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'गीता' नाम की जिंदा 'दामिनी' का पत्र

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यह एक पत्र है. एक महिला का पत्र. ये अपनी आप-बीती उन लोगों को बताना चाहती है जो दिल्ली में हुए जघन्य बलात्कार और देह विदारण की घटना पर अपना भरपूर आक्रोश दिखा चुके हैं. यह महिला बस वह महिला होते-होते बच गई है जिसका दिल्ली में बलात्कार हुआ और फिर 'हत्या'. जो महिला बलात्कार का शिकार हो गई उसके समर्थन में तो हम लोगों का हुजूम उसे न्याय दिलाने निकल पड़ा था. लेकिन एक रसूखदार शख्स से 'बलात्कृत' होने से बाल-बाल बच गई इस महिला को भी न्याय की दरकार है... और न्याय के धंधे से जुड़ा शख्स ही इसका अपराधी है... क्या हम इस महिला की भी सुनेंगे? आइये इसे सीरियसली लें....                          
 -मॉडरेटर
(यहाँ यह पत्र रामनगर(उत्तराखंड) से प्रकाशित पाक्षिक 'नागरिक'से साभार लिया जा रहा है.)

मैंगीता, रामनगर की रहने वाली 23 वर्षीय महिला हूं। मेरा विवाह 5 वर्ष पूर्व हुआ। मेरे पति का किसी और से सम्बंध होने के चलते मैंने उससे अपना सम्बंध खत्म करने के लिए रामनगर न्यायपालिका में वाद दाखिल किया है। चार वर्ष से मेरा मुकदमा न्यायालय में विचाराधीन है। इस दौरान मैंने दो वकील बदले। पहले वकील ने भी मुझे असहाय समझ मुझसे फायदा उठाने की सोची तो मैंने अपना वकील बदल दिया। दूसरी बार मैंने रामनगर बार ऐसोसिएशन के अधिवक्ता 'सुरेश चंद्र गुप्ता' को अपनी पैरवी करने के लिए नियुक्त किया। इस वकील के पास मेरा केस दो माह के लिये रहा। मैं एक गरीब घर की लड़की हूं। मेरे पिता मेहनत मजदूरी करते हैं। मुझसे छोटे मेरे चार भाई-बहन और हैं। कुछ दिन बीत जाने के बाद में वकील मुझे फोन व मैसेज भेजकर इधर-उधर घूमने चलने के लिए कहने लगा। मैंने उसके फोन रिसीव करने बंद कर दिये और कहा कि जब कोर्ट में तारीख के समय मैं आती ही हूं तो फिर फोन पर लंबी बातचीत करने का क्या मतलब बनता है। फिर इसने मुझे 8-10 पेज के लम्बे-लम्बे प्रेम पत्र लिखने शुरू कर दिये। जिसके लिए भी मैंने बहुत मना किया। मैंने यहां तक कहा कि मैं आपकी बेटी की उम्र की लड़की हूं और आपको मुझे इस तरह के पत्र नहीं लिखने चाहिए। फिर मैंने उनकी पत्नी जो कि रामनगर के ही जी.पी.पी स्कूल में अध्यापिका हैं, से इनकी शिकायत की तो उसने भी मुझे ही बुरा भला कहा। कोर्ट के बाहर एक दिन वकील ने एक राइस मिल वाले की सफेद रंग की गाड़ी में मुझे जबरदस्ती बैठाने की कोशिश की मेरे इंकार करने पर वकील मेरा पर्स खींचकर मुझे गाड़ी में बैठाने लगा।किसी तरह मैं पर्स छुड़ाकर वापस आयी।मैने वकील  व अन्य दो कर्मचारी जो कि वकील से मेरा मो. नं. लेकर मुझे परेशान करते थे, इन सभी की शिकायत जज साहब से की। जज साहब ने कर्मचारियों की ही शिकायत सुनी।
अधिवक्तासुरेश चंद्र गुप्ता बार-बार मुझसे अकेले में मिलने या किसी रिजोर्ट में चलने की बात करता। केस के बहाने अश्लील बातें मुझसे पूछता। मुझे अश्लीलता भरे पत्र लिखता। अगर मैं फोन रिसीव नहीं करती तो टेम्पू करके मेरे घर पहुंच जाता और मेरे पिता से कहता कि आपकी बेटी तो मुझसे बात करना ही पसंद नहीं करती, ऐसे में आप जिन्दगी भर कोर्ट के चक्कर लगाते रह जाओगे। वकील की बात पर ऐतबार करके मेरे पिता मुझे ही बुरा-भला कहते और मारते-पीटते।
अंततः बहुत तंग आकर मैंने इस वकील को भी बदलना मुनासिब समझा और जून 2012 से मैंने अपना वकील बदल दिया परंतु यह मुझे आज तक परेशान कर रहा है। मैं एक प्राइवेट अस्पताल में कार्य करती थी। वहां पर भी वह मेरे नाम से पत्र छोड़ जाता और बराबर फोन पर मुझ पर गलत सम्बंध बनाने, होटल में चलने का दबाव बनाता रहा है। 1 दिसम्बर 2012 को तो हद ही हो गयी जब मैं एक अस्पताल में अपनी आंखों के इलाज हेतु गयी थी वहां पर आकर इसने मेरा हाथ पकड़ कर ले जाने की कोशिश की और बोला,मेरे साथ चल। मैं किसी तरह हाथ छुड़ाकर वहां से बगैर आंख दिखाये भाग कर आई। वकील अब मुझे सरेआम परेशान करने लगा। 
मैंनेरामनगर कोतवाली में अपने साथ होने वाली छेड़छाड़ के खिलाफ वकील सुरेश चंद्र गुप्ता के नाम से तहरीर दी।आखिर में मैंने प्रगतिशील महिला एकता केंद्र व महिला समाख्या की महिलाओं से सम्पर्क किया और अपनी  समस्या बताई। 3 दिन बीतने के बाद भी रामनगर पुलिस ने वकील को गिरफ्तार नहीं किया और जांच नहीं की। तब महिला संगठनों के साथ मैं कोतवाली पुनः गई और जांच प्रक्रिया के बारे में पूछताछ की।
इधरशहर में जाने-माने लोगों द्वारा मेरे ऊपर समझौता कर लेने का दबाव निरंतर बनाया जा रहा है। पुलिस ने अभी तक वकील को गिरफ्तार नहीं किया है। उधर वकील ने कोर्ट में सरंडर कर अपनी गिरफ्तारी से पहले ही जमानत मंजूर करा ली है और वह मेरे जानने वालों व समाज में मुझे चरित्रहीन कहकर सम्बोधित कर रहा है। मैं कहती हूं कि चरित्रहीन वह वकील है जो अपनी बेटी की उम्र की लड़की पर गंदी नजर रखता है। वह एक ऐसा मानसिक रूप से विकृत वकील है जिसे समाज में न्याय दिलवाने का कार्य नहीं दिया जाना चाहिए। नैतिकता के आधार पर उससे उसकी वकालत की डिग्री छीन ली जानी चाहिए ताकि वह मुझ जैसी बेसहारा गरीब लड़कियों का आगे कभी फायदा न उठा सके। न्यायपालिकाओं में तो मेरे जैसी अनेक मजबूर लड़कियां अपने साथ हुये अन्याय के खिलाफ न्याय की आस में आती हैं पर यहां पर इस तरह के चरित्रहीन वकील उनका फायदा उठाना चाहते हैं। इसके अलावा इस वकील को मेरे साथ छेड़छाड़ करने के अपराध में सजा भी मिलनी चाहिए। चूंकि इस वकील के द्वारा मुझे लगातार उठवाने व समझौता करने का दबाव बनाया जा रहा है इसलिए मैंने रामनगर में प्रेस कांफ्रेस करने से लेकर महिला आयोग, एसडीएम रामनगर व बार एसोसियेशन रामनगर को भी पत्र लिखा है। मेरी मदद हेतु प्रगतिशील महिला एकता केंद्र ने निष्पक्ष जांच कराने व अपराधी को सजा दिलाने के लिए एसएसपी नैनीताल से भी गुहार लगाई है और मैं आगे भी न्याय के लिए अपनी ओर से सम्भव कार्यवाही करती रहूंगी।

-गीता, रामनगर


*एक स्पष्टीकरण- 
हमें यह नहीं मालूम कि दामिनी उस पीड़ित युवती का असल नाम है या नहीं. लेकिन जैसा कि फेसबुक या अन्य सोशल नेटवर्किंग साइट्स में प्रचलित हुआ था, हम इस पोस्ट के शीर्षक में उसी नाम का प्रयोग कर रहे हैं. हम मीडिया के ज़िम्मेदार होने के बेहद पक्षधर हैं. और समकालीन मीडिया एथिक्स के अनुसार बलत्कार पीड़िता के असल नाम का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन यहाँ हम यह सीमा रेखा जानबूझ कर लांघ रहे हैं क्योंकि इस तरह बलात्कार पीड़िता का नाम छुपाया जाना उसे पीड़िता न मानकर 'अपराधी' मानाने जैसा है. और इसके पीछे हमारे समाज की वही दम्भी पुरुषवादी मानसिकता काम करती है. हम ऐसा कर इस पुरुषवादी मानसिकता को चुनौती देना चाहते हैं... -मॉडरेटर   

साधो! मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ...

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हिंदी में व्यंग्य लेखन के पुरोधा हरिशंकर परसाई का 'नए साल' पर लिखा यह व्यंग्य प्रस्तुत है. समय थोड़ा आगे खिसक गया है लेकिन ना संदर्भ बदले हैं और ना परिदृश्य. गुजरे दौर का इस प्रकार का लेखन और ज्यादा प्रसंगिक होता जा रहा है. यह इसी आशय से यहाँ प्रस्तुत है कि उन प्रवृतियों पर पुनः मार करे जिन पर चोट करने के लिए इसे परसाई ने रचा था..        -मॉडरेटर


हरिशंकर परसाई
साधो, बीता साल गुजर गया और नया साल शुरू हो गया। नए साल के शुरू में शुभकामना देने की परंपरा है। मैं तुम्हें शुभकामना देने में हिचकता हूँ। बात यह है साधो कि कोई शुभकामना अब कारगर नहीं होती। मान लो कि मैं कहूँ कि ईश्वर नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी करें तो तुम्हें दुख देनेवाले ईश्वर से ही लड़ने लगेंगे। ये कहेंगे, देखते हैं, तुम्हें ईश्वर कैसे सुख देता है। साधो, कुछ लोग ईश्वर से भी बड़े हो गए हैं। ईश्वर तुम्हें सुख देने की योजना बनाता है, तो ये लोग उसे काटकर दुख देने की योजना बना लेते हैं।

साधो,मैं कैसे कहूँ कि यह वर्ष तुम्हें सुख दे। सुख देनेवाला न वर्ष है, न मैं हूँ और न ईश्वर है। सुख और दुख देनेवाले दूसरे हैं। मैं कहूँ कि तुम्हें सुख हो। ईश्वर भी मेरी बात मानकर अच्छी फसल दे! मगर फसल आते ही व्यापारी अनाज दबा दें और कीमतें बढ़ा दें तो तुम्हें सुख नहीं होगा। इसलिए तुम्हारे सुख की कामना व्यर्थ है।

साधो,तुम्हें याद होगा कि नए साल के आरंभ में भी मैंने तुम्हें शुभकामना दी थी। मगर पूरा साल तुम्हारे लिए दुख में बीता। हर महीने कीमतें बढ़ती गईं। तुम चीख-पुकार करते थे तो सरकार व्यापारियों को धमकी दे देती थी। ज्यादा शोर मचाओ तो दो-चार व्यापारी गिरफ्तार कर लेते हैं। अब तो तुम्हारा पेट भर गया होगा। साधो, वह पता नहीं कौन-सा आर्थिक नियम है कि ज्यों-ज्यों व्यापारी गिरफ्तार होते गए, त्यों-त्यों कीमतें बढ़ती गईं। मुझे तो ऐसा लगता है, मुनाफाखोर को गिरफ्तार करना एक पाप है। इसी पाप के कारण कीमतें बढ़ीं।

साधो,मेरी कामना अक्सर उल्टी हो जाती है। पिछले साल एक सरकारी कर्मचारी के लिए मैंने सुख की कामना की थी। नतीजा यह हुआ कि वह घूस खाने लगा। उसे मेरी इच्छा पूरी करनी थी और घूस खाए बिना कोई सरकारी कर्मचारी सुखी हो नहीं सकता। साधो, साल-भर तो वह सुखी रहा मगर दिसंबर में गिरफ्तार हो गया। एक विद्यार्थी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो, तो उसने फर्स्ट क्लास पाने के लिए परीक्षा में नकल कर ली। एक नेता से मैंने कह दिया था कि इस वर्ष आपका जीवन सुखमय हो, तो वह संस्था का पैसा खा गया।

साधो,एक ईमानदार व्यापारी से मैंने कहा था कि नया वर्ष सुखमय हो तो वह उसी दिन से मुनाफाखोरी करने लगा। एक पत्रकार के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त की तो वह 'ब्लैकमेलिंग' करने लगा। एक लेखक से मैंने कह दिया कि नया वर्ष तुम्हारे लिए सुखदायी हो तो वह लिखना छोड़कर रेडियो पर नौकर हो गया। एक पहलवान से मैंने कह दिया कि बहादुर तुम्हारा नया साल सुखमय हो तो वह जुए का फड़ चलाने लगा। एक अध्यापक को मैंने शुभकामना दी तो वह पैसे लेकर लड़कों को पास कराने लगा। एक नवयुवती के लिए सुख कामना की तो वह अपने प्रेमी के साथ भाग गई। एक एम.एल.ए. के लिए मैंने शुभकामना व्यक्त कर दी तो वह पुलिस से मिलकर घूस खाने लगा।

साधो,मुझे तुम्हें नए वर्ष की शुभकामना देने में इसीलिए डर लगता है। एक तो ईमानदार आदमी को सुख देना किसी के वश की बात नहीं हैं। ईश्वर तक के नहीं। मेरे कह देने से कुछ नहीं होगा। अगर मेरी शुभकामना सही होना ही है, तो तुम साधुपन छोड़कर न जाने क्या-क्या करने लगोगे। तुम गाँजा-शराब का चोर-व्यापार करने लगोगे। आश्रम में गाँजा पिलाओगे और जुआ खिलाओगे। लड़कियाँ भगाकर बेचोगे। तुम चोरी करने लगोगे। तुम कोई संस्था खोलकर चंदा खाने लगोगे। साधो, सीधे रास्ते से इस व्यवस्था में कोई सुखी नहीं होता। तुम टेढ़े रास्ते अपनाकर सुखी होने लगोगे। साधो, इसी डर से मैं तुम्हें नए वर्ष के लिए कोई शुभकामना नहीं देता। कहीं तुम सुखी होने की कोशिश मत करने लगना।

एक रूमानी 'पोस्टर बाबा'

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-विनीता यशस्वी

अवस्थी मास्साब

‘रुमानियत’ शब्द को शब्दकोशों से बेदखल कर दिया जाय. क़ानून बना दिए जाएँ कि अब यह शब्द वर्जित है. जितने ‘रूमानी’ दिखें सब को अंधियारी जेलों में धकेल दिया जाय ताकि वे बाहरी दुनियाँ में न दिखें और संक्रमण ना फैलाएं. पूरी दुनियाँ से रुमानियत का नामो-निशाँ मिट जाय. तो बताइये दुनिया कैसी लगेगी? और क्या यहाँ जीने के कोई माने रह जायेंगे? इसलिए, यदि आप आस्तिक हैं तो अपने भगवान से ‘रुमानियत’ की लंबी उम्र की दुवा करें और नास्तिक हैं तो थोडा सा रूमानी हो जाएँ.

यहाँएक रूमानी शख्स का जिक्र करने के लिए कोई भी खास तारीख क्यों ढूंढी जाय? और जबकि आपको पूरा यकीन हो कि इस शख्स ने हर तारीख को जी भर जिया होगा तो ऐसे में ये बात और भी बेमाने हो जाती है कि हम एक ‘खास तारीख’ ढूँढेंगे और उस दिन फलां आदमी की बात करेंगे.

अवस्थी मास्साब का न तो आज जन्मदिन है ना ही आज के दिन उन्होंने अपने प्राण तजे थे. लेकिन क्योंकि हमें आज ही उनके बारे में बात करने का दिल है तो हमने आज ही बात छेड दी.

अवस्थीमास्साब! शायदआप इस नाम को ना जानते हों. आप शायद उन्हें इसलिए भी न जानते हों क्योंकिउन्हें कभीकोईपुरस्कारनहीं मिला. अगर उन्हें पुरस्कार मिला होता तो उन्हें जानना ‘जीके’ तंदुरुस्त करने या अन्य कारणों से शायद आपकी मजबूरी होती. लेकिन यकीनन, उन्हें जो जानते होंगे पूरा जानते होंगे. वे आदमी ही इतने रोचक थे.और उन्होंने जो काम कियेहैंवोकिसीके जाने बगैर भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जितने कि उन्हें कोई जान लेता, तो होते.

 2 अगस्त 1925 कोनेपालकेएकछोटेसेगावंसिलगढ़ीकेगरीबपरिवारमेंजन्मेशरतचन्द्रअवस्थी’नेएम.. अंग्रेजीसेकियाथाऔरनैनीतालकेसी.आर.एस.टी. स्कूलमेंशिक्षकहो गएनैनीतालमेंहरकोईउन्हेंअवस्थीमास्साब’केनामसेहीजानताथा।अवस्थीमास्साबयूंतोअंग्रेजीकेशिक्षकथेपरअंग्रेजीकेअलावाभीहरविषयमेंउनकाबहुतअच्छाअधिकारथा।उनकेछात्ररहचुकेबलवीरसिंहकहतेहैं,  जबभीकिसीऔरविषयकेशिक्षकनहींआते,तोअवस्थीमास्साबउनकीजगहहमेंपढ़ानेआ जाते.वोइसअंदाजमेंपढ़ातेथेकिलगताये तो उन्हीं का विषय है. ये लगता ही नहीं कि मास्साब तो अंग्रेजी के मास्साब हैं.” अवस्थीमास्साब अंग्रेजी के तो मास्साब थे ही पर उनकाहिन्दीऔरउर्दूमें भी बराबर का दखल था।

अवस्थी मास्साब द्वारा बनाया गया पोस्टर
अवस्थीमास्साबकोजोबातसबसेअलगकरतीहैवोथीउनकास्वयंकोअभिव्यक्तकरनेकाअंदाज़जिसमेंतोउन्हेंखासे पैसोंकीजरूरतपड़तीथी, हीबड़े-बड़ेअखबारकेसंपादकोंकीखुशामदकरनेकीऔरहीबहुत ज्यादासमयकी।उनकायहमाध्यमथापोस्टर।वोतत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर स्वयंहीपोस्टरबनातेथेऔरउसेअपनेगले मेंलटकाकरसड़कमेंनिकलजाते।जिसेभीपोस्टरपड़नाहोतावोउनकेसामनेचलेजाता।अवस्थीमास्साबवहांपरतबतकखड़ेरहतेथेजबतककीसामनेवालापूरापोस्टरपढ़ले।कभी-कभीवोआगे-पीछेदोनोंतरफपोस्टरलटकाकेचलतेथे।जबकोईसामनेकीतरफवालापोस्टरपढ़लेतातोउसेघूमकरपीछेकापोस्टरभीपढ़नेदेते।अवस्थीमास्साबकेपोस्टरोंकीएकऔरखासियतयहथीकिउन्होंनेकोईभीपोस्टरनयेकागजमेंनहींबनाया।इसकेलियेउन्होंनेहमेशाइस्तेमालकियेजाचुकेकागजकोहीफिरसेइस्तेमालकिया।वोअपनेदिलकीहरबात, अपनीनाराजगी, गुस्साऔरप्यार,सबकुछअपनेपोस्टरकेद्वाराआमजनतातकपहुंचादेतेथे।जिसकाजनताकेऊपरगहराप्रभावभीपड़ताथा।

अवस्थीमास्साबमशहूरनाट्यसंस्थायुगमंचकेसंस्थापकसदस्यभीथे।युगमंच के पूर्वअध्यक्ष ज़हूरआलमकीमल्लीतालस्थितछोटीसीकपड़ेकीदुकानइंतखाब’उनकेबैठनेकाअड्डा हुआ करता. यहींसेवोअपनेसभीरचनात्मककार्योंकोदिशादियाकरतेथे।ज़हूरआलमबताते हैं,अवस्थीमास्साबज्ञानकाभंडारथे।हरविषयमेंउनकाज्ञानइतनागहराथाकिकभी-कभीलोगउसेसमझभीनहींपातेथे।असलमेंअवस्थीमास्साबअपनेसमयसेबहुतआगेकेथेइसलियेशायदलोगउन्हेंउसतरीकेसेसमझनहींपायेजिसतरहसेउन्हेंसमझाजानाचाहियेथा।”

अवस्थीमास्साबआंदोलनकारीभीथेऔरउन्होंनेनशानहीरोजगारदो, प्राधीकरणहटाओनैनीतालबनाओ, मण्डल-कमण्डलकेविरुद्धछात्रआंदोलन, 1994 कामुजफ्फरनगरकांडतथाउत्तराखंडआंदोलन  मेंसक्रियभूमिकाअदाकी।अवस्थीमास्साबखेलोंकेभीबेहदशौकिनथेऔरहरतरहकेखेलोंजैसेक्रिकेट,हॉकी, फुटबाल, बॉक्सिंगआदिकीबारिकियोंसेभीभलीभाँतिपरिचितथे।अरूणरौतेलाकहतेहैं,अवस्थीमास्साबविद्वान औरईमानदारतोथेहीसाथ हीउन्होंनेखुदकोअभिव्यक्तकरनेकाजोमाध्यमचुनावोनिरालाथा।उनकेबगैरनैनीतालआजअधूरालगताहै।उनसेहमेंकाफीकुछसीखनेकोमिला।ऐसेविद्वानदुनियामेंकमहीहोतेहैंजिनमेंसेएकहमारेअवस्थीमास्साबभीथे।”

आंखिरी पोस्टर

जीवनकी सर्दियों में से बसंत के 76मौसमों को बहार निकाल लाने के बाद, 2002 की सर्दियाँ अभी लदी भी नहीं थी कि फ़रवरी की 12 तारीख को मास्साब को हुये ब्रेन हैम्ब्रेज ने उन्हें इस बसंत से आगे नहीं बढ़ने दिया. यह ब्रेन हेम्ब्रेज प्राणघातक साबित हुआ. कुछ दिनों से अस्पताल में भरती अवस्थी मास्साब की मृत देह को जब बिस्तर से उठाया गया तो सिरहाने से मुस्कराहट फूट पड़ी, उनका बनाया एक आंखरी पोस्टर झाँक रहा था. उसमे लिखा था, “हैप्पी बर्फ डे!”. एक दिन पहले ही नैनीताल बर्फ में नहाया था. यह पोस्टर उसी का जश्न था और दुनिया को अवस्थी मास्साब का ‘अलविदा’ भी...

(अवस्थीमास्साबकीतस्वीरऔरउनकेपोस्टर,ज़हूरआलम, पूर्वअध्यक्षयुगमंचद्वारासाभार)






विनीता पेशे से पत्रकार हैं और मिज़ाज से यात्री. 
उत्तराखंड के प्रतिनिधि अखबार 'नैनीताल समाचार' की मुहीम का अहम हिस्सा हैं. 
इनसे संपर्क का पता है- yashswi07@gmail.com

बदलाव कई मोर्चों पर चाहिए...

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आदिल रज़ा खान

"...बहरहाल सबसे ज़्यादा चिंता की बात है कि मार्केट ने युवाओं को इसकी ज़द में इस तरह जकड़ रखा है कि उनका इससे बाहर निकल पाना मुश्किल मालूम पड़ता है। प्रोटेस्ट के साथ ही खुद में वास्तविक बदलाव की कोशिश इस सबमे ज्यादा कारगर होगी...जहां हम हर रोज अनायास ही फूटती मां-बहन की भद्दी गालियां ना दें....जहां हम दोस्त एक दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली में भी माँ-बहन या महिलाओं को उपभोग का पात्र न बनाएं..."

दिल्ली गैंग रेप के बाद आम लोगों का हुजूम इस जघन्य अपराध के खिलाफ सड़क पर उतर आया है। तकरीबन 15 दिनों से अलग-अलग शहरों में लोग अपनी नाराज़गी का इज़हार भी करते भी दिख रहे हैं। इस तरह के प्रोटेस्ट की एक खास बात, युवा पीढ़ी का अपने प्री-सेट सर्कल से बाहर निकल कर सार्वजनिक हित के लिए मोबिलाइज़ होना। एक तरफ 'आई हेट पॉलिटिक्स' वाली युवा पीढ़ी का एक्टीविज़म और पार्टीसिपेशन कुछ हद तक खुशी भी देता है..वहीं यो यो हनी सिंह की वल्गर बीट पर थिरकते उन युवाओं को देख भ्रम भी पैदा होता है। सवाल सिर्फ हनी सिंह की धुनों का नहीं। हनी सिंह से मेरी कोई ज़ाती दुश्मनी नहीं है। हनी सिंह का जिक्र मैने सिर्फ उदाहरण के लिए पेश किया। ऐसे बहुतेरे साक्ष्य मिलेंगे जिनमें कहीं न कहीं महिलाओं के प्रति आपत्तिजनक ऑडियो-विजुअल कंटेंट परोसे जाते हैं। एफ एम चैनलों पर देर रात आने वाले फोन-इन शो की बात करें या परफ्यूम के एड या फिर कोई भी उत्पाद हो..केंद्र में महिलाओं का सौदर्य आकर्षण ही रखा जाता है। हंसी तो इस बात पर आती है कि डिटर्जेंट के विज्ञापन तक मे स्त्री शरीर को दिखाकर सामान बेचने की कोशिश की जाती है..इस तरह के एड पर आप अगर ग़ौर करें तो पाएंगे कि कपड़े की सफेदी  से ज़्यादा आपने आकर्षक महिला को फोकस किया। इसे कबूलने में कोई दिक्कत नहीं होनी चीहिए...ये सत्य है और इंसानी फितरत भी।

यहांपर मैं एक और उदाहरण  कंडोम या निरोध के विज्ञापन के साथ जोड़कर देना चाहूंगा...ज़्यादातर विज्ञापनों को देखकर ऐसा लगता है मानो इस जन स्वास्थ्य हित वाले ऐड में सुरक्षा को कम और सेक्सुअल फैंटेसी को ज़्यादा प्रदर्शित किया जाता है...जरा सोचें और खुद ही बताएं कि क्या इस तरह के ऐड से आपके अंदर सुरक्षा को लेकर चेतना जागी या आप और ज़्यादा फंतासी के लिए प्रोवोक हुए...हाल के दिनों में टीवी पर छाने वाले डियो के ऐडस् के बारे में मैं अब नहीं कहना चाहता जिसमें बेटा-बहु-ससुर की केमिस्ट्री दिखाई गई है..

थोड़ा बॉलीवुड का रुख करते हैं...आइटम गाना अब किसी भी फिल्म के बॉक्स ऑफिस रिज़ल्ट को निर्धारित करता है...आइटम सॉन्ग में जितने कम कपड़े और चलताऊ लैंग्वेज का सहारा लिया जाएगा...उतनी ही हिट होगी वो फिल्म....अब तो चलताऊ से फूहड़ शब्दों के मेटामॉरफोसिस का दौर है...जहां 'पटाना' काफी सहज लफ्ज़ है। और हर युवा के स्मार्ट फोन में ऐसे कंटेंट का नहीं होना उसे आउटडेटेड कर देता है......जहां स्मार्ट फोन की भी निकल पड़ती है और गाना बनाने वालों की भी...और इन सब के बीच हम महिलाओं के खिलाफ अभद्रता का लुत्फ उठाते हैं.........सवाल ये है कि बदलाव की चाहत रखने वाले हम युवाओं में इन सब उपभोक्तावादी चरित्र से बचने के लिए कितने मज़बूत हैं...एक और बात ये भी कि आखिर युवा ही क्यों.... इस तरह के बाजा़र या इसको चलाने वाले लोग भी समाज का ही हिस्सा हैं...उनके अंदर आखिर इस तरह कि नैतिक चेतना क्यों नहीं होनी चाहिए कि वे स्त्री को परोसना बंद करें....इसके लिए हम क्या कर सकते हैं...कैसे इस फूहड़ता को रोक सकते हैं...सोचने की ज़रूरत है....

नएसाल के मौके पर रैप सिगर हनी सिंह का कॉन्सर्ट तय था... बड़ी संख्या में टिकटें भी बिकीं...हालांकि ये औऱ बात है कि मौजूदा दबाव के चलते आयोजकों को ये शो रद्द करना पड़ा। बहुत आनाकानी और अनमने ढंग से शो तो रद्द कर दिया गया...लेकिन क्या युवा पीढ़ी वाकई हनी सिंह की फूहड़ता, अश्लील गानों, मशहूर आइटम नंबर को नकारने का माद्दा रखती है...या फिर ये शांतिपूर्ण मार्च महज़ दिखावा है.....

बहरहाल सबसे ज़्यादा चिंता की बात है कि मार्केट ने युवाओं को इसकी ज़द में इस तरह जकड़ रखा है कि उनका इससे बाहर निकल पाना मुश्किल मालूम पड़ता है। प्रोटेस्ट के साथ ही खुद में वास्तविक बदलाव की कोशिश इस सबमे ज्यादा कारगर होगी...जहां हम हर रोज अनायास ही फूटती मां-बहन की भद्दी गालियां ना दें....जहां हम दोस्त एक दूसरे के साथ हंसी-ठिठोली में भी माँ-बहन या महिलाओं को उपभोग का पात्र न बनाएं..बदलाव इसलिए भी कि फूहड़ कॉन्सर्ट के लिए हम 25 हज़ार रुपये खर्च करने के बजाए किसी ज़रूरतमंद के सुपूर्द करें और यहां सैटिस्फैक्शन तलाशें....बदलाव इस तरह का कि आधी रात बीच सड़क पर शराब पीकर हुल्लड़ मचाने को ही हम अपनी अल्टीमेट आज़ादी ना मानें...बदलाव इसलिए भी क्योंकि हम इंसान हैं...हममें साकारात्मक बदलाव की सलाहियत है...जो किसी अन्य प्राणी में शायद नहीं.....

आदिल युवा पत्रकार हैं. 
अभी राज्यसभा में काम कर रहे हैं. 
इनसे adilraza88@gmail.comपर संपर्क किया जा सकता है.   

यह अराजक भीड़ नहीं, लोकतंत्र की नई उम्मीद है

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Anand Pradhan
आनंद प्रधान

"...जंतर-मंतर पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा युवा खासकर लड़कियां और महिलाएं उस गोलबंदी के साथ बैठने और नारे लगाने और गीत गाने में जुट रही हैं जिसकी अगुवाई वे प्रगतिशील-वाम संगठन कर रहे हैं जिसमें बलात्कारियों को फांसी की मांग के बजाय यह नारा लग रहा है कि ‘हमें क्या चाहिए- बेख़ौफ़ आज़ादी, घर में आज़ादी, रात में-दिन में घूमने-फिरने, आने-जाने की आज़ादी, काम करने की आज़ादी, स्कूल-कालेज जाने की आज़ादी, सिनेमा जाने की आज़ादी, प्रेम करने की आज़ादी...आज़ादी-आज़ादी.’ इस प्रक्रिया में उन हजारों युवाओं का राजनीतिकरण हो रहा है और उन्हें स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखने और समझने की दृष्टि मिल रही है..."

दिल्ली की वह बहादुर लड़की शरीर और मन पर हुए प्राणान्तक घावों के बावजूद जीना चाहती थी. देश के करोड़ों लोग भी यही चाहते थे. लेकिन वह लड़ते हुए एक शहीद की तरह चली गई. यह सही है कि वह भारतीय समाज में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली बर्बर यौन हिंसा और भेदभाव की पहली शहीद नहीं है और न आखिरी. उसके जाने के बाद भी दिल्ली, पंजाब, बिहार, गुजरात से लेकर बंगाल तक से स्त्रियों पर यौन हिंसा, बलात्कार और हत्या की खबरें आ रही हैं. अखबारों और चैनलों में अब भी ऐसी ख़बरों की भरमार है.  

लेकिन इस बार एक बड़ा फर्क है. इस बार अखबारों और न्यूज चैनलों में स्त्रियों पर होनेवाली बर्बर हिंसा की खबरों से ज्यादा जगह और सुर्ख़ियों में उसके विरोध की खबरें हैं. उस बहादुर लड़की के संघर्ष और शहादत ने देश के लाखों नौजवानों खासकर लड़कियों और आम लोगों में स्त्रियों के खिलाफ होनेवाली बर्बर हिंसा और आपराधिक भेदभाव के खिलाफ लड़ने का जज्बा भर दिया है. दिल्ली से लेकर देश भर के छोटे-बड़े शहरों-कस्बों में हजारों-लाखों युवा और आम नागरिक ‘हमें न्याय चाहिए’ और ‘हमें चाहिए- आज़ादी’ के नारों के साथ सड़कों पर उतर आए हैं.

खासकरदिल्ली में जिस बड़ी संख्या में युवा सड़कों पर और उसमें भी खासकर सत्ता के केन्द्र रायसीना पहाड़ी, विजय चौक और इंडिया गेट से लेकर जंतर-मंतर पर उतरकर प्रदर्शन कर रहे हैं और अपना गुस्सा जाहिर कर रहे हैं और पुलिसिया दमन के बावजूद पीछे हटने को तैयार नहीं हैं, उसने सत्ता प्रतिष्ठान के साथ-साथ समूचे राजनीतिक वर्ग को एक साथ चौंका और डरा दिया है. हड़बड़ी और घबड़ाहट में केंद्र और दिल्ली सरकार ने कानून में बदलाव और दिल्ली गैंग रेप की जांच के लिए दो न्यायिक आयोग बनाने से लेकर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने, दिल्ली में सार्वजनिक बसों की संख्या बढ़ाने जैसे कई फैसले किये हैं.

यहीनहीं, प्रधानमंत्री से लेकर गृह मंत्री और कांग्रेस अध्यक्ष तक रोज बलात्कार के खिलाफ कड़े कानून बनाने से लेकर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दिलाने के वायदे कर रहे हैं. लेकिन लोगों का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा है. इंडिया गेट से लेकर विजय चौक तक हजारों की संख्या में पुलिस और अर्द्ध सैनिक बल तैनात कर सैन्य छावनी बना देने और मेट्रो स्टेशन बंद करने के बावजूद हजारों की संख्या में नौजवान जंतर-मंतर पहुंचकर शांतिपूर्ण तरीके से प्रदर्शन कर रहे हैं. अपना गुस्सा जाहिर करने पहुँच रहे लोगों में छात्र-युवा लड़के और लड़कियों की संख्या सबसे ज्यादा है लेकिन उसमें ४० से ज्यादा उम्र के पुरुषों और महिलाओं की संख्या भी अच्छी-खासी है.

असलमें, यह एक इन्द्रधनुषी विरोध प्रदर्शन है जिसमें रैडिकल वामपंथी संगठनों-आइसा, आर.वाई.ए, एपवा और दूसरे वामपंथी संगठन जैसे एस.एफ.आई, एडवा, एन.आई.एफ.डब्ल्यू आदि से लेकर जे.एन.यू छात्रसंघ तक और अस्मिता जैसे सांस्कृतिक संगठन से लेकर और जागोरी जैसे नारीवादी संगठनों तक कई रंगों-विचारों के संगठन हैं तो दूसरी ओर आम आदमी पार्टी से लेकर घोर दक्षिणपंथी ए.बी.वी.पी जैसे संगठन भी हैं. लेकिन ए.बी.वी.पी जैसे संगठन और बाबा रामदेव जैसे धर्मगुरु को न सिर्फ इस आंदोलन में कोई तवज्जो नहीं मिली है बल्कि लोगों और खासकर युवाओं ने खुद ही अलग-थलग कर दिया है.

इसकेउलट आइसा-एपवा जैसे रैडिकल-वाम संगठन वहां नेतृत्वकारी भूमिका में हैं और उनके तर्कों और विचारों को सुना जा रहा है. लेकिन सबसे उल्लेखनीय बात यह है कि इन संगठनों और उनके कार्यकर्ताओं से कई गुना ज्यादा संख्या में आम नौजवान खासकर लड़कियां और महिलाएं हैं जो खुद वहां पहुँच रही हैं. इनका किसी राजनीतिक संगठन या पार्टी से संबंध नहीं है. वे सभी गुस्से में हैं. उन्हें लगता है कि ‘बस, अब बहुत हो चुका.’ सबके अपने पीड़ादायक अनुभव हैं जो उन्हें उस बहादुर लड़की से जोड़ते हैं, उसकी पीड़ा और बलात्कारियों के खिलाफ संघर्ष में साझीदार बनाते हैं और लड़ने का हौसला और साहस देते हैं.

कहनेकी जरूरत नहीं है कि इन सभी लड़कियों-महिलाओं और उनके पुरुष साथियों और परिवारजनों ने चाहे वह घर की बंद चहारदीवारी हो या घर के बाहर कालोनी-मुहल्ले की सड़क या बस स्टैंड या खुद बस-मेट्रो या बाजार/शापिंग माल्स या आफिस या स्कूल-कालेज-यूनिवर्सिटी या कोई और सार्वजनिक स्थान- लगभग हर दिन, कम या ज्यादा अश्लील फब्तियां, यौन उत्पीडन और अत्याचार अंदर जमा होते गुस्से के बावजूद डरकर और चुपचाप झेला है. लेकिन दिल्ली गैंग रेप की बर्बरता ने उस डर को तोड़ दिया. उन हजारों-लाखों युवाओं खासकर लड़कियों को यह समझ में आ चुका है कि लड़ने और घरों से बाहर निकलकर अपनी आवाज़ बुलंद करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है.

उनकावर्षों से जमा गुस्सा फूट पड़ा है. उस गुस्से में शुरुआत में बदले की भावना भी दिखी जो न्याय की मांग करते हुए बलात्कारियों को फांसी की सजा और उनका रासायनिक बधियाकरण करने और कड़े से कड़े कानूनों की मांग कर रही थी. लेकिन धीरे-धीरे इसमें वह विवेक और तार्किकता बढ़ रही है जो न्याय का मतलब बदला नहीं समझती है, जो यौन हिंसा का समाधान फांसी में नहीं देखती हैं, जो कड़े कानूनों और चप्पे-चप्पे पर पुलिस तैनात करने से परे जाकर सरकार, पुलिस, कोर्ट और कानूनों पर हावी उस पुरुषसत्ता और पुरुषवादी सोच को निशाने पर ले रही हैं जो लड़कियों और महिलाओं के खिलाफ हिंसा और यौन अत्याचारों को कभी घर से बाहर निकलने, कभी फैशन और कपड़ों और कभी संस्कारों आदि के नामपर जायज ठहराने की कोशिश करते हैं. वे ऐसे किसी कुतर्क और बहाने को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं.

आश्चर्यनहीं कि जंतर-मंतर पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों में सबसे ज्यादा युवा खासकर लड़कियां और महिलाएं उस गोलबंदी के साथ बैठने और नारे लगाने और गीत गाने में जुट रही हैं जिसकी अगुवाई वे प्रगतिशील-वाम संगठन कर रहे हैं जिसमें बलात्कारियों को फांसी की मांग के बजाय यह नारा लग रहा है कि ‘हमें क्या चाहिए- बेख़ौफ़ आज़ादी, घर में आज़ादी, रात में-दिन में घूमने-फिरने, आने-जाने की आज़ादी, काम करने की आज़ादी, स्कूल-कालेज जाने की आज़ादी, सिनेमा जाने की आज़ादी, प्रेम करने की आज़ादी...आज़ादी-आज़ादी.’ इस प्रक्रिया में उन हजारों युवाओं का राजनीतिकरण हो रहा है और उन्हें स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा को देखने और समझने की दृष्टि मिल रही है. 

यहाँ‘व्यक्तिगत, राजनीतिक बन रहा है और राजनीति, व्यक्तिगत मामला बन रही है (पर्सनल इज पोलिटिकल, पोलिटिकल इज पर्सनल).’ माफ कीजियेगा, वे भीड़ नहीं हैं क्योंकि वे एक उद्देश्य के साथ सड़कों पर उतरे हैं. वे ‘अराजकता के कद्रदान’ (कोनोसुर आफ एनार्की) तो कतई नहीं हैं क्योंकि यह सरकार और प्रशासन की अपराधियों-माफियाओं के साथ मिलकर पैदा की हुई अराजकता के खिलाफ एक न्यायपूर्ण व्यवस्था बहाल करने की मांग का आंदोलन है. वे विजय चौक और इंडिया गेट पर भारतीय संविधान या संसद या राष्ट्रपति भवन या नार्थ-साउथ ब्लाक को ध्वस्त करने भी नहीं पहुंचे थे और न ही उनका इरादा राजधानी और सत्ता के शीर्ष पर कोई अराजकता पैदा करना था.

यहीनहीं, सरकारी और प्रशासनिक संवेदनहीनता से नाराजगी और गुस्से के बावजूद वे तालिबानी न्याय के पक्ष में नहीं हैं. अलबत्ता वे सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों की नींद में खलल जरूर डालना चाहते हैं. वे उनकी शांति जरूर भंग करना चाहते हैं. यह भी सच है कि वे समूचे राजनीतिक वर्ग और सत्ताधारियों से नाराज हैं. उन्हें लगता है और सौ फीसदी सही लगता है कि दिल्ली की वह बहादुर लड़की उस बस में गैंग रेप का विरोध करती और लड़ती हुई इसलिए मारी गई क्योंकि अपराधी-लम्पट तत्वों, भ्रष्ट पुलिस और परिवहन विभाग और उनके सबसे बड़े संरक्षक सत्ता के शीर्ष पर बैठे नेताओं और राजनीतिक पार्टियों को आमलोगों की कोई परवाह नहीं है.

अफसोसकी बात यह है कि इस जनउभार और धीरे-धीरे उसके आंदोलन बनने का स्वागत करने के बजाय कई उदार बुद्धिजीवी उससे भयभीत नजर आ रहे हैं. उन्हें यह एक अराजक भीड़ लग रही है जिसकी आक्रामकता और जल्दबाजी में वे फासीवादी आहट देख रहे हैं. उन्हें इसमें कानून के राज और व्यवस्था के प्रति खुला तिरस्कार और मखौल दिख रहा है. उन्हें यह भय सता रहा है कि देश भीड़तंत्र की ओर बढ़ रहा है जोकि देश में पिछले कई दशकों और अनेकों बलिदानों के बाद खड़ा किये गए लोकतांत्रिक व्यवस्था को तहस-नहस कर देगा. उन्हें यह चिंता है कि इस भीड़ की हिम्मत बढ़ती जा रही है, उसने जैसे ‘अव्यवस्था’ फैलाने और ‘हुक्मउदूली’ करने का लाइसेंस हासिल कर लिया है और अपनी शर्तों पर अपनी मांगें मनवाने की कोशिश कर रही है.

सचमुच,उदार बुद्धिजीवियों की इस चिंता से चिंतित होने और सतर्क होने का समय आ गया है. सवाल यह है कि वे कैसा लोकतंत्र चाहते हैं? वे कैसी व्यवस्था के पक्ष में खड़े हैं? ये सवाल इसलिए बहुत महत्वपूर्ण हैं क्योंकि एक ऐसे समय में जब देश में सत्ता-कार्पोरेट्स गठजोड़ की ओर से लोकतांत्रिक अधिकारों खासकर अभिव्यक्ति की आज़ादी, विरोध के अधिकार, संगठन बनाने के अधिकार आदि पर संगठित हमले बढ़ रहे हैं और खुद लोकतंत्र का दायरा सिकुड़ता-संकुचित होता जा रहा है, उस समय दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को अपने ही नागरिकों और उनके सड़क पर उतरने से डर क्यों लग रहा है?

क्या लोकतंत्र का मतलब सिर्फ पांच साल पर होनेवाले चुनाव हैं? क्या नागरिकों का काम हर पांच साल पर उपलब्ध विकल्पों में एक सरकार चुन देना भर है? जाहिर है कि लोकतंत्र का मतलब नागरिकों का राजकाज के मुद्दों पर चुप रहना नहीं बल्कि सक्रिय भागीदारी है. इस सक्रिय भागीदारी का एक लोकप्रिय रूप विरोध करने का अधिकार भी है. विरोध का अधिकार लोकतंत्र की आत्मा है. इस मायने में दिल्ली में गैंग रेप के खिलाफ भड़के गुस्से और लोगों खासकर युवा लड़के-लड़कियों का सड़क पर उतरना और विरोध जाहिर करना लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत है. उसने विरोध करने के अधिकार को फिर से बहाल करने की कोशिश की है. 

वे इन विरोध प्रदर्शनों में एक नागरिक के दायित्वबोध के साथ पहुँच रहे हैं. वे वहां भारतीय लोकतंत्र के एक सजग और सक्रिय नागरिक की तरह पहुँच रहे हैं और सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग से हिसाब मांग रहे हैं. यही नहीं, उन्हें वहां पहुंचकर विरोध जताने और अपनी आवाज़ उठाने की ताकत का अहसास हुआ है.  युवाओं के इस विरोध और आंदोलन ने एक भ्रष्ट, जड़, संवेदनहीन व्यवस्था को झकझोर दिया है. इस आंदोलन ने सत्ता में बैठे नेताओं की जवाबदेही की मांग करके लोकतंत्र को कमजोर नहीं बल्कि मजबूत किया है. इस आंदोलन ने अपनी तीव्रता के कारण बहुत छोटी अवधि में कई कामयाबियां हासिल की हैं.

इसकी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने स्त्रियों के खिलाफ बढ़ती हिंसा से लेकर उनकी आज़ादी, सम्मान और सुरक्षा से जुड़े मसलों को पहली बार राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे पर सबसे उपर पहुंचा दिया है. याद कीजिए, इससे पहले कब देश में स्त्रियों के खिलाफ हिंसा और उनकी आज़ादी और सुरक्षा के मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर इतनी शिद्दत से चर्चा और बहस में आए थे? इससे पहले सत्ता प्रतिष्ठान और राजनीतिक वर्ग कब महिलाओं के मुद्दों पर इतने फैसले और घोषणाएं करने के लिए मजबूर हुआ था? कहने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक विमर्श में महिला और युवा वोटरों की बढ़ती चर्चाओं के बावजूद महिलाओं के मुद्दे राजनीतिक पार्टियों के घोषणापत्रों में अब भी सबसे आखिर में और चलताऊ अंदाज़ जगह पाते रहे हैं.

लेकिनइस आंदोलन के बाद राजनीतिक पार्टियों के लिए महिलाओं के मुद्दों को नजरंदाज कर पाना मुश्किल होगा. इस अर्थ में इस आंदोलन दूसरी सबसे बड़ी कामयाबी यह है कि इसने संकीर्ण जातिवादी, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक अस्मिताओं का निषेध करते हुए स्त्री अस्मिता की जोरदार दावेदारी की है. इसने एक बलात्कार को दूसरे बलात्कार के खिलाफ खड़ा करने, एक आंदोलन को दूसरे के खिलाफ खड़ा करने और एक मुद्दे के विरुद्ध दूसरे मुद्दे को खड़ा करने की संकीर्ण अस्मितावादी बुद्धिजीवियों की कोशिशों को भी नाकाम कर दिया है.

इसआंदोलन की तीसरी बड़ी कामयाबी यह है कि लंबे अरसे बाद किसी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में और मुखरता के साथ मध्यम और निम्न-मध्यमवर्गीय महिलाएं खासकर युवा छात्राएं/लड़कियां विरोध प्रदर्शनों में सड़कों पर उतरी हैं. उन्होंने जिस तरह से पुलिस के डंडों, आंसू गैस और वाटर कैनन का सामना किया, वह नई भारतीय स्त्री की के आगमन की सूचना है. अन्ना हजारे के नेतृत्ववाले भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में इतनी बड़ी संख्या में महिलाएं नहीं आईं थीं.

इसआंदोलन की चौथी कामयाबी यह है कि इसने महिला आंदोलन को पुनर्जीवित कर दिया है. इसने महिलाओं को भयमुक्त किया है. उनका आत्मविश्वास बढ़ा है. उन्हें अब घर की चहारदीवारी में बंद करना मुश्किल है. उनपर अब नैतिकता और इज्जत की रक्षा के नामपर भांति-भांति की पाबंदियां थोपना आसान नहीं होगा. वे अब और खुलकर अपनी इच्छाएं जाहिर कर सकेंगी और चुनाव की स्वतंत्रता का इस्तेमाल करेंगी. इस तरह पितृ-सत्ता को चुनौती बढ़ेगी. हालाँकि पितृ-सत्ता के खिलाफ यह लड़ाई बहुत लंबी और कठिन है लेकिन इस आंदोलन ने जिस तरह से महिला आंदोलन को नई ताकत, उर्जा और गति दी है, उससे यह उम्मीद बढ़ी है कि पितृ-सत्ता के खिलाफ आंदोलन को नया आवेग मिलेगा.

क्या अब भी कहना जरूरी है कि भारतीय लोकतंत्र के लिए इस आंदोलन से डरने के बजाय इससे आश्वस्त और आशान्वित होने की जरूरत है? सच पूछिए तो इस आंदोलन ने भारतीय लोकतंत्र और समाज को और बेहतर और जीवंत बनाने में मदद की है. उस अनाम बहादुर लड़की की बलात्कारियों के खिलाफ लड़ाई के बावजूद भी लोग अगर घरों-कालेजों-दफ्तरों से बाहर नहीं निकलते तो यकीन मानिए वह भारतीय लोकतंत्र के अंदर बढ़ते संवेदनहीनता के अँधेरे को और गहरा करता, सत्ता और अपराधियों के गठजोड़ का खौफ और बढ़ जाता और लोगों की लाचारी और हताशा और बढ़ती जाती. इस आंदोलन ने लोगों की इस लाचारी और हताशा को तोड़ा है और साफ़ कर दिया है कि लोकतंत्र में लोगों से उपर कुछ भी नहीं है.  

(यह आलेख जनसत्ता के कल के अंक में संपादकीय पृष्ठ पर और आनंद जी के ब्लॉग 'तीसरा रास्ता'में भी पढ़ा जा सकता है.)        

आनंद प्रधानवरिष्ठ स्तंभकार हैं. 
मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता apradhan28@gmail.com है.

सावधान! आजादी के नारों के बीच ही गूँज रहे है सामंती फरमान

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-सरोज कुमार

"...इस तरह की प्रवृति के वाहकों में सामंती और सांप्रदायिक शक्तियां ही काम कर रही हैं। इस प्रवृति के निषेध के बगैर महिला अधिकारों और उनकी सुरक्षा की बात करना बेमानी है। पुरुषवादी धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से लेकर सामंतवादी संगठनों को विरोध जरुरी है। संघ और बीजेपी जैसे संगठन इसके पोषक रहे हैं।..."


चित्र - भारत माता (एम. एफ. हुसैन) 
मारा समाज सामंती समाज है। पुरुषवादी सत्ता की जड़ें इतनी गहरी हैं कि महिलाओं को अभी भी थोड़ी सी आजादी के पक्ष में नहीं। सामाजिक संस्थाओं में ये जड़ें सदियों से धंसी हुई हैं। अभी महिलाओं के अधिकारों पर हो रही प्रतिक्रियाओं में भी यह नजर आ रहा है। दिल्ली गैंग रेप की वीभत्स घटना के बाद एक ओर जहां महिलाओं पर हो रहे अत्याचार पर जबरदस्त आक्रोश उभरा है। जनवादी लोग महिलाओं की वास्तविक आजादी की बात कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर सामंती पुरुषवादी ताकतें इस आक्रोश को भी महिलाओं के शोषण में इस्तेमाल करने की कोशिशें कर रही हैं। ये चालबाज कोशिशें महिलाओं के खिलाफ हाल में विभिन्न इलाकों, संस्थाओं और ताकतों से आ रही पुरुषवादी प्रतिक्रिया में स्पष्ट देखा जा सकता है। हाल तो ये है कि इसमें महिलाएं भी पुरुषवादी हथियार ही नहीं बन रहीं बल्कि अपने अंदर सदियों से धंसी आ रही पुरुषवादी जड़ों को कुछ महिलाएं खुद भी उगल रही हैं। इस मामले में मोहन भागवत जिसे भारतकह रहे हैं उसकी हालत तो सबसे ज्यादा लिजलिजी और सामंती है। साथ ही इंडियामें बैठी पुरुषवादी ताकतें भी उसे ही पुष्ट कर रही हैं। गांव-कस्बों की पंचायतें हों, पुलिस हो या इंडियाकी संसद में बैठे नेता हों, इनकी ओर से महिलाओं की आजादी का हनन करने वाली कोशिशें और प्रतिक्रियाएं जारी हैं।

दिल्लीकी घटना के बाद एकाएक बिहार के कई इलाकों से स्थापित समाजिक संस्थाओं की पुरुषवादी कोशिशें बढ़ी हैं। लगातार सामंती फरमान जारी किए जा रहे हैं। ये ताकतें ना केवल महिलाओं की सुरक्षा का बहाना दे कर उनके अधिकारों को छीनने का प्रयास कर रही हैं बल्कि चालबाजी से महिलाओं को ही कठघरे में खड़ा करने की कोशिश में हैं। महिलाओं के कपड़ों के अलावा आजादी की प्रतीक और माध्यम बन चुके मोबाइल फोन पर भी प्रतिबंध लगाए जा रहे हैं। इसमें सरकारी लोग और स्थानीय पंचायतें भी खाप की शक्ल में फरमान जा रही कर रही हैं। ये मूलत:  हमारे धार्मिक और सामाजिक पुरुषवादी संरचना से सालों से हमारे समाज में व्याप्त होती आई हैं।

बिहारके औरंगाबाद जिले के कुटुंबा के मटपा ग्राम पंचायत की बैठक में बीते 31 दिसंबर को स्कूली बच्चों के लिए मोबाइल पर प्रतिबंध लगा दिया गया। साथ ही यह कहते हुए कि लड़कियां भड़काउ कपड़े पहन कर सामाजिक माहौल बिगाड़ती हैं, उनके लिए ड्रेस कोड बना लागू कर दिया गया। इसके लिए बहाना दिया गया लड़कियों की सुरक्षा का। कहा गया इससे दिल्ली जैसी घटनाएं रुकेंगी। देखने वाली बात तो ये है कि पंचायत की मुखिया भी एक महिला सुषमा सिंह हैं।(1) ठीक एक दिन बाद 2 जनवरी को सीवान जिले के सिसवां कला पंचायत ने भी दिल्ली की घटना का हवाला देकर सामंती फरमान जारी कर दिया कि लड़कियों ने अगर मोबाइल रखा और तंग व छोटे कपड़ें पहने तो अभिभावकों पर 5 हजार रुपए जुर्माना वसूला जाएगा।(2) अभी इसपर हंगामा मचा ही था कि दूसरे दिन 3 जनवरी को स्थानीय महिला विधायक कविता देवी ने इसे सही ठहरा कर अन्य पंचायतों को भी इसका अनुसरण करने को कह दिया।(3) वहीं3 जनवरी को ही राजधानी पटना से करीब 40 किलोमीटर दूर ही पालीगंज प्रखंड के कल्याणपुर पैपुरा पंचायत ने लड़कियों के जींस-स्कर्ट पहनने पर पाबंदी लगा दी। उल्लंघन करने वाली की लड़की पर 5 हजार रुपए जुर्माना ठोंकने की बात कही गई। साथ ही मोबाइल से परहेज करने कहा गया।(4) ऐसे फरमान केवल पंचायतें ही नहीं ले रही थी बल्कि इसमें शिक्षा का पाठ पढ़ाने वाले शिक्षक भी कूद पड़े। 4 जनवरी को सारण जिले के तरैया प्रखंड के प्राथमिक शिक्षक संघ ने बैठक करके प्रखंड के सभी प्राथमिक और मिडिल स्कूलों में विद्यार्थियों के मोबाईल पर रोक लगा दिया।(5) बैठक में कहा गया कि मोबाइल के कारण किशोरावस्था में ही प्रेम प्रसंग की घटनाएं बढ़ रही हैं। इसी से छेड़छाड़ की घटनाएं भी होती हैं। इस फरमान को सख्ती से लागू करने के लिए सभी हेडमास्टरों को भी प्रस्ताव भेज दिया गया। इतना ही नहीं बल्कि मोबाइल पकड़े जाने पर स्कूल से निकालने के साथ ही विद्यालय में मिलने वाली सभी तरह की सरकारी लाभ से वंचित कर दिए जाने की बात कह दी गई। इस तरह खुलेआम अधिकारों की धज्जियां उड़ाई जा रही हैं। और इसका बहाना दिल्ली जैसी घटना और बढ़ रही बालात्कार की घटनाओं को दिया जा रहा है। इधर पटना में 5 जनवरी को खबर आई है कि इस्लामी फाउंडेशन की ओर से एक व्यक्ति ओर से पूछने पर फतवा जारी किया पुरुष लिबास जैसे जींस वगैरह महिलाओं के लिए हराम है। यह इनकी आबरु और जमाने की बदनीयती से हिफाजत का रास्ता है। अगर लड़कियां इन्हें पहनेंगी और बेहयाई पर उतरेंगी तो उनपर जुल्म बढ़ेगा। इस पर अमल न करनेवालों पर सख्त सजाएं भी शरीयत में तय की गई हैं।(6)

ये फरमान लगातार जारी होते रहे। वहीं पुलिस प्रशासन इनसे अनभिज्ञता जताता रहा या इंकार करते रहे। वहीं मीडिया में खबर फैलने और हंगामा मचने पर पालीगंज में पंचायत वाले बाद में अपनी बात से मुकरने लगे। वहीं इन मामलों पर ना प्रशासन गंभीर है ना सरकार पर जूं रेंग रहा है।

उल्टे पुलिस और प्रशासनिक तबका भी इसी सामाजिक पुरुषवादी सोच के साथ काम करता नजर आ रहा है। दिल्ली की घटना के बाद दिसंबर में ही पुलिस ने राजधानी पटना के पार्कों में घूम-घूम कर प्रेमी युगलों को पकड़ती रही। इतना ही नहीं बल्कि उनके अभिभावकों को बुला धमकी और हिदायतें देती रही।

बहरहालपुलिस-प्रशासन की सामंती फरमानों पर निष्क्रियता और चुप्पी को तो समझा जा सकता है लेकिन महिला अधिकारों की बात करने वाले बिहार के संगठन भी इस मामले में बात या विरोध-प्रदर्शन करते नहीं दीख रहे। दिल्ली में आइसा-एपवा वगैरह जनवादी संगठन इन मुद्दों शुरु से ही सक्रिय हैं और इन जैसे महिला अधिकारों के हनन की बात कर ही रहे हैं। लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। लेकिन पटना में आइसा, एआईएसएफ, एपवा, माले जैसी जनवादी ताकतें इस ओर ध्यान देती नहीं दीख रही। उन्होंने जरुर यौन हिंसा और बालात्कार, हत्या जैसे मामलों पर प्रदर्शन किया है। लेकिन अब वे इन सामंती फरमान की ओर निष्क्रिय नजर आ रही हैं। इस मामले में दिल्ली में कविता कृष्णन का भाषण याद रखने योग्य है जिसमें वे कहती हैं कि यह केवल महिलाओं के साथ हो रही हिंसा का मामला नहीं बल्कि महिला अधिकारों की लड़ाई है। महिलाओं को अपने अनुसार रहने, पहनने, घूमने और जिंदगी जीने, चुनने की आजादी की लड़ाई है। वे कब कहां निकलें, किसके साथ निकले क्या पहने ये सब तय करने वाली वे खुद हों। दिल्ली में इसी बुनियाद को लेकर ही वाम संगठन लड़ाई लड़ रहे हैं और यह लगातार जारी है। इसकी बनिस्बत पटना में यह लड़ाई कहीं नहीं दीख रही। जबकि बिहार में सामंती फरमान रुकने का नाम नहीं ले रहे हैं।

ऐसेफरमान तो हरियाणा की खाप पंचायतों के हमेशा सुनाई देते ही हैं। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश सहित सभी राज्यों में ऐसी ही हाल रहता है। यूपी के बिजनौर में जहां दिल्ली की घटना के पहले 10 दिसंबर को डीएम ने अखिलेश यादव के कार्यक्रम के बाबत लड़कियों के लिए जींस-टॉप और मोबाइल पर प्रतिबंध लगा दिया था। वहीं जुलाई में बागपत में 40 साल से कम उम्र की महिलाओं के बाजार जाने पर प्रतिबंध लगा दिया गया था।

वहींइस तरह की सामंती प्रवृति के लिए महिलाएं भी हथियार बन रही हैं। पंचायतों में फरमान सुनाने वालों में महिला मुखिया से लेकर महिला विधायक भी शामिल रही। यह सालों से महिलाओं में बोई जा रही पुरुषवादी सोच का ही फल है। पुरुषवादी समाज और धर्म ने जो मर्यादाएं गढ़ी हैं वह ही है। यह यों ही नहीं है कि मध्यप्रदेश में पढ़ी-लिखी महिला कृषि वैज्ञानिक अनीता शुक्ला दिल्ली की पीड़ित लड़की को ही उल्टे दोषी ठहराने लगती है और कहती है कि छह लोगों से घिरने के बाद लड़की ने समर्पण क्यों नहीं कर दिया?कह बैठी कि महिलाएं ही पुरुषों को उकसाती हैं और रात में ब्वॉयफ्रेंड के साथ निकलेंगी तो यहीं होगा ना?संसद में बैठी सुषमा स्वराज कह देती हैं कि ऐसी लड़कियां जिंदा रहकर जिंदा लाश बन जाती हैं।

इसतरह की प्रवृति के वाहकों में सामंती और सांप्रदायिक शक्तियां ही काम कर रही हैं। इस प्रवृति के निषेध के बगैर महिला अधिकारों और उनकी सुरक्षा की बात करना बेमानी है। पुरुषवादी धार्मिक और सामाजिक संस्थाओं से लेकर सामंतवादी संगठनों को विरोध जरुरी है। संघ और बीजेपी जैसे संगठन इसके पोषक रहे हैं। लगातार इनके नेताओं के सामंती और सांप्रदायिक रवैया दिखता रहा है। संघप्रमुख ने यों ही नहीं नैतिकता और पाश्चात्य संस्कृति की बात कर रहे हैं और कह रहे हैं कि गाय पालने से नैतिकता बढ़ेगी और बालात्कार रुकेंगे। वह यों ही नहीं भारतयानि की गांव-कस्बों को बेदाग बचा रहे हैं। दरसल महिलाओं के शोषण में गांव और कस्बों का समाज ही सबसे अधिक आगे है। उनका सामंतवाद इन्हीं जगहों पर शर्मनाक तरीके से शुरु से मौजूद है। मध्यप्रदेश में कैबिनेट मंत्री भाजपा के कैलाश विजयवर्गीय यों ही नहीं रामायाण का हवाला देकर मर्यादा का पाठ पढ़ा रहे हैं। शर्मनाक तरीके से कह रहे हैं कि महिलाएं मर्यादा लांघेगी तो हरण ही होगा। दरसल ये सामंतवादी लोग और संगठन ही महिलाओं के शोषण के पोषक हैं।

इसलिएमहिलाओं के खिलाफ केवल यौन हिंसा और बालात्कार, हत्या का मामला नहीं बल्कि उनकी पूरी आजादी का मामला है। ये तभी संभव है जब इस तरह की सामाजिक संस्थाओं, धार्मिक मान्यताओं और संगठनों का विरोध पुरजोर तरीके से हो। लड़ाई बहुत लंबी है लेकिन इन प्रवृति के निषेध के बगैर महिलाओं की आजादी संभव ही नहीं। केवल कानूनों की बाट जोह रहे लोग निराश ही होंगे।

ऐसे में दिल्ली में महिलाओं की पूरी आजादी की लड़ाई लड़ रहे जनवादी ताकतों को दिल्ली के बाहर भी नजर दौड़ानी चाहिए। अपने स्थानीय ताकत को भी प्रेरित करना चाहिए। वरना जो लोग केवल दिल्ली की भीड़ देख खुश हो ले रहे हैं वे भ्रम में जी रहे हैं। दिल्ली की लड़ाई जरुर महत्वपूर्ण है लेकिन महिला अधिकारों के हनन और शोषण के गढ़ बिहार, हरियाणा, यूपी, एमपी सहित तमाम अन्य राज्यों के शहर, कस्बे और गांव ही हैं। ये जगहें ही सामंतवादी और पुरुषवादी लिजलिजे प्रवृति को सालों से ढोते आ रहे हैं और ऊर्जा दे रहे हैं। इधर नजर दौड़ाए बगैर लड़ाई कुछ नहीं ।

सरोज युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी पटना में एक दैनिक अखबार में काम . 
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 


 लेख में उल्लेखित प्रकाशित खबरों के लिए संदर्भ सूची 
(सभी पटना नगर संस्करण)-
  1. हिन्दुस्तान दैनिक, 1 जनवरी, पेज-13   
  2. हिन्दुस्तान दैनिक, 3 जनवरी, पेज-1 
  3. हिन्दुस्तान दैनिक, 4 जनवरी, पेज-13 
  4. दैनिक जागरण, 4 जनवरी, पेज-1   
  5. हिन्दुस्तान दैनिक, 5 जनवरी, पेज- 15
  6. दैनिक जागरण, 5 जनवरी, पेज-1

सामंती-ब्राह्मणवादी भारत के बैकलैश के प्रतिनिधि हैं मोहन भागवत

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Anand Pradhan

-आनंद प्रधान   

"...आश्चर्य नहीं कि मोहन भागवत के सामंती-मध्ययुगीन ‘भारत’ में गांवों में सबसे अधिक बलात्कार होते हैं जिनमें सामंती-ब्राह्मणवादी दबदबे और वर्चस्व को बनाए रखने और उसे साबित करने के लिए दलित-पिछड़े समुदाय की महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. यही नहीं, पिछले कुछ दशकों में सामंती-ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना को दलित-पिछड़े समुदायों की ओर से चुनौती देने पर सबक सिखाने और बदले की कार्रवाई में दलितों-पिछडों के नरसंहार, आगजनी से लेकर स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार जैसी बर्बर घटनाओं की लंबी श्रृंखला है...'


लात्कारियों के छुपे हमदर्द अब बाहर निकलने लगे हैं. वैसे तो उनके हमदर्द हर जगह मिल जाएंगे लेकिन भारतीय संस्कृति और नैतिकता के स्वयंभू ठेकेदार भगवा ध्वजाधारियों से बड़ा और संगठित हमदर्द उनका और कोई नहीं है. यह तथ्य एक बार फिर साबित हो रहा है. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आर.एस.एस) के सर संघचालक मोहन राव भागवत के उस बयान को इसी सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए जिसमें उन्होंने दावा किया है कि बलात्कार भारत में नहीं, ‘इंडिया’ में होते हैं. उन्होंने यह भी कहा बताते हैं कि बलात्कार गांवों और जंगलों में नहीं होते हैं.


भागवतने अपने भाषण में किसी भ्रम की गुंजाइश को खत्म करने के लिए यह स्पष्ट किया कि शहरों में लोग पश्चिमी संस्कृति का अनुकरण कर रहे हैं जिसके कारण महिलाओं के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं. जाहिर है कि भागवत दिल्ली गैंग रेप की ओर इशारा कर रहे थे क्योंकि उनकी निगाह में पश्चिमी संस्कृति में डूबी राजधानी दिल्ली और उसमें रात के नौ बजे अपने दोस्त के साथ सिनेमा देखकर लौट रही वह बहादुर लड़की पश्चिमी संस्कृति से प्रेरित ‘इंडिया’ के प्रतिनिधि हैं.

अगरअब भी कोई शक की गुंजाइश रह गई तो उसे भगवा ब्रिगेड के एक और संस्कृति-रक्षक और मध्यप्रदेश के उद्योगमंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने यह कहकर पूरा कर दिया कि महिलाओं को ‘लक्ष्मण रेखा’ नहीं लांघना चाहिए क्योंकि सीता की तरह लक्ष्मण रेखा लांघने पर सीताहरण भी होता है. विजयवर्गीय के मुताबिक, महिलाओं के लिए ‘लक्ष्मण रेखा’ भारतीय संस्कृति है. भागवत के बचाव में उतरे भाजपा प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद ने लीपापोती करते हुए तर्क दिया कि संघ प्रमुख भारतीय संस्कारों, परंपरा और मूल्यों का उल्लेख कर रहे थे जिसमें महिलाओं के सम्मान को सबसे उपर स्थान दिया जाता है.

सवाल यह है कि क्या यह दिल्ली गैंग रेप जैसी बर्बर और शर्मनाक घटना को परोक्ष रूप से स्वाभाविक ठहराने और बलात्कार के लिए उस बहादुर लड़की को ही दोषी बताने की कोशिश नहीं है? असल में, यह भारतीय संस्कृति की आड़ में ‘बलात्कार की संस्कृति’ का बचाव है. ‘बलात्कार की संस्कृति’ उसे कहते हैं जिसमें बलात्कार का संस्कृति, परंपरा, संस्कार से भटकाव लेकर कपड़े, चालचलन आदि बहानों से बचाव किया जाता है और बलात्कार के लिए पीड़िता को ही दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है.

कहने की जरूरत नहीं है कि सामंती पुरुष-सत्तात्मक भारतीय समाज में ‘बलात्कार की संस्कृति’ आम है और उसकी आड़ में बलात्कार को इस या उस बहाने उचित ठहराने वालों की कमी नहीं है. आमतौर पर बलात्कार की किसी भी घटना के बाद सबसे पहले महिला के चाल-चलन, कपड़ों, आधुनिकता पर सवाल उठाये जाते हैं और उसे ही दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है. गोया उसने ही बलात्कार का न्यौता दिया हो. यही नहीं, ‘बलात्कार की संस्कृति’ का इस कदर बोलबाला है कि बलात्कार के मामलों को दबाने या छुपाने की कोशिश की जाती है क्योंकि उसके सामने आने से महिला और उससे अधिक उसके परिवार की ‘इज्जत’ जाने का खतरा है.

इसी से जुड़ा ‘बलात्कार की संस्कृति’ का दूसरा पहलू यह है कि बलात्कार को पुरुषसत्ता एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती है. पुरुष वर्चस्व को बनाए रखने के लिए बलात्कार के बर्बर हथियार का सहारा लिया जाता है और उसके जरिये न सिर्फ स्त्री यौनिकता को नियंत्रित किया जाता है बल्कि सामंती दबदबे को बनाए रखने की कोशिश की जाती है. स्त्री यौनिकता पर नियंत्रण के जरिये ही स्त्री और सामंती-ब्राह्मणवादी समाज में अवर्णों यानी दलितों-पिछडों-आदिवासियों-अल्पसंख्यकों की अधीनता सुनिश्चित होती है.

आश्चर्यनहीं कि मोहन भागवत के सामंती-मध्ययुगीन ‘भारत’ में गांवों में सबसे अधिक बलात्कार होते हैं जिनमें सामंती-ब्राह्मणवादी दबदबे और वर्चस्व को बनाए रखने और उसे साबित करने के लिए दलित-पिछड़े समुदाय की महिलाओं को निशाना बनाया जाता है. यही नहीं, पिछले कुछ दशकों में सामंती-ब्राह्मणवादी सत्ता संरचना को दलित-पिछड़े समुदायों की ओर से चुनौती देने पर सबक सिखाने और बदले की कार्रवाई में दलितों-पिछडों के नरसंहार, आगजनी से लेकर स्त्रियों के साथ सामूहिक बलात्कार जैसी बर्बर घटनाओं की लंबी श्रृंखला है.

लेकिनसामंती-ब्राह्मणवादी ‘भारतीय संस्कृति’ के रक्षक भगवा ब्रिगेड ने न सिर्फ इसका कभी विरोध नहीं किया बल्कि कई मौकों पर वे सामंती गुंडा गिरोहों की अगुवाई करते दिखाई दिए हैं. उनके लिए यह कभी भारतीय संस्कृति, परंपरा या संस्कार या फिर स्त्री का अपमान नहीं लगा. यही नहीं, भगवा ध्वजधारियों ने खुद भी बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. इसका प्रमाण भगवा ब्रिगेड के आदर्श राज्य गुजरात में २००२ के राज्य प्रायोजित नरसंहार में देखने को मिला था जब मुस्लिम समुदाय को सबक सिखाने के लिए कई जगहों पर महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार की घटनाएँ हुई थीं. यह भी किसी से छुपा नहीं है कि उन बलात्कारियों की अगुवाई विहिप-बजरंग दल के गुंडों ने की थी.

साफ़ है कि भगवा ब्रिगेड को न सिर्फ बलात्कार से कोई आपत्ति या परहेज नहीं है बल्कि सबक सिखाने के लिए अपने ‘आदर्श भारत’ में वह इसका इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकिचाता है. लेकिन मामला सिर्फ ‘विधर्मियों’ यानी हिंदू राष्ट्र के दुश्मनों को सबक सिखाने तक सीमित नहीं है. भगवा ब्रिगेड उन सभी स्त्रियों के खिलाफ भी है जो घर की चाहरदीवारी से बाहर शिक्षा और कामकाज के लिए निकल रही हैं या सामंती बंधनों को तोड़कर आज़ादी और बराबरी की मांग कर रही हैं. याद रहे, भगवा ब्रिगेड के ए.बी.वी.पी-बजरंग दल-विहिप-श्रीराम सेने जैसे संगठनों ने पिछले कई वर्षों से ‘भारतीय संस्कृति’ की रक्षा के नामपर स्त्रियों के जींस पहनने, पब जाने, वैलेंटाइन डे मनाने से लेकर विधर्मियों-विजातियों से प्रेम करने के खिलाफ हिंसक मुहिम छेड रखी है.     

खुदसंघ प्रमुख मोहन भागवत सिलचर के बाद अब इंदौर में कहा है कि स्त्री-पुरुष के बीच एक सामाजिक सौदा (कांट्रेक्ट) है कि स्त्री घर-बच्चों को संभालेगी और पुरुष कमाकर उनका भरण-पोषण करेगा. अगर स्त्री इस कांट्रेक्ट को तोडती है, पुरुष उसे छोड़ सकता है. इसी तरह अगर पुरुष इस कांट्रेक्ट को पूरा नहीं कर पाता है तो स्त्री उसे छोड़ सकती है और नए कांट्रेक्ट के लिए जा सकती है. भागवत की हाँ में हाँ मिलाते हुए विश्व हिंदू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने भी पश्चिमी संस्कृति को कोसा है जिसके कारण भारतीय संस्कृति की पवित्रता दूषित हो रही है.

इनताजा बयानों से साफ़ है कि भगवा ब्रिगेड दिल्ली गैंग रेप की बर्बर घटना के बाद दिल्ली और देश भर में भड़के आंदोलन में महिलाओं की आज़ादी और बराबरी की मांग से कितना घबराया और बौखलाया हुआ है. जाहिर है कि उसे इस मांग में न सिर्फ आदर्श भारतीय संस्कृति के लिए गंभीर खतरा दिखाई दे रहा है बल्कि उसके हिंदू राष्ट्र के प्रोजेक्ट की बुनियाद भी लडखडाने लगी है. लेकिन बात सिर्फ इतनी नहीं है. भगवा ब्रिगेड के ये बयान उस सामंती-ब्राह्मणवादी ‘भारत’ की बेचैनी और बैकलैश की अभिव्यक्ति भी हैं जो दिल्ली से लेकर देश के तमाम शहरों में महिलाओं के साथ बड़ी संख्या में छात्र-युवाओं और आम लोगों के सड़कों पर उतरकर आज़ादी और बराबरी की मांग की प्रतिक्रिया में पैदा हुई हैं.

कहनेकी जरूरत नहीं है कि मोहन भागवतों, विजयवर्गियों, सिंघलों से लेकर अभिजीत मुखर्जियों तक के बयानों में वही सामंती-ब्राह्मणवादी भारत पलटवार कर रहा है जिसने स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार को एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. लेकिन संघ प्रमुख के बयानों के बाद भगवा ब्रिगेड इस सामंती-ब्राह्मणवादी भारत के मुख्य प्रवक्ता के रूप में उभरा है. इस मायने में उसमें और तालिबान से लेकर खाप पंचायतों और देवबंदी मुल्लाओं में कोई बुनियादी फर्क नहीं है.

उनसबकी राय में अद्दभुत समानता है कि स्त्री की जगह सिर्फ घर के अंदर और घरेलू कामों तक सीमित है. यही उनकी आदर्श भारतीय संस्कृति की लक्ष्मण रेखा है जिसके अंदर स्त्रियों को सबसे ज्यादा शारीरिक और यौन हिंसा का सामना करना पड़ता है और जिसे आज गांवों-कस्बों और शहरों में करोड़ों स्त्रियां लांघ रही हैं, तोड़ रही हैं और चुनौती दे रही हैं. वे घर की चाहरदीवारी के भीतर के अंधेरों-घुटन और यौन हिंसा से बाहर आज़ादी की हवा में सांस लेना चाहती हैं और ले रही हैं. वे इस आज़ादी को गंवाने के लिए तैयार नहीं हैं. उन्होंने सड़कों पर उतरकर बलात्कारियों और उनके खुले-छुपे समर्थकों को खुली चुनौती दी है.

लेकिनभागवत और उनकी भगवा ब्रिगेड और खाप जैसे उनके संगी-साथी आसानी से हार माननेवाले नहीं हैं. वे दिल्ली से लेकर देश भर में बलात्कार और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के खिलाफ उतरे लाखों युवाओं खासकर महिलाओं को वापस घर की चाहरदीवारी में बंद करने की हरसंभव कोशिश करेंगे. आश्चर्य नहीं होगा अगर वैलेंटाइन डे आते-आते भगवा ब्रिगेड के बजरंगी-श्रीराम सेने पश्चिमी संस्कृति का प्रतिकार करने के नामपर युवा लड़के-लड़कियों पर हमले करते और उन्हें अपमानित करते नजर आएं.

लेकिनक्या वे इतिहास के पहिये को आगे बढ़ने से रोक पाएंगे? दिल्ली से लेकर देश भर में बलात्कार की संस्कृति के खिलाफ उठी आवाजों का सन्देश साफ है- भागवत जैसों के लिए घर में बैठने का समय आ गया है.
                      
आनंद प्रधानवरिष्ठ स्तंभकार हैं. 
मीडिया अध्यापन से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता apradhan28@gmail.com है.

डायरक्ट कैश ट्रांसफर यूपीए का चुनावी गेम चेंजर है जयराम!

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दैनिक अखबार राष्ट्रीय सहारा के साप्ताहिक सप्लीमेंट 'हस्तक्षेप' में केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश का आलेख छपा जिसमें वे भारत सरकार के पायलट प्रोजेक्ट डायरेक्ट कैश ट्रांसफर को गेम चेंजर और बदलाव का प्रतिमान साबित कर रहे हैं। इस आलेख में उन्होंने जिन महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखाकिंत किया है प्रैक्सिस में हम उनकी थोथी दलीलों को खारिज करते हुए युवा पत्रकार अखिलेश का उन्हें खुला पत्र प्रकाशित कर रहे हैं.....    -मॉडरेटर
Akhilesh Kumar
अखिलेश कुमार


सेवा में, 

   केन्द्रीय ग्रामीण विकास मंत्री, भारत सरकार
   कृषि भवन, डां राजेन्द्र प्रसाद रोड, नई दिल्ली.110001

महोदय,
   
22 दिसंबरको आपका आलेख पढ़ा। इस आलेख में आप ने डायरेक्ट कैश ट्रांसफर को क्रांतिकारी और बदलाव का प्रतिमान बताया है। इससे एक बार फिर साबित हो चुका है कि सरकार भूखी गरीब जनता को चॉकलेट के सपने देकर वास्तविक समस्याओं से दूर ले जाना चाहती है। सरकार इस योजना को गेम चैंजर बता रही है। दरअसल, ‘गेम चेंजर’ योजना तो खाद्य सुरक्षा कानून हो सकती थी जिसे यू.पी.ए सरकार ने 2008 के आम चुनावों में वायदे के बावजूद ठंडे बस्ते में डाल दिया है और उसे भुलाने के लिए इसे गैम चैंजर कह रही है।

इसपूरे कार्यक्रम का मुख्य मकसद समाज कल्याण कार्यक्रमों में कटौती करना है। कहना नहीं होगा कि सरकार 2014 लोकसभा चुनाव को देखते हुए 20-20 मैच खेलने वाली है। आपने जिन प्रमुख बिंदुओं की तरफ इशारा किया है वह हमारी बुनियादी व्यवस्था से काफी दूर है। आपने राज्य कल्याणकारी योजनाओं का लाभ मौजूदा तरीकों के बजाय सक्षम तरीके से सही व्यक्ति तक पहुँचाने की बातें कर रहे हैं। आप भली भांति जानते हैं कि अभी गरीबी रेखा को परिभाषित करने में सरकार असफल रही है। यहाँ तक कि राज्य और केन्द्र के बीच गरीबी रेखा को लेकर अभी भी मतभेद बने हुए है राजस्थान में आपके इस पायलट प्रोजेक्ट के क्रियान्यवन में जमीनी स्तर कितनी समस्याए उभर कर सामने आ रही है। आप ये भी जानते हैं कि पिछले साल योजना आयोग ने गरीबी रेखा को परिभाषित किया वह न केवल शर्मनाक है बल्कि पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था पर जोरदार तमाचा है। इससे साबित होता है कि संवैधानिक रुप से लोक कल्याणकारी राज्य होने की  हमारी व्यवस्था महज एक छलावा है।

बहरहालआप इस लॉलीपॉप योजना को बहुयामी बताकर इसे आधार से जोड़ने की वकालत कर रहे हैं. बायोमेट्रिक प्रणाली से जुड़े 'आधार' की सच्चाई दुनिया के सामने पहले ही आ चुकी है। उल्लेखनीय है कि 12 अंको वाला इस आधार कार्ड को संसद के आर्थिक मामलों की स्थाई समिति पहले ही गैर कानूनी और गैर लोकतांत्रिक बता चुकी है। इतना ही नहीं युपीए सरकार ने इस फर्जी प्रोजेक्ट का प्रस्ताव 2010 में राज्यसभा में प्रस्तुत किया था। यहाँ तक की यूआईडी के आर्थिक गतिविधि के लिए कमिटी का भी गठन नहीं किया गया। असल में इस लूटतंत्र की पारदर्शिता जगजाहिर हो चुकी है। नंदन नीलकेणी को बिना गोपनीयता के शपथ लिए कैबिनेट स्तर का मंत्री बना दिया गया।

दरअसलआप जिस आधर कार्ड के जरिए डायरेक्ट कैश ट्रांसफर को क्रांतिकारी लोक कल्याणकारी कार्यक्रम का राग अलाप रहे हैं इसके पीछे की सच्चाई कुछ और है। मान भी लें कि आधार कार्ड बन भी जाता है तो इसकी क्या गारंटी हैं कि इस योजना का फायदा सही आदमी तक पहुँच सकता है। इस कारण आधार कार्ड कोई जादू या छू-मंतर नहीं बनने जा रहा है जिससे गरीबों की सही-सही पहचान हो. 

बहरहाल 1 जनवरी 2013 से आधार कार्ड जरिए जिन 51 जिलों को डायरेक्ट कैश ट्रांसफर का लाभ देने की योजना थी उनमें सिर्फ 35 जिलों में 50 फीसदी लोगों का आधार कार्ड बन पाया। बाकि 10 जिला में 25 फीसदी और 8 जिला में 50 फीसदी से भी कम लोगों के पास आधार कार्ड है. इन 51 जिलों के जिलाधिकारी पूरी तैयारी में नहीं थे। इस कारण महज 20 जिलों से शुरुआत करना पड़ा। इसमें कोई राय नहीं हैं कि सरकार के इस योजना का मुख्य मकसद राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सीडी के बोझ को कम करना, कल्याणकारी योजनाओं से धीरे-धीरे हाथ खींचना और उन्हें दमनकारी नवउदारवादी नीतियों के सामने घुटने टेकने के लिए मजबूर करना  है। हाल ही में यूपीए सरकार ने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने के लिए खाका तैयार किया है। इसमें सरकार अपना लक्ष्य निर्धारित करते हुए कहा है कि चालू वित्त वर्ष के अंत तक राजकोषीय घाटे को जीडीपी के 3 फीसदी तक कर दिया जाएगा। अब कहना नहीं होगा कि सरकार सब्सीडी को पूरी तरह समाप्त करना चाहती है।

सवाल है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह लगभग सभी बैठको में विकास दर और जीडीपी की रट लगाते है।जाहिर इस साल के अंत तक प्रधानमंत्री अपने किसी भी लक्ष्य को पाने में असफल साबित हो चुके हैं। केवल  विकास दर और जीडीपी के गुणा भाग करने से असहाय और व्यवस्था से त्रस्त गरीब लोगों पर कोई असर नहीं पड़ता है।  खासकर उत्तर भारतीय किसान परिवार के प्रमुखता की बात कर रहा हूँ। दरअसल विजय केलकर के नेतृत्व 13 वें वित्त आयोग ने राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए खासकर पेट्रोलियम उर्वरक और खादय पदार्थों पर सब्सीडी में कटौती करने सुझाव दिया था। महंगाई में बढ़त्तोरी का प्रमुख कारणों में एक ये भी है कि समिति ने डीजल कीरोसीन, रसोई गैस, उर्वरक और राशन से मिलने वाले गेँहू-चावल की कीमतो में बढ़ोतरी की सिफारिश की. अब मामला पूरी तरह साफ है कि सरकार सब्सीडी के बोझ से किनारा कर कैश ट्रांसफर योजना को ला रही है और इसे गेम चेंजर भी कह रही है। महोदय आपको ख्यालात के लिए मैं बता दूं कि खाद्य सुरक्षा विधेयक के शुरुआती दौर में इसे भी गेम चेंजर कहा जा रहा था लेकिन सी. रंगराजन के नेतृत्व में बनी आर्थिक मामलों की समिति ने इस पर फिर विचार करने के लिए कैबिनेट के पास भेजा था। गौरतलब है कि सरकार एक तरफ विजयकेलकर समिति के इशारे पर राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए सब्सीडी को पूरी तरह समाप्त करने की योजना बना रही है वहीं दूसरी तरफ राईट टू फूड के अंतर्गत 75 फीसदी लोगों को लाना भी चाहती है यह बिल अभी भी संसद में लंबित है। इससे सरकार पर पहले से भी ज्यादा सब्सीडी का अतिरिक्त बोझ बढ़ता दिख रहा है। इस प्रकार सरकार अपने ही जाल में बूरी तरह फँस चुकी है। आनन-फानन में सरकार ने डायरेक्ट कैश ट्रांसफर को लाने की घोषना कर दी ।सवाल ये भी है कि क्या इस वोट चेंजर पालीसी से आम लोगों का भला हो पाएगा? बड़ा सवाल ये भी है कि पैसा मिलने के बाद भी वे इन पैसों का पारिवारिक खर्च पूरा कर सकेंगे क्योंकि खासकर ग्रामीण समाज पितृसातात्मक हैं और अशिक्षित भी है। शराब-दारु पीना आम बात है लेकिन मुद्दा ये भी है कि उनके असहाय बच्चे ठीक से खाना भी खा पाएंगे? स्कूल तो दूर की बात है। बहरहाल शुरुआत में 51 जिलों तक का लक्ष्य था किंतु बाद में 43 फिर 20 जिलों पर आकर सिमट गयी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि हमारी बूनियादी ढ़ाचा ही इस व्यवस्था से अभाव ग्रस्त है असल में ये गेम चेंजर नहीं वोट चेंजर पोलिसी है।

बहरहालवोट चेंजर इस कार्यक्रम का ज्वलंत उदाहरण दिल्ली की लाडली मुख्यमंत्री शीला दीक्षीत के अन्नश्री योजना को कहा जा सकता है जिसके तहत दिल्ली के 2 लाख परिवारों को हर महीने 600 रु. नगद उनके बैंक खाते में पहुंचाने की बात की गयी है। भला दिल्ली जैसे मैट्रोपालिटन शहर में 600 रु0 में ठीक से पानी भी खरीद कर पी सकेंगेए परिवार चलाना तो दूर की बात है क्योंकि दक्षिण दिल्ली में पानी का भी नीजीकरण हो चुका है।

जाहिरहै कि  भ्रष्टाचार और घोटालों की दल.दल में डुबी सरकार लोगों के आक्रोश के सामने घबरा गई है। आसमान छूति मंहगाई से लोगों में अविश्वास को माहौल है। इन सभी मुद्दों से भटकाने के लिए कैश ट्रांसफर को गैम चैंजर कह रही है। सरकार बार.बार दावा कर रही है कि इससे फर्जीवाड़े पर रोक लगेगी और लोगों को बैंक से सीधे उनके हाथों में पैसा मिलेगा. आप ईमानदारी पूर्वक बताए कि पूरे देश में कितने लोगों के पास बैंक एकांउट है। सबसे बड़ा सवाल ये भी है कि आप जिनके लिए योजना बना रहे हैंए क्या उनके पास बैंक एकाउंटस है। आकड़े कहते हैं कि महज 35 फीसदी लोगों के पास बैंक में अपना खाता है। बहरहाल पीडीएस को भी इसके अंतर्गत करने की मुहावरे को दोहराया जा रहा है हलांकि वित्त मंत्री पी०चिदंबरम ने 1 जनवरी को इससे अलग रखने की वकालत की हैं लेकिन सरकार की नियति पर भरोशा नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार केवल चुनावी लालीपाप की घोषना करती है।.

महोदय, उपर्युक्त सभी ज्वलंत समस्याओं को ध्यान मे रखते हुए इसे पूरे प्रोजेक्ट को फिर से विचार करने के लिए कैबिनेट के पास भेजा जाए। बूनियादी व्यवस्था को दुरुस्त किए बिना किसी भी योजना को सही मंजिल तक नहीं पहुंचाया जा सकता है। यह तो तय है यह तिकडम पीड़ित जनता का कोई गेम नहीं चेंज नहीं करने जा रही। दरअसल यह अगले चुनावों में हारती/संकट दिखती कॉंग्रेस/यूपीए का गेम चेंजर ज़रूर हो सकता है। बस इस बात को ऐसे ही स्वीकार लेने की इमानदारी की उम्मींद आपसे ज़रूर है। 

आदर सहित
-अखिलेश कुमार
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अखिलेशयुवा पत्रकार हैं.स्वतंत्र रूप से लिखते हैं.
 इनसे संपर्क का पता है - akhileshiimc@gmail.com 

मेरे कौमार्य से कीमती मेरा जीवन है : सोहेला अब्दुलाली

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-पुष्यमित्र

(इस आलेख के दो हिस्से हैं. लेखक ने पहले हिस्से में कन्फ्यूशियस के एक तीखे बयान के बहाने बलात्कार के प्रति समाज की पित्रसत्तात्मक मनःस्थिति को कठघरे में खड़ा किया है और दूसरे हिस्से में उन्होंने मुंबई में बलात्कृत हुई महिला सोहेला अबुदाली के आलेख का अनुवाद शामिल किया है जिनका सपष्ट मानना है कि "...हालांकि तीन साल पहले भी जब मेरे साथ यह हुआ था, मैं रेप, रेप के अभियुक्तों और पीड़ितों को लेकर लोगों में फैली गलत धारणाओं के बारे में समझती थी. मुझे उस ग्रंथि का भी पता था जो पीड़ित के मन के साथ जुड़ जाती हैं. लोग बार-बार यह संकेत देते हैं कि अमूल्य कौमार्य को खोने से कहीं बेहतर मौत है. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. मेरा जीवन मेरे लिए सबसे कीमती है...." यह आलेख दिल्ली गैंग रेप केस के बाद बलात्कार और उसके इर्द-गिर्द उठ खड़ी हुई बहसों को एक सटीक दिशा देता है. पढ़ें... 
पुष्यमित्र
-मॉडरेटर)

प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस बलात्कार के बारे में कहा है कि अगर कोई स्त्री बलात्कारियों के चंगुल में फंस जाये तो पहले तो उसे उन बलात्कारियों का विरोध करना चाहिये. पर जब लगे कि विरोध करने से भी उनके इरादे बदले नहीं जा सकते, तो फिर स्त्री को बलात्कार का मजा लेना चाहिये. निश्चित तौर पर यह एक बहुत क्रूर सलाह है. क्योंकि मजा तो स्त्रियां अपने पति की जबरदस्ती का भी नहीं ले पातीं. हालांकि वे अनिच्छा से बरसों इसे झेलती रहती हैं. अधिकांश मामलों में मना भी नहीं करतीं और पति समझ भी नहीं पाता कि इतने सालों तक उसने अपनी पत्नी के साथ जो किया वह प्रेम नहीं बल्कि शारिरिक अत्याचार था. खैर, वह अलग संदर्भ है, यहां संदर्भ दूसरा है. अत्यधिक क्रूर होने के बावजूद मेरे मन में कंफ्यूशियस की यह उक्ति सालों से चक्कर खा रही है. हाल की घटनाओं के बाद छिड़ी बहस में कई दफा मैंने चाहा कि इन पंक्तियों को अपने मित्र समुदाय के बीच सोशल मीडिया में साझा करूं मगर हर बार कुछ सोच कर अपना इरादा बदल देता. पर दो दिन पहले एक बलात्कार पीड़ित युवती का आलेख पढ़ने को मिला. सोहेला अब्दुलाली, उनके साथ 1983 में गैंगरेप हुआ था. बाद में मानुषी नामक पत्रिका में उन्होंने एक आलेख लिखा जिसमें उन्होंने गैंगरेप के अपने अनुभव और रेप से संबंधित दूसरी बातों के बारे में लिखा है. कई मित्रों की तरह मैं भी मानता हूं कि यह मस्ट रीड टाइप आलेख है. इसलिए मूलतः अंग्रेजी में लिखे गये इस आलेख का मैंने हिंदी में अनुवाद किया है.

मगरइस आलेख से पहले कुछ अपनी बात भी कहना चाहूंगा. खास तौर पर कंफ्यूशियस की उस उक्ति के संदर्भ में. कंफ्यूशियस को चीन में कमोबेस वही स्थान हासिल है जो अपने देश में चाणक्य और पश्चिमी देशों में मैकियावेली को. वे सीधी सपाट और बेलाग शब्दों में समाधान पेश करते हैं. अगर मुझे उनकी उस उक्ति पर कुछ कहना हो तो सिर्फ इतना कहूंगा कि मजा लेने के बदले अगर उन्होंने झेल लेना लिखा होता यह और भी सटीक होता. क्योंकि मेरे हिसाब से बलात्कार कतई एक क्षुद्र किस्म की क्षति से अधिक नहीं है. इतनी भी नहीं कि इसे आपकी कानी उंगली के कटने के बराबर माना जाये. हालांकि मैं यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं यह बात क्षति के संदर्भ में कह रहा हूं, न तो यंत्रणा के संबंध में और न ही अपराध के मसले पर नहीं.

किसीभी व्यक्ति की यौन स्वतंत्रता के अतिक्रमण को एक सर्वाधिक घृणित अपराध के रूप में देखा जाना चाहिये, और उसके लिए कड़ी से कड़ी सजा होनी ही चाहिये. मगर साथ ही इस क्षति के आकलन पर पुनर्विचार भी करने की जरूरत है. क्योंकि यह पुनर्विचार उसके लिए अपराध का सामना करते वक्त और उसके बाद के जीवन के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. अधिकांश पीड़ित महिलाएं विरोध करते वक्त बड़ा शारिरिक नुकसान झेलती हैं, जैसा कि इस केस में हमने देखा कि उस युवती को जान तक गंवानी पड़ी. कई पीड़ित बाद में जान दे देती हैं, क्योंकि उनकी और समाज की नजर में बलात्कार का अर्थ उनकी इज्जत का चला जाना है. और इसके बाद जीना निर्रथक होता है. मगर क्या सचमुच यह इतना निर्रथक है. इस दुनिया में स्टीफन हाकिंग्स जैसा शारिरिक तौर पर अक्षम व्यक्ति अपनी हर महत्वाकांक्षा की पूर्ति करते हुए जी सकता है, वहां एक दफा किसी यौन कुंठित अपराधी के हमले के बाद कोई भला ऐसा क्या हो जाता है कि कोई व्यक्ति जीने लायक नहीं बचता है.

इज्जत,यह जो शब्द है. बहुत पुराना और सर्वव्यापी शब्द है. हमारी दुनिया में बलात्कार ही एकमात्र ऐसा अपराध है जिसमें दोषी की इज्जत का तो पता नहीं, पीड़ित की इज्जत निश्चित तौर पर चली जाती है. देश में चल रहे महिला आंदोलनों ने कभी इस सवाल को बहुत गंभीरता से नहीं देखा, आज भी वे बलात्कार के बाद पीड़ित को हुई मानसिक क्षति को काफी बड़ा मानकर उसके लिए सजा की मात्रा बढ़ाने की मांग कर रही हैं. मगर वे कतई यह नहीं सोचतीं कि इस अपराध को सबसे पहले इज्जत के ठप्पे से मुक्त करने की जरूरत है. यह जो इज्जत इस अपराध के बाद जाती है, वह किसकी है? उस औरत की कतई नहीं जो शादी के बाद इस इज्जत को अपने पति को समर्पित कर देती है. यह इज्जत उस पुरुष की है, जिसे समाज पिता-भाई और पति के तौर पर स्त्री का स्वामी समझता है. इस समाज में औरतों का यौन संक्रमण उसकी इज्जत से जुड़ा है, जबकि पुरुषों का यौन संक्रमण हाल-हाल तक घर की औरतों द्वारा ही नजरअंदाज कर दिया जाता रहा है.

सबसेपहले तो इज्जत के इस दोहरे मानदंड को खत्म करने की जरूरत है. रेप एक हादसा है इससे अगर किसी की इज्जत जाने की संभावना होनी चाहिये तो उस रेपिस्ट की जो किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार करता है. ठीक उसी तरह जैसे एक चोर, एक पाकेटमार, एक घोटालेबाज की इज्जत चली जाती है. एक बार यह तथ्य स्थापित हो जाये तो फिर स्त्री जाति के लिए बलात्कार के हमले का सामना और उसके बाद का जीवन आसान हो जायेगा. फिर स्त्रियां यौन हमलों का सामना दृढ़ता से कर पायेंगी. 

अब आपके सामने पेश है सोहेला का यह आलेखः

“मैं अपनी जिंदगी के लिए लड़ी... और जीत हासिल की”-सोहेला अब्दुलाली


तीनसाल पहले मेरा गैंगरेप हुआ था, उस वक्त मैं 17 साल की थी. मेरा नाम और मेरी तसवीर इस आलेख के साथ प्रकाशित हुए हैं. 1983 में मानुशी पत्रिका में. मैं बंबई में पैदा हुई और आजकल यूएसए में पढ़ाई कर रही हूं. मैं बलात्कार पर शोधपत्र लिख रही हूं और दो हफ्ते पहले शोध करने घर आयी हूं. हालांकि तीन साल पहले भी जब मेरे साथ यह हुआ था, मैं रेप, रेप के अभियुक्तों और पीड़ितों को लेकर लोगों में फैली गलत धारणाओं के बारे में समझती थी. मुझे उस ग्रंथि का भी पता था जो पीड़ित के मन के साथ जुड़ जाती हैं. लोग बार-बार यह संकेत देते हैं कि अमूल्य कौमार्य को खोने से कहीं बेहतर मौत है. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. मेरा जीवन मेरे लिए सबसे कीमती है.

मैंनेमहसूस किया है कि कई महिलाएं इस ग्रंथि के कारण चुप्पी साध लेती हैं, मगर अपने मौन के कारण उन्हें अपार वेदना का सामना करना पड़ता है. पुरुष पीड़ितों को कई वजहों से दोषी ठोहराते हैं और हैरत की बात तो यह है कि कई दफा महिलाएं भी पीड़ितों को ही दोषी ठहराती हैं, संभवतः आंतरिक पितृसत्तात्मक मूल्यों के कारण, संभवतः खुद को ऐसी भीषण संभावनाओं से बचाये रखने के लिए.

यहघटना जुलाई की एक गर्म शाम की घटी. उस साल महिलाओं का समूह रेप के खिलाफ कानून में संशोधन की मांग कर रहा था. मैं अपने दोस्त राशिद के साथ थी. हम लोग घूमने निकले थे और बंबई की उपनगरी चेंबूर स्थित अपने घर से करीब डेढ़ मील दूर एक पहाड़ी के पीछे पहुंच गये थे और वहां बैठे थे. हम पर चार लोगों ने हमला किया, वे लोग दरांती से लैस थे. उन्होंने हमारे साथ मारपीट की, पहाड़ी पर चढ़ने के लिए मजबूर किया और वहां हमें दो घंटे तक बिठाये रखा. हमें शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया गया, और जैसे ही अंधेरा गहराया, हमें अलग कर दिया गया और अठ्ठाहस करते हुए उन्होंने राशिद को बंधक बनाकर मेरे साथ रेप किया. हममें से कोई प्रतिरोध करता तो दूसरे को वे चोट पहुंचाते. यह एक प्रभावी तरीका था.

वेतय नहीं कर पा रहे थे कि वे हमारी हत्या करें या नहीं. हमें अपने दम भर वह सब कुछ किया जिससे हम जिंदा बच जायें. मेरा जिंदा बचना था और वह हर चीज से अधिक महत्वपूर्ण था. मैं पहले उन लोगों का शारीरिक रूप से प्रतिरोध किया और जब मुझे गिरा दिया गया तो मैं शब्दों से प्रतिरोध करने लगी. गुस्से और चीखने-चिल्लाने का कोई असर नहीं हो रहा था, इसलिए मैंने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, मैं उन्हें प्रेम, करुणा और मानवता के लिए प्रेरित करने लगी, क्योंकि जिस तरह मैं इंसान थी, वे भी तो इंसान ही थे. इसके बाद उनका रवैया नर्म पड़ने लगा, खास तौर पर उनका जो उस वक्त मेरे साथ बलात्कार नहीं कर रहे थे. मैंने उनमें से एक से कहा कि अगर मुझे और राशिद को जिंदा छोड़ दिया गया तो मैं अगले दिन उनसे मिलने आउंगी. हालांकि इन शब्दों के बदले मुझे कहीं अधिक भुगतना पड़ा, मगर दो जिंदगियां दांव पर थीं. यही एकमात्र तरीका था कि मैं वहां से लौट पाती और अगली दफा खुद को रेप से बचा पाती.

जिसेबरसों की पीड़ा कहा जा सकता है उसे झेलने के बाद(मुझे लगता है मेरा 10 बार बलात्कार किया गया और कुछ देर बाद मैं यह समझना भूल गयी कि क्या हो रहा है), हमें जाने दिया गया. जाते वक्त उन लोगों ने हमें एक नैतिक उपदेश के साथ विदा किया कि मेरा एक लड़के के साथ इस तरह घूमना अनैतिक था. इस बात ने उन्हें सबसे अधिक नाराज किया था. उन्होंने ऐसा मेरे हित में ही किया था, वे मुझे एक पाठ पढ़ाना चाहते थे. यह बड़ी कट्टर किस्म की नैतिकता थी. उन्होंने हमें पहाड़ के नीचे छोड़ दिया और हम लड़खड़ाते हुए अंधेरी सड़क पर चलते रहते, एक-दूसरे पर टगते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए. वे कुछ देर तक हमारा पीछा करते रहे, दरांती हिलाते हुए, और वह संभवतः सबसे बुरा पहलू था कि भागना इतना आसान था मगर मौत हमारे उपर ठहल रही थी. अंततः हम घर पहुंचे, टूटे हुए, क्षत-विक्षत, चूर-चूर. यह बच कर आने का एक अतुलनीय अनुभव था, अपने जीवन के लिए मोलभाव करना, हर शब्द तोलकर बोलना क्योंकि हम उन्हें नाराज करने की कीमत जानते थे, दरांती का वार कभी भी हमारे जीवन को समाप्त कर सकती थी. हमारी हड्डियों और हमारी आंखों में राहत दौड़ रही थी और हम ऐतिहासिक विलाप के साथ ढेर हो गये.

मैंनेबलात्कारियों से वादा किया था कि मैं इस बात को किसी और से नहीं बताउंगी, मगर घर पहुंचते ही सबसे पहले मैंने अपने पिता से कहा कि वे पुलिस को बुलाएं. वे इस बात को सुनकर चिंतित हो गये. मैं परेशान थी कि किसी और को उस अनुभव से नहीं गुजरना पड़े जिससे मुझे गुजरना पड़ा था. पुलिस असंवेदनशील थी, घृणित भी और वह किसी तरह मुझे दोषी साबित करने पर तुली थी. जब मैंने कहा कि मेरे साथ क्या हुआ, तो मैंने सीधे-सीधे कह डाला और इस बात को उन्होंने मुद्दा बना लिया कि अपने साथ हुए इस हादसे को बताने में मैं शर्मा नहीं रही थी. जब उन्होंने कहा कि इस बात का प्रचार हो जायेगा तो मैंने कहा, कोई बात नहीं. मैं इमानदारी से कभी यह सोच नहीं सकी थी कि मुझे या राशिद को दोषी माना जायेगा. जब उन्होंने कहा कि मुझे मेरी सुरक्षा किशोर रिमांड होम भेजा जायेगा. मुझे बलात्कारियों और दलालों के बीच रहना होगा ताकि मुझ पर हमला करने वालों को न्याय के सामने लाया जा सके.

बहुतजल्द मैंने समझ लिया कि इस कानून व्यवस्था के तहत महिलाओं के लिए न्याय मुमकिन नहीं है. जब उन्होंने पूछा कि हम पहाड़ी के पीछे क्या कर रहे थे तो मैं क्रुद्ध हो गयी. जब उन्होंने राशिद से पूछा कि वह क्यों निष्क्रिय हो गया, तो मैं चीख पड़ी. क्या वे यह नहीं समझते थे कि राशिद का प्रतिरोध मेरे लिए और पीड़ा का कारण बन सकता था. वे ऐसे सवाल क्यों पूछते थे कि मैंने कैसे कपड़े पहने थे, राशिद के शरीर पर कोई चोट का निशान क्यों नहीं है (पेट पर लगातार हमले के कारण उसे इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी), मैं दुख और निराशा में डूबने लगी, और मेरे पिता ने उन्हें घर से बाहर भगा दिया यह कहते हुए कि वे उनके बारे में क्या सोचते हैं. यह वह सहायता थी जो मुझे पुलिस से मिली. पुलिस ने बयान दर्ज किया कि हम टहलने गये थे और लौटते वक्त देर हो गयी.

उसबात के तीन साल हो गये हैं, मगर ऐसा एक दिन भी नहीं बीता जब मुझे इस बात ने परेशान नहीं किया कि उस दिन मेरे साथ क्या हुआ. असुरक्षा, भय, गुस्सा, निस्सहायपन- मैं उन सब से लड़ती रही. कई दफा, जब मैं सड़क पर चलती थी और अपने पीछे कोई पदचाप सुनायी पड़ती तो मैं पसीने-पसीने होकर पीछे देखती और एक चीख मेरे होठों पर आकर ठहर जाती. मैं दोस्ताना स्पर्श से परेशान हो जाया करती, मैं कस कर बंधे स्कार्फ को बर्दास्त नहीं कर पाती, ऐसा लगता कि मेरे गले को हाथों ने दबा रखा है. मैं पुरुषों की आंखों में एक खास भाव से परेशान हो जाती- और ऐसे भाव अक्सर नजर आ जाते.

इसके बावजूद कई दफा मैं सोचती कि मैं अब मजूबत इंसान हूं. मैं अपने जीवन की सराहना पहले से अधिक करती. हर दिन एक उपहार था. मैंने अपने जीवन के लिए संघर्ष किया था और मैं जीती थी. कोई भी नकारात्मक भाव मुझे यह सोचने से रोकती कि यह सकारात्मक है.

मैंपुरुषों से घृणा नहीं करती. ऐसा करना सबसे आसान था, और कई पुरुष ऐसे विभिन्न किस्म के दबाव के शिकार थे. मैं जिससे नफरत करती वह पितृसत्ता थी और उस झूठ की विभिन्न परतों से जो कहती कि पुरुष महिलाओं से बेहतर होते हैं, पुरुषों के पास अधिकार हैं जो महिलाओं के पास नहीं, पुरुष हमारे अधिकार संपन्न विजेता हैं. मेरी नारीवादी मित्र सोचतीं कि मैं महिलाओं के मसले पर इसलिए चिंतित हूं क्योंकि मेरा रेप हुआ है. मगर ऐसा नहीं है. रेप उन तमाम प्रतिक्रियाओं में से एक है जिसकी वजह से मैं नारीवादी हूं. रेप को किसी खाने में क्यों डाला जाये? ऐसा क्यों सोचा जाये कि रेप ही अकेला अवांछित संभोग है? क्या हर रोज गलियों में गुजरते वक्त हमारा रेप नहीं होता? क्या हमारा रेप तब नहीं होता जब हमें यौन वस्तु के तौर पर देखा जाता है, हमारे अधिकारों से इनकार कर दिया जाता है, कई तरीकों से दबाया जाता है? महिलाओं के दमन को किसी एक नजरिये से नहीं देखा जा सकता है. उदाहरण के लिए, वर्ग विश्लेषम आवश्यक है, मगर क्यों बहुत सारे बलात्कार अपने ही वर्ग में किये जाते हैं.

जबतक महिलाएं विभिन्न तरीकों से दमित की जाती हैं. सभी महिलाएं लगातार बलात्कार के खतरे में हैं. हमें रेप को पेचीदा बनाने से रोकना पड़ेगा. हमें समझना पड़ेगा कि यह हमारे चारो तरफ अस्तित्व में है, और इसके विभिन्न स्वरूप हैं. हमें इसे गुप्त तौर पर दफन करना बंद कर देना होगा और इसे अपराध के एक रूप के तौर पर देखना होगा- इसे हिंसात्मक अपराध मानना होगा और बलात्कारी को अपराधी के तौर पर देखना होगा. मैं उत्साहपूर्वक जीवन जी रही हूं. बलात्कार का शिकार होना बहुत खौफनाक है, मगर जिंदा रहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. मगर जब एक औरत को इसे महसूस करने से रोका जाता है, इसे तो हमारे तंत्र की गड़बड़ी माना जाना चाहिये. जब कोई बेवकूफ बनकर जिंदगी के एवज में खुद पर हमले को झेल लेती है तो किसी को ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि वह स्वेच्छा से मार खाना चाहती थी. बलात्कार के मामले में एक औरत से पूछा जाता है कि उसने ऐसा क्यों होने दिया, उसने प्रतिरोध क्यों नहीं किया, कहीं उसने इसका मजा तो नहीं लिया.

रेपकिसी खास समूह की औरतों के साथ नहीं होता और न ही रेपिस्ट एक खास तरह के पुरुष होते हैं. रेपिस्ट एक क्रूर पागल भी हो सकता है और पड़ोस में रहने वाला लड़का भी या एक दोस्ताना अंकल भी. हमें अब रेप को किसी अन्य महिला की समस्या के तौर पर देखना बंद करना होगा. इसे हमें सार्वभौमिक तरीके से देखना होगा और एक बेहतर समझ की तरफ बढ़ना होगा. जब तक रिश्तों का आधार शक्तियां होंगी, जब तक महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के तौर पर देखा जाता रहेगा, हम लगातार अपनी इज्जत गंवाने के खतरे में रहेंगे. मैं बचकर निकली हूं. मैं रेप किये जाने के लिए नहीं कहती और न ही मैंने इसका मजा लिया. यह एक सबसे बुरा किस्म का टार्चर है. मगर यह महिलाओं की गलती नहीं है.

आज सोहेला लिखती हैं, पढ़ती हैं और घूमती हैं. उसके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. द मैडवुमन ऑफ जोगर एंड इयर ऑफ टाइगर, बच्चों की तीन किताबें, और कई छोटी कहानियां, लेख, खबरें, ब्लाग, कॉलम, मैनुअल आदि वे लिख चुकी हैं. उनके लिखित सामग्रियों को उनकी साइट www.sohailaink.com पर देखा जा सकता है.

पुष्यमित्रवरिष्ठ पत्रकार हैं। 
अभी रांची से प्रकाशित "पंचायतनामा" में कार्यरत हैं।
इनसे संपर्क का पता pushymitr@gmail.com है

(एक स्पष्टीकरण- मूलतः कन्फ्यूशियस की महिलाओं के प्रति समझदारी बहुत ही सामंती और पुरुषसत्तात्मक रही है. मूलतः उनका दर्शन महिला विरोधी दर्शन रहा है जिसने चीन में महिलाओं के प्रति शोषण व्यवस्था को हजारों सालों तक लगातार मजबूती दी. उनके दर्शन से हम इत्तेफाक नहीं रखते हैं. संभवतः उनकी इस समझदारी की वजह उनके दौर के चिंतन की दरिद्रता ही रही हो. लेकिन उपरोक्त आलेख में कन्फ्यूशियस के 'जिस' कोट को 'जिस' तरह लिया गया है, यहाँ प्रगतिशीलता का पुट है और यह असल में महिला मुक्ति की ओर संकेत करता है.  -मॉडरेटर)

'एक सैनिक की मौत' : अशोक कुमार पाण्डेय की कविता

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Ashok Kumar Pandey
अशोक कुमार पाण्डेय

 

 कल सीमा पर दो सैनिकों की बर्बर ह्त्या और उसके बाद आई भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाओं के दौरान मुझे अपनी एक काफी पुरानी कविता 'एक सैनिक की मौत' याद आई जो पहले प्रो लाल बहादुर वर्मा द्वारा संपादित इतिहासबोध और फिर शिरीष कुमार मौर्य के ब्लॉग 'अनुनाद' में छपी थी. युद्धोन्माद जगा कर निरपराध सैनिकों की कीमत पर अपनी "देशभक्ति' के मुजाहिरे के इस दौर में शायद यह थोड़ी असुविधा पैदा करे. लेकिन बकौल प्रेमचंद लेखक बिगाड़ के डर से सच बोलना बंद नहीं कर सकता...
- कवि की ही कलम


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तीन रंगो के 


लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा 


लौट आया है मेरा दोस्त 

अखबारों के पन्नों 

और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर 

भरपूर गौरवान्वित होने के बाद 


उदास बैठै हैं पिता 

थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन 

सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच 

बार-बार फूट पड़ती है पत्नी 

कभी-कभी 

एक किस्से का अंत 

कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है 

और किस्सा भी क्या? 

किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन 

फिर सपनीली उम्र आते-आते 

सिमट जाना सारे सपनो का 

इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के 

अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग 

या फिर केवल योग 

कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी 

और नौकरी जिंदगी की 

इसीलिये 

भरती की भगदड़ में दब जाना 

महज हादसा है 

और फंस जाना बारूदी सुरंगो में 

’शहादत! 

बचपन में कुत्तों के डर से 

रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त 

आठ को मार कर मरा था 

बारह दुश्मनों के बीच फंसे आदमी के पास 

बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है? 

वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ 

जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त 

दरअसल उस दिन 

अखबारों के पहले पन्ने पर 

दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था 

और उसी दिन ठीक उसी वक्त 

देश के सबसे तेज चैनल पर 

चल रही थी 

क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा 

एक दूसरे चैनल पर 

दोनों देशों के मशहूर शायर 

एक सी भाषा में कह रहे थे 

लगभग एक सी गजलें 

तीसरे पर छूट रहे थे 

हंसी के बेतहा’शा फव्वारे 

सीमाओं को तोड़कर 

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित 

सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे 

दबी थीं 

अलग-अलग वर्दियों में 

एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी 

नौ बेनाम ला’शों 

अजीब खेल है 

कि वजीरों की दोस्ती 

प्यादों की लाशों पर पनपती है 

और 

जंग तो जंग 

’शाति भी लहू पीती है!

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अशोक कुमार पाण्डेय कवि और लेखक हैं. 
इनकी तीन किताबें,  'मार्क्स-जीवन और विचार' (संवाद प्रकाशन),
'शोषण के अभयारण्य- भूमण्डलीकरण और उसके दुष्प्रभाव' 
तथा कविता संकलन 'लगभग अनामंत्रित'  (शिल्पायन) से प्रकाशित हुई हैं.

विशाल भारद्वाज! क्या तुम हिजडों को इंसान नहीं समझते?

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विनय सुल्तान 






-विनय सुल्तान 

किसानो का गेहूं जब स्थानीय मंडी में नहीं बिकता है तो मटरू गेहूं, “शक्तिभोग” को बेच कर बैंक की किस्त चुकाने का प्रयास करता है. "शक्तिभोग" इस फिल्म की प्रायोजक है. लेकिन फिल्म की कहानी में गेहूं को शक्तिभोग को बेचे जाने को किस संदर्भ में देखा जाना चाहिए? क्या बिचोलियों से बचने के लिए किसानो को “वॉलमोर्ट” की शरण में चला जाना चाहिए. फिल्म का दृष्टिकोण तो यही है.

“मटरू की बिज़ली का मंडोला” बनाने से पहले विशाल भरद्वाज को SEZके खिलाफ चल रहे जनसंघर्ष का थोडा अध्ययन जरुर करना चाहिए था. ऐसा करने से शायद  SEZ जैसे मसले को मसाला बनाने से बाज़ आ जाते. जमीन पर हो रहे संघर्ष “अमरचित्र कथा” नहीं है. फिल्म बुनियादी तौर पर वामपंथी राजनीती का मखौल उड़ाती है. बेशक, फिल्म में माओ के नाम का कीर्तन ना हुआ होता, लाल झंडे और चे गवारा का पोस्टर ना दिखाया जाता पर  SEZ जैसा मुद्दा किसी भी फ़िल्मकार से गहरी संवेदनशीलता की मांग करता है.       

फिल्मकी कहानी में मंडोला एक पूंजीपति है जो कि गाँव की जमीन का कब्ज़ा कर वहां कई करोड़ की लागत वाली फेक्टरी लगाना चाहता है. मंडोला का किरदार चार्ली चेपलिन की फिल्म “सिटी लाइट्स” के पूंजीपति की याद दिलाता है जो शराब पीने से पहले खुर्राट बुर्जुआ और शराब के नशे में एक मानवीय चरित्र को पेश करता है. मटरू जे.एन.यू. से पढ़ा हुआ वामपंथी रुझानो वाला नौजवान है जो की भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चल रहे संघर्ष का नेतृत्व करता है. अपनी पहचान छुपाने के लिए वो अपना छद्म नाम “माओ” रख लेता. मटरू, मंडोला के यहाँ पर ड्राइवर की नौकरी करता है. मंडोला की बेटी बिज़ली की शादी सत्ताधारी पार्टी की मुखिया के बेटे से होने वाली है. फिल्म के अंत में मंडोला का नाटकीय रूप से ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और वो किसानो को उनकी ज़मीने लौटा देता है. और मटरू की शादी बिज़ली से हो जाती है.

शक्ति के भोग के खिलाफ “शक्तिभोग”

किसानोका गेहूं जब स्थानीय मंडी में नहीं बिकता है तो मटरू गेहूं, “शक्तिभोग” को बेच कर बैंक की किस्त चुकाने का प्रयास करता है. "शक्तिभोग" इस फिल्म की प्रायोजक है. लेकिन फिल्म की कहानी में गेहूं को शक्तिभोग को बेचे जाने को किस संदर्भ में देखा जाना चाहिए? क्या बिचोलियों से बचने के लिए किसानो को “वॉलमोर्ट” की शरण में चला जाना चाहिए. फिल्म का दृष्टिकोण तो यही है. पूरा पूंजीवाद श्रम और संसाधनों के बलात्कार पर खड़ी व्यवस्था है. पूंजीवाद का जवाब पूंजीवाद कैसे हो सकता है? शक्तिभोग और उसके जैसी दूसरी कंपनियों को मुनाफा से मतलब है. किसानों की बदहाली के प्रति उनकी संवेदनशीलता शून्य है.

संघर्ष है सर्कस नहीं

सत्ताद्वारा यज्ञ करवाने के दो दिन बाद बारिश आ जाती है. किसानों की कटी-कटाई फसल बारिश में भीग कर चौपट हो जाती है. मटरू गाँव के लोगों को दिल्ली मोर्चा ले कर चलने की बात कहता है. पर गाँव के सब लोग अलसुबह जा कर अपनी जमीनों पर अधिग्रहण स्वीकार कर लेते हैं. कहानी का यह हिस्सा नीरवत की स्थिति पैदा कर देता है और आगे का संघर्ष सर्कस में बदल जाता है.

देशके तमाम भागो में जल, जंगल और ज़मीन को ले कर हो रहे संघर्ष इतने समझौतापरस्त नहीं हैं. इस देश की मेहनतकश जनता ने ज़मीन की कीमत जान दे कर चुकाई है और चुका रहे हैं. जमीन के लिए लड़ने वाले बहादुर लड़ाके इतनी आसानी से सत्ता के सामने घुटने टेकने वालों में से नहीं. फिल्म जमीन पर हो रहे संघर्ष का इतना असंवेदनशील मूल्यांकन कैसे कर सकती है? गले तक पानी में खड़े रह कर अपनी खाल सदने वाले, सीने पर गोलिया खाने वाले, पुलिस के अमानवीय अत्याचार सहन करने वाले लोग समझौते नहीं करते. क्योंकि ज़मीन उनके अस्तित्व का सवाल है. ऐसा लगता है कि निर्देशक यह नहीं समझ पाता है. 

एकऔर हास्यास्पद बात ये है कि सत्ता जब किसानों को बर्बाद करने के लिए यज्ञ करवाती है उसके दो दिन बात बारिश हो जाती है! ये किस तरह की समझदारी है? सत्ता जब चाहे धरम की पूंछ पकड़ कर बारिश करवा सकती है और रिंग मास्टर की तरह किसानों के संघर्ष को शांत करवा सकती है. हाँ, अगर आप को अपनी कहानी को बढ़ाना ही था तो आप सत्ता के गुंडों के द्वारा खलिहान में आग लगवा सकते थे पर यहाँ तो बारिश यज्ञ पर निर्भर थी.

माओ हिजड़ा है?

फिल्ममें एक किन्नर माओ और जनता के बीच संवाद का माध्यम बनता है. वो जनता की तरफ मुखातिब हो कर कर कहता है “माओ की तरफ से लाल सलाम”. इस पर उस किन्नर से पूछा जाता है कि माओ सामने क्यों नहीं आता, क्या वो भी “हिजड़ा” है? इसके बाद ठहाके गूंजने लगते हैं.

मैं व्यक्ति पूजा के सख्त खिलाफ हूँ. आप माओ को कुछ भी कहिये. मुझे कोई इनकार नहीं! बलराज सहनी ने अपनी फिल्म “इंसाफ” में लेनिन को जानवर कहा था. ये आपका नजरिया है. पर क्या किन्नर होना किसी इन्सान को दोयम दर्जे का बना देता है? ये एक बड़ा सवाल है. किन्नरों को हीन समझने की जो ग्रंथि सक्रिय है जिसकी जड़ें दरअसल उसी पित्रसत्ता और सामन्ती मानसिकता में है, जो स्त्रियों और दलितों को दोयम दर्जे से देखता है.

और अंत में प्रार्थना...!

फिल्मका अंत बड़ा ही नाटकीय है. मंडोला जैसे वहशी पूंजीपति का “हृदय परिवर्तन” हो जाता है. वो अपने कई करोड़ की परवाह किये बिना किसानों को उनकी ज़मीन लौटा देता है और खुद सत्ता के खिलाफ हो कर उसका प्रतिरोध करने लगता है. वाह! ये कितना मनमोहक गांधीवादी अंत है. संघर्ष के नाम पर जो सर्कस इस फिल्म में शुरू हुआ था, उसमे इसी तरह के अंत की गुंजाइश बची थी. इसके अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता था. 

ये फिल्म पुरे मुद्दे का क्या हल सामने रखती है? इसी तरह एक दिन टाटा,बिरला, अम्बानी और उनके बापों और बेटे-बेटियों का “हृदय परिवर्तन” हो जायेगा?

तमाम आलोचनाओं के बावजूद इस फिल्म का संगीत सराहनीय है. हरियाणा के बारे में ये मजाक किया जाता था कि “यहाँ 'कल्चर' के नाम पर 'एग्रीकल्चर' है!” इस फिल्म में हरियाणा के लोक संगीत का इस्तेमाल बेहतरीन तरीके से हुआ है. हरियाणा में रागिणी और स्वांग का लम्बा इतिहास है. वर्तमान में ये लोककला या तो फूहड़ता का शिकार हो चुकी है, या फिर आधुनिकता के बियाबान में अपने अस्तित्व के लिए लड़ रही है. मुख्यधारा के संगीत में इनके इस्तेमाल की सराहना होनी ही चाहिए.

विनय युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
vnyiover4u@gmail.com पर इनसे संपर्क कर सकते हैं.


हडबड़ा गई है सामंती व्यवस्था, बडबड़ा रहा है पुरुषवाद!

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http://3.bp.blogspot.com/-AIIN6gqVHEA/Tl4QCHya8BI/AAAAAAAAABQ/EEnmnKEnH1g/s1600/abhinav.jpg
 अभिनव श्रीवास्तव

"...संभवतः यही वजह है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में महिलाओं के प्रति एक खास तरह के सामंती और नैतिकतावादी नजरिये का आधार और उसका समर्थन मौजूद है और जब-जब इस स्थापित संरचना को किसी भी रूप में चुनौती मिलती है, सामंती और प्रतिक्रियावादी ताकतों के बीच खदबदाहट होने लगती है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि आशाराम बापू और मोहन भागवत के बयानों में सामूहिक बलात्कार की पीड़िता के प्रति जैसी सोच दिखी उसकी अपनी एक खास राजनीति और पृष्ठभूमि भी है।.."

राजधानी दिल्ली में तेईस वर्षीय छात्रा के सामूहिक बलात्कार के बाद कई किस्म की वैचारिक धाराओं के बीच महिला अधिकारों को लेकर गहन विचार विमर्श का दौर चलता रहा। इस दौरान प्रगतिशील धारायें अपनी-अपनी राजनीतिक स्थिति से महिला अधिकारों और उनके राष्ट्र स्तर पर जारी शोषण की बहस को आगे बढ़ाते रहीं। निश्चित तौर पर इन सबके बीच महिला अधिकारों को लेकर विचारों की कई धुरियां सक्रिय रहीं लेकिन कुछ बुनियादी बातों पर सभी की सहमति रही। इन तमाम चर्चाओं पर बहस आगे बढ़ने के साथ कुछ बेहद सामंती और प्रतिक्रियावादी धाराओं ने भी सार्वजनिक मचों पर अपनी मौजूदगी दर्ज करवायी। आशाराम बापू और संघ संचालक मोहन भागवत के हालिया बयान और टिप्पणियां इसका सीधा उदाहरण हैं। 

चूंकि ये बयान एक पूरी राजनीतिक धारा और वर्ग की नुमाइंदगी करते हैं, इसलिये इन पर चर्चा करना जरूरी हो जाता है। अगर गौर से देखा जाये तो ऐतिहासिकता के विकास क्रम में दुनिया के जिन-जिन हिस्सों में महिला अधिकारों के लिए संघर्ष और आंदोलन तीखे और पैने हुये हैं, उन हिस्सों में फासीवादी ताकतों और प्रतिक्रियावादी धाराओं ने अपनी मौजूदगी दर्ज करायी है। इन सभी प्रतिक्रियावादी धाराओं और फासीवादी ताकतों ने हर दौर में एक ऐसी समाज व्यवस्था की वकालत की है जिसमें महिलाओं की यौनिकता, उनके श्रम और सार्वजनिक और निजी दायरों में उसकी भागीदरी पर पुरुषवादी नियंत्रण लगाने की कोशिशें की गयी हैं। ऐसा करने के लिए इन ताकतों ने अपने-अपने समाज के वर्चस्ववादी धर्मों के नैतिक और सांस्कृतिक मूल्यों को इस्तेमाल किया है और इन मूल्यों की पुर्नस्थापना का आग्रह ही इनकी मांगों में नजर आता है। भारतीय संदर्भ में भी यह बात कुछेक भिन्नताओं और अंतर्विरोधों के साथ ठीक जान पड़ती है। भारतीय सभ्यता अपनी विशिष्ट सामाजिक स्थितियों के चलते भयंकर विविधताओं और परम्पराओं में कैद रही है, इसलिए यहां महिला अधिकारों के लिये संघर्ष और प्रगतिशील आंदोलनों ने अपेक्षाकृत देर से दस्तक दी। 

संभवतः यही वजह है कि भारतीय समाज के एक बड़े हिस्से में महिलाओं के प्रति एक खास तरह के सामंती और नैतिकतावादी नजरिये का आधार और उसका समर्थन मौजूद है और जब-जब इस स्थापित संरचना को किसी भी रूप में चुनौती मिलती है, सामंती और प्रतिक्रियावादी ताकतों के बीच खदबदाहट होने लगती है। जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है कि आशाराम बापू और मोहन भागवत के बयानों में सामूहिक बलात्कार की पीड़िता के प्रति जैसी सोच दिखी उसकी अपनी एक खास राजनीति और पृष्ठभूमि भी है। दरअसल भारत में महिलाओं के प्रति सामंती और खास तरह के नैतिकतावादी मूल्यों का प्रतिनिधित्व विश्व हिन्दू परिषद, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जैसे संगठनों ने नये-नये सांस्कृतिक और राजनीतिक केन्द्रों और संस्थानों की रचना करके किया है और इन्हीं केन्द्रों के जरिये इन मूल्यों का प्रचार-प्रसार भी हुआ है। 

ऐसे संस्थानों और केन्द्रों का अस्तित्व आजादी से पहले (राष्ट्रसेविका समिति, 1936) भी रहा है और आजादी के बाद भी। इस प्रक्रिया के बरक्स महिला अधिकारों की लड़ाई को आगे बढ़ाने वाले प्रगतिशील आंदोलनों की धार इतनी पैनी नहीं रह पायी। सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जब प्रगतिशील महिला आंदोलनों ने गति पकड़ी तो इन कोशिशों का जवाब हिंदू प्रतिक्रियावादी ताकतों ने ऐसे महिला संगठनों का निर्माण करके दिया जिन्होंने कालांतर में राष्ट्र स्तर पर हिन्दू सांस्कृतिक और सामंती मूल्यों के आरोपण की जिम्मेदारी निभायी। 1980 में भारतीय जनता पार्टी द्वारा बनाया गया महिला मोर्चा, 1985 में शिव सेना द्वारा बनाया गया महिला अगाधि और बाद में विश्व हिन्दू परिषद द्वारा बनाया गयी दुर्गा वाहिनी ऐसे ही संगठन थे। इन संगठनों ने नब्बे के दशक में अल्पसंख्यकों के निजी दायरे के धार्मिक नियमों को निशाना बनाने के मकसद से प्रगतिशीलता का ढोंग रचते हुये यूनिफार्म सिविल कोड  जैसे प्रावधानों की मांग की। ये ढोंग इसलिये था क्योंकि इन संगठनों और इनके पैतृक संगठनों के विमर्श में उस वक्त और साल 1950  में भी हिन्दू महिलाओं को संपत्ति में अधिकार दिलाने वाले हिन्दू कस्टमरी ला के संशोधन जैसी कोई मांग मौजूद नहीं थी। 

कहने का मतलब यह है कि सामंती और हिन्दू सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार प्रसार के केन्द्र नए-नए रूपों में बनते और स्थापित होते चले गए और उन्होंने बेहद आक्रामक रूप से इन मूल्यों की पुनर्स्थापना की कोशिशें भी की। हालांकि सामंती हिन्दू सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचारक के रूप में आशाराम बापू जैसे धार्मिक गुरुओं का राष्ट्र स्तर पर उभार एक नए किस्म की घटना साबित हुई है और इसने वैश्वीकरण और खुले बाजार के दौर में इतनी तेजी से अपने पांव फैलाए कि आने वाले सालों में इन धार्मिक गुरुओं और टिप्पणीकारों से सार्वजनिक दायरे का एक बड़ा हिस्सा पटा हुआ दिखाई पड़ा। खुले बाजार और नवउदारवादी व्यवस्था द्वारा दिए गए साधनों और तकनीकों का इस्तेमाल करके इन इन धार्मिक गुरुओं ने अपने प्रभाव क्षेत्र को बेहद विस्तृत और आक्रामक बना लिया। मनोरंजन जगत का मीडिया इनके हाथ-पांव बन गया और टेलीविजन चैनल इन सामंती सांस्कृतिक मूल्यों के प्रचार-प्रसार के नए केंद्र बन गए। इन केन्द्रों से उन्होंने हिन्दू मान्यता के प्रतीकों को तेजी से फैलाते हुये राष्ट्र स्तर पर भगवाकरण की प्रक्रिया को मजबूत किया। यही वह दौर था जब सांस्कृतिक समरूपीकरण की प्रक्रिया अबाध गति से चली और मजबूत होती चली गयी। ठीक इसी वक्त वैश्वीकरण की प्रकिया समाजिक दायरों में भी नये तरह के बदलावों को जन्म दे रही थी। 

मझोले और बड़े शहरों में महिलायें श्रम बाजार का हिस्सा बनने के लिए आगे आयीं और उन्होंने अपने आप को नयी भूमिका में देखा। महिलाओं की इस बढ़ती भागीदारी के शुरुआत में बहुत उत्साह जनक नतीजे निकाले गए, लेकिन बाद में पता चला कि वैश्वीकरण और बाजार व्यवस्था ने भी आजादी के तमाम दावों के बावजूद महिलाओं के श्रम के शोषण और गैर बराबरी को ही प्रोत्साहित किया है। अब अगर इस सैद्धान्तिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर मोहन भागवत, आशाराम बापू के सामंती बयानों की वजहों को समझना शुरू करें तो यह कहा जा सकता है कि वैश्वीकरण और खुली बाजार व्यवस्था के द्वंदवाद और उसके अंतर्विरोधों ने ही महिलाओं और उनके एक खास वर्ग को ऐसे अवसर प्रदान कर दिए हैं जहां से वे स्थापित सामंती धाराओं को पहले से अधिक पैनेपन और मजबूती से चुनौती दे सकती हैं। महिलाओं की अपनी यौनिकता और अपने अधिकारों की इन नयी दावेदारियों से धार्मिक गुरुओं और हिंदूवादी राजनीतिक संगठनों द्वारा आगे बढ़ायी जा रही सांस्कृतिक आरोपण की प्रक्रिया का आतंरिक संतुलन बिगड़ गया है। इन धार्मिक टिप्पणीकारों का आधुनिकता और प्रगतिशीलता बोध पहले ही चरमराया हुआ था और महिलाओं की सार्वजनिक दायरे में मजबूती से की जाने वाले दावेदारियों ने इनके बीच खीझ और झुंझलाहट की स्थिति पैदा कर दी है। उनके बयान इसी खीझ और झुंझलाहट की अभिव्यक्ति हैं। 

निश्चित तौर पर महिला आंदोलनों की ऐतिहासिकता के विकास क्रम में रायसीना हिल पर चली मुहिम के महत्व को अभी ठीक से समझना थोड़ा मुश्किल साबित हो रहा है। इस मुहिम के प्रति दो तरह का प्रगतिशील नजरिया हावी है। कुछ प्रगतिशील राजनीतिक और महिला संगठन इसे पूरी तरह खारिज कर रहे हैं और सामूहिक बलात्कार के बाद पैदा हुये रोष के चलते गोलबंद हुयी भीड़ को कास्ट, क्लास और साम्प्रदायिकता की लाइन्स के इर्द-गिर्द समझने की कोशिश कर रहे हैं और कुछ अपने राजनीतिक विस्तार की संभावना तलाशने की हड़बड़ी में इस मुहिम को महज सामाजिक विमर्श का मुद्दा बनाये रखने के पक्ष में है। ये दोनों ही नजरिये गलत हैं। अगर इस मुहिम के प्रति आलोचना की किसी गुंजाइश को खत्म किया गया तो इससे महिलाओं के राष्ट्र स्तर पर जारी शोषण की बहस को व्यापक रंग नहीं दिया जा सकेगा और न ही राज्य व्यवस्था की महिला शोषण के कुछ मामलों में संलिप्तता पर बुनियादी सवाल खड़े किए जा सकेंगे। आखिर राष्ट्र स्तर पर महिलाओं की यौनिकता के साथ-साथ उनके श्रम का शोषण भी जारी है। जो संगठन और वर्ग इस मुहिम को पूरी तरह खारिज कर रहे हैं, वे ये देख नहीं पा रहे कि इस मुहिम के केंद्र में महिला और महिला अधिकारों ही की बहस थी जो सही और संतुलित नेतृत्व के अभाव में कहीं-कहीं पर प्रतिक्रियावादी होती हुयी दिख रही थी। तमाम आलोचनाओं की गुंजाइश छोड़ते हुये भी इस मुहिम के महत्व को इस रूप में स्वीकार करना ही होगा कि इसने स्थापित सामंती व्यवस्था और मूल्यों को हिला देने वाली दावेदारियां पेश की हैं।  



अभिनव पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से. 
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम. अभी स्वतंत्र लेखन. 
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है.

कारपोरेट संपादकों की 'चिंताएं' और 'मीडिया विमर्श'

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भूपेन सिंह

-भूपेन सिंह

"...स्वनियमन के लिए बनाई गई संस्था एनबीएसए और उसकी जननी बीईए जिस स्वनियमन की बात करती हैं उस स्व में आम पत्रकारों के लिए कोई जगह नहीं है. वह टेलीविजन एडिटर्स की पहलकदमी से बनाई गई संस्था है और एडिटर, कॉरपोरेट मीडिया में मालिक की मर्जी के ख़िलाफ़ कोई नहीं बन सकता. अलग-अलग मीडिया संगठनों में काम करने वाले अनगिनत साधारण पत्रकारों के हितों का इन संपादकों को कोई ध्यान नहीं रहता. उन्हें लाखों-करोड़ों रुपए की अश्लील तनख्वाह मिलती है जबकि आम पत्रकारों के लिए हज़ार किफ़ायत बरतने के बाद भी अपना घर चलाना मुश्किल होता है..."

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (सीएमएस) ने दक्षिण दिल्ली के साकेत के अपने शानदार ऑफिस में पत्रकारिता की वर्तमान हालत पर एक बातचीत करवाई थी. जिसमें ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन (बीईए) के प्रतिनिधियों के अलावा न जाने किस गल़ती से मुझ जैसे कुछ ऐक्टिविस्ट और पत्रकारों को भी बुला लिया गया था. बहस में बीईए के महासचिव एनके सिंह, हाल ही तक आजतक-टीवी टुडे ग्रुप के संपादक रहे क़मर वहीद नक़वी, टीवी संपादक-सीईओ रहे राहुल देव, गवर्नेंस नॉव के संपादक वीवी राव, मिंट अख़बार में मीडिया पर कॉलम लिखने वाली सीएमएस की मुख्य कर्ता-धर्ता पीएन वासंती, उनके पिता और सीएमएस के अध्यक्ष भास्कर राव के अलावा कुल पच्चीस-तीस पत्रकार जमा थे. उपरोक्त लोगों का नाम लिखने की ज़रूरत इसलिए पड़ी क्योंकि उनमें से कुछ लोग उम्र, पद और प्रतिष्ठा का रुतबा दिखाकर बहस को एक गढ़ी गई आम सहमति में बदलने की कोशिश कर रहे थे. सारी बातें ऐसी थी जिससे कॉरपोरेट मीडिया और भारतीय लोकतंत्र की महानता बार-बार झलके और ऐसा लगे कि मीडिया की वर्तमान विसंगतियों के लिए बीईए से ज़्यादा चिंतित और कोई नहीं है. वहां बार-बार बीईए और सीएमएस के साथ मिलकर भारतीय मीडिया की बेहतरी के लिए एक साझा प्रोजेक्ट पर काम करने की बात भी हो रही थी. मेरी समझ में मीटिंग का मक़सद बड़ी देर से आया! असहमत लोगों की बातें उनके लिए अव्यावहारिक और क्रांतिकारी विचारधारा से प्रेरित थीं.

बातचीत के केंद्र में ज़ी न्यूज़ संपादकों की तरफ़ से कोयला घोटाले से जुड़े उद्योगपति और कांग्रेसी सांसद नवीन जिंदल से सौ करोड़ की वसूली का मामला था. बहस में शामिल नामधारी लोग ज़ी न्यूज़ संपादक सुधीर चौधरी और ज़ी बिजनेस के संपादक समीर अहलुवालिया की आलोचना कर रहे थे. साथ ही वे यह भी बताने की कोशिश कर रहे थे कि मीडिया का स्वनियमन ही सबसे सही रास्ता है. बहस को स्वनियमन बनाम सरकारी नियंत्रण की बहस में बदला जा रहा था. ये महानुभाव चालाकी दिखाते हुए थोड़ी सी आत्मालोचना में इतना ज़रूर स्वीकार कर रहे थे कि आज के समाचार माध्यमों में सुधीर और समीर जैसे लोगों की ही चलती है और आज वे किसी भी मीडिया मालिक के लिए सबसे ज़्यादा काम के आदमी हैं. उनके पास कॉरपोरेट मीडिया की साख बचाने के लिए स्वनियमन की माला जपने वाले बीईए और उसकी तरफ़ से बनाई गई नियामक संस्था न्यूज़ ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी (एनबीएसए) की नैतिकता और प्रासंगिकता के पक्ष में अनगिनत दलीलें थीं और वे चाह रहे थे बाक़ी लोग अच्छे बच्चे की तरह उनकी हां में हां मिलाएं.

मैंने कहा कि स्वनियमन के लिए बनाई गई संस्था एनबीएसए और उसकी जननी बीईए जिस स्वनियमन की बात करती हैं उस स्व में आम पत्रकारों के लिए कोई जगह नहीं है. वह टेलीविजन एडिटर्स की पहलकदमी से बनाई गई संस्था है और एडिटर, कॉरपोरेट मीडिया में मालिक की मर्जी के ख़िलाफ़ कोई नहीं बन सकता. अलग-अलग मीडिया संगठनों में काम करने वाले अनगिनत साधारण पत्रकारों के हितों का इन संपादकों को कोई ध्यान नहीं रहता. उन्हें लाखों-करोड़ों रुपए की अश्लील तनख्वाह मिलती है जबकि आम पत्रकारों के लिए हज़ार किफ़ायत बरतने के बाद भी अपना घर चलाना मुश्किल होता है. मैंने सीधे पूछा कि आप लोग संपादक रहे हैं, हैंक्या आप लोगों ने कभी आम पत्रकारों को अपने अख़बार-चैनल में संगठन बनाने की इज़ाजत दीअगर आप बहुसंख्यक पत्रकारों का प्रतिनिधित्व नहीं करते तो फिर आपको उनकी आड़ में स्वनियमन की बात करने का कोई अधिकार नहीं है.

महान पत्रकारों को ख़ुद के लिए कॉरपोरेट पत्रकार का संबोधन बिल्कुल ही आपत्तिजनक लगा. कोई ज़वाब न होने पर बोलने लगे कि सिर्फ़ आप ही बोल रहे हैं दूसरों को बोलने नहीं दे रहे, जबकि हक़ीक़त यह थी कि वहां संपादक-आयोजक प्रवचन कर रहे थे और हमसे भक्तों की तरह ज्ञान हासिल करने की उम्मीद कर रहे थे. जब बर्दाश्त नहीं हुआ तो हमने कहा कि अगर आपने हमें बुलाया है तो बात सुननी भी पड़ेगी वरना हम जा रहे हैं. स्थिति असामान्य हो गई. एजेंडा सेटिंग का विरोध करने वाला हमारा दिमाग उनकी शातिर बातों को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं था. जब उनके सामने कहा गया कि पत्रकार-मालिक-सीईओ एक ही इंसान होगा तो क्या इसमें हितों का टकराव नहीं हैसुधीर चौधरी एक साथ ज़ी न्यूज़ का बिजनेस हेड और संपादक कैसे बन गयाराजदीप  सरदेसाई, अरुण पुरी, प्रवण रॉय जैसे कई लोग मालिक हैं कि पत्रकारइस तरह के सवाल उन्हें कल्पनाओं से परे और बहुत ही आपत्तिजनक लगे. मालिकों की दया से बने संपादक, बड़ी पूंजी के मालिकों और पत्रकारीय हितों के बीच टकराव की अनदेखी करते हुए झल्लाकर बोले, क्या आप चाहते हैं कि पत्रकार हमेशा नौकर ही बना रहे वह मालिक नहीं बने?  अरुण पुरी जैसे लोगों ने पत्रकारिता के नए मानदंड खड़े किए हैं, वे कभी संपादक के अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं करते. अख़बार टीवी शुरू करने में करोड़ों रुपए लगते हैं, क्या कोई मालिक घाटा उठाने लिए पूंजी लगाएगाआप ही बताइए इसका क्या विकल्प हैआप इल इनफॉर्म्ड हैं हमारे एक साथी ने लगे हाथों यह भी पूछ लिया कि सुधीर चौधरी पहले भी दिल्ली की एक स्कूल शिक्षिका उमा खुराना को फर्जी तौर पर वेश्याओं का दलाल बताकर उन्हें बदमाम कर चुका है, जिस वजह से सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने उस चैनल न्यूज लाइव को पंद्रह दिनों के लिए बंद करवा दिया था. इतनी जानकारी के बाद भी वह बीईए का कोषाध्यक्ष कैसे बन गया कौन इल इन्फॉर्म्ड है कॉरपोरेट संपादकों ने झल्लाहट के बावजूद पूरे आत्मविश्वास से कॉरपोरेट मीडिया और उसके मालिकों का बचाव किया. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सरकारी नियंत्रण का डर दिखाया और सुधीर चौधरी जैसी घटनाओं के लिए ख़ुद बदलो-जग बदलेगा जैसा दर्शन दिया और इसके लिए स्वनियमन को ज़रूरी बताया. वहां अपेक्षाकृत सीधे और सरल माने जाने वाले संपादक वीवी राव ने कहा कि पत्रकारों और मीडिया संगठनों के ख़िलाफ़ भी मुख्यधारा के मीडिया में आलोचना छपनी चाहिए तो उनकी बात को भी यूं ही उड़ा दिया गया. मीटिंग में मौज़ूद महान विभूतियां हमारी बातों को विचारधारा से प्रेरित और क्रांतिकारी घोषित कर पहले ही अप्रासांगिक ठहराने की कोशिश कर चुकी थीं.

ऊपर हुई घटनाओं का ज़िक्र करने का मक़सद सिर्फ़ इतना है कि इस बहाने पता चल पाए सत्ता तक पहुंच रखने वाले कॉरपोरेट संपादक और नामचीन एनजीओ, पत्रकारिता में नैतिकता की बहस को किस दिशा में मोड़ना चाहते हैं. ऐसा नहीं कि यह बहस सिर्फ़ लगातार बाज़ार के हवाले होते जा रहे भारत जैसे देश में ही हो रही है, भारतीय अभिजात्य के औपनिवेशिक आका रहे ब्रिटेन में भी नियमन को लेकर बहस तेज़ है. वहां लेवसन रिपोर्ट चर्चा का विषय बनी हुई है. भारतीय प्रेस परिषद के अध्यक्ष मार्कंडेय काटजू लेवसन रिपोर्ट का हवाला देते हुए द हिंदू अख़बार में एक लेख लिखकर किसी अधिकार संपन्न स्वायत्त संस्था से मीडिया नियमन की वक़ालत कर चुके हैं लेकिन कॉरपोरेट मीडिया के कर्ता-धर्ताओं को यह बात बिल्कुल भी क़बूल नहीं है.

मुनाफाखोर मीडिया घराने कितना नीचे गिर सकते हैं, अमेरिका और यूरोप के कई देशों का मीडिया इसका उदाहरण है. ब्रिटेन में कॉरपोरेट मीडिया सरदार रुपर्ट मर्डोक की न्यूज़ कॉर्प की ब्रिटिश कंपनी न्यूज़ इंटरनेशनल का अख़बार न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड का किस्सा इसका एक बड़ा उदाहरण है. अख़बार ने दो हज़ार दो के बाद पत्रकारिता के सारे मानदंड़ों का मखौल उड़ाते हुए ब्रिटेन के कई प्रभावशाली लोगों के फोन हैक कर उऩकी निजी बातचीत को रिकॉर्ड कर लिया था. इनमें ब्रिटेन के राज परिवार समेत कई सेलिब्रिटीज के फोन भी शामिल थे. इस बात का पता चलने पर अख़बार और मर्डोक की आलोचना होती रही है. न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड का पत्रकार क्लाइव गुडमैन 2007 में राज परिवार के सदस्यों के फोन मैसेज हैक करने के मामले में जेल की हवा खा आया है. अख़बार के पत्रकारों और निजी जासूसों की मिलीभगत देखकर आम जनता दंग थी, इसमें पुलिस वालों को घूस देने का मामला भी था. इन तमाम बातों के बावजूद रुपर्ट मर्डोक का कारोबार ब्रिटेन में बढ़ता ही जा रहा था लेकिन जैसे ही जुलाई 2011 में पता चला कि अख़बार ने कत्ल की गई स्कूली छात्रा मिली डॉवलर समेत लंदन बम धमाकों के एक शिकार का भी फोन सनसनीखेज़ ख़बरों के लिए टेप किया था तो लोग भड़क उठे. पूरे ब्रिटेन में हंगामा मच गया. परिणाम स्वरूप मर्डोक को 10 जुलाई 2011 को 168 साल से चला आ रहा अख़बार न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड बंद करना पड़ा. अब रुपर्ट मर्डोक और उसके बेटे पर भी अदालत में मामला चल रहा है.

न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड की घटना के बाद ब्रिटश मीडिया में अनियमितताओं की जांच के लिए प्रधानमंत्री डेविड कैमरून ने जुलाई 2010 में जस्टिस लेवसन के नेतृत्व में एक छह सदस्यीय जांच कमेटी गठित थी. इस कमेंटी ने नवंबर 2012 में अपनी  रिपोर्ट पेश की. 'एन एन्क्वायरी इनटू द कल्चर, प्रैक्टिसेज एंड इथिक्स ऑफ़ द प्रेस' नाम की यह रिपोर्ट दो हिस्सों में है. पहले हिस्से में ब्रिटिश कॉरपोरेट मीडिया के जनविरोधी व्यहार का अध्ययन करते हुए उसे सही तरह से संचालित कराने के लिए ठोस नियम बनाने की वकालत की गई है. दूसरे हिस्से में न्यूज़ ऑफ़ द वर्ल्ड वाले मामले की विशेष छानबीन की गई है, कोर्ट में मामला चलने की वजह से उसे अभी सार्वजनिक नहीं किया गया है.

लेवसन रिपोर्ट में मीडिया की नैतिकता को ध्यान में  रखकर एक स्वायत्तशासी और ज़्यादा अधिकार संपन्न आयोग बनाने की सिफ़ारिश की है, साथ ही प्रेस कंप्लेन कमिशन (पीसीसी) की जगह एक नयी नियामक संस्था बनाने पर ज़ोर दिया गया है. पीसीसी को ब्रिटेन में अख़बारों के प्रतिनिधियों ने मिलकर स्वनियमन के नाम पर बनाया हुआ है. लेकिन यह अब तक बिल्कुल भी कारगर साबित नहीं हुई है. इसकी  हालत कुछ-कुछ प्रकाशकों के प्रभाव वाली हमारे प्रेस परिषद जैसी है. भारतीय प्रेस परिषद की तरह इसे भी दंत विहीन संस्था माना जाता है. ब्रिटिश मीडिया में न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड की घटनाओं के बाद सरकार को मजबूर होकर इस बारे में बात करनी पड़ी. अब फिलहाल लेवसन रिपोर्ट पर वहां राजनीति गरमा रही है. विपक्ष जहां सारी सिफ़ारिशों को जस का तस मान लेने की बात कर रहा है वहीं सरकारी पक्ष कुछ बातों पर बहस करवाना चाहता है. लेकिन माना जा रहा है कि 2013 में वहां पर एक स्वायत्तशासी नियामक संस्था अस्तित्व में आ जाएगी जो सरकार और कॉरपोरेट के सीधे दखल से मुक्त होगी.

भारतीय मीडिया की हालत देखकर आज यहां भी एक स्वायत्तशासी नियामक संस्था बनाने का वक़्त आ चुका है. लेकिन इसके लिए पहली शर्त यही है कि कॉरपोरेट की ताक़त के ख़िलाफ़ एक जनमत तैयार हो और सरकार पर ऐसा करने के लिए ब्रिटेन की तरह ही दबाव पड़े. सिर्फ़ पिछले पांच साल की घटनाओं को ही देखें तो यहां कॉरपोरेट, मीडिया और राजनीति के गठजोड़ की पोल खोलता राडिया टेप कांड जैसा भयानक मामला सामने आया है जिसमें बरखा दत्त, वीर सांघवी, प्रभु चावला जैसे कई तथाकथित महान पत्रकारों की संदिग्ध भूमिका का पता चला. लेकिन व्यापक जन दबाव न होने की वजह से इस मामले में अब तक कोई ठोस जांच नहीं करवाई गई. राडिया टेप कांड के तमाम दागी लोग आज भी बड़ी बेशर्मी से पत्रकारिता कर रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि हमारे यहां उल्टी गंगा बह रही है, उद्योगपति रतन टाटा ने पोल खुलने पर निजी अधिकारों के हनन के नाम पर बाक़ी राडिया टेप सार्वजनिक होने पर ही कोर्ट से स्टे ले लिया. पेड न्यूज़ को लेकर प्रेस परिषद की सब कमेटी ने रिपोर्ट तैयार की और उसमें कई अख़बारों को दोषी पाया गया लेकिन मालिकों के प्रभुत्व वाली परिषद की कमेटी ने उस रिपोर्ट को पास नही किया. कोयला घोटाले में दैनिक भास्कर, इंडिया टुडे ग्रुप, प्रभात ख़बर और लोकमत जैसी मीडिया कंपनियों का जुड़ाव होने के बाद भी सरकार के कानों में जूं तक नहीं रेंगी. ज़ी न्यूज़ के संपादकों वाले मामले में भी अब तक कोई आधाकारिक जांच नहीं हो रही है.

उदारीकरण की नीतियां अपनाने के बाद भारत में निजी मीडिया का असीम विकास हुआ है. उद्योगपति पत्रकारिता का इस्तेमाल कर अपने बाक़ी धंधों को चमकाने के लिए मीडिया में पैसा लगा रहे हैं. परिणाम स्वरूप पत्रकारों का एक बड़ा हिस्सा उद्योगपतियों के दलाल या स्टैनोग्राफ़र में बदल गया हैं. इन हालात में यहां भी मीडिया के नियमन के लिए लेवसन आयोग की तरह एक जांच ज़रूरी है. देश के मीडिया की वस्तुस्थिति की जानकारी के लिए एक अधिकार संपन्न तीसरे प्रेस आयोग की स्थापना इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है, वशर्ते उसका हश्र पहले और दूसरे प्रेस आयोग की रिपोर्ट की तरह न हो. अगर इस तरह की पहलकदमी का जनदबाव बनता है कि इससे मालिकों की भाषा बोलने वाले बीईए के होश अपने आप ठिकाने आ जाएंगे. 




भूपेन पत्रकार और विश्लेषक हैं। 
कई न्यूज चैनलों में काम। अभी आईआईएमसी में अध्यापन कर रहे हैं। 
इनसे bhupens@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है। 

युद्धोन्माद से क्या हासिल होगा?

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-सत्येंद्र रंजन
सत्येन्द्र रंजन

 "...विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने इस समझ से किनारा कर लिया है। उसकी नेता सुषमा स्वराज ने एक भारतीय सैनिक के सिर के बदले दस पाकिस्तानियों के सिर काट लाने जैसा गैर-जिम्मेदार और युद्धोन्मादी बयान दिया। टीवी एंकरों ने तो जैसे युद्ध का एलान ही कर दिया। इसमें कांग्रेस पार्टी को शायद महसूस हुआ होगा कि राष्ट्रवादी जुनून का मुकाबला करना नुकसान का सौदा हो सकता है। संभवतः इसी कारण मनमोहन सिंह ने कहा कि पाक बलों द्वारा भारतीय सैनिक हेमराज का सिर काटकर ले जाने की घटना के बाद अब सब कुछ सामान्य ढंग से नहीं चल सकता।..."

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का पाकिस्तान के खिलाफ सख्त बयान देना सचमुच दुखद था। यह बात निसंदेह कही जा सकती है कि भारतीय जनता पार्टी और मीडिया (खासकर टीवी चैनलों) ने जो दबाव बनाया, यूपीए सरकार उसके प्रभाव में आ गई। वरना, प्रधानमंत्री देश को पूरे तथ्यों की रोशनी में भरोसे में लेते। तथ्य यह है कि नियंत्रण रेखा पर युद्धविराम टूटने के कारण दोनों देशों के सैनिक मारे गए हैं। युद्धविराम टूटने की नौबत क्यों आई, इसे मालूम करने का सबसे उचित तरीका दोनों देशों के बीच संवाद ही है। यह ठीक है कि पाकिस्तान के संदर्भ में यह पहेली हाल में और उलझ गई है कि वहां किससे बात की जाए? वहां की राजनीतिक सत्ता का वैसे भी कभी फौज पर नियंत्रण नहीं रहा। लेकिन हाल में न्यायपालिका और कट्टरपंथी ताकतों ने राजनीतिक नेतृत्व को अप्रसांगिक करने की मुहिम और तेज कर दी है। इसके बावजूद जो नेतृत्व मौजूद है, उससे संवाद के तार जोड़े रखने के अलावा कोई और बेहतर विकल्प नहीं है।

यह बात खुद मनमोहन सिंह कहते रहे हैं। प्रगतिशील जमातों में उनके विरोधी भी पाकिस्तान और चीन के बारे में उनकी सयंम और दूरदृष्टि भरी समझ की तारीफ करते हैं। पाकिस्तान के बारे में डॉ. सिंह की समझ रही है कि हम चूंकि दोस्त चुन सकते हैं, लेकिन पड़ोसी नहीं- और पाकिस्तान हमारा पड़ोसी है, इसलिए उससे संपर्क और संबंध रखने के अलावा कोई और चारा नहीं है। जिन दिनों भारत और पाकिस्तान के बीच कश्मीर मसले पर सहमति बनने के संकेत मिले थे, उस समय उसका आधार डॉ. सिंह की यह मान्यता थी कि दक्षिण एशिया में सीमाएं फिर से नहीं खीची जा सकतीं, लेकिन सीमाओं को अप्रासंगिक जरूर किया जा सकता है। इस समझ के साथ मनमोहन सिंह ने भारत की पाकिस्तान नीति को निश्चित और सही दिशा प्रदान की। उसी का परिणाम है कि दोनों देशों की जनता के बीच रिश्तों को निरंतरता और मजबूती मिली है।     

आजपाकिस्तान के बारे में मनमोहन सिंह की यही लाइन खतरे में है। बल्कि कहा जा सकता है कि रिश्तों में सुधार की प्रक्रिया पटरी से उतर गई है। अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में नियंत्रण रेखा पर लागू हुआ युद्धविराम बार-बार उल्लंघनों के कारण गहरे दबाव में है। जबकि भारत-पाक संबंधों को सुधारने की दिशा में इसको सबसे ठोस उपलब्धि माना जाता है। 2001में संसद पर हमले के बाद एनडीए सरकार ने ऑपरेशन पराक्रम के दौरान पाकिस्तान पर सैनिक दबाव बढ़ाने की नीति अपनाई थी। लेकिन भारत उससे वांछित परिणाम हासिल नहीं कर पाया। तब अटल बिहारी वाजपेयी ने पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथबढ़ाया। प्रधानमंत्री की कुर्सी पर रहते हुए वाजपेयी को यह बात समझ में आई कि एक परमाणु हथियार संपन्न पड़ोसी के साथ बातचीत के जरिए रिश्तों में यथासंभव सुधार के रास्ते पर चलना ही माकूल नीति है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा ने इस समझ से किनारा कर लिया है। उसकी नेता सुषमा स्वराज ने एक भारतीय सैनिक के सिर के बदले दस पाकिस्तानियों के सिर काट लाने जैसा गैर-जिम्मेदार और युद्धोन्मादी बयान दिया। टीवी एंकरों ने तो जैसे युद्ध का एलान ही कर दिया। इसमें कांग्रेस पार्टी को शायद महसूस हुआ होगा कि राष्ट्रवादी जुनून का मुकाबला करना नुकसान का सौदा हो सकता है। संभवतः इसी कारण मनमोहन सिंह ने कहा कि पाक बलों द्वारा भारतीय सैनिक हेमराज का सिर काटकर ले जाने की घटना के बाद अब सब कुछ सामान्य ढंग से नहीं चल सकता।

नियंत्रणरेखा पर तनाव के परिणामस्वरूप बुजुर्ग नागरिकों के भारत आने पर तुरंत वीजा देने की योजना रोक दी गई है। हॉकी इंडिया लीग में आए नौ पाकिस्तानी खिलाड़ियों को वापस भेज दिया गया। भारत में होने जा रहे महिला क्रिकेट विश्व कप में पाकिस्तानी टीम के खेलने को लेकर भी असमंजस है। यह सच है कि नियंत्रण रेखा पर बढ़ते तनाव को लेकर विपक्ष, पाक विरोधी संगठनों और मीडिया के एक हिस्से की तरफ से दबाव बढ़ाने के बावजूद भारत सरकार ने पर्याप्त समय तक संयम बरता। लेकिन अंततः यह टूट गया।  

यहअच्छी बात है कि उसके बाद दोनों देशों की सेना ने युद्धविराम पर सख्ती से अमल का इरादा जताया है। पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी खार ने भारतीय विदेश मंत्री से बातचीत की इच्छा जताई है। बेहतर कि भारत इस पेशकश को स्वीकार कर ले। मनमोहन सिंह अपनी एक बड़ी उपलब्धि को बेकार जाने दें और अपनी आस्था पर समझौता कर लें, तो उससे युद्धोन्मादी तत्वों को भले खुशी हो, लेकिन भारत की जनता का हित नहीं सधेगा। मनमोहन सिंह को इस बात का श्रेय है कि अटल बिहारी वाजपेयी ने व्यावहारिक सीख हासिल करने के बाद दोस्ती का जो हाथ पाकिस्तान की तरफ बढ़ाया था, उसे उन्होंने और विस्तार दिया। 26/11 हमले के बाद इसमें रुकावट आई। मगर मनमोहन सिंह इस समझ पर कायम रहे कि पाकिस्तान से बातचीत के अलावा कोई और विकल्प नहीं है। इसके अच्छे परिणाम व्यापार और जनता के स्तर पर बढ़े संपर्कों के रूप में सामने आए हैं। यह भी सच है उससे पाकिस्तानी सत्ता तंत्र में अंतर्निहित भारत विरोध के भाव को कमजोर करने में मदद नहीं मिली है। संसद पर हमले के बाद वाजपेयी और मुंबई पर हमले के बाद डॉ. सिंह की सरकार को बातचीत के रास्ते पर इसीलिए लौटना पड़ा था कि बाकी विकल्पों से कुछ हासिल नहीं हो सका। आज भी इस ठोस भू-राजनीतिक परिस्थिति में कोई बदलाव नहीं हुआ है।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

अयोध्या में 'राम के नाम पर' अफवाह फैला रहे हैं अखबार!

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शाहआलम


"...अख़बार ABVP के हवाले से अपने पाठकों को बताते हैं कि 'राम के नाम' काल्पनिक फिल्म है, अयोध्या का नाम इस्लामपुरी है जिसे बाबर ने बसाया है, इसमें हिन्दू देवी-देवताओं, धर्मग्रंथों, हिन्दुओं का अपमान किया गया है, प्रभु राम का अस्तिस्त्व नहीं है, रामचरित मानस मनगढ़ंत है, भारतीय महापुरुषों पर अभद्र टिप्पणी की गई है, भारतीय संस्कृति के खिलाफ हमला किया गया है, सनातन सभ्यता के खिलाफ षडयंत्र किया गया है, फेस्टिवल के दौरान इसे दिखा कर सांप्रदायिकता भड़काने का प्रयास किया गया है..."




फैजाबाद के हिंदी प्रिंट मीडिया का एक बड़ा हिस्सा अपनी पेशागत नैतिकताओं के विपरीत निहायत गैरजिम्मेदाराना, पक्षपाती, शरारती, षडयंत्रकारी,सांप्रदायिक और जनविरोधी हो चला है। वह अपनी विरासतों/नीतिगत मानदंडों का खुल्लमखुल्ला उलंघन करने पर उतारु है। जनपद में घटी हाल की घटनाओं पर हुई रिपोर्टिंग से उसकी इसी नियत/ चरित्र का पता चलता है। इन अख़बारों ने विगत 23 जुलाई में मिर्ज़ापुर गांव की घटना, 21 सितंबर देवकाली मूर्ति चोरी प्रकरण, 13 अक्टूबर को मूर्ति बरामदगी आंदोलन में भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ के कूदने और 24 अक्टूबर को मूर्ति विसर्जन के दौरान हुए फसाद के आस-पास क्या-क्या गुल नहीं खिलाए? जिसे देखकर आप माथा पीट लेंगे। भारतीय प्रेस परिषद द्वारा गठित शीतला सिंह कमीशन को तथ्य/ रिपोर्ट मुहैया करा देना इन अख़बारों को बहुत नागवार गुज़रा। अपनी करतूतों को देख बौखलाए ये सम्मानित अख़बार सांप्रदायिक खुन्नस निकालने लगे।

ताज़ा मामला काकोरी कांड के नायक अशफाकउल्ला खां और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल के शहादत दिवस पर हुए तीन दिवसीय छठे अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के समापन के बाद ऐसी साजिश देखने को मिली। 21 दिसंबर को फिल्म उत्सव का समापन हुआ। 22 दिसंबर को भारतीय जनता पार्टी के छात्र संगठन अखिल भारतीय विधार्थी परिषद ने फिल्म फेस्टिवल के खिलाफ हमला बोल दिया। अख़बार भी भय, भ्रम और दहशत फ़ैलाने में ABVP का प्रवक्ता बन बैठा।


23दिसम्बर राष्ट्रीय सहारा में दो कॉलम की खबर छापी 'विधार्थी परिषद ने किया महाविद्यालय में प्रदर्शन' अयोध्या फिल्म फेस्टिवल का किया विरोध’। दैनिक जागरण का शीर्षक था 'फिल्म फेस्टिवल में महापुरुषों का हुआ अपमान'। हिंदुस्तान ने फोटो के साथ दो कॉलम की खबर छापी 'फिल्म फेस्टिवल के खिलाफ प्रदर्शन'। अख़बारों ने खूब अफवाह फैलाई लेकिन इस मामले में फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन का बयान नहीं छापा, न ही लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की आवाज उठाने वालों की प्रतिक्रिया। 10 जनवरी को राष्ट्रीय सहारा फोटो के साथ तीन कॉलम की 'फिल्म फेस्टिवल के विरोध में छात्रों का प्रदर्शन' हिंदुस्तान भी फोटो के साथ तीन कॉलम 'अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के विरोध में प्रदर्शन' छापता है। अमर उजाला को भी पीछे हो जाना गवारा नहीं। 10 जनवरी को अख़बार लिखता है 'अयोध्या पर की गई थी आपत्तिजनक टिप्पणी', 'फेस्टिवल में प्रदर्शित फिल्म के विरोध में छात्रों का प्रदर्शन’ 'राम के नाम' फिल्म को लेकर शुरू हुआ विवाद' फोटो के साथ दो कॉलम की खबर छापी। लेकिन 10 जनवरी को ही आनंद की प्रेस नोट इन अख़बारों को भेजी जाती है। बयान देखकर मना कर दिया जाता है। 14 जनवरी को जस्टिस सच्चर, पूर्व आईजी एस आर दारापुरी, मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित डॉक्टर संदीप पांडे, लेखक डॉ प्रेम सिंह आदि की प्रतिक्रिया भी दबा दी गई।

अयोध्या/ फैजाबाद का माहौल पहले से ही संवेदनशील है। 22साल पुरानी फिल्म 'राम के नाम' जिसे सेंसर बोर्ड का सर्टिफिकेट मिला है। भारत सरकार ने इस फिल्म को राष्ट्रीय पुरस्कार दिया है, इतना ही नहीं उच्च न्यायालय के आदेश पर इसे दूरदर्शन पर प्राइम टाइम में दिखाया जा चुका है। वैसे भी आनंद की फिल्मों को दुनिया की बेहतरीन फिल्मों में रखा जाता है।
अख़बार ABVP के हवाले से अपने पाठकों को बताते हैं कि 'राम के नाम' काल्पनिक फिल्म है, अयोध्या का नाम इस्लामपुरी है जिसे बाबर ने बसाया है, इसमें हिन्दू देवी-देवताओं, धर्मग्रंथों, हिन्दुओं का अपमान किया गया है, प्रभु राम का अस्तिस्त्व नहीं है, रामचरित मानस मनगढ़ंत है, भारतीय महापुरुषों पर अभद्र टिप्पणी की गई है, भारतीय संस्कृति के खिलाफ हमला किया गया है, सनातन सभ्यता के खिलाफ षडयंत्र किया गया है, फेस्टिवल के दौरान इसे दिखा कर सांप्रदायिकता भड़काने का प्रयास किया गया है ...... (न्यायधीश की भूमिका में बैठे इन अख़बारों को मालूम है कि 6 सालों से अयोध्या फिल्म फेस्टिवल 'अवाम का सिनेमा' अशफाक/बिस्मिल शहादत दिवस पर हर साल होता है इनके पास फिल्म उत्सव की छपी विवरणिका दो बार भेजी जाती है. आरॊप पत्र तय करने से पहले इसे पढ़ लेना चाहिए था)

'अवामका सिनेमा' 7 सालों से देश के कई हिस्सों में ऐसे आयोजन बगैर किसी स्पोंसर के हमख्याल दोस्तों के बल पर करता है। आज के दौर में जब मीडिया जनसरोकारों से विमुख हो गया है। बेलगाम पूंजी कॉरपोरेट मीडिया और सिनेमा में उढ़ेल कर नियंत्रित की जा चुकी हो। आम आदमी की उनके दफ्तर में घुसने की मनाही हो चुकी है तब ऐसे आयोजन जरुरी  लगते हैं। आपसे विनम्र निवेदन है कि आप प्रतिरोध की परम्परा के सचेत वारिस हैं। अयोध्या फिल्म फेस्टिवल के खिलाफ फैलाई जा रही अफवाह का सामना करें। सच्चाई से जनता को रूबरू कराएँ।

शाह आलम 'आवाम का सिनेमा' के कन्वेनर हैं. 
पेशा, पत्रकारिता और फिल्म निर्माण. 
ayodhyafilmsociety@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है. 

एनएसडी का ‘ड्रामा’ और ‘यह गुस्ताख कौन है'?

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Rohit Joshi

रोहित जोशी

-रोहित जोशी

"...एनएसडी ने मंटो का सम्मान किया या अपमान? क्या एनएसडी और भारंगम से जुड़े लोगों/कलाकारों को यह नहीं सोचना चाहिए? और क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि एनएसडी द्वारा लिए गए इतने अलोकतांत्रिक फैसले के बाद भी भारंगम इतनी निर्बाध गति से क्यों चलता रहा? इस फैसले के विरोध में क्यों कलाकार सड़क पर नहीं उतरे और किसी अन्य थियेटर ग्रुप ने इस फैसले का विरोध करते हुये भारंगम का बॉयकॉट क्यों नहीं किया?..."

यूंतो, एनएसडी द्वारा भारंगम (भारत रंग महोत्सव) में प्रस्तावित इस नाटक का मंचन रद्द कर दिए जाने के निर्णय के बाद भी, जिस तरह शहर के प्रगतिशील लोगों के प्रयासों से इसका मंचन हो पाया, यह संदर्भ ही अपने आप में बहुत महत्वपूर्ण हो गया है. लेकिन नाटक भी कम महत्वपूर्ण नहीं था. नाटक पर हम ज़रूर बात करेंगे, लेकिन पहले इस घटना की परिधि के कुछ सवालों पर भी बात करते चलें.

एनएसडी के कला-सरोकार और ‘कौन है यह गुस्ताख?’

नसीम अब्बास 
तथाकथिततौर पर प्रगतिशील मानी जाने वाली इस संस्था नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा के असल कला सरोकार इस घटना के साथ सामने आ गए हैं. इसके प्रबंधन की ज़वाबदेही, कला या कला सरोकारों के प्रति कतई नहीं है जबकि सरकार और उसके इशारों के प्रति है. यह सिर्फ एनएसडी की ही बात नहीं है दरअसल सारे ही सरकारी संस्थानों का ढांचा ऐसी ही विवेकहीन चापलूसी की बुनियाद पर खड़ा है, जो सरकारी पुतली के इशारों पर ही काम करते हैं.


पिछलेदिनों सीमा पर बढ़े तनाव के बाद से भारत-पाक संबंधों में जो खट्टास आई है, उसी का खामियाजा पाकिस्तान के थियेटर ग्रुप ‘अजोका’ को भुगतना पड़ा. भारंगम में मंचन के लिए बुलाए गए इनके नाटक ‘कौन है यह गुस्ताख’ को एनएसडी ने रद्द कर दिया. गजब यह है कि इस नाटक का गुस्ताख, ‘सआदत हसन मंटो’ था. वही मंटो, जिसके जन्मशताब्दी वर्ष पर ही एनएसडी ने इस बार के भारंगम को उसे ही समर्पित किया था.

यह तो ‘मंटो’ का अपमान था

एनएसडीने मंटो का सम्मान किया या अपमान?क्या एनएसडी और भारंगम से जुड़े लोगों/कलाकारों को यह नहीं सोचना चाहिए? और क्या यह प्रश्न नहीं उठता कि एनएसडी द्वारा लिए गए इतने अलोकतांत्रिक फैसले के बाद भी भारंगम इतनी निर्बाध गति से क्यों चलता रहा? इस फैसले के विरोध में क्यों कलाकार सड़क पर नहीं उतरे और किसी अन्य थियेटर ग्रुप ने इस फैसले का विरोध करते हुये भारंगम का बॉयकॉट क्यों नहीं किया?

जनता के लिए ‘नाटक भी, दर्शक भी' जनता ही जुटाती है

खैर! एनएसडी, इस नाटक के लिए ‘कमानी थियेटर’ में मुश्किल से २०० दर्शक ही जुटा पाता. लेकिन जब शहर के प्रगतिशील लोगों ने तत्काल इस नाटक को एनएसडी से इतर कराने की ठानी, तो तकरीबन हज़ार लोग इसे देखने जुटे. एक ही शाम में दो बार भावविभोर होकर पाकिस्तानी कलाकारों ने इसका मंचन किया. शाम ६ बजे से तुलनात्मक रूप से छोटे ‘अक्षरा थियेटर’ में पहला मंचन हुआ. बड़ी मुश्किल से १०० से १५० लोग ही इस थियेटर में अटा पाए. आयोजकों को ज्यादा की भीड़ को जगह की कमी के चलते बाहर से ही वापस लौटाना पड़ा. इसके बाद देर शाम जेएनयू के कन्वेंसन हॉल में नाटक का फिर मंचन किया गया. तकरीबन ५०० की क्षमता वाले खचाखच भरे इस हॉल में कुर्सियों के अलावा सैकड़ों दर्शकों को खड़े-खड़े ही नाटक देखना पड़ा. 

निर्देशक-मदीहा गौहर

कौन है यह गुस्ताख?

मोटेतौर पर ‘अजोका’ थियेटर के इस नाटक ‘कौन है यह गुस्ताख’ की बुनावट भरपूर कसी हुई थी, संवाद मज़बूत और प्रभावी थे, और अक्सर ही कलाकारों का अभिनय आकर्षित कर रहा था. भारत/पाक के आजाद होते ही अपना पुराना शहर बॉम्बे छोडकर लाहौर चले आने की गुलामी झेले मंटो के, विस्तृत जीवन की विषम परिस्थितियां, बजबजाते यथार्थ से उपजे उनके सटीक दर्शन और बेबाक, प्रतिबद्ध रचनाकर्म के कठोर अंतर्द्वंदों को दिखाने में नाटक कुछ हद तक सफल होता है.

नाटकका बड़ा हिस्सा मंटो के पाठक रह चुके दर्शकों के सामने ही, असल अर्थों में खुलता है. संभवतः जिसने मंटो को ना पढ़ा हो वो इस नाटक के एक बड़े हिस्से को समझे ही ना. दरअसल नाटक की निर्देशक/नाटककार मदीहा गौहर ने इस नाटक की कहानी को मंटो की कहानियों के छोटे-छोटे नाट्यरूपों में ही गुंथा है. ठंडा गोस्त, खोल दो, टोबा टेकसिंह सरीखी कहानियों को यहाँ चुना गया है.

अपनीरचनाओं में बार-बार उभरकर आते ‘नारीवादी मंटो’ की एक प्रतिछवि को नाटककार ने एक महिला के किरदार के ज़रिये दिखाया है. जो बार-बार ‘सआदत हसन’ से मिलने आती है और ‘मंटो’ से उलझती है, उसे टटोलती है, उसकी पड़ताल करती है और उसे सृजन की प्रेरणा देती है. नाटक का यह ‘किरदार’ अद्भुत बन पड़ा है. इस किरदार को निभाने वाली अभिनेत्री ‘’ का अभिनय सशक्त है. वह अपने साथी कलाकारों पर भारी पड़ती दिखती है.

“क्यातुमने कभी किसी अनचाही छुअन को किसी महिला की मनःस्थिति में जाकर महसूस किया है?” नाटक के एक दृश्य में मंटो अपने एक समकालीन रचनाकार से संवाद में उक्त बात कहते हैं (वहां संवाद उर्दू में था. शब्द हूबहू ये नहीं रहे होंगे लेकिन उसके भाव का यही तर्जुमा है.) मंटो यह बात इस लेखक के इस सवाल का ज़वाब देते हुये कहते हैं कि वे स्थापित नैतिकताओं और मर्यादाओं का परहेज किये बगैर इतना विवादास्पद क्यों लिखते हैं, जिससे समाज में उनकी स्वीकार्यता नहीं हो पाती?

मंटोकी यह बात मंटो के सृजनकर्म पर लगे फूहड़ता और अश्लीलता के सारे आरोपों को जबरदस्त तमाचा रसीदती है. दरअसल मंटो बार-बार इमानदारी से उस छुअन को महसूसते हैं और उतनी ही इमानदारी से, पुरुषवादी लिजलिजी नैतिकताओं की ओढ़नी के बगैर ही, इससे जुड़े यथार्थ को नग्न रूप में ही पाठकों के सामने ला पटकते हैं. नाटक में प्रयुक्त मंटो की नारीरूपी प्रतिछवि उनके उसी छुअन को महसूस करने को दर्शाती है. नाटककार/निर्देशक इस हिस्से में सबसे ज्यादा सफल नज़र आती हैं.   

इसनाटक में, आज़ादी के बाद के पाकिस्तान के अंतर्द्वंदों की आलोचनात्मक पड़ताल भी है और व्यंग्यात्मक दृश्यों की मार भी. हिन्दी सिनेमा के सितारे रहे श्याम और मंटो की गहरी मित्रता के आत्मीय प्रसंगों को नाटक में शामिल कर भारत-पकिस्तान की राजनीतिक सीमा के दोनों ओर घुट रहे कई दोस्तों का एक रेखाचित्र भी खींचा गया है. मंटो की कहानियों के लिए उन पर चले मुकदमों को भी नाटक में शामिल किया गया है जिसमे वे मजबूती से अपना पक्ष रखते हैं. पूरा नाटक, बेकग्राउंड में चलते, १९४९ में आई हिंदी फिल्म ‘दुलारी’ में, लता मंगेशकर द्वारा गाये गए गाने, ‘कौन सुने फ़रियाद हमारी’ के मधुर संगीत में पिरोया गया है.

अदालतमें फैज अहमद फैज के साथ के एक संवाद में अस्पष्टता या कहें कि एक तरफ़ा बयानी के अलावा नाटक में सामान्यतः कुछ भी आपत्ति जनक नहीं है. लेकिन नाटक का सबसे कमजोर पक्ष आपके सामने तब खुलता है, जब आप नाटक की तुलना खुद मंटो के सृजनकर्म से करने की गुस्ताखी करें. नाटक में पिरोई गई मंटो की कहानियों का नाट्यरूप, ‘मंटो’ की अभिव्यक्ति के सबसे सशक्त बिंदु पर फीका पड़ जाता है. (बहरहाल ‘ठंडा गोस्त’ को अभिनयकर्ता, फिर भी जी गए हैं) कहानियों का नाट्यरूप उन जगहों पर जा कर मारक नहीं हो पाता जहाँ कहानियों में मंटो ने उसे धारदार बनाया है. यह समाज की गढ़ी हुई पुरुषसत्तात्मक नैतिकताओं की सीमाओं को नहीं लांघ पाता, जो कि मंटो के रचना कर्म का मूल बिंदु है. ‘खोल दो’ कहानी के नाट्यरूपांतरण में एक प्रयोग जरूर है. तकरीबन पूरी कहानी को मंटो मंच में ही नरेटर की तरह पढ़ता चला जाता है और सहायक अभिनयकर्ताओं का एक दल कथावाचन से लयबद्ध होकर अभिनयरत है. लेकिन वही सीमा यहाँ भी खटकती है कि इसमें भी सीमाएं नहीं लांघी जा सकी हैं.     

नाटकमें मंटो का किरदार ‘नसीम अब्बास’ ने निभाया है. तकरीबन डेढ़ घंटे के इस नाटक में ‘नसीम’ लगातार मंच पर रहते हैं और लंबे-लंबे संवादों को बखूबी निभाते हैं. अक्षरा और फिर जेएनयू, लगातार ही उन्होंने इस नाटक का दो जगह मंचन किया है. उनकी क्षमताएं काबिले तारीफ़ हैं. उनका अभिनय शानदार है. अन्य किरदार भी नाटक में अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाते दिखते हैं.

नाटकके बाद दर्शकों की अनवरत तालियों की गूँज के बीच ही कलाकारों की आँखें छलक उठती हैं. मंच से निर्देशक बोलती हैं कि अगर वे यह नाटक न कर पाते तो बहुत टूटे दिल से वापस लौटना होता. लेकिन एनएसडी में इसे रद्द किये जाने के बावजूद जितने उत्साह से भारत के लोगों ने इसका मंचन करवाया है इससे वे गदगद हैं. यहीं भविष्य में शान्ति और मुहब्बत की उम्मींद है.

रातके डेढ़ बजे हम नाटक देखकर जेएनयू कन्वेंसन सेंटर से बाहर निकलते हैं. पेड़ों-झाडियों से घिरा सर्पीला रास्ता हमें गंगा ढाबे की तरफ ले चलता है. मंटो की गुस्ताख कहानियों की स्मृतियाँ, एक नाटक के गुस्ताखी भरे मंचन के दृश्यों के साथ दिमाग में तैर रही हैं. लता मंगेशकर की आवाज कानों में गूँज रही है, “कौन सुने फ़रियाद हमारी... कौन सुने फ़रियाद.” 


(इस पोस्ट में अभिषेक श्रीवास्तव की तस्वीरोग्राफी प्रयोग की गई है. उनकी फेसबुक वॉल से साभार)

वामपंथी राजनीति के असमंजस

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-अभिनव श्रीवास्तव
http://3.bp.blogspot.com/-AIIN6gqVHEA/Tl4QCHya8BI/AAAAAAAAABQ/EEnmnKEnH1g/s1600/abhinav.jpg
 अभिनव श्रीवास्तव

 "...यह आश्चर्य की बात है कि इन आंदोलनों से जुड़े वामपंथी दल अपनी राजनीतिक स्थिति और अपनी राजनीति की दिशा का संतुलित मूल्यांकन नहीं कर पाने के चलते यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन कोशिशों में उनकी राजनीतिक स्थिति का फर्क धुंधला होता जा रहा है और कई मौकों पर वह कई किस्म की प्रतिक्रियावादी धाराओं के साथ गुथा हुआ नजर आता है।..." 

गर कुछ हद तक सरलीकरण का जोखिम उठाकर यह मान लिया जाये कि प्रत्येक आंदोलन राज्य व्यवस्था के प्रति कायम किसी असंतोष की उपज होता है और इसी की अभिव्यक्ति होता है, तो बीते एक साल में राष्ट्र स्तर पर उभरे आन्दोलनों और जनअसंतोष की उपलब्धियों और उसके देश की राजनीति पर इसके चलते पड़े प्रभावों पर एक सार्थक बहस करने की गुंजाइश बराबर बनी हुई दिखायी पड़ती है। 



इनआन्दोलनों और विमर्शों के साथ जुड़ी हुयी सबसे खास बात यह थी कि देश की जनतांत्रिक और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं के प्रति उदासीन रहने वाले शहरी मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा इनके इर्द-गिर्द गोलबंद हुआ और सार्वजनिक दायरों की बहसों में प्रतिभाग करता नजर आया। वाम धारा के राजनीतिक दलों और प्रगतिशील जमात के लिए इन आन्दोलनों का उभार उलझन और किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति पैदा करने वाला रहा। आम तौर पर जल, जंगल जमीन की लड़ाइयों और वंचित तबकों की आवाजों को राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिनिधित्व प्रदान करने का दावा करने वाले वाम दलों के बीच आरंभ में इन मुहिमों को राजनीतिक समर्थन देने के लिए हिचकिचाहट का भाव रहा, लेकिन इन आन्दोलनों की तीव्रता और धमक बढ़ने के साथ ही सभी दल इन आन्दोलनों के साथ खड़े नजर आये। 

मुख्यधारा में और इससे इतर कई छोटे-बड़े औपचारिक वाम संगठनों ने इन मौकों अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने को विकल्प के तौर पर चुना और लगातार इन आन्दोलनों से जुड़े अंतर्विरोधों की ओर ध्यान दिलाया और उनके प्रति आलोचनात्मक रुख अख्तियार किया। चूंकि मुख्य धारा के वामपंथी दलों ने मध्य वर्ग की भीतर अपनी राजनीति तलाशने की कोशिश की इसलिये इन दलों के भीतर खुद एक तरह की बेचैनी और उथल-पुथल का माहौल दिखा, लेकिन इन दलों का नेतृत्व अपनी दृष्टि और समझ के आधार पर आंदोलनों के साथ खड़े रहने के फैसले पर कायम रहा. इस दौरान इन मुहिमों के अंतर्विरोधों और इनके प्रति आलोचनात्मक रवैये को इन आन्दोलनों को कमजोर करने वाली कोशिशों के रूप में देखा गया। ऐसा आग्रह उन सभी वामपंथी दलों की राजनीति पर हावी दिखता है जो इन मुहिमों के साथ खड़ी थीं। लेकिन क्या किसी आंदोलन की दिशा और उसकी राजनीति पर किसी भी किस्म की आलोचना की गुंजाइश को खत्म कर देना ठीक है? ये स्थिति खतरनाक है और इस तरह के आग्रह पर बातचीत करना इस वक्त की एक बड़ी जरुरत है।

रायसीनाहिल पर जुटा आंदोलन कई वजहों से सार्थक था क्योंकि इसने कई मायनों में राज्य द्वारा किये जा रहे दमन के प्रति चुपचाप और अवसरवादी नजरिये के बरक्स एक प्रतिसंस्कृति और प्रतिरोध का माहौल पैदा किया। कई विश्लेषकों ने इस बात को रेखांकित किया कि इस आन्दोलनों में गोलबंद होने वाले युवा वर्ग ने किसी नेतृत्व को नहीं तलाशा। इस आंदोलन में वास्तव में कई ऐसी संभावनाये तलाशी जा सकती थीं और उन संभावनाओं को सही दिशा देकर न सिर्फ सरकार को उसकी जवाबदेही की भूमिका के दायरे में अधिक जिम्मेदार बनाया जा सकता था बल्कि उसकी वैधता पर कई तरह के बुनियादी सवाल भी लगाए जा सकते थे। 


उदाहरणके तौर पर सामूहिक बलात्कार के इस घटना के बाद उपजे विमर्श में महिलाओं के यौनिकता के शोषण की चर्चा बहुत हुयी और यह होनी भी चाहिये, लेकिन इसके साथ-साथ श्रम के स्तर पर जारी महिलाओं के शोषण की बहस को भी आगे बढ़ाया जा सकता था। इस बात को उठाने का मकसद यहां किसी भी तरह से यौनिकता के जारी शोषण की बहस को धुंधला बनाना नहीं है लेकिन जब तक इस बहस में महिलाओं के श्रम के स्तर पर जारी शोषण को नहीं जोड़ा जायेगा, तब तक महिला शोषण के खिलाफ राष्ट्र स्तर पर बने विमर्श के उस माहौल को व्यापक रंग प्रदान नहीं किया जा सकेगा और न ही ऐसे मामलों का सन्दर्भ लेने की कोई गुंजाइश बचेगी जिसमें स्वयं राज्य व्यवस्था दोषी पायी गयी हो।

ठीकइसी तरह जब गृह मंत्री सुशील कुमार शिंदे ने दिल्ली में हुई घटना के बाद निजी बस चालकों पर निगरानी रखने और उनके संबंध में जानकारी रखने जैसी घोषणा की तो बसों के बढ़ते निजीकरण पर सवाल उठाकर सरकार द्वारा अबाध गति से आगे बढ़ायी जा रही निजीकरण की नीति पर भी सवाल उठाये जाने चाहिये थे। इस तरह की कई संभावनायें इस मुहिम में तलाशी जा सकती थीं। लेकिन इस स्तर पर इस आंदोलन से हासिल हुयीं उपलब्धियों का मूल्यांकन करें तो यह लगता है कि इस मौके पर भी इन आंदोलनों में अपने राजनीतिक विस्तार की संभावनाएं तलाश रहे वामपंथी दल अपनी भूमिका का सही तरह से निर्वाह करने से चूक गये हैं। 

इसभूमिका का सही तरह से निर्वाह नहीं कर पाने के चलते सरकार जहां एक तरफ अपने आपको आंतरिक वैधता के संकट से बचा पाने में सफल हो गयी है वहीं दूसरी तरफ कई किस्म की प्रतिक्रियावादी धाराओं और ताकतों को भी खुद को मजबूती से स्थापित और संगठित हो जाने का मौका मिल गया है।

यहांयह रेखांकित करना जरूरी हो जाता है कि शुरुआत से ही इन प्रतिक्रियावादी मांगों के पक्ष में बनते चले गये माहौल और कानूनी दायरों में पूरे विमर्श को धकेल देने की कोशिशों ने सरकार को कई तरह के कानूनों में मन-मुताबिक़ फेरबदल करने का मौका उपलब्ध करा दिया है। पिछले दिनों बाल विकास मंत्री कृष्ण तीरथ ने सामूहिक बलात्कार में शामिल सत्रह वर्षीय किशोर को सामान्य अपराधी की तरह सजा दिलवाने के लिये किशोर न्याय बाल सुरक्षा अधिनियम 2000 में संशोधन करने की जो बात कही, वह ऐसी ही कोशिशों का नतीजा है। अगर सरकार इस अधिनियम में संशोधन करने में सफल हो जाती है तो यह देश में बाल अधिकारों के लिये लंबे संघर्ष के बाद हासिल की गयी उपलब्धि को नुकसान पहुंचाने वाला होगा। 

यहआश्चर्य की बात है कि इन आंदोलनों से जुड़े वामपंथी दल अपनी राजनीतिक स्थिति और अपनी राजनीति की दिशा का संतुलित मूल्यांकन नहीं कर पाने के चलते यह नहीं देख पा रहे हैं कि इन कोशिशों में उनकी राजनीतिक स्थिति का फर्क धुंधला होता जा रहा है और कई मौकों पर वह कई किस्म की प्रतिक्रियावादी धाराओं के साथ गुथा हुआ नजर आता है। ऐसे में न तो वे मौजूदा जनतांत्रिक राजनीति के विकास क्रम को आगे ले जाने में सहयोगी नजर आते हैं और न ही वर्तमान व्यवस्था के बुनियादी संकटों पर कोई निर्णायक सवाल खड़े करते नजर आते हैं। सच तो यह है कि न सिर्फ इन आंदोलनों में और बल्कि मुख्य धारा से अलग चल रहे जल, जंगल जमीन के आंदोलनों और संघर्षों में भी वामपंथी राजनीतिक दलों ने जैसे अवस्थिति अपनायी है, वह उनकी ऐतिहासिक छवि से एकदम मेल नहीं खाती है।

ऐसेमें यह सवाल बहुत अहम हो जाता है कि मुख्य धारा से कटे हुए वर्गों और समूहों के संघर्षों को प्रतिनिधित्व देने का दावा करने वाले इन राजनीतिक दलों की जवाबदेही कैसे तय की जाये? दरअसल बीते वर्षों में मुख्य धारा के वामपंथी दलों की राजनीति पर देश की सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों पर कोई प्रभावी हस्तक्षेप कर अवसर पैदा करने से ज्यादा अवसरों को पकड़ने और उनके फौरी परिणामों को ध्यान में रखकर अपनी स्थिति तय करने का नजरिया हावी होता चला गया है। यह बदलाव अपने आप में वैकल्पिक राजनीति की उम्मीदों को तोड़ने वाला साबित हो रहा है।



अभिनव पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से. 
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम. अभी स्वतंत्र लेखन. 
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है.

गंगनम, मोमो और पनीर-मोमो!

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विधांशु कुमार

-विधांशु कुमार

'गंगनम' कहने लगा तुम दिल्ली वाले भी हर चीज़ में पनीर डाल देते हो- पनीर-परांठा तो समझ में आता है - ये पनीर-डोसा, पनीर-बिरयानी, पनीर-अप्पम क्या चीज़ है? पनीर का नाम सुनकर मेरे मुंह में पानी आ गया लेकिन जिस तरह उसने पनीर को स्वछंद गाली दी थी, दिल्ली के कई सौ क्विंटल पनीर पानी-पानी हो गए होंगे.



पिछली बार जब ''गंगनम' ' मुझसे मिला तो वो बहुत गुस्से में था.

ये यूट्यूब ख्याति वाला 'गंगनम' नहीं, बल्कि मेरा एक दोस्त है. 'गंगनम' का असली नाम कुछ और है लेकिन क्योंकि वो पूर्वोत्तर भारत से है और हम शेष भारत में वहां के बाशिंदों को तरह तरह के नाम से बुलाते हैं, उसका नाम भी ''गंगनम' ' रख दिया गया है.
वैसे तो कभी चीन अपने नक्शे में अरुणाचल प्रदेश या पूर्वोत्तर भारत के किसी दूसरे हिस्से को दिखा दे, या फिर वहां अलग देश की मांग हो तो हमारे जैसे देशभक्त भारतीयों का खून खौल उठता है. लेकिन हम वहां के लोगों को खुद से कुछ कम समझते हैं और तिरछी आंखों वाले और कुछ बेहद भद्दे नामों से पुकारने में कोई हिचक नहीं रखते हैं, ये हमारा 'बड़प्पन' है.

'गंगनम' को भी इन चीज़ों से ऐतराज़ है लेकिन इस बार उसका गुस्सा किसी और वजह से था.

दरअसल बीती रात वो दफ्तर से लंबी शिफ्ट के बाद घर के लिए निकला तो उसे बड़ी भूख लगी थी. चौराहे पर उसे ठिठुरती सर्दी में खड़ा एक लड़का मिला जो मोमो बेच रहा था. उसने एक प्लेट ऑर्डर दिया लेकिन जब उसने पहला ही मोमो मुंह में डाला तो, बकौल उसके, "पूरा स्वाद किरकिरा हो गया. ये कोई मटन या चिकन मोमो नहीं पनीर मोमो था. छी:"

उसने बताया, "मैंने उससे पूछा ये क्या डाल रखा है तो उसने जवाब दिया, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद. अब बताओ उसने एक तो ऐसी चीज़ खिलाई जो कहीं से मोमो से मेल नहीं खाती और दूसरा मुझे बंदर कह दिया."

मैनें पानी का ठंडा गिलास उसे बढ़ाते हुए कहा कि वो लड़का पढ़ा लिखा था, एक मुहावरा कह रहा था ओर तुम्हें बंदर नहीं कहा उसने.

इस पर 'गंगनम' और भड़क उठा. वैसे यहां ये भी बता दूं कि मैं उसे उसके नाम से पुकारना पसंद करता हूं और 'गंगनम' कतई नहीं कहता. लेकिन यहां उसे 'गंगनम' कहना ज़रूरी है क्योंकि उस रात उसने कुछ ऐसी बात कह दी की अगर उसकी पहचान मालूम हो जाए तो वो कई नर्म श्रद्धालुओं के गर्म गुस्से के हत्थे चढ़ जाए.

'गंगनम' कहने लगा तुम दिल्ली वाले भी हर चीज़ में पनीर डाल देते हो- पनीर परांठा तो समझ में आता है - ये पनीर दोसा, पनीर बिरयानी, पनीर अप्पम क्या चीज़ है?

पनीर का नाम सुनकर मेरे मुंह में पानी आ गया लेकिन जिस तरह उसने पनीर को स्वछंद गाली दी थी, दिल्ली के कई सौ क्विंटल पनीर पानी-पानी हो गए होंगे.

मैने पनीर के डिफेंस में कहा , "अरे देवों का आहार है पनीर. जैरी माउज़ से लेकर लिटिल प्रिंस तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक बच्चे बूढ़ों की पसंद है पनीर. फिर ये भी तो देखों कितना प्रोटीन मिलता है इससे वो भी बिना हिंसा किए हुए."

मु्झे अपनी ही दलील पर गर्व महसूस हो रहा था कि मैने 'गंगनम' से बाज़ी मार ली कि उसने एक और शिगूफ़ा छोड़ा.

कहने लगा, "अरे देवों की बात तो तुम छोड़ ही दो. वहां शिलॉन्ग में मैं भी कभी कभी हनुमान जी के मंदिर में जाता था. लेकिन अब तो हर जगह साईं बाबा के मंदिर नज़र आते हैं. वैसे भारत में मोमो ने समोसे को और साईं बाबा ने हनुमान जी को पीछे छोड़ दिया है."

उसकी आखिरी लाइन सुनकर मैं सकते में आ गया. मैनें कहा तुम 'गंगनम' ही ठीक हो. छुपे रहना, कहीं वायरल हो गए तो पता नहीं क्या क्या बदल डालोगे और अगर पकड़ में आ गए तो लोग ही तुम्हें बदल डालेंगे.
मैनें इधर उधर देखा, किसी ने सुना तो नहीं, फिर हाथ पकडकर उसे सीढ़ियों से नीचे ले गया.

घर से थोड़ी दूरी पर साईं बाबा के मंदिर के पास मैंने उसे रिक्शे पर बिठाया, बाबा के दरबार में सर नवाकर दुआ मांगी और फिर लपककर सड़क की दूसरी तरफ एक ठेले की तरफ बढ़ा और बीस का एक नोट बढ़ाते हुए कहा, "एक प्लेट पनीर मोमोज़ देना, लाल चटनी के साथ!"पिछली बार जब ''गंगनम' ' मुझसे मिला तो वो बहुत गुस्से में था.

ये यूट्यूब ख्याति वाला 'गंगनम' नहीं, बल्कि मेरा एक दोस्त है. 'गंगनम' का असली नाम कुछ और है लेकिन क्योंकि वो पूर्वोत्तर भारत से है और हम शेष भारत में वहां के बाशिंदों को तरह तरह के नाम से बुलाते हैं, उसका नाम भी ''गंगनम' ' रख दिया गया है.

वैसे तो कभी चीन अपने नक्शे में अरुणाचल प्रदेश या पूर्वोत्तर भारत के किसी दूसरे हिस्से को दिखा दे, या फिर वहां अलग देश की मांग हो तो हमारे जैसे देशभक्त भारतीयों का खून खौल उठता है. लेकिन हम वहां के लोगों को खुद से कुछ कम समझते हैं और तिरछी आंखों वाले और कुछ बेहद भद्दे नामों से पुकारने में कोई हिचक नहीं रखते हैं, ये हमारा 'बड़प्पन' है.

'गंगनम' को भी इन चीज़ों से ऐतराज़ है लेकिन इस बार उसका गुस्सा किसी और वजह से था.

दरअसल बीती रात वो दफ्तर से लंबी शिफ्ट के बाद घर के लिए निकला तो उसे बड़ी भूख लगी थी. चौराहे पर उसे ठिठुरती सर्दी में खड़ा एक लड़का मिला जो मोमो बेच रहा था. उसने एक प्लेट ऑर्डर दिया लेकिन जब उसने पहला ही मोमो मुंह में डाला तो, बकौल उसके, "पूरा स्वाद किरकिरा हो गया. ये कोई मटन या चिकन मोमो नहीं पनीर मोमो था. छी:"

उसने बताया, "मैंने उससे पूछा ये क्या डाल रखा है तो उसने जवाब दिया, बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद. अब बताओ उसने एक तो ऐसी चीज़ खिलाई जो कहीं से मोमो से मेल नहीं खाती और दूसरा मुझे बंदर कह दिया."

मैनें पानी का ठंडा गिलास उसे बढ़ाते हुए कहा कि वो लड़का पढ़ा लिखा था, एक मुहावरा कह रहा था ओर तुम्हें बंदर नहीं कहा उसने.

इस पर 'गंगनम' और भड़क उठा. वैसे यहां ये भी बता दूं कि मैं उसे उसके नाम से पुकारना पसंद करता हूं और 'गंगनम' कतई नहीं कहता. लेकिन यहां उसे 'गंगनम' कहना ज़रूरी है क्योंकि उस रात उसने कुछ ऐसी बात कह दी की अगर उसकी पहचान मालूम हो जाए तो वो कई नर्म श्रद्धालुओं के गर्म गुस्से के हत्थे चढ़ जाए.

'गंगनम' कहने लगा तुम दिल्ली वाले भी हर चीज़ में पनीर डाल देते हो- पनीर परांठा तो समझ में आता है - ये पनीर दोसा, पनीर बिरयानी, पनीर अप्पम क्या चीज़ है?

पनीर का नाम सुनकर मेरे मुंह में पानी आ गया लेकिन जिस तरह उसने पनीर को स्वछंद गाली दी थी, दिल्ली के कई सौ क्विंटल पनीर पानी-पानी हो गए होंगे.

मैने पनीर के डिफेंस में कहा , "अरे देवों का आहार है पनीर. जैरी माउज़ से लेकर लिटिल प्रिंस तक, कश्मीर से कन्याकुमारी तक बच्चे बूढ़ों की पसंद है पनीर. फिर ये भी तो देखों कितना प्रोटीन मिलता है इससे वो भी बिना हिंसा किए हुए."

मु्झे अपनी ही दलील पर गर्व महसूस हो रहा था कि मैने 'गंगनम' से बाज़ी मार ली कि उसने एक और शिगूफ़ा छोड़ा.

कहने लगा, "अरे देवों की बात तो तुम छोड़ ही दो. वहां शिलॉन्ग में मैं भी कभी कभी हनुमान जी के मंदिर में जाता था. लेकिन अब तो हर जगह साईं बाबा के मंदिर नज़र आते हैं. वैसे भारत में मोमो ने समोसे को और साईं बाबा ने हनुमान जी को पीछे छोड़ दिया है."

उसकी आखिरी लाइन सुनकर मैं सकते में आ गया. मैनें कहा तुम 'गंगनम' ही ठीक हो. छुपे रहना, कहीं वायरल हो गए तो पता नहीं क्या क्या बदल डालोगे और अगर पकड़ में आ गए तो लोग ही तुम्हें बदल डालेंगे.
मैनें इधर उधर देखा, किसी ने सुना तो नहीं, फिर हाथ पकडकर उसे सीढ़ियों से नीचे ले गया.

घर से थोड़ी दूरी पर साईं बाबा के मंदिर के पास मैंने उसे रिक्शे पर बिठाया, बाबा के दरबार में सर नवाकर दुआ मांगी और फिर लपककर सड़क की दूसरी तरफ एक ठेले की तरफ बढ़ा और बीस का एक नोट बढ़ाते हुए कहा, "एक प्लेट पनीर मोमोज़ देना, लाल चटनी के साथ!"

(यह पोस्ट बीबीसी हिंदी ब्लॉगसे साभार)
विधांशु पत्रकार हैं. अभी बीबीसी से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता vidhanshu.kumar@bbc.co.uk 
और vidhanshu.kumar@gmail.com है. 

अभिनव प्रतिरोध की स्थायी उपलब्धियां

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सत्येन्द्र रंजन

-सत्येंद्र रंजन

"...कहा जा सकता है कि अगर यूपीए सरकर ने जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी का गठन सिर्फ जन-प्रतिरोध को ठंडा करने के लिए नहीं किया था, तो अब कमेटी की सिफारिशों के रूप में उसके सामने महिलाओं पर अत्याचार रोकने के उपाय करने की अब एक संपूर्ण कार्यसूची उपलब्ध है। सरकार ने यह रिपोर्ट संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की बात कही है। लेकिन इससे आशंका भी उपजती है कि कहीं सारी बात कमेटी दर कमेटी में भटकती ना रह जाए।..."


http://www.thehindu.com/multimedia/dynamic/01339/TH24_VERMA_1339760g.jpgह कहना शायद अतिशयोक्ति नहीं है कि हाल का बलात्कार विरोधी प्रतिरोध सामाजिक विकास के लिहाज से भारत में हाल के वर्षों में हुई सबसे महत्त्वपूर्ण घटना है। एक ऐसी घटना- जिसने अपना ठोस प्रभाव छोड़ा है। यह प्रभाव कितना व्यापक और दूरगामी होगा, यह कई बातों पर निर्भर करेगा। उनमें सबसे अहम पहलू यह होगा कि तेइस वर्षीय फिजियोथेरापिस्ट छात्रा के साथ बलात्कार की बर्बर घटना के बाद जो लोग- खासकर नौजवान-  सड़कों पर उतरे, वे जागरूकता और विरोध जताने में कितनी निरंतरता बरतते हैं।

फिलहालयह जरूर है कि इस देशव्यापी स्वतः-स्फूर्त प्रतिरोध ने समाज- खासकर मध्य वर्ग, मीडिया और शिक्षित तबकों- में स्त्री संबंधी मुद्दों पर वैसा खुलापन पैदा किया है, जो भारतीय समाज के लिए एक नई चीज है। चूंकि इस प्रतिरोध को 2011के भ्रष्टाचार विरोधी संघर्ष में दिखी नौजवानों की भागीदारी से जोड़कर देखा गया है, इसलिए राजनीतिक वर्ग ने इसमें एक परिघटना के उभार के संकेत देखे हैं। इसकी झलक हाल में जयपुर में कांग्रेस पार्टी के चिंतन शिविर में भी देखने को मिली, जहां सोशल मीडिया युग के आंदोलन पर खास चर्चा हुई। इस प्रतिरोध से राजनीतिक व्यवस्था में हुई हलचल का ही यह परिणाम है कि बलात्कार संबंधी मामलों के लिए फास्ट ट्रैक कोर्ट के गठन जैसे उपाय हुए हैं। अन्य प्रशासनिक एवं न्यायिक उपाय करने पर भी सरकारें मजबूर हुईं। इन सबसे कितना टिकाऊ लाभ होगा, यह एक बार फिर इसी पर निर्भर करेगा कि लोग किस हद तक सचेत रहते हैं।  

बहरहाल,एक उपलब्धि के टिकाऊ होने की उम्मीद अवश्य की जा सकती है। वह है बलात्कार या स्त्री के यौन-व्यक्तित्व से संबंधित मसलों से जुड़ी वर्जनाओं का टूटना। बलात्कार पीड़ित महिला के “जीवित लाश” नहीं होती इस तथ्य को जताने के लिए महिला कार्यकर्ताओं- तथा कुछ बलात्कार पीड़ित महिलाओं- ने जो तर्क पेश किए, स्त्री सिर्फ शरीर नहीं है इस बात को जितने जोरदार ढंग से कहा गया, और इन सब बातों पर परिवारों, मीडिया एवं सार्वजनिक स्थलों पर जो हिचक टूटी, वह नर-नारी समता की एक नई संस्कृति का आधार बनेगी, यह उम्मीद रखने के पर्याप्त कारण हैं।  

यह ठीक है कि प्रतिरोध के दौरान प्रतिगामी मांगें भी जोर-शोर से की गईं। मसलन, बलात्कारियों को फांसी देने या नाबालिग मुजरिम की श्रेणी तय करने के लिए उम्रसीमा घटाने की मांग उठी। स्त्री की यौन-शुचिता के साथ उसकी एवं उसके परिवार की इज्जत जुड़ी होने जैसी मान्यताओं को भी कुछ हलकों से बल प्रदान करने की कोशिश हुई। लेकिन अंततः विमर्श की मुख्यधारा पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था को चुनौती देने की दिशा में आगे बढ़ी, यह मानने का आधार मौजूद है। उसका सबसे ठोस रूप तो जस्टिस वर्मा समिति की रिपोर्ट ही है। जस्टिस वर्मा कमेटी ने अस्सी हजार ज्ञापनों पर गौर करते हुए एक प्रगतिशील रिपोर्ट तैयार की है। दरअसल, वर्मा कमेटी की इस बात के लिए तारीफ होनी चाहिए कि उसने एक महीने की निर्धारित समयसीमा के भीतर महिलाओं की सुरक्षा से संबंधित गंभीर एवं व्यापक प्रश्न पर उचित संदर्भों में विचार करते हुए ऐसी रिपोर्ट पेश की है, जिसे कुछ कार्यकर्ताओं ने महिला स्वतंत्रता एवं सुरक्षा का घोषणापत्र कहा है।

इस रिपोर्ट की विशेषता यह है कि इसमें यौन हिंसा या यौन उत्पीड़न को व्यापक सामाजिक-आर्थिक- सांस्कृतिक परिस्थितियों के ढांचे में रख कर देखा गया है। समिति ने प्रशासन, कानून, राजनीति और सामाजिक नजरिए की समग्रता में इस प्रश्न पर विचार किया। उसने पितृ-सत्तात्मक व्यवस्था में स्त्रियों की लाचारी को जड़ में रखते हुए इस समस्या को देखा और अपनी सिफारिशों को संवैधानिक तथा कानून की मानवीय व्याख्या के दायरे में प्रस्तुत किया। नतीजतन, बलात्कारियों के लिए फांसी की सजा और नाबालिग अपराधी की श्रेणी तय करने के लिए उम्रसीमा घटाने की मांग अस्वीकार कर दी गई है। इसके बावजूद कमेटी ने मुजरिमों के लिए सजा के प्रावधान को अधिक सख्त करने, बलात्कार की परिभाषा का विस्तार करने, बलात्कार पीड़िता की जांच के लिए स्पष्ट मेडिकल प्रोटोकॉल तैयार करने जैसे बेहद अहम सुझाव दिए हैं। साथ ही उसने कानूनों पर अमल में पुलिस एवं न्यायिक व्यवस्था की नाकामी के संदर्भ में पुलिस सुधारों का मुद्दा भी उठाया है। दिल्ली बलात्कार कांड के बाद अशांत क्षेत्रों में सुरक्षाकर्मियों के हाथों यौन उत्पीड़न का शिकार होने वाली महिलाओं का मुद्दा जोर-शोर से उठा। इस संबंध में वर्मा कमेटी ने यह बेहद अहम सिफारिश की है कि ऐसे आरोपों के घेरे में आने वाले सुरक्षाकर्मियों को सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए- यानी उनके खिलाफ कार्रवाई सामान्य कानूनी प्रक्रिया के तहत होनी चाहिए। कमेटी ने राजनीतिक व्यवस्था में महिला विरोधी पूर्वाग्रहों के प्रश्न को भी अछूता नहीं छोड़ा। हालांकि यह सुझाव विवादास्पद है, लेकिन वर्मा कमेटी ने बलात्कार के आरोपियों के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने की सिफारिश की है।

कहाजा सकता है कि अगर यूपीए सरकर ने जस्टिस जेएस वर्मा कमेटी का गठन सिर्फ जन-प्रतिरोध को ठंडा करने के लिए नहीं किया था, तो अब कमेटी की सिफारिशों के रूप में उसके सामने महिलाओं पर अत्याचार रोकने के उपाय करने की अब एक संपूर्ण कार्यसूची उपलब्ध है। सरकार ने यह रिपोर्ट संसद की स्थायी समिति के पास भेजने की बात कही है। लेकिन इससे आशंका भी उपजती है कि कहीं सारी बात कमेटी दर कमेटी में भटकती ना रह जाए। इसीलिए लोगों को जागरूक रहना होगा। पिछले सोलह दिसंबर की घटना के बाद प्रतिरोध में उतरे लोगों के लिए यह बड़ी चुनौती है। उनके आंदोलन के परिमाणस्वरूप बनी न्यायिक कमेटी का दस्तावेज उनकी ही थाती है। इन सिफारिशों पर अमल ही एक अद्भुत और अभिनव प्रतिरोध की स्थायी उपलब्धि होगी। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.


छात्राओं को छेड़ने वाले लड़कों को दण्डित क्यों नहीं करता बीएचयू प्रशासन!

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Sudhir Suman
सुधीर सुमन
-सुधीर सुमन

"...छात्राओं ने दोषी छात्रों के बारे में नाम लेकर शिकायत की है. छेड़खानी करने और धमकी देने वाले वाले मुख्य दोषी छात्र की मौजूदा सरकार के एक मंत्री के साथ रिश्ते की सूचना भी अखबारों और सोशल मीडिया में आयी है. सवाल यह है कि बीएचयू प्रशासन आम छात्राओं का साथ देगा या नहीं? सत्ता संरक्षित दोषी छात्रों को दण्डित करेगा या नहीं?..."


बीएचयू
ज देश में यौन हिंसा, लैंगिक भेदभाव, अन्याय और उत्पीड़न के सारे रूपों के खिलाफ महिलाओं की आजादी और बराबरी का आंदोलन चल रहा है और आम महिलाएं, छात्र-छात्राएं, युवक-युवतियां, बुद्धिजीवी, संस्कृतिकर्मी इसमें शामिल हैं, लेकिन इसी दौर में बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी जैसे शिक्षण संस्थान में लगातार छात्राओं के साथ बदसलूकी की घटनाएं घटित होना अत्यंत विडंबनापूर्ण है। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, जो एक से बढ़कर एक जनतांत्रिक और प्रगतिशील विद्वानों और अध्येताओं की कर्मस्थली रहा है, अनेक बड़े छात्र-आन्दोलनों का साक्षी रहा है, वहां छात्राओं के साथ बदसलूकी करने वालों और उन्हें धमकी देने वाले के खिलाफ कोई कारर्वाई न होना आश्चर्यजनक है। उल्टे विश्वविद्यालय प्रशासन सुरक्षा के नाम पर छात्राओं को सात बजे के बाद हॉस्टल में कैद कर देने का पक्षधर रहा है। लेकिन मामला महज सात बजे के बाद का ही नहीं है, मामला दिन-दहाड़े छात्राओं से की जाने वाली बदसलूकियों का भी है। 

जैसा कि बनारस के लगभग सभी समाचारपत्रों ने रिपोर्ट किया है कि विगत 24 जनवरी को बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी के बिड़ला हॉस्टल के कुछ दबंग छात्रों ने उधर से गुजर रही तीन छात्राओं के साथ जिस तरह बदसलूकी की और एक प्राध्यापक के हस्तक्षेप के बाद भी वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आए, वह कैंपस में छात्राओं की सुरक्षा के प्रति गंभीर चिंताएं खड़ी करता है। सूचना यह है कि चीफ प्रोक्टर की मौजूदगी में छात्राओं के पक्ष में खड़े छात्रों और प्राध्यापकों को भी उनलोगों ने धमकी दी, जिसके बाद आक्रोशित होकर लगभग सौ-सवा सौ छात्राओं और छात्रों ने कुलपति का घेराव किया। करीब चार घंटे तक घेराव के बाद कुलपति उनसे मिले और महिला सेल गठन तथा दोषी छात्रों को दंडित करने का आश्वासन दिया। 

गणतंत्रदिवस के दिन महिला सेल गठन करने की घोषणा कुलपति ने कर दी है, पर दोषी छात्रों के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है। यह भी आश्चर्यजनक है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के बावजूद बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय जैसे पुराने और केन्द्रीय विश्वविद्यालय में महिला सेल की स्थापना की घोषणा अब की गई है, जब कि अनेक विश्वविद्यालयों में यह संस्था कई वर्षों से काम कर रही है, यह दिखाता है कि अभी स्त्रियों के सम्मान और सुरक्षा के  संघर्ष को कितनी विघ्न-बाधाओं से होकर गुजरना है। बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी न केवल उच्च शिक्षा का प्रतिष्ठित संस्थान है, बल्कि वह केन्द्रीय विश्वविद्यालय भी है। ऐसे में यदि स्थानीय दबावों में विश्वविद्यालय प्रशासन काम नहीं करता तो केंद्र सरकार तथा मानव संसाधन मंत्रालय को हस्तक्षेप करना चाहिए. छात्राओं ने दोषी छात्रों के बारे में नाम लेकर शिकायत की है. छेड़खानी करने और धमकी देने वाले वाले मुख्य दोषी छात्र की मौजूदा सरकार के एक मंत्री के साथ रिश्ते की सूचना भी अखबारों और सोशल मीडिया में आयी है. सवाल यह है कि बीएचयू प्रशासन आम छात्राओं का साथ देगा या नहीं? सत्ता संरक्षित दोषी छात्रों को दण्डित करेगा या नहीं?

छात्राओंके साथ दुव्यर्वहार करने वाले दोषी छात्रों के खिलाफ अब तक कोई कार्रवाई न किए जाने की जन संस्कृति मंच घोर निंदा करता है और बीएचयू कैंपस में छात्राओं की सुरक्षा, सम्मान, समानता, न्याय व आजादी के लिए चल रहे छात्र-छात्राओं, बुद्धिजीवियों, साहित्यकार-संस्कृतिकर्मियों के संघर्ष के प्रति अपनी एकजुटता जाहिर करता है। 

सुधीर सुमन, राष्ट्रीय सहसचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी
मोबाइल- 09868990959
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