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‘मैं हूं या मैं नहीं हूं’ के सवाल से जूझता ‘हैदर’

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-उमेश पंत

हैदर कश्मीर के भूगोल को अपनी अस्मिता का सवाल बनाने की जगह कश्मीरियों के मनोविज्ञान को अपने कथानक के केन्द्र में खड़ा करती है और इसलिये उसकी यही संवेदनशीलता उसे बाकी फिल्मों से अलग पंक्ति में खड़ा कर देती है। हैदर इन्तकाम के लिये इन्तकाम को नकारती एक फिल्म है। हैदर की सबसे खूबसूरत बात ये है कि उसमें मौजूद हिंसा भी, हिंसा के खिलाफ खड़ी दिखाई देती है।

+मैंजिन दिनों मुम्बई में रह रहा था मेरा एक रुम मेट कश्मीरी था। उसके पापा एक आईएएस ऑफिसर हैं। उन दिनों उसकी मां मुम्बई आई हुई थी। वो अक्सर खामोश रहती। मैं  देर रात भर अपने कमरे में बैठा लिख रहा होता और वो चुपचाप किचन में बरतनों से जूझती रहती। कुछ देर बाद पूरे कमरे में खुशबू फैल जाया करती। उस खुशबू में कश्मीर बसा होता। खाना तैयार होने के बाद वो मुझे अपने कमरे में बुलाती और प्यार से मेरे मना करने के बावजूद मेरे लिये खाना परोस देती। एक दिन जब वो लड़का घर पे नहीं था मैं आंटी के पास बैठा उनसे कश्मीर के बारे में पूछ रहा था। आंटी कितनी खूबसूरत जगह में रहते हो आप। मेरे ये कहने पर वो कुछ देर चुप रही और फिर कश्मीर के हालात बयां करते हुए वो एकदम रुंआसी हो गई। बेटा 6 महीने कश्मीर रहने के बाद सबकुछ छोड़कर जम्मू आकर रहना पड़ता है। इतना डर डर के जीते हैं, कब क्या हो जाये कुछ पता नहीं। हर दसरे दिन कर्फ्यू। बच्चों को घर से बाहर भेजने में डर लगता है। ऐसे में कुछ खूबसूरत नहीं लगता। उन्होंने अपने कश्मीरी लहज़े में जो कहा था उसका सार यही था। बाद में पता चला कि वो पिछले कुछ सालों से डिप्रेशन की गोलियां ले रही थी और मेरे उस कश्मीरी रुममेट ने बताया कि डिप्रेशन कश्मीर में खासकर महिलाओं में एक आम समस्या है।

कल हैदर देखते हुए हैदर की मां की आंखों में भी वही डर साफ दिखाई दिया था। अपनी ही धरती से कौन कब किसकी जिन्दगी से कैसे गायब कर दिया जाएगा, जो लोग ताजि़न्दगी इस डर के साये में जी रहे होंगे… जब हमें उनकी जि़न्दगी की कल्पना से भी डर लगने लगता है तो उनके डर की कल्पना तो हम कर भी नहीं सकते। और अक्सर कश्मीर की पृष्ठभूमि पर बनी हमारी मुख्यधारा की फिल्मों को वो डर यथार्थ का हिस्सा ही नहीं लगता और उनकी कल्पनाएं उस डर तक कभी पहुंच ही नहीं पाती।

हैदर उन विरली फिल्मों में से एक है जो उस डर का भी पक्ष सामने रखती है जिसे अक्सर राष्ट्रभक्ति की दीवार खड़ी करके सिनेमाई परदों के हासिये पर डाल दिया जाता है। जिस पर अन्ततः राष्ट्रभक्ति का चश्मा हावी हो जाता है जिसका हासिल कश्मीर मांगोगे तो चीर देंगे से आगे कुछ नहीं होता।

हैदर कश्मीर के भूगोल को अपनी अस्मिता का सवाल बनाने की जगह कश्मीरियों के मनोविज्ञान को अपने कथानक के केन्द्र में खड़ा करती है और इसलिये उसकी यही संवेदनशीलता उसे बाकी फिल्मों से अलग पंक्ति में खड़ा कर देती है। हैदर इन्तकाम के लिये इन्तकाम को नकारती एक फिल्म है। हैदर की सबसे खूबसूरत बात ये है कि उसमें मौजूद हिंसा भी, हिंसा के खिलाफ खड़ी दिखाई देती है।

लालचौक पर खड़ा हैदर गरदन पर रेडियो टांगे जब इस पार और उस पार की आज़ादी के नारे बुलंद कर रहा होता है तो उसे घेरकर खड़ी भीड़ में मुझे अपने उस कश्मीरी रुममेट की मां का चेहरा भी किसी एक कोने में खड़ा नज़र आता है।

हैदर की मां गजाला दरअसल हालातों में पिसने की जगह हालातों से समझौता कर लेती एक औरत है। वो अपने डाॅक्टर पति डा हिलाल मीर के साथ रहते हुए  सुरक्षा के अभाव को अपने लिये अपने देवर खुर्रम (के के मेनन) के आकर्षण से कहीं संतुलित कर लेने की कोशिश करती है। लेकिन जब उस देवर को अपने ही बेटे को खत्म कर देने का प्रण लेते देखती है तो जैसे उस संतुलन की ज़मीन खिसक जाती है। वो एक मां के रुप में अन्दर तक हिल जाती है। उसी के शब्दों में एक मां के लिये उसके बेटे को खो देने से बड़ा दुख और कुछ नहीं हो सकता। ‘आधी विधवाओं’ के दर्द को ही नहीं बल्कि उनके मनोविज्ञान की गहराइयों को, उनकी असुरक्षा को, अपनी सन्तानों और परिवारों के लिये उनके भय को, और प्यार और आकर्षण जैसे सहज मानवीय व्यवहारों को प्रतीकों की ढ़ाल में बयां कर देता है गज़ाला का ये किरदार।

हैदर के रुप में शाहिद कपूर करिश्माई हैं। उन्होंने अपने किरदार में एक एक इंटलेक्चुअल कवि, एक नटखट प्रेमी, अपने गायब कर दिये गये बाप की तलाश में भटकते एक फितूरी बेटे, अपनी मां और चाचा के बीच पनपते रिश्ते से खफा एक सन्तान और एक विद्रोही सभी भूमिकाओं में ऐसा सन्तुलन बनाया है कि वे हैदर के रुप यादगार हो जाते हैं।  खासकर मंच पर जब वो बुलबुल-ए-बिस्मिल का नाटकीय मंचन कर रहे होते हैं तो उनके अभिनय की पराकाष्ठा देखने को मिल जाती है। लाल चौक पे हज़ारों कश्मीरियों को चुत्स्पा का मतलब समझाते हुए और अपनी आज़ादी की गुहार लगाते हुए वो बेहतरीन अभिनय करते हैं।

बर्फ की सफेद दुनिया के बीच से रुहदार के किरदार में इरफान खान का पहला अपेयरेंस ही इतना दमदार है कि वो पहली ही नज़र में अपना प्रभाव छोड़ देते हैं। उनकी उपस्थिति भर से फिल्म एक अलग स्तर पर पहुंच जाती है। श्रद्धा कपूर भी अशिर्या के किरदार में बहुत भोली लगती हैं।

‘हैदर’ का हर एक किरदार तो मर्मस्पर्शी प्रतीक गढ़ता ही है पर कई बार ये भी होता है कि कश्मीर के भूगोल के हिस्से भी फिल्म में प्रभावशाली किरदारों की शक्ल अख्तियार कर लेते हैं। वो किनारा ढूंढ़ती झेलम हो या अपनी आज़ादी मांगते कश्मीरियों से घिरा लालचौक। डाउनटाउन के पुल के दूसरी ओर हथियार बंद लोगों से घिरी तंग गलियां हो या फिर वो कब्रें जिनमें दफ्न लोगों की पहचान उनपर लिखे अंकों से होती है। वो बर्फीली ज़मीन भी जहां तीन बुजुर्ग अपने लिये कब्रें खोद रहे हैं। और सबसे प्रभावशाली वो घर जिसे वक्त के एक हिस्से में तोप से उड़ा दिया जाता है और जहां अब यादों के जले हुए हिस्से अपनी पूरी टूटन के साथ बिखरे हुए हैं। फिल्म में मौजूद भूगोल के ये हिस्से तब भी लगातार कहानी को आगे बढ़ाते रहते हैं जब फिल्म में किरदार बोल नहीं रहे होते। इनके मूक संवाद फिल्म देखने के कई देर बाद तक भी ज़हन के कोंनों में कुछ कुछ बोलते रहते हैं।

जब हम ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ कहकर कश्मीर के लोगों की राय जानने को राष्ट्रदोह के नज़रिये से देखने लगते हैं तो हमारी चेतना उन बर्फीली कब्रों में दफन हो गई सी लगती है जिन्हें कश्मीर की आवाम खुद अपने लिये खोदने को मजबूर है। विशाल भारद्वाज अपनी इस फिल्म में उस चेतना को कई बार पटकनें देते हैं। सशस्त्र सेना विशेषाधिकार अधिनियम जैसे अमानवीय कानून को चुत्स्पा के जुमले में लपेटकर उसकी भद्द पीटते हुए या फिर फिल्म के को-राइटर बशरत पीर द्वारा निभाये गये उस किरदार के रुप में जो अपने घर में इसलिये नहीं घुस रहा क्योंकि उसकी तलाशी नहीं ली गई, या फिर उन तीन बजुर्गाें के किरदारों के रुप में जो अपने लिये खुद कब्र खोद रहे हैं क्योंकि वो जानते हैं कि आज नही तो कल उनका यही हश्र होना है, फिल्म इन प्रतीकों के रूप में तीखे तंज़ भी कसती है जो सीधे दिल पर असर करते हैं।

फिल्म कुछ हिस्सों में ज़बरदस्ती खिंचती भी मालूम होती है। अर्शिया का सदमा, सलमान और उसके भाई के किरदार से फिल्म में हास्य उकेरने की कोशिश और आंखिर में गज़ाला का आत्मघाती हो जाना, फिल्म में ज़बरदस्ती का मैलोड्रामा डालने की कोशिश लगता है और उसके स्तर पर कुछ नकारात्मक सा असर डालता है।

फिल्म जब पूरी हो जाती है तो उसके कई दृश्य दिमाग में रह जाते हैं लेकिन ये बात भी उतनी ही सच है कि कोई एक स्पष्ठ संदेश तुरंत याद नहीं आता। हैदर के पिता का हैदर के लिये संदेश फिल्म में लगभग तीन बार दोहराया गया है। जिसमें वो कहते हैं कि मेरा इन्तकाम लेना। और गज़ाला का फैसला ऊपर वाले पर छोड़ देने की बात भी एक बार की गई है। तो ऊपर वाला गज़ाला के लिये इस तरह का फैसला क्यों लेता है ये बात गले नहीं उतरती। खुर्रम के दोनों पैर आंखिर में कटे हुए हैं वो मौत के एकदम करीब है ऐसे में उसे उसके हाल पे छोड़ देना उसने मर जाने से भी कठिन यातना देने की तरह है। ये तो इन्तकाम का चरम है कि जहां कोई इस हाल में है कि वो मरने की भीख मांग रहा है और आप उसे मौत भी नसीब नहीं होने देते।

ये अगर एक पीरियड फिल्म है तो डिसअपेयरेंस की त्रासदी को तो फिल्म छूंती है लेकिन कश्मीरी पंडितों का नेरेटिव फिल्म में कहीं नज़र नहीं आता। इस लिहाज़ से फिल्म कुछ मायनों में असंतुलित भी नज़र आती है।

खैर जहां फिल्म कमज़ोर पड़ती है वहां उसे गुलज़ार के लफ्ज़ों और विशाल भारद्वाज का संगीत बांध देता है और फिर कश्मीर भी तो इतना खूबसूरत है कि वहां यातनाएं भी खूबसूरती के कपड़े पहनी हुई मालूम होती हैं। शायद यही वजह कि वो यातनाएं उन्हें दिखाई ही नहीं देती जो बस ऊपरी तौर पर कश्मीर का सच जानने की कोशिश करते हैं। जो रुह तक पहुंचते हैं वो खूबसूरती के साथ साथ दर्द भी महसूस कर पाते हैं।

एक खूबसूरत दुनिया जहां रह रहे लोगों का मूलभूत सवाल ही ये है कि “मैं हू या मैं नहीं हू”, उस दुनिया में रह रहे लोगों के अस्तित्व की लड़ाई को समझने की एक समझदार कोशिश हैदर ज़रुर करती है।

हैदर : जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले

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-उमाशंकर सिंह 

"...अब लोग कलाकार को पक्षकार नहीं मानते, चीजों के प्रस्तोता भर में रिड्यूस कर देते हैं। विशाल याद दिलाते हैं एक फिल्मकार का अपना पक्ष होना जरूरी है। फिल्म के अलग-अलग फ्रेम फिल्मकार के अलग-अलग पक्षों की कहानी बयां करते हैं। कुछ लोग गलत कहते हुए इसे ’संतुलन की कवायद का नाम’ दे देते हैं।..."

मोटे तौर पर यह माना जाता है कि फिल्म के पेशे से जुड़े लोगों को उनके वक्त की फिल्मों के बारे में राय जरूर रखनी चाहिए, पर उन्हें उन पर कोई लिखित निर्णय या उसकी विस्तृत विवेचन मीमांसा करने या फिल्मी पत्रकारिता करने से बचना चाहिए। फिल्म लिखना-बनाना और फिल्मी पत्रकारिता करना दोनों दो जुदा चीजें हैं उन्हें आपस में मिक्स ना किया जाए, यही बेहतर है। वरना फिल्म समीक्षा कर फिल्मी जनसंपर्क बढ़ाने या वाजिब बात या सच लिख कर संबंधित पक्षों से बिगाड़ मोल लेने वालों की कोई कमी नहीं है। यही बातें सोच कर इन पंक्तियों के लेखक ने फारवर्ड प्रेस पत्रिका में अपना सिनेमा का कॉलम करीब पांचेक माह में ही बंद कर दिया कि अपना काम फिल्म लिखना है ना कि फिल्म पर लिखना। वैसे भी फिल्म लिख लेने या लिखने का मौका पाने के जद्दोजहद के इस वक्त में अपने मूल काम में ही अपनी सारी ऊर्जा लगानी व्यावहारिकता है। पर, कुछ फिल्में होती हैं जो आपसे आपको कौल तुड़वा देतीं हैं। हैदर उन्हीं चंद फिल्मों में से है। 


यहमानने से कोई गुरेज नहीं है कि इंटरटेनमेंट सिनेमा का एक प्रमुख दायित्व है। पर वह सिनेमा का इकलौता दायित्व नहीं है। पर इधर हिंदी सिनेमा इंटरटेनमेंट के नाम पर जिस तरह बेसिरपैर  की  कॉमेडी के पीछे जिस पागलपन से पड़ा हुआ है, हम भूल गऐ थे कि सिनेमा का एक काम सवाल उठाना भी है। हैदर सिनेमा के सवाल उठाने के इस बिसरा दिए गए गुण-धर्म की याद दिलाती है। वह ऐसे सवाल उठाती है जो असुविधाजनक हैं, जोखिम भरे हैं, जिसका जवाब अभी हमारे समय के दर्शन, राजनीति और व्यवस्था के पास नहीं हैं। कुछ सवालों के जवाब सैकड़ों साल बाद मिलते हैं। पर उस कालखंड का सवालशून्य होना दरअसल संवदेनाशून्य होना है। फिल्म का नायक हैदर फिल्म की नायिका से संवाद में जो दरअसल उसका आत्मालाप ही है, में कहता भी है कि सवाल का जवाब भी एक सवाल ही है। निष्कर्ष पर पहुंचने की जल्दबाजी ना हो और फौरी निर्णय देने का लोकप्रियतावादी लोभ ना हो, तो हम सवाल के जवाब में असल में एक दूसरे सवाल पर ही पहुंचते हैं।

फिल्ममें एक शब्द बार-बार आता है- डिसएपीयर! कश्मीर में हजारों औरतों के दिलकश शौहर, बूढे मां-बाप़ों की जवां-अधेड़ औलादें डिसएपियर हैं। फिल्म के वे तमाम पात्र जिन्हें थोड़ी सी सत्ता या व्यवस्था या दलाली की ताकत हासिल है के पास असुविधाजनक और नागवार लोगों के लिए एक आसान और प्रिय धमकी है-  डिसएपीयर करा दूंगा! फिल्म में डिसेपीयर कराने की धमकी ऐसी दी जाती है जैसे फेसबुक पर कुछ सिरफिरे असहमतों को ब्लॉक करने की धमकी देते हैं। जैसे फेसबुक पर एक बटन या एक कमांड भर से किसी को ब्लॉक किया जा सकता है उससे रत्ती भर भी जादा मुश्किल उनके लिए कश्मीर में किसी को डिसेपीयर करवाना नहीं है। ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है और रहेगा’ के राष्ट्रवादी मंत्र के जाप को नजरअंदाज कर दें तो असल हिंदुस्तान ने वास्तव में पूरे कश्मीर को ही अपने लिए डिसेपीयर मान लिया है।  ‘कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है’ के अलावा कश्मीर की किसी भी वाक्य के रूम में हमारे लिए मौजूदगी हमें पवित्र भाषाई व्याकरण को कबूल नहीं है। क्या यह अनायास है कि अभी कुछ दिन पूर्व उज्जैन विश्वविद्यालय के कश्मीरी पंडित कुलपति पर इस लिए राष्ट्रवादी लड़ाकों ने हमले किए क्योंकि उनने बाढ़ की भयानक विभीषिका से गुजर रहे कश्मीर के लिए राहत सामग्री जुटाने की ‘देशद्रोही’ अपील कर दी थी!  

जबऐसे कश्मीर की पृष्ठभूमि पर फिल्म बनेगी और इन सवालों से कन्नी काटेगी तो वह एक बेईमान फिल्म ही होगी। पर कश्मीर का सवाल यहां केंद्रीय सवाल नहीं है। केंद्रीय है हैदर का द्वंद्व! क्या करूं और क्या ना करूं?? कश्मीर जैसा रक्तरंजित हो चुका उसका जीवन, जिसे प्रतिशोध की आग जला रही है और नायिका आशी अपने प्रेम के ठंडे छीटों से हैदर के दिलो-दमाग के ताप को बुझा कर उसे शीतल कर देने की मासूम ख्वाहिश पाली हुई है। पर आग के गोलों के सामने पानी की छीटें कितने नाकाफी होते हैं ना!!!

हैदरका द्वंद्व बर्फ की वादी कश्मीर को उसके लिए रेगिस्तान बना देता है जिसमें वह दर-दर भटकता है। कुछ नहीं कर पाने की विवशता में उसका पूरा जीवन ही फिल्म में गीतकार का क्रेडिट पाए शायर फैज अहमद फैज की इस शायरी सरीखा हो गया है- मकाम फैज कोई राह में जंचा ही नहीं, जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले! हैदर के कूचा ए यार और सू-ए-दार के बीच है उसकी मां को प्यार, ताकत और फरेब से हड़प चुके उसके चचा जान खुर्रम का षडयंत्र। नायिका के पिता और जम्मू- कश्मीर पुलिस के ऑफिसर और श्रीनगर के एसपी का वार। नायिका के पुलिस ऑफिसर का पिता एक दृश्य में कुछ कथित आतंकवादियों को किसी बिना के बगैर यह कहते हुए अचानक गोलियों से भून देता है कि मरा हुआ आतंकवादी भी लाख रूपये का होता है। हैदर तो फिर आतंकवादी सरीखा भी है और उसकी बेटी का प्रेमी भी, जो अपनी लपटों में उसकी बेटी की जिंदगी भी ख़ाक कर डालेगा। उसके क्या तो क्रूर और शातिर वार होंगे! इन सबके बीच पुलिस में अदद नियुक्ति पा लेने का ख्वाहिशमंद बचपन के दोस्त सलमान द्वय का हैदर के साथ विश्वाशघात। हैदर कहां जाए कहां ना जाए! क्या वह अपनी प्रेमिका आशी के सीने में अपना सर छुपाकर शतरमुर्ग हो जाए?? अपनी मां की गोद में छुप के अपने जख्म सहला ले?? पर वही गोद एक वक्त के बाद उसे उसकी पिता के हत्या की सेज लगने लगती है!!

अमूमनहिंदी सिनेमा में व्यंग्य हंसने-हंसाने या बहुत हुआ तो तंज करने की ही चीज रहा है। पर व्यंग्य भी तो एक प्रतिरोध है। इस प्रतिरोधी व्यंग्य में आफस्पा यहां चुत्सफा हो चुका है! प्रचलित शब्दावली में कहें तो चुत्सफा असल में व्यवस्था का अपने नागरिकों के साथ किया गया केएलपीडी है। आस्फपा में जितनी अमानवीय क्रूरता है चुफत्सा में उतना ही कहीं का ना छोड़ने वाला स्खलन। कश्मिरियों के साथ हर कदम पर उस बच्चे की तरह चुत्सफा किया जा रहा है जिसे कहा गया था कि उसके गान में गाना सुनाया जाएगा और जब उसने अपना कान बढ़ाया तो उसका कान ही काट लिया गया!

फिल्मने कश्मीरी जीवन की सभी प्रमुख विसंगतियों को उसकी पूरी मार्मिकता के साथ पकड़ने की कोशिश की है। तलाशियों के दृश्य दिखाते हैं कि किस कदर कश्मीरी लोग अपने पहचान पत्र को अपने शरीर के अनिवार्य अंग की तरह अपने से लगाए रखते हैं। हाथ-पैर-आंख जैसे शरीर के अंग ना हो तो कश्मीरियों का जीवन चल सकता है आईकार्ड ना हो तो चार कदम भी नहीं चल सकता।

निरूपा राय जैसी मांओं के आदी भारतीय पट्टी के लिए गजाला के रूप में तब्बू नए किस्म की मां है। जिसमें इच्छा है वासना है साथ ही स्नेह और वात्सल्य भी है। अपने पति डॉक्टर साहब से एक निर्लिप्त किस्म की प्यार, शिकायत और दूरी है और अपने देवर की वासना को प्रेम समझने का तरूणियों या किशोरियों वाला भटकाव भी। वह इस बाहरी अदालत में अपने लिए रहम नहीं, बस अपनी नजर से चीजों को एक बार देखने की मिन्नत ही करती है। वह जानती है कि ‘विलन’ वही होगी चाहे वह इस तरफ रहे या उस तरफ। पर उसमें प्यार और वात्सल्य से ज्यादा पश्चाताप है। फिल्म के अंत में जिसकी आग में जलकर वह खाक हो जाती है। पर क्या वह सिर्फ इसलिए खाक हुई कि उसे बुरी नहीं, अच्छी औरत के रूप में याद किया जाए?? फिर से वही बात एक बार फिर कि सवाल का जवाब भी दरअसल एक सवाल ही है। फिल्म की दूसरी नायिका किरदार आशी अपने बुने गए सुर्ख लाल मफलर जो उसके ख्वाब बुनने का प्रतीक है, उससे जकड़कर अपनी मौत को गले लगा लेती है। जाहिर है पुरूषों के इस आपसी रंजिश, तीनतिकड़म और गुणा गणित में सबसे पहले औरतों की जिंदगी ही होम होती है।

अब लोग कलाकार को पक्षकार नहीं मानते, चीजों के प्रस्तोता भर में रिड्यूस कर देते हैं। विशाल याद दिलाते हैं एक फिल्मकार का अपना पक्ष होना जरूरी है। फिल्म के अलग-अलग फ्रेम फिल्मकार के अलग-अलग पक्षों की कहानी बयां करते हैं। कुछ लोग गलत कहते हुए इसे ’संतुलन की कवायद का नाम’ दे देते हैं।

इस फिल्म से पहले तक व्यापक जनता यह मानती थी कि कश्मीर जमीन का एक टुकड़ा है जिसे हमेशा हिंदुस्तानी मानचित्र के सीखचे में होना चाहिए। कश्मीरी उस पर रह सकते हैं सिर्फ रह सकते हैं। कब्जा कैसे कर लेंगे?? उस बारे में कोई फैसला लेने का उनका कोई हक नहीं बनता। गोया कश्मीर हमारा मकान हो और कश्मीरी महज किरायेदार। फिल्म को देखने के बाद संवेदनशील जन महसूस करेंगे कश्मीर जमीन का महज एक टुकड़ा नहीं है। उस पर जिंदा लोग रहते हैं। उन लोगों कें अपने दुखदर्द हैं। जिसे इस या उस तरफ की सत्ता-व्यवस्था ने अपने हित में और गाढ़ा किया है उसे आंच ही दी है। उस पर मरहम नहीं लगाया। इंतकाम से इंतकाम को भड़काया। नतीजा यह हुआ कश्मीर में जितनी बस्तियां वीरान हुई हैं उससे कहीं ज्यादा कब्रिस्तान आबाद हुआ है। ऐसे में फिल्म का क्लाईमेक्स का कब्रिस्तान में घटित होना हैदर की सहज परिणति थी ना कि फिल्मकार के ड्रामा को क्रिऐट करने का दबाव।
फिल्मदेखते हुए बाज दफा कश्मीर के मसले पर बनी, शेक्सपीयर के ‘हैमलेट’ की तरह ही लंबी संजय काक की ‘जश्ने आजादी’ नाम की डॉक्यूमेंट्री फिल्म की सहसा याद आती है। हैदर को भी अर्काइब के शॉटों से कई जगह प्रमाणिक बनाया गया है। पर, अगले ही पल विशाल अपने दर्शकों की अंगुली पकड़ कर उन्हें कश्मीर से निकालकर अपने पात्रों के दुख, दर्द और द्वंद्व में शरीक कर लेते हैं।  फिल्म में एक कोई किरदार, एक कोई दृश्य यहां तक कि एक कोई शॉट गैरजरूरी नहीं है। फिल्म में यूज हुई प्रापर्टी तक सिर्फ खाली जगहों को भरने के लिए व्यवहार में नहीं लाई गई हैं वे अपने साथ गहरे अर्थ भी रखती हैं। फिल्म की एक उल्लेखनीय विशेषता यह भी है कि वह जटिल चीजों के सरलीकरण के लोकप्रियतावाद में नहीं पड़ती है। यह जटिल यथार्थ का जटिल बयान है इसलिए तह के करीब है। हैदर के एकालाप नुमा लंबे संवाद भी तो वैसे ही हैं। गालिब के ‘बक रहा हूं जुनूं में क्या कुछ, कुछ ना समझे खुदा करे कोई’ की मानिंद। वैसे भी ऐसी फिल्में जुनूं और साहस से ही पर्दे पर उतरती है।

विशाल फिल्म के निर्देशक होने के साथ जानेमाने कश्मीरी पत्रकार बशारत पीर के साथ फिल्म के पटकथाकार हैं। संवाद लेखक हैं। साथ ही संगीतकार भी हैं। पर उनका संगीत शब्दों और भावनाओं के बीच में नहीं आता है। इसलिए वह शोर नहीं लगता। यहां कब्र खोदते कुदाल शब्दों से ताल मिलाते हैं।  चलन के खिलाफ मगर फिल्म के साथ चलते इस संगीत को अनसुना करना संगीत प्रेमियों का अपना नुकसान कराना ही है। 

निवेदन:पॉपकार्न खाने के साथ सिनेमा देखने वाले, पापकॉर्न खाने की तरह सिनेमा देखने वाले, अपने व्हाटसएप और फेसबुक के मैसेज को तुरंत जवाब देना जरूरी समझने वाले, अपने प्रेमी या प्रेमिका के साथ किनारे की सीट तलाशेने वाले युगल या नवजात बच्चों के साथ आउटिंग करने की तरह सिनेमा देखने वाले इस फिल्म को थियेटर में ना देखें। ऐसा करके वे फिल्म के कलेक्शन में रत्ती भर का असर जरूर डालेंगे पर सिनेमा को पाठ की तरह, हमारे वक्त के हलफ की तरह पढ़ने वाले दर्शकों पर बड़ा एहसान करेंगे।


उमाशंकरलेखक हैं.

कहानी और फिल्मों की पटकथा लिखते हैं.

इनसे uma.change@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं।

'सफाई'और स्वच्छ भारत अभियान

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"…असल में सफाई करने वालों के साथ हमारा बर्ताव क्या रहा है? सफाई कर्मियों को नियमित क्यों नहीं किया जाता? उनके कार्य स्थलों को श्रम कानून के दायरे में क्यों नहीं लाया जाता? क्या इस आधे-अधूरे मन से सफाई हो पायेगी? स्वच्छ भारत अभियान किन लोगों के लिए लागू किया जा रहा है? क्या इससे कूड़े में जीवन यापन करने वाली जनता की जिन्दगी में कोई बदलाव आने वाला है? जनता की 62,000 करोड़ रु. किसके जेब में जायेंगे?…"

कार्टून साभार- mysay.in
भारत के प्रधानमंत्री ने लाल किले के प्राचीर से ‘स्वच्छ भारत अभियान’ के लिए संदेश दिया था और इस कार्यक्रम के लिए 2 अक्टूबर का दिन निर्धारित किया। प्रधानमंत्री ने वाल्मीकि बस्ती से ‘स्वच्छ भारत अभियान’ कि शुरूआत की क्योंकि इस बस्ती में महात्मा गांधी ने कुछ समय बिताया था। 2 अक्टूबर से पहले ही इस बस्ती को साफ-सुथरा, डेंटिग-पेंटिग कर चमकाने का अभियान शुरू हो चुका था। दिल्ली की बसों, मेट्रो में सफाई दिवस का जिक्र हो रहा था। इससे ज्यादा दुखी सरकारी कर्मचारी थे जिनको आॅफिस जाना पड़ा लेकिन यह प्राइवेट कम्पनियों के लिए भी एक मौका है जो मजदूरों को छुटी देना नहीं चाहती हैं। 

सफाईहम सभी को बहुत पसंद आती है, सभी चाहते हैं कि हमारा घर, हमारे आस-पास, काम की जगह साफ-सुथरी हों, लेकिन हम यह सफाई दूसरे की मेहनत के बल पर चाहते हैं। सफाई के काम को समाज में एक छोटे स्तर का कार्य माना जाता है। मध्यमवर्गीय और उच्च वर्गीय तक के घरों में सफाई के कार्य के लिए पार्ट टाइम या फुल टाइम मेड रखी जाती हैं, जो कि आस-पास की बस्तियों से आती हैं। उनको वेतन बहुत कम दिया जाता है किसी तरह के श्रम कानून को लागू नहीं किया जाता। बस्ती में रहने के नाम से ही छुआ-छूत होने लगती है। काॅलोनियों, सड़कों, शिवरों की सफाई का काम ज्यादातर एक विशेष समुदाय के लोग ही करते आये हैं, जिसको समाज अछूत की नजरों से देखता है। 

ज्यादातरसफाईकर्मी ठेके पर होते हैं और श्रम कानून को ताक पर रख कर काम करवाया जाता है। घर में काम करने वाले सफाईकर्मी हों या सड़कों के, उनमें समानताए हैं- 
  • उनके साथ छुआ-छूत होता है; 
  • श्रम कानून लागू नहीं होते; 
  • उनको न्यूनतम मजदूरी नहीं दी जाती है; 
  • उनसे बिना सेफ्टी (दस्ताने, मास्क इत्यादी) के ही काम करवाया जाता है। 

जिसदिन (2 अक्टूबर) को पूरी भारतीय मीडिया वाल्मीकी बस्ती की लाइव कवरेज और ‘स्वच्छ भारत अभियान’ का प्रचार के लिए आतुर थी, गलियों चैराहों पर मंत्रियों-नेताओं के हाथो में झाड़ू लिये फोटो दिखाये जा रहे थे, मैं दिल्ली के एक किनारे मदनपुर खादर में था। मदनपुर खादर वह जगह है जहां दिल्ली के साफ करने वालों की एक बड़ी आबादी रहती है। यह आबादी दिल्ली के अलग-अलग काॅलोनियों में जाकर कूड़ा उठाने का काम करती है और कम से कम एक दिन में 300 टन कूड़ा घरों से उठाती (निःशुल्क) है और इस तरह से घरों व दिल्ली को स्वच्छ बनाने में बड़ा योगदान करती है। 

वहखुद कूड़े के बीच में रहते हैं, वहीं खाते-पीते हैं, बच्चे उसी में खेल कर बड़े होते हैं। इनमें से ज्यादातर कबाड़ी वाले पहले भोगल और बटला हाउस में रहते थे जिन्हें एक माह पहले ही बटला हाउस से उजाड़ दिया गया और उन्होंने अपना नया आशियाना मदनपुर खादर में बना लिये। पहले उनका कार्य करने का स्थल (कालकाजी, गोविन्दपुर, डिफेन्स काॅलोनी, लाजपतनगर) नजदीक था जिससे वह और ज्यादा घरों का कूड़ा इकट्ठा कर पाते थे। 

कार्टून साभार- www.santabanta.com
अब उन्हें आने-जाने में करीब तीन घंटे लग जाते हैं जिससे वह कम कूड़ा इकट्ठा कर पाते हैं। मैंने देखा जहां ये लोग रहते हैं उनके आस-पास की बस्तियों कि नालियां बजबजा रही हैं, सड़कों पर नाली की गन्दगी और कूड़ा पड़ा हुआ है। जब बस्ती के लोगों को स्वच्छता अभियान के बारे में बताया तो बोले ‘‘यहां कोई कर्मचारी, अधिकारी, मंत्री-संतरी नहीं आते हैं। सफाई अभियान तो केवल उन्हीं इलाकों के लिए है जो पहले से ही साफ है।’’ यह बात बिल्कुल सही लगी किसी भी बस्ती में कोई नेता, मंत्री, अधिकारी नहीं देखे गये। वे उन्हीं ईलाकों में दिखते हैं जहां साफ-सफाई पहले से हो। 

क्या ‘स्वचछ भारत अभियान’ केवल सड़कों की सफाई के लिए है जिसके लिए हजारों करोड़ रु. खर्च किये जा रहे हैं। ‘स्वचछ भारत अभियान’ के दूसरे दिन ही दशहरा पर्व था जिसमें रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतले फूंके जाते हैं, जिसमें पटाखे फोडे़ जाते हैं, जिससे हवा में कार्बन मोनो अक्साईड की मात्रा बढ़ जाती है। इसका उद्घाटन भी सबसे पहले प्रधानमंत्री लालकिले पर रावण पर तीर चलाकर करते हैं। क्या भारत के प्रधानमंत्री इसके लिए कोई संदेश नहीं दे सकते थे? दुर्गा की मूर्तियों का नदियों में विसर्जन किया जाता है। इन मूर्तियों के रंग से जल प्रदूषण होता है। हम किस तरह की स्वच्छता की बात कर रहे हैं?

प्रधानमंत्रीजिस नवरात्री पर्व में 9 दिन उपवास रखते हैं, उसी पर्व में हजारों टन निकला कचरा नदियों में प्रवाहित किया जाता है। क्या हम केवल सड़क साफ दिखाकर अपने को स्वच्छ कह सकते हैं? हम वायु और जल प्रदूषण की बात छोड़ भी दें तो धरती की सफाई केवल सड़क ही होती है? असल में सफाई करने वालों के साथ हमारा बर्ताव क्या रहा है? सफाई कर्मियों को नियमित क्यों नहीं किया जाता? उनके कार्य स्थलों को श्रम कानून के दायरे में क्यों नहीं लाया जाता? क्या इस आधे-अधूरे मन से सफाई हो पायेगी? स्वच्छ भारत अभियान किन लोगों के लिए लागू किया जा रहा है? क्या इससे कूड़े में जीवन यापन करने वाली जनता की जिन्दगी में कोई बदलाव आने वाला है? जनता की 62,000 करोड़ रु. किसके जेब में जायेंगे?

सुनील सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
समकालीन विषयों पर निरंतर लेखन.
संपर्क- sunilkumar102@gmail.com

आंकड़ों की बाजीगरी और स्कूलों में लड़कियों के शौचालय

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–संजय कुमार बलौदिया

"...सवाल ये है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो 2013-14 में घटकर 17.30 प्रतिशत कैसे हो सकता है। जबकि 2010 से 2012 के बीच सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी। तब महज एक साल में 13.50 फीसदी की गिरावट आ सकती है ? जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट आती है। इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है।..."

फोटो साभार- indianexpress.com
राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों के आधार पर मानव संसाधन विकास मंत्रालय और सरकार कह रही है कि कुल 10,94,431 सरकारी स्कूल में से सिर्फ 1,01,443 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए शौचालय नहीं है और 87,984 स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय काम नहीं कर रहे हैं। जिन स्कूलों में शौचालय नहीं हैं और काम नहीं कर रहे हैं उन दोनों के आंकड़ो को मिला दिया जाए तो यह आंकड़ा 189427 हो जाएगा, जो कि कुल सरकारी स्कूलों का 17.30 फीसदी होगा। 

इसीसाल जनवरी में मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने आंकड़ों में बताया था कि 2009-10 में 41 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं थी, लेकिन 2012-13 में यह संख्या घटकर 31 फीसदी रह गई। लेकिन 2013-14 में 17.30 फीसदी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं हैं और शौचालय काम नहीं कर रहे हैं (जिसे मीडिया में 19 फीसदी बताया गया है)। 

सवाल ये है कि जब 2012-13 में यह 31 प्रतिशत था, तो 2013-14 में घटकर 17.30 प्रतिशत कैसे हो सकता है। जबकि 2010 से 2012 के बीच सिर्फ 10 फीसदी की गिरावट आई थी। तब महज एक साल में 13.50 फीसदी की गिरावट आ सकती है ? जबकि यह बात स्पष्ट है कि इस तरह के आंकड़ों में मामूली बढ़ोतरी होती है या फिर मामूली गिरावट आती है। इस वजह से लड़कियों के लिए अलग शौचालय के आंकड़ों में तेजी से आई गिरावट विश्वसनीय नहीं लगती है।

इसी रिपोर्ट के आंकड़ों के मुताबिक दिल्ली के सभी स्कूलों में लड़कियों के लिए शौचालय की व्यवस्था है और सभी शौचालय ठीक से काम कर रहे हैं। जबकि हाल ही में एक अंग्रेजी अखबार में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक साउथ दिल्ली के बदरपुर में मोलरबंद गवर्मेंट बॉयस सीनियर सेकेंड्ररी स्कूल में शौचालय बदबूदार मिले। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि आंकड़ों में कुछ न कुछ गड़बड़ है।

उत्तरप्रदेश में कुल सरकारी स्कूल 160763 है, जिनमें से सिर्फ 2355 स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जोकि 1.46 प्रतिशत है। जबकि 4634 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय काम नहीं कर रहे हैं, जोकि 2.91 प्रतिशत है। इसी साल के प्रथम संस्थान के सेंटर "असर" (एनुवल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट) के सर्वे के मुताबिक प्रदेश के विद्यालयों में 2013 में 80 फीसद स्कूलों में पेयजल की सुविधा हो चुकी है, 79.9 फीसद स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय पाया गया। 

इसके बाद भी दुर्भाग्य की स्थिति रही कि 44 फीसद स्कूलों में ही शौचालय उपयोग करने के योग्य मिले। प्रथम की रिपोर्ट के मुताबिक 20 फीसदी में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है, जबकि राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के मुताबिक सिर्फ 1.46 फीसदी स्कूलों में ही लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं है। यह भी कहा जा सकता है कि असर के सर्वे में सरकारी और निजी दोनों स्कूलों शामिल है, लेकिन तब भी असर और राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों में काफी अंतर दिखता है। दो संस्थानों के अध्ययनों में 1-2 फीसदी अंतर तो हो सकता है, लेकिन यहां अंतर 18 फीसदी है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि यह सिर्फ आंकड़ो का खेल है।

इसीरिपोर्ट के गुजरात के आंकड़ों के मुताबिक 33713 स्कूल में से सिर्फ 87 स्कूलों लड़कियों के लिए अलग शौचालय नही है और 869 स्कूलों में लड़कियों के शौचालय ठीक से काम नहीं कर रहे है। जबकि बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात (बाग) ने गुजरात के 249 स्कूलों प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें कच्छ, बनासकांठा, सुरेन्द्रनगर, नर्मदा, दाहोद, पंचमहल, अहमदाबाद जिले शामिल किए गए। बनासकांठा के सात प्राइमरी स्कूलों, सुरेन्द्रनगर के तीन प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की व्यवस्था नहीं है। बाकी के पांच जिलों के कुछ स्कूलों में पानी के पानी की सुविधा भी नहीं है। बुनियादी अधिकार आंदोलन गुजरात ने 249 प्राइमरी स्कूलों में सर्वे किया जिसमें से 10 प्राइमरी स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय की सुविधा नहीं है, तब राष्ट्रीय शिक्षा योजना एवं प्रशासन विश्वविद्यालय के आंकड़ों को कैसे विश्वसनीय कहा जा सकता है।

एकसवाल यह भी है कि लड़कों के लिए भी शौचालय की व्यवस्था लड़कियों के मुकाबले कोई बेहतर नहीं है। क्योंकि कुल सरकारी स्कूल 10,94,431 में से 1,52,231 स्कूलों में लड़कों के लिए शौचालय सुविधा नहीं है। लेकिन मीडिया ने सिर्फ लड़कियों के लिए शौचालय न होने के आंकड़ों को लेकर ही खबर बनाई। जिससे ऐसा लगता है कि लड़कों के लिए शौचालय की समस्या ही नहीं है। स्कूलों में शौचालय की व्यवस्था लड़के और लड़कियों दोनों के जरूरी है।
  
दरअसल सभी लोग आंकड़ों का इस्तेमाल अपनी सुविधानुसार करते हैं। सरकार आंकड़ों के जरिए अपनी उपलब्धियां बताती है, तो वहीं एक पत्रकार उन्हीं आंकड़ों से सरकार की उपलब्धियों की पोल खोल सकता है। सारा मामला यह है कि हम किस तरह से आंकड़ों को प्रस्तुत करते है। आंकड़ों का स्वयं में कोई महत्व नहीं है। अहम बात यह है कि हम आंकड़ों को किसलिए और किस तरह से तैयार कर रहे है। आंकड़ों के जरिए हम क्या बताना चाहते है।

लेखक शोध पत्रिका जनमीडिया से जुडे हैं.
संपर्क- snjiimc2011@gmail.com

फारवर्ड प्रेस पर छापा : अभिव्यक्ति पर हमला

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फॉरवर्ड प्रेस के विववादित अंक का मुखपृष्ठ
 प्रेस विज्ञप्ति

लखनऊ, 10 अक्टूबर, 2014 

जर्नलिस्टस् यूनियन फाॅर सिविल सोसाईटी (जेयूसीएस) ने फॅारवर्ड प्रेस के दिल्ली कार्यालय पर दिल्ली की बसंतनगर थाना पुलिस द्वारा 8 अक्टूबर को छापा मारने तथा उसके चार कर्मचारियों को अवैध रूप से हिरासत में लिए जाने की घटना की कठोर निंदा की है। जेयूसीएस ने दिल्ली पुलिस की इस कारवाई को फाॅसीवादी हिन्दुत्व के दबाव में आकर उठाया गया कदम बताते हुए इसके लिए नरेन्द्र मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। इसके साथ ही फाॅरवर्ड प्रेस की मासिक पत्रिका के अक्टूबर-2014 के अंक ’बहुजन श्रमण परंपरा विशेषांक’ को भी पुलिस द्वारा जब्त करने को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बताते हुए इसे मुल्क में फासीवाद के आगमन की आहट कहा है।

फारवर्ड प्रेस के दिल्ली कार्यालय पर छापे का विरोध करते हुए जेयूसीएस के नेता लक्ष्मण प्रसाद और अनिल कुमार यादव ने कहा कि देश का संविधान किसी भी नागरिक को उसके न्यूनतम मूल अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है। संघ के साहित्यों में बेहद शातिराना तरीके से मुसलमानों के खिलाफ जहर उगला जाता है और वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर छपते हैं। ठीक उसी तरह, दलित समाज को भी अपनी बात कहने का लोकतांत्रिक और संविधान प्रदत्त हक है। उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस की यह कार्यवाही मोदी सरकार के दबाव में तथा हिन्दुत्ववादी ताकतों के हाथों खेलते हुए संविधान और देश के धर्म निरपेक्ष ताने बाने के खिलाफ जाकर की गई है।

इस अवसर पर जेयूसीएस के नेता तथा वरिष्ठ पत्रकार राघवेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय में ’ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट्स फोरम’ के तत्वाधान में 9 अक्टूबर, को महिषासुर शहादत दिवस के आयोजन स्थल पर जिस तरह से एबीवीपी के छात्रों द्वारा मापीट और तोड़फोड़ की गई, उससे यह साबित होता है कि अब संघ अपने बौद्धिक विरोधियों से तर्कों से निपटने में एकदम असहाय हो चुका है। अब वह झुंझलाहट में सीधे मारपीट पर उतर आया है। उन्होंने कहा कि भारत एक मिली जुली संस्कृतियों वाला देश रहा है। हर संस्कृति की अपनी एक प्रतीकात्मक पहचान रही है तथा उसका समाज उस संस्कृति की अस्मिता को अगर अपने स्तर पर लोकतांत्रिक तरीके से पूजना चाहता है तो किसी को क्या दिक्कत हो सकती है? उन्होंने कहा कि यह घटना नरेन्द्र मोदी सरकार द्वारा देश को फासीवाद के रास्ते पर धकेलने की खुली कोशिश है और लोकतंत्र के हित में पूरी ताकत के साथ इसका प्रतिकार किया जाएगा।

                                                                
राघवेंद्र प्रताप सिंह
                                                        प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य
                                      जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसाइटी, द्वारा जारी

तेल में गुंथी विश्व राजनीति और वर्चस्व की अमेरीकी तिकड़म

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-कुंदन

"...70 के  दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने सोने को डॉलर का आधार मानने से इंकार कर दिया। इसके साथ उन्होंने सऊदी अरब को अपना तेल व्यापार डॉलर में चलाने के लिए राजी कर लिया बदले में वहां के शाह को हथियार और सुरक्षा की गारंटी प्रदान की। इससे तेल व्यपार डॉलर में होने लगा और कई देशो ने अपना विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर में संचित किया। इस प्रकार डॉलर एक शाक्तिशाली मुद्रा के रूप  विश्व में उभरा. इसकी वजह थी कि अधिकांश देशों में तेल ही सबसे बड़ा आयातित माल था।...." 


बहुत पहले द्वितीय विश्व युद्ध में ही ब्रिटिश अधिकारीयों ने यह घोषित किया था की विश्व पर अधिपत्य की इच्छा रखने वाली किसी भी शक्ति के लिए मध्य-पूर्व का तेल एक वरदान है। यहाँ विश्व के तेल भंडार का दो-तिहाई तेल मौजूद है। जिसका उत्पादन काफी कम लागत पर किया जा सकता है। इसके साथ-साथ यहाँ प्राकृतिक गैस का भी विशाल भंडार मौजूद है. तेल और प्राकृतिक गैस के ये भंडार ऊर्जा के ऐसे स्त्रोत हैं जो आज औद्योगिक विश्व के लिए अनिवार्य हो गयें हैं.

इसलिए आने वाले समय में यह तय था की साम्राज्यवादी देशों के बीच आपसी प्रतियोगिता का केंद्र रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण ये क्षेत्र होंगे। इसलिए  2001 में अफगानिस्तान और 2003 में इराक हमला कुछ नहीं बल्कि 1980 में जिमी कार्टर की गयी घोषणा की और एक पहलकदमी थी. जिसमे कहा गया था की अमेरिका खाड़ी के देशो के तेल के भंडार को अपने राष्ट्रीय हित्त के लिए इस्तेमाल करेगा और इसके लिए सैन्य शक्ति के इस्तेमाल से भी नहीं चूकेगा। इसके साथ-साथ वह मधय-पूर्व के देशों को इस बात के लिए राजी करेगा की वे अपने ऊर्जा भंडारों को विदेशी निवेश के लिए खोल दें। 

इससे ये साफ़ होता है की सद्दाम का गुनाह, न तो कुवैत पे हमला करना था न ईरान से दस वर्षीय युद्ध लड़ना था (जिसमे अमेरिका ने उसका साथ दिया था) और नहीं अपनी ही कुर्द जनता का नरसंहार करना था बल्कि उसका गुनाह था. असल में इस क्षेत्र में अपनी स्वायत्तता बरकरार रखना था।सद्दाम ने 1973 से लेकर 2003 तक अपने सभी तेल भंडारों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था। तेल उद्योग के विश्लेषक अन्तोनिअ जुहास्र ने अल-जजीरा चैनल को दिए गए एक इंटरव्यू में कहा था "2003के हमले और कब्जे से पहले अमेरिका और पश्चिमी तेल कंपनीयां इराक के तेल बाजार से बाहर थें.………… लेकिन हमें इस हमले, कब्ज़े की करवाई का शुक्रियादा करना चाहिए अब कंपनियों के लिए पहली बार तेल का बाजार खोल दिया गया है।"

तेल और प्राकृतिक गैस के लिए साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतियोगिता

तेलके बारे में यह बताना महत्वपूर्ण होगा कि अमेरिका आज भी इसका सबसे बड़ा उपभोक्ता है और 2010 तक सबसे बड़ा आयातक देश था. जबकि चीन 2001 में जापान को पछाड़ कर दूसरा सबसे बड़ा आयातक देश बन चुका था. पूरा यूरोप (इंग्लैंड और नार्वे को छोड़कर) पूरी तरह से तेल के आयात पर निर्भर है। हम यह समझ सकतें हैं की साम्रज्यवादी देशों की प्रतियोगिता की दृष्टि से इस क्षेत्र का रणनीतिक रूप से खास महत्व है। इस पर नियंत्रण से अमेरिका साम्रज्यवादी देशों को तेल के लिए खुद पर निर्भर बनाकर एक हद तक साम्रज्यवादी प्रतियोगिता को अपने पक्ष में झुका सकता है (बहरहाल पूरी तरह से समाप्त कभी नहीं कर सकता). 

इसलिए 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध'के लिए इन क्षेत्रों पर हमले का मकसद सिर्फ तेल की अपनी आवयश्कता की पूर्ति या अत्यधिक मुनाफा कामना ही नहीं है बल्कि साम्राज्यवादी देशों की आपसी प्रतियोगिता इन प्रयासों की तीव्रता का कारण है। यहाँ तक कि चीन जैसे देश जो निर्यात के लिए पहले से ही अमेरिकी बाजार पर निर्भर हैं, तेल के लिए भी अमेरिका पर निर्भर रहेंगे। 

यही नहीं रूस का अमेरिका के साथ, यूक्रेन को लेकर हाल का विवाद कुछ नहीं बल्कि इसी प्रतियोगिता का एक हिस्सा है। जिसमें अमेरिका का लक्ष्य रूस के द्वारा सयुंक्त यूरोप को की जा रही प्राकृतिक गैस की आपूर्ति को रोकना है। वे आपस में सीरिया को लेकर इसी प्रतियोगिता के तहत 2011 से एक छद्म युद्ध कर रहे हैं। और अफगानिस्तान में किया गया हमला और सत्ता परिवर्तन इसी परियोजना का हिस्सा है। लेकिन तेल अपने उपयोगी गुण (उपयोगी मूल्य) के कारण ही अमेरिकी सम्राज्यवाद के लिए महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि तेल का डॉलर के उतार चढ़ाव के साथ भी खास जुड़ाव है।  

डॉलर, यूरो तथा अन्य मुद्राओं की बीच प्रतियोगिता : साम्रज्यवादी प्रतियोगिता का एक आयाम

70 के  दशक में अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने सोने को डॉलर का आधार मानने से इंकार कर दिया। इसके साथ उन्होंने सऊदी अरब को अपना तेल व्यापार डॉलर में चलाने के लिए राजी कर लिया बदले में वहां के शाह को हथियार और सुरक्षा की गारंटी प्रदान की। इससे तेल व्यपार डॉलर में होने लगा और कई देशो ने अपना विदेशी मुद्रा भंडार डॉलर में संचित किया। इस प्रकार डॉलर एक शाक्तिशाली मुद्रा के रूप विश्व में उभरा. इसकी वजह थी कि अधिकांश देशों में तेल ही सबसे बड़ा आयातित माल था। 

चुकी अब डॉलर विश्व की रिज़र्व मुद्रा थी इसलिए प्रत्येक देश अब डॉलर आयत करने के लिए मजबूर हो गयें। इसका मतलब था हर देश को अपने सामान और सेवाएं अमेरिका को देनी पड़ती थीं, जो अधिक से अधिक डॉलर छाप कर (क्यूोंकि सोना अब डॉलर का आधार नहीं था) थोड़ी सी लागत में इनका आयात करा सकता था। यही वह कारण है की घाटे के बावजूद अमेरिकी अर्थव्यस्था बिना किसी प्रतिकूल प्रभाव के चल रही है। ऋणग्रस्त होने के बावजूद तेल व्यापार का डॉलर में बने रहना इसे जिलाये हुए है।

इसलिए तेल एक उपयोगी वस्तु के रूप में ही नहीं बल्कि इसका व्यापार डॉलर में चलता रहे यह भी अमेरिकी साम्रज्यवाद के लिए आवयश्क है। सद्दाम हुसेन का सबसे बड़ा गुनाह था की उन्होंने अपने तेल व्यपार को 6 नवम्बर २००० में डॉलर के बदले यूरो में प्रारंभ किया। भले ही अमेरिका और दुनियाभर की मीडिया इस पर चुप रही मगर अमेरिकी प्रशासन यह जानता है कि अगर यह कदम ईरान, वेनेजुएलाऔर रूस की ओर से ये उठाया गया तो यूरो एक शाक्तिशाली मुद्रा बन कर उभरेगी। 

इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है की २००० में इराक के इस कदम के बाद यूरो जो 82 सेंट था, डेढ़ गुना शाक्तिशाली हो गया। अगर दुनिया भर का तेल व्यापार यूरो में चल पड़े तो अमेरिका न सिर्फ साम्रज्यवादी प्रतियोगता में पिछड़ जाएगा बल्कि उसकी अर्थवयवस्था अर्जेंटीना की तरह नेस्तोनाबूद हो जाएगी। 

2003 में इराक पर हमला अमेरिका द्वारा यूरोप के साम्राज्यवादी हित पर हमला भी था। यही वह कुंजी है जिससे हम समझ सकतें हैं की क्यों फ्रांस और जर्मन (यूरो मुद्रा के प्रतिनिधि देश) द्वारा इस हमले का विरोध किया गया और क्यों इस हमले में न केवल ब्रिटेन का बल्कि स्पेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे डॉलर के मामले में समृद्ध देशों की भी सहायता थी। अतः साम्राज्यवादी देशों के बीच शांतिपूर्ण संबंध स्थापित होने की घोषणा करने वाली थेसिस का खोखलापन साफ है। 

लेनिन के अनुसार साम्रज्यवादी संघो और साम्राज्यवादीराष्ट्रों के बीच लगातार आपसी प्रतियोगिता साम्रज्यवादी युग का अनिवार्य गुण है,इराक पर हमला लेनिन की बात का पुख्ता प्रमाण है। आगे हम देखेंगे की कैसे यह प्रतियोगिता नए रूप लेती है और विश्व राजनीती को संचालित करती है।

2003 के मध्य में ईरान ने  डॉलर के अधिपत्य से खुद को मुक्त करते हुए तेल के निर्यात के भुगतान के लिए यूरो को मंजूरी दी। अमेरिका का अगला शिकार अब ईरान था उसने ईरान पर परमाणु हथियारों के कार्यक्रम चलाने का आरोप लगाया। अब ईरान अमेरिका के आर्थिक प्रतिबंधों से जूझ रहा है। शुरुआती दौर में इराक के तेल भंडारों के लिए सिर्फ अंपने यहां के पांच इजारेदार कंपनी को ही कंट्रैक्ट में शामिल किया था यहां तक इग्लैंड की भी इसमें हिस्सेदारी नहीं थी। लेकिन तेल कोई तैयार मॉल नहीं है बल्कि सुन्नीबहुल क्षेत्र में जनता द्वारा कड़े प्रतरोध के कारण इराक के तेल का उत्पादन वांछित स्तर तक नहीं पहुंच पा रहा था। 

इसके साथ बाथ पार्टी और अन्य कई गुट अमेरिकी सेना के खिलाफ लगातार छापामार युद्ध चला रहे थे। इराक में युद्ध से मरने वाले अमेरिकी सैनिको की संख्या4801 है जबकि कम से कम 14,55,000 इराकी युद्ध में मारे गयें हैं। मजबूरन इन समस्यायों से निपटने के लिए अमेरिका को न केवल यूरोप की साम्रज्यवादी शक्तियों से बल्कि चीन और रूस जैसे पारम्परिक प्रतिद्वदियों से भी इराक तेल क्षेत्र को साझा करना पड़ा। 

रूस की इस क्षेत्र में तीन बड़ी कंपनिया गज़पोर्म  निफ्ट ,लुकआयल , रोस्नेफ्त ने इराक में भारी निवेश किया है। मगर अफगान पर हमला रूस के गैस पाइप लाइन के प्रसार को रोकने तथा इसके वजाय अमेरिकी नियत्रण में लेने का एक प्रयास है इसी तरह अमेरिका ने रूस के आस-पास के क्षेत्रों में नाटो के सैन्य कैंप खोले हैं। अब हाल में यह युद्ध मुद्रा के स्तर पर भी लड़ा जा रहा है। 

रूस और चीनी केंद्रीय बैंक एक ड्राफ्ट कर्रेंसी स्टाप एग्रीमेंट पर राजी हुए जिसके तहत द्विपक्षीय व्यापार घरेलु मुद्राओं में करने की अनुमति है जो अमेरिकी डॉलर पर उनकी निर्भरता को कम करेंगे। हाल तक रूस और चीन का द्विपक्षीय व्यापार डॉलर में चलता था। अभी हाल में 14 अगस्त को क्रीमिया में पुतिन ने कहा की वह अपने तेल और गैस को रूबल में बेचेगा क्योंकि ऊर्जा के क्षेत्र में डॉलर का एकाधिकार रूस की अर्थवयवस्था को नुकसान पहुंचा रहा है। 

निश्चय ही ये मौद्रिक नीतियां , युद्ध और आर्थिक प्रतिवंध साम्रज्यवादी देशों की आपसी प्रतियोगिता के ही भिन्न- भिन्न  आयाम है।

इसके साथ -साथ  साम्रज्यवाद की एक महत्वपूर्ण नीति रही है ऐसे क्षेत्रो में वहां के दलालो के साथ मिलकर अपने हितों के लिए तथाकथित जनतांत्रिक राज्य का गठन। 

इराकी संघीय राज्य का गठन

2002 में अमेरिका ने इराक पर हमला बोलने से पहले भावी इराकी परियोजना के लिए तेल और ऊर्जा पर कार्यकारी समूह की स्थापना की। इस समूह में प्रभावशाली इराकी प्रवासीयों या निर्वासितों को लिया गया। जो बाद में जाकर इराकी सरकार का हिस्सा बने। इस परियोजना का उद्देश था 'इराकी  तेल और ऊर्जा नीति के लिए ढांचागत मसौदा जो ऊर्जा नीति का आधार के रूप में इराकी संसद में विचारणीय है। कुल मिलकर इराक राज्य का गठन यहां अमेरिकी हितों की सुरक्षा के लिए किया गया था। यह कोई स्वतंत्र, संप्रभु राष्ट्र नहीं है जिसकी कोई अपनी स्वत्रंत नीति हो। यही अमेरिका का इराक को सद्दाम की तानाशाहीसे मुक्त करा कर जनतंत्र स्थापित करने का मिशन था। 

यु.एस एनर्जी इनफार्मेशन एडमिस्ट्रशन के अनुसार इराक में 115 बिलियन वैरेल तेल सुरक्षित है जो सऊदी अरब और ईरान के बाद पुरे विश्व में तीसरे स्थान पर आता है। माना जाता है की आधुनिक विधियों का इस्तेमाल करने पर अधिक मात्रा में तेल पाया जा सकता है। अतिरिक्त तेल की मात्रा 45 बिलियन से 214बिलियन वैरेल तक जा सकती है। कुछ गैर सरकारी संगठनो के अनुसार यह मात्रा 400 विलियन को पार कर सकती है ऐसा हुआ तो इराक दुनिया का सबसे बड़ा तेल स्त्रोत बन कर उभरेगा। फ़िलहाल हम यह समझ सकते हैं इराक में असीम संभवना होने के वावजूद एक दलाल राज्य का पुनर्गठन किया गया है जिसका काम साम्राज्यवादी हितों के लिए काम करना है तथा इराकी राष्ट्रीयता को कमजोर करना है। ऐसे इराकी संघीय राज्य के अगुआ थे नूरी अल मलिकी। आइये देखे ओबामा प्रशासन उनसे क्यों खफा है।   

नूरी अल मलिकी का गुनाह

नूरी अल मलिकी ने 2011 को इराक में मौजूद दसीयों हजार अमेरिकी फ़ौज को दण्डमुक्ति के कानून का रक्षा कवच पहनने से इंकार किया था। फलस्वरूप 2011में इराक से अमेरिकी सैनिको को जाना पड़ा। लेकिन यह वापसी अल्पकालिक ही साबित हुई। दूसरी बात ऐसी ऊर्जा और तेल नीतियों को जो अमेरिकी हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं भारी जन दवाबों के कारण नूरी अल मलिकी सरकार संसद में पास नहीं करा पाई। इससे आगे क्षेत्र में शिया राजनीती के नाम पर ईरान से सीरिया को असद को मिलने वाली मदद मसलन शिया लड़ाके इराक के स्थल मार्ग का इस्तेमाल कर रहे थे।

अमेरिकी सरकार सीरिया में असद के खिलाफ विद्रोह करने वाली शक्तियों की मदद कर रही थी। उधर असद सरकार को जनता के साथ बड़े स्तर पर रूस और ईरान की मदद मिल रही थी। यह युद्ध अमेरिका और उसके गठ्वंधन में शामिल तुर्की और इसराइल के लिए बड़े महत्व का था क्योंकि अगर यहाँ रसिया का प्रभाव बढ़ता है तो अमेरिका प्रायोजित अरब गैस पाइप लाइन के विकल्प में रूस समर्थित सीरिया, इराक,ईरान से तुर्की होते हुए यूरोप जाने वाली पाइप लाइन का निर्माण किया जाएगा। इसमें इजराइल शामिल नहीं है मगर लेबनान को शामिल किया जाएगा। मतलब यह इस क्षेत्र में सीरिया, ईरान, रूस और चीन के गठबंधन को बढ़ावा दे रहा था। 

इसके साथ-साथ कुर्द जो परम्परिक रूप से, सद्दाम के जमाने से, अमेरिकी समर्थक रहे है वे कुर्द बहुल इलाके में जहां भारी संख्या में तेल के लिए विदेशी निवेश हुए हैं तेल के मामले में अपनी स्वायत्तता बरकरार रखना चाहतें थें. मतलब राजस्व को बगदाद सरकार के साथ साझा नहीं करना चाहतें थें. और अमेरिकी, फ्रांस, इंग्लॅण्ड के निवेशों को बिना बगदाद सरकार के इजाजत के मंजूरी देना चाहतें थें। 

कुर्दुस्तान रीजनल गोवेर्मेंट के ऐसे प्रयासों पर मलिकी सरकार ने संसद से कानून पास करा कर पानी फेर दिया। इसके तहत अमेरिकी इजारेदार तेल कंपनी एक्सान को मलिकी सरकार ने 2012 में वेस्ट क़ुरान -1 से निकल बाहर किया। इसके साथ-साथ रूस की कंपनिया लुकोइल,और गाजप्रोम ने इस क्षेत्र में भारी निवेश किया है। मलकी ने रूस से इसी वर्ष 4. 2 बिलियन डॉलर के हथियार समझौते पर हस्ताक्षर किया था। मलिकी सरकार का रूस और चीन की और झुकाव साफ था। 

इस प्रकार मलिकी सरकार एक प्रकार के केंद्रीकरण की और बढ़ रही थी। एक प्रकार का स्वायत कुरदुस्तान (इराकी राज्य से स्वायत न की सम्राज्य्वाद से स्वायत ) अमेरिकी सरकार की जरुरत है ताकि शक्तियों का इस प्रकार का बटवारा इराकी राज्य को कमजोर बना रहने दे और अमेरिका उस पर अपना दवाब बनाए रख सके। खंडित इराकी राष्ट्रीयता अमेरिका के लिए एक मुहमाँगा वरदान है। ऐसे इराकी राष्ट्रीयता को अपने शिया संकीर्णतावाद से मलिकी ने नुकसान पहुंचाया है। 

लेकिन किसी ऐसे राज्य का प्रतिनिधि जिसे साम्राज्यवादी नीतियों का प्रहरी बनाया गया हो और कर भी क्या सकता है। यह हम अपने यहां विदेशी निवेश और उसके साथ हिंदुत्व की जुगलबंदी के रूप में देख सकतें हैं। इस समय इस्लामिक स्टेट ऑफ़ इराक एंड सीरिया का इराक पर धावा ही वह अवसर था जब मलिकी पर अमेरिका प्रधानमंत्री पद छोड़ने का दवाब बना सकता था और अब मलिकी अपना पद छोड़ चुकें हैं।

इस्लामिक स्टेट का इराक में उभार

मलिकी सरकार के प्रति गुस्सा इराकी जनता में मौजूद था। सिर्फ सुन्नी इलाकों में ही नहीं बल्कि सिया समुदाय में भी क्रोध मौजूद था। मजदूर हड़ताल के साथ अन्य जनता भी सड़क पर आ रही थी। ऐसे में बाथ पार्टी जो सुन्नी इलाको में लगातार छापामार प्रणाली से युद्ध चला रही थी कुछ हद तक साम्राज्यवादी शक्तियों को रोकने में कामयाब हुई। इस जनाक्रोश के लिए इराकी संसद कोई राजनितिक जगह नहीं देती। इराकी संप्रभुता (साम्राज्यवाद से मुक्ति) इसका तात्कालिक सरोकार है और इराकी राष्ट्रीयता इसका आधार है। ये दोनों चीज़े आपस में जुडी हुई हैं। 


मलिकी ने इसके बदले एक छद्म राजनीति की उन्होंने संप्रभुता के सवाल को अमेरिका बनाम रूस के सवाल से तथा राष्ट्रीयता के बदले शिया संकीर्णतावाद को अपना राजनीतिक आधार बनाना चाहा। लेकिन यह राजनीति मलकी सरकार नहीं बल्कि वह संसदीय संरचना पैदा कर रही है जो साम्राज्यवाद के आधीन है। अगर राष्ट्रीयता को अपना राजनीतिक आधार बनाया जाये तो साम्राज्यवादी देशों की बीच आपसी प्रतियोगिता संप्रभुता के लक्ष्य का एक लाभदायक संदर्भ बन सकती है। 

लेनिन के साम्राज्यवाद के विश्लेषण का एक राजनीतिक आयाम भी है। क्योंकि लेनिन एक कोरे सिद्धांतकार नहीं थें बल्कि उनका विश्लेषण साम्राज्यवाद से निपटने की रणनीति भी बताता है। अतः वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे की साम्राज्यवाद के विरुद्ध राष्ट्रिय मुक्ति का आंदोलन, अंतराष्ट्रीय मजदुर आंदोलन का ही एक हिस्सा है। अगर इस बिंदु को अपना आधार बनाया जाए तो इस्लामिक स्टेट का एक मूल्यांकन संभव है। मैं उन तथ्यों में नहीं जाऊँगा जिसके आधार पर इस्लामिक स्टेट को अमेरिकी साम्राज्यवाद से उसके सांठ-गाँठ की बात कही जा रही है। 

इस कथन के पक्ष और विरोध में काफी कुछ लिखा जा रहा है। ना ही इस बात में मुझे कुछ ताकत नजर आती है कि इससे साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को वैधता मिलती है। इराक के सुन्नी समुदाय का राज्य के खिलाफ आक्रोश इराक में इस्लामिक स्टेट की सफलता का कारण बना। सीरिया में उसे साम्राज्यवाद की सहायता मिली फिर भी वहां उसे वह विजय नहीं मिली। आज निश्चय ही वह इराक में अमेरिकी फ़ौज के खिलाफ जंग लड़ रहा है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता। मगर सीरिया से लेकर इराक तक के उसके अभियान में जिस बात में निरंतरता नजर आती है वह है, सीरिया और इराक दोनों जगह वह इन भिन्न राष्ट्रों की राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ भी खड़ा है। अंततः वह इराकी राष्ट्रीयता को कमजोर कर रहा। इस अर्थ में वह साम्राज्यवाद के लिए एक आधार पैदा कर रहा है।



 (आलेख साभार मोर्चा पत्रिका)
 कुंदन
kundan24april@gmail.com

असहमति और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता

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रोहित धनकर का यह आलेख, पिछले दिनों फॉरवर्ड प्रेस नाम की एक पत्रिका के दफ्तर में पुलिस के छापे, उसके कर्मियों की गिरफ्तारी, और पत्रिका के विशेषांक को जब्त कर लिए जाने से उपजे कई सवालों की परिधियों को छूता है. पिछले कुछ समय से कुछ एक्टिविस्ट दुर्गा और महिषासुर के युद्ध के हिन्दू मिथक को नए तरह से विश्लेषित कर इसके नए पाठ को ‘बहुजन पाठ' बता रहे हैं. यह आलेख मूलतः इससे असहमत है, और अपने तर्क रखता है, बहस आमंत्रित करता है. आलेख से सहमत-असहमत बहस में शामिल हों.... -संपादक 

-रोहित धनकर

"...मेरे विचार से इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है. मैं पत्रिका की वैचारिक धारा से असहमत हूँ, कुछ आलेखों को छोड़ कर उसमें कुछ गंभीरता से ध्यान देने काबिल नहीं है. पर लोकतंत्र में लोगों को अपने विचार रखने की, उन्हें प्रचारित करने की पूरी स्वतंत्रता जरूरी है. चाहे उन विचारों को हम गलत और मूर्खतापूर्ण ही क्यों न मानें. अतः इन लोगों को देवी दुर्गा के बारे में एक दूसरा विमर्श आरम्भ करने का हक़ है. इस में देवी भक्तों को बुरा लगता है तो लगे..."



फॉरवर्ड प्रेस के विववादित अंक का मुखपृष्ठ
दैनिक भास्कर, १० अक्टूबर २०१४, नई दिल्ली से एक खबर छपी है: “जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस आयोजन के विरोध में कुछ छात्रों ने एफआईआर दर्ज कराई है, जिसके बाद हिंदू देवी-देवताओं के विरुद्ध गलत प्रचार के आरोप में फारवर्ड प्रेस पत्रिका जब्त कर ली गई और उसके चार कर्मचारियों को गुरुवार सुबह गिरफ्तार कर लिया गया।”

कल रात को ही जे.अन.यु. से एक दोस्त ने इस खबर के बारे में बता दिया था. बहुत सारे काम बाक़ी पड़े होने के बावजूद मेरी उत्सुकता और चिंता के चलते मैंने सुबह के कई घंटे—और मेरा दिमाग केवल सुबह ही चलता है आजकल—फारवर्ड प्रेस पत्रिका पढ़ने और उस में से कुछ समझने में लगाये; यह देखने के लिए की उसमें ऐसा क्या है जिसके लिए पत्रिका को जब्त किया जाए और उसके कर्मचारियों को गिरफ्तार किया जाए. मैंने सुबह-सुबह पत्रिका के वे सारे लेख पढ़े जो हिन्दू देवी-देवताओं से सम्बंधित हो सकते हैं.

इन लेखों में मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसके आधार पर पत्रिका को जब्त किया जाए और कर्मचारियों को गिरफ्तार किया जाए. जैसा कि पत्रिका के सलाहकार संपादक का कहना है इस “अंक में कोई भी ऐसी सामग्री नहीं है, जिसे भारतीय संविधान के अनुसार आपत्तिजनक ठहराया जा सके”.अतः यह गिरफ्तारी और जब्ती सरासर असंवैधानिक है, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर सीधा हमला है, और इसका विरोध और भर्त्सना होनी चाहिए.यह पुलिस की गुंडागिर्दी है.

अब कुछ विचार पत्रिका में प्रकाशित विषय-वस्तु पर भी करने की जरूरत है. मुख्य चीज जिसको शायद निशाना बनाया गया है वह महिषासुर और दुर्गा को लेकर एक चित्र कथा है. चित्र-कथा का लब्बो-लुबाब यह है: महिषासुर असुरों का राजा था. देव उसे मारना चाहते थे. पर वह ताकतवर था और देवों के बस में नहीं आ रहा था. देवों ने छल से उसे मारने के लिए दुर्गा को भेजा. दुर्गा ने उस से प्रणय निवेदन किया, अपने रूप जाल में बाँधा. सात दिन उसके साथ रही और फिर मौका देख कर उसे छल से मार दिया और महल के दरवाजे छुपे हुए देवों के लिए खोल दिए. देवों ने असुरों का कत्ले आम कर दिया. चित्र कला की दृष्टि से चित्र चाहे उत्कृष्ट ना हों पर न तो भद्दे हैं, ना ही अश्लील.

यह भी चित्र कथा का हिस्सा है की बचे हुए असुरों ने पांचवें दिन महिषासुर की ह्त्या पर शोक-सभा की. जेएनयू में महिषासुर दिवस इसी शोक की स्मृती में मनाया जा रहा है.

पर देवताओं के छल, दुर्गा के प्रणय-निवेदन और महिषासुर के साथ रहने की कथा पत्रिका के ज्ञानी लेखक लाये कहाँ से? देवों और असुरों के संग्राम और संबंधों पर पत्रिका में काफी सामग्री है. पर इस कहानी के पक्ष में कोई बहुत साफ़ प्रमाण नही हैं. इसे मिथकों का ‘बहुजन’ पाठ कहा जा रहा है? ये बहुजन कौन हैं जो इस पाठ को मानते हैं? यादवों, दलितों और आदिवासियों का नाम लेने से तो काम नहीं चलेगा. क्योंकि यह कहना मुश्किल है की सभी लोग जो इन जातियों में हैं वे इस पाठ को स्वीकार करते हैं.

पत्रिका के इसी अंक में श्री संजीव चन्दन का एक लेख है, “दुर्गा और महिषासुर का मिथक: एक वस्तुनिष्ठ पाठ”. इस लेख में उपरोक्त चित्र-कथा का आधार देखा जा सकता है. श्री चन्दन का कहना है कि दुर्गा सप्तशती इस पाठ को आधार देती है. मूलतः उनका “वस्तुनिष्ठ” पाठ उनके अपने कथन के अनुसार ‘पंक्तियों के बीच की व्याख्या’ पर निर्भर करता है. वह व्याख्या कुछ इस प्रकार है:
  1. दुर्गा सप्तशती के अनुसार युद्ध के दौरान दुर्गा ने सुरा-पान किया.
  2. इससे कुछ लोग (पंक्ति-बीच-व्यखाकार) महिषासुर के वध को दुर्गा के स्त्री होने का फायदा उठा कर धोखे से की गई ह्त्या मानते हैं. (कैसे? पता नहीं.)
  3. बाद में असुर शुम्भ और निशुम्भ दुर्गा को अपने पास आने का प्रस्ताव देते हैं. श्री चन्दन के अनुसार “यहाँ भी कथा के भीतर उपकथा की संभावना है”.
  4. कैसे? लेखक के अनुसार “दुर्गा का अविवाहित होना यानि किसी देवता के द्वारा उसे पत्नी के रूप में न स्वीकार जाना, यानि वह उर्वशी, मेनका की तरह देवताओं की अप्सराओं में गिनी जा सकती है”. (प्रगति-वादी लेखक के इस कथन पर आगे कुछ विचार करेंगे.)
  5. महिषासुर की हत्या को ‘महिषासुर मर्दन’ कहा जाता है. लेखक के अनुसार ‘मर्दन’ ‘सेक्स के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द है’. इसे युद्ध के दौरान सुरा-पान के साथ देखकर उपकथायें तलाशी जा सकती हैं.
जिसे अंग्रेजी में “इन्तेर्प्रेटेटिव रीडिंग” कहते हैं और यहाँ लेखक “पंक्तियों के बीच की व्याख्या” कर रहे हैं,  इस विधा से मैं पूरी तरह अनभिज्ञ हूँ. मेरे गणितीय दिमाग को लगता है कि यह एक ऐसी जादुई विधा है जिसके माध्यम से किसी भी आलेख का कोई भी मन-माना अर्थ बहुत ही आसानी से निकाला जा सकता है. वास्तव में यह इस बात की घोषणा है कि लिखित शब्द का कोई अर्थ नहीं होता. अतः सारे अर्थ बराबर के आधिकारिक होते हैं. यह मानवीय ज्ञान की थाती को मूर्खता में तब्दील करने का यन्त्र है. खैर, अब हम थोड़ा श्री चन्दन की व्याख्या की पड़ताल करते हैं.

इस पड़ताल में हमें ‘पंक्ति-बीच-व्याख्या’ विधि के इस्तेमाल की जरूरत नहीं है. ऊपर लिखे १ से ४ तक के बिन्दुओं को मिला कर देखिये: दुर्गा सुरा-पान करती है, वह अविवाहित है, उसे कोई दो लोग अपने पास आने का प्रस्ताव देते हैं, अतः वह अप्सरा है और अपने स्त्री होने के कारण पुरुष के लिए यौनिक आकर्षण का केंद्र है. और इसका वह वध के लिए उपयोग करती है. और लोगों के साथ सोने में उसे कोई ऐतराज नहीं है. यह चिंतन आए दिन स्त्रियों को अपने आप को ढक कर रखने की सलाह, किसी पुरुष की होने के निशान (सिन्दूर) लगा कर रखने का रिवाज, अकेली ना रहने की सलाह, आदि से कैसे अलग है? क्या यही मानसिकता नहीं है जो हर अकेली स्त्री को अपने लिए उपलब्ध मानने की आज कल के पुरुषों को इजाजत देती है?

चन्दन साहब को कैसे पता कि पुरानी आर्य मानसिकता भी इतनी ही बीमार थी? यह अपनी आज की मानसिकता के आधार पर की गई लोलुप कल्पना नहीं है क्या?

श्री चन्दन को लगता है कि संस्कृत शब्द ‘मर्दन’ का अर्थ सेक्स भी है. मोनिएर-विलियमस का शब्द-कोष मर्दन के ये अर्थ देता है: “Mardana, n. crushing, grinding, rubbing, bruising, paining, tormenting, ruining, destroying, n. the act of crushing or grinding or destroying; Kav.; Kathas. ; BhP.; rubbing, anointing, cleaning or combing (the hair).” आप्टे लगभग शब्दसह सहमत है. इन अर्थों में योन कितना है यह कोई भी आशानी से देख सकता है. और फिर सन्दर्भ का भी योगदान होता है अर्थ के चुनाव में, जहाँ बात युद्ध और मरने की हो रही हो वहां आप “रबिंग, अनोइन्टिंग, क्लीनिंग, या काम्बिंग” चुनेंगे या कुछ और?

इसके अलावा महिषासुर दुर्गा की चित्र कथा का पत्रिका में कोई और प्रमाण नहीं दिखा. हाँ, अपेक्षाकृत लम्बा लेख किन्हीं पॉल ई लारसन साहब का है. यह लेख अवेस्ता और वैदिक साहित्य की तुलना करके यह बताने की कोशिश करता है की कैसे पहले ‘असुर’ तो अच्छे गुणों वाले नैतिक लोग थे और कैसे देव बुराइयों की खान और बुरे लोग थे. दोनों ही आर्य थे, असुर एक-ईश्वर के मानने वाले थे और देव बहु-ईश्वरवादी. लेख में प्रमाणों के नाम पर कुछ वैसा ही है जैसा चन्दन साहब के लेख में. पर लारसन साहब के लेख में एकेश्वर और बहु-ईश्वर की बात को और एकेश्वर के साथ नैतिकता और अच्छे लोगों का होना तथा बहु-ईश्वर के साथ घमंड, ताकत की चाह और अन्याय का होना समझना हो तो उनके बारे में कुछ और जानना होगा.

श्री लारसन “ट्रुथ सीकेर्स इंटरनेशनल” के “यूएस बोर्ड” के संथापक सदस्य हैं. और इस जिम्मेदारी के तहत पिछले १२ वर्षों से भारत की नियमित यात्रा करते हैं. ट्रुथ सीकेर्स इंटरनेशनल का उद्येश्य है “BRINGING FREEDOM FROM CASTE THROUGH THE GOSPEL” अर्थात “गोस्पल के माध्यम से जाती से स्वतंत्रता दिलाना”. कैसे? ट्रुथ सीकेर्स की वेब साईट से एक छोटी सी बानगी देख लीजिये: 

“India’s caste system, a 3000 year old system of religiously defined slavery, restricts the occupation of priests to the highest caste, called Brahmins. They and they alone have the authority under Hinduism, to perform and preside over weddings, funerals, sacrifices, baby naming ceremonies, building dedications and other spiritual ceremonies and festivals. During the past decade, Truthseekers has labored to remove Brahmin tyranny over the lives of India’s low and out castes through the reconciliation of those castes and the denial of any spiritual superiority of the Brahmins, which is what Hinduism teaches.
This labor has produced results, and we’re seeing the reconciliation of the low and out castes and their rejection of Brahmin priests all over North India. This cultural shift creates a huge void. Who will solemnize weddings now? Who will determine the name of a child? This is the problem that Truth-Keepers Discipleship program will solve. We will disciple people into solid Christ followers who will have the authority, confidence and capacity to pastor the low and out castes, including performing and presiding over the spiritual ceremonies that Brahmins once did.”
श्री लारसन के बारे में ट्रुथ सीकेर्स इंटरनेशनल की साईट पर यह है: 

“He is amazed at all God is doing. Paul states he never dreamed that he would see so powerful a movement of God as we now see moving through the Backward Castes of India. Since 2003 Paul has made seventeen multi-week trips to India serving with TSI which he has carefully documented.”

कौन से सत्य की खोज में लारसन साहेब भारत की बार बार यात्रा कर रहे हैं यह इन उद्धरणों से साफ़ हो जाता है. दलित और पिछड़ों की स्वतंत्रता से लारसन साहब का आशय है ईसाई होना. भारत में ईसाइयत ने जाति को कितना दूर किया है यह बात भी सभी जानते हैं. पिछड़ों की शादी करवाने का और बच्चों के नाम कारण का धंधा ब्राह्मणों से छीन कर पादरी के हाथ में देने को वे स्वतन्त्रता दिलाना मानते हैं.

पत्रिका का यह अंक मूलतः यह बताता है कि जिसे ये ‘बहुजन’ कहते हैं (दलित, पिछड़े और आदिवासी) वे लोग असुर-श्रमण परंपरा के वारिस हैं. महिषासुर के वंसज हैं, और अब अपनी परंपरा का पुनर्संधान करके ब्रह्माणी परंपरा से निकलना चाहते हैं. अतः महिषासुर दिवस मनाते हैं. यह ‘पहचान की राजनीती’ का एक पैंतरा है. कोई अपनी पहचान असुरों से और महिषासुर से बनाना चाहता है तो किसी और को क्या ऐतराज हो सकता है? यदि किसी को ईसा और महिषासुर एक-दूसरे के बहुत नजदीक लगते हैं तो भी क्या ऐतराज हो सकता है?

पत्रिका के लेख ठीक-ठाक विमर्श से लेकर मूर्खता तक जाते हैं. कोई भरोसे मंद अकादमिक विमर्श की अपेक्षा इससे करना तो बेवकूफी ही होगी. साथ ही देवी भक्तों को और वैदिक देवताओं के भक्तों को पत्रिका की बहुत सी बातें ना पसंद होंगी, और आज के भारत में बुरी भी लग सकती हैं.

तो क्या मैं यहाँ अपनी ही आरम्भ में कही बात का विरोध कर रहा हूँ? मैं ने आरम्भ में कहा है कि “इन लेखों में मुझे ऐसा कुछ भी नहीं मिला जिसके आधार पर पत्रिका को जब्त किया जाए और कर्मचारियों को गिरफ्तार किया जाए. जैसा कि पत्रिका के सलाहकार संपादक का कहना है इस “अंक में कोई भी ऐसी सामग्री नहीं है, जिसे भारतीय संविधान के अनुसार आपत्तिजनक ठहराया जा सके”. अतः यह गिरफ्तारी और जब्ती सरासर असंवैधानिक है, विचार और अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता पर सीधा हमला है, और इसका विरोध और भ्रत्सना होनी चाहिए. यह पुलिस की गुन्दागिर्दी है.” साथ ही मैं अब कह रहा हूँ की पत्रिका प्रमाण विहीन मूर्खताओं से भरी है और इस में ऎसी चीजें हैं जो देवी भक्तों को बुरी लग सकती हैं.

मेरे विचार से इन दोनों बातों में कोई विरोध नहीं है. मैं पत्रिका की वैचारिक धारा से असहमत हूँ, कुछ आलेखों को छोड़ कर उसमें कुछ गंभीरता से ध्यान देने काबिल नहीं है. पर लोकतंत्र में लोगों को अपने विचार रखने की, उन्हें प्रचारित करने की पूरी स्वतंत्रता जरूरी है. चाहे उन विचारों को हम गलत और मूर्खतापूर्ण ही क्यों न मानें. अतः इन लोगों को देवी दुर्गा के बारे में एक दूसरा विमर्श आरम्भ करने का हक़ है. इस में देवी भक्तों को बुरा लगता है तो लगे.

पत्रिका को पढने से एक बात मुझे और महसूस हुई. इसके करता-धर्ता और संघ परिवार के मूल चिंतन में कोई खास फर्क नहीं है. स्त्रियों के बारे में मैंने ऊपर चन्दन साहब के लेख में यह दिखाया है. अब इतिहास के बारे में भी देख लें. श्री लारसन बताते हैं कि -
“No sense of individual or group identity can successfully survive without a story of origin and destiny. The community must believe that it has an ordained place in the order of things. It is from the story of our past that we understand the present and gain hope and direction for the future.
Thus the celebration of Mahishasura, the great king of the Asuras, martyred at the hands of the treacherous Aryans, provides for the renewal of both identity and hope for the oppressed Dalitbahujans. Such counter-cultural commemorations reconstruct and empower the identity of today’s oppressed Indian Asuras.”
तो पहचान इंसानियत और इंसानी बराबरी के आधार पर नहीं, उद्गम की कहानी और उसकी महानता के आधार पर बनती है. ये ही तो संघ परिवार कहता है. लारसन साहेब इस के साथ यह भी बताते हैं ‘बहुजन’ को कि वे ‘दमनकारी बहुईश्वरवादी आख्यान को छोड़ें और स्वतंत्र करने वाली एकेश्वरवादी आशा के गले लगायें’. बहुईश्वरवादी सिर्फ आख्यान है, और एकेश्वरवादी चिंतन “आशा”. तो रास्ता कुछ यूँ है: दुर्गा से महिषासुर और वहां से ईसा. पर यह पत्रिका का विचार नहीं है, उसमें एक लेखक श्री लारसेन की आशा भर हो सकती है.

निष्कर्ष यह कि पत्रिका का चिंतन आधारहीन और भोंडा है. तर्क बचकाने और उथले हैं. मुख्य मसला भारत की कुछ जातियों को असुर परंपरा में बताना और दुर्गा को देवों/आर्यों के नियंत्रण में एक चाल-बाज छलिया स्त्री बताना है. इस पहचान की लड़ाई के गंदले पानी में मछली पकड़ने के लिए एक ईसाई समूह भी ललचाई आँखों से देख रहा है और ईसायत की पुरानी परंपरा—दूसरे धर्मों की भोंडी व्याख्या करने—का पूरा निर्वाह कर रहा है. पर लोकतंत्र में शब्द के माध्यम से ये सब करने को विमर्श मानना होगा और इसको पूरी इजाजत और संरक्षण भी देना होगा. अतः, पुलिस करवाई गलत, गैर संवैधानिक और नाजायज है. उन लोगों को अपनी अधकचरी व्याख्याओं के प्रकाशित करने का हक़ है और सभी लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लोगों को पत्रिका पर पुलिस करवाई का विरोध करना चाहिए.

(आलेख रोहित धनकर की वेबसाइट http://rohitdhankar.com/ से साभार)

Rohit Dhankar
Secretary, Digantar, Jaipur
Professor, Azim Premji University, Bangalore
Email: rdhankar@digantar.org
Email: rohit.dhankar@apu.edu.in

ऐसी ‘राजजात’ से तो तौबा.......

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 सहयात्रियों के साथ लेखक
-केशव भट्ट 

"...वर्ष 2014 की राजजात यात्रा ने प्रकृति को मीठे कम खट्टे अनुभव ही ज्यादा दिए। वाण से सुतोल तक लगभग 70 किमी के हिमालयी भू-भाग को आस्था के नाम पर लोगों ने जो घाव दिए हैं उसे भरने में कहीं सदियां ना लग जाएं। इस बार की राजजात को सरकार ने हिमालय का कुंभ नाम देकर हजारों लोगों का हिमालयी क्षेत्र में जमावड़ा लगा दिया। यात्रियों के रहने-खाने की व्यवस्था के नाम पर अरबों रूपयों की जमकर बंदरबांट हुवी।... " 

इस बार की नंदा राजजात यात्रा को हर किसी ने अपने चश्में से देखा। कईयों की आस्था थी तो कई आस्था के नाम पर मौजमस्ती कर मालामाल हो गए। इस यात्रा में डरते-डरते मैं भी अपने साथी, विनोद उपाध्याय, आंनद खाती, संजय पांडे, पूरन जोशी, दीपक परिहार के साथ जाने के लिए तैंयारी की। मैं इससे पहले कई बार इस पूरे ट्रेकिंग रूट से वाकिफ रहा हूं। तो भीड़ के दबाव को सोचते हुए सिर्फ रूपकुंड तक ही जाने का प्रोगाम बनाया। दो टैंट तथा राशन आदि तैंयार कर हम 31 को वेदनी को फुर्र हो लिए.........
दो दिन वेदनी बुग्याल का हाल देख हमारी हिम्मत फिर नहीं पड़ी कि इस भयानक भीड़ के कारनामे आगे और देखे जाएँ । वेदनी से कुछ आगे जाकर हम शोरगुल की दहशत से आॅली बुग्याल की शांत फ़िज़ा में चले गए। यहां भेड़-बकरियों के छौनों की मीठी पुकार थी। दूर-दूर तक प्रकृति का शांत आंचल फैला था..... हवा की सरसराहट में मधुर संगीत था। टैंट वहीं लगा धरती के सीने में  हम सभी पसर गए...... 

लूट सके तो लूट.......


वर्ष 2014 की राजजात यात्रा ने प्रकृति को मीठे कम खट्टे अनुभव ही ज्यादा दिए। वाण से सुतोल तक लगभग 70 किमी के हिमालयी भू-भाग को आस्था के नाम पर लोगों ने जो घाव दिए हैं उसे भरने में कहीं सदियां ना लग जाएं। इस बार की राजजात को सरकार ने हिमालय का कुंभ नाम देकर हजारों लोगों का हिमालयी क्षेत्र में जमावड़ा लगा दिया। यात्रियों के रहने-खाने की व्यवस्था के नाम पर अरबों रूपयों की जमकर बंदरबांट हुवी। आस्था का दिखावा कर अरबों रूपयों को लूटने में किसी ने भी गुरेज नहीं की। यात्रा मार्ग के रखरखाव के साथ ही व्यवस्था के नाम पर चमोली, अल्मोड़ा, बागेश्वर जिलों को करोड़ों बांटे गए। वेदनी, पाथर नचैनियां, बगुआवासा, शिला समुद्र में रहने के लिए टैंटों की व्यवस्था तथा सफाई के लिए करोडों रूपयों का ठेका दिया गया था। लेकिन इन जगहों पर प्लास्टिक की थैलियां, प्लास्टिक की बोतलें, डिस्पोजल थालियां, गिलास, कटोरियां तथा शराब की बोतलों के साथ ही मानव जनित कूड़े के ढ़ेर बिखरे पड़े हैं। अब सरकार इस कूड़े का निस्तारण करने के नाम पर एक बार फिर नए घोटाले के द्वार खोल रही है। 

आस्था को बना कीचड़, बार-बार डूब उतराय.....

राजजात यात्रा के नाम पर सरकार द्वारा दोनों हाथ से खजाना लुटाने पर लाखों लोगों में एकाएक आस्था की बाढ़ आ गई। इस बाढ़ में चपरासी से लेकर सचिव तक के अधिकारियों समेत नेताओं ने भी जम कर डुबकी लगा ली। अब बागेश्वर को ही ले लें तो यहां गरूड़ के डंगोली में रहने व खाने की व्यवस्था के नाम पर जिले को चालीस लाख मिल गए। रूपये मिलने के बाद जैसे सभी में प्राण आ गए। हर रोज गरूड़-डंगोली में मीटिंगों का दौर चलने लगा। माॅं नंदा की जय जयकार करते हुवे चालीस लाख धुंवा हो गया। डंगोली के आसपास सड़क के किनारे बिखरी गंदगी लंबे समय तक बजबजाती रही। मानवीय आस्था का सच जानने का मन हुवा तो 31 अगस्त 2014 को वेदनी बुग्याल का रूख किया। वाण गांव की सड़क महंगी गाडि़यों से पटी पड़ी थी। गांव में खेतों के किनारे कुछ कपड़े वाले शौचालय लगे दिखे। पैदल रास्ते में सैकड़ों लोग आ-जा रहे थे। रणकीधार में हरा-भरा घास का मैदान गायब दिखा। यहां टिन डालकर एक दाल-चावल की दुकान खोली थी। चारों ओर गंदगी बिखरी थी।

सियारों ने गाना गाया, नेता नाचे झूम-झूम.......

रिमझिम बारिश शुरू हो गई थी। आगे गैरोली पातल को खड़ी चढ़ाई का रास्ता हजारों लोगों के साथ ही घोड़े-खच्चरों की आवाजाही से फिसलन भरा हो गया था। इस रास्ते कई बार आना-जाना हुवा था। लेकिन ऐसी दुर्दशा पहले कभी नहीं देखी। गैरोलीपातल पहुंचे तो वहां का हाल काफी बुरा था। यहां एक बड़ा टैंट लगा था। राजजात यात्रा का यह विश्राम पढ़ाव था। बदबू से यहां रूक नहीं सके। वेदनी की चढ़ाई के बाद तिरछा रास्ता हरियाली लिए था। वेदनी में पहुंचे तो लगा कि कहीं कुंभ में पहुंच गए हों। चारों ओर भयानक शोर मचा हुवा था। लाउडस्पीकर में उद्घोषक गला फाड़-फाड़ कर चिल्ला रहे थे। भजनों के नाम पर फूहड़ फिल्मी गानों की पैरोडी का कानफोड़ शोर सुनाई दे रहा था। हल्की बारिश अनवरत जारी थी। रास्ते में मखमली घास की जगह हर ओर कीचड़ पसरा दिखा। एक जगह लगे लंगर की आढ़ी-तिरछी लाईनों में सैकड़ों लोग अपनी बारी के इंतजार में खड़े थे। जनरेटरों का शोर अलग मचा था। चारों ओर लगे सैकड़ों टैंटों से बेदनी बुग्याल का सौंदर्य गायब था। समूचा बुग्याल आस्था के जनसैलाब तले दर्द से कराहता सा दिखा। 

खाया है माल सरकारी, तो कैसे खबर दिखाएं तुम्हारी.......

इस बार की राजजात यात्रा में हिमालयी क्षेत्र की पैदल यात्रा में रूपकुंड तक लगभग बीस हजार यात्रियों का जाना रहा। यहां से अनुमानतः लगभग दस हजार यात्रियों ने आगे की यात्रा की। आस्था के इस सैलाब के पांवों तले गैरोलीपातल, वेदनी, पातर नचैणियां, बगुआबासा बुग्याल समेत शिला समुद्र का घास का मैदान बुरी तरह से कुचल कर घायल हो गए हैं। सामान ढोने वाले हजारों घोड़े-खच्चरों ने रही बची कसर पूरी कर दी। यही नहीं बृहम कमल, विष्णु कमल, फेन कमल सहित दर्जनों फूल यात्री तोड़कर अपने साथ ले गए। मानव की इन हरकतों से हिमालय के इन क्षेत्रों को उबरने में लंबा वक्त लगेगा। बेदनी बुग्याल के चारों ओर शराब की खाली बोतलें आस्था के मर्म को बयां करती दिखी। राजजात यात्रा पर गए एक यात्री का कहना था कि, ‘नंदा राजजात में अव्यवस्थाओं की बानगी तो हम सभी ने देखी। जनता को गुमराह किया गया कि वाण गॉव से आगे सभी सरकारी व्यवस्था हैं. इसका कोप मीडिया कर्मियों ने बेदनी बुग्याल में तब झेला जब आम जनता ने मीडिया के तम्बू बम्बू उखाड़कर उन्हें झूठी और बेबुनियाद खबरें चलाने के लिए जमकर कोसा। 

अंधा बांटे रेवडि़यां.........

सरकार ने दस हजार ड्राई फ्रूट्स के पैकेट पांच हजार छाते, पांच हजार रैन कोट, पांच हजार जोड़ी जूते सहित हजारों की संख्या में बरसाती भेजी थी जिनका कहीं कोई अता-पता नहीं मिला। जब मैंने वाण गॉव आकर गबर सिंह बिष्ट की दूकान के गोदाम में देखा तो वहां सारा सामान ठूंस-ठूंस के भरा था। सिर्फ एक महिला जो कि फल्दिया गॉव की थी वह हंस फाउंडेशन की माँ मंगला व भोले महाराज द्वारा यात्रियों को प्रसाद के रूप में भेजे गए हजारों पैकेट (चार लड्डू, मटरी, नमकपारे) जो कि आधा आधा किलो के डिब्बों में पैक थे उन्हें बाँट रही थी। खबर मिली कि इसी गोदाम में सारा माल दबाया गया है। मैंने खोज की तो पता चला कि इसका इंचार्ज ग्राम्य विकास विभाग के हरीश जोशी हैं। जिन्हें मैं ढूँढने बाजार पहुंचा क्योंकि हर एक व्यक्ति मुख्यमंत्री व चमोली जिले के जिलाधिकारी के विरुद्ध नाराजगी जाहिर कर रहे थे। श्रद्वालुओं का कहना था कि इस तरह अगर यह सामान गोदाम में भरा जा रहा है तो किसके लिए। मैंने हरीश जोशी से जानकारी चाही तो वह गुंडई वाली भाषा में बोले जिसे जो उखाड़ना है उखाड़ ले, मुझे किसी की प्रवाह नहीं है। यहीं तक बात रूकती तो कोई बात नहीं उसे आव सूझा न ताव उसने गबर सिंह बिष्ट को एक पौवा पिलाया और उनसे कहा कि हंस फाउंडेशन का सारा माल बाहर फैंक दो वरना तुम्हारी दूकान में भरा सरकारी माल सब लोग हजम कर जायेंगे। गबर सिंह बिष्ट गुस्से में भरा हुआ पहुंचा। उधर हरीश जोशी ने गोदाम खोला और जितनी पेटी भी माँ मंगला और भोले महाराज द्वारा प्रसाद की भेजी थी सब बाहर लाकर पटक दी। भला वह बेचारी महिला क्या विरोध दर्ज कर पाती। फिर क्या था वाण गॉव के लोग पेटी की पेटियां अपने घरों में लादकर ले गए। बहुत देर तक महिला ने विरोध जताया लेकिन आखिर ऐसे नपुंसक समाज के आगे उसकी क्या चलती।’ 

सुरा के शोर में रैना बीती.......

रात भर वेदनी में जगराता रहा। लाउडस्पीकर पर रातभर उद्घोषक अपना गला साफ करने में लगे रहे। सुबह नौटी के मुख्य पुजारी राजजात यात्रा में परम्पराओं के उल्लघंन से खासे नाराज थे। उनके मुताबिक वाण से लाटू देवता ही इस यात्रा मार्ग में पथ प्रदर्शक होता है। उसके पीछे से देवी का डोला चलता है। इसके बाद गढ़वाल और कुमाउं के विभिन्न जगहों से आई छंतोलियां पीछे से चलती हैं। लेकिन इस बार परम्परा को अनदेखा कर दिया गया। मुख्य राजजात की डोली व छंतोली वेदनी में पूजा आदि के कार्यों में लगी थी कि कई लोग अपनी छंतोलियांे को लेकर आगे के पड़ावों को निकल गए। वेदनी कुंड के बगल में एक टीम गाने की सूटिंग में मस्त थी। चुनरी लहरा कर घुमने के शाॅट का कई बार रिटेक हो रहा था। बड़ा अजीब सा लगा जब एक ने बताया कि हजारों लोग तो शिला समुंद्र पहुंच गए हैं। इनका क्या उद्देश्य रहा होगा आस्था, मौज मस्ती या फिर और कुछ.......

पैंसा भयो मिट्टी तो फिसलत काहे जाए......

सायं यात्रा पातर नचैणियां पंहुची। यहां जगह कम होने पर कई लोग आगे बगुआवासा चले गए। अगले दिन जात जब केलुवाविनायक पहुंची तो आगे चलने को लेकर कुछ छंतोलियों में हाथापाई भी हो गई। गाजी-गलौच से लेकर लाठी-डंडे तक खूब चले। देर सायं बगुआवासा, रूपकुंड, ज्योरागली होते हुए यात्रा शिलासमुंद्र पहुंची। अगली सुबह यात्रा होम कुंड के लिए चली और देर सायं चन्दनियाघाट पहुंची। शिलासमुंद्र में एक यात्री का स्वास्थ्य खराब होने पर उसे हैलीकाप्टर से ले जाया गया लेकिन रास्ते में उसकी मौत हो गई। अगले दिन चन्दनियाघाट से लाटाखोपड़ी होते हुए यात्रा सुतोल पहुंची। रास्ते में फिसलन में रपटने से कई लोग घायल हो गए। रास्ते को ठीक करने वाले ठेकदार ने ढलान में पत्थरों की सीढियां बनाने की बजाय कट्टों में मिट्टी भरकर सीढि़यां बना दी थी। जनदबाव पड़ने पर वो कट्टे फट गए और मिट्टी बिखर गई। पांच सितंबर को सुतोल से घाट होते हुए छह सितंबर को यात्रा नौटी पहुंच गई। 

मत छेड़ मुझे, गरज-बरस जाउंगी.......

इस यात्रा से कई सवाल खड़े हो गए हैं। लेकिन लगता नहीं की सरकार इससे कोई सबक लेगी। क्योंकि इस यात्रा के कुशल व्यवस्था के लिए सरकार अपने चहेतों को पुरूष्कारों से नवाज दिया है। और साथ ही ये घोषणा की है कि अब हर साल वेदनी तक जाने वाली जात में भी सरकार बड़चढ़ कर प्रतिभाग करेगी। इधर, हाल ये हैं कि सरकार ने राजजात यात्रा की व्यवस्थाओं के मद्देनजर लगभग एक करोड़ में सुलभ संस्था को भी सफाई का जिम्मा दिया था बावजूद इसके बुग्यालों के चारों ओर कूड़े के साथ ही मल-मूत्र की गंदगी अभी तक बजबजा रही हैं। सुलभ के कर्मचारियों ने इन सभी बुग्यालों में जो भी कूड़ा एकत्रित किया वो वहीं उन बुग्यालों के नीचे फैंक दिया। यह जैविक और अजैविक कूड़ा इन बुग्यालों को वर्षों तक सड़ाते रहेगा, इसकी चिंता किसी को भी नहीं। सरकार के द्वारा इस यात्रा में विशेष प्रबंध किए जाने की सूचना पर हजारों की तादाद में लोग इस यात्रा में बिना अपनी किसी तैयारी के शामिल हो गए। इनमें ज्यादातर ना तो हिमालयी भू-भाग की संवेदनशीलता से वाकिफ थे और ना ही वो प्रकृति के प्रति संवेदनशील रहे। कईयों ने इस यात्रा को मौज-मस्ती के रूप में लिया। शराब की सैकड़ों खाली बोतलें बुग्यालों में यत्र-तत्र बिखरी पड़ी दिखीं। हजारों की भीड़ के लिए लगभग पांच-छह दर्जन शौचालय बनाए गए थे जो नाकाफि रहे। बेदनी के नीचे ढलान में हजारों यात्री मल-मूत्र विसर्जित कर गए। 

बहरहाल! देवी के डोले को ससुराल पहुंचाने की इस परम्परा को शांत ढंग से ही निभाया जाना चाहिए। इससे परम्परा के साथ ही प्रकृति को भी नुकसान नहीं पहुंचेगा। 

केशव भट्ट पत्रकार भी है और यात्री भी
.पत्रकारिता इनका पेशा है और यात्राएँ शौक.
उच्च हिमालय की ढेरों यात्राएं रही हैं और उन पर निरंतर लेखन.
संपर्क- keshavbhatt1@yahoo.com.

‘मर्दाना नीतियों’ के निहितार्थ

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...यह तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान और चीन- दोनों सीमाओं पर तनाव बढ़ेगा। गोली के बदले मोर्टार दागने की नीति से पाकिस्तान का सैन्य-खुफिया तंत्र विचलित होगा, यह मानना कठिन है। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर सीज़फायर के उल्लंघन के पीछे पाकिस्तान की कोशिश जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ कराने के साथ-साथ इस मसले को अंतरराष्ट्रीय रूप से जीवित रखने की भी होती है। सिर्फ ऐसा करके ही वह भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध का खतरा दुनिया को दिखा सकता है, जिससे उसे उम्मीद होती है कि अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र इस मसले में दखल देंगे।..." 

रेंद्र मोदी ने देश की सत्ता संभालने के साथ पड़ोसी देशों से दोस्ताना दौर शुरू होने का जो माहौल बनाया, वह अब तिरोहित हो चुका है। कम से कम पाकिस्तान और चीन के संदर्भ में तो यह बात पूरी तरह लागू होती है। बल्कि हकीकत यह है कि पिछले साढ़े चार महीनों में इन दोनों देशों के साथ संबंध पहले की तुलना में ज्यादा बिगड़ गए हैँ। देश में युद्धकारी (hawkish) नीतियों के समर्थक तबके इसे नरेंद्र मोदी सरकार की सफलता के रूप में देखें, तो इसमें कोई अचरज नहीं है। असल में इन दोनों मोर्चों पर भारत अब जिस तरह पेश आ रहा है, उसे लेकर देश में संतोष का भाव पैदा करने के प्रयास होते हम देख सकते हैं। इसे क्रमिक दबाव वृद्धि (graduated escalation)की नीति कहा जा रहा है। यानी भारत स्थिति के मुताबिक सीमा पर दबाव बढ़ाएगा और दूसरी तरफ से की जाने वाली भड़काऊ कार्रवाइयों का उससे अधिक नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से जवाब देगा। 

पाकिस्तान के संदर्भ में दलील दी गई है कि उसके साथ भारत की शांति वार्ता वहां की सेना को सीमा गोलीबारी और आतंकवादी हमलों के लिए प्रोत्साहित करती है। इसलिए मोदी सरकार ने गोली के बदले मोर्टार दागने की नीति अपनाई है। इसके साथ ही 2003 से भारत ने पाकिस्तान के तुष्टिकरणकी जो नीति अपना रखी थी, उसका अंत हो गया है। आक्रामक नीतियों के जाने-माने पैरोकार ब्रह्म चेलानी ने लिखा है- मोदी यह दिखा रहे हैं कि वे वाजपेयी नहीं हैं, जिनकी पाकिस्तान के बारे में घुमावदार नीति लाहौर, करगिल, कंधार, आगरा, संसद पर हमले और इस्लामाबाद से होते हुए गुजरी, जिसका परिणाम सीमा-पार से ज्यादा आतंकवादी हमलों को आमंत्रित करने के रूप में सामने आया। स्पष्टतः मोदी मनमोहन सिंह नहीं हैं, जिनकी हर कीमत पर पाकिस्तान के साथ शांति की नीति इस भोले विश्वास पर आधारित थी कि आतंक के जवाब में कुछ ना करने का अकेला विकल्प युद्ध करना है।तात्पर्य यह कि मोदी काल में पाकिस्तान को जवाब देने के तरीके में बदलाव आया है, यह बात देश को बताई जा रही है। हाल के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह एक तथ्य है। लेकिन इसके साथ यह प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर इस नीति के परिणाम क्या होंगे? क्या यह अपने वृहत्तर लक्ष्यों को पाने में भारत के लिए मददगार बनेगी?

माहौल चीन के साथ भी बदला है। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही चीन के प्रधानमंत्री ली किच्यांग ने भारत की यात्रा की थी। उस समय जो जोश दिखा, वह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा होते-होते काफूर हो चुका था। चीनी राष्ट्रपति की यात्रा पर चुमार (लद्दाख) में चीनी फौज की घुसपैठ से बिगड़े माहौल का साया पड़ा रहा। अब हालात ये हैं कि चीन ने पूर्वी सीमा पर दूर-दराज तक सड़क बनाने की भारत की योजना पर चिंता व्यक्त की है और ये उम्मीद जताई है कि भारत जारी मतभेदों को और जटिल नहीं बनाएगा।पिछले महीने भारत ने अरुणाचल प्रदेश में सीमा से 100 किलोमीटर के दायरे में सड़क और सैनिक सुविधाएं बनाने पर लगी पाबंदियों को हटा लिया। चीनी प्रतिक्रिया उसी निर्णय पर है। निहितार्थ यह कि भारत ने चीन से लगी विवादितसीमा पर भी क्रमिक दबाव वृद्धिकी नीति अपना ली है।

जाहिर है, देश में एक बड़ा तबका इसे मर्दाना नीतिके रूप में चित्रित करेगा। बहरहाल, इसके क्या परिणाम होंगे, इसका अंदाजा लगाने से पहले यह उचित होगा कि इस नीति के और व्यापक पहलुओं पर एक नजर डाल ली जाए। वो पहलू वैश्विक स्तर पर भारत को अमेरिका नेतृत्व वाली धुरी का हिस्सा बनाने से जुड़ता है। इसके स्पष्ट संकेत हाल में प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान मिले, जब वहां उनकी इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू से मुलाकात हुई। इस भेंट के कार्यक्रम को अंतिम वक्त तक गोपनीय रखा गया। उस यात्रा से पहले मोदी जापान गए थे। उसके बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट भारत आए। इनसे दोनों देशों के साथ भारत के संबंध प्रगाढ़ हुए। इसके बीच रक्षा एवं परमाणु सहयोग की बनी नई स्थितियां ध्यानार्थ हैं। जापान और ऑस्ट्रेलिया एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी धुरी के खास अंग हैं। इजराइल पश्चिम एशिया में इसका हिस्सा है। जापान की भूमि से मोदी ने कुछ देशों के 18वीं सदी की विस्तारवादी मानसिकतामें जकड़े रहने का वक्तव्य दिया था, जिसे चीन पर साधा गया निशाना माना गया। नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा कितनी सफल रही, अभी इस बारे में कुछ पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। इसलिए कि अमेरिका से संबंध में सुरक्षा और सामरिक पहलू तो महत्त्वपूर्ण होते हैं, लेकिन उसका बड़ा नाता आर्थिक मसलों से होता है। हालांकि मोदी वहां बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में संयुक्त कार्यदल बनाने पर सहमत हो गए, इसके बावजूद इस मुद्दे तथा परमाणु रिएक्टरों की खरीद और विश्व व्यापार संगठन में खाद्य सब्सिडी से जुड़े मसलों पर सहमति नहीं बन सकी। बहरहाल, इससे यह तथ्य धूमिल नहीं होता कि साढ़े चार महीनों की छोटी अवधि में मोदी सरकार भारत की विदेश नीति में उल्लेखनीय बदलाव ले आई है। अब प्रश्न है कि इसका नतीजा क्या होगा?

यह तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान और चीन- दोनों सीमाओं पर तनाव बढ़ेगा। गोली के बदले मोर्टार दागने की नीति से पाकिस्तान का सैन्य-खुफिया तंत्र विचलित होगा, यह मानना कठिन है। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर सीज़फायर के उल्लंघन के पीछे पाकिस्तान की कोशिश जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ कराने के साथ-साथ इस मसले को अंतरराष्ट्रीय रूप से जीवित रखने की भी होती है। सिर्फ ऐसा करके ही वह भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध का खतरा दुनिया को दिखा सकता है, जिससे उसे उम्मीद होती है कि अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र इस मसले में दखल देंगे। दूसरे सीमा पर तनाव पाकिस्तानी सैन्य-खुफिया तंत्र के माफिक बैठता है, क्योंकि तब वह वहां की निर्वाचित सरकार को हाशिये पर रखने में ज्यादा कामयाब हो सकता है। तीसरे, अगर साथ-साथ भारत और चीन के बीच भी तनाव बढ़ता है, तो पाकिस्तान के लिए इससे अच्छी स्थिति और कुछ नहीं हो सकती। सवाल है कि इन हालात के बीच अमेरिका या उसके नेतृत्व वाली धुरी भारत के कितने काम आएगी?

अमेरिका की भू-राजनीतिक और सामरिक प्राथमिकताओं में पाकिस्तान कभी पूर्णतः महत्वहीन हो जाएगा, यह उम्मीद फिलहाल लगाना बेबुनियाद है। फिर प्रश्न को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि सुरक्षा मामलों में अमेरिकी समर्थन जुटाने के लिए आर्थिक मामलों में भारत को कितनी कीमत चुकानी होगी?और आखिरी यह कि क्या भारत को यह मान लेना चाहिए चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ विवादों का कभी स्थायी हल नहीं निकलने वाला है?मोदी समर्थक जिस विश्वास को भोलापनया जिन नीतियों को अधिक आतंकवाद को आमंत्रित करने वालीबता रहे हैं, उनके पीछे मंशा दीर्घकालिक हल निकालने की थी। समझ यह थी कि आज की दुनिया में शक्ति का पर्याय ऐसा विकास है, जिससे देश में सभी लोगों की जिंदगी सुधरे और उनकी मूलभूत स्वतंत्रताओं में विस्तार हो। मर्दाना नीतियांहथियारों की होड़ और निरंतर तनाव या युद्ध की मानसिकता जारी रहने की तरफ ले जाती हैं, जबकि दुनिया भर का अनुभव है कि उनसे कोई समाधान नहीं होता। इसकी आखिरी कीमत आम जन को चुकानी पड़ती है.

मंगतू की आपदा,देवाधिदेव का सैर-सपाटा

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Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी
-इन्द्रेश मैखुरी

"...अब वो देवता ही क्या जिनके चेहरे पर ऐसी छोटी–मोटी मानवीय परेशानियों से शिकन आ जाए. मंगतू से कहा हमारे रहते तू चिंतित क्यूँ होता है, हमसे बड़ी कौन आफत है आखिर! तो साधो, मंगतू का संकट हरने के लिए देवाधिदेव ने तय किया कि वे अपने सब देवगणों को लेकर मंगतू की पुन्ग्ड़ो के ढूले हुए पगार देखने जायेंगे. परामर्शियों ने परामर्श दिया- हुजूर चार पुन्ग्ड़ो की खातिर आप क्यूँ अपनी कोमल काया को कष्ट देते हैं, फिर इस पर खर्चा भी तो बहुत होगा. पर देवाधिदेव अडिग, सारा खजाना खाली हो जाए पर हम पुन्ग्ड़ो को देखने हर हाल में जायेंगे..."


साधो, उत्तराखंड देवभूमि है. इसलिए यहाँ होने वाला हर कृत्य चाहे वह ठगी या लूट ही क्यूँ ना हो, दैवीय कार्य है. देवभूमि में हर कार्य में देवत्व है. और देवभूमि में सबसे बड़े देवता कौन है? वही जो सत्ता में हैं. अपने देवकृत्यों से ही वे सत्ता में पहुंचे होंगे. पूरे उत्तराखण्ड पर उनके देवत्व की कृपा जब-तब बरसती रहती है.

बरसने से याद आया, पिछली बरसात में बेचारे मंगतू के चार पुन्ग्ड़ो के पगार ढूल गए. मंगतू बेचारा आफ़त का मारा. उसने सरकार से गुहार लगाई- हे दयानिधान, कृपा करो, विपदा आन पड़ी है. अब वो देवता ही क्या जिनके चेहरे पर ऐसी छोटी–मोटी मानवीय परेशानियों से शिकन आ जाए. मंगतू से कहा हमारे रहते तू चिंतित क्यूँ होता है, हमसे बड़ी कौन आफत है आखिर! तो साधो, मंगतू का संकट हरने के लिए देवाधिदेव ने तय किया कि वे अपने सब देवगणों को लेकर मंगतू की पुन्ग्ड़ो के ढूले हुए पगार देखने जायेंगे. परामर्शियों ने परामर्श दिया- हुजूर चार पुन्ग्ड़ो की खातिर आप क्यूँ अपनी कोमल काया को कष्ट देते हैं, फिर इस पर खर्चा भी तो बहुत होगा. पर देवाधिदेव अडिग, सारा खजाना खाली हो जाए पर हम पुन्ग्ड़ो को देखने हर हाल में जायेंगे. विपक्षियों ने शोर मचाया तो देवाधिदेव ने कहा कि तुम भी सरकारी उड़नखटोले में बैठना चाहो तो बैठो, पर हमें ना रोको.

सो तय तिथि पर देवाधिदेव और उनके देवगण, मंत्री-संतरी, बाबु-चपरासी, फौजदार, रौबदार, फर्राटेदार, झन्नाटेदार सब मंगतू के पुन्ग्ड़ो को देखने मुंह उठाये चल दिए. मंगतू चाहे नमक-रोटी में गुजारा करता हो या मांड पीकर, देवाधिदेव और विभिन्न दैवीय कृत्यों के लिए ख्यातिलब्ध देवगण आयेंगे तो छत्तीस व्यंजन, छ्पप्न पकवान के बिना तो नहीं जीमेंगे. पहाड़ी देवगण हैं सो कचमोली भी जरुरी है. पेय के रूप में सोमरस भी बहेगा ही बहेगा. उसूलों के पक्के देवगण, जिन कुछ चीजों से कतई समझौता नहीं करते, खाना और पीना भी उनमें से एक है. मौका चाहे बारात का हो या वारदात का, देवगण इस दस्तूर में कोई हील हुज्जत बर्दाश्त नहीं करते. भाई मुंह का जायका ठीक रहेगा तभी तो कोमल वचन फूल सामान झरेंगे. सो मंगतू के पुन्ग्ड़ो के निरिक्षण में भी जमकर पकवान जीमे गए, कचमोली भकोसी गयी और देवताओं का प्रिय पेय सोमरस बहा. इस सब के पश्चात देवाधिदेव ने अपनी उजली दमकती काया से कमल रुपी कर, उजड़ा चमन हो चुके मंगतू के कंधे पर रख कर उवाचा- देवगणों ने तुम्हारा प्रकृति की सुरम्य वादियों में बसा आशियाना देख लिया है. सुविधाओं का यहाँ जो अकाल है, वह जल्द दूर होगा. हम यहाँ हेलीपैड बनायेंगे ताकि हमारे उड़नखटोले यहाँ उतर सकें. उड़नखटोले उतरेंगे तो देशी-विदेशी तिजोरीवान भी यहाँ उतर सकेंगे.

मंगतू गिडगिडाया-पर दयानिधान मेरे पुन्ग्ड़ो की ढूले हुए पगार ..........? देवाधिदेव किंचित क्रोधित हुए- नादान मनुष्य हम देश- दुनिया के तिजोरीवानों को यहाँ लाने की सोच रहे हैं और तू अपने पुन्ग्ड़ो की ढूले हुए पगार में ही अटका पड़ा है. अरे तुच्छ मनुष्य जब दुनिया भर के तिजोरीवान यहाँ पहुँच जायेंगे तो ये पुन्ग्ड़े तब भी क्या तेरे रह पायेंगे और जब पुन्ग्ड़े तेरे नहीं रहेंगे तो फिर उनके पगार ढूलने का ख़तरा तेरे सिर पर कहाँ रहा? देख,हमने देखने भर से तुझे सब संकटों से तार दिया है, तेरा बेड़ा पार कर दिया है.

देवगण, मंत्री-संतरी, बाबु-चपरासी, फौजदार, रौबदार, फर्राटेदार, झन्नाटेदार सब ने जयकारा बुलंद किया-देवाधिदेव की ज......................य .

(गढ़वाली में पुन्ग्ड़े यानि खेत. पगार-पहाड़ में सीढीनुमा खेतों में जहां पर भूमि स्खलन होता है, वहां पर पत्थरों की चिनाई से उसे दुरुस्त किया जाता है,उसे पगार कहते हैं. ढूळना-खेत की मिट्टी या पगार के गिरने को कहते हैं)   

नागपुर सेन्ट्रल जेल से हेम मिश्रा का पत्र

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न्याय अपने आप में एक जटिल विषय है। इतिहास में न्याय को हमेशा सत्ताशाली वर्गों ने अपने अनुसार परिभाषित किया है। आज देश-भर की जेलों में हजारों लोग फर्जी मुकदमों और बिना ट्रायल के बंद हैं। इनमें कई राजनीतिक कार्यकर्ता हैं और उसके अलावा अक्सर अल्पसंख्यक समुदाय, दलित और आदिवासियों की संख्या बहुतायत में है।  
बीते 23 अगस्त 2013 को महाराष्ट्र पुलिस ने जेएनयू के छात्र रहे संस्कृतिकर्मी हेम मिश्रा की ​अहेरी स्टेशन से गिरफ्तारी दिखाई। साथ में दो आदिवासी युवकों को भी गिरफ्तार दिखाया गया। लेकिन उस वक्त भी यह कहा गया कि हेम मिश्रा की यह गिरफ्तारी दरअसल 23 अगस्त 2013 को महाराष्ट्र के ​ही बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से हुई थी। 3 दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने, उन्हें बल्लहारशाह से लगभग 300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का दावा किया।

इतने लंबे समय तक इस मामले में हेम मिश्रा का कोई भी सीधा वर्जन अब तक नहीं आया था। लेकिन उन्होंने पिछली 16 सितंबर को नागपुर सेंट्रल जेल से अपने पिता को लिखे एक पत्र के साथ ही संलग्न, एक सार्वजनिक पत्र में अपनी आप-बीती बताई है। हेम मिश्रा की कलम से जानिए उनकी आप-बीती.....

-संपादक

दोस्तो, 
पिछले महीने अगस्त की 20 तारीख को महाराष्ट्र की पुलिस द्वारा मेरी गिरफ्तारी किए एक साल पूरा हो गया है। एक संस्कृतिकर्मी और दिल्ली के प्रतिष्ठित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र रहने के बावजूद मुझ पर यूएपीए (गैर कानूनी गतिविधि निवारण कानून) की विभिन्न धाराएं लगाई गई हैं। और नागपुर सेंट्रल जेल के अति सुरक्षा विभाग (High Security Cell) ''अंडा सेल''की तनहाइयों में रखा गया है। महाराष्ट्र के गढ़चिरौली सत्र न्यायालय (Session Court) ने 6 सितंबर 2014 को मेरी जमानत की अर्जी भी खारिज कर दी है। नागपुर सेंट्रल जेल की इन बंद दीवारों के बीच मुझे न्यायालय से न्याय की किरण फूट पड़ने की उम्मीद थी। लेकिन, न्यायालय ने मेरी जमानत याचिका खारिज कर मेरी इन उम्मीदों पर विराम लगा दिया है।

न्यायालय का यह आदेश प्रकृति द्वारा मुझे दिए गए खुली हवा में जीने के अधिकार के खिलाफ जाता है। आज जनवाद व न्यायपसंद लोगों के संघर्षों की बदौलत सत्ता के शिकार जेलों में बंद हजारों हजार लोगाें की जमानत जल्द से जल्द सुनिश्चित किए जाने के अधिकार का सवाल एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है। जिसके चलते सर्वोच्च न्यायालय भी इसी नतीजे पर पहुंची है कि सभी न्यायाधीन बंदियों की जमानत के इस अधिकार को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। और समय समय पर अपने अधीन न्यायालयों को इस संबंध में दिशा निर्देश भी देते रही है। इसके बावजूद भी सत्र न्यायालय ने मुझेे जमानत देने से इनकार कर मुझसे यह अधिकार छीन लिया है। और मुझ जैसे संस्कृति कर्मी को जेल की इन बंद दीवारों के बीच तनहाइयों में रहने को विवश कर दिया है ।

पिछले साल अगस्त महीने में अपनी गिरफ्तारी से पहले मैं नई दिल्ली स्थित जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय का छात्र था। विश्वविद्यालय में पढ़ाई के साथ साथ, देश दुनिया के ज्वलंत विषयों पर होने वाले सेमीनार, पब्लिक मीटिंग, चर्चाओं छात्रों के जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष व जातीय उत्पीड़न, कारखानों में मजदूरों के शोषण,भूमि अधिग्रहण कर किसानों को उनकी जमीन से बेदखल किए जाने, महिलाओं पर हो रहे अत्याचार, जनवादी आंदोलनों पर दमन और साम्राज्यवाद द्वारा जनता पर थोपे जा रहे युद्धों के खिलाफ होने वाले संघर्षों में भागीदारी मरे छात्र जीवन का हिस्सा थी। छात्रों के इन संघर्षों में सांस्कृतिक प्रतिरोध को अनिवार्य मानते हुए एक संस्कृतिकर्मी के रूप में जनता के संघर्ष के गीतों व नाटकों के जरिए मेरी भागीदारी रहती थी।

एक संस्कृतिकर्मी के रूप में मेरे इस सफर की शुरूआत उत्तराखंड राज्य के अल्मोड़ा शहर से हुई। मुझे याद है जब मैं अल्मोड़ा से तकरीबन 30 किमी दूर एक अत्यंत पिछड़े हुए अपने गांव से स्कूल की पढ़ाई के लिए इस शहर में आया था, तब पृथक उत्तराखंड राज्य बनाने के लिए आंदोलन चल रहा था। आंदोलन में शामिल नौजवान अक्सर स्कूलों को भी बंद करवाकर हजारों की संख्या में स्कूली छात्रों की राज्य आंदोलन की रैलियों में भागीदारी करवाते थे। इस तरह मैं भी राज्य बनाने के लिए चल रही इस लड़ाई का अंतिम दौर में हिस्सा हो गया। उस आंदोलन में समाज के हर तबके के लोग शामिल थे। छात्र, अध्यापक, कर्मचारी, महिलाएं, मजदूर, किसान, लेखक, पत्रकार, वकील और संस्कृतिकर्मी इस आंदोलन में बढ़-चढ़ कर हिस्सेदारी कर रहे थे। विकास से कोसों दूर उत्तराखंड की महिलाओं के दर्द, युवाओं की बेरोजगारी की पीड़ा, पलायन, बराबरी पर आधारित समाज के सपने और जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की रूपरेखा को अपने गीतों में समाये हुए मशहूर रंगकर्मी गिरीश तिवारी गिर्दा को हजारों हजार जनता के बीच गाते हुए देखना मुझे इन सांस्कृतिक गतिविधियों की ओर खींच लाया।

स्कूली पढ़ाई के बाद जब मैं उच्च शिक्षा के लिए काॅलेज में आया मैंने देखा काॅलेज में उत्तराखंड राज्य आंदोलन से उद्वेलित कई नौजवान अपनी पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों के हकों की लड़ाई व एक जनवादी उत्तराखंड के निर्माण की लड़ाइयो में भागीदारी कर रहे थे। बराबरी पर आधारित शोषण-विहीन समाज का सपना संजोए, इन छात्रों के साथ मैं भी उन संघर्षों में भाग लेने लगा। जनगीत नाटक व अन्य सांस्कृतिक गतिविधियां इन संघर्षोें का प्रमुुख हिस्सा बन गए थे। जिनके जरिए हम छात्रों को उनके अधिकारों और समाज में चारों ओर हो रहे शोषण, अन्याय व उत्पीड़न के बारे में जागरूक करते थे।

पृथक राज्य बन जाने के बाद भी उत्तराखंड के पहाड़ों में कुछ भी नहीं बदला। बड़ी-बड़ी मुनाफाखोर कंपनियों द्वारा यहां के प्राकृतिक संसाधनों की लूट खसोट जनता को उनकी जमीन से बेदखल किया जाना, सरकारों द्वारा बड़ी-बड़ी जल विद्युत परियोजनाएं पास कर नदियों को देशी-विदेशी कंपनियों के हवाले कर देना, पर्यावरण के नाम पर सेंचुरी और बड़े पार्क बनाकर जनता को उनके जंगलों पर अधिकारों से वंचित किया जाना, शिक्षित-प्रशिक्षित युवाओं का बेरोजगारी के जलते पलायन, महिलाओं पर अत्याचार, जातीय उत्पीड़न, प्राइवेट कंपनियों में मजदूरों के श्रम की लूट, ये सब कुछ पहले की तरह ही जारी रहा। राज्य में बड़े-2 भूमाफिया, शराब के तस्कर, दिनों दूरनी रात चैगूनी गति से पनपने लगे। सत्ता के नशे में चूूर सरकारें जनता के दुखदर्दों से बेखबर ही रहीं। उत्तराखंड राज्य आंदोलन के दौरान खटीमा, मंसूरी व मुजफ्फरनगर में आंदोलनकारियों पर गोलियां चलवाने वाले और महिलाओं के साथ बलात्कार करवाने के लिए जिम्मेदार अधिकारियों का कुछ नहीं हुआ बल्कि उन्हें तरक्की ही दी गई। 
इस सबसे पैदा हुए असंतोष के कारण इन सवालों को लेकर फिर से अलग-2 आंदोलन होने लगे। मेरा भी इन आंदोलनों में हिस्सा लेना जारी रहा। इन्हीं आंदोलनों के दौरान कई छात्र साथियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं, भूमिहीन किसानों मजदूरों व महिलाओं को राजद्रोह जैसे काले कानूनों में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। इन साथियों की रिहाई के लिए हुए आंदोलनों में भी मैंने बराबर भागीदारी की।

उत्तराखंड के कुमाऊं विश्वविद्यालय में गणित विषय के साथ स्नातक व पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीजी डिप्लोमा करने के बाद मैं वर्ष 2010 में चीनी भाषा की पढ़ाई करने के लिए दिल्ली के प्रतिष्ठित संस्थान जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय आ गया। जेएनयू में पढ़ाई के दौरान मुुझे मशहूर चिकित्सक डा. प्रकाश आम्टे के बारे में पता चला। महाराष्ट्र के भमरागढ़ में बेहद पिछड़े इलाकों में आदिवासियों के बीच उनके स्वास्थ के क्षेत्र में किए गए कार्यों से प्रभावित होकर मैं उनसे मिलने के लिए बहुत उत्सुक था।

अपनी इसी उत्सुकता के चलते मैं 19 अगस्त 2013 को उनसे मिलने के लिए दिल्ली से चला आया। अगले दिन यानी 20 अगस्त 2013 को तकरीबन सुबह 9:30 बजे बल्लारशाह रेलवे स्टेशन पर ट्रेन से उतरने के बाद मैं भमरागढ़ के हेमलकसा में स्थित डा. आम्टे के अस्पताल जाने के लिए वाहन ढूंढने रेलवे स्टेशन से बाहर जाने ही वाला था, तभी किसी ने अचानक पीछे से आकर मुझे अपने हाथों से मजबूती से पकड़ लिया। इससे पहले कि मैं कुछ समझ पाता कि मुझे कोई इस तरह क्यों पकड़ रहा है एक के बाद एक 10-12 और लोग आकर मुझ पर झपट पड़े। ऐसी स्थिति में अपने साथ कुछ बुरा होने वाला है सोचकर मैं जोर जोर से चिल्लाने लगा ताकि आस पास से कोई मेरी तदद के लिए आ जाए। मेरे चिल्लाने से खुद को खतरा समझ इन लोगों ने अपने हाथों से मेरा मुंह बंद कर दिया। और मुझे कुछ कदम की दूरी पर खड़ी एक टाटा सुमो नुमा वाहन में ठूंसकर वहां से ले गए। मुझे पता नहीं था कि ये लोग कौन हैं और मुझे इस तरह अपहरण कर कहां ले जा रहे हैं। कुछ ही देर में मेरी आखों सहित पूरे चेहरे को एक काले कपड़े से बांध दिया गया और उनमें से एक ने मेरे दोंनों हाथों को कसकर पकड़ लिया ताकि न तो मैं देख सकूं, कि मुझे कहां ले जाया जा रहा है। और ना ही अपने हाथों से उनके लात-घूसों से अपना बचाव कर पाऊं। चलते हुए, वाहन में मुझे इस तरह पकड़ लिए जाने और कहां ले जाया जा रहा है यह जानने की कोशिश करने पर जवाब में गालियां, धमकी और लात घूसों से मार पड़ती।

इसी तरह लगभग एक घंटे बाद उनमें से किसी एक ने मेरे चेहरे से काले कपड़े को हटाकर अपना आइ कार्ड दिखाया तब मुझे मालूम चला मेरा इस तरह अपहरण करने वाले कोई और नहीं बल्कि खुद गढ़चिरौली पुलिस के स्पेशल ब्रांच के लोग थे। मुझे कहां ले जाया जा रहा है मुझे अब भी इसकी जानकारी नहीं दी गई। इसके लगभग दो घंटे बाद मुझे गाड़ी से उतारकर मेरी आंखों से काली पट्टी हटा दी गई। 
काली पट्टी हटा दिए जाने के बाद मैंने देखा मेरे बांयी ओर एक बड़े मैदान में एक हैलीकाॅप्टर खड़ा है और उसके आस-पास वर्दी में कुछ पुलिस के सिपाही चहलकदमी कर रहे हैं। मेरे दांयी ओर कुछ सरकारी बिल्डिंग्स और मेरे सामने की ओर भी कुछ बिल्डिंग थी। उनमें से एक बिल्डिंग की पहली मंजिल में मुझे ले जाया गया और कमरे में थोड़ी देर रखने के बाद एक अन्य कमरे में ले जाया गया। उस कमरे में ले जाते वक्त मेरी नज़र उस कमरे के बाहर लगी एक नेमप्लेट पर पड़ी। तब जाकर मुझे पता चला कि मुझे गढ़चिरौली पुलिस हैडक्वार्टर में तत्कालीन एसपी सुवैज हक के केबिन में ले जाया जा रहा है। केबिन में एक आलीशान चेयर पर बैठे सुवैज हक को मैंने अपना परिचय दिया और मुझे बिना कारण इस तरह गैर कानूनी तरीके से पकड़ लिए जाने का कारण पूछा। सुवैज हक भी खुद मुझे धमकियां देने लगे। थोड़ी ही देर बाद दो स्थानीय ग्रामीण युवकों को वहां लाया गया। दरअसल, इन युवकों को मेरी ही तरह कहीं पकड़कर यहां लाया गया था। ये वही आदिवासी युवा हैं जिन्हें पुलिस मेरे साथ गिरफ्तार किए जाने का दावा कर रही है। मेरे सामने उन युवकों के साथ जिस तरह बर्ताव किया जा रहा था उससे मैं समझ गया पुलिस द्वारा मुझे इस तरीके से पकड़ने के पीछे क्या मंसूबे हैं।

इसके बाद मुझे दूसरे कमरे में ले जाया गया, जहां अगले तीन दिनों तक मुझ पर पुलिसिया उत्पीड़न के हर तरीके इस्तेमाल किए गए। बाजीराव (जिससे मारने पर शरीर में अधिकतम चोट लगती है और घाव भी नहीं दिखाई पड़ते) से मारा गया। पावों के तलवों में डण्डों से मारा गया। लात-घूंसों से मारा गया और हाथों से पूरे शरीर को नोंचा जाता। इन सब तरीकों से तीन दिनों तक बेहोशी की हालत तक हर रोज मारा जाता था। इन तीन दिनों में एक पल के लिए भी सोने नहीं दिया गया। इन क्रूर यातनाओं भरे तीन दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद मुझे दिनांक 23/08/13 को अहेरी पुलिस थाने के लाॅकअप में ला पटका। इस तरह पकडे जाने के लगभग 80 घंटों के बाद अहेरी के मजिस्ट्रेट कोर्ट में पेश किया गया। मेरे द्वारा बार-बार कहे जाने के बावजूद पुलिस ने अब तक मेरे घर में मुझे पकड़ लिए जाने की सूचना भी नहीं दी गई थी। जब मैंने कोर्ट में मजिस्ट्रेट से खुद मेरे घर में सूचना देने की बात कही तब पुलिस ने कोर्ट से ही मेरे परिचितों को सूचना देनी पड़ी। इस दिन मजिस्ट्रेट कोर्ट से मुझे 10 दिनों के लिए पुलिस हिरासत में ले लिया गया। मुझे 20 अगस्त 2013 को बल्लहारशाह रेलवे स्टेशन से पकड़कर 3 दिनों तक अवैध हिरासत में रखने के बाद पुलिस ने कोर्ट और मीडिया ने मुझे बल्लहारशाह से लगभग 300 किमी दूर अहेरी बस स्टैंड के पास गिरफ्तार किए जाने का दावा किया। दरअसल पूरी तरीके से झूठे इस दावे का मकसद 3 दिनों तक मुझे अवैध हिरासत में रखे जाने को कोर्ट और मीडिया के जरिए दुनिया के सामने मेरी गिरफ्तारी को वैध दिखाना था।  
2 सितंबर 2013 को पुलिस द्वारा कोर्ट पेशी में मजिस्ट्रेट से मेरी पुलिस हिरासत को और 14 दिनों के लिए बढ़ा लिया गया। इस तरह कुल 24 दिनों तक मुझे पुलिस हिरासत में रखा गया। इन 24 दिनों तक मुझे अहेरी पुलिस थाने के एक बहुत ही गंदे व बद्बू भर लाॅकअप में रखा गया। लाॅक-अप में मुझे केवल जिंदा भर रखने के लिए खाना दिया जाता था। पहले 10 दिनों तक न तो मुझे नहाने दिया गया और न ही ब्रश करने दिया गया। मुझसे मेरे कपड़े ब्रश, पैसे, आईकार्ड सब कुछ गिरफ्तारी के समय ही छीना जा चुका था। 2 सितम्बर की कोर्ट पेशी के दिन मेरे पिताजी और दोस्तों द्वारा कपड़े, ब्रश, साबुन और रोजाना जरूरत की चीजें दी गई तब जाकर मुझे नहाना, ब्रश करना और इतने दिनों से पसीने में भीग चुके गंदे कपड़ों को बदल पाना नसीब हुआ।

पुलिस हिरासत के 24 दिनों में महाराष्ट्र पुलिस, एसटीएस, आईबी, और दिल्ली, उत्तराखंड, यूपी, छत्तीसगढ़, आंध्रप्रदेश की इंटेलीजेंस ऐजेंसियां मुझे ठीक उसी तरह शारिरिक व मानसिक यातनाएं देती रही जिस तरह तीन दिनों की अवैध हिरासत में दी गईं थी। पुलिस द्वारा मेरे फेसबुक , जीमेल, रेडिफमेल की आईडी, लेकर इनका पासवर्ड भी ट्रेक कर लिया। मुझे पूरा यकीन है पुलिस और इंटेलीजेंस ऐजेंसियां अभी भी मेरे ईमेल और फेसबुक अकाउंट का दुरूपयोग कर रही होंगी।

पूरे देश और दुनिया में मेरी गिरफ्तारी का विरोध होने के बावजूद पुलिस हिरासत में मुझे यातनाएं देने का सिलसिला जारी रहा। इतना ही नहीं पुलिस की योजना में मुझे और भी ज्यादा समय तक पुलिस हिरासत में रखना था। और इसके लिए उन्होंने 16 सितम्बर 2013 को मेरी कोर्ट पेशी के दिन कोशिश भी की लेकिन कोर्ट में मेरे वकील द्वारा हस्तक्षेप करने पर कहीं जाकर इनकी यह कोशिश सफल नहीं हुई। उस दिन मजिस्ट्रेट ने मुझे इस यातना शिविर (पुलिस हिरासत) में न भेजकर न्यायिक हिरासत में सेंट्रल जेल भेज दिया।

नागपुर सेंट्रल जेल पहुंचने पर मुझे जेल के बैरेक संख्या-8 में भेज दिया गया। यह वही बैरेक है जहां मेरी तरह ही देशद्रोह और यूएपीए जैसे जनविरोधी कानूनों में गिरफ्तार किए गए महाराष्ट्र के की युनिवर्सिटियों में पढ़ने वाले छात्र-कार्यकर्ताओं, दलित और लगभग 40 आदिवासी नौजवानों को रखा गया था। झूठे मामलों में फसाए गए इन आदिवासी नौजवानों की संख्या समय के साथ साथ घटते बढते रहती है। जेल में धीरे धीरे समय बीतने पर मुझे इन आदिवासी युवाओं से बातचीत के दौरान, इन्हें महीनों तक पुलिस हिरासत में अमानवीय व क्रूर तरीके से दी गईयातनओं की कहानियां सुनने को मिलीं। 
कानून की किताबों में जल्द गति से ट्रायल (Speedy Trial) चलाए जाने का अधिकार दिया गया है। लेकिन, इन आदिवासियों में से कोई दो तो कोई तीन और कोई पांच सालों से जेल में यातनाएं झेलने को विवश हैं। न्यूनतम 6 से लेकर अधिकतम 40 तक फर्जी मामलों में जेल में बंद किए गए इन युवाओं के लिए जमानत की उम्मीद करना तो बेईमानी होगी। कोर्ट में महीनों तक इनकी पेशी नहीं होती। कभी एक दो पेशी समय से हो भी जाएं तो अगली पेशी कब होगी इसका कुछ नहीं पता रहता। इनमें से अधिकांश युवाओं के केस गढ़चिरौली सेशन कोर्ट में चल रहे हैं। मेरा केस भी इसी कोर्ट में चल रहा है। इस कोर्ट में प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी की व्यवस्था बंद कर दी गई है। प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी के स्थान पर वीडियो कांफ्रेंस के जरिए कोर्ट पेशी की जाती है। जिसके चलते बंदियों को न तो अपने केस के संबंध में अपने वकील से बात करने का अवसर मिलता है और नहीं जज से।

इस तरीके से होने वाली कोर्ट पेशी में केवल अगली कोर्ट पेशी की तारीख का पता मात्र चल पाता है। अक्सर तकनीकी ख़राबी रहने के कारण यह संभावना भी खत्म हो जाती है। वीडियो कांफ्रेंस के जरिए पेशी में निष्पक्ष ट्रायल (fair trial) संभव नहीं है। जिसके परिणाम स्वरूप् हाल ही में दो आदिवासियों को सजा भी हो गई। 
जेल में बंदियों के लिए अपने परिजनों व वकील से मुलाकात जाली लगी खिड़की के जरिए होती है। जेल के भीतर आकर बंदियों से मुलाकात की कोई व्यवस्था नहीं होने के कारण जाली लगी इस अत्यंत भीड़-भाड़ वाली खिड़की के जरिए 15-20 मिनट के समय में बंदियों की दूर-दूर से आने वाले अपने परिजनों और अपने वकील से केस के संबंध में विस्तृत बात हो पाना बिल्कुल भी संभव नहीं है। 
इस साल 31 जनवरी से जेल में तरह-तरह की यातनाएं झेल रहे 169 जेल बंदियों ने अपनी 4 सत्रीय मांगों को लेकर अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल की। इस आंदोलन में यूएपीए, मकोका, व मर्डर के आरोप में जेल में बंद न्यायाधीन बंदी शामिल थे। इस आंदोलन में यूएपीए के केस झेल रही 7 महिलाओं ने भी हिस्सा लिया। आंदोलन की मांगों, जल्द गति से ट्रायल चलाए जाने, न्यायाधीन बंदियों की प्रत्यक्ष कोर्ट पेशी किए जाने, बेल के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के दिशा निर्देशों बेल नाॅट जेल, को लागू कर सभी न्यायाधीन बंदियों को जल्द से जल्द बेल दिए जाने जैसी मांगें शामिल थी। आंदोलन के पहले दिन आंदोलन में भाग ले रहे यूएपीए के केस वाले बंदियों को जेल के अतिसुरक्षा विभाग (High Security Cell) अंडा सेल में भेज दिया गया। जिनमें से सात बंदियों (जिनमें से एक मैं भी हूँ) को 7 महीनों से भी अधिक समय से आज तक भी अंडा सेल में ही रखा गया है। हमें जेल के अंदर अन्य बंदियों से मिलने का कोई अवसर नहीं है। अंडा सेल के अंदर बंद दीवारों के बीच बने अत्यंत छोटे-छोटे बैरेक और उनके सामने मात्र 40 मीटर घूमने की जगह ही हमारा संसार है।

पिछले एक साल में पुलिस हिरासत की यातनाओं और जेल की तनहाइयों के अनुभव व अपनी तरह जेल में बंद अन्य लोगों की कहानियां जानकर मैं यह महसूस करता हूं कि वे तमाम राजनीतिक व सांस्कृतिक गतिविधियां समाज एवं मेरे ही तरह जेल में बंद अन्य बंदियों की रिहाई के लिए कितनी जरूरी हैं। मेरा आप सभी से अनुरोध है, आप मेरी और विभिन्न जेलों में हजारों की संख्या में बंद आदिवासियों, दलित, महिलाओं, गरीब मजदूर किसानों, कार्यकर्ताओं की रिहाई के लिए आवाज़ उठाएं।

date . 16-09-2014   
इसी विश्वास के साथ- 
हेम मिश्रा
यू.टी.न. 56, अतिसुरक्षा विभाग
अंडा सेल, नागपुर सेंट्रल जेल, नागपुर
महाराष्ट्र

अवैध धनः सरकार से कुछ सवाल

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अवैध धन के मुद्दे पर एनडीए सरकार इसलिए घिरी है, क्योंकि उसने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देकर कहा कि वह उन नामों को नहीं बता सकती, जिनके पास विदेशी बैंकों में खाता होने की जानकारी उसके पास आई है। इसके लिए सरकार ने दोहरे कराधान बचाव संधि (डबल टैक्सेसन एवॉयडेन्स ट्रीटी- DTAT) का तर्क दिया, जो 1995 में पीवी नरसिंह राव के जमाने में हुई थी। सरकार ने कहा कि अगर उसने नाम बताए तो वह इस संधि का उल्लंघन होगा, और उसके बाद जो नाम दूसरे बैंक बताने वाले हैं, वे मुकर जाएंगे।

ध्यानार्थ है कि इस वर्ष अप्रैल में लीच्टेंनस्टीन (Liechtenstein) के बैकों में जिन भारतीयों के खाते हैं, उनके बारे में जानकारी आई थी। तब यूपीए सरकार ने भी यही कहा था कि DTAT के कारण नाम नहीं बताए जा सकते।

लेकिन इन तर्कों को सुप्रीम कोर्ट में इस मामले में हलफनामा दायर करने वाले वकील राम जेठमलानी ने सिरे से खारिज कर दिया है। उन्होंने कहा है कि सरकार DTAT का बहाने की तरह इस्तेमाल कर रही है। वित्त मंत्री अरुण जेटली को लिखे उनके पत्र की निम्नलिखित लाइनें महत्त्वपूर्ण हैं-

"The Germans never spoke of the DTAT. Our people deliberately brought it in as a certain method of rendering the entire investigation futile and making our corrupt rulers escape arrest and prosecution," 

भारतीय जनता पार्टी ने लोकसभा चुनाव के अपने घोषणापत्र में सारा अवैध धन वापस लाने का वादा किया था। जेठमलानी ने जेटली से कहा है कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान जो (सद्भाव) निर्मित किया था, उसे आप बर्बाद कर रहे हैँ।

केंद्र के पिछले हफ्ते दिए हलफनामे के बाद से मीडिया, सोशल मीडिया और जनता के स्तर पर सरकार की कड़ी आलोचना हुई है। इसे भाजपा का यू-टर्न बताया गया है। जेटली के इस बयान से सरकार के लिए और परेशानी खड़ी हुई कि नाम सामने आए तो कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी पैदा होगी। कांग्रेस का इस पर जवाब है कि जेटली ब्लैक मनी से ब्लैक मेल पर उतर आए हैं। पूर्व वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने कहा है कि नाम सामने आने पर किसी व्यक्ति को तो शर्मिंदगी पैदा हो सकती है, लेकिन पार्टी के लिए क्यों परेशानी खड़ी होगी?

1-सरकार क्यों घिरी है?

-    ताजा विवाद इसलिए भड़का क्योंकि विदेशी बैंकों में खाता रखने वाले लोगों के नाम उजागर करने के प्रश्न पर वर्तमान सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में ठीक वही दलील पेश की, जो पूर्व यूपीए सरकार देती थी। यानी दोहरे कराधान से बचने संबंधी करार के कारण ये नाम नहीं बताए जा सकते। क्या इस पर आम जन और मीडिया की आक्रोश भरी प्रतिक्रिया लाजिमी नहीं है?

-    आखिर यह बात अभी जन-स्मृतियों में ताजा है कि पिछले आम चुनाव से पहले और प्रचार अभियान के दौरान भाजपा नेताओं ने कितने आक्रामक ढंग से ये मुद्दा उठाया था। तब उन्होंने नाम ना बताने को पूर्व सरकार की अनिच्छा से जोड़ा था। जब वही तर्क वर्तमान सरकार ने दिए, तो क्या यह कहना उचित नहीं है कि वह भी देश का धन विदेशों में जमा कराने वाले लोगों के नाम सामने नहीं आने देना चाहती?

-    सरकार के हलफनामे के बाद भाजपा पर आरोप लगा कि उसने इस मुद्दे पर जनता को गुमराह किया? क्या सच नहीं है?क्या भाजपा इतनी भोली या ना-जानकार है कि उसे DTAT के बारे में पता नहीं था?

-    अगर यह पता था तो उसने 150 के दिन के अंदर सारा अवैध धन लाने और दोषियों के नाम उजागर करने के वादे क्यों किए?उसने यूपीए को तब कठघरे में खड़ा करने की कोशिश क्यों की?

-    स्पष्टतः इस घटनाक्रम से बने माहौल से भाजपा सरकार परेशान नजर आती है। लेकिन बचाव में उसके मंत्री जो बातें कह रहे हैं, क्या उससे स्थिति स्पष्ट होने के बजाय और उलझ नहीं रही है?

-    वित्त मंत्री अरुण जेटली का यह कहना अनेक लोगों के गले नहीं उतरा कि नाम सामने आने से कांग्रेस के लिए शर्मिंदगी खड़ी होगी। आखिर भाजपा सरकार को इस बात को एक धमकी के रूप में क्यों कहना चाहिए?

-    मुश्किल यह है कि सरकार से सवाल देश पूछ रहा है, जबकि वह कांग्रेस को जवाब देती लगती है? क्या भाजपा और कांग्रेस दोनों को यह नहीं समझना चाहिए कि यह उनके आपस का मामला नहीं है?  

-    इस मामले में पूरी सच्चाई सामने रखने के बजाय एक दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करके ये दोनों पार्टियां क्या आम जन के मन में पूरी राजनीतिक व्यवस्था के प्रति बैठे संदेह को और गहरा नहीं कर रही हैं?

-    कुछ खबरों में जिक्र हुआ है कि आलोचनाओं को टालने के लिए सरकार सुप्रीम कोर्ट में पूरक हलफ़नामा देख कर कुछ नामों की जानकारी उसे देगी। लेकिन क्या यह एक और गलत कदम नहीं होगा?

-    क्या इससे यह संदेश नहीं जाएगा कि सरकार अपनी सुविधा से कुछ लोगों की करनी सार्वजनिक कर रही है, जबकि वह कुछ लोगों को बचा रही है?

-    क्या सरकार के लिए एकमात्र बेहतर विकल्प यह नहीं है कि उसके पास जितने नाम हैं, वह उन्हें एक साथ बताए? इससे कौन फंसेगा और किसके लिए मुश्किल खड़ी होगी, इसकी चिंता वह क्यों कर रही है?

2-क्या वर्तमान सरकार झूठे श्रेय ले रही है?
-    भाजपा और सरकारी प्रवक्ता बार-बार कहते हैं कि वर्तमान मंत्रिमंडल ने अपनी पहली ही बैठक में अवैध धन की जांच के लिए एसआईटी (विशेष जांच दल) बनाने का निर्णय किया। लेकिन क्या ये सच्चाई नहीं है कि यह दल बनाने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट का था और सर्वोच्च न्यायालय ने इसके लिए समयसीमा भी तय कर दी थी?

-    यह ठीक है कि जब तीन साल पहले कोर्ट ने पहली बार यह निर्देश दिया, तो यूपीए सरकार उसे दबाए बैठी रही। मगर इस वर्ष सुप्रीम कोर्ट ने इसे गंभीरता से लिया और समयसीमा तय की। लेकिन तब तक लोकसभा चुनावों के नतीजे आने की तारीख करीब आ चुकी थी और यूपीए सरकार ने यह निर्णय अगली सरकार पर छोड़ दिया। इस तरह न्यायिक आदेश का पालन कर खुद पर श्रेय लेना कितना सही है?

-    सरकार और भाजपा के प्रवक्ता बार-बार स्विट्जरलैंड से अवैध धन संबंधी खातों की जानकारी के आदान-प्रदान के समझौते को अपनी सरकार की सफलता बता रहे हैं। मगर क्या ये सच नहीं है कि टैक्स चोरी के अड्डों के दिन अब लद रहे हैं? दुनिया के सबसे प्रभावशाली 20 देशों के मंच ग्रुप-20 में सहमति बनी थी कि इसके सदस्य सभी देश 2017 से हर साल उनके पास मौजूद बैंक सभी सूचनाएं स्वतः जारी किया करेंगे?

-    दरअसल, जी-20 की सहमति से 47 धनी देशों के संगठन- ऑर्गनाइजेशन ऑफ इकॉनोमिक कॉ-ऑपरेशन एवं डेवलपमेंट (ओईसीडी) ने जो समझौता किया था, उसे वैश्विक स्तर पर लागू करने का रास्ता साफ हुआ। ओईसीडी के समझौते में प्रावधान था कि सरकारें सभी प्रकार की वित्तीय सूचनाओं का आपस में आदान-प्रदान करेंगी। इन जानकारियों में बैक खातों में जमा रकम, उस पर मिले डिविडेंड, ब्याज, पूंजीगत-लाभ कर की गणना के लिए इस्तेमाल बिक्रय प्राप्तियां आदि शामिल हैं। इस प्रक्रिया के तहत, जिसमें पूर्व यूपीए सरकार भी शामिल थी, ये बात आगे बढ़ी है। वर्तमान सरकार इसका श्रेय लेना कितना तथ्यात्मक (factual) है?

-    हकीकत यह है कि ओईसीडी के समझौते पर दुनिया की 85 प्रतिशत अर्थव्यवस्था के मालिक जी-20 का वरदहस्त आने के बाद काले धन के किसी अड्डे के लिए पहले की तरह गोपनीयता बरतना संभव नहीं रह जाएगा। चूंकि यह प्रावधान समझौते में शामिल है कि तमाम बैंकों को पांच से छह साल पहले तक की जानकारियां भी देनी होंगी, अतः अब अगर किसी टैक्स चोर ने अपने खाते बंद करवा लिए, तब भी उससे जुड़ी पुरानी सूचनाएं सामने आ जाएंगी। इस बात को इसी रूप में आम जन को क्यों नहीं बताया जा रहा है?

-    जी-20 के मंच पर काले धन को पर्दाफाश करने की कारगर व्यवस्था बनाने के लिए पिछले कई वर्षों से भारत भी प्रयासरत् था। परंतु इसका वास्तविक प्रेरक कारण 2007-08 से अमेरिका में आई मंदी रही। इसके बाद देश से बाहर जाने वाला धन अमेरिका के लिए भी महत्त्वपूर्ण हो गया। तब बराक ओबामा प्रशासन ने टैक्स चोरी के अड्डों पर दबाव बनाने की रणनीति अपनाई, जिसके परिणाम अब सामने आ रहे हैँ। क्या वर्तमान सरकार ये बता सकती है कि इसमें उसका क्या खास योगदान है?

3-क्या असली समस्या देश के अंदर नहीं है?

-    वैसे काले धन पर पूरे नियंत्रण के लक्ष्य को अगर ध्यान में रखें, तो विदेशों में हो रहे समझौते सीमित संतोष की बात ही होंगे। क्या ये सच नहीं है कि असली समस्या विदेशी बैंक नहीं, बल्कि देश के अंदर है?

-    क्या यह हकीकत नहीं है कि देश का धन विदेशी बैंकों में इसलिए गया, क्योंकि देश में काले धन पैदा होने के अनुकूल स्थितियां रहीं?

-    और ऐसा इसलिए संभव नहीं हुआ कि हमारी टैक्स निगरानी और कानून लागू करने वाली एजेंसियां ईमानदारी तथा कुशलता से काम नहीं करतीं?

-    रिएल एस्टेट जैसे कई क्षेत्र हैं, जहां काले धन का बोलबाला है। क्या असली चुनौती यह नहीं है कि इन सब पर रोक लगे?

-    और जब तक यह नहीं होता, काले धन के विदेशी अड्डों से परदा हटने से देश को आंशिक लाभ ही होगा?

-    इन सारे पहलुओं पर सरकार देश को भरोसे में क्यों नहीं लेती?

-    क्या वो भूल गई है कि इस मुद्दे पर विश्वसनीय कदम ना उठा कर कांग्रेस जनता की अदालत में कठघरे में पहुंची थी। उसके इरादे संदिग्ध दिखे, तो उसे इसकी कितनी महंगी कीमत उसे चुकानी पड़ी, इसे हाल के हर चुनाव परिणामों पर गौर करते हुए समझा जा सकता है। क्या अब भाजपा अपने इरादे को संदिग्ध नहीं बना रही है? लोग पूछ रहे हैं कि क्या अवैध धन रखने वालों को बचाने में उसका कोई निहित स्वार्थ है?

-    सरकार को यह अवश्य समझना चाहिए कि 2011 के अन्ना आंदोलन के समय से इस विषय में इतनी चर्चा हुई है कि आम जन उन लोगों का ब्योरा जानने के लिए बेसब्र हैं, जिन्होंने भारतीय कानूनों को धता बता कर देश का धन विदेशों में जमा कर रखा है। ऐसे लोग देश के कानून के तहत सजा के हकदार हैं। उनके प्रति नरमी बरतने वाले दल या सरकार जनाक्रोश का केंद्र बनेंगे। तो वह क्यों नहीं बताती कि पिछले पांच महीनों में उसने अवैध धन और भ्रष्टाचार के खिलाफ क्या खास पहल की है?

-    कम अवधि का तर्क शायद इसलिए स्वीकार्य नहीं होगा, क्योंकि ये मुद्दा तीन वर्ष से देश के एजेंडे में ऊपर है और खुद भाजपा ने इसे तीव्र स्वर से उठाकर बड़ा चुनावी मुद्दा बनाया था। उसने इस कार्य को अपनी सर्वोच्च प्राथमिकता क्यों नहीं बनाई?

साभार- सत्येंद्र रंजन

समाज में निहित है ‘हेट स्पीच’

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-राजीव यादव

चुनाव आए और गए पर सवाल उन विवादास्पद सवालों का है जिनसे ‘हेट स्पीच’ के नाम से हम परिचित होते हैं। हेट स्पीच से हमारा वास्ता सिर्फ चुनावों में ही नहीं होता पर यह जरुर है कि चुनावों के दरम्यान ही उनका मापन होता है कि वो हेट स्पीच के दायरे में है। हम यहां इस पर कतई नहीं बात करेंगे कि ऐसे मामलों में क्या कार्रवाई हुई? पर इस पर जरुर बात करेंगे कि उस हेट स्पीच का हम पर क्या असर हुआ, वहीं उनके बोलने वालों की प्रवृत्ति में क्या कोई बदलाव आया?

अगर, हम हेट स्पीच की शिकायतों का अध्ययन करें तो वो ज्यादातर अल्यपसंख्यक विरोधी या फिर मुस्लिम विरोधी कहना सही होगा, होती हैं। पिछले दिनों जो मसला चाहे वह ‘लव जिहाद’ को लेकर उछला हो या फिर धर्मांतरण का चुनाव के खात्में के साथ ऐसे मुद्दों की जो बाढ़ सी आ गई थी, उनके समाचारों में भी काफी कमी या कहें कि न के बराबर हो गई हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि समाज में जिन ‘लव जिहादियों’ की बात की जा रही थी, वो एकाएक कहां चले गए?

मुजफ्फरनगर को ही लें जहां अगस्त-सितंबर 2013 में इसी मुद्दे के इर्द-गिर्द सांप्रदायिक तनाव का पूरा खाका रचा गया। बीते 2014 उपचुनाव के पहले भी एक बार फिर माहौल बनाया गया धर्मांतरण और ‘लव जिहाद’ का। दरअसल, हमारे समाज का पूरा ढांचा सामंती, पुरुषवादी सत्ता के सांचे पर गढ़ा गया है। उसमें वो सभी तत्व निहित हैं जो आज किसी भी फासीवादी राजनीति की जरुरत होती है। मतलब कि हमारे समाज की पूरी बुनावट और उसको उद्वेलित करने वाली राजनीति एक दूसरे का इस्तेमाल करती है। न कि राजनीति ही सिर्फ समाज का इस्तेमाल करती है। 

समाज और उसमें पल-बढ़ रहे प्रेम संबन्धों पर अगर गौर किया जाए तो जो लोग इन दिनों इस बात का आरोप लगा रहे थे कि मुस्लिम समाज के लड़के हिंदू समाज की लड़की को प्रेम में फंसाकर धर्मांतरण और विवाह करते हैं, उनकी प्रेम और विवाहो पर स्थिति का भी आकलन किया जाना चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं है कि समाज का सामंती ढांचा एक तीर से दो निशाने कर रहा है और बड़ी खूबसूरती से कह भी दे रहा है कि हमारी तो मेल-जोल की संस्कृति थी। 

अगर, मेल-जोल की संस्कृति थी तो वह संस्कृति किसी एक चुनाव या फिर किसी हिन्दुत्वादी संगठन के प्रभाव में बदल जाती है तो इतनी आसानी से बदलने वाली ऐसी ‘संस्कृति’ भी सवालिया निशाने पर आ जाती है। इसका आकलन सिर्फ हिंदू-मुस्लिम लड़की और लड़के के मामले से हटकर अगर किया जाए तो देखेने को मिलता है कि महिला हिंसा की वारदातों के बाद समाज उद्वेलित होता है। पर जैसे ही सवाल लड़की-लड़के के प्रेम संबन्धों पर आकर टिकता है, उससे समाज पीछे भागने लगता है या फिर एक दूसरे जाति या समुदाय की उस लड़की के चरित्र पर ही सवाल उठाने लगता है। ठीक यही प्रवृत्ति संचार माध्यमों की भी ही है। 

उत्तर प्रदेश बदायूं प्रकरण खासा चर्चा में रहा जहां, दो लड़कियों की शव पेड़ पर टगें मिले। जिसपर राष्ट्रीय ही नहीं अन्र्तराष्ट्रीय स्तर पर दलित संगठनों ने विरोध किया। पर जैसे ही मामला सामने आया कि लड़कियां पिछड़ी जाति की थीं तो विरोध की ‘दलित आवाजें’ गायब होने लगी। दरअसल, समाज में लड़की के साथ हुई हिंसा को लड़की के साथ हुई हिंसा न मानकर हमारे जाति या हमारे समुदाय के साथ हिंसा होना मानकर चला जाता है। अगर इसी बीच कहीं से यह बात सामने आ जाए कि लड़की के प्रेम संबन्ध थे, तो विरोध के स्वर और धीमे हो जाते हैं। वहीं लड़की जिसके मेधावी छात्रा होने या ऐसे गुणों पर समाज गर्व करता है, वो उससे किनारा करने लगता है। इसे पिछले दिनों अमानीगंज, फैजाबाद में हुई घटना में भी देख सकते हैं, जिसमे ‘लव जिहाद’ का प्रोपोगंडा किया गया। पर जैसे ही यह बात साफ हुई की लड़की और लड़का बहुत दिनों से एक दूसरे को न सिर्फ जानते थे, बल्कि उनके बीच प्रेम भी था, उनके आपस में बात-चीत के 1600 मोबाइल काल के रिकार्ड और ऐसी बातों के आने के बाद मामला शांत हो गया। ‘ये तो होना ही था’ मानने वाला समाज ‘ऐसी लड़की’ से कोई रिश्ता नहीं रखना चाहता है और जो उसके साथ हुआ ऐसा ही कुछ वो भी करता इसका भी साफ संकेत देता है। 

मतलब, कि लड़की के साथ हुई हिंसा के प्रति समाज नहीं खड़ा हुआ था वह तो अमुक जाति और समुदाय के खिलाफ खड़ा हुआ था। पर जैसे ही उसे पता चला कि उसके प्रेम संबन्ध थे वह उससे रिश्ता तोड़ लेता है। इसका, मतलब कि लड़के-लड़कियों को लेकर हो रहे तनाव के लिए सिर्फ फासीवादी राजनीति ही नहीं जिम्मेदार है बल्कि हमारा समाज भी सहअभियुक्त है। जो अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए ऐसे अवसरों की तलाश करता है। 

अब बात अगर हेट स्पीच करने वालों की करें तो पिछले दिनों भाजपा सांसद योगी आदित्यनाथ का आजमगढ़ जिले में 2008 उपचुनाव के दौरान दिए गए उस वीडियो फुटेज के सामने आने के बाद खासा चर्चा में रहा, जिसमें वो एक हिंदू लड़की के बदले सौ मुस्लिम लड़कियों को हिंदू बनाने की बात कर रहे हैं। डाक्यूमेंट्री फिल्म ‘सैफ्रन वार’ के इस विडियो फुटेज जिसको आजमगढ़ जिला प्रशासन ने नकार दिया था कि ऐसा कोई भाषण आदित्यनाथ ने दिया ही नहीं, उसे न सिर्फ आदित्यनाथ ने अपना माना बल्कि उससे बढ़कर उसे सही ठहराने की भी कोशिश की। यहां सवाल है कि अगर उस वीडियो फुटेज में ऐसा कुछ आपत्तिजनक नहीं था तो उस पर क्यों बहस हो रही थी? मतलब कुछ न कुछ था जिससे आदित्यनाथ को बचाने के लिए प्रशासन ने झूठ बोला। वहीं आदित्यनाथ उससे एक कदम आगे बढ़कर सार्वजनिक रुप से और अधिक आक्रमक हुए। आखिर यह हौसला उनको कहां से मिला, इसके लिए सिर्फ चुनाव आचार संहिता के दरम्यान उनको दी गई चुनावी छूट ही नहीं जिम्मेदार थी, बल्कि समाज की आचार संहिता की छूट की भी आपराधिक भूमिका थी।

आज इसीलिए कहा जाता है कि सांप्रदायिकता के सवाल को मत उठाइए क्योंकि इससे सांप्रदायिक ताकतों को ही लाभ मिल जाएगा, दरअसल इसलिए कि हमारे समाज में सांप्रदायिकता निहित है, जो बस किसी एक चिंगारी की बाट जोहती है। 

संपर्क-  media.rajeev@gmail.com

'कड़वी'दवाओं की और कितनी ख़ुराक?

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विनय सुल्तान
-विनय सुल्तान

"...इस मामले को समझने के लिए हमें फ़ोर्ब्स पत्रिका के 16 सितम्बर को छपे लेख  ‘India's War On Intellectual Property Rights May Bring With It A Body Count’ के तर्कों को समझना जरुरी है. इस लेख में तरह-तरह तर्कों के जरिए जिरह की गई थी कि किस प्रकार भारत के बौद्धिक सम्पदा कानून अमेरिकी दवा कंपनियों को नुकसान पहंचा रहे हैं.…"

सितम्बर के आखिरी सप्ताह में नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा से गालिबन एक सप्ताह पहले राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने रात को जारी किए गए एक आदेश के जरिए उन 108 दवाओं पर से अपना नियंत्रण हटा लिया जिसे उसने दो महीने पहले ही नियंत्रित दवाओं की श्रेणी में रखा था. एनपीपीए ने इस बारे इसके इतर कोई जानकारी नहीं दी कि वो इन 108 दवाओं से नियंत्रण हटा रहा है. इस बाबत छपे समाचारों में सूत्रों के हवाले से कहा गया था कि कोई ‘अमेरिकी लॉबी’ जीवन रक्षक दवाओं की कीमत में बढ़ोत्तरी के लिए जिम्मेदार है.


इससे पहले रसायन और उर्वरक मंत्री निहाल चंद मेघवाल ने 18 जुलाई को राज्यसभा में दवाओं की कीमत तय करने के बाबत दिए गए लिखित जवाब में कहां था कि ‘मधुमेह और हृदय रोग के उपचार से संबंधितगैर-अधिसूचित 108 दवाओं के संदर्भ में अधिकतम खुदरा कीमत की सीमा तय करनेके लिए राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) की दखल केपरिणामस्वरूप इन दवाओं की कीमतों में लगभग 01 प्रतिशत से लेकर 79 प्रतिशततक कमी आयी है. ये 108 दवाएं आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची में शामिलनहीं हैं और औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19 के अधीन इनकी कीमतोंमें कमी की गयी है.तो आखिर दो महीने में ऐसा क्या हुआ कि सरकार को इन दवाओं की कीमत तय करने के मामले में यू-टर्न लेना पड़ा. इन 108 दवाओं में एड्स, मधुमेह, रक्तचाप और कैंसर जैसे रोगों की दवाएं हैं.

निहाल चंद मेघवाल के जवाब से यह बिलकुल साफ़ था कि दवाओं की कीमतों के नियमन में किसी भी प्रकार की कानूनी प्रक्रिया को नहीं तोड़ा गया था. औषधि मूल्य नियंत्रण आदेश 2013 के पैरा 19के अनुसार यदि जरुरी हो तो ‘जनहित’ के आधार पर उन दवाओं की कीमत को भी नियंत्रित किया जा सकता है जो ‘आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची से बाहर है. ऐसे में NPPAका बिना कारण बताए अचानक नियंत्रण हटाना किसी बाहरी दबाव की ओर संकेत करता है.

इस मामले को समझने के लिए हमें फ़ोर्ब्स पत्रिका के 16 सितम्बर को छपे लेख  ‘India's War On Intellectual Property Rights May Bring With It A Body Count’ के तर्कों को समझना जरुरी है. इस लेख में तरह-तरह तर्कों के जरिए जिरह की गई थी कि किस प्रकार भारत के बौद्धिक सम्पदा कानून अमेरिकी दवा कंपनियों को नुकसान पहंचा रहे हैं. लेख के अनुसार भारत Global Intellectual Property Centerकी सूची में सबसे आखिरी पायदान पर है. 

पत्रिका के अनुसार भारत का बौद्धिक सम्पदा कानून पर हमला पिछले दो साल में तेजी से बढ़ा है. भारत ऐसा अपने जेनरिक दवा उद्योग को बढ़ावा के लिए कर रहा है. लेख में अमेरिकी राष्ट्रपति को मोदी से मुलाकात के दौरान इस मुद्दे को अहम तौर पर उठाने की हिदायत दी गई थी. आपको बता दें भारत दुनिया का सबसे बड़ा जेनरिक दवा निर्यातक देश है. भारत सहित तीसरी दुनिया की बड़ी गरीब आबादी अपनी जान बचाने के लिए इन्ही जेनरिक दवाओं पर निर्भर है. फ़ोर्ब्स द्वारा यह हास्यास्पद तर्क तब दिए जा रहे हैं जब अमेरिकी कांग्रेस में जेनरिक दवाओं की कीमतों में हो उछाल के बाबत जांच चल रही है.

अंतर्राष्ट्रीय पेटेंट कानून के अनुसार अगर आवश्यक हो तो कोई भी देश किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के पेटेंट को ताक पर रख कर अन्य उत्पादकों को पेटेंटशुदा उत्पाद को बनाने की इजाजत दे सकती है. इस व्यवस्था को ‘अनिवार्य लाइसेंसिंग’ का नाम दिया गया है. भारत के अपने पेटेंट कानून हैं. अब तक भारत तमाम अतर्राष्ट्रीय दवाओं को नकारते हुए अपने पेटेंट कानूनों को स्वीकार करता आया था. नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के बाद यह समीकरण बदल गए हैं. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के बाद जारी संयुक्त बयान में उच्च स्तरीय आईपी वर्किंग ग्रुप बनाने की बात कही गई. इसके बारे में अन्दर के पन्नों में विस्तार से जानकारी देते हुए कहा गया है, “भारत ने अब तक कॉपीराईट के संरक्षण के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाए हैं. भारत अपने पेटेंट कानून को खासतौर पर इनोवेटिव अमेरिकी फार्मा कंपनियों के खिलाफ पक्षपाती ढंग से लागू करता है, जिससे घरेलू फार्मा उद्योग को मदद पहुंचाई जा सके.” इस करार के जरिए भारत के रॉकस्टार प्रधानमंत्री ने अमेरिकी एजेंसियों को भारतीय पेटेंट कानून में सीधे तौर पर नाक घुसाने की छूट दे दी. मोदी की अमेरिका यात्रा से पहले इन 108 दवाओं की कीमत में हुए 100 गुना तक के उछाल को इसी सन्दर्भ में देखे जाने की जरुरत है.

आपको बता दें अंतर्राष्ट्रीय कम्पनियां पेटेंट कानून को अपनी मोनोपोली बनाने के हथियार के रूप में इस्तेमाल करती हैं. ब्रिटिशसरकार द्वारा बौद्धिक संपदा कानून पर एक आयोग गठित किया गया था. आयोग नेअपनी 2002 की रिपोर्ट में कहा है कि लंबी अवधि तक पेटेंट संरक्षण देने की तुलनामें कम समय तक संरक्षण देना लाभप्रद रहा है. 2008 में संयुक्त राष्ट्र केएक संस्थान ने भारत तथा चीन के पेटेंट कानूनों का तुलनात्मक अध्ययन कियाथा. चीन में डब्ल्यूटीओ के अनुरूप पेटेंट व्यवस्था 1993 में कर दी गई थी, जबकि भारत में यह 2005 में लागू हुई. चीन में दवा की उपलब्धता भारत कीतुलना में कम थी. निष्कर्ष निकाला गया कि पेटेंट संरक्षण का चीनी दवाउद्योग पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा.

भारत में बड़ी आबादी स्वास्थ्य सेवाओं की जद से दूर है. सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश की दो-तिहाई आबादी स्वास्थ्य सेवाओं की जद से बाहर है. पचास फीसदी गांवों में किसी किस्म की मेडिकल सुविधा हम अब तक उपलब्ध नहीं करवा पाएं हैं. 10 फीसदी बच्चे अपना पहला जन्मदिन नहीं मना पाते. बच्चों में कुपोषण की दर पचास फीसदी है. जबकि भारत दवा उत्पादन में विश्व के अग्रणी देशों में से एक है. भारत में स्वाथ्य सेवाओं के हालत इस तथ्य से स्पष्ट हो जाते हैं कि यहां 1700 की आबादी पर एक डॉक्टर ऊपलब्ध है. अधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक देश में मधुमेह के 4.1 करोड़, दिल संबंधी बिमारियों के 4.7 करोड़, टीबी के 22 लाख, 11 लाख कैंसर और 25 लाख एड्स के मरीज हैं. इन 108 दवाओं में इन रोगों सम्बंधित दवाएं भी शामिल हैं. इसके अलावा संक्रमण रोधी उच्च क्षमता वाली एंटी बायोटिक भी शामिल हैं. सरकार के इस फैसले से ये रोगी सीधे तौर पर प्रभावित होने जा रहे हैं. दवा कंपनियों को फायदा देने के लिए सरकार जिस तरह से लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया है उससे पब्लिक हेल्थ के ‘अच्छे दिनों’ के स्पष्ट संकेत मिल रहे हैं. 

नरेंद्र मोदी अपने ‘मेक इन इंडिया’ प्रोग्राम को सफल बनाने के तलब में जिस तरीके से देश की संप्रभुता को अंकल सैम के सामने गिरवी रख के आये उसके नतीजे सामने आ रहे हैं. अक्तूबर के दूसरे सप्ताह में यूएस ट्रेड रिप्रजेंटेटिव (USTR) ने भारतीय IPR के सम्बन्ध में नए सिरे से जांच शुरू कर दी है. इसकी रिपोर्ट इस साल में अंत में आने की संभावनहै. इस प्रसंग को मोदी की तथाकथित आक्रामक विदेश नीति का लिटमस टेस्ट के रूप मेंदेखा जा सकता है.


 संपर्क- vinaysultan88@gmail.com 

कुंठाओं के बंद गलियारे में : The piano teacher

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-उमेश पंत

http://profile.ak.fbcdn.net/hprofile-ak-ash4/371599_596263424_340334600_n.jpgद पियानो टीचर को देखना उस मनोवैज्ञानिक जुगुप्सा से भरी दुनिया से रुबरु होना है जहां आप अपनी इच्छा से जाना पसंद नहीं करते और जब लौटते हैं तो एक अजीब सी वितृष्णा के साथ लौटते हैं। उस पूरी यात्रा में आप असहज होते हैं, कई बार उस यात्रा के खिलाफ होते हैं पर उस यात्रा को आप बीच में छोड़ नहीं पाते। ये एक अरुचि भरे आकर्षण जैसा कुछ है। या फिर खुद के किसी किसी घाव को कुरेदने जैसा कुछ जिसमें उस क्षण में आप आत्मपीड़ा में आनंद का अनुभव करते हैं।
मारे ही अन्दर भावनाओं के कई ऐसे गलियारे होते हैं जिनकी ओर जाने वाले दरवाज़े हम अक्सर बंद करके रखते हैं। उन अदृश्य गलियारों में प्रवेश निशेध के अदृश्य बोर्ड हम खुद ही चस्पा कर देते हैं। माइकल हेनेके की द पियानो टीचर उन असुविधाजनक गलियारों की तरफ धकेलती सी फिल्म है।
माइकल हेनेके के सिनेमा से मेरा पहला-पहला परिचय मुंबई के उन शुरुआती रतजगों में मेहदी जहां नाम के मेरे एक दोस्त ने करवाया। मेहदी फिल्मी दुनिया के उस अंधेरे कोनों के न जाने कौन कौन गलियों से वाकिफ हैं जिनकी तरफ आमतौर पर सिनेमा के मुरीदों की नज़र तक नहीं जाती। मेहदी के कहने पे द व्हाइट रिबन और हिडन जैसी कमाल की फिल्मों से रुबरु हुआ और फिर मुंबई फिल्म फेस्टिवल में हेनेके की मास्टरपीस आमौर भी देखने को मिली।
द पियानो टीचर को देखना उस मनोवैज्ञानिक जुगुप्सा से भरी दुनिया से रुबरु होना है जहां आप अपनी इच्छा से जाना पसंद नहीं करते और जब लौटते हैं तो एक अजीब सी वितृष्णा के साथ लौटते हैं। उस पूरी यात्रा में आप असहज होते हैं, कई बार उस यात्रा के खिलाफ होते हैं पर उस यात्रा को आप बीच में छोड़ नहीं पाते। ये एक अरुचि भरा आकर्षण जैसा कुछ है। या फिर खुद के किसी किसी घाव को कुरेदने जैसा कुछ जिसमें उस क्षण में आप आत्मपीड़ा में आनंद का अनुभव करते हैं।
एरिका नाम की एक पियानो टीचर अपने ही घर में अपनी मां द्वारा दमित एक अधेड़ औरत है। उसकी कुंठाएं अब अपने चरम पर हैं। कुंठाओं का एक समग्र रुप है जिसने उसके व्यक्तित्व का रुप ले लिया है। मां उस जीवन के हर निजी पहलू पर अपनी निगरानी चाहती है। दरअसल वो निगरानी भी एक तरह की असुरक्षा का बोध देती है। उस दमन में एक खास किस्म की असहायता ही है जो एक मां को अपनी बेटी के जीवन में अशिष्ट हो जाने की हद तक दखल देने के लिये मजबूर करती है। एरिका की कुंठाओं में सेक्स के अभाव की एक अहम भूमिका है। एक साथी के अभाव से उपजा अकेलापन भी उन कुंठाओं को पैदा कर रहा है। एक पियानो वादक के रुप में सफलता के चरम पर न पहुंच पाने की कुढ़न भी उस कुंठा में कहीं मिल गई है।
अपनी इन कुंठाओं को एरिका एक खड़ूस और सख्त पियानो टीचर बनकर दमित करती है। अपने छात्र-छात्राओं को प्रताडि़त करने में उसे एक खास आनंद मिलता है। निजी जीवन के अंतरंग क्षणों में वो अपनी यौनकुंठाओं के दमन के लिये आप्मप्रताड़ना की हद तक जा पहुंचती है। पोर्न पार्लर्स में जाकर कूड़दान में पड़े वीर्य की खुशबू वाले नेपकिन को सूंघने से लेकर अपने जननांग को ब्लेड से छीलने तक। उसकी कुंठाओं की ये दुनिया एक दर्शक के रुप में आपमें जुगुप्सा के भाव पैदा करने लगती है।
इस बीच एरिका के जीवन में वाल्टर नाम का एक आकर्षक जवान लड़का आता है जो केवल इसलिये पियानो की क्लास में एडमिशन लेता है क्योंकि वो एरिका के प्रति आकर्षण महसूस करने लगा है। शुरुआत में एरिका अपने जीवन में उसके आगमन को नकारती है लेकिन वाल्टर हार नहीं मानता। और आंखिरकार वाल्टर एरिका के नज़दीक जाने में कामयाब हो ही जाता है। ऐसे ही एक अंतरंग क्षण में एरिका को उसे सताने का मौका मिलता है। और वो उसे आदेश देने लगती है। अंानंद के चरम क्षणों में वो उसे छोड़ देती है तरसता हुआ। अगले दिन जब वाल्टर लगभग जबरदस्ती उसके अपार्टमेंट में जा पहुंचता है तो वो उसे एक चिटठी सौंपती है। ये चिटठी उसकी दमित इच्छाओं का एक पुलिंदा है जिसमें एरिका ने लिखा है कि वाल्टर को उसके साथ अंतरंग क्षणों में किस तरह का बर्ताव करना है। उसमें उसे पीड़ा पहुंचाये जाने का जि़क्र है। ये भी कि ये सब इस तरह से किया जाये कि उसकी मां को ये दिखाई और सुनाई दे। इस चिट्ठी को पढ़कर वाल्टर वितृष्णा से भर जाता है। उसका एरिका के लिये सारा आकर्षण जैसे समाप्त हो जाता है। वो उसे पागल औरत कहकर वहां से लौट आता है।
ये वो क्षण है जहां प्रभुत्व का स्थानान्तरण हो जाता है। अब एरिका एक लाचार औरत की भूमिका में है। वो वाल्टर के सामने गिड़गिड़ाती है और उससे माफी मांगती है। वाल्टर जो अब तक दमित की भूमिका में था शोषक की भूमिका में आ जाता है। एरिका की मनोवैज्ञानिक लाचारी के क्षण उसे प्रभुत्वशाली होने का अहसास कराते हैं और उसका एरिका के लिये बर्ताव एकदम बदल जाता है।
सत्ता का अहसास कैसे हमारे व्यक्तित्व को एकदम बदलकर रख देता है द पियानो टीचर ये मनोवैज्ञानिक सच जैसे उधेड़कर सामने रख देती है। एक औरत जो अपनी मां से दमित है अपने छात्रों के दमन से अपनी कुंठा शांत करती है। एक लड़का जो अपनी टीचर के लियेे आकर्षित है वो तब तक लाचार नज़र आता है जब तक वो याचक की भूमिका में है। उसकी याचनाएं उस टीचर को सत्ताशाली होने का अहसास देती हैं। और सत्ता का ये अहसास उसे परपीड़ा का सुख देता है। लेकिन जैसे ही वाल्टर का आकर्षण खत्म होता है समीकरण बदल जाते हैं और अब वो शोषक की भूमिका में आ जाता है क्योंकि अब उसे समझ आ गया है कि सामने वाला लाचार है।
जीवन दरअसल प्रभुत्व के इन्हीं समीकरणों पर टिका हुआ है। हमारे सामाजिक/पारिवारिक और व्यावसायिक सम्बंध कितने महीन पावर इक्वेशन पर टिके हुए होते हैं द पियानो टीचर एकदम नग्न रुप में इसका आइना पेश करती है।
द पियानो टीचर को नारीवादी फिल्मों में शुमार किया जाता है। ये फिल्म एक औरत के पक्ष में खड़ी रहकर उसकी मनोवैज्ञानिक पीड़ाओं और कुठाओं की अनछुई दुनिया में कदम रखती है। वो दुनिया जिसकी बात तक करना सभ्य समाज में अच्छी नज़र से नहीं देखा जाता। वो दुनिया जो असहज करती है। जिसके बारे में जानने पर असुविधा महसूस होती है। जो कोई बड़ी सामाजिक समस्या की बात नहीं करती। लेकिन जिस समस्या की बात फिल्म करती है वो समस्या तभी समझी जा सकती है जब उसे जटिल मानवीय संवेदनाओं को समझने के नजरिये से देखा जाये। फिल्म एक दर्शक के रुप में आपसे बहुत गहरी संवेदनशीलता की मांग करती है।
इस साइकोसेक्सुअल थ्रिलर को विश्व सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया जाता है तो उसकी अपनी मुकम्मल वजहें हैं। माइकल हेनेके का सिनेमा मानव संबंधों के उन बंद गलियारों की पड़ताल करता है जिनको सिनेमा के फलक में मुश्किल से जगह मिल पाती है। द पियानो टीचर उस मुश्किल जगह को भरने वाली एक अहम फिल्म है जिसे वही सिनेप्रेमी पसंद करेंगे जिन्हें असुविधाजनक स्पेस में ले जाकर छोड़ देने वाली फिल्में भी पसंद आती हैं।

उमेश लेखक हैं. कहानी, कविता और पत्रकारीय लेखन.गुल्लक नाम से एक वेबसाइट चलाते हैं.संपर्क- mshpant@gmail.com


‘कविता: 16 मई के बाद’ का दूसरा आयोजन लखनऊ में

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16 मई के बाद केन्द्र में अच्छे दिनों का वादा कर आई नई सरकार ने जिस तरह से सांप्रदायिकता और काॅरपोरेट लूट को संस्थाबद्ध करके पूरे देश में अपने पक्ष में जनमत बनाने की आक्रामक कोशिश शुरु कर दी है उसके खिलाफ जनता भी अलग-अलग रूपों में अपनी चिन्ताओं को अभिव्यक्ति दे रही है। 

जिस तरह चुनावों के दरम्यान सांप्रदायिक माहौल खराब किया जा रहा है, कहीं ‘लव जिहाद’ के नाम पर महिलाओं के अधिकारों का दमन कर सामंती पुरुषवादी ढांचे का विस्तार किया जा रहा है तो उसके बरखिलाफ हमारे रोज-मर्रा के सवालों से टकराता देश का कवि समाज भी मुखरता से आगे आया है। 

ऐसे ही कविताओं को एक मंच पर लाने के लिए रविवार, 9 नवंबर 2014 को सीपीआई कार्यालय अमीरुद्दौला पब्लिक लाइब्रेरी के पीछे शाम 4 बजे से ‘कविता: 16 मई के बाद’ का आयोजन प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच, इप्टा, जर्नलिस्ट्स यूनियन फाॅर सिविल सोसाइटी द्वारा किया जा रहा है।

इप्टा कार्यालय पर विभिन्न लेखक, रंगकर्मी और सामाजिक संगठनों ने इस आयोजन के संदर्भ में बैठक की। बैठक में वक्ताओं ने कहा कि सत्ता में आने के बाद भाजपा जिस अंधराष्ट्रवाद को भड़का रही है वह एक प्रकार का उन्माद है जो एक ओर बहुसंख्य जनता को आसन्न खतरे के प्रति सचेत नहीं होने देता वहीं दूसरी ओर आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक तौर पर कमजोर समुदायों को पहचान की राजनीति की ओर धकेल देता है। 

पहचान की राजनीति एक साथ तीन काम करती है - अंध-राष्ट्रवाद की कारस्तानियों को उचित ठहराती है, नई चुनौतियों का सामना करने के लिए कमजोर समुदायों के हाथों में आधुनिक तर्क देने की जगह उसे अतीतोन्मुख कर देती है, उसे मिथकों में उलझा देती है, और इस तरह सामंती और मनुवादी वर्चस्ववादी संस्कृति को मजबूत होने का मौका देती है। 

वक्तओं ने कहा कि यही वह समय है जब प्रतिरोध की संस्कृति भी अपने को और अधिक धारदार तरीके से अभिव्यक्त करती है। ‘कविता: 16 मई के बाद’ इस प्रतिरोध की संस्कृति को एक साझे मंच पर लाने की कोशिश है।


बैठक में राकेश, कौशल किशोर, अजीत प्रियदर्शी, आदियोग, राम कृष्ण, मो0 शुऐब, शाहनवाज आलम आदि शामिल हुए।

बवाना में साम्प्रदायिक ताकतों की हार

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-सुनील कुमार

जे.जे. कॉलोनी वालों ने अपनी एकता के बल पर दंगाईयों के मुंह पर एक तमाचा जड़ा और अपने को सभ्य कहलाने वाले सामाज को जता दिया कि बस्ती में रहने वाले मेहनतकश कौम गंदी नहीं होती है। गंदे हैं सफेद पोस और गंदी है सरकार जो इस तरह की शक्तियों को बढ़ावा देती है। सरकार सामंती समाज से चले आ रहे खाप पंचायतों को प्रतिबंधित नहीं कर रही है और फूट डालोराज करो की नीति पर लोगों को बांटने का काम कर रही है।

I
बवाना उत्तरी पश्चिमी दिल्ली का हिस्सा है। 12-13 साल पहले इसकी पहचान दिल्ली के पिछड़े इलाके में हुआ करता था। औद्योगिक इकाईयों की संख्या गिनी-चुनी थी। यमुना पुस्ताशान्तिवनराजघाट की झुग्गियों को तोड़कर बवाना इलाके में बसाया गया जिसके कारण तेजी से इस इलाके का औद्योगीकरण हुआ।

बवाना जे.जे. कॉलोनी की आबादी एक लाख से अधिक है और हिन्दू-मुस्लिम जनसंख्या करीब 50-50 प्रतिशत है। हिन्दूओं में ज्यादातर पिछड़ी और दलित समुदाय से है। 90 प्रतिशत आबादी यूपी और बिहार से है। 100 प्रतिशत जनता मेहनतकश वर्ग से है। ज्यादातर लोग फैक्ट्रियों में काम करते हैं तो कुछ रेहड़ी-पटरी या कॉलोनियों में छोटे धंधे करके अपने परिवार के पेट की भूख शांत करते हैं। यहां की मेहनतकश जनता मेंअचेतन रूप में ही सही वर्गीय एकता बहुत मजबूत है। उनको जाति या धर्म की दीवारों के बीच नहीं बाटा जा सकता है। यही कारण है कि फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलने वाली साम्प्रदायिक शक्तियां अभी तक सफल नहीं हो पायी हैं। इस कॉलोनी के 31-32 हजार वोटर किसी भी पार्टी को जीत दिलाने में एक निर्णायक भूमिका अदा कर सकते हैं।

बवाना में जब जे.जे. कॉलोनी को बसाया गया उस समय औद्योगिक विकास और अन्य कामों के लिए लेबर (मजूदर) की मांग थी। इसलिए इन कॉलोनी वासियों को दिल्ली के मध्य से उजाड़ कर दिल्ली के ऐसे इलाके में फेंक दिया गया जहां मानव जीवन के लिए कोई भी मूलभूत सुविधा नहीं हुआ करती थी। मेहनतकश आवाम के बल पर इस क्षेत्र का विकास हुआ। औद्योगिक कारखानों की संख्या में इजाफा हुआ और जमीन की किमतों में बेतहासा वृद्धि हुई। जिससे गांव वालों के पास पैसे आ गये और अच्छे मकानअच्छी गाड़ियों की संख्या मंे इजाफा हो गई। जे.जे. कालोनी आने से पहले बवाना और आस-पास के गांव के अधिकांश लोग किसानी जिन्दगी व्यतीत करते थे और उसी तरह के रहन-सहन में रहते थे। गांव वाले जमीन का पैसा लेकर और धंधे (विशेष कर किराये पर मकानदुकानगोदाम) करके मध्यमवर्गीय शहरी जिन्दगी जीने लगे। इन मध्यमवर्गीय शहरियों को जे.जे. कालोनी वाले गन्दे’ लगने लगे और इन पर गन्दगी फैलाने व अन्य गैर कानूनी काम करने का आरोप लगने लगे।

जे.जे. कालोनी का वोट बैंक कांग्रेस का था लेकिन 2013 के चुनाव में आप पार्टी ने यहां पर अपना पैर जमाया। इस कॉलोनी पर साम्प्रदायिक शक्तियों की गिद्ध दृष्टि लगी हुई है। यहां पर बकरीद के समय से लगातार धर्म के नाम पर लड़ाने का प्रयास किया जा रहा है। बकरीद के दो दिन पहले इस कॉलोनी के सामने गाय लाकर बांध दी गई था जिसकी सूचना कॉलोनी के लोगों ने रात में ही पुलिस को दी। पुलिस ने तत्काल कदम उठाते हुए गाय को श्री कृष्ण गऊशाला में भिजवा दिया। बकरीद के समय कुछ लोग कॉलोनी में आये और कहने लगे कि गऊशाला से गाय चोरी हुई हैहम गाय खोज रहे हैं। उसके बाद से इस इलाके में साम्प्रदायिक उन्माद वाले पर्चे-पोस्टर बांटे और चिपकाये जाते रहे हैं। एक पर्चे का जिक्र करते हुए रफिक ने बताया कि उस पर लिखा था, ‘‘कटती गाय की है यह पुकारकहां गई हिन्दू तलवार’’। इस तरह के हथकंडे अपनाने के बावजूद कॉलोनीवासियों की एकता को तोड़ नहीं पायेजिसके कारण उनको इस बस्ती में दहशतगर्दी फैलाने का मौका नहीं मिला।

दहशतगर्द साम्प्रदायिक शक्तियों को 11 साल से जे.जे. कॉलोनी में मनाये जा रहे मुहर्रम के रूप में एक मौका दिखने लगा। वे प्रचारित करने लगे कि मुहर्रम के दिन ताजिया के समय मुस्लिम समुदाय के लोग शक्ति प्रदर्शन और महिलाओं के साथ छेड़-छाड़ करते हैंइसलिए यह ताजिया जे.जे. कॉलोनी के अलावा और किसी इलाके में नहीं घुमाया जाये। इस बात को लेकर 26 अक्टूबर को एसीपीडीसीपीनरेलाबवाना थाने वा जे.जे. कॉलोनी वालों के साथ बवाना इं. एरिया के सेक्टर 3 के गोल चक्कर के पास एक मीटिंग हुई। इस मीटिंग में सहमती हो गई थी कि वह ताजिया को अपने कॉलोनी तक ही सीमित रखेंगे। सहमति होने के बावजूद 2 नवम्बर को बवाना में साम्प्रदायिक शक्तियों के संगठन भगत सिंह समिति द्वारा महापंचायत का आयोजन किया गया (जिसमें भाजपा विधायक समेत कांग्रेसी पार्षद उपस्थित थे) और समुदाय विशेष के खिलाफ भड़काऊ भाषण दिया गया। भगत सिंह समिति के संयोजक प्रदीप माथुर कह रहे हैं कि जुलूस पर सहमति का लिखित पत्र हमें प्राप्त नहीं हुआ इसलिए महापंचायत करना पड़ी। प्रदीप माथुर गऊ राक्षा समिति से भी जुड़े हुए हैं। पुलिस ने इस तरह के महापंचायत को होने दिया। किसी भी दल या संगठन पर कानूनी कार्रवाई नहीं की गई।

II

कॉलोनीवासियों की एकता

इस कॉलोनी में सभी धर्मों व जातियों के घर मिले-जुले हैं। वह एक दूसरे के सुख-दुखशादीत्यौहारों में भागीदारी करते हैं। एक दूसरे के घर आते-जातेबैठतेकाम करते हैं। बच्चे एक साथ खेलते और पढ़ते हैं। बाजार में उनकी एक साथ दुकाने हैं। किसी को किसी से कोई परेशानी नहीं हैसब एक दूसरे से मिल-जुल कर रहते हैं। उनकी शिकायत है तो सरकार सेजो कि अभी तक उनके लिए पीने की पानी नहीं दे पाई। कॉलोनी में एक डिस्पेंसरी थी वह भी बंद हो गईस्कूलों में पढ़ाई नहीं होती।

जे.जे. कॉलोनी की चारों तरफ से पुलिस ने बैरकेटिंग कर रखी है। बच्चे उत्साहित हैं। जगह जगह पर ताजिया छोट-बड़े रिक्शे पर रखे गये हैं। ताजिया के पास मिट्टी का चबूतरा बना हुआ है। सोनू 15-20 लड़कों के साथ (जिनकी उम्र 10 से 25 साल है) हरा ड्रेस पहनेमाथे पर साफाहाथ में पंखरी लिये हुए चबूतरे पर जा-जा कर इमाम हुसैन के लिए आयतें पढ़ रहे हैं। बच्चे खुश हैं। लेकिन बड़े-बुर्जुग चिंतित है कि पता नहीं जुलूस निकल पायेगा कि नहीं। जगह-जगह खिचड़ी और शरबत बंट रहे हैंजिसमें कॉलोनी के हिन्दू-मुस्लिम सभी एक होकर बांट रहे हैं। ऐसे ही एक प्याऊ पर हमें ब्रह्मदेव यादवहाजीज मुहम्मद अरफदराजेन्द्र तिवारीरमेश कुमारभोले शर्मा मिले। ये सभी लोग एक स्वर में बोले कि हम यहां 10-11 साल से प्रेम के साथ रहते आये हैं और साथ में मिल-जुलकर एक दूसरे के त्यौहार को मनाते हैं। ये कहते हैं कि हम एक ही थाली में खाते हैं हमें कोई परेशानी नहीं है।

ए ब्लॉक में एक साथ दरवाजे के बाहर गीता देवी और रूबीना खातून बैठी हुई बातें कर रही थीं। जब मैंने उनसे इस तरह के माहौल के बारे में जानना चाहा तो वह हमसे ही पूछी कि यह क्यों हो रहा हैबोली कि हमें तो मीडिया से ही पता चला है कि ताजिया निकलने से रोका जा रहा है। हमारे मुहल्ले में तो सभी शांति से रहते हैं। हमें तो परेशानी है गंदी नालीमहंगाई सेहमें पीने के लिए पानी नहीं मिलता है। कमाई से ज्यादा खर्च हैं। हम लोगों की लड़ाई बच्चों को लेकर या गंदी नाली को लेकर हो जाती है। हम धर्म और जाति के नाम पर नहीं लड़ते हैं। हम मिल कर रहते हैंबाहर वाले कुछ नहीं कर पायेंगे। हम लड़ कर भाग जायेंगे तो इससे हम लोगों को नुकसान होगा। रूबीना बोलती है कि हमें सरकार से दिक्कत है।

प्रियंकारेनूसालूसलूमाछोटीमहजबीगुलशन 5वींछठवीं की छात्रा हैंजो एक साथ खेल रही हैं। गुलशन के घर से सभी खाना खा कर आयी हैं। बताती हैं कि स्कूल में पढ़ाई नहीं होती हैखेलने के लिए जगह नहीं हैस्कूल में भी गंदगी रहती है। टीचर आती है तो फोन पर लगी रहती हैकोई शिकायत करने पर डांट कर बैठा देती है और पढ़ाती नहीं हैसमय से पहले चली जाती है।

रूमा देवी 10 साल से इस कॉलोनी में रहती हैं वह कहती है कि ‘‘यह फिजूल की लड़ाई है। सभी एक साथ मिल-जुल कर रह रहते हैं तो उनको हटानालड़ाना फालूत का काम है। सभी चाहते हैं कि अच्छे से त्यौहार मनाएं। अगर हम इनके त्यौहार को आज रोकेंगे तो कल ये हमारा त्यौहार को रोकेंगे तो लड़ाई होगी कि नहींजो नेता पंचायत करते हैं वह गलत कर रहे हैं।  लड़कर आज तक किसी को कुछ नहीं मिला है।’’ यहां बैठे अनवर बताते हैं कि हिन्दूमुसलमान के बच्चे रोते हैं तो दोनों अल्लाह अल्लाह करते हैं। यहां बैठे और लोग बताते हैं कि एक डिस्पनेसरी थी वह भी बंद हो गईअब बवाना के लोगों को और ज्यादा बीमार होने पर पूठ कला अस्पताल जाना पड़ता है। शौचालय साफ नहीं रहता हैएक बार जाने पर दो रुपये देेने पड़ते हैं।

मुझे एक कमरे में सीतामढ़ी के फरियाज और मुंगेर के रहने वाले रितेश दिखेजो कि साड़ी कढ़ाई का काम कर रहे थे। रितेशफरियाज एक दूसरे को भईया और बाबू कहते हैं। वो कहते हैं कि काम एक साथ करने में ही अच्छा लगता है। दंगा भड़काने पर बोलते हैं कि ‘‘हमें कुछ मालूम नहीं है कि बाहर क्या हो रहा हैहमारी ड्युटी सुबह 9 बजे से रात की 11 बजे तक होती है। इतनी लम्बी ड्युटी करने पर 300 रु. मिलता है।’’ धर्म कौन छोटा है और कौन बड़ा पूछने पर रितेश कहते हैं कि ‘‘कोई धर्म छोटा या बड़ा नहीं है। छोटा-बड़ा कहना सही बात नहीं है। धर्म जिसका हो उसके लिए ठीक है।’’ रितेश स्कूल से आकर 3 बजे से 11 बजे तक काम करते हैं और महीने का 5-6 हजार रु. कमा लेते हैं। पिता बीमार हैंदो भाई काम करके घर का खर्च चलाते हैं। रितेश का स्कूल के दोस्त में विशालअनवरअर्जुनविकास,इमरान हैंजो सभी मिल-जुल कर रहते हैं। 

रास्ते में सीता और अफीजा बेगम मिली। सीता का अपना घर है और अफीजा किराये के घर पर पति के साथ रहती है। अफीजा बताती है कि ‘‘हम होलीदीपावली मिल-जुल कर मनाते हैं। यहां के हिन्दू और मुसलमान साथ रहते हैं।’’ एक महिला आती है और सवाल करती है कि होलीदीपावली हिन्दूओं का त्यौहार अच्छा से मनता हैमुसलमान के त्यौहार में ऐसा क्यों हो रहा हैसीता कहती है कि ‘‘इस कॉलोनी को बदनाम किया जाता है कि यहां दारूचरस बिकता है। सरकार इसको बनाती क्यों हैसरकार इसको बनाये नहींइससे हिन्दूमुसलमान दोनों के लड़के बिगड़ते हैं। बवाना और बाहर से लोग पीने के लिए यहां आते हैं। पुलिस कुछ नहीं करती है। पुलिस के पास शिकायत करने पर अच्छे लोग को मार कर भगा देती हैबुरे को बैठाती है। सरकार 13 साल पहले यहां हम लोगों को लायी थी तो कोई रोजी-रोजगार नहीं था। अब यहां रोजगार हो गया तो सरकार भगाना चाहती है।’’

III

प्रशासन की भूमिका

प्रशासन ने बकरीद से चले आ रहे माहौल में एक भी शरारती तत्व की गिरफ्तारी नहीं की और सारे खेल एक माह से चलते रहे। जे.जे. कॉलोनी को ही समझा दिया कि आप जो जुलूस 10-11 साल से जिस रास्ते पर निकालते हो वहां नहीं जाओअपने को सीमित रखो। ताजिये के जुलूस में शामिल होने वाले लोगोंडंडोंहथियारों की पूरी जानकारी थाने को दी जाती है जिस पर थाने का परमिशन होता है। लेकिन इस बार हथियारों की संख्या को काट कर पुसिल द्वारा दिये गये निर्देश का पालन किया गया। पुलिस की मौजूदगी में गैर कानूनी महापंचायत को होने दिया गयाकिसी को रोका-टोका नहीं गया। मुहर्रम के दिन सामाजिक संगठन जब हालत को देखनेअध्ययन करने के लिए गये हुए थे तो उनके कार्यकर्ताओं (जिनमें महिलाएं भी थीं) को चुन-चुन कर पकड़ कर थाने ले जाया गया और रात के 9 बजे तक विभिन्न थानों में डिटेन करके रखा गया। ताजिये के ऊपर ड्रोन उड़ाये जा रहे थे जबकि असमाजिक तत्व खुलेआम घूम रहे थे।

जे.जे. कॉलोनी के अन्दर एक एकता दिख रही थी। बच्चे-बूढ़ेमहिला-पुरुष किसी के अंदर कोई धार्मिक उन्माद नहीं था। मुहर्रम में जिस तरह माहौल खराब करने कोशिश की गई हिन्दू भी उतना ही क्रोधित थे जितना मुसलमान। मुसलमान के बच्चे जिस तरह से खुश थे उसी तरह से हिन्दू के बच्चे भी खुश थे। हिन्दू-मुसलमान दोनों का व्यापार 35-40 प्रतिशत कम हो गया था। ए और ई ब्लॉक के बाजार में सड़कों पर दिखने वाली भीड़ गायब थी। बहुत से लोग खराब माहौल को देखते हुए रिश्तेदारों या अपने गांव को चले गये थे। ताजिये के जुलूस में हिन्दू पुरुष-महिला शामिल थे। डी ब्लॉक की रहने वाली उर्मिला चौधरी ताजिये के जुलूस में तलवार और लाठियां भाज रही थी। वह इस त्यौहार को अपने त्यौहार जैसा मना रही थी। उसी जुलूस में शामिल हसिना को देखकर ऐसा लगता था कि वह हिन्दू हैं उनकी मांग पर हरे रंग की सिन्दुर और माथे पर बिन्दया उनके मुस्लिम धर्म से अलग होने का पहचान दिला रही थी। 

जे.जे. कॉलोनी वालों ने अपनी एकता के बल पर दंगाईयों के मुंह पर एक तमाचा जड़ा और अपने को सभ्य कहलाने वाले सामाज को जता दिया कि बस्ती में रहने वाले मेहनतकश कौम गंदी नहीं होती है। गंदे हैं सफेद पोस और गंदी है सरकार जो इस तरह की शक्तियों को बढ़ावा देती है। सरकार सामंती समाज से चले आ रहे खाप पंचायतों को प्रतिबंधित नहीं कर रही है और फूट डालोराज करो की नीति पर लोगों को बांटने का काम कर रही है। इसी फूट का लाभ उठा कर भारत का शासक वर्ग आम जनता का शोषण-दमन करती रही है। सभी सामाजिक संगठनों का दायित्व है कि वे हाल में हुए त्रिलोकपुरी व बवाना जैसी घटनाओं को रोकने के लिए सांस्कृतिक कार्यक्रमोंपर्चेपोस्टरों के द्वारा उनकी एकता को बनाये रखें ताकि वे जीवन के मूलभूत सुविधाओं के लिए संघर्ष कर सकें।

मिथक, विज्ञान, समाज और मोदी

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-विक्रम सोनी और रोमिला थापर
अनुवाद - आशुतोष उपाध्याय
पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक 'निजी'अस्पताल के उद्घाटन कार्यक्रम में अपनी बुनियादी राजनीतिक लाइन के आधार पर ही प्राचीन भारत में विज्ञान के प्रसार को भरपूर महिमामंडित किया. उन्होंने कहा कि प्राचीन भारत में जेनेटिक साइंस यानि आनुवांशिक विज्ञान का इस्तेमाल किया जाता था. उन्होंने कहा— 
"महाभारत का कहना है कि कर्ण मां की गोद से पैदा नहीं हुआ था. इसका मतलब ये हुआ कि उस समय जेनेटिक साइंस मौजूद था. तभी तो मां की गोद के बिना उसका जन्म हुआ होगा. हम गणेश जी की पूजा करते हैं. कोई तो प्लास्टिक सर्जन होगा उस ज़माने में, जिसने मनुष्य के शरीर पर हाथी का सर रख के प्लास्टिक सर्जरी का प्रारंभ किया हो." 
एक लोकतां​त्रिक देश के जबरदस्त तौर पर विज़नरी प्रचारित किए जाने वाले प्रधानमंत्री का यह 'विज़नरी'बयान मीडिया और विपक्षी दलों ने भी मानो नतमस्तक हो स्वीकार लिया हो. बिना किसी विवाद के तकरीबन सर्वमान्यतौर पर यह बयान आया—गया हो गया.
 
ऐसा नहीं है कि कल्पना आधारित मिथकों से अपने अतीत की पीठ सहला कर गौरवान्वित होने का यह ट्रैंड नया हो और मोदी के वक्तव्य में ये शब्द औचक ही फूट आए हों. असल में मोदी ​जिस विचारधारा से आते हैं वो न सिर्फ अवैज्ञानिक है ​बल्कि असल में वैज्ञानिकता विरोधी है. उनके ​इस बयान में आश्चर्य करने लायक कुछ भी नहीं है. लेकिन आश्चर्य इस बात ज़रूर किया जाना चाहिए कि एक लोकतांत्रिक देश का प्रधानमंत्री अगर ऐसा बयान दे तो उसका विपक्ष (जो​ कि सिर्फ विपक्षी राजनीतिक पार्टियां ही नहीं ​बल्कि और भी अन्य दबाव समूह हैं) इतना ख़ामोश कैसे हो सकता है? बहरहाल ऐसा नहीं है कि ये खामोशी सर्वव्यापी है. अब भी कुछ आवाजें आ रही हैं. प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर और विक्रम सोनी का यह आलेख उन्हीं आवाजों में एक है. वरिष्ठ पत्रकार आशुतोष उपध्याय द्वारा किया गया मूल रूप से अंग्रेजी के इस आलेख का अनुवाद  Praxis के पास विपिन शुक्ल के ज़रिये पहुंचा है... पढ़ें-  (संपादक)
कुछ लोग सोचते हैं कि प्राचीन भारतवासियों को आधुनिक वैज्ञानिक अविष्कारों की जानकारी थी. वे मानते हैं कि सिद्ध करने के लिए भले ही पर्याप्त वैज्ञानिक प्रमाण न हों, लेकिन ऐसी संभावनाओं को इस आधार पर समझा जा सकता है कि इनके लिए अपेक्षित ज्ञान पांच हजार साल पहले मौजूद रहा होगा मगर जिसे सुरक्षित नहीं रखा जा सका या यह कहा जाता है कि ऐसे ज्ञान की मौजूदगी की संभावना को सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता . इसलिए हमने सोचा कि इस नज़रिए का विश्लेषण संभवतः उपयोगी होगा.
जादुई यथार्थवाद
पौराणिक गाथाएं इस अर्थ में जादुई यथार्थवाद हैं कि अलौकिक वस्तुओं व अलौकिक शक्तियों की कथाओं से बुने गए इनके ताने-बाने में भरपूर जादू और बहुत थोड़ा यथार्थ होता है. मिथक मानव व्यवहारों, दुविधाओं, प्रवृत्तियों और विरोधाभासों की अतिओं का भी प्रदर्शन करते हैं. कल्पना के मसाले को हटा कर देखिये, महागाथा मामूली धर्मोपदेश में सिमट जाएगी.
अब देखिए किस तरह की कपोलकल्पनाएं की जाती हैं: हमारे पास वायुयानों की भरमार थी, कई सिर और भुजाओं वाले लोग थे, तमाम तरह के यंत्र, जिन्हें आज के साई-फाई या वाई-फाई उपकरणों जैसा बताया जा सकता है. इन सब की खोज मिथकीय अतीत में जड़ जमाई कल्पना की उर्वर जमीन में की गई है. इस मामले में हम प्राचीन अतीत वाले अन्य समाजों से भिन्न नहीं हैं. क्या इन दलीलों के आधार पर हम कह सकते हैं कि आधुनिक अविष्कार अतीत में खोजे जा चुके थे? अगर ऐसा है तो कल्पना की एक और जबरदस्त उड़ान हमें इस मान्यता तक ले जाती है कि समस्त काल्पनिक वस्तुएं असल में अतीत में हुई वास्तविक खोजें ही थीं. और जब मिथक लोगों के विश्वासों में उतर जाते हैं तो पौराणिक गाथाएं धर्म का हिस्सा बन जाती हैं.
निसंदेह, कल्पना एक बेहद मजबूत रचनात्मक शक्ति है और आगे भी बनी रहेगी. और हमारे पास ऐसे मिथक हैं जो हमारी वर्तमान कल्पनाशक्ति को घेरे रखते हैं. अगर हम जूल्स वरने या आर्थर सी. क्लार्क को पढ़ें तो हम अंतरिक्ष की महायात्राओं में विचरने लगेंगे, भले ही इन किस्सों का अंतरिक्ष कितना ही अलग क्यों न हो. या अगर हम जॉर्ज ऑरवेल की 1984 को लें. यह हमें रोबोट और कंप्यूटरनुमा इंसानों की एक सर्वसत्तावादी व्यवस्था में ले जाता है जो हम पर शासन करती है. ऐसी कल्पनाएं कई बार भविष्यवाणियों में तब्दील हुई हैं. लेकिन यहां एक मौलिक अंतर है. ये कल्पनाएं भविष्य के संभावित यथार्थ से संबंध बनाती हैं, जबकि भारत में आज दावे हमारे अतीत के यथार्थ से संबंध के किए जा रहे हैं. इसलिए समय की रेखा में इसे कहां रखा जाय- भविष्य में या अतीत में?
पौराणिक गाथाओं को इनकी समृद्ध एवं विशिष्ट पहचान के साथ पुराण समझ कर ही पढ़ा जाना चाहिए. मिस्र, यूनान, भारत और अन्य सभ्यताओं के प्राचीन कल्पनाकारों ने मिथकों को देवताओं व अलौकिक शक्तियों के साथ जोड़कर देखा. इसलिए समझदारी शायद इसी में होगी कि हम इन्हें इतिहास या विज्ञान के साथ उलझाएं नहीं. मिथक प्राचीन कथाएं हैं; जबकि इतिहास वह है, जिसे वास्तव में घटा माना जाता है. विज्ञान इसका एक हिस्सा है. इतिहास की जगह मिथकीय गाथाओं को पेश करना सही नहीं है और कुछ लोग इसे सनकीपन भी कह सकते हैं. यह प्रवृत्ति प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हाल की एक टिप्पणी में प्रदर्शित हुई जिसमें उन्होंने पौराणिक कल्पनाओं को आधुनिक विज्ञान से जोड़ते हुए दावा किया कि आज के अविष्कार हमारे अतीत में पहले ही खोजे जा चुके थे.
स्वप्न बनाम यथार्थ
विज्ञान सूचनाओं और संचित ज्ञान पर आधारित है. इसमें सूचनाओं और ज्ञान का क्रमबद्ध और तार्किक विश्लेषण ज़रूरी है. स्वीकार करने से पहले प्रमाण की विश्वसनीयता की कठिन परीक्षा ली जाती है. यह शर्त स्वाभाविक रूप से कपोलकल्पनाओं पर लागू नहीं होती.
अविष्कार कल्पना की क्षणिक छलांग भर नहीं हैं. उन्हें लंबे प्रसव काल से गुजरना पड़ता है; वायुयान जैसे सक्षम परिणाम तक पहुंचने से पहले उन्हें कई अलग-अलग स्तरों व दोहरावों से होकर जाना पड़ता है. अतीत की काल्पनिक रचनाओं के बारे में उनके विकास का कोई संरक्षित प्रमाण नहीं मिलता. यह बात सही है कि विज्ञान और इसके आविष्कार तथा टेक्नोलॉजी कल्पना व खोजों से रचनात्मक ऊर्जा प्राप्त करते हैं. मगर, वे पूरी तरह कल्पनाओं पर आधारित नहीं होते. अगर ऐसा होता तो वे सपने ही बने रहते, वास्तविकता में नहीं बदलते.
मौजूदा माहौल में यह प्रचार, जो अब सरकारी हो चला है, हमें जॉर्ज बुश और उन अमेरिकियों से एक कदम आगे ले जा रहा है जो विकासवाद का खंडन करते हुए उसकी जगह 'इंटेलीजेंट डिजाइन' (जो दैवीय सिद्धांत से अलग नहीं है) की वकालत करते थे. यहां तक कि ईश्वर के करीब माने जाने वाले पोप ने हाल ही में विकासवाद को स्वीकार करने की राय दी है.
लोग अपने विश्वासों के मामले में निष्कपट होते हैं, चूंकि विश्वासों पर उनकी प्रकृति के कारण अमूमन कोई सवाल नहीं उठाता. ऐसे लोगों की निश्चलता का आसानी से दोहन किया जा सकता है. इस तरह की घोषणाएं उन पर विश्वास करने वालों को अति-राष्ट्रवादी, अतार्किक, विज्ञान विरोधी और अतीत को एक खास नजरिए से देखने की प्रवृत्ति की ओर धकेल देंगी. यह विज्ञान की वैधता को ख़ारिज करने का ही एक ढंग है- यह कहना कि वैज्ञानिक अविष्कार तब भी मौजूद थे जब खोजों के लिए अनिवार्य वैज्ञानिक ज्ञान का कोई सन्दर्भ नहीं मिलता. मिथकीय कल्पनाएं और धर्म बड़ी आसानी से घुल-मिल जाते हैं. हर कोई धर्म और राजनीति के विस्फोटक मिश्रण को लेकर चिंतित है. पौराणिक कल्पनाओं को विज्ञान और धर्म को राजनीति में मिलाकर हम विचारों का जो विस्फोटक कॉकटेल तैयार कर रहे हैं, वह हमें मोलोतोव से भी आगे ले जा सकता है. यह वो मंज़िल नहीं जहां हम जाना चाहते हैं.
(विक्रम सोनी जामिया मिल्लिया इस्लामिया विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में सेंटर फॉर थेओरेटिकल फिजिक्स से जुड़े हैं;
रोमिला थापर जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में प्राचीन इतिहास की मानद प्रोफ़ेसर हैं. )

विकास का गुजरात मॉडल और हाशिये के लोग

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन
इन तबकों को शिकायत थी राइट्स बेस्ड एप्रोच के जरिए राजकोष का धन गरीबों पर लुटाया जा रहा है और उन्हें “निकम्मा” बनाया जा रहा है। मनरेगा जैसे कानूनों से ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन रुकने और मेहताना बढ़ने से सस्ते मजदूरों की कमी उनकी एक बड़ी शिकायत थी। उन्होंने मध्य वर्ग के सहयोग और मीडिया तंत्र के जरिए विकास के इस नजरिए की साख खत्म करने के लिए जोरदार अभियान चलाया। विकल्प के तौर पर विकास के “गुजरात मॉडल” का मिथ तैयार किया गया।
 
साभार- द हिन्दू
कांग्रेस नेतृत्व वाला गठबंधन 2004 में एक खास परिस्थिति में सत्ता में आया। 14वीं लोकसभा के चुनाव में आम जन ने भारत उदय यानी इंडिया शाइनिंग के स्वांग को ठुकरा दिया था। दक्षिणपंथ और सांस्कृतिक रूढ़िवाद के खिलाफ ऐसा जनादेश सामने आया, जिसमें वामपंथी दलों के समर्थन के बिना सरकार बनना मुमकिन नहीं था। इन हालात में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी यूपीए-1 सरकार बनी। उसके शासनकाल की खास पहचान विकास के प्रति अपनाए गए एक अलग नजरिए से बनी, जिसे rights based approach to development (विकास के प्रति अधिकार आधारित दृष्टिकोण) कहा गया। इसके तहत समाज के सबसे वंचित तबकों को जीवन की न्यूनतम परिस्थितियां उपलब्ध कराने के कानूनी प्रावधान किए गए। शुरुआत सूचना के अधिकार (आरटीआई) से हुई और फिर मनरेगा और वनाधिकार कानून अस्तित्व में आए। मुफ्त एवं अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा का अधिकार कानून (आरटीई), खाद्य सुरक्षा अधिनियम और नए भूमि अधिग्रहण कानून की नींव भी उसी दौर में पड़ी, हालांकि उन्हें अमली जामा यूपीए-2 के कार्यकाल में पहनाया गया।

यूपीए या कांग्रेस इस दृष्टिकोण में वास्तविक आस्था रखते थे, यह कहना कठिन है। इसके विपरीत मनमोहन सिंह और उनकी सरकार जीडीपी वृद्धि दर केंद्रित नीति पर ही चलना चाहते थे, जो ट्रिकल डाउन यानी विकास के फायदों के रिस कर सभी वर्गों तक पहुंचने की समझ पर आधारित है। मगर यूपीए सरकार राजनीतिक जरूरतों में राइट्स बेस्ड एप्रोच को आधे-अधूरे मन से चलाती रही। नया भूमि अधिग्रहण कानून और खाद्य सुरक्षा अधिनियम तो 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले चुनावी मकसदों से पास कराए गए। लेकिन तब तक आर्थिक वृद्धि दर गिर चुकी थी, दक्षिणपंथी शक्तियां ऐसा भ्रष्टाचार के कथानक से राजनीतिक चक्रव्यूह बुना कर उसमें कांग्रेस को उलझा चुकी थीं और उद्योग जगत तथा धनी-मानी तबके आम चुनाव के लिए अपना नया दांव चुन चुके थे। अनियंत्रित महंगाई ने उनका काम आसान बना दिया था।

इन तबकों को शिकायत थी राइट्स बेस्ड एप्रोच के जरिए राजकोष का धन गरीबों पर लुटाया जा रहा है और उन्हें “निकम्मा” बनाया जा रहा है। मनरेगा जैसे कानूनों से ग्रामीण क्षेत्रों में पलायन रुकने और मेहताना बढ़ने से सस्ते मजदूरों की कमी उनकी एक बड़ी शिकायत थी। उन्होंने मध्य वर्ग के सहयोग और मीडिया तंत्र के जरिए विकास के इस नजरिए की साख खत्म करने के लिए जोरदार अभियान चलाया। विकल्प के तौर पर विकास के “गुजरात मॉडल” का मिथ तैयार किया गया। इसे इतने शोर के साथ प्रचारित किया गया कि कभी गुजरात ना गए और इस मॉडल की हकीकत से नावाकिफ लोग इसे अपनी हर समस्या का रामबाण समाधान मानने को प्रेरित हुए। कुल मिला कर पिछले लोकसभा चुनाव के परिणाम को तय करने में यह पहलू निर्णायक साबित हुआ।

तो अब देश और अनेक राज्यों में ऐसी सरकारें हैं, जो “गुजरात मॉडल” में यकीन करती हैं। सीधा परिणाम है कि राइट्स बेस्ड एप्रोच की जड़ें खोदी जा रही हैं। आरंभिक प्रयोग राजस्थान में हो रहे हैं। फिर राष्ट्रीय स्तर पर उसे लागू किया जा रहा है (या किया जाएगा)। वसुंधरा राजे की सरकार ने भूमि अधिग्रहण कानून के किसान समर्थक प्रावधानों को पलटने की पहल की है, श्रम सुधारों के नाम पर मजदूरों के बचे-खुचे अधिकारों को खत्म करने की तरफ गई है, आरटीई को सीमित करने का विचार रखा है, और अशोक गहलोत सरकार के दौर में अस्पतालों में मुफ्त दवा देने की शुरू की गई योजना पर लगभग विराम लगा दिया है। केंद्र सरकार ने मनरेगा को 200 जिलों में समेट कर और इसके बजट में मजदूरी का अनुपात घटा कर इसे निष्प्रभावी करने की पूरी तैयार कर ली है। खाद्य सुरक्षा अधिनियम पर अमल लगातार टाला जा रहा है। इसके साथ पर्यावरण रक्षा प्रावधानों में दी जा रही ढील पर गौर करें, तो उद्योग और व्यापार क्षेत्र के लिए खुला मैदान तैयार करने की मौजूदा सरकार की प्राथमिकताएं खुद साफ हो जाती हैं।

सूचना के अधिकार कानून पर मंडरा रहे खतरों को इसी पृष्ठभूमि में समझा जाना चाहिए। यूपीए के दौर में नए अधिकार देने वाले जो कानून बने, उनमें संभवतः यह अकेला था जो मध्य वर्ग में भी लोकप्रिय हुआ। शायद इसीलिए यह सबसे ज्यादा प्रभावी भी हुआ। इसकी वजह से सरकारों और प्रशासन में पारदर्शिता और जवाबदेही के एक नए दौर की शुरुआत हुई। कई मामलों में इसका स्वाभाविक परिणाम निर्णय प्रक्रिया के धीमी होने के रूप में आया। इस कारण निहित स्वार्थों द्वारा सरकारी निर्णयों को प्रभावित करना भी कठिन हो गया। इसलिए इस कानून को भोथरा करना उनकी प्राथमिकता बना रहा है। ऐसी कोशिशें यूपीए-2 के जमाने में भी हुईं, लेकिन तब के सियासी माहौल में वे कामयाब नहीं हो पाईं। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि जब अपना मामला आया है तो न्यायपालिका भी इस कानून को नियंत्रित करने में शामिल हो गई है। मद्रास हाई कोर्ट का हालिया फैसला (जिसमें कहा गया कि सूचना मांगने वाले को उसका कारण बताना होगा) इस बात की सिर्फ एक मिसाल है। न्यायपालिका के ऐसे रुख से जाहिरा तौर पर इस कानून से खफा शासन-व्यवस्था के दूसरे अंगों का मनोबल बढ़ा होगा।  

वर्तमान माहौल को ये हिस्से अपनी अपनी मंशा पूरी करने के लिहाज से अनुकूल मानें, तो यह लाजिमी ही है। जब अर्थव्यवस्था और राजनीति में प्रगति की धारा उलट चुकी है, तो विकास को हर नागरिक के स्वतंत्रता के विस्तार के रूप में देखने वाले नजरिए का कायम रहना फिलहाल मुमकिन नहीं है। पिछले एक वर्ष में हुए तमाम चुनावों में उभरे जनादेश का पैगाम यह है कि राइट्स बेस्ड एप्रोच राजनीतिक बहुमत जुटाने के लिहाज से अप्रभावी है। इसके विपरीत “गुजरात मॉडल” के इर्द-गिर्द जो कथानक बुना गया, उसका आकर्षण जनता के एक बड़े हिस्से में लगातार कायम है। यह राइट्स बेस्ड एप्रोच से ही हुआ कि विश्व भूख सूचकांक में भारत ने सात पायदानों की छलांग लगाई, देश में प्राथमिक शिक्षा में दाखिला तकरीबन 95 फीसदी तक पहुंचा, पिछड़े ग्रामीण इलाकों से आबादी के पलायन की गति धीमी पड़ी, देहाती इलाकों में आमदनी बढ़ी और बड़ी संख्या में लोग गरीबी से ऊपर उठ कर नव-मध्य वर्ग का हिस्सा बने। दूसरी तरफ अलग मॉडल वाले गुजरात में वृद्धि दर औसत तथा मानव विकास सूचकांकों पर प्रगति निम्नतर रही है। लेकिन इस नजरिए से खफा वर्गों ने अपने धन और प्रचार-तंत्र के जरिए “गुजरात मॉडल” का ऐसा कहानी बनाई है, जो कारगर है। आरटीआई के खतरे में पड़ने की असली जड़ें इसी कहानी में छिपी हैं। प्रतीकात्मक तौर पर कहें कि अगर आरटीआई कानून राजनीति की प्रगतिशील दिशा का परिणाम था, तो राजनीतिक प्रति-क्रांति के इस दौर के नतीजों से वह बचा नहीं रह सकता, बशर्ते जनता का एक सशक्त हिस्सा उसके पक्ष में सक्रिय हस्तक्षेप करे।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

बाल मन को पहचानिए

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-अंजुम शर्मा 

बाल दिवस विशेष


अंजुम शर्मा 

"…उनकी सुन्दरता हम अपने दृष्टिकोण से देखना चाहते है. जबकि हक़ीक़त में बच्चों की सुन्दरता उनकी सरलता में निहित है. उनकी कल्पनाशीलता का कोई जवाब नहीं. एक बार उनके साथ उनकी दुनिया को नापने चले जाइए, यक़ीन मानिए आप हैरान रह जायेंगे उनकी रचनात्मकता से। उनके पास ऐसा फ़ीता है जो सागर की तलहटी से एवरेस्ट की चोटी को पलक झपकते नाप सकता है. ऐसी तेज़ धार कैंची है जो समय को काट सकती है. मासूम अधरों से झरते ऐसे बोल हैं जो सबको सोचने पर मजबूर कर सकते हैं…" 

आज नन्हें साथियों का दिन है. बच्चों का दिन है. उनकी चेहरों की निश्छल हँसी का दिन है. बेहतर होगा कि आज हम उनकी सकारात्मक ऊर्जा की बात करें, उनकी सृजनात्मक क्षमता पर विचार करें और उनके भीतर के अल्हड़ लेकिन मौलिक विचारों की उठती वेग शक्ति को समझने का प्रयास करें. समझना इसलिए क्योंकि बच्चों पर बात करने के लिए हमारे साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि हम उन्हें अपने अनुसार परिभाषित करने लगते हैं. न तो हम अपने समय से आगे बढ़कर बच्चों के समय में दाखिल होना पसंद करते हैं और न उनके कल्पनालोक की सैर पर जाना हमें रास आता है. 

उनकी सुन्दरता हम अपने दृष्टिकोण से देखना चाहते है. जबकि हक़ीक़त में बच्चों की सुन्दरता उनकी सरलता में निहित है. उनकी कल्पनाशीलता का कोई जवाब नहीं. एक बार उनके साथ उनकी दुनिया को नापने चले जाइए, यक़ीन मानिए आप हैरान रह जायेंगे उनकी रचनात्मकता से। उनके पास ऐसा फ़ीता है जो सागर की तलहटी से एवरेस्ट की चोटी को पलक झपकते नाप सकता है. ऐसी तेज़ धार कैंची है जो समय को काट सकती है. मासूम अधरों से झरते ऐसे बोल हैं जो सबको सोचने पर मजबूर कर सकते हैं. 


मैं बचपन से आज तक कई ‘सृजनात्मक लेखन’ कार्यशालाओं का भागीदार रहा हूँ. इसलिए यहाँ एक घटना का उल्लेख विशेष रूप से करना चाहूँगा. बात आज से करीब दस वर्ष पूर्व राष्ट्रीय बाल भवन में आयोजित ‘सामूहिक कविता लेखन’ सत्र की है जिसमें क़रीब सौ-सवा सौ बच्चे थे और सत्र की अध्यक्षता बाल साहित्यकार डॉ मधु पन्त कर रहीं थी. 

बच्चों से जब कविता लेखन के लिए विषयों के सुझाव मांगे गए तो ऐसे विषय सामने आए जो शिक्षा पद्धति, माता-पिता और समाज के दबाव से प्रभावित थे. मसलन, ‘मम्मी पापा में लड़ाई’, ‘दंगा मत करो’, ‘परीक्षा का डर’, ‘मैं लड़की हूँ या लड़का हूँ’ आदि. इन विषयों में कोई नयापन नहीं था, मौलिकता नहीं थी, चुनौती नहीं थी. इनमें बचपना नदारद था और उम्र से पहले बड़े हो जाने के लक्षण दिखाई दिए. 

लेकिन बातचीत कर बच्चों से जब जुड़ा गया, सब भूलकर कुछ देर के लिए जब उन्हें ख़ुद के भीतर उतरने को कहा गया, उनकी क्षमता से उन्हें परिचित कराया गया और अजब, अनूठी बातों पर विचार करने को कहा गया तो ऐसे मौलिक और हैरतभरे विचार सुनने को मिले जिन्हें सुनकर आप सूरदास के बाल कृष्ण को याद करने लगेंगे जो कहते हैं- ‘मैया मैं तो चंद खिलौनों लैहों’. ज़रा बच्चों के कल्पनालोक से आये सुझाव सुनिए- भगवान का स्कूल में दाखिला हो जाए तो..., जंगल में जानवरों का फैशन शो करवा सकते हैं..., अगर नाक और छींक में लड़ाई हो जाये कि हम दोनों में कौन बड़ा है तो..., या अगर गाय अंडे देने लगे और बछड़ा बांग...., सूरज को ठण्ड में ज़ुकाम हो जाये तो..., या सूई की धागे संग शादी करा दी जाए...इत्यादि इत्यादि।

यह वो मासूम दुनिया है जो सरल और विलक्षण है. इस प्रकार की फैंटेसी या तो ख़ुद बच्चे रच सकते हैं या वे जिन्होंने अपना बचपना मरने नहीं दिया। बच्चे जब इन कार्यशालाओं में जब कविता की देह गढ़ रहे थे तो उनकी भाषाई गुल्लक अन्य भाषाओं से आए शब्दों के प्रति रुढ़िवादी नहीं दिखी. उनके शब्द प्रयोगों से सहज हास्य की उत्पत्ति हो रही थी जो किसी के भी चेहरे पर हँसी लाने में सक्षम है. मसलन, ‘गाय अगर जो दे दे अंडे फिर क्या होगा भाई/ मुर्गी कैसे बछड़े देगी बात समझ न आई/ मुर्गा सोता रह जायेगा अपनी चादर तान/ बैल सुबह क्या कुकड़ू कूँ की उठ कर देगा बांग’. या फिर-  ‘चीटी बोली हाथी से तू करले मुझसे यारी/ मुझसे कोई हल्का है न तुझसे कोई भारी’. या इसे पढ़िए- ‘सुई बोली चाकू से करवा दो मेरी शादी/ निपट अकेली रही आज तक हुई सूख कर आधी.’ और इन पंक्तियों को भी देखिये- ‘जब ईश्वर को स्वर्ग लोक में भला लगा भूगोल/ सोचे मैं भी पढने जाऊं, हो जाऊं एनरोल’.  

बच्चों का यह ऐसा ‘जादुई नज़रिया’ है जहाँ तक हम और आप नहीं पहुँच सकते क्योंकि चीज़ों को सृजनात्मक दृष्टि से नहीं देखने का हुनर हम खो चुके हैं. हम इन्द्रधनुष को प्रक्रिया के रूप में देखते हैं लेकिन बच्चे इस पर लटक कर झूलते हैं, हम चूहे के दांतों से डरते हैं लेकिन बच्चे उन दांतों को उधार मांग कर खुराफात करते हैं, हम जंगल में ज़मीन ढूंढते हैं और बच्चे वहां जानवरों का फैशन शो करवाते हैं, हम आस्था का ढोंग करते हैं लेकिन बच्चे ईश्वर को अपना सहपाठी बना लेते हैं, हम धर्म को हथियार बनाते हैं उनके यहाँ बचपना ही धर्म और बचपना ही ज़ात होती है. 

बच्चे जाने अनजाने समरसता के उस स्तर तक पहुँच जाते हैं जहाँ किसी ‘वाद’ का स्कोप नहीं रहता किन्तु हम ताउम्र किसी न किसी ‘वाद’ में उलझे रह जाते हैं. असल में, हमारी कोशिश चीज़ों को क्लिष्ट बनाकर बौद्धिकता के धरातल पर ले जाने की, दूसरों को प्रभावित करने की होती है. इसी धरातल पर हम बच्चों को भी खड़ा कर देना चाहते हैं. जिन विषयों पर कवितायेँ लिखी गई उन्हें बच्चों के भीतर से बाहर लाना बहुत मुश्किल काम नहीं था. ज़रूरत केवल उनके साथ आत्मीयता स्थापित करने की थी, ख़ुद बच्चा बन जाने की थी. बच्चों संग किया गया यह स्नेहिल प्रयास दिखाता है कि उनकी जिज्ञासा, सोच और इच्छाओं का बाल जगत बेहद विशाल है बशर्ते उनकी आँखों पर अपनी उंगलियाँ न रखी जाएँ. यह चिंतनीय है कि दिन प्रतिदिन बाल मन सिकुड़ रहा है. बच्चे अपनी दुनिया से कटते दिखाई दे रहे हैं. और इसका कारण कहीं न कहीं हम हैं. उनके सरल मन से उपजे सवाल एकल परिवारों में उपेक्षा का शिकार होकर कहीं कोने में दब से जाते हैं. किताबी रट्टे वाली शिक्षा पद्धति उनकी सृजनशीलता को पनपने नहीं देती. उनकी क्षमता माँ बाप की झिड़की में अनजान रह जाती है और उनकी चंचलता, चपलता ‘मैनर्स’ सीखते सीखते मुट्ठी बंद कर लेती है. सच तो यह है कि हम उनके साथ साथी नहीं, शासक जैसा व्यवहार पसंद करते हैं. हम भूल जाते हैं कि बाल मन बेहद संवेदनशील होता है जो ज़रा से आघात से कई तहों में सिमट जाता है. उनकी मौलिकता, विनोदप्रियता, कल्पनाशीलता को अपने अनुसार संचालित नहीं किया जा सकता.

यह दुर्भाग्य है कि जो माता पिता अपने बच्चे को 10 वर्ष की आयु में 22 वर्षीय युवक की भांति व्यवहार करता देख ख़ुश होते हैं, वे अपने बच्चे के भीतर दम तोड़ता बचपना नहीं देख पाते. बचपन का गला केवल बाल मज़दूरी या बाल यौन शोषण से ही नहीं घुटता, वह परोक्ष रूप से हमारे द्वारा भी घोंटा जाता है. ‘हार’, ‘अंक’, ‘परीक्षा’, ‘फेल’ आदि शब्दों के जिस भय को बचपन से सफलता पाने के लिए बाल मन में बिठाया जाता है वही भय उन्हें अपने ही घर में असुरक्षित कर देता है. बहुत छोटे छोटे शब्दों को हम इतना बड़ा बना देते हैं कि बच्चा ताउम्र उनसे भयाक्रांत रहता है. डेनमार्क के कवि ‘आर्थर कुद्नर’ अपने बेटे को संबोधित एक कविता में लिखते हैं- ‘सुनो बेटे/ बड़े बड़े शब्दों से घबराना मत/ बहुत बड़े शब्द बहुत छोटी सी चीज़ का नाम होते हैं/ और जो सचमुच विशाल हैं, बड़े हैं/ उनके नाम छोटे छोटे होते हैं/ जैसे जीवन, शांति, आशा, प्रेम, घर, रात, दिन...’

हमें समझना होगा कि अविश्वास, भय और तनाव के साए में किसी का विकास सम्भव नहीं है. विकास का अर्थ केवल हाथ में लैपटॉप या मोबाईल आने तक सीमित नहीं है. अपनी उम्र को न जीना विकास के आवश्यक चरण के छूट जाने जैसा है. तकनीक कुछ समस्याओं का हल भले हो किन्तु सभी का नहीं हो सकती. उसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए अवकाश नहीं होता है. ऐसी स्थिति में संतुलन स्थापित करने की बड़ा दायित्व बड़ों के सिर है. ज़रूरत केवल बच्चों को समझने की, उनके स्तर पर उतरने की है. इसलिए अपनी आँखों से पर्दा हटाकर बाल लोक को पहचानने की कोशिश कीजिए, उनकी क्षमताओं को पहचानिए, स्नेह-संवाद से उनकी कौतुक प्रवृत्ति को बचाइये, और उनकी कल्पनाओं को नया आकाश दीजिये. यक़ीन मानिए उनकी दुनिया बहुत करिश्माई है एक दफ़ा उनके साथी बनकर तो देखिये. 

संपर्क- artistanjum@gmail.com
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