा में तत्पर दिल्ली पुलिस’ देशप्रेमियों की बहादुरी को फुटपाथ पर खड़ी निहारती रही.

येतो दिल्ली की सुबह की कहानी थी जो की दिन ढलते-ढलते राष्ट्रवादी उन्माद के सुख में तब्दील हो गया. दूसरी तरफ देश का वह हिस्सा जिस पर हमारे सालाना रक्षा बजट का एक बड़ा हिस्सा खर्च होता है, के लिए इस सुबह की तैयारी देश की सरकार ने पहले ही कर ली थी. जैसे पिछले साठ सालों का अँधेरा कश्मीरियों के लिए काफी ही नहीं था, तिहाड़ में अफजल को फांसी देने के बाद बिना किसी पूर्व सूचना के कश्मीर में कर्फ्यू (हालांकि अलग संविधान और एएफएसपीए जैसे कानूनों के चलते अघोषित कर्फ्यू वहां की हवा में घुले किसी तत्व जैसा ही है) कायम कर दिया गया. इन्टरनेट, केबल टीवी तक को नहीं बख्शा गया. लेकिन जैसे इतना सरकारी अँधेरा जैसे काफी ही नहीं था...ग्रेटर कश्मीर अखबार (कश्मीर का सबसे ज्यादा सर्क्युलेशन वाला अखबार) के प्रकाशक राशिद मख्दूमी बताते हैं की नौ फरवरी को भी किसी आम दिन की ही तरह अखबार पूरी तरह तैयार हो गया था और छपने के लिए ही जाने वाला था. तभी कोठीबाग़ थाने से उन्हें फ़ोन आया की अखबार निकालने पर रोक लग चुकी है, आपने छाप भी लिया तो डिस्ट्रीब्यूट नहीं करने दिया जायेगा. कोई एडवाइजरी नहीं जारी की गयी, कोई लिखित सूचना नहीं लेकिन देश की रक्षा और एकता का हवाला दे (दिल्ली में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर रीझने वाले ध्यान से पढ़े) अखबारों और तमाम तरह के सूचना पहुंचाने वाले माध्यमों पर रोक लगा दी गयी. पूरे कश्मीर को किसी अन्धकार युग में चार दिनों तक इसलिए धकेल दिया गया चूंकि दिल्ली हुकूमत की नींद में कोई डरावना सपना शामिल न हो जाय.

दिल्लीमें बैठे ‘आज़ाद’ लोगों के लिए और खासकर पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहे छात्रों को ये जानकार ज़रूर आश्चर्य होगा की कश्मीर में बिना किसी पूर्व सूचना के और बिना किसी लिखित आदेश के अख़बारों के छपने और वितरण पर रोक लगा देना आम बात हैं. यह आदेश सिर्फ ऊपर कहीं से जारी होते है और नीचे वालों को उपर वालों की कभी कोई खबर नहीं होती. राशिद बताते हैं की इससे पहले २००९ में अमरनाथ-श्राइन बोर्ड विवाद के दौरान भी अखबारों पर रोक लगा दी गयी थी. इसके बाद २०१० में भी वामिक फारुख नाम के एक बच्चे की हत्या से उपजे विवाद के दौरान भी यही किया गया. राशिद थोडा रुआंसा हो जाते हैं जब बताते हैं की २०१० उनका देखा सबसे बुरा समय था. इस दौरान प्रशासन ने जानबूझकर लोकल मीडिया को निशाना बनाया. उनके अखबार के स्टाफ को ऑफिस पहुचने नहीं दिया जाता था. कोई आने की कोशिश करे और पकड़ा जाये (यह सुनकर आप इफ्तिखार गिलानी को याद कर सकते हैं) तो बेझिझक उस पर तमाम पुलिसिया तरीके की हिंसा की जाती थी. राशिद थोडा अधीर हो जाते हैं जब बताते हैं की कई बार तो कर्फ्यू पास होने के बावजूद प्रेस होने के नाते उन्हें रोक कर रखा जाता या जानबूझकर परेशान किया जाता. कई बार छाप जाने के बावजूद अखबार को बाँटने नहीं दिया जाता. पुलिस स्पष्ट कह दिया करती की रद्दी में बेच दो..और कई बार उनके अखबार को ये करना भी पड़ा. २०१० और २००९ में तो कश्मीर के सभी लोकल अख़बारों ने मिलकर संघर्ष समिति भी बनाई थी. २०१० में धरना भी दिया गया था. लेकिन इस बार की ख़ामोशी तो डरावनी है.

बातों-बातों में राशिद मुझसे भी पूछ बैठते हैं की आप ही बताईये की अगर आज यहाँ पत्रकारों और मीडिया में ही कोई इसके खिलाफ बोलने के लिए तैयार नहीं है तो किसी भी तरह की कोई उम्मीद आम आदमी कैसे और किससे कर सकता है? राशिद ये भी बताते हैं की कई खुफिया सूत्रों के कई बार समझाने पर भी न मानने के चलते उनके अखबार को डीएवीपी मिलना बंद हो गया. उन्हें इसकी वजह बताई गयी की उनका अखबार एंटीनेशनल ख़बरें छाप रहा था. विभाग से जब इस बाबत एंटीनेशनल का आधार पूछा गया तो जवाब में सरकारी अन्धकार ही इनके हिस्से भी आया. इन्हीं वजहों से कैसे उनके अखबार के सामने आर्थिक संकट उत्पन्न करने की नाकामयाब कोशिश की गयी. यूँ तो कश्मीर में भी पत्रकार यूनियन है लेकिन वह अभी तक भी अखबारों के आपसी झगडे निपटाने के ही काम आती है. किसी भी चीज़ से उम्मीद करना राशिद को अब बेमानी लगता है. राशिद आगे कहते हैं कि पिछले ही साल प्रेस परिषद् के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू भी कश्मीर दौरे पर आये थे. उनके सामने ये समस्याएं सभी ने मिलकर रखी थी, उन्होंने भी इसे समझते हुये   केंद्र सरकार से इस बारे में बात करने के लिए कहा था. लेकिन दिल्ली जाकर क्या हुआ कुछ पता नहीं. 

होसकता है की आपको राशिद के कुछ विवरण सुनकर किसी मध्यपूर्व (प्रचलित अर्थों में ही समझें) के देश की खुश्बू आने लगे या किसी क्रूर शासक के दौर की कहानियों में आपने ऐसा सुना हो. इससे स्पष्ट भी हो जाता है की ‘अहिंसावादी भारत’, प्रेस की आज़ादी (प्रेस फ्रीडम इंडेक्स २०१३) के मामले में 179 देशों की लिस्टमें 140वें नम्बरपर क्यूँ आता है. स्पष्ट हो जाता है की नेपाल, बांग्लादेश, भूटान और माली भी आप सेऊपर क्यूँ हैं.

बातकरने के दौरान ही राशिद हमारे शक में भी साझा हो जाते हैं. वे शक जाहिर करते हैं की ऐसा क्यूँ है कि जैसे ही कश्मीर की स्थिति थोड़ी सुधरती है कुछ ऐसा किया जाता है की पूरी बात फिर से शून्य पर आकर टिक जाती है. राशिद बताते हैं की इस सीजन में सर्दियों में पिछले बीस सालों के मुकाबले सबसे ज्यादा सैलानी कश्मीर आये. लेकिन अब फिर इस घटना के बाद वही अन्धकार और सन्नाटा थाली में सजाकर कश्मीर के सामने परोस दिया गया है. इन्ही घटनाओं के चलते लोगों की आर्थिक स्थिति ख़राब होती जा रही है. युवाओं में इन घटनाओं से ख़ासा रोष उपजता है. राज्य की आर्थिक स्थिति को इससे कितना नुक्सान हो रहा है इसका अंदाजा लगन भी मुश्किल है. खासकर मीडिया को इस तरह बैन कर देने से किसी तक कोई खबर नहीं पहुँचती और एक अफरा-तफरी, केयोस का माहौल बन जात है. दो ही दिन पहले हम इसी से गुजरे हैं..जब तमाम तरह की अफवाहें इलाके में फ़ैल रही थीं. कितने मरे, किसने मारा कौन मारा या ऐसा कुछ हुआ भी या नहीं इसे वेरीफाई करने के लिए आपके पास कुछ नहीं है. जबकि साकार अगर इमानदार है तो ऐसे समय में मीडिया का अच्छा इस्तेमाल कर सकती है. लेकिन यहाँ नज़ारा दूसरा ही होता है और जानबूझकर पूरे माहौल को बदत्तर बना दिया जाता है.

यहींसे उन सवालों की शुरुआत होती है जिन्हें ज़बान पर लाना कश्मीर में एंटीनेशनल होने का तमगा आपको दिला देता है. क्यूँ एक राज्य के सवा करोड़ लोगों को सिर्फ सुरक्षा की दुहाई दे आप अन्धकार युग में धकेल दिया जाता है. देश की एकता की दुहाई देकर कैसे आप उसी देश के नक़्शे पर मौजूद एक राज्य को नजरबन्द कर देते हैं. क्यूँ कश्मीरी अगर देहरादून या अलीगढ़ में भी अपने हकों को लेकर प्रदर्शन करे तो उसे गिरफ्तार करने के लिए पुलिस को किसी भी क़ानून के पालन की ज़रूरत नहीं पड़ती. और इन्हें गिरफ्तार होता देख किसी के मन में कोई सवाल नहीं पैदा होता..इसके इतर उसका कश्मीरी होना ही उसके गुनाह की तस्दीक के लिए काफी हो जाता है. सवाल तो यह भी है की बात-बात पर अभिव्यक्ति की आज़ादी की दुहाई देने वाली मेनस्ट्रीम मीडिया ने पांच दिन गुजरने पर भी इसके विरोध में कोई बात किसी भी मंच से क्यूँ नहीं उठाई? राशिद और मैं बातों के दौरान ऐसे सवालों के बादलों से घिरे नज़र आये. इनका जवाब न उनके पास था न मेरे पास. मेरे पास कोई तसल्ली भी नहीं थी क्यूंकि जब इतने हो हल्ले के बावजूद सुप्रीम कोर्ट अफजल को एक अदद वकील न दिला सका, जो उसका केस ईमानदारी से लड़ सकता..तो अब और क्या कहा जा सकता है. एक पूरी पीढ़ी जो इस अंधकार की गवाह बन रही है उसे आप कैसे देशप्रेम का अर्थ समझायेंगे... फिलहाल तो अख़बारों पर से लगी रोक हटा ली गयी है लेकिन विशेष रूप से कश्मीर में इस पेशे से जुडी तमाम तरह की परेशानियाँ अब भी ऐसे ही कायम है. 

राशिदकी तरफ से फोन डिस्कनेक्ट हो जाने के बाद मैं काफी देर तक उस अन्धकार को अपने भी भीतर तहों में कहीं महसूस करता हूँ और तैयार हो जाता हूँ अपनी एक और स्टोरी के रिजेक्शन के लिए....

अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल। 
अभी एक साप्ताहिक अखबार में काम कर रहे हैं।
 इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है। 


शिवसेना द्वारा पिटे कश्मीरी युवकों का दर्द : एक मुलाक़ात

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सुनीता भास्कर
-सुनीता भास्कर

"...लेकिन हमें बार-बार टेरिरिस्ट कहा जाता है। हमारे हिंदु क्लासमेट हमारी फेसबुक वाल पर कई बार  टेरिरिस्ट टेरिरिस्ट लिख देते हैं। अफजल को फांसी होने पर हमारी कुलिग के फोन पर मेसेज आए कि बधाई हो  अफजल को फांसी हो गई। जफर ने बताया कि कालेज में  टीचर उनके प्रोजेक्ट में साइन भी नहीं करते हैं और कोई न कोई एरर बताकर फाइल वापस लौटा देते हैं। ..."


http://4.bp.blogspot.com/-VyqfBPDKOkA/UR0otrd-TcI/AAAAAAAAAMQ/BhUHPN5QHaQ/s1600/DSC_0008.JPGकुछ कश्मीरी युवकों से बातचीत करना जिदंगी का एक नया अनुभव रहा। हम कितनी बेफ्रिकी में जीते हैं, कितने बिंदास रहते हैं एक औरत का भय होने के सिवा और कोई भय नहीं। आखिर सौ करोड़ हिंदू जाति का एक हिस्सा जो हूं इसीलिए कभी महसूस ही न पायी कि अल्पसंख्यक होना क्या होता है उस पर भी मुस्लिम अल्पसंख्यक। 

आजजब उन युवकों से बातचीत के लिए उनके कमरे का एड्रस पूछा तो वह सहम गए। हम बुरा न मान जाएं शायद इसीलिए कहने लगे कि नहीं हम ही आ जाएंगे  मिलने बताईये कहां आएं। हमने पूछा कोई दिक्कत है कमरे में तो कहने लगे गर्ल्स के लिए नॉट अलाउड है। मैंने कहा हम तो एक जर्नलिस्ट की हैसियत से आ रहे हैं तो फिर उन्होंने बताया कि पुलिस ने उन्हें धमकाया है कि  कमरों में बैठे रहो बाहर निकलोगे तो खैर नहीं। और फिर आप लोग आओगे तो मकान मालिक को उनके घर में आना नागवार गुजरेगा। 

अबस्तिथियां कुछ समझ में आने लगी थी सो उन्हें उनके घर के पास के किसी पार्क में बुला लिया।  मैं अपने साथ एक सीनियर जर्नलिस्ट को लाई थी जिसने प्रामिस की थी  कि वह कश्मीरी स्टूडेंस की कंडीशंस  पर स्टोरी करेगी और उसके लिए अपने संपादक को भी मनवा लेगी। अपने अखबार की कश्मीरी स्टूडेंट्स के खिलाफ  विशेष पैकेजिंग देखकर इतना तो भान हो गया था कि स्टोरी छपना तो दूर आईडिया देने में भी लाइन हाजिर होना पड़ेगा।

कुछदेर इंतजार के बाद दूर से तीन नवयुवकों को आता देख हम एकाएक चौंक गए। हमने सोचा था कि हमारे वहां की तरह साधारण से लडक़े होंगे कुछ देर यहीं पार्क में बात कर चल लेगें। पर यह क्या यह तो विशुद्ध कश्मीरीयत भरे नौजवान, चेहरों पर डल झील सी निश्छलता, दूधिया  गुलाबी चेहरे,कुछ की हल्की तो कुछ की बड़ी दाड़ी और एक के सिर पर गोल सफेद (मुल्ला वाली) टोपी। हम एकाएक निर्णय तो नहीं ले पाए कि इन्हें यहां कालोनी के बीचों बीच के पार्क में बैठाना कितना मुनासिब होगा। लेकिन झट से उठकर खड़े हो गए। 

कालोनीवाले कोई झमेला करें इससे पहले हम उन्हें लौटा ले गए और आगे कोने में अपनी गाड़ी के पास खड़े खड़े लगभग चालीस मिनट  अनौपचारिक बातें की। इस बीच मध्यवर्गीय उस कालोनी के तथाकथित सभ्य व शिष्ट जन  हमें कश्मीरियों संग खड़े देख हार्न बजाते जरूर नजर आए। कुछ देर में दो स्कूटर सवार महिलाएं रोड़ी में स्लिप होकर नाली में गिर गई तो एकाएक वह कश्मीरी नौजवान दौड़ पड़े उन्हें उठाने.

बारामुल्लाडिस्ट्रिक के सोपेरा टाउन के इन नौजवानों में से एक मुह्म्मद जफर ने  बताया कि वह अभी अपने कालेज से लौटा है कल की घटना की अखबारी  प्रतिक्रिया के बाद वह क्लास पढऩे में सहज महसूस नहीं हो रहा था सभी लोग उन्हें रूड़ नजरों से देख रहे थे इसीलिए वह सिर्फ दो पीरियड पढक़र ही घर लौट आया। जफर का छोटा भाई मीर किसी कालेज में एडमिशन नहीं लिया है। जफर ने बताया कि  अब्बा व अम्मी ने कहा कि यहां से चला जा कहीं भी रह भाई के साथ पढ़ ले कुछ भी कर ले पर कश्मीर में मत रह। 

मीरने कहा कि वह कुछ समय पहले ही यहां आया है सो वह अभी सोच समझ ही रहा है कि कहां व किस कोर्स में दाखिला ले। मीर ने कहा कि वह कल की घटना से काफी डरा हुआ है। उनके दो साथियों को शिव सेना के लोगों ने तिब्बती मार्केट के पास पकडक़र बहुत मारा है और जबरन घसीट कर पुलिस थाने ले गए। इसीलिए मीर को अब देहरादून में अच्छा नहीं लग रहा। तीसरे लडक़े आमिर नायक ने बताया कि देहरादून में लगभग दस हजार कश्मीरी हैं जिनमें स्टूडेंट और व्यापारी लोग हैं। 

उन्होंनेबताया कि व्यापारी लोग ज्यादातर इललिटरेट हैं जो कि फेरी से साल बेचने का काम करते हैं। उसने बताया कि आज सुबह मेरठ का एक मुस्लिम दोस्त मिला उसने गले लगकर कहा कि कोई दिक्कत होगी तो बताना।  आमिर ने कहा कि काश यहां के सभी लोग हमारे साथ ऐसे ही पेश आते तो हम बहुत बेफ्रिकी से यहां रह सकते थे। लेकिन  हमें बार बार टेरिरिस्ट कहा जाता है। 

हमारेहिंदु क्लासमेट हमारी फेसबुक वाल पर कई बार  टेरिरिस्ट-टेरिरिस्ट लिख देते हैं। अफजल को फांसी होने पर हमारी कुलिग के फोन पर मेसेज आए कि बधाई हो  अफजल को फांसी हो गई। जफर ने बताया कि कालेज में  टीचर उनके प्रोजेक्ट में साइन भी नहीं करते हैं और कोई न कोई एरर बताकर फाइल वापस लौटा देते हैं। जफर ने बताया कि एक बार उसके सर पर पीछे चोट आ गई थी जहां पट्टी बांधी थी, लेकिन उस चोट के लिए उसे क्साल के कुलिगस ने बहुत टार्चर किया। क्साल की गर्ल्स कहती थी कि यह जफर के पीछे गोली लगी है इसीलिए घाव हुआ है। क्लास में कुलीग को देखकर लगता है कि हम चौतरफा टेरिस्ट होने की निगाहों से घिरे पड़े हैं। 

जफरने बताया कि देहरादून में कमरा ढूंढने  के लिए अन्तत: उसे अपनी दाढ़ी काटनी पड़ी थी । वरना कोई भी कश्मीरियों को कमरा देने को तैयार ही नहीं होता। वह बताता है कि एक बार अनिल नाम के एक लडक़े से उसकी दोस्ती हो गई लेकिन दो तीन दिन  बाद जैसे ही उसे पता चला कि मैं कश्मीरी हूं तो उसने कहा कि उसे नहीं करनी किसी कश्मीरी से दोस्ती। कश्मीरी तो आंतकवादी होते हैं। और उसने मुझे अवाइड कर दिया। 

तीनों  लड़कों ने बताया कि वे कश्मीर में शांति बहाली के लिए मांग कर रहे थे। वहां पांच दिन से कफ्यू लगा है।  हमारे अब्बू लोग दूध लेने भी बाहर नहीं जा सकते। अगर यही स्थिति रही तो हमें  पैसों के भी लाले पड़ जाएंगे। हमारा खर्चा तो अब्बू ही कश्मीर से भेजते हैं। उन्होंने बताया कि उनके सोपेर टाउन की आबादी लगभग 48 हजार है। वहां की तीन पीढिय़ों ने किसी भी चुनाव में वोटिंग नहीं की है। वहां पर अभी लगभग तेरह लाख आर्मी लगी हुई है। जिन्होंने हमारी कितनी ही जमीन जब्त कर रखी है।  घर से निकलते हैं बाहर सीआरपीएफ व एसटीएफ का मन  होगा तो वह सीधे जाने देगा कोई सवाल नहीं करेगा और मूड बदल गया तो रोक लेगा फिर पूछताछ करेगा और अन्तत: छोडऩे के लिए 2 0 हजार की मांग करते हैं।  

अभीकश्मीर में इस कफ्यू के दौरान दस लोगों की मौत हो गई है जबकि मीडिया केवल एक की ही मौत दिखा रही है। उन्होंने बताया कि एक 11 साल के बच्चे को वहां की सीआरपीएफ ने अपनी बंदूक के बट से पीछे सर में मार दिया जिससे उसने दम तोड़ दिया और फिर उन्होंने उस बच्चे के शव को पानी में फेंक दिया। इसी तरह पुलिस  कभी हमारे घरों के सीसे तोड़ देती है तो कभी मस्जिद के सीसे तोड़ देती है । उसका सवाल है कि हमारी प्रार्थना की चीजें हमसे क्यों छीनी जा रही हैं। 

उन्होंनेबताया कि वहां पर पुलिस दमन के लिए जिस टियर गैस का इस्तेमाल करती है वह हमारी आखों व शरीर के लिए भी हार्मफुल होता है।  अभी सोपोर में पांच लडक़े शहीद हो गए हैं। यहां पुलिस हमसे कहती है कि तुमने फेसबुक में आंतक फैला रखा है। उन्होंने बताया कि कश्मीर में लगभग दस फीसद सिक्ख व पांच से सात फीसद कश्मीरी पंडित हैं। वह उनके रक्षाबंधन होली समेत सभी त्यौहारों पर भागीदारी करते हैं। वहां पर स्पेशल आमर्ड फोर्सेस एक्ट का इतना खौफ है कि आठ साल के बच्चे का भी अपना आईडेंटीकार्ड होता है।  बिना पहचान पत्र के वह घर से बाहर  नहीं निकल सकता। रात के नौ बजे बाद बाहर नहीं निकलने दिया जाता।  

एकनौजवान व एक बुजुर्ग को पुलिस ने कश्ती में पत्थर भरकर डूबोकर मार दिया और कहते हैं कि कश्ती डूब गई थी। हम पाकिस्तान की मांग नहीं कर रहे। हम अपना स्वतंत्र कश्मीर चाहते हैं। अभी वहां पर पुलिस ना डाक्टरों को सख्त हिदायतें दी हैं कि अगर कोई भी अस्पताल में मरता है तो उसे मरा हुआ घोषित नहीं करेंगे और घर वालों से कहेंगे कि कौमा में है। उन्होंने यह भी बताया कि अब वहां पर सारे क्रिश्चयन मिशनरी स्कूल बारहवीं तक के खुलने लगे हैं। उन्होंने बताया कि वहां लोगों की आय का बड़ा साधन कृषि है इसीलिए पुलिस द्वारा भूमि कब्जाए जाने पर हजारों कश्मीरी बेरोजगार हो गए हैं। 

उन्होंनेसीआरपीए व एसटीएफ के पुराने कारनामों के बारे में भी बताया कि एक व्यक्ति की पत्नी नीलोफर व उसकी बहन आसमा को  सेब के बगींचे  से लौटने के बाद  दोनों के साथ सामूहिक रेप कर उन्हें मार दिया गया। और एवज में उन पर कोई कार्रवाही भी नहीं की गई। अभी कफ्यू के दौरान एक गर्भवती महिला की एंबुलेंस को रोक दिया गया जिससे उसकी मौके पर ही मौत हो गई। पुलिस वाले यह एक्ट गयारह साल के बच्चे पर भी लगा देते हैं उन्होंने जोर दे कर कहा कि वह पाकिस्तान की बात नहीं कर रहे हैं। वह अलग कश्मीर चाहते हैं।

सुनीता  पत्रकार हैं. 
अभी देहरादून में एक दैनिक अखबार में कार्यरत.
sunita.bhaskar.5@facebook.com पर इनसे संपर्क हो सकता है.

गोरखालैंड की राजनीति और विमल गुरुंग के असमंजस

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रमेश भगत

-रमेश भगत

"...दरअसल विमल गुरूंग के इतना उत्तेजित होने का एक कारण यह भी है कि अलग गोरखालैंड राज्य के लिए लड़ने वाले अन्य संगठन विमल गुरूंग से नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण जीटीए है। अन्य संगठनों का कहना है कि स्वायत्ता हमारा मकसद नहीं है, हमें अलग राज्य से कम कुछ नहीं चाहिए।..." 


 विमल गुरुंग
श्चिम बंगाल के पहाड़ी इलाकों में फिर से राजनीतिक हवाएं तेज होने लगी है। गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के प्रमुख और गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) के अध्यक्ष विमल गुरूंग ने अलग गोरखालैंड राज्य की मांग के लिए उग्र आंदोलन शुरू करने की धमकी दी है। विमल गुरूंग की धमकी के कई मायने हैं। दरअसल ममता बनर्जी चाहती है कि जिस तरह से गोरखाओं के लिए जीटीए बनाकर स्वायत्ता दी गई है उसी तरह बौद्धों और लेप्चाओं के लिए भी अलग से लेप्चा विकास परिषद् का गठन किया जाए। जीटीए के अध्यक्ष विमल गुरूंग, ममता बनर्जी की इस बात से नाराज है। विमल गुरूंग का कहना है कि "लेप्चा विकास परिषद् का गठन जीटीए के अधिन होना चाहिए। लेकिन ममता बनर्जी फूट डालो और राज करो की नीति के तहत गोरखाओं और लेप्चाओं को अलग करना चाहती है"। जीटीए का गठन त्रिस्तरीय समझौते के तहत हुआ है। इस समझौते में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा, पश्चिम बंगाल सरकार और केंद्र सरकार ने हस्ताक्षर किया है।

पिछले कुछ समय से विमल गुरूंग और ममता बनर्जी के रिश्ते सही चल रहे थे। लेकिन अब नहीं। दरअसल 29 जनवरी को दार्जिलिंग में हुए एक सरकारी कार्यक्रम में ममता बनर्जी और विमल गुरूंग साथ आए थे। उस कार्यक्रम में ममता बनर्जी ने कहा कि दार्जिलिंग पश्चिम बंगाल का अभिन्न अंग है और इसे राज्य से अलग होने नहीं दिया जाएगा। उन्होंने यह भी कहा कि लोगों को गोरखालैंड की मांग को छोड़कर विकास पर ध्यान देना चाहिए। ममता बनर्जी के इस भाषण के बाद गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के कार्यकर्ताओं ने वी वांट गोरखालैंड के नारे लगाने लगे। जिससे आजिज़ आकर ममता बनर्जी ने कहा कि याद रखें मैं इस मामले को रफ एंड टफ तरीके से भी निपटा सकती हूं। कुछ दिनों बाद विमल गुरूंग ने कहा कि ममता बनर्जी ने अपने नाम से उलट खुद को रफ एंड टफ बताकर अपने वास्तविक रूप का परिचय दिया है। ऐसी नीति चलती रही तो यह उनके राजनैतिक कैरियर का अंतिम चरण साबित होगा।

दरअसल विमल गुरूंग के इतना उत्तेजित होने का एक कारण यह भी है कि अलग गोरखालैंड राज्य के लिए लड़ने वाले अन्य संगठन विमल गुरूंग से नाराज हैं। उनकी नाराजगी का कारण जीटीए है। अन्य संगठनों का कहना है कि स्वायत्ता हमारा मकसद नहीं है, हमें अलग राज्य से कम कुछ नहीं चाहिए। साथ ही त्रिस्तरीय समझौते में सिर्फ गोरखा जनमुक्ति मोर्चा को बुलाने के लिए भी अन्य संगठनों ने राज्य व केंद्र सरकार की आलोचना की है। अन्य संगठनों के इस फैसले से गोरखाओं को लगने लगा है कि विमल गुरूंग अलग राज्य की मांग से हट रहा है। और सरकार के साथ नजदीकियां बढ़ाकर सिर्फ अपना फायदा देखने लगा है। इन बातों के दवाब में ही विमल गुरूंग ने अलग राज्य की मांग पर वापस लौटते हुए उग्र आंदोलन करने की धमकी दी है।

लेकिन विमल गुरूंग की इन धमकियों से ममता बनर्जी पर ज्यादा असर होने वाला नहीं है। क्योंकि ममता बनर्जी ने विमल गुरूंग को पहले ही कानूनी शिंकजे में कस रखा है। दरअसल मई 2010 में गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के तीन कार्यकर्ताओं ने अखिल भारतीय गोरखा लीग के नेता मदन तमांग की हत्या कर दी थी। अखिल भारतीय गोरखा लीग की अध्यक्षा भारती तमांग ने मदन तमांग की हत्या की सीबीआई जांच की मांग की है। सीबीआई जांच का डर ही विमल गूरूंग को कमजोर कर रहा है। जिसका राजनीतिक फायदा ममता बनर्जी उठा सकती है।

इस बात को ध्यान में रखकर विमल गुरूंग माकपा के करीब आने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन माकपा का संबंध विमल गुरूंग की अपेक्षा सुभाष घीषिंग से ज्यादा है। सुभाष घीषिंग गोरखालैंड नेशनल लिबरेशन फ्रंट के नेता है लेकिन आम गोरखाओँ में उनका जनाधार काफी सिमट गया है। ऐसे में माकपा विमल गुरूंग के साथ क्या गुल खिलाती है यही पहाड़ में चल रही राजनीतिक हवाओँ का मिजाज बता सकता है।

रमेश पत्रकार हैं. अभी ईएमएमसी में कार्यरत. 
rameshbhagat11@gmail.com इनकी ई-मेल आईडी है.

क्या कश्मीर की आज़ादी ही हल है?

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-डॉ. मोहन आर्या

अन्तराष्ट्रीय कूटनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीर, का राजनीतिक संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार इस चर्चा की वजह बनी है कश्मीर के एक नागरिक को भारतीय चुनावी राजनीति की उठा-पटक के लिए 'जनमानस की सामूहिक अंतरात्मा' की दुहाई देकर फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना. अफजल गुरू की फांसी के बाद अखबारों, चैनलों, इंटरनेट और फोन आदि पर रोक लगाते हुये भारतीय राज्य ने समूचे कश्मीर को भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया. यह बताता है कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर है. ऐसे में कश्मीर की आवाम की तरफ से उठती आज़ादी की मांग दुनिया भर के अमनपसंद लोगों को सहमत करती है. लेकिन यह बात इतनी ही सरल भी नहीं है. इसके पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में पर्याप्त बहस भी है. praxisमें हम इस बहस को खोलना चाह रहे हैं. इसके लिए praxisके पुराने पन्नों को पलट कर एक आलेख फिर आपके सामने रख रहे हैं. जो इस विषय के विस्तार में जाकर इससे जुड़े ज़टिल प्रश्नों को सामने रखता है. उम्मींद है कश्मीर और अन्य राष्ट्रीयताओं के सवाल पर एक स्वस्थ बहस इस आलेख की बुनियाद में खुल सकेगी. इस क्रम में हमारी कोशिश है कि प्रतिक्रियाओं और आलेखों से हम इसे आगे बढ़ाएं. praxisके पाठक ही इसके लेखक भी हैं. आपको ही टिप्पणियों और प्रतिक्रिया आलेखों से इसे आगे बढ़ाना है...

-मॉडरेटर

-डॉ. मोहन आर्या

'कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा।'
                                                                                         -अरुंधती राय

'राष्ट्र एक ऐसा जन समुदाय होता है जिसका गठन ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है। सामान्य भाषा भौगोलिक क्षेत्र आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक संरचना उसकी सामान्य संस्कृति के आवयविक तत्व होते हैं'   
-जोसेफ स्टालिन
'आखिर विभाजन है क्या? भारत का विभाजन अपनी जातियों मध्यवर्ग और जनता के बीच संपर्क की कमी की स्थिति का एक तरह से कानूनी दस्तावेज है।'
-डा0 राम मनोहर लोहिया
'इन मूलभूत सिद्धांतों की सच्चाई को समय ने कम करने के स्थान पर सुदृढ़ ही किया है- समाज का अनिवार्यतः संघीय चरित्र, प्रसव पीड़ा से गुजर रही विष्व अर्थव्यवस्था के साथ संप्रभु राज्यों की संगति न बैठना, उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् स्वामित्व के अधिकारों और लोकतांत्रिक विचारों के बीच विरोध, समता विहीन स्वतंत्रता के निरर्थक होने की अवधारणा, मात्र औपचारिक होने के कारण कानून को वैध मानने से इनकार किसी समाज में गंभीर आर्थिक स्थितियों में शासन का प्रभाव धनी लोगों के पक्ष में ही रहना चाहे वह सार्वजनिक मताधिकार पर ही आधारित क्यों न हो।'  
-हेराल्ड जे0 लास्की
http://www.janatantra.com/news/wp-content/uploads/2010/07/kashmir-2.jpg
हां तक इस लेख के प्रविषय की बात है तो उपर्युक्त चार टिप्पणियां, यदि हम ढेर सारी रियायतें चाहें तो मुख्यतः दो अलग-अलग चिंतनधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। अरुंधती द्वारा उठाए गए मुद्दे का हल इस मुद्दे की प्रकृति की तरह सामयिक नहीं हो सकता। यदि कोई तात्कालिक उपाय निकल भी आए तो आत्मनिर्णय जो किसी भी तरह की अस्मिता उत्पीड़न और अलगाव से वैधता ग्रहण करके संप्रभुता में बदला है ऐतिहासिक रूप से समग्रतया मानवता के लिए हानिकारक तो रहा ही है साथ ही उन मानव समूहों के लिए भी कुछ खास लाभदायक नहीं रहा है जिन्होंने इसकी मांग की थी। अपने आप को विश्व नागरिक मानने वाली अरुंधती और उनके जैसे दूसरे मानवाधिकारवादी इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं।
तथ्यात्मक रूप से अरुंधती की बात एकदम सही है परंतु तथ्य तो यह भी है कि उत्तराखंड राज्य भी भारतीय राष्ट्रराज्य जैसी किसी अवधारणा से हमशा ही ताल्लुक नहीं रखता था। इसे स्थानीय राज्यवंशों से पहले गोरखाओं ने जीता फिर गोरखाओं से अंग्रेजों ने। यही बात कई अन्य राज्यों के लिए भी कही जा सकती है। तथ्य जो कुछ कहते हैं वह सटीक तो हो सकता है परंतु समीचीन भी हो आवश्यक  नहीं।

अब प्रश्न यह है कि यह तथ्य कश्मीर के लिए ही इतना प्रासंगिक नजर क्यों आता है। और इस तथ्य पर आधारित किसी विचार प्रणाली के कार्यान्वयन के स्वाभाविक और तार्किक परिणाम क्या हो सकते हैं। कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा यह बात कश्मीरियों  के आजादीके संघर्ष को वैधता प्रदान करती है। इस आजादीकी लड़ाई के मूलआधार क्या हो सकते हैं?
·भारतीय राज्य द्वारा 'एएफएसपीए' द्वारा उत्पीड़न। 
·कश्मीरी जनता का अन्य भारतीयों से अलगाव। 
·विलय के समय की स्थितियों व शर्तों से गैर इत्तेफाक। 
·कश्मीरी जनता का एक जमात, जो मुख्य रूप से इस्लामी जमात ही है 'के रूप में पृथक राष्ट्रीयता का दावा। 
·पृथक राष्ट्रीयता के आधार पर आत्मनिर्णय की मांग। 
·आत्मनिर्णय से संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य।

अगर बात यहीं पर समाप्त हो जाए तो शायद विवेकशील और निष्पक्ष मनुष्य संतुष्ट भी हो जाएं। परंतु इससे आगे भी कुछ होगा।
संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का मतलब है एक और नई सीमा, नए वीजा कानून, नई सेना, नई सीक्रेट सर्विस, नया अविश्वास और हो सकता है नया परमाणु बम! विश्व का और अधिक असुरक्षित होना और हथियारों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का और अधिक मुनाफा। जनता की वास्तविक आवश्यकताओं के बजाय राज्य सेना बार्डर बम कूटनीति पर अधिक ध्यान देता है क्योंकि बहुराज्यीय विश्व में किसी भी राष्ट्र-राज्य का यही चरित्र होना है।
कश्मीर या देश के अन्य हिस्सों में भी पृथकतावादी आंदोलनों की समस्या वास्तव में राज्य की आंतरिक संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या है। और इनका समाधान नए आंतरिक संप्रभुओं को पैदा करके नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश शासन के समय मुस्लिम जनता के सांस्कृतिक अलगाव हिन्दुओं द्वारा उत्पीड़न और चुनावी लोकतंत्र में हमेशा के लिए मुस्लिमों के अल्पसंख्यक रह जाने के भय के आधार पर पृथक मुस्लिम राष्ट्रराज्य का जन्म हुआ। जो कि वास्तव में संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या का तदर्थ उपाय ही साबित हुआ है। क्योंकि भाषाई व सांस्कृतिक आधार पर राष्ट्रीयता और पंजाबी लोगों के बांग्ला लोगों पर वर्चस्व के विरुद्ध नए संप्रभु बांग्लादेश का जन्म हुआ। बलूच संप्रभुता के लिए संघर्ष अभी जारी ही है। इस विखंडन और विभाजन की क्या कोई सीमा भी है
कोईभी निष्पक्ष व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ब्रिटिश शासित भारतीय उपमहाद्वीप में तीन संप्रभुताओं के पैदा हो जाने से यहां की जनता की समस्याओं को सुलझा लिया गया है। वास्तव में तो जनता को अनचाहे युद्धों धार्मिक उन्माद उग्रराष्ट्रवाद और सांप्रदायिक दंगों का सबसे अधिक शिकार होना पड़ा है। सबसे गंभीर बात यह है कि एक कड़वाहट मौजूद हो गई है जिसका इतिहास पुराना नहीं है और जिसकी उम्र अभी बहुत लंबी होगी। 
पृथक कश्मीर की अवधारणा में जो सबसे खतरनाक बात है, वह है राष्ट्रीयता को आधार बनाए जाने वाले सिद्धांत। यह आत्मनिर्णय वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम जनता का आत्मनिर्णय है। धार्मिक आधार पर पृथक राष्ट्रीयता को जायज ठहराना कहां तक उचित है। चाहे कितने भी लोकतांत्रिक दावे किए जाएं धार्मिक अस्मिता के आधार पर वैधता ग्रहण करने वाली राष्ट्रीयता लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध ही खड़ी नजर आती है। 
यादकीजिए 'कायदे आजम' मुहम्मद अली जिन्नाह का पाकिस्तान की स्थापना पर दिया गया भाषण जिसमें उन्होंने जोर दिया अब जब पाकिस्तान बन ही गया है तो यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनेगा।जिन्नाह गलत साबित हुए और कश्मीर के मामले में तो जिन्नाह जैसा कोई धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विशवास रखने वाला नेतृत्व कम से कम हुर्रियत कांफ्रेस के पास तो नजर नहीं आता। जिन्नाह, गिलानी और उनके जैसे नेताओं से साठ सत्तर साल पहले हुए हैं। परंतु विचारों के लिहाज से कहीं अधिक आधुनिक और प्रगतिशील  हैं। 
जिन्नाहके बावजूद पाकिस्तान की परिणति को देखते हुए जिन्नाह जैसों की गैरमौजूदगी में कश्मीर की परिणति की कल्पना की जा सकती है। क्या पृथक कश्मीर  इतना लोकतांत्रिक भी होगा जितना वर्तमान में भारत है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्लामिक कट्टरवाद के उभार के इस दौर में संदेह होता है। विवेकशील को संदेह का अधिकार होना ही चाहिए।
तो धार्मिक आधार पर आत्मनिर्णय तो तर्कसंगत नहीं लगता। अब बात करें उत्पीड़न की। 'एएफएसपीए' निसंदेह एक उत्पीड़क अधिनियम है। भारतीय राज्य को जितना लोकतांत्रिक (कम से कम पारिभाषिक रूप से) बताया जाता है यह अधिनियम उससे बिल्कुल भी संगति नहीं रखता। 'एएफएसपीएऔर इसके जैसे तमाम कानून सच्चे लोकतंत्र में मौजूद नहीं होने चाहिए। इनकी मौजूदगी भारतीय राज्य के लोकतांत्रिक होने पर प्रश्नचिन्ह लगाती है तथा बताती है कि हमारा लोकतंत्र वास्तव में अधूरा है। 
सशस्त्रसेनाओं को नागरिकों की हत्याओं की खुली छूट नहीं दी जा सकती। उत्पीड़न से अलगाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। परन्तु  प्रश्न इस अधूरे लोकतंत्र को पूरा बनाने का है। पृथक संप्रभु उत्पीड़न के खिलाफ कारगार उपाय नहीं होगा। क्योंकि नया संप्रभु भी किसी न किसी आधार पर उत्पीड़क ही हो जाएगा क्योंकि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में संप्रभुता जिस रूप में है उसे तो उत्पीड़क ही होना है। लड़ाई संप्रभुता के इस स्वरूप को बदलने के लिए होनी चाहिए न कि उसी ढांचे के नए संप्रभुओं को पैदा करने की।
साथ ही यदि अलगाव और उत्पीड़न के आधार पर पृथक संप्रभुत्व को वैधता प्रदान की जाय तो भारत के भीतर पृथक राष्ट्रीयता का दावा करने का पहला अधिकार दलितों का है। याद कीजिए डा0 अम्बेडकर का भाषण जिसमें उन्होंने धर्मान्तरण की अपर्याप्तता एवं देषांतरण के विकल्प पर बात की है। कम्यूनल अवार्ड 1932 के दलितों के पृथक निर्वाचन संघ का तार्किक परिणाम पृथक राष्ट्रीयता ही हो सकता था। परंतु तत्कालीन दलित जनता का इस तरह का राजनीतिकरण हुआ ही नहीं था। ना ही दलित नेतृत्व मुस्लिम नेतृत्व की तरह संपत्तिशाली था और उतने सशक्त दबाव गुट के रूप में काम नहीं कर सकता था। दलित पृथक राष्ट्र की ओर नहीं बढ़े इसके जो भी कारण रहे हों परन्तु यह ऐतिहासिक रूप से समग्रतया अच्छा ही है। क्योंकि पृथक दलित संप्रभु के बीच से अन्य आधारों पर पृथक राष्ट्रीयताओं की मांग नहीं उठती ऐसा सोचना इतिहास को नकारना ही होगा।
यह तो रही उत्पीड़न और अलगाव की बात। अब जोसेफ स्टालिनकी राष्ट्र की परिभाषा की ओर ध्यान दें तो मार्क्सवादियों को सबसे अधिक प्रिय यह परिभाषा कई मायनों में अपर्याप्त है। स्वयं स्टालिन ने अपने वचनों का मोल नहीं रखा था। कौन कह सकता है कि चेचन विद्रोहियों की सामान्य संस्कृति, भाषा, भौगोलिक क्षेत्र, मनोवैज्ञानिक संरचना नहीं है। तो राष्ट्र बनने की इनकी प्रक्रिया की ऐतिहासिकता को किसने तोड़ा था? स्वाभाविक उत्तर है स्टालिनने। 
द्वितीयविश्वयुद्ध में चेचन विश्वासघातका बदला लेने के लिए स्टालिन ने चेचन्या के साथ जो किया वह सब करते हुए वे एक निष्ठ ुर तानाशाह अतिकेंद्रीयता में विश्वास करने वाली संप्रभुता के प्रवक्ता नजर आते हैं। यदि वह राष्ट्र की अपनी परिभाषा पर कुछ भी विश्वास करते तो चेचन्या को आत्मनिर्णय का अधिकार भले ही न देते लेकिन चेचन राष्ट्रीयता की बात करने वालों को साइबेरिया में निष्कासित तो ना ही करते। परन्तु यह बात ध्यान रखने की है कि पृथक राष्ट्र के संघर्ष में चेचन द्वारा अंजाम दी गई बेसलान स्कूल के नृशंश हत्याकांड को किसी भी तरह से औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। 
यहइस बात का सबूत है कि एक पक्षीय स्वार्थी हित अच्छे और बुरे के बीच में फर्क करने में असफल होते हैं यह बात स्टालिन और चेचन दोनों पर लागू होती है। यहां भी मूल समस्या तो संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या ही थी। कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत की राष्ट्रीयता के साथ जो किया है चह राष्ट्र की मार्क्सवादी परिभाषा से मेल नहीं खाता। 
भारतके विभाजन पर मार्क्सवादियों के रुख को देखकर लोहिया ने कहा था अपने स्वभाव से कम्युनिस्ट दांव पेंच का स्वरूप ही ऐसा है..... जब यह शक्तिहीन रहता है अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए यह सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता है। जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवादी नहीं रहता। साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में एकतावादी है और जर्मनी में पृथकतावादी।...
अब तक के अनुभवों से ऐसा लगता है कि जब साम्यवादी कमजोर होते हैं तो उपराष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय का समर्थन करते हैं और जब सत्ता में होते हैं तो उनका दमन करते हैं। यूएसएसआर की इकाई सदस्यों के पृथक होने के औपचारिक अधिकार का क्रियान्वयन कितना अव्यावहारिक था अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अध्येता अच्छी तरह समझते हैं। जबकि रणनीतिक तौर पर भी बहुराष्ट्रीय राज्य के भीतर मार्क्सवादियों का आंदोलन उन राष्ट्रराज्यों की तुलना में अधिक आसान होना चाहिए जिन्होंने धर्म भाषा या जातीय उत्पीड़न के आधार पर आत्मनिर्णय प्राप्त किया हो। क्योंकि ऐसे राष्ट्रराज्यों में शासकवर्ग जनता को धर्म, भाषा या जातीय राष्ट्रवाद के आधार पर अधिक भुलावे में रखता है। क्या कारण है कि पाकिस्तान में मार्क्सवादी, भारत के मार्क्सवादियों की तुलना में कमजोर हैं। तो कुलमिलाकर ऐसा लगता है कि राष्ट्र को लेकर मार्क्सवादी अवधारणा का केवल अकादमिक महत्व ही है।
अब बढ़ें लोहिया की ओर। लोहिया की यह बात कि भारत का विभाजन, शासक व शासित के बीच जनता, मध्यवर्ग और विभिन्न जातियों के बीच संपर्क के अभाव का कानूनी दस्तावेज है। उपराष्ट्रीयताओं के उद्भव और उनके आत्मनिर्णय में परिणत होने की प्रक्रिया का यह उत्कृष्ट विश्लेषण लगता है। यद्यपि यह सामान्यीकरण प्रतीत होता है परन्तु वास्तविकता तो यही है कि संप्रभु और जनता के बीच खाई और जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच संवादहीनता से ही अलगाव पैदा होता है। उस पर संप्रभु की यह अकड़ कि वह संप्रभुता को अपने ही पास रखेगा (भले ही संप्रभुता जनता में केंद्रित मानी जाय परंतु वास्तव में एक वर्ग विभाजित समाज में वह कुछ खास लोगों के पास ही रहती है।) खास सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली तबकों की स्थिति जब निर्णायक की होती है तो स्थिति और गंभीर हो जाती है। 
एकनिश्चित सीमा के बाद इसे संरक्षणात्मक भेदभाव जैसे उपाय नहीं संभाल सकते। रंगनाथ मिश्र कमेटी और सच्चर आयोग बहुत देरी से की गई पहलें हैं। और इनकी सिफारिशें भी अभी क्रियान्वित नहीं की गई हैं। हालांकि इस तरह के उपायों से प्रारंभ (1950-60) में काफी मदद मिल सकती थी। हालांकि यह कल्पना की उड़ान ही लगेगी परंतु यदि कैबिनेट मिशन द्वारा लागू की गई योजना के गुट संबंधी खंडोंको उसी रूप में क्रियान्वित किया जाता जैसा कि कैबिनेट मिशन योजना का सिद्धांत था तो शायद भारत का विभाजन टल सकता था। 
इनखंडों में केंद्र को कम शक्तियां थी। वह व्यवस्था हमारी वर्तमान व्यवस्था से अधिक संघीय होती। परन्तु इन खंडों का निर्वचन लीग और कांग्रेस द्वारा अलग अलग तरह से किया गया। वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व, लीग की ही तरह साझी संप्रभुता बांटने को तैयार नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी इसी ताक में थे क्योंकि उन्हें विभाजन से एशिया में सोवियत रूस के प्रभाव को कम करने के लिए पाकिस्तान के रूप में अधिक विश्वस्त सहयोगी मिलने वाला था। नतीजा था विभाजन।
साम्राज्यवादी ताकतें अपनी संप्रभुता को छोड़ने की मुद्रा में दिखाई देने के बावजूद भी ऐसा जाल बिछाती हैं कि वे भविष्य के लिए अपने राष्ट्रीय हित(आंतरिक संप्रभु हित) सुरक्षित रख पाएं। पाकिस्तान की समस्या ही नहीं श्रीलंका की तमिल समस्या के मूल में कहीं ना कहीं उपनिवेशवादी ताकतों का गहरा हित रहा है। दूसरी धुरी की समाजवादी  विश्व  ताकतें जिन्होंने बिना शर्त उपनिवेशों को मुक्त किया था के बारे में ऐसा लगा था कि वे चूंकि सैद्धांतिक रूप से मार्क्सवादी हैं जिनका अंतिम लक्ष्य राज्यविहीन  समाज बनाना है। अतः वे संप्रभुता के विरूद्ध कुछ वैचारिक संघर्ष चलाएंगे। परंतु जब लेनिन ने यह कहा हम आदर्शवादी नहीं हैं और राज्य की आवश्यकता बनी रहेगीतो एक तरह से कार्ल मार्क्स को उन्होंने स्वप्नदर्शी घोषित कर दिया। साथ ही साम्यवाद के रास्ते से अराजकता को प्राप्त करने की आशाऐं भी धूमिल हो गई। अराजकता को प्राप्त करने की आशासे भ्रम में ना पड़ें। समानता स्वतंत्रता और नैसर्गिक भाईचारे से युक्त अराजक समाज ही मनुष्य की आंखों से देखा गया अब तक का सबसे खूबसूरत स्वप्न है। 
साम्यवादके रास्ते से या ज्यादा स्पष्ट कहना चाहिए साम्यवादियों के रास्ते से आंतरिक संप्रभुता नष्ट नहीं होगी। यह यूएसएसआर और जनवादी चीन के कृत्यों ने दिखा ही दिया है। 1960 के बाद जब यूएसए और यूएसएसआर करीब आए तो कहा जाने लगा कि तकनीकी रूप से विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बीच विचारधाराओं के आधार पर संघर्ष के बिंदु उत्पन्न नहीं होते। तो संघर्ष किन बिंदुओं पर उभरते हैं? उनके-अपने राष्ट्रीयहितों(आंतरिक संप्रभुता) के कारण। पूरे शीतयुद्ध का इतिहास विचारधाराओं का कम और राष्ट्रीयताओं के संघर्ष का इतिहास अधिक है। तत्कालीन रूस और चीन के मतभेदों को भी इसी प्रकाश में देखना चाहिए। 
अबजबकि यूएसएसआर नहीं रहा और चीन भी मार्क्सवाद को त्याग ही चुका है तो यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है कि राष्ट्रराज्यों के लिए उनके अपने हित ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौजूदगी और इसके विरुद्ध सैद्धांतिक रूप से वैध होने के बावजूद भी आंतरिक संप्रभुता ही विश्व की असुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा है। क्योंकि एक तरफ तो यह साम्राज्यवाद के विरूद्ध औचित्य ग्रहण करती हुई दिखती है तो दूसरी तरफ इसके स्वाभाविक परिणाम हथियारों की होड़ के माध्यम से साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। दुनिया आज भी आतंक के संतुलन पर चल रही है।
लास्की कहते हैं कि समाज अनिवार्य रूप से बहुलात्मक है। तो राज्य को भी बहुलात्मक होना चाहिए क्योंकि प्रसव पीड़ा से गुजर रही विश्व अर्थव्यवस्था की राष्ट्रराज्यों से असंगति है। उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् अधिकार और लोकतांत्रिक विचारों के बीच अनिवार्य विरोध है। कानून का स्वरूप औपचारिक है। सार्वजनिक मताधिकार के बावजूद शासन वर्चस्वशाली लोगों के हाथों में है।
तो इन दशाओं में यदि कहीं पृथक संप्रभुत्व की मांग उठती है तो इसे समाधान नहीं मान लेना चाहिए। पृथक संप्रभु समाधान नहीं एक नई समस्या होगा और इस समस्या की कोई सीमा नहीं होगी। कम से कम इतिहास का विवेकतो यही बताता है। समाधान तो यही होगा कि संप्रभुता को जनता में बिखेर दिया जाय और यह उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण किये बगैर संभव नहीं होगा। 
एकवर्ग विभाजित समाज में आर्थिक संप्रभु ही राजनीतिक संप्रभु भी होता है। परंतु उत्पादन के साधनों का सामुहिकीकरण और उससे आंतरिक संप्रभुत्व का विनाश सर्वहारा की तानाशाहीसे होना मुश्किल है। क्योंकि पहले तो जिस पैमाने पर आज बुर्जुआस्वतंत्रता फैल चुकी है उसे लपेटा नहीं जा सकता, दूसरे सर्वहारा की तानाशाही व्यवहार में एक पार्टी की तानाशाही साबित हुई है। इस शासक वर्ग का भी अपनी जनता के साथ अंतर्विरोध हो सकता है। जिससे पुनः अलग संप्रभुत्व की मांग उठ सकती है। याद करें चीन में हान राष्ट्रवाद और उइगर समुदाय के बीच संघर्ष और उइगरों का दमन।
कुल मिला कर ऐसा लगता है कि उत्पीड़न, अलगाव, राष्ट्रीयता आत्मनिर्णय व संप्रभुता की समस्याएं ऊपर से देखने पर चाहे धार्मिक, प्रजातीय, क्षेत्रीय, भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय अस्मिताओं के आधार पर खड़ी हुई प्रतीत हों वास्तव में ये संप्रभुता के केंद्रीयकरण की समस्याएं हैं। इनका समाधान एक विश्व संसद या विश्व समाज जिसमें आंतरिक संप्रभुताएं नष्ट हो चुकी होंगी, उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण हो चुका होगा में ही है। पुनरावृत्ति के साथ कहुंगा कि नई संप्रभुताएं नई समस्याएं होंगी। संप्रभुता को जनता में बिखेर देना ही समाधान है। इसी दिशा में संघर्ष करना होगा।
मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इनसे mohanmanuarya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

देहरादून में शांतिपूर्ण प्रोटेस्ट में विहिप का हंगामा

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सुनीता भास्कर
 

"...पीयूडीआर के मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने कहा कि जनवादी आवाजों के खिलाफ हमेशा यही कार्यवाही की जाती है। जो अपनी विचारधारा जनता पर थोपना चाहते हैं उन्हें हमेशा छूट दी जाती रही है। प्रधानमंत्री कहते तो हैं कि हर किसी को प्रोटेस्ट करने का अधिकार है लेकिन यहां कश्मीरी बच्चों द्वारा प्रोटेस्ट किए जाने पर जिस तरह से आज उनकी जान पर आ पड़ी है वह शुभ संकेत नहीं हैं..."



श्मीरी छात्रों की शिव सेना द्वारा की गई मारपीट के विरोध में हो रहे एक दिवसीय धरने पर विश्व हिंदू परिषद के चार कार्यकर्ताओं ने उस वक्त नारेबाजी का हमला बोल दिया जब उनका धरना समाप्ति की ओर था। पहले से ही मौजूद भारी पुलिस फोर्स ने उन्हें किनारे किया और धरनास्थल पर बैठे लोगों पर टूट पड़े। किसी के कालर तो किसी का हाथ खींचकर अपनी जिप्सी में भरा और पुलिस लाइन ले गए। वहीं विहिप के कार्यकर्ता वंदेमातरम व आंतकवाद को नहीं सहेंगे के नारों के साथ आगे बढ़ लिए।

शनिवारको प्रात: दस बजे से दिल्ली से आए पीयूडीआर के कार्यकर्ता गौतम नवलखा व सीपीआई, सीपीएम सीपीआई एमएल, क्रालोश, पछास, पीजेयू, परिवर्तन पार्टी, भारत ज्ञान विज्ञान समिति, संवदेना लेखक मंच के लोग  व कुछ रंगकर्मी संयुक्त रूप से गांधी पार्क के बाहर एक दिवसीय धरने पर बैठे। बिना किसी सभा व भाषणबाजी के सभी कार्यकर्ता केवल हाथों में पोस्टर लिए बैठे रहे। बीच-बीच में इंकलाब जिंदाबाद व कश्मीरी युवकों की सुरक्षा की मांग को लेकर नारे लगाए। इसी बीच पुलिस की दो बड़ी गाडिय़ां मौके पर पहुंची और चारों ओर से अपनी ड्यूटी मे तैनात हो गई।

दोपहरबारह बजे पुलिस की एक जिप्सी आई जिससे उतरे इंस्पेक्टरों ने उन्हें धरना स्थल से उठने को कहा। जिस पर संगठन के लोगों ने एक बजे धरना समाप्त करने की बात कही। तभी कुछ देर में कुछ लोग वंदेमातरम के नारे लगाते हुए उनसे आमने सामने हो गई। माहौल में गर्मी देख पुलिस ने विहिप के कार्यकर्ताओं को तो कुछ नहीं किया उलट शांतिपूर्ण बैठे लोगों को पकड़पकडक़र गाड़ी मे ठूंसना शुरू कर दिया। धरनास्थल पर किसी के जूते तो किसी का बैग छूट गया। और पुलिस धकियाती हुई लात मारती उन्हें गाड़ी में धकेलती रही। लगभग बीस लोगों को गाडिय़ों में भरकर पुलिस लाइन ले जाया गया जहां निजी जानकारी दर्ज करने के बाद उन्हें छोड़ दिया गया। 

धरने में बैठे सीपीएम के महासचिव विजय रावत ने पुलिस के अभद्र रवैये की कड़ी आलोचना की। उन्होंने कहा कि पुलिस के लिए चोर उचक्के और राजनीतिक कार्यकर्ता सब एक ही श्रेणी में आते हैं। पुलिस को तमीज सिखाने की जरूरत है कि देश की जनता के साथ कैसे पेश आना चाहिए। वहीं सीपीआई के राष्ट्रीय सदस्य समर भंडारी ने कहा कि कश्मीरी युवकों के लिए देहरादून भय का शहर बन गया है। शिव सेना व विहिप के कार्यकर्ता उन्हें कहीं भी सरे राह पीट दे रहे हैं। ऐसे दबंग गुड़ों के खिलाफ पुलिस कार्रवाही करने के बजाय राजनीतिक सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर रही है। भाकपामाले के इंन्द्रेश मैखुरी ने कहा कि हिंदुवादी संगठनों को पहले दूसरी जाति धर्म के लोगों का सम्मान करना सीखना होगा। अंधराष्ट्रवादी सोच से देश नहीं चला करता और एक लोकत्रांतिक देश तो कतई नहीं। 

दिल्लीसे आए पीयूडीआर के मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा ने कहा कि जनवादी आवाजों के खिलाफ हमेशा यही कार्यवाही की जाती है। जो अपनी विचारधारा जनता पर थोपना चाहते हैं उन्हें हमेशा छूट दी जाती रही है। प्रधानमंत्री कहते तो हैं कि हर किसी को प्रोटेस्ट करने का अधिकार है लेकिन यहां कश्मीरी बच्चों द्वारा प्रोटेस्ट किए जाने पर जिस तरह से आज उनकी जान पर आ पड़ी है वह शुभ संकेत नहीं हैं। आज दोपहर यहां के डिग्री कालेज डीएवी में फिर बजरंग दल द्वारा एक कश्मीरी युवक को पीटा जाना  बेकसूरों पर जुर्म की इंतहा है।  खुद को सबसे बड़े देशभक्त समझने वाले कुछ भी कर सकते हैं, कानून हाथ में ले रहे हैं, जजमेंट कर रहे हैं और लोकतांत्रिक देश की पुलिस उनके सामने लाचार है या उन्हें शह दिये हुए है। उन्होंने कहा कि जब कश्मीरी युवक यहां इतने से प्रोटेस्ट के बाद खुद को महफूज नहीं मान रही तो कश्मीर में  कफ्यू के बाद क्या हालात होंगे इसे समझा जा सकता है। 

धरनेमें दो स्थानीय मुख्यधारा के अखबारों के  संपादकों के नाम भी पत्र जारी किए गए जिसमें उनकी इस मानसिकता को कि कश्मीर में सिर्फ आंतकवादी ही पैदा होते हैं और इसीलिए उनका नारा लगाना भी आंतकवाद की श्रेणी में आता है जैसी मानसिकता से की गई रिपोर्टिंग को पत्रकारीय मूल्यों के खिलाफ बताया। उन्होंने उन स्टूडेंट्स के नाम पते समेत लिखी खबर पर आपत्ति जताई। धरने में परिवर्तनकामी छात्र संगठन के नितिन, उत्तराखंड महिला मंच की कमला पंत, जनवादी महिला समिति की इंदु नौडियाल व नूरेसा अंसारी, क्रांतिकारी लोक अधिकार संगठन के भूपाल, भारत ज्ञान विज्ञान समिति के विजय भट्ट, रंगकर्मी सतीश धौलखंडी, एपवा की मालती हालदार, प्रोग्रेसिव जर्नलिस्ट यूनियन के प्रवीण भट्ट व कमल भट्ट, लेखक संगठन से जितेन्द्र भारती समेत कई कार्यकर्ता मौजूद रहे। 

सुनीता  पत्रकार हैं. 
अभी देहरादून में एक दैनिक अखबार में कार्यरत.
sunita.bhaskar.5@facebook.com पर इनसे संपर्क हो सकता है.

त्रिपुरा चुनाव : वाम फिर सत्ता की ओर

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रमेश भगत
-रमेश भगत

"...त्रिपुरा में सरकार विरोधी लहर कहीं दिखाई नहीं दी। लोगों ने उत्साह से मतदान में हिस्सा लिया। त्रिपुरा में वोटिंग प्रतिशत हमेशा अच्छा रहा है। इस बार 93.57 फीसदी मतदान हुआ जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। पिछले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने 91.22 फीसदी वोट किया था।..."

त्रिपुरा में धूल उड़ाते हैलीकॉप्टरों और पहाड़ों की ऊचाईयों को भी लांघ जाने वाली चुनावी घोषणाओं को मतदाताओं ने थाम कर वोटिंग मशीन में कैद कर दिया है। चुनावी रैलियों से मतदाताओं की बढ़ी धड़कने तो थम गई है लेकिन विधानसभा के चुनावी उम्मीदवारों की धड़कने तेज हो गई है। उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला 28 फरवरी को होगा।
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/5/57/Tripura_map.png/250px-Tripura_map.png
त्रिपुराविधानसभा चुनाव में बड़े-बड़े नेताओं ने रैलियों को सम्बोधित किया। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी ने तो सीपीएम को ना केवल राज्य से बल्कि देश से ही उखाड़ फेकने की अपील जनता से की। लेकिन सीपीएम गहरे पानी की तरह शांत रही। सीपीएम को पूरी उम्मीद है कि वो लगातार पांचवी बार सरकार बनाने में सफल होगी। चुनावी विश्लेषक भी इसे सही मान रहे हैं। 
इसका कारण बताते हुए वर्तमान मुख्यमंत्री व सीपीएम के उम्मीदवार माणिक सरकार कहते हैं कि त्रिपुरा में ना तो सिंगुर है और ना ही नंदीग्राम। इसके अलावा हमारे कार्यकर्ता सालों भर गांवों में लोगों से जुड़े रहते हैं। वहीं कांग्रेस के नेता भी दबी जुबान यह स्वीकार करते हैं कि सिर्फ हैलीकॉप्टर से आकर चुनावी रैलियों को सम्बोधित करने से ही चुनाव नहीं जीते जाते। आम जनता में हमारी पकड़ कमजोर है और हम केंद्र की योजनाओं के बारे में जनता को बताने में भी असफल रहे। यही हमारी जीत में सबसे बड़ी बाधा है।
त्रिपुरामें सरकार विरोधी लहर कहीं दिखाई नहीं दी। लोगों ने उत्साह से मतदान में हिस्सा लिया। त्रिपुरा में वोटिंग प्रतिशत हमेशा अच्छा रहा है।इस बार 93.57 फीसदी मतदान हुआ जो कि अपने आप में एक रिकॉर्ड है। पिछले विधानसभा चुनाव में मतदाताओं ने 91.22 फीसदी वोट किया था। जिससे सीपीएम को 46, कांग्रेस को 10, आरएसपी को 2, भाकपा और आईएनपीटी को 1-1 सीट मिली थी। 
इस बार भी विपक्षी दल सत्ताधारी सीपीएम को घेरने  में नाकाम रहे। विपक्षी दलों में मुद्दों को कमी दिखाई दी। कांग्रेस और उसकी सहयोगी पार्टियों ने बेरोजगारी, उग्रवाद और खराब शासन के मुद्दे पर सत्ताधारी सीपीएम को घेरने की कोशिश की। पर सीपीएम भी ईट का जवाब पत्थर सेके अंदाज में जनता को बताने लगी कि त्रिपुरा सरकार मनरेगा सहित कई योजनाओं में बढ़िया काम कर रही है। इसके लिए केंद्र सरकार ने त्रिपुरा सरकार को पुरस्कार से भी नवाजा है। राज्य में उग्रवाद पर काबू पाने को भी सीपीएम बड़ी उपलब्धि के तौर पर पेश की। सीपीएम का ये भी कहना है कि यदि वो फिर सरकार बनाने में सफल होती है तो वो इस बार राज्य के अनुकूल उद्योगों को बढ़ावा देगी। जिससे रोजगार के नए अवसर खुलेंगे।
त्रिपुराविधानसभा की 60 सीटों के लिए 249 उम्मीदवार खड़े हुए हैं। जिनमें 14 महिला उम्मीदवार और 20 से अधिक निर्दलीय उम्मीदवार हैं। वहीं 16 पार्टियां ने चुनाव में हिस्सा लिया है। इस विधानसभा चुनाव में सीपीएम और कांग्रेस आमने-सामने हैं। सीपीएम 56 विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ी है। सीपीएम की सहयोगी पार्टियां आरएसपी 2, भाकपा और फारवर्ड ब्लॉक 1-1 सीट पर चुनाव लड़ी है। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस 48 सीटों पर चुनाव लड़ी। वहीं कांग्रेस की सहयोगी इंडीजिनियस नेशनल पार्टी ऑफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) 11 सीटों पर और नेशनल कांफ्रेंस ऑफ त्रिपुरा एक सीट पर चुनाव में खड़ी हुई। भारतीय जनता पार्टी 50 सीटों पर चुनाव लड़ी है। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुधींद्र दासगुप्ता का कहना है कि पिछले चुनाव में पार्टी को 1.49 फीसदी वोट मिला था। पार्टी इस बार राज्य विधानसभा का हिस्सा जरूर बनेगी।
केरलऔर पश्चिम बंगाल में सत्ता गवाने के बाद त्रिपुरा ही एकमात्र राज्य है जहां वामपंथी सरकार कायम है। ऐसे में सीपीएम किसी भी सूरत में इस राज्य को अपने हाथ से गवांना नहीं चाहती है। उसने राज्य में साढ़े 53 हजार नए वोटरों को लुभाने के लिए भी विशेष प्रयास किया है। हांलाकि नए वोटरों को लुभाने में कोई पार्टी पिछे नहीं रही। लेकिन कुल मतदाताओं का रूझान क्या रहा और किसे वो सरकार के रूप में देखना चाहते हैं ये तो 28 फरवरी को ही पता चलेगा।

रमेश पत्रकार हैं. अभी ईएमएमसी में कार्यरत. 

rameshbhagat11@gmail.com इनकी ई-मेल आईडी है.

स्त्री संघर्ष और स्त्री मुक्ति के नाम होगा आठवाँ गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल

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Manoj Kumar Singh
मनोज कुमार सिंह

"...आठवाँ गोरखपुर फिल्म फेस्टिवल स्त्री संघर्ष और स्त्री मुक्ति को समर्पित है। इस सिलसिले में प्रसिद्ध फ्रांसीसी फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेस्सों की फीचर फिल्म मूशेत जो कि एक किशोरी के व्याकुल मन की कहानी है दिखाई जायेगी।..."





र्ष 2006 से गोरखपुर से ही शुरू हुआ प्रतिरोध का सिनेमा का फिल्म फेस्टिवल अब गोरखपुर शहर में आठवीं बार और इस अभियान की कडी में 29 बार आयोजित होगा। इसका आयोजन 22, 23 और 24 फरवरी को सिविल लाइन्स स्थित गोकुल अतिथि भवन में किया जा रहा है। हर बार की तरह यह मेला किसी कार्पोरेट घराने या सरकारी मदद से नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ गोरखपुर और पूर्वांचल के लोगों की मदद से हो रहा है। अपने लोगों और उनकी मदद पर भरोसा करने के कारण आज सात साल के थोड़े समय में यह अभियान अकेले उत्तर प्रदेश के छह शहरों -आजमगढ़, इलाहाबाद, बलिया, बनारस, गोरखपुर और लखनऊ में  नियमित हो चला है। इसके अलावा यह बिहार के पटना, उत्तराखंड के नैनीताल, मध्यप्रदेश के इंदौर, झारखंड के रांची, छत्तीसगढ़ के भिलाई में भी आयोजित हो रहा है।


आठवाँगोरखपुर फिल्म फेस्टिवल स्त्री संघर्ष और स्त्री मुक्ति को समर्पित है। इस सिलसिले में प्रसिद्ध फ्रांसीसी फिल्मकार रॉबर्ट ब्रेस्सों की फीचर फिल्म मूशेत जो कि एक किशोरी के व्याकुल मन की कहानी है दिखाई जायेगी। फिल्म फेस्टिवल के आखिरी दिन दिल्ली में हुए दिसंबर 16 आन्दोलन को नजदीक से अपने कैमरे में कैद कर रहे छायाकार विजय कुमार की डायरी और इमरान द्वारा संकलित विडियो कोलाज रोड टू फ्रीडम भी इस बार के आयोजन का प्रमुख हिस्सा होंगे।

अपनेशुरुआत से ही प्रतिरोध का सिनेमा अभियान देश में चल रहे विभिन्न आन्दोलनों को  मंच देता रहा है। इसी क्रम में इस बार प्रसिद्ध फिल्कार संजय काक की नयी डाक्यूमेंटरी  माटी के लाल  का पहला प्रदर्शन और  नगरी (झारखंड) में चल रहे  आन्दोलन पर बीजू टोप्पो द्वारा निर्देशित फिल्म प्रतिरोध को दिखाया जायेगा।

हरबार की तरह इस बार भी फिल्म फेस्टिवल को ज्यादा आत्मीय बनाने के उद्देश्य से दो व्याख्यान प्रदर्शनों के लिए फिल्म स्कालर ललिथा गोपालन और फिल्मकार तरुण भारतीय को विशेष रूप से आमंत्रित किया है। ललिथा भारतीय  फिल्मों में आर्काइवल फुटेज के इस्तेमाल पर अपनी प्रस्तुति लॉस्ट एंड फाउंड फुटेज नाम से देंगी वहीं तरुण  डाक्युमेंटरी फॉर्म के प्रयोग और दुरुपयोग के बारे में विस्तार से अपने व्याख्यान सच्चाई का सच में करेंगे।

बच्चोंके लिए खास तौर पर तैयार किए गए सत्र में नितिन दास निर्देशित जादुई पंख श्रृखंला  की लघु फिल्मों के अलावा राजन खोसा द्वारा निर्देशित इस वर्ष की चर्चित बाल फिल्म गट्टू को दिखाया जाएगा।

आठवेंगोरखपुर फिल्म फेस्टिवल में दिखाई जाने वाली और महत्वपूर्ण  फिल्में हैं तपन सिन्हा निर्देशित एक डाक्टर की मौत, गुरविंदर सिंह की पंजाबी फीचर फिल्म अन्हे घोरे दा  दान, आमिर बशीर द्वारा निर्देशित कश्मीरी फीचर फिल्म हारुद और स्टूडेंट फिल्म भारतमाता की जय।

फिल्मफेस्टिवल का एक और आकर्षण लखनऊ के तरक्कीपसंद शायर तश्ना जी पर बनी नयी डाक्यूमेंटरी  फिल्म  अतश का रहेगा। गोरखपुर के डाक्टर अजीज अहमद शायर अली सरदार जाफरी की जन्मशती के मौके पर उन्हें याद करते हुए उनकी रचनाओं को प्रस्तुत करते हुए उनकी जिंगदी और नग्मों पर बातचीत करेंगें। 

इसफेस्टिवल के मौके पर जसम के फिल्म समूह द ग्रुप की तरफ से कम कीमत वाली पुस्तकों की योजना के तहत आस्कर अवार्ड्स की राजनीति पर बलिया के संस्कूति कर्मी एवं लेखक रामजी तिवारी की किताब आस्कर अवार्ड्स- यह कठपुतली कौन नचावे का लोकार्पण भी होगा। 

गोरखपुरफिल्म फेस्टिवल के आयोजन समिति के अध्यक्ष रहे प्रसिद्ध राजनीतिक विचारक रामकृष्ण मणि त्रिपाठी की स्मृति में सभागार का नाम रामकृष्ण मणि सभागार रखा जा रहा है। गोरखपुर फिल्म सोसाइठी के संस्थापक सदस्य संस्कृति कर्मी आरिफ अजीज लेनिन की स्मृति में आरिफ अजीज लेनिन स्मृति गैलरी बनायी जाएगी जिसमें पुस्तक, फिल्म, पोस्टर प्रदर्शनी लगेगी। फेस्टिवल की आयोजन समिति की 10 फरवरी को हुई बैठक में वरिष्ठ कथाकार मदन मोहन को आयोजन समिति का अध्यक्ष और गोरखपुर विश्वविद्यालय में इतिहास के शिक्षक एवं सिनेमा समीक्षक डा चन्द्रभूषण अंकुर को आयोजन समिति का संयोजक चुना गया। 



मनोज  गोरखपुर फिल्म सोसाइटी के संयोजक हैं.
manojkumar.singh.96@facebook.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है. 

कश्मीर की ‘आजादी’, आखिर किसके लिए?

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-सत्येंद्र रंजन

कश्मीर बहस-2

सत्येंद्र रंजन

"...प्रश्न यह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?..."


संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद बने हालात में कश्मीर के अलगावादी संगठन पुनर्जीवन पाने की कोशिश में हैं। चूंकि अफजल की फांसी लंबे समय तक लटकी रही और इस दौरान इस पर खूब राजनीति हुई, इसलिए यह महज एक न्यायिक-कानूनी घटना नहीं रह गई। जैसे सियासी सोच की एक धारा ने अफजल को आंतकवाद के प्रतीक के रूप में चित्रित किया, वैसे ही कश्मीर की अलगाववादी धारा और भारतीय राज्य के प्रति द्रोह का भाव रखने वाले समूहों/व्यक्तियों ने उसे संघर्ष के प्रतीक के रूप में रख कर देखा। भारत सरकार ने जिस तरह गुपचुप यह कार्रवाई की और अफजल के परिवार को पर्याप्त समय पहले सूचित न करने की एक अमानवीयता बरती, उससे भी एक न्यायिक-वैधानिक कार्य सवालों के घेरे में आ गया। इस कार्रवाई का एक और दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उसके पहले कश्मीर में चर्चित हुई एक घटना पृष्ठभूमि में चली गई, जो अगर चर्चा में बनी रहती तो आजादीस्वायतत्ता और आत्मनिर्णय के अधिकार जैसे शब्दों पर बेहतर समझ बनाने में मददगार बन सकती थी।
इसघटना में तीन युवतियों द्वारा बनाए गए म्यूजिक बैंड- प्रगाश- को बंद करवा दिया गया। यह बैंड दसवीं कक्षा की छात्राओं- नोमा नज़ीर, फराह दीबा और अनीका खालिद ने बनाया था। पिछले दिसंबर में श्रीनगर में अपने एक परफॉरमेंस से उन्होंने श्रोताओं को मुग्ध कर दिया था। लेकिन फरवरी के आरंभ में कश्मीर के मुफ्ती (मौलवी) ने फतवा जारी कर दिया कि उनका गाना गैर-इस्लामिक है। उसके साथ ही सोशल मीडिया पर उन्हें धमकियां मिलने लगीं। इस्लामी कट्टरपंथी महिला संगठन दुख्तराने मिल्लत ने तीन लड़कियों के सामाजिक बहिष्कार की धमकी दी। जो लोग कश्मीर के हालात से वाकिफ हैं, उन्हें मालूम है कि दुख्तराने मिल्लत के समाजिक बहिष्कार का क्या मतलब होता है। इन हालात में उन लड़कियों ने संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम पेश करना बंद कर देने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजतन, प्रगाश बंद हो गया है। प्रश्न यह है कि कश्मीर की आजादी का शोर मचाने वालों की नजर में उन लड़कियों की आजादी की क्या अहमियत है?

अबइस बहस को आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है। “आजादी” की बात जम्मू-कश्मीर हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती रही है। बहरहाल, ये सभी नेता इस बात पर सहमत है कि कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।

अगरकश्मीरी पार्टियों और संगठनों के विमर्श पर गौर करें तो उनकी राय में कश्मीर समस्या के समाधान के संदर्भ में मुख्य रूप से दो शब्द उभर कर सामने आते हैं- “आजादी” और “स्वायत्तता”। कुछ साल पहले पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने “स्वशासन” शब्द भी इसमें जोड़ा था, लेकिन वह “स्वायत्तता” से किस अर्थ में अलग है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया।? “आजादी” की बात हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती है। लेकिन इन सभी नेताओं में इस बात पर  सहमति है कि कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।

जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी भारतीय संसदीय राजनीति का हिस्सा हैं, जाहिर है उनका विमर्श भारत के संवैधानिक दायरे में रहता है। नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा 1952 से पहले की स्थिति की बहाली है, जब कश्मीर के मामलों में भारतीय संसद, सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का न्यूनतम दखल था। पीडीपी ने “स्वशासन” या “आउट ऑफ बॉक्स” समाधान की अपनी धारणा की कभी विस्तृत व्याख्या नहीं की, लेकिन यह समझा जाता है कि उसकी सोच नेशनल कांफ्रेंस से बहुत अलग नहीं होगी। वैसे जम्मू-कश्मीर में पक्ष कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक समूह भी हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी की सोच उपरोक्त पक्षों द्वारा उठाई गई मांगों का पूर्णतः प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) है। भाजपा तो संविधान की धारा 370 को भी खत्म करना चाहती है, जिससे जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा मिला हुआ है, लेकिन जिसके बारे में कश्मीरी पक्षों की शिकायत है कि गुजरते वर्षों के साथ जिसे बहुत कमजोर कर दिया गया है। इस धारा को कमजोर करने का आरोप अक्सर कांग्रेस पर रहा है। इसलिए वैचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र की समर्थक होने के बावजूद व्यवहार में यह पार्टी भी “कश्मीरी पक्ष” की एंटी-थीसीस के रूप में ही देखी जाती है।

कश्मीरमें पहल और इस मसले के हल की चर्चा करते समय उपरोक्त राजनीतिक संदर्भ को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस राजनीतिक संदर्भ में “कश्मीरी आकांक्षाओं” को पूरा किया जा सकता है? जाहिर है, इस सवाल के साथ यह अहम हो जाता है कि सबसे पहले इस बारे में ठोस समझ बनाई जाए कि आखिर ये “कश्मीरी आकांक्षाएं” हैं क्या? क्या “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” की शब्दावली में इन्हें समझा जा सकता है? यहां हमें इस सच का भी सामना करना चाहिए कि दशकों से कश्मीर में ये शब्द प्रासंगिक बने रहे हैं और इसलिए इन्होंने वहां आम जन मानस में जगह बना ली है। कश्मीर में शांति और आम हालत कायम करने के लिए भारतीय राष्ट्र को किसी न किसी रूप में इन शब्दों के दायरे में सोचना होगा और ऐसी पहल करनी होगी, जिससे इन शब्दों से जुड़ी आम कश्मीरी भावनाओं से संवाद कायम हो सके।

प्रश्नयह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?

यहांइस बहस में यह पहलू जोड़ने की जरूरत है कि किसी शब्द का अर्थ गतिरुद्ध नहीं होता। वह बदलते समय और मानव के विकासक्रम और समाज की उन्नत होती चेतना के साथ विकसित होता रहता है। अगर “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” को आधुनिक रूप में परिभाषित किया जाए, तो असल में ये शब्द कश्मीर के नाराज तबकों से संवाद में भारतीय राष्ट्र का पक्ष होने चाहिए। सवाल यह है कि एक आम नागरिक के लिए अपनी जिंदगी पर खुद फैसले की “आजादी”, अपने रहन-सहन और पसंद-नापसंद को तय करने की “स्वायत्तता” और उसकी “व्यक्तिगत गरिमा” भारतीय संविधान जैसे आधुनिक दस्तावेज के तहत ज्यादा सुरक्षित हो सकती हैं, या किसी मजहबी व्यवस्था में जहां इंसान की इच्छाएं किसी धर्मग्रंथ और मजहबी रीति-रिवाजों के दायरे में कैद होती हैं? एक महिला के अधिकारों, अपने शरीर और मन पर उसके स्वनियंत्रण के सिद्धांत, आदि के प्रति आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था ज्यादा संवेदनशील है, या दुख्तराने मिल्लत जैसे संगठनों के वो फतवे जो उनके पहनावे, उनके द्वारा इंटरनेट जैसे आज बेहद जरूरी हो गए माध्यम के इस्तेमाल, और सिनेमा जैसे मनोरंजन पर रोक लगाते हैं? “स्वायत्तता” आखिर किसे मिलनी चाहिए- सोपोर, बारामूला, उरी, पुंछ, लेह और लद्दाख के दूरदराज के गांवों में बैठे नागरिकों को, या श्रीनगर में बैठे सत्ताधीशों को? क्या इस बात की गारंटी है कि श्रीनगर को 1952 जैसी “स्वायत्तता” मिल जाने से राज्य के हर बाशिंदे को सुरक्षित जिंदगी, बुनियादी नागरिक अधिकार और अपनी संपूर्ण संभावनाओं को हासिल कर सकने की “आजादी” मिल जाएगी?

असलमें न सिर्फ कश्मीर के लिए, बल्कि आज पूरे भारत के संदर्भ में समूह, समुदाय और प्रांत की स्वायत्तता बनाम नागरिक की स्वायत्तता की बहस को छेड़े जाने की जरूरत है। लेकिन इस बहस की स्वीकार्यता बने, इसकी एक बहुत अहम शर्त है। वो शर्त यह है कि पहले भारत सरकार या देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था अपनी एक साख कायम करे। नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए और अन्याय के पक्ष में खड़ी दिखने वाली कोई सत्ता अपनी ऐसी नैतिक साख नहीं बना सकती है।

गौरतलबहै कि भारत सरकार संभवतः सिक्यूरिटी लॉबी और भाजपा की उग्रवादी प्रतिक्रियाओं से आशंकित होकर सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून पर वैसी पहल भी नहीं कर पाई है, जिसका वादा प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों ने किया था। इस कानून में संशोधन या इसे कुछ इलाकों से हटाने की मांग नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी कश्मीर की मुख्यधारा पार्टियां भी करती रही हैं। वैसे भी सरकार के लिए जरूरी यह है कि वह इस मांग को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे। वो परिप्रेक्ष्य यह है कि इस कानून में संशोधन की मांग सिर्फ कश्मीर से नहीं उठी है। उत्तर पूर्व के राज्यों- खासकर मणिपुर- में यह पहले से एक बड़ा मुद्दा है। कुछ जानकारों की इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि देश की मौजूदा राजनीतिक संरचना के बीच इस कानून को रद्द करना नामुमकिन है, लेकिन इसकी उन धाराओं में संशोधन जरूर किया जा सकता है, जिनसे सेनाकर्मियों द्वारा ड्यूटी से इतर किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघनों को भी इससे संरक्षण मिल जाता है। सरकार ने कश्मीरी आवाम से संवाद कायम करने के लिए तीन वार्ताकारों की नियुक्ति की थी। उनकी रिपोर्ट में भी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा थी। हाल में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी सिफारिश की है कि महिलाओं पर यौन हिंसा के आरोपी सुरक्षाकर्मियों को इस कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। इन सबके बावजूद अगर सरकार इस कानून में संशोधन को भी तैयार नहीं होती है, तो वह कश्मीरी आवाम से वास्तविक संवाद बनाने की आशा कैसे कर सकती है?    

ढाई साल पहले कश्मीर में पथराव की घटनाओं का सिलसिला बना हुआ था, जिसमें सौ से ऊपर नौजवान मारे गए थे। तब लोकसभा में चर्चा के दौरान जब कुछ सदस्यों ने कश्मीरियों की उचित शिकायतों को दूर करने की मांग की थी। उस पर भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने यह पूछा था कि आखिर ये शिकायतें क्या हैं? फिर उन्होंने जोड़ा था कि कश्मीर में जो लोग सड़कों पर उतर कर पथराव कर रहे हैं, वे रोजगार या आर्थिक पैकेज के लिए नहीं, बल्कि भारत से अलग होने के लिए लड़ रहे हैं। डॉ. जोशी की उस बात में दम था और आज भी है। लेकिन वो बात अधूरी है। यह बात तब पूरी होगी, जब उसके साथ ही यह सवाल भी उठाया जाएगा कि आखिर कश्मीर के बहुत से लोग ऐसा करने पर क्यों मजबूर हुए? इसका एक जवाब यह है कि वे पाकिस्तान द्वारा संचालित संगठनों और इस्लामी कट्टरपंथियों के बहकावे में आ गए। लेकिन इसका एक और जवाब यह हो सकता है कि उन लोगों में भारतीय संविधान के प्रावधानों में भरोसा कमजोर हो गया है। उन्हें यह नहीं लगता कि भारतीय संविधान में नागरिकों की जिन मूलभूत स्वतंत्रताओं और बुनियादी अधिकारों की व्यवस्था की गई है, वो उनके लिए भी हैं। पथरीबल जैसी घटना, जिसमें सीबीआई जांच में सैन्य कर्मचारियों को पांच लोगों की हत्या का दोषी पाया गया, उनके खिलाफ दशक भर बाद सुप्रीम कोर्ट के दखल से कोर्ट मार्शल शुरू हो पाया। पहले मुकदमा इसलिए नहीं चल सका, क्योंकि सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी और ऐसा क्यों नहीं किया, यह भी नहीं बताया। अगर ऐसे उदाहरण हों तो क्या यह कहा जा सकता है कि कश्मीरी लोगों की शिकायत निराधार है? 

आजादीके बाद जब नगालैंड का एक प्रतिनिधिमंडल “आजादी” की मांग करते हुए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिला था, तो पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत में जितना मैं आजाद हूं, उतना ही यहां का हर नागरिक और हर नगा आजाद है। पंडित नेहरू की इस बात में हम भारत की एकता का सूत्र देख सकते हैं। लेकिन अगर आजाद भारत में यह बात आज बहुत से लोगों और बहुत से इलाकों को सच नहीं लगती, तो इसका जवाब आखिरकार भारतीय राष्ट्र और राज्य-व्यवस्था को ही ढूंढना होगा कि आखिर ऐसा क्यों है? और क्या बिना ऐसा भरोसा हुए देश के सभी नागरिकों के साथ “आजादी” और “स्वायत्तता” पर पूरी साख के साथ बहस की जा सकती है?

भारतीयसंविधान में हर आधुनिक संविधान की तरह संप्रभु व्यवस्था की इकाई व्यक्ति को माना गया है। देश की स्वतंत्रता का मतलब हर व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता पर आक्रमण चाहे राजसत्ता की तरफ से हो, या धर्मांध संगठनों या किसी चरमपंथी-उग्रवादी समूह की तरफ से- वह समान रूप से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। जब धर्मांध या चरमपंथी संगठन इस स्वतंत्रता का हनन करते हैं, तो राजसत्ता से यह आशा होती है कि वह व्यक्तियों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करे। लेकिन ऐसा राज्य तभी कर सकता है, जब उन्हीं व्यक्तियों के मन में उसके प्रति भरोसा हो। दुर्भाग्य से कश्मीर में भारतीय राज्य के प्रति यह भरोसा कमजोर पड़ा हुआ है। अतः भारतीय राज्य के सामने पहली चुनौती इस भरोसे को बहाल करने की है, क्योंकि तभी भारतीय संविधान वहां के लोगों को एक सार्थक दस्तावेज लगेगा और वे इसके दायरे में समाधान के लिए तैयार हो सकेंगे। इसलिए भारत के सामने आज जो बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें एक यह है कि संवैधानिक मूल्यों की व्यक्ति के संदर्भ न सिर्फ व्याख्या की जाए, बल्कि उन पर इसी संदर्भ में अमल भी किया जाए।

बहरहाल,यह भी उतना ही जरूरी है कि समूह, समुदाय आदि के अर्थ में स्वायत्तता और आजादी की बात करने वाले गुटों को वैचारिक चुनौती दी जाए। लेकिन यह प्रयास तभी सफल हो सकता है, जब हर व्यक्ति की सुरक्षा, उसकी जिंदगी की संभावनाओं को पूरी तरह हासिल करने का प्रबंध, और उसके नागरिक अधिकारों की हिफाजत को अउल्लंघनीय मूल्य के रूप में स्थापित किया जा सके।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.


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कश्मीर बहसके पिछले आलेख यहाँ पढ़ें-






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