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रावतभट्टा परमाणु रिएक्टर की तबाही

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"...यह रिएक्टर प्लांट भले ही भारत के शहरों को रोशनी दे लेकिन इस गांव के भविष्य को अंधेरे में डुबो दिया है. दूसरे को रोशन करने के लिए जिन लोगों की ज़मीन गई, घर गया उनको मिला तो पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए बीमारी..."



राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में है रावत भट्टा. रावत भट्टा से करीब आठ किमी दूरी पर थमलाव गांव के पास देश के दूसरे परमाणु विद्युत संयंत्र का पहला रिएक्टर 1973 में शुरू हुआ.
अब तक वहां पर छः परमाणु रिएक्टर बन कर चालू हो चुका है. रिएक्टर सात और आठ का काम चालू है.
रिएक्टर नं. एक 2014 से बंद है, बाकी 5 रिएक्टर से करीब 1000 मेगावाट बिजली का उत्पादन होता है. इसके आस-पास थमलाव, झरझनी, दीपपुरा, मालपुरा, बक्षपुरा जैसे और कई छोटे-बड़े गांव हैं जिसकी परमाणु रिएक्टर से एरियल दूरी 5-6 किमी के अन्तर्गत है.
इस क्षेत्र की आबादी मुख्यतः खेती और मजदूरी पर निर्भर है. यहां का मुख्य उपज मक्का, सोया, ज्वार-बाजरा है. शिक्षा का स्तर बहुत ही निम्न है. इन ईलाकों से बहुत कम लोग ही राजस्थान से बाहर काम के लिये जाते हैं.
यहां पर आधी आबादी के पास घर के नाम पर एक झोपड़ी है और चौथाई के पास समान के नाम पर घर में एक या दो टूटी हुई खाट है. खासकर भील समुदाय की स्थित बहुत ही दयनीय है.
थमलाव के शैलेन्द्र बताते हैं कि यहां परमाणु रिएक्टर बन रहा था तो लोग खुश थे कि इससे उनको रोजगार मिलेगा. उस समय तक लोगों में परमाणु रिएक्टर से होने वाले नुकसान की भी जानकारी नहीं के बराबर थी.
लोगों ने इसलिए शुरूआती दिनों में इसको खुशी-खुशी अपनाया. परमाणु रिएक्टर बन कर चालू हुआ, बिजली बनने लगे लेकिन उसमें गांव वालों को स्थायी रोजगार नहीं मिला.
जब रिएक्टर तीन और चार बन रहा था तब भी गांव वालों को आशा थी कि इनमें स्थायी रोजगार मिलेगा. तीन और चार रिएक्टर चालू हो गया लेकिन इनमें भी गांव वालों को रोजगार नहीं मिला.
दस सालों में रिएक्टर से निकलने वाले रेडियेशन से लोगों के जीवन पर प्रभाव पड़ने लगा. लोगों में कई तरह की नई-नई बीमारी फैलने लगीं. काम करते हुए कई लोग रेडियेशन की चपेट में आ गये और उनकी मृत्यु हो गई.
रिएक्टर पांच और छः बनना शुरू हुआ तो लोग संगठित होकर परमाणु विद्युत संयत्र के खिलाफ आवाज उठाने लगे. पांच और छः रिएक्टर भी 2010 में शुरू हो गया और लोगों को स्थायी काम नहीं मिला.
उनको ठेकेदारी के तहत ही रिएक्टर में काम मिल पाया. अब गांव के और नजदीक रिएक्टर सात और आठ बन रहा है जिससे थमलाव गांव के लोगों में डर है कि वे विस्थापित हो जाएंगे.
रिएक्टर के आस-पास के गांव वालों के लिए यहां पर बेलदारी, ड्राइबरी, मिस्त्री, बेलडर, हेल्फर इसी तरह का काम मिलता है जिसमें पुरुष और महिला दोनों जाते हैं.
इन गांवों की दो पीढि़यां इसी तरह की काम करती आई हैं लेकिन उनको स्थायी रोजगार नहीं मिला. चालू प्लांट में कुछ लोगों को नौकरी मिली भी तो ठेकेदारी के तहत. वे वर्षों से काम करते आये है लेकिन आज तक उनको स्थायी नहीं किया गया.
ठेकेदार बदल जाते हैं लेकिन मजूदर वही रहते हैं. इन ठेकेदारी मजदूरों की मजदूरी कम होती है लेकिन सबसे खतरनाक काम इनसे करवाया जाता है. प्लांट के अन्दर जब कोई रिएक्टर शट डाउन होता है (जब रिएक्टर में बिजली उत्पादन रोककर मशीनों, कचरों की सफाई होती है) तब मजदूरों की मांग और बढ़ जाती है.
उस समय मजदूरों को थोड़ा ज्यादा पैसा देकर (200 रू. की जगह 300 रू. या 7000 रू. प्रति माह की जगह 10000 रू. प्रति माह) उनसे जरूरत से ज्यादा समय तक काम करवाया जाता है.
अगर कम्पनी द्वारा 30 मिनट अन्दर रहकर काम करवाने की परमिट दी जाती है तो ठेकेदार उसको 90 से 100 मिनट काम करने के लिए बाघ्य करते हैं. कम्पनी द्वारा टी.एल.डी., डोजो मीटर दिया जाता है जिससे उनको पता चल सके कि कितने खतरे पर काम करते हैं.
उसको अन्दर जाने से पहले एयर लॉक पर ठेकेदार का सुपरवाईजर इस मशीन को ले लेता है. एन.पी.सी.एल. (न्यूक्लियर पॉवर कारपारेशन ऑफ इण्डिया लिमिटेड) का सुपरवाईजर बाहर ही रूक जाता है.
टी.एल.डी. की रीडिंग के लिए बाम्बे भेजा जाता है. रीडिंग के बाद कभी भी मजदूरों को इसकी जानकारी नहीं दी जाती है. थमलाव के राजकुमार बताते हैं कि वे रिएक्टर 5-6 में 6 साल से काम कर रहे हैं जहां पर उनको 250 रू0 प्रतिदिन के हिसाब से पैसा मिलता है. वे बताते हैं कि जहां ज्यादा रेडियेसन होता है वहां रबड़ और प्लास्टिक का गलप्स और सूट पहन कर जाना होता है. इस सूट को पहनने से काम की स्पीड कम होती है तो ठेकेदार का सुपरवाईजर दबाव देता है कि गलप्स खोल कर काम करो. इस तरह काम करते हुए कई मजदूर रेडिएशन के शिकार हुये और उनकी कुछ दिनों बाद मृत्यु हो गई.
ऐसी ही एक घटना थमलाव के सिक्ख परिवार में हुई जिसको रेडियेशन लगने के बाद कम्पनी व ठेकेदार द्वारा अस्पताल नहीं जाने दिया गया. उसको घर भेज दिया गया और 3-4 दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई.
यह घटना कहीं दर्ज नहीं हुई, न ही उस पीडि़त परिवार को कोई मुआवजा दिया गया. इसी पीडि़त परिवार का एक लड़का कम्पनी के अन्दर एक्सीडेंट में मारा गया. इसी तरह की घटना कम्पनी के अन्दर आये दिन घटती रहती है. 23 जून, 2012 को प्लांट के अन्दर रिसाव होने से 38 मजदूर रेडिएशन के शिकार हो गये.
प्रेमशंकर, जिनकी उम्र 24 साल है, झरझनी गांव के रहने वाले हैं. वह 2010 में प्लांट नं. 5-6 में ठेकेदार ललित छाबड़ा के पास सफाई का काम किये. प्रेमशंकर को उस समय 73 रू. प्रतिदिन के हिसाब से मजदूरी मिलती थी.
उसको छोड़कर वह प्लांट 7-8 में हिम्मत सिंह ठेकेदार के पास हेल्फर का काम करने लगे, जहां उनको 165 रू. मिलती थी. 7 फरवरी, 2012 को प्रेमशंकर नियमित समय से जाकर अपने काम पर लगे थे कि कुछ समय बाद अचानक 36 एम.एम. का सरिया 20 फूट की उंचाई से उनके ऊपर आ गिरा. सरिया गिरते ही काम कर रहे दूसरे मजदूरों को पता चल गया. मजदूरों को आनन-फानन में छुट्टी कर दिया गया.
प्रेमशंकर भाग्यवान थे कि उनको यह सरिया सिर पर नहीं लगी, नहीं तो यह सरिया उनकी जान ले सकता था.
उनको यह सरिया दांये कंधे के नीचे पीठ पर लगी जिससे वह अचेत हो गये. उनको उठा कर कम्पनी के अन्दर डिस्पेन्सरी में ले जाया गया, जहां पर दर्द निरोधक दवा देकर रावत भट्टा के लिए रेफर कर दिया गया.
रावत भट्टा में कुछ समय रख कर उनको कोटा रेफर कर दिया गया, जहां पर एक माह तक वह एक प्राइवेट अस्पताल में भर्ती रहे. प्रेमशंकर को किसी तरह का मुआवजा नहीं दिया गया. मुआवजा के बदले उनको यह कहते हुए काम से ही निकाल दिया गया कि अब इससे काम नहीं हो सकता. प्रेमशंकर ने कई बार ठेकेदार और सुपरवाईजर से मिलने की कोशिश की लेकिन उनको गेट पास ही नहीं दिया गया.
इस तरह कम्पनी मजदूरों को विकलांग बनाकर काम से बाहर निकाल देती है. प्रेमशंकर बताते हैं कि छोटी-मोटी घटना तो वहां महीने में दो-चार होती ही रहती है, कभी-कभी इससे बड़ी घटना भी होती है. वह बताते हैं कि लोकल थे इसलिए कम्पनी ने उनका ईलाज भी करवा दिया.
बाहरी लोगों को कम्पनी ईलाज नहीं करवाती और गम्भीर चोट लगने पर उनको गायब भी कर देती है. 27 मई, 2015 को मोहम्मद अकरम को मार-पीट कर ठेकेदार ने कम्पनी से निकाल दिया जिसकी लिखित शिकायत अकरम ने रावत भट्टा पुलिस स्टेशन में की है.
सामाजिक सरोकार दायित्व के तहत एन.पी.सी.एल. ने गांव में दो या तीन सोलर लैम्प लगवा कर अपनी सामाजिक दायित्व की इति श्री कर ली है. बंजारा बस्ती वन के गंगा राम करीब 20 साल से इस रिएक्टर में काम करते हैं. पहले वह 3-4 में हेल्पर का काम किया, फिर वेल्डर बन गये और अब वह रिएक्टर 7-8 में हिन्दुस्तान कंट्रेक्टर कम्पनी में सुपरवाईजर का काम करते हैं जिसके लिए उन्हें 395 रु. मिलता है.
गंगा राम बताते हैं कि एन.पी.सी.एल. रावत भट्टा परमाणु बिजलीघर ने थमलाव के बंजरा बस्ती वन और टू को नवम्बर 2003 से गोद लिया हुआ है. इन दोनों बस्तियों को मिलाकर करीब 130-140 घर बंजारा समुदाय का है.
एन.पी.सी.एल. ने 11 साल बाद सितम्बर 2014 में सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए 1500 मीटर लम्बा सीमेंट-कंक्रीट सड़क का निर्माण बंजरा बस्ती में किया है.
बंजारा बस्ती वन में शिक्षा के नाम पर राजकीय प्राथमिक विद्यालय है जहां पर गांव के बच्चे पढ़ने के लिए जाते हैं. आगे की पढ़ाई के लिए दो कि.मी. दूर थमलाव जाना पड़ता है, जहां पर आठवीं तक की पढ़ाई होती है.
आठवीं के बाद अगर पढ़ाई जारी रखना है तो रावत भट्टा जाना पड़ता है, जहां आने-जाने के लिए माता-पिता को 30-40 रू. रोज खर्च करने पड़ते हैं. यही कारण है कि आज तक बंजारा बस्ती वन की कोई लड़की दसवीं तक पढ़ाई नहीं कर पायी है.
कुछ ही लड़के रावत भट्टा जाकर पढ़ाई कर पा रहे हैं. एन.पी.सी.एल. ने इस गांव के बच्चों की पढ़ाई के लिए कोई स्कूल नहीं खोला. स्वास्थ्य की हालत यह है कि करूणा ट्रस्ट बंगलौर की सप्ताह में एक दिन दो घंटे के लिए एक मोबाइल डिस्पेनसरी आती है.
गम्भीर बीमारी होने पर उनको रावत भट्टा या कोटा खुद के खर्चे पर ईलाज कराना पड़ता है. एन.पी.सी.एल राजस्थान के पास 85 बेड का अस्पताल रावत भट्टा में है. इस अस्पताल में केवल स्थायी कर्मचारियों का ही ईलाज होता है.
गोद लिये हुए गांव के किसी व्यक्ति या ठेकेदारी पर काम कर रहे मजदूरों का ईलाज नहीं किया जाता है.
एन.सी.पी.एल द्वारा 14 फरवरी, 2005 को बंजारा बस्ती एक में विद्युतीकरण किया गया. लेकिन इस गांव में बिजली की वही हालत है जो कि और गांवों में है. इस बस्ती के लोगों को बिजली बिल का राजस्थान के अन्य गांव जैसे ही भुगतान करना पड़ता है.
बिजली की कटौती होती है. खेत के लिए पम्पिंग सेट चलाना है तो रात में वोल्टेज मिलता है तभी चलाया जा सकता है. खेतों को पानी देने के लिए एक तलाब है जो थमलाव गांव के सरपंच का है.
इस तलाब से पानी लेने के लिए फसल का आधा पैदावार या 100 रू. प्रति घंटा के हिसाब से भुगतान करने पर खेत को पानी मिलता है. पीने के पानी के लिए गांव से बाहर एक टब लगा हुआ है उससे ही गांव वालों को पानी लाना पड़ता है.
इसी तरह की हालत उस इलाके के सभी गाँवों के हैं. पीने के पानी के लिए हर गांव में एक या दो टब होते हैं जहां पर एक से दो घंटे ही पानी आता है. पानी लेने के लिए घंटों पहले से लाईन में लगाना होता है तब जाकर कहीं पानी मिलता है.
राणा प्रताप सागर बांध कुछ किलोमीटर की ही दूरी पर है जहां पानी की प्रचुर मात्रा होती है, लेकिन इससे इन गांव को पानी नहीं मिलता है. गांव के लोगों का कहना है कि पानी जो आता है वह अच्छा नहीं होता है.
नंदा देवी के पति कृष्णा गेमन इंडिया लिमिटेड में ड्राइवर हैं लेकिन उनको हेल्फर का पैसा मिलता है. नंदा देवी के दो बच्चे हैं जो अनपढ़ हैं. लेकिन वह अपने बच्चों को पढ़ाना चाहती हैं. वह चाहती हैं कि गांव में स्कूल और अस्पताल खोला जाये ताकि वे अपने बेटी और बेटे को पढ़ा सकें.
थमलाव की काफी महिलाएं 7-8 नम्बर रिएक्टर में बेलदारी का काम किया करती हैं. ये महिलाएं घर का काम करके सुबह 8 बजे घर से निकलती है और शाम 6.30 बजे के करीब घर को आती हैं.
घर पर आकर उनको घर का काम निपटाना होता है. इन महिलाओं को 200 या 250 रू0 मजदूरी मिलती है लेकिन इन को कोई छुट्टी नहीं दी जाती है. इन महिलाओं में खून और आयरन की कमी अधिक मात्रा में है.
एन.पी.सी.एल. रावत भट्टा परमाणु बिजलीघर को पानी पहुंचाने के लिए करीब 75 गांवों को डुबोकर 177 फीट ऊंचा राणा प्रताप सागर बांध बनाया गया. इस डूब क्षेत्र के लोग इधर-उधर बिखर गये लेकिन उनमें से करीब 100-150 परिवार झरझनी गांव में रह रहे हैं.
इसमें से बहुतों को मुआवजा तक नहीं मिला. परिवार में एक भाई को मुआवजा मिला तो दूसरे को नहीं. इसमें से अधिकांश लोग रावत भट्टा में बेलदारी का काम कर रहे हैं. इस प्लांट के आस-पास के सभी गांव वालों का कहना है कि सुबह उठने पर पूरे शरीर में दर्द होता है, सामान्य होने में करीब एक घंटा लगता है.
इस परमाणु बिजलीघर से न तो उनको बिजली 24 घंटे मिलती है और न ही पीने के लिए पानी मिलता है.
यह रिएक्टर प्लांट भले ही भारत के शहरों को रोशनी दे लेकिन इस गांव के भविष्य को अंधेरे में डुबो दिया है. दूसरे को रोशन करने के लिए जिन लोगों की ज़मीन गई, घर गया उनको मिला तो पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए बीमारी.
एक बार उजड़े, फिर उजड़ने का डर सता रहा है. इनके बच्चों के भविष्य संवारने के लिए स्कूल, अस्पताल की जगह उनको एक ऐसा उपहार मिला है जहां कभी दुर्घटना हो तो उनका भविष्य ही नहीं बचेगा. पानी में उनके गांव को डूबो दिया गया लेकिन पीने को पानी नहीं है. दूसरे को रोशन करने वाले अंधेरे में क्यों रे भाई!


साजिशों की दास्तान “ऑपरेशन अक्षरधाम”

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“…यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र का पता चलता है। यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।…”


“ऑपरेशन अक्षरधाम” हमारे राज्यतंत्र और समाज के भीतर जो कुछ गहरे सड़ गल चुका है, जो भयंकर अन्यापूर्ण और उत्पीड़क है, का बेहतरीन आलोचनात्मक विश्लेषण और उस तस्वीर का एक छोटा सा हिस्सा है।

24 सितंबर 2002 को गुजरात के अक्षरधाम मंदिर पर हमले को करीब 13 साल बीत चुके हैं।

गांधीनगर के सबसे पॉश इलाके में स्थित इस मंदिर में शाम को हुए एक ‘आतंकी’ हमले में कुल 33 निर्दोष लोग मारे गए थे।

“ऑपरेशन अक्षरधाम” इस मामले में पकड़े गए सभी आरोपियों के पूरे मुकदमें की एक गहन पड़ताल है।
यह किताब मुख्य रूप से जिन बिंदुओं पर चर्चा करती है उनमें पुलिस, सरकारी जांच एजेंसियों और खुफिया एजेंसियों तथा निचली अदालतों और उच्च न्यायालय तक की कार्यप्रणालियों और सांप्रदायिक चरित्र का पता चलता है।

यह भी दिखता है कि कैसे राज्य इन सभी प्रणालियों को हाइजैक कर सकता है और किसी एक के इशारे पर नचा सकता है।

यह किताब इस मामले के हर एक गवाह, सबूत और आरोप को रेशा-रेशा करती है। मसलन, जहां हमले के अगले दिन केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मारे गए दोनो फिदाईन का नाम और पता भी सार्वजनिक कर दिया, वहीं घटना के केंद्र गुजरात पुलिस के डीजीपी के चक्रवर्ती को भी उस वक्त तक इस बारे में कोई जानकारी नहीं थी।
मजे की बात ये थी कि अक्षरधाम हमले के सिलसिले में 25 सितंबर 2002 को जी एल सिंघल द्वारा लिखवाई गई प्रथम सूचना रिपोर्ट में भी मारे गए दोनो फिदाईन के निवास और राष्ट्रीयता का कहीं कोई जिक्र नहीं था!
मुकदमें की सुनवाई म पुलिस का दावा और पुलिस की तरफ से पेश चश्मदीद गवाहों के बयान विरोधाभाषी रहे पर आश्चर्यजनक रूप से पोटा अदालत, जहां इस मामले का मुकदमा चल रहा था, ने इन सारी गवाहियों की तरफ से आंखें मूंदे रखी।
इस मामले की जांच भी काफी संदिग्ध परिस्थितियों में की गई। पहले करीब एक साल से इस हमले की जांच क्राइम ब्रांच कर रही थी लेकिन क्राइम ब्रांच इस मामले में कोई महत्वपूर्ण खोजबीन नहीं कर पाई।
लेकिन 28 अगस्त 2003 की रात आठ बजे इस मामले की जांच एटीएस को दे दी गई। जांच मिलने के 24 घंटों के अंदर ही एटीएस ने अक्षरधाम मामले को हल कर लेने और पांच आरोपियों को पकड़ लेने का चमत्कार कर दिखाया।
इस संबंध में जीएल सिंघल का पोटा अदालत में दिए बयान के मुताबिक – “एटीएस की जांच से उन्हें कोई खास सुराग नहीं मिला था और उन्होने पूरी जांच खुद नए सिरे से 28 अगस्त 2003 से शुरू की थी।“ और इस तरह अगले ही दिन यानी 29 अगस्त को उन्होने पांचों आरोपियों को पकड़ भी लिया। पोटा अदालत को इस बात भी कोई हैरानी नहीं हुई।
किताब में इस बात की विस्तार से चर्चा है कि जिन इकबालिया बयानों के आधार पर 6 लोगों को आरोपी बना कर गिरफ्तार किया गया था, पोटा अदालत में बचाव पक्ष की दलीलों के सामनें वे कहीं नहीं टिक रहे थे।
लेकिन, अगर अदालत उस पर थोड़ा भी गौर करती या बचाव पक्ष की दलीलों को महत्व देती तो इन इकबालिया बयानों के आपसी विरोधाभाषों के कारण ही मामला साफ हो जाता, पर शायद मामला सुनने से पहले ही फैसला तय किया जा चुका था। किताब में इन इकबालिया बयानों और उनके बीच विरोधाभाषों का सिलसिलेवार जिक्र किया गया है।
इसी तरह हाइकोर्ट के फैसले में भी पूर्वाग्रह और तथ्य की अनदेखी साफ नजर आती है जब कोर्ट ये लिखती है कि “27 फरवरी 2002 को गोधरा में ट्रेन को जलाने की घटना के बाद, जिसमें कुछ मुसलमानों ने हिंदू कारसेवकों को जिंदा जला दिया था, गुजरात के हिंदुओं में दहशत फैलाने और गुजरात राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने की आपराधिक साजिश रची गई।”
जबकि गोधरा कांड के मास्टरमाइंड बताकर पकड़े गए मौलाना उमर दोषमुक्त होकर छूट चुके हैं और जस्टिस यूसी बनर्जी कमीशन, जिसे ट्रेन में आग लगने के कारणों की तफ्तीश करनी थी, ने अपनी जांच में पाया था कि आग ट्रेन के अंदर से लगी थी।
आखिरकार सर्वोच्च न्यायालय ने क्रमवार 9 बिंदुओं पर अपना विचार रखते हुए सभी आरोपियों को बरी किया। सर्वोच्च न्यायलय ने यह भी कहा कि बयानों को दर्ज करने में तय नियमों की अनदेखी की गई। फिदाईन की पोस्टमार्टम रिपोर्ट का हवाला देते हुए सर्वोच्च अदालत ने कहा – “जब फिदाईन के सारे कपड़े खून और मिट्टी से लथपथ हैं और कपड़ों में बुलेट से हुए अनगिनत छेद हैं तब पत्रों का बिना सिकुड़न के धूल-मिट्टी और खून के धब्बों से मुक्त होना अस्वाभाविक और असंभव है।”
किताब पूरी तरह तथ्यात्मक है। इस पूरे मुकदमें से जुड़े एक-एक तथ्य को बटोरने में लेखकों को लंबा समय लगा है। मौके पर जा कर की गई पड़तालों, मुकदमें में पेश सबूतों, गवाहियों, रिपोर्टों और बयानों की बारीकी से पड़ताल की गई है और इन सारी चीजों को कानून सम्मत दृष्टिकोण से विवेचना की गई है। यह किताब, राज्य सरकार की मशीनरी और खुफिया एजेंसियों, अदालतों तथा राजनीतिक महत्वाकांक्षा की साजिशों की एक परत-दर-परत अंतहीन दास्तान है।

“आपरेशन अक्षरधाम”

(उर्दू हिंदी में एक साथ प्रकाशित)

लेखक – राजीव यादव, शाहनवाज आलम

प्रकाशक – फरोश मीडिया

डी-84, अबुल फजल इन्क्लेव

जामिया नगर, नई दिल्ली-110025

मजदूरों की लाश पर कंस्ट्रकशन

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-सुनील कुमार

सभी की चाहत होती है कि उसका एक अपना घर हो। लोग रोजगार की तलाश मंे महानगरों और बड़े शहरों की ओर भाग रहे हैं जिससे कुछ शहरों की आबादी में बेतहासा वृद्धि हो रही है। यही कारण है कि महानगरों में ज्यादा लोग किराये के मकान में रहते हैं। इस का सबसे ज्यादा फायदा रीयल एस्टेट को हो रहा है। इसी कारण दिल्लीमुम्बईबंगलोर जैसे शहरों में एक फ्लैट की कीमत इतनी ज्यादा है कि जनता की पूरी जीवन की कमाई रहने के लिए एक घरौंदा बनाने में चली जाती है। रीयल एस्टेट में बहुत से कारपारेट घरानेराजनीतिज्ञ और अफसरशाह अपनी काली कमाई (ब्लैक मनी) को लगा कर कई गुना मुनाफे कमाते हैं। दिल्ली एन.सी.आर. में काफी बड़ी संख्या में अपार्टमेंट का निर्माण किया जा रहा है जिसमंे करीब 150 से अधिक बिल्डर लगे हुये हैं।



मुनाफा मजदूरों की खून पर
बिल्डर काम जल्दी पूरा करने के लिए छोट-छोटे ठेकदारों को अलग-अलग काम दिये रहते हैं। मजदूरों से दिन-रात काम करवाये जाते हैं। मजूदरों की सुरक्षा पर किसी तरह का ध्यान नहीं दिया जाता है। किसी भी साईट पर मजदूरों की संख्या के हिसाब से हेलमेट,सेफ्टी बेल्टजूतेग्लव्स नहीं होते हैं। दिखाने के लिए कुछ हेलमेटजूतेबेल्ट तो दिखते हैं लेकिन यह संख्या मजदूरों की संख्या से कम होती है। कोई भी दुर्घटना होने पर उसके बचाव की कोई व्यवस्था नहीं होती या ऐसी व्यवस्था होती है जो दुर्घटना को और बढ़ावा देती है। लेकिन बिल्डरों के पास ऐसी टीम जरूर होती है जो मजदूरों को डरा-धमका सकेदुर्घटना होने पर लाश गायब करे और फर्जी मजदूर बनकर मीडिया के सामने बिल्डर के पक्ष में बयान दे सके। मजदूरों के खून-पसीने का पैसे ये बिल्डर डकार जाते हैं और उसी के कुछ हिस्से देकर शासन-प्रशासन को खरीद लेते हैं। बदले में यह शासन-प्रशासन दुर्घटना और पर्यावरण के नुकसान होने पर बिल्डर को बचाने का काम करते हैं। बिल्डर मजदूरों को ही नहींघर का सपना संजोये लोगों को भी धोखा देते हैं। उसको समय से घर मुहैय्या नहीं कराते हैं या लागत बढ़ने के नाम पर पैसे बढ़ा दते हैं। ऐसी ही कुछ घटनाएं सामने आई हैं।

नोएडा सेक्टर 75 में तीन-चार साल से कंस्ट्रकशन का काम चल रहा है। इस कंस्ट्रकशन साइट पर कई बिल्डर हैं जिनका काम बिल्डिंग बनाने से लेकर सीवर डालनाटायल लगानाशीशे लगना इत्यादि है। इस साइट पर कितने मजदूर काम कर रहे हैं इसका अनुमान लगाना किसी के लिए भी कठिन काम है। बहुत सारे मजदूर साइट पर ही बने दरबेनुमा अस्थायी झोपड़ में रहते हैं। इस झोपड़ की उंचाई 6 फीट और उसके ऊपर टीन की छत होती है। इसी छत के नीचे उनको मई-जून के 45 डिग्री तापमान में भी परिवार के साथ रहना पड़ता है। इन झोपड़ों में इनके पास कुछ बर्तन और एक पुराने पंखे के अलावा कुछ नहीं होता। सोने के लिए टाटतो बैठने के लिए ईंट का इस्तेमाल करते हैं। कुछ मजदूर साइट के बाहर किराये के रूम में 4-5 के ग्रुप में रहते हैं।

ये सभी मजदूर रोज की तरह 4 अक्टूबर, 2015 को भी नियत समय से काम पर लगे हुए थे। मुरादाबाद के याकूब और अन्य मजदूर एम्स मैक्स गारडेनिया डेवलपर्स प्रा. लि. के अन्तर्गत काम कर रहे थेजिनका काम था सीवर लाईन को बिछाना। याकूब दो मजदूर के साथ बीस फीट गहरे में उतरकर पाईप डालने के लिए मिट्टी समतल करने का काम कर रहे थे। सेफ्टी के लिए किसी तरह का जाल या मिट्टी रोकने के लिए कोई चादर नहीं लगाया गया था। मिट्टी भी बलुठ (दोमट मिट्टी) थीजिससे वह अचानक काम कर रहे याकूब और उसके साथी पर गिर पडी। दूसरे छोर पर काम कर रहा एक मजदूर तो बच गया लेकिन याकूब और उसके एक साथी मिट्टी में दब गये। 


मजदूरों ने इकट्ठे होकर शोर मचाया और बचाने का प्रयास किया। वहीं पर गड्ढे खोदने के लिए जे.सी.बी मशीन से याकूब को निकाला गया। लेकिन बचाव के लिये आई इस मशीन से याकूब के सिर और शरीर पर जख्म हो गये। याकूब को अस्पताल ले जाया गया जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। मजूदरों ने हंगामा किया तो पुलिस ने उनको खदेड़-खदेड़ कर पीटा। एम्स मैक्स गारडेनिया डेवलपर्स प्रा. लि. के कारिन्दे मजदूरों और सुपरवाईजरों को गाड़ी में बैठा कर कहीं छोड़ आये। घटना-स्थल पर एक बुर्जुग मजदूर डटा रहा और लगातार मांग करता रहा कि इसमें एक और मजदूर दबा है उसे भी निकाला जाये। वह लगातार पुलिस अफसर से भी अनुरोध करता रहा कि दूसरे मजदूर को भी निकाला जाये। एक घंटे तक इस बुर्जुग मजदूर के शोर मचाने पर प्रशासन ने उसके बातों पर ध्यान नहीं दिया और गड्ढे में और मिट्टी गिरा दी। अचानक वह बुजुर्ग कहीं चला गया या उसे गायब कर दिया गया। उसकी जगह पर एक नौजवान आया जिसके शरीर पर न तो कहीं मिट्टी लगी थी और न ही उसके कपड़े गंदे थे। वह कहने लगा कि मैं भी उसी के साथ काम कर रहा था और दोनों भागने में सफल रहे और केवल एक मजदूर ही दबा था। इस तरह एक मजदूर की मौत रहस्य बन कर रह गया। इस साईट की न तो यह पहली घटना है न ही अंतिम। इससे पहले भी अनेक घटनाएं घट चुकी हैं। कुछ समय पहले बिजली के करंट से एक मजदूर की मौत हो चुकी है और न जाने कितने मौत रहस्य बन कर ही रह गये होंगे।

यह केवल सेक्टर 75 की ही घटना नहीं हैइससे पहले कितनी मौतें दिल्ली और एनसीआर में हो चुकी है। तीन-चार माह पहले मिट्टी धंसने से ही समयपुर बादली में दो मजदूरों की मौत हो चुकी है। कंस्ट्रकशन साइट पर इस तरह की घटनाएं आम हो चुकी हैं। दिल्ली एनसीआर में ही नहीं देश के विभिन्न हिस्सों में रोज व रोज मजदूरों की मौत होती है। साइट पर मजदूरों की सुरक्षा का ध्यान नहीं रखा जाता है और उनके बचाव के उपकरण से उनको और जोखिम होता हैजैसा कि याकूब को निकालते समय जे.सी.बी. ने जख्मी कर दिया।  वो जिन्दा भी रहे हांे लेकिन सिर पर चोट लगने से तो मौत लाजमी है। इसी तरह की घटना 23 फरवरी, 2015 को बंगलोर के एलिमेंट्स  माल के सामने हुई। एलिमेंट्स  माल के समाने सीवर बिछाने का काम किया जा रहा था जिसमें मनोज दास और हुसैन मिट्टी में दब गये। उनको जे.सी.बी मशीन से निकाला गया जिसके कारण एक के हाथ और दूसरे के पैर में फ्रैक्चर हो गया। अस्पताल में मनोज का दायां हाथ काटना पड़ा।


  बिल्डरों पर करोड़ों रूपये का लेबर सेस बाकी है। इस टेबल में कुछ बिल्डरों के ऊपर बकाया लेबर सेस दर्शाया गया है -


लेबर डिर्पाटमेंट का कहना है कि बिल्डर लॉबी ऊंची रसूख के होते हैं जिसके कारण उन पर कार्रवाई नहीं हो पाती है। जो भी अधिकारी कार्रवाई की कोशिश करता है उसका ट्रांसफर करवा दिया जाता है। मजदूरों की मौत केवल कंस्ट्रकशन के समय ही नहीं होतीउसके बाद भी मजदूर बिल्डिंग को चमकाने में मरते हैं। हर वर्ष हजारों मजदूर घर की डेंटिंग-पेटिंग करते समय मर जाते हैं। 15 सितम्बर, 2015 को पेंट करते समय लालू सिंह व एक अन्य मजदूर रोहणी सेक्टर 16 में गिरकर काल का ग्रास बन गये।
हर साल हजारों मजदूरों की मौत से न तो शासन-प्रशासन की नींद खुलती है और न ही नागरिक समाजन्यायपालिकामानवाधिकार संगठन सक्रिय होते हैं। न तो लालू सिंह की मौत पहली है और न ही याकूब की मौत अंतिम। हमें आयरन हील का पात्र अर्नेस्ट याद आता है जो बताता है कि हम जिस छत के नीचे बैठे हैं उससे खून टपक रहा है।

पुरस्कार वापसी का अर्थ

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"...गौरतलब है की इन घटनाओं को अंजाम देनेवाली या उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रश्रय देनेवाली ताक़तों को कोई दुःख , कोई पछतावा भी नहीं है और इस तरह हमारे अमानवीकृत होते समाज में दुःख की भी हत्या हो रही  है..."


साहित्य अकादेमी ने अगर अगस्त में कन्नड़ वचन साहित्य के विद्वान् एमएम कलबुर्गी की बर्बर हत्या की कड़े शब्दों में निंदा की होती तो शायद नौबत यहाँ तक नहीं आती कि देश की इतनी सारी भाषाओँ के इतने सारे लेखक अपना अकादेमी पुरस्कार लौटाते या अकादेमी की विभिन्न समितियों से त्यागपत्र देते.
कलबुर्गी साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित लेखक थे और उसकी सामान्य सभा के एक सदस्य भी रह चुके थे.
उनकी मौत भी कोई स्वाभाविक नहीं थी जिस पर एक औपचारिक शोकसभा करके अपने कर्त्तव्य की इतिश्री समझ ली जाती, बल्कि उन्हें अपने स्वतंत्र विचारों के कारण एक हिन्दुत्ववादी संगठन  ने अपनी गोलियों का शिकार बनाया था.
इससे पहले तर्कवादी विद्वान नरेंद्र दाभोलकर और पानसरे की हत्याएं भी हो चुकी थीं.
अकादेमी की इस चुप्पी से क्षुब्ध होकर हम जैसे लेखकों ने पुरस्कार की वापसी शुरू की और अब यह संख्या लगातार बढ़ रही है और उनके इस क़दम का स्वागत हो रहा है.
यह पुरस्कार वापसी इस बात का भी संकेत है कि देश के मौजूदा माहौल में लेखक और बुद्धिजीवी किस क़दर घुटन और विक्षोभ महसूस कर रहे हैं.
वे पिछले करीब एक साल से देश में तेज़ी से बढ़ रही उन ताक़तों के कारण चिंतित हैं, जो हमारे लोकतंत्र के आधार-मूल्यों, सांप्रदायिक सद्भाव, बहुलतावादी जीवन पद्धतियों, धर्मनिरपेक्ष परम्पराओं और संविधान द्वारा दिए गए नागरिक अधिकारों और अभिव्यक्ति की आज़ादी को कभी धमकी और  बाहुबल  और कभी हिंसा के बल पर कुचलने में लगी हैं.
ये शक्तियां भारतीय संस्कृति और हिंदुत्व की दुहाई देते हुए अपना एकरूपीकरण का एजेंडा लागू करने पर आमादा हैं, ताकि दूसरी संस्कृतियाँ  और भी हाशिये पर ठेल दी जाएँ, उन्हें माननेवाले ‘दूसरे दर्जे के नागरिक’ बन जाएँ और देश  के अल्पसंख्यक एक बहुसंख्या की अधीनता  मंज़ूर कर लें.
इसकी ज़हरीली अभिव्यक्ति संघ परिवार और केंद्र सरकार के कई नेताओं के बयानों में देखी जा सकती है, जो लगभग रोज़ अल्पसंख्यकों और उनका पक्ष लेनेवालों को अपमानित करने के लिए दिए जाते हैं.
कलबुर्गी की हत्या के बाद उत्तर प्रदेश के दादरी में, कोरी और बाद में नितान्त झूठ साबित होने वाली अफवाह के कारण एक मुस्लिम परिवार पर जानलेवा हमला और उसमें एक व्यक्ति की हत्या इसी माहौल का भीषण नतीजा है, जिसे साप्रदायिक फ़ासीवादी ताक़तें पैदा करने और बढाने में लगी हैं.
ज़रा पीछे जायें तो घटनाक्रम उस दौर तक जाता है जब प्रसिद्द कवि और विद्वान् ए के रामानुजन के निबंध ‘ तीन सौ  रामायणें’ को दिल्ली विशाविद्यालय के पाठ्यक्रम से हटाने का दबाव डाला गया और फिर इतिहासकार वेंडी दोनिगर की किताब ‘द हिंदूज़’ को रद्दी के हवाले करने के लिए उसके प्रकाशक को मजबूर किया गया.
यह एक ऐसे व्यक्ति का काम था जिसे मौजूदा सरकार और उसकी राजनीतिक पार्टी का पूरा संरक्षण प्राप्त था. यह दरअसल आनेवाले दौर का, स्वतंत्र विचारों और अध्ययनों और असहमतियों पर लगने वाली संविधानेतर अंकुशों का संकेत भी था जिसकी दुखद परिणति कलबुर्गी की हत्या में हुई.
गौरतलब है की इन घटनाओं को अंजाम देनेवाली या उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष प्रश्रय देनेवाली ताक़तों को कोई दुःख , कोई पछतावा भी नहीं है और इस तरह हमारे अमानवीकृत होते समाज में दुःख की भी हत्या हो रही  है.
लोकतंत्र’ चेक्स एंड बैलेंसेज़’ की प्रणाली है, लेकिन देखा जा रहा है की इन घटनाओं, ऐसे ज़हरीले बयानों पर सरकार या राज्य का कोई अंकुश नहीं है.
हर मामूली बात पर ट्वीट करने, विदेशों में लम्बी-चौड़ी हांकने वाले देश के प्रधानमंत्री ऐसी घटनाओं पर हमेशा एक चालाक चुप्पी साधे रहते हैं और साफ़ झलकता हैं कि वे इस सबका अनुमोदन कर रहे हैं.
लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाना या पदों से इस्तीफ़ा देना मौजूदा माहौल---जिसमें अकादेमी की चुप्पी भी शामिल है-- का एक प्रतिरोध और प्रतिकार है, भले ही उसका महत्व प्रतीकात्मक हो.
इस्तीफों का सिलसिला शुरू होने पर अकादेमी के अध्यक्ष ने पुरस्कृत होने वाले लेखकों द्वारा कमाए गए ‘यश’ की वापसी पर सवाल किये, जो लेखकों ही नहीं , अकादेमी  के लिए भी बेहद अपमानजनक और दुर्भाग्यपूर्ण था क्योंकि अकादेमी उन्हीं कृतियों को पुरस्कृत करती है जो पहले प्रतिष्ठा पा चुकी हों.
इस बयान ने लेखकों को यह सोचने के लिए विवश किया कि पूरी तरह स्वायत्त और संप्रभु कही जाने वाली, उनकी अपनी मानी जानेवाली संस्था किसी सरकारी एजेंसी की तरह व्यवहार कर रही है.
यह निश्चय ही अकादेमी का क्षरण है, जिसकी अगली कड़ी यह है कि लेखकों के इस्तीफे पर सरकार के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा -–जो कि मूल रूप से बहुत दरिद्र और अनपढ़ हैं— लगातार प्रतिक्रिया व्यक्त कर रहे हैं, हालाँकि अकादेमी का संविधान उसके कामकाज में किसी भी सरकारी हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता.
यह आलेख नवभारत टाइम्स में भी प्रकाशित हुआ है.

हरीश रावत के जिंदल प्रेम में एक्‍सपोज़ हुई भाजपा

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पुष्‍कर सिंह बिष्‍ट । अल्मोड़ा

रानीखेत के नैनीसार में जिंदल समूह को कौड़ियों के भाव ग्रामीणों की जमीन देने के विरोध में आए उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के पीसी तिवारी व उनके आठ सहयोगियों सहित बड़ी संख्या में ग्रामीणों खासकर महिलाओं को पुलिस दमन का शिकार होना पड़ा।



इलाके को पुलिस छावनी बनाकर मुख्यमंत्री ने इस कथित अंतरराष्‍ट्रीय स्कूल का उद्घाटन आखिरकार कर ही डाला। गुरुवार की सुबह जब परिवर्तन पार्टी के सदस्‍यों का दल कार्यक्रम स्थल की ओर रवाना हुआ तो कटारमल के पास पुलिस ने पीसी तिवारी, जीवन चंद्र, प्रेम आर्या, अनूप तिवारी, राजू गिरी आदि को हिरासत में ले लिया।

देर शाम तक इन लोगों को नहीं छोड़ा गया था। इधर ग्रामीणों का एक बड़ा समूह जिसमें महिलाएं भी थीं, उन्‍हें पुलिस ने झड़प के बाद मजखाली के आसपास जंगल में रोक लिया और उनकी विरोध सामग्री, तख्ती, झण्डे आदि भी जला दिए। भाजपा नेता व पूर्व जिला पंचायत अध्यक्ष मोहन राम को भी हिरासत में लेने का समाचार है।

 
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ने इसके विरोध में अल्मोड़ा में मुख्यमंत्री का पुतला फूंका। इस मुद्दे पर कई दिनों से मीडिया में हो हल्ला करने वाले भाजपा नेता अजय भट्ट कार्यक्रम स्थल पर तो नहीं गए अलबत्ता भाजपा नेता इस मामले में कन्नी काटते रहे। भाजपा सांसद मनोज तिवारी के मौके पर आने से पूरी भाजपा को मानो सांप सूंघ गया। कई भाजपा नेताओं ने यहां तक कहा कि मामला उनकी समझ में अभी नहीं आया है। सुबह से ही जिंदल समूह के इस कार्यक्रम की तैयारी के अखबारों में जो विज्ञापन दिखे उसमें भाजपा सांसद अजय टम्टा व अनेक स्थानीय जनप्रतिनिधियों के बधाई संदेश थे जिससे पूरी भाजपा बैक फुट पर दिखी। ज्ञात हो कि अल्मोड़ा जिला में डीडा (द्वारसों) के तोक नौनीसार की 353 नाली (7.061 हेक्टेयर) भूमि प्रदेश सरकार दिल्ली की हिमांशु एजुकेशन सोसायटी को आवंटित करने की प्रक्रिया से सन्देह के घेरे में आ गयी है। स्थानीय ग्रामीण इसके विरोध में सड़क पर उतर आये हैं।
 
अल्मोड़ा-रानीखेत के बीच द्वारसों क्षेत्र प्राकृतिक रूप से बहुत सुन्दर है। द्वारसों से काकड़ीघाट के लिये कई दशक से बन रहे मोटर मार्ग में मात्र 3 कि.मी. पर सड़क के किनारे नानीसार नामक तोक है जिसमें प्रदेश के मुख्यमंत्री हरीश रावत की सरकार बहुत गुपचुप तरीके से जिन्दल समूह की इस संस्था को कथित इन्टरनेशनल स्कूल के लिये कौडि़यों के भाव आवंटित कर रही है किन्तु आवंटन प्रक्रिया पूरी होने से पहले ही दबंग संस्था ने जमीन पर कब्जा कर लिया है।
 
कुमाऊँ में सार का मतलब खेती की जमीन से होता है। नानीसार का मतलब ही छोटी खेती की जमीन से है। प्रदेश सरकार के निर्देश पर प्रशासन ने इस जमीन के आवंटन की प्रक्रिया को इतने गोपनीय ढंग से अंजाम दिया कि डीडा के ग्रामीणों को 25 सितम्बर को इसका पता तब चला जब हिमांशु एजुकेशनल सोसायटी दिल्ली 260 जी.एल.एफ. तथा शिवाजी मार्ग नई दिल्ली के दर्जनों मजदूर व जे.सी.बी. मशीनों ने उनकी जमीन पर सड़क निर्माण, पेड़ों का विध्वंस व घेरबार शुरू कर दी। ग्रामीणों द्वारा हाथ पांव मारने के बावजूद जमीन पर कब्जा कर रहे लोगों एवं प्रशासन ने उन्हें कोई जानकारी नहीं दी। इस घटना के विरोध में 2 अक्टूबर को ग्रामीणों ने नैनीसार में धरना दिया, तब रानीखेत तहसील से पटवारी व पुलिस ने आकर उन्हें कार्य में व्यवधान न डालने की चेतावनी दी। ग्रामीणों ने एस.डी.एम. रानीखेत को ज्ञापन भी दिया। 8 अक्टूबर को दर्जनों ग्रामीण जिला मुख्यालय पर आये व वहां मौजूद ए.डी.एम. इला गिरी को इस दबंगई के खिलाफ ज्ञापन दिया। इसी दिन ग्रामीणों का यह दल उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी से मिला व अपनी जमीन बचाने में मदद की गुहार की।
 
उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी ने 9 अक्टूबर को जिला अधिकारी विनोद कुमार सुमन से मिल कर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम ज्ञापन देकर ग्रामीणों की भूमि पर अतिक्रमण रोकने, पूरे प्रकरण की उच्च स्तरीय जांच व इस मामले से जुड़े सभी तथ्यों से सार्वजनिक करने की मांग की।
 
11 अक्टूबर को डीडा-द्वारसों के ग्रामीणों के आमंत्रण पर उत्तराखण्ड परिवर्तन पार्टी के एक दल ने ग्रामीणों के साथ घटनास्थल का दौरा किया। घटनास्थल पर जिन्दल का स्कूल खोलने का बोर्ड लगा है व रोड़ से लगी भूमि पर खुदान सड़क निर्माण हो चुका है। बांज, काफल, चीड़ के पेड़ जमींदोज किये जा चुके हैं। मौके पर विद्युत विभाग का ट्रांसफार्मर लगा था, संस्था व पट्टी पटवारी के पास जमीन के कागजात नहीं थे और संस्था द्वारा वहां किये जा रहे विनाश को लेकर एस.डी.एम. रानीखेत, ए.पी.बाजपेयी को मौके पर जानकारी दी। मौके पर क्षेत्रीय पटवारी आया पर निर्माण कर रही संस्था व पटवारी के पास जमीन का कब्जा लेने का कोई आदेश नहीं था।
 
इस बीच सूचना अधिकार अधिनियम से प्राप्त जानकारी से साफ हो गया है कि राजस्व अभिलेखों में श्रेणी 9(3)5 कृषि योग्य बंजर भूमि में दर्ज 7.061 हे. भूमि अभी तक भी नैनीसार डीडा द्वारसों की जमीन का जिन्दल ग्रुप के पक्ष में हस्तान्तरण नहीं हुआ।
 
इस मामले में नियमानुसार ग्राम सभा की आम बैठक नहीं हुई और न ही आम ग्रामवासियों से अनापत्ति ली गयी। इस गांव के ग्राम प्रधान गोकुल सिंह राणा का एक अनापत्ति प्रमाण पत्र जिस पर 23 जुलाई 2015 की तिथि है, इसमें अनापत्ति प्रमाण पत्र देेते हुए लिखा है कि जमीन सार्वजनिक उपयोग व धार्मिक प्रयोजन की नहीं है जबकि जिला अधिकारी कार्यालय के पत्र पत्रांक 6444/सत्ताईस-19-15-15, दिनांक 29 जुलाई, 2013 में तीन बिन्दुओं के साथ ग्राम सभा की खुली बैठक में ग्राम की जनता ग्राम प्रधान प्राप्त अनापत्ति प्रस्ताव की सत्यापित प्रति मांगी गयी है। ग्रामीणों ने 15 अक्टूबर को उपजिलाअधिकारी रानीखेत के यहां हुए विरोध प्रदर्शन में ज्ञापन देकर कहा है कि ग्रामवासियों की खुली बैठक में कोई भी प्रस्ताव पारित नहीं किया गया। यदि ऐसा फर्जी दस्तावेज तैयार किया गया है तो ऐसा करने वालों पर कार्यवाही की जाय। ग्रामीणों ने अतिक्रमणकारियों द्वारा लोभ-लालच देने, जबरन उठवा देने व जान से मारने की धमकी देने का आरोप भी लगाया है।
 
इस भूमि का मूल्य रू. 4,16,59,900/- (चार करोड़ सोलह लाख उनसठ हजार नौ सौ रूपया) लगाया गया है। वार्षिक किराया मात्र 1996.80 पैसा लिखा गया है। इसी आधार पर उत्तराखण्ड सरकार ने 22 सितम्बर, 2015 को सचिव, उत्तराखण्ड शासन डी.एस.गब्र्याल की ओर से जारी शासनादेश में गवर्नमेन्‍ट ग्रान्ट एक्ट के अधीन पहले 30 वर्ष के लिये 2 लाख रूपये वार्षिक दर व 1196.80 किराये पर पट्टा निर्गत करने हेतु नियमानुसार अग्रिम कार्यवाही करने के आदेश दिये। इसका 7 अक्टूबर को उपजिलाअधिकारी ने पट्टे पर सशुल्क आवंटन करने हेतु अपनी आख्या दी। स्वयं तत्कालीन जिलाधिकारी विनोद कुमार सुमन ने सचिव डी.एस.गब्र्याल द्वारा जारी शासनादेश के बिन्दु 9 जिसमें सर्वोच्च न्यायालय जगपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य एवं झारखण्ड राज्य व अन्य बनाम पाकुर जागरण मंच व अन्य में न्यायालय के निर्देश का पालन सुनिश्चित करने को कहा है, जिस पर उपजिलाअधिकारी रानीखेत की आख्या अभी तक प्राप्त नहीं है। लेकिन अल्मोड़ा के जिला प्रशासन ने 25 सितम्बर को ही मिलीभगत कर उक्त भूमि पर जबरन संस्था को कब्जा करा दिया।
 
ग्रामीणों का आरोप है कि उक्त भूमि उनकी नाप भूमि थी, जिसे बन्दोबस्त में गलत दर्ज किया गया। वहां वन पंचायत बनी है, चीड़ के पेड़ों पर लीसा लगा है, गांव का एक छोटा मन्दिर (थान) है लेकिन इन सभी की सरकार के इशारे पर अनदेखी की गयी है। जिन्दल समूह की इस कथित सोसायटी के दलाल अब ग्रामीणों को धमकाने, लालच देने व धन के जोर पर दुष्चक्र व गिरोहबन्दी में लग गये हैं। सरकार के इशारे पर कांग्रेस पार्टी से जुड़े लोगों को आगे कर ग्रामीणों के विरोध को दबाने की नाकाम कोशिश हो रही है। दिलचस्‍प बात यह है कि हिमांशु एजुकेशनल सोसायटी द्वारा जो प्रस्ताव प्रदेश के मुख्यमंत्री को दिया गया है उसमें उत्तराखण्ड के किसानों, मजदूरों के बच्चों की पढ़ाई इस कथित इण्टरनेशनल स्कूल में करने की कोई व्यवस्था नहीं है। शासनादेश में भी केवल अधिकारियों/कर्मचारियों के बच्चों को शिक्षा देने का जिक्र किया गया है।
 
इस सोसायटी के दस्तावेजों में साफ है कि इस कथित अंतरराष्‍ट्रीय स्कूल में विदेशी छात्र पढ़ेंगे और 30 प्रतिशत कोटे पर उत्तराखण्ड के अधिकारियों व नेताओं के बच्चों को सीट दी जाएगी। फिलहाल हरीश रावत जिसे उत्तराखण्ड का जमीनी नेता कहा जाता है, उनकी इस घटना से खूब किरकिरी हुई है। माना जा रहा है कि यह मामला दिल्ली में सोनिया दरबार तक जा सकता है। इस घटना में कन्नी काटने पर यूकेडी, भाजपा जैसे अन्य दलों की भी पोल खुली है जो उत्तराखण्ड के नाम पर लोगों से भावनात्मक खिलवाड़ करते हैं।

फेलोशिप बंद किए जाने के खिलाफ़ छात्रों का प्रदर्शन

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"...छात्रों ने दिल्ली के अपने साथियों पर हुए बर्बर लाठी चार्ज की निंदा करते हुए कहा कि शिक्षा हमारा बुनियादी हक़ है और यूजीसी का यह फैसला अप्रत्यक्ष तरीके से हमारे इस बुनियादी हक़ को सीमित करता है। एक तरफ तो सरकारें ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘राइट टू एजुकेशन’ के नाम पर  कभी “भारत उदय” तो कभी “भारत निर्माण” की बातें करती हैं और दूसरी तरफ अपनी नीतियों के जरिए शिक्षा बजट में लगातार कटौती करते हुए उच्च शिक्षा को गरीब व आम विद्यार्थियों की पहुँच से दूर कर रही हैं।..."

यूजीसी चेयरमैन और मानव संसाधन विकास मंत्री का फूंका पुतला

सरकार की शिक्षा विरोधी नीतियों पर जताया रोष, फैसला तुरंत वापस लेने की मांग

यूजीसी द्वारा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में एमफिल और पीएचडी के शोध छात्रों को दी जाने वाली शोधवृत्ति को बंद किए जाने के निर्णय के खिलाफ़  23 अक्तूबर को महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के सैकड़ों छात्र-छात्राओं द्वारा कैंपस में एक विरोध मार्च निकाला गया।
कैंपस के केंद्रीय विद्यालय परिसर से शुरू होकर यह मार्च वाया गर्ल्स हॉस्टल, कबीर हिल्स और गांधी हिल्स से होते हुए लगभग दो किलोमीटर का सफर तय कर नज़ीर हाट तक आया जहां पर यूजीसी के इस छात्र विरोधी फैसले के लिए जिम्मेदार यूजीसी अध्यक्ष वेदप्रकाश और मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी का पुतला फूंका गया।
ज्ञात हो कि अभी दो दिन पहले ही यूजीसी ने एक सर्कुलर जारी किया है जिसके अनुसार नए सत्र से केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में मिलने वाली नॉन-नेट फेलोशिप को बंद कर दिया गया है। इसके बाद से ही लगातार पूरे देश में यूजीसी के इस कदम का व्यापक पैमाने पर विरोध हो रहा है और विद्यार्थी सड़कों पर उतर आए हैं।
दिल्ली में यूजीसी के मुख्यालय के सामने सैकड़ों छात्र-छात्राएँ धरने पर बैठे हुए हैं और देश के बाकी हिस्सों से लोग उनके समर्थन में पहुँच रहे हैं। लेकिन प्रशासनिक तानाशाही और बर्बरता का आलम यह है कि अपने हक़ के लिए प्रदर्शन कर रहे इन छात्र-छात्राओं पर पुलिस एवं अर्ध-सैनिक बलों द्वारा लठियाँ बरसायी गईं जिसमें कई लोग घायल हुए हैं।
इसी क्रम में यूजीसी के इस फैसले के विरोध और दिल्ली के अपने संघर्षशील साथियों के साथ कदम मिलाते हुए आज हिन्दी विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं ने भी प्रोटेस्ट मार्च निकाला और मानव संसाधन विकास मंत्री व यूजीसी चेयरमैन का पुतला दहन किया।
छात्रों ने दिल्ली के अपने साथियों पर हुए बर्बर लाठी चार्ज की निंदा करते हुए कहा कि शिक्षा हमारा बुनियादी हक़ है और यूजीसी का यह फैसला अप्रत्यक्ष तरीके से हमारे इस बुनियादी हक़ को सीमित करता है। एक तरफ तो सरकारें ‘सर्व शिक्षा अभियान’ और ‘राइट टू एजुकेशन’ के नाम पर  कभी “भारत उदय” तो कभी “भारत निर्माण” की बातें करती हैं और दूसरी तरफ अपनी नीतियों के जरिए शिक्षा बजट में लगातार कटौती करते हुए उच्च शिक्षा को गरीब व आम विद्यार्थियों की पहुँच से दूर कर रही हैं।
सरकारों का यह दोहरापन साबित करता है कि वे अपने देश की आम जनता को सोचने-समझने की चेतना से युक्त एक चिंतनशील नागरिक बनाने की बजाय सिर्फ अक्षर ज्ञान तक सीमित कर देना चाहती हैं ताकि उन्हें अपने फायदे के लिए जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र के आधार पर भेड़-बकरियों की तरह कभी भी मन-मुताबिक हाँका जा सके।
विद्यार्थियों ने मांग की कि यूजीसी का यह निर्णय तत्काल वापस लिया जाए ताकि गरीब और पिछड़े तबकों के उन असंख्य छात्र-छात्राओं के लिए भी उच्च शिक्षा के दरवाजे खुले रह सकें जहां तक लाखों में से चंद खुशनसीब लोग ही पहुँच पाते हैं। इस दौरान बड़ी संख्या में छात्र-छात्राओं के साथ ही कई शिक्षक भी शामिल हुए और उन्होंने विद्यार्थियों को अपना समर्थन दिया।
इस दौरान छात्रों ने आगे की रणनीति के रूप में एक हस्ताक्षर अभियान चलाने का फैसला किया जिसे यूजीसी एवं मानव संसाधन मंत्रालय के साथ ही राष्ट्रपति को भेजा जाएगा और इसके अलावा यह भी तय किया गया कि विद्यार्थियों का एक प्रतिनिधिमंडल दिल्ली जाकर दिल्ली के साथियों के साथ इस लड़ाई में भागीदारी करेगा।

जाजोर पहाड़ की लड़ाई

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आखिर ऐसा क्या था जाजोर पहाड़ के अधिग्रहण में कि शिपात खान गोविन्दगढ़ तहरीक को दोहराने की चेतावनी दे रहे थे. अलवर-तिजारा-जयपुर रोड पर किथूर गांव के पास अरावली श्रंखला का महत्वपूर्ण पहाड़ है जजोर. यह पहाड़ 12 किमी लम्बा और पांच किमी चौड़ा है. 13 ग्राम पंचायतों के 42 गांव इसकी सीमा से लगे हुए हैं. इन गांवों में 65000 की आबादी रहती है. यह पहाड़ सीधे तौर पर उनकी आजीविका से जुड़ा हुआ है. DRDO को यहां 850 हैक्टेयर भूमि मिशाइल भण्डारण के लिए आवंटित की गई है. आवंटन की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया गया है.


शाम के साढ़े सात बज रहे हैं. मेवात किसान पंचायत के अध्यक्ष शिपात खान मैनेजर जजोर गांव में सभा को संबोधित करने वाले हैं.

पिछले पांच दिन से पैदल यात्रा कर रहे 50 किसान और उतने ही गांव के लोग इस सभा में जुटे हुए हैं.
बूढ़े लोग खाटों पर बैठे हुए हैं. मेरी नजर तीन फीट चौड़ी और छह फीट लम्बी चारपाई पर पड़ती है. मैं गिनना शुरू करता हूँ. उस चारपाई पर कुल जमा 11 लोग लदे हुए थे.

अंधेरा ढल चुका है. हर थोड़े से वक्त में भीड़ के किसी कोने से सलाई जुगनू की तरह जलती है और बीड़ी के भीतर समा जाती है.

सलाई जितनी देर तक जलती है, बीड़ी सुलगाने वाला चेहरा रोशनी के मैले से पीलेपन के साथ दिखाई पड़ता है और अगले ही पल सुलगती और धुआं छोड़ती छोटी सी नारंगी बिंदी में तब्दील हो जाता. बीच-बीच में दाहिने हाथ की चारपाई से हुक्के की गुड़गुड़ाहट तक़रीर का हिस्सा बन रही थी.

मौलाना हनीफ़ की तक़रीर के बाद शिपात खान अपनी तक़रीर शुरू करते हैं. अलवर के 12 किलोमीटर लम्बे और पांच किलोमीटर चौड़े पहाड़ को राष्ट्रीय रक्षा अनुसंधान संगठन (DRDO) को अपने मिसाइल कार्यक्रम के लिए आवंटित किया गया है.

यह पदयात्रा इसी आवंटन के खिलाफ है. कल माने 18 अक्टूबर को यह यात्रा पहाड़ा गांव में जा कर खत्म होने वाली है.

शिपात खान कल की रैली में सबको आने का आग्रह करते हुए अपनी तक़रीर इन शब्दों के साथ समाप्त करते हैं...

"इन पहाड़ों को बचाने के लिए यह तो लड़ाई की शुरुआत भर है. हमें पूरा भरोसा है कि हम अदलिया के ज़रिए इंसाफ हासिल करेंगे. लेकिन हम हमारे जंगल और पहाड़ों के लिए किसी भी हद्द तक जाने के लिए तैयार हैं. गोविन्दगढ़ तहरीक और नीमूचाणा तहरीक की यादें आपके ज़ेहन में अब भी होंगी."

शिपात खान की तक़रीर में आए शब्द "गोविन्दगढ़ तहरीक और नीमूचाणा तहरीक"मुझे यहां के किसान आन्दोलन की जड़ों तक ले गए.


किसान आन्दोलन की जड़ें

20वीं सदी की शुरुआत में जब अलवर का उलवर रियासत हुआ करता था. यहां महाराजा जयसिंह का राज था.
महाराजा जयसिंह ने 1910 से ही किसानों पर कर्ज का बोझ लादना शुरू किया. 1925 में महाराजा ने अचानक लैंड रेवन्यू में पचास फीसदी का इज़ाफा कर दिया.

इसके चलते किसानों ने विद्रोह कर दिया.

14 मई 1925 को नीमूचाणा नाम की जगह पर हो रही किसानों की सभा को अलवर राज के सैनिकों ने घेर कर गोलियां दागनी शुरू कर दीं.

इस घटना में सैंकड़ों लोगों की जान गई.

महात्मा गांधी ने उस समय इस घटना को जलियावाला बाग से भी वीभत्स करार दिया था.

इस सभा में हालांकि मेव मुस्लिम भी शामिल थे पर मारे जाने वाले किसानों में बड़ा हिस्सा राजपूतों का था.
महाराजा जयसिंह शुरुवात से ही हिन्दू महासभा के हिमायती रहे. आर्य समाज के पहली पंक्ति के नेताओं के साथ इनका सम्पर्क बना हुआ था.

आर्यसमाज को भी मलकाना के बाद शुद्धि आन्दोलन के लिए नई ज़मीन की ज़रुरत थी. राजपूताना में अलवर और भरतपुर रियासतों ने हिन्दू महासभा और आर्यसमाज को पर्याप्त संरक्षण दिया.

राजपरिवार की शह पर यहां के मुस्लिम जाटों, गुर्जरों और राजपूतों का शुद्धिकरण शुरू हो चुका था. नीमूचाणा की घटना के बाद महाराजा की छवि हिन्दू विरोधी शासक की बनने लगी थी.

इसके चलते उन्होंने मेव मुसलमानों को निशाना बनाना शुरू किया.

19 शताब्दी के अंत तक भरतपुर और अलवर की रियासतों में मुसलमानों को बड़े प्रशासनिक ओहदे हासिल थे.

महाराजा ने प्रशासन का हिन्दूकरण शुरू किया. स्कूल में उर्दू की जगह हिंदी में पढ़ाई शुरू करवाई गई.

इधर पूरे इलाके में कृषि संकट गहराता जा रहा था. मेवात के इलाके में सूखा पड़ना बहुत सामान्य घटना थी. किसान लगातार कर्जे में डूबने लगे.

महाजनी कर प्रणाली के तहत स्थानीय बनियों की तरफ से 60 फ़ीसदी सालाना की दर से ब्याज वसूला जाता.
नतीजतन हालत ये बने कि मेवों की 40 फीसदी जमीन बनियों के पास रेहन पर चली गई. 1916 की पंजाब सरकार की सालाना प्रशासनिक रिपोर्ट में मेवों की माली हालत का ब्यौरा कुछ इस तरह से दिया गया था-

"The condition of the Meos is rapidly becoming hopeless. They live so literally from hand to mouth, carelessly contracting debt for marriages, funerals and petty luxuries even in average years that when a year of drought comes they are thrown on the moneylender who can make with them what terms he likes."

महाराजा जय सिंह और भरतपुर के जाट राजा किशन सिंह ने सोची समझी रणनीति के तहत सदियों से चले आ रहे इलाके के भाईचारे को ध्वस्त करना शुरू किया ताकि रियासत में बढ़ रहे कृषि संकट से किसानों का ध्यान हटाया जा सके.

इन हालातों में जब एक तरफ शुद्धिकरण चल रहा था. प्रशासन के द्वारा मेवों से रिश्वत वसूली जा रही थी.
1932 में महाराजा जय सिंह ने लेवी में चार गुणा बढ़ोत्तरी कर दी. इसके अलावा तम्बाकू पर अलग से कर लगाना शुरू कर दिया. इस घटना ने मेवों के बढ़ते असंतोष को विस्फोटक मोड़ पर पहुंचा दिया.

मेवों ने लेवी देने से इनकार कर दिया. हालांकि उनके पास इनके अलावा कोई और विकल्प बचा भी नहीं था.
इसके अलवा उन्होंने बनियों को भी कर्ज लौटाने से इंकार कर दिया.

पेशे से वकील यासीन खान के नेतृत्व मेव किसान आन्दोलन की शुरुवात हो गई. जनवरी 1933 को गोविन्दगढ़ में हज़ारों की तादाद में मेव इक्कठा हुए.

महाराजा के सिपाहियों ने यहां भी नीमूचाणा की तर्ज पर सभा का घेराव करके गोली दागना शुरू कर दिया.
इसमें सैंकड़ों मेवों को जान गवानी पड़ी. इस घटना के ठीक बाद महाराजा ने मेव बाहुल्य वाली चार निजमातों रामगढ़,लक्ष्मणगढ़, किशनगढ़ और तिजारा में मार्शल लॉ लगा दिया. इससे स्थितिया बेकाबू हो गई.
मेवों ने सशस्त्र विद्रोह शुरू कर दिया. इस निजमातों में बनियों की दुकानों को लूटा गया. उनकी पत्रियों को आग लगा दी गई.

एक महीने के अंत तक चारों निजमातों पर मेवों का कब्ज़ा हो गया. बनियों के आर्थिक शोषण के खिलाफ शुरू हुए इस हिंसक विद्रोह ने सांप्रदायिक रंग ले लिया.

मंदिरों को तोड़ा जाने लगा. हिन्दू महासभा ने अलवर के महाराजा से अपील करते हुए कहा, "रधु के वंशज राजा को हिन्दू जनता को मेव राक्षसों से बचाना होगा."

उत्तरी अलवर में स्थितियां इतनी बिगड़ी कि ब्रिटिश हकुमत को हस्तक्षेप करना पड़ा.

मई 1933 में महाराजा को राजनीतिक निर्वासन के तहत लन्दन जाना पड़ा. वो एक निर्वासित राजा कि मौत मरे.

इस घटना की न्यायिक जांच के लिए कमिटी बनाई गई जिसने राजा को दोषी पाया.

क्या है जजोर?


आखिर ऐसा क्या था जजोर पहाड़ के अधिग्रहण में कि शिपात खान गोविन्दगढ़ तहरीक को दोहराने की चेतावनी दे रहे थे.

अलवर-तिजारा-जयपुर रोड पर किथूर गांव के पास अरावली श्रंखला का महत्वपूर्ण पहाड़ है जजोर.
यह पहाड़ 12 किमी लम्बा और पांच किमी चौड़ा है. 13 ग्राम पंचायतों के 42 गांव इसकी सीमा से लगे हुए हैं.
इन गांवों में 65000 की आबादी रहती है. यह पहाड़ सीधे तौर पर उनकी आजीविका से जुड़ा हुआ है.
DRDO को यहां 850 हैक्टेयर भूमि मिशाइल भण्डारण के लिए आवंटित की गई है. आवंटन की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा किया गया है.

पूरा मामला

मामले की शुरुवात होती है 1 जनवरी 2010 से. रक्षा मंत्रायल की तरफ से अलवर में अपनी किसी परियोजना के लिए 850 हैक्टेयर भूमि के आवंटन के लिए प्रथम पत्र भेजा गया.

प्रारभिक कार्यवाही के बाद अलवर प्रसाशान ने ग्राम पंचायत कीथूर और महरमपुर के अनापत्ति पत्र पर्यावरण मंत्रालय को भेज दिए गए.

इन अनापत्ति पत्रों के आधार पर पर्यावरण मंत्रालय ने 17 जून 2011 को पहले स्टेज की स्वीकृति जारी कर दी.
प्रथम स्टेज की स्वीकृति के लिए जरुरी शर्तों के लिए वनाधिकार कानून की अनुपालना के समस्त दावों का निपटारा करने का प्रावधान शामिल है. 

इस वजह से उप वन संरक्षक किशनगढ़ बास ने 25 मई 2013 को एसडीएम किशनगढ़ बास को ग्राम पंचायत कीथूर और  महरमपुर में ग्राम सभा आयोजित करवा कर प्रस्ताव भेजने का आग्रह किया.

माने पर्यावरण मंत्रालय की प्रथम स्टेज की स्वीकृति के लगभग दो साल बाद इस प्रसाशन के फर्जीवाड़े का पता ग्राम पंचायतों को लगा.

सूचना के अधिकार से पता लगा कि जिस दिन प्रशासन ग्राम पंचायत के आयोजन और पंचायतों द्वारा अनापत्ति पत्र जारी किए जाने की बात कह रहा है, उस दिन वहां किसी ग्राम सभा का आयोजन ही नहीं हुआ था.

ऐसी किसी कार्यवाही का ब्यौरा पंचायत के रजिस्टर में दर्ज नहीं है. इस बाबत ग्राम पंचायत कीथूर ने 30 मई 2013 को फर्जी अनापत्ति पत्र जारी करने की शिकायत कलेक्टर को दर्ज करवाई गई.

इस सरासर फर्जीवाड़े के बाद भी प्रशासन अपनी चाल पर अड़ा रहा. जिला प्रसाशन ने दूसरी स्टेज की स्वीकृति के लिए भेजे गए दस्तावेजों में फिर ये यही प्रक्रिया अपनाई गई. इन दस्तावेजों में ग्राम पंचायत महरमपुर की तरफ से 21 अगस्त 2013 और कीथूर की तरफ से 20 सितम्बर 2013 को नए सिरे से ग्राम सभा बुला कर सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित करने के दस्तावेज संलग्न किए गए थे.

जबकि पंचायत के रजिस्टर में ऐसी किसी सभा का जिक्र तक नहीं है. प्रसाशन की तरफ से बेशर्मी के साथ की जा रही जालसाजी से साफ़ है कि इस परियोजना के पक्ष में ऊपर के स्तर से कितना बड़ा दबाव काम कर रहा है.

और सभी वनाधिकार बर्खास्त कर दिए गए....

सम्वत्  2001 माने सन 1944 तक के रेवन्यू रिकॉर्ड में यह पहाड़ शामिलाती भूमि के रूप में दर्ज है. अरावली के पहाड़ स्थानीय जलवायु के सन्दर्भ में बेहद महत्वपूर्ण हैं.
इसके चलते उच्चतम न्यायलय के निर्देश पर 1992 में अरावली नोटिफिकेशन जारी किया गया. इस नोटिफिकेशन को आधार बनाकर 1999 में अलवर जिले के लिए पर्यावरणीय मास्टर प्लान बनाया गया.

26 अगस्त  2011 में राजस्थान सरकार अधिसूचना जारी कर इस मास्टर प्लान को लागू कर दिया.
इस अधिसूचना के अनुसार कोई भी योजना अगर अलवर जिले में लाई जाती है तो उसे इसी मास्टर प्लान के अनुरूप ही लागू किया जा सकेगा. मास्टर प्लान के अनुसार अलवर में पांच किस्म की जमीनों को संरक्षित किया गया है.

गैर मुमकिन पहाड़, गैर मुमकिन राडा, गैर मुमकिन बीड, बंजर और रूंध.
मास्टर प्लान में पहाड़ों की इकोलॉजी को हो रहे नुक्सान की बात गंभीरता से उठाई गई है. इसमें इको रिस्टोरेशन की प्रक्रिया में तेजी लागे के उपाय सुझाए गए हैं.

माने इस मास्टर प्लान के प्रावधानों के अनुसार पहाड़ों का किसी भी परियोजना के लिए अधिग्रहण गैर कानूनी है.

देश भर में जंगल और ज़मीन के लड़ाई लड़ रहे लोगों के लिए वनाधिकार कानून 2006 बहुत बड़ा हथियार साबित हुआ है. इन 13 ग्राम पंचायतों के 65000 लोगों को भी जजोर के पहाड़ पर वनाधिकार प्राप्त है.

18 अप्रैल 2013 को नियमगिरि खनन परियोजना के मामले में उच्चतम न्यायलय ने ऐतिहासिक फैसला दिया. इस फैसले ने जल,जंगल और ज़मीन के सम्बन्ध में तमाम निर्णय की शक्ति ग्राम सभा के हाथ में दे दी गई.

मेवात किसान पंचायत और उप वन संरक्षक किशनगढ़ बास के बीच 15 अगस्त 2015 को संपन्न हुई वार्ता में उप वन संरक्षक ने माना कि जजोर पहाड़ से सटे दर्जनों गांव इस पहाड़ से लघु वन उपज लेते आए हैं.

साथ यह वन हज़ारों की तादाद में मवेशियों और अन्य पालतू जानवरों के लिए चारागाह का काम करता है. शमालाती भूमि की वजह से यहां के लोगों के वनाधिकारों का संरक्षण किया जाना चाहिए.

इसके अलावा राजस्थान सरकार का भूमि अधिग्रहण सम्बंधित कानून  'RIGHT TO FAIR COMPELSATION AND TRANSPARECY IN LAND ACQUISITION, REHABILITION AND RESETTLEMENT ACT 2013'अप्रैल 2014 से लागू है.

जजोर पहाड़ का आवंटन केंद्र सरकार के पत्र दिनांक 24/05/2014 और राज्य सरकार के पत्र दिनांक 24/07/2014 व 27/8/2014 के आधार पर किया गया. इस तरह यह आवंटन इस नए कानून के दायरे में आता है. नए कानून के मुताबिक किसी परियोजना की स्वीकृति के लिए सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का आंकलन करना जरुरी है.

जिला प्रसाशन ने इस कानून को ताक पर रख कर इस आवंटन के पक्ष में दस्तावेज पर्यावरण मंत्रालय को सौंप दिए. इसके बारे में अलवर प्रशासन की सफाई यह है कि उन्हें मालूम ही नहीं है कि DRDO पहाड़ के ऊपर कर क्या रहा है? ऐसी स्थिति में इस किस्म के आंकलन को अंजाम नहीं दिया जा सकता.









...अगली किश्त में जारी

मायने निदा फ़ाज़ली के

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-अभिनव श्रीवास्तव

"...ऐसे समय में निदा फ़ाज़ली को समझना खुद उन्हीं के शब्दों में ‘आवाजों के बाजारों में खामोशी’ को पहचानने जैसा है। इसी खामोशी के भीतर निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें और उनकी नज़्में पूरी ऊर्जा, हिम्मत और ताज़गी के साथ बोलती हुयी नज़र आती हैं..."

तस्वीर veethi.com से साभार

निदा फ़ाज़ली हमारे बीच नहीं रहे, यूं उनका गुजरना एक घटना भर नहीं है, लेकिन इस भागती-दौड़ती ज़िन्दगी में ये खतरा बराबर बना रहता है कि उनके जैसे शायर की मौत को भी हम आयी-गयी ख़बरों का हिस्सा भर मान लें। जाहिर है कि कोई भी समाज अपने बीच रहने वाले कवियों, शायरों और कलाकरों के चले जाने का मर्म तभी समझ पाता है, जब हम उनकी मौत को सिर्फ एक घटना की तरह न लें, बल्कि हमारे भीतर उन्हें ‘खोने’ का एहसास हो। 
निदा फ़ाज़ली के रूप में हमनें क्या खोया है, ये जानना आज जितना मुश्किल है, उतना ही जरूरी भी। मुश्किल इसलिये क्योंकि गुजरते सालों में हमनें ख़ास तौर पर शायरों का इस्तेमाल महज अपनी बातों में तड़का लगाने भर के लिये किया है। हमें उनकी विचार द्रष्टि और चिंतन से कोई सरोकार नहीं रहा। शायद लोकप्रियता की इस चाह में कई ऐसे शायर और कवि भी आये, जिन्होंने बेहिचक खुद को चिंतनविहीन और विचारविहीन कहा। ऐसे समय में निदा फ़ाज़ली को समझना खुद उन्हीं के शब्दों में ‘आवाजों के बाजारों में खामोशी’ को पहचानने जैसा है। इसी खामोशी के भीतर निदा फ़ाज़ली की ग़ज़लें और उनकी नज़्में पूरी ऊर्जा, हिम्मत और ताज़गी के साथ बोलती हुयी नज़र आती हैं।
निस्संदेह, उनकी गज़लों और नज्मों में जिस स्तर की सहजता और गहराई साथ-साथ दिखायी देती है, वह बहुत दुर्लभ है। अपने बेतकल्लुफ़ अंदाज़ और उसके सादेपन से कई बार वे हमारी कल्पनशीलता को इतना आसानी से छूकर चले जाते हैं कि जीवन की ऊंची-नीची राहों में उनके अशआर हमसे बातें करते हुये नज़र आते हैं, लेकिन शायद निदा की रचनाओं की परवाज इससे कहीं ऊंची थी, उसका जादू और प्रभाव कहीं अधिक व्यापक था।
निदा की सबसे बड़ी ख़ासियत उनकी ग़ज़लों और नज्मों में दिखायी देने वाली हिंदुस्तानी विचार द्रष्टि थी, इस चलते उनके काम में जो सोंधापन आया, वह हमें बरबस भक्तिकाल के कवियों की दार्शनिक गहराई की याद दिला देता था। निदा हिंदुस्तानी विचार की छाया में बड़े हुये शायर थे और अपनी इस समझ को जाहिर करने में वे कभी हिचकिचाये नहीं। अपनी नज़्म ‘एक लुटी हुयी बस्ती की कहानी’ में उन्होंने बहुत साफगोई और सशक्त अंदाज में लिखा-
ख़ुदा की हिफाज़त की खातिर, पुलिस ने पुजारी के मंदिर में मुल्ला की मस्जिद में पहरा लगाया..ख़ुदा इन मकानों में लेकिन कहां था..सुलगते मुहल्ले की दीवारों-दर में..वही जल रहा था, जहां तक धुंआ था..
दरअसल यही द्रढ़ता उर्दू शायरी की दुनिया में उनको एक अलग मुकाम देती है, इस द्रढ़ता के चलते ही वे साल 1996 में मुम्बई में हुये रमेश किणी हत्याकांड के बाद शिव सेना के खिलाफ बहादुरी से लड़ने वाली उनकी पत्नी शीला किणी के लिये नज़्म लिखते हुये बतौर शायर ख़ुद को भी कटघरे में खड़ा करने से नहीं चूके। उनकी इस नज़्म में गुस्सा भी झलकता है और एक आह्वाहन भी..
ये सच है जब तुम्हारे कपड़े भरी महफ़िल में छीने जा रहे थे..उस तमाशे का तमाशाई मैं भी था और मैं चुप था..मेरी खामोशी मेरे ज़ुर्म की जिन्दा शहादत है..मैं उनके साथ था जो जुल्म को ईजाद करते हैं..मैं उनके साथ हूं जो हंसती गाती बस्तियों को बर्बाद करते हैं..
आख़िर खुद को कटघरे में खड़ा करने का ये नैतिक बल निदा में कहां से आता है? ये कुछ और नहीं अपने चिंतन के प्रति उनकी ईमानदारी और समर्पण के चलते ही था। इस समर्पण ने उनकी शायरी को प्रगतिशील मूल्यों के रंग में रंगा, इसी रंग के चलते उनकी ‘सहर’ में ‘धुंधलकों से झगड़ने’ की हिम्मत आ पाती है। बावजूद इसके निदा के लेखन में कोई सपाटपन या इकहरापन नहीं आता। बाजार और शहरी जीवन मूल्यों के अंर्तविरोधों को उकेरते हुये वे हमें बार-बार ज़िन्दगी के फलसफे से परिचित तो करवाते हैं, लेकिन निराश नहीं होने देते। सपने और बेहतर समाज की उम्मीदें उनकी रचनाओं के भीतर बराबर जिंदा रहते हैं। इसी जिंदादिली और उम्मीद ने उनसे एक वियतनामी जोड़े की तस्वीर के लिये ये ख़ूबसूरत नज़्म लिखवायी-


तस्वीर online-instagram.com से साभार
आओ, हम-तुम
इस सुलगती खामोशी में
रास्ते की
सहमी-सहमी तीरगी में
अपने बाजू, अपनी सीने, अपनी आँखें
फड़फड़ाते होंठ
चलती-फिरती टाँगें
चाँद के अन्धे गड्ढे में छोड़ जायें
कल
इन्हीं बैसाखियों पर बोझ साधे
सैकड़ों जख़्मों से चकनाचूर सूरज
लड़खड़ाता,
टूटता
मजबूर सूरज
रात की घाटी से बाहर आ सकेगा
उजली किरणों से नई दुनिया रचेगा
आओ
हम !
तुम !




वास्तव में, निदा फ़ाज़ली ने अपने समय के यथार्थ को बहुत गहराई और फैलाव के साथ समझते भी रहे और उसे अपने सादे और सरल अंदाज से साधते भी रहे। वे शायरी की उस प्रगतिशील परंपरा के आख़िरी शायर थे, जिनमें लुटी हुयी बस्तियों से लेकर पर्वतों पर सोने वाली हवाओं और जर्रा-जर्रा बिखरते सूरज का जिक्र मिलता है। उनकी मौत से उर्दू जुबान और हिंदुस्तानी परंपरा की शायरी की उम्र कुछ कम जरूर हो गयी है।

एक यादगार दोस्त की याद

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-आनंद स्वरूप वर्मा
"..दिल में एक बार फिर से वे सारी सरगर्मियां शुरू हो गयी हैं जो सात साल के लंबे पतझड़ के पत्तों में ग़़र्क हो गयी थीं। तुम अगर कभी सीलन भरे जंगल में गए हो तो तुमने पतझड़ के पत्तों को उनके ज़र्द रंगों में मिट्टी होते देखा होगा। मेरे सपनों को मन के अंधेरे में सच्चाई का मुंतजिर और फिर कराहों में बिखरते हुए तुमने देखा था। अब मैं अपनी हथेलियों को फूलों सा हल्का महसूस करता हूं जो उम्मीद की नयी धूप में रक्ताभ संगीत की चमक और थिरक से भरी हैं..."

यह सवाल कई बार मन में पैदा होता है कि स्मृति सभाओं का औचित्य क्या है? क्या किसी के दिवंगत हो जाने के बाद उसे याद करने की औपचारिकता का ही नाम स्मृति सभा है? क्या यह औपचारिकता जरूरी है? इसका मकसद क्या है? होना यह चाहिए कि मृत व्यक्ति के कार्यों के बहाने हम उस काल खंड का विश्लेषण करें जिसमें उसने एक सक्रिय जीवन बिताया और अपने सामाजिक सरोकारों को किसी मुकाम तक पहुंचाने की कोशिश की। 
पंकज सिंह के संदर्भ में मैं यही चाहुंगा कि उनके कई दशकों के सक्रिय जीवन के दौरान याद करें कि उस काल खंड में समाज के अंदर किस तरह के राजनीतिक और सामाजिक उथल-पुथल हुए और उनका उनके कृतित्व पर क्या असर पड़ा। उन्होंने किस तरह सामाजिक धड़कनों को अपनी रचनाओं में स्थान दिया और कैसे उनका जीवन भी उन घटनाओं से निर्देशित या संचालित होता रहा। 
पंकज सिंह से मेरा परिचय 1971 के आसपास हुआ था। उन्हीं दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों से काम की तलाश में मेरे जैसे बहुत सारे युवक दिल्ली आकर बस गए थे। मेरे संपर्क में जो लोग थे उनमें मंगलेश डबराल, त्रिनेत्र जोशी, इब्बार रब्बी, अजय सिंह, सुरेश सलिल, पंकज सिंह आदि जैसे बहुत सारे कवि, कथाकार, पत्रकार आदि थे। 
हम सबकी आंखों में एक सपना था और आजीविका के लिए जद्दोजहद के साथ साथ हम सामाजिक बदलाव में अपनी भूमिका निर्धारित करने के मकसद से अलग-अलग मोर्चों पर भी जूझ रहे थे। बेशक, हम सभी रोजगार की तलाश में आए थे और अलग-अलग जगहों पर या तो नौकरियां कर रहे थे या तलाश रहे थे लेकिन चेतना के स्तर पर एक सामूहिक लक्ष्य हम सबके दिमाग में था। हमारे कुछ आदर्श थे और उन आदर्शों को हासिल करने के लिए हमारे अंदर एक ईमानदार सी बेचैनी भी थी। 
ध्यान दीजिए कि यह 70 का दशक था जो भारतीय राजनीति के लिए बहुत उथल-पुथल भरा था। 1967 में पश्चिम बंगाल की नक्सलबाड़ी में एक किसान क्रांति हुई थी जिसने समूची वामपंथी राजनीति में हलचल पैदा कर दी थी। श्रीमती इंदिरा गांधी के नेतृत्व में उस समय की सरकार ने इस आंदोलन के दमन के लिए हर तरीके अपनाए। इन सबके बावजूद 1967 से लेकर 1972 के अंत तक यह आंदोलन उभार पर रहा। 1969 में उस कांग्रेस का विभाजन हो गया जो 1947 से ही सत्ता पर काबिज थी। 
श्रीमती गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर और देशी रजवाड़ों के प्रिवी पर्स समाप्त कर वाहवाही लूटी थी। श्रीमती गांधी ने गरीबों की हितैषी की अपनी छवि को खूब भुनाया। मेरे जैसे ढेर सारे युवकों को हैरानी होती थी कि वही सरकार जिसने नक्सलबाड़ी में किसानों के और इसके समर्थन में खड़े हुए पश्चिम बंगाल के युवकों के दमन में हर घृृणित तरीके का इस्तेमाल किया है वह कैसे गरीबों की पक्षधर हो सकती है! अगर देखें तो यह दशक उस मोह भंग का दशक था जो आजादी के बाद से ही पल रहा था। 
हमारी रचनाओं में इन अंतर्विरोधों की अभिव्यक्ति बहुत कारगर ढंग से हो रही थी। पंकज की कविताएं भी इसी पृष्ठभूमि में आकार ले रही थीं। आश्चर्य नहीं कि दिल्ली की हमारी इस मित्रमंडली के एक अन्य सदस्य आलोकधन्वा ने अपनी कुछ महत्वपूर्ण कविताओं में अत्यंत सशक्त ढंग से उन स्थितियों का चित्रण किया। आलोकधन्वा पटना में रहते थे लेकिन प्रायः दिल्ली आते रहते और हमलोगों के साथ उनकी निरंतर बैठकें होती रहतीं। मुझे वह दृश्य नहीं भूलता जब मोहन सिंह प्लेस के एक रेस्टोरेण्ट में हम लोगों के बीच आलोक ने अपनी बुलंद आवाज में अपनी दो कविताएं ‘जनता का आदमी’ और ‘गोली दागो पोस्टर’ का पाठ किया और रेस्टोरेण्ट के बाहर सुनने वाले मंत्रमुग्ध श्रोताओं की अच्छी खासी भीड़ इकट्ठा हो गयी।
आलोकधन्वा की ‘जनता का आदमी’ एक लंबी कविता थी जिसकी शुरुआत से ही लोग दहल उठते थे। यहां मैं प्रारंभिक कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगाः-
‘बर्फ काटने वाली मशीन से आदमी काटने वाली मशीन तक
कौंधती हुई अमानवीय चमक के विरुद्ध
जलते हुए गांवों के बीच से गुजरती है मेरी कविता
तेज आग और नुकीली चीखों के साथ 
जली हुई औरत के पास 
सबसे पहले पहुंचती है मेरी कविता
जबकि ऐसा करते हुए मेरी कविता
जगह-जगह से जल जाती है 
और वे आज भी कविता का इस्तेमाल मुर्दा गाड़ी की तरह कर रहे हैं
शब्दों के फेफड़ों में नए मुहावरों का ऑक्सीजन भर रहे हैं 
लेकिन जो कर्फ्यू के भीतर पैदा हुआ
जिसकी सांस लू की तरह गर्म है 
उस नौजवान खान मजदूर के मन में
एक बिल्कुल नयी बंदूक की तरह याद आती है मेरी कविता
जब कविता के वंचित प्रदेश में 
मैं एकबारगी कई करोड़ आदमियों के साथ घुसा
तो उन तमाम कवियों को
मेरा आना एक अश्लील उत्पात सा लगा
जो केवल अपनी सुविधा के लिए 
अफीम के पानी में अगले रविवार को चुरा लेना चाहते थे
अब मेरी कविता एक ली जा रही जान की तरह बुलाती है
भाषा और लय के बिना केवल अर्थ में 
उस गर्भवती औरत के साथ 
जिसकी नाभी में सिर्फ इसलिए गोली मार दी गयी
कि कहीं एक ईमानदार आदमी पैदा न हो जाए’
इसी तरह ‘गोली दागो पोस्टर’ की अंतिम पंक्तियां दिमाग पर हथौड़े की तरह असर करती हैः
‘जिस जमीन पर 
मैं अभी बैठकर लिख रहा हूं
जिस जमीन पर मैं चलता हूं 
जिस जमीन को मैं जोतता हूं
जिस जमीन में मैं बीज बोता हूं और
जिस जमीन से अन्न निकाल कर मैं
गोदामों तक ढोता हूं
उस जमीन के लिए गोली दागने का अधिकार
मुझे है या उन दोगले जमींदारों को जो पूरे देश को
सूदखोर का कुत्ता बना देना चाहते हैं...
यह कविता नहीं है 
यह गोली दागने की समझ है 
जो तमाम कलम चलाने वालों को 
तमाम हल चलाने वालों से मिल रही है’ 


बेचैनी का यह आलम हिन्दी में ही नहीं बल्कि बांग्ला, तेलुगु, पंजाबी आदि में लिखने वाले रचनाकारों के अंदर भी दिखायी देता था। हम लोगों का संपर्क इन भाषाओं के साथ भी बहुत जीवंत किस्म का था। बांग्ला की कविताएं कंचन कुमार के माध्यम से हम तक पहुंचती थी जिन्होंने पहले ‘मराल’ और बाद में ‘आमुख’ का संपादन किया। मुझे याद है कि किस तरह पंजाब से अमरजीत चंदन और अवतार सिंह ‘पाश’ प्रायः दिल्ली आते और एकाधिक बार मॉडल टाउन के उस छोटे से कमरे में हमलोगों की बैठकें जमतीं जिसमें मंगलेश डबराल और त्रिनेत्र जोशी रह रहे थे। कम लोगों को पता है कि पंजाब की क्रांतिकारी कविताओं का संकलन करने में पंकज सिंह ने विशेष दिलचस्पी ली और उसने चंदन, पाश, सुरजीत पातर, लाल सिंह दिल, दर्शन खटकड़ आदि की कविताओं का बहुत ही खूबसूरत अनुवाद किया। वे सारे अनुवाद आज कहां बिखरे हैं मुझे ठीक पता नहीं। लेकिन कुछ अनुवाद बाद में ‘भंगिमा’ में प्रकाशित हुए जिसका संपादन डॉ. लाल बहादुर वर्मा गोरखपुर से कर रहे थे।
मेरे जैसे बहुत सारे लोगों का पंजाबी कविता से परिचय इन रचनाओं के माध्यम से ही हुआ। बाद में तो पाश की कविताएं हिंदी में बेहद लोकप्रिय हुईं।
उस समय के लेखकों की पीढ़ी को नक्सलबाड़ी के संघर्ष ने जिस हद तक प्रभावित किया था वैसा प्रभाव बाद के किसी आंदोलन का देखने को नहीं मिला। आंध्र प्रदेश में उन्हीं दिनों ‘विप्लवी रचयितालु संगम’ नाम से एक साहित्यिक संगठन की स्थापना हुई जिसे संक्षेप में ‘विरसम’, नाम से लोग जानते हैं। इस संगठन की स्थापना के पीछे मुख्य रूप से श्री श्री की भूमिका थी जो तेलुगु के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि थे। वैसे तो श्री श्री विशुद्ध जनवादी धारा के कवि थे लेकिन बुर्जुआ क्षेत्र में भी उन्हें काफी लोकप्रियता हासिल थी। उनके कुछ गीत तेलुगु फिल्मों में लिए गए थे और इन फिल्मों की वजह से भी उन्हें काफी लोकप्रियता मिली थी। विरसम के अन्य सदस्यों में ज्वालामुखी, एम.टी.खान, निखिलेश्वर, वरवर राव, चेरबंड राजु आदि थे जिनसे हमलोगों का जीवंत संपर्क था। हिन्दी के वरिष्ठ लेखकों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना उन विरल लोगों में थे जो बराबर इस धारा के प्रति दिलचस्पी रखते थे और गाहे-बगाहे ‘दिनमान’ के अपने बहुचर्चित स्तंभ ‘चरचे और चरखे’ में इसका उल्लेख करते थे। कहना न होगा कि पंजाबी से लेकर तेलुगु तक के साहित्य का यह जो वृत्तांत मैं बता रहा हंू इनके साथ पंकज सिंह का एक अभिन्न संबंध था और आज जब उनके जीवन के बारे में मैं याद करता हूं तो उस काल खंड की सारी तस्वीरें अनायास आंखों के सामने घूम जाती हैं। सर्वेश्वर जी बंगाली मार्केट में और पंकज सिंह त्रिवेणी कलाकेंद्र के सामने गोमती गेस्ट हाउस में रहते थे। यह उस समय की बात है जब इमरजेंसी के बाद जे.एन.यू से उनका निष्कासन हो चुका था और उन्हें पेरियार छात्रावास खाली करना पड़ा था। मंडी हाउस में शाम को हम सब कभी त्रिवेणी तो कभी श्रीराम सेंटर के सामने मिलते और देश दुनिया के हालात पर लंबी चर्चाएं होतीं।
1974 में मैं आकाशवाणी से निकाल दिया गया। मेरे निष्कासन की प्रक्रिया कई चरणों में चली। मुझे जब निकाले जाने का नोटिस मिलता तो वहां आंदोलन शुरू हो जाता और जब टेक्निकल स्टॉफ भी आंदोलन में शामिल होकर ब्लैक आउट की धमकी देता तो मुझे फिर एक्सटेंशन दे दिया जाता। यह अधिक समय तक नहीं चल सका और 1974 में अंततः मुझे निकाल ही दिया गया। मेरे निष्कासन के बाद और इससे पहले भी अनेक अखबारों ने इस मसले पर टिप्पणियां प्रकाशित की थीं और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने तो ‘दिनमान’ में पूरे दो पृष्ठ की टिप्पणी प्रकाशित की थी। मेरे निष्कासन के विरोध में एक हस्ताक्षर अभियान चला जिसकी कमान पंकज सिंह ने संभाल रखी थी। हस्ताक्षर अभियान का ड्राफ्ट तैयार करने से लेकर जे.एन.यू. और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों-अध्यापकों, लेखकों, पत्रकारों आदि के हस्ताक्षर जुटाने का सारा काम उन्होंने खुद किया। उस ड्राफ्ट पर 350 से ज्यादा लोगों ने हस्ताक्षर किए थे।
दरअसल 1974 का वर्ष आपातकाल से पहले का वर्ष था और बहुत साफ तौर पर आने वाले दिनों की आहट सुनायी पड़ने लगी थी। अप्रैल 1974 में जॉर्ज फर्नांडिज के नेतृत्व में रेलकर्मियों की ऐतिहासिक हड़ताल हुई थी जिसने इंदिरा गांधी के शासन तंत्र को हिला दिया था। उन्हीं दिनों इंदिरा गांधी की तानाशाही को लक्षित करते हुए पंकज सिंह की एक कविता प्रकाशित हुई जिसका शीर्षक था ‘साम्राज्ञी आ रही है’। उस दौर की लिखी जा रही राजनीतिक कविताओं में इस कविता का बहुत महत्व है। इस कविता से पंकज सिंह की कविताओं में आए एक बदलाव की भी आहट सुनायी देने लगी थी। इसकी कुछ पंक्तियां गौर करने लायक हैंः
‘साम्राज्ञी का रथ तुम्हारी अंतड़ियों से गुजरेगा
रथ गुजरेगा तुम्हारी आत्मा की कराह और शोक से
तुम्हारे सपनों की हरियालियां रौंदता हुआ
रथ गुजरेगा रंगीन झरनों और पताकाओं की ऊब-डूब में
संभल कर, अपनी मुर्दनी और आक्रामक मुद्रा को 
मीठी रसीली स्वागत भंगिमाओं में छिपाते हुए
स्वतंत्रता की इस दोगली बहार में
झुक जाओ भद्र भाइयो 
साम्राज्ञी आ रही है’। 


1981 में अत्यंत चर्चित नक्सलवादी नेता नागभूषण पटनायक की कुछ समय के लिए पेरोल पर रिहाई की चर्चा चली। वह तकरीबन 10 साल से आंध्र प्रदेश में विशाखापटट्नम की जेल में बंद थे। वह पार्वतीपुरम षडयंत्र मामले के अभियुक्तों में से एक थे और उन्हें निचली अदालत से मौत की सजा मिली थी। उनके परिवारजनों ने और उनके वकील ने राष्ट्रपति के नाम जब एक दया याचिका भेजी तो नागभूषण ने इसका विरोध किया और कहा कि वह ऐसी सरकार से दया की अपील नहीं करेंगे जिसने देश के उत्पीड़ित किसानों-मजदूरों को अपने जुल्म का शिकार बनाया है। अपने वकील आर.के.गर्ग के नाम उन्होंने एक लंबा पत्र लिखा और बताया कि क्यों वह दया की भीख मांगने की बजाय फांसी पर झूल जाना पसंद करेंगे। 
1982 में जेल के अंदर उनका स्वास्थ्य काफी खराब हो गया और जब अधिकारियों को लगा कि शायद जेल में ही उनका निधन हो जाए तो उन्होंने सरकार से अनुरोध किया कि नागभूषण का इलाज कराया जाए। बहरहाल 1982 के मध्य में नागभूषण पटनायक ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल सांइसेज, दिल्ली में इलाज के लिए लाए गए। उनके आने की खबर हमलोगों को और दिल्ली के बहुत सारे वामपंथियों एवं मानव अधिकारकर्मियों को लगी और जिस समय उनकी ट्रेन निजामुद्दीन स्टेशन पर आने वाली थी भारी संख्या में लोग स्टेशन पहुंचे। वहां पहुंचने पर पता चला कि समूचे स्टेशन क्षेत्र को एक छोटी-मोटी सैनिक छावनी का रूप दे दिया गया है। 
चारों तरफ सशस्त्र पुलिस और अर्द्धसैनिक बल के दस्ते तैनात थे। नागभूषण पटनायक की हालत ऐसी थी कि वह अपने पैरों पर खड़ा भी नहीं हो सकते थे, उन्हें स्ट्रेचर पर लिटा कर एम्बुलेंस तक पहुंचाया गया और फिर पुलिस की गाड़ियों के बीच उनकी गाड़ी एम्स तक पहुंची। उस दिन विचारधारा की ताकत का सबको अहसास हुआ। पहली बार लगा कि व्यक्तियों से ज्यादा शक्तिशाली विचारधारा होती है। एम्स में भी उन्हें छठी मंजिल पर रखा गया था और उनसे कोई भी नहीं मिल सकता था। 
जिन दिनों इलाज चल रहा था उन्हीं दिनों अदालत से उनकी पेरोल पर रिहाई का फैसला आया और इलाज के बाद उन्हें हमलोग पश्चिमी दिल्ली में कीर्तिनगर के पास डी.प्रेमपति के घर लाए। वहां कुछ दिन रहकर उन्होंने स्वास्थ्य लाभ किया। उन्हीं दिनों पंकज सिंह ने उनका एक लंबा इंटरव्यू लिया और उनकी कुछ कविताओं के अनुवाद किए। कविताओं का अनुवाद उसी समय ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ में प्रकाशित हुआ और कुछ दिनों बाद वह इंटरव्यू भी प्रकाशित हुआ। 
1987 में पंकज सिंह ने बीबीसी की नौकरी ज्वाइन कर ली और लंदन चले गए। लंदन प्रवास के दौरान बीबीसी में रहते हुए उन्होंने नेपाल पर जो प्रसारण किए उनकी वजह से आज भी नेपाल के अंदर उनको जानने और सम्मान करने वाले लोगों की अच्छी खासी संख्या है। दरअसल यह वह दौर था जब नेपाल में राजतंत्र के खिलाफ और खास तौर पर पंचायती शासन प्रणाली के खिलाफ जबर्दस्त आंदोलन चल रहा था और जनता बहुदलीय प्रजातंत्र की मांग कर रही थी। 
1990 के अंत में उसका यह आंदोलन सफल हुआ और 30 वर्षों से चली आ रही पंचायती व्यवस्था समाप्त हुई तथा संवैधानिक राजतंत्र और बहुदलीय लोकतंत्र के युग में नेपाल ने प्रवेश किया। उस दौरान नेपाल पर केंद्रित बीबीसी के अधिकांश कार्यक्रमों के प्रोड्यूसर पंकज सिंह थे और उन्होंने जनता के पक्ष में तथा राजतंत्र के खिलाफ जिस तरह की खबरें और रपटें प्रसारित कीं उनसे वहां पंकज की अत्यंत जनपक्षीय तस्वीर लोगों के दिल में घर कर गयी। पंकज के निधन से उन लोगों को भी काफी दुख हुआ। 
1992 में बाबरी मस्जिद ध्वस्त किए जाने का हादसा हुआ। यह घटना 6 दिसंबर को हुई थी। हमलोगों के मित्र राजेश जोशी उन दिनों ‘जनसत्ता’ के संपादकीय विभाग में कार्यरत थे। उन्होंने मुझसे सलाह की कि क्यों न हमलोग ज्यादा से ज्यादा संख्या में दिल्ली से बुद्धिजीवियों की एक टीम लेकर लखनऊ जाएं और बाबरी मस्जिद गिराए जाने के विरोध में वहां कोई कार्यक्रम लें। 
आनन-फानन में इस प्रस्ताव को अमली रूप देने की कार्रवाई शुरू हुई और दस दिनों के अंदर हमारी एक टीम लखनऊ पहुंच गयी थी। इस टीम में अनेक लेखक, पत्रकार, रंगकर्मी और मानव अधिकार संगठनों से जुड़े लोग थे। इस टीम में राजेन्द्र यादव और सुरेन्द्र प्रताप सिंह से लेकर नयी पीढ़ी के बहुत सारे साहित्यकार थे। पंकज सिंह उनमें से एक थे। लखनऊ के बुद्धिजीवी मित्रों ने हमारी मेजबानी की और हमने वहां के मुख्य बाजार हजरतगंज से शुरू करते हुए कई प्रमुख इलाकों से गुजरते हुए एक जुलूस निकाला जो आगे जाकर सभा में तब्दील हो गया। 
यह बेहद सफल और सामयिक कार्यक्रम था। इस कार्यक्रम को सफल बनाने में जिन अनेक साथियों ने योगदान किया उनमें पंकज सिंह का महत्वपूर्ण ढंग से उल्लेख किया जा सकता है।
पंकज मूलतः एक कवि थे लेकिन एक पत्रकार के रूप में उनकी रचनात्मक सक्रियता काफी रही। कुछ वर्षों तक अनेक प्रमुख अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने लगभग नियमित तौर पर कला समीक्षा लिखी। उनका पहला काव्य संकलन ‘आहटें आसपास’ 1981 में प्रकाशित हुआ और इसके बाद दो या तीन संकलन और भी प्रकाशित हुए। 
देखा जाय तो अपने समकालीनों की तुलना में उन्होंने कविताएं कम ही लिखी हैं। शैली की दृष्टि से उनका गद्य भी उल्लेखनीय था हालांकि उनके लेखों का कोई संकलन सामने नहीं आया। मेरे पास उनके ढेर सारे पत्र हैं और उन पत्रों की भाषा भी कविता पढ़ने का सुख देती है। 26 जून 1979 को पेरिस से उन्होंने मुझे एक लंबा पत्र लिखा था जिसकी कुछ पंक्तियां साझा करना चाहूंगा-‘...दिल्ली से चला तो इतना थका था कि नेहरू विश्वविद्यालय की रोशनियों को देखने के तुरत बाद जहाज में आंखें बंद होने लगी। 
प्यास लगी थी सो जहाज के एक अधिकारी से पानी मंगवाकर पिया और सो गया। यह एक अजीब सी नींद थी जिसमें भविष्य, वर्तमान और अतीत हजारों फीट की ऊंचाई पर मेरे बदरंग सपनों में गड्डमड्ड हो रहे थे... यह तुमसे बेहतर कौन जानता है कि मेरी हंसी और मेरे आंसुओं के रंग क्या हैं-और कैसे मेरे वजूद में कहीं बहुत गहरे समय बिल्कुल स्थिर हो गया है-या इतना गतिमान कि उसकी गति मेरे मन की ग्रहणशीलता के बहुत पार है-जहां सब कुछ उदास रंगों के एक भूमिसात संसार में बंद है-सारे स्वर, शब्द, गंध, स्पर्श, रंग और चेहरे...’। 
लंबे समय तक बेरोजगार रहने के बाद 1977 में उन्हें जयपुर विश्वविद्यालय में एक नौकरी मिली थी लेकिन यह नौकरी उनकी स्वच्छंद प्रकृति के बिल्कुल अनुकूल नहीं थी। 20 अगस्त 1977 को उन्होंने जयपुर से एक पत्र लिखा-‘...इलाहाबाद की सड़कों पर पतझड़ के सूखे पत्तों पर, झमाझम बारिश में भीगते भटकने की बहुत सारी यादें मुझे अब तक नॉस्टेलजिक कर देती हैं। युवा वर्षों की उदास शामों का, अनगिनत जागने की रातों का साक्षी वह शहर रहा है। मैं फिर कब आ रहा हूं यह निश्चित नहीं। आर्थिक अभावग्रस्तता चल रही है। 
नौकरी सिर्फ यह सुविधा देती है कि अपनी आजादी के बदले पाए गए करेंसी नोटों को अपने हाथ से खर्च करते हुए लगातार तबाही और बर्बादी का अहसास किया जाए।’ एक दूसरे पत्र में उन्होंने लिखा-‘...एक विचित्र सी जड़ता के भीतर ज्वारों सी उठती बेचैनी है जिसमें मैं जी रहा हूं। यहां नौकरी करने की जो मेरी यातना है उसमें जितनी स्थानीय स्थितियां जिम्मेदार हैं उतनी ही मेरे भावनात्मक अतीत का जहर। 
चूंकि यहां आकर अचानक बहुत अकेला हो गया इसलिए वे सारी यादें, बिना किसी अपराध के पायी गयी क्रूरताएं और अमानवीयताएं एक-एक कर मेरे एकांत में प्र्रेतों सी उतरती हैं जिनसे तुम लोंगों के मध्य रहते हुए काफी हद तक उबरा महसूस करता था। ...विज्ञापन बांटने का काम उलझनों भरा है। आज दोपहर को एक स्थानीय गुंडा पत्रकार घुमा-फिरा कर धमकियां दे गया है। बुरी बात तो यह है कि चाहे जितना क्रोध आए किसी गुंडे को मार नहीं सकता। उत्तेजना तो बहुत हुई पर मैंने खुद को किसी तरह शांत कर लिया... लिखना-पढ़ना खटाई में पड़ा है। जेब खाली है। अक्सर लगता है दिल्ली की फकीरी ज्यादा अच्छी थी।’ 
ऊपर से चट्टान की तरह सख्त दिखायी देने वाला पंकज अंदर से कहीं बहुत कोमल और भावुक था। मैंने उसे फूट-फूट कर रोते हुए भी देखा है। पंकज के ढेर सारे पत्रों में उसके जीवन की विभिन्न पीड़ाओं को अभिव्यक्ति मिली है और उन पत्रों को देखने से एक-दूसरे ही पंकज सिंह की छवि बनती है। उन पत्रों को पढ़कर मन उदास और बोझिल हो जाता है। हां, केवल एक पत्र ऐसा है जो उल्लास के लम्हों में लिखा गया है और जिसे पढ़ते समय मुझे भी सचमुच बहुत राहत महसूस हुई थी। 
यह पत्र भी अगस्त 1979 में पेरिस से लिखा गया था। पत्र लंबा है, अलग-अलग तारीखों में कई किस्तों में लिखा गया है जिसकी कुछ पंक्तियां- 
‘दिल में एक बार फिर से वे सारी सरगर्मियां शुरू हो गयी हैं जो सात साल के लंबे पतझड़ के पत्तों में ग़़र्क हो गयी थीं। तुम अगर कभी सीलन भरे जंगल में गए हो तो तुमने पतझड़ के पत्तों को उनके ज़र्द रंगों में मिट्टी होते देखा होगा। मेरे सपनों को मन के अंधेरे में सच्चाई का मुंतजिर और फिर कराहों में बिखरते हुए तुमने देखा था। अब मैं अपनी हथेलियों को फूलों सा हल्का महसूस करता हूं जो उम्मीद की नयी धूप में रक्ताभ संगीत की चमक और थिरक से भरी हैं।
... समुद्र तट पर ठंडी रेत में रातें गुजारी हैं, धूप वाले दिनों में ‘भद्र’ सम्पन्न पर्यटकों को चौंकाते हुए सड़कों के किनारे गाता बजाता रहा हूं, दर्जनों नए दोस्त बनाये हैं, कविताएं लिखी हैं, बहसें की हैं, आंखों और दांतों के इलाज के लिए अस्पताल गया हूं, महीने भर फ्रेंच भाषा की कक्षाओं में गया हूं और अच्छी चीजें पढ़ी हैं।
...आनंद, यह अतीत भी क्या चीज है! सबको परेशान करता रहता है। तुम्हें तो फुर्सत ही नहीं होती कि साले अतीत को घास डालो। तुम शानदार आदमी हो, इसीलिए... पैसे-वैसे होते तो सारा शहर लिये आता। मगर अब सिर्फ एक पार्कर पेन तुम्हारे लिए खरीदा है।’ 
जिन्दगी के अनेक हादसों और थपेड़ों से गुजरने वाले इस कवि के अंदर एक अदम्य जिजीविषा और आशावादिता थी। उसका इस बात में पक्का यकीन था कि ‘कभी खत्म नहीं होते आदमी के स्वप्न। मृत्यु के अंधकार में। वे। लगातार। भविष्य की ओर यात्राएं करते हैं।’ ऋत्विक घटक की फिल्मों के प्रशंसक पंकज की कविताओं में उसी आशावाद और नयी दुनिया की झलक मिलती है जो ऋत्विक की हर फिल्मों में उपस्थित है। यह संस्मरण पंकज की कविताओं पर केन्द्रित नहीं है लेकिन उसकी ‘दिखूंगा’ शीर्षक कविता की ये पंक्तियां बहुत कुछ कहती हैंः
‘...उठूंगा मैं उम्मीद की अदृश्य भाप सरीखा। 
ऋतुओं की आवाजाही में। चिड़ियों और वृक्षों के संसार में। 
सफ़ेद ख़रगोशों के खेल में।
प्रेमियों और पागलों की सोहबत में। वर्षा के 
संगीत में। हवाओं के हमलावर शोर में।
उस दुस्साहस सरीखा जो जीवन को मृत्यु से बड़ा बनाता है।
जो जीवितों की आत्मा को धब्बों और कोड़ों से 
बचाता है। 
मैं बार-बार दिखूंगा। गली के बच्चों की किसी आदत में 
शरारत में। आवाज बदल कर। किसी दोस्त को 
उसके बचपन में खोये नाम से बुलाऊंगा।
उतरता हुआ नयी बांहों। नये पांवों में।
नयी आंखों के स्वप्न-घर में।’

इसमें कोई संदेह नहीं कि पंकज अनेक विसंगतियों और अंतर्विरोधों के भी शिकार थे। उनके मिजाज में जो अक्खड़पन था उससे भी कइयों को दिक्कत होती थी। उनके बहुत सारे संपर्क ऐसे थे जिन्हें आम तौर पर जनवादी धारा से जुड़े लोग पसंद नहीं करते थे लेकिन इन सबके बावजूद 1970-71 में जिस राजनीतिक विचारधारा के संपर्क में आकर उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरुआत की और जिस मार्क्सवाद-लेनिनवाद को उन्होंने अपने जीवन का आदर्श माना उसे जीवन के अंतिम क्षण तक उन्होंने अपनाए रखा। पिछले कुछ वर्षों से ‘जन हस्तक्षेप’ के साथ उनके जुड़ाव और संगठन के कार्यों में उनकी सक्रियता ने उनकी उन खामियों को भी लगातार कम कर दिया था जिनसे बहुत सारे लोगों को एतराज होता था। उनके जीवन और व्यवहार में एक अनुशासन भी आ गया था। समग्र रूप से कहें तो पंकज का जीवन एक ऐसे कवि और संस्कृतिकर्मी का जीवन था जिसने अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने समय की विसंगतियों, क्रूरताओं और विद्रूपों को अभिव्यक्ति दी तथा जनता के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की। इसे मैं निश्चित तौर पर एक सार्थक जीवन मानता हूं।

'बया'के ताज़ा अंक (जन.-मार्च) में प्रकाशित

चलें क्या पिंडारी ग्लेशियर - 1

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उत्तराखंड में ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए पिंडारी ग्लेशियर एक महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है. पिंडारी के साथ ही हिमालय के कई शिखरों, घाटियों में लम्बी-लम्बी यात्राओं का अनुभव बटोर चुके केशव भट्टपिंडारी से सबसे नजदीक के क़स्बे बागेश्वर में रहते हैं. वे इस ट्रेक के लिए कुछ ख़ास टिप्स दे रहे हैं.  पढ़ें-


पिंडारी ग्लेशियर जाने वाले टै्किंग के शौकिन अकसर परेशां से रहते हैं. गूगल के साथ ही अन्य जगहों से उन्हें जो आधी-अधूरी जानकारी मिलती है उससे वो पिंडारी के बारे में अपने दिमाग में स्वीट्जरलैंड की तरह मिलता-जुलता एक अलग ही तरह का कोलाज बना लेते है. 
मसलन कि पिंडारी ग्लेशियर के नजदीक तक मोटरेबल रोड़ है जहां से वो एक ही दिन में पिंड़ारी जाकर वापस आ सकते हैं. कुछेक तो अपनी गाडि़यों में मय परिवार जिसमें उनके वृद्व माॅ-बाप टुकुर-टुकुर देख रहे होते हैं, बागेश्वर में पिंडारी ग्लेशियर जाने का रास्ता पूछते फिरते हैं. 

इनमें से कईयों को तो समझाते-समझाते मैं खुद ही परेशां हो उठा हूं, भई! ये इंडिया है और उप्पर से आप लोग उत्तराखंड के जिस कोने में अभी पहुंचे हो तो सड़कों का हाल तो आपको मालूम हो ही गया होगा. ऐसे में आप लोग ग्लेशियर के पास सड़क पहुंचने की कल्पना कैसे कर लेते हो.....
वो गूगल समेत यहां के नक्शों का हवाला देते हैं. बमुश्किल मैं उन्हें समझाता हूं कि माॅ-बाप का यदि यहीं फाईनल जीते—जी तर्पण करना है तो आपकी मर्जी नहीं तो इन्हें कौसानी, चौकोड़ी, मुनसियारी, जागेश्वर, नैनीताल आदि जगहों में घुमाकर वापस ले जाओ. 
कई बार तो दिल्ली समेत अन्य जगहों से आए चारेक दोस्त अपने जिम करने का हवाला दे पिंड़ारी जाने के लिए रास्ता पूछते हैं. उनमें उत्साह कूट-कूट कर भरा दिखता है. लेकिन जब ये वापस आते हैं तो खिसियाए हो कबूल करते हैं जो कल्पना में सोचा था उससे भयानक ही रहा. लेकिन हमने पिंडारी फतेह कर ही लिया......
टूरिस्टों, टै्करों के लूटने-पिटने के और भी अनगिनत किस्से हैं इस बारे में. बहरहाल! लंबी जद्दोजहद के बाद ख्याल आया कि इस ट्रेकिंग रूट के बारे में जानकारी देने से कुछेकों को थोड़ी मदद ही मिल जाए और वो यहां मानसिक, शारीरिक रूप से अच्छी तरह से तैंयार होकर ही जाएं ताकि वो प्रकृति का लुफत तो उठा सकें.
पिंडर घाटी समेत अन्य ग्लेशियर रूटों में जाने के लिए किस तरह से करनी है तैंयारी. इस बारे में हर पहलू के बारे में, मैं बताने की कोशिश करूंगा. फिलहाल इस फोटो को ध्यान से देखिएगा. ये इस मार्ग का एक पुराना पढ़ाव सौंग है..


आज इतना ही...
-जारी..

चलें क्या पिंडारी ग्लेशियर - 2

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उत्तराखंड में ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए पिंडारी ग्लेशियर एक महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है. पिंडारी के साथ ही हिमालय के कई शिखरों, घाटियों में लम्बी-लम्बी यात्राओं का अनुभव बटोर चुके केशव भट्ट पिंडारी से सबसे नजदीक के क़स्बे बागेश्वर में रहते हैं. वे इस ट्रेक के लिए कुछ ख़ास टिप्स दे रहे हैं.  पढ़ें दूसरी क़िस्त- 

पिंडर घाटी क्षेत्र में पिंडारी ग्लेशियर के अलावा, कफनी, सुंदरढूंगा, मैकतोली आदि ग्लेशियर हैं. बागेश्वर से इन क्षेत्रों में जाने के लिए पिंडारी ग्लेशियर पैदल मार्ग में अंतिम गांव खाती तक तीन मार्ग हैं. खाती गांव से इन ग्लेशियरों को जाने के लिए रास्ते अलग हो जाते हैं. 

इस मार्ग में अभी केवल पिंडारी ग्लेशियर से पहले पढ़ाव फुर्किया तक रहने के लिए टीआरसी तथा पीडब्लूडी के रेस्ट हाउस हैं. वैसे स्थानीय लोगों की दुकानों में भी इमेरजेंसी में रहने की व्यवस्था हो ही जाती है. इसके लिए आप पहले से ही इन रेस्ट हाउस की बुकिंग करवा सकते हैं. केएमवीएन की वैबसार्इट में जाकर आन लार्इन बुकिंग की सुविधा है. 
इसके साथ ही कुछ टूर आपरेटर भी हैं. वैसे पिंडर घाटी क्षेत्र के कर्इ लोग पर्यटन के साथ ही हार्इ एल्टी टैकिंग तथा पीक क्लार्इबिंग में भी अच्छे अनुभवी हैं. वो भी इस क्षेत्र से जुड़े हैं. जिनके बारे में जानकारी आपको अंत में दी जाएगी. 
इस टैकिंग यात्रा में कुछ जरूरी सामानों की आप लिस्ट बना लें. टार्च, छाता, दो जोड़ी जुराब, टायलट किट, एक विंड प्रूफ जैकेट, चश्मा, वाटर बोटल, रूमाल, कैप, फस्ट एड किट, माचिस/लाईटर, स्लीपर, कुछ खटटी-मीठी टाफी, कुछ चाकलेट व बिस्कुट. बांकी आप अपने पहनावे का सामान अपनी र्इच्छा से रख सकते हैं. 


ज्यादा कपड़े ना ही रखें तो आपके लिए ठीक रहेगा. जब आप टैकिंग कर रहे होते हैं तो मौसम ठीक रहने पर शरीर में गर्मी रहती है. उस वक्त हाफ टी शर्ट व टाउजर से काम चल जाता है. अपने पढ़ाव में पहुंचते ही अपने कपड़े ना उतारें, बल्कि विंड पू्रफ जैकेट पहन लें. उंचार्इ में शरीर में पानी की मात्रा कम होने पर सिर दर्द की शिकायत पहले दो दिनों में अकसर रहती है. इसके लिए पानी, सूप, जूस, चाय आदि लेते रहें. दवार्इयों से परहेज करें तो अच्छा रहेगा. पहले दो दिन उंचार्इ में जाने पर सिर दर्द की शिकायत रहती है उससे घबराएं नहीं. 

बहरहाल! पहले समझिए मुख्य पैदल मार्ग यात्रा को. बागेश्वर से भराड़ी होते हुए सौंग तक जीपें जाती हैं. सौंग से आगे कच्ची सड़क है, जो अकसर बरसातों में टूटने की वजह से कर्इ महीनों तक बंद पड़ी रहती है. सौंग से दो सड़कें हैं. एक सड़क दाहिने को जाती है जो मोनार होते हुए सूपी, पतियासार गांव तक बनी है. और दूसरी बांर्इ ओर चढ़ार्इ लिए हुए जाती है लोहारखेत, रगड़, चौढ़ास्थल, पेठी, कर्मी, विनायक धार, धूर, खर्किया तक.
सौंग से लोहारखेत पांच किलोमीटर की दूरी पर है. यहां कुमाउं मंडल विकास निगम का रैस्टहाउस है. इससे पहले सूढि़ंग गांव में पीडब्लूडी का एक खंडहर बंगला है, जहां रूकने की व्यवस्था नहीं है. सौंग से जीपवाले यहां तक बुकिंग करवाने पर दो-तीन सौ रूपये में छोड़ देते हैं. वैसे ये पैदल रास्ता करीब तीनेक किलोमीटर का है. अगर आप बाहर क्षेत्र से आ रहे हैं तो बागेश्वर या अन्य जगहों में दोपहर में पहुंचे हैं तो बागेश्वर में रूकने के बजाय लोहारखेत में रात गुजारने के लिए बढि़या है. सुबह यहां से पैदल चलने में अच्छा रहता है. और समय भी बच जाता है.
आप यदि अपनी गाड़ी लाए हैं और वो एसयूबी नहीं है तो उसे सौंग में ही छोड़ना ठीक रहेगा. आगे की सड़क कच्ची और उबड़-खाबड़ वाली है. इसमें गाड़ी चलाना बाहर से आने वालों के लिए खतरनाक है. सौंग में कुछ दुकानदार वहीं रहते हैं जिनकी सुरक्षा में गाड़ी छोड़ी जा सकती है. वैसे यदि आपको अपनी गाड़ी की चिंता फिर भी सता रही है तो बागेश्वर में सिद्वार्थ होटल में पार्किंग की व्यवस्था है. आप वहां नार्इट स्टे कर वहीं अपनी गाड़ी छोड़ सकते हैं. 

दूसरे दिन यहीं से आपको भराड़ी-सौंग के लिए जीप मिल जाएगी. सिद्वार्थ होटल बस स्टेशन में ही है. यहां खाती गांव समेत उप्परी क्षेत्र के लोग आते रहते हैं, जिनमें से ज्यादातर गार्इड, पोटर भी होते हैं. जिनसे आपको काफी मदद मिल जाएगी. इसके लिए होटल के कांउटर में इस बारे में इंक्वारी कर लें.
लोहारखेत से करीब आधा किलोमीटर हल्की मीठी चढ़ार्इ के बाद आगे को जा रही कच्ची सड़क में चलना होता है.
अभी जारी है..

चलें क्या पिंडारी ग्लेशियर - 3

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उत्तराखंड में ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए पिंडारी ग्लेशियर एक महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है. पिंडारी के साथ ही हिमालय के कई शिखरों, घाटियों में लम्बी-लम्बी यात्राओं का अनुभव बटोर चुके केशव भट्ट पिंडारी से सबसे नजदीक के क़स्बे बागेश्वर में रहते हैं. वे इस ट्रेक के लिए कुछ ख़ास टिप्स दे रहे हैं.  पढ़ें तीसरी क़िस्त- 

लोहारखेत से धाकुड़ी की पैदल दूरी लगभग नौ किलोमीटर है. समय करीब पांच घंटे मान कर चलिए. चलने से पहले अपनी वॉटर बोटल में पानी जरूर भर लें. हांलाकि पानी इस रास्ते में कई जगहों पर मिलते रहेगा लेकिन स्वयं के पास पानी होना बहुत जरूरी है. 
इस पैदल रास्ते में दोनों ओर सैकड़ों की तादात में बुरांश के पेड़ हैं. फरवरी से अप्रैल तक इस रास्ते में बुरांश के फूल बिछे रहते हैं. आप यदि खामोशी से चलें तो अपने दुनिया में मगन कई पक्षियों की सुरीली आवाजों का आनंद भी ले सकते हैं. 
करीब डेढ़ किलोमीटर बाद ये कच्ची सड़क बांई ओर चौढ़ास्थल गांव की ओर को मुड़ जाती है. इस जगह का नाम रगड़ है. यहां से दाहिने को पैदल रास्ते में चलते चले जाना हुवा. आपको हल्की चढ़ाई लिए हुए घना जंगल मिलेगा. जिसकी छांव में चलने का आंनद आपको वहीं मिलेगा. 
रास्ते में अंग्रेजों के जमाने के बने लकड़ी के पुल भी मिलेंगे. हांलाकि कुछ पुलों की हालात खराब होने पर बमुश्किल उन्हें कई वर्षों बाद सुधारा गया है. पैदल रास्ता धीरे-धीरे पहाड़ के साथ अंदर तक ले जाते हुए दाहिने की ओर मुड़ेगा. एक पथरीली चढ़ाई के बाद मिलेगा झंडी धार. यहां कुछ देर आप अपनी सांसों को आराम दे सकते हैं. 
यहां एक खूबसूरत मंदिर बुरांश से घिरा हुवा है. पहले यहां एक बुर्जुग परिवार चाय-नाश्ते की दुकान चलाते थे. धीरे-धीरे आवाजाही कम होने पर वो भी इस जगह को छोड़कर चले गए. अब यहां सिर्फ दुकान के खंडहर ही उनकी याद दिलाते हैं. 
यहां से आगे कुछ दुरी पर है तल्ला धाकुड़ी. पर्यटन सीजन में यहां एक दुकान खूब चलती है. यदि आप सुबह बिना नाश्ते किए चले हैं तो यहां आपको हल्का नाश्ता मिल जाएगा. यहां पानी के धारे में मीठा पानी भी हर पल सबकी प्यास बुझाते रहता है. यहां से आगे का रास्ता थोड़ी सी चढ़ाई लिए हुए है. 


कुछ जगहों पर शार्टकट रास्ते भी हैं, लेकिन यदि आप पहली बार जा रहे हैं तो मुख्य रास्ते को ना छोड़े. आगे धीरे—धीरे बुग्याली घास के मैदान आपकी थकान मिटाते चले जाएंगे. कुछ किलोमीटर मीठी चढ़ाई के बाद एक बुग्याली घास का तिरछा मैदान आपको मिलेगा. इस जगह पर जर्मनी के पीटर कोस्ट की याद में एक समाधी है. 56 वर्षीय पीटर तीन जून 2000 को पिंडारी से अपने साथियों के साथ वापस लौट रहे थे. हृदय गति रूक जाने से उन्होंने यहां पर अंतिम सांस ली. 

यहां से अब हल्की चढ़ाई के बाद रास्ता आपको धाकुड़ी के शीर्ष में ले जाएगा. स्थानीय लोग इस जगह को चिल्ठा विनायक धार भी कहते हैं. यहां पहुंचते ही सामने हिमालय को देख आपकी थकान दूर हो जाएगी. यहां से अब धाकुड़ी को एक किलोमीटर का ढ़लान है.

 थोड़ा इस जगह की जानकारी भी ले लें. इस जगह से दाएं-बाएं की ओर उंचाई पर बने पुराने दो मंदिरों के लिए दो रास्ते हैं. बांई ओर करीब एक किलोमीटर की दूरी पर कर्मी गांव के शीर्ष में बने मंदिर को कर्मी चिल्ठा मंदिर तथा दाहिने ओर करीब दो किलोमीटर की दूरी पर सूपी गांव के शीर्ष में बने मंदिर को सूपी चिल्ठा मंदिर के नाम से जाना जाता है. 

यहां के लोगों के मुताबिक सूपी चिल्ठा मंदिर पहले बना है. इस मंदिर की बनावट को देखकर ऐसा लगता भी है. कर्मी चिल्ठा मंदिर को जाते हुए एक खूबसूरत बुग्याल मिलता है. वक्त हो और धाकुड़ी में यदि दो दिन बिताने हों तो इस बुग्याल और मंदिर का दीदार करना ना भूलें. अकसर पिंडारी या अन्य ग्लेशियरों से वापसी में ज्यादातर प्रकृति प्रेमी यहां जाना पसंद करते हैं. कुछ तो अपने टैंट के साथ यही पसर जाते हैं. यहां से गढ़वाल से लेकर नेपाल तक फैले हिमालय की खूबसूरत रेंज दिखती है. 


धाकुड़ी लगभग 2550 मीटर की उंचाई पर है. यहां कुमांउ मंडल विकास निगम के साथ ही पीडब्लूडी के रेस्ट हाउस हैं. कुछ दुकानें भी हैं. जिनमें भीड़ होने की स्थिति में रहने की व्यवस्था भी हो जाती है. धाकुड़ी में अभी फाइबर हट बने हैं लेकिन इनका काम पूरा नहीं हुवा है. आपके पास यदि टैंट है तो यहां मैदान में लगाने के बेहतर जगह है.
धाकुड़ी में मौसम प्रायः ठंडा रहता है. अकसर दिसंबर अंत से फरवरी-मार्च तक धाकुड़ी व चिल्ठा टाॅप बर्फ से लदकद रहते हैं. अप्रैल से जून के मध्य तथा सितंबर से दिसंबर तक का मौसम काफी सुहावना रहता है. यहां पीडब्लूडी के बंगले में तैनात हयात सिंह काफी मिलनसार और हसमुंख है. धाकुड़ी में अंग्रेजों के जमाने के बने डांक बंगले बेहतर तकनीक से बने हैं. बाहर खुला हरा-भरा आंगन और अंदर एक बरामदा है. ठंड में कमरे में बने फायर प्लेस में जलती आग कमरे में अच्छी गर्माहट भर देती है. सूर्योदय और सूर्यास्त के वक्त धाकुड़ी के सामने मैक्तोली, नंदा कोट समेत हिमालय की घाटियों में सूरज की लाल रक्तिम किरणों से जो अद्भुत नजारा दिखता है, उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता.
धाकुड़ी इस साहसिक पैदल यात्रा का पहला पढ़ाव है.
अभी जारी है..

चलें क्या पिंडारी ग्लेशियर - 4

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उत्तराखंड में ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए पिंडारी ग्लेशियर एक महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है. पिंडारी के साथ ही हिमालय के कई शिखरों, घाटियों में लम्बी-लम्बी यात्राओं का अनुभव बटोर चुके केशव भट्ट पिंडारी से सबसे नजदीक के क़स्बे बागेश्वर में रहते हैं. वे इस ट्रेक के लिए कुछ ख़ास टिप्स दे रहे हैं.  पढ़ें चौथी क़िस्त-  


धाकुड़ी से सुबह निकलना बेहतर रहता है. वैसे अब ज्यादातर टै्कर लोहारखेत से धाकुड़ी होते हुए एक ही दिन में खाती गांव पहुंचने का लक्ष्य रखते हैं. पिंडारी या अन्य ग्लेशियर से वापसी में वो धाकुड़ी रूकना पसंद करते हैं, ताकि चिल्ठा टाॅप भी हो लें. आज आपको पिंड़ारी ग्लेशियर मार्ग में अगला पढ़ाव द्ववाली तक ले चलेंगे. कुल पैदल दूरी लगभग 19 किलोमीटर. यात्रा से पहले अपनी वॉटर बोटल में पानी भरना ना भूलें.


लगभग 1982 मीटर की उंचाई पर बसा खाती गांव यहां से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी पर है. धाकुड़ी से खर्किया तक तीनेक किलोमीटर का ढलान है. फरवरी से अप्रैल माह तक इस रास्ते के दोनों ओर बुरांश की लालीमा छिटकी मिलती है. करीब डेढ किलोमीटर के बाद रास्ते के किनारे वन विभाग द्वारा बनाया गया हर्बल गार्डन है. वन विभाग ने 2008 में इसे जड़ी-बूटी के साथ ही पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए बनाया था. लेकिन इस हर्बल गार्डन के हालात देख ऐसा कुछ लगता नहीं है. गार्डन में थाम रिंगाल, तेज पत्ता, थुनेर-टेक्सास बकाटा, अतीस, जटामासी, कुटकी, सालम मिश्री की पौंध भी लगाई गई लेकिन वन विभाग का ये प्रयास रंग नहीं ला सका. कुछ कदमों के बाद जंगल खत्म होते ही बांई ओर दूर तक फैले पहाड़ों की गोद में बसे बधियाकोट से लेकर वाच्छम तक दर्जनों गांवों की झलक दिखती है.


थोड़ा आगे भगदाणुं नामक जगह है. भगदाणुं लगभग दस-पन्द्रह मवासों का रास्ते के दोनों ओर फैला हुआ छोटा सा गांव है। करीब किलोमीटर भर उतार के बाद मिलता है खर्किया. पहले के और आज के खर्किया में बहुत अंतर आ गया है. अब यहां पर टूरिस्टों के रूकने के लिए तीनेक साल पहले एक ‘प्रिन्स’ नामक रैस्ट हाउस भी बन गया है. यहां तक कर्मी होते हुए कच्ची सड़क भी पहुंच गई है. हांलाकि सड़क के हालात बहुत सही नहीं हैं लेकिन जीपों में सामानों के साथ सवारियां भी किसी तरह यहां तक पहुंच ही जाती हैं. खर्किया से एक रास्ता सीधी नीचे उतार में पिंडर नदी को पार कर उंचाई में बसे वाच्छम गांव को जाता है. दूसरा रास्ता दाहिने को हल्के उतार के बाद हल्की चढ़ाई लिए हुए उमुला, जैकुनी, दउ होते हुए खाती गांव को है. अब जैकुनी व दउ में भी टूरिस्टों के रहने के लिए स्थानीय लोगों ने अपने रैस्ट हाउस भी बना लिए हैं. रास्ते में घने पेड़-झाडि़यों के झुरमुटों के मध्य बने गधेरों से कल-कल बहता पानी हर किसी के मन को खींचता सा है.
खाती से आधा किलोमीटर पहले तारा सिंह का संगम लाॅज भी है. खाती गांव इस यात्रा मार्ग का अंतिम गांव है, जहां पर सुंदर व गहरी घाटी तथा पिंडर नदी का किनारा है. खाती गांव में पीडब्लूडी के साथ ही स्थानीय लोगों के करीब आधा दर्जन रैस्ट हाउस हैं. गांव से आधा किलोमीटर आगे निगम का रैस्ट हाउस भी है. इस गांव के ज्यादातर युवा पर्वतारोहण में माहिर हैं. गांव में काली मंदिर की भी काफी महत्ता है. 

खाती में आप दिन का भोजन लेकर कुछ पल आराम कर आगे की यात्रा के लिए अपने को तैंयार कर लें. स्वादिष्ट भोजन यहां कुछ दुकानों में आपकी डिमांड पर आधे घंटे में तैंयार हो जाता है.
2013 की आपदा के बाद से अब यहां से आगे के रास्ते के हालात काफी बदल गए हैं. तब पिंडर व कफनी क्षेत्र में लगातार बारिश से पिंडर नदी में आई भयानक बाढ़ अपने साथ कर्णप्रयाग तक सभी पुलों को बहा ले गई. द्ववाली से मलियाधौड़ तक पिंडर नदी के किनारे बना आरामदायक पैदल रास्ता भी इस आपदा की भेंट चढ़ गया. हांलाकि अभी यहां रास्ता बन रहा है लेकिन ये रास्ता कब तक बन जाएगा कहा नहीं जा सकता. 

2013 से पहले खाती से आगे टीआरसी होते हुए पिंडर नदी के किनारे मलियाधौड़ को जाना होता था. अब एक नया संकरा रास्ता गांव वालों ने गांव में काली मंदिर के बगल से पिंडर नदी के पास तक खुद ही ईजाद कर लिया है. इस रास्ते की जानकारी गांव में ही मिल जाएगी कि कौन सा रास्ता अभी ठीक है.
खाती से द्ववाली पहले दस किलोमीटर था लेकिन अब मलियाधौड़ से पिंडर नदी के साथ-साथ दांए-बांए होते हुए यह करीब एक किलोमीटर ज्यादा हो गया है. वैसे रास्ते में कई खूबसूरत झरने आपकी थकान मिटाने के लिए हैं. द्ववाली तीव्र पहाड़ी ढलानों के अत्यन्त संकुचित घाटी क्षेत्र में है. यहां पर पिंडर व कफनी नदियों का संगम होता है. पिंडर नदी आगे गढ़वाल की ओर बहकर कर्णप्रयाग में अलकनंदा से संगम बनाती है. द्ववाली में पीडब्लूडी के साथ ही निगम व स्थानीय दुकान वालों के वहां रहने की व्यवस्था है. यहां से पिंडारी तथा कफनी ग्लेशियर के लिए रास्ते बंट जाते हैं.....
अभी जारी है..

चलें क्या पिंडारी ग्लेशियर - 5

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उत्तराखंड में ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए पिंडारी ग्लेशियर एक महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है. पिंडारी के साथ ही हिमालय के कई शिखरों, घाटियों में लम्बी-लम्बी यात्राओं का अनुभव बटोर चुके केशव भट्ट पिंडारी से सबसे नजदीक के क़स्बे बागेश्वर में रहते हैं. वे इस ट्रेक के लिए कुछ ख़ास टिप्स दे रहे हैं.  पढ़ें पांचवी क़िस्त- 


द्ववाली में रात में ही सुबह करीब साढ़े चार उठकर पांच बजे तक पिंड़ारी ग्लेशियर को चलने के लिए तय कर लें. आज फुर्किया होते हुए पिंड़ारी के दर्शन करने के बाद वापस द्ववाली या फुर्किया पहुंचने का लक्ष्य रखें. द्ववाली में आप स्थानीय दुकादार से अगले दिन दोपहर के लिए पराठे बनाने के लिए कह सकते हैं.
पराठों के साथ अचार पैक कर साथ में रख लें. ये आपका दोपहर का खाना है. सुबह अपनी तैयारी के साथ ही पानी की बोतल भर लें. द्ववाली लगभग 2575 मीटर की ऊंचाई पर है. द्ववाली से पिंडर नदी के किनारे धीरे-धीरे ऊंचाई लिए हुए रास्ता है. फुर्किया यहां से पांच किलोमीटर की पैदल दूरी पर है. आराम से चलने पर समय करीब दो घंटा मान कर चलें. 

लगभग 3250 मीटर की उंचाई पर स्थित फुर्किया में पीडब्लूडी का रैस्ट हाउस है. यहां एक दुकान भी है जिसमें पर्यटक सीजन में चाय, खाना मिल जाता है. फुर्किया पहुंचने पर इस दुकान में चाय-नाश्ते का इंतजाम अकसर हो जाता है. नाश्ते के बाद आगे पिंडारी की ओर बढ़ चलें. 

फुर्किया से लगभग साढ़े आठ किलोमीटर के बाद आपको 3660 मीटर की ऊंचाई पर पिंडारी ग्लेशियर के दर्शन होंगे. फुर्किया से कुछ पहले ट्री लाईन समाप्त हो जाती है. अब आगे बुरांश के साथ अन्य छोटे किस्म के नाना प्रकार के फूल-पौंधे रास्ते के दोनों ओर मिलते हैं. धीरे-धीरे चढ़ाई लिए हुए रास्ते के किनारे मखमली घास आपकी थकान भी मिटाते रहती है. 

पिंडर नदी के पार उंची पहाड़ की चोटियों को चीरती हुई जल धाराएं बढ़ी ही मनोहारी दिखती हैं. पिंडारी घाटी में पहुंचते ही एक अलग ही दुनियां में पहुंचने का एहसास होता है. सामने छांगुच व नंदा खाट के हिम शिखर आकाश को चूमते से नजर आते हैं. इनके मध्य पसरा पिंडारी ग्लेशियर खींचता सा लगता है. 
ग्लेशियर से पहले हरे मैदान में बनी कुटिया आकर्षित सी करती है. इस कुटिया में लगभग पच्चीस वर्षों से साधना कर रहे स्वामी धर्मानंद रहते हैं. वो पिंडारी ग्लेशियर के दर्शन को आने वाले हर पर्यटकों का हर हमेशा चाय के साथ हल्का नाश्ते के साथ गर्म जोशी से स्वागत करते हुए मिलते हैं. 

कुछ पल उनके साथ बिताने के बाद पानी की बोतल में पानी भर लें और आगे भव्य दर्शन के लिए चल पड़ें. यहां से करीब किलोमीटर भर बाद चलने के बाद सामने पिंडारी ग्लेशियर के आप दर्शन कर सकते हैं. मौसम खुशगवार होने पर यहीं बुग्याली घास पर आराम से बैठकर अपने साथ लाए पराठों का लुफ्त अचार के साथ उठाएं.
 

पिंडारी से छांगूच, नंदा खाट, बल्जुरी के साथ ही नंदा कोट के भव्य दर्शन होते हैं. अंग्रेज शासक मि. ट्रेल के द्वारा खोज गए दर्रे का रास्ता जो कि पिंडारी ग्लेशियर से जोहार के मिलम घाटी के ल्वां गांव में मिलता है, ट्रेल पास के नाम से जाना जाता है, काफी अद्भुत और भयानक है. इस ट्रेल दर्रे को पार करने के लिए पर्वतारोही पिंडारी जीरो प्वाइंट को अपना बेस कैम्प बनाते हैं. 

यहां से आगे एडवासं कैम्प एक स्थापित करने के बाद दो सौ मीटर की रोप फिक्स कर आगे तख्ता कैम्प के बाद एडवासं कैम्प लगाते हैं. ट्रेल दर्रा पार करने के बाद तीखा ढलान है जिसमें लगभग दो सौ मीटर की रोप से उतर कर नंदा देवी ईस्ट ग्लेशियर में कैम्प लगता है. आगे फिर ल्वां ग्लेशियर में हिम दरार, जिन्हें कैरावास भी कहा जाता है को परा कर ल्वां गांव होते हुए नसपुन पट्टी होते हुए मर्तोली, बोगड्यार होते हुए मुनस्यारी पहुंचा जाता है.

थोड़ा सा इस ट्रेल पास का इतिहास आपसे बांच लूं. पिंडारी ग्लेशियर के प्रसिद्ध ‘ट्रेल पास’ के साथ कुमाऊं के पहले सहायक आयुक्त जार्ज विलियम ट्रेल और सूपी निवासी साहसी मलक सिंह ‘बूढ़ा’ के जज्बे की कहानी जुड़ी हुई है। ट्रेल खुद तो यह दर्रा पार नहीं कर पाए लेकिन उनकी प्रबल इच्छा पर मलक सिंह ने 1830 में इस कठिन दर्रे को पार किया। हालांकि बाद में लोगों ने इस दर्रे को ‘ट्रेल पास’ नाम दे दिया।

पिंडारी ग्लेशियर के शीर्ष पर स्थित इस दर्रे के रास्ते पहले दानपुर और जोहार दारमा के बीच व्यापार होता था। कहा जाता है कि 17वीं सदी के अंत तक पिंडारी ग्लेशियर पिघलने से जगह-जगह दरारें पड़ गई और आवागमन बंद हो गया। अप्रैल 1830 मेें कुमाऊं के पहले सहायक आयुक्त जार्ज विलियम ट्रेल इस दर्रे को खोलकर आवागमन बहाल करने के मकसद से पैदल ही बागेश्वर होते हुए दानपुर पहुंचे। स्थानीय लोगों के साथ उन्होंने दरारों के ऊपर लकड़ी के तख्ते डालकर पिंडारी के इस दर्रे को पार करने का प्रयास किया। लेकिन बर्फ की चमक (रिफ्लैक्सन) से उनकी आंखें बंद हो गईं, वह आगे नहीं बढ़ सके। 

सूपी निवासी 45 वर्षीय मलक सिंह टाकुली अकेले ही दर्रे को पार करके मुनस्यारी होते हुए वापस लौट आए। बाद में ट्रेेल की आंखेें ठीक हो गईं। उन्होंने मलक सिंह को बुलाकर बूढ़ा (वरिष्ठ) की उपाधि दी। उन्हें पटवारी, प्रधान और मालगुजार नियुक्त करने के साथ ही पिंडारी के बुग्यालों में चुगान कर वसूलने का भी हक उन्हें दिया। मलक सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र स्व. दरबान सिंह बूढ़ा को यह अधिकार मिला। हांलाकि आजादी के साथ यह व्यवस्था खत्म हो गई। दर्रे से गुजरने वाले सामान्य लोगों में मलक सिंह आखिरी व्यक्ति थे। उनके बाद अभी तक सिर्फ प्रशिक्षित पर्वतारोहियों के 86 अभियानों में से 14 दल ही इसे पार कर कर सके हैं। 
तो.... अब वापस चलें...

स्वामी धर्मानंद उर्फ बाबाजी के वहां नंदा देवी मंदिर के दर्शन के बाद उतार की ओर कदम खुद-ब-खुद चलते हैं. अब इसका एहसास तो वहीं महसूस होता है......
वापसी में आप और आपकी टीम में उर्जा बची है तो द्ववाली तक देर सायं तक पहुंचना बेहतर रहेगा. यदि थकान महसूस हो रही है तो रास्ते में फुर्किया पढ़ाव है ना....

अभी जारी है.....

कश्मीर बहस 1 : भारत की कूटनीतिक हार बनता कश्मीर

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अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीर का संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार वजह बनी हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर और पोस्टर बॉय बुरहान वानी की सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत और उसके बाद घाटी में शुरू हुए प्रदर्शन. फिर वही घटनाएं दोहराई गई. इंटरनेट और फोन आदि पर रोक, प्रदर्शन में कई लोगों की मौतें कई घायल, कश्मीर का फिर भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया जाना.
इससे पता चलता है कि कश्मीर भारत के दूसरे राज्यों की तरह आम नहीं है. कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर की एक दूसरी चीज है. वहां की खूबसूरत फिजांए आजादी की मांग से गूंज रही हैं. एक बड़ी आबादी ​भारत में रहने को तैयार नहीं. वे अपने एक आजाद मुल्क की मांग कर रहे हैं. एक छोटा धड़ा पाकिस्तान में मिल जाने का खयाल भी रखता है और उतना ही छोटा एक धड़ा हिंदुस्तान के पक्ष में भी बचा है.  लेकिन लाखों की तादात में अपनी सेनाएं तैनात कर कश्मीर में मौजूद भारतीय राज्य के अपने तर्क हैं. 'अति राष्ट्रवादी'उन्माद के 'कश्मीर मांगोगे चीर देंगे'जैसे गैरविवेकी नारों के इतर भी कश्मीर की आजादी के पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में भी पर्याप्त बहस है. praxis में हम इस बहस को खोलना चाह रहे हैं. इसे हमने 'कश्मीर बहस'नाम दिया है. इसके लिए praxis के पुराने पन्नों को पलट कर एक आलेख फिर आपके सामने रख रहे हैं. जो इस विषय के विस्तार में जाकर इससे जुड़े जटिल प्रश्नों को सामने रखता है. उम्मींद है कश्मीर और अन्य राष्ट्रीयताओं के सवाल पर एक स्वस्थ बहस इस आलेख की बुनियाद में खुल सकेगी.
-संपादक 

 (रोहित जाशीका यह आलेख डॉयचे वेलेसे साभार)

कश्मीर बहस - 1


हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर बुरहान वानी के जनाजे की तस्वीरें जब मीडिया और सोशल मीडिया के रास्ते​ हिंदुस्तानी आम जन मानस तक पहुंचीं तो उसने कश्मीरियों के प्रति संशय की उसकी पूर्वस्थापित समझ को और मजबूत किया. एक आतंकी मारा गया था जिसके जनाजे में कश्मीरी शामिल थे. सोशल मीडिया पर ये तस्वीरें इसी किस्म के संदेशों के साथ खूब प्रचारित हुईं और ​मीडिया के 'अति राष्ट्रवाद'के शिकार एक धड़े ने भी इसे 'राष्ट्रवादी उन्माद'बना परोसा.
कश्मीर की कूटनीतिक पहेली
लेकिन क्या वाकई बुरहान वानी के जनाजे में शोकाकुल भीड़ के उमड़ पड़ने की वजह इतनी सपाट है? क्या कश्मीरी आतंक और आतंकियों से इस कदर मुहब्बत करते हैं? या इसकी वजह पिछले 6 दशकों में कश्मीर के ​इतिहास में घटे एक एक​ दिन में लि​पटी हुई है, जिसमें भारतीय राज्य कश्मीरियों के विश्वास को लगातार खोता गया है?
ब्रिटिश हुकूमत के अंत के बाद 1947 में जब आज के भारत और पाकिस्तान इस इलाके में मौजूद सैकड़ों रियासतों को खुद में मिलाकर पहली बार आकार ले रहे थे, कश्मीर रियासत तब से इन दोनों ही मुल्कों के लिए एक कूटनीति पहेली बन गई. नए-नए बने दोनों ही मुल्क कश्मीर के भौगोलिक महत्व को जानते थे और उसे अपनी ओर करने पर आमादा थे. कश्मीर के भीतर भी इन दोनों ही पक्षों का समर्थन करने वाले लोग मौजूद थे और इसके साथ ही कश्मीर में एक आवाज उसे आजाद क​श्मीर बनाने की भी थी.
नेहरू की आशंका

इसी उहापोह भरे माहौल में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर के महाराजा हरि सिंह को एक अहम पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने क​श्मीर में भारत के लिए संभावनाओं और आशंकाओं दोनों पर ही टिप्पणी कीः



"..भारत के दृष्टिकोण से यह बात सबसे महत्वपूर्ण है कि कश्मीर भारत में ही रहे. लेकिन हम अपनी तरफ से कितना भी ऐसा क्यों न चाहें, लेकिन ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक कि कश्मीर के आम लोग नहीं चाहते. अगर यह मान भी लिया जाए कि कश्मीर को सैन्य बल के सहारे कुछ समय तक अधिकार में रख भी लिया जाए, लेकिन बाद के वक्त में इसका नतीजा यह होगा कि इसके खिलाफ मजबूत प्रतिरोध जन्म ले लेगा. इसलिए, आवश्यक रूप से यह कश्मीर के आम लोगों तक पहुंचने और उन्हें यह अहसास दिलाने की एक मनोवैज्ञानिक जरूरत है कि भारत में रहकर वे फायदे में रहेंगे. अगर एक औसत मुसलमान सोचता है कि वह भारतीय संघ में सुरक्षित नहीं रहेगा, तो स्वाभाविक तौर पर वह कहीं और देखेगा. हमारी आधारभूत नीति इस बात से निर्देशित होनी चाहिए, नहीं तो हम यहां नाकामयाब हो जाएंगे.."

'नाकामयाब'भारतीय राज्य
नेहरू के उपरोक्त विश्लेषण को अगर आधार बनाया जाए तो उन्हीं की शब्दावली में भारतीय राज्य कश्मीर के मसले पर आज 'नाकामयाब'हो चुका है. भारत ने कश्मीर के मसले पर लगातार वही रास्ता अपनाया जिसे लेकर नेहरू ने आगाह किया था. बे​शक कश्मीर का एक बड़ा भूगोल आज भारतीय संघ का हिस्सा है लेकिन उसका आधार वही सैन्य बल है जिसे लेकर नेहरू ने चेताया था. वह कश्मीरी आवाम के भीतर भारत में रहने के लाभ को मनोवैज्ञानिक तौर पर स्थापित करने में नाकामयाब हो गया. केवल यही बात कश्मीर के असल अर्थों में भारत में बने रहने का रास्ता हो सकती थी.
आज हालत यह है कि भारतीय सेना की तकरीबन 75 फीसदी से अधिक फौज केवल ​कश्मीर में तैनात हैं और उसे 'आफ्सपा'जैसे मनावाधिकार विरोधी कानूनों से लैस किया गया है. शेष भारत में सेना की लोकप्रियता के चलते आम धारणा में यह बात स्वीकार कर पाना बेहद कठिन है, लेकिन ऐसे कई वाकये हैं जहां सेना ने इन कानूनों का दुरुपयोग किया है.
सेना के दम पर कश्मीर पर कब्जा किए रखने की परिणति के चलते ही आज कश्मीरी जन मानस में भारतीय राज्य की स्वीकार्यता लगातार घटती गई है. इसकी असल वज​ह भारतीय राजनीतिज्ञों की कूटनीतिक नाकामी है.
शेख से बुरहान तक
अलगाववादी चरमपंथी वानी की शवयात्रा में उमड़ पड़े 'कश्मीर'से पहले भी कश्मीर का एक लंबा इतिहास है. अलगाववादी विचार और चरमपंथ के चरम पर पहुंच जाने के बीच में और उससे पहले कई ऐसे मौके थे जब भारतीय राज्य कश्मीरी जनता के प्रति ईमानदार और कूटनीतिक प्रयास करके उनका विश्वास जीत सकता था. शुरुआत में जब कश्मीर मसला अपनी जटिलताओं के साथ आकार ले रहा था कश्मीर के अंदर भारत के लिए बेहद संभावनाएं थीं. इसकी सबसे बड़ी वजह एक ऐसा व्यक्ति था ​जिसकी उस दौर में कश्मीर की जनता के बीच सबसे गहरी पैठ थी और वह कश्मीर का निर्विवाद रूप से सबसे बड़ा नेता था. नेश्नल कॉन्फ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला का पूरा झुकाव भारत की ओर था. वे पाकिस्तान विरोधी थे और उसे एक सांप्रदायिक और 'सिद्धांतवि​हीन दुश्मन'करार दिया था. इसके अलावा वे कश्मीर को अलग राष्ट्र बनाए जाने के भी ​हिमायती नहीं थे. उनका मानना था कि इस लिहाज से यह बहुत छोटा और गरीब सूबा था. उन्हें संदेह था, ''अगर हम आजाद हुए तो पाकिस्तान हमें निगल जाएगा. उसने पहले भी कई बार कोशिश की है और वे आगे भी ऐसा करेगा.''
ताज या नासूर
सूबे के सबसे बड़े जनाधार वाले नेता के इतने स्पष्ट समर्थन के बावजूद भी पिछले तकरीबन 7 दशकों के दौरान भारतीय राज्य एक ऐसी रणनीति नहीं बना सका जिससे कि आम ​कश्मीरी में उसके प्रति सौहार्द पैदा हो पाता. उल्टा वहां तैनात फौज की तादाद और उनके बूटों की धमक लगातार बढ़ती गई. सेना की दखलंदाजी और उसकी असीम शक्तियों ने कश्मीर के लोगों को भारतीय राज्य से विमुख होने के लिए अधिक प्रेरित किया. इसकी परिणति यह हुई कि हिंदुस्तान का कथित ताज ताज़िंदगी हिंदुस्तान का एक भयानक नासूर बन गया है.
अलग-अलग किस्म के हितों के बीच बेशक ​कश्मीर आज विश्व के जटिलतम राजनीतिक भूगोलों में से एक में तब्दील हो गया है जिसका हल निकट भविष्य में नहीं दिखाई देता. लेकिन इसका सबसे अधिक खामियाजा ​और तकलीफें कश्मीर की जनता को ही झेलनी पड़ी हैं. बावजूद इसके भारत में कश्मीर की यह जटिल राजनीतिक समस्या बेहद सतही तरह से समझी और प्रचारित की जाती रही है और ​कश्मीरियों पर संदेह गहरे जड़ें जमाता गया है.

कश्मीर बहस 2 : क्या कश्मीर की आज़ादी ही हल है?

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-डॉ. मोहन आर्या



अंतरराष्ट्रीय राजनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीर का संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार वजह बनी हिजबुल मुजाहिदीन के कमांडर और पोस्टर बॉय बुरहान वानी की सुरक्षाबलों के साथ मुठभेड़ में हुई मौत और उसके बाद घाटी में शुरू हुए प्रदर्शन. फिर वही घटनाएं दोहराई गई. इंटरनेट और फोन आदि पर रोक, प्रदर्शन में कई लोगों की मौतें कई घायल, कश्मीर का फिर भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया जाना.
इससे पता चलता है कि कश्मीर भारत के दूसरे राज्यों की तरह आम नहीं है. कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर की एक दूसरी चीज है. वहां की खूबसूरत फिजांए आजादी के नारों से गूंज रही हैं. एक बड़ी आबादी ​भारत में रहने को तैयार नहीं. वे अपने एक आजाद मुल्क की मांग कर रहे हैं. एक छोटा धड़ा पाकिस्तान में मिल जाने का खयाल भी रखता है और उतना ही छोटा एक धड़ा हिंदुस्तान के पक्ष में भी बचा है. लेकिन लाखों की तादात में अपनी सेनाएं तैनात कर कश्मीर में मौजूद भारतीय राज्य के अपने तर्क हैं.
'अति राष्ट्रवादी'उन्माद के 'कश्मीर मांगोगे चीर देंगे'जैसे गैरविवेकी नारों के इतर भी कश्मीर की आजादी के पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में भी पर्याप्त बहस है. praxis में हमने इसी बहस को खोला है. इसे हमने 'कश्मीर बहस'नाम दिया है. इसकी दूसरी किस्त:

-संपादक
 






'कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा।'
                                                                                         -अरुंधती राय

'राष्ट्र एक ऐसा जन समुदाय होता है जिसका गठन ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है। सामान्य भाषा भौगोलिक क्षेत्र आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक संरचना उसकी सामान्य संस्कृति के आवयविक तत्व होते हैं'   
-जोसेफ स्टालिन
'आखिर विभाजन है क्या? भारत का विभाजन अपनी जातियों मध्यवर्ग और जनता के बीच संपर्क की कमी की स्थिति का एक तरह से कानूनी दस्तावेज है।'
-डा0 राम मनोहर लोहिया
'इन मूलभूत सिद्धांतों की सच्चाई को समय ने कम करने के स्थान पर सुदृढ़ ही किया है- समाज का अनिवार्यतः संघीय चरित्र, प्रसव पीड़ा से गुजर रही विष्व अर्थव्यवस्था के साथ संप्रभु राज्यों की संगति न बैठना, उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् स्वामित्व के अधिकारों और लोकतांत्रिक विचारों के बीच विरोध, समता विहीन स्वतंत्रता के निरर्थक होने की अवधारणा, मात्र औपचारिक होने के कारण कानून को वैध मानने से इनकार किसी समाज में गंभीर आर्थिक स्थितियों में शासन का प्रभाव धनी लोगों के पक्ष में ही रहना चाहे वह सार्वजनिक मताधिकार पर ही आधारित क्यों न हो।'  
-हेराल्ड जे0 लास्की




हां तक इस लेख के प्रविषय की बात है तो उपर्युक्त चार टिप्पणियां, यदि हम ढेर सारी रियायतें चाहें तो मुख्यतः दो अलग-अलग चिंतनधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। अरुंधती द्वारा उठाए गए मुद्दे का हल इस मुद्दे की प्रकृति की तरह सामयिक नहीं हो सकता। यदि कोई तात्कालिक उपाय निकल भी आए तो आत्मनिर्णय जो किसी भी तरह की अस्मिता उत्पीड़न और अलगाव से वैधता ग्रहण करके संप्रभुता में बदला है ऐतिहासिक रूप से समग्रतया मानवता के लिए हानिकारक तो रहा ही है साथ ही उन मानव समूहों के लिए भी कुछ खास लाभदायक नहीं रहा है जिन्होंने इसकी मांग की थी। अपने आप को विश्व नागरिक मानने वाली अरुंधती और उनके जैसे दूसरे मानवाधिकारवादी इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं।
तथ्यात्मक रूप से अरुंधती की बात एकदम सही है परंतु तथ्य तो यह भी है कि उत्तराखंड राज्य भी भारतीय राष्ट्रराज्य जैसी किसी अवधारणा से हमेशा ही ताल्लुक नहीं रखता था। इसे स्थानीय राज्यवंशों से पहले गोरखाओं ने जीता फिर गोरखाओं से अंग्रेजों ने। यही बात कई अन्य राज्यों के लिए भी कही जा सकती है। तथ्य जो कुछ कहते हैं वह सटीक तो हो सकता है परंतु समीचीन भी हो आवश्यक  नहीं।

अब प्रश्न यह है कि यह तथ्य कश्मीर के लिए ही इतना प्रासंगिक नजर क्यों आता है। और इस तथ्य पर आधारित किसी विचार प्रणाली के कार्यान्वयन के स्वाभाविक और तार्किक परिणाम क्या हो सकते हैं। कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा यह बात कश्मीरियों  के आजादीके संघर्ष को वैधता प्रदान करती है। इस आजादीकी लड़ाई के मूलआधार क्या हो सकते हैं?
·भारतीय राज्य द्वारा 'एएफएसपीए'द्वारा उत्पीड़न। 
·कश्मीरी जनता का अन्य भारतीयों से अलगाव। 
·विलय के समय की स्थितियों व शर्तों से गैर इत्तेफाक। 
·कश्मीरी जनता का एक जमात, जो मुख्य रूप से इस्लामी जमात ही है 'के रूप में पृथक राष्ट्रीयता का दावा। 
·पृथक राष्ट्रीयता के आधार पर आत्मनिर्णय की मांग। 
·आत्मनिर्णय से संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य।

अगर बात यहीं पर समाप्त हो जाए तो शायद विवेकशील और निष्पक्ष मनुष्य संतुष्ट भी हो जाएं। परंतु इससे आगे भी कुछ होगा।
संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का मतलब है एक और नई सीमा, नए वीजा कानून, नई सेना, नई सीक्रेट सर्विस, नया अविश्वास और हो सकता है नया परमाणु बम! विश्व का और अधिक असुरक्षित होना और हथियारों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का और अधिक मुनाफा। जनता की वास्तविक आवश्यकताओं के बजाय राज्य, सेना, बार्डर, बम, कूटनीति पर अधिक ध्यान देता है क्योंकि बहुराज्यीय विश्व में किसी भी राष्ट्र-राज्य का यही चरित्र होना है।
कश्मीर या देश के अन्य हिस्सों में भी पृथकतावादी आंदोलनों की समस्या वास्तव में राज्य की आंतरिक संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या है। और इनका समाधान नए आंतरिक संप्रभुओं को पैदा करके नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश शासन के समय मुस्लिम जनता के सांस्कृतिक अलगाव हिन्दुओं द्वारा उत्पीड़न और चुनावी लोकतंत्र में हमेशा के लिए मुस्लिमों के अल्पसंख्यक रह जाने के भय के आधार पर पृथक मुस्लिम राष्ट्रराज्य का जन्म हुआ। जो कि वास्तव में संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या का तदर्थ उपाय ही साबित हुआ है। क्योंकि भाषाई व सांस्कृतिक आधार पर राष्ट्रीयता और पंजाबी लोगों के बांग्ला लोगों पर वर्चस्व के विरुद्ध नए संप्रभु बांग्लादेश का जन्म हुआ। बलूच संप्रभुता के लिए संघर्ष अभी जारी ही है। इस विखंडन और विभाजन की क्या कोई सीमा भी है
कोईभी निष्पक्ष व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ब्रिटिश शासित भारतीय उपमहाद्वीप में तीन संप्रभुताओं के पैदा हो जाने से यहां की जनता की समस्याओं को सुलझा लिया गया है। वास्तव में तो जनता को अनचाहे युद्धों धार्मिक उन्माद उग्रराष्ट्रवाद और सांप्रदायिक दंगों का सबसे अधिक शिकार होना पड़ा है। सबसे गंभीर बात यह है कि एक कड़वाहट मौजूद हो गई है जिसका इतिहास पुराना नहीं है और जिसकी उम्र अभी बहुत लंबी होगी। 
पृथक कश्मीर की अवधारणा में जो सबसे खतरनाक बात है, वह है राष्ट्रीयता को आधार बनाए जाने वाले सिद्धांत। यह आत्मनिर्णय वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम जनता का आत्मनिर्णय है। धार्मिक आधार पर पृथक राष्ट्रीयता को जायज ठहराना कहां तक उचित है। चाहे कितने भी लोकतांत्रिक दावे किए जाएं धार्मिक अस्मिता के आधार पर वैधता ग्रहण करने वाली राष्ट्रीयता लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध ही खड़ी नजर आती है। 
यादकीजिए 'कायदे आजम'मुहम्मद अली जिन्नाह का पाकिस्तान की स्थापना पर दिया गया भाषण जिसमें उन्होंने जोर दिया अब जब पाकिस्तान बन ही गया है तो यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनेगा।जिन्नाह गलत साबित हुए और कश्मीर के मामले में तो जिन्नाह जैसा कोई धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विशवास रखने वाला नेतृत्व कम से कम हुर्रियत कांफ्रेस के पास तो नजर नहीं आता। जिन्नाह, गिलानी और उनके जैसे नेताओं से साठ-सत्तर साल पहले हुए हैं। परंतु विचारों के लिहाज से कहीं अधिक आधुनिक और प्रगतिशील  हैं। 
जिन्नाहके बावजूद पाकिस्तान की परिणति को देखते हुए जिन्नाह जैसों की गैरमौजूदगी में कश्मीर की परिणति की कल्पना की जा सकती है। क्या पृथक कश्मीर  इतना लोकतांत्रिक भी होगा जितना वर्तमान में भारत है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्लामिक कट्टरवाद के उभार के इस दौर में संदेह होता है। विवेकशील को संदेह का अधिकार होना ही चाहिए।
तो धार्मिक आधार पर आत्मनिर्णय तो तर्कसंगत नहीं लगता। अब बात करें उत्पीड़न की। 'एएफएसपीए'निसंदेह एक उत्पीड़क अधिनियम है। भारतीय राज्य को जितना लोकतांत्रिक (कम से कम पारिभाषिक रूप से) बताया जाता है यह अधिनियम उससे बिल्कुल भी संगति नहीं रखता। 'एएफएसपीएऔर इसके जैसे तमाम कानून सच्चे लोकतंत्र में मौजूद नहीं होने चाहिए। इनकी मौजूदगी भारतीय राज्य के लोकतांत्रिक होने पर प्रश्नचिन्ह लगाती है तथा बताती है कि हमारा लोकतंत्र वास्तव में अधूरा है। 
सशस्त्रसेनाओं को नागरिकों की हत्याओं की खुली छूट नहीं दी जा सकती। उत्पीड़न से अलगाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। परन्तु  प्रश्न इस अधूरे लोकतंत्र को पूरा बनाने का है। पृथक संप्रभु उत्पीड़न के खिलाफ कारगार उपाय नहीं होगा। क्योंकि नया संप्रभु भी किसी न किसी आधार पर उत्पीड़क ही हो जाएगा क्योंकि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में संप्रभुता जिस रूप में है उसे तो उत्पीड़क ही होना है। लड़ाई संप्रभुता के इस स्वरूप को बदलने के लिए होनी चाहिए न कि उसी ढांचे के नए संप्रभुओं को पैदा करने की।
साथ ही यदि अलगाव और उत्पीड़न के आधार पर पृथक संप्रभुत्व को वैधता प्रदान की जाय तो भारत के भीतर पृथक राष्ट्रीयता का दावा करने का पहला अधिकार दलितों का है। याद कीजिए डा0 अम्बेडकर का भाषण जिसमें उन्होंने धर्मान्तरण की अपर्याप्तता एवं देषांतरण के विकल्प पर बात की है। कम्यूनल अवार्ड 1932 के दलितों के पृथक निर्वाचन संघ का तार्किक परिणाम पृथक राष्ट्रीयता ही हो सकता था। परंतु तत्कालीन दलित जनता का इस तरह का राजनीतिकरण हुआ ही नहीं था। ना ही दलित नेतृत्व मुस्लिम नेतृत्व की तरह संपत्तिशाली था और उतने सशक्त दबाव गुट के रूप में काम नहीं कर सकता था। दलित पृथक राष्ट्र की ओर नहीं बढ़े इसके जो भी कारण रहे हों परन्तु यह ऐतिहासिक रूप से समग्रतया अच्छा ही है। क्योंकि पृथक दलित संप्रभु के बीच से अन्य आधारों पर पृथक राष्ट्रीयताओं की मांग नहीं उठती ऐसा सोचना इतिहास को नकारना ही होगा।
यह तो रही उत्पीड़न और अलगाव की बात। अब जोसेफ स्टालिनकी राष्ट्र की परिभाषा की ओर ध्यान दें तो मार्क्सवादियों को सबसे अधिक प्रिय यह परिभाषा कई मायनों में अपर्याप्त है। स्वयं स्टालिन ने अपने वचनों का मोल नहीं रखा था। कौन कह सकता है कि चेचन विद्रोहियों की सामान्य संस्कृति, भाषा, भौगोलिक क्षेत्र, मनोवैज्ञानिक संरचना नहीं है। तो राष्ट्र बनने की इनकी प्रक्रिया की ऐतिहासिकता को किसने तोड़ा था? स्वाभाविक उत्तर है स्टालिनने। 
द्वितीयविश्वयुद्ध में चेचन विश्वासघातका बदला लेने के लिए स्टालिन ने चेचन्या के साथ जो किया वह सब करते हुए वे एक निष्ठुर तानाशाह अतिकेंद्रीयता में विश्वास करने वाली संप्रभुता के प्रवक्ता नजर आते हैं। यदि वह राष्ट्र की अपनी परिभाषा पर कुछ भी विश्वास करते तो चेचन्या को आत्मनिर्णय का अधिकार भले ही न देते लेकिन चेचन राष्ट्रीयता की बात करने वालों को साइबेरिया में निष्कासित तो ना ही करते। परन्तु यह बात ध्यान रखने की है कि पृथक राष्ट्र के संघर्ष में चेचन द्वारा अंजाम दी गई बेसलान स्कूल के नृशंश हत्याकांड को किसी भी तरह से औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता। 
यहइस बात का सबूत है कि एक पक्षीय स्वार्थी हित अच्छे और बुरे के बीच में फर्क करने में असफल होते हैं यह बात स्टालिन और चेचन दोनों पर लागू होती है। यहां भी मूल समस्या तो संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या ही थी। कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत की राष्ट्रीयता के साथ जो किया हैवहराष्ट्र की मार्क्सवादी परिभाषा से मेल नहीं खाता। 
भारतके विभाजन पर मार्क्सवादियों के रुख को देखकर लोहिया ने कहा था अपने स्वभाव से कम्युनिस्ट दांव पेंच का स्वरूप ही ऐसा है..... जब यह शक्तिहीन रहता है अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए यह सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता है। जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवादी नहीं रहता। साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में एकतावादी है और जर्मनी में पृथकतावादी।...
अब तक के अनुभवों से ऐसा लगता है कि जब साम्यवादी कमजोर होते हैं तो उपराष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय का समर्थन करते हैं और जब सत्ता में होते हैं तो उनका दमन करते हैं। यूएसएसआर की इकाई सदस्यों के पृथक होने के औपचारिक अधिकार का क्रियान्वयन कितना अव्यावहारिक था अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अध्येता अच्छी तरह समझते हैं। जबकि रणनीतिक तौर पर भी बहुराष्ट्रीय राज्य के भीतर मार्क्सवादियों का आंदोलन उन राष्ट्रराज्यों की तुलना में अधिक आसान होना चाहिए जिन्होंने धर्म भाषा या जातीय उत्पीड़न के आधार पर आत्मनिर्णय प्राप्त किया हो। क्योंकि ऐसे राष्ट्रराज्यों में शासकवर्ग जनता को धर्म, भाषा या जातीय राष्ट्रवाद के आधार पर अधिक भुलावे में रखता है। क्या कारण है कि पाकिस्तान में मार्क्सवादी, भारत के मार्क्सवादियों की तुलना में कमजोर हैं। तो कुलमिलाकर ऐसा लगता है कि राष्ट्र को लेकर मार्क्सवादी अवधारणा का केवल अकादमिक महत्व ही है।
अब बढ़ें लोहिया की ओर। लोहिया की यह बात कि भारत का विभाजन, शासक व शासित के बीच जनता, मध्यवर्ग और विभिन्न जातियों के बीच संपर्क के अभाव का कानूनी दस्तावेज है। उपराष्ट्रीयताओं के उद्भव और उनके आत्मनिर्णय में परिणत होने की प्रक्रिया का यह उत्कृष्ट विश्लेषण लगता है। यद्यपि यह सामान्यीकरण प्रतीत होता है परन्तु वास्तविकता तो यही है कि संप्रभु और जनता के बीच खाई और जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच संवादहीनता से ही अलगाव पैदा होता है। उस पर संप्रभु की यह अकड़ कि वह संप्रभुता को अपने ही पास रखेगा (भले ही संप्रभुता जनता में केंद्रित मानी जाय परंतु वास्तव में एक वर्ग विभाजित समाज में वह कुछ खास लोगों के पास ही रहती है।) खास सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली तबकों की स्थिति जब निर्णायक की होती है तो स्थिति और गंभीर हो जाती है। 
एकनिश्चित सीमा के बाद इसे संरक्षणात्मक भेदभाव जैसे उपाय नहीं संभाल सकते। रंगनाथ मिश्र कमेटी और सच्चर आयोग बहुत देरी से की गई पहलें हैं। और इनकी सिफारिशें भी अभी क्रियान्वित नहीं की गई हैं। हालांकि इस तरह के उपायों से प्रारंभ (1950-60) में काफी मदद मिल सकती थी। हालांकि यह कल्पना की उड़ान ही लगेगी परंतु यदि कैबिनेट मिशन द्वारा लागू की गई योजना के गुट संबंधी खंडोंको उसी रूप में क्रियान्वित किया जाता जैसा कि कैबिनेट मिशन योजना का सिद्धांत था तो शायद भारत का विभाजन टल सकता था। 
इनखंडों में केंद्र को कम शक्तियां थी। वह व्यवस्था हमारी वर्तमान व्यवस्था से अधिक संघीय होती। परन्तु इन खंडों का निर्वचन लीग और कांग्रेस द्वारा अलग अलग तरह से किया गया। वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व, लीग की ही तरह साझी संप्रभुता बांटने को तैयार नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी इसी ताक में थे क्योंकि उन्हें विभाजन से एशिया में सोवियत रूस के प्रभाव को कम करने के लिए पाकिस्तान के रूप में अधिक विश्वस्त सहयोगी मिलने वाला था। नतीजा था विभाजन।
साम्राज्यवादी ताकतें अपनी संप्रभुता को छोड़ने की मुद्रा में दिखाई देने के बावजूद भी ऐसा जाल बिछाती हैं कि वे भविष्य के लिए अपने राष्ट्रीय हित(आंतरिक संप्रभु हित) सुरक्षित रख पाएं। पाकिस्तान की समस्या ही नहीं श्रीलंका की तमिल समस्या के मूल में कहीं ना कहीं उपनिवेशवादी ताकतों का गहरा हित रहा है। दूसरी धुरी की समाजवादी  विश्व  ताकतें जिन्होंने बिना शर्त उपनिवेशों को मुक्त किया था के बारे में ऐसा लगा था कि वे चूंकि सैद्धांतिक रूप से मार्क्सवादी हैं जिनका अंतिम लक्ष्य राज्यविहीन  समाज बनाना है। अतः वे संप्रभुता के विरूद्ध कुछ वैचारिक संघर्ष चलाएंगे। परंतु जब लेनिन ने यह कहा हम आदर्शवादी नहीं हैं और राज्य की आवश्यकता बनी रहेगीतो एक तरह से कार्ल मार्क्स को उन्होंने स्वप्नदर्शी घोषित कर दिया। साथ ही साम्यवाद के रास्ते से अराजकता को प्राप्त करने की आशाऐं भी धूमिल हो गई। अराजकता को प्राप्त करने की आशासे भ्रम में ना पड़ें। समानता स्वतंत्रता और नैसर्गिक भाईचारे से युक्त अराजक समाज ही मनुष्य की आंखों से देखा गया अब तक का सबसे खूबसूरत स्वप्न है। 
साम्यवादके रास्ते से या ज्यादा स्पष्ट कहना चाहिए साम्यवादियों के रास्ते से आंतरिक संप्रभुता नष्ट नहीं होगी। यह यूएसएसआर और जनवादी चीन के कृत्यों ने दिखा ही दिया है। 1960 के बाद जब यूएसए और यूएसएसआर करीब आए तो कहा जाने लगा कि तकनीकी रूप से विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बीच विचारधाराओं के आधार पर संघर्ष के बिंदु उत्पन्न नहीं होते। तो संघर्ष किन बिंदुओं पर उभरते हैं? उनके-अपने राष्ट्रीयहितों(आंतरिक संप्रभुता) के कारण। पूरे शीतयुद्ध का इतिहास विचारधाराओं का कम और राष्ट्रीयताओं के संघर्ष का इतिहास अधिक है। तत्कालीन रूस और चीन के मतभेदों को भी इसी प्रकाश में देखना चाहिए। 
अबजबकि यूएसएसआर नहीं रहा और चीन भी मार्क्सवाद को त्याग ही चुका है तो यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है कि राष्ट्रराज्यों के लिए उनके अपने हित ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौजूदगी और इसके विरुद्ध सैद्धांतिक रूप से वैध होने के बावजूद भी आंतरिक संप्रभुता ही विश्व की असुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा है। क्योंकि एक तरफ तो यह साम्राज्यवाद के विरूद्ध औचित्य ग्रहण करती हुई दिखती है तो दूसरी तरफ इसके स्वाभाविक परिणाम हथियारों की होड़ के माध्यम से साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। दुनिया आज भी आतंक के संतुलन पर चल रही है।
लास्की कहते हैं कि समाज अनिवार्य रूप से बहुलात्मक है। तो राज्य को भी बहुलात्मक होना चाहिए क्योंकि प्रसव पीड़ा से गुजर रही विश्व अर्थव्यवस्था की राष्ट्रराज्यों से असंगति है। उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् अधिकार और लोकतांत्रिक विचारों के बीच अनिवार्य विरोध है। कानून का स्वरूप औपचारिक है। सार्वजनिक मताधिकार के बावजूद शासन वर्चस्वशाली लोगों के हाथों में है।
तो इन दशाओं में यदि कहीं पृथक संप्रभुत्व की मांग उठती है तो इसे समाधान नहीं मान लेना चाहिए। पृथक संप्रभु समाधान नहीं एक नई समस्या होगा और इस समस्या की कोई सीमा नहीं होगी। कम से कम इतिहास का विवेकतो यही बताता है। समाधान तो यही होगा कि संप्रभुता को जनता में बिखेर दिया जाय और यह उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण किये बगैर संभव नहीं होगा। 




एकवर्ग विभाजित समाज में आर्थिक संप्रभु ही राजनीतिक संप्रभु भी होता है। परंतु उत्पादन के साधनों का सामुहिकीकरण और उससे आंतरिक संप्रभुत्व का विनाश सर्वहारा की तानाशाहीसे होना मुश्किल है। क्योंकि पहले तो जिस पैमाने पर आज बुर्जुआस्वतंत्रता फैल चुकी है उसे लपेटा नहीं जा सकता, दूसरे सर्वहारा की तानाशाही व्यवहार में एक पार्टी की तानाशाही साबित हुई है। इस शासक वर्ग का भी अपनी जनता के साथ अंतर्विरोध हो सकता है। जिससे पुनः अलग संप्रभुत्व की मांग उठ सकती है। याद करें चीन में हान राष्ट्रवाद और उइगर समुदाय के बीच संघर्ष और उइगरों का दमन।
कुल मिला कर ऐसा लगता है कि उत्पीड़न, अलगाव, राष्ट्रीयता आत्मनिर्णय व संप्रभुता की समस्याएं ऊपर से देखने पर चाहे धार्मिक, प्रजातीय, क्षेत्रीय, भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय अस्मिताओं के आधार पर खड़ी हुई प्रतीत हों वास्तव में ये संप्रभुता के केंद्रीयकरण की समस्याएं हैं। इनका समाधान एक विश्व संसद या विश्व समाज जिसमें आंतरिक संप्रभुताएं नष्ट हो चुकी होंगी, उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण हो चुका होगा में ही है। पुनरावृत्ति के साथ कहुंगा कि नई संप्रभुताएं नई समस्याएं होंगी। संप्रभुता को जनता में बिखेर देना ही समाधान है। इसी दिशा में संघर्ष करना होगा।
मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इनसे mohanmanuarya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

युद्धोन्माद और 'बासू, द लिटिल स्ट्रेंजर'

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रोहित जोशी

उड़ी हमले के बाद से बरास्ता मीडिया देश फिर युद्धोन्माद में है. इसलिए पुन:श्च..

बियत खराब हो, रात में नींद नहीं आ रही हो और आप फिल्मों के शौक़ीन हों तो फ़िल्में देखना ही सबसे बढ़िया तरीका होता है रात काटने को. यहाँ रात में टीवी चैनलों की भारत-पाक की उन्मादी बहसों को देखता ही सो गया था. जब देर रात भारी जुकाम से नींद खुली तो दोबारा सोना मुश्किल हो गया. फिर वही अपनी रात काटने की तकनीक का इस्तेमाल किया. फिल्म का चुनाव भी एक मसला था कि कौनसी फिल्म देखी जाय?

याद आया, अभी पिछली दफा जब नैनीताल गया तो पता चला सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. शेखर पाठक आजकल एक फिल्म सबको बाँट रहे हैं. कुछ किताबें उनसे लानी ही थी तो साथ ही उनके लैपटॉप से यह फिल्म भी ले आया. फिल्म थी ‘बासू, द लिटिल स्ट्रेंजर’. ईरानी फिल्मकार ‘बहरम बैजाई’ द्वारा निर्देशित यह फिल्म 1989 में रिलीज हुई थी. फिल्म का प्लॉट इराक-ईरान युद्ध के दौर का है. दक्षिणी ईरान के खुजेस्तान प्रांत का एक बच्चा, जिसके माता-पिता और बहन युद्ध के दौरान उसके गाँव में हुए बम हमलों में मारे गए हैं, लगातार गिरते बमों से अपनी जान बचाता, खेतों में छिपता भाग रहा है. एक फ़ौजी ट्रक में छिपकर, जो कि उत्तरी ईरान की तरफ आ रहा है, वह युद्ध के इलाके से दूर किसी जगह पहुँच जाता है.


मैं आपको फिल्म की पूरी कहानी नहीं बताने जा रहा. उसके लिए फिल्म आपको खुद देखनी होगी. लेकिन क्योंकि सीमा पर हमारे सिपाहियों की हत्या और मीडिया द्वारा इस बात को दी गई हवा के चलते युद्ध के जिस उन्माद में इन दिनों हम लोग हैं, यह फिल्म बहुत खामोशी से उसके बारे में भी कुछ कहती है.

बच्चे की जब नींद खुलती है तो ट्रक युद्ध क्षेत्र से बाहर आ चुका है. पर पास ही टनल निर्माण के लिए फोड़े जा रहे डाइनामाइट की आवाजों से वह दहल उठता है और ट्रक से उतर चीखता हुआ खेतों की तरफ भाग पड़ता है. वह युद्ध के गहरे सदमे में है. खेतों में जब उसे ‘गिलाकी’ महिला ‘नाइ’ और उसके बच्चे मिलते हैं तो वह उन्हें देखकर भी डर जाता है. उसका अजीब व्यवहार ‘नाइ’ की समझ से भी परे है. वह जब उससे बात करना चाहती है तो पता चलता है कि उसे तो ‘गिलाकी’ भाषा आती ही नहीं. वह तो ‘अरबी’ भाषा जानता है. वे आपस में संवाद नहीं कर पाते.

खैर फिल्म की कहानी में तफसील से जाने का यहाँ मौका नहीं है. मैं जो बात करना चाह रहा हूं वह इस बच्चे की दहशत की है, जो युद्ध से पनपी है. गांव के ऊपर यात्री जहाज़ों के चलने पर भी उसे बमों के गिरने का खौफ दहशत से भर देता है. वे औरों से भी उसकी तरह दीवारों के पीछे छुप जाने के इशारे करता है. सपने में भी उसकी स्मृतियों में युद्ध का ही खौफ है, जिससे वो काँप जाता है. बार-बार वह अपने हालिया अतीत की स्मृतियों को याद कर चेहरे पर हाथ रख रोने लगता है.

यूँ तो फिल्म की सिर्फ शुरुआत में युद्ध के कुछ दृश्य हैं. लेकिन इसकी विभीषिका फिल्म के समूचे कैनवास में पसरी हुई है. रंग और भाषाई रूप से खुद से विषम इस लावारिश बच्चे के लिए, खुद चुनौतीपूर्ण जीवन जी रही ‘नाइ’ का उभरा स्वाभाविक प्रेम और इन परिस्थितियों में उसे अपनाने की अभिलाषा के बीच समाज और परिवार के अलग-अलग वृत्तों में मानवीय अंतर्संबंधों का यथार्थपरक फिल्मांकन, ‘बैजाई’ भरपूर कर पाए हैं.इरानी सिनेमा का यह पक्ष सर्वथा मजबूत दिखाई पड़ता है.


युद्ध और उसकी विभीषिका को पिछले दशकों में उन देशों की कलाओं ने बखूबी उकेरा है जिन्होंने युद्ध में भीषण तबाही झेली हैं. जापान इनमें प्रमुख है. हिरोशिमा और नागाशाकी की तबाही झेले इस देश की प्रत्येक कला में (चाहे वह साहित्य हो या सिनेमा) युद्ध के प्रति घृणा का भाव लगातार दिखाई पड़ता है. उदाहरण के लिए विश्व सिनेमा में महत्वपूर्ण जापानी हस्ताक्षर अकीरा कुरुशावा के सिनेमा में युद्ध के प्रति एक साश्वत घृणा दिखती है. वहीँ इसी के उलट युद्धों का जश्न मनाती फ़िल्में अमेरिकी फिल्म इंडस्ट्री हॉलीवुड से आई हैं. यह अनायास नहीं है. अमेरिका, हालिया इतिहास में समूचे विश्व में हुए तकरीबन सारे ही युद्धों में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दखल रखता है. जहाँ एक ओर इसमें उसके कूटनीतिक हित सधते हैं वहीँ हथियार बेचने वाली इसकी शक्तिशाली लॉबी का भी इन युद्धों में भारी मुनाफा होता है.   

खैर! ‘बासू’ को देख मुझे कारगिल के बच्चे याद आते हैं. जिनकी वहां पिछले साल मैंने तस्वीरें उतारी, जिन्होंने मुझे गाने गाकर सुनाये. जो मेरे लिए नाचे, गाये और खिलखिलाए... उतनी ही मासूमी से जितनी मासूमी से महाराष्ट्र के फोफसंडी के बच्चे, मध्यप्रदेश के बैहर के बच्चे, कर्नाटका के साने-हडली के बच्चे, यहाँ उत्तराखंड में फलिंडा के बच्चे और मुझसे मिले अब तक के सारे ही बच्चे...

मैं उत्तराखंड से आता हूँ जहाँ अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा आर्मी के जवान चलाते हैं. कारगिल में जिस वक्त युद्ध चल रहा था मोर्चे पर गए हर सिपाही के परिवार की हालत हर समय ऐसी थी जैसी आज इन शहीदों के परिवारों की है. सारे ही परिवार और उनके बच्चे आशंकाओं में घिरे रहे कि पता नहीं कब उनके परिजन के मरने की खबर आ जाए. कई शहीद हुए भी. उनके सम्मान में जुलूस निकाले गए. लेकिन आज उन्हें कोई पूछने वाला भी नहीं. इस सब को ‘देशभक्ति’ और ‘कुर्बानी’ कह कर रूमानी हुआ जा सकता है. लेकिन एक लंबी जिंदगी रुमानियत में नहीं कटती. अपने बच्चों को खो देने वाले माता-पिता, विधवा स्त्रियों और अनाथ बच्चों को यह जिंदगी यथार्थ की कठोर जमीन में जीनी होती है.

माना युद्ध ही इस समस्या का असल हल होता तो अब तक ये समस्या हल हो चुकी होती. क्योंकि पिछले 6  दशकों में हम पाकिस्तान से चार बड़े युद्ध कर चुके हैं. जिसके हार-जीत के स्तर पर जो भी परिणाम रहे हों पर समस्या निदान के स्तर पर परिणाम शून्य ही रहे हैं. डिप्लोमेटिक हल ही सार्थक है. और दोनों तरफ की जनता में युद्ध के खिलाफ प्रचार भी इसमें मददगार होगा. हम बतौर आवाम, सबसे ज्यादा जो कर सकते हैं वो यही है, युद्ध के खिलाफ प्रचार. मीडिया का फैलाया उन्माद उसे टीआरपी देता है. जनता का उन्माद उसे युद्ध की तबाही ही देगा और कुछ नहीं...

और दिल्लियों, लखनवों, देहरादूनों, बनारासों, पटनाओं, भोपालों, बैंग्लूरों, चेननैयों और भी तमाम जगह बैठे भड़क रहा हमारा ये युद्धोन्माद, कारगिल और कारगिल जैसी तमाम जगहों के बच्चों की हालत बासू जैसी कर सकता है... युद्ध से खौफजदा ‘बासू, द लिटिल स्ट्रेंजर’ जैसी.... क्यों न इसे रोका जाय.

आपको मालूम है.. झारखंड जल रहा है!

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-रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार


"..इस बार वर्षों से झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के दिलों में दबे हुए शोले को चिंगारी देने का काम किया है मौजूदा भाजपा सरकार की नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव ने. वर्षों से इनकी जल-जंगल-जमीन की अवैधानिक व जबरन लूट को अब कानून बनाकर संस्थागत रूप देने का प्रयास किया जा रहा है.."

झारखंड सुलग रहा है और सुलग रहे हैं यहां के जल-जंगल-ज़मीन के रखवाले. बिरसा मुंडा, सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव व फुलो-झानो की संतानों ने बिगुल फूंक दिया है झारखंड के भाजपानीत रघुवर दास सरकार के खिलाफ. नगाड़ा बज रहा है झारखंड के गांवों में, जंगलों व पहाड़ों पर. लड़ाई का न्योता भेजा जा रहा है तमाम लड़ाकूओं के पास. पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं, पर्चे बांटे जा रहे हैं और प्रत्येक गांवों, कस्बों और शहरों के नुक्कड़ों पर झारखंड की अस्मिता को बचाने का संकल्प दोहराया जा रहा है. आप सोच रहे होंगे कि अगर ऐसा है तो फिर ये हमारे टेलीविजन के सैकड़ों न्यूज चैनल और हमारे घरों में आनेवाले अखबार ये बात क्यों नहीं बताते? नहीं बताएंगे वे क्योंकि ये न्यूज चैनल और अखबार पूंजीपतियों व झारखंड के जल-जंगल-जमीन के लूटेरों के साथ मिल गई है व उनकी ही दलाली कर रही है, तो फिर ये झारखंड की आम जनता यानी कि आदिवासी-मूलवासी का सुलगना आपको कैसे बताएगी? वैसे तो आप ये जानते ही हैं कि झारखंड के आदिवासी-मूलवासी जब सुलगते हैं तो बड़ी से बड़ी ताकतें भी थर्रा उठती है, फिर चाहे वो 18वीं सदी के मध्य में हुआ तिलकामांझी का विद्रोह हो, 1830-32 का सारंडा से लेकर चतरा तक पसरा कोल विद्रोह हो, 1855 का संथाल हूल हो या फिर 1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ उलगुलान हो. कभी भी यहां के आदिवासी-मूलवासी लड़ाई में पीछे नहीं रहे हैं और लड़ाई में कुर्बानी देने का भी इनका अपना एक इतिहास रहा है.


इस बार वर्षों से झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के दिलों में दबे हुए शोले को चिनगारी देने का काम किया है मौजूदा भाजपा सरकार की नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव ने. वर्षों से इनकी जल-जंगल-जमीन की अवैधानिक व जबरन लूट को अब कानून बनाकर संस्थागत रूप देने का प्रयास किया जा रहा है. इसी कड़ी में झारखंड में मौजूदा सरकार ने 7 अप्रेल 2016 को नई स्थानीय नीति की घोषणा की और झारखंड राज्य के मूल चरित्र पर भीषण हमला कर दिया और फिर जो भी कसर बांकी रह गई थी उसे भी 3 मई 2016 को छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में संशोधन का प्रस्ताव कैबिनेट से पास कराकर पूरी कर दी. ऐसी स्थिति में स्वाभाविक बात थी कि झारखंड की जनता का खून खौलना है और अब झारखंडी खून उबाल मारने लगा है.

क्यों मचा स्थानीय नीति पर हंगामा?

15 नवंबर 2000 को झारखंड को अलग राज्य का दर्जा मिलने के बाद तत्कालीन भाजपानीत सरकार के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने स्थानीय नीति बनाने की कोशिश की. राज्य की इस पहली सरकार ने 22 सितम्बर 2001 को बिहार में प्रचलित स्थानीयता की परिभाषा को बिहार पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 85 के आलोक में अंगीकृत किया. संबंधित धारा में इसका उल्लेख अवश्य था कि 1931 के सर्वे सेटलमेंट में जिनका नाम दर्ज होगा वे स्थानीय कहलाएंगे. इससे इतर ऐसे व्यक्ति जिनका नाम सर्वे सेटलमेंट में नही था स्थानीय कहलाने के लिये उनके लिए भी मानक निर्धारित किए गए थे. शर्त बस इतनी सी थी कि संबंधित गांव अथवा शहर के स्थानीय पांच लोग यह प्रमाणित कर दें कि अमुक व्यक्ति के पूर्वज यहां वर्षों से रहते आए हैं. यह हुबहू अविभाजित बिहार में राज्य सरकार की अधिसूचना दिनांक 3 मार्च 1982 की नकल ही थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के द्वारा 2002 में लाए गए डोमिसाइल नीति के विरोध में पूरा झारखंड रणक्षेत्र बन गया था. आदिवासी-मूलवासी और दिकूओं (गैरआदिवासी को आदिवासी दिकू नाम से ही बुलाते हैं) के बीच उस समय काफी हिंसक झड़प भी हुई. अंततः 27 नवंबर 2002 को झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय खंडपीठ ने सरकार की डोमिसाइल नीति को खारिज कर दिया और फिर से स्थानीय व्यक्ति के पहचान के निर्देश दिए. तब से जितनी भी सरकारें आई, सबके कार्यकाल में स्थानीयता की परिभाषा को तय करने के सवाल का हल नहीं निकल पाया. हां, कमिटियां बनती रही और रिपोर्ट भी सौंपे जाते रहे. 

नए-नए वादे व दावे के साथ झारखंड में पूर्ण बहुमत से बनी भाजपा सरकार के लिए स्थानीयता को परिभाषित करने का दबाव शुरु से ही रहा. क्योंकि अब तो केन्द्र और राज्य दोनों में एक ही सरकार थी. साथ ही साथ इस सरकार पर यह भी दबाव था कि जिस तरह से पहली बार झारखंड में कोई गैरआदिवासी मुख्यमंत्री बना है तो गैरआदिवासियों के हित के अनुरूप ही स्थानीय नीति घोषित की जाए. अंततः 7 अप्रैल 2016 को नई स्थानीय नीति की घोषणा की गई. इसके मूल प्रावधान इस प्रकार हैं-

  1. झारखंड की भौगोलिक सीमा में निवास करने वाले वैसे सभी व्यक्ति, जिनका स्वयं अथवा पूर्वज के नाम पर गत् सर्वे खतियान में नाम दर्ज हो एवं वैसे मूल निवासियों, जो भूमिहीन हैं, उनके संबंध में भी उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति एवं परेपरा के आधर पर ग्राम सभा द्वारा पहचान किये जाने पर स्थानीय की परिभाषा में उन्हें शामिल किया जाएगा.
  2. झारखंड के वैसे निवासी, जो व्यापार, नियोजन एवं अन्य कारणों से विगत 30 वर्षों या उससे अधिक से निवास करते हों यानी कि 1985 या उससे पहले से भी रहते हों एवं अचल संपत्ति अर्जित की हो या ऐसे व्यक्ति की पत्नी, पति, संतान हों.
  3. झारखंड राज्य सरकार अथवा राज्य सरकार द्वारा संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि में नियुक्त एवं कार्यरत पदाधिकारी, कर्मचारी या उनकी पत्नी, पति, संतान हों.
  4. भारत सरकार के पदाधिकारियों, कर्मचारियों जो झारखंड राज्य में कार्यरत हों या उनकी पत्नी, पति, संतान हों.
  5. झारखंड राज्य में किसी संवैधानिक अथवा विधिक पदों पर नियुक्त व्यक्ति या उनकी पत्नी, पति, संतान हों.
  6. ऐसे व्यक्ति जिनका जन्म झारखंड राज्य में हुआ हो तथा जिन्होंने अपनी मैट्रिकुलेशन एवं समकक्ष स्तर की पूरी शिक्षा झारखंड राज्य में स्थित मान्यताप्राप्त संस्थानों से पूर्ण की हो.


सरकार की इस स्थानीय नीति में भी कई छेद हैं और साफ तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार ने भरपूर कोशिश की है कि यहां के नौकरियों और संसाधनों पर बाहरी लोगों का कब्जा बरकरार रहे और आदिवासियों-मूलवासियों को हाशिए पर धकेल दिया जाए. यही कारण है कि झारखंड की विपक्षी पार्टियां ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष यानी कि भाजपा के कई आदिवासी विधायक व मंत्री भी इसका विरोध कर रहे हैं. सरकार में भागीदार आजसू तो इसके विरोध में है ही. खासकर झारखंड के आदिवासी नेताओं को, वे चाहे जिस भी पार्टी में हो, स्थानीयता पर सरकार की नीति के खिलाफ खड़ा होना ही पड़ रहा है, भले ही दिखावटी ही सही. हां, कुछ बेशर्म आदिवासी नेता जरूर हैं, जो अपनी ही समुदाय से गद्दारी कर सरकार के पक्ष में खड़े हैं. सरकार भी अपने पक्ष में लोगों को करने में यानी कि जनता को भरमाने में कोई भी कोर-कसर बांकी नहीं छोड़ रही है. यही कारण है कि जब विपक्षी पार्टियों ने 14 मई 2016 को स्थानीय नीति के खिलाफ झारखंड बंद का आह्वान किया तो भाजपा सरकार ने भी 13 मई से 15 मई तक लगातार स्थानीय नीति के पक्ष में दो-दो पन्ने के विज्ञापन तमाम समाचारपत्रों में छपवाए, जिसमें स्थानीय नीति के पक्ष में झारखंड के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, अधिवक्ताओं व आंदोलनकारियों के लेख थे. जिसमें सबसे दुखदायी पक्ष ये था कि हमेशा झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के हित के पक्षधर प्रसिद्ध आंदोलनकारी एवं जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची के पूर्व अध्यक्ष बी. पी. केसरी के लेख भी सरकार की नई स्थानीय नीति के पक्ष में थी. इस सबके बावजूद भी कुछ ऐसे सवाल तो हैं जो सरकार की नई स्थानीय नीति के सच को नंगा कर देती है, जिसे भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने रघुवर दास को पत्र लिखते हुए ध्यान दिलाया है-‘‘यदि किसी व्यक्ति ने अनुसूचित क्षेत्र में किसी तरह धोखेबाजी से 1985 से पहले जमीन खरीद ली हो, तो ऐसे मूलवासी को स्थानीय मानना उचित होगा? सिर्फ कट आॅफ डेट के अनुपालन से सदानों के साथ न्यायोचित निर्णय ना होने का खतरा बना रहेगा. इस प्रकार से स्थानीयता प्राप्त करना संविधान के अनुच्छेद 244 के अनुसार भी त्रुटिपूर्ण कहा जाएगा.’’

सीएनटी एक्ट-एसपीटी एक्ट में संसोधन के प्रस्ताव ने किया आग में घी का काम

अभी पूरे राज्य में नई स्थानीय नीति के खिलाफ आक्रोश पनपना शुरु ही हुआ था कि रघुवर दास की कैबिनेट ने 3 मई 2016 को सीएनटी-एसपीटी एक्ट के कुछ प्रावधानों में संसोधन का प्रस्ताव पास कर दिया और फिर क्रमशः जनजातीय परामर्शदातृ परिषद् (टीएसी) से भी मंजूरी करा ली और विधानसभा में इसपर बगैर व्यापक बहस कराए अध्यादेश पारित कर राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया.

यह बात सभी जानते हैं कि झारखंड अन्य राज्यों की तरह सामान्य राज्य नहीं है, औपनिवेशिक समय से ही इस क्षेत्र को विशेष प्रावधानों के तहत शासित किया जाता रहा है. पांचवी अनुसूचि के द्वारा झारखंड की विशेष स्थिति को संविधान ने भी माना है. इसका गठन भी स्वायत्तता और अलग प्रांत के लम्बे राजनीतिक संघर्ष के बाद ही हुआ है. देश का यह पहला आदिवासी बहुल राज्य है, जिसने 1928 में झारखंड को अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने का ज्ञापन साइमन कमीशन को दिया था. फिर भी झारखंडी जनता खासकर यहां के आदिवासी और मूलवासी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक लूट-शोषण और बर्बर जुल्म व दमन-अत्याचार के खिलाफ तथा अपने आर्थिक-राजनीतिक अधिकार और सही इज्जत-आजादी के लिए संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा करने और जल-जंगल-ज़मीन पर अपना अधिकार कायम करने में सफल हुई थी. झारखंडी जनता के साम्राज्यविरोधी ऐतिहासिक क्रांतिकारी संग्राम व विद्रोह के कारण ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों को जल-जंगल-ज़मीन पर हक देने को बाध्य हुआ था और इसी का परिणाम था आदिवासी बहुल क्षेत्र छोटानागपुर के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संताल परगना के लिए संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट). इस अधिनियम के अनुसार मुख्यतः इन क्षेत्रों की जमीन और जंगल, जिनपर आदिवासियों का अधिकार है, उनके अधिकृत जमीन और जंगल पर कोई भी गैरआदिवासी व्यक्ति हस्तक्षेप व दखल नहीं दे सकता है, खरीद भी नहीं सकता है. इतना ही नहीं, उनकी अनुमति के बिना सरकार भी उनकी जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती है. उसमें भी ये एक्ट दलितों, आदिवासियों और मूलवासियों के बीच ही जमीन की खरीद-बिक्री भी सीमित करता है. आदिवासी और दलित क्रमशः थाना और जिला के अंदर ही जमीन हस्तांतरण कर सकते हैं.

झारखंड सरकार के सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव के मूल बिंदु इस प्रकार हैं-

  1. सीएनटी की धारा 21 और एसपीटी की धारा 13 में संशोधन के तहत काश्तकार या रैयत को अपनी जमीन पर गैर कृषि काम का अधिकार होगा. पहले के प्रावधान के तहत सीएनटी की कृषि जमीन के रूप में चिन्हित थी. उसपर गैर कृषि कार्य करने की छूट नहीं थी. जबकि संशोधन के बाद जमीन की प्रकृति बदली जा सकती है.
  2. सीएनटी की धारा 43 के तहत उपायुक्त को अपने राजस्व न्यायालय द्वारा कृषक की जमीन उद्योग-खनन, बड़े सरकारी परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित करने की अनुमति देने का अधिकार है. अब सरकार के संशोधन के बाद जमीन दूसरे सरकारी प्रयोजन के लिए भी देने का अधिकार होगा. संशोधन में इसका दायरा बढ़ाया गया है. 
  3. सीएनटी की धारा 71(अ) के तहत यदि किसी एसटी की जमीन गैर अनुसूचित जाति को हस्तांतरित की गई है, उसे पुनः एसआरए कोर्ट द्वारा दखल दिलाने अथवा मुआवजा दिलाकर रेगुल्यराइज करने की व्यवस्था है. वर्तमान संशोधन के तहत मुआवजा दिलाकर नियमित करने की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है.
इस संशोधन के प्रस्ताव से साफ पता चलता है कि इसके तहत आदिवासियों व मूलवासियों की जमीन की किस तरह से लूट होगी. लूट तो अभी भी हो रही है लेकिन कानून बनाकर संस्थागत लूट का दरवाजा खोल दिया जाएगा. इस संशोधन की विभीषिका को देखते हुए ही केन्द्रीय जनजाति आयोग (एसटी कमीशन) ने राज्य सरकार के सीएनटी-एसपीटी एक्ट के संशोधन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है. आयोग ने अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय और आदिवासी मामले के मंत्रालय को भेज दी है. रिपोर्ट की काॅपी राज्यपाल द्रोपदी मुरमू को भी दी गई है. केन्द्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष डा. रामेश्वर उररांव का कहना है कि ‘‘ आदिवासी की जमीन नहीं बच पाएगी. आदिवासियों की जमीन सीएनटी-एसपीटी एक्ट के दायरे में कृषि कार्य के लिए तय है. अब अगर इसे गैर कृषि जमीन में परिवत्र्तित किया जाएगा तो सीएनटी-एसपीटी एक्ट के परिधि से बाहर हो जाएगी. उस जमीन को बेचने के लिए उपायुक्त के आदेश की भी जरूरत नहहीं होगी. सीएनटी-एसपीटी की जमीन पहले भी सरकारी या प्राइवेट कम्पनियां उद्योग और माइंस के लिए अधिग्रहित करती रही है. अब इसमें 12-14 नए प्रयोग जोड़ दिए जा रहे हैं. यह खतरनाक प्रयोग होगा. आदिवासी की जमीन बड़े पैमाने में बेची-खरीदी जाएगी.’’

तैयार होता एक और हूल व उलगुलान

झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों का साफ मानना है कि सीएनटी व एसपीटी एक्ट हमारे पूर्वजों के खून से लिखा गया है और यह हमारा रक्षा कवच भी है. इसलिए वे किसी भी हालत में ऐसे कानून को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है. केन्द्र की मोदी सरकार की इनके प्रति नीति भी इनके सामने है, वे जानते हैं कि नई स्थानीय नीति और सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव का मुख्य लक्ष्य यहां की खनिज संपदा है. क्योंकि इसके बिना इनका जीडीपी बढ़ नहीं सकता. मोदी सरकार झारखंड, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य बड़े-बड़े उद्योगपतियों को देना चाहती है, जबकि आदिवासी इसके मालिक हैं. विकास का पर्व आदिवासियों की लाश पर मनाया जा रहा है. यहां 88 फीसदी झारखंडी है और इन नीतियों के लागू होते ही एक साल के अंदर बड़ा स्थानांतरण होगा. यह आदिवासियों का सांस्कृतिक संहार है, जिसमें अभी गोली-बंदूक नहीं कलम का प्रयोग किया जा रहा है और वक्त आने पर सरकार गोली-बंदूक का इस्तेमाल करने से भी पीछे नहीं हटेगी. एक बात और साफ है कि नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन दिल्ली में बैठे लोग देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों के आदेश पर ही कर रही है.

नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ हो रहे आंदोलनों में इस बार कुछ खास बात भी देखने को मिल रही है कि यहां के आदिवासी-मूलवासी गद्दार नेताओं के झांसे में नहीं आ रही है. इसका प्रमाण है कि 15 सितम्बर को स्थानीय नीति व  सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ रांची के मोहराबादी मैदान में आयोजित आदिवासी महारैली में किसी भी राजनीतिक दलों के नेताओं को मंच पर चढ़ने नहीं दिया गया. क्योंकि झारखंड के आदिवासी-मूलवासी जानते हैं कि मंच पर चढ़कर बोलने वाले नेता ही उनके पीठ में खंजर घोंपने का काम करते हैं. 15 सितंबर की रैली की तैयारी भी अपने आप में बेमिसाल थी. इसी कारण लगभग 70-80 हजार लोग रैली में पहुंचे. इस आंदोलन का एक मुख्य पहलू ये भी है कि झारखंड के सुदूर क्षेत्रों में अपना जनाधार रखनेवाली प्रतिबंधित पार्टी भाकपा (माओवादी) ने भी नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ जंग का एलान कर दिया है एवं अपनी पूरी ताकत के साथ जनता के बीच पोस्टरिंग करके व पर्चे बांटकर आदिवासी-मूलवासी विरोधी सरकार, नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव के सच को सामने रख रही है. इस क्रम में 10 सितम्बर का भाकपा (माओवादी) का झारखंड बंद भी व्यापक रूप से सफल रहा था.


नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ लड़ाई के कई कोण हैं. झारखंड नामधारी वोटबाज पार्टियां भी लगातार अपने जनाधार को बनाए रखने के लिये आंदोलन कर रही है तो वहीं सत्ता पक्ष के नेता भी खुलकर सरकार की नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के पक्ष में नहीं बोल पा रहे हैं. कुछ तो इसके खिलाफ भी बोल रहे हैं. सरकार के मत से भिन्न मत रखने के कारण ही भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी को अपनक पद से हाथ धोना पड़ा. सरकार की सहयोगी पार्टी आजसू तो नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ जन संदेश यात्रा ही कर रही है. इस लड़ाई का महत्वपूर्ण कोण झारखंड के आम आदिवासी-मूलवासी हैं, जो किसी भी चुनावी नेता के बगैर सच कहने की हिम्मत कररहे हैं. और इसमें उनके अपने सरना धर्म के नेताओं, महत्वपूर्ण चर्च के पादरियों, जाने-माने बुद्धिजीवियों व आंदोलनकारी ताकतों का साथ भी मिल रहा है. नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की खिलाफत करनेवालों में से एक विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के झारखंड संयोजक दामोदर तुरी कहते हैं कि ‘‘इस बार तो लड़ाई आर-पार की होगी, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन से राज्य के लगभग 15 जनसंगठन जुड़े हुए हैं, जो अपनी पूरी ताकत से गांव-गांव में प्रचार अभियान चला रही है. स्थानीय स्तर पर कार्यक्रम भी किये जाएंगे और 25 अक्टूबर को रांची के मोहराबादी मैदान में आदिवासियों-मूलवासियों का महाजुटान होगा, जो वहां से चलकर राज्यपाल का घेराव करेंगे.’’

निष्कर्षतःकहा जा सकता है कि लड़ाई लम्बी चलेगी क्योंकि एक तरफ हैं झारखंड की खनिज संपदा को लूटने को बेताब देशी-विदेशी काॅरपोरेट लूटेरे, नए-नए हथियारों से लैस उनकी फौज, विधानसभा, संसद व कानून के रखवालों का भ्रष्ट गठजोड़ और दूसरी तरफ हैं बिरसा मुंडा, सिद्धु-कान्हू, चांद-भैरव व फुलो-झानो की संघर्षकारी विरासत को संभाले उनकी संतानें. जो लड़ना जानती है और लड़ते हुए शहादत देना भी जानती है लेकिन झुकना नहीं जानती है. जल-जंगल-जमीन पर टेढ़ी नजर रखनेवालों की आंख फोड़ देने की हिम्मत भी आदिवासी-मूलवासी जनता रखती है. अब देखना ये होगा कि कब ये लड़ाई एक और हूल व उलगुलान का रूप अख्तियार करती है. लेकिन एक बात तो सत्य है कि जब ये अपने रूप में आएगी तो एक नया इतिहास लिखा जाएगा.

लड़कियों की ‘हिंट’ समझने से पहले ‘पिंक’ देखें

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-उमेश पंत
"...कभी-कभी केवल अंडरटोन से काम नहीं चलता. कुछ बातें होती हैं जो दो-टूक , साफ़-साफ़ कहनी पड़ती हैं. जब समाज का एक बड़ा हिस्सा ग़लत ‘हिंट’ लेने लगता है तो उसे केवल ‘हिंट’ देने से काम नहीं चलता. इसलिए पिंक में एकदम बोल्ड और साफ़-साफ़ शब्दों में ‘नो मतलब नो’ का सन्देश दिया जाना सही समय पर एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह लगता है..."

पिंक. ये रंग लड़कियों के हिस्से में क्यों आया होगा ? जब पहली बार खुद से हम ये सवाल कर रहे होते हैं तो कई और सवाल आजू-बाजू खड़े हो जाते हैं. रात को देर से घर आने वाली लड़कियां, शराब पीने वाली लड़कियां, शादी से पहले सेक्स करने वाली लड़कियां, घर से अलग अकेले रहने वाली लड़कियां और अपने साथ घर पर लड़कों को लाने वाली लड़कियां. इन अलग-अलग वाक्यांशों को जब हम पढ़ रहे हैं तो हमारे दिमाग में क्या तस्वीरें बन रही हैं ? क्या वो तस्वीरें ‘नॉर्मल’ हैं ? क्या वो लड़कियां ‘नॉर्मल’ हैं जो इन तस्वीरों में हमें दिखाई दे रही हैं ? और फिर इन सारे वाक्यांशों में ‘लड़कियां’ शब्द बदलकर ‘लड़का’ कर दीजिये और फिर देखिये कि दिमाग में क्या तस्वीरें बनती हैं ? और वो तस्वीरें हमें तुलनात्मक रूप से कितनी सामान्य या असामान्य लगती हैं. पिंक फिल्म मूलतः इसी तुलना के लिए अपने दर्शक को तैयार कर देती है. फिल्म देखते हुए ये सवाल आपके ज़हन में बार-बार आते हैं और यहीं फिल्म अपने उद्देश्य में खरी उतर जाती है.
पिंक ये डिस्कोर्स हमारे सामने उस दौर में खड़ा कर रही है जब ‘निक्कर वाली छोरी’ या ‘तमंचे पे डिस्को’ टाइप के गाने अपने समय के सबसे हिट गाने हैं. मतलब ये कि जहां एक तरफ बौलीवुड की ज़्यादातर फ़िल्में लड़कियों से जुड़े स्टीरियोटाइप्स को और मजबूत कर सामान्य भारतीयों की मानसिकता को अपने लाभ के लिए भुना रही हैं वहां शूजित सरकार (क्रिएटिव प्रोड्यूसर) और अनिरुध्ध राय चौधरी की ‘पिंक’ इसके एकदम उलट खड़ी होती है और (अपने लाभ के लिए ही सही) उस मानसिकता को कड़ी चुनौती देती है जो महानगरीय लड़कियों को एक ख़ास जीवनशैली की वजह से ‘वैसी लड़कियों’ में शामिल कर देती है. ‘वैसी लड़कियां’ मतलब ‘इज़ीली अवेलेबल’.
 निर्भया केस के बाद दिल्ली में और कुछ हुआ हो या न हुआ हो महिलाओं की अस्मिता और आज़ादी के सवाल को एक सामाजिक मान्यता ज़रूर मिली. दिल्ली यूनिवर्सिटी में ‘पिंजरा तोड़’ मूवमेंट हो, या ‘व्हाई लोयटर’ और ‘रिक्लेम युवर नाइट’ सरीखे प्रयोग सामने आये, महिलाएं इन तमाम अभिनव प्रयोगों के ज़रिये अपनी सुरक्षा और आज़ादी के सवालों पर ज़्यादा मुखर होकर सामने आई. और कम से कम महानगरों के मिडिल क्लास समाज में इस विषय की चर्चा होने लगी. यहां सवाल केवल महिलाओं की सुरक्षा का नहीं था बल्कि उनके पहनावे, उनकी जीवनशैली, उनके खान-पान के आधार पर किसी भी तरह के शोषण, भेदभाव और उन प्रतिबंधों का भी था जो महिला होने की वजह से उन पर थोप दिए जाते हैं. इन सवालों ने सुविधाओं से भरे शहर में उन सुविधाओं पर महिलाओं के बराबर के हक़ की ज़मीन किस हद तक तैयार की ये कहना ज़रा मुश्किल है लेकिन अभिव्यक्ति के विभिन्न माध्यमों में इस सवाल को थोड़ी-थोड़ी जगह अब मिलने लगी है. विज्ञापनों की भाषा में ‘व्हाई शुड बोइज़ हैव आल द फ़न’ का शुमार होना और फिल्मों के बाज़ार में ‘एन एच-10’, ‘क्वीन’ आदि फिल्मों की ज़रुरत महसूस होना इस लिहाज से सकारात्मक सन्देश है. सोशियल मीडिया पर भी इस तरह के सन्देश वाली कई वीडियो सीरीज़ ( मसलन कल्की  कोच्लिन अभीनीत अनब्लश्ड या यश राज की मैन्स वर्ल्ड वेब सीरीज़)  शेयर की गई और सराही भी गई. पिंक को इसी कड़ी में अगले सकारात्मक प्रयास के रूप में देखा जा सकता है.
आमतौर पर जब महिलाओं पर पुरुषों द्वारा की जाने वाली ‘ज़्यादती’ की बात समाज या मीडिया के बीच होती है तो उसे एक ख़ास तरह का ‘सेंसेशन’ बनाकर पेश किया जाता है. इसी सेन्सेश्नलिज्म के चलते असल मुद्दे पर बात ही नहीं हो पाती.  ‘पिंक’ फिल्म की सबसे अच्छी बात यही है कि ‘उस दिन क्या हुआ’ ये फिल्म का सबसे गैर-ज़रूरी हिस्सा है और फिल्म उसे एकदम आखिर में एंड क्रेडिट के साथ बतौर एक छोटी सी क्लिप पेश करती है. जबकी जो हुआ उसके इर्द-गिर्द खड़े होने वाला डिस्कोर्स फिल्म के लिए ज़्यादा महत्वपूर्ण है. फिल्म एक लड़की के साथ हुई ‘ज्यादती’ के सेंसेशन को भुनाने के बजाये उस ‘ज़्यादती’ की वजह पर ज़्यादा ध्यान देती है. यानी बीमारी की जगह, उपचार को ज़्यादा अहमियत के साथ पेश करती है.
लड़कियों की सुरक्षा के लिए बने कानून किस तरह पुलिस की कार्यप्रणाली के सामने एकदम अपाहिज बन जाते हैं फिल्म इसकी पोल-पट्टी खोलकर रख देती है. हमारे समाज में लड़कियों के लिए होने वाली ‘मॉरल पुलिसिंग’ किस तरह से उन्हें एक झटके में कटघरे में खड़ा देती है फिल्म इस पर भी बात करती है. शराब पीने, कपड़े पहनने, देर से घर आने, पार्टी करने और नए दोस्त बनाने को लेकर लड़के और लड़कियों के लिए समाज के दोहरे रवैय्ये का भी फिल्म पर्दाफ़ाश करती है. वो चाहे ‘नॉर्थ ईस्ट’ की लड़कियों के साथ जुड़े टैबू हों या हंस-बोल कर बात कर लेने में न झिझकने वाली (माने बोल्ड) लड़कियों के बारे में औसत रवैय्ये की, फिल्म कई स्तरों पर बहस को ले जाती है.
फिल्म महिलाओं की ‘चॉइस’ के सवाल को सबसे प्रभावशाली तरीके से एक सामाजिक बहस का हिस्सा बनाती है. ‘नो मतलब नो’. दीपक सहगल (अमिताभ बच्चन) की दलील के आख़री हिस्से में आया ये वाक्य पूरी फ़िल्म में दिए गए तर्कों और दलीलों को एकदम प्रभावशाली तरीके से समेटकर एक जगह ले आता है. ‘नो’ बस एक शब्द नहीं बल्कि एक पूरा का पूरा वाक्य है’. इस छोटी सी बात को दर्शकों के ज़हन में रचाने-बसाने की क़वायद फिल्म का असल मकसद था और कहा जा सकता है कि इस मकसद को पूरा करने में अदाकारी, निर्देशन और ख़ासकर संवाद काफी हद तक सफ़ल साबित होते हैं.
मीनल, फलक और एंड्रिया के डर दिल्ली में स्वतंत्र रूप से रह रही कमोवेश हर कामकाजी लड़की के डर हैं. लेकिन क्या फिल्म में मौजूद तीनों लड़कों के दंभ दिल्ली के कमोवेश हर लड़के का प्रतिनिधित्व करते हैं ? यदि ऐसा है तो ये बहुत चिंता की बात है. राजवीर के दोस्त का कहना कि ‘बहुत चुल है यार इसे, इसे बजाने में मज़ा आएगा’ क्या फिल्म देखने वाले लड़के को वीर रस से भरता है या उसपर उसे शर्म आती है ? खुद राजवीर का कठघरे में कहना कि ‘ऐसी लड़कियों के साथ यही होना चाहिए. ऐसी लडकियां ……… होती हैं.” फिल्म देख रहे कितने लड़के इस बात से इत्तफ़ाक रखते हैं. इन सवालों के जवाब से हमारे समाज की सामंती सोच का आंकलन किया जा सकता है. और निसंदेह ये संख्या कम नहीं है. शायद इसलिए ‘पिंक’ बनाने की सोच को जन्म लेना होता है.
अमिताभ बच्चन कुछ हिस्सों जबरदस्त प्रभाव छोड़ते हैं. पीयूष मिश्रा कुछ नया नहीं करते पर बुरे भी नहीं लगते. राजबीर सिंह के रूप में ( अंगद बेदी) और उसके दोस्त अंकित मल्होत्रा के रूप में विजय वर्मा  इतने प्रभावशाली हैं कि आप उनसे नफरत करने लगते हैं. तापसी पन्नू, कीर्ति कुल्हारी और एंड्रिया तीनों ही अपने-अपने स्तर पर दिल्ली की एक आम कामकाजी लड़की की मनःस्थिति में दर्शकों को झाँकने का अच्छा मौक़ा देती हैं.

पिंक थोड़ा ‘प्रीची’ ज़रूर है. पर कभी-कभी केवल ‘अंडरटोन’ से काम नहीं चलता. कुछ बातें होती हैं जो दो-टूक , साफ़-साफ़ कहनी पड़ती हैं. जब समाज का एक बड़ा हिस्सा ग़लत ‘हिंट’ लेने लगता है तो उसे केवल ‘हिंट’ देने से काम नहीं चलता. इसलिए पिंक में एकदम बोल्ड और साफ़-साफ़ शब्दों में ‘नो मतलब नो’ का सन्देश दिया जाना सही समय पर एक ज़रूरी हस्तक्षेप की तरह लगता है.

एक प्रजाजन की ख़ामोश विदाई...

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जन इतिहासकार डॉ. राम सिंह को श्रद्धांजलि


डॉ. राम सिंह से मेरा परिचय उनके बड़े बेटे भरत (स्व. भारत बंधु) के मार्फ़त हुआ था. हाईस्कूल के आगे की पढ़ाई के लिए मैं 1978 में पिथौरागढ़ पहुंचा था और हमारा परिवार उनके करीब ही रहने लगा. यह संयोग ही था कि एक जैसी रुचियों के कारण हम दोनों के पिताओं की भी अच्छी छनने लगी. हमारे घर के बगल से गुजरने वाली सड़क पर कॉलेज से आते-जाते डॉ. राम सिंह लगभग रोज दिखाई पड़ते थे. वह अकसर खादी का कुर्ता और सफ़ेद धोती पहनते थे. होठों को ढके रहने वाली अधपकी मूंछें उनके चेहरे को और भी ज्यादा गंभीर बना देती थीं. जब उन्हें मैंने पहली बार देखा तो वे मुझे मुंशी प्रेमचंद जैसे लगे थे. वे हमारी किशोरावस्था के दिन थे, जब बेटे अपने पिताओं से थोड़ा दूरी बनाकर चलना पसंद करते हैं. तब मुझे कहाँ पता था कि इस गंभीर मुखमुद्रा के पीछे एक कोमल हृदय नटखट बच्चा भी रहता है.
      उन दिनों डॉ. राम सिंह स्थानीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय में हिंदी के प्राध्यापक थे. मेरी बड़ी दीदी उनकी विद्यार्थी थीं और उनके बारे में बताया करती थीं. उनकी कर्मठता के क़िस्से मशहूर थे. आस-पास के लोग कहते थे कि डॉ. राम सिंह ने अपना दो-मंजिला घर खुद अपने हाथों से बनाया है. पता नहीं इस क़िस्से में कितनी सच्चाई थी, मगर जब भी वह घर पर होते तो कठोर श्रम करते हुए उन्हें देखा जा सकता था. शहर में उनका लोहे का एक कारखाना था, जहां अलमारियां, बक्से, गेट, ग्रिल वगैरह बनते थे. कॉलेज के बाद वह सीधे अपने कारखाने पहुंचते और वहां का कामकाज देखते थे.
      तब मैं विज्ञान का सामान्य विद्यार्थी था. साहित्य व इतिहास की ओर झुकाव पैदा होना अभी बाकी था. इसलिए डॉ. राम सिंह के व्यक्तित्व के अकादमिक व बौद्धिक आयामों तक दृष्टि नहीं पहुंचती थी. अलबत्ता हम बच्चों के बीच इस बात की चर्चा ज़रूर होती थी कि वह नास्तिक हैं और ईश्वर को नहीं मानते हैं. प्रगतिशील आन्दोलनों से अछूते दूर-दराज इलाके में रहने वाले हमारी उम्र के बच्चों के लिए तब नास्तिकता के मायने और महत्त्व को समझ पाना आसान न था. हमारे लिए यह घोर आश्चर्य की बात थी कि ईश्वर की सत्ता को कोई भला कैसे नकार सकता है!
      यह बात बहुत देर से समझ में आई कि डॉ. राम सिंह की नास्तिकता प्रायोजित या चालू फैशन के हिसाब से दिखावे के लिए नहीं थी. मैंने उन्हें किसी की आस्था का मज़ाक उड़ाते हुए कभी नहीं देखा और न ही वह अपनी मान्यताओं का प्रचार करते थे. यह उनका निजी मामला था और वह इसे बड़ी सहजता से जीते व इसकी क़ीमत भी चुकाते थे. उनके बड़े बेटे और होनहार छोटी बेटी की सड़क दुर्घटनाओं में हुई असामयिक मृत्यु के बाद कुछ लोगों ने दबी जुबान में उनकी अनास्था को इसकी वजह बताया. कुछ लोगों ने इसे ईष्ट देवताओं की नाराजगी का परिणाम भी घोषित कर किया. एक पिता के लिए इससे कठिन समय और क्या हो सकता है! लेकिन वह अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता से कभी नहीं डिगे.
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डॉ. राम सिंह से मेरा व्यक्तिगत संसर्ग 1992 में उनके बड़े पुत्र भरत के देहांत के बाद शुरू हुआ. इस दौर में मुझे इतिहास सम्बन्धी उनके काम को समझने और उस पर चर्चा करने का भी मौका मिला. यद्यपि वह हिंदी के प्राध्यापक थे लेकिन इतिहास और पुरातत्व में उनकी गहरी दिलचस्पी थी. पुरातात्विक साक्ष्यों को सहेजने के कौशल में भी वह प्रवीण थे. कुमाऊं की पुरातात्विक धरोहरों के कई दुर्लभ प्रमाण मूल अथवा प्रतिकृति के रूप में उनके निजी संग्रह में मौजूद थे. बड़े जतन से उन्होंने न जाने कितने ताम्रपत्रों और शिलालेखों की नक़लें तैयार कीं और उनका अनुवाद किया. यह संग्रह उनके उम्र भर के परिश्रम का परिणाम था. शिलालेखों और ताम्रपत्रों की नक़लें दिखाते वक्त वह यह बताना नहीं भूलते थे कि कैसे उन्हें तैयार किया जाता है.
      स्थानीय इतिहास के साक्ष्यों के विश्लेषण की जैसी समझ डॉ. राम सिंह को थी, वैसी उनके समकालीन अन्य स्थानीय इतिहासकारों में कम ही दिखाई देती है. तथ्यों और मिथकों की उलझी हुई ऊन में से इतिहास के तर्कसम्मत रेशों को खींच निकालने का गज़ब का हुनर उनमें था. राग-भागों, पारंपरिक आख्यानों, वीर गाथाओं व जागरों के घने मिथकीय कुहासे के बीच वह वास्तविक इतिहास की धुंधली पगडंडियों को खोज निकालते थे. 'पहाड़'प्रकाशन द्वारा प्रकाशित उनकी चर्चित पुस्तक- 'राग-भाग काली कुमाऊँ'- में प्राचीन बाणासुर के किले के बारे में उनका यह विश्लेषण गौरतलब है:
"... 'कोट का पय्या'के आधार की प्राकृतिक संरचना ही ऐसी है कि उसे दुर्ग के रूप में विकसित करने का विचार इस उपत्यका में पहले-पहल बसने वाले महत्वाकांक्षी लोगों के मन में यहां प्रविष्ट होने के साथ ही आ गया होगा. इस प्रकार यह उतना ही प्राचीन हो सकता है, जितना इस उपत्यका की उपजाऊ द्रोणी में बसने वालों की बस्तियां. फलतः इनके साथ स्थानीय राग-भाग, पौराणिक कल्पनाओं और इतिहास का अद्भुत सम्मिश्रण हो गया है. कुछ पुरातन को गौरवान्वित करने की इच्छा से प्रेरित पढ़े-लिखे लोग इसे बाणासुर का किला कहने लगे हैं. प्रत्येक स्थान को किसी न किसी पुराण कथा से जोड़कर स्थानीय मूल स्वरूप व इतिहास को मिटा देने की प्रवृत्ति ने इसको बाणासुर का किला घोषित कर दिया है....."
      'राग-भाग काली कुमाऊँ'उनकी वर्षों की मेहनत का परिणाम थी. काली कुमाऊँ (वर्तमान जिला चम्पावत) के गांव-गांव पैदल घूमकर वह वहां के बुजुर्गों से उनकी 'राग-भाग'पूछते और मौखिक परंपरा में मौज़ूद सदियों पुराने क़िस्सों को डायरी में नोट करते रहते थे. यह काम उन्होंने 1966 में शुरू किया था, जिसे आखिरकार सदी के अंत में जाकर पुस्तक का आकार दिया. इस काम के साथ-साथ वह लगातार ऐतिहासिक व पुरातात्विक दस्तावेजों को भी इकठ्ठा करते रहे. देखा जाय तो फोकलोर से जन इतिहास बीनने वाले डॉ. राम सिंह अपनी तरह के अनोखे सबाल्टर्न इतिहासकार थे.
      ऐसा वह इसलिए कर पाए क्योंकि एक इतिहासकार से संस्कृति के प्रति जिस किस्म की अकादमिक तटस्थता की अपेक्षा की जाती है, वह उनमें कूट-कूट कर भरी थी. आचरण में खांटी पहाड़ी शख्सियत होने के बावजूद डॉ. राम सिंह संकीर्ण क्षेत्रीयतावाद से सर्वथा अछूते रहे. पहाड़ की संस्कृति, लोक और परम्पराओं के क्षरण का अनवरत रोना रोने वाले भावुक बुद्धिजीवियों की उत्तराखंड में कमी नहीं है. लेकिन इन बातों को लेकर डॉ. राम सिंह जैसी समझ कम ही लोगों में होगी. सांस्कृतिक बदलावों पर मैंने कभी भी उन्हें छाती पीटते नहीं देखा. वह मानते थे कि भौतिक जीवन में होने वाले बदलावों के बरक्स संस्कृति स्वाभाविक रूप से बदल जाती है. पिछले दो-तीन दशकों के दौरान हुए वैश्विक बदलावों ने हमारे दूर-दराज के गांवों को भी अपने आगोश में लिया है. हमारी आजीविका और रहन-सहन के तौर-तरीके बदल गए हैं. टेक्नोलॉजी ग्रामीण जीवन के अब तक अछूते हिस्सों तक पहुँच गयी है. ऐसे में भाषा-बोली और परम्पराओं का बदलना लाजमी है. डॉ. राम सिंह इतिहासकार के रूप में इन बातों को गहराई से समझते थे.
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छात्र जीवन में हम उनके बाहरी व्यक्तित्व को देखकर थोड़ा सहम जाते थे. धोती-कुर्ते में सजी लम्बी छरहरी शालीन काया और होंठों को ढकती हुई गहरी मूंछें. लेकिन तब हमें पता नहीं था कि इस गंभीर आवरण के पीछे एक बेहद मज़ाकपसंद किस्सागो छुपा बैठा है. उनकी स्पष्टवादिता और बातें करने का ठेठ सोर्याली अंदाज़ गज़ब का था. पत्र-पत्रिकाओं के लिए भी वह यदाकदा लिखते थे. लेकिन ये लेख डॉ. राम सिंह के बजाय 'राम जनम परजा'के नाम से छपते थे. एक दिन मैंने उनसे इस तरह छद्म नाम से लिखने की वजह पूछी. उनके आमोदपूर्ण जवाब ने स्थानीय इतिहास को देखने की मेरी दृष्टि ही बदल डाली. वह कहते थे- राम उनका नाम है और यहां के अन्य पढ़े-लिखे लोगों की तरह वह राजवंशी नहीं है बल्कि जन्म-जन्मातरों से 'प्रजा'हैं. यानी उनके पिता और तमाम पूर्वज भी प्रजाजन ही थे. इसलिए वह राम जनम परजा के नाम से लिखते हैं.
      उत्तराखंड के अधिकतर भद्रजन उनका मूल स्थान/पुरुष के बारे में पूछे जाने पर बड़े गर्व से बताते हैं कि उनका सम्बन्ध फलां राजा या राज पुरोहित के खानदान से है. मसलन पंडितजी कहेंगे कि वे फलां राजपुरोहितों के वंशज हैं और उनके पुरखे मुग़लों की प्रताड़ना से बचने के लिए पूर्वी उत्तर प्रदेशमहाराष्ट्रगुजरात, बंगाल या राजस्थान से यहां आकर बसे थे. इसी तरह ठाकुर साहबान भी महाराणा प्रताप या किसी और राजपुरुष से अपना सम्बन्ध जोड़ने में देर नहीं लगाते. पहाड़ से पलायन कर गए श्रेष्ठियों का मन तो ऐसी बातों में और भी रमता है. ऊंची शिक्षा और अच्छी पोजीशन वाले उत्तराखंडी इन बातों पर खूब तवज्जो देते हैं. घर का जोगी जोगड़ा, आन गांव का सिद्ध, यानी बाहर से आने वाला श्रेष्ठ ही होता है, यह धारणा हमें अग्रेजों से मिली. इस तर्क के सहारे वे अपनी जातिगत श्रेष्ठता और शासन का औचित्य सिद्ध करते थे. औपनिवेशिक शासन-प्रशासन का हिस्सा बनने वाले पहली पीढ़ी के स्थानीय समुदायों को भी यह तर्क खूब जंचा. उन्होंने खुद को आप्रवासी (और इसलिए श्रेष्ठ) और अपने कमजोर व गरीब सहोदरों को कमतर श्रेणी का स्थानीय बताना शुरू किया. धीरे-धीरे इस धारणा को इतिहास बताकर पेश किया जाने लगा. कालांतर में स्वघोषित इतिहासकारों ने योजनाबद्ध ढंग से इस धारणा को आगे बढ़ाया और अब यह इतनी रूढ़ हो चली है कि आम पर्वतवासी इसे अपनी ऐतिहासिक विरासत मानते हैं.
      डॉ. राम सिंह प्रभुत्वशाली जातियों के 'बाहरी'होने की अवधारणा को पूरी तरह अतार्कित और अविश्वसनीय मानते थे. उनके मुताबिक़ ऐसा कोई भी ऐतिहासिक साक्ष्य (प्राचीन शिलालेखदानपात्रताम्रपत्रबही आदि) उपलब्ध नहीं है जो अतीत के किसी ख़ास कालखंड में बाहरी समुदायों (पड़ोसी नेपाल को छोड़कर) के यहां आ बसने की पुष्टि करता हो. उनका कहना था, अगर ऐसा होता तो खुद को बाहरी बताने वाली कथित ऊंची जातियों के लोग कमतर समझे जाने वाले स्थानीय खस समुदायों के रीति-रिवाजोंपूजा पद्धतियों और भाषा बोली को कतई नहीं अपनाते. यदि वे शासक थे तो उनके सामने पिछड़ी स्थानीय संस्कृति को अपनाने की कोई मजबूरी भी नहीं थी. वे अपनी कथित श्रेष्ठ संस्कृति को बचाए रख सकते थे. आखिर क्यों उन्होंने उन जातियों की भाषा-बोली को अपनाया और उनके अवैदिक देवी-देवताओं और भूत-प्रेतों को अपना आराध्य मानना शुरू किया, जिन्हें वे आज भी हीन मानते हैं? मुग़ल प्रताड़ना (ख़ास तौर पर औरंगजेब कालीन जबरिया धर्मांतरण) से पहाड़ों पर आकर बसने की बात तो और भी हास्यास्पद है. ऐसा होता तो वास्तव में ज्यादा प्रताड़ना झेलने वाले राजधानी दिल्ली के नज़दीकी इलाकों- जैसे पश्चिमी उत्तर प्रदेश, रुहेलखंड, रामपुर, मुरादाबाद आदि से आकर लोग यहां बसते! लेकिन कोई भी इन इलाकों को अपने पूर्वजों की मातृभूमि नहीं बताता है बल्कि गैर-मुग़ल शासित दूर-दराज राज्यों का मूलवासी होने का दावा किया जाता है.
      उत्तराखण्ड का अतीत हमेशा से पिछड़ा नहीं रहा. खास तौर पर कत्यूरी काल स्थापत्य और अन्य विधाओं में अपेक्षाकृत उन्नत प्रतीत होता है. लगभग इसी दौर तक हिमालयवासी धातुशोधन सीख चुके थे. प्रख्यात पुरातत्वविद प्रो. डी.पी. अग्रवाल के अनुसार इस काल में गंगा-यमुना के मैदानी राज्यों को लोहा और तांबा हिमालयी इलाकों से ही भेजा जाता था. पहाड़ के लोग दूसरी शताब्दी से जलशक्ति का यांत्रिक इस्तेमाल करने लगे थे. आज घराट (पनचक्की) हमें तकनीकी दृष्टि से जरूर मामूली लग सकता हैलेकिन दूसरी शताब्दी के हिसाब से इसे एक बड़ी तकनीकी उपलब्धि कहा जाएगा. कत्यूरी काल के मंदिर स्थापत्य के लिहाज से परवर्ती चंदकाल से कहीं ज्यादा उन्नत हैं. यह दौर शानदार काष्ठकला का भी रहा है. यदि कथित सभी श्रेष्ठ जातियां चन्द सदियों पहले बाहर से आकर बसीं तो ज्ञान-विज्ञान की इस समृद्ध विरासत के असली वारिस कौन हैं?
      डॉ. राम सिंह यह भी मानते थे कि उत्तराखंड में ब्राह्मणवादी वर्ण व्यवस्था ने अपेक्षाकृत बाद में पैठ बनाई. वह इसे शंकराचार्य के आगमन से जोड़ते थे. उनकी दलील थी कि यहां की सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराओं पर जमी वर्ण व्यवस्था की धूल को अगर झाड़-पोंछ दिया जाय तो भाईचारे पर आधारित पुरातन आदिवासी संस्कृति को बड़ी आसानी से पहचाना जा सकता है. अगर ऐसा न होता तो दलितों को देवताओं के आवाहन की जिम्मेदारी कैसे मिलती? जागर गायक के रूप में वास्तव में वे आज भी पुजारी की भूमिका ही तो निभाते हैं. सनातन ब्राह्मण संस्कृति में क्या इसकी कल्पना भी की जा सकती है?
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डॉ. राम सिंह ने इतिहास के नाम पर फैलाई जाने वाली वैमनस्यपूर्ण भ्रांतियों के निवारण का भी प्रयास किया. कुमाऊं में मनाये जाने वाले 'खतडुआ'त्योहार के बारे में व्यापक रूप से प्रचलित है कि यह गढ़वाल के राजा पर कुमाऊं के राजा की विजय के प्रतीक के रूप में मनाया जाता है. डॉ. राम सिंह कहते थे कि पहले तो गढ़वाल की राज वंशावली में खतड़ सिंह नाम का कोई राजा नहीं हुआ. दूसरे, गढ़वाल के राजवंश के साथ कुमाऊं के राजवंश के सम्बन्ध पूरी तरह शत्रुवत कभी नहीं थे बल्कि उतार-चढ़ाव भरे थे. कभी दोस्ती तो कभी प्यार और कभी रिश्तेदारी भी. लगभग ऐसे ही सम्बन्ध कुमाऊं और डोटी (पश्चिमी नेपाल) के बीच भी थे. गौरतलब है कि खतडुआ कुमाऊं में ही नहीं पश्चिमी नेपाल में भी मनाया जाता है, जिनका गढ़वाल के राजा की हार-जीत से कोई नाता नहीं. डॉ. राम सिंह के मुताबिक़ खतडुआ शुद्ध खेतिहर त्योहार है, जिसके साथ औपनिवेशिक काल में किसी कथित इतिहासकार ने हार-जीत की यह कथा जोड़ दी.
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डॉ. राम सिंह का जन्म माता श्रीमती पार्वती देवी और पिता श्री मोहन सिंह के घर पिथौरागढ़ के निकट कफलानी (गैना) गांव में 17 जुलाई 1937 को हुआ था. उनकी स्कूली शिक्षा पिथौरागढ़ के विद्यालयों में पूरी हुई. आगे की पढ़ाई के लिए वह लखनऊ विश्वविद्यालय चले आये. हिंदी में एम.ए. करने के बाद उन्होंने पीएच.डी. में प्रवेश लिया. उनका शोध प्रबंध कुमाऊं की कृषि एवं ग्रामोद्योग शब्दावली के भाषाशास्त्रीय अध्ययन पर केन्द्रित था. शिया डिग्री कॉलेज लखनऊ से एक शिक्षक के रूप में उन्होंने अपना पेशेवर जीवन शुरू किया. बाद में विभिन्न राजकीय विद्यालयों में प्रवक्ता, रीडर व विभागाध्यक्ष रहने के बाद वह 1997 में प्राचार्य पद से सेवानिवृत्त हुए. उत्तराखंड के मशहूर खोजी पं. नैनसिंह की यात्राओं पर डॉ. राम सिंह ने "पं. नैन सिंह का यात्रा साहित्य"नामक पुस्तक लिखी. अनेक ऐतिहासिक व पुरातात्विक अध्ययनों के अलावा उन्होंने जागरों का संग्रह 'भारत गाथा'भी तैयार किया, जो अब तक अप्रकाशित है.
      अपने अंतिम वर्षों में अल्जाइमर्स की बीमारी के कारण डॉ. राम सिंह की याददाश्त कमजोर हो गयी थी. जीवन पर्यंत वह बड़े जतन से उत्तराखंड के ऐतिहासिक साक्ष्यों का संग्रह व संरक्षण करते रहे. पिछले दो-तीन दशकों में उत्तराखंड विकास की जिस राह पर आगे बढ़ा है, उसमें इन साक्ष्यों के बड़े स्तर पर मटियामेट होने का सिलसिला शुरू हुआ. इस लिहाज से डॉ. राम सिंह का काम बड़े महत्त्व का है. उन्होंने न सिर्फ ऐतिहासिक साक्ष्यों को संजोया बल्कि एक इतिहास दृष्टि भी हमें दी. वे एक कर्मयोगी की तरह चुपचाप अपना काम करते रहे मगर अपने काम का ढोल नहीं पीटा. अपने कर्म एवं विचारों से वह पूरी तरह बौद्धिक श्रमिक थे. वह सचमुच प्रजाजन थे और सत्ता संरचनाओं से हमेशा दूरी बनाकर रखते थे. उनकी बौद्धिकता भी इसीलिए सहज, श्रमसाध्य और आतंकविहीन थी. एक समाज के बतौर अपने कर्मवीरों को याद रखने व उन्हें यथोचित सम्मान देने के मामले में हमारा रिकॉर्ड ख़ास अच्छा नहीं है. डॉ. डी.डी. पन्त जैसे वैज्ञानिक और शेर सिंह बिष्ट 'अनपढ़'जैसे लोक कवि इस उपेक्षा के ज्वलंत उदाहरण हैं. डॉ. राम सिंह भी इस दुर्लभ मणि शृंखला की एक और कड़ी हैं.
            डॉ. राम सिंह शारीरिक श्रम को सर्वोपरि मानने वाले जाति-भेदविहीन और समतावादी राज्य के हिमायती थे. वह कहते थे कि अतीत में इन्हीं मूल्यों के आधार पर हिमालय के कठिन भूगोल में हमारे पुरखों का बसना संभव हो पाया था. आज जब हम इन मूल्यों को नज़रअंदाज़ करने का खामियाजा भुगत रहे हैं, डॉ. राम सिंह और उनका इतिहास बोध अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करते नज़र आते हैं.
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