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भगत सिंह की नजर में नेहरु और बोस

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-भगत सिंह

आज़ादी की लड़ाई के दौरान भगत सिंह महज एक रूमानी नौज़वान नहीं थे. जो 'हँसते हँसते सूली पर चढ़ गया'. वे तत्कालीन देश-दुनिया की राजनीतिक गतिविधियों से गहरे से वाकिफ़ एक राजनीतिक कार्यकर्ता थे. उन्होंने जिन भी विषयों पर अपनी कलम चलाई है उससे ये बात साबित हुई है.
जवाहर लाल नेहरु के जन्मदिन पर हम भगत सिंह का, जुलाई, 1928 के ‘किरती’ में छपा यह लेख प्रकाशित कर रहे हैं जिसमें उन्होंने सुभाषचन्द्र बोस और जवाहरलाल नेहरू के विचारों की तुलना की है। भगत सिंह ने आज़ादी की लड़ाई के दौर के इन दोनों नेताओं के विचारों और नज़रिए के ज़रिये आन्दोलन के भीतर की दो दिशाओं पर बात की है. भगत सिंह मानते हैं कि नेहरू, बोस की तुलना में ज्यादा आधुनिक, ज्यादा व्यावहारिक और ज्यादा क्रांतिकारी विचारों वाले थे. जबकि बोस भावनात्मक ज्यादा थे.
बहरहाल पिछले दौर में आरएसएस और बीजेपी सरीखे दक्षिणपंथी विचारों ने पूरे भारतीय जन मानस में जिस तरह अपनी पैठ बनाई है, उससे राह चलते ही नेहरु की बे-सिर-पैर की आलोचना करने वालों की एक अच्छी खासी तादात तैयार हुई है. यह संयोग नहीं है कि आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठन नेहरु विरोध की इतनी गहरी मानसिकता से क्यों ग्रस्त हैं. इसकी ठोस वजह है अकेले नेहरु ने भारत में आरएसएस और हिंदू कट्टरपंथी ताकतों को जितना नुकसान पहुंचाया है, उतना पूरे इतिहास में और किसी व्यक्ति ने नहीं पहुंचाया है.
आज देश में भाजपा की भारी जीत के साथ जिस किस्म की दक्षिणपंथी ताकतें हावी हो गई हैं और नेहरू को उनकी समग्र विरासत के साथ ख़ारिज करने के प्रयास जोरों पर हैं. ऐसे में राजनीतिक रूप से नेहरू की धारा से बहुत अधिक सहमत न रहने वाले भगत सिंह का यह आलेख बताता है कि नेहरु कैसे ख़ास थे... (सं.)

सहयोग आन्दोलन की असफलता के बाद जनता में बहुत निराशा और मायूसी फैली। हिन्दू-मुस्लिम झगड़ों ने बचा-खुचा साहस भी खत्म कर डाला। लेकिन देश में जब एक बार जागृति फैल जाए तब देश ज्यादा दिन तक सोया नहीं रह सकता। कुछ ही दिनों बाद जनता बहुत जोश के साथ उठती तथा हमला बोलती है। आज हिन्दुस्तान में फिर जान आ गई है। हिन्दुस्तान फिर जाग रहा है। देखने में तो कोई बड़ा जन-आन्दोलन नजर नहीं आता लेकिन नींव जरूर मजबूत की जा रही है। आधुनिक विचारों के अनेक नए नेता सामने आ रहे हैं। इस बार नौजवान नेता ही देशभक्त लोगों की नजरों में आ रहे हैं। बड़े-बड़े नेता बड़े होने के बावजूद एक तरह से पीछे छोड़े जा रहे हैं।

इस समय जो नेता आगे आए हैं वे हैं- बंगाल के पूजनीय श्री सुभाषचन्द्र बोस और माननीय पण्डित श्री जवाहरलाल नेहरू। यही दो नेता हिन्दुस्तान में उभरते नजर आ रहे हैं और युवाओं के आन्दोलनों में विशेष रूप से भाग ले रहे हैं। दोनों ही हिन्दुस्तान की आजादी के कट्टर समर्थक हैं। दोनों ही समझदार और सच्चे देशभक्त हैं। लेकिन फिर भी इनके विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है। एक को भारत की प्राचीन संस्कृति का उपासक कहा जाता है तो दूसरे को पक्का पश्चिम का शिष्य। एक को कोमल हृदय वाला भावुक कहा जाता है और दूसरे को पक्का युगान्तरकारी।


हम इस लेख में उनके अलग-अलग विचारों को जनता के समक्ष रखेंगे, ताकि जनता स्वयं उनके अन्तर को समझ सके और स्वयं भी विचार कर सके। लेकिन उन दोनों के विचारों का उल्लेख करने से पूर्व एक और व्यक्ति का उल्लेख करना भी जरूरी है जो इन्हीं स्वतन्त्रता के प्रेमी हैं और युवा आन्दोलनों की एक विशेष शख्सियत हैं। साधू वासवानी चाहे कांग्रेस के बड़े नेताओं की भाँति जाने माने तो नहीं, चाहे देश के राजनीतिक क्षेत्र में उनका कोई विशेष स्थान तो नहीं, तो भी युवाओं पर, जिन्हें कि कल देश की बागडोर संभालनी है, उनका असर है और उनके ही द्वारा शुरू हुआ आन्दोलन ‘भारत युवा संघ’ इस समय युवाओं में विशेष प्रभाव रखता है। उनके विचार बिल्कुल अलग ढंग के हैं।



उनके विचार एक ही शब्द में बताए जा सकते हैं — “वापस वेदों की ओर लौट चलो।” (बैक टू वेदस)। यह आवाज सबसे पहले आर्यसमाज ने उठाई थी। इस विचार का आधार इस आस्था में है कि वेदों में परमात्मा ने संसार का सारा ज्ञान उड़ेल दिया है। इससे आगे और अधिक विकास नहीं हो सकता। इसलिए हमारे हिन्दुस्तान ने चौतरफा जो प्रगति कर ली थी उससे आगे न दुनिया बढ़ी है और न बढ़ सकती है। खैर, वासवानी आदि इसी अवस्था को मानते हैं। तभी एक जगह कहते हैं —

“हमारी राजनीति ने अब तक कभी तो मैजिनी और वाल्टेयर को अपना आदर्श मानकर उदाहरण स्थापित किए हैं और या कभी लेनिन और टॉल्स्टाय से सबक सीखा। हालांकि उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि उनके पास उनसे कहीं बड़े आदर्श हमारे पुराने ॠषि हैं।” वे इस बात पर यकीन करते हैं कि हमारा देश एक बार तो विकास की अन्तिम सीमा तक जा चुका था और आज हमें आगे कहीं भी जाने की आवश्यकता नहीं, बल्कि पीछे लौटने की जरूरत है।

आप एक कवि हैं। कवित्व आपके विचारों में सभी जगह नजर आता है। साथ ही यह धर्म के बहुत बड़े उपासक हैं। यह'शक्ति’ धर्म चलाना चाहते हैं। यह कहते हैं, “इस समय हमें शक्ति की अत्यन्त आवश्यकता है।” वह ‘शक्ति’ शब्द का अर्थ केवल भारत के लिए इस्तेमाल नहीं करते। लेकिन उनको इस शब्द से एक प्रकार की देवी का, एक विशेष ईश्वरीय प्राप्ति का विश्वास है। वे एक बहुत भावुक कवि की तरह कहते हैं —


“For in solitude have communicated with her, our admired Bharat Mata, And my aching head has heard voices saying... The day of freedom is not far off.” ..Sometimes indeed a strange feeling visits me and I say to myself – Holy, holy is Hindustan. For still is she under the protection of her mighty Rishis and their beauty is around us, but we behold it not.


अर्थात् एकान्त में भारत की आवाज मैंने सुनी है। मेरे दुखी मन ने कई बार यह आवाज सुनी है कि ‘आजादी का दिन दूर नहीं'...कभी कभी बहुत अजीब विचार मेरे मन में आते हैं और मैं कह उठता हूँ — हमारा हिन्दुस्तान पाक और पवित्र है, क्योंकि पुराने ॠषि उसकी रक्षा कर रहे हैं और उनकी खूबसूरती हिन्दुस्तान के पास है। लेकिन हम उन्हें देख नहीं सकते।


यह कवि का विलाप है कि वह पागलों या दीवानों की तरह कहते रहे हैं — “हमारी माता बड़ी महान है। बहुत शक्तिशाली है। उसे परास्त करने वाला कौन पैदा हुआ है।” इस तरह वे केवल मात्र भावुकता की बातें करते हुए कह जाते हैं — “Our national movement must become a purifying mass movement, if it is to fulfil its destiny without falling into clasaa war one of the dangers of Bolshevism.”


अर्थात् हमें अपने राष्ट्रीय जन आन्दोलन को देश सुधार का आन्दोलन बना देना चाहिए। तभी हम वर्गयुद्ध के बोल्शेविज्म के खतरों से बच सकेंगे। वह इतना कहकर ही कि गरीबों के पास जाओ, गाँवों की ओर जाओ, उनको दवा-दारू मुफ्त दो — समझते हैं कि हमारा कार्यक्रम पूरा हो गया। वे छायावादी कवि हैं। उनकी कविता का कोई विशेष अर्थ तो नहीं निकल सकता, मात्र दिल का उत्साह बढ़ाया जा सकता है। बस पुरातन सभ्यता के शोर के अलावा उनके पास कोई कार्यक्रम नहीं। युवाओं के दिमागों को वे कुछ नया नहीं देते। केवल दिल को भावुकता से ही भरना चाहते हैं। उनका युवाओं में बहुत असर है। और भी पैदा हो रहा है। उनके दकियानूसी और संक्षिप्त-से विचार यही हैं जो कि हमने ऊपर बताए हैं। उनके विचारों का राजनीतिक क्षेत्र में सीधा असर न होने के बावजूद बहुत असर पड़ता है। विशेषकर इस कारण कि नौजवानों,युवाओं को ही कल आगे बढ़ना है और उन्हीं के बीच इन विचारों का प्रचार किया जा रहा है।


अब हम श्री सुभाषचन्द्र बोस और श्री जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर आ रहे हैं। दो-तीन महीनों से आप बहुत-सी कान्फ्रेंसों के अध्यक्ष बनाए गए और आपने अपने-अपने विचार लोगों के सामने रखे। सुभाष बाबू को सरकार तख्तापलट गिरोह का सदस्य समझती है और इसीलिए उन्हें बंगाल अध्यादेश के अन्तर्गत कैद कर रखा था। आप रिहा हुए और गर्म दल के नेता बनाए गए। आप भारत का आदर्श पूर्ण स्वराज्य मानते हैं, और महाराष्ट्र कान्फ्रेंस में अध्यक्षीय भाषण में अपने इसी प्रस्ताव का प्रचार किया।


पण्डित जवाहरलाल नेहरू स्वराज पार्टी के नेता मोतीलाल नेहरू ही के सुपुत्र हैं। बैरिस्टरी पास हैं। आप बहुत विद्वान हैं। आप रूस आदि का दौरा कर आए हैं। आप भी गर्म दल के नेता हैं और मद्रास कान्फ्रेंस में आपके और आपके साथियों के प्रयासों से ही पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव स्वीकृत हो सका था। आपने अमृतसर कान्फ्रेंस के भाषण में भी इसी बात पर जोर दिया। लेकिन फिर भी इन दोनों सज्जनों के विचारों में जमीन-आसमान का अन्तर है। अमृतसर और महाराष्ट्र कान्फ्रेंसों के इन दोनों अध्यक्षों के भाषण पढ़कर ही हमें इनके विचारों का अन्तर स्पष्ट हुआ था। लेकिन बाद में बम्बई के एक भाषण में यह बात स्पष्ट रूप से हमारे सामने आ गई। पण्डित जवाहरलाल नेहरू इस जनसभा की अध्यक्षता कर रहे थे और सुभाषचन्द्र बोस ने भाषण दिया। वह एक बहुत भावुक बंगाली हैं।


उन्होंने भाषण आरंभ किया कि हिन्दुस्तान का दुनिया के नाम एक विशेष सन्देश है। वह दुनिया को आध्यात्मिक शिक्षा देगा। खैर, आगे वे दीवाने की तरह कहना आरम्भ कर देते हैं — चांदनी रात में ताजमहल को देखो और जिस दिल की यह सूझ का परिणाम था, उसकी महानता की कल्पना करो। सोचो एक बंगाली उपन्यासकार ने लिखा है कि हममें यह हमारे आँसू ही जमकर पत्थर बन गए हैं। वह भी वापस वेदों की ओर ही लौट चलने का आह्वान करते हैं। आपने अपने पूना वाले भाषण में ‘राष्ट्रवादिता’ के सम्बन्ध में कहा है कि अन्तर्राष्ट्रीयतावादी, राष्ट्रीयतावाद को एक संकीर्ण दायरे वाली विचारधारा बताते हैं, लेकिन यह भूल है। हिन्दुस्तानी राष्ट्रीयता का विचार ऐसा नहीं है। वह न संकीर्ण है, न निजी स्वार्थ से प्रेरित है और न उत्पीड़नकारी है, क्योंकि इसकी जड़ या मूल तो ‘सत्यम् शिवम् सुन्दरम्’ है अर्थात् सच,कल्याणकारी और सुन्दर।


यह भी वही छायावाद है। कोरी भावुकता है। साथ ही उन्हें भी अपने पुरातन युग पर बहुत विश्वास है। वह प्रत्येक बात में अपने पुरातन युग की महानता देखते हैं। पंचायती राज का ढंग उनके विचार में कोई नया नहीं। ‘पंचायती राज और जनता के राज'वे कहते हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत पुराना है। वे तो यहाँ तक कहते हैं कि साम्यवाद भी हिन्दुस्तान के लिए नई चीज नहीं है। खैर, उन्होंने सबसे ज्यादा उस दिन के भाषण में जोर किस बात पर दिया था कि हिन्दुस्तान का दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। पण्डित जवाहरलाल आदि के विचार इसके बिल्कुल विपरीत हैं। वे कहते हैं —


“जिस देश में जाओ वही समझता है कि उसका दुनिया के लिए एक विशेष सन्देश है। इंग्लैंड दुनिया को संस्कृति सिखाने का ठेकेदार बनता है। मैं तो कोई विशेष बात अपने देश के पास नहीं देखता। सुभाष बाबू को उन बातों पर बहुत यकीन है।” जवाहरलाल कहते हैं —

“Every youth must rebel. Not only in political sphere, but in social, economic and religious spheres also. I have not much use for any man who comes and tells me that such and such thing is said in Koran, Every thing unreasonable must be discarded even if they find authority for in the Vedas and Koran.”


[यानी] “प्रत्येक नौजवान को विद्रोह करना चाहिए। राजनीतिक क्षेत्र में ही नहीं बल्कि सामाजिक, आर्थिक और धार्मिक क्षेत्र में भी। मुझे ऐसे व्यक्ति की कोई आवश्यकता नहीं जो आकर कहे कि फलाँ बात कुरान में लिखी हुई है। कोई बात जो अपनी समझदारी की परख में सही साबित न हो उसे चाहे वेद और कुरान में कितना ही अच्छा क्यों न कहा गया हो, नहीं माननी चाहिए।”


यह एक युगान्तरकारी के विचार हैं और सुभाष के एक राज-परिवर्तनकारी के विचार हैं। एक के विचार में हमारी पुरानी चीजें बहुत अच्छी हैं और दूसरे के विचार में उनके विरुद्ध विद्रोह कर दिया जाना चाहिए। एक को भावुक कहा जाता है और एक को युगान्तरकारी और विद्रोही। पण्डित जी एक स्थान पर कहते हैं —

“To those who still fondly cherish old ideas and are striving to bring back the conditions which prevailed in Arabia 1300 years ago or in the Vedic age in India. I say, that it is inconceivable that you can bring back the hoary past. The world of reality will not retrace its steps, the world of imaginations may remain stationary.”

वे कहते हैं कि जो अब भी कुरान के जमाने के अर्थात् 1300 बरस पीछे के अरब की स्थितियाँ पैदा करना चाहते हैं, जो पीछे वेदों के जमाने की ओर देख रहे हैं उनसे मेरा यह कहना है कि यह तो सोचा भी नहीं जा सकता कि वह युग वापस लौट आएगा, वास्तविक दुनिया पीछे नहीं लौट सकती, काल्पनिक दुनिया को चाहे कुछ दिन यहीं स्थिर रखो। और इसीलिए वे विद्रोह की आवश्यकता महसूस करते हैं।


सुभाष बाबू पूर्ण स्वराज के समर्थन में हैं क्योंकि वे कहते हैं कि अंग्रेज पश्चिम के वासी हैं। हम पूर्व के। पण्डित जी कहते हैं,हमें अपना राज कायम करके सारी सामाजिक व्यवस्था बदलनी चाहिए। उसके लिए पूरी-पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त करने की आवश्यकता है।

सुभाष बाबू मजदूरों से सहानुभूति रखते हैं और उनकी स्थिति सुधारना चाहते हैं। पण्डित जी एक क्रांति करके सारी व्यवस्था ही बदल देना चाहते हैं। सुभाष भावुक हैं — दिल के लिए। नौजवानों को बहुत कुछ दे रहे हैं, पर मात्र दिल के लिए। दूसरा युगान्तरकारी है जो कि दिल के साथ-साथ दिमाग को भी बहुत कुछ दे रहा है।


“They should aim at Swaraj for the masses based on socialism. That was a revolutionary change with they could not bring out without revolutionary methods...Mere reform or gradual repairing of the existing machinery could not achieve the real proper Swaraj for the General Masses.” अर्थात् हमारा समाजवादी सिद्धान्तों के अनुसार पूर्ण स्वराज होना चाहिए, जो कि युगान्तरकारी तरीकों के बिना प्राप्त नहीं हो सकता। केवल सुधार और मौजूदा सरकार की मशीनरी की धीमी-धीमी की गई मरम्मत जनता के लिए वास्तविक स्वराज्य नहीं ला सकती।


यह उनके विचारों का ठीक-ठाक अक्स है। सुभाष बाबू राष्ट्रीय राजनीति की ओर उतने समय तक ही ध्यान देना आवश्यक समझते हैं जितने समय तक दुनिया की राजनीति में हिन्दुस्तान की रक्षा और विकास का सवाल है। परन्तु पण्डित जी राष्ट्रीयता के संकीर्ण दायरों से निकलकर खुले मैदान में आ गए हैं।


अब सवाल यह है कि हमारे सामने दोनों विचार आ गए हैं। हमें किस ओर झुकना चाहिए। एक पंजाबी समाचार पत्र ने सुभाष की तारीफ के पुल बाँधकर पण्डित जी आदि के बारे में कहा था कि ऐसे विद्रोही पत्थरों से सिर मार-मारकर मर जाते हैं। ध्यान रखना चाहिए कि पंजाब पहले ही बहुत भावुक प्रान्त है। लोग जल्द ही जोश में आ जाते हैं और जल्द ही झाग की तरह बैठ जाते हैं।




सुभाष आज शायद दिल को कुछ भोजन देने के अलावा कोई दूसरी मानसिक खुराक नहीं दे रहे हैं। अब आवश्यकता इस बात की है कि पंजाब के नौजवानों को इन युगान्तरकारी विचारों को खूब सोच-विचार कर पक्का कर लेना चाहिए। इस समय पंजाब को मानसिक भोजन की सख्त जरूरत है और यह पण्डित जवाहरलाल नेहरू से ही मिल सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि उनके अन्धे पैरोकार बन जाना चाहिए। लेकिन जहाँ तक विचारों का सम्बन्ध है, वहाँ तक इस समय पंजाबी नौजवानों को उनके साथ लगना चाहिए, ताकि वे इन्कलाब के वास्तविक अर्थ, हिन्दुस्तान के इन्कलाब की आवश्यकता, दुनिया में इन्कलाब का स्थान क्या है,आदि के बारे में जान सकें। सोच-विचार के साथ नौजवान अपने विचारों को स्थिर करें ताकि निराशा, मायूसी और पराजय के समय में भी भटकाव के शिकार न हों और अकेले खड़े होकर दुनिया से मुकाबले में डटे रह सकें। इसी तरह जनता इन्कलाब के ध्येय को पूरा कर सकती है।



पुराने नेताओं की नई पार्टी का ख़याल

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सत्येंद्र रंजन

सत्येंद्र रंजन

"...इन नेताओं में (कथित रूप से) बनी इस सहमति का भी जिक्र हुआ कि मंडलवादी राजनीति की सीमाएं साफ हो गई हैंअतः प्रस्तावित नई पार्टी जन-समर्थन जुटाने के लिए दूसरे मुद्दों की तलाश करेगी। अगर यह सच है तो यही माना जाएगा कि जमीनी हकीकत को समझने की क्षमता इन नेताओं में अभी बची हुई है।..."

नए साल में नई पार्टी बनाने के इरादे से जनता परिवार के नेता पिछले दिनों जब इकट्ठे हुए तो इस खबर के इस पहलू ने ध्यान खींचा कि फिलहाल उनकी पार्टियां नए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून) को सीमित करने की भारतीय जनता पार्टी सरकार की कोशिशों को प्रमुख मुद्दा बनाएंगी। 

इन नेताओं में (कथित रूप से) बनी इस सहमति का भी जिक्र हुआ कि मंडलवादी राजनीति की सीमाएं साफ हो गई हैं, अतः प्रस्तावित नई पार्टी जन-समर्थन जुटाने के लिए दूसरे मुद्दों की तलाश करेगी। अगर यह सच है तो यही माना जाएगा कि जमीनी हकीकत को समझने की क्षमता इन नेताओं में अभी बची हुई है। बहरहाल, अगर नई पार्टी खुद को प्रासंगिक बनाना चाहती है, तो उसके लिए इतनी समझ पर्याप्त नहीं होगी। बल्कि इसके लिए इन नेताओं को इस बात की पड़ताल करनी होगी कि संभावनाओं से भरी सामाजिक न्याय की राजनीति को उन्होंने कैसे बंद गली में पहुंचा दिया?

ना तो सामाजिक न्याय से जुड़े सवाल सुलझे हैं, और ना ही इस राजनीति की संभावनाएं खत्म हुई हैं। फिर भी बात चूक गई तो इसलिए कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को विकसित और परिवर्द्धित करने के बजाय इस सियासत की झंडाबरदार ताकतें इसे लगातार संकुचित करती गई हैं। 

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से उत्तर भारत की राजनीति में जो अभूतपूर्व नई ऊर्जा प्रकट हुई, उसे समूचे इंसाफ और समता की दिशा में ले जाने के बजाय उन्होंने इसे महज आरक्षण और जातीय गोलबंदी में समेट दिया। उसका मकसद भी संबंधित जातियों में वर्ग चेतना को मजबूत करना नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक महत्त्वाकांक्षाओं को साधना रह गया। 
हर नेता (या दल) के लिए न्याय का मतलब सिर्फ अपनी जाति के लिए इंसाफ रह गया। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार आदि जिस समाजवादी धारा से निकलने का दावा करते हैं, क्या उसमें पूरे बहुजन (यानी सभी शोषित-उत्पीड़ित जातियों/वर्गों) की एकता का उद्देश्य शामिल नहीं थाऔर क्या डॉ. राम मनोहर लोहिया ने नर-नारी समता को अपनी सप्त क्रांति में समान दर्जा नहीं दिया था? 

ऐसे में इन नेताओं और उनके साथी देवगौड़ा पिता-पुत्र और चौटाला परिवार को यह उत्तर ढूंढना चाहिए कि आखिर वे बहुजन एकता क्यों नहीं बना पाए, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का बहुजन समाज पार्टी से रिश्ता दुश्मनी भरा क्यों हो गया, हरियाणा में जाट-दलित का अंतर्विरोध दूर करने के लिए उन्होंने क्या किया, महिलाओं के जुड़े मुद्दों पर ये नेता (नीतीश कुमार अपवाद हैं) अत्यंत प्रतिगामी रूप में क्यों सामने आते रहे, और यौन अल्पसंख्यकों के सवाल पर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे महजबी कट्टरपंथी संगठनों जैसी राय क्यों जताते रहे? और फिर यह प्रश्न तो अपनी जगह है ही कि क्या शोषण और अन्याय से मुक्ति बिना किसी आर्थिक कार्यक्रम और विचारधारा के मिल सकती है? बदलते वक्त के मुताबिक ऐसा कौन-सा कार्यक्रम इन दलों ने सामने रखा?
क्या यह अफसोसनाक नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चों पर प्रगति की जो सीमित संभावना यूपीए के शासनकाल में उसके सामाजिक एजेंडे से बनी, अपने-अपने राज्यों में उसका लाभ उठाने में इन दलों की सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली? 
ऐसे में यह पूछना तो निरर्थक ही है कि इन सरकारों ने अपने राज्यों में उत्पीड़ित वर्गों के लिए सबसे अलग या खास कौन-सी कल्याणकारी योजना लागू की। (ये तमाम सवाल बहुजन समाज पार्टी पर भी लागू होते हैं। चूंकि एकता के वर्तमान प्रयास में वह शामिल नहीं है, इसलिए उसका जिक्र ऊपर नहीं किया गया है।) 
इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि जब विकास के गुजरात मॉडल का स्वांग पिछले चुनाव में प्रस्तुत किया गया, तो जनता परिवार समर्थक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भी उस बह गया। जनता परिवार के दल और नेता असहाय होकर यह देखते रहे, क्योंकि उनके पास पेश करने के लिए व्यापक अर्थों में विकास और आर्थिक बेहतरी का अपना कोई मॉडल नहीं था। (नीतीश कुमार के पास सीमित अर्थों में ऐसा मॉडल था, लेकिन उसे उन्होंने भाजपा के साथ मिल कर लागू किया था। अतः बदली राजनीतिक परिस्थितियों में चुनावी रूप से वह अक्षम और अप्रभावी सिद्ध हुआ।)

आज देश विकट स्थिति में है। विकास और अच्छे दिन के शोर की आड़ में धुर नव-उदारवाद और बहुसंख्यक वर्चस्ववाद के पक्ष में जनादेश जुटाने में सफलता प्राप्त कर ली गई है। विपक्षी ताकतें हताश हैं। ऐसे में प्रगति और स्वतंत्रता संग्राम से उपजे उन तमाम मूल्यों के लिए गहरा संकट खड़ा है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा हैं।
अतः आज की सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ हर राजनीतिक ध्रुवीकरण की एक विशिष्ट प्रासंगिकता है। इसीलिए जनता परिवार में संभावित एकता के प्रति एक बड़े वर्ग में दिलचस्पी है। यह एकता सचमुच आज एक बड़ी भूमिका निभा सकती है, बशर्ते इससे जुड़े दल सामाजिक न्याय की राजनीति का पुनर्आविष्कार कर सकें। अगर वे अपनी राजनीति को आरक्षण की मांग से आगे ले जा सकें। 
जाति आधारित आरक्षण आज भी प्रासंगिक है, लेकिन संपूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिहाज अपर्याप्त है। गरीब और नव-मध्य वर्ग की रोजमर्रा की आर्थिक जरूरतों से जुड़े मसलों को अगर राजनीतिक कार्यक्रम में जगह नहीं मिलती है, तो सामाजिक न्याय की राजनीति में अब दो दशक पहले जैसा आकर्षण नहीं जुड़ सकता।
इसलिए जनता परिवार के नेता सचमुच उदार, सर्व-समावेशी, न्याय आधारित भारतीय राष्ट्रवाद के समक्ष उपस्थित चुनौती का मुकाबला करना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी सियासत और आचार-व्यवहार में पुरानी समाजवादी परंपरा के दूसरे पहलुओं को भी लाना होगा। उन्हें उन संकीर्णताओं और स्वार्थों से उबरना होगा, जिनकी वजह से उनकी राजनीति बंद गली में पहुंच गई। 
बेशक इस प्रयत्न में डॉ. लोहिया और चौधरी चरण सिंह के अनेक विचार और विश्लेषण सहायक हो सकते हैं। मगर उन्हें एक और उदाहरण से सीखने की जरूरत है। देश के बंटवारे के साथ आई स्वतंत्रता के समय सांप्रदायिक भावनाओं का ज्वार उठा हुआ था। इसके बीच भी धर्म-आधारित राष्ट्रवाद के सफल होने की आशंकाएं यथार्थ बन गई थीं। तब जवाहर लाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक रूप सामने रखा था। उन्होंने घोषणा की थी कि भारत उन सबका देश है, जिसने इस भूमि पर जन्म लिया। 
मगर ये घोषणा इसलिए जन-समर्थन और स्वीकृति पा सकी, क्योंकि इसके साथ ही उन्होंने विकास और प्रगति की रूपरेखा भी देश के सामने रखी। उस दिशा में वे देश को ले गए, तो भारत का वह विचार विश्वसनीय बना, जो दादा भाई नौरोजी-महात्मा गांधी- रवींद्र नाथ टैगोर- बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और अनेक साम्यवादी-समाजवादी चिंतकों के योगदान से अस्तित्व में आया था। आज वही विचार खतरे में है। इसे बचाने के ऐतिहासिक संघर्ष में जनता परिवार अपनी कितनी प्रासंगिकता बनाता है, यह देखने पर निगाहें लगी रहेंगी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

आइआइएमसी का भ्रष्टाचार और भटनागर का तबादला

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-praxis प्रतिनिधि

"...रजिस्ट्रार का कार्यभार सम्हाल रहे ओएसडी का पद व्यवहारिक रूप से आइआइएमसी में प्रशासनिक दृष्टि से सबसे प्रभावशाली है. हैरानी की बात है कि भटनागर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में पहले से ही भ्रष्टाचार के मामलों की जांच चल रही थी, फिर भी उन्हें इतने महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया..."

'दिल्ली स्थित आइआइएमसी का मुख्य भवन'
कुछ संस्थानों की अपने गौरवशाली अतीत के चलते ऐसी ब्रांडिंग हो जाती है कि निर्विवाद रूप से सर्वोत्तम बने रहते हैं, चाहे अंदरखाने कुछ भी चल रहा हो. भारतीय जनसंचार संस्थान यानी आइआइएमसी के भी यही हाल हैं. पत्रकारिता एवं जनसंचार के लिए सर्वोत्तम माने जाने वाले इस संस्थान के अंदरूनी हालात बड़े खस्ता हैं. सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय का यह ‘स्वायत्त’ संस्थान, स्थाई और पढ़े-लिखे स्टाफ की कमी से तो जूझ ही रहा है साथ ही इसके प्रबंधन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगते रहे हैं. तथाकथित ‘स्वायत्त’, इस संस्थान में प्रशासनिक स्तर पर सारी प्रभावशाली नियुक्तियां राजनीतिक रूप से होती हैं. लेकिन इन सब पर यहीं से हर साल निकलने वाले सैकड़ों पत्रकार भी चुप्पी साधे रहते हैं. और जनता के पैसे से चलने वाला महत्वपूर्ण संस्थान राजनीतिक हस्तक्षेप और नौकरशाही की चपेट में अपनी अहमियत खोता जा रहा है. 
  
ताज़ा मामला आइआइएमसी के ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी (ओएसडी) जयदीप भटनागर के तबादले का है. जयदीप भटनागर भारतीय सूचना सेवा के ग्रुप ‘ए’ अधिकारी हैं. उन्हें जनवरी 2008 में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की ओर से तीन साल के लिए आइआइएमसी में ओएसडी बनाकर भेजा गया था. भटनागर की यह नियुक्ति राजनीतिक हस्तक्षेप के चलते आइआइएमसी के रजिस्ट्रार की नियुक्ति को दरकिनार करते हुई थी. 

जयदीप भटनागर
बीते वर्षों में भटनागर पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे हैं. लेकिन बताया जाता है कि नौकरशाही और कांग्रेस के दुलारे होने की वजह से उन पर कभी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई. यही वजह है कि उन्हें आइआइएमसी जैसे देश के महत्वपूर्ण मीडिया संस्थान में रजिस्ट्रार की नियुक्ति को दरकिनार करते हुए पिछले 6 सालों से ओएसडी के पद पर बरकरार रखा गया. कांग्रेस के शासनकाल में संस्थान के कर्मचारियों ने प्रधानमंत्री कार्यालय तक को पत्र लिखकर भटनागर की अनियमितताओं की शिकायत की थी.    

रजिस्ट्रार का कार्यभार सम्हाल रहे ओएसडी का पद व्यवहारिक रूप से आइआइएमसी में प्रशासनिक दृष्टि से सबसे प्रभावशाली है. हैरानी की बात है कि भटनागर पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में पहले से ही भ्रष्टाचार के मामलों की जांच चल रही थी, फिर भी उन्हें इतने महत्वपूर्ण पद पर नियुक्त किया गया. भटनागर के तीन साल का कार्यकाल पूरा हो जाने के बाद भी सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने रजिस्ट्रार की नियुक्ति को लटका कर उनका कार्यकाल फिर से बढ़ा दिया था. और अब जब केंद्र में सरकार बदली है तो साल बाद उनका स्थानान्तरण किया गया है. सूत्रों के मुताबिक़ भटनागर का स्थानान्तरण प्रेस इनफार्मेशन ब्यूरो (पीआईबी) में किया जा रहा है और वे आइआइएमसी के इस प्रभावशाली और मलाईदार पद को छोड़ने के इच्छुक नहीं हैं. इसे रोकने के लिए वे अपनी भरपूर ताकत लगाए हुए हैं.


साल पहले जब स्थाई रजिस्ट्रार के बजाय भटनागर को ओएसडी बनाकर संस्थान में भेजा गया तो उन्हें संस्थान से जुड़े आर्थिक मामलों के अधिकार नहीं दिए गए थे. ऐसा इसलिए क्योंकि उनके खिलाफ संस्थान में आने से पहले ही आर्थिक अनियमितताओं को लेकर जांच चल रही थी. इसके चलते ही विभागीय पदोन्नति समिति (डीपीसी) ने उनकी वरिष्ठ प्रशासनिक ग्रेड (एसईजी) की पदोन्नति को भी रोक दिया था. साथ ही इसी वजह से चयन समिति ने आइआइएस ग्रुप ए के एसईजी के एनऍफ़यू (नॉन फंक्शनल अपग्रेडेशन) की ग्रांट के लिए भी उनकी अनुशंसा नहीं की थी.


बहरहाल इस पूरे मामले में दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सूचना प्रसारण मंत्रालय ने पूरे एशिया में पत्रकारिता और जनसंचार के सबसे अहम माने जाने वाले संस्थान आइआइएमसी को ऐसे व्यक्ति के हवाले कर दिया जिस पर वित्तीय अनियमितता के चलते पहले से ही जांच चल रही थी. यह उदाहरण आइआइएमसी की अकादमिक स्वायत्तता की भी पोल खोलने वाला है.


आइआइएमसी में भटनागर के कार्यकाल के दौरान भी उन पर संस्थानकर्मियों की ओर से ही भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे हैं. प्रैक्सिस के हाथ एक ऐसी चिट्ठी लगी है जिसे संस्थान के किसी कर्मचारी ने प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजा था. इस चिट्ठी में आरोप लगाए गए कि भटनागर ने अपने पिछले ६ साल के कार्यकाल के दौरान, खुद को वित्तीय अधिकार न होने के कारण अपने मातहत कार्मचारियों को दबाव में डालकर आईआईएमसी में आर्थिक अनियमितता फैलाई है. 

पत्र में आरोप लगा गये हैं कि वे रिश्वत लेकर संस्थानकर्मियों के परिजनों को प्रूफ रीडर, क्लर्क आदि पदों पर नियुक्त करते रहे हैं. पत्र में इन संस्थानकर्मियों और उनके संबंधियों के नामों का भी जिक्र किया गया है. पत्र में कहा गया है कि इसके लिए रोजगार कार्यालय से आए आवेदन के 2800 नामों की सूची में से संस्थान की ओर से गलत पतों पर कॉल लेटर डाले गए जिससे देशभर के उम्मीदवारों को कॉल लेटर ही नहीं मिल पाया. और मनचाहे लोगों की नियुक्तियां कर दी गईं.    

पत्र में यह भी कहा गया है कि भटनागर आइआइएमसी आते वक़्त अपने साथ अपने विस्वश्त रिटायर्ड सहयोगी श्याम बिहारी लाल को भी साथ लेकर आए. माना जाता है कि लाल को एकाउंटस की जोड़तोड़ में महारत हासिल है. इसके अलावा भी भटनागर ने मनचाहे तरीके से कुछ लोगों की संस्थान में अस्थाई तौर पर नियुक्ति की है, जिनका वेतन भी हर साल मनमाने तौर पर बढ़ाया जाता रहा है.

आइआइएमसी जैसा संस्थान मीडिया के क्षेत्र में महत्वपूर्ण अकादमिक कामों के बजाय नौकरशाही, भ्रष्टाचार और राजनीतिक संरक्षणवाद के बीच झूल रहा है. यही वजह है कि दुनियाभर में मीडिया के अकादमिक अध्ययनों में इस संस्थान का कोई योगदान नहीं बन पाया है और यह सिर्फ कॉरपोरेट मीडिया के लिए सस्ते मजदूर पैदा करने तक सीमित रह गया है. 

स्टूडेंट-वर्कर्स काउंसिल की दिशा में...(पहली क़िस्त)

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लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों के लागू होने के बाद जिस तरह पूरे देशभर में छात्र राजनीति की कमर टूट गई है, इससे पता चलता है कि यह सिफारिशें साकार हुई हैं. यह साकार इस संदर्भ में नहीं हुई हैं कि इसने छात्र राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगा दी हो. जबकि कमिटी अपने एक अघोषित मकसद में कामयाब हुई है. कमिटी की लागू सिफारिशों ने छात्रों की उस राजनीति को अधिक कमजोर किया है जो मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति और नव-उदारवादी नीति-नियंताओं के साथ उसके गठजोड़ के खिलाफ मुकम्मल प्रतिरोध खड़ा कर सकती थी. इसकी एक बानगी जेएनयू है जिसका प्रतिरोध की राजनीती का लम्बा इतिहास रहा है. पिछले समय में यहाँ होने वाली बेहद लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया लिंगदोह के चलते बाधित हुई. और जब एक लम्बी कानूनी कार्रवाई के बाद लिंगदोह की सिफारिशों में मामूली रियायतों के साथ चुनाव दुबारा शुरू हुए तो वहां राजनीती के वे तेवर गायब होते गए हैं जिसके लिए जेएनयू जाना जाता रहा है. इससे चिंतित जेएनयू में राजनीति कर रहे छात्रों के एक स्वतंत्र गुट ने एक नई बहस आमंत्रित की है. जिसमें नए हालातों का विश्लेषण कर नई राह बनाने का आह्वाहन है. praxis के पाठकों के लिए आज हम यह बहस प्रकाशित कर रहे हैं-  संपादक 


“The tradition of the oppressed teaches us that the “state of emergency” in which we live is not the exception but the rule. We must attain to a concept of history that is in keeping with this insight. Then we shall clearly realize that it is our task to bring about a real state of emergency, and this will improve our position in the struggle against fascism”. Walter Benjamin.

नव-उदारवाद आपात स्थितियों की सामान्य व्यवस्था है. समाज का हर क्षेत्र आपात की ऐसी सामान्य स्थितियों में धकेल दिया गया है. समाज का कोई भी हिस्सा इस आपात से बाहर नहीं है. कोई भी बाहरी नहीं है. हम सब इस समाज रुपी फैक्ट्री के अन्दर हैं, हमसे ही ये फैक्ट्री चल रही है. मार्क्स ने कहा था कि ‘जब हम बुर्जुआ समाज को उसके लम्बे विकास और सम्पूर्णता में देखते हैं तो सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया का अंतिम परिणाम हमेशा ही खुद समाज के रूप में दिखाई देता है अर्थात अपने सामाजिक संबंधों में स्वयं मनुष्य (ह्युमन बीइंग). हर चीज़ जिसका कोई स्थिर रूप होता है, जैसे कि उत्पाद आदि, इस मूवमेंट में महज एक मोमेंट की तरह ,एक गायब होते पल की तरह प्रतीत होते हैं. ’इसलिए पिछले दिनों जब यादवपुर के छात्रों ने नारा दिया ‘नो वन इज आउट साइडर’, तो वह आज की वस्तुगत स्थिति को ही प्रकट कर रहे थे.

आज की नौजवान पीढ़ी ने इतिहास के सबसे तीव्र परिवर्तनों का अनुभव हासिल किया है. हम सब के अनुभवों में इस दौर की कहानी है. आपात की इस सामान्य व्यवस्था को, इस स्थायी संकट को मजदूर वर्ग ने अपने अनुभव में महसूस किया है. पिछले दो ढाई दशकों में ही धीरे-धीरे हमारे आसपास के सारे कार्य स्थलों में इमरजेंसी लागू हो गयी है. इमरजेंसी एक डरी हुई व्यवस्था की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. यह फैक्टरियों से लेकर कैम्पसों तक जारी है. 

नरेन्द्र मोदी का उभार ऐसी सामान्य स्थितियों का ही संसदीय उभार है. इसी तरह लिंगदोह को हमने कैम्पस इमरजेंसी के रूप में ही पहचाना था. जे.एन.यू छात्र संघ चुनाव पर रोक लगा कर इस व्यवस्था ने संकेत दे दिया था कि उसे उदारवादी संस्थानों और उसके लोकतांत्रिक रूपों की अब कोई ज़रुरत नहीं रह गयी है. जैसे मजदूर वर्ग के हर तबके के लिए अब ज्यादा और ज्यादा रेजिमेंटेसन ज़रूरी हो गया है उसी तरह ज्ञान-उत्पादन में लगे छात्रों के लिए भी यह ज़रूरी था. जिस तरह उदारवाद के गहरे अंतर्विरोध नवउदारवाद के रूप में सामने आते हैं उसी तरह कैम्पसों में छात्रसंघ चुनाव के गहरे अंतर्विरोध से ही लिंगदोह सामने आता है. 

जिस बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट के आधार पर ‘लिंगदोह’ को गठित किया गया था उसका उद्देश्य स्पष्ट था- नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के रास्ते में छात्र राजनीति के रूप में एक बड़ी बाधा को कंट्रोल करना. यह अकारण नहीं कि छात्र राजनीति में धनबल-बाहुबल को रोकने के कथित उद्देश्य वाली लिंगदोह कमीटी की सिफारिशों में जे.एन.यू. छात्र संघ चुनाव के मॉडल को आदर्श मॉडल बताया गया! सवाल यह है कि जे.एन.यू. के ख़ास मामले में लिंगदोह के खिलाफ और सामान्यतः इस नवउदारवादी इमेरजेंसी के खिलाफ संघर्ष का रास्ता क्या होगा? बेंजामिन जिसे ‘वास्तविक आपात’(Real Emergency)कह रहा है उसका वास्तविक अर्थ हमारे कैम्पस की ठोस स्थितियों में क्या हो सकता है?

सामान्यतः इस स्थायी आपात के खिलाफ संघर्ष के दो रास्ते हैं. पहला कहता है कि ऐसे समय में उदारवादी/नेहरूवियन समाजवादी सुधारों के लिए संघर्ष किया जाए. आमतौर पर यह सुनने में आता है कि मजदूर वर्ग ने जो सहूलियतें साठ और सत्तर के दशक में खुद ही लड़ कर हासिल की थीं अब वो भी उनसे छिनी जा रही है. मसलन उनके यूनियन बनाने के अधिकार से लेकर हाल में हुए श्रम कानूनों में परिवर्तन तक यह चारों और स्पष्ट है. ऐसी स्थिति में ‘सुधार ही क्रांतिकारी राजनीति है’.

लिंगदोह के मामले में भी यही दृष्टि पुराने छात्र-संघ संविधान की पुनर्बहाली की राजनीति को क्रांतिकारी राजनीति के रूप में प्रस्तुत करती है. इस पुनर्बहाली की राजनीति के केंद्र में एक अतीतमुखी इतिहास दृष्टि है. यह दृष्टि मुख्यतः छात्र-राजनीति के और सामान्यतः मजदूर वर्ग की राजनीति के पुराने फॉर्म को ही ‘क्रांतिकारी’ मानती है. इस स्थिति में हम दो गलतियां साथ साथ करते हैं. पहला हम मजदूर-वर्ग के संघर्ष को अतीत के किसी ख़ास अनुभव में जड़ कर देखते हैं. ऐसा करते ही हम उस संघर्ष की प्रगतिशील भूमिका को नयी वास्तविक स्थितियों में विकसित नहीं कर पाते. दूसरी ओर हम ये भी नहीं समझ पाते कि पूँजी कैसे उन पुराने फॉर्म्स को खुद अपने विकास के लिए इस्तेमाल करने लगती है. पूँजी वस्तुतः एक गतिवान अंतर्विरोध है. वर्ग-संघर्ष से ही पूँजी गतिशील है. इसलिए अगर वह है और सब जगह है तो यह तो तय है कि पुराने फॉर्म्स खुद उसकी गति में योग दे रहे हैं. यह अकारण नहीं कि छात्र-मजदूर के नए संघर्ष छात्र संघों या ट्रेड युनियनस से लगातार अपनी दूरी बनाए है. ‘सुधारवादी’ राजनीति के बरक्स मजदूर वर्ग अपने रोज़मर्रा के संघर्षों और नए आन्दोलनों से क्रांतिकारी संघर्ष के नए आधारों को स्पष्ट कर रहा है. यह संघर्ष का दूसरा रास्ता है . 



इसी दिल्ली शहर के भीतर चल रहे IMT मानेसर, वजीरपुर, ओखला के संघर्ष हों या सोलह दिसंबर के बाद का आन्दोलन हो. इन आन्दोलनों के भीतर से संघर्ष और सोलिडेरिटी के नए आधार निरंतर सामने आ रहे हैं. मजदूर वर्ग को विभिन्न खांचों में बांटती और उस बंटवारे से अपने को पुनुरुत्पादित करती इस व्यवस्था को डर है कि ये आन्दोलन अपने होने में इस बंटवारे को तोड़ रही है. चाहे वो सेगमेंटेशन परमानेंट और कॉन्ट्रैक्ट मजदूरों का हो , या महिला और पुरुष मजदूरों का हो या फिर छात्र और औद्योगिक मजदूरों का हो. ये सोलिडेरिटी कोई आरोपित सोलिडेरिटी नहीं है. इसे इस नवउदारवादी आपात में भयानक रूप से बढे सर्वहाराकरण के अनुभवों से छात्र भी जानते हैं और मजदूर भी जानते हैं. 

इसलिए ये आन्दोलन आने वाले समय में मजदूर –छात्र एकता के नए सामान्य रूप का निर्देश भी करता प्रतीत होता है. जादवपुर आन्दोलन भी, पिछले दशक के मजदूर वर्ग के आन्दोलनों की तरह ही पुनः इस बात को सामने रखता है कि प्रतिनिधित्व की पूरी व्यवस्था एक वास्तविक संकट में है. (Regime of Representation is in real crisis). जिस तरह पुरानी ट्रेड यूनियनस से मजदूर आन्दोलन निरंतर दूरी बनाए हुए है वैसे ही जादवपुर और कोलकाता के छात्र-मजदूर पुराने यूनियनस और संगठनों के नामों से बचते हुए, खुद अपने आप को प्रस्तुत करते हुए आन्दोलन में शामिल होते हैं. प्रतिनिधित्व का यह संकट एक ओर प्रतिनिधिमूलक संसदीय व्यवस्था से गंभीर मोहभंग की आहट है, दूसरी ओर मजदूरवर्ग के संगठन के नए रूप के निर्माण की पीड़ा भी है. संघर्ष के इस दूसरे रास्ते को ध्यान में रखते हुए हम वापिस लिंगदोह के खिलाफ राजनीति के जे.एन.यू. मॉडल को समझने की कोशिश करते हैं.

2008 में जब छात्र संघ चुनाव प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ने लिंगदोह की आड़ में रोक लगाई तो हमने यु.जी.बी.एम. से पारित किया कि हमें पुराने संविधान की पुनर्बहाली करनी है. अर्थात अपने शुरुआत से ही ‘पुनर्बहाली’ के सुधारवादी मॉडल को उद्देश्य बना कर हमने अपने को सीमित कर लिया! कहा गया कि जे.एन.यू. में लोकतंत्र का एक विकसित मॉडल है और लिंगदोह उसपे हमला कर रहा है इसलिए यहाँ हम उसका पूरा विरोध करते हैं. लेकिन जिन विश्वविद्यालयों में किसी लोकतांत्रिक प्रतिनिधि का चुनाव नहीं होता वहाँ हम लिंगदोह से ही सही चुनाव करवाए जाने की मांग को लड़ाई का एक आधार बनायेंगे. दूसरी अन्य जगहों पर जहाँ लिंगदोह से चुनाव संपन्न होते है मसलन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-संघ चुनाव, वहाँ हम चुनाव में भागीदारी करते हुए लिंगदोह का विरोध करेंगे. 

लिंगदोह के खिलाफ संघर्ष के लिए एक जॉइंट स्ट्रगल कमिटी बनायी गयी. कहा गया कि यह कमिटी दो फ्रंटों पर लड़ाई लडेगी. एक राजनीतिक दूसरा कानूनी. राजनीतिक लड़ाई में उसे एक राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म के रूप में विकसित करते हुए देश के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र-संघों और संगठनों को लिंगदोह के खिलाफ एक मंच पर लाया जाएगा और उसे एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन में बदला जाएगा. कानूनी लड़ाई के अंतर्गत हम सुप्रीम कोर्ट में अपने संविधान के पक्ष में केस लड़ेंगे. शुरूआती प्रदर्शनों के बाद पूरी लड़ाई मुख्यतः कानूनी लड़ाई में बदल गयी. 

साझे मंच के निर्माण की कोशिशें बुरी तरह असफल रही. अन्य कारणों के अलावा इसका एक प्रमुख कारण देश के अन्य विश्वविद्यालयों में छात्रों की वस्तुगत स्थिति का नितांत भिन्न होना भी शामिल था. जैसे-जैसे कोर्ट केस आगे बढ़ता गया राजनीतिक संघर्ष की दिशा अस्पष्ट होती गयी. कानूनी प्रक्रिया को तेज कराने को ही राजनीतिक संघर्ष बताया गया. जब न्यायिक सक्रियता का मामला बता कर सुप्रीम कोर्ट ने अन्य मामलों के साथ इसे भी संवैधानिक पीठ के ठंढे बसते में डाल दिया तो राजनीतिक संघर्ष का पुराना मॉडल एक अंधे मुहाने के सामने आ गया.

कोर्ट के सामने प्रदर्शन से ले कर सोलिसिटर जनरल के सामने केस की त्वरित सुनवाई के लिए प्रदर्शन आदि स्वयं में अर्थहीन और टोकन प्रतिबद्धता ही साबित हुए . राजनीतिक संघर्ष ज़ुरिडिकल हो गया! अब चुनाव के लिए समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं था. ऐसी स्थिति में लिंगदोह की आत्मा को बनाये रखते हुए कुछ टोकन रियायत के साथ चुनाव शुरू हुए. पिछले चुनावों के  अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि सामूहिक प्रतिनिधित्व और जे.एन.यू. की छात्र राजनीति उसी आपात का शिकार हो नख-दन्त विहीन हो गयी है. लिंगदोह अपने उद्देश्य में सफल होता गया. यहाँ की स्थापित राजनीतिक दृष्टि न तो विश्वविद्यालय रुपी फैक्टरी के छात्र-मजदूरों की वास्तविक स्थिति को समझ रही है और न ही लिंगदोह रुपी आपात के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष की वास्तविक दिशा को ही.

मजेदार बात यह है कि पिछले चुनावों के ठीक पहले जब छिटपुट तरीके से लिंगदोह पर चर्चा शुरू हुई तो पुनर्बहाली की राजनीति की हारी हुई दो दृष्टियों के बीच ही धींगामुश्ती हुई .एक दृष्टि कह रही थी कि हम कानूनी लड़ाई की व्यर्थता को जानते हैं और इसलिए सीधे पुराना संविधान बहाल करेंगे. यह दृष्टि सीधी पुनर्बहाली को क्रांतिकारी बताती है! दूसरी ओर कहा गया कि यह हरकत बेवकूफाना है. फिर से स्टे का खतरा है. आपके पास कोई ‘रोडमैप’ नहीं है! अर्थात पुनर्बहाली केवल कानूनी तरीके से ही संभव है. उसी के लिए संघर्ष लिंगदोह के खिलाफ वास्तविक संघर्ष है! पुनर्बहाली के ये दो रास्ते खुद पुनर्बहाली की व्यर्थता को सामने नहीं आने देना चाहते हैं. यह अतीतमुखी राजनीतिक दृष्टि है. आपात के खिलाफ ‘सुधारवादी’ संघर्ष है!

पुनर्बहाली न हो तो क्या हो? हमने ऊपर जिस दूसरे रास्ते की बात की थी उस सन्दर्भ में अगर जे.एन.यू. की ख़ास और ठोस परिस्थितियों को देखें तो हमें छात्र-मजदूर काउंसिल की दिशा में प्रयास करना होगा. सवाल है कि हमें सरकारी यूनियन ही क्यूँ चाहिए? चाहे वो पुराने रूप में हो या फिर लिंगदोह के नए रूप में! अगर हम जे.एन.यू. कैम्पस के पूरे स्पेस को देखें तो यहाँ जिस तरीके से सेगमेंटेसन है, मजदूरों –छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों के बीच, उसी के सहारे यह पूरा स्पेस पूँजी के सामाजिक संबंधों को उत्पादित-पुनरुत्पादित कर रहा है. ऐसी स्थिति में मजदूरों और छात्रों की लड़ाई को स्टूडेंट यूनियन और ट्रेड यूनियन की आरोपित एकता के सहारे नहीं लड़ा जा सकता. 

मजदूर वर्ग का संघर्ष दिखा रहा है कि इस सेग्मेंटेसन को तोड़ने की प्रक्रिया में ही क्रांतिकारी संघर्ष की दिशा है. हमें अनिवार्यतः स्टूडेंट-वर्कर्स कौंसिल की दिशा में , जनरल असेम्बली की दिशा में बढना होगा. इस आपात को पूँजी के संबंधों के वास्तविक आपात में बदलना होगा. इसी रास्ते हम प्रशासन-ठेकेदारी और दक्षिणपंथी-अस्मितावादी राजनीति को वास्तविक चुनौती दे पायेंगे. यह रास्ता ही नवउदारवादी आपात को वास्तविक चुनौती दे पायेगा. और इसी रास्ते हम माओ की सीख को नया सन्दर्भ दे पायेंगे, संघर्ष की एकता नहीं वरन ‘संघर्ष में एकता और एकता में संघर्ष’!
                                                               
(जारी...)   शून्य इतिहास.

स्टूडेंट-वर्कर्स काउंसिल की दिशा में...(पहली क़िस्त)

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लिंगदोह कमिटी की सिफारिशों के लागू होने के बाद जिस तरह पूरे देशभर में छात्र राजनीति की कमर टूट गई है, इससे पता चलता है कि यह सिफारिशें साकार हुई हैं. यह साकार इस संदर्भ में नहीं हुई हैं कि इसने छात्र राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगा दी हो. जबकि कमिटी अपने एक अघोषित मकसद में कामयाब हुई है. कमिटी की लागू सिफारिशों ने छात्रों की उस राजनीति को अधिक कमजोर किया है जो मुख्यधारा की भ्रष्ट राजनीति और नव-उदारवादी नीति-नियंताओं के साथ उसके गठजोड़ के खिलाफ मुकम्मल प्रतिरोध खड़ा कर सकती थी. इसकी एक बानगी जेएनयू है जिसका प्रतिरोध की राजनीती का लम्बा इतिहास रहा है. पिछले समय में यहाँ होने वाली बेहद लोकतांत्रिक चुनाव प्रक्रिया लिंगदोह के चलते बाधित हुई. और जब एक लम्बी कानूनी कार्रवाई के बाद लिंगदोह की सिफारिशों में मामूली रियायतों के साथ चुनाव दुबारा शुरू हुए तो वहां राजनीती के वे तेवर गायब होते गए हैं जिसके लिए जेएनयू जाना जाता रहा है. इससे चिंतित जेएनयू में राजनीति कर रहे छात्रों के एक स्वतंत्र गुट ने एक नई बहस आमंत्रित की है. जिसमें नए हालातों का विश्लेषण कर नई राह बनाने का आह्वाहन है. praxis के पाठकों के लिए आज हम यह बहस प्रकाशित कर रहे हैं-  संपादक  


“The tradition of the oppressed teaches us that the “state of emergency” in which we live is not the exception but the rule. We must attain to a concept of history that is in keeping with this insight. Then we shall clearly realize that it is our task to bring about a real state of emergency, and this will improve our position in the struggle against fascism”. Walter Benjamin.

नव-उदारवाद आपात स्थितियों की सामान्य व्यवस्था है. समाज का हर क्षेत्र आपात की ऐसी सामान्य स्थितियों में धकेल दिया गया है. समाज का कोई भी हिस्सा इस आपात से बाहर नहीं है. कोई भी बाहरी नहीं है. हम सब इस समाज रुपी फैक्ट्री के अन्दर हैं, हमसे ही ये फैक्ट्री चल रही है. मार्क्स ने कहा था कि ‘जब हम बुर्जुआ समाज को उसके लम्बे विकास और सम्पूर्णता में देखते हैं तो सामाजिक उत्पादन की प्रक्रिया का अंतिम परिणाम हमेशा ही खुद समाज के रूप में दिखाई देता है अर्थात अपने सामाजिक संबंधों में स्वयं मनुष्य (ह्युमन बीइंग). हर चीज़ जिसका कोई स्थिर रूप होता है, जैसे कि उत्पाद आदि, इस मूवमेंट में महज एक मोमेंट की तरह ,एक गायब होते पल की तरह प्रतीत होते हैं. ’इसलिए पिछले दिनों जब यादवपुर के छात्रों ने नारा दिया ‘नो वन इज आउट साइडर’, तो वह आज की वस्तुगत स्थिति को ही प्रकट कर रहे थे.

आज की नौजवान पीढ़ी ने इतिहास के सबसे तीव्र परिवर्तनों का अनुभव हासिल किया है. हम सब के अनुभवों में इस दौर की कहानी है. आपात की इस सामान्य व्यवस्था को, इस स्थायी संकट को मजदूर वर्ग ने अपने अनुभव में महसूस किया है. पिछले दो ढाई दशकों में ही धीरे-धीरे हमारे आसपास के सारे कार्य स्थलों में इमरजेंसी लागू हो गयी है. इमरजेंसी एक डरी हुई व्यवस्था की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है. यह फैक्टरियों से लेकर कैम्पसों तक जारी है. 

नरेन्द्र मोदी का उभार ऐसी सामान्य स्थितियों का ही संसदीय उभार है. इसी तरह लिंगदोह को हमने कैम्पस इमरजेंसी के रूप में ही पहचाना था. जे.एन.यू छात्र संघ चुनाव पर रोक लगा कर इस व्यवस्था ने संकेत दे दिया था कि उसे उदारवादी संस्थानों और उसके लोकतांत्रिक रूपों की अब कोई ज़रुरत नहीं रह गयी है. जैसे मजदूर वर्ग के हर तबके के लिए अब ज्यादा और ज्यादा रेजिमेंटेसन ज़रूरी हो गया है उसी तरह ज्ञान-उत्पादन में लगे छात्रों के लिए भी यह ज़रूरी था. जिस तरह उदारवाद के गहरे अंतर्विरोध नवउदारवाद के रूप में सामने आते हैं उसी तरह कैम्पसों में छात्रसंघ चुनाव के गहरे अंतर्विरोध से ही लिंगदोह सामने आता है. 

जिस बिड़ला-अम्बानी रिपोर्ट के आधार पर ‘लिंगदोह’ को गठित किया गया था उसका उद्देश्य स्पष्ट था- नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के रास्ते में छात्र राजनीति के रूप में एक बड़ी बाधा को कंट्रोल करना. यह अकारण नहीं कि छात्र राजनीति में धनबल-बाहुबल को रोकने के कथित उद्देश्य वाली लिंगदोह कमीटी की सिफारिशों में जे.एन.यू. छात्र संघ चुनाव के मॉडल को आदर्श मॉडल बताया गया! सवाल यह है कि जे.एन.यू. के ख़ास मामले में लिंगदोह के खिलाफ और सामान्यतः इस नवउदारवादी इमेरजेंसी के खिलाफ संघर्ष का रास्ता क्या होगा? बेंजामिन जिसे ‘वास्तविक आपात’(Real Emergency) कह रहा है उसका वास्तविक अर्थ हमारे कैम्पस की ठोस स्थितियों में क्या हो सकता है?

सामान्यतः इस स्थायी आपात के खिलाफ संघर्ष के दो रास्ते हैं. पहला कहता है कि ऐसे समय में उदारवादी/नेहरूवियन समाजवादी सुधारों के लिए संघर्ष किया जाए. आमतौर पर यह सुनने में आता है कि मजदूर वर्ग ने जो सहूलियतें साठ और सत्तर के दशक में खुद ही लड़ कर हासिल की थीं अब वो भी उनसे छिनी जा रही है. मसलन उनके यूनियन बनाने के अधिकार से लेकर हाल में हुए श्रम कानूनों में परिवर्तन तक यह चारों और स्पष्ट है. ऐसी स्थिति में ‘सुधार ही क्रांतिकारी राजनीति है’.

लिंगदोह के मामले में भी यही दृष्टि पुराने छात्र-संघ संविधान की पुनर्बहाली की राजनीति को क्रांतिकारी राजनीति के रूप में प्रस्तुत करती है. इस पुनर्बहाली की राजनीति के केंद्र में एक अतीतमुखी इतिहास दृष्टि है. यह दृष्टि मुख्यतः छात्र-राजनीति के और सामान्यतः मजदूर वर्ग की राजनीति के पुराने फॉर्म को ही ‘क्रांतिकारी’ मानती है. इस स्थिति में हम दो गलतियां साथ साथ करते हैं. पहला हम मजदूर-वर्ग के संघर्ष को अतीत के किसी ख़ास अनुभव में जड़ कर देखते हैं. ऐसा करते ही हम उस संघर्ष की प्रगतिशील भूमिका को नयी वास्तविक स्थितियों में विकसित नहीं कर पाते. दूसरी ओर हम ये भी नहीं समझ पाते कि पूँजी कैसे उन पुराने फॉर्म्स को खुद अपने विकास के लिए इस्तेमाल करने लगती है. पूँजी वस्तुतः एक गतिवान अंतर्विरोध है. वर्ग-संघर्ष से ही पूँजी गतिशील है. इसलिए अगर वह है और सब जगह है तो यह तो तय है कि पुराने फॉर्म्स खुद उसकी गति में योग दे रहे हैं. यह अकारण नहीं कि छात्र-मजदूर के नए संघर्ष छात्र संघों या ट्रेड युनियनस से लगातार अपनी दूरी बनाए है. ‘सुधारवादी’ राजनीति के बरक्स मजदूर वर्ग अपने रोज़मर्रा के संघर्षों और नए आन्दोलनों से क्रांतिकारी संघर्ष के नए आधारों को स्पष्ट कर रहा है. यह संघर्ष का दूसरा रास्ता है . 



इसी दिल्ली शहर के भीतर चल रहे IMT मानेसर, वजीरपुर, ओखला के संघर्ष हों या सोलह दिसंबर के बाद का आन्दोलन हो. इन आन्दोलनों के भीतर से संघर्ष और सोलिडेरिटी के नए आधार निरंतर सामने आ रहे हैं. मजदूर वर्ग को विभिन्न खांचों में बांटती और उस बंटवारे से अपने को पुनुरुत्पादित करती इस व्यवस्था को डर है कि ये आन्दोलन अपने होने में इस बंटवारे को तोड़ रही है. चाहे वो सेगमेंटेशन परमानेंट और कॉन्ट्रैक्ट मजदूरों का हो , या महिला और पुरुष मजदूरों का हो या फिर छात्र और औद्योगिक मजदूरों का हो. ये सोलिडेरिटी कोई आरोपित सोलिडेरिटी नहीं है. इसे इस नवउदारवादी आपात में भयानक रूप से बढे सर्वहाराकरण के अनुभवों से छात्र भी जानते हैं और मजदूर भी जानते हैं. 

इसलिए ये आन्दोलन आने वाले समय में मजदूर –छात्र एकता के नए सामान्य रूप का निर्देश भी करता प्रतीत होता है. जादवपुर आन्दोलन भी, पिछले दशक के मजदूर वर्ग के आन्दोलनों की तरह ही पुनः इस बात को सामने रखता है कि प्रतिनिधित्व की पूरी व्यवस्था एक वास्तविक संकट में है. (Regime of Representation is in real crisis). जिस तरह पुरानी ट्रेड यूनियनस से मजदूर आन्दोलन निरंतर दूरी बनाए हुए है वैसे ही जादवपुर और कोलकाता के छात्र-मजदूर पुराने यूनियनस और संगठनों के नामों से बचते हुए, खुद अपने आप को प्रस्तुत करते हुए आन्दोलन में शामिल होते हैं. प्रतिनिधित्व का यह संकट एक ओर प्रतिनिधिमूलक संसदीय व्यवस्था से गंभीर मोहभंग की आहट है, दूसरी ओर मजदूरवर्ग के संगठन के नए रूप के निर्माण की पीड़ा भी है. संघर्ष के इस दूसरे रास्ते को ध्यान में रखते हुए हम वापिस लिंगदोह के खिलाफ राजनीति के जे.एन.यू. मॉडल को समझने की कोशिश करते हैं.

2008 में जब छात्र संघ चुनाव प्रक्रिया पर सुप्रीम कोर्ट ने लिंगदोह की आड़ में रोक लगाई तो हमने यु.जी.बी.एम. से पारित किया कि हमें पुराने संविधान की पुनर्बहाली करनी है. अर्थात अपने शुरुआत से ही ‘पुनर्बहाली’ के सुधारवादी मॉडल को उद्देश्य बना कर हमने अपने को सीमित कर लिया! कहा गया कि जे.एन.यू. में लोकतंत्र का एक विकसित मॉडल है और लिंगदोह उसपे हमला कर रहा है इसलिए यहाँ हम उसका पूरा विरोध करते हैं. लेकिन जिन विश्वविद्यालयों में किसी लोकतांत्रिक प्रतिनिधि का चुनाव नहीं होता वहाँ हम लिंगदोह से ही सही चुनाव करवाए जाने की मांग को लड़ाई का एक आधार बनायेंगे. दूसरी अन्य जगहों पर जहाँ लिंगदोह से चुनाव संपन्न होते है मसलन दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र-संघ चुनाव, वहाँ हम चुनाव में भागीदारी करते हुए लिंगदोह का विरोध करेंगे. 

लिंगदोह के खिलाफ संघर्ष के लिए एक जॉइंट स्ट्रगल कमिटी बनायी गयी. कहा गया कि यह कमिटी दो फ्रंटों पर लड़ाई लडेगी. एक राजनीतिक दूसरा कानूनी. राजनीतिक लड़ाई में उसे एक राष्ट्रीय प्लेटफॉर्म के रूप में विकसित करते हुए देश के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्र-संघों और संगठनों को लिंगदोह के खिलाफ एक मंच पर लाया जाएगा और उसे एक राष्ट्रव्यापी आन्दोलन में बदला जाएगा. कानूनी लड़ाई के अंतर्गत हम सुप्रीम कोर्ट में अपने संविधान के पक्ष में केस लड़ेंगे. शुरूआती प्रदर्शनों के बाद पूरी लड़ाई मुख्यतः कानूनी लड़ाई में बदल गयी. 

साझे मंच के निर्माण की कोशिशें बुरी तरह असफल रही. अन्य कारणों के अलावा इसका एक प्रमुख कारण देश के अन्य विश्वविद्यालयों में छात्रों की वस्तुगत स्थिति का नितांत भिन्न होना भी शामिल था. जैसे-जैसे कोर्ट केस आगे बढ़ता गया राजनीतिक संघर्ष की दिशा अस्पष्ट होती गयी. कानूनी प्रक्रिया को तेज कराने को ही राजनीतिक संघर्ष बताया गया. जब न्यायिक सक्रियता का मामला बता कर सुप्रीम कोर्ट ने अन्य मामलों के साथ इसे भी संवैधानिक पीठ के ठंढे बसते में डाल दिया तो राजनीतिक संघर्ष का पुराना मॉडल एक अंधे मुहाने के सामने आ गया.

कोर्ट के सामने प्रदर्शन से ले कर सोलिसिटर जनरल के सामने केस की त्वरित सुनवाई के लिए प्रदर्शन आदि स्वयं में अर्थहीन और टोकन प्रतिबद्धता ही साबित हुए . राजनीतिक संघर्ष ज़ुरिडिकल हो गया! अब चुनाव के लिए समझौते के अलावा कोई रास्ता नहीं था. ऐसी स्थिति में लिंगदोह की आत्मा को बनाये रखते हुए कुछ टोकन रियायत के साथ चुनाव शुरू हुए. पिछले चुनावों के  अनुभव यह स्पष्ट करते हैं कि सामूहिक प्रतिनिधित्व और जे.एन.यू. की छात्र राजनीति उसी आपात का शिकार हो नख-दन्त विहीन हो गयी है. लिंगदोह अपने उद्देश्य में सफल होता गया. यहाँ की स्थापित राजनीतिक दृष्टि न तो विश्वविद्यालय रुपी फैक्टरी के छात्र-मजदूरों की वास्तविक स्थिति को समझ रही है और न ही लिंगदोह रुपी आपात के खिलाफ राजनीतिक संघर्ष की वास्तविक दिशा को ही.

मजेदार बात यह है कि पिछले चुनावों के ठीक पहले जब छिटपुट तरीके से लिंगदोह पर चर्चा शुरू हुई तो पुनर्बहाली की राजनीति की हारी हुई दो दृष्टियों के बीच ही धींगामुश्ती हुई .एक दृष्टि कह रही थी कि हम कानूनी लड़ाई की व्यर्थता को जानते हैं और इसलिए सीधे पुराना संविधान बहाल करेंगे. यह दृष्टि सीधी पुनर्बहाली को क्रांतिकारी बताती है! दूसरी ओर कहा गया कि यह हरकत बेवकूफाना है. फिर से स्टे का खतरा है. आपके पास कोई ‘रोडमैप’ नहीं है! अर्थात पुनर्बहाली केवल कानूनी तरीके से ही संभव है. उसी के लिए संघर्ष लिंगदोह के खिलाफ वास्तविक संघर्ष है! पुनर्बहाली के ये दो रास्ते खुद पुनर्बहाली की व्यर्थता को सामने नहीं आने देना चाहते हैं. यह अतीतमुखी राजनीतिक दृष्टि है. आपात के खिलाफ ‘सुधारवादी’ संघर्ष है!

पुनर्बहाली न हो तो क्या हो? हमने ऊपर जिस दूसरे रास्ते की बात की थी उस सन्दर्भ में अगर जे.एन.यू. की ख़ास और ठोस परिस्थितियों को देखें तो हमें छात्र-मजदूर काउंसिल की दिशा में प्रयास करना होगा. सवाल है कि हमें सरकारी यूनियन ही क्यूँ चाहिए? चाहे वो पुराने रूप में हो या फिर लिंगदोह के नए रूप में! अगर हम जे.एन.यू. कैम्पस के पूरे स्पेस को देखें तो यहाँ जिस तरीके से सेगमेंटेसन है, मजदूरों –छात्रों-शिक्षकों-कर्मचारियों के बीच, उसी के सहारे यह पूरा स्पेस पूँजी के सामाजिक संबंधों को उत्पादित-पुनरुत्पादित कर रहा है. ऐसी स्थिति में मजदूरों और छात्रों की लड़ाई को स्टूडेंट यूनियन और ट्रेड यूनियन की आरोपित एकता के सहारे नहीं लड़ा जा सकता. 

मजदूर वर्ग का संघर्ष दिखा रहा है कि इस सेग्मेंटेसन को तोड़ने की प्रक्रिया में ही क्रांतिकारी संघर्ष की दिशा है. हमें अनिवार्यतः स्टूडेंट-वर्कर्स कौंसिल की दिशा में , जनरल असेम्बली की दिशा में बढना होगा. इस आपात को पूँजी के संबंधों के वास्तविक आपात में बदलना होगा. इसी रास्ते हम प्रशासन-ठेकेदारी और दक्षिणपंथी-अस्मितावादी राजनीति को वास्तविक चुनौती दे पायेंगे. यह रास्ता ही नवउदारवादी आपात को वास्तविक चुनौती दे पायेगा. और इसी रास्ते हम माओ की सीख को नया सन्दर्भ दे पायेंगे, संघर्ष की एकता नहीं वरन ‘संघर्ष में एकता और एकता में संघर्ष’!
                                                               
(जारी...)   शून्य इतिहास.

तराई के बांग्ला विस्थापितों के प्रश्न

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भास्कर उप्रेती 

-भास्कर उप्रेती

"...असल समस्या 71 के बाद आए बंगालियों की रही. पहला उन्हें यहाँ आने के बाद किसी तरह की (रजिस्टर्ड या लीज) जमीन नहीं मिली. दूसरा उन्हें भारत की नागरिकता भी नहीं मिली. शरणार्थी का दर्जा भी नहीं मिला, जैसा कि तिब्बती नागरिकों को प्राप्त है. ‘शरणार्थी’ दर्जा प्राप्त विस्थापितों को संयुक्त राष्ट्र संघ का संरक्षण और सुविधाएं मिलती हैं..."

भारतवर्ष की आज़ादी के साथ ही विभाजन का भी दंश साथ में मिला. विभाजन का नक्शा तैयार करने वाले रेडक्लिफ ने कुछ ऐसा नक्शा खींचा कि देशतीन टुकड़ों में नज़र आने लगा. हालाँकि टुकड़े तो दो ही थे, भारत और पाकिस्तान. मगर पाकिस्तान भारत के पूर्व और पश्चिम में छितर गया. पाकिस्तान के इन दो टुकड़ों की बुनियाद तो इस्लामिक राष्ट्र के रूप में पड़ी लेकिन पूर्व और पश्चिम की इस्लामिक संस्कृति एक सी नहीं थी. खान-पान, जीवन शैली, वेश-भूषा, रंग-रूप और भाषा सब जुदा. ऐसे ही जैसे दक्षिण भारत के हिन्दू और उत्तर भारत के हिन्दू.



राजनीति में प्रभुत्व रखने वाले पश्चिमी पाकिस्तान के शासकों ने जब पूर्वी पाकिस्तान पर उर्दू भाषा थोपी तो यह सांस्कृतिक भिन्नता विद्रोह कर उठी. पाकिस्तान 1972 में फिर से विभाजित हुआ. बांग्ला देश का जन्म हुआ. बांग्ला देश में जो लोग इस बात से खफा थे कि हिन्दुस्तानियों ने इस्लामिक राष्ट्र को तोड़ने में मदद दी वे बांग्ला देश के हिन्दुओं पर जुल्म ढाने लगे.1947 के बाद ही अफवाहथीकि अब बंगाली हिन्दुओं को मुसलमान बनना पड़ेगा. इस अफवाह ने लाखों बांग्ला देशी हिन्दुओं को हिंदुस्तान में शरण लेने के लिए मजबूर किया. ये लोग सबसे पहले जात-भाई पश्चिमी बंगाल पहुँचने शुरू हुए. लेकिन बंगाल में इतने शरणार्थियों को ठहराने की जगह बची नहीं थी. 1947 में भी पूर्वी पाकिस्तान से बड़ी तादात में शरणार्थी पश्चिम बंगाल आये थे.


सो देश के दूसरे हिस्सों में इनको बसाने की तैयारी होने लगी. वैसे तैयारी कम थी, अफरातफरी ज्यादा थी. करीब 16 राज्यों में ये विस्थापित बंट गए. असम, उड़ीसा, त्रिपुरा,कर्नाटक, उत्तर प्रदेश के लेकर अंडमान-निकोबार तक.


उत्तर प्रदेश के जिस हिस्से को बंगाली विस्थपितों को ठहरने के लिए दिया गया, वह थी पीलीभीत से रुद्रपुर तक फैली तराई. तराई में 1972 से पूर्व आए पूर्वी पाकिस्तान के बंगालियों का सबसे संतोषजनक पुनर्वास हो चुका था. देश की सबसे उर्वर भूमि, पानी की शुलभता, रेल, सड़क नेटवर्क, दिल्ली से नज़दीकी, स्थानीय थाडू-बुक्सा समुदाय का भोलापन ऐसे कई वजहें थीं, जो विस्थापितों के लिए फायदेमंद साबित हुईं. पश्चिमी पाकिस्तान से आये विस्थापितों से बंगालियों ने खेती-किसानी के गुर सीख लिए. पंजाबी समुदाय जैसे-जैसे उद्योग लगाने की ओर उन्मुख होता गया, वैसे-वैसे बंगालियों के लिए रोजगार के मौके भी बढ़ते चले गए.


हालाँकि(1947-48में) पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान से आये लोगों के विस्थापन में बहुत अंतर और भेदभाव देखा गया. पश्चिमी पाकिस्तान से आये लोगों को सामान्यतया 25 एकड़ जमीन और एक लाख मुआवजा दिया गया. पूर्वी पाकिस्तान से आए विस्थापितों को इससे तीन गुना कम जमीन दी गयी और मुआवजा नहीं मिला.

तराई में इस तरह पहुंचे बांग्लादेशी विस्थापित

  • जो लोग 50-52 तक आ गए थे, उन्हें सरकार ने आठ एकड़ कृषि जमीन दी. यह रजिस्टर्ड श्रेणी की है.
  • जो लोग 1957 में आये उन्हें शक्तिफार्म में पांच एकड़ जमीन पट्टे (लीज) पर दी.
  • जो लोग 1964 तक आये उन्हें तीन या पांच एकड़ जमीन दी गयी, बिना रजिस्ट्री की.
  • 70 तक आये लोगों को एक से लेकर तीन एकड़ तक भूमि मिली, लीज पर.
  • 71 और 71 के बाद आये लोगों को किसी प्रकार की भूमि नहीं मिली.

तो असल समस्या 71 के बाद आए बंगालियों की रही. पहला उन्हें यहाँ आने के बाद किसी तरह की (रजिस्टर्ड या लीज) जमीन नहीं मिली. दूसरा उन्हें भारत की नागरिकता भी नहीं मिली. शरणार्थी का दर्जा भी नहीं मिला, जैसा कि तिब्बती नागरिकों को प्राप्त है. ‘शरणार्थी’ दर्जा प्राप्त विस्थापितों को संयुक्त राष्ट्र संघ का संरक्षण और सुविधाएं मिलती हैं.

उधमसिंह नगर में तीन लाख से अधिक आबादी

बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे डॉ. सुनील हाल्दर बताते हैं कि विभाजन और विस्थापन के लिए शासक वर्ग जिम्मेदार था. लेकिन आज़ादी की लड़ाई तो पूर्वी बांग्ला देश के नागरिकों ने भी उसी तरह लड़ी (शायद कुछ ज्यादा ही) जैसे अन्य देशवासियों ने. तब सब भारतीय बराबर थे. अब ये भेदभाव क्यों? हाल्दर कहते हैं बंगालियों ने कभी विभाजन को स्वीकार नहीं किया, जिस कारण उन्हें ये सिला मिला.

उत्तराखंड की तराई यानी उधमसिंह नगर में इस समय बंगाली नागरिकों और विस्थापितों की कुल तादात तीन लाख से ऊपर है. इनमें आधे से अधिक बंगाली(गैर नागरिक) भूमिहीन हैं. जिला मुख्यालय रुद्रपुर से 16 किलोमीटर दूर दिनेशपुर में पहला सेटलमेंट हुआ था. उसके बाद शक्तिफार्म में इन्हें बसाया गया. बाद के दिनों में ये गदरपुर, किच्छा, गुलरभोज, तुमडिया डैम आदि इलाकों में बसे. 

1970-71 में रुद्रपुर में इनके विस्थापन के लिए जिस जगह ट्रांजिट कैम्प लगा, पुनर्वासअधिकारी की विफलता से बाद में यही जगह विस्थापितों का अड्डा बन गयी. अब ट्रांजिट कैम्प, रुद्रपुर नगर में बंगाली विस्थापितों का घना क्षेत्र बन चुका है. उधमसिंह नगर के विस्थापितों की मांग है कि अब उनका बांग्लादेश लौटना संभव नहीं, क्यूंकि वे अपने भाई-बिरादरों के साथ बसने के लिए ही यहाँ आये थे. न वे बांग्ला देश लौटने की इच्छा रखते हैं, न ही बांग्ला देश की सरकार हमारी वापसी की इच्छुक है. फिर जो लोग 71 के बाद यहाँ आये, उन्हें भी यहाँ बसे हुए चार दशक से अधिक हो गए हैं.

विभिन्न राज्यों में बंगाली विस्थापितों के पुनर्वास की लड़ाई लड़ने वाले (बंगालियों के गाँधी कहे जाने वाले) स्व. पुलिनविश्वास के पुत्र (दिनेशपुर निवासी) पद्दोलोचन विश्वास बताते हैं कि तराई में बसे बंगालियों की प्रमुख मांग है कि जो लोग 1971 के बाद तराई में बसे उन्हें इससे पूर्व आये बंगालियों की तरह भारतीय नागरिकता प्रदान की जाय. 1957 और उसके बाद जिन बंगालियों को लीज पर जमीन दी गयी, उन्हें भूमिदरी अधिकार दिया जाए.


रतनपुर(शक्तिफार्म) निवासी रविन्द्रनाथ सरकार की शिकायत है कि भारत सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार ने उनके वजूद के साथ खिलवाड़ किया. 40 साल से नए भारतवर्ष में रहने के बाद भी उन्हें नागरिक नहीं माना गया. उनकी नयी पीढ़ी एक अजीब की कश्मकश में है. जब बच्चे बड़े होते हैं और उन्हें मालूम पड़ता है कि वे भारत के नागरिक नहीं हैं तो वह विचलित हो उठते हैं. स्कूल-कॉलेज में प्रवेश को जाते हैं तो उनके हाथ में बांग्लादेशीविस्थापित की पहचान होती है. सरकार कहते हैं नेताओं ने हमें वोट और आधार कार्ड का अधिकार जरूर दिया है. और पिछली आधी सदी से बंगाली वोट-बैंक की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं. जिन लोगों के पास लीज की थोड़ी बहुत-जमीन है भी, वह बैंक से इस पर कर्ज नहीं उठा सकते. जो71 के बाद आये उन्हें सरकारी नौकरी पाने में भी दिक्कत आती है.

तीन-तीन बार बंगाली विधायक

मालूम हो कि नए प्रदेश उत्तराखंड में भी बंगालियों ने तीन बार एक-एक विधानसभा सदस्य दिए हैं. पंतनगरसीट से पहली बार (बसपा से) प्रेमानंद महाजन विधायक बने, पहली चयनित विधानसभा के लिए. दूसरा चुनाव भी वे जीते. तीसरा चुनाव उन्होंने गदरपुर सीट से लड़ा जो वे हार गए. लेकिन इस बार सितारगंज सीट से किरन मंडल (भाजपा) चुनकर आए. मंडल ने बाद में कांग्रेस का दामन थामकर यह सीट मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के लिए खाली कर दी. बहुगुणा यहाँ से निर्वाचित हुए और अब भी सितारगंज के विधायक हैं. जबकि कुमाऊं मंडल विकास मंडल के अध्यक्ष बनाये गए हैं. रोचक बात ये है कि बंगाली विस्थापितों को नागरिकता और भूमिदरी के अधिकार दिलाने की बात कहकर जो लोग विधानसभा पहुंचे, उन्होंने वहां ऐसा कोई भी सवाल नहीं उठाया. जरूर(पूर्व) मुख्यमंत्री बहुगुणा ने बंगाली बच्चों को उनकी मात्र मातृभाषा यानी बंगाली में पढ़ने का अधिकार देने की बात कही, लेकिन वह भी बाद में मौखिक ही साबित हुई.

अनुसूचित जाति का दर्जा प्रमुख मांग

बंगाली विस्थापितों की एक और प्रमुख मांग है उन्हें अनुसूचित जाति का दर्जा देने की. बांग्ला देश से जो लोग तराई में आकर बसे वे (99 फीसद) नमोशूद्र समुदाय के थे. नमोशूद्र होना ही शायद एक वजह थी, जिस कारण पश्चिमी बंगाल के भद्रलोक ने उनकी पीड़ा में कभी रुचि नहीं दर्शायी. और शायद इसी वजह से उन्हें बंगाल में बसने भीनहीं दिया गया और सुदूर तराई में उन्हें आना पड़ा. रुद्रपुर निवासी शंकर चक्रवर्ती बताते हैं कि बौद्धिक और राजनीतिक रूप से प्रभावी पश्चिमी बंगाल के लोगों ने कभी बांग्लादेश से आए विस्थापितों के दर्द को मुखरित करने का उत्साह नहीं दिखाया.

विस्थापन पश्चिमी पाकिस्तान से आये लोगों का भी हुआ, जो अपने आप में कम पीड़ाजनक नहीं है, लेकिनपूर्वी पाकिस्तान के लोगों के विस्थापन को दोयम तरीके से देखा गया. बंगाल के विख्यात इतिहासकारों और फिल्मकारों ने पश्चिमी पाकिस्तान के विस्थापन पर जितना काम किया, उतना पूर्वी पाकिस्तान के विस्थापन पर कभी नहीं किया. यह ब्राह्मणवादी मानसिकता है. 

उसी प्रकार तराई से कई बार हमारे प्रतिनिधिमंडल पश्चिम बंगाल के बड़े नेताओं के पास गए, लेकिन कभी भी उन्होंने हमें गंभीरता से नहीं लिया. चक्रवर्ती आगे कहते हैं बंगाली नागरिकों(और विस्थापितों) को अनुसूचित जाति में शामिल करने का अधिकार संसद को है, लेकिन संसद तक यह मांग राज्य सरकार के माध्यम से ही पहुँच सकती है. जो फ़िलहाल संभव नहीं लगता. 1970 में पूर्वी बंगाल से आये सभी विस्थापितों को अनुसूचित जाति का दर्जा देने की मांग संसद में जरूर उठी थी, लेकिन यह प्रस्ताव पारित नहीं हो पाया. लेकिन बंगाल, उड़ीसा, त्रिपुरा और असम ने इसके ड्राफ्ट के आधार पर बाद में केंद्र से अपने-अपने राज्यों में इन जातियों को अनुसूचित जाति में शामिल करने के कानून पारित करवा लिए.

थोड़ी जमीन का मालिकाना खोने का डर

तराई में 1971 के बाद आए बांग्लादेशियों के सम्मुख नागरिकता जैसा प्रमुख संकट तो है ही लेकिन 1948 से 1952 के बीच तराई में जो बांग्लादेशी बसे उनके संकट भी कम नहीं. ये भारतीय नागरिक हैं और इनको पुनर्वास के समय आठ एकड़ जमीन मय रजिस्ट्री हासिल हुई थी. ऐसे लोग केवल दिनेशपुर क्षेत्र में हैं. लेकिन कृषि करना आदत में न होने और कृषि उपकरणों की कमी के कारण इनमें से कई लोगों ने तब बहुत मामूली कीमतों पर अपनी जमीनें पंजाबी किसानों को बेच दीं. जो पैसा मिला वह बिजनेस में लगा दिया और बहुत कम को ही बिजनेस में कामयाबी हासिल हो पायी. तो अब ऐसे लोगों के पास घर-मकान की थोड़ी सी जमीन के अलावा कुछ भी नहीं.


और जिन लोगों ने पहले जमीनें नहीं बेचीं उन्हें 2005 में शुरू हुए सिडकुल (एकीकृत औद्योगिक क्षेत्र) ने जमीन बेचने का उकसावा दिया. पहले इन लोगों ने उद्योगों के लिए खेत की मिट्टी बेचना शुरू किया, फिर खेत ही बेच दिए. जो रहे-सहे बंगाली किसान बचे थे, वे प्रॉपर्टी डीलर्स के प्रलोभन में आ गए. जमीन बेचकर पक्के मकान बनवाने,गाड़ी खरीदने, दुकान डालने, मोबाइल खरीदने, घर में लक्जरी आइटम जुटाने में ये पैसा खप गया. कुल मिलाकर दिनेशपुर में बहुत कम बंगाली अब किसान रह गए हैं और वे भी कब तक रहेंगे, कहना मुश्किल है.


उधर दूसरी बड़ी बसासत शक्तिफार्म में भूमिदरी अधिकार देने की मांग भी भू-माफिया द्वारा प्रायोजित लगती है. दिनेशपुर और आस-पास के अन्य किसानों को देखकर यहाँ के बंगाली किसानों को लगता है कि वे अगर भूमिदरी अधिकार पा जाएँ तो जल्द अमीर बन सकते हैं. क्यूंकि यहाँ भी पास में सिडकुल निर्मित हो गया है और जमीन के दाम उछाल मार रहे हैं. भूमि के आधार पर लोन लेना याभूमि बेच देना प्रमुख सपने हैं. यादरहेशक्तिफार्म ही अब बंगालियों का एकमात्र इलाका तराई में बचा है जहाँ अभी रविन्द्र संगीत, नजरूल गान, बाउलआदि सुनाई पड़ जाता है. उधमसिंह नगर का शेष बंगाली समुदाय मुख्यधाराके मोनो-कल्चर का शिकार बन चुका है. ऐसा भी नहीं कि शक्तिफार्म के बंगाली किसान बिना रजिस्ट्री की जमीन बेच ही नहीं रहे, लेकिन अब तक यह केवल छोटे-मोटे प्लाट के लिए था,जब कि कलोनाइजर्स बड़े-बड़े भू-खंड चाहते हैं.


वर्तमान में कोलकाता में पत्रकार (दिनेशपुर निवासी) पलाश विश्वास चिंता जताते हैं कि तराई के बहुत कम बंगाली शिक्षा ग्रहण कर पाए हैं. और उच्च शिक्षा में तो इनकी भागीदारी निम्नतम है. दूसरा औद्योगिक वातावरण ने इस शांत और विनम्र समुदाय में खलबली मचा दी है. युवा चकाचौंध में दिग्भ्रमित हो रहे हैं.समुदाय की मांगें मुखरितकरने में विफल रहे आन्दोलनकारी-वामपंथी नेतृत्व में युवाओं की रुचि नहीं रही. कुल मिलाकर वोट बैंक की राजनीति करने वाली पार्टियाँ ही इनकी भाग्य विधाता हैं. यूज होना ही बंगाली समुदाय की नियति बन गयी है.

क्या होगी आगे की राह


बंगाली विस्थापितों (नागरिक और गैर नागरिक) की समस्याएं प्रदेश के राजनीतिक दलों और प्रशासन की नज़र में क्या अहमियत रखती हैं, यह कहना भी मुश्किल है. पुलिन विश्वास के बाद बंगालियों के बीच से भी कोई विश्वसनीय नेतृत्व नहीं उभर पाया. जबकि तराई में ही पुनर्वासित पश्चिमी पाकिस्तान से आए लोगोंने खुद को न सिर्फ कृषि और बिजनेस में सिरमौर बना डाला, उत्तराखंड की राजनीति में भी उनका खासा दखल दीखता है.यानी सफल पुनर्वास. जबकि बंगाली समाज दोराहे पर ही खड़ा दीखता है.एक तरफ, वे बंगाली जो भारतीय नागरिक हैं, वेखुद को गैर-भारतीय बंगालियों से अलग नहीं कर सकते. ये सब एक ही मूल और एक ही जात से भारत आए थे. दूसरी तरफ,गैर-नागरिक बंगाली- जो संख्या में नागरिक बंगालियों के ही बराबर हैं, वे त्रिशंकु की तरह आसमान में लटके हैं. क्या भारत सरकार अब इन बंगालियों को भविष्य में कभी बाहर जाने के लिए कह पाएगी?अगर नहीं तो ऐसा कब होगा कि इन्हें सम्मानजनक रूप से भारतीय नागरिकता दे दी जाएगी. नागरिकता के बराबर की चुनौती उन बंगाली-भूमिवानों की जमीन को बचाए रखने की है.

विवेक पर हमले का दौर

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 -सत्येंद्र रंजन 



  स दौर में वैज्ञानिक सोच की बात करना एक दुस्साहस महसूस हो सकता है। जब देश के प्रधानमंत्री डॉक्टरों के सामने कथित भारतीय अतीत का महिमामंडन यह करते हुए यह कहते हों कि प्राचीन काल में भारत में प्लास्टिक सर्जरी होती थी और कर्ण (महाभारत के पात्र) का जन्म बताता है कि गर्भाधान की कैसी सूक्ष्म तकनीक उस युग में थी, तो मिथक और इतिहास का फर्क करने का विवेक कैसे खतरे में है, इसका अंदाजा सहज ही कोई विवेकशील व्यक्ति लगा सकता है। 


मिथक को इतिहास के रूप में पढ़ाने और बिना तार्किक मूल्यांकन के परंपरा एवं अतीत की गौरव-गाथाओं को पुनर्स्थापित करने की परियोजना जब सरकारी स्तरों पर तेजी से आगे बढ़ाई जा रही हो, तब महज कुछ बदनाम हो चुके बाबाओं और संतों में अंधविश्वास की संस्कृति को ढूंढना निरर्थक हो जाता है। 


बाबा रामपाल संविधान और कानून के शासन की धारणा को चुनौती देते रहे और उनके हजारों भक्त इस दौरान उनमें अंध-आस्था बनाए रहे, तो इस पर आखिर हैरत क्यों होनी चाहिएदीनानाथ बत्रा के “इतिहास” या हेजेलबर्ग का अनिश्चितता का सिद्धांत वेद पर आधारित होने के दावे को आखिर देश के वैज्ञानिक समुदाय और बौद्धिक जगत में से कितने लोगों ने चुनौती दी हैतात्पर्य यह कि जब बाबाओं-संतों के प्रति अंध-आस्था के चलन पर विचार हो रहा हो, तो उसके व्यापक संदर्भ को भी अवश्य ध्यान में रखा जाना चाहिए।


सबसे पहले इस तथ्य को स्वीकार करने की आवश्यकता है कि आज हम वैचारिक प्रति-क्रांति के दौर में हैं। 19वीं और 20वीं सदी में समाज सुधार आंदोलनों, राष्ट्रीय नव-जागरण और प्रगतिशील मूल्यों के संचार से जिस आधुनिक भारत का जन्म हुआ, आज प्रतिगामी शक्तियां उसकी बुनियाद पर आक्रमण कर रही हैं। 


इतिहास में पहले भी ऐसे दौर आए हैं। सामाजिक रूढ़ियों और अंध-आस्थाओं के खिलाफ तर्क एवं विद्या की संस्कृति का सूत्रपात कर गौतम बुद्ध प्राचीन भारतीय संस्कृति को नए मुकाम पर ले गए थे। लेकिन शंकराचार्य के दौर में उस पूरी चेतना को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। 


मध्य काल में भक्ति आंदोलन से जुड़े संतों ने अपने उदार, सर्वसमावेशी और मानवीय संदेशों के जरिए एक बार फिर अज्ञान एवं रूढ़ियों पर टिकी धार्मिक-सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ अलख जगाई। राजा राममोहन राय से लेकर उस दौर के अन्य समाज-सुधारकों और महर्षि दयानंद से लेकर अन्य धर्म-सुधारकों ने प्रश्न पूछने, सामाजिक परंपराओं को तार्किक कसौटियों पर कसने तथा शिक्षा एवं ज्ञान के प्रसार के लिए जो योगदान किया, उसका आधुनिक भारत के जन्म में अहम योगदान रहा। यही चेतना हमारे स्वतंत्रता संग्राम की मुख्यधारा रही। अंततः उसी से प्रेरित उसूल भारतीय संविधान की बुनियाद बने। आज उन्हीं उसूलों को चुनौती दी जा रही है।


आठ सौ साल बाद दिल्ली पर हिंदू विजय” की घोषणा के इस दौर में इस तथ्य को नहीं भुलाया जाना चाहिए कि ऐसे जयघोष करने वाली शक्तियां चाहे आसाराम हों या बाबा रामपाल- पहले उनके बचाव में खड़ी होती हैं। जब ऐसे बाबाओं की करतूतों का पूरा कच्चा चिट्ठा सामने आ जाता है, तब वे चुप भले हो जाती हैं। लेकिन गुजरे वर्षों में आबादी के बहुत बड़े हिस्से के मन में वे यह बात बैठाने में कामयाब रही हैं कि किसी विदेशी साजिश के तहत भारतीय परंपरा और इसके प्रतीक पुरुषों को बदनाम किया गया है। 


इस विमर्श में वैज्ञानिक सोच, इतिहास को वैज्ञानिक पैमानों पर परखने और परंपरा की आलोचनात्मक समीक्षा की वकालत करने वाले लोग खलनायक बता दिए जाते हैं। समाज की सारी बुराइयों का दोष विदेशी आक्रमणकारियों पर डाल कर भारतीय अतीत को आदर्श एवं स्वर्णिम युग के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। 


यहां उल्लेखनीय है कि ऐसी चर्चाओं में भारतीय अतीत को असल में हिंदू अतीत के समानार्थी ही पेश किया जाता है। तथ्य और औचित्य की कसौटियों पर इनमें से किसी दावे को सिद्ध नहीं किया जा सकता। लेकिन इन शक्तियों का यह उद्देश्य भी नहीं है। उनका मकसद विवेक की संस्कृति को नष्ट करना है, ताकि पुरातन मान्यताओं का वर्चस्व फिर से कायम किया जा सके। सिर्फ ऐसा करके की परंपरागत जातीय, लैंगिक और आर्थिक गैर-बराबरी तथा शोषण को चिर-स्थायी बनाया जा सकता है, जिनकी जड़ें आधुनिक ज्ञान एवं तर्क-वितर्क संस्कृति के कारण हिलने लगी थीं।  


आधुनिक काल में सामाजिक संस्कृति को स्वरूप देने में राजसत्ता की भूमिका पहले के किसी दौर की तुलना में अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। इसलिए कि आज शिक्षा और संचार का सबसे सशक्त स्रोत राज्य है। आजादी के बाद भारतीय राज्य-व्यवस्था का नेतृत्व स्वतंत्रता संग्राम के उदार और आधुनिक मूल्यों से प्रेरित नेताओं के हाथ में आया। इससे अशिक्षा, अंधविश्वासों और पुरातन परंपराओं के सामाजिक वर्चस्व के बावजूद देश में वैज्ञानिक सोच को स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ाए गए। 


इस महति प्रयास में जवाहर लाल नेहरू और बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर की खास भूमिका रही। उन दोनों अपने-अपने स्तरों पर भारतीय परंपराओं की आलोचना प्रस्तुत की थी। उसकी अभिव्यक्ति संविधान में हुई। नेहरू के नेतृत्व में विज्ञान और तकनीक का ढांचा बनाने के साथ-साथ समाज में वैज्ञानिक सोच को स्थापित करने की पहल हुई। इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि प्रतिगामी ताकतों के निशाने पर इन दोनों शख्सियतों की विरासत रही है। हर परंपरा और पहल को विवेक से परखने की इस विरासत के बिना न्याय और बराबरी की लड़ाई को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। इसीलिए प्रतिगामी शक्तियों ने इस विरासत- दरअसल मानवीय विवेक पर ही- हमला बोल दिया है।


इस पूरे संदर्भ पर बिना ध्यान दिए बेनकाब हो गए कुछ बाबाओं तक तमाम चर्चा को सीमित रखने से कुछ हासिल नहीं होगा। प्रकारांतर में देखें तो बाबा रामपाल या आसाराम के अंध-भक्तों और भारत के स्वर्णिम अतीत में अंध-विश्वास रखने वाले लोगों के बीच कोई गुणात्मक फर्क नहीं है। बाबा रामपाल के भक्त विवेक का परिचय देते तो वे उनके गैर-कानूनी कृत्यों और दूसरी अस्वीकार्य हरकतों के समर्थन में खड़े नहीं होते। लेकिन ऐसा ही परिचय इस समाज के पढ़े-लिखे लोग तथा समाचार माध्यम दें, तो मिथक और इतिहास को मिलाने के प्रयासों पर भी उन्हें उतना ही आहत महसूस करना चाहिए। अगर इस बिंदु पर समाज का आक्रोश व्यक्त हो, तो ढोंगी बाबाओं-संतों में सकून तलाशने की संस्कृति स्वतः कमजोर पड़ेगी। इसीलिए आज असली सवाल है सामाजिक विवेक की रक्षा का, जिसके लिए अभूतपूर्व खतरा खड़ा हो चुका है।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

नेहरू, विज्ञान और मोदी युग

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-आशुतोष उपाध्याय

"...आज नेहरू को खारिज करने की मुहिम चल रही है. चालू मीडिया विमर्श लगभग समवेत स्वर में उन्हें गांधी और पटेल से जुदाकर देश की मौजूदा तमाम बीमारियों का जनक बता रहे हैं. इस आश्वासन के साथ कि पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली बार एक सच्चा दमदार शासक देश को सारी मुसीबतों से छुटकारा दिलाने के लिए आ गया है..."

साभार- The Hindu
भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की विज्ञान दृष्टि का अंदाजा उस मशहूर जुमले से लगाया जा सकता है, जिसे उन्होंने 1946 में अपनी पुस्तक 'डिस्कवरी ऑफ इंडिया' में पेश किया. नेहरू को 'साइंटिफिक टेम्पर' वाक्यांश का जनक न भी मानें तो भी इसे लोकव्यापी बनाने का श्रेय तो उन्हें देना ही होगा. उनके मुताबिक यह "एक जीवन शैली, सोचने का खास ढंग और सामाजिक बर्ताव की एक विधि है." 



देश को आईआईटी, सीएसआईआर और अनेक राष्ट्रीय प्रयोगशालाएं देने वाले नेहरू की वैचारिक बुनावट में वैज्ञानिक सोच व संशयवाद महत्वपूर्ण स्थान रखते थे. लोकप्रिय राजनेता होने के बावजूद वे विज्ञान और टेक्नोलॉजी के बीच फर्क को समझते थे और इसीलिए देश को आगे ले जाने के लिए टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल के साथ-साथ वैज्ञानिक विचारधारा के प्रचार-प्रसार पर भी खासा जोर देते थे. यह कहना गलत न होगा कि नेहरू के लिए टेक्नोलॉजी हार्डवेयर और वैज्ञानिक सोच सॉफ्टवेयर था, देश की प्रगति के लिए वे इन दोनों का तालमेल जरूरी समझते थे. नेहरू के शब्दों में:


"आज सभी देशों व लोगों के लिए विज्ञान का इस्तेमाल अपरिहार्य और ज़रूरी है. लेकिन कुछ बातें इसके इस्तेमाल से भी ज्यादा अहम हैं. वैज्ञानिक सोच, विज्ञान का जोखिमभरा किन्तु आलोचनात्मक नजरिया, सत्य व नए ज्ञान की खोज, प्रमाण एवं परीक्षा के बिना किसी बात को स्वीकार न करने का साहस, नए प्रमाणों के सामने आने पर पुरानी मान्यताओं को बदल डालने का दमखम, प्रेक्षणीय तथ्यों न कि पूर्व-निर्धारित धारणाओं पर भरोसा, कठोर मानसिक अनुशासन- ये सब बेहद ज़रूरी हैं; सिर्फ विज्ञान के इस्तेमाल के लिए ही नहीं बल्कि हमारी तमाम दूसरी समस्याओं के समाधान के लिए भी."


आज नेहरू को खारिज करने की मुहिम चल रही है. चालू मीडिया विमर्श लगभग समवेत स्वर में उन्हें गांधी और पटेल से जुदाकर देश की मौजूदा तमाम बीमारियों का जनक बता रहे हैं. इस आश्वासन के साथ कि पृथ्वीराज चौहान के बाद पहली बार एक सच्चा दमदार शासक देश को सारी मुसीबतों से छुटकारा दिलाने के लिए आ गया है. 


प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की अतिविस्तारित छवि के पीछे खुद उनकी पार्टी और उसके दूसरे कद्दावर नेता भी गुम हो रहे हैं. पिछली सदी के अंतिम दशक में कांग्रेस सरकार की आर्थिक उदारवाद की नीतियों से उपजे खाते-पीते मध्यवर्ग के चेहरे पर आश्वस्ति और आत्ममुग्धता का भाव देखा जा सकता है- हमारी सुख-सुविधाओं पर अब कोई डाका नहीं डालेगा. अब हम दिन दूनी रात चौगुनी रफ़्तार से सम्पन्नता की सीढ़ियां चढ़ सकेंगे.


प्रधानमन्त्री मोदी की अतिप्रचारित छवियां चमत्कार का आश्वासन देती हैं. अपने लोक-लुभावन भाषणों में वह स्वयं विज्ञान की जादूगरी छवि गढ़ते हैं. बड़ी कुशलता से वह विज्ञान को उसकी विधि व चिंतन प्रक्रिया से काटते हैं. एक अस्पताल के उद्घाटन के मौके पर डाक्टरों की भीड़ को संबोधित करते हुए वह उन्हें भारत की प्राचीन चिकित्सा परंपरा पर गर्व करने की सलाह देते हैं. वह समझाते हैं कि भगवान गणेश किस तरह प्लास्टिक सर्जरी का कमाल थे. या महाभारत के कर्ण किराए की कोख की औलाद थे. प्रधानमंत्री मोदी के शब्दों में:


"मेडिकल साइंस की दुनिया में हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारा देश किसी समय में क्या था. महाभारत में कर्ण की कथा हम पढ़ते हैं. लेकिन कभी हम थोड़ा और सोचना शुरू करें तो ध्यान में आएगा कि महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की कोख से पैदा नहीं हुआ. इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था. तभी तो कर्ण,मां की कोख के बिना जन्मा हुआ होगा. हम गणेशजी की पूजा किया करते हैंकोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस जमाने मेंजिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख कर के प्लास्टिक सर्जरी प्रारंभ किया होगा."


विज्ञान दावों को स्वीकार नहीं करता. उसके लिए दावों तक पहुंचने की प्रक्रिया ज्यादा महत्वपूर्ण है. इस प्रक्रिया को हम वैज्ञानिक विधि के नाम से जानते हैं. समूची दुनिया विज्ञान के जिन फलों को आज चख रही है, वे वैज्ञानिक विधि की ही देन हैं. वैज्ञानिक विधि में किसी अवधारणा की समय एवं स्थान से स्वतंत्र प्रयोगों के जरिये बार-बार पुष्टि आवश्यक है. प्राचीन भारत में यदि स्टेम सेल, प्लास्टिक सर्जरी या किसी अन्य अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी की जानकारी थी तो प्रक्रियागत पुष्टि किये बिना दुनिया इसे स्वीकार नहीं करेगी. भले ही हम शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गाड़े इसका कितना भी ढोल क्यों न पीटते रहें.


प्रधानमंत्री मोदी के विज्ञान सम्बन्धी नजरिये की एक और बानगी उनके हाल के विदेश दौरे के एक भाषण में देखी जा सकती है. आस्ट्रेलिया की क्वीन्सलेंड यूनिवर्सिटी में उन्होंने जीएम फसलों की जबरदस्त हिमायत करते हुए ऐसे केले की खोज का आह्वान किया जो भारत की गरीब महिलाओं और बच्चों में विटामिन ए और आयरन की कमी को दूर कर सके. बहुराष्ट्रीय निगमों की पसंदीदा जीएम फसलें इस कदर विवादों से घिरी हैं कि कोई भी जिम्मेदार राष्ट्राध्यक्ष इनकी खुलेआम वकालत नहीं करता. लेकिन टेक्नोलॉजी के चमत्कारों को ही विज्ञान समझने वाले हमारे प्रधानमंत्री के बयान पर हैरान होने की ज़रूरत नहीं.


मगर हैरानी पैदा करती है मोदी युग में भारत की वैज्ञानिक बिरादरी की चुप्पी. मौके-बेमौके विज्ञान और वैज्ञानिक सोच का झंडा बुलंद करने वाले देश के शीर्ष वैज्ञानिक प्रधानमंत्री के विज्ञान सम्बन्धी बयानों पर खामोश हैं. रंग-बिरंगी सरकारों की छात्र छाया में विज्ञान शिक्षा की ठेकेदारी करने वाली विद्वतमंडली खामोश है. और वे भी खामोश हैं जो टैक्सी से भी सस्ते किराए में मंगल ग्रह पहुंचकर अब वहां जनता कालोनियां बसाने का ख़्वाब देख रहे हैं. गनीमत है प्रधानमंत्री को किसी ने यह याद नहीं दिलाया कि ग्रहों को तो छोड़िए, हमारे पुरखे सूर्य तक पहुंचने और उसको समूचा निगल जाने में सक्षम थे.

आशुतोष उपाध्याय पत्रकारिता से जुड़े रहे हैं .
अभी बच्चों के बीच वैज्ञानिक शिक्षा के क्षेत्र में काम  करते हैं. 

जो लुट चुके हैं वे किसान थे

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-राजीव पांडे
"...जिन चार-पांच गांवों में गया उनके बारे में संक्षिप्त में कहूं तो यह कहूंगाकुछ लुट चुके हैं। कुछ लुट रहे हैं और कुछ लुटने वाले हैं। जो लुट चुके हैं वे कल किसान थे आज मजदूर हैं। जो लुटने वाले हैं और लुट रहे हैं वह आज किसान हैं कल मजदूर होंगे।..."

अमृतसर के शेरो गांव के पास बहने वाला व्यास दरिया
रीब नौ महीने पहले जब पंजाब आया था तो बड़ा उत्साह था मन में। पंजाब के हरे-हरे खेतों में भांगड़ा करते पंजाबी मुंडे और कुड़ियां अभी तक फिल्मों में ही देखे थे। अब हकीकत में देखने की खुशी थी। पत्रिकाओं में पढ़ता था कि पंजाब एक संपन्न राज्य है। सोचा था इस संपन्नता का मैं भी लाभ उठाउंगा। अब समझता हूं कि आप जो देखते हैं वह हमेशा सच नहीं होता। पिछले दिनों जालंधर में रहते-रहते उब गया तो सोचा पास के किसी गांव में घूम आता हूं। क्योंकि सारे शहर एक जैसे होते हैं जहां भीड़ में आप बिल्कुल अकेले होते हैं। गांवों में ऐसा नहीं होता। लेकिन अपनापन देने वाले गांवों की हमेशा दुर्गत होती है चाहे वह पंजाब के हों या फिर अपने उत्तराखंड में। 

जिन चार-पांच गांवों में गया उनके बारे में संक्षिप्त में कहूं तो यह कहूंगा, कुछ लुट चुके हैं। कुछ लुट रहे हैं और कुछ लुटने वाले हैं।जो लुट चुके हैं वह कल किसान थे आज मजदूर हैं। जो लुटने वाले है और लुट रहे हैं वह आज किसान हैं कल मजदूर होंगे। कपूरथला के दाउदपुर, रायपुर राइयां, चक्कोकी, भक्कूवाल के अलावा अमृतसर के शेरोनंगा और शेरो बग्घा गांव में किसानों की 2 हजार एकड़ जमीन लुट चुकी है। 

पिछले सात साल से यह सिलसिला जारी है। 500 करोड़ रुपए कि इस जमीन को किसी आदमी ने लूटा होता तो किसान कोर्ट जाते लेकिन लूटने वाले व्यास दरिया के खिलाफ कोई कानून लागू नहीं होता? पंजाब सरकार ने पिछले दिनों विशेषज्ञों के दल महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश भेजे ताकि वहां से सीख लेकर पंजाब में किसानों की खुदकुशी के मामले रोक जा सकें। लेकिन इन गांवों में सरकार का कोई नुमाइंदा नहीं आया। जबकि खुदकुशी के हालात यहां बन रहे हैं। इसी तरह की परिस्थतियों से जूझते हुए पिछले बीस साल में पंजाब में करीब सवा लाख किसान-मजदूर आत्महत्या कर चुके हैं।


खुदकुशी करने वालों में किसी को साहूकार ने लूटा, किसी को सरकार ने लूटा, किसी को जमींदार ने लूटा तो किसी को दरिया ने लूटा है। सात साल पहले अमृतसर के शेरो गांव के पास बहने वाला व्यास दरिया आज अपनी मूल जगह छोड़ करीब तीन किलोमीटर दूर बह रहा है। सात सालों में दरिया ने इस दायरे में आने वाली किसानों की करीब दो हजार एकड़ जमीन काट दी है। एक एकड़ जमीन की कीमत करीब 25 लाख रुपए है। हालांकि आज दरिया के डर से इसे खरीदने वाला कोई नहीं। कितनी फसल बर्बाद हुई किसान इसकी परवाह नहीं करते। दरिया के रास्ता बदलने से कितने किसान उजड़े सरकार के पास इसका हिसाब नहीं होगा। लेकिन रायपुर राइयां के लोगों को मुंह जुबानी याद है कि अब तक कितने परिवार इस दरिया ने पूरी तरह उजाड़े हैं। ऐसे ही उजड़े लोगों में रायापुर राइयां के चरणजीत सिंह से मेरी मुलाकात हुई।


75 साल के चरणजीत सिंह अपनी जमीन के खातिर फौज छोड़कर आए थे। सात साल पहले करीब 20 एकड़ जमीन थी उनके पास। तीन बेटे लखन सिंह, हरप्रीत सिंह और जोगा सिंह के साथ मिलकर इस जमीन पर खेती करते थे। खेतों के पास ही पूरा परिवार रहता था। लेकिन दरिया के बहाव के साथ सब बिखर गया। चरणजीत ने जिन खेतों को हरभरा करने में पूरी जवानी लगा दी वह रोज-रोज, धीरे-धीरे उनके सामने बहते रहे। 

आज चरणजीत सिंह के पास केवल आधा एकड़ जमीन है। सात सालों में उनकी खेतीबाड़ी ही नहीं उजड़ी एक तरीके से परिवार भी उजड़ गया। चरणजीत सिंह को अपने छोटे बेटे के साथ पास के ही गांव भक्कूवाल में शिफ्ट होना पड़ा। बड़ा बेटे लखन सिंह को घर छोड़कर पास के ही गांव चक्कोकी में बसना पड़ा। परिवार पालने के लिए लखन और जोगा आज मजदूरी करते हैं। 

मझले बेटे को चरणजीत सिंह ने किसी तरह कर्ज लेकर विदेश भेज दिया है। पूरे देश को खाना खिलाने वाले पंजाब के किसान चरणजीत सिंह जैसे रायपुर राइयां में कई हैं। अमरीक सिंह सात साल पहले 30 एकड़ जमीन के मालिक थे। आज छह एकड़ जमीन बची है। यह भी कितने दिन रहेगी कहा नहीं जा सकता। क्योंकि व्यास दरिया धीरे-धीरे अपना दायरा बढ़ा रहा है। सर्बजीत सिंह के पास 25 में से आठ एकड़ जमीन रह गई है। सुलखन सिंह की पूरी पांच एकड़ जमीन व्यास दरिया निगल चुका है। 

अब सुलखन मजदूरी करते हैं। यही कहानी दाउदपुर के निर्मल सिंह की है। निर्मल के पास कभी 13 एकड़ जमीन हुआ करती थी आज महज सात एकड़ बची है। इन दिनों दरिया निर्मल की ही जमीन काट रहा है। चक्कोकी के जितेंदर और लवजोत सिंह इस इलाके के बड़े किसानों में गिने जाते थे। जो धीरे-धीरे छोटे हो रहे हैं। जितेंदर के पास 50 में से करीब 20 तो लवजोत के पास 60 में से 30 एकड़ ही जमीन बची है।  यह लुट चुके लोगों की कहानी है।


कई किसान अभी लुटने वाले हैं। रायपुर राइयां के भगवान सिंह के पास 24 एकड़ जमीन है। इस जमीन से दरिया की दूरी महज 100 फुट रह गई है। भगवान सिंह कहते हैं कि आज नहीं तो कल उनकी जमीन भी उड़ जाएगी। इसलिए उन्होंने अपने एक बेटे मनप्रीत सिंह को विदेश भेज दिया है। ताकि कल उसे चरणजीत के बेटों की तरह मजदूरी न करनी पड़े। हालांकि उनके साथ किसानी कर रहे दो बेटों गुरप्रीत सिंह और लखवीर सिंह के सामने न कोई विकल्प है न भगवान सिंह के पास इतने पैसे हैं कि उन्हें कहीं भेज सकें। 

भगवान सिंह के बाद हरबंश सिंह हैं। हरबंश के पास तीन एकड़ जमीन है और दरिया महज 150 फुट की दूरी पर है। हरबंश कहते हैं दूसरों की जमीन कटते हुए रोज देखता हूं। रात में व्यास के साथ जमीन के गिरने की आवाज बड़ी डरावनी लगती है। हर दिन मेरी जमीन और दरिया के बीच की दूरी कम हो रही है। लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता। सरकार के नुमाइंदे भले ही यहां न आए हों लेकिन अपनी जमीन के खातिर इन किसानों से चंडीगढ़ से लेकर दिल्ली तक के चक्कर लगाए लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई। जिन लोगों को इन्होंने चुनकर संसद और विधानसभा भेजा था वह लोग कहते हैं नदी को कैसे रोका जा सकता है। संसद में बैठकर नदियों को जोड़ने का स्वांग रचते हैं।


पंजाब क्या मेरे ख्याल से कपूरथला जिले के बाहर भी इन गांवों का नाम बहुत लोग नहीं जानते होंगे। जबकि खुदकुशी के लिए बहते दरिया पर यहां जमीन तैयार हो रही है। अभी मीडिया के लोग भी नहीं पहुंचे क्योंकि मीडिया भी किसानों की समस्याओं से ज्यादा उनकी खुदकुशी में रूचि लेता है। खुदकुशी की टीआरपी ज्यादा होती है। क्योंकि यह माना जाता है कि किसान न अखबार पढ़ता है न टीबी देखता है फिर उसकी खबर क्यों छापी जाए या क्यों दिखाई जाए। लेकिन किसान मरता है तो फिर वह अन्नदाता हो जाता है पूरे देश का। क्योंकि फिर कम से कम एक घंटे का कार्यक्रम बनता है। गंभीरता का मुखौटा लगाए हुए।


राजीव पांडे पत्रकार हैं.
अभी जालंधर में एक दैनिक अखबार में कार्यरत. 

किसकी घर वापसी?

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

पिछले दिनों आगरा में हिन्दूवादी संगठनों ने जो 'घर वापसी'का कार्यक्रम किया इस पर खूब बबाल मचा और कई सवाल भी उठे. प्रैक्सिस के सहयोगी सुनील कुमार दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में उसी तबके के लोगों से मिले, जिनकी आगरा में 'घर वापसी'कराई गई है. यहाँ उनकी मुलाक़ात कुछ नए प्रश्नों से हुई... पढ़ें- 


साभार- गोपाल शून्य
गरा में हुए धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद से सड़क तक चर्चा हो रही है। राज्यसभा में विपक्ष प्रधानमंत्री के वक्तव्य की मांग पर अड़ा हुआ है। वहीं सत्तारूढ़ पार्टी धार्मांतरण के मुद्दे पर कानून बनाने की बात कह रही है। इसके कारण संसद में देश के ज्वलंत मुद्दे पर चर्चा नहीं हो पा रही है और आम जनता को यह पता नहीं चल पा रहा है कि सरकार क्या कर रही है। भारत का संविधान हर नागरिक को इच्छानुसार धर्म माननेउनका प्रचार करने व धर्मांतरण की सुविधा देता हैलेकिन जब यह काम जबरिया या लालच के साथ करवाया जाता है तो वह गैर कानूनी होता है।


आगरा में बंगाल के मुस्लिम परिवार लम्बे समय से रहकर कूड़ा बीन कर अपने परिवार का पालन-पोषण कर रहे थे। इन्हीं में से 57 परिवारों को विश्व हिन्दू परिषदबजरंग दलहिन्दू जागरण समिति ने हवन करा कर मुसलमान से हिन्दू बना दिया। हिन्दुवादी संगठन इसे घर वापसी या पर्रावर्तन बता रही हैंवहीं अन्य समूह इसे जबरिया धर्म परिवर्तन बता रहे हैं। 

विश्व हिन्दू परिषद का कहना है कि इनके पूर्वज हिन्दू थे इसलिए अब यह अपने धर्म में वापस लौट आये हैंयह धर्मांतरण का मुद्दा है ही नहीं। वहीं दूसरे लोगों का कहना है कि इनको राशन कार्डआधार कार्डपहचान पत्र देने का लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया गयाजो कि कानूनन जुर्म है। 

जबरिया व लालच देकर धर्म परिवर्तन कराने की पुष्टि रामजन व मुनीरा के बयान से भी होता हैजो बताते हैं कि उनको बीपीएल राशन कार्ड व आधार कार्ड बनवाने के लिए कहा गया और इसके लिए जो उनको कहा गया वह सब कुछ उन्होंने किया। इससे पहले ईसाई मिशनरियों पर भी यह आरोप लगता रहा है कि वो लालच देकर धर्मांतरण कराते रहे हैं। धर्मांतरण हमेशा ही हाशिये पर पड़े लोगों का ही किया जाता है।


सवाल यह है कि क्या हवन में घी डालने से और माथे पर तिलक लगाने से हिन्दू जैसी वर्ण व्यवस्था में परिवर्तन हो जाता हैयह पहले भी कबाड़ बिनने का काम करते थे और अब भी वही काम कर रहे हैं। अगर यह बात किसी व्यक्ति से पूछा जाये कि वह कौन है, तो जवाब मिलेगा कि वह कबाड़ी वाला हैकबाड़ बीनता हैगंदा रहता हैगरीब है इत्यदिइत्यादि। 

इस तरह आगरा में कबाड़ बिनने वालों का कोई परिवर्तन हुआ ही नहीं। वह मुसलमान था तब या हिन्दू’ बनाने के बाद भी वह कबाड़ीवाला ही है। वह जिस गंदी बस्ती में पहले था आज भी उसी गंदी बस्ती में रहता हैउसी तरह के गंदे कपड़े पहनता है जिस तरह पहले पहनता था। बिमारी होने पर वही मेडिकल स्टोर से दो-चार रुपये की दवा लाकर खा लिया करता है और अपने मन को सांत्वाना देता हैं कि कोई बिमारी नहीं है। 

उसे मुसलमान या हिन्दू कहने वाले यह नहीं जानना चहते हैं कि वह भर पेट खाना खाया कि नहीं खाया। स्वच्छता अभियान से उसकी जिन्दगी में क्या बदलाव आया हैकहीं उसकी जिन्दगी पहले से तो कठिन नहीं हो गईकूड़ा प्राइवेट हाथों में देकर इनकी रोजी-रोटी तो नहीं छीन ली गयीजिन महिलाओं के पास बुरका पहनने तक को नहीं है ऐसे इन्सानों को कोई हिन्दू या मुसलमान कैसे बना पायेगा?

इस तरह के कबाड़ीवालों की संख्या दिल्ली में तीन लाख है जो सुबह की लालिमा से पहले और रात के अंधेरे में इस गली से उस गलीइस बस्ती से उस बस्तीनदी-नाले व औद्योगिक क्षेत्रों में (बच्चे पीठ पर बोरी लिये, महिलायें हाथ में चुम्बक लियेपुरुष रिक्शा लिये) इधर से उधरइस घर से उस घर घूमते हुए दिख जायेंगे। इसमें से 95 प्रतिशत पश्चिम बंगाल व असाम के मुसलमान हैं जो निरक्षर हैं। वे पढ़ना तो चाहते हैं लेकिन इनको पढ़ने का कभी मौका नहीं मिला।

मेरी मुलाकात मुहम्मद अली (22) से हुई। मुहम्मद असम के बरपेटा जिले के रहने वाले हैं। वे आठ साल पहले 14 साल की उम्र में पिता के साथ दिल्ली आ गये। दिल्ली के टिकरी बाॅर्डर में 8x10 की झोपड़ी में 1300 रुपये किराया देकर रहते हैं। हैंडपम्प का पानी पीते हैं। सरकार करोड़ों रु. खर्च कर विज्ञापन करवाती है कि यह पानी पीने योग्य नहीं है लेकिन पीने के पानी की व्यवस्था नहीं करती है। 

मुहम्मद आठ साल पहले जब अपना गांव छोड़कर दिल्ली आये उसके बाद वह अपने गांव नहीं गये। पिता की उम्र ज्यादा होने के कारण वह वापस गांव चले गये हैं। मां और तीन बहनें पहले से ही गांव में रहती हैं। मुहम्मद उनको याद करता हैं और वे लोग मुहम्मद को याद करते हैंलेकिन साल से किसी को कोई देखा नहीं हैफोन पर बात हो जाती है। 

जब कोई गांव जाता है तो मुहम्मद अपना फोटो उनको देता है कि उनके घर तक पहुंचा दें। इसी तरह उधर से परिवार वाले अपना फोटो भेज देते हैं। मुहम्मद अभी भी पढ़ना चाहता हैवह गांव जाकर अपने मां-बहन से मिलना चाहता है लेकिन जा नहीं पा रहा है। मुहम्मद घर का अकेला कमाऊ सदस्य हैउसको चिंता है कि ठंड में कूड़े कम मिलते हैं घर का खर्च कैसे चलेगा। 


जहांगीरपुरी के के’ ब्लाक में बंगाल के लालगढ़ से आये बबलू (बबलू मुसलमान हैं लेकिन नाम से हिन्दू लगते हैं संघ परिवार इनको भी हिन्दू बताकर घर वापसी करा सकता है) रहते हैं। बबलू 7-8 साल की उम्र में मां-पिता के साथ दिल्ली के भलस्वा इलाके में आ गये। पिता और मां एक गोदाम में काम करते थे जहां पर बात-बात में इनको गाली सुनने को मिलती थी। 

एक दिन वह काम छोड़कर नरेला चले गये जहां पर दो रात उनको भूखे पेट रहकर गुजारनी पड़ी। भूख मिटाने के लिए बबलू ने कूड़ा बिनना शुरू कर दिया। तब से लेकर आज तक वह कूड़ा बिनने का काम ही करते हैं। वह पत्नी और दो बच्चों के साथ के’ ब्लाॅक में झोपड़ी डालकर रहते हैं जिसके लिए उनको करीब 2000 रुपये चुकाने पड़ते हैं। इस बस्ती में करीब 300 परिवार रहते हैं। वे सभी लोग मुस्लिम हैं और बंगाल के लालगढ़ इलाके के रहने वाले हैं। 

इस बस्ती के लोग कूड़ा बिनने के लिए राजपुरा रोडमल्कागंजतिमारपुर व माल रोड जाते हैं। बबलू से यह पूछने पर कि रोहणी नजदीक है यहां क्यों नहीं जातेतो बबलू बताते हैं कि रोहणी में कूड़ा नहीं मिलता है क्योंकि यहां प्राइवेट कम्पनियां कूड़ा उठाती हैं। इसी बस्ती में रहमानसोनू व सलामन से मुलकात हुई जो कि 12-14 वर्ष के उम्र के हैं और पढ़ना चाहते हैं लेकिन इनके पास समय नहीं होता। वे सुबह बजे ही कूड़ा बिनने के लिए मल्कागंज जाते हैं दोपहर 3-4  बजे वापस लौटते है तो खाते हैं और सो जाते हैं। शाम को फिर किसी इलाके में कुड़े की तलाश में निकल जाते हैं।
दक्षिणी दिल्ली के तेहखण्ड व तुगलकाबाद में असम व बंगाल के हजारों मुस्लिम परिवार रहते हैं जो कूड़ा चुनकर अपना तथा बच्चों का पेट पालते हैं। तेहखण्ड में सरकारी जमीन पर रेलवे लाईन के किनारे झुग्गियां हैं जहां पर अधिकांश परिवार बंगाल के है और कुछ असम के हैं। ये लोग 15-25 साल से यहां रह रहे हैं। इन सरकारी जमीन पर झुग्गियों का किराया भी गांव वाले इनसे वसुलते हैं। 

तुगलाकबाद किले के अंदर जंगल में झुग्गियां हैं जहां पर असम से आये 300-350 परिवार रहते हैं। इन झुग्गियों का किराया तुगलकाबाद गांव के लोग लेते हैं। यह लोग कूड़े से लोहे के टुकड़े बिनने का काम करते हैं। वे सुबह 4-5 बजे परिवार के साथ हाथ में चुम्बक लिये हुए औद्योगिक क्षेत्र तथा तुगलकाबाद लैंड फिल एरिया में कूड़ा बिनने के लिए जाते हैं। 

ज्यादा से ज्यादा लोहा पाने के लिए डम्फर गाडि़यों के पास में पहुंच जाते हैं जिससे कभी-कभी इनको दुर्घटना का शिकार होना पड़ता है। इनके हाथ-पैर टूट जाते हैं और कभी कभी तो जान भी चली जाती है। बच्चे घर पर रहते हैं। कभी कभी कोई स्वयंसेवी संस्था पढ़ाने आ जाती है तो बच्चे इकट्ठे हो जाते हैंतो कभी कोई दलिया या खिचड़ी बांट जाता है जिसे बच्चे चाव से खाते हैं। वे पढ़ना चाहते हैं लेकिन स्कूल नहीं है। 


क्या कभी कोई मोदीविश्व हिन्दू परिषदहिन्दू जागरण समिति व बजरंग दल जैसी संस्था मुहम्मदरहमानसोनू व सलमान को पढ़ाने का बीड़ा उठा पायेगीबबलू के मां-बाप जैसे मजदूरों को इज्जत की रोटी दिला पायेगीक्या कभी इनके अधिकारों को लेकर संसद में हंगामा होगाएक तरफ धर्मांतरण के मुद्दे पर संसद ठप पड़ी है तो वहीं इसी संसद से मजदूर विरोधीकिसान विरोधीजन विरोधी बिल पास होते जा रहे हैं। शिक्षास्वास्थ्य व ग्रामीण विकास जैसे मुद्दों पर कटौती हो रही है और संसद मौन रहता है। 

आदानी जैसे उद्योगपतियों को सरकारी बैंक से 62 हजार करोड़ रू. देने पर सहमति हो जाती हैन तो इसके खिलाफ संसद में और न ही सड़क पर आवाज सुनाई देती हैं। सबका साथ सबका विकास का नारा देकर सत्ता में आयी मोदी सरकार क्या धर्मांतरण और पर्रावर्तन जैसे मुद्दे को उठाकर जन विरोधी कानून से जनता का ध्यान भटकाना चाहती हैक्या विपक्षी पार्टियों का काम एक मुद्दे को लेकर झूठी शोर-शराबा करना है या श्रम कानूनभू-अधिग्रहण कानून में हो रहे बदलावशिक्षा-स्वास्थ्य में हो रही कटौती को भी जनता के सामने लाना है

भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ माला के साथ भाला’ का मंत्र दे रहे हैंक्या यह लोगों को भड़काने वाला वक्तव्य नहीं हैइसके लिए आदित्यनाथ पर कानूनी कार्रवाई नहीं होनी चाहिएसरकार के मुखिया नरेन्द्र मोदी अपने मंत्रियों और सांसदों पर लगाम नहीं लगा पा रहे हैं। वे आर.एस.एस. को कहते हैं कि वह मंत्रियोंसांसदों को काबू में रखे। इससे साफ जाहिर होता है कि देश को आर.एस.एस. ही चला रहा है। क्या भारत सरकार लोकतंत्र’  धर्मनिरपेक्ष’ के सिद्धांत को छोड़कर फासीवादीसाम्प्रदायिक राह पर चल पड़ी है?



सुनील सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.

समकालीन विषयों पर निरंतर लेखन.
संपर्क- sunilkumar102@gmail.com

बट, 'पीके'इज नाट भेस्ट ऑफ़ टाइम

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-उमेश पंत 
http://profile.ak.fbcdn.net/hprofile-ak-ash4/371599_596263424_340334600_n.jpgहाल ही में आई फिल्म ऐक्शन-जैक्शन या फिर सिंघम सरीखी फिल्मों से तुलना करेंगे तो फिल्म निसंदेह अलग दर्जे़ की है। फिल्म जो सन्देश देती है वो पेशावर सरीखी घटनाओं के बाद तो एकदम ज़रुरी लगने लगता है। फिल्म धर्म के खिलाफ कट्टरपंथी सोच और आडंबरों के विरोध में खड़ी होती है वो भी इतनी साफगोई से कि इसे एक सिनेमाई दुस्साहस कहा जा सकता है। वो बात और है कि धार्मिक आडंबरों की भरपूर खिल्ली उड़ाते हुए भी पीके भगवान को एकदम नकार देने का साहस नहीं जुटा पाती। वो बीच का रास्ता अपनाती है। कि भगवान दो तरह के होते हैं। एक वो जो हमें बनाता है और दूसरा जिसे हम बनाते हैं। जिस भगवान को हम बनाते हैं उस भगवान को फिल्म पूरी तरह से धराशाई कर देती है। लेकिन जो भगवान हमें बनाता है उसका क्या ?

लिये शुरु से शुरु करते हैं। पीके इसी भाव से शुरु होती है। एकदम नग्न। आवरणहीन। इस विशाल दुनिया के मरुस्थल में एक नंगा आदमी खड़ा है जिसे दुनिया के बारे में कुछ नहीं पता। ठीक उस मानसिक अवस्था में जैसे हम पैदा होने के ठीक बाद होते हैं। ठीक इसी बिन्दु पर फिल्म से बड़ी उम्मीदें बंध जाती हैं। एक एलियन की नज़र से इस दुनिया को देखना जिसके लिये ये दुनिया एक अनजान गोला भर है। वो नज़र जिसमें कोई पूर्वाग्रह नहीं है। जो किसी दुनियावी आडंबर को नहीं जानती। एक बच्चे की मासूम निगाहों से तरह तरह के चोले में लिपटी इस दुनिया को समझने की यात्रा की कहानी। एक उम्दा शुरुआत।

लिबास खूबसूरत है रुह नहीं

लेकिन काश लिबास की खूबसूरती में रुह तक पहुंचने की कूव्वत होती। पीके एक अच्छे शुरुआती वादे के बाद बाॅलिवुड में कई बार देखे जा चुके टिपिकल फिल्मी मसाले की चाशनी में लिपट जाती है। धरती पर आये एलियन पीके का लाॅकेट धरती पर उतरते ही चोरी हो जाता है। अब उसे वापस जाने के लिये उस लाॅकेट वाले यंत्र को तलाशना है। 
इसी तलाश में उसे पता लगता है कि इस दुनिया में सर्वशक्तिमान भगवान का ही सिक्का चलता है और वही उसे वह लाॅकेट दिला सकता है। अब शुरु होती है उस भगवान की तलाश इसके बाद फिल्म और तलाश के बीच पीके (आमिर खान) की मुलाकात जग्गू (अनुष्का शर्मा) से होती है। जग्गू जो अपने प्रेमी सरफराज़ (सुशांत राजपूत) से जुदा होने के गम में बेल्जियम से भारत आ जाती है और एक न्यूज़ चैनल में नौकरी करने लगती है। अब पीके और जग्गू मिलकर स्वामी जी (सौरभ शुक्ला) की कैद से कैसे उस लाॅकेट को हासिल करते हैं, यही फिल्म की कहानी है।

न ह्यूमर नया है, न ट्रीटमेंट

इस पूरी कहानी को कहने में फिल्म जिस हास्य का प्रयोग करती है न वो नया और न ही कहानी की थीम को हम पहली बार सिनेमाई परदे पर देख रहे होते हैं। बाद तक आते आते फिल्म कमोवेश ओह माई गाॅडसी ही हो जाती है। वो बात और है कि ओह माई गाॅड जो बात कहती है पीके वही बात कुछ रचनात्मक तरीके से कहने की कोशिश करती है।  कुछ मूमेन्ट्स बहुत अच्छे हैं लेकिन वो मूमेन्ट्स जिस तरह से फिल्म में संयोजित होते हैं वो कहानी के साथ रवानगी में नहीं बहते। ऐसा लगता है कि जैसे जिक्शाॅपज़ल के खांचे पहले से बने हों बस उनमें उन मूमेन्ट्स को फिट कर दिया गया हो।

साहस तो है पर अधूरा

हाल ही में आई फिल्म ऐक्शन-जैक्शन या फिर सिंघम सरीखी फिल्मों से तुलना करेंगे तो फिल्म निसंदेह अलग दर्जे़ की है। फिल्म जो सन्देश देती है वो पेशावर सरीखी घटनाओं के बाद तो एकदम ज़रुरी लगने लगता है। फिल्म धर्म के खिलाफ कट्टरपंथी सोच और आडंबरों के विरोध में खड़ी होती है वो भी इतनी साफगोई से कि इसे एक सिनेमाई दुस्साहस कहा जा सकता है। वो बात और है कि धार्मिक आडंबरों की भरपूर खिल्ली उड़ाते हुए भी पीके भगवान को एकदम नकार देने का साहस नहीं जुटा पाती। वो बीच का रास्ता अपनाती है। कि भगवान दो तरह के होते हैं। एक वो जो हमें बनाता है और दूसरा जिसे हम बनाते हैं। जिस भगवान को हम बनाते हैं उस भगवान को फिल्म पूरी तरह से धराशाई कर देती है। लेकिन जो भगवान हमें बनाता है उसका क्या ? क्या धर्म के आडंबरों के मूल में वही नहीं है ? अगर नहीं तो फिर ये फिल्म इस लिहाज से कौन सी नयी बात कह जाती है ? लेकिन दूसरे नज़रिये से देखें तो कई बातें घिसे पिटे ढ़र्रे में ही सही बार-बार भी कही जाएं तो वो लाज़मी लगती हैं। पीके इस लिहाज से एक ऐसी फिल्म है जिसे खुद तो देखना ही चाहिये अपने परिवार और दोस्तों को भी ले जा सकें तो अच्छी बात है।
कौआ, कौंडोम और ये हाथ मुझे दे दे ठाकुर  

फिल्म में कुछ अच्छे लमहों को याद करें तो एक दृश्य याद आ जाता है। जग्गू पीके से पूछती है कि तुम्हारे ग्रह पे लोग नंगे कैसे रहते हैं? अजीब नहीं लगता ? तो पीके बाहर देखता है। बालकनी के बाहर एक कौवा दिखाई देता है। पीके उसे देखकर कहता है कि वो देखो- उस कौए को देखकर अजीब लगता है ? वो भी तो नंगा है। या फिर एक दूसरे दृश्य में कपड़ों के रंग से धर्मों के आडंबर को दिखाना। या गांधी की तस्वीर की कीमत पर उठाये पीके के मानीखेज़ सवाल। फिल्म दरअसल यूं ही कह दी गई इन गहरे अर्थ वाली बातों से बड़ी और अलग होने की संभावना समेटती चलती है लेकिन पैसा बटोरने का भी खयाल लगातार निर्देशक के दिमाग में चलता रहता है। इसलिये फिल्म में कौन्डोम ह्यूमर भी ठूस दिया जाता है। और न जाने क्यों भाषा के ट्रांसफर के लिये पीके को केवल लड़की का हाथ ही चाहिये जो कई लड़कियों से पिटते पिटते बचने के बाद उसे आखिरकार एक वैश्यालय में मिलता है। कई सिनेमाई शौर्टकट हैं फिल्म में। मसलन स्वामी जी के परभक्त पिता जितनी आसानी से पीके की बात मानकर उनके विरोध में आ जाते हैं या फिर सरफराज़ और जग्गू के बीच जो मिसअन्डरस्टैंडिंग होती है वो भी जमती नहीं। एलियन धरती पर पहुंच गया है लेेकिन सरफराज़ और जग्गू की जि़दगी में अब तक फेसबुक या ट्विटर क्यों नहीं आया ये थोड़ा सोचने वाली बात तो है।

पीके इससे पहले इसी विषय पर आई फिल्म ओह माई गाॅडका ओवरहाइप्ड या परिमार्जित वर्ज़न भर होने से इसलिये बच जाती है क्योंकि उसमें आमिर खान की मेहनत झलकती है। आमिर खान ने जो भूमिका निभाई है वो इतनी सरल नहीं है। फिल्म देखते हुए मुझे कुछ वक्त पहले पढ़ी एक किताब द लिटिल प्रिंसयाद आती है। उस किताब में लिटिल प्रिंस नाम का एक किरदार है जो अपने छोटे से ग्रह से दूसरे ग्रहों में एक खोज के लिये निकला है। और इस खोज में उसे ऐसी ही कई छोटी-छोटी चीज़ें ग्रोन अप्सयानी बड़े लोगों के बारे में पता चलती हैं। उसमें ग्रोन अप्सऔर जिंन्दगी को लेकर उत्सुकता भरे कई छोटे-छोटे तंज़ हैं जो लुभा जाते हैं। काश कि पीके उन गहराइयों तक पहुंच पाती जहां बिना बहुत ज्यादा कहे बहुत कुछ बयान हो जाता है। पीके कई जगह ज़रुरत से ज्यादा बोलती हुई लगती है। बाॅलिवुड में आ रही फिल्मों के चलन में फिल्म कोई नया लैंडमार्क स्थापित नहीं करती पर हां अहम सन्देश ज़रुर देती है। बाकी फिल्म की ही एक लाइन में कहें तो बहुत ज्यादा उम्मीद लेकर जाएंगे तो हासिल यही होगा -नाम मिला कुछ और शक्ल मिली कुछ और। हां इतना कहूंगा कि पीके लुल नहीं है।

 उमेश लेखक हैं. कहानी, कविता और पत्रकारीय लेखन.
गुल्लक नाम से एक वेबसाइट चलाते हैं.
संपर्क- mshpant@gmail.com

मोदी लहर पर विराम

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन
"...संकेत यह है कि मोदी सुनामी से उबर कर अब भारतीय राजनीति फिर से अपने समान धरातल पर लौट रही है। लोकसभा चुनाव में जो जनादेश आया, उसे गढ़ने में “मोदी मैजिक” और अमित शाह के जमीनी स्तर के सियासी प्रबंधन के साथ-साथ ‘अच्छे दिन’ की जगाई गई उम्मीदों की निर्णायक भूमिका थी। ये उम्मीदें भाजपा बनाए नहीं रख सकी तो आने वाले चुनावों में “मैजिक और प्रबंधन” की सीमाएं और स्पष्ट हो सकती हैं।..." 

झारखंड और जम्मू-कश्मीर विधानसभा चुनाव के नतीजों को नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी की एक और सफलता दिखाने के तर्क मौजूद हैं। अगर तुलना इन राज्यों के पिछले विधानसभा चुनावों से की जाए तो बेशक भाजपा की छलांग प्रभावशाली लगेगी। मसलन, 2009 में झारखंड में भाजपा ने 20.18 प्रतिशत वोट हासिल कर 18 सीटें जीती थीं। जम्मू-कश्मीर में 2008 में 12.45 फीसदी मत और 11 सीटें उसे हासिल हुई थीं। इस बार झारखंड में सीटें 37 और वोट 31.3 प्रतिशत मिले। जम्मू-कश्मीर में सीटें 25 हैं, और वोट 23 प्रतिशत। लेकिन क्या यह तुलना वाजिब है?


इस वर्ष 16 मई को जब लोकसभा के चुनाव परिणाम आए और भाजपा ने अप्रत्याशित जीत दर्ज की, तो राजनीतिक टीकाकारों ने उसे राजनीतिक सुनामी की संज्ञा दी। कहा गया कि उन नतीजों ने भारतीय राजनीतिक धरातल की अंदरूनी संचरना बदल दी है। अक्टूबर में महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव परिणामों को उसी भूचाल का आगे बढ़ना बताया गया। 


अगर हम इस व्याख्या को स्वीकार करते हों, तो फिर जम्मू-कश्मीर और झारखंड के ताजा जनादेश को समझने का आधार वर्ष क्या होना चाहिएजाहिर है, तार्किक यह होगा कि इन चुनाव की तुलना पिछले लोकसभा चुनाव से हो। और तब यह स्वीकार करने में किसी विवेकशील व्यक्ति को दिक्कत नहीं होगी कि जम्मू-कश्मीर और झारखंड चुनाव नतीजे भाजपा की आशाओं के अनुरूप नहीं आए। 


झारखंड में वह अपने गठबंधन सहयोगी ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के साथ मिल कर सरकार बनाने की स्थिति में पहुंच गई, मगर पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों की रोशनी में देखें तो यह परिणाम भाजपा के लिए मायूसी का सबब होना चाहिए। 


मई में राज्य की 14 में से 12 लोकसभा सीटें भाजपा के खाते में गई थीं। उसे 40.11 प्रतिशत वोट मिले थे। सिर्फ छह महीनों का फर्क यह है कि पार्टी अपने बूते बहुमत हासिल नहीं कर पाई, जबकि उसके वोट प्रतिशत में 8.81 फीसदी की गिरावट आई। 


कहा जा सकता है कि तब लोगों ने केंद्र में सरकार बनाने के लिए नरेंद्र मोदी के नेतृत्व को समर्थन दिया था, जबकि विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय पहलू प्रासंगिक हो गए। मगर इसकी अनदेखी नहीं हो सकती कि इस चुनाव में भी भाजपा का चेहरा मोदी ही थे। उन्होंने राज्य के 81 में से 39 विधानसभा क्षेत्रों में चुनाव सभाएं कीं। 


फिर इस बार भाजपा ने अपने साथ आजसू को भी जोड़ लिया था, जिसे लोकसभा चुनाव में अलग से 3.71 फीसदी वोट मिले थे। यानी ये गठबंधन 43.82 प्रतिशत वोट आधार के साथ मैदान में उतरा था। आजसू अपने वोट बचाने में सफल रहा और यही कारण है कि अब भाजपा राज्य में सरकार का नेतृत्व करने जा रही है।


जम्मू-कश्मीर पर गौर करें तो वहां ये पार्टी महज 25 सीटें ही जीत पाई। लोकसभा चुनाव में उसे 32.36 प्रतिशत वोट मिले थे। इस बार यह आंकड़ा 23 फीसदी रह गया। यानी 9.36 प्रतिशत का नुकसान। लोकसभा चुनाव में उसने लद्दाख की सीट भी जीती थी, जबकि इस बार वहां कांग्रेस ने वापसी की। 


भाजपा की तमाम सफलताएं जम्मू क्षेत्र में सिमटी रह गईं। पहले से जताई संभावनाओं के अनुरूप ही जम्मू-कश्मीर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी विधानसभा में सबसे बड़ा दल बन कर उभरी, जबकि कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस का प्रदर्शन उनके लिए जताई गई आशंकाओं की तुलना में कहीं बेहतर रहा। 


भाजपा ने इस चुनाव में मिशन 44के साथ ऊंची उम्मीदें जोड़ी थीं। यानी मकसद 87 सदस्यीय विधानसभा में अपने बूते बहुमत हासिल करना था। कश्मीर घाटी में भी उसने खूब ताकत झोंकी। मगर वहां उसका कोई उम्मीदवार जमानत नहीं जीता। कुल निष्कर्ष यह उभरा कि जम्मू के जिन मतदाताओं को हिंदुत्व और सीमित अर्थ में कथित विकास के अपने एजेंडे से उसने गोलबंद किया, उनके अलावा किसी अन्य क्षेत्र या समूह के बीच वह समर्थन नहीं पा सकी। उलटे लेह- लद्दाख में सात महीने पहले मिला समर्थन भी उसके हाथ से निकल गया। तो क्या यह कहना निराधार होगा कि इन दो राज्यों के चुनाव में “मोदी मैजिक” की सीमाएं स्पष्ट हो गईं?


संकेत यह है कि मोदी सुनामी से उबर कर अब भारतीय राजनीति फिर से अपने समान धरातल पर लौट रही है। लोकसभा चुनाव में जो जनादेश आया, उसे गढ़ने में “मोदी मैजिक” और अमित शाह के जमीनी स्तर के सियासी प्रबंधन के साथ-साथ ‘अच्छे दिन’ की जगाई गई उम्मीदों की निर्णायक भूमिका थी। ये उम्मीदें भाजपा बनाए नहीं रख सकी तो आने वाले चुनावों में “मैजिक और प्रबंधन” की सीमाएं और स्पष्ट हो सकती हैं। 


दरअसल, भाजपा के लिए फिलहाल फायदे का एक बड़ा पहलू कांग्रेस की रणनीति-हीनता है। कांग्रेस की निराशाओं का सिलसिला थमता नजर नहीं आता। हालांकि जम्मू-कश्मीर में उसका वैसा सफाया नहीं हुआ, जिसकी आशंका थी, इसके बावजूद उसके वोट प्रतिशत में और गिरावट आई, जो उसके समर्थन आधार में जारी क्षरण का संकेत है। 


झारखंड में भी पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में उसे तकरीबन 3 प्रतिशत कम वोट मिले। सीटों के लिहाज से वह चौथे नंबर पर चली गई। जम्मू-कश्मीर में भी यही हाल रहा। यानी महाराष्ट्र और हरियाणा का सिलसिला आगे बढ़ा, जहां कांग्रेस प्रमुख विपक्षी दल के रूप में भी नहीं उभर पाई थी। (महाराष्ट्र में शिवसेना के भाजपा नेतृत्व वाली सरकार में शामिल होने के बाद जाकर उसे विधानसभा में मुख्य विपक्षी दल का दर्जा मिला।) 


जाहिर है, पार्टी का संकट गहरा है। नेतृत्व और नीति दोनों ही स्तरों पर कांग्रेस संभलती नहीं दिखती। नतीजतन, वह लोगों के मानस से हट रही है। जल्द ही दिल्ली विधानसभा के चुनाव में उसे फिर ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ सकता है, जहां मीडिया पहले से ही मुख्य मुकाबला भाजपा और आम आदमी पार्टी के बीच होने की संभावनाएं जता रहा है।


कांग्रेस के पुनरुद्धार की फिलहाल क्षीण दिखती संभावनाओं का परिणाम है कि क्षेत्रीय दल नई प्रासंगिकता हासिल कर रहे हैं। झारखंड में भाजपा को मुख्य टक्कर झारखंड मुक्ति मोर्चा ने दी, जबकि बाबू लाल मरांडी के झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) ने उससे दो अधिक यानी 8 सीटें जीतीं। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस से गठबंधन तोड़ कर मैदान में उतरी नेशनल कांफ्रेंस अपनी तमाम अलोकप्रियता के बावजूद कांग्रेस से तीन अधिक यानी 15 सीटें जीतने में कामयाब रही। जाहिर है, क्षेत्रीय दलों को खारिज करने की जल्दबाजी नहीं दिखाई जानी चाहिए।


पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, झामुमो तथा झाविमो (प्रजातांत्रिक) को मिली सफलताओं पर गौर करें तो यही संकेत मिलता है कि क्षेत्रीय आकांक्षाओं की नुमाइंदगी करने वाले दल मतदाताओं की प्राथमिकता में प्रासंगिक बने हुए हैं। दो महीने पहले महाराष्ट्र में शिवसेना और एनसीपी तथा हरियाणा में इंडियन नेशनल लोक दल को मिले समर्थन के साथ ताजा परिणामों को जोड़ कर देखें तो क्षेत्रीय दलों की कायम अहमियत की और पुष्टि होती है। इसके साथ ही यह सवाल अधिक प्रासंगिक होता जा रहा है क्या आने आने वाले समय में मोदी मैजिक की चमक उतरने के साथ भारतीय राजनीति का ध्रुवीकरण भाजपा और क्षेत्रीय के बीच होगा?



लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.

स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

​ईसाईयों के बिना क्रिसमस का मौसम

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-संजय श्रीवास्तव

'द हिन्दूसे आशुतोष उपाध्याय द्वारा साभार अनूदित

"...भारत में क्रिसमस की लोकप्रियता से धार्मिक भिन्नताओं का आदर करने की वृत्ति को बढ़ावा नहीं मिला. बल्कि यहां कुछ उल्टा ही नज़ारा दिखाई देता है. उपभोक्तावाद के तहत अस्तित्व के विभिन्न रूपों का उत्पादन व उपभोग तथा विभिन्नताओं का वास्तविक दमन साथ-साथ चलता है. इसलिए हम क्रिसमस के केक का लुत्फ़ लेते हुए हैंमगर चर्चों को जलाए जाने की घटनाओं से परेशान नहीं होते..."

ambassadors.net से साभार
न्यू गुड़गांव में, जहां मैं रहता हूं, क्रिसमस बहुत मायने रखता है. आप मुझे यह बताने के लिए क्षमा करेंगे कि इस बार भी भारतीय जनता पार्टी को वोट देने वाले बहुत सारे लोग अचानक ईसाई बन गये. समूचे गुड़गांव में रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशंस ने क्रिसमस मेले लगाए, बच्चों ने वहां कैरल गीत गाए, सांताओं ने उपहार बांटे और हर उम्र के लोग लाल टोपियां पहनकर एक-दूसरे को क्रिसमस की बधाइयां देते पाए गए. 

गुड़गांव का क्रिसमस, यकीनन, अब राष्ट्रीय दिवस की शक्ल ले चुका है. मेरा वह विवरण इन दिनों देश के कई शहरों में चर्चित 25 दिसंबर के (घर वापसी) आयोजनों पर भी लागू होता है. दूसरी ओर, जब मैं केरल में अपने एक दोस्त को 'मैरी क्रिसमस'कहने के लिए फोन करता हूं तो दूसरी ओर से जवाब ठंडी प्रतिक्रिया मिलती है. दोस्त कहता है कि आज सुबह किसी और ने उसे फोन पर बधाई देते हुए याद दिलाया कि शायद भारत में यह आखिरी क्रिसमस हो. 

हालांकि यह बात (हाल की ईसाई विरोधी हिंसा के मद्देनज़र) मजाक के अंदाज़ में कही गयी, मगर यह उस उफान से कतई मेल नहीं खाती, जहां गैर-ईसाईयों की बड़ी आबादी क्रिसमस मनाती दिखाई दे रही हो. क्या यह संभव है? क्या ऐसा हो सकता है कि हमें बगैर ईसाईयों के क्रिसमस पसंद हो? जिस तरीके से क्रिसमस हम सब के साथ जुड़ गया है, एक बहु-धार्मिक समाज में परिणामविहीन नहीं रह सकता.

मैं जब छोटा था, क्रिसमस एक ख़ास समुदाय से जुड़ा दिन हुआ करता था. उत्तर भारत के ज्यादातर शहरों में लोग इसे 'बड़ा दिन'कहते थे. मुझे सिखाया गया था कि 25 दिसंबर को अगर तुम्हें राह चलते कोई इसाई दिखाई दे तो उसे 'बड़ा दिन मुबारक'कहना न भूलना. 

याद नहीं कि तब शायद किसी को मुबारकबाद देने का मौका मिला. इसलिए यह सबक व्यवहार का हिस्सा बनने के बजाय किताबी बना रहा. लेकिन इसने मुझे एक बात ज़रूर सिखाई, सचेत धर्मनिरपेक्ष तरीके से नहीं बल्कि रोजमर्रा के आम जीवन से- कि यह ख़ास धार्मिक दिन व एक ख़ास धार्मिक समुदाय आपस में जुड़े हुए हैं और भारतीय जीवन का ही एक वैधानिक पहलू हैं. 

एक बच्चे के रूप में, चूंकि क्रिसमस मेरा त्यौहार नहीं था, मैं और मेरे जैसे कई दूसरे इस त्यौहार को एक अन्य समुदाय के त्यौहार के रूप में पहचानते थे. हम मानते थे कि यह हमारे त्यौहार जितना ही वास्तविक और वैधानिक है. मेरी कल्पना में क्रिसमस मेरे जैसे हाड़-मांस के इंसानों द्वारा मनाया जाने वाला एक त्यौहार था, जो एक वास्तविक समुदाय से ताल्लुक रखते थे. 

उनके लिए बड़ा दिन उतना ही महत्वपूर्ण त्यौहार था, जितना मेरे लिए मेरे त्यौहार थे. तब हिन्दू और ईसाई एक-दूसरे के विरोधी नहीं माने जाते थे बल्कि सुपरिभाषित समुदायों के रूप में मौजूद थे. मेरे लिए यह समुदाय वास्तविक था, क्योंकि क्रिसमस और ईसाई एक दूसरे से जुड़े हुए थे.


हाल के दिनों में, जब से हिन्दुओं ने क्रिसमस को अपनाकर मनाना शुरू किया है, हम एक नए युग में प्रवेश कर गए हैं. अब वैधानिक फर्क वाला एक त्यौहार, मौज-मस्ती और जीवनशैली के कर्मकांड में तब्दील हो गया. यह किसी विदेशी अवकाश को अपनाने या एक फ्रिज खरीदने जैसी बात है. अब यह हमें उस समुदाय की वैधानिक पहचान की याद नहीं दिलाता, जिसके लिए क्रिसमस 'शॉपिंग मॉल फेस्टिवल'से कहीं ज्यादा अहमियत रखता है. 

उनके लिए यह अपने समुदाय को परिभाषित करने का आधारभूत तरीका है. किसी दूसरे समुदाय के रीति-रिवाजों और परम्पराओं को मानना अपने आप में कोई बुरी बात नहीं, मगर यह किसी और दिशा में बढ़ रहा है. जब क्रिसमस 'हमारा'त्यौहार बन जाता है, यह बड़े ही दुखद रूप से औरों को मान्यता देने, सम्मान करने और भिन्नता को स्वीकार करने की हमारी क्षमता को कमजोर कर रहा है. 

क्रिसमस को मुख्यधारा का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया ईसाईयों के प्रति बढ़ती बेरुखी साथ-साथ चल रही हैं. मानो हम कहना चाहते हों कि हम भी इसे उनकी तरह मना सकते हैं और हमें उनकी ज़रुरत नहीं है. साफ़ तौर पर यह ऐसे दौर का प्रतीक है जब ईसाईयों के बिना क्रिसमस संभव है.

एक शॉपिंग फेस्टिवल

एक शॉपिंग फेस्टिवल के रूप में क्रिसमस की खोज का इतिहास पश्चिम में बहुत पुराना है. ख़ास तौर पर 19वीं सदी के उत्तरार्ध के ब्रिटेन में. भारत में इसकी हालिया पुनरावृत्ति का गहरा सम्बन्ध यहां राजनीतिक और उपभोक्ता संस्कृतियों में आये बदलावों से है. 

ठीक यही बात योग के बारे में भी कही जा सकती है, जिसका पश्चिम में जीवनशैली से जुड़ी गतिविधि के रूप में 20वीं सदी में कायांतरण हो गया. उन्होंने योग को इसके दार्शनिक तत्वों से अलग कर दिया. पश्चिम में योग के प्रसार ने भारतीयों के प्रति सहिष्णुता में किसी किस्म की बढ़ोतरी नहीं की. 

इसी प्रकार भारत में क्रिसमस की लोकप्रियता से धार्मिक भिन्नताओं का आदर करने की वृत्ति को बढ़ावा नहीं मिला. बल्कि यहां कुछ उल्टा ही नज़ारा दिखाई देता है. उपभोक्तावाद के तहत अस्तित्व के विभिन्न रूपों का उत्पादन व उपभोग तथा विभिन्नताओं का वास्तविक दमन साथ-साथ चलता है. इसलिए हम क्रिसमस के केक का लुत्फ़ लेते हुए हैं, मगर चर्चों को जलाए जाने की घटनाओं से परेशान नहीं होते.


यह अजब विरोधाभासी स्थिति है. मेरे बचपन से बिलकुल अलग. पहले क्रिसमस हिन्दुओं का त्यौहार नहीं था, लेकिन ईसाईयों को दुश्मन समुदाय के रूप में नहीं देखा जाता था. हालांकि समुदायिक सौहार्द्य का कल्पनालोक तब भी मौजूद नहीं था, लेकिन स्थितियां आज जैसी भी नहीं थीं. 

आज, क्रिसमस बहुसंख्यक समुदाय में जबर्दस्त स्वीकृति पा रहा है- शब्द उस ईमानदारी को व्यक्त नहीं कर पा रहे, जिस ईमानदारी के साथ मेरे मोहल्ले के बच्चे 'साइलेंट नाईट'गा रहे हैं- मगर दहाड़ की बात तो छोड़िये, ईसाई विरोधी भावनाओं और कृत्यों के खिलाफ मुख्यधारा में फुसफुसाहट भी नहीं सुनाई पड़ती. 

The burnt altar of St. Sebastian’s Church at Dilshad Garden in East Delhi on Monday. Photo: S. Subramanium
दिसंबर की शुरुआत में दिल्ली में सेंट सेबेस्टियन चर्च का जला हुआ अहाता
 फोटो साभार : S. Subramanium (THe Hindu)
मुझे याद नहीं मैंने बचपन में कभी 'साइलेंट नाईट'गाया हो या बड़े दिन की मुबारकबाद देने के लिए किसी ईसाई के गुजरने के इन्तजार किया हो, मगर मुझे किसी चर्च को जलाए जाने या घर वापसी कराने जैसी किसी बात की भी याद नहीं है.


यहां जो कुछ दांव पर लगा है वह धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता की थकाऊ नारेबाजी से कहीं बड़ा है. ये वर्गीकरण उस वर्तमान को समेट पाने में नाकाम हैं, जहां एक बहुसंख्य समाज अल्पसंख्यक समुदायों के रीति-रिवाजों को तो अपना रहा है लेकिन उन्हीं अल्पसंख्यकों के वजूद को स्वीकार करने को तैयार नहीं. 

जब हम 'शॉपिंग मॉल ईसाई'बन जाते हैं- मेरे मोहल्ले का क्रिसमस समारोह तम्बोला के खेल तक सिमट जाता है- तब हम भूल जाते हैं कि धार्मिक त्यौहार वस्तुओं के उपभोग से कहीं बड़ी चीज़ है; ये हमें हमारी सामाजिक बहुलता का बोध कराते हैं. 

क्रिसमस मनाने का मौजूदा उफान खतरनाक रूप से उस मनोवृत्ति को बढ़ा रहा है, जो साल के एक दिन ईसाईयत को मनाने के हमारे अधिकार का दावा तो करती है लेकिन बाकी दिन जब हम किसी अन्य वस्तु के उपभोग में डूबे हुए हों, ईसाईयों के भले-बुरे की कोई जिम्मेदारी लेने को तैयार नहीं.



(संजय श्रीवास्तव जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय

नई दिल्ली में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर हैं.)

सुसाइड नोट: कागजों में दफन किसानों की मौत

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भारत --
मेरे सम्मान का सबसे महान शब्द
जहाँ कहीं भी प्रयोग किया जाए
बाक़ी सभी शब्द अर्थहीन हो जाते है

इस शब्द के अर्थ
खेतों के उन बेटों में है
जो आज भी वृक्षों की परछाइओं से
वक़्त मापते है 
उनके पास, सिवाय पेट के, कोई समस्या नहीं 
और वह भूख लगने पर
अपने अंग भी चबा सकते है
उनके लिए ज़िन्दगी एक परम्परा है
और मौत के अर्थ है मुक्ति....
-पाश



वो संगमरमर घिस रहा था ताकि उसकी किताब पर जिल्द बची रह सके....

जालौन जिले की कालपी तहसील का गांव सरसैला. मुझे शिवदत्त का घर खोजने में काफी समय इसलिए लग गया क्योंकि गांव के लोग उसे खचोरे के नाम से जानते थे. विश्वकर्मा जाती के शिवदत्त जालौन के 59 फीसदी सीमान्त किसानों में से एक थे. उनके पास दो बीघा पैतृक जमीन की मिल्कियत है. इसमें उनके दो विकलांग भाई भी साझीदार हैं.
जालौन में 4,37,205 हैक्टेयर के रकबे में से 44 फीसदी भूमि सिंचित है. सिंचित क्षेत्रों में किसानों को सिलसिलेवार तरीके से नकदी फसलों की तरफ धकेला गया.
शिवदत्त ने अपनी दो बीघा जमीन में से एक बीघा पर काश्त की थी. उनके भाई कहते हैं कि हमारे पास इतने पैसे नहीं थे कि पूरी जमीन बोई जा सकती.
नकदी फसलों के मामले में दिक्कत यह है कि यह मौसम के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं. यानी जोखिम की प्रायिकता काफी अधिक होती है जबकि बुवाई का खर्च गेंहू के मुकाबले दोगुने तक बैठ जाता है.
पापा सुबह से आंगन में चक्कर लगाते रहे...
"पापा सुबह से आंगन में चक्कर लगाते रहे..."
2 और 3 मार्च को हुई ओलावृष्टि ने शिवदत्त की 1 बीघे में बोई हुई मटर की फसल को 50 फीसदी तबाह कर दिया. 15 तारीख की ओलावृष्टि में शेष आधी भी चली गई. उनके भाई बताते हैं कि शिवदत्त की मौत के बाद मैंने कटाई को आधा ही छोड़ दिया. एक बीघा में अगर 20 किलो मटर भी ना निकले तो कटाई करने का क्या फायदा?
15 तारीख को सुबह से ओले गिर रहे थे. शिवदत्त की 13 साल की बेटी अंजलि बताती है, 'सुबह सात बजे से ओले गिरने शुरू हो गए. पापा के पास मैं चाय ले कर गई तो उन्होंने पीने से मना कर दिया. घर के आंगन में इधर-उधर चक्कर लगाते रहे. दोपहर को जब बारिश रुकी तो पापा और मम्मी खेत की तरफ चले गए. शाम सात बजे पता चला कि दोनों मर गए.'
दोपहर बाद पांच बच्चों के अभिभावक शिवदत्त और भाग्यवती जब खेत में पहुंचे तो खेत की तबाही उनके लिए असहनिय थी. आखिर इसी फसल पर उनकी सारी उम्मीदें टिकी थीं. अंजलि और तेजप्रताप को इस साल दसवीं का इम्तिहान देना था. पांच साल के अर्जुन को इसी साल स्कूल भेजना शुरू किया था. पांच बच्चों और दो विकलांग भाइयों की जिम्मेदारी इस दंपत्ति के कंधे पर थी.
शिवदत्त ने आसान तारीका अपनाया. उसने अपनी पत्नी को जहर दिया और बाद में खुद भी जहर पी लिया. शिवदत्त शायद अपनी पत्नी से प्रेम करता था इसलिए उसे इतना जहर ना दे पाया कि वो तुरंत मर जाए. भाग्यवती की मौत कालपी के अस्पताल में हुई. इसलिए उसका पोस्टमार्टम संभव हो पाया. शिवदत्त की जान खेत में चली गई. इसलिए उसकी लाश को चीराघर ले जा कर पोस्टमार्टम करवाने की जहमत नहीं उठाई गई.
शिवदत्त का 13 साल का लड़का तेजप्रताप इस दुर्घटना के समय जालौन से 900 किलोमीटर दूर राजस्थान के जयपुर में था. वो दो दिन पहले ही जयपुर पहुंचा था. इसी समय मुझे याद आया कि मैं पिछले साल अप्रैल के महीने में दिल्ली विश्वविद्यालय मेट्रो स्टेशन के बाहर महोबा के एक 15 साल के लड़के से मिला था जोकि दिल्ली में इसलिए रिक्शा चला रहा था ताकि वो अपनी 11वीं की पढ़ाई का साल भर का खर्च जुटा सके.
तेज प्रताप जैसे अभाव में शिक्षा हासिल करने वाले लड़कों के लिए गर्मी की छुट्टियाँ मनाली के पहाड़ घूमने के लिए नहीं होती हैं. ये लोग दिल्ली, मुंबई, जयपुर,ग्वालियर में मौसमी मजदूर में तब्दील हो जाते हैं ताकि उनके पिता पैसे के अभाव के चलते उन्हें तालीम से महरूम ना कर पाएं. तेज प्रताप को जयपुर में मार्बल की घिसाई का काम करना था. ताकि फर्श में काच की चमक पैदा की जा सके.
शिवदत्त के बच्चों को कालपी के नेकदिल पुलिस अधिकारी महेंद्र कुमार ने गोद लिया है. उन्होंने इस परिवार को वचन दिया है कि वो पांच हजार रूपए माहवार का खर्च अपनी तनख्वाह से देते रहेंगे ताकि ये बच्चे पढ़ सकें. महेंद्र कुमार से जब मैंने इस प्रकरण के बारे में बात की तो उन्होंने कहा कि 'सरकार के अनुसार इस दंपत्ति ने पारिवारिक कलह के कारण जान दी. लेकिन आप खुद सोचिए जब गरीबी होगी,अभाव होगा तो कलह तो होगी ही.'
बहरहाल सरकारी जांच रिपोर्ट में लिखा है कि शिवदत्त की फसल पहले ही कट चुकी थी. जबकि शिवदत्त के भाई हरी ओम के अनुसार यह दंपत्ति फसल काटने के लिए ही खेत पर गया था. रिपोर्ट में लिखा हुआ है कि दंपत्ति कलह का शिकार थे. मैंने बच्चों से पूछा कि क्या मम्मी-पापा में झगड़ा हुआ था? तो अंजली ने जवाब दिया हमारे सामने तो नहीं हुआ था. पापा सुबह से किसी से बात नहीं कर रहे थे. बस आंगन में चक्कर लगाते जा रहे थे. खाना भी नहीं खाया.
मैं शिवदत्त के घर से निकला तो गांव के नुक्कादा पर चाय की दुकान पर रुक गया. चाय पीने के साथ ही मैंने वहां पर मौजूद लोगों से शिवदात की शराबनोशी के बारे में पूछा. बाबूराम मेरे को बताते हैं कि होली के दिन उन्होंने शिवदत्त को पिलानी चाही थी. शिवदात ने यह कहते हुए माफ़ी मांग ली कि वो पांच बच्चों के पिता हैं. बहरहाल सरकारी रिपोर्ट के अनुसार शिवदात शराब का लती था. और इस तरीके से पूरे मामले को कागजों में दफ़न कर दिया गया.

कोऊ नृप होय हमें क्या हानि, चेरी छोड़ी ना होइ हैं रानी....

कालपी तहसील का गांव चमारी. बम्हौरी और चमारी से यह मेरी पांचवी मुठभेड़ है. मैं गांव के बीच में मौजूद दूकान पर रुक्मेश पाल का पता पूछने के लिए रुकता हूँ. दूकान टीवी पर प्रचारित सामानों की घटिया नक़ल से अटी पड़ी है. नारंगी रंग के पैकट जो देखने में कुरकुरे जैसा दिखता है वास्तव में कुडकुड है. निरमा साबुन की जगह नीमरा. पार्ले-जी का देहाती संस्करण पर्ल-जी. फ़ूड इंस्पेक्टर सबसे मलाईदार नौकरी में से एक है.
34 साल के रुक्मेश पाल बिरादरी से आते थे. उनके पास 10 बीघा पैतृक जमीन थी. इसके अलावा उन्होंने 40 बीघा जमीन बलकट पर ली थी. इस जमीन के लिए उनको 7 सात हजार रूपए बीघा के हिसाब से 2 लाख 80 हजार रूपए का चुकाने थे. इसके लिए उन्होंने 1 लाख रूपए किसान क्रेडिट कार्ड से कर्ज उठाया. पचास हजार रूपए सहकारी सोसाइटी से लोन लिया. इन पचास बीघा में रुक्मेश ने मसूर,गेंहू और मटर की फसल उगाई. यह बड़ा जुआ था. रुक्मेश के लिए 'आर या पार'वाली लड़ाई जैसा था.
2 और 3 साल तारीख की बारिश ने सबसे ज्यादा नुक्सान जालौन के इसी क्षेत्र में किया था. रुक्मेश ने 'आर या पार'वाले इस मामले में हार मान ली. उसने खेत के बगल से गुजर रही रेल लाइन पर ट्रेन के सामने छलांग लगा दी. उसकी लाश ट्रेन के साथ 800 मीटर तक घिसटती रही. इसके बाद जो मांस का लोथड़ा घर वालों को सुपुर्द किया गया घर वालों ने उसे रुक्मेश की लाश मान कर दाह संस्कार कर दिया.
कोई सरकार हो हमें तो उसी तरह से मरना-खपना है
कोई सरकार हो हमें तो उसी तरह से मरना-खपना है
आखिर रुक्मेश ने आत्महत्या क्यों कि? इस सवाल का जवाब देते हुए उनके चाचा जगदीश पाल बताते हैं कि रुक्मेश के पिता का देहांत हुए साल भर भी नहीं हुआ था. उनके पिता पर 4 लाख के लगभग का कर्ज था. फसल की चिंता ने उनकी जान ले ली थी. इसके बाद पिता की त्रयोदशी के लिए रुक्मेश ने 2 लाख का कर्ज स्थानीय महाजन से ले लिया था. कर्ज धीरे-धीरे कब पहाड़ बन जाता है पता भी नहीं चलता.
जब जगदीश पाल मुझे त्रयोदशी के खर्च के बारे में बता रहे थे बरबस ही उरई में काम कर रहे वरिष्ट पत्रकार केपी सिंह की सुध आ गई. पिछली शाम ही उन्होंने किसान आत्महत्या के लिए सामाजिक खर्च की भूमिका को रेखांकित किया था. उनका कहना था,
"नकदी फसलें जब यहां आई तो शुरुवात में किसानों के हाथ में बड़ी रकम आई. इसके चलते सामाजिक खर्ज में तेजी से बढ़ोत्तरी आप ये मानिए पांच साल में सभी सामाजिक कार्यक्रमों में होने वाला खर्च दोगुने पर पहुंच गया. नकदी फसल के भरोसे लोगों ने बड़ी रकम कर्जे पर ले कर खर्च करनी शुरू कर दी. त्रयोदशी का खर्च 2 से 5 लाख पर पहुंच गया. चपरासी और कांस्टेबल के दहेज़ की दर 9-10 लाख पर पहुंच गई. कर्ज पर ले कर किए गए सामाजिक खर्च अब किसान की मौत की वजह बन रहा है".
सरकारी जांच रिपोर्ट में लिख हुआ है कि रुक्मेश जानवर चराते हुए रेल की चपेट में आ गए थे. जगदीश पाल बताते है कि रुक्मेश कभी जानवर नहीं चराते थे. जानवर की देखभाल का काम दरअसल यहां महिलाओं के जिम्मे रहता है. रुक्मेश की माँ यह काम करती हैं. वो उस समय भी जानवर चराने के लिए ही गई हुई थीं जब मैं रुक्मेश के घर पहुंचा था. जांच रिपोर्ट कितनी सतही है इसकी बानगी इस बात से लग जाती है कि रिपोर्ट में रुक्मेश की जाती चमार लिखी हुई है. जगदीश पाल सफाई देते हैं , 'हमारे खेत के करीब से रेल की पटरी गुजरती है. कोई रेल पटरी के पास जानवर क्यों चराएगा जबकि उनके वहां मरने की संभावना हो?'
बातचीत खत्म होने के बाद चाय आई. जगदीश पाल ने चाय पीने के बाद खैनी मलना शुरू किया. बारीकी से तम्बाखू के बीच से डंठल छांटते हुए जगदीश पाल में कहा, 'इस साल हमने बीजेपी को भरपूर बहुमत दिया. मैंने अपनी जिंदगी में पहली बार बीजेपी को वोट दिया था. सोचा था मोड़ी कुछ करेगा. लेकिन वो तो विदेश में घूम रहे हैं कभी लंका तो कभी अमेरिका.
उन्होंने गुस्से से कहा, 'सरकार कह रही है कि हमसे कर्ज वसूलने ने बैंक कड़ाई से काम नहीं लें. अब वो इस साल कर्ज नहीं वसूल रहे हैं. इससे हमें क्या राहत है. अगले साल हो या उससे अगले साल कर्जा तो हमें ही चुकाना पड़ेगा ना.'
इसके आगे वो कहते हैं,
'कोई सरकार हो हमें तो उसी तरह से मरना-खपना है. सपा हो चाहे बसपा हो चाहे मोदी. जब मंथरा कैकई को कहती है कि भरत को राजा बनवाओ तो कैकई मंथरा पर बिगड़ जाती है. इस पर मंथरा कहती है "कोऊ नृप होय हमें क्या हानि, चेरी छोड़ी ना होइहैं रानी."बस हमारी स्थिति वही है मंथरा वाली. "
मैं अपना सामान पैक कर रहा हूँ. रुक्मेश का पाच साल का बेटा दिलीप मेरी कुर्सी के चारों चक्कर काटने लगता है. मैं उसकी फोटो खींच कर उसे दिखाता हूँ. वो हंसने लगता है. इसी दौरान पास ही खड़े संदीप मुझसे पूछते हैं कि यह किस चैनल पर चलेगा? मेरे पास देने के लिए कोई जवाब नहीं था. मेरे पास इस रिपोर्ट को छापने के जो माध्यम वो उनकीं पहुंच से बहुत दूर हैं. जिन माध्यमों की पहुंच उन तक है वो इस रिपोर्ट को छापने की जहमत नहीं उठाने वाले. मुझे इस सवाल ने हर जगह असहज किया है. मैंने संदीप को जवाब दिया ,'मुझे नहीं लगता कोई इसे दिखाएगा.अगर कोई इसे दिखाना चाहता तो अब तक यहां पहुंच चुका होता.'

और इस तरह से एक भी किसान नहीं मारा....

जालौन में किसानों की आत्महत्या पर बनी सरकारी जांच कमिटी की जिस रिपोर्ट का हवाला में देता आ रहा हूँ उसमें 20 मार्च तक हुई किसान आत्महत्या की स्थलीय जांच की बात कही गई थी. डीएम की अध्यक्षता वाली इस कमिटी के सदस्यों में पाँचों तहसीलों के उप-जिलाधिकारी, अपर मुख्य चिकित्सा अधिकारी, और नगर मजिस्ट्रेट उरई शामिल थे. इस जांच दल में दो दिन के भीतर अपनी रिपोर्ट तैयार की. रिपोर्ट का मजमून कुछ इस तरह से है-
"महोदय,
कृपया जनपद में दिनांक 02 एवं 03 एवं 14 एवं 15 मार्च को हुई बेमौसम वर्षा एवं ओलावृष्टि के कारण घटित दैवी आपदा जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में कृषकों की फसल तबाह हुई. इस अवधी में जनपद के कतिपय व्यक्तियों की विभिन्न कारणों से मृत्यु हुई. जिसमें समाचार पत्रों द्वारा प्रायः सभी मौतों को दैवी आपदा के कॉलम में प्रकाशित किया जा रहा है. इसका संज्ञान लेते हुए महोदय के पत्रांक क्रमांक 1210 एस.टी. कैम्प दिनांक 20 मार्च 2015 द्वारा समाचार पत्रों में प्रकाशित और प्रश्नगत अवधि में जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में हुई मौतों की जांच करने हेतु कमिटी गठित की गई है. जिसके अनुपालन में समस्त प्रकरणों की स्थलीय जांच की गई है. जांच के उपरान्त प्रत्येक मृत्यु के प्रकरण पर गंभीरता पूर्वक जांच की गई है. जो बिन्दुवार निम्न प्रकार प्रस्स्तूत है.'
ये पूरी रिपोर्ट झूठ का पुलिंदा है. इसके इतर इसे कुछ नहीं कहा जा सकता. बलकट के कॉलम में नहीं को कॉपी-पेस्ट कर दिया है. सिर्फ शिवदत्त विश्वकर्मा के प्रकरण को छोड़ दें तो बाकी के सभी किसानों ने लीज पर जमीन ली थी. जांच किए गए 27 केसों में से सिर्फ एक को दैवी आपदा के तहत मृत पाया गया. यह 20 साल की युवती पूजा पटेल का मामला था जिसमें उनकी जान बिजली गिराने की वजह से हुई थी. इसके अलावा एक भी किसान के आत्महत्या को स्वीकार नहीं किया गया.
इसके अलावा 27 में से सिर्फ 6 किसानों के ऊपर कर्ज दिखाया गया है. रुक्मेश पाल जिनके केसीसी ऋण के दस्तावेज मैं खुद देख कर आया हूँ उनके खाते में कर्ज के नाम पर शून्य लटका हुआ है जबकि उन पर 8 लाख से अधिक का कर्ज है. इसी तरह से महज 6 किसानों की फसल क्षति को 50 फीसदी माना गया है.
इस रिपोर्ट का सबसे हास्यास्पद पहलू कोच तहसील के दाढ़ी गांव के लाखन सिंह के मामले में सामने आता है. चमार बिरादरी के लाखन सिंह की आर्थिक स्थिति के कॉलम में 'राजमिस्त्री था, आर्थिक स्थिति दयनीय है. मकान कच्चा है.'दर्ज किया हुआ है. वहीँ मृत्यु का कारण कॉलम में 'ब्रेन हैमरेज से दिल्ली में इलाज के दौरान हुई मृत्यु हुई.'अब आप ही बताइए कि एक अनुसूचित जाती का राजमिस्त्री जिसके पास पक्का माकन भी नहीं है. जमीन के नाम पर .785 हैक्टेयर जमीन है. उसकी दिल्ली में इलाज करवाने की क्षमता है क्या? लेकिन कर लीजिए जो कर सकते हैं. ये रिपोर्ट नहीं बदलने वाली आखिर स्थलीय जांच के बाद गंभीरता से हर प्रकरण की जांच की गई है. बजाइए ताली एक भी किसान नहीं मर रहा. सब तरफ खुशहाली है. टोटल समाजवाद. कोई मिलावट नहीं.

उसने सरकार की गाड़ी के आगे बलिदान दे दिया...

जालौन पहुंचने के साथ ही अखबार के जरिए मेरी जिन 9 किसान आत्महत्याओं की रिपोर्ट से मुठभेड़ हुई उसमें सियाराम का मामला प्रसाशन की धांधलेबाजी पर करारा तमाचा है. जालौन जिले की कालपी तहसील का गांव मरगाया. 60 साल के सियाराम के दो एकड़ जमीन के काश्तकार थे. इतनी जमीन के किसान को इस देश में सीमान्त किसान कहा जाता है. उन्होंने 25 बीघा जमीन बलकट पर ली थी. इसमें उन्होंने गेंहू, मसूर और मटर की फसल बोई थी.

आठ हजार प्रति बीघा की दर से ली गई इस जमीन का दो लाख रूपया सियाराम को फसल कटने के बाद अदा करना था.
बोलो अब मेरी मौत को कैसे झुठलाओगे?
बोलो अब मेरी मौत को कैसे झुठलाओगे?
इसके अलावा उन्होंने 80 हजार का ऋण इलाहाबाद बैंक से बतौर केसीसी उठाया था. साल भर भी नहीं हुआ जब उनके बड़े बेटे राजेश देहांत एक दुर्घटना में हो गया. राजेश के बाद उसकी बेवा और दो छोटी बेटियों की जिम्मेदारी सियाराम के घीसे हुए कन्धों पर आ गई.
ओलावृष्टि के बाद मटर की फसल तो पूरी तरह से तबाह हो गई. गेहूं से उम्मीद थी कि वो मौसम की मार झेल जाएगा और इस बुरे वक्त में सियाराम के साथ खड़ा रहेगा. लेकिन गेहूं ने भी सियाराम को धोका दे दिया. मड़ाई के बाद गेहूं की फसल सामने आई तो वो औसत से तीन गुना कम थी. सियाराम इस झटके के लिए तैयार नहीं थे.
मड़ाई करवा कर शाम को घर लौटे तो एकदम बुझे हुए थे. पास ही के गांव छौंक में एक रिश्तेदार के यहां जाने का बहाना करके घर से निकल गए. पत्नी कुसमा देवी कहती हैं-
'परेशान तो काफी दिन से थे. ठीक से खाना भी नहीं खा रहे थे. पोतियों को देखते तो रुवांसे हो जाते. मड़ाई करवा कर लौटे तो चेहरा एकदम बुझा हुआ था. फिर कहने लगे छौंक जाना है. मुझे कुछ ठीक नहीं लग रहा था. मैंने रोकने की कोशिश की. डरी हुई थी. हर तरफ आदमी मर रहा है कहीं ये भी कुछ कर ना लें. लेकिन वो नहीं माने. आखिर चले ही गए. क्या पता था भाग इस तरह फूटेंगे. अब घर में दो बेवा बची हैं गुजारा होना मुश्किल है.'
देर रात सियाराम की लाश जाल्दूपुर रेलवे क्रासिंग के पास मिली. यह मौत भी रुक्मेश की मौत की तरह सामान्य सा रेल हादसा साबित कर दी जाती अगर सियाराम का सुसाईड नोट पुलिस से पहले मीडिया के हाथों में नहीं पड़ जाता. सियाराम ने जो सुसाईड नोट में टूटी-फूटी लिपि में यह मजमून लिखा है...
". खेती की पैदावारी से तंग आकर मैं सरकार की गाड़ी से मैं अपना बलिदान दे रहा हूँ.
सियाराम
ग्राम- मरगाया
थाना- कदोरा
जिला- जालौन '
सियाराम का सुसाईड नोट किसानों की आत्महत्या को ना स्वीकार करने के सरकार के शुतुरमुर्गी रवैय्ये को आइना दिखाने वाला दस्तावेज है. इस घटना के गवाह बनने के बाद इस सीरिज का नाम 'सुसाईड नोट'रखा गया. एक लाइन का यह सुसाइड नोट मानों कह रहा था, 'बोलो अब क्या करोगे? कैसे झुठलाओगे मेरी मौत को?"
सियाराम को इस बात का कोई इल्म नहीं रहा होगा कि उनकी आत्महत्या के एक पखवाड़े के भीतर ही देश की राजधानी इस किस्म की एक और घटना का गवाह बनेगी. दौसा का रहने वाला गजेन्द्र सिंह इस तरह ही जंतर-मंतर पर जान दे देगा.
इसके बाद 17 बीघे के इस काश्तकार को धन्ना सेठ बता कर कहा जाएगा कि सबकुछ ठीक था. किसानी की जलालत को चीख-चीख कर बयान करता उसका सुसाइड नोट जाली करार दे दिया जाएगा. इसके बाद 'पिपली लाइव'किस्म की पत्रकारिता शुरू हो जाएगी. 'गजेन्द्र की मौत का पूरा सच'किस्म के पैकेज काटे जाएंगे.
सारा मुद्दा एक नेता की नैतिकता पर केन्द्रित कर दिया जाएगा और किसान आत्महत्या के मामले को हाशिए पर लगा दिया जाएगा......

इस सीरिज की पहलीदूसरी और तीसरी किश्त यहां पढ़ें....

दलितों, मुसलमानों के लिए उच्च शिक्षा का सवाल

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-एस. वी. नरायणन
एक लोकतान्त्रिक समाज से धर्म, जाति और लिंग आधारित सामाजिक विभेदों से निपटने के जिम्मेदार तरीके खोज निकालने की अपेक्षा की जाती है। 


लेकिन, कोई समाज गैर-बराबरी और भेदभाव से निपटने में लम्बे समय तक अगर लगातार असफल रहे, तो लोकतन्त्र और उसे टिकाने वाली सामाजिक सहमति की बुनियाद हिलने लगती है। 

बहरहाल, तथ्य यही है कि संवैधानिक सुरक्षा और सकारात्मक भेदभाव यानी आरक्षण की सरकारी व्यवस्था के बावजूद, हम भारत में बराबरी हासिल करने की मंजिल से कोसों दूर हैं। 

उच्च शिक्षा के एक नवीनतम सर्वेक्षण ने, जिसका अस्थाई मसौदा 2012 में जारी हुआ था, एक बार फिर इसकी पुष्टि कर दी है, और जाति व धर्म विभाजित समाज में सामाजिक न्याय के भविष्य पर हमें सोचने के लिए मजबूर कर दिया है। 

यह मानव संसाधन मंत्रालय के उच्च शिक्षा विभाग द्वारा आनलाइन कराया गया सर्वेक्षण है, जिसमें 633 (सरकारी व निजी) विश्वविद्यालय, 24,120 कालेज और 6,772 विशिष्ट संस्थाएँ शामिल की गई थीं।

सर्वे के नतीजों से साफ जाहिर है कि 68 साल की आजादी के बाद भी उच्च शिक्षा के शिक्षकों में मुसलमानों, अनुसूचित जातियों व अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों की संख्या उनकी आबादी के अनुपात से काफी कम हैं।
  
2011 की जनगणना के मुताबिक अनुसूचित जातियों की जनसंख्या 16.6 फीसदी, अनुसूचित जनजाति की 8.6 फीसदी और मुसलमानों की 14.2 फीसदी है।

पिछडे वर्गों के नवीनतम जनगणना सम्बन्धी आँकड़े अनुपलब्ध हैं, लेकिन 1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने हिन्दू व गैर-हिन्दू पिछड़े वर्गों की संख्या को देश की जनसंख्या का 52 फीसदी बताया था।

एनएसएसओ की 2006 की रपट में उन्हें जनसंख्या का 41फीसदी बताया गया है। नीचे की तालिका से इन समुदायों की राज्यवार उपस्थिति में मौजूद भारी विविधताओं का पता चलता हैं।

2011 की जनगणना में एस सी/एस टी और मुसलमानों की स्थिति


जैसा इस पाई चार्ट से स्पष्ट है, राष्ट्रय स्तर पर उच्च शिक्षा के शिक्षकों में सवर्ण हिन्दुओं का दबदबा है।
इस सर्वे के अनुसार उच्च शिक्षण संस्थानों के शिक्षकों में एस सी, एस टी, ओबीसी, मुसलमानों और महिलाओं का प्रतिशत इस प्रकार हैः

उच्च शिक्षा में विभिन्न सामाजिक वर्गो के शिक्षकों और महिला शिक्षकों की संख्या (प्रतिशत)




शिक्षकों के लिहाज से उच्च शिक्षा में लैंगिक समानता हासिल करने वाले राज्यों में केवल केरल का नाम लिया जा सकता है, तमिलनाडु और पंजाब दूसरे पायदान पर हैं।

राष्ट्रीय स्तर पर महिला शिक्षकों का अनुपात 39 फीसदी है, जबकि उसे 50 फीसदी से ज्यादा होना चाहिए था, इनमें एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमान महिलाओं की संख्या तो और भी कम है, जिससे स्पष्ट है कि पितृसत्तात्मक भेदभाव जाति और धर्म के विभाजनों के आरपार सक्रिय हैं।

मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 3.09 फीसदी है, जो सच्चर कमेटी के उस निष्कर्ष के अनुरूप है, जिसमें भारतीय नौकरशाही में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 2.5 फीसदी बताया गया है।

यहाँ तक कि वर्षों तक ‘‘प्रगतिशील‘‘ राजनीतिक ताकतों के सत्तारूढ़ रहने के बावजूद पश्चिम बंगाल और केरल की उच्च शिक्षा में एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के लिए पर्याप्त अवसर नहीं पैदा हो सके। देश के विकास के लिए माडल बताया जाने वाला गुजरात इस मामले में पूरी तरह फिसड्डी है, वहाँ शिक्षकों में मुसलमानों की संख्या महज 1.18 फीसदी है।

तथाकथित ‘गुजरात माडल‘ व्यवस्थागत भेदभाव की समग्र तस्वीर का उग्र रूप पेश करता है, जहाँ मुसलमान हाशिए पर धकेले जा चुके हैं और ताकतवर जातियों को आरक्षण का दावा ठोकने के लिए पीछे से प्रोत्साहित किया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, जहाँ ओबीसी ताकतवर हैं, एस.सी, एस.टी और मुसलमानों को हाशिए में डाल दिया गया है।

यह तस्वीर हमें डा. बी. आर. अम्बेडकर की इस चेतावनी की याद दिलाती है कि, गैर-बराबरी की दर्जाबन्दी गैर बराबरी के खिलाफ आम विरोध का विस्तार रोकती है और इसकी परिणति सामाजिक न्याय की क्रान्ति में कभी नहीं हो सकती।

एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के अखिल भारतीय और राज्यवार प्रतिनिधित्व के बीच फर्क गौरतलब हैं।

मसलन, तमिलनाडु में सामाजिक सशक्तीकरण के लिए चले सामाजिक न्याय के आन्दोलन का ज्यादातर लाभ ओबीसी वर्ग को मिला है, इसलिए उच्च शिक्षा में वहाँ ओबीसी शिक्षकों की उपस्थिति 54.47 फीसदी है, लेकिन एस.सी, एस.टी और मुसलमान इस लाभ से वंचित रह गए हैं।

ओबीसी की जनगणना के लिए अगर एनएसएसओ (2006) के आँकड़ों को भी हम आधार बनाएं तो भी यह स्पष्ट है कि प्रतिनिधित्व के मामले में वे तमिलनाडु को छोड़कर देश के हरेक राज्य में पीछे हैं।

कोई अचरज नहीं कि उच्च शिक्षा के छात्रों में भी इन सामाजिक वर्गों का प्रतिनिधित्व कम है, यहाँ एस.सी छात्र 12.2 फीसदी, एस.टी 4.4 फीसदी, ओबीसी 3.05 फीसदी और मुसलमान महज 3.9 फीसदी हैं। छात्राओं के नामंाकन में प्रगति होने के बावजूद लैंगिक समानता की मंजिल अभी काफी दूर है।
विभिन्न सामाजिक वर्गों और लैंगिक आधार पर छात्रों का प्रतिशत




शिक्षकों के लिहाज से उच्च शिक्षा में लैंगिक समानता हासिल करने वाले राज्यों में केवल केरल का नाम लिया जा सकता है, तमिलनाडु और पंजाब दूसरे पायदान पर हैं। राष्ट्रीय स्तर पर महिला शिक्षकों का अनुपात 39 फीसदी है, जबकि उसे 50 फीसदी से ज्यादा होना चाहिए था, इनमें एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमान महिलाओं की संख्या तो और भी कम है, जिससे स्पष्ट है कि पितृसत्तात्मक भेदभाव जाति और धर्म के विभाजनों के आरपार सक्रिय हैं। मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 3.09 फीसदी है, जो सच्चर कमेटी के उस निष्कर्ष के अनुरूप है, जिसमें भारतीय नौकरशाही में मुसलमानों का प्रतिनिधित्व महज 2.5 फीसदी बताया गया है।

यहाँ तक कि वर्षों तक ‘‘प्रगतिशील‘‘ राजनीतिक ताकतों के सत्तारूढ़ रहने के बावजूद पश्चिम बंगाल और केरल की उच्च शिक्षा में एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के लिए पर्याप्त अवसर नहीं पैदा हो सके। देश के विकास के लिए माडल बताया जाने वाला गुजरात इस मामले में पूरी तरह फिसड्डी है, वहाँ शिक्षकों में मुसलमानों की संख्या महज 1.18 फीसदी है।

तथाकथित ‘गुजरात माडल‘ व्यवस्थागत भेदभाव की समग्र तस्वीर का उग्र रूप पेश करता है, जहाँ मुसलमान हाशिए पर धकेले जा चुके हैं और ताकतवर जातियों को आरक्षण का दावा ठोकने के लिए पीछे से प्रोत्साहित किया जा रहा है। उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में, जहाँ ओबीसी ताकतवर हैं, एस.सी, एस.टी और मुसलमानों को हाशिए में डाल दिया गया है।

यह तस्वीर हमें डा. बी. आर. अम्बेडकर की इस चेतावनी की याद दिलाती है कि, गैर-बराबरी की दर्जाबन्दी गैर बराबरी के खिलाफ आम विरोध का विस्तार रोकती है और इसकी परिणति सामाजिक न्याय की क्रान्ति में कभी नहीं हो सकती।

एस.सी, एस.टी, ओबीसी और मुसलमानों के अखिल भारतीय और राज्यवार प्रतिनिधित्व के बीच फर्क गौरतलब हैं। मसलन, तमिलनाडु में सामाजिक सशक्तीकरण के लिए चले सामाजिक न्याय के आन्दोलन का ज्यादातर लाभ ओबीसी वर्ग को मिला है, इसलिए उच्च शिक्षा में वहाँ ओबीसी शिक्षकों की उपस्थिति 54.47 फीसदी है, लेकिन एस.सी, एस.टी और मुसलमान इस लाभ से वंचित रह गए हैं।

ओबीसी की जनगणना के लिए अगर एनएसएसओ (2006) के आँकड़ों को भी हम आधार बनाएं तो
‘‘योग्यता‘‘ और ‘‘गुणवत्ता‘‘ की दुहाई देने वाले आरक्षण विरोधी समूह समाज के बहुसंख्यक वंचित वर्गों के सामाजिक अलगाव के तथ्य को सिरे से नकार देते हैं। ओबीसी की ‘‘मलाईदार परत‘‘ द्वारा आरक्षण के सारे फायदे हजम कर लेने का उनका तर्क भी अनुचित है, क्योंकि उनके द्वारा निर्धारित 27 फीसदी आरक्षण की कानूनी सीमा आज भी हासिल नहीं की जा सकी है। इस सर्वेक्षण में निजी विश्वविद्यालय और कालेज शामिल हंै, जहाँ आरक्षण की व्यवस्था लागू नहीं है, लेकिन सर्वे के नतीजों से पता चलता है कि वहाँ वंचित वर्गों का प्रतिनिधित्व कम है।

सर्वे के समग्र नतीजों से स्पष्ट है कि हमारी व्यवस्था निम्न जातियों और अल्पसंख्यकों को विकास प्रक्रिया से बाहर रखकर हिन्दू समाज की वर्चस्ववादी यथास्थिति को बनाए रखने के लिए कटिबद्ध है। अन्य लोगों को ज्ञान बाँटने की उच्च जातियों की योग्यता और क्षमता का महिमामन्डन करके वह जातिवादी धारणाओं को फिर से मजबूत बनाना चाहती है। वर्तमान दौर में, जबकि राज्य लोगों को शिक्षा उपलब्ध कराने की अपनी जिम्मेदारी से हाथ खींच रहा है, और खुद को निजी खिलाडियों के ‘‘सहायक‘‘ की भूमिका तक सीमित कर चुका है, सामाजिक न्याय की मंजिल बहुत दूर लगने लगी है।

एस वी नरायणन दिल्ली स्थित स्वतन्त्र शोधार्थी हैं। 

'दलित साहित्य : एक अन्तर्यात्रा'का लोकार्पण

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प्रिय मित्रो,

नवारुण प्रकाशन की पहली किताब  

'दलित साहित्य : एक अन्तर्यात्रा' ( लेखक : बजरंग बिहारी तिवारी)

के लोकार्पण के मौके पर आप सादर आमंत्रित है.


इस मौके पर आयोजित चर्चा में प्रो अब्दुल बिस्मिल्लाह, प्रो सत्यकाम, प्रो हेमलता महीश्वर, अनिता भारती, आशुतोष कुमार, संजीव कुमार, हीरालाल राजस्थानी, बजरंग बिहारी तिवारी और संजय जोशी हिस्सा लेंगे. मुरली मनोहर प्रसाद सिंह कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे.

   213 पेज की किताब के पेपरबैक संस्करण की कीमत 160 रुपये है  जिसके आवरण पर   मशहूर चित्रकार सावी सावरकर का चित्र है . किताब  लोकार्पण के दिन विशेष छूट के साथ 130 रुपये में मिलेगी.  
 

जगह : गांधी शांति प्रतिष्ठान, आई टी ओ मेट्रो स्टेशन के नजदीक , दींनदयाल उपाध्याय मार्ग, नई दिल्ली
तारीख और समय : रविवार 13 सितम्बर 2015 , शाम 5 बजे.

पाकिस्तान आंदोलन पर नई रोशनी

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-Satyendra Ranjan

क्या 1947 में भारत के बंटवारे को रोका जा सकता था? अथवा, इसके लिए प्राथमिक रूप से कौन दोषी था? ये ऐसे सवाल हैं, जिन परपिछले 68 वर्षों में अनगिनत समझ, नजरिया, विचार और राय पेश किए गए हैं.

बंटवारापूरी तरह फूट डालो-राज करोकी ब्रिटिश नीति का परिणाम था, अथवा कांग्रेसनेताओं की कथित अदूरदर्शिता और सत्ता पाने की बेसब्री की इसमें प्रमुखभूमिका रही? क्या मुस्लिम लीग महज ब्रिटिश हाथों का खिलौना थी, या वह किसीलंबी परिघटना का नेतृत्व कर रही थीजिसका परिणाम 1930-40 के दशकों मेंआकर अपरिहार्य हो गया था? ये तमाम प्रश्न ऐतिहासिक विश्लेषण के दायरे मेंहैं.

हाल में आई दो किताबों ने इस बारे में अपने ढंग से रोशनी डालीहै. हालांकि दोनों किताबों का विषय अलग है, लेकिन वे अपने-अपने मकसदों सेसमान ऐतिहासिक दौर में पहुंचती हैं. दोनों उस समय के मुस्लिम समाज में जारीगतिविधियों और उन्हें संचालित करने वाली सोच को समझने के लिए महत्त्वपूर्णजानकारियां मुहैया कराती हैं.


इनमें एक किताब The Emergence of Socialist Thought Among North Indian Muslims (1917-47) है. नाम से ही साफहै कि इसका विषय मुस्लिम समुदाय से आए समाजवादी रुझान वालेनेताओं/बुद्धिजीवियों की पहचान और उनकी चर्चा करना है.

लेकिन इसक्रम में वह उन हालात और माहौल में पहुंचती है, जिनकी वजह से तब के मुस्लिमयुवाओं में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भावनाएं फैली और मजबूत हुई.उन्हीं युवाओं का एक हिस्सा बाद में साम्राज्यवाद विरोध की सही रणनीति औरविचारधारा की तलाश करते-करते समाजवाद/साम्यवाद की वैचारिक एवं राजनीतिकधाराओं से जुड़ गया.

इस शोधपरक पुस्तक के लेखक खिज़र हुमायूं अंसारीहैं, जो लंदन विश्वविद्यालय में इस्लाम और सांस्कृतिक विभिन्नता विषयों केप्रोफेसर हैँ.

दूसरी किताब का तो विषय ही पाकिस्तान निर्माण कीपृष्ठभूमि है. Creating a New Medina: State Power, Islam, and the Quest for Pakistan in late Colonial North India नामक इस पुस्तक के लेखकयूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलीना (अमेरिका) में इतिहास के असिस्टैंट प्रोफेसरवेंकट धुलीपाला हैं.

नाम से जाहिर है कि यह किताब भारत बंटवारे केमें तत्कालीन राजसत्ता, इस्लाम से जुड़ी सियासत और पाकिस्तान के पक्ष मेंहुए प्रयासों और अलग इस्लामिक राष्ट्र के विचार के हक में दी गई दलीलों काविश्लेषण करती है. 

यह अपनी चर्चा को महज 1937 के चुनावों, उन चुनावों केबाद संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में सत्ता साझा करने में कांग्रेस कीअनिच्छा, 1940 के पाकिस्तान प्रस्ताव, मोहम्मद अली जिन्ना की भूमिका अथवानेहरू-पटेल के कथित रूप से बदलते रुख तक सीमित नहीं रखती. बल्कि पाकिस्तानके उदय को बीसवीं सदी में वैश्विक इस्लाम (pan Islamism) की फैली भावनाओंके संदर्भ में रखने का प्रयास करती है. तुर्की में खिलाफत की पराजय ने ऐसीभावनाओं को और बल प्रदान किया था. इसके बाद एक ऐसी इस्लामी राजसत्ता कीआकांक्षा मुस्लिम समुदायों में जगी, जो वैश्विक इस्लाम का नेतृत्व कर सके.यह किताब भारत में इन भावनाओं को बढ़ाने में देवबंदी उलेमाओं की भूमिका पररोशनी डालती है. फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि पाकिस्तान कोई ऐसाअस्पष्ट विचार नहीं था, जो स्वतंत्र भारत के भावी स्वरूप को लेकर ब्रिटिशराज, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच चली संवैधानिकवार्ताओं के विफल होने के परिणामस्वरूप अचानक उठ खड़ा हुआ.
 
दोनोंकिताबों से साझा कथानक यह उभरता है कि भारत के बंटने या पाकिस्तान के बननेकी हकीकत को 19वीं और 20वीं सदी के समग्र घटनाक्रम- खास कर भारतीय मुस्लिमसमाज में तब मौजूद रहीं सोच की धाराओं- से अलग करके नहीं देखा जा सकता. इनघटनाक्रमों की शुरुआत हम 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता केतुरंत बाद से तलाश सकते हैँ. 1957 में पराजय के बाद मुस्लिम समुदाय मेंरही-सही यह उम्मीद जमींदोज हो गई कि ब्रिटिश शासकों से सत्ता फिर कभी उनकेहाथ में आ सकेगी. इसके बाद उनमें अपनी नई भूमिका और पहचान बनाने की भावनाएंजाग्रत हुई.  यह वो दौर है, जब मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा काप्रसार बढ़ रहा था. यही वो दौर है, जब संचार के नए साधन उपलब्ध हुए, जिससेदेश-दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी खबर अपेक्षाकृत अधिक तेजी और विस्तारसे मिलने लगी. इससे लोगों को नए विचारों से रू-ब-रू होने का भी मौका मिला.

उन्नीसवींसदी के आरंभिक दशकों में दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह भारतीय मुसलमानभी इस सच्चाई से परिचित हो चुके थे कि विश्व की प्रमुख राजनीतिक शक्ति केरूप में इस्लाम का पराभव हो गया है. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अखिलइस्लाम (pan Islamism) की भावनाओं ने जड़ें जमाईं. इसके पीछे ओटोमनसाम्राज्य का बढ़ता बिखराव, उसके विभिन्न हिस्सों पर पश्चिमी देशों केबढ़ते हमलों आदि की भूमिका तो थी ही, 1911 में बंगाल के विभाजन को नाकामकराने में राष्ट्रवादियों की भूमिका (जिनके एक हिस्से पर हिंदू रंग गाढ़ाहोता गया था) तथा अलीगढ़ एवं कानपुर में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापनासे जुड़े मुद्दों पर ब्रिटिश शासन के विरोधी रुख की भी भूमिका थी. ओटोमनसाम्राज्य के पतन ने मुस्लिम समुदाय में विरोध भाव को नई ऊंचाइयों परपहुंचा दिया. खिज़र हुमायूं अंसारी ने ऐसी घटनाओं, उन पर मुस्लिम समाज कीप्रतिक्रिया और उनसे जुड़े व्यक्तित्वों की चर्चा कर अखिल इस्लाम कीपरिघटना पर विस्तृत प्रकाश डाला है.

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखेंतो खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के पीछे महात्मा गांधी की (अनुमानित)रणनीति को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. यह दीगर सवाल है कि ऐसा करनानैतिक था या नहीं, अथवा कहीं वह क्षणिक रणनीति लंबे समय में अधिक नुकसानदेहतो साबित नहीं हुई. यह तर्क दिया ही जा सकता है कि ऐसा कर उस भावना कोवैधता दी गई, जिससे खिलाफत आंदोलन संचालित था. क्या इससे आगे चल करपाकिस्तान के विचार को प्रोत्साहन मिला, यह अलग से शोध और चर्चा का विषय होसकता है. फिलहाल, प्रासंगिक तथ्य यह है कि 1930 का दशक आते-आते ऐतिहासिककारणों से मुस्लिम समुदाय के भीतर अपनी विशिष्ट सामुदायिक पहचान पर जोरडालने तथा अपने भौतिक एवं भावनात्मक हितों को अलग से समझने या परिभाषितकरने की धाराएं मजबूत हो चुकी थीँ. ऐसा होने का दौर खासा लंबा हो चुका था.

इससंदर्भ में यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि बीसवीं सदी के आरंभिक दशक हीवह काल है, जब भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने की कोशिशेंशुरू हुईं. धीरे-धीरे हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद के विचार का न सिर्फउदय हुआ, बल्कि इसकी लोकप्रियता भी बढ़ी. कहा जा सकता है कि धर्म आधारितराष्ट्रवाद की इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं ने एक-दूसरे को खाद पानीदेने का काम किया.

1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व मेंमुस्लिम लीग ने अलग इस्लामी देश के रूप में पाकिस्तान के निर्माण के पक्षमें लाहौर प्रस्ताव पारित कराया. वेंकट धुलीपाला ने इसके बाद इस बहस मेंडॉ. भीमराव अंबेडकर के महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप की विस्तार से चर्चा की है.डॉ. अंबेडकर ने थॉट्स ऑन पाकिस्तान”  नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी.धुलीपाला कहते हैं कि मुस्लिम लीग का भी सारा विमर्श भावनात्मक और नारेबाजीके अंदाज में था, जबकि अंबेडकर ने तथ्यों, तर्कों और ठोस भावी स्वरूप केप्रस्तावों के साथ अपनी बात कही. उन्होंने पाकिस्तान के पक्ष में दिए गएतर्कों का ब्योरा दिया, उसके विरोध में मौजूद दलीलों की चर्चा की और अंतमें यह निष्कर्ष बताया कि मुस्लिम बहुल प्रांतों को लेकर अलग इस्लामी देशका निर्माण ही भारत की आजादी से जुड़े संवैधानिक उलझनों का हल है. वेंकटधुलीपाला का कहना है कि असल में यह अंबेडकर का बौद्धिकतापूर्ण विमर्श हीथा, जिसने पाकिस्तान के निर्माण संबंधी भ्रमों को दूर किया और अंततः 1947 में लगभग उनके फॉर्मूले के मुताबिक ही भारत का बंटवारा हुआ. अंबेडकर के इसहस्तक्षेप के पीछे मुख्य भावना क्या थी? इसका अंदाजा भी इस पुस्तक मेंमौजूद विमर्श से लगाया जा सकता है. संभवतः डॉ. अबेंडकर इस नतीजे पर थे किबात जहां तक पहुंच चुकी है, उसमें मुस्लिम लीग को साथ लेकरगणतांत्रिक-लोकतंत्र एवं मजूबत केंद्रीय सत्ता वाले नए राष्ट्रीय राज्य कानिर्माण का संभव नहीं है. सिर्फ मुस्लिम लीग को अलग देश देकर ही वैसेसंवैधानिक भारत की स्थापना हो सकती है, जो सामाजिक-आर्थिक न्याय के संकल्पपर आधारित हो.
यह इतिहास की विडंबना है कि इस्लामी राष्ट्र बनाने केलिए जोरदार सांप्रदायिक आंदोलन चलाने तथा उसमें डायरेक्ट ऐक्शनजैसेतरीके अपनाने के बाद जो पाकिस्तान जिन्ना ने हासिल किया, उसेधर्मनिरपेक्षदेश बनाने की इच्छा उन्होंने जताई. लेकिन पाकिस्तान जिनतर्कों बना, यह उसे नकारना था. जबकि तब तक उन तर्कों का अपना गतिशास्त्र बनचुका था. वे जिन्ना के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे. वे उनकी इच्छा सेकाफी मजबूत बन चुके थे. आज पाकिस्तान जिस हाल में है, यह उन तर्कों की हीतार्किक परिणति है. जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और कई दूसरे कांग्रेसनेताओं ने पाकिस्तान को स्वीकार करते हुए यह नकारात्मक तर्क दिया था किखराब हो गए अंग को काट डालना ही बेहतर होता है. पाकिस्तान में गए इलाकेखराब अंग थे या नहीं, इस पर अलग राय हो सकती है. लेकिन जिस विचार के कारणवे गए वह नकारात्मक विचार था, यह निर्विवाद है. उसके विपरीत भारत जिनसकारात्मक विचारों की बुनियाद पर बना, उसके परिणामस्वरूप उसने साढ़े छह दशकतक एक खुले, अपेक्षाकृत उदार और प्रगतिशील देश के रूप में यात्रा की.दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिलहाल इस सफर की दिशा संकटग्रस्त हो गई है. कारण, उसविचार का राजनीतिक बहुमत तैयार करने में सफल हो जाना है, जो अखिल इस्लामके विरोध में, लेकिन उसी सिक्के (धर्म आधारित राष्ट्रवाद) के दूसरे पहलू केरूप में 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में उभरने लगा था. वह धारा राजनीतिकबहुमत कायम रखने में सफल रही और उसके नुमाइंदे भारतीय राजसत्ता पर कायमरहे, तो यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि भारत पाकिस्तान केनक्शे-कदम पर चलते हुए उसी के परिणाम को प्राप्त करेगा.

वीरेनदा का जाना और एक अमानवीय कविता की मुक्ति

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वीरेन डंगवाल यानी हमारी पीढी में सबके लिए वीरेनदा नहीं रहे। आज सुबह वे बरेली में गुज़र गए। शाम तक वहीं अंत्‍येष्टि हो जाएगी। हम उसमें नहीं होंगे।

 

अभी हाल में उनके ऊपर जन संस्‍कृति मंच ने दिल्‍ली के गांधी शांति प्रतिष्‍ठान में एक कार्यक्रम करवाया था।

उनकी आखिरी शक्‍ल और उनसे आखिरी मुलाकात उसी दिन की याद है। उस दिन वे बहुत थके हुए लग रहे थे। मिलते ही गाल पर थपकी देते हुए बोले, ''यार, जल्‍दी करना, प्रोग्राम छोटा रखना।''ज़ाहिर है, यह तो आयोजकों के अख्तियार में था।

कार्यक्रम लंबा चला। उस दिन वीरेनदा को देखकर कुछ संशय हुआ था। थोड़ा डर भी लगा था। बाद में डॉ. ए.के. अरुण ने बताया कि जब वे आशुतोष कुमार के साथ वीरेनदा को देखने उनके घर गए, तो आशुतोष भी उनका घाव देखकर डर गए थे।

दूसरों से कोई कुछ कहता रहा हो या नहीं, लेकिन वीरेनदा को लेकर बीते दो साल से डर सबके मन के भीतर था। 

मैं 2014 के जून में उन्‍हें कैंसर के दौरान पहली बार देखकर भीतर से हिल गया था जब रविभूषणजी और रंजीत वर्मा के साथ उनके यहां गया था।
उससे पहले मैंने उन्‍हें तब देखा था जब वे बीमार नहीं थे। दोनों में बहुत फ़र्क था। मैं घर लौटा, तो दो दिन तक वीरेनदा की शक्‍ल घूमती रही थी।
मैंने इस मुलाकात के बाद एक कविता लिखी और पांच-छह लोगों को भेजी थी। अधिकतर लोग मेरी कविता से नाराज़ थे।
मंगलेशजी ने कहा था कि वीरेन के दोस्‍तों को यह कविता कभी पसंद नहीं आएगी और वीरेन खुद इसे पढ़ेगा तो मर ही जाएगा। विष्‍णु खरे ने मेल पर टिप्‍पणी की थी, ''जब मुझे यह monstrosity मिली तो बार-बार पढ़ने पर भी यक़ीन नहीं हुआ कि मैं सही पढ़ रहा हूं।
यह आदमी, यदि इसे वैसा कहा जा सकता है तो, मानसिक और बौद्धिक रूप से बहुत बीमार लगता है, जिसे दौरे पड़ते हैं। इसे सर्जनात्मकता की अनुशासित, तमीज़दार मानवीयता के बारे में कुछ पता ही नहीं है। यह किसी horror film से बाहर आया हुआ कोई zombie या imbecile है।'' 
इन प्रतिक्रियाओं के बाद मैंने कविता को आगे तो बढ़ाया, लेकिन फिर किसी और को पढ़ने के लिए संकोचवश नहीं भेजा।
मुझे लगा कि शायद वास्‍तव में मेरे भीतर ''सर्जनात्‍मकता की अनुशासित, तमीज़दार मानवीयता''नहीं रही होगी। एक बात ज़रूर है। रंजीत वर्मा के कहे मुताबिक इस कविता को मैं आशावादी नहीं बना सका गोकि मैंने इसकी कोशिश बहुत की।
मैंने चुपचाप ज़ॉम्‍बी बने रहना इस उम्‍मीद में स्‍वीकार किया कि वीरेनदा ठीक हो जाएं, कविता का क्‍या है, वह अपने आप दुरुस्‍त हो जाएगी। उन्‍हीं के शब्‍दों में कहूं तो- ''एक कवि और कर भी क्‍या सकता है / सही बने रहने की कोशिश के सिवा''। 
मेरा डर गलत नहीं था, उसकी अभिव्‍यक्ति चाहे जैसी भी रही हो। अब वीरेनदा हमारे बीच नहीं हैं और मैं उन पर लिखी इन कविताओं के तमीज़दार व मानवीय बनने का इंतज़ार नहीं कर सकता। ऐसा अब कभी नहीं होगा।
बीते डेढ़ साल से इन कविताओं की सांस वीरेनदा के गले में अटकी पड़ी थी। जीवन का डर खत्‍म हुआ तो कविता में डर क्‍यों बना रहे फिर? वीरेनदा के साथ ही मैं उन पर लिखे इन शब्‍दों को आज  मुक्‍त कर रहा हूं। 
 

वीरेन डंगवाल से मिलकर  

एक 

मरे हुए आदमी को देखकर डर नहीं लगता

डर लगता है
एक मरते हुए आदमी को देखकर।

मरता हुआ आदमी कैसा होता है?

फर्ज़ करें कि सिर पर एक काली टोपी है

जो कीमो थेरेपी में उड़ चुके बालों
और बचे हुए खड़े सफेद बालों को
ढंकने के लिए टिकी हो बमुश्किल।

मसलन, चेहरा तकरीबन झुलसा हुआ हो
और दांत निकल आए हों बिल्‍कुल बाहर।

आंखों पर पुराना चश्‍मा भी सिकुड चुके चेहरे में
अंट पाने को हो बेचैन।

होंठ-
क्षैतिज रेखा से बाईं ओर कुछ उठे हुए,
और जबड़े पर
शरीर के किसी भी हिस्‍से, जैसे कि जांघ
या छाती से निकाली गई चमड़ी
पैबंद की तरह चिपकी, और
काली होती जाती दिन-ब-दिन।

वज़न घट कर रह गया हो 42 किलो
और शर्ट, और पैंट, या जो कुछ कह लें उसे
सब धीरे-धीरे ले रहा हो शक्‍ल चादर की।

पैर, सिर्फ हड्डियों और मोटी झांकती नसों का
हो कोई अव्‍यवस्थित कारोबार
जो खड़े होने पर टूट जाए अरराकर
बस अभी,
या नहीं भी।

पूरी देह ऐसी
हवा में कुछ ऊपर उठी हुई सतह से
कर रही हो बात
सायास
कहना चाह रही हो
डरो मत, मैं वही हूं।

और हम, जानते हुए कि यह शख्‍स वो नहीं रहा
खोजते हैं परिचिति के तार
उसके अतीत में
सोचते हुए अपने-अपने दिमागों में उसकी वो शक्‍ल
अपनी आखिरी सामान्‍य मुलाकात
जब वह हुआ करता था बिल्‍कुल वैसा
जैसा कि सोचते हुए हम आए थे
उसके घर।

क्‍या तुम अब भी पान खाते हो?
पूछा रविभूषण जी ने।
कहां यार?
वो तो भीतर की लाली है...
और बमुश्किल पोंछते हुए सरक आई अनचाही लार
ठठा पड़ा खोखल में से
एक मरता हुआ आदमी
अंकवार भरके अपने रब्‍बू को...
हवा में बच गया
फि़राक का एक शेर।

यह सच है कि मैं वीरेन डंगवाल के पास गया था
यह भी सच है कि उन्‍हें देखकर मैं डर गया था।

 

दो

एक सच यह है कि मैं वीरेन डंगवाल के पास गया था
दूसरा यह, कि उन्‍हें देखकर मैं डर गया था
तीसरा सच मुझे मंगलेश डबराल ने अगली सुबह फोन पर बताया-
''वो तो ठीक हो रहा है अब...
वीरेन के दोस्‍तों को अच्‍छा नहीं लगेगा
जो तुमने उसे लिखा है मरता हुआ आदमी
कविता को दुरुस्‍त करो।''
तो क्‍या मैं यह लिखूं
कि मरे हुए आदमी को देखकर डर नहीं लगता
डर लगता है
एक ठीक होते हुए आदमी को देखकर?

 

तीन

मंगलेशजी की बात में अर्थ है।
मरता हुआ आदमी क्‍या होता है?
वो तो हम सभी हैं
मैं भी, मेरे साथ गए बाकी दोनों लोग
और खुद मंगलेशजी भी।
हम
जो कि मौत को कम जानते हैं
इसलिए उसी से डरते हैं
हमें जिससे डर लगता है
उसमें हमें मौत ही दिखती है
जबकि बहुत संभव है
पनप रहा हो जीवन वहां
नए सिरे से।
तो वीरेनदा ठीक हो रहे हैं
यह एक बात है
और मुझे डरा रहे हैं
यह दूसरी बात।
मेरे डर
और उनकी हंसी के बीच
एक रिश्‍ता है
जिसे काफी पहले
खोज लिया था उदय प्रकाश ने
अपनी एक कविता में।

 

चार

उन्‍हें देखकर
मैं न बोल सका
न कुछ सोच सका
और बन गया उदयजी की कविता का मरा हुआ पात्र
अपने ही आईने में देखता अक्‍स
ठीक होते हुए एक आदमी का
जिसे कविता में लिख गया
मरता हुआ आदमी।

 

पांच

फिर भी
कुछ तो है जो डराता होगा
वरना
रंजीत वर्मा से उधार लूं, तो
वीरेनदा
आनंद फिल्‍म के राजेश खन्‍ना तो कतई नहीं
जो हमेशा दिखते रहें उतने ही सुंदर?
क्‍या मेरा डर
वीरेनदा को सिर्फ बाहर से देख पा रहा था?
यदि ऐसा ही है
(और सब कह रहे हैं तो ऐसा ही होना चाहिए)
तो फिर
अमिताभ बच्‍चन क्‍यों डरा हुआ था
अंत तक खूबसूरत, हंसते
राजेश खन्‍ना को देखकर?

 

छह

जिंदगी और फिल्‍म में फ़र्क है
जि़ंदगी और कविता में भी।
यह फ़र्क सायास नहीं है।
मैंने जान-बूझ कर रंजीतजी की कही बात
नहीं डाल दी रविभूषणजी के मुंह में।
मैं भूल गया रात होने तक
किसने पूछी थी पान वाली बात।
जैसे मैं भूल गया
फि़राक का वह शेर
जो वीरेनदा ने सुनाया था।
मुझे याद है सिर्फ वो चेहरा
वो देह
उसकी बुनावट
अब तक।
जो याद रहा
वो कविता में आ गया
तमाम भूलों समेत...
अब सब कह रहे हैं
कि इसे ही दुरुस्‍त कर लो।
अब,
न मैं कविता को दुरुस्‍त करूंगा
न ही वीरेनदा को फोन कर के
पूछूंगा फि़राक का वो शेर।
 

सात

वीरेन डंगवाल को देखना
और देखकर समझ लेना
क्‍या इतना ही आसान है?
रंजीत वर्मा दांतों पर सवाल करते हैं
वीरेनदा होंठों पर जवाब देते हैं
यही फ़र्क रचता है एक कविता
जो भीतर की लाली से युक्‍त
बाहर से डरावनी भी हो सकती है।
फिर क्‍या फ़र्क पड़ता है
कि किसने क्‍या पूछा
और किसने क्‍या कहा।
क्‍या रविभूषणजी के आंसू
काफी नहीं हैं यह समझने के लिए
क्‍या मंगलेशजी का आग्रह
काफी नहीं है यह समझने के लिए
क्‍या मेरा डर
काफी नहीं है यह समझने के लिए
कि वीरेन डंगवाल का दुख
हम सबको बराबर सालता है?
वीरेनदा का ठीक होना
इस कविता के ठीक होने की
ज़रूरी शर्त है।

नेपाल में हस्तक्षेप बंद करो

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भारत के 100 से अधिक प्रमुख लोगों ने एक वक्तव्य जारी कर नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत सरकार के हस्तक्षेप का  विरोध किया है।



वक्तव्य में इस बात पर प्रसन्नता जाहिर की गयी है कि 20 सितंबर को नेपाल के नये संविधान की घोषणा हो गयी। संविधान की घोषणा पर भारत सरकार की नाखुशी भरी प्रतिक्रिया का जिक्र करते हुए कहा गया है कि ‘अतीत में भारत की विभिन्न सरकारों द्वारा अपनाये गये ‘बड़े भाई’वाली प्रवृत्ति की वजह से दोनों देशों के बीच संबंधों में कटुता आती रही है, जिसे नेपालियों ने भारत की विस्तारवादी नीति के रूप में चिन्हित किया है।’

वक्तव्य में कहा गया है कि ‘यह नेपाली जनता का सार्वभौम अधिकार है कि वह अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करे, यह तय करे कि वहां किस तरह की शासन प्रणाली चाहिए, अपने संविधान की रचना करे और उसमें जिस तरह का परिवर्तन चाहे करे।’

सरकार की मौजूदा नीति पर टिप्पणी करते हुए इसमें कहा गया है कि ‘भारत सरकार ने पड़ोसी देशों के बीच शांतिपूर्ण अस्तित्व के इस सिद्धांत का उल्लंघन किया है।’

वक्तव्य पर हस्ताक्षर करने वालों में प्रमुख बुद्धिजीवियों के अलावा अनेक वामपंथी, जनतांत्रिक और क्रांतिकारी धारा के प्रमुख नेता शामिल हैं।

इनमें एस. सुधाकर रेड्डी, महासचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/अमरजीत कौर,राष्ट्रीय सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी/स्वपन मुखर्जी, पोलिट ब्यूरो सदस्य, सीपीआई (एमएल-लिबरेशन)/के. एन. रामचंद्रन, महासचिव सीपीआई (एमएल-रेड स्टार)/देवब्रत विश्वास, महासचिव, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक/अखिलेंद्र प्रताप सिंह, संयोजक, ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट/शिवमंगल सिद्धांतकर, महासचिव, सीपीआई (एमएल-न्यू प्रोलिटेरियन)/रघु ठाकुर,अध्यक्ष, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी/अर्जुन प्रसाद सिंह, पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ इंडिया आदि प्रमुख हैं।

अनेक लेखकों, पत्रकारों, शिक्षाविदों, फिल्मकारों आदि ने प्रस्ताव पर हस्ताक्षर किये हैं। इनमें प्रमुख हैं आनंद पटवर्द्धन (फिल्मकार), अनिल सद्गोपाल (शिक्षाविद्), अमित भादुड़ी और निर्मलांगशु मुखर्जी (एकेडमीशिन) मनोरंजन मोहंती (राजनीति विज्ञानी), एस.पी. शुक्ला (पूर्व वित्त सचिव),  कमल नयन काबरा और गिरीश मिश्र (अर्थशास्त्री) और असद जैदी, मंगलेश डबराल,पंकज बिष्ट, विष्णु नागर, नीलाभ, पंकज सिंह, विष्णु खरे, रंजीत वर्मा,उज्जवल भट्टाचार्य, मदन मोहन जैसे कवि-कथाकार, शमशुल इस्लाम (रंगकर्मी), गौतम नवलखा, आनंद स्वरूप वर्मा, राहुल पंडिता, अभिषेक श्रीवास्तव, पलाश बिश्वास, जावेद नकवी, अमलेंदु उपाध्याय जैसे पत्रकार आदि।

इस विज्ञप्ति के साथ मूल वक्तव्य और हस्ताक्षर संलग्न है।

नेपाल में हस्तक्षेप बंद करो


दो सौ वर्ष से भी पुराने राजतंत्र को उखाड़ फेंकने के बाद संविधान सभा के लिए हुए चुनावों के फलस्वरूप अनेक सरकारों द्वारा संविधान को अंतिम रूप देने में असफल होने से भरे सात उथल पुथल वाले वर्षों के बाद आखिरकार 20 सिंतबर को नेपाल के  राष्ट्रपति ने नये संविधान की घोषणा कर दी। इसे संविधान सभा के सदस्यों के बहुमत और व्यापक जनसमुदाय का समर्थन मिला। संविधान के अंतर्गत देश धर्मनिरपेक्ष संघीय प्रणाली के तहत सात राज्यों में बांट दिया गया।

संविधान का विरोध एक तरफ तो उन धार्मिक कट्टरपंथियों ने किया जो नेपाल को फिर हिंदू राष्ट्र बनाना चाहते थे और दूसरी तरफ तराई क्षेत्र के मधेस और थारू समुदाय के नेताओं ने किया जो संविधान में कुछ और अधिकारों तथा प्रतिनिधित्व की मांग कर रहे थे।

नेपाल 2.9 करोड़ लोगों का एक छोटा देश है जो अपने दो बड़े पड़ोसियों चीन और भारत के बीच स्थित है। चीन ने जहां एक तरफ इस संविधान का स्वागत किया है वहीं भारत ने इस बात को लेकर अपनी नाखुशी जाहिर की है कि संविधान ने तराई की जनता की आकांक्षाओं की पूर्ति नहीं की। इससे दोनों देशों के बीच संबंध और कटु हो गये हैं जो अतीत में भारत की विभिन्न सरकारों द्वारा अपनाये गये ‘बड़े भाई’ वाली प्रवृत्ति की वजह से कटु रहे हैं और जिसे नेपालियों ने भारत की विस्तारवादी नीति के रूप में चिन्हित किया है। हम मानते हैं कि यह नेपाली जनता का सार्वभौम अधिकार है कि वह अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करे, यह तय करे कि वहां किस तरह की शासन प्रणाली चाहिए, अपने संविधान की रचना करे और उसमें जिस तरह का परिवर्तन चाहे करे। भारत सरकार ने पड़ोसी देशों के बीच शांतिपूर्ण अस्तित्व के इस सिद्धांत का उल्लंघन किया।

हम नेपाली जनता को उसके संविधान की घोषणा के अवसर पर अपना पूर्ण समर्थन देते हैं। हम नेपाल के आंतरिक मामलों में भारत सरकार के हस्तक्षेप का विरोध करते हैं। हम मानते हैं कि तराई क्षेत्र की जनता सहित यह संपूर्ण नेपाली जनता का अधिकार है कि वह अपने संविधान में मनचाहा परिवर्तन करे। नेपाली जनता के संघर्ष के इस महत्वपूर्ण दौर में हम उसे अपना गर्मजोशी से भरा अभिवादन प्रेेषित करते हैं।

असद जैदी/कवि
आनंद पटवर्धन/फिल्म निर्माता
अखिलेंद्र प्रताप सिंह/राष्ट्रीय संयोजक, ऑल इंडिया पीपुल्स फ्रंट
अमरजीत कौर/राष्ट्रीय सचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
अर्जुन प्रसाद सिंह/पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ इंडिया (पीडीएफआइ)
अनिल सद्गोपाल/शिक्षाविद्
अमित भादुड़ी/एकेडमीशियन
आनंद स्वरूप वर्मा/पत्रकार, संपादक ‘समकालीन तीसरी दुनिया’
अनूप सराया/चिकित्सक, एआईआईएमएस
अरबिंदो घोष/अधिवक्ता, मानवअधिकारकर्मी
अमलेन्दु उपाध्याय/हस्तक्षेप डॉट कॉम
ए.के. अरुण/संपादक युवा संवाद
अनिल चौधरी/सामाजिक कार्यकर्ता
अनवर जमाल/फिल्म निर्माता
अशोक कुमार पांडे/कवि
अरुण त्रिपाठी/पत्रकार
अभिषेक श्रीवास्तव/पत्रकार
अटल तिवारी/पत्रकार
अमित शुक्ला/अधिवक्ता
अविनाश पांडे/पत्रकार
भूपेंन सिंह/पत्रकार
भाषा सिंह/पत्रकार
भास्कर उप्रेती, पत्रकार
सी.पी. झा,/पत्रकार
देवब्रत विश्वास/महासचिव, ऑल इंडिया फॉरवर्ड ब्लॉक
दिनकर कपूर/एआईपीएफ
दुलाली नाग/लेक्चरर
दिलीप खान/पत्रकार
दिगंबर/लेखक, सामाजिक कार्यकर्ता
धर्मानन्द लखेड़ा/संस्कृतिकर्मी, प्रगतिशील लेखक संघ
फिरोज मिठीबोरवाला, मानवअधिकारकर्मी
फैसल अनुराग/सामाजिक कार्यकर्ता
गौतम नवलखा/लेखक, पत्रकार
गिरीश मिश्र/अर्थशास्त्री
गोविंद पंत राजू/पत्रकार
हिमांश कुमार/सामाजिक कार्यकर्ता और मानवअधिकारकर्मी
हर्ष कपूर/पत्रकार, साउथ एशियन सिटिजन्स वायर
हिरण्यमय धर/समाजशास्त्री
हिमांशु रंजन/पत्रकार
ईश मिश्र/जन हस्तक्षेप
जया मेहता/जोशी-अधिकारी समाज अध्ययन संस्थान, नयी दिल्ली
जावेद नकवी/पत्रकार
जावेद अनीस/पत्रकार
के.एन. रामचंद्रन/महासचिव सीपीआई (एमएल-रेड स्टार)
कुमार सुंदरम/परमाणु विरोधी कार्यकर्ता
कुलदीप कुमार, पत्रकार
किशन कालजयी/कवि-पत्रकार
कमल नयन काबरा/अर्थशास्त्री
कृष्ण प्रताप सिंह/पत्रकार
कुमार राजेश/पत्रकार
कौशल किशोर/कवि-संस्कृतिकर्मी
कामता प्रसाद/अनुवादक
कुमार नरेंद्र सिंह/पत्रकार
मंगलेश डबराल, कवि, संस्कृतिकर्मी
मनोरंजन मोहंती/पूर्व प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय
मुशर्रफ अली/पत्रकार
मल्लिका शाक्य/साउथ एशियन यूनिवर्सिटी
मोइनुद्दीन अहमद,
मेहर इंजीनियर/राजनीतिक टिप्पणीकार
मदन मोहन/उपन्यासकार
मोहिनी भोज/कवयित्री
महेंद्र प्रताप/प्राध्यापक
मनोज कुमार सिंह/पत्रकार
मनोज पांडे/कवि
नित्यानंद गायेन/कवि
निर्मलांगशु मुखर्जी/एकेडिमीशियन
नीलाभ/कवि, संस्कृतिकर्मी
प्रशांत टंडन/पत्रकार
पीयूष पंत/पत्रकार
पांणिनि आनंद/पत्रकार, संस्कृतिकर्मी
पलाश बिश्वास/पत्रकार
प्रणव प्रियदर्शी/पत्रकार
पंकज सिंह/कवि, पत्रकार
पंकज श्रीवास्तव/पत्रकार
प्रमोद मलिक/पत्रकार
पंकज बिष्ट/उपन्यासकार. संपादक ‘समयांतर’
कुरबान अली/पत्रकार
रघु ठाकुर/अध्यक्ष, लोकतांत्रिक समाजवादी पार्टी
राहुल पंडिता/पत्रकार, येल वर्ल्ड फेलो
रेयाज-उल-हक/ पत्रकार, ‘हाशिया’
राजेंद्र सायल/सामाजिक कार्यकर्ता
रामू सिद्धार्थ/पत्रकार
रामशिरोमणि शुक्ल/पत्रकार
रवि हेमाद्रि,
रवींद्र गोयल/प्रध्यापक, सामाजिक कार्यकर्ता
रॉबिन चक्रवर्ती/साप्ताहिक फ्रंटियर
रामजी राय/संपादक समकालीन जनमत     
रंजीत वर्मा/कवि
रमेंद्र त्रिपाठी/पूर्व प्रशासक
एस. पी. शुक्ला/ पूर्व वित्त सचिव, भारत सरकार
एस. सुधाकर रेड्डी/महासचिव, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी
स्वपन मुखर्जी/पोलिट ब्यूरो सदस्य, सीपीआई (एमएल-लिबरेशन)
शिवमंगल सिद्धांतकर, महासचिव/सीपीआई (एमएल-न्यू प्रोलिटेरियन)
शिव जोशी/सामाजिक कार्यकर्ता
सीमा आजाद/राजनीतिक कार्यकर्ता, संपादक-मासिक दस्तक
संदीप राउजी/पत्रकार
शेखर पाठक/इतिहासकार, ‘पहाड़’
शहनाज इमरानी,
एस.आर. दारापुरी/दलित चिंतक
शमशुल इस्लाम/रंगकर्मी
सुधेन्दु पटेल/सामाजिक कार्यकर्ता
शास्त्री रामचंद्रन/लेखक, पत्रकार
सुब्रत राजू/वैज्ञानिक
तनवीर आलम/राजनीतिक टिप्पणीकार
उज्जवल भट्टाचार्य/कवि-पत्रकार
विष्णु खरे/कवि-आलोचक
विजय सिंह/संपादक ‘रिवोल्यूशनरी डेमोक्रेसी’
वीरेंद्र यादव/साहित्यकार संस्कृतिकर्मी
विनीत तिवारी/महासचिव, मध्य प्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ
विष्णु नागर/कवि-पत्रकार
विद्याभूषण रावत/सामाजिक कार्यकर्ता
विली डिकोस्टा/सामाजिक कार्यकर्ता

जनवाणी उत्तराखंड में पेनडाउन स्ट्राइक

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-Sanjay Rawat

प्रबंधन की उपेक्षा से आहत कर्मचारियों ने उठाया कदम


देहरादून।उत्तराखंड में जनसरोकारों की पत्रकारिता का पर्याय बना जनवाणी अखबार प्रबंधन की मनमानी की भेंट चढ़ गया है। प्रबंधन के अनैतिक दबाव और लंबे समय से वेतन का भुगतान न किये जाने से क्षुब्ध उत्तराखंड के समस्त कर्मचारी गुरुवार से पेनडाउन स्ट्राइक पर चले गए हैं।

समस्त संवादादाता और कर्मचारियों ने कानूनी लड़ाई लड़ने का फैसला कर लिया है।

मेरठ से गॉडविन मीडिया वेंचर प्रा.लि. के तहत प्रकाशित जनवाणी अखबार ने स्वतंत्र उत्तराखंड संस्करण के रूप में  दिसंबर 2012 को स्थानीय संपादक योगेश भट्ट जी के नेतृत्व में देवभूमि में दस्तक दी थी।

तत्कालीन राज्यपाल डॉ. अजीज कुरैशी और तत्कालीन केंद्रीय मंत्री हरीश रावत ने संयुक्त रूप से उत्तराखंड संस्करण का लोकार्पण किया था। प्रबंधन द्वारा उपलब्ध कराये गए सीमित संसाधनों के बावजूद जनवाणी के संपादकीय, प्रसार एवं मार्केटिंग टीम के जुझारू कर्मचारियों ने पूरी ईमानदारी, निष्ठा और लगन के साथ इस अखबार को न केवल प्रदेश में स्थापित किया बल्कि पत्रकारिता में अपनी साख बनाई।

पिछले तीन वर्षों में वह चाहे सामाजिक सरोकारों से जुड़े मुद्दे हों या राज्य के विकास की बात हो या फिर राजनीतिक घटनाक्रम हों, हर मौके पर जनवाणी टीम ने अपनी भूमिका का सकारात्मक सोच के साथ बाखूबी पालन किया।

शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि प्रकाशन के छठवें महीने में ही यानी जून 2013 में ही प्रबंधन ने अखबार के प्रकाशन, प्रसार एवं वित्तीय व्यवस्था से अपने हाथ खींचने शुरू कर दिए।

कर्मचारियों को वेतन तक देने में अपनी असमर्थता जता दी। इन विषम परिस्थिति में भी टीम जनवाणी हिम्मत नहीं हारी और इस उम्मीद के साथ काम करती रही कि आज नहीं तो कल प्रबंधन अपनी जिम्मेदारी को समझेगा।

इन विपरीत परिस्थितियों में स्थानीय संपादक योगेश भट्ट अपनी टीम का मनोबल बढ़ाते रहे। वैकल्पिक व्यवस्था के तौर पर जनवाणी के कर्मचारियों ने एक सहकारिता समिति के जरिये खुद को जिंदा रखा और जनवाणी को आगे बढ़ाने का काम किया। इस तरह तीन साल बीत गए। टीम भावना को नोटिस कर हौसला बढ़ाने के बजाय प्रबंधन इस तरह की चेष्टा करता रहा जो कि पत्रकारिता के मूल सिद्धांतों के विपरीत है।

दरअसल, गॉडविन ग्रुप अखबार की आड़ में रियल एस्टेट व खनन के क्षेत्र में उत्तराखंड में अपने हित तलाश रहा है।

मामला सिर से ऊपर जाने के कारण अंतत गुरुवार को सामूहिक निर्णय के तहत उत्तराखंड प्रदेश के जनवाणी के समस्त कर्मचारियों ने पेन डाउन हड़ताल करने का फैसला ले लिया।अब कर्मचारियों ने प्रबंधन की मनमानी के खिलाफ और बकाया वेतन भुगतान को लेकर अदालत में जाने का निर्णय ले लिया है।

प्रबंधन के कारनामे से शासन-प्रशासन को भी अवगत कराया जाएगा।
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