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क्या छठ की दर्दनाक घटना को भूल गए आप...

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सरोज कुमार

"...माना तो ये भी जा रहा है कि ठीक उसी दौरान सुशासन बाबू को गांधी घाट पर एक छठ के कार्यक्रम में जाना था। अब इसी रास्ते से इन्हें गुजरना था तो भला सिक्योरिटी का ध्यान और कहां रहता। सारा का सारा प्रशासनिक महकमा सुशासन बाबू की आगवानी में भाग खड़ा हुआ। नतीजा ये रहा कि अदालत घाट की ओर निष्क्रियता ही नहीं रही बल्कि इस ओर की आवाजाही भी प्रभावित हो गई। लोगों को जाम कर दिया गया और लोग संकरी गली में फंस कर मारे गए। जी हां इस आधार पर मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री सहित कई उच्च अधिकारियों पर न्यायालय में एक मामला भी दर्ज हुआ।..."


पांच दिन पहले पटना के 'अदालत घाट' पर मरे हुए कम से कम 19 लोगों को आप भूल गए होंगे। ऐसी घटनाएं होती रहती हैं जो महज हादसा होतें है, क्या किया जा सकता है। जी हां बिहार के मुख्यमंत्री उर्फ सुशासन बाबू भी यही कह रहे हैं कि यह एक हादसा था जो कभी भी कहीं भी हो सकता है। तो ईश्वर का प्रकोप या भीड़ का कॉमन सेंस ना होना बता या भीड़ अनियंत्रित हो ही जाती है कभी-कभी, ये कहकर इसे भूल जाना चाहिए। अमूमन ऐसी घटनाएं दुर्घटनाएं घोषित हो ही जाती हैं और साथ ही सबसे आसान होता है अफवाहों को इसके लिए जिम्मेदार ठहरा देना।

जी हां तो इस छठ में अदालत घाट में मारे गए 19 लोगों को हमें भूल जाना चाहिए। कल फिर कहीं भी कभी भी ऐसे हादसे हो ही जाएंगे। कमबख्त भीड़ का किया भी क्या जा सकता है। ऐसी घटनाएं फिर होंगी और हम फिर इन्हें भूल जाएंगे जब तक कि कोई और ऐसे हादसे न हो जाएं। हमें भूल जाना चाहिए कि अदालत घाट पर हजारों लोगों की सुरक्षा के लिए केवल सात सरकारी बाबू तैनात थे। एक दंडाधिकारी, एक पुलिस अधिकारी और पांच लाठीधारी सिपाही। हमें ये भी भूल जाना चाहिए कि जब घायल मासूम बच्चों को लेकर लोग मात्र पांच मिनट की दूरी पर स्थित बिहार के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल पीएमसीएच में दौड़ पड़े थे तो वहां के सारे डॉक्टर नदारद थे। हमें भूल जाना चाहिए कि कुछ बच्चों के शव को शवगृह में बंद कर गार्ड फरार हो गया था। हमें भूल जाना चाहिए कि जिनकी सांस चल रही थी उन्हें भी मृत घोषित कर दिया जा रहा था। और हमें ये भी भूल जाना चाहिए कि जिस चचरी के पुल के धंसने की बात सामने आई है वह सैंकड़ों लोगों को एक साथ आने-जाने के लिए कमजोर थी। हमें भूल जाना चाहिए कि प्रशासिनक अधिकारियों को पहले से बांस के बने चचरी पूलों के कमजोर होने का अहसास था और इनके निरीक्षण के आदेश भी दिए गए थे फिर भी चचरी के पुलों को यों ही छोड़ दिया गया। हमें ये भी भूल जाना चाहिए कि कई दिनों से राज्य के उपमुख्यमंत्री से लेकर विधायक, बड़े से लेकर छोटे स्तर के प्रशासनिक अधिकारियों की मीडिया में बयान और तस्वीरें आ रही थी घाटों के निरीक्षण की कि सब दुरुस्त है और किसी भी अधिकारी का ध्यान ना तो पुलों पर गया ना ही संकरी गलियों पर जिससे की हजारों लोगों को लगातार आना-जाना था। तो हमें एक हादसा समझ कर भूल जाना चाहिए इन सारी चीजों को। भूल जाइए। वैसे भी एक दिन बाद ही कसाब की फांसी की खबर ने तो सत्ता से लेकर मीडिया तक को मौका दिया ही कि आप भूल जाएं छठ की घटना। 

तथाकथितराष्ट्रवादी लोग जो ठाकरे के मरने का मातम मना रहे थे और छठ की घटना पर शोक में थे, कसाब की फांसी पर जश्न मनाने ही लगे। तो आप कसाब-कसाब खेलते रहिए। इधर सुशासन बाबू भी सब भूल कर अपने शासन(?)की उपलब्धियां गिनाने लगे हैं। बिक चुके अखबार अपने पन्ने सुशासन बाबू के इंटरव्यू से भर रहे हैं कि देखिए क्या-क्या महान काम कर के बैठे हैं नीतीश कुमार। दलाल पत्रकार गला चीख-चीख कर विकास-विकास चिल्ला रहे हैं और आप भी सब भूल कर देखिए विकास में बिहार उड़ा जा रहा है। विकास बाबू फारबिसगंज भूल गए हैं, इंसेफेलाइटिस से मरते बच्चे भूल गए हैं, महिलाओं के धोखे से गर्भाशय निकाला जाना उन्हें बड़ी घटना क्यों लगेगी। लड़कियों के साथ रोजना हो रही हिंसा और बालात्कार से उपर उठ गए हैं। दलितों-आदिवासियों के मारे जाने, उनकी बेटियों को तेजाब से जलाया जाना उन्हें देखने की फुर्सत है क्या। उन्हें तो बस विकास चाहिए वे भला ये क्यों याद रखें। रिपोर्ट कार्ड जारी हो रहा है। तो आप भी भूल जाइए छठ हादसा जैसी घटनाएं। खैर भूलने से पहले मैं आपके भूलने में खलल डालना चाहता हूं।

अफवाहें हैं अफवाहों का क्या

सरकारऔर प्रशासन छठ की घटना के लिए अफवाहों को जिम्मेदार बता रही है। इनका कहना है कि बिजली के करंट दौड़ने की अफवाह इसके लिए ही जिम्मेदार है। न यह अफवाह फैलता न भगदड़ मचती न लोग बदहवास होते न कोई संकरी गली में दम घुटने से मरता। अफवाह होते ही एक फोन कॉल स्थानीय बिजली सब स्टेशन में गया करंट दौड़ने का जिसके बाद तुरंत वहां की बिजली काटी गई और अंधेरे के कारण इतना बड़ा हादसा हो गया। जिस पीपा पुल की बात बार-बार आ रही है उस पर बिजली विभाग का कोई कनेक्शन है ही नहीं, ना ही चचरी के पुल की ओर है। तो बिजली कटने का असर केवल गली में होना चाहिए। जबकि करंट फैलने की अफवाह पीपा पुल की कही जा रही है। ठीक माना भी जाए कि बिजली चली जाने से अंधेरा कायम हुआ तो इसका असर केवल गली में होगा। खैर एक बात और कि घाट और पीपा पुल, चचरी के पुल से लेकर बालू की ओर जनरेटर सप्लाई से बिजली दी गई थी। तो फिर केवल बिजली विभाग की लाइट जाने का मामला नहीं बनता। अफवाह ये भी फैलाई गई कि पीपा पुल पर ही किसी महिला से छेड़खानी होने पर भगदड़ मची। कोई महिला पुल से नीचे गिरी और उसे बचाने में कोई युवक जेनरेटर के तारों के बीट फंस गया, इसी के बाद करंट फैलने की अफवाह मची। चचरी पुल के धंसने को भी सरकार साइड में कर रही है लेकिन ये सबको मालूम है कि चचरी का पुल धंसा जरुर था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार चचरी का पुल धंसने के बाद ही भगदड़ मची थी।

खैर अगर सरकार अफवाहों को ही जिम्मेदार मान रही है तो कुछ बातें और भी लोगों के बीच मौजूद हैं क्या इनकी ओर ध्यान डाला जाना चाहिए। ये केवल अफवाह हैं या और कुछ भी। वैसे इन्हें अफवाह ना कह कर लोगों की प्रत्यक्षानुभूति भी कहा जा सकता है। माना तो ये भी जा रहा है कि ठीक उसी दौरान सुशासन बाबू को गांधी घाट पर एक छठ के कार्यक्रम में जाना था। अब इसी रास्ते से इन्हें गुजरना था तो भला सिक्योरिटी का ध्यान और कहां रहता। सारा का सारा प्रशासनिक महकमा सुशासन बाबू की आगवानी में भाग खड़ा हुआ। नतीजा ये रहा कि अदालत घाट की ओर निष्क्रियता ही नहीं रही बल्कि इस ओर की आवाजाही भी प्रभावित हो गई। लोगों को जाम कर दिया गया और लोग संकरी गली में फंस कर मारे गए। जी हां इस आधार पर मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री सहित कई उच्च अधिकारियों पर न्यायालय में एक मामला भी दर्ज हुआ। अब जब अफवाहों पर बात सरकार कर ही रही है तो फिर इस बात को भी जरुर ध्यान में लिया जाना चाहिए। है कि नहीं। भले ही न्यायलय मामला रिजेक्ट कर दे, इससे इंकार करने का भी तर्क होना चाहिए जब आप अफवाहों को जिम्मेदार ठहरा रहे ही हैं।

दूसरीबात ये कही जा रही है कि अदालत घाट पर ही हादसे के कुछ ही घंटे पहले वहां व्यवस्था (बैनर वगैरह को लेकर) पर धौंस जमाने के लिए जदयू मंत्री श्याम रजक और भाजपा विधायक नीतीन नवीन के बीच झगड़ा भी हुआ था। वहां भाजपा विधायक अरुण कुमार सिन्हा और भाजपा समर्थक पूर्व महापौर संजय कुमार भी मौजूद थे। संजय कुमार से भी बहस हुई थी। यहां तक कि दोनों ओर के कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई की बात भी कही जा रही है। अब क्या इन चीजों पर भी जांच होनी चाहिए। वैसे भाजपा विधायकों पर सुशासन बाबू के कृपापात्र पत्रकारों ने सवाल जरुर उठाया है कि ये स्थानीय विधायक घटना के समय अपने इलाके के अदालत घाट से क्यों गायब रहे। अब जदयू के श्याम रजक पर सवाल क्यों नहीं होना चाहिए जबकि यह सर्वविदित है कि अदालत घाट और इस इलाके के आयोजनों का काम श्याम रजक के समर्थक ही करते हैं। यह इलाका श्याम रजक का ही माना जाता है। जब आयोजन का जिम्मा इनके समर्थक ही देखते हैं तो फिर जांच या उत्तरदायित्व के घेरे में इन्हें क्यों ना रखा जाए। और रही बात जनता के बीच तैर रही और बातों का तो कहा ये जा रहा है कि श्याम रजक समर्थक इलाके के लोग (समर्थक) ही पीएमसीएच में पीड़ितों के हंगामा में शामिल हो उन्हें तितर-बितर करने में प्रशासन का सहयोग करते रहे। और ये ही लोग अदालत घाट पर महिलाओं से छेड़खानी में भी व्यस्त रहे थे। तो फिर अफवाहें हैं अफवाहों का क्या।


और क्या-क्या नहीं भूला जा सकता...क्या-क्या अफवाह नहीं....

यहजरुर हो सकता है कि कुछ मिनट के लिए गली की ओर बिजली गई हो। लेकिन क्या सबकुछ का ठिकरा केवल इसी पर फोड़ा जाना चाहिए। यह पूरी तरह सर्वविदित है कि छठ जैसे पर्व पर बिहार की जनता की आस्था उफान मारती रहती है। भीड़ की क्या कहिए हजारों लोग अपने बच्चों सहित घाटों पर जाते हैं। अदालत घाट पर तो पटना के बड़े इलाके के लोग आते हैं। हजारों की भीड़ का आना-जाना होता है। ऐसे में केवल सात सुरक्षाकर्मियों के जिम्मे हजारों लोगों की भीड़ को कंट्रोल करना या व्यवस्था बनाने के लिए छोड़ना किस सोच के तहत किया गया था। बांस के बने अस्थायी चचरी के पुलों को अधिकारी पहले ही खतरनाक मान कर चल रहे थे, इस बाबत डीएम ने इनके निरीक्षण का लिखित आदेश भी दिया था। फिर इन चचरी के पुलों की ओर किसी का ध्यान क्यों नहीं गया। क्या किसी भी स्तर के प्रशासनिक अधिकारी का ध्यान इस ओर नहीं गया कि हजारों लोगों का आना-जाना बांस का बना पुल कैसे झेलेगा या कितना झेलेगा।

चचरीके पुल के धंसते ही भीड़ घबरा गई और भगदड़ मच गया। इससे बचने के चक्कर में सारी भीड़ पीपा पुल की ओर दौड़ पड़ी। बहरहाल पीपा पुल की ओर भगदड़ का केंद्र हो गया। इससे होकर बाहर निकलने वाला रास्ता बिलकुल ही संकरी लगी थी जहां बदहवासी में लोग फंसे जा रहे थे। एक तो घाट की ओर से लोग बाहर निकलने वाले लोग थे तो दूसरी ओर बाहर की ओर से घाट आ रहे लोग। आलम ये हुआ कि सैंकड़ों लोग गली में ही अपने बच्चों के साथ फंस गए। इसी बीच अगर करंट की अफवाह और बिजली गई तो हाल और भी भीषण हो गया। तिस पर वहीं स्थित मंदिर का दरवाजा भी बंद कर लिया गया जिससे लोग गली में और पुल की ओर ही फंस कर रह गए। वो तो भला हो स्थानीय मकान वालों के जिन्होंने बच्चों को अपने दरवाजे-खिड़कियों से खिंच कर बचाने की कोशिश की। साथी पीएमसीएच का एक छोटा-सा दरवाजा खोल दिया जिससे कि कई कुछ रास्ता मिला वरना कई और जानें जा सकती थी। केवल एक बात समझ में नहीं आती कि घाट की ओर पीपा पुल और चचरी के पुल के पार गंगा की ओर बहुत बड़ा खाली बालू का क्षेत्र था फिर भी लोग उस ओर न जाने कर संकरी गली की ओर ही क्यों भागे जा रहे थे। संभवत:इसका कारण ये रहा हो कि घाट से तो लोग बदहवासी में अपनी जान पर आफत समझ घबराए हुए बाहर निकलने भागे जा रहे थे वहीं दूसरी ओर बाहर से आ रहे लोग अंदर क्या हुआ से अनजान आए जा रहे थे।

खैरइतना तो साफ था कि इस दौरना प्रशासन मौजूद ही नहीं रही। डीएम ने घाटों की लगातार पेट्रोलिंग का निर्देश दिया था लेकिन इस ओर कोई नहीं था। ये आदेश महज कागजी रहे। दूसरी की संकरी गली की ओर कोई व्यवस्था थी ही नहीं कि हजारों लोग सही से गुजर सकें। प्रशासनिक लापरवाही का आलम ये था कि घटना की सूचना मिलने के एक घंटे बाद तक कोई भी वरीय अधिकारी घटना स्थल पर नहीं पहुंचा। शायद ये अपनी पूरी फोर्स के साथ महानुभाव सीएम साहब सहित मंत्रियों और वरीय अधिकारियों की पत्नियों का छठ करवाने में व्यस्त थे।

इसतरह के हादसों से बचने या नुकसान कम होने के लिए जरुरी होता है कि हमारे पास सही रेस्कयू की व्यवस्था हो या प्रशासन चुस्त रहे। लेकिन यह पूरी तरह से निष्क्रिय था। प्रशासनिक लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण तो बिहार का सबसे बड़ा सरकारी अस्पताल पीएमसीएच रहा। हादसे के तुरंत बाद लोग बच्चों को गोद में उठाए केवल पांच मिनट की पैदल दूरी पर स्थित पीएमसीएच दौड़ पड़े थे लेकिन निषक्रियता का आलम ये था कि अधीक्षक, वरीय डॉक्टरों के साथ-साथ जूनियर डॉक्टर और कर्मचारी भी नदारद थे। सारे अस्पताल कर्मचारी गायब थे। एक-दो जुनियर डॉक्टर और कर्मचारी थे भी तो डर के मारे थोड़ी ही देर में चुपके से निकल गए। महिलाओं और बच्चों की लाशें फर्श पर लिटा दी गई थी। एक- दो डॉक्टर जो थे उन्होंने सांस चल रहे जीवितों को भी मृत घोषित कर दिया गया। मानती देवी नामक एक महिला की सांस चल रही थी फिर भी उसे मरा कह दिया गया, लेकिन उनकी बहन के हंगामा करने पर दुबारा उसे पंप किया गया और थोड़ी देर में उसकी मृत्यु हो गई। इसी तरह दो बच्चों के शव शवगृह में ताला बंद कर गार्ड भाग गया। परिजनों के हंगामा करने और शीशा तोड़ने का बाद शव दिखलाया गया। इस तरह से लापरवाही पर लापरवाही बरता गया। लाशें छिपाने की कोशिश भी होती रही। इतने देर में डीजीपी अभयानंद. सिटी एसपी वगैरह वरीय अधिकारी आ गए और हंगामा को दबाने के लिए शवों और घायलों को शहर के दूसरे असपतालों में भेजने लगे। पुलिस ने लाठियां चटकाईं और पीएमसीएच के साथ आसपास हंगामा कर रहे परिजनों और लोगों तो तितर-बितर कर दिया।
  

अब शुरु हुआ राजनीतिक खेल...

पहलेदिन से ही सुशासन बाबू से लेकर के सरकार के बड़े-बड़े नेता, प्रवक्ता ये कहते रहे कि यह हादसा अफवाह का नतीजा है और विपक्ष इसपर शर्मनाक तरीके से हाय-तौबा मचा रहा है। सरकारी दलाल पत्रकार भी मधुबनी की घटना की तरह इसे भी अफवाह से जोड़ते रहे और छापते रहे कि एक बार फिर अफवाह जीत गई। अब इतनी बड़ी घटना पर विपक्ष सरकार पर उंगली भी न उठाए तो क्या आरती उतारे। शर्मनाक तरीके से तो सरकार औऱ प्रशासन बर्ताव करते रहे।

पहलेही दिन से सरकार की चाल यहीं रही कि मधुबनी की घटना की तर्ज पर अफवाह को जिम्मेदार ठहरा प्रशासनिक योजनाओं की नाकामी को छिपाया जा सके। इसी लिए सबकुछ अफवाह पर ही फोकस किया गया। क्या लापरवाही बरतने को लेकर किसी भी अधिकारी या पीएमसीएच के वरीय पदाधिकारी पर तत्कला कोई कार्यवाई हुई। दरसल सबकुछ सारी नाकामियां और बदइंतजामी को हवा में उड़ाने के लिए गृह विभाग का सचिव के नेतृत्व में जांच टीम बैठा दी गई जो इसकी जांच कर रही है। जांच में जो कुछ सामने आएगा उसके आधार पर कार्यवाई की बात कही जा रही है। लेकिन इस पूरी जांच का मकसद ही है प्रशासनिक लापरवाही को कम फोकस करते हुए अफवाहों को जिम्मेदार ठहरा देना। जांच के नाम पर कुछ प्रत्यक्षदर्शियों और पीड़ितों से बातचीत की बात सामने आ रही है। वहीं पहले दिन ही अदालत घाट के स्थानीय लोगों ने कहा कि उन्हें कुछ बता भी नहीं कि ऐसा कुछ हो रहा है।

वहींछठ के पहले डीएम-एसपी ने घाटों की वीडियो रिकॉर्डिंग करने का लिखित आदेश जारी किया था। अब सवाल उठता है कि अदालत घाट की वीडियों रिकॉर्डिंग की गई थी या महज यह कागजी आदेश बना दिया गया था। अगर रिकॉर्डिंग हुई तो जांच की दिशा में इसकी बात क्यों नहीं की जा रही है क्योंकि इससे तो पता चल ही जाएगा कि कैसे-कैसे क्या हुआ था। या फिर रिकॉर्डिंग किया ही नहीं गया तो फिर संबंधित अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए।

कोशिश बस यहीं हैं कि प्रशासनिक लापरवाहियों निष्क्रियता को छिपाते हुए उच्च अधिकारियों को बचाते हुए सरकार की किरकिरी होने से बचाया जा सके। अगर अधिकारियों पर कार्रवाई होती भी है तो क्या इन चीजों से नहीं पता चलता कि सरकार ने बिहार के सबसे बड़े पर्व की कोई तैयारी न की थी और ना ही लोगों की सुरक्षा के लिए कोई योजना बनाया था। और अगर कुछ तैयारियां थी भी तो विकास की तरह केवल कागजी।

इधरएक दिन बाद ही कसाब की फांसी ने मीडिया के द्वारा जनता का ध्यान भटकाने में थोड़ी सहायता कर ही दी। अब सरकार ने अपने कार्यकाल की उपलब्यधियां गिनाना शुरु कर दिया है। अखबारों के पन्ने रंगे जा रहे हैं। जनता को सबकुछ भूला कर विकास-विकास चिल्लाने कहा जा रहा है। सरकरा चाहती है जनता सबकुछ भूल जाए। यह यों ही नहीं है कि सरकार ने अब रिपोर्ट कार्ड जारी करना शुरु कर दिया है। पिछले महीनों से सरकार की जो किरकिरी हो रही थी जरुरी था कि तथाकथित सुशासन की बातें दुहराई जाए। अखबरों में सुशासन बाबू के इंटरव्यू लिखते दलाल पत्रकारों को लॉ एंड आर्डर की सबसे बड़ी समस्या खगड़िया की घटना लग रही है जब सुशासन बाबू को जनता के गुस्से का शिकार होना पड़ा था। उन्हें मधुबनी की घटना लगी थी जब प्रशासनिक विरोध में बेशक अफवाह के साथ ही आगजनी हुई थी। इन दलालों और सुशासन बाबू को लॉ एंड ऑर्डर की समस्या ना तो रोज दलितों, महिलाओं, आदिवासियों का मारा जाना लग रहा है ना ही राजधानी में रोज होती हत्याएं। इनको प्रशासनिक लापरवाही से छठ जैसे बड़े हादसे भी समस्या नहीं लग रहे। ना ही फारबिसगंज जैसे दमनात्मक कांड। डैमेज कंट्रोल के तहत ही सुशासन की उपलब्धियों के साथ ही कागजी रिपोर्ट कार्ड अखबारों में जारी किया जा रहा है। नीतीश और सरकार की छवि को जो नुकसान हुआ है, उसे बचाने की कोशिश है यह।

बहरहालसुशासन की सरकार चाहती है कि आप भूल जाएं सब और केवल तथाकथित विकास में डूबे रहें। आप विकास को अखबारों के पन्नों पर छपते देखते रहे। जो इसके विरोध में है वह सही आदमी नहीं है। वह बिहार का विकास नहीं देख पा रहा। अफवाहों से बिहार का भयमुक्त माहौल बिगाड़ने की कोशिश हो रही है। कानून व्यवस्था को अफवाहों से बाधित किया जा रहा है। यहीं सब कहना है सुशासन बाबू का। वाह सुशासन बाबू वाह... क्या खूब कह रहे हैं आप....अफवाहों के जरिए ही महिलाओं पर तेजाब फेंका जा रहा है, बालात्कार की घटनाएं रोज आ रही हैं, राजधानी में हत्याओं का दौर जारी है, अफवाहों से ही छठ जैसे हादसे हो रहे हैं...वाह।

छठकी घटना में सवाल वहीं है कि क्या हजारों की भीड़ को चंद सुरक्षाकर्मियों के भरोसे छोड़ देना लापरवाही नहीं थी। क्या पीएमसीएच में किसी भी डॉक्टर का न होना कर्तव्यहीनता का अपराध नहीं। संकरी गली पर किसी स्तर के अधिकारी की ध्यान न जाना क्या गड़बड़ नहीं। क्या हादसे के बाद भी अधिकारियों का घंटे भर से ज्याद गायब रहना लापरवाही नहीं । बहरहाल सारी कोशिशें छठ की दर्दनाक घटना को महज हादसा करार देते हुए प्रशासन और सरकार को साफ बचाने का है जिसमें सरकार कामयाब भी होती दिखाई पड़  रही है। महज 2-2 लाख रुपए मुआवजा बांट कर खानापूर्ति जारी है।सच तो यह है कि न तो कोई सही योजना बनाई गई थी ना ही कोई व्यवस्था थी, सबको छठी मइया के भरोसे छोड़ दिया गया था और जो योजनाएं थी भी वे केवल काजग पर। ऐस में क्या सबकुछ भूल जाएंगे आप। फिर कहीं इसी तरह का हादसा होगा और होता ही रहता है और महज हादसा समझ कर भूलते रहेंगे आप।

सरोज युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी पटना में एक दैनिक अखबार में काम . 
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.


‘आम’ पार्टी से खास ट्रीटमेंट!

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सत्येंद्र रंजन

"...क्या भारत में ऐसी सियासत के सफल होने की उम्मीद है? एक व्यक्ति में मुक्ति देखने की प्रवृति जब तक समाज में मौजूद है, इस संभावना को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। इसके बावजूद भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों एवं उनके बीच आपसी गठबंधन की जो भूमिका है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि खूब तालियां मिलने के बावजूद ऐसा मुक्तिदाता चुनावी राजनीति में भी सफल हो जाएगा।..."


क ऐसी राजनीतिक पार्टी का बनना कोई बड़ी खबर नहीं होनी चाहिएजिसके निकट भविष्य के किसी चुनाव में बड़ा दावेदार होने की संभावना नहीं हो। इसके बावूजद नवगठित आम आदमी पार्टी ने अपने गठन से पहले बड़ी सुर्खियां बटोरी हैंतो इसका कारण उसके बनने की पृष्ठभूमि है। उस पृष्ठभूमि से बहुत से लोगों ने सिविल सोसायटी यानी नागरिक समाज की ऐसी शक्ति उभरने की उम्मीद जोड़ी थीजो सत्ता पर निरंतर अंकुश का काम करती। भारतीय परिस्थितयों के बीच मध्य एवं उच्च मध्य तबकों में अपनी अंतर्निहित वर्ग-दृष्टि के कारण राजनीति के प्रति हिकारत का गहरा भाव समाया हुआ है। चूंकि ये तबके राजनीति को ही समस्या मानते हैंइसलिए वे हमेशा ही समस्याओं के अ-राजनीतिक हल की तलाश में रहते हैं। अन्ना आंदोलन को इन वर्गों में मिली असाधारण लोकप्रियता के कारण उस आंदोलन का ऊपर से दिखने वाला अ-राजनीतिक चरित्र ही था। वैसे बहुत से लोगों ने अपनी सदिच्छा के कारण भी माना कि सत्ता एवं राजनीतिक दलों पर जनता के निरंतर नियंत्रण की आवश्यकता को अन्ना आंदोलन पूरा करेगा। उस इच्छा के संदर्भ में आज भी अन्ना हजारे की टीम ही उस आंदोलन की विरासत (अगर वह कुछ है तो) की प्रतिनिधि है। जबकि नवगठित पार्टी उस विरासत के खिलाफ जाते हुए बनी है।

इसलिएये विडंबना ही है कि अपनी पृष्ठभूमि की भावनाओं का प्रतिनिधित्व न करने के बावजूद इस पार्टी को उस पृष्ठभूमि का पूरा लाभ मिला है। यह लाभ जनता (जनता का वो हिस्सा जो अन्ना आंदोलन के साथ आगे आया था) के समर्थन के रूप में कितना मिलेगाअभी साफ नहीं है। अगर संकेतों से अनुमान लगाया जाएतो तस्वीर बहुत संभावनापूर्ण नजर नहीं आती। इसलिए कि जो समूह सबसे अधिक उत्साह के साथ अन्ना आंदोलन में निकले थेउनका मूल झुकाव दक्षिणपंथी- एक हद तक सांप्रदायिक भी- है। इसकी संभावना कम है कि वे राजनीति में स्थापित अपने मूल प्रतिनिधि दलों को छोड़कर एक ऐसी पार्टी को अपनाएंगेजिसके सामने मुख्य चुनौती अभी अपनी उपस्थिति दर्ज कराना है। बहरहालमीडिया में स्थान एवं सहानुभूति के रूप इस नई पार्टी को उसकी हैसियत तथा राजनीति में उसकी संभावित भूमिका से अधिक महत्त्व मिला हैतो इसका एक बड़ा कारण यही है कि इस पार्टी के साथ अन्ना आंदोलन की पृष्ठभूमि जुड़ी है। अगर ऐसी सहानुभूति नहीं होतीतो मीडिया शायद ही इस पार्टी को गंभीरता से लेता। आखिरजैसाकि अब एक जुमला चल निकला हैभारत में ऐसी साढ़े ग्यारह सौ पार्टियां हैं! उनके नेताओं को अखबारों के पन्नों या टीवी न्यूज चैनलों के स्टूडियो में कहां और कितनी जगह नसीब होती है!

खबरबनने की अपनी प्रक्रिया होती है। परिमाण निसंदेह खबर बनने की एक प्रमुख कसौटी हैलेकिन अक्सर संदर्भ भी किसी व्यक्तिगुट या संगठन को न्यूज वैल्यू प्रदान करता है। आम आदमी पार्टी परिमाण की कसौटी पर तो कहीं से खबर नहीं है। लेकिन उसका संदर्भ ऐसा हैजिससे उसे सु्र्खियां मिली हैं- और लोग उसकी भूमिका एवं संभावनाओं के विश्लेषण के लिए प्रेरित हुए हैंजैसाकि इस स्तंभ में किया जा रहा है। अतः विचार का असली मुद्दा यही संदर्भ है। दरअसलअन्ना आंदोलन भी वैचारिक या जन-भागीदारी की कसौटियों पर कोई ऐसा घटनाक्रम नहीं थाजिसे युगांतकारी या नए विचारों का जनक समझा जाए। उसे मीडिया में इतना महत्त्व मिलातो इसीलिए कि उसका एक संदर्भ था। ये संदर्भ भ्रष्टाचार और एक के बाद एक खुलते बड़े घोटालों से बना। आंदोलन के नेता अगर प्रतिबद्धदूरदर्शी और ऊंचे आदर्शों से प्रेरित होतेतो वे आंदोलन को टिकाऊ एवं व्यापक बना सकते थे। लेकिन उनमें फ़ौरी लोकप्रियता की आकांक्षा इतनी प्रबल थी कि उन्होंने बनने से पहले ही उस संभावना के बिखराव की स्थिति तैयार कर दी।

उसी फ़ौरी लोकप्रियता ने उनके एक हिस्से में वो राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएं जगाईंजिसका परिणाम ये नई पार्टी है। पार्टी के नेता अपने वैचारिक दस्तावेज का हवाला देकर खुद को मुख्यधारा की पार्टियों की तुलना में अधिक समझदारस्वप्नदर्शीऔर सामाजिक नव-निर्माण की भावना से परिपूर्ण होने का दावा कर सकते हैं। लेकिन इस दावे को लोग स्वीकार कर लेंगेऐसा तो शायद वे भी नहीं मानते होंगे। आखिर किस पार्टी के दस्तावेज शब्द-आडंबर में उनकी तुलना में कमजोर ठहरेंगेइसलिए भविष्य में मतदाताओं ने अगर कभी उनकी पार्टी को इतनी गंभीरता से लिया कि वे उसके मूल्यांकन की जहमत उठाएंतो ऐसा वे कार्यशैली और व्यावहारिक कार्यक्रम की कसौटियों पर ही करेंगे। बहरहाल, अगर पार्टी बनने से पहले की उसके नेतृत्व की कार्यशैली को संकेत माना जाएतो कम से कम यह मानने का कोई आधार तो नहीं बनता कि नई पार्टी किसी प्रगतिशील मूल्य या अपेक्षाकृत अधिक लोकतांत्रिक व्यवहार को राजनीति में स्थापित करने जा रही है। इसके उलट उसके प्रमुख नेताओं की शैली में बाल ठाकरे या सुब्रह्मण्यम स्वामी के अंदाज ज्यादा नजर आए हैं। हालांकि यह तुलना कुछ मानदंडों पर तार्किक ना हो, फिर भी अगर मिसाल ढूंढनी हो, तो ये शैली फ्रांस की धुर दक्षिणपंथी पार्टी के नेता ज्यां मेरी ला पां और उनकी उत्तराधिकारी बेटी मेरी ला पां, ग्रीस की उग्र दक्षिणपंथी पार्टी गोल्डेन डॉन के नेता निकोलस मिचेलनियेको, रूस के व्लादीमीर झिरिनोवस्की आदि के अधिक करीब बैठती है। उन सब में समानता यह है कि उनके विचार घोर रूढि़वादी, अंध राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी है। लेकिन उन्होंने राजनीति में अपनी हैसियत सरकारों के प्रति जन-असंतोष को आक्रामक अंदाज से भड़काते और बिना कोई विकल्प पेश किए लोगों के आक्रोश को उभारते हुए बनाई। इस क्रम में उन्होंने जो जुमले बोले, उसे अगर संदर्भ से अलग कर सुना जाए, तो उनके वामपंथी होने का भ्रम बड़ी आसानी से पैदा हो सकता है। यानी उग्र-परिवर्तनकारी लिफाफे में वे कंजरवेटिव और जन-विरोधी सियासत का मजमून लिए हुए हैं, जिन्हें बहुत से लोग अपनी अ-राजनीतिक दृष्टि के कारण पहचान नहीं पाते हैं।

क्याभारत में ऐसी सियासत के सफल होने की उम्मीद है? एक व्यक्ति में मुक्ति देखने की प्रवृति जब तक समाज में मौजूद है, इस संभावना को सिरे से नहीं नकारा जा सकता। इसके बावजूद भारतीय लोकतंत्र में विभिन्न सामाजिक वर्गों एवं उनके बीच आपसी गठबंधन की जो भूमिका है, उसे देखते हुए यह कहना कठिन है कि खूब तालियां मिलने के बावजूद ऐसा मुक्तिदाता चुनावी राजनीति में भी सफल हो जाएगा। बड़े नामों और लोगों पर जुबानी हमला करके प्रचार पा लेना सीमित अर्थों में सफल रणनीति हो सकती है। इससे राजनीति के कुछ ब्रांडों को धूमिल किया जा सकता है। लेकिन उससे उत्पन्न होने वाले खालीपन को भरने योग्य खुद को साबित करना कहीं बड़ी चुनौती है। देश की प्रमुख पार्टियों में भ्रष्ट नेता हैं, यह संदेश सुविधाभोगी वर्ग के राजनीति विरोधी सोच को संतुष्ट करता है। लेकिन भारत का आम आदमी इस तरह के सामान्यीकरण से कम से कम अपने चुनावी निर्णय में प्रभावित नहीं होता। वैसे भी आम आदमी एक अपरिभाषित और अस्पष्ट शब्द है। जबकि चुनाव में निर्णय वो लोग करते हैं, जिनका व्यक्ति, समूह और वर्ग के रूप में वास्तविक अस्तित्व है। नवगठित पार्टी की मुश्किल यही है कि इन वास्तविक समूहों में उसकी जड़ें अभी रोपी तक नहीं गई हैं। उसके चीयरलीडर कुछ उन वर्गों में हैं, जो मीडिया में तो किसी को बनाए रख सकते हैं, लेकिन उन्हें देश का भाग्यविधाता नहीं बना सकते। अगर वे ऐसा करने में सक्षम होते, तो आज इस देश में लोकतंत्र ही नहीं होता।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.


चीन की आर्थिक नीतियों के अंतर्विरोध और जिनपिंग की मुश्किलें

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कृष्ण सिंह


"...दरअसल, चीन में इस समय आर्थिक नीतियों के कारण सामाजिक स्थितियां ज्यादा जटिल हो रही हैं। जिसके चलते जियांग जेमिन और हू जिंताओ के बजाय जिंगपिंग के लिए अगले दस साल ज्यादा मुश्किलों से भरे होंगे। अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ रही है और आम चीनियों में निराशा लगातार बढ़ रही है। आर्थिक तरक्की के चमत्कार के बावजूद चीन में इस समय असमानता सबसे अधिक है। ..."



चीन में शि जिनपिंग ऐसे समय में सत्ता संभालने जा रहे हैं जब वहां आर्थिक मोर्चे पर संकट दिखाई दे रहा है और सामाजिक स्तर पर बेचैनी तथा तनाव है। चीनी नेतृत्व की कतारों में ऐसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है जो क्रोनी कैपिटलिजम के सहारे अपनी तरह के मार्क्सवाद का दास कैपिटल रच रहे हैं। नेतृत्व के शीर्ष और मध्य स्तर पर भ्रष्टाचार की रफ्तार काफी तीव्र है। असल में बीते तीन दशकों में जिस आर्थिक मॉडल के सहारे चीन ने अभूतपूर्व तरक्की की है उसके अंतर्विरोध भी अब तीखे रूप में सामने आ रहे हैं। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की 18वीं कांग्रेस में निवर्तमान राष्ट्रपति हू जिंताओ के भाषण में इसका स्पष्ट संकेत मिलता है। आर्थिक सुधारों को और गहरा करने के साथ ही राजनीतिक सुधारों की बात करते हुए जिंताओ ने भ्रष्टाचार के खिलाफ संघर्ष को प्रमुख एजेंडे और गंभीर चुनौती के रूप में सामने रखा। हू ने कहा, ``भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई और राजनीतिक ईमानदारी को प्रोत्साहन, जो कि जनता की व्यापक चिंता का प्रमुख राजनीतिक मसला है, पार्टी की स्पष्ट और दीर्घकालीन राजनीतिक प्रतिबद्धता है।... यदि हम इस मसले को ठीक तरीके से सुलझाने में असफल होते हैं तो यह पार्टी के लिए घातक सिद्ध होगा और यहां तक कि यह पार्टी के ढहने और राज्य के पतन का कारण बनेगा।``हालांकि जिंताओ ने यह भी स्पष्ट किया कि हम पश्चिम की राजनीतिक व्यवस्था की नकल नहीं करेंगे।

दरअसल,चीन में इस समय आर्थिकनीतियों के कारण सामाजिक स्थितियां ज्यादा जटिल हो रही हैं। जिसके चलते जियांग जेमिन और हू जिंताओ के बजाय जिंगपिंग के लिए अगले दस साल ज्यादा मुश्किलों से भरे होंगे। अर्थव्यवस्था की रफ्तार धीमी पड़ रही है और आम चीनियों में निराशा लगातार बढ़ रही है। आर्थिक तरक्की के चमत्कार के बावजूद चीन में इस समय असमानता सबसे अधिक है। उच्च आय वर्ग और निम्न आय वर्ग समूहों तथा शहरों और ग्रामीण इलाकों के बीच असमानता की खाई लगातार चौड़ी हो रही है। कम मजदूरी भी निराशा बढ़ने का एक प्रमुख कारण है। आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि सामान्य चीनी परिवारों के पास खर्च करने के लिए उतना पैसा नहीं है। चाइना डेली के ऑनलाइन संस्करण के एक लेख के अनुसार, ``शहरी परिवारों की आय औसतन ग्रामीण परिवारों की आय से साढ़े तीन गुना ज्यादा है। असमानता भविष्य में विकास में बाधा उत्पन्न करेगी क्योंकि यह उपभोग को कम करेगी, अति गरीब इलाकों में विकास को रोकेगी और सामाजिक तनाव को बढ़ाएगी।``आर्थिक नीतियों को लेकर तनाव के संकेत मुखर तरीके से दिख भी रहे हैं। कुछ माह पहले ही सिचुआन प्रांत के शीफंग में हजारों लोगों ने तांबे की फैक्टरी के खिलाफ प्रदर्शन किया था। इसके अलावा शंघाई से काफी करीब क्वीदोंग में सीवेज पाइपलाइन के खिलाफ भी जबरदस्त प्रदर्शन हुआ था। 

देंगश्याओ पिंग ने नब्बे के दशक के शुरुआत में आर्थिक सुधारों का दूसरा चरण शुरू किया था। जिसे जियांग जेमिन और बाद में हू जिंताओ ने असरदार तरीके से आगे बढ़ाया। चीन में कम्युनिस्ट शासन ने वाम राजनीतिक व्यवस्था के साथ-साथ 1980 के बाद से अर्थव्यवस्था का पूंजीवादी मॉडल अपनाया और  इन दोनों के बीच संतुलन बनाते हुए स्थिर राजनीतिक व्यवस्था कायम की। कम्युनिस्ट शासन ने नई पीढ़ी के लिए संपन्नता और उम्मीदों की एक नई इबारत लिखी। जिसे अब आगे बढ़ाने की कठिन चुनौती जिनपिंग के कंधों पर होगी। चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की 18वीं कांग्रेस में पार्टी के महासचिव का पद संभालने के बाद जिनपिंग अगले साल मार्च में औपचारिक तौर पर राष्ट्रपति का पद संभालेंगे।

जिनपिंगके सामने शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों की आर्थिक नीतियों को संतुलित करने की चुनौती ज्यादा मुश्किल भरी है। खासकर निजी पूंजी का जबरदस्त उभार और ग्रामीण इलाकों में भूमि के सामूहिक स्वामित्व की नीतियों के बीच किस तरह का आर्थिक संतुलन बनेगा, यह एक बड़ा सवाल है। क्या भविष्य में ग्रामीण भूमि का निजीकरण करते हुए इसे किसानों को सौंपने के बारे में विचार होगा। पश्चिमी आर्थिक विश्लेषकों का कहना है कि चीन को विकास के संतुलन के लिए शासन की स्थानीय इकाइयों को ज्यादा पारदर्शी बनाना होगा और उन्हें ज्यादा अधिकार देने होंगे। तो क्या हू जिंताओ जिस राजनीतिक सुधार की बात कर रहे हैं वह इस ओर बढ़ेगा?

सवालहूकू सिस्टम (परिवार संबंधी पंजीकरण व्यवस्था) को लेकर भी है। क्या चीनी कम्युनिस्ट शासन इस व्यवस्था को ज्यादा लचीला बनाएगा। ताकि ग्रामीण प्रवासी परिवारों को शहरों में बेहतर तरीके से व्यवस्थित स्वास्थ्य सुरक्षा और शिक्षा की सुविधाएं मिल सकें। परिवार पंजीकरण व्यवस्था शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच लोगों की आवाजाही को नियंत्रित करती है। इस व्यवस्था के तहत मौटे तौर पर व्यक्ति को ग्रामीण और शहरी कामगार के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। जिनका पंजीकरण जिस क्षेत्र से होता है उन्हें शहरों में भी उस क्षेत्र के हिसाब से तय सुविधाएं ही मिलती हैं। जिससे ग्रामीण प्रवासियों को उनके शहरों में निवास के दौरान शहरी कामगारों को मिलने वाली सुविधाएं नहीं मिल पाती हैं। उधर, मध्यवर्ग का विस्तार जिसे चीन की आर्थिक नीतियों का एक सुखद परिणाम माना गया अब चीनी नेतृत्व के सामने नई तरह की चुनौतियां भी पेश कर रहा है। खासकर इस वर्ग की बढ़ती महत्वकांक्षाएं। बीस सालों की जबरदस्त आर्थिक प्रगति के दौरान चीनी मध्यवर्ग बहुत तेजी से संपन्न हुआ है। अब यह समृद्ध अर्थव्यवस्था में अपनी ज्यादा से ज्यादा हिस्सेदारी चाहता है। वैश्वीकरण के इस दौर में इस वर्ग का पश्चिमी समाज से संपर्क बढ़ा है। यह वर्ग पश्चिम के प्रभाव में न आए और चीनी समाज की वाम एकता बनी रहे यह सुनिश्चित करना भी चीन के नए शासकों के लिए के एक बड़ा कार्यभार होगा।  

जिनपिंगके आने के बाद चीन में आर्थिक नीतियां किस तरह से आगे बढ़ेंगी, यह देखना दिलचस्प होगा। चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है। उनके सामने सामाजिक सुरक्षा नीतियों को और मजबूत करते हुए टिकाऊ आर्थिक विकास दर को बनाए रखना एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि चीन की अर्थव्यवस्था में निजी क्षेत्र की भूमिका लगातार बढ़ रही है। वर्ष 2011 के आंकड़े बताते हैं कि चीन के औद्योगिक लाभ के 75 फीसदी से अधिक के हिस्से में निजी उद्यमों की भागीदारी रही है। हालांकि वर्तमान वैश्विक वित्तीय संकट के मद्देनजर चीन में मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में चिंताजनक स्थिति बन रही है, विशेषकर निर्यात केंद्रित निजी उद्योग अपना उत्पादन कम करने या उत्पादन को फिलहाल स्थगित करने के लिए विवश हो रहे हैं।

जहांतक चीन में सामाजिक योजनाओं से संबंधित व्यय का सवाल है तो इनमें इजाफा जरूर हुआ है, लेकिन एक ताकतवर और तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के नाते इसे कम माना जा रहा है। अभी सरकारी राजस्व का तीस प्रतिशत धन सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा और स्वास्थ्य सुरक्षा पर खर्च किया जाता है। हू जिंताओ को इसका श्रेय दिया जाना चाहिए कि उन्होंने बीते एक दशक में सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था को मजबूत ही नहीं किया बल्कि उसका दायरा भी काफी व्यापक किया है।

असलमें वर्तमान परिदृश्य को देखें तो बढ़ती असमानता, भ्रष्टाचार, क्रॉनी कैपिटलिजम के कारण जो सामाजिक तनाव बढ़ रहा है उससे स्थितियां ज्यादा जटिल होती नजर आ रही हैं। खासकर शासक वर्ग के भीतर तक फैले भ्रष्टाचार के कारण। इसका ताजा उदाहरण चीन के प्रधानमंत्री वेन जियाबाओ का है। उन पर आरोप है कि उनके कार्यकाल (पहले उप प्रधानमंत्री और बाद में प्रधानमंत्री) के दौरान उनके परिवार के सदस्यों की संपत्ति में अकूत इजाफा हुआ है। नब्बे साल की उनकी मां, जो कि एक स्कूल मास्टर थी, के नाम पर एक बड़ी चाइनिज फाइनांशियल सर्विसेज कंपनी में पांच साल पहले 12 करोड़ डॉलर की निवेश राशि थी। इसके अलावा जियाबाओ का बेटा, बेटी, छोटा भाई और साला अप्रत्याशित रूप से धनी हुए हैं। आरोप यह भी है उनकी पत्नी और परिवार के कुछ सदस्यों के पास करीब 2.7 अरब डॉलर की संपत्ति है।

लेकिननेतृत्व परिवर्तन के इस वर्ष में चीन में जो सबसे बड़ी राजनीतिक घटना घटी है वह है ताकतवर नेता के रूप में पहचान रखने वाले बो शिलाई का चीनी कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासन। बो शिलाई प्रकरण दरअसल वर्तमान में चीन के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मोर्चों के अंतर्विरोधों की ओर इशारा करता है। वह पार्टी के कोई साधारण सदस्य नहीं थे। वह चीनी कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो के सदस्य और चोंगकिंग क्षेत्र के पार्टी प्रमुख थे। उन्हें भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों के चलते पार्टी ने बाहर का रास्ता दिखाया है। उनकी पत्नी काई लाई को एक ब्रितानी उद्योगपति की हत्या के आरोप में मौत की सजा सुनाई गई है, जिसे फिलहाल स्थगित रखा गया है। हालांकि इस बीच मीडिया रिपोर्टों में यह भी कहा गया है कि यह ब्रितानी व्यवसायी वास्तव में ब्रिटेन का जासूस था।

असलमें, चोंगकिंग का मसला उपर से जितना सामान्य दिखाई देता है उतना है नहीं। इसका एक पहलू यह भी बताया जा रहा है कि यह सिर्फ भ्रष्टाचार तक सीमित मामला नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोपों के इतर बो शिलाई के बारे में यह भी कहा जा रहा है कि उनकी जमीनी स्तर तक राजनीतिक पकड़ बहुत मजबूत थी। साथ ही चीन के राजनीतिक और सैन्य विशिष्ट वर्ग में उनका ठीक-ठीक प्रभाव था। वह महत्वाकांक्षी और करिश्माई नेता थे। वह चीन की क्रांतिकारी परम्पराओं के जरिए आम जनता का समर्थन हासिल कर बीजिंग की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचाना चाहते थे। `कम्युनिकेशन इन चाइना : पॉलिटिकल इकॉनोमी, पावर एंड कन्फ्लिकट` पुस्तक की लेखिका और प्रोफेसर युएझी झाओ ने बो प्रकरण की तुलना 1971 में माओ त्से तुंग के नामित उत्तराधिकारी लिन बिआउ के पतन के समय के राजनीतिक भूचाल से की है। उन्होंने इसे विकास के चोंगकिंग मॉडल और गुआंगदोंग मॉडल के अंतर्विरोध के बतौर रेखांकित किया है। गुआंगदोंग अधिक मुक्त बाजार, बढ़ती असमानता और निर्यात अनुकूलन वाली नीतियों का प्रतीक है। वहीं चोंगकिंग को समाजवादी विचारों में नए प्राण भरने वाला और तीव्र तथा संतुलित विकास को बढ़ाने वाले लोकप्रिय दावों की विशेषता वाला बताया जाता रहा है। चोंगकिंग मॉडल के बारे में यह भी कहा जाता है कि इसने पब्लिक सेक्टर का विस्तार करने और सामाजिक कल्याणकारी नीतियों पर खासा जोर देने की आधारशिला रखी। जैसा कि चोंगकिंग मॉडल के बारे में युएझी झाओ कहती हैं कि इस साल आठ अगस्त के `फॉरन पॉलिसी` के एक लेख में इसे एक साहसपूर्ण प्रयोग बताया था जो कि राज्य की नीतियों और संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए आम आदमी के हितों को बढ़ा रहा है। साथ ही पार्टी और राज्य की भूमिका को भी बनाए हुए है। प्रोफेसर झाओ ने मंथली रिव्यू में अपने लेख में कहा कि चोंगकिंग में खस्ताहाल 1160 सरकारी उद्यमों को पुनर्गठित कर उन्हें लाभ वाले उद्योगों में बदला गया। ये सरकारी उद्यम माओ के समय से थे। इसका परिणाम यह हुआ कि चोंगकिंग की सरकारी स्वामित्व वाली परिसंपत्तियों में चमत्कारिक इजाफा हुआ। चोंगकिंग ने शहरी और ग्रामीण के बीच की खाई को पाटने के लिए आक्रामक कदम उठाए।

तोक्या बो शिलाई माओ त्से तुंग की क्रांतिकारी परंपरा को पुन: स्थापित करना चाहते थे ?  क्या इसके लिए चोंगकिंग को उन्होंने प्रयोगशाला बनाया था?क्या वह देंग श्याओं पिंग के आर्थिक विचारधारा पर उस तरह से  विश्वास नहीं करते थे जिस तरह से चीन का शीर्ष नेतृत्व करता है? तो क्या चीन नेतृत्व की उपरी कतारों में आर्थिक नीतियों को लेकर कोई तीखी बहस छिड़ी हुई थी या है ?वास्तविकता क्या है यह शायद ही पता चले, लेकिन इतना जरूर है कि चीनी नेतृत्व के लिए आर्थिक नीतियों से पैदा हो रहे जटिल अंतर्विरोधों और विषमताओं से निपटना अब पहले की तरह आसान नहीं है। जिनपिंग को वर्तमान चीनी अर्थशास्त्र का व्याकरण कुछ ज्यादा ही परेशान करने वाला होगा। वैश्विक वित्तीय संकट अलग से परेशानी का कारण है। बीस सालों के तीव्र विकास के बाद चीन का नया नेतृत्व चीन के आर्थिक विकास के मॉडल को क्या स्वरूप देता है, आने वाले समय में पूरी दुनिया की नजरें इस पर होंगी।




कृष्ण सिंह पत्रकार हैं. लंबे समय तक अखबारों में काम. 
अभी पत्रकारिता के अध्यापन में.
इनसे संपर्क का पता krishansingh1507@gmail.com है.

हाशिए पर फिलिस्तीनी आजादी का मुद्दा

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 अभिनव श्रीवास्तव

 "...दरअसल इजरायल-फिलिस्तीन विवाद के संदर्भ में तात्कालिक रूप से हमास की भूमिका को उसके कट्टरपंथी इतिहास के बावजूद ठीक वैसे नहीं देखा जा सकता जैसे अलकायदा या किसी और मुस्लिम चरमपंथी संगठन को। इस तथ्य की अनदेखी करना मुश्किल है कि फिलिस्तीन में इजरायल की बर्बर कार्रवाई और उसका प्रतिरोध तब भी मौजूद था जब हमास जैसे संगठन अस्तित्व में ही नहीं थे।..."

गाजा पट्टी एक बार फिर इजरायल और फिलिस्तीन के संघर्ष के चलते लुहलुहान हुई और हमेशा की तरह इजरायल ने दोनों पक्षों के बीच मिस्र और अमेरिका द्वारा कराये गये युद्ध विराम से पहले गाजा के नागरिक समाज और संपत्ति को अपनी बर्बरता और अमानवीयता के चलते भारी नुकसान पहुंचाया। चूंकि इजरायल को बसाये जाने और फिलिस्तीनियों को उसकी जमीन से खदेड़े जाने का मुद्दा आधुनिक इतिहास के सबसे विवादास्पद मुद्दों में से एक है और  दोनों पक्षों के बीच छिड़ने वाला संघर्ष मध्य-पूर्व के साथ-साथ वैश्विक राजनीति को भी दीर्घकाल तक प्रभावित करता हैइसलिए दोनों पक्षों के बीच ताजा संघर्ष की वजहों और उसके परिणामों को व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी हो जाता है। निश्चित तौर पर दोनों पक्षों के बीच संघर्ष छिड़ने की कुछ तात्कालिक वजहें रही हैंलेकिन सिर्फ उन वजहों को आधार बनाकर हमास या इजरायल में से किसी एक को दोषी मान लेने का नजरिया उन दूरगामी वजहों और मंशा को भांपने से रोक देता है जिसमें इस तरह की कार्रवाइयों की असल वजहें छिपी होती हैं। 

अमेरिकी, यूरोपीय और दुनिया भर की मीडिया का एक बड़ा हिस्सा इन तात्कालिक वजहों से जुड़े कई तथ्यों को छिपाकर अमेरिका के रणनीतिक साझीदार इजरायल की कार्रवाई को वैध और जायज ठहराता है। वर्तमान घटनाक्रम के सम्बन्ध में भी यह कहा गया कि हमास की ओर से अपने सैन्य प्रमुख अहमद अल जब्बारी की मौत के बाद इजरायल पर राकेट दागे गये और उसके बाद प्रतिक्रियास्वरूप इजरायल ने गाजा पट्टी और पश्चिमी किनारे पर हमला किया।ये तथ्य सामने नहीं लाये गए कि इजरायली रक्षा बलों (आईडीऍफ ) द्वारा बीते चार नवम्बर को एक विक्षिप्त फिलिस्तीनी नागरिक की हत्या की गयी थी और ठीक तीन बाद रक्षा बलों ने एक तेरह वर्षीय बच्चे को भी मार गिराया था। हालांकि अगर फिलिस्तीन और इजरायल के बीच इस संघर्ष को मध्य-पूर्व की राजनीति में आ रहे बदलावोंसीरिया में राष्ट्रपति बशर-अल असद और विद्रोहियों के बीच जारी संघर्ष की रोशनी में देखें तो तस्वीर बहुत हद तक साफ़ हो जाती है। 

सीरिया में राष्ट्रपति बशर-उल-असद के खिलाफ सक्रिय विद्रोहियों को अमेरिकापश्चिमी यूरोपीय देशों और खाड़ी देशों का खुला समर्थन हासिल है और सीरिया इन देशों के अंतर्विरोधों की जमीन बना हुआ है। सीरिया में बड़े स्तर पर ठहरे हुए फिलिस्तीनी शरणार्थियों को अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों द्वारा समर्थित इन विद्रोहियों ने बीते कुछ महीनों में लगातार निशाना बनाया है। अमेरिकाखाड़ी देशों और यूरोपीय देशों के सीरिया में सत्ता परिवर्तन के इन सामूहिक प्रयासों की आहट से फिलिस्तीनी समर्थकों की स्थिति बहुत कमजोर हुई। इस कमजोर स्थिति और अमेरिका समर्थित विद्रोहियों द्वारा फिलिस्तीनी समर्थकों के खिलाफ की गयी कार्रवाई को  इजरायली नेतृत्व ने गाजा पट्टी पर आक्रमण करने और पश्चिमी किनारे पर अपना विस्तार करने के लिए सबसे मुफीद मौके और अमेरिका द्वारा हासिल मौन सहमति के रूप में देखा। सीरिया के ओर इजरायल के गोलन हाइक पर हुए हमले ने जैसे इजरायल को हरी झंडी दे डाली और उसने पूरी तैयारी के साथ गाजा पट्टी पर हमला कर दिया। यह महज संयोग नहीं था कि इजरायल के कैबिनेट ने गाजा पट्टी पर तैनात रिजर्व सैनिकों की संख्या तीस हजार से बढाकर 75 हजार कर दी थी।  

वर्तमान संकट की एक अहम वजह इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू का चुनावी एजेंडा भी था। इजरायल का नेतृत्व अक्सर जियनवादी लहर और जनता के बीच अस्तित्व की असुरक्षा को बढ़ाकर सत्ता में बने रहने के लिए युद्धोन्मादआत्मरक्षा और अस्तित्व के अधिकार की लहर पैदा करता है।  इजरायल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतानयाहू ने भी इस आजमाए नुस्खे का इस्तेमाल किया है। यह महज संयोग नहीं है कि साल 1996 में लेबनान और 2008-09 में गाजा पर आक्रमण करने का निर्णय इजरायली नेतृत्व द्वारा आम चुनावों से ठीक पहले लिया गया था। इजरायली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू ने एक हद तक गाजा और हमास के प्रति अपना अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों पर बढ़त हासिल कर ली है। नेतनयाहू ने फिलिस्तीन के अस्तित्व को जड़ से उखाड़ फेंकने की अपनी प्रतिबद्धता दिखाकर  मध्य वर्ग के मतदाताओं को अपने पक्ष में कर लिया है। नेतनयाहू के लिए यह ध्रुवीकरण करना इसलिए भी जरूरी था क्योंकि कालांतर में इजरायल का शासक वर्ग और वहां की जनता के बीच एक ऐसा वर्ग भी उभरा है जो लम्बे वक्त से फिलिस्तीन के मुद्दे पर अनिश्चितता और असुरक्षा की भावना में जी रहा है और फिलिस्तीन के साथ संघर्ष से थक चुका है। 

साल 2005 में इजरायल द्वारा गाजा पट्टी से अपनी सेना पीछे खींचने की एक वजह यह आंतरिक दबाव भी रहा था।  दरअसल नेतानयाहू ईरान के बहाने राष्ट्रीय सुरक्षा के संकट की जो स्थिति पैदा करने चाहते थेवह मिट रोमने के अमेरिका का राष्ट्रपति चुनाव हारने के साथ ही खटाई में पड़ गयी थी। इसलिए राष्ट्रीय सुरक्षा के संकट को नए सिरे से पैदा करना जरूरी था। अपनी इस योजना के तहत ही उन्होंने युद्ध विराम समझौते के तुरंत बाद पिलर आफ डिफेन्स को अपनी सरकार की उपलब्धि भी बताया है। अगर इन स्थितियों और वजहों को ध्यान में रखें तो यह कहा जा सकता है कि हालिया संघर्ष और तनाव की प्राथमिक जिम्मेदारी इजरायल की ही है और इसका सम्बन्ध गाजा पट्टी और पश्चिमी किनारे पर उसके द्वारा किये गए हमले की मंशा से अधिक है। उसके हमलों का निशाना हमास और उसके सैन्य ठिकाने कम और फिलिस्तीन की जनता और वहां की जमीन अधिक रही है। गाजा पट्टी में हमास की नेतृत्वकारी भूमिका अक्सर सवालों के घेरे में रही है और कुछ विश्लेषक इजरायल की फिलिस्तीन पर कार्रवाई को हमास, ईरान और हिजबुल्लाह के त्रिकोणीय संबंधों और हमास की कट्टरपंथी पृष्ठभूमि के चलते इजरायल के लिए पैदा हुए खतरे का परिणाम मानते हैं। यह तर्क दिया जाता है कि जिस तरह फिलिस्तीन के लिए इजरायल खतरा है उसी तरह हमास, ईरान और हिजबुल्लाह का त्रिकोण इजरायल के लिए खतरा है। 

दरअसल इजरायल-फिलिस्तीन विवाद के संदर्भ में तात्कालिक रूप से हमास की भूमिका को उसके कट्टरपंथी इतिहास के बावजूद ठीक वैसे नहीं देखा जा सकता जैसे अलकायदा या किसी और मुस्लिम चरमपंथी संगठन को। इस तथ्य की अनदेखी करना मुश्किल है कि फिलिस्तीन में इजरायल की बर्बर कार्रवाई और उसका प्रतिरोध तब भी मौजूद था जब हमास जैसे संगठन अस्तित्व में ही नहीं थे। हमास और उसके ईरान और हिजबुल्लाह के त्रिकोणीय संबंधों और उसकी पक्षधरता बहस का विषय हो सकती हैलेकिन इजरायल मूल रूप से फिलिस्तीन की आजादी का दुश्मन है और 1967 में अरब-इजरायल युद्ध के बाद से लेकर आज तक उसने फिलिस्तीन के अस्तित्व को नकारने की कोशिश की है।  फिलिस्तीन की जनता इजरायल के बर्बर हमलों का निशाना हमास और उसकी गतिविधियों की वजह से नहीं, बल्कि इस वजह से बनती है क्योंकि गाजा पट्टी और पश्चिमी किनारे पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार क्षेत्र में लेना लंबे समय से इजरायल के  व्यापक साम्राज्यवादी एजेंडे का हिस्सा रहा है और इसके लिए उसे खुले तौर अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय राष्ट्रों का समर्थन हासिल रहा है। इसलिए इस पूरे मामले को सीधे तौर पर इजरायल बनाम हमास के संघर्ष के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। मुख्य मुद्दा फिलिस्तीन की आजादी है और अगर हमास के स्थान पर कोई और संगठन भी नेतृत्वकारी भूमिका में होता तो भी इजरायल फिलिस्तीन के प्रति ऐसा ही बर्बर रुख अपनाता।

निश्चित तौर पर इजरायल ने जिस अंदाज में गाजा पट्टी में नागरिक आबादी को अपना निशाना बनाया उसे इजरायल की आत्मरक्षा के अधिकार की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। अमेरिका का नेतृत्व इसी तरह के तर्क देकर इजरायल के हमले को वैधता देने की कोशिश करता है। पिछले कुछ दिनों के भीतर मिस्र, ट्यूनीशिया और अरब लीग ने हमास के पक्ष में सार्वजनिक मंचों पर समर्थन व्यक्त किया है। इसे अरब वसंत के बाद के दौर में हमास के लिए क्षेत्रीय समर्थन बढ़ने के रूप में देखा जा रहा है। खासकर से सीरिया के मुद्दे पर पश्चिमी देशों के रुख का समर्थन करने वाली अरब लीग का हमास को समर्थन एक विसंगति लगता है। गौर करने वाली बात है कि अरब वसंत के दौर में अरब देशों के जनता के बीच राष्ट्रप्रेम की भावना का लगतार क्षय हुआ है। इसलिए अरब लीग और अरब वसंत के चलते सत्ता परिवर्तन देख चुके देश अब मध्य-पूर्व में सत्ता धुरी नहीं रह गए हैं। इस पूरे विकास क्रम का परिणाम है कि मध्य-पूर्व में सत्ता की धुरी अब खिसककर खाड़ी देशों के पास चली गयी है और इस क्षेत्र में अब खाड़ी देश नेतृत्वकारी भूमिका में आ गये हैं। इसलिए अरब वसंत के बाद के दौर में सत्ता में आयी मुस्लिम ब्रदरहुड के नेतृत्व वाली सरकारें हमास का साथ देने का वायदा कर रही होंलेकिन उनमें इजरायल के हमले का क्रांतिकारी प्रतिरोध करने की ताकत नहीं बची है। 

यह सच है कि इजरायल और हमास के बीच चल रहें संघर्ष में हमास के साथ यह एकता दिखाये बिना युद्ध विराम संभव नहीं था, लेकिन इस एकता प्रदर्शन के पीछे मिस्र, ट्यूनीशिया बहुत से अरब राष्ट्रों के रणनीतिक मजबूरियां अधिक और फिलीस्तीनी नागरिकों के शोषण और उनकी आजादी की चिंता कम थी । उदाहरण के तौर पर मिस्र हमास का समर्थन करने के बावजूद अमेरिका से हर साल 1.3 अरब की सैन्य सहायता हासिल करता है। युद्ध विराम समझौते के संदर्भ में यह बात सामने आ रही है कि अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने ही इजरायली नेतृत्व पर मिस्र द्वारा तैयार किये गये समझौते पर सकारात्मक जवाब देने का दबाव बनाया। ओबामा के इस कदम का अर्थ हडबडाहट में यह नहीं लगाया जाना चाहिए की वह विचारधारात्मक तौर पर फिलिस्तीन को मान्यता देना स्वीकार कर चुके हैं या फिलिस्तीन-इजरायल समस्या पर उनका नजरिया बदल गया है। ओबामा प्रशासन द्वारा इजरायली नेतृत्व पर मिस्र द्वारा सुझाए गए युद्ध विराम के समझौते को मान लेने के लिए दबाव बनाने का कदम रणनीतिक मजबूरी और रणनीतिक अंतर्विरोधों की वजह से अधिक लिया गया है।। खाड़ी देशों में अमेरिका के सैन्य अड्डे  हैं और अरब लीग से भी उसके हित बहुत करीब से नत्थी हैं। अरब देश यह भी जानते हैं कि अमेरिका वर्तमान में उनके लिए तेल का मुख्य ग्राहक नहीं है क्योंकि अब अंतर्राष्ट्रीय तेल बाजार धीरे-धीरे एशिया क्षेत्र में विस्थापित हो रहा है। 

अभिनव पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से. 
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम. अभी स्वतंत्र लेखन. 
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है.

आज ये जरूरी है कि पत्रकार एक स्टैंड ले : राहुल पंडिता

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(समकालीन भारतीय पत्रकारिता में 'राहुल पंडिता' प्रतिबद्धता की पत्रकारिता से जुड़ा एक महत्वपूर्ण नाम है. ढेर सारे मीडिया संस्थानों में काम करने के बाद इन दिनों वे अंग्रेजी की साप्ताहिक पत्रिका ओपन में एसोसिएट एडिटर के तौर पर कार्यरत हैं. इंडियन इंस्टिट्यूट ऑफ मास कमुनिकेशन के हालिया बैच के छात्र आनंद दत्ता ने राहुल पंडिता से उनके पत्रकारिता के सफर के साथ ही माओवादी आंदोलन और कुछ अन्य विषयों पर बातें की. एक अनुभवी, प्रतिबद्ध पत्रकार से एक ताज़ा तरीन पत्रकार (पत्रकारिता के छात्र) की मुलाक़ात में उत्सुकता के जो प्रश्न फूटे हैं, वे प्रश्न, और उनके ज़वाब praxisके पाठकों के लिए...                                   - मॉडरेटर)
    
राहुल पंडिता
इंडियन एक्सप्रेसआज तकजी न्यूज़और अब ओपनकैसा रहा है ये सफ़र अब तक ? 
देखियेटेलीविजन मैंने एक ऐसे दौर में शुरू किया जब देश में चौबीस घंटे का न्यूज़ चैनल का माहौल नहीं था। टेलीविजन हालाँकि रिपोर्टिंग के लिहाज से बहुत अच्छा मीडियम नहीं रहा हैलेकिन एक सशक्त माध्यम ज़रूर है। एस पी सिंह के समय में अच्छी पत्रकारिता होती थीऔर उन्ही को देखकर हमको लगा की टेलीविजन में आना चाहिए। उस वक़्त मैंने जी न्यूज़ ज्वाइन किया थाजो कि एक मनोरंजन चैनल थाजिसमे आधे घंटे की एक बुलेटिन आती थी। पत्रकारों में होड़ लगी रहती थी की हमारी स्टोरी चले। ऐसे में यदि हमने एक दो मीनिंगफुल स्टोरी कर ली तो वो बहुत थी। लेकिन जैसे-जैसे टेलीविजन न्यूज़ का कारवां बढ़ता गयाइसमें बाजारूपण और छिछोरापन बहुत ज्यादा आ गया। ऐसे माहौल में हम जैसे लोगों के लिए काम करना मुहाल हो गया। वैसे जब हम पत्रकारिता ज्वाइन करने आये थे तो एक कहावत थी कि लड़का यदि रिपोर्टर है तो वो पहली स्टोरी हमेशा एक झुग्गी से करना चाहता हैऔर लड़की रिपोर्टर है तो वो रेड लाइट एरिया से। क्योंकि उनमे जज्बा होता था। 

सबसे ज्यादा काम करने का मौका किसने दिया ? 
टेलीविजन में रहकर मैंने इराककारगिलकश्मीर और नक्सली इलाकों में जा कर काम किया। उसके बाद मैंने एक ऐसे दौर में टेलीविजन को अलविदा कहा जब काफी सारे वरिष्ठ प्रिंट पत्रकार टीवी में काम करने लगे थे। उन्हें दिखने लगा की यहाँ बहुत जल्दी मशहूरी होती है। उनसे छोटे लड़के-लड़कियां उनसे ज्यादा सैलरी ले रहे थे। उन्हें एक आइडेंटिटी क्रायसिस होने लगा था। लेकिन मेरे साथ इस तरह की कोई दिक्कत नहीं थी। 2006 में मैंने टेलीविजन को अलविदा कहा। लेकिन सबसे ज्यादा मीनिंगफुल काम मैंने ओपन के लिए किया है। यहाँ मुझे लॉन्ग फोर्मेट जर्नलिज्म करने का मौका मिला। जहाँ स्पेस की कोई दिक्कत नही है। 

दी एब्सेंट स्टेटसलाम बस्तर और अब कश्मीर से सम्बंधित किताब। क्या आप मानते हैं की पत्रकारिता की वजह से ये सब हो पा रहा है ?
जी हाँमैंने घूमने का काम बहुत किया है। मैंने दिल्ली की रिपोर्टिंग कभी नही की है। दिल्ली में एक कुँए के मेंढक जैसी मनोस्थिति बन जाती है। जब आप संसदनार्थ ब्लॉकसाउथ ब्लॉक से रिपोर्टिंग करते हैं तब अपने आप को बहुत बड़ा बादशाह समझने लगते हैं। कुछ खास टर्मिनोलॉजी का इस्तेमाल करते हैंजैसे बैलेंसिंग जर्नलिज्मन्यूट्रेलिटी। लेकिन जब आप बस्तर जैसे इलाके में रिपोर्टिंग करने जाते हैं तब आपको असली सच्चाई का अंदाजा लगता हैं। इसीलिए दिल्ली से बाहर जाना बहुत जरूरी है। 

आप के अलावा और कौन लोग हैं जो ऐसे इलाकों में काम कर रहे हैं 
बहुत लोग हैं जो ऐसे मीनिंगफुल काम कर रहे हैं। 

कुछ का नाम लेना चाहेंगे ? 
जी बिलकुल। हमारे सहयोगी हैं अमन सेठीटाइम्स ऑफ इंडिया के सुप्रिया शर्माबीबीसी के सलमान रावी हैं जो लगातार इन इलाकों में काम कर रहें हैं। 

अपनी पुस्तक सलाम बस्तर में आपने लिखा है कि माओवादियों के नए लड़ाके नक्सलवादी कममाओवादी ज्यादा हैं। इसको स्पष्ट करेंगे 
मुझे लगता है कि नक्सलवादी और माओवादी में हल्का सा फर्क है। पुराने धारा के लोगजो विचारधारा के स्तर पर ज्यादा मजबूत थेवो नक्सली हैं और नए लड़ाके जो हैं वो माओवादी हैं। आज माओवादीयों में विचारधारा का पतन तो मैं नही कहूँगा लेकिन फोकस में जरूर कमी आई है। सीपीआई माओवादी बहुत तेजी से बदल रही है। पिछले कुछ महीनो में जो मैंने महसूस किया है को जो अपने आप को इस तथाकथित मूवमेंट में झोंक दिया हैउससे वे किसी - न - किसी रूप में भटक रहे हैं। उनके अन्दर ही सवाल उठाये जा रहे हैं। पांडा जो उनके बीच हैंवही लीडरशिप को लेकर सवाल उठा रहे हैं। उनको "ब्रश अंडर द कारपेट" नही कर सकते हैं। ये सवाल बड़े प्रश्न के रूप में उनके सामने खड़े हैं। आइडियोलॉजिकली भटकने की निशानी दिख रही है। लोग टूट रहे हैं। 

व्यक्तिगत तौर पर आप उनसे कहाँ सहमत और असहमत हैं ?  
(थोडा हँसते हुए) ....सहमत या असहमत होने का सवाल नहीं है। एक पत्रकार हमेशा धारा से हटकर काम करता है। लेकिन देश जिस काल से गुजर रहा है इसे में आज ये जरूरी है कि पत्रकार एक स्टैंड ले। क्यूंकि वह भी एक आदमी हैसोसायटी का हिस्सा हैऔर मैं कभी स्टैंड लेने से चूका नही। इसीलिए मैं ये मानता हूँ कि कई जगह ऐसे हैं जहाँ स्टेट की कोई मौजूदगी नही है। एक खालीपन है जो स्टेट ने छोड़ रखा है। लोग भूख और बदहाली से ग्रस्त हैं। उसी स्पेस को माओवादियों ने भरा है। जो काम स्टेट को करना चाहिए वो माओवादी कर रहे हैं। यहाँ तक तो मैं उनसे सहमत हूँ। लेकिन जब हिंसा की बात आती हैजैसे किसी ग्रामीण कोपुलिस  इनफॉर्मर को मारनातो यहाँ मैं उनसे पूरी तरह असहमत हूँ। 

मीडिया के लिए प्रोडक्ट माओवादी हैं या माओवादी आन्दोलन ?
देखिये अलग-अलग विचारधारा के लोग हैं। कई लोगों के लिए कोई फर्क नही है एक आतंकवादी जो एलओसी पर मारा जाता है और नक्सली जो बस्तर के जंगलों में मारा जाता है। लेकिन हमने अपने काम के दौरान एक फर्क जो इन दोनों के बीच मौजूद हैं उसे महसूस किया है। आतंकवादी के लिए देश का खात्मा ही एकमात्र उद्देश्य है। जैसे कश्मीर की अगर हम बात करें तो उनके लिए वो एक मूवमेंट नही हैवो एक जेहाद चला रहे हैं। करोड़ों रुपैये की हवाला सम्पति उनके पास है।

इतनी सम्पति तो माओवादियों के पास भी है 
माओवादियों के पास कोई सम्पति नही है। जहाँ तक मैंने उन्हें जाना है। क्यूंकि माओवादी और उनके नेता दोनों ही उन्ही जंगलों में रहते हैंजहाँ उनका काडर रहता है। आपको फर्क करना होगा। ये सम्पति सीपीएम माओवादी की सम्पति है। जो ये रंगदारी या वसूली से जमा करते हैं। उनका इस्तेमाल हथियार खरीदने में करते हैं। मैं यहाँ निंजी सम्पति की बात कर रहा हूँ। कश्मीर में जो राजनीती -आतंकवाद  का जो गठबंधन है उसमे लोगों ने निजी सम्पति हवाला के जरिये बनाया है। उन्होंने अपना बिजनेस अम्पायर खड़ा कर लिया है। आमतौर पर मेरे अनुभव से माओवादी के साथ ऐसा नही है। उनके पास पैसा हैजिसका ज्यादा हिस्सा पार्टी में ही खर्च करते हैं। 12000 काडर हैंलाखों लोग उनसे जुड़े हैंउनका नेटवर्क हैइन सब में उनका पैसा खर्च होता है। 

विदेशी मीडिया इसे किस रूप में देखती है 
विदेशी मीडिया को पहले इसकी समझ नही थी। अब ग्लोबलाइजेशन के बाद विदेशों में भारत की जो छवि है वो एक हाथी जैसी है जो मदमस्त चाल से चल रहा है। फास्टेस्ट ग्रो हैइतने सारे अरबपति हैं। लेकिन एक भारत है जो इस विकासइस नेहरु पंचवर्षीय योजना से बाहर है। जाहिर है जब विदेशी मीडिया को इस तरह के विरोधाभास देखने को मिलते हैं तो वो इस पर भी बात कर रहे हैं। 2004 - 05 के बाद से भारत पर काफी फोकस कर रहे हैं। 

खबरों को लेकर उनका क्या दृष्टिकोण होता है 
मेन एंगल उनका ये रहता है कि एक देश जहाँ इकॉनमी बढ़ रही हैदिल्ली जैसे महानगर में इतने मॉल हैं। लेकिन एक जगह है जहाँ भुखमरीगरीबीबेरोजगारी है और वहां एक वर्ग है जहाँ क्रन्तिकारी इस पर काम कर रहे हैं। जहाँ कई जगह सामानांतर सरकारें चल रही हैं। 

आप उनसे किस भाषा में संवाद करते हैं 
नक्सली लीडरशिप तो हिंदी और इंग्लिश दोनों ही भाषाओँ में बात करती है। कम से कम हिंदी में तो करते ही हैं। ग्रासरूट काडर टूटी-फूटी हिंदी बोलता है। लेकिन जब आप इन ग्रासरूट काडरों से घुलते - मिलते हैंइनसे मित्रता बढ़ाते हैंइनके कैम्प का हिस्सा बनते हैंतब वे खुलकर बात करते हैं। ये वो क्षण है जो पत्रकारिता के लिए बड़े ही अनूठे होते हैं। 

किशन जी की जगह नए कमांडर कादरी सत्यानारण राव उर्फ़ कोसा को नियुक्त किया गया है। कभी मुलाकात हुई है उनसे आपकी ?
जी ....जी ....(थोडा हँसते हुए) हाँ हुई है। 

मीडिया के आलावा आपके पास कोई खबर जो आप बताना चाहेंगे क्यूंकि इन्हें दंतेवाडा का मास्टर माइंड भी कहा जाता है .....
कोसा बस्तर में थे। फ़िलहाल मेरा उनसे कुछ दिनों से संपर्क नही है। वे बहुत ही अनुभवी और पुराने लीडर हैं। अनुभवी का मतलब, मैं ये दावे के साथ नहीं कह सकता हूँ कि दंतेवाडा हमले में उनका हाथ हो सकता है। 

क्या कोई दूसरी अनुराधा गाँधी काम कर रही हैं 
(फिर से हँसते हुए) ....बहुत सारे लोग हैं जो बस्तरउड़ीसाझारखण्ड में काम कर रहे हैं। काफी पढ़े-लिखे लोग हैं। पुलिस को उनके बारे में पता तक नही है। अनुराधा तो अभूतपूर्व प्रतिभा की धनी थी। उनके जैसा या आजाद जैसे लीडर की क्षतिपूर्ति करना माओवादी के लिए फ़िलहाल संभव नही है। 

केजरीवाल साब की 'पत्रकारिता' को कैसे देखते हैं ?
मैं ज्यादा इम्प्रेस नही हूँ उनसे। लेकिन जब सोसाइटी में इतना भ्रष्टाचार का दौर चल रहा हैकिसी भी बड़ी से बड़ी घटना के हम अभ्यस्त हो चले हैंऐसे में किसी भी रूप में परिवर्तन को मैं फायदा ही मानता हूँ। पिछले कुछ हफ़्तों में जो उन्होंने किया है वो ठीक हैलोकतंत्र की मोटी चमड़ी में सुई चुभना चाहिए।

पत्रकारिता में जो नए लोग आ रहे हैंजो आप जैसों की तरह काम करना चाहते हैंउनके लिए क्या कहना चाहेंगे ?
मैं तीन बातें कहना चाहूँगा। पहला ये की वो पत्रकारिता को करियर मान कर न आयें। कोई यदि ग्लैमर के लिए आ रहा है तो इससे बड़ी शर्मनाक बात कुछ नही हो सकती है। दूसरा - युवावर्ग में एक साधारण लापरवाही का माहौल देख रहा हूँ मैं कि  वो अख़बार नही पढ़ते। बेसिक कमजोर है उनका। मेरी गुजारिश है उनसे कि कम से कम दो अख़बार रोज जरूर पढ़ें। तीसरा मैं भाषा को लेकर कहना चाहूँगा की भविष्य द्विभाषी का है। इसीलिए हिंदी और इंग्लिश के बीच की जो खाई है उसे कम करना होगा। और मैं उम्मीद करता हूँ की वे इस बात को जरूर समझेंगे। 

बात करने के लिए बहुत - बहुत धन्यवाद् सर। 
मुझे भी बहुत मजा आया आपसे बात कर के .....


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आनंद आईआईएमसी में पत्रकारिता के छात्र हैं. फोटोग्राफी का भी शौक रखते हैं. 

नेशनल हेरल्ड, कांग्रेस और दो हज़ार करोड़ का घोटाला

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भूपेन सिंह

"...कांग्रेस की तरफ़ से महासचिव जनार्दन द्विवेदी का बयान आया कि कांग्रेस ने नेशनल हैरल्ड को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए नब्बे करोड़ का लोन दिया था क्योंकि उसके लिए अख़बार का फिर से निकलना एक भावुक मुद्दा है, लेकिन उनकी बातों का झूठ इसी बात से साबित हो जाता है कि 2008 में जब कांग्रेस ने लोन दिया था तब अख़बार बंद हो रहा था और कर्मचारियों के बकाए के भुगतान के लिए नब्बे करोड़ रुपए दिए गए थे. इतने सालों तक यह बात दबी रही कि कांग्रेस ने एजेएल को लोन दिया. मामला बिल्कुल साफ़ है कि कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं ने एजेएल को हथियाने के लिए ही यंग इंडियन  का गठन किया..."

घोटाला क़रीब दो हज़ार करोड़ रुपए की संपत्ति का है और इस बार इसके तार कांग्रेसी अख़बार नेशनल हेरल्ड से जुड़े हैं. घोटाले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी जैसे कांग्रेस के पारिवारिक दिग्गजों पर सीधा आरोप हैकि उन्होंने अवैध तरीक़े से अख़बार की संपत्ति पर कब्ज़ा कर लिया. लगातार भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी कांग्रेस के लिए यह घोटाला एक नई मुसीबत लेकर आया है. विरोधियों ने तो इस मामले में पार्टी की मान्यता ही ख़त्म करने की मांग कर डाली. इस घटना ने समाचार मीडिया की आड़ में मुनाफ़ा कमाने वाले निजी घरानों की नैतिकता को तो कटघरे में खड़ा किया ही है, प्रभावशाली नेताओं और राजनीतिक पार्टियों के मीडिया में निवेश करने को लेकर भी सवाल उठाये हैं. इससे यह भी पता चलता है कि भारत का ज़्यादातर समाचार मीडिया अब पूरी तरह बड़ी पूंजी का गुलाम हो गया है जिसमें निजी फायदा उठाने की अनगिनत साजिशें चलती रहती हैं. कभी-कभी इन पर से पर्दा हटता है तो करोडों-खरबों के घोटाले नज़र आते हैं. लेकिन ये पर्दे के पीछे चलने वाले घोटालों की सिर्फ़ एक झलक (टिप ऑफ द आइसबर्ग) है. नेशनल हेरल्ड का मामला भी ऐसे घोटालों का एक छोटा सा उदाहरण है.  

नवंबरमहीने की दो तारीख़ को कांग्रेस पार्टी ने मान लिया कि उसने नेशनल हेरल्ड निकालने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड (एजेएल) को नब्बे करोड़ रुपए का ब्याज़ मुक्त लोन दिया था. कांग्रेस की तरफ़ से बयान आया कि उसने 2008 में यह कर्ज नेशनल हेरल्ड को दोबारा शुरू करने के लिए दिया था और अख़बार का प्रकाशन उसके लिए एक भावुक मुद्दा है. वह (बेशर्मी से नव उदारवादी आर्थिक नीतियों को लागू करने वाली पार्टी) अख़बार को फिर से शुरू कर गांधी-नेहरू के आदर्शों (?) को आगे बढ़ाना चाहती है. लेकिन इन लोक लुभावन बातों के पीछे की जो हक़ीक़त सामने आई उससे लोकतंत्र की आड़ में भ्रष्टाचार का परचम फहराने वालों का चेहरा पूरी तरह बेपर्दा हो गया. कांग्रेस पार्टी और उसके सर्वोच्च नेताओं ने भ्रष्टाचार का इतना महीन खेल खेला है कि उसे 
समझने के लिए ठीक-ठाक समझदार लोगों को भी अच्छी-ख़ासी कसरत करनी पड़ जाए.

नेशनलहैरल्ड का प्रकाशन बंद हुए चार साल बीत चुके हैं. अब पूरा खेल नेशनल हेरल्ड को प्रकाशित करने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड (एजेएल) की दो हज़ार करोड़ रुपए की संपत्ति को हथियाने का है. इस पूरे मामले में बड़ी चालाकी से कांग्रेस पार्टी ने अपनी अध्यक्ष सोनिया गांधी और महासचिव राहुल गांधी की नव गठित कंपनी यंग इंडियन को सारे अधिकार देने का रास्ता साफ़ कर डाला. सोनिया के दामाद रॉबर्ट बाड्रा पर आरोप लगने के बाद अब सीधे सोनिया-राहुल पर गड़बड़ी कर संपत्ति हथियाने का आरोप है. नेशनल हेरल्ड की स्थापना कभी कांग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई को धार देने के लिए की थी. इसे प्रकाशित करने वाली कंपनी एजेएल उर्दू में कौमी आवाज़ और हिंदी में नवजीवन का भी प्रकाशन करती रही है. नेशनल हेरल्ड को उन्नीस सौ अड़तीस में जवाहरलाल नेहरू ने शुरू किया था, छोटे अरसे के लिए ख़ुद नेहरू भी इसके संपादक रहे. तब अख़बार का एक ही संस्करण लखनऊ से छपता था. आज़ादी के पक्ष में  होने की वजह से ब्रिटिश सरकार ने उन्नीस सौ बयालीस से उन्नीस सौ पैंतालीस तक इस पर पाबंदी लगा दी थी. उन्नीस सौ छियालीस तक के रामाराव इसके संपादक रहे. उन्नीस सौ सैंतालीस में आज़ादी मिलने के बाद नेहरू प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने नेशनल हैरल्ड के अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया. तब उनका  सोचना था कि एक आज़ाद देश में अख़बार को ख़ास राजनीतिक पार्टी से प्रभावित नहीं होना चाहिए. तब से अख़बार के संपादक मनीकोंडा चलपति राव थे. वे नेहरू के अच्छे दोस्त थे लेकिन नेहरू सरकार की आलोचना करने से कभी नहीं झिझकते थे. चलपति राव उन्नीस सौ छिहत्तर तक अख़बार के संपादक रहे. कहा जाता है कि तब कांग्रेस का प्रकाशन होने के बाद भी अख़बार को बहुत सारे मामलों में संपादकीय स्वतंत्रता थी.

1964 में नेहरू की मौत के बाद स्थितियां बदलीं. 1968 में अख़बार का दिल्ली संस्करण भी शुरू हुआ. इंदिरा गांधी को आलोचना पसंद नहीं थी इसलिए अख़बार का संपादकीय पतन होना शुरू हो गया. चलपति राव के जाने के बाद कुछ वक़्त के लिए खुशवंत सिंह भी अख़बार के संपादक रहे. लेकिन खुशवंत सिंह अख़बार से कभी तनख़्वाह नहीं ले पाए. वे इलस्ट्रेटेड वीकली छोड़कर आए थे, तब अख़बार में बकाया वेतन की मांग को लेकर कर्मचारियों की हड़ताल चल रही थी. ख़ुशवंत सिंह ने सबसे वादा किया कि जब तक  सभी कर्मचारियों को पैसा नहीं मिल जाता तब तक वे भी अपनी तनख्वाह नहीं लेंगे. इस बात का ज़िक्र उन्होंने अपनी किताब ट्रुथ, लव एंड लिटिल मलाइस में किया है. सत्ताधारी पार्टी का अख़बार होने के बाद भी तब अख़बार में लगातार आर्थिक दिक्कतें बनी रहती थीं. ख़ुशवंत लिखते हैं कि अख़बार में पैसे की कमी की वजह से कर्मचारियों का असंतोष बढ़ने पर रहस्यमय तरीक़े से दफ़्तर में रुपयों से भरे सूटकेस पहुंच जाते थे और कर्मचारियों को उनके बकाये का भुगतान किया जाता था (सूटकेस में आने वाले पैसों की वैधता का अनुमान लगाएं!). 1990-92 के बीच अख़बार के संपादक रहे शुभब्रता भट्टाचार्य का कहना है कि अख़बार का वित्तीय प्रबंधन कभी ठीक तरह से नही हो पाया. सिर्फ़ छियालीस से पचास के बीच में जब फिरोज़ गांधी प्रबंध निदेशक थे तभी काम ठीक चला था.

वित्तीयसंकट की वजह से 2008 में अख़बार को बंद करना पड़ा था. तक कांग्रेस पार्टी ने कर्मचारियों का बकाया चुकाने के लिए अख़बार चलाने वाली कंपनी एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड को नब्बे करोड़ रुपये का ब्याज मुक्त कर्ज दिया था. अख़बार बंद होने के बाद एजेएल सिर्फ़ एक रीयल एस्टेट कंपनी बनकर रह गई. इसकी दिल्ली, मुंबई और लखनऊ में संपत्ति थी और बैलेंस शीट में दो हज़ार करोड़ रुपए थे. इसके बदले में वो कांग्रेस की नब्बे करोड़ रुपए की देनदार हो गई. एजेएल में हज़ार से ज़्यादा शेयर होल्डर थे. कांग्रेस का पैसा चुकाने के बाद भी कंपनी अपनी अचल संपत्ति को बांटकर हिस्सेदारों में बांट सकती थी लेकिन कंपनी ने ऐसा नहीं किया. सारे कायदे कानूनों को ताक पर रखकर राहुल गांधी और सोनिया गांधी की मालिकाने वाली कंपनी यंग इंडियन ने एजेएल को ख़रीद लिया.

2010के नवंबर महीने में अचानक पांच लाख रुपए की लागत से सेक्शन 25 के तहत यंग इंडियन नाम की एक नई कंपनी बनायी गई. इस कंपनी में राहुल और सोनिया की 38-38 फीसदी (कुल छिहत्तर फ़ीसदी) की हिस्सेदारी थी. बाक़ी बारह-बारह फ़ीसदी की  हिस्सेदारी परिवार के वफ़ादार ऑस्कर फर्नांडिस और मोतीलाल वोरा की है. दिसंबर दो हज़ार दस में, कांग्रेस पार्टी की तरफ से एजेएल को दिए गए नब्बे करोड़ रुपए से ज़्यादा के लोन का अधिकार यंग इंडियन कंपनी के पास आ गया. इसके लिए लिए कंपनी ने पार्टी को सिर्फ पचास लाख रुपए चुकाए. कांग्रेस ने पचास लाख घटाकर नवासी दशमलव सात पांच लाख का घाटा दिखाया. इससे यंग इंडिया को एजेएल से नब्बे करोड़ रुपए की वसूली का अधिकार मिल गया. आखिरकार फरवरी दो हज़ार बारह में एजेएल ने नब्बे करोड़ रुपए को यंग इंडियन के शेयरों में बदल दिया. ऐसा करने से यंग इंडियन एजेएल के निन्यानबे फीसदी हिस्से की मालिक हो गई. अब एजेएल पर पूरी तरह यंग इंडियन का कब्ज़ा है.

जब एजेएल के पास दो हज़ार करोड़ से भी ज्यादा की संपत्ति है तो उसने सिर्फ़ नब्बे करोड़ में अपनी पूरी हिस्सेदारी क्यों छोड़ दी. कांग्रेस की तरफ़ से महासचिव जनार्दन द्विवेदी का बयान आया कि कांग्रेस ने नेशनल हैरल्ड को फिर से पुनर्जीवित करने के लिए नब्बे करोड़ का लोन दिया था क्योंकि उसके लिए अख़बार का फिर से निकलना एक भावुक मुद्दा है, लेकिन उनकी बातों का झूठ इसी बात से साबित हो जाता है कि 2008 में जब कांग्रेस ने लोन दिया था तब अख़बार बंद हो रहा था और कर्मचारियों के बकाए के भुगतान के लिए नब्बे करोड़ रुपए दिए गए थे. इतने सालों तक यह बात दबी रही कि कांग्रेस ने एजेएल को लोन दिया. मामला बिल्कुल साफ़ है कि कांग्रेस के सर्वोच्च नेताओं ने एजेएल को हथियाने के लिए ही यंग इंडियन  का गठन किया. इसलिए चुन-चुनकर इसमें गांधी परिवार का वर्चस्व बनाया गया.

नेशनल हेरल्ड से जुड़े कांग्रेस के इस घोटाले की ख़बर जब जनता पार्टी के सुब्रह्मण्यम स्वामी को मिली तो वे तुरंत कोर्ट चल गए और उऩ्होंने पूरे घोटाले की परत दर परद खोलते हुए कांग्रेस पार्टी की मान्यता रद्द करने की मांग कर डाली. उन्होंने ऐसी ही मांग चुनाव आयोग और प्रधानमंत्री से भी की. लेकिन जैसा कि होना था, वर्तमान व्यवस्था में कांग्रेस की सदस्यता रद्द होना लगभग असंभव है, वैसा ही हुआ. कोर्ट ने भी स्वामी की बात मानने से इनकार कर दिया. स्वामी इस बिनाह पर यह मांग कर रहे थे कि एक राजनीतिक पार्टी को व्यवसाय के लिए पैसा देने का अधिकार नहीं है. स्वामी ने यह भी आरोप लगाया कि राहुल गांधी ने एजेएल में अपनी हिस्सेदारी (छोटी ही सही) का ब्यौरा भी चुनाव आयोग को सौंपे अपने हलफनामे में नहीं दिया है इसलिए उनकी लोकसभा सदस्यता भी रद्द की जानी चाहिए. इन सारी घटनाओं को लेकर स्वामी ने बाक़ायदा सारे दस्तावेज पेश किए. यहां देखा जाए तो स्वामी व्यवस्था में निहित भ्रष्टाचार की जड़ों पर चोट करने के बजाय सिर्फ़ कानूनी समाधान तलाश रहे थे, नव उदारवादी लोकतंत्र की अनैतिकता उनके सवालों के घेरे से बाहर है.

इस घटनाक्रम से इस बात का भी पता चलता है कि लोकतंत्र के नाम पर किस तरह देश की जनता को बेवकूफ़ बनाया जा रहा है. कोई यह सवाल नहीं उठा रहा कि कांग्रेस के पास नब्बे करोड़ रुपए उधार देने के लिए पैसा कहां से आया. दूसरे शब्दों में यह भी पूछा जा सकता है कि राजनीतिक पार्टियों के पास अरबों-खरबों के हिसाब से पैसा आता कहां से है?इसका जवाब सिर्फ़ इतना दिया जाता है कि उनके समर्थकों ने उन्हें चंदा दिया है, तो ऐसे अरबों का चंदा देने वाले समर्थक देश के बड़े आपराधिक कॉरपोरेट कंपनियों के अलावा और कौन हो सकते हैं?कांग्रेस-भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टियां इस बात को साफ़ क्यों नहीं करती कि उनके पास इतना पैसा आया कहां से है. स्वाभाविक है कि जब पूंजीपतियों के अवैध पैसे से पार्टियां और सरकारें चलेंगी तो फैसले भी उन्हीं के पक्ष में होंगे. कॉरपोरेट लोकतंत्रका चरित्र यहां पर बिल्कुल साफ हो जाता है लेकिन मीडिया का इस्तेमाल कर जनता में ऐसी झूठी चेतना का निर्माण किया जाता हैकि जैसे कॉरपोरेट लोकतंत्र से महान कोई व्यवस्था नहीं है. आम जनता भी इस छद्म को नहीं समझ पाता. उसे यही रटाया जाता है न्यूनतम अर्हता को पूरा करने वाला कोई भी व्यक्ति विधानसभा या लोकसभा का चुनाव लड़ सकता है और राजनीतिक पार्टी बना सकता है. वह देश का प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति बन सकता है. लेकिन हक़ीक़त यही है कि राजनीति करने के लिए जब तक कॉरपोरेट का हाथ सर पर न हो आम आदमी के लिए इस लोकतंत्र में राजनीतिक हिस्सेदारी हासिल कर पाना असंभव है. सवाल यह भी है कि जिस देश की क़रीब अस्सी फ़ीसदी आबादी बीस रुपए से कम रोज कमाती है. उस तबके का इंसान चुनाव लड़ने के लिए हज़ारों रुपए पंजीकरण शुल्क कहां से लाएगा? माना उसने किसी तरह इतना पैसा इकट्ठा कर भी लिया तो वह चुनाव प्रचार के लिए करोड़ों रुपए कैसे खर्च करेगा?  बड़ी राजनीतिक पार्टियों के पास आने वाले पैसे की वैधता का सवाल यहां पर बहुत अहम हो जाता है. जब अवैध पैसे के इस्तेमाल से ऐसी पार्टियां सरकार में पहुंचेंगी तो वह कैसे आम जनता के पक्ष में न्याय की बात कर सकती हैं?

कांग्रेसपार्टी के कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा एजेएल के एक प्रमुख डायरेक्टर भी थे उन्होंने ही सारे मामले में प्रमुख भूमिका निभाई. वोरा यंग इंडियन के भी प्रमुख सदस्य हैं और उनकी भी इस नई कंपनी में बारह फीसदी की हिस्सेदारी है, जबकि एजेएस में उनकी एक फ़ीसदी से भी कम की हिस्सेदारी थी. एजेएल के ज्यादातर पुराने शेयर होल्डर मर-खप गए हैं लेकिन कंपनी ने उनका ब्यौरा रजिस्ट्रार ऑफ़ कंपनी के पास नहीं दिया था. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने जब पहले कांग्रेस और गांधी परिवार की पोल खोली तो कांग्रेस स्वामी के आरोपों को चुनौती देने की मुद्रा में दिखाई दी. राहुल गांधी के ऑफिस ने स्वामी पर अवमानना का केस दर्ज करने की धमकी दी. बाद में कांग्रेस की तरफ़ से इस बात को टाल दिया गया. कांग्रेस की तरफ़ से बयान आया कि स्वामी का तो काम भी कांग्रेस पर कीचड़ उछालना है इसलिए उसे उनके आरोपों से कोई फ़र्क नहीं पड़ता है लेकिन असल बात तो यह है कि स्वामी ने जो आरोप लगाए हैं उसका कांग्रेस के पास कोई तार्किक जवाब नहीं है.

नेशनलहेरल्ड से जुड़ा एक और घोटाला इंदौर से भी सामने आया है. अस्सी के दशक में कांग्रेस के अर्जुन सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में अख़बार के नाम पर वहां बाईस हज़ार स्वायर फीट की ज़मीन मुहैया कराई थी. अब वह ज़मीन विष्णु गोयल नाम के एक चिट फंड  के व्यवसाय से जुड़े एक धंधेबाज़ के कब्ज़े में है. बाद में बीजेपी सरकार ने अख़बार के प्रकाशन को अवैध घोषित कर दिया और दो हज़ार ग्यारह में इंदौर डेवलेपमेंट अथॉरिटी ने लीज वापस लेने का आदेश दिया लेकिन विष्णु गोयल ने इसकी शिकायत प्रेस परिषद में की और हाईकोर्ट से स्टे लेने मे कामयाब हो गया. इस तरह आज भी उसके अख़बार का ज़मीन पर कब्ज़ा है. कहा जाता है कि गोयल कांग्रेस नेता मोती लाल वोरा का बेहद करीबी है और उऩ्होंने ही उसके लिए सारी व्यवस्था की है. दिखावे के लिए हर रोज़ रायपुर से नेशनल हेरल्ड का का प्रकाशन जारी है, जिसमें कुछ प्रतियां प्रिंट कर सूचना विभाग में  उसका अस्तित्व बचा के रखा गया है. अख़बार ने एक वेब साइट भी बनाई है. जिसका पता है-http://nationalherald.org/. यह घटना इस बात का भी सबूत है कि कांग्रेस के सहयोग से ही नेशनल हेरल्ड अपनी करोड़ों की संपत्ति जोड़ पाया. दिल्ली, मुंबई, लखनऊ के अलावा इंदौर में भी इसके पास बड़ी संपत्ति होना इस बात का प्रमाण है. सारा मामला अब उस संपत्ति को हथियाने को लेकर चल रहा है. कांग्रेस के सर्वोच्च नेता अब इस संपत्ति को दूसरे के पास नहीं देना चाहते इसलिए एक पब्लिक लिमिटेड कंपनी को निजी मिल्कीयत वाली कंपनी बना दिया गया और कांग्रेस के समर्थक सेठ को इंदौर की ज़मीन सौंप दी गई.

हेरल्डवाले मामले से देश में मीडिया संबंधित सही नियम-कायदों के अभाव का भी पता चलता है. न तो यहां तरह-तरह का धंधा कर रहे पूंजीपतियों के समाचार मीडिया पर निवेश करने को लेकर  कोई पाबंदी है और न ही राजनीतिक पार्टियों द्वारा सत्ता का इस्तेमाल कर मीडिया का कारोबार खड़ा करने पर कोई रोक है. आज देशभर में, उत्तर से लेकर दक्षिण तक कई राजनीतिक पार्टियों का पैसा मीडिया में लगा हुआ है. इस तरह पूंजीपति और राजनीतिक पार्टियां देश के जनमत को मनमानी दिशा मे हांकने में जुटे हुए हैं. साथ ही मीडिया का इस्तेमाल अपना व्यवसाय और राजनीति को चमकाने के लिए धड़ल्ले से हो रहा है. 

मस्जिद ढहने के बीस साल बाद

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सत्येंद्र रंजन

"...यह नहीं कहा जा सकता कि वह पूरा संदर्भ अब बदल गया है। भाजपा आज भी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसने उन मु्द्दों को नहीं बदला है, जिनके आधार पर वह अपनी खास पहचान परिभाषित करती है। उन मुद्दों में अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण सर्व-प्रमुख है। इसके अलावा समान नागरिक संहिता और संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के मुद्दों का सांप्रदायिक चरित्र भी स्पष्ट है।..."


बीस साल पहले आज के दिन आधुनिक भारतीय गणतंत्र के बुनियादी उसूलों पर गहरा प्रहार हुआ था। उस रोज अयोध्या में सिर्फ एक 465 साल पुरानी इमारत ही नहीं गिराई गई थी- ना ही यह केवल किसी एक मजहब की पहचान पर हमला था। बल्कि उसके जरिए भारत की उस धारणा को नष्ट करने कोशिश की गई, जो उपनिवेशवाद के खिलाफ लंबे संघर्ष के दौरान विकसित हुई थी। निशाने पर उदार, सर्व-समावेशी, आधुनिक, लोकतांत्रिक एवं विकास की खास समझ पर आधारित भारतीय राष्ट्र की अवधारणा थी, जिसका मूर्त रूप हमारा वर्तमान संविधान है। उसके बरक्स सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नाम पर धर्म-आधारित राष्ट्र निर्माण की परियोजना तब एक वास्तविक आशंका नजर आने लगी थी। इसलिए 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, उसे महज एक दुखद या दुर्भाग्यपूर्ण घटना के रूप में ही नहीं देखा जा सकता। बल्कि उसे उसके संपूर्ण ऐतिहासिक एवं राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत लगातार बनी हुई है।


यहनहीं कहा जा सकता कि वह हमला अचानक हुआ। बल्कि जिस दौर में आधुनिक भारतीय राष्ट्र का विचार स्वरूप ग्रहण कर रहा था, तभी से उसके प्रतिद्वंद्वी विचार के रूप धर्म आधारित राष्ट्रवाद ने भी अपना प्रसार किया। पाकिस्तान हासिल कर लेने की मुस्लिम लीग की सफलता आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद की एक विफलता थी। (एक मुस्लिम देश के रूप में) पाकिस्तान की स्थापना ने हिंदू राष्ट्रवाद के समर्थकों द्वारा वैधता एवं जन समर्थन प्राप्त करने की कोशिश को नए तर्क प्रदान किए। इसके बावजूद यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की मुख्य विचारधारा और उसके मनीषियों की लोकप्रियता का ही परिणाम था कि भारत ने एक स्वतंत्र देश के रूप में अपनी यात्रा उस संविधान के साथ शुरू की, जिसका उद्देश्य आधुनिक धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना है और जो लोकतंत्र, न्याय एवं समता के मूल्यों पर खड़ा है।

यहभी नहीं कहा जा सकता कि 6 दिसंबर 1992 को जो हुआ, वह पूरी तरह हिंदुत्ववादी शक्तियों के संयोजन का नतीजा था। बल्कि 1980 के दशक में खालिस्तानी आतंकवाद के दौर में बहुसंख्यक समुदाय की भावनाएं जिस तरह उभारी गईं, उन्होंने हिंदुत्ववादी ताकतों के लिए वो जमीन तैयार की, जो वे हिंदू कोड बिल या गौ-हत्या विरोधी अपने आंदोलनों तथा अन्य प्रयासों से नहीं कर पाए थे। कांग्रेस पार्टी ने- खासकर राजीव गांधी के शासनकाल में बहुसंख्यक समुदाय की भावनाओं को वोट बैंक में तब्दील करने की जो कोशिश की, वह इस तरह की राजनीति को अधिक स्वीकार्यता दिलाने में मददगार बनी। जब जनता के एक बड़े हिस्से के समर्थन से ताकतवर हुई इस राजनीति की कमान उसके असली वारिसों ने संभाल ली, तो आधुनिक भारतीय राष्ट्रवाद के लिए खतरा विकराल रूप में सामने आ गया। भारतीय राष्ट्र-राज्य की सांप्रदायिक आधार पर पुनर्रचना की कोशिश जितने उग्र रूप में बाबरी मस्जिद को तोड़कर मंदिर वहीं बनाने के नारों के साथ हुई, वैसी मिसाल आजाद भारत में और नहीं है। राम मंदिर आंदोलन ने भारतीय राजनीति की दिशा बदलने की कोशिश की थी। कहा जा सकता है कि एक छोटी अवधि में वो प्रयास सफल भी रहा था। 1984 के आम चुनाव में लोकसभा की दो सीटें जीतने वाली भारतीय जनता पार्टी का 1998-2004 के दौर में देश की सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति बन जाना उस दौर में इस परिघटना की कामयाबी की मिसाल है।  

यहनहीं कहा जा सकता कि वह पूरा संदर्भ अब बदल गया है। भाजपा आज भी देश की प्रमुख विपक्षी पार्टी है। उसने उन मु्द्दों को नहीं बदला है, जिनके आधार पर वह अपनी खास पहचान परिभाषित करती है। उन मुद्दों में अयोध्या में राम मंदिर का भव्य निर्माण सर्व-प्रमुख है। इसके अलावा समान नागरिक संहिता और संविधान के अनुच्छेद 370 को खत्म करने के मुद्दों का सांप्रदायिक चरित्र भी स्पष्ट है। लोकतंत्र में किसी राजनीतिक शक्ति का चरित्र इससे ही तय होता है कि वह किस आधार पर अपने पक्ष में बहुमत जुटाना चाहती है। रोजी-रोटी, आम आदमी की बेहतरी, विकास, सामाजिक न्याय, नागरिक स्वतंत्रता, राष्ट्र की उदार व्याख्या एवं अंतरराष्ट्रीय संबंधों के सैद्धांतिक आधार वो मुद्दे हैं, जो मोटे तौर पर धर्मनिरपेक्ष राजनीति को परिभाषित करते हैं। इसके विपरीत अगर कोई पार्टी भावनात्मक एवं कथित सांस्कृतिक मुद्दों को लेकर जनता के बीच जाती हो और किसी वास्तविक अथवा काल्पनिक ऐतिहासिक अन्याय को सुधारने को अपना एजेंडा बताती हो, तो वह एक अलग किस्म की राजनीति करती है- यह खुद जाहिर है। इन दो तरह की सियासतों के बीच एक विभाजन रेखा है, जो कई काल-खंडों में राजनीतिक रुख तय करने के लिहाज से सबसे अहम भी साबित हो सकता है। राम मंदिर आंदोलन और उस क्रम में बाबरी मस्जिद के ध्वंस ने इस विभाजन रेखा को सर्व-प्रमुख बना दिया था।  

आजबीस साल बाद क्या वो स्थिति बदल गई है? इस सवाल पर विचार करते समय हमें कुछ पहलुओं पर जरूर गौर करना चाहिए। इनमें पहला तथ्य तो वही है, जिसका ऊपर जिक्र हुआ- यानी यह कि जो पार्टी (जिसके पीछे सहमना संगठनों का एक पूरा जाल है) अपनी राजनीति को धर्म-आधारित (या कथित सांस्कृतिक) मुद्दों से तय करती है, वह आज भी देश की दूसरी सबसे बड़ी राजनीतिक शक्ति है, कई राज्यों में सत्ता में है और जिसके केंद्रीय सत्ता में लौटने की संभावनाएं बनी हुई हैं। दूसरा पहलू अपनी न्यायिक व्यवस्था है, जिसमें देर का आलम यह है कि 6 दिसंबर 1992 को कानून की धज्जियां उड़ाने वालों और सर्वोच्च न्यायालय में दिए वचन को न निभाने वालों का जुर्म बीस साल बाद भी तय नहीं हो सका है। तीसरा पहलू अयोध्या में विवादित स्थल का मसला है, जिस पर अंतिम न्यायिक निर्णय का अभी इंतजार है। चौथे पहलू का संदर्भ सांप्रदायिक राजनीति के उद्देश्यों से जुड़ा है। आखिर इसकी सीमा कहां तक है? बाबरी मस्जिद तोड़े जाने के बाद 1993 में उपासना स्थल कानून बना था, जिससे अयोध्या के विवादित स्थल को छोड़कर बाकी तमाम धर्मस्थलों की 15 अगस्त 1947 को जो स्थिति थी, उसे कानूनी मान्यता दी गई। यानी अब उनकी स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता। लेकिन राम मंदिर आंदोलन से जुड़े तमाम पक्षों ने कभी यह बेलाग नहीं कहा कि वे इस कानून का पालन करेंगे। इसके अलावा प्रस्तावित सांप्रदायिक हिंसा कानून को लेकर जैसा विरोध जताया गया, कला-अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमलों की निरंतर होती घटनाएं एवं आम लोगों रहन-सहन पर रू़ढ़िवादी प्रतिबंधों की लगातार जारी कोशिशों ने इस बारे में कोई संदेह नहीं छोड़ा है कि 6 दिसंबर1992 के ध्वंस के जरिए जो राजनीतिक मकसद हासिल करने की कोशिश की गई, उसके लिए वे ताकतें आज भी प्रयासरत हैं और उनके लिए मुद्दों की कोई कमी नहीं है।  

इसलिएबाबरी मस्जिद ध्वंस के बीस साल बाद भी आज हम उस राजनीतिक विभाजन रेखा को नजरअंदाज करने का जोखिम नहीं उठा सकते, जो उस रोज भारत के आधुनिक एवं सांप्रदायिक विचारों के बीच बड़ी खाई बनकर उभर आई थी। हमारे सामने मुद्दे और भी हैं। समाज को बेहतर बनाने की लड़ाइयां अनेक हैं। इनमें किसी को नजरअंदाज करने की जरूरत नहीं है। लेकिन उन्हें लड़ते हुए इस विभाजन रेखा को भूल जाना उस भारतीय राष्ट्र के अस्तित्व के लिए खतरनाक है, जिसने न्याय एवं समता को संवैधानिक मूल्य के रूप स्थापित किया है। बाबरी मस्जिद की बीसवीं बरसी पर अगर हम इस यथार्थ के प्रति फिर से सचेत हो पाए, तो यह उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन को याद करने का सबसे उचित तरीका होगा।




सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

'प्रतिरोध का सिनेमा' चौथा पटना फिल्मोत्सव आज से

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दिन- 7,8 और 9 दिसंबर   /    स्थान- कालिदास रंगालय

इस बार भारतीय सिनेमा के सौ साल और दलित प्रश्नों पर केंद्रित

-पटना से सरोज कुमार

से समय में जब समाज से प्रतिरोध के स्वर खत्म करने की साजिशें चल रही हैं। अभिव्यक्ति और संचार के माध्यमों से सामाजिक संघर्षों को गायब किया जा रहा है। कला और सिनेमा में भी इन्हें हाशिए पर ढकेला जा रहा है। प्रतिरोध का सिनेमाफिल्मोत्सव का लगातार आयोजन प्रतिरोध के लिए स्पेस बनाने की बड़ी कोशिश है। देश के विभिन्न शहरों गोरखपुर, पटना, इलाहाबाद, बनारस, नैनीताल जैसे शहरों के अलावा बलिया और आजमगढ़ जैसे छोटे कस्बाई शहरों में इसका आयोजन खासकर बड़ी बात है।
पटनाजैसे शहर में जनसंघर्षों की जमीन तो है। लगातार आम लोगों के संघर्ष और प्रतिरोध होते रहते हैं। चाहे वह दलित-आदिवासी-मजदूर प्रतिरोध हो या स्त्रियों की लड़ाई। इसके बरअक्स बिहार में सामंतवादी-साम्राज्यवादी दमन और उसके राजनीतिक पोषण का दौर चल रहा है। संचार के माध्यमों से इन्हें गायब कर दिया गया है। मीडिया सरकार की गोद में जा बैठी है। प्रतिरोध के स्वर को पूरी तरह से गायब कर आमजन को गुमराह किया जा रहा है।

ऐसेयहां कला और सिनेमा में भी प्रतिरोध का स्वर दिखाई नहीं पड़ता। मुख्य धारा की हिन्दी सिनेमा तो पूंजी पर टिकी विकृत होती ही जा रही है। इसकी नकल करते-करते स्थानीय भोजपुरी सिनेमा भी विकृत हो चुका है। साहित्य और नाटकों से भी बिहार का वर्तमान प्रतिरोध कमता जा रहा है। ऐसे हाल में पटना में लगातार चौथे साल प्रतिरोध का सिनेमा फिल्मोत्सव को होना उम्मीद जगाता है। खासकर पटना में नाटकों के आयोजन की तो समृद्ध परंपरा रही है पर प्रतिरोध के स्वर के सिनेमा और डॉक्यूमेंट्री का कोई पंरपरा नहीं नजर आई है। इसलिए 2009 से शुरु हुए इस फिल्मोत्सव का 2012 में इस बार 7 दिसंबर से चौथा आयोजन उम्मीद जगाता है।

इस फिल्मोत्सव की स्वागत समिति में बिहार के प्रतिष्ठित 21 कलाकर्मी, साहित्यकार और समाजशास्त्री शामिल हैं। इस समिति की अध्यक्ष प्रो. डेजी नारायण ने एक बड़ी चिंता यह जाहिर की कि युवाओं के बीच इन चीजों का स्पेस लगातार कम हो रहा है। उन्हें इससे दूर रखने की साजिशें चल रही है। ऐसे में युवाओं को इससे जोड़ने की कोशिश बहुत जरुरी सवाल है।

इसफिल्मोत्सव की बड़ी बात यह है कि इसका आयोजन जसम की हिरावल बिना किसी सरकारी, एनजीओ या कॉर्पोरेट की सहायता से होता रहा है। पटना में हिरावल इस तरह के आयोजन बिना किसी गैरसरकारी या सरकारी सहायता से करती आ रही है। कला के माध्यम से इसने लगातार बिहार की दमनकारी राजनीतिक और सामाजिक स्थितियों के खिलाफ प्रतिरोध को आवाज दिया है।

हाल ही में ब्रह्मेश्वर मुखिया के खात्मे से लेकर बथानी टोला पर हाइकोर्ट के फैसले का जो मामला है वह दलितों के दमन की ओर साफ ध्यान दिलाता है। ब्रह्मेश्वर की मौत के बाद सामंतवादियों ने जो हंगामा सरकारी मूक सहमति में मचाया वह किसी से छिपा नहीं है। दलितों की बेटियों के साथ लगातार बालात्कार की घटनाएं सामने आ रही हैं तो कहीं उन्हें तेजाब से जलाया जा रहा है। राजनीतिक और सरकारी मशीनरी सामंतवादी तत्वों को संरक्षण दे रही है। ऐस में इसबार इस फिल्मोत्सव का दलितों की अभिव्यक्ति पर केंद्रित होना बिल्कुल समयानुकूल और वर्तमान प्रतिरोध को कायम रखने की बेहतरीन कोशिश है।

शिरकत करने वाले प्रमुख कलाकर्मी-

            निर्देशक - अजय भारद्वाज, नकुल साहनी, संजय जोशी
            कवि बल्ली सिंह चीमा सहित बिहार के जानेमाने साहित्यकार और कलाकर्मी

दिखाई जाने वाली प्रमुख फिल्में-

मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते (निर्देशक अजय भारद्वाज)-
देश के बंटवारे के बाद पंजाब धार्मिक आधार पर बंट गया था। साझी जीवनशैली-पंजाबियत हाशिए पर चली गई। ऐसे में भी लेकिन पंजाबियत खत्म नहीं हुई। वह प्रत्येक पंजाबी के जीवन, भाषा, संस्कृति, स्मृति और चेतना का हिस्सा बनी रही। यह इसी केंद्रीय बिन्दु पर घूमती फिल्म है। यह सांस्कृति सह-अस्तित्व तथा आदान-प्रदान की समृद्ध परंपरा की दुनिया है जहां हिन्दु, मुस्लिम और सिक्ख के ठस धार्मिक पहचानों के बीच की सीमाएं धुंधली पड़ जैती हैं।

पार (निर्देशक गोतम घोष)-
यह फिल्म बिहार के ग्रामीण इलाकों में शोषण और अत्याचार की कहानी कहती है। जमींदार (उत्पल दत्त) के लोग गांव के प्रगतिशील विचारों वाले शिक्षक की हत्या कर देते हैं। मजदूर नौरंगिया (नसीरुद्दीन शाह) प्रतिरोध कर जमींदार के भाई की हत्या कर बदला लेता है। फिर उसे अपनी बीबी रामा (शबाना आजमी) के साथ गांव छोड़ कलकत्ता भागना पड़ता है। लेकिन रोजी रोटी कमाने में विफल रहने पर वापस लौटने का फैसला करते हैं। रेल किराया जुटाने के लिए वे सूअरों के झुंड को नदी पार कराने का काम स्वीकार करते हैं। बेहद मुश्किल भरे काम में गर्भवती रामा का बच्चा गर्भ में ही मर जाता है। इस दौरान वे डूबते-डूबते बचते हैं। फिल्म के आखिर में नौरंगिया राम के पटे पर कान लगाकर अपने अजन्में बच्चे की धड़कन सुनने की कोशिश करता है।

भुवन शोम (निर्देशक मृणाल सेन)
भुवन शोम (उत्पल दत्त) एक अकेला. बूढ़ा, मेहनती और सख्त अनुशासन वाला अफसर है। इस सख्त अफसर का नजरिया तब बदलता है जब एक बार छुट्टियों में शिकार के सिलसिले में एक गांव में पहुंच जाता है। वहां उसे गांव के लोग, संस्कृति और गौरी नाम की युवती मिलती है। मरती हुई दुनिया को जैसे गौरी के रुप में एक ताजा सांस मिल गई हो। अचानक सबकुछ बदला-बदला सा दिखने लगता है...

मालेगांव का सुपरमैन( फ़ैजा अहमद खान)
बालीवुड से करीब 250 किमी दूर ही मालेगांव इलाके में फिल्म की एक अलग ग्रामीण इंडस्ट्री बन गई है। वहां ग्रामीण अपने संसाधनों और पुरानी तकनीक से ही स्थानीय फिल्में बना रहे हैं। ये फिल्में वहां खूब लोकप्रिय हैं। वहीं की प्रशंसित फिल्म है- मालेगांव का सुपरमैन है।

एक डॉक्टर की मौत(निर्देशक तपन सिन्हा)
अपनी जान की बाज़ी लगाकर, सालों की कड़ी मेहनत और शोध के बाद डॉ. दीपंकर राय (पंकज कपूर) कुष्ठरोग से बचाव का टीका खोज निकालता है। अचानक उसे अंतर्राष्ट्रीय ख्याति मिल जाती है। पेशागत ईर्ष्या में डूबे लोग और सरकारी अधिकारी उसके खिलाफ साजिशें करने लगते हैं। उसे दिल का दौरा पड़ता है। उसकी बीबी (शबाना आजमी) और अमूल्य (इरफान ख़ान) उसके समर्थन में डटे रहते हैं। उसका तबादला सूदूर गाव में कर दिया जाता है और आविष्कार का श्रेय अमरीकी डॉक्टरों को दे दिया जाता है। वह टूट जाता है। फिर वह वैज्ञानिकों के एक महत्वपूर्ण संस्थान में काम करना स्वीकार कर लेता है क्योंकि वह मानवता की सेवा का कायल है।

हरिश्चंद्राची फैक्ट्री (निर्देशक परेश मोकाशी)
यह फिल्म भारतीय फिल्म उद्योग के आरंभ होने की कहानी है। यह भारतीय सिनेमा के जनक कहे जाने वाले दादा साहेब फाल्के की भी कहानी है। परिवार चलाने के लिए संघर्ष करते-करते फाल्के मोशन पिक्चर बनाने का फैसला करते हैं। वह इस नई कला तकनीक को सीखने के लिए इंग्लैंड तक की यात्रा करते हैं। वहां से वह टेक्निशियंस की एक टीम ले आते हैं और अनेक परेशानियों को झेलते हुए अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाते हैं। कड़ी मेहनत से बनाई गई यह फिल्म हिट साबित होती है। इस तरह दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योग का सफर शुरु होता है।


इज़्जतनगरी की असभ्य बेटियां (निर्देशक नकुल साहनी)
इसी साल बनी यह फिल्म खाप के पितृसत्तात्मक और चरम जातिवादी विचारों के खिलाफ होने आवाज करने वाली पांच जाट युवतियों की कहानी है। ताकतवर खाप से भिड़ने के एवज में इन्हें ऑनर अपराध, अन्याय और सामाजिक बहिष्कार तक का सामना करना पड़ता है।
इसमें अहलावत खाप के मुखिया जय सिंह अहलावत कहता है- जो हमारे रीति-रिवाजों को चुनौती देने की कोशिश करते हैं, वे पढ़े लिखे नौजवान या दलित अफसर हैं जो हर चीज में बराबरी चाहते हैं।....और हां हमारी असभ्य बेटियां भी, जो हमारी युगों पुरानी परंपरा को खत्म करने के लिए जानवरों-सी आजादी की कल्पना करती हैं।

फिल्मोत्सवमें बल्ली सिंह चीमा का एकल काव्य पाठ भी आयोजित है। साथ ही चर्चित लघु फिल्में भी दिखाई जाएंगी। सिनेमा के सौ साल पर प्रदर्शनी के साथ ही भारतीय डॉक्यूमेंट्री फिल्म निर्माण की यात्रा पर ऑडियो-विजुअल प्रस्तुति भी होगी।साथ ही फिल्मोत्सव की पहली फिल्म मिलांगे बाबे रतन दे मेले ते का भारत में पहला प्रदर्शन भी है। बथानी टोले के हाइकोर्ट के फैसले के बाद संबंधित जगहों-लोगों पर विचार करती महत्वपूर्ण वीडियों भी है।


सरोज युवा पत्रकार हैं. पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी पटना में एक दैनिक अखबार में काम . 
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.


रिलायंस के हाथ 'बनाना' लोकतंत्र

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कृष्ण सिंह

"...यदि स्टॉक एक्सचेंज अंबानी को बेनकाब करने की हिम्मत करता है, वह कहते हैं,   'मैं अपनी कंपनी के शेयर निकाल लूंगा और तुम्हें ढहा दूंगा। मैं तुम्हारे एक्सचेंज से बड़ा हूं।' यदि अखबार आलोचना करते हैं तो वह याद दिलाते हैं,  'तुम हमारे विज्ञापनों पर निर्भर हो।' हैं, और उनके विभागों में उनके "अपने" पत्रकार हैं। यही नहीं शायद ही कोई बड़ा अखबार हो जहां उनके `अपनेपत्रकार न रहे हों। यदि राजनीतिक दल उनके खिलाफ खड़े होते हैं, तो हर दल में उनके आदमी हैं, जो डोर खींच सकते हैं और सरकारों को ढहा सकते हैं। कुछ नहीं तो नेताओं को शर्मिंदा कर उनकी विश्वसनीयता मिट्टी में मिला सकते हैं। व्यवस्था उनके लिए है। आज वह अजेय हैं।..."



Cartoon: Reliance controversy and UPAइस बार हुए मंत्रिमंडलीय हेर-फेर ने कांग्रेसी नेतृत्ववाली सरकार और उसके प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की शक्ति और क्षमता को पुनर्स्थापित किया हो या न हो, पर इस सच्चाई को बहुत ही मोटे-मोटे शब्दों में स्थापित कर दिया कि आज के भारत में सरकार से ज्यादा ताकतवर अंबानी बंधु हैं। वे जब चाहें किसी भी मंत्री को हटा या बना सकते हैं और उनकी इस ताकत से प्रधानमंत्री भी परे नहीं हैं।

दुनियाके सबसे बड़े पूंजीवादी देश संयुक्त राज्य अमेरिका में आज भी आप सुपर कॉरपोरेशन बना सकते हैं, लेकिन राजनीतिक व्यवस्था अभी भी इनसे बड़ी है। पर भारत में जो हो रहा है वह उस भयावह निकट भविष्य का संकेत देता है जब हमारी यह कमजोर व्यवस्था लातिन अमेरिकी कुख्यात `बनाना रिपब्लिक` से भी बद्दतर स्थिति में पहुंच जाएगी। कैसे ? तो देखिए।

यदिस्टॉक एक्सचेंज अंबानी को बेनकाब करने की हिम्मत करता है, वह कहते हैं,  ``मैं अपनी कंपनी के शेयर निकाल लूंगा और तुम्हें ढहा दूंगा। मैं तुम्हारे एक्सचेंज से बड़ा हूं।``यदि अखबार आलोचना करते हैं तो वह याद दिलाते हैं,  ``तुम हमारे विज्ञापनों पर निर्भर हो।' हैं, और उनके विभागों में उनके ``अपने``पत्रकार हैं। यही नहीं शायद ही कोई बड़ा अखबार हो जहां उनके `अपने` पत्रकार न रहे हों। यदि राजनीतिक दल उनके खिलाफ खड़े होते हैं, तो हर दल में उनके आदमी हैं, जो डोर खींच सकते हैं और सरकारों को ढहा सकते हैं। कुछ नहीं तो नेताओं को शर्मिंदा कर उनकी विश्वसनीयता मिट्टी में मिला सकते हैं। व्यवस्था उनके लिए है। आज वह अजेय हैं।

पॉलिएस्टर राजकुमार की कहानी

जोआज हम देख रहे हैं वे बाते आज से लगभग डेढ़ दशक पहले धीरुभाई अंबानी के संदर्भ में कही गई थीं। किताब थी पॉलिएस्टर प्रिंस : द राइज ऑफ धीरुभाई अंबानी।सरकारों, मीडिया और अफसरशाही में जबरदस्त घुसपैठ के जरिए किस तरह से उन्होंने अपनी और रिलायंस की ``प्रगति की मंजिल``तैयार की उसका ब्यौरा ऑस्ट्रेलियाई पत्रकार हेमिश मेकडॉनाल्ड ने 1998 में प्रकाशित अपनी इस पुस्तक में दिया है। इसको धीरुभाई के बेटों मुकेश और अनिल अंबानी ने भारत के बाजार तक नहीं पहुंचने दिया था। अंबानी बंधु अपने पिता और रिलायंस इंडस्ट्रीज के प्रगति के कारनामों की कहानी को भारत की जनता के सामने बेनकाब नहीं होने देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कानूनी दांवपेच का सहारा भी लिया। बाद में हेमिश मेकडॉनाल्ड ने ``अंबानी एंड सन्स``पुस्तक लिखी जो भारत के बाजारों में उपलब्ध है। जाहिर है इस पुस्तक का स्वर पॉलिएस्टर प्रिंस से एकदम भिन्न था। पर पुस्तकों को प्रतिबंधित करने या रोकने से सच्चाई बदल नहीं जाती है। धीरुभाई के बेटों ने उनकी ही ``परंपरा``को आगे बढ़ाया। इस ``परंपरा``के सबसे ताजा शिकार बने हैं केंद्रीय मंत्री जयपाल रेड्डी। उन्हें पिछले दिनों प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कैबिनेट फेरबदल-विस्तार में पेट्रोलियम मंत्रालय से हटाकर एक बहुत मामूली मंत्रालय में इसलिए दंडस्वरुप पटक दिया क्योंकि वह आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र में कृष्णा गोदावरी-डी 6 गैस ब्लॉक के मामले में रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड (आरआईएल) के मालिक मुकेश अंबानी की शर्तों के आगे झुकने को तैयार नहीं थे।

सीएजीभी केजी बेसन रिपोर्ट में गंभीर सवाल उठा चुकी है। कृष्णा गोदावरीडी-6 ब्लॉक से संबंधित ऑडिट रिकॉर्डों और सूचनाओं को देने में आरआईएल आनाकानी करती रही है। उसके रवैये से नाराज सीएजी ने पेट्रोलियम मंत्रालय को कहा था कि वह मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाली कंपनी को दी गई मंजूरियों (आपातकालीन स्थितियों को छोड़कर) को रोक ले। सीएजी रिलायंस से ऑडिट के लिए जो रिकॉर्ड मांग रहा है उसे कंपनी नहीं दे रही है।  अंग्रेजी दैनिक`` द हिंदू`` ने 17 नवंबर को सरकारी सूत्रों के हवाले से लिखा कि सीएजी ने मंत्रालय से कहा है, ``रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड को तुरंत निर्देश दे कि 2012 तक के केजी डी-6 ब्लॉक के सभी कागजात ऑडिट के लिए जमा करे, क्योंकि पूंजीगत व्यय में किसी भी प्रकार की बढ़ोतरी सरकार के हित में नहीं होगी। नवंबर के शुरू में सीएजी ने रिलायंस द्वारा ऑडिट के लिए रखी गयी प्रतिबंधक शर्तों पर गहरी आपत्ति की थी। पेट्रोलियम मंत्रालय से जयपाल रेड्डी को हटाने से दो दिन पहले सीएजी ने पेट्रोलियम सचिव जीसी चतुर्वेदी को 26 अक्टूबर को लिखे पत्र में कहा था कि उसे शर्तें अस्वीकार्य हैं।``

दरअसल, जयपाल रेड्डी के प्रभार के दौरान पेट्रोलियम मंत्रालय ने रिलायंस के केजी-डी 6 गैस ब्लॉक में गैस के उत्पादन में कमी का मुद्दा उठाया था और एक अरब डॉलर का दंड लगाया था। मंत्रालय का आकलन था कि रिलायंस का उत्पादन प्रतिदिन औसतन 70 मीलियन मीट्रिक स्टेंडर्ड क्यूबिक मीटर्स (एमएमएससीएमडी) होना चाहिए था, लेकिन वित्तीय वर्ष 2011-12 में यह 42 एमएमएससीएमडी था। मंत्रालय ने इंगित किया कि इसके कारण सरकारी खजाने को प्रत्यक्ष 20 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। आने वाले वर्षों में सरकारी खजाने को 45 हजार करोड़ रुपए के नुकसान होने की बात कही थी। पर रिलायंस कह रहा है कि वह सीएजी की परिधि में नहीं आता है। उसका कहना है कि सरकार के साथ उसका अनुबंध केवल गैस फील्ड के वित्तीय ऑडिट की बात करता है और परफॉरमेंस ऑडिट के लिए कोई शर्त नहीं है। हालांकि मंत्रालय ने 2007 में विशेष मामले के तहत आठ ब्लॉकों के अनुबंध के सीएजी द्वारा ऑडिट के आदेश दिए थे, इनमें रिलायंस भी शामिल था। सीएजी ने ऑडिट की पहली रिपोर्ट 2011 के अगस्त में सौंपी थी। इसमें 2006-07 और 2007-08 के रिकॉर्डों का निरीक्षण किया गया था। सीएजी ने आरोप लगाया था कि सरकार का रुख रिलायंस के प्रति बहुत ही नरम है।

बढ़ी लागत का रहस्य

तमाम विवादों के वाबजूद रिलायंस गैस की कीमत वर्तमान 4.2 डॉलर प्रति यूनिट मूल्य से सीधे तीन गुना से भी ज्यादा 14. 2 डॉलर से लेकर 14.5 डॉलर प्रति यूनिट करना चाहता है। वह लगातार सरकार पर दबाव डाल रहा है। इसके लिए ऑपरेशनल लागत में बढ़ोतरी को आधार बनाया जा रहा है। मजेदार यह है कि कंपनी ऑपरेशनल लागत का ऑडिट नहीं होने देना चाहती है। जयपाल रेड्डी के बाद पेट्रोलियम मंत्री बने वीरप्पा मोइली का यह बयान कि हम रिलायंस या सरकार और सीएजी के लिए समस्याएं पैदा नहीं करना चाहते हैं, अपने आप में बहुत कुछ इशारा करता है। मीडिया की एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक तत्कालीन पेट्रोलियम मंत्री जयपाल रेड्डी की निगरानी में तैयार किया गया एक नोट वापस ले लिया गया है। इस नोट में कहा गया था कि मंत्रालय रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड द्वारा अपने आंध्र के तटीय गैस फील्ड में गैस की कीमतों में समय से पहले बढ़ोतरी करने के प्रयासों का विरोध करता है। आरआईएल पर आरोप है कि उसने केजी-डी 6 गैस ब्लॉक में जानबूझकर उत्पादन कम किया है, ताकि वह कीमतों के फिर से निर्धारण होने पर अधिक मुनाफा कमा सके। जैसा कि इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के अरविंद केजरीवाल का कहना है कि यदि गैस की कीमतों को बढ़ाया जाता है तो उत्पादन के वर्तमान स्तर पर कंपनी को 43 हजार करोड़ रुपए का अतिरिक्त मुनाफा होगा। असल में आरआईएल के साथ सरकार का यह ऐसा अजीबोगरीब अनुबंध है जिसमें सरकार घाटे की हिस्सेदार है और रिलायंस बड़े स्तर पर मुनाफे का हकदार बना हुआ है। जाहिर है यह रिलायंस की ताकत को दर्शाता है। वह सरकार से जैसा चाहे वैसा करा सकता है। जब मुरली देवड़ा पेट्रोलियम मंत्री थे तो स्थितियां रिलायंस के पक्ष में थी। देवड़ा ने आरआईएल को पूंजीगत व्यय 2.39 अरब डॉलर से बढ़ाकर 8.8 अरब डॉलर करने की अनुमति दे दी थी और गैस की कीमत 2.43 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू से बढ़ाकर 4.2 डॉलर प्रति एमएमबीटीयू कर दी थी। सीएजी ने अपनी रिपोर्ट में इस पर आपत्ति जतायी थी।

मुकेशअंबानी यही चाहते थे कि जिस तरह से मुरली देवड़ा रिलायंस के प्रति हमदर्दी वाला रवैया रखते थे वैसा ही जयपाल रेड्डी भी करें। असल में, मुरली देवड़ा और रिलायंस का काफी पुराना साथ रहा है। तब धीरूभाई का व्यापारिक साम्राज्य इतना बड़ा नहीं था। देवड़ा भी उतने बड़े नेता नहीं थे औरपॉलिएस्टर के व्यापारी थे। वह बंबई में कांग्रेस पार्टी संगठन में अपना रास्ता बना रहे थे। बाद में वह मेयर बने और उसके बाद दक्षिण बंबई संसदीय क्षेत्र से कई वर्षों तक कांग्रेस के सांसद रहे और केंद्र में मंत्री भी बने। देवड़ा और धीरुभाई की व्यावसायिक दोस्ती का जिक्र पॉलिएस्टर प्रिंस पुस्तक में बढ़ा ही मजेदार है। उन दिनों धीरुभाई अक्सर बंबई (मुंबई) से दिल्ली आते थे। बहुत सारी यात्राओं में उनके साथ मुरली देवड़ा भी होते थे। धीरुभाई और देवड़ा दिल्ली के लिए सुबह-सुबह की फ्लाइट पकड़ते थे। दिल्ली में दोनों आयात के लाइसेंसों के फैसलों को जल्दी से जल्दी कराने के लिए नेताओं और अफसरशाहों के पास चक्कर लगाते थे। शाम को ही बंबई लौट जाते थे। बाद में धीरूभाई दिल्ली के अशोक होटल में पहले से ही कमरा बुक करा लेते थे। अब उनका भतीजा रसिक मेसवाणी भी सक्रिय लॉबिंग के लिए दिल्ली आने लगा था। बाद के दिनों में उन्होंने दिल्ली में रिलायंस के पूर्णकालिक लॉबिस्ट के रूप में एक चतुर दक्षिण भारतीय वी. बालसुब्रमण्यम को रख लिया था। विभिन्न तरीकों से अंबानी की कंपनी के हितों में मदद करने वाले छोटे अफसरशाहों, पत्रकारों और अन्य लोगों को वह अपनी फैक्टरी में बने सूट और साड़ी देते थे। उन्होंने ही बड़े पैमाने पर राजनीतिक चंदा देने का रास्ता अपनाया। इससे साफ है कि लॉबिंग का यह खेल वर्षों पहले से चला आ रहा था। उन दिनों टाइम्स ऑफ इंडियाके संपादक गिरीलाल जैन भी विवाद में फंसे थे, जिसका कारण उन्हें सस्ते में दिए गए रिलायंस के शेयरों का प्रकरण था। कॉरपोरेट लॉबिस्ट नीरा राडिया प्रकरण इसका नया अध्याय है।

मां बदौलत की सेवा में

धीरुभाईअंबानी ने लाइसेंस राज और आर्थिक उदारीकरण, दोनों में ही हर तरह के रास्ते से जमकर फायदा उठाया। रिलायंस को इतनी ऊंचाई तक पहुंचाने में राजनीतिक दलों, अफसरशाहों, मंत्रियों, नेताओं, सरकारों और मीडिया ने धीरुभाई का पूरी वफादारी से साथ दिया। धीरुभाई का एक जुमला काफी चर्चित हुआ था। यह अस्सी के दशक का वाकया है। उस समय धीरुभाई अंबानी और नुस्ली वाडिया के बीच कॉरपोरेट लड़ाई चरम पर थी। उसी दौरान इंडियन एक्सप्रेस समूह के मालिक रामनाथ गोयनका के साथ एक मुलाकात में धीरुभाई अंबानी ने कहा था कि उनके एक हाथ में सोने का और दूसरे हाथ में चांदी का जूता होता है। व्यक्ति की औकात के हिसाब से वह जूता उस पर मारते हैं। हालांकि इस तरह की बात से धीरुभाई ने इनकार किया था। सच्चाई जो भी हो, पर सरकारों में उनके आदमी उनके लिए सकारात्मक माहौल तैयार करने में पूरी मदद करते हैं। जो अवरोध बनता है वह बाहर हो जाता है। अफसरशाहों को रिटायरमेंट के बाद नौकरी देने, उनके बेटों के करिअर में मदद करने की लुभावनी पेशकश भी काफी मदद करती है।  इसका नवीनतम उदाहरण कांग्रेस सांसद अनु टंडन के पति संदीप टंडन का है। इंडिया अगेन्स्ट करप्शन के कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल ने जिन स्विस बैंक खातों में काले धन का खुलासा किया है उनमें अनु टंडन और संदीप टंडन के भी खाते हैं। दोनों के खातों में 125-125 करोड़ रुपए होने का खुलासा केजरीवाल ने किया। संदीप टंडन ज्यूरिख में रहते थे और कुछ समय पहले उनका वहां देहांत हो गया था। जिस सॉप्टवेयर कंपनी मोटेक के संदीप टंडन निदेशक थे उसमें अंबानी के 21 सौ करोड़ रुपए के शेयर थे। केजरीवाल का कहना है कि संदीप टंडन प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) में अधिकारी थे और उन्होंने रिलायंस इंडस्ट्रीज पर छापे डाले थे। बाद में वह मुकेश अंबानी के काफी आ गए थे। अब उनके दो बेटे आरआईएल में काफी वरिष्ठ पदों पर हैं। संदीप टंडन, जो कि राजस्व सेवा के अधिकारी थे, आरआईएल को टैक्स संबंधी मामलों में सलाह देते थे।

कुछइसी तरह का एक वाकया अस्सी के दशक के शुरू का है। वाडिया और अंबानी की जंग में जब नुस्ली ढाई साल के प्रयासों के बाद 1981 में डीएमटी प्लांट के लिए लाइसेंस पाने में कामयाब हुए तो उनका शिपमेंट बंबई पहुंचा। लेकिन सीमा शुल्क विभाग ने इसे हरी झंडी देने में चार हफ्ते लगा दिए थे। उस समय बंबई के सीमा शुल्क कलेक्टर एस श्रीनिवासन थे। उन्होंने सभी चीजों का सौ फीसदी निरीक्षण का आदेश दिया था। कुछ वर्षों बाद सीमा शुल्क की नौकरी छोड़ने के बाद वह रिलायंस में सलाहकार के तौर पर रख लिए गए थे। उन्हें धीरुभाई की स्वामीभक्ति का प्रतिफल मिला था।

कांग्रेसके कद्दावर नेता और वर्तमान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी को भी रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड का काफी करीबी माना जाता रहा है। जैसा कि मीडिया रिपोर्टों में कहा गया है कि वित्त मंत्री और ईजीओएम के मुखिया के तौर पर प्रणव मुखर्जी ने पेट्रोलियम मंत्रालय पर लगातार यह दबाव डाला कि वह रिलायंस को केजी बेसिन में उसकी लागत को वसूल करने में मदद करे। पॉलिएस्टर प्रिंस के लेखक हेमिश मेकडॉनाल्ड ने आउटलुक पत्रिका के 2 जुलाई 2012 के अंक में एक साक्षात्कार में कहा,  `` बहुत समय पहले जब वह (प्रणव मुखर्जी) वाणिज्य मंत्री थे तब वह धीरुभाई अंबानी के मित्र थे और सारे आयात-निर्यात के लाइसेंस (रिलायंस को) दिया करते थे। और फिर इंदिरा गांधी की सरकार में एक वित्त मंत्री के रूप में -  आइल ऑफ मैन कंपनियों ( 1979-82), डमी कंपनियों और रिलायंस के शेयर रहस्यमय रूप से चढ़ते हैं। यह सब पॉलिएस्टर में इस्तेमाल होने वाले कच्चले माल पर आयात शुल्कों को लेकर तरजीह व्यवहार के रूप में भी देखा गया। जैसे कि बॉम्बे डाइंग बनाम रिलायंस का मामला... वो सब अब एक पुराना इतिहास हो गया है। फिर राजीव का दौर आया। जब राजीव ने 1984-85 में कांग्रेस की एक शाखा बनाई ; उन्होंने  मुखर्जी को कांग्रेस के पुराने सरदर्द के रूप में देखा। पर अंतत:मुखर्जी पार्टी में दोबारा लौटे और पार्टी के निष्ठावन भालाबरदार बन गए। और जाहिर है 1990 के दशक और उसके बाद उन पर सोनिया की काफी दृष्टि रही। साझेदारी का दूसरा बड़ा आरोप तब लगा जब मुखर्जी उस मंत्रिमंडलीय समिति के प्रमुख बने जो बंगाल की खाड़ी के गैस फील्ड और गैस की कीमतों को संचालित कर रहे थे। इस स्तर के बाद सारा तार मुकेश अंबानी के समूह में जा मिला था। तो लोग मुखर्जी और मुरली देवड़ा ( जो तब पेट्रोलियम मंत्री थे) को रिलायंस की दूसरी पीढ़ी के मित्रों के रूप में देखने लगे थे।``

चमत्कारिक उत्थान

धीरुभाईकी कंपनी का 1980 के दशक के शुरुआती वर्षों में जिस तरह से चमत्कारिक उत्थान हुआ उससे यही कहा जा सकता है कि जनता पार्टी की सरकार के पतन के बाद इंदिरा गांधी की सत्ता वापसी में उनके लिए स्वर्णिम साबित हुई। वर्ष 1979 में उनकी कंपनी मुश्किल से भारत की पचास बड़ी कंपनियों में अपनी जगह बना पाई थी। लेकिन 1984 तक रिलायंस की हर तरफ चर्चा थी। अक्टूबर 1980 में पॉलिएस्टर फिलमेंट यार्न के उत्पादन के सरकार ने जो तीन लाइसेंस दिए थे उनमें से एक धीरुभाई को मिला था। कहा जाता है कि जनता पार्टी के शासनकाल में धीरुभाई अंबानी ने इंदिरा गांधी और अन्य कांग्रेसी नेताओं का विश्वास हासिल कर लिया था, जिसका बाद में उन्होंने भरपूर फायदा उठाया। कहा यह भी जाता है कि जनता पार्टी की सरकार को चरण सिंह के जरिए गिरवाने में कांग्रेस के साथ धीरुभाई अंबानी ने भी काफी मशक्कत की थी। अस्सी के दशक में इंदिरा के कार्यकाल में राजनीतिक और अफसरशाही के गलियारों में इस तरह की चर्चा सुनाई देती थी कि वित्त मंत्रालय में किसी दस्तावेज या फाइल पर हस्ताक्षर होने से पहले ही धीरुभाई को सूचना मिल जाती थी, क्योंकि प्रणव मुखर्जी को रिलायंस के काफी करीब माना जाता था। मुखर्जी और धीरुभाई की करीबी को उस समय अंग्रेजी साप्ताहिक पत्रिका की एक स्टोरी के शीर्षक- `प्रणव मुखर्जीस स्लोगन : ऑनली विमल`  ( प्रणव मुखर्जी का नारा : सिर्फ विमल)  से भी समझा जा सकता है।

इसकेअलावा उस समय प्रधानमंत्री कार्यालय में आरके धवन की काफी तूती बोलती थी। वह इंदिरा गांधी के निजी सचिव थे। उन्हें भी धीरुभाई का काफी करीबी माना जाता था। धवन से उनकी नजदीकी का कारण यशपाल कपूर थे। यशपाल कपूर भी इंदिरा गांधी के निजी सचिव रहे थे। पहले वह चाय बनाने का काम करते थे। 1971 के बाद कपूर की भूमिका में चमत्कारिक परिवर्तन हुआ था। पीएमओ में कपूर का भ्रष्टाचार एक दंतकथा बन चुकी थी। यहां तक कहा जाता था कि कपूर चाहें किसी भी पेपर पर इंदिरा के हस्ताक्षर करवा सकते हैं। कपूर ने संजय गांधी का विश्वास भी हासिल कर लिया था। यशपाल जब पीएमओ से बाहर हुए तो उन्होंने अपने भांजे आरके धवन की अपनी जगह पर बैठा दिया। धवन ने तेजी से अपने मामा से ज्यादा ताकत हासिल करने में देरी नहीं लगाई। दोनों ने मिलकर इस व्यापक देश में संरक्षण को चालाकी से इस्तेमाल किया था। पॉलिएस्टर प्रिंस में इसका जिक्र कुछ इस तरह से है कि धीरूभाई ने न केवल यशपाल कपूर का इस्तेमाल किया, बल्कि एक पुराने परिचित का कहना था कि अंबानी ने कपूर को खरीद लिया था। बाद में यह संबंध आरके धवन तक पहुंचा। धवन इंदिरा और बाद में राजीव के समय पीएमओ में थे। वह मंत्री भी बने। इन वर्षों में धीरुभाई ने विभिन्न दलों के नेताओं के साथ संबंध विकसित कर लिए थे। लेकिन उनके मजबूत संबंध हमेशा कांग्रेस के भीतर गांधी मंडली के साथ रहे।

स्विट्जरलैंड पहुंचे तार

हालांकिराजीव के प्रधानमंत्रित्व काल का शुरू का समय धीरुभाई अंबानी के लिए काफी प्रतिकूल था। राजीव सरकार में विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी सिंह) वित्त मंत्री थे। उन्होंने रिलायंस के गड़बड़ घोटालों की छानबीन शुरू कर दी थी। दूसरी तरफ रामनाथ गोयनका के अखबार इंडियन एक्सप्रेस ने भी अंबानी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया था। वीपी सिंह के निर्देश में जो जांच चल रही थी उसमें एक ऐसा मोड़ आया जिसके बारे में कहा जाता है कि इसने राजीव और वीपी सिंह को एक-दूसरे से काफी दूर कर दिया। कहा जाता है कि जांच के तार स्विट्जरलैंड में अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ बच्चन तक पहुंच रहे थे। अमिताभ राजीव के बचपन के मित्र थे और गांधी परिवार के काफी करीबी थे। कांग्रेसियों ने मामले को कुछ इस तरह का रंग दिया कि वीपी सिंह राष्ट्र की संप्रभुता को खतरे में डाल रहे हैं। उन्हें वित्त मंत्रालय से हटाकर रक्षा मंत्रालय में भेज दिया गया था। कहा जाता है कि इस सब के बीच अमिताभ बच्चन ने धीरुभाई अंबानी की मुलाकात राजीव गांधी से करवाई। वीपी सिंह ने रक्षा मंत्रालय में पहुंचकर बोफोर्स तौप सौदे में दलाली का मामला उजागर करना शुरू कर दिया था। जिसके तार बाद में राजीव गांधी तक पहुंचे। हालांकि वह कानूनी कार्यवाही में निर्दोष साबित हुए, लेकिन उस समय भ्रष्टाचार के मामले में कांग्रेस को सत्ता से बाहर होना पड़ा था। कहा जाता है कि इसका पूरा फायदा धीरुभाई ने उठाया। उन्होंने केंद्र में वीपी सिंह की सरकार को गिराने और सत्ताधारी दल जनता दल को तोड़ने में राजीव गांधी के साथ मिलकर अहम भूमिका निभाई थी। जिसमें कांग्रेस और धीरुभाई सफल भी हुए। जनता दल में विभाजन हुआ और कांग्रेस के समर्थन से चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने। एक बार फिर धीरुभाई कांग्रेस के खास आदमी हो गए थे।

उदारीकरण के उदय के दौर में

बादका इतिहास जगजाहिर है। नरसिंह राव की सरकार से आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू हुआ। राव के उदारीकरण के प्रमुख लोगों में से एक मनमोहन सिंह ( जो राव सरकार में वित्त मंत्री थे) वर्ष 2004 से देश के प्रधानमंत्री हैं।

आर्थिकउदारीकरण वाले भारत में बहुत सारे पर्यवेक्षकों के मन-मस्तिष्क में दो छवियां इसकी प्रतीक हैं कि यहां कारोबार कैसे होता है। ये छवियां दिखाती हैं कि मुकेश और अनिल अंबानी दिल्ली के लुटियन के बलुआ पत्थरों से बने कार्यालयों में शीर्ष अधिकारियों से मिलने आते ( और जाते) हैं। इस तरह की ``शिष्टाचार मुलाकातें``अरबों डॉलर के स्वामित्व वाले दो उद्योगपतियों की अपने व्यवसायों को बढ़ाने के वास्ते ``वातावरण को अपने अनुकूल करने``के लिए परंपरागत रूप से राजनीति और सरकार पर बहुत अधिक पकड़ की ओर इशारा करती हैं। ( आउटलुक पत्रिका, 26 नवंबर 2012)।

आजरिलायंस का कारोबार भारत में सबसे बड़ा है। इसका इस समय रिलायंस का मार्केट कैपिटलाइजेशन ( बाजार पूंजीकरण) 47 अरब डॉलर का है। आरआईएल के मालिक मुकेश अंबानी भारत में अरबपतियों के क्लब में पहले नंबर पर हैं। मुकेश अंबानी के कारोबारी हित पेट्रोकेमिकल्स, तेल, प्राकृतिक गैस, पॉलिएस्टर फाइबर,  सेज, फ्रेश फूड रिटेल, हाई स्कूल, लाइफ सांइसेज रिसर्च और स्टेम सेल स्टोरेज सर्विसेज से जुड़े हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड ने हाल ही में इंफोटेल में 95 प्रतिशत शेयर खरीदे हैं। यह एक टेलीविजन कॉनसोर्टियम (संकाय) है जो कि 27 टीवी न्यूज और मनोरंजन चैनलों को नियंत्रित करता है। वह हर तरफ हैं। मुकेश अंबानी ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य ( जो कि एनडीए के शासनकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय में कॉनी कैपिटलिजम के सिरमौर बन गए थे) से सच ही कहा था कि कांग्रेस तो उनकी दुकान है। यदि कहा जाए कि लगभग हर राजनीतिक दल उनकी दुकान बन चुका है तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह अजब है कि जो मीडिया अपने को लोकतंत्र का चौथा पाया कहता है वह केजी बेसन के मामले में एक तरह से खामोश ही रहा। सीएजी द्वारा उठायी गयी आपत्तियों के बाद भी किसी मीडिया हाउस ने रिलायंस के मामले में पत्रकारीय पड़ताल क्यों नहीं की। रिलायंस को बेनकाब क्यों नहीं किया गया। उधर राजनीतिक दलों, खासकर विपक्षी दलों, ने केजी बेसन मामले में रिलायंस का पर्दाफाश क्यों नहीं किया ?क्यों नहीं इस मुद्दे पर संसद में ध्यानाकर्षण प्रस्ताव आया ?सिर्फ वामपंथ की ओर से माकपा सांसद तपन सेन ने पिछले दस महीनों में प्रधानमंत्री को आठ पत्र लिखे थे। हकीकत यह है कि राजनीतिक दल अगर रिलायंस के खिलाफ मोर्चा खोलेंगे तो उनके बहुत सारे नेता बेनकाब हो जाएंगे। जैसा कि कहा जाता है कि रिलायंस के हर दल में हितैषी हैं। रिलायंस धीरुभाई के इस मंत्र पर चलता है- ``कोई स्थायी दोस्त नहीं होता है। कोई स्थाई दुश्मन नहीं होता है। हर किसी का अपना स्वार्थ होता है। एक बार जब आप यह मान लेते हैं, तो हर कोई खुशहाल होगा।``

अगरऐसा नहीं होता तो चोरवाड़ से एक शिपिंग कंपनी में अदनी सी नौकरी से सफर शुरू करने वाले धीरुभाई अंबानी भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का अपने हित में इतने नग्न रूप में दोहन नहीं कर पाते। व्यवस्था की कमजोरियों का फायदा उठाना तो उन्होंने अपने शुरुआती दिनों से शुरू कर दिया था। वाकया कुछ इस तरह का है। 1950 के दशक के शुरू में अरेबियन किंगडम ऑफ यमन के ट्रेजरी के अधिकारियों ने गौर किया कि उनके देश की मुद्रा के साथ कुछ विचित्र हो रहा है। ठोस चांदी का सिक्का, जिसे रियाल कहा जाता है, प्रसार से गायब हो रहा है। वे गायब हो रहे सिक्कों की खोज करते हुए अदन के व्यापारिक पोर्ट तक पहुंचे। जांच पड़ताल से पता चला कि एक भारतीय क्लर्क, जिसका नाम धीरूभाई अंबानी है और जो कि बीस साल की उम्र के आसपास है, ने अदन के बाजार से जितने भी रियाल थे उन्होंने खरीदने का खुला ऑर्डर दिया है। अंबानी ने यह पाया था कि रियाल का ब्रिटिश पाउंड और अन्य विदेशी मुद्राओं से विनिमय मूल्य से ज्यादा की चांदी है। इसके बाद उन्होंने रियाल को खरीदना शुरू कर दिया। उन्होंने इन सिक्कों की पिघलाया और इसकी चांदी को लंदन में सोने-चांदी के डीलरों को बेच दिया। इससे उन्होंने कुछ लाख रुपए बनाए।

यमनके खजाने के अधिकारियों ने उस समय हो रही गड़बड़ी की खोजबीन की थी, लेकिन भारत में खजाने के रखवाले सब कुछ जानते हुए भी खामोश रहे और रिलायंस की प्रगति में अपनी प्रगति देखी। इसका प्रतिफल सामने है : धीरुभाई के बेटे भी भारत सरकार से ज्यादा ताकतवर हो चुके हैं। धीरुभाई की तरह ही व्यवस्था के लिए अजेय।



कृष्ण सिंह पत्रकार हैं. लंबे समय तक अखबारों में काम. 
अभी पत्रकारिता के अध्यापन में.
इनसे संपर्क का पता krishansingh1507@gmail.com है.

जहरीली शराब कांड: पीने वाले दोषी हैं या बेचने वाले?

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सुधीर सुमन

15 दिसंबर को बिहार में अखिल भारतीय खेत मजदूर सभा, भाकपा-माले की ओर से शराबबंदी की मांग को लेकर चक्का जाम का आंदोलन आयोजित किया गया और शाहाबाद बंद आयोजित किया गया। विगत 6 से 10 दिसंबर को शाहाबाद क्षेत्र के भोजपुर जिला मुख्यालय आरा में तीस से अधिक लोग जहरीली शराब से असमय मौत के शिकार हो गए। इसके पहले इसी साल के शुरू में शाहाबाद क्षेत्र के ही भाकपा-माले के रोहतास जिला सचिव भैयाराम यादव की हत्या सत्ता संरक्षित अपराधियों ने कर दी थी। उन्होंने शराब भट्ठियों के खिलाफ जनांदोलन का नेतृत्व किया था। पिछले कुछ महीनों में बिहार में विभिन्न जगहों से शराब की व्यापक बिक्र्री के खिलाफ जनप्रतिवाद की घटनाएं सामने आने लगी हैं। आरा के बाद गया में हुई जहरीली शराब से मौतों के बाद शराबबंदी को लेकर फिर से बहस शुरू हो गई है। लेकिन इस बीच मुख्यमंत्री का जो बयान आया उसमें मृतकों के प्रति शोक संवेदना के बजाए कारोबार के तर्क केंद्र में थे। कल मुझे पता चला कि जिला प्रशासन संस्कृतिकर्मियों को लेकर गरीबों के बीच शराब न पीने के लिए जागरूकता अभियान चला रहा है यानी गांव-गांव तक फैले शराब बिक्री के नेटवर्क को खत्म करने के बजाए ये सुधार कार्यक्रम के जरिए स्थिति पर काबू पाना चाहते हैं। यहां पेश है जनमत दिसंबर में प्रकाशित हो रही एक लंबी टिप्पणी का अंश।                                                           सुधीर सुमन 


भोजपुर में यह पहली घटना है न बिहार में, जब जहरीली शराब पीने से गरीब मजदूर लोग मरे हैं। इसके पहले भी इसी साल अरवल, छपरा और मुजफ्फरपुर जिलों में इस तरह की मौतें हो चुकी हैं। ३-४ मौतों पर पर्दा डाल देना तो प्रशासन के लिए बहुत आसान होता है। कुछ लोग आरा की घटना को शराब के सरकारी डिपो के बंद होने से जोड़ रहे हैं कि इसी कारण अवैध शराब के कारोबारियों को मौका मिला। कुछ सुधारवादी लोग मृतकों को ही दोषी ठहरा रहे हैं कि उन्होंने शराब क्यों पीया। एक युवक ने बताया कि जो गरीब-मेहनतकशों के इलाके हैं वहीं शराब की भट्ठियां और दुकानें ज्यादा मौजूद हैं। उदाहरण के लिए उसने कुछ इलाकों का जिक्र भी किया। लेकिन असल मामला यह नहीं है कि सरकारी डिपो बंद होने के कारण अवैध कारोबारियों को आरा में मौका मिल गया, बल्कि जिस तरह नितीश कुमार की सरकार और प्रशासन ने शराब बेचने की खुली छूट दे रखी है, उससे बिक्री के बहुत बड़े हिस्से पर अवैध कारोबारियों का कब्जा बना है। जाहिर है इस कमाई में सबका अपना अपना हिस्सा होता होगा। बिहार में शराब की खपत इसलिए नहीं बढ़ी कि अचानक उसकी मांग बढ़ गई थी, बल्कि उसे सर्वसुलभ बनाकर दैनिक जरूरत की तरह बनाया गया है। उसे एक ऐसे जबर्दस्त मुनाफे के धंधे की तरह विकसित किया गया है, जिसमें गांव और मुहल्लों के जनप्रतिनिधि और दबंग तक शामिल हैं। यह शासकवर्गीय ट्रैप है, जिसमें गरीब धनपिशाचों की स्वार्थलिप्सा की भेंट चढ़ रहे हैं। अखबारों में प्रकाशित आंकड़ों का यकीन करें तो जितनी सरकारी शराब की खपत है उससे 8 गुना अधिक शराब लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। सवाल है कि बाकी शराब की आपूर्ति कौन कर रहा है? कुछ साल पहले सरकार के ही एक मंत्री जमशेद अशरफ ने जब उत्पाद विभाग पर माफियाओं के कब्जे और राजस्व के भारी नुकसान की बात की थी, तो उन्हें अपने मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा था। बिल्कुल साफ है कि अवैध शराब के कारोबार से जुड़े माफियाओं के हाथ कितने लंबे हैं। अभी हाल में एक बुजुर्ग नेता और पूर्व मंत्री हिंदकेशरी यादव पर इसी तरह जहरीली शराब से हुई दस लोगों की मौत और इस कारोबार को मिल रहे पुलिसिया संरक्षण के विरोध के कारण मुजफ्फरपुर के आयुक्त कार्यालय के हाते में शराब माफियाओं ने जानलेवा हमला किया था। यह सब उनके बढ़े हुए मनोबल को ही दर्शाता है।

शर्मनाकयह है कि एक ओर गरीब, महादलित, पिछड़े, अल्पसंख्यक और महिलाओं की मौत हो रही थी और दूसरी ओर सुशासन का दावेदार हुकूमत के नशे में डूबा हुआ था। छह दिसंबर की रात से नौ दिसंबर की रात तक लोग दम तोड़ते रहे, पर नीतीश कुमार चुप्पी साधे रहे। जब उनकी चुप्पी टूटी, तब भी उनकी जुबान पर मृतकों के प्र्रति शोक संवेदना के बजाए कारोबार के तर्क थे। वे बता रहे थे कि व्यक्तिगत तौर पर वे शराबबंदी के पक्षधर हैं, पर शराबबंदी व्यावहारिक नहीं है। वे शराबबंदी वाले राज्यों का हाल देखने का सुझाव दे रहे थे। गरीबों के प्रति उदासीनता, निर्ममता और माफियाओं के प्रति यारी के तौर पर इस बयान को क्यों न देखा जाए? जिस वाकये पर एक राज्य के मुखिया को शर्मिंदा होना चाहिए था, वह उसे नजरअंदाज करके यह दावे कर रहा था कि उसके शासन में शराब से कितना राजस्व बढ़ गया है। वे शान से कह रहे हैं कि पहले तीन सौ करोड़ राजस्व आता था और अब दो हजार करोड़ आता है। लेकिन उनका यह भी कहना है कि पीने वालों की संख्या नहीं बढ़ी है। उनके कहने का तात्पर्य यह है कि पहले से ही लोग शराब के आदी रहे हैं, वे उन तक ही शराब पहुंचा रहे हैं, क्या उपकार का भाव है!  वे उपकार भी इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें मालूम है कि पीने वाला पिएगा ही और चूंकि उनकी माने तो चैकसी के बाद भी अवैध शराब बनती ही है, तो बेहतर है लोग सरकारी शराब पीएं। इस तरह पूरी शातिरपन के साथ वे यह साबित करने की कोशिश कर रहे हैं कि शराब की जो खपत बढ़ी है, उसमें उनके शासन या नीति का कोई दोष नहीं है। यह सही है कि दिल्ली, कर्नाटक, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल और शराबबंदी वाले राज्य गुजरात में भी पिछले वर्षों में जहरीली शराब से मौतें हुई हैं। लेकिन किसी भी राज्य में शराब बेचने की वैसी वकालत नहीं की गई है, जैसी बिहार में नीतीश कुमार करते रहे हैं। अगर अवैध सरकार की बिक्री होती है और लोग उससे मरते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं है कि इसे स्वाभाविक चीज मान लिया जाए। 

अभीकुछ माह पहले की ही बात है जब उन्होंने मंच से कहा कि शराब के पैसे से ही वे साइकिल बांट रहे हैं, हालांकि यह भी झूठ ही था, तब मुजफ्फपुर की लड़कियों ने जिलाधिकारी के समक्ष प्रदर्शन किया था कि हमें शराब के पैसे से साइकिल नहीं चाहिए। सवाल यह है कि जिस राज्य का मुख्यमंत्री इस तरह शराब बेचने को जायज ठहराता हो, राजस्व बढ़ाने का तर्क देता हो, वहां शराब बेचने वालों का मनोबल क्यों नहीं बढ़ेगा! गंभीर सवाल यह भी है कि क्या अन्य दूसरे नशीले पदार्थों को बेचने से राजस्व बढ़ेगा तो उसे भी कोई सरकार राजस्व बढ़ाने के तर्क से बेचेगी? तब तो हिरोइन, गांजा, ब्राउन सुगर, अफीम- सबकी बिक्री करवानी चाहिए और उनके निषेध के लिए एक विभाग भी बना देना चाहिए! आखिर उनका अवैध कारोबार भी तो बंद नहीं हुआ है। उनका सेवन करने वाले भी तो इस समाज में हैं।  

सच जो है वह साफ-साफ दिख रहा है कि शराब बिहार के शहरों में ही नहीं, गांवों में भी धड़ल्ले से बिक रही है। पहले से ज्यादा दूकानें खुल गई हैं। नीतीश कुमार के शासन में उसकी सहज उपलब्धता के कारण ही शराब का सेवन बढ़ा है। ठीक से पड़ताल की जाए तो जो वैध शराब के अड्डे बताए जा रहे हैं, वहीं से अवैध कारोबार भी चलता है। बात-बात में कानून के राज का जुमला इस्तेमाल करने वाले नीतीश कुमार को यह मालूम होना चाहिए कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने 2006 में सुनाए गए एक फैसले में कहा था कि केंद्र और राज्यों की सरकारें संविधान के 47 वें अनुच्छेद पर अमल करें और जिसमें शराब की खपत को धीरे-धीरे घटाना सरकार का कर्तव्य बताया गया है। लेकिन नीतीश बाबू को सर्वोच्च न्यायालय के किसी फैसले की क्यों परवाह होगी? वे न्याय के साथ विकास जो कर रहे हैं!

कोई जरा पड़ताल तो करे कि समाज में वे कौन सी मानसिक और आर्थिक परिस्थितियां सरकारों ने पैदा की है, जिसके कारण लोग जानलेवा तरीके से शराब का सेवन की ओर अग्रसर हो रहे हैं। अपराध शराब पीने वाले कर रहे हैं या उन्हें शराब के आदी बनाने और उन्हें मौत की ओर धकेलने वाले? यह किससे राजस्व वसूल कर रहे हैं नीतीश कुमार? 200 एमएल के एक पाउच की कीमत सत्रह रुपये है, जो सरकारी आंकड़े के अनुसार सत्तर प्रतिशत भारतीयों के औसत दैनिक आय के आसपास है। यह तो एक तरह खून पसीने से कमाई गए पैसे को लूटने का खेल है, यह तो गरीबों के रक्त चूसने की तरह है। आज तो वे जहरीली शराब पीकर मर गए, पर अगर नहीं भी मरते तो धीरे-धीरे उनका रक्त तो चूसा ही जाता। सामान्य मौत से पहले तो वे मर ही रहे हैं, जिसका कोई आंकड़ा और सर्वेक्षण कहीं नहीं है, आंकड़ा है तो बढ़ते राजस्व का। 

दिलचस्प यह है कि अवैध शराब का बड़े कारोबारी जिनके  वर्तमान सत्ताधारी गठबंधन और दूसरी शासकवर्गीय पार्टियों से गहरे रिश्ते हैं, उन्होंने महादलित और दलित बस्तियों को ही अपने कारोबार का केंद्र बना रखा है। क्या महादलित या दलित बस्तियों को मदिरामुक्त करने का अभियान अंततः उन्हीं राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ नहीं होगा, जिनको कहा जा रहा है कि वे विकासवादी हो गई हैं और शराब की बिक्री जिनके विकास का बहुत बड़ा आधार बना हुआ है। भोजपुर के बगल के जिले रोहतास में भाकपा-माले के जिला सचिव भैयाराम यादव, जिनकी जद-यू से जुड़े अपराधियों ने इस साल के शुरू में हत्या कर दी थी, उन्होंने शराब भट्ठियों के खिलाफ आंदोलन का भी नेतृत्व किया था। हिंदकेशरी यादव पर हमला हाल का मामला है। 

आरा के बाद गया की दो भूंईटोलियों में भी 10 लोगों की जहरीली शराब से पीने की खबर आई। शराब भट्टियों के खिलाफ पिछले महीनों में धीरे-धीरे लोगों का आक्रोश सामने आने लगा है। कई जगह भट्ठियां तोड़ी गई हैं। महिलाओं की ओर से शराब के कारोबार का विरोध हो रहा है। 11 दिसंबर को आरा में महिला संगठन ऐपवा के बैनर तले महिलाओं ने जिलाधिकारी के समक्ष प्रदर्शन किया और जब उनके कर्मचारियों ने झूठ बोला कि जिलाधिकारी नहीं हैं, तो महिलाएं समाहरणालय का गेट तोड़कर उनके चंेबर तक पहुंच गईं और जिलाधिकारी प्रतिमा वर्मा को उनकी मांगों को सुनना पड़ा। आरा रेलवे स्टेशन के पास झोपड़पट्टी में भी महिलाओं के क्षोभ और गुस्से को महसूस करते हुए भी मुझे लगा था कि वे नीतीश बाबू के राजस्व बढ़ाने के तर्क से सहमत नहीं हैं, वे शराब की धड़ल्ले से हो रही बिक्री को बंद कराना चाहती हैं। 

भाकपा-माले पोलित ब्यूरो सदस्य स्वदेश भट्टाचार्य ने ठीक ही कहा कि बिहार की बर्बादी के आधार पर बिहार का राजस्व बढ़ाने की बात जनता के साथ धोखा और गरीबों के प्रति बेरूखीपन है। जनता को यह हक है कि वह जरूरी समझे तो सरकारी लाइसेंस वाली दूकानों को भी बंद करवा दे।  इस सरकार में गांव-गांव में सामंती, माफिया, अपराधी और दबंग ताकतों को बढ़ावा दिया गया है, उन्हीं के जरिए शराब का कारोबार भी चल रहा है। कुछ भी करने का लाइसेंस तो सरकार ने शराब माफियाओं और भूमाफियाओं को ही दे रखा है। बिहार का विकास खेती और उद्योग के विकास से होगा, यहां के लोगों की मानसिक-शारीरिक क्षमता के उचित उपयोग से होगा, न कि शराब से।

सुधीर सुमन वरिष्ठ पत्रकार और साहित्यकार हैं.
इनसे  इंटरनेट के पते s.suman1971@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

ये मुखाल्फ़त का दौर है, ये जीतने की शुरुआत है...!

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आशीष भारद्वाज


"...शाम पांच बजते ही सैंकड़ों की संख्या में लोग इंडिया गेट पर जमा होकर अपने गुस्से का इज़हार कर रहे थे. सवा छः बजे छात्र-नौजवानों का ये हुजूम राजपथ को लगभग रौंदते हुए रायसिना हिल की तरफ दौड़ रहा था. सारी व्यस्त ट्रैफिक, चौराहे पर तमाशबीनों में बदल गयी. पुलिस से थोड़ी-बहुत धक्का-मुक्की के बाद तमाम प्रदर्शनकारी भारतीय सत्ता के दलालों के प्रमुख ऐशगाह रायसिना पहाड़ी पर पंहुच गये और नारे लगाने लगे: “होम मिनिस्टर बाहर आओ - बाहर आकर बात करो”! ये एक ऐतिहासिक पल था..."

सड़कों में उमड़े छात्र : (फोटो-विजय)
पिछले तीन दिनों के ताप ने दिसंबर की इस ठण्ड को महसूस करने का वक्त ही नहीं दिया! अंदर जमा हो रहा गुस्सा जब फूटता है तो ऐसे ही मंजर नज़र आते हैं. ये गुस्सा जाने कब से जमा हो रहा था.. केवल इस साल की बात करें तो साल के पहले बलात्कार के तकरीबन छः सौ और बलात्कारों के बाद आम लोगों और छात्र-नौजवानों का गुस्सा इस नौबत तक पंहुचा है, जहां इस शहर के चौक-चौराहों से लेकर रायसिना हिल के नॉर्थ-साउथ ब्लॉक तक छात्र-नौजवान ‘पितृसत्ता मुर्दाबाद’ और ‘दिल्ली पुलिस-शर्म करो’ जैसे नारों से दिल्ली का आसमान गूँज रहा है!

रविवारदेर शाम हुए सामूहिक बलात्कार ने सबको अंदर तक हिला के रख दिया. घटना इस तरह अंजाम दी गयी थी कि इसे महज़ जानना पूरी तरह से शर्मसार होने जैसा था. चलती बस में सामूहिक बलात्कार, बर्बर हिंसा और चलती बस से नंगा करके फेंक दिया जाना संभवतः दिल्ली की आजतक की सबसे “पशुवत घटना” है. चूंकि दिल्ली में इंसान भी रहते हैं, सो इंसानों ने इसके पुरजोर विरोध का फैसला किया. सोमवार की सुबह आते-आते हर तरफ “त्राहि माम” जैसा आलम था! 

शुरुआत मुनीरका के चौराहे से हुई. जे.एन.यू. और आस-पास रह रहे महिला और पुरुष साथियों ने मुनीरका चौराहे को चारों तरफ से ‘ब्लॉक’ कर दिया. चारों तरफ से आ रही दो लेन की सड़क को ‘मानव-श्रृंखला’ बनाकर यातायात को यथावत कर दिया गया. साथियों के दो दस्ते दो सेटेलाइट्स की शक्ल में मानव-श्रृंखला के इर्द-गिर्द घुमते हुए पितृसत्ता, सत्ता और पुलिस के खिलाफ़ नारे लगाते हुए मौजूद तमाम साथियों की हौसला-अफज़ाई कर रहे थे. पुलिस थी, मगर बैकफुट पर! शायद उनमें भी कहीं अंदर कोई ‘अपराध-बोध’ रहा हो या फिर “ऊपर” से कोई निर्देश आया हो. थोड़ी ही देर में मीडिया, माने हर तरह की मीडिया, भी वहाँ पंहुच गयी. आस-पास रह रही जनता, माने महिला-पुरुष और बच्चे भी थोड़ी देर में यहीं जमा होने लगे लगे. कमाल का मंज़र था! ऐसा लग रहा था मानो प्रदर्शनकारी सबको यथावत रोक कर अपनी बात कहना चाह रहे हों. और ऐसा हुआ भी! तकरीबन तीन बजे तक थाने के घेराव के बाद प्रदर्शनकारी मुनीरका की गलियों से नारे लगाते हुए वापस लौट आये. इस निर्णय के साथ कि अगली सुबह दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के घर के आगे प्रदर्शन किया जायेगा.

अगलीसुबह लगभग साढ़े बारह बजे तकरीबन सौ प्रदर्शनकारी शीला दीक्षित के सरकारी आवास के सामने जमा हो चुके थे. अगले आधे घंटे में सामने खड़े दो बैरिकेड्स इनके सामने टिके नहीं और अगले पन्द्रह मिनट में ज़मींदोज़ कर दिये गये. फिर शुरू हुई “पुलिसिया गुंडई”! इन निहत्थे प्रदर्शनकारियों पर पहले लाठी चार्ज हुआ और फिर वाटर कैनन से इन्हें बहा देने की कोशिश की गयी. छः साथियों को ज़्यादा चोटें आयीं पर इसके बावजूद तमाम साथियों का हौसला कम नहीं हुआ. तीन बजे तक प्रदर्शनकारी मुख्यमंत्री के घर के सामने सड़क पर जमे रहे और ज़बरदस्त नारेबाज़ी करते रहे. ये और बात है कि “बहरी सरकारें” सुनती कम हैं. फिर तय हुआ कि पांच बजे से इंडिया गेट पर प्रदर्शन होगा.

शामपांच बजते ही सैंकड़ों की संख्या में लोग इंडिया गेट पर जमा होकर अपने गुस्से का इज़हार कर रहे थे. सवा छः बजे छात्र-नौजवानों का ये हुजूम राजपथ को लगभग रौंदते हुए रायसिना हिल की तरफ दौड़ रहा था. सारी व्यस्त ट्रैफिक, चौराहे पर तमाशबीनों में बदल गयी. पुलिस से थोड़ी-बहुत धक्का-मुक्की के बाद तमाम प्रदर्शनकारी भारतीय सत्ता के दलालों के प्रमुख ऐशगाह रायसिना पहाड़ी पर पंहुच गये और नारे लगाने लगे: “होम मिनिस्टर बाहर आओ - बाहर आकर बात करो”! ये एक ऐतिहासिक पल था. पुराने साथियों ने बताया कि ऐसा शायद पहले कभी नहीं हुआ जब आप “इनकी इतनी अलग सी दुनिया” के इतने करीब आकर इन्हें ही कोस रहे हों! ज़बरदस्त माहौल था. दबाव इतना था कि इस केन्द्र सरकार के गृहमंत्री को प्रदर्शनकारियों के एक डेलिगेशन से मिलने के लिए तैयार होना पड़ा, और वो भी अपने सरकारी आवास पर! लेकिन, जैसा कि आम तौर पर होता है, इस देश के गृहमंत्री ने कहा कि ‘हम आपके तमाम सवालों पर संसद में चर्चा करेंगे और कोई समाधान तलाशने की कोशिश करेंगे”.

हमयही मान कर चलते हैं कि “संसद” से कोई अंतिम समाधान नहीं मिलेगा. समाधान सड़कों, चौक-चौराहों, गली-नुक्कड़ों, खेत-खलिहानों, कल-कारखानों और पढ़ने-लिखने वालों के कैम्पसों से निकलेगा. समाधान निकल भी रहा है. पिछले तीन दिनों ने यही तो साबित किया है.

सुनाहै आज फिर कोई विरोध प्रदर्शन है, पितृसत्ता, सत्ता और बलात्कारियों के खिलाफ़! वहीँ मिलते हैं!!

आशीषआईआईएमसी में पत्रकारिता अध्यापन में हैं.
इनसे ashish.liberation@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

दिल्ली बलात्कार कांड : यही तो समाधान का समय है...

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"दिल्ली की पाशविक घटना ने सभ्य समाज के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है | हम सब स्तब्ध हैं , और दुखी भी | इस मुतल्लिक उपजे कुछ विचारों को मैंने जैसे-तैसे कल रात ही कलमबद्ध किया है, और जिन्हें इस उम्मीद के साथ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ , कि आप सब भी मिलकर इस बहस को किसी सार्थक अंत तक पहुंचाएंगे |.........................    
-रामजी तिवारी
फोटो - विजय
दिल्ली की यह घटना हम बलिया वासियों के दिलों पर एक और गहरा घाव छोड़ गयी है | अभी कुछ दिन पहले ही हमारे जिले में दरिन्दगी की एक ऐसी ही घटना घटी थी , और वह जख्म अभी भरा भी नहीं था , कि कल समाचार पत्रों से यह पता चला किदिल्ली में वहशियों की शिकार हुयी लडकी हमारे ही जिले बलिया की रहने वाली है | हालाकि इस बात से हमारा दुःख कम नहीं होता , यदि वह बीकानेर , बंगलौर , बोकारो या कहीं और की होती | लेकिन अभी चूकि इस जिले के लोगों के दिलों पर इसी तरह की एक वहशियाना हरकत से पैदा हुआ जख्म बिलकुल ताजा है , इसलिए इसकी चोट को हमारा जिला कुछ अधिक ही महसूस कर रहा है | यहाँ के जिन लोगों की बच्चियां दिल्ली में रहती हैं , इस एक घटना ने उन बच्चियों और उनके अविभावकों के सामने किन सवालों के पहाड़ खड़े कर दिए हैं ,उसका बयान नहीं किया जा सकता |

कहा जाता है , कि प्रकृति ने समाज का विभाजन पुरुष और महिला के आधार पर लगभग आधा-आधा किया है | लेकिन इतिहास के लम्बे दौर में पितृसत्ता ने तमाम तरीको से इस विभाजन को इतना गहरा और असंतुलित कर दिया है , कि इसमें पुरुष होने मात्र से आपको बहुत कुछ हासिल हो जाता है , और महिला होने मात्र से आपका बहुत कुछ छीन जाता है | हम पुरुष होने के कारण बहुत कुछ तो जान भी नहीं सकते , जो एक महिला होने के नाते किसी स्त्री को भोगना पड़ता है | इन बड़ी घटनाओं के अलावा , हजारों-लाखों की संख्या में ऐसी अव्यक्त रह गयी घटनाएं प्रतिदिन घटती रहती हैं , जो एक रूटीन की तरह से सह ली जाती हैं , और जिन्हें दर्ज करने के लिए समाज के पास कोई ‘खाता-बही’ होता ही नहीं है | हालाकि गौर से देखने पर ये घटनाएं इतनी छोटी या नगण्य होती नहीं हैं | उनका असर कुल मिलाकर स्त्री जाति पर पड़ता है , और प्रकारांतर से वह अपने को कमजोर और असहाय मानने लगती है | फिर यह ‘मानना’ एक तरह के ‘चेन’ में बदल जाता है , जिससे स्त्रियों का बाहर निकल पाना लगभग असंभव हो जाता है |
लेकिनहम जैसे लोगों के लिए पुरुष होने का भी अपना दुःख है | जब भी ऐसी कोई घटना घटित होती है , परिवार में , मित्र-रिश्तेदारी में और कुल मिलाकर समाज में स्त्रियों से आँख मिलाना कठिन हो जाता है | यह दुःख , उस दुःख से कहीं बड़ा और गहरा होता है , जो पुरुष समाज को कोसने के कारण पैदा होता है | जब आप अपने पड़ोस में , अपने मित्र के यहाँ , अपनी रिश्तेदारी में और अपने समाज में ‘वाच’ किये जाने लगते हैं , तो ऐसा लगता है , कि ईश्वर ने आपको पुरुष बनाकर बहुत बड़ी सजा मुक़र्रर कर दी है | इस पर आप किसी को सफाई भी नहीं दे सकते , क्योंकि आप ही जैसा भाई, पिता , पुत्र या मित्र इस दुनिया में आये दिन ऐसा कारनामा रच देता है , जो पुरुष-जाति पर अविश्वास के अनेकानेक कारण पैदा करता है |
खैर .... | मैं दुनिया को देखने के लिए लालायित रहने वाला इंसान हूँ , और मुझे घूमने से अच्छा काम और दूसरा कुछ नहीं लगता | पिछले बारह-पंद्रह सालों से देश को देखने के लिए प्रतिवर्ष निकलता हूँ , और ‘यात्रा’ से वापसी के बाद अगली की तैयारी में अपने को व्यस्त कर लेता हूँ | लेकिन मुझसे आप दुनिया के सबसे सुन्दर चित्र के बारे में पूछेंगे , तो मैं आपको हिमालय की ऊँचाई , सागर की गहराई , रेगिस्तान की नीरवता या जंगलों की सघनता नहीं बताऊंगा | मेरे लिए तो बच्चों की किलकारी , माँ का दुलार , पिता की उंगली पकड़कर स्कूल जाते हुए बच्चे और बूढ़े लोगों की देखभाल करती संताने ही सबसे अच्छे चित्र के रूप में उभरती हैं | और इस सवाल को दरकिनार करते हुए कि, मैंने किसी से प्रेम किया है या नहीं , मुझे सबसे अच्छा दृश्य वह लगता है , जब एक प्रेमी-युगल एक दूसरे के विश्वास को थामे आगे बढ़ता दिखता है |
इसीतरह दुनिया में मेरे लिए सबसे बुरे दृश्यों की भी सूची है | वह किसी प्रियजन की मृत्यु से अधिक भयावह और दुखद है, जो मुझे आदमी होने पर शर्मसार करती है, मुझे भीतर तक कचोटती है और छीलती है | किसी के सामने अपनी जरूरतों के लिए हाथ फैलाए हुए लोग, काम पर जाते हुए बच्चे, असहाय छोड़ दिए गए बूढ़े, अपनी अस्मिता को बेचती औरत, दहेज के लिए जलाई जाने वाली और कोख में ही मार दी जाने वाली अजन्मी बेटियों का दृश्य मेरे लिए इस दुनिया में बहुत ख़राब दृश्य है | लेकिन सबसे भयावह और बुरा दृश्य मेरे लिए बलात्कार-पीड़ित स्त्री का है , जो सिर्फ शरीर के स्तर तक सीमित नहीं रहता, वरन दिलो-दिमाग से होता हुआ समूची स्त्री जाति की चेतना और अस्तित्व को भी बींध देता है |
दिल्लीकी यह घटना इसलिए और भी सालने वाली है, क्योंकि इसमें दुनिया के सबसे सुन्दर चित्र को सबसे घृणित और गंदे दृश्य में बदल दिया गया है | अपनी मित्र के हाथों को थामकर चलता हुआ युवक, जिन्दगी के सबसे हसीन लम्हों को जी रहा होता है, और उसी तरह अपने दोस्त के काँधे से सिर टिकाये चलती हुयी युवती के लिए भी, दुनिया में इससे हसीन पल, कोई और नहीं हो सकता | ऐसे में कोई उन्हें हैवानियत के जंगल में ले जाकर नोच डाले, यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं | दुनिया के सबसे हसीन सपने का ऐसे बदतरीन तरीके से टूटना, दिल में हूक पैदा करता है | भीतर से क्रोध और घृणा की एक लहर सी उठती है, जो बार-बार हमें भी उसी वहशियाना तरीके की तरफ जाने को उकसाती है, जैसा कि उस अपराध की तासीर है | फिर इसका समाधान क्या है ?
यहठीक है, कि सख्त कानूनों की अपनी एक भूमिका होती है | मसलन गुवाहाटी की घटना के बाद देखने में यह आया कि मुजरिमों को अधिकतम तीन साल की ही सजा सुनायी गयी, और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि क़ानून में यही अधिकतम सजा निर्धारित ही थी | भारतीय क़ानून में बलात्कार के लिए सात साल की सजा का प्रावधान है | जिस घटना के जख्म जीवन भर रिसते  रहें , उसकी सजा सात सालों में कैसे बाँधी जा सकती है ? फिर हमारे देश में न्याय की प्रक्रिया इतनी लचर और बेजान है, जिसमें से बचकर निकल जाने के अनगिनत रास्ते फूटते हैं | उस पर यदि आरोपित रसूखदार हुआ, तब तो उसके बचकर निकल जाने के रास्ते-ही-रास्ते हैं | इन जघन्य अपराधियों के लिए न तो कोई फास्ट-ट्रैक कोर्ट हैं, और न ही समय बद्द न्याय प्रक्रिया | फिर राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और नेतृत्व की अक्षमता/उदासीनता का मुद्दा तो है ही | इसका सबसे बड़ा प्रमाण कल उस समय देखने को मिला, जब संसद में इस मुद्दे पर बहस चल रही थी, और उसकी दो तिहाई कुर्सियां खाली पड़ी हुयी थी | उस पर चढ़ा हुआ बड़ा सवाल यह भी है, कि यही राजनीतिक वर्ग अपने हितों के लिए ऐसे अपराधियों को संरक्षण देता है, बचाता है | बचा प्रशासनिक अमला, तो वह झुकने के आदेश के सामने लेट जाने के लिए कुख्यात ही है | सो भारतीय परिप्रेक्ष्य में वह कोई क्रांतिकारी समाधान ढूंढ पाए, असंभव ही लगता है |
अबसमाज की बारी आती है , जो भारत में न सिर्फ संवेदनशून्य होता चला गया है , वरन उसके सामूहिक प्रतिरोध की क्षमता भी धीरे-धीरे कुंद होती चली गयी है | गलत और अनैतिक तरीके से भी समाज में आगे बढ़ने वाले लोगों के लिए, आज कोई विरोध नहीं है , वरन इसके विपरीत लोग उनकी चकाचौंध और ऐश्वर्य को देखकर लार टपकाते फिर रहे हैं | संवेदनशीलता , नैतिकता और सामूहिक प्रतिरोध से रहित समाज में आप ऐसी घटनाओं के बाद नारे तो गढ़ सकते हैं , लेकिन किसी सार्थक समाधान तक नहीं पहुँच सकते | जो लोग इस समय ‘न्याय के तालिबानी सिद्धांतों ’ की वकालत कर रहे हैं , वे शायद यह नहीं जानते कि इन सिद्धांतों की सबसे बड़ी मार स्त्री पर ही पड़ती है , और अंततः वही उसकी सबसे आसान शिकार भी होती है |
चूकिसमस्या भी बहुस्तरीय है , और अपराध की प्रकृति भी सामान्य नहीं है , इसलिए इसका समाधान भी विशेष तरीके से और उसी बहुस्तरीय तरीके को अपनाकर ही ढूँढा जा सकता है | कानून का सख्त होना बहुत आवश्यक है | लेकिन उससे भी जरुरी है न्याय का समय बद्द होना और उसका दिखाई देना | हमारे जैसे लोकतंत्र में प्रशासनिक संवेदनशीलता और राजनीतिक इच्छा शक्ति के बिना इसे सम्पादित ही नहीं किया जा सकता , सो वह भी अपरिहार्य ही है | और इन सबसे बढ़कर सामाजिक भागीदारी वाला मसला तो है ही , जिसके बिना लोकतंत्र में कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता | बच्चों की नैतिक शिक्षा घर से ही आरम्भ होती है , और स्कूल से  होते हुए वह समाज तक पहुँचती है | हम अपने बच्चों को डाक्टर, इंजीनियर और ‘क्या-क्या’ तो बनाना चाहते हैं , लेकिन ‘इंसान’ बनाना रह जाता है | यदि हम अपने समाज के इन दागों को जड़ से मिटाना चाहते हैं , तो यह अवसर हम सबके लिए उस संकल्प को लेने का है , जिसमें हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का वादा स्वयं से करते हैं , अन्यथा यह गंभीर मसला भी इस देश में अन्य गंभीर मसलों की तरह ही शोर और नारों में दबकर मर जाएगा |
रामजी तिवारी
बलिया , उ.प्र.
मो.न. 09450546312
इसवीभत्सकारी घटना की निंदा करते हुए हम शर्मिंदा हैं , दुखी हैं और आहत है | इसलिए यही, वह सही वक्त है , जब हम इस पर न सिर्फ बात कर सकते हैं , वरन उसे अमली जामा भी पहना सकते हैं , अन्यथा ‘बाद में’ छोड़ने पर तो बहुत देर हो जायेगी |



(रामजी तिवारी के ब्लॉग सिताब दियारा से सहमति के साथ साभार प्रकाशित)


                                                     

क्या असल दोषी को सजा दे पायेंगे हम?

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"...गौर किया जाय तो उस लड़की का बलात्कार तो अब शुरू हुआ है। उसे उन दरिंदों ने उतना दुःख और यातना नहीं दी होंगीजिसे देने के लिए हम सब तड़प रहे हैं। आने वाले दिनों में हम उन 95 हजार स्त्रियों का जीना दूभर कर देंगे। उनका खामोश बलात्कार करेंगे। और उसकी पड़ताल कोई नहीं करेगा।..."
-अंकित फ्रांसिस

कितना आश्चर्यजनक है कि लगभग 560 बलात्कार झेलने के बाद एक दिन अचानक राजधानी में सब जाग जाते हैं। रैलियां होती हैं, विरोध भी होते हैं, ‘फांसी दो, ‘मार दो, ‘काट दो-जला दोजैसी बातें हर मुंह से अनायास ही फूटने लगती हैं। अखबारों के पेज रंगे जाते हैंबड़ी-बड़ी इबारतें और विषय संबधित कविताएं खोजी जाती हैं,फेसबुक वाल को सुशोभित करने के लिए। ऐसा लगने लगता है कि साल में 95 हजार की दर से बलात्कार झेलने वाला समाज बदल रहा है। और पिछले दिनों में हमारा 'अति क्रांतिकारी' हो चला मध्यवर्ग फेसबुकट्विटरन्यूज चैनलों और अखबारों के जरिए किसी अनिश्चित बदलाव की कसमें खाने लगता है। लेकिन एक दृश्य और भी है जिसकी तरफ आज भी किसी की नजर नहीं है और असहमति तो क्या ही होगी। इस समाज का पुरुष जब काम से घर लौट रहा है तो बसोंमैट्रो और सभी सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियों को उसी टेड़ी नजरों से देख रहा हैमौके-बेमौके तंज कस दे रहा हैघर पहुंचकर तैयार खाने की उम्मीद का दंभ उसके जेहन में है। खाना खाकर प्लेट उठा देना उसकी शान के खिलाफ है। पानी से भरा गिलासलगा हुआ बिस्तर और चैन से सोये बच्चे सभी पत्नी की जिम्मेदारी में आज भी अनंत सालों से दर्ज हैं, जिसे लेकर किसी चेतन-अवचेतन में कोई सवाल नहीं है। औरत की जिम्मेदारियां अनंत काल से डिफाइंड हैं। अब क्योंकि ये मर्द 'आधुनिक' भी हो गया है सो इस 'आधुनिक' मर्द के सामने सवाल है तो बस सामाजिक स्थलों और बहसों-मुबाहिसों में खुद को लिबरलस्त्री की इज्जत करने वाला और वक्त पड़ने पर क्रांतिकारिता दिखाकर वाहवाही लूटने का। तो ये जारी है। 

जरा गौर फरमाइए कि फेसबुक और ट्विटर जैसी सोशल साइटों पर मौजूद ज्यादातर मर्दों की प्रोफाइल और स्टेटसों के आधार पर उनका चरित्र चित्रण कैसा होगाक्या असल में वे सब वही हैं जो वहां पर दिखाई दे रहे हैं? या कुछ ऐसा है जिसे छुपा लिया जाता है. और अगर कुछ छुपा लिया जा रहा है तो आखिर वो है क्या..

दिल्ली में कुछ दरिंदों ने एक लड़की का निर्ममता से बलात्कार कर उसे और उसके दोस्त को सड़क के किनारे फेंक दिया। आप अगले दिन के अखबारों के रवैये पर नजर डालें। सभी में महिला अधिकारों के लिए लड़ने वाले अग्रदूत बनने की होड़ लगी है। दो-तीन पेज रंग दिए गए। बड़े-बड़े ग्राफिक्स और आंकड़े इकट्ठे किए गए। ‘मिटा देंगे’इस बार सजा देंगे’, टाइप वाले हीरोइया स्लोगन्स। लेकिन अंदर के पेजों और उनके सप्लीमेंट्स पर नज़र दौड़ाईये. इनमें उसी डेडीकेशन के साथ औरत के शरीर को उचित दरों पर बेचा जा रहा है। थोड़ा दिमाग पर जोर डालकर सोचिये कि आखिर क्या बेचा जा रहा हैकौन सी आम राय बना रहे हैं औरत के बारे में?

चलिए एक महत्वपूर्ण सवाल की ओर बढ़ा जाय कि बलात्कार करने वाले इन वहशियों के भीतर जो भरा था क्या वह सब ये लेकर पैदा हुए थेइस पर गंभीर चर्चा नदारद है और ‘फंसी दो- फांसी दो’ के नारे सबसे प्रबल हैं। इस मसले को बड़ा ही सामान्य और सिर्फ ‘ला एंड ऑडर’ की समस्या बताकर जिस तरीके से इसे ये मीडिया संस्थान बेच रहे हैं उसका अल्टीमेट क्या है?  औरअगर हमारे समाज को वाकई इस पर गुस्सा है और यह गुस्सा वाजिब है तो पिछले 560 बलात्कारों के वक्त यह कहां था?और दिल्ली के इस बलात्कार पर तो यह फूटता है लेकिन ठीक अगले दिन बिहार के सहरसा में हुए 8 साल कि बच्ची के बलात्कार का इसे पता भी नहीं चलतादरअसल हमारा गुस्सा भी हमें ही को बेच दिया जा रहा है और हम सब मोमबत्तियां जला रहे हैं।

हमहमारे समाज के असल ढांचे पर आज भी कोई बात क्यों नहीं करना चाह रहे हैं? मर्दवादी सोच से ग्रसित हम लोग इस विरोध के लिए आखिर कितने उपयुक्त हैं? इन घटनाओं के पीछे जो सोच काम कर रही है क्या हम वाकई खुद उससे मुक्त हैं?देखा जाये तो हमारे अधकचरे पढ़े-लिखे समाज के भीतर महिलाओं की स्वतंत्रता को लेकर कुंठा और भी ज्यादा शातिर हुई है। जो किस वक्त बाहर आना है उसके लिए बाकायदा स्ट्रेटिजिकली तैयार है। यह एक आवरण के भीतर पनप रही है। यह आवरण ही तमाम सोशल वेब साइट्स पर परदे का काम कर रहा है। हमारी मैथ्ससांइस और सोशल सांइस की रटंत विद्या इस कुंठा पर कोई असर नहीं डाल सकती। चूंकि पढ़ तो हम सिर्फ ज्यादा से ज्यादा कमाने और ज्यादा से ज्यादा उपभोग के लिए रहे हैं। दरअसल कोई लड़कीया औरत घरों से बाहर आ जाय यह हमें आज भी मंजूर नहीं है। या जब आये भी तो उसकी सारी सीमाएं हम पहले से ही स्पष्ट कर दें। इसलिए हम ऐसे मुद्दों को भी शोर मचा कर डायवर्ट कर देना चाहते हैं। हम कहते हैं उसे ‘फांसी दे दो’ जो भी ऐसा कुछ करे। लेकिन महिलाओं के प्रति हमारे समाज की उस मानसिकता को कोई फांसी देने के लिए कोई तैयार नहीं है जो ऐसे जघन्य बलात्कारों की असली वजह है।

कानूनक्या करने वाला है, जब सब जगह तो हम उसी मानसिकता के साथ मौजूद हैं। जब वह सजा देने वाले जजपकड़ने वाली पुलिस और तो और समाज की औरतों में भी कहीं न कहीं मौजूद है। कितने चौराहों पर पुलिस लगाई जायेगीकितनों को फांसी पर लटका दिया जाएगा? शराब पीकर रोज़ अपनी बीवी का कानूनन बलात्कार करने वालों का कोई क्या कर लेगा? हम अपने महान देश की सामाजिक संरचना पर ध्यान देने से बचते रहे हैं. इसी के चलते यह अंदर से सड़ रहा है और यह घटनाएं इसमें पड़ी दरारों से ही रिस कर बाहर रही हैं। हम इसे उघाड़ेंगे नहींक्योंकि उसके बाद कौन किसको दोषी कहेगाहम सभी में तो कहीं न कहीं, किसी न किसी रूप में वह मौजूद है। सभी तो औरतों को उसी तरह देखना और इस्तेमाल करना चाहते हैं। किसी भी बात के जनरलाइजेशन को बुरा माना जाता है लेकिन इस मुद्दे पर जनरलाइजेशन से ही पूरी तस्वीर उभर कर सामने आ पाती है। ऐसे में हम शोर मचाने लगते हैं, मिलकर अपनी सड़ांध को छुपा लेना चाहते हैं, चूंकि उसका बचना हमारी लंबी-लंबी रवायतों और महान संस्कृति के लिए भी जरूरी है। या कहें तो वही रवायतें तो इस सत्ता को बनाये रखने में मददगार है। अगर यह सड़ांध सामने आई तो जिस आधार पर हम और यह समाज खड़ा है वह लिजलिजा होकर डोलने लगता है। यह डरा हुआ समाज हैखासकर बोलने से डरने वाला। चुप को समझदार और बोलने वाले को बेफकूफ बताने वाला समाज।

बलात्कार के उत्तरजीवी जिंदा लाश नहींहैं! 
यहाँ एक सबसे ज़रूरी सवाल पर बात करना ज़रूरी है। हमारे देश में विपक्ष की मुखिया सुषमा स्वराज का यह बयान तकरीबन पूरे देश की मानसिकता का प्रतिनिधित्व करता है। सुषमा एक महिला हैं और अभी विपक्ष का नेतृत्व उन्हें मिला हुआ है। लेकिन इतने महत्वपूर्ण पद पर वह जिस पुरुषवादी मानसिकता के साथ हैं यह बयान उसकी ही एक बानगी है. “..अगर ये लड़की बच जाती है तो पूरी जिंदगी एक जिंदा लाश की तरह गुजारेगी..”उन्हें लगता है कि बलात्कार के बाद लड़की की जिंदगी खत्म हो गई है, कुछ ऐसा है जो चला गया है अब कभी वापिस नहीं आएगा। अगर उसे वेंटिलेटर से जिला कर लाया भी जा सका तो अब उसका जीवन निरर्थक हैइतने सब के बाद तो वह मर ही जाय तो अच्छा है। दरअसल यह बयान सुषमा की ओर से आया भर है लेकिन यह हमारे समाज की बृहत्तर मानसिकता का रिफ्लेक्शन है. यह मर्दवादी समाज बलात्कार को भी अपने हिसाब से एक्सप्लेन कर देता है. इसमें लड़की का तो सबकुछ गया लेकिन वे छह वहशी कल अगर छूट जाय तो समाज में थोड़ी छीः छीः के बाद आराम से स्वीकार कर लिए जायेंगे। कोई आज भी यह नहीं पूछने के लिए तैयार है कि आखिर लड़की का क्या ऐसा चला गया है जो कभी किसी लड़के का जा ही नहीं सकता। इन सवालों को हम फांसी की आंधी से क्यों ढंकना चाह रहे हैं?

गौरकिया जाय तो उस लड़की का बलात्कार तो अब शुरू हुआ है। उसे उन दरिंदों ने उतना दुःख और यातना नहीं दी होंगी, जिसे देने के लिए हम सब तड़प रहे हैं। आने वाले दिनों में हम उन 95 हजार स्त्रियों का जीना दूभर कर देंगे। उनका खामोश बलात्कार करेंगे। और उसकी पड़ताल कोई नहीं करेगा। खुद औरतें उन पर तंज कसेंगी। संभवतः कहा जाय कि इनकी भी कोई गलती रही ही होगी नहीं तो हमारे साथ तो ऐसा किसी ने कुछ न किया। जजपुलिस और वकील सभी कानून के नाम पर वासनाओं से भरे सवाल पूछेंगे और अपने भीतर छुपे मर्द को टॉनिक देंगे।

इसघटना पर एक प्रतिक्रिया आधुनिकता से आहात धुर-पुरातनपंथी दक्षिणपंथ की ओर से भी आ रही है. उसका मानना है कि मिनी स्कर्ट, जींस-टॉप पहनने वाली इस पीढ़ी की महिलाओं के साथ और क्या होगा? पुरुषवादी घमंड में चूर ये मानसिक तौर पर दरिद्र लोग महिलाओं को उनके किसी भी किस्म के निर्णय खुद लेते नहीं देख सकते। वस्त्रों के चुनाव भर से हमारे समाज के दम्भी पुरुष को ये इन लड़कियों के बलात्कार करने का लाइसेंस दे देते हैं। पिछले समय में पुरुषवादी मानसिकता को चुनौती देती आवाजों ने भी मजबूती से हमारे समाज में दस्तख दि है. मर्द सत्ता की चूलें हिल रही हैं और वह पलटवार में फतवे जारी कर रही है, श्रीराम सेना जैसे गुंडों की फ़ौज तैयार कर रही है और ऐसे वहशियों को महिलाओं की स्वतंत्रता के खिलाफ इस्तेमाल कर रही है।

परिवारके स्तर पर पुरुषवादी मानसिकता की चपेट में हमारी बीवीबेटीबहन तो हमेशा से ही रही हैं लेकिन अब इसका निशाना वे व्हिसलब्लोअर औरतें हैं जो संभवतः न जानते हुए भी पुरुषवादी सत्ता को चैलेंज कर रही हैं। वे नहीं जानती कि सूट-सलवार से जींस का जो ये ट्रांजेक्शन हैवह हमारे इस मर्दवादी समाज के लिए कितना दर्दनाक है। जब यह ट्रांजेक्शन जींस से माइक्रोमिनी की तरफ जाता है तो हम फट पड़ते हैं। स्कर्ट से बाहर झांकती पतली टांगें हमें चुभती हैं और हम जब कुछ नहीं कर पाते तो पहले धर्म-संस्कृति का सहारा लेते हैं और अंत में ऐसी ही किसी रात में मौका देखकर हमारे भीतर का हमलावर बाहर आ जाता है. कभी उसे बसों में छूकर निकल जाता है, कभी उसपर तंज कसता है और कभी बलात्कार कर सबक सिखाता है. इन सबकों के बाद भी खुद ही इसकी व्याख्या कर औरत को बराबर दोषी ठहरा न्याय का स्वांग रचता है.

‘असल न्याय क्या है’क्या इसकी पड़ताल का वक्त नहीं आ पहुंचा है? हम ‘खुद से’ ना बचते हुए इस पर बात क्यों न करें...


अंकित फ्रांसिस





अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल। 
अभी एक साप्ताहिक अखबार में काम कर रहे हैं।
इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है। 

और दुनिया खत्म नहीं हुई!

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देवेन मेवाड़ी


"...सच यह है कि माया कैलेंडर को सही ढंग से पढ़ा ही नहीं गया है। माया सभ्यता के कैलेंडर का गहन अध्ययन करने वाली यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले की मानव-विज्ञानी रोजालिंड जॉयस का कहना है, ‘माया सभ्यता के लोगों ने दुनिया के नष्ट हो जाने की भविष्यवाणी कभी नहीं की।’ माया कैलेंडर में 1,44,000 दिनों का एक चक्र माना गया है जिसे उन्होंने ‘बक्‍तून’ नाम दिया था।..." 





माया कलेंडर
लाख अफवाहोंके बावजूद हमारी यह प्यारी और निराली धरती 21 दिसंबर यानी आज के बाद भी सही सलामत रहेगी। साढ़े चार अरब वर्ष पहले जन्म लेकर जिस तरह यह लगातार सूर्य की परिक्रमा कर रही है, उसी तरह अब भी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती रहेगी और अपनी धुरी पर उसी तरह घूमती रहेगी। उसी तरह सूर्योदय, सूर्यास्त, रात और दिन होंगे और उसी तरह ऋतुएं बदलेंगीं।

पृथ्वीके विनाश का झूठा भ्रम फैलाने वाले लोग एक बार फिर बेनकाब होंगे और विज्ञान का सच एक बार और हमें तर्क करके सोचने का मौका देगा कि हमें केवल सुनी-सुनाई अफवाहों पर अंधविश्‍वास न करे सच का साथ देना चाहिए। यह घटना एक बार फिर साबित कर देगी कि जैसे पत्थर की मूर्तियाँ दूध नहीं पीतीं, रातों को जागने से जीते-जागते आदमी पत्थर नहीं बन जाते, खारा पानी किसी चमत्कार से मीठा नहीं बन जाता, ओझा-तांत्रिकों की हुँकार और धुंए के गुबार से कोई बीमारी ठीक नहीं हो जाती और बिल्लियों के रास्ता काटने, कौवे के बोलने या छिपकली के गिरने से कोई शुभाशुभ फल नहीं मिलते, उसी तरह माया कैलेंडर की आखिरी तारीख के बाद हमारे इस ग्रह का भी अंत नहीं होगा।

इतिहासगवाह है कि अतीत से आज तक न जाने कितनी बेतुकी, अफवाहें और निर्मूल धारणाएं फैलाई गईं लेकिन सच सच ही रहा। सच पर जिन्होंने भरोसा किया उनके लिए जिंदगी आसान रही और जिन्होंने अफवाहों पर कान दिए वे अफवाह फैलाने वालों के दुश्‍चक्र के शिकार हुए जिसमें न केवल आर्थिक नुकसान हुआ, बल्कि कई बार जान से भी हाथ धोना पड़ा। बड़े पैमाने पर जनमानस में भय और आतंक फैलाने वाले ये लोग मनोवैज्ञानिक रूप से परपीड़क होते हैं और दूसरों के दुःख-तकलीफ से उन्हें आनंद मिलता है। अफवाहें फैलाने वाले तो बस चालाकी से अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं।

जबभी ऐसी किसी घटना के बारे में सुनता हूँ तो मराठी विज्ञान लेखक दत्तप्रसाद दाभोलकर की ‘विज्ञानेश्‍वरी’ की ये पंक्तियाँ याद आ जाती हैं, ‘कोई हाँक ले जाए कहीं भी/ऐसी गूँगी और बेचारी/भेड़-बकरियाँ मत बनना…मत बनना।’ यही बात 21 दिसंबर 2012 को दुनिया समाप्त होने की अफवाह पर भी लागू होती है। किसी ने माया सभ्यता के सदियों पुराने कैलेंडर का हवाला देकर बिना सच सामने रखे, यह अफवाह फैला दी कि उस कैलेंडर में 21 दिसंबर 2012 के बाद की कोई तारीख ही नहीं है। यानी उस दिन के बाद दुनिया खत्म हो जाएगी, लेकिन यह ऐसी ही बात है जैसे 31 दिसम्‍बर को हमारे ग्रेगोरियन कैलेंडर का वार्षिक चक्र पूरा हो जाता है। दिसम्‍बर माह ही उसका अंतिम पृष्‍ठ और 31 दिसम्‍बर अंतिम तारीख होती है। ठीक वैसे ही माया सभ्यता के कैलेंडर में भी समय का एक चक्र या युग 21 दिसंबर 2012 को पूरा हो जाता है। उससे आगे की गणना नहीं की गई है, क्योंकि पत्थर के गोले पर खुदे उस कैलेंडर की आगे की तारीखों के लिए जगह ही नहीं बची है। उसमें 21 दिसम्‍बर के बाद समय का नया लम्‍बा चक्र शुरू होगा, ठीक वैसे ही जैसे हमारे कैलेंडर में 31 दिसम्‍बर के बाद पुन: 1 जनवरी से नया वर्ष 2013 शुरू होगा।

सचयह है कि माया कैलेंडर को सही ढंग से पढ़ा ही नहीं गया है। माया सभ्यता के कैलेंडर का गहन अध्ययन करने वाली यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया, बर्कले की मानव-विज्ञानी रोजालिंड जॉयस का कहना है, ‘माया सभ्यता के लोगों ने दुनिया के नष्ट हो जाने की भविष्यवाणी कभी नहीं की।’ माया कैलेंडर में 1,44,000 दिनों का एक चक्र माना गया है जिसे उन्होंने ‘बक्‍तून’ नाम दिया था। ऐसे कई समय चक्रों से युग बनते हैं। यानी हजारों-हजार साल लम्‍बी गणनाएं हैं। उनके कैलेंडर के अनुसार समय सतत रूप से चलता रहता है, उसका अंत नहीं होता। उनके कैलेंडर के हिसाब से वर्तमान समय में 13वाँ ‘बक्‍तून’ चल रहा है जो 21 दिसम्‍बर 2012 को पूरा हो जाएगा। उसके बाद 14वाँ ‘बक्‍तून’ शुरू होगा। इसलिये न दुनिया के समाप्त होने की कोई बात है और न इससे भयभीत होने का कारण।

दुनियासमाप्त हो जाने की कई और भी बेसिर-पैर की भविष्यवाणियाँ हुई हैं। उनमें से एक भ्रामक भविष्यवाणी यह है कि 21 दिसंबर को ही अंतरिक्ष से ‘निबिरु’ या कोई ‘दसवाँ’ ग्रह आयेगा और धरती को ध्वस्त कर देगा। यह ग्रह कौन-सा है, कोई नहीं जानता। असल में सुमेरियाई सभ्यता के लोगों ने प्राचीनकाल में इसकी कल्पना की थी। आज धरती पर स्थित तमाम वेधशालाओं और अंतरिक्ष में घूमती शक्तिशाली दूरबीनों से खगोल वैज्ञानिक अंतरिक्ष के चप्पे-चप्पे को टटोल रहे हैं, लेकिन उन्हें ‘निबिरु’ कहीं नहीं मिला। अगर कोई ग्रह पृथ्वी की ओर आता तो खगोल वैज्ञानिकों को वह बरसों पहले ही दिख गया होता और अब तक आकाश में चंद्रमा के बाद सबसे चमकदार पिंड की तरह दिखाई दे रहा होता। लेकिन ऐसा कोई ग्रह पृथ्‍वी की ओर नहीं आ रहा है। एक बात और। अफवाह फैलाने वालों ने पहले ‘निबिरु’ के टकराने का समय मई 2003 बताया था, लेकिन पृथ्वी के सही-सलामत रह जाने पर उन्होंने यह तारीख बदलकर 21 दिसंबर 2012 कर दी।
अफवाह फैलाने वालों ने सौरमंडल के दूरस्थ बौने ग्रह ‘ईरिस’ पर भी शक जताया, लेकिन सूर्य से लगभग 3 अरब 61 करोड़ किलोमीटर दूर हमारे सौर मंडल के सीमांत पर आज भी ‘ईरिस’ 557 पृथ्वी-दिवसों के हिसाब से हर साल सूर्य की परिक्रमा पूरी कर रहा है।

एकअफवाह यह भी फैलाई गई कि इस दिन कई ग्रह एक सीध में आ जायेंगे, जिससे पृथ्वी का संतुलन बिगड़ जायेगा और वह नष्ट हो जायेगी। ऐसी ही झूठी अफवाह 1962 में अष्टग्रही के नाम पर फैलाई गई, लेकिन पृथ्वी सही-सलामत घूमती रही। फिर 1982 और नई शताब्दी की शुरुआत के समय वर्ष 2000 में भी यह भ्रम फैलाया गया। पृथ्वी फिर भी सही-सलामत रही।

वैज्ञानिकसच यह है कि हर साल दिसम्‍बर में सूर्य और पृथ्वी आकाशगंगा के केंद्र की सीध में आ जाते हैं, लेकिन इससे कोई अनिष्ट नहीं होता। इस तरह इस अफवाह में भी कोई दम नहीं कि हमारी पृथ्वी को 30,000 प्रकाश वर्ष दूर स्थित एक ब्लैक होल निगल लेगा और न इसमें कि क्रिसमस के दौरान पूरी पृथ्वी पर तीन दिन तक घुप अंधेरा छा जायेगा। कुछ लोगों ने कल्पना की एक और ऊँची उड़ान भर कर भ्रम फैलाया है कि पृथ्वी के चुम्‍बकीय क्षेत्र में बदलाव आ जायेगा जिसके कारण ध्रुव बदल जायेंगे। फिलहाल ऐसा कुछ नहीं होगा। चुम्‍बकीय क्षेत्र कभी बदला भी तो इसमें अभी लाखों वर्ष लग जायेंगे।

इनकेअलावा उल्का पिंड टकराने की बात भी की गई। पृथ्‍वी के जन्‍म से लेकर आज तक कई उल्‍का पिंड पृथ्‍वी से टकराएं हैं। ऐसी एक घटना साढ़े छह करोड़ वर्ष पहले हुई थी जिससे पृथ्वी पर डायनोसॉरों का विनाश हो गया था। खगोल विज्ञानियों के अनुसार 21 दिसंबर 2012 के आसपास ऐसे किसी उल्का पिंड के टकराने की कोई आशंका नहीं है। भविष्य में यदि ऐसा कोई उल्का पिंड आता भी है तो उसे अंतरिक्ष में ही विस्फोट से नष्ट कर दिया जायेगा या उसका मार्ग बदल दिया जायेगा। नासा की स्पेसगार्ड सर्वे परियोजना में ऐसे उल्का पिंडों पर कड़ी नजर रखी जा रही है।

कुछ लोगों का यह भय भी निर्मूल है कि 21 दिसंबर को सूर्य की विकराल ज्वालायें पृथ्वी की ओर लपकेंगी। सौर ज्वालाएं भड़कती रही हैं और 11 वर्ष के अंतर पर ये अधिक भभक उठती हैं। इनका अगला 11-वर्षीय चक्र 2012 और 2014 के बीच पूरा होगा। ये भी पहले जैसी ही होंगी।

लब्बोलुआबयह कि 21 दिसंबर 2012 का दिन भी आम दिनों की तरह होगा। इसलिए अफवाहों से डरने की जरूरत नहीं है। सच मानिए तो हमारी दुनिया के नष्ट होने का खतरा आकाशीय पिंडों से नहीं, बल्कि इस धरती पर खुद को सबसे बुद्धिमान मानने वाले मानव से ही ज्यादा है, जो इसके विनाश के लिए परमाणु हथियार बना रहा है, दिन-रात इसकी हरियाली हर रहा है और वायुमंडल में कल-कारखानों व मोटरकारों का विषैला धुआँ भर रहा है। हमें अफवाहों के खतरे के बजाय इस खतरे पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।

21 दिसंबरशीत संक्रांति और वर्ष का सबसे छोटा दिन होगा। इसी दिन से सूर्य उत्तरायण हो जाएगा। आज शीत संक्रांति का जश्‍न मनाइए और गुनगुनी धूप में जीवन से भरपूर इस निराली धरती को बचाने का संकल्प कीजिए।



देवेन मेवाड़ीवरिष्ठ विज्ञान लेखक हैं। 
विज्ञान को जनप्रिय बनाने में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। 
विज्ञान लेखन से जुड़ी इनकी कई पुस्‍तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।
 +91,9818346064 पर इनसे संपर्क किया जा सकता है। 

महिलाओं, छात्र-युवाओं, श्रमिक संगठनों और सांस्कृतिक संगठनों ने मनाया राष्ट्रीय शर्म दिवस

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"...पुलिसका यह कहना कि 'हम गैंगरेप के आरोपियों के खिलाफ कार्रवार्इ कर रहे हैं, तो फिर आंदोलन क्यों किया जा रहा है' यह इस बात की ओर इशारा करता है कि सरकार और प्रशासन चाहती है कि मामला इसी घटना तक ही सीमित रहे। लेकिन लोगों का गुस्सा इसलिए भी उमड़ रहा है कि अभी भी लगातार बलात्कार, छेड़छाड़ और उत्पीड़न की घटनाएं जारी हैं।..."



दिल्ली में बसंत विहार में हुए सामूहिक बलात्कार के विरोध में महिलाओं, छात्र-युवाओं, श्रमिक संगठनों और सांस्कृतिक संगठनोंने मिल कर राष्ट्रीय शर्म दिवसमनायाइस आयोजन में एपवा, आइसा-इनौस, एक्टू और जन संस्कृति मंच आदि संगठन शामिल थे। प्रदर्शनकारियों को इंडिया गेट न पहुंचने देने की तमाम कोशिशों के बावजूद निजामुददीन गोलंबर से जुलूस निकालकर वे बैरिकेट को तोड़ते हुए इंडिया गेट पहुंचे और वहां सभा की। यह प्रदर्शन बिल्कुल शांतिपूर्ण था और महिलाओं की आजादी और सुरक्षा की मांग कर रहा था। विवाह, परिवार, जाति, संप्रदाय की आड़ में किए जाने वाले बलात्कार और सुरक्षा बलों द्वारा किए जा रहे बलात्कार और इज्जत के नाम पर की जाने वाली हत्याओं के खिलाफ संसद का विशेष सत्र बुलाकर एक प्रभावी कानून बनाने की भी मांग की गर्इ। बलात्कार के मामलों में सजा की दर कम होने पर भी सवाल उठाया गया तथा सभी दोषियों की सजा सुनिशिचत करने की मांग की गर्इ। आदिवासी सोनी सोढ़ी के गुप्तांग में पत्थर भरने वाले पुलिस अधिकारी के खिलाफ भी कार्रवार्इ की मांग की गर्इ। देश में सामंती-जातिवादी और सांप्रदायिक शकितयों द्वारा किए जाने वाले बलात्कार के दोषियों को भी सजा की गारंटी हो, इस पर जोर दिया गया।
प्रदर्शनकारियोंने पुलिस पर इंडिया गेट पर आज के प्रदर्शन को बर्बरता से कुचलने का आरोप लगाया है और कहा है कि सरकार ने एक तरह से अघोषित इमरजेंसी लागू कर दी है। लोग इंडिया गेट न पहुंच न पाएं, इसके लिए उसने हरसंभव कोशिश की। इसके बावजूद जो लोग वहां पहुंचकर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे थे, उनके खिलाफ पुलिस लगातार उकसावे की कार्रवार्इ करती रही। बिना किसी उग्र प्रदर्शन के उसने आंसू गैस छोड़ने की शुरुआत की। पुलिस ने जिस तरह उपद्रवियों का बहाना बनाकर महिलाओं और निहत्थे लोगों तक पर लाठियां बरसार्इ हैं, पानी की बौछार की है, लगातार आंसू गैस के गोले छोड़े हैं, वह सरकार के तानाशाहीपूर्ण और अलोकतांत्रिक रवैये का उदाहरण है। पुलिस ने साजिशपूर्ण तरीके से शांतिपूर्ण आंदोलन के दमन का बहाना बनाया है, जिसकी जांच होनी चाहिए। आज जिस तरह प्रदर्शनकारियों और आम जनता पर बर्बर हमला किया गया, जिस तरह पुलिस ने लड़कियों के साथ बदसलूकी की, पत्रकारों तक को नहीं बख्सा, वह बेहद शर्मनाक है। इससे स्त्री अधिकार से जुड़े सवालों और आम स्त्री के प्रति पुलिस और यूपीए सरकार की संवेदनहीनता का ही पता चलता है।

पुलिसका यह कहना कि 'हम गैंगरेप के आरोपियों के खिलाफ कार्रवार्इ कर रहे हैं, तो फिर आंदोलन क्यों किया जा रहा है' यह इस बात की ओर इशारा करता है कि सरकार और प्रशासन चाहती है कि मामला इसी घटना तक ही सीमित रहे। लेकिन लोगों का गुस्सा इसलिए भी उमड़ रहा है कि अभी भी लगातार बलात्कार, छेड़छाड़ और उत्पीड़न की घटनाएं जारी हैं। समाचार पत्र ऐसी खबरों से भरे पड़े हैं। एपवा, आइसा, इनौस, एक्टू और जसम का प्रदर्शन संपूर्ण स्त्री विरोधी तंत्र को बदलने की मांग को लेकर था, जिसमें सक्षम कानून बनाने से लेकर बलात्कार और हिंसा के मामले में न्यायपालिका, पुलिस, चिकित्सा तमाम क्षेत्रों में आमूल चूल बदलाव की मांग शामिल थी। यौन हिंसा की तमाम प्रवृतितयों को औचित्य प्रदान करने वाली प्रवृतितयों और संस्कृति के अंत की मांग भी प्रदर्शनकारी कर रहे थे।
अपनी 'ज़िम्मेदारी' निभाती पुलिस
प्रदर्शन के दौरान सभाओं को संबोधित करते हुए वक्ताओं ने कहा कि इस गैंगरेप और बलात्कार, यौन हिंसा, उत्पीड़न के तमाम मामलों में तो न्याय चाहिए ही, कहीं भी किसी वक्त आने-जाने, अपने पसंद के कपड़े पहनने, जीवन के तमाम क्षेत्रों में बराबरी के अवसर और जीवन साथी को चुनने की आजादी भी होनी चाहिए। एपवा की ओर से कविता कृष्णन और आइसा की ओर सुचेता डे ने सभा को संबोधित किया। जसम की ओर से कवि मदन कश्यप, पत्रकार आनंद प्रधान, आशुतोष, सुधीर सुमन, मार्तंड, रवि प्रकाश, कपिल शर्मा, उदय शंकर, खालिद भी इस प्रदर्शन में शामिल हुए। आइसा के ओम प्रसाद, अनमोल, फरहान, इनौस के असलम, एक्टू के संतोष राय, वीके एस गौतम, मथुरा पासवान समेत कर्इ नेताओं ने प्रदर्शन का नेतृत्व किया।

मीडिया को बस 'फांसी' लुभाती है...

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Dilip Khan
दिलीप ख़ान

"...सवालये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया अगर अपना नज़रिया भी ख़बरों में लादता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? मीडिया हाउस में या फिर समाज के इर्द गिर्द यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो उनको आधार बनाकर क्या मीडिया को उसे लगातार उछालते रहना चाहिए?..."

 
फोटो - प्रकाश के. राय 
क्षिणी दिल्ली में मेडिकल छात्रा से चलती बस में सामूहिक बलात्कार का मामला अमानवीय, हिंसक, बर्बर और मर्दवादी समाज से लगातार रिसते मवाद की तरह है। किसी भी समाज में इस तरह की घटना का विरोध होना चाहिए, इस लिहाज से देखे तो बीते हफ़्ते भर से देश के अलग-अलग हिस्सों में चल रहा प्रतिरोध जायज़ है। लेकिन, प्रतिरोध की दिशा, मांग और राजनीति पर भी बहस ज़रूरी है। देश के अधिकांश शहरों में नौजवानों के स्वाभाविक जुटान की परिणति के तौर पर ये प्रदर्शन हो रहे हैं। यह देश का वो युवावर्ग है जो टीवी, अख़बारों और सोशल मीडिया से जुड़ा है। इनके हाथों में मोबाइल है और ये देश-दुनिया की ख़बरों पर मीडिया के मार्फ़त नज़र भी रखता है। तहरीर चौक से ये वाकिफ़ हैं और अन्ना आंदोलन के बाद से सड़कों पर उतरने की आदत भी इन्हें लग चुकी हैं। लेकिन क्या ऐसी हर घटना पर देशभर के युवा सड़क पर उतरने की सोच रखते हैं? जब से सामूहिक बलात्कार की घटना घटी है तब से देश को छोड़ दीजिए दिल्ली के आस-पास के राज्यों में ही बलात्कार के दो और मामले सामने आए। 
दूसरा सवाल- क्या किसी घटना की अमानवीयता की मात्रा यह तय करती है कि इसके ख़िलाफ़ प्रदर्शन हो? ‘स्वत:स्फूर्त आंदोलन’ कहां से शुरू होता है? मीडिया किस आधार पर किसी घटना को कवर करता है? लोगों की संख्या तो इसका आधार कतई नहीं है और न ही घटना की गंभीरता और न ही विषय। अलग-अलग उदाहरण इन तीनों आधारों को ख़ारिज करते हैं। इसके साथ-साथ दो-तीन सवाल और हैं। मीडिया पहले घटना को बड़ा बनाता है या फिर लोग आकर पहले जुटते हैं? पिछले कुछ ‘बड़े आंदोलनों’ के साथ मीडिया का ट्रीटमेंट कैसा रहा?

बीते कुछ वर्षों का अनुभव यह बताता है कि संगठनात्मक ढांचे के बग़ैर कोई आंदोलन स्वत:स्फूर्त तरीके से बिना मीडिया कवरेज के नहीं चल सकता। मेरी इस बात पर कोई आपत्ति नहीं है कि आंदोलन का मीडिया में कवरेज नहीं होना चाहिए, बल्कि मेरा तो सुझाव है हर मीडिया घराने में एक स्थाई ‘आंदोलन बीट’ होना चाहिए जो देश भर में चल रहे अलग-अलग प्रतिरोधों को अपने पन्नों और स्क्रीनों पर जगह दे। आपत्ति ये है कि ज़्यादातर टीवी समाचार चैनल और हिंदी के ज़्यादातर अख़बार पूरे मामले को सनसनी बनाकर पेश कर रहे हैं और अपनी बात लोगों के मुंह में चालाकी से ठूंस रहे हैं और अगर इसमें उनके हाथ असफ़लता लगती है तो अपनी बात को जनता की बात बताकर पेश करने में वो लग जाते हैं। एक टीवी पत्रकार लोगों के बीच जाता है और सवाल उछालता है-आप तालिबानी अंदाज़ में सज़ा चाहते हैं कि नहीं?ज़ोर देकर वो बार-बार यही सवाल पूछता है। टीवी स्क्रीन पर जो एंकर कमेंटरी कर रहा होता (रही होती) हैं वो पूरे दिन लगातार ‘वारदात’,’क्राइम रिपोर्टर’ देखने का एहसास ताजा करावता (करवाती) है। अपनी समूची सहनशीलता को समेटकर ये सब झेलने के बावज़ूद अगर आपके आगे रोज़-रोज़ कोई अख़बार प्रोपेगैंडा बंद नहीं करे तो आप क्या कर सकते हैं? हद से हद अख़बार पढ़ना बंद कर सकते हैं। कीजिए, उनकी बला से। 
 
दैनिकभास्कर समय-समय पर महाअभियान चलाता रहता है। अब देश-दुनिया में अभियान से बात नहीं बनती। लिहाजा ‘महा’ शब्द का चलन पिछले कुछ वर्षों में बढ़ गया है। पत्रिकाओं का विशेषांक धीरे-धीरे ‘महाविशेषांक’ में तब्दील हो गया। तो, इस मामले में भी दैनिक भास्कर ने महाअभियान चलाया। इसका स्लग रखा है- ‘देश को इस ग़ुस्से का अंजाम चाहिए’। भास्कर के पन्नों पर लगातार ग़ुस्सा तैर रहा है। उसकी रिपोर्टिंग में, भाषा में, चित्रों में, लेखों में। हर जगह। उसको नहीं बल्कि ‘देश को अंजाम चाहिए’। (टाइम्स ग्रुप की इतनी नकल ठीक नहीं है भास्कर, पहले ‘महा’ शब्द में और फिर ‘देश के लिए अंजाम’ मांगने में। थोड़ा अपना भी भेजा लगाओ) बीते कुछ दिनों का भास्कर पढ़ेंगे तो दिलचस्प नतीजे तक आप पहुंचेंगे। रविवार के पहले पन्ने (जैकेट पेज) की पहली स्टोरी से बात शुरू करते हैं। भास्कर ने उपशीर्षक दिया है:सबकी बस एक ही मांग- आरोपियों को फांसी दे सरकार।नीचे ख़बर में लिखा है- यह प्रदर्शन पूरी तरह अप्रत्याशित और स्वत:स्फूर्त था। कई मायनों में अभूतपूर्व भी। जत्थों में सुबह 7 बजे से इंडिया गेट पर एकत्र हो रहे इन नौजवानों का न कोई नेता था, न ही वे अपनी मांगों को लेकर एकमत और स्पष्ट थे। 

यानीरिपोर्टिंग ये कह रही थी कि आंदोलन कर रही जनता के बीच सज़ा को लेकर आम-सहमति नहीं है, लेकिन शीर्षक में भास्कर ये तय कर ले रहा है कि सब के सब फांसी मांग रहे हैं। भास्कर अपनी राय को जनता की राय बताकर लगातार पेश कर रहा है। पहले पन्ने पर अख़बार के राष्ट्रीय संपादक कल्पेश याज्ञनिक ने विशेष संपादकीय लिखा है। ‘धोखा’ शीर्षक वाले इस एक पैराग्राफ के संपादकीय में सरकार द्वारा फांसी की सज़ा का प्रावधान नहीं करने के विरोध में जो तड़प है उसके बल पर ऐसा लगता है कि कल्पेश याज्ञनिक को ‘अंतरराष्ट्रीय फांसी दिलाओ संगठन’ का कम से कम सचिव ज़रूर बना दिया जाना चाहिए। जैकेट के बाद अख़बार के पहले पन्ने पर भास्कर ने गृहमंत्री के बयान के हवाले से जो ख़बर छापी है उसका शीर्षक है- कड़े कानून की बात कही पर फांसी का ज़िक्र नही। इसी अख़बार में पेज नंबर 9 पर के हरियाणा-पंजाब पेज पर एक फोटो छपी है। हिंदू सिख जागृति सेना से जुड़ी महिलाओं की ये फोटो है जो सामूहिक बलात्कार मामले के विरोध में सड़क पर प्रदर्शन कर रही है। अख़बार ने फोटो का कैप्शन लगाया है-महिलाओं ने आरोपियों को जल्द से जल्द फांसी देने की मांग की। फोटो में कोई प्लेकार्ड नही, कोई पोस्टर नहीं है और न ही कोई बैनर है जिसमें इस तरह की एक भी मांग हो, लेकिन अख़बार ने फांसी देने की अपील जारी कर दी। इन महिलाओं के हाथ में सैंडल ज़रूर है और जहां तक मेरी समझदारी है सैंडल दिखाने का मतलब फ़ांसी नहीं होती। सैंडल का मतलब सैंडल होता है लेकिन भास्कर के संपादक को ये पता नहीं। 
 
इससेपहले अख़बार ने 109 सांसदों और 9 मुख्यमंत्रियों को पत्र लिखा था जिसमें फांसी की वकालत की गई थी। अब अख़बार ने आह्वान किया है कि वो अपने पाठकों से सांसदों को चिट्ठी लिखवाएगा जो फांसी के समर्थन में होंगी। भास्कर के साथ-साथ और भी कई हिंदी अख़बार इस पूरी मुहिम को हवा दिए हुए हैं। पंजाब केसरी, नवभारत टाइम्स के साथ-साथ दुनिया में सबसे ज़्यादा पढ़ा जाने वाला अख़बार दैनिक जागरण भी ख़बर की पूरी एंगल को इसी तरफ़ मोड़ रहे हैं। जागरण ने पहले ख़बर चलाई –रेप के सभी आरोपियों को मिलेगी फांसी। ये ख़बर फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने की मांग पर आधारित थी। अख़बार सहित टीवी समाचार चैनलों ने लगातार इस बात को उछाला। जब मामला जनता के बीच पूरी तरह पक गया तो टीवी जनित उन्माद में सड़क पर उतरे लोग भी इस मांग को ज़ोर-शोर से उठाने लगे। अब मीडिया के लिए ये जनता का वक्तव्य बन गया लिहाजा अब शीर्षक सीधे-सीधे नारों की शक्ल में उभरने लगा-रेप के आरोपियों को फांसी दो। 
सवालये है कि ऐसे मामलों को कवर कर रहा मीडिया अगर अपना नज़रिया भी ख़बरों में लादता है तो उसकी दिशा क्या होनी चाहिए? मीडिया हाउस में या फिर समाज के इर्द गिर्द यदि ‘लिंग काट लेने’, ‘चौराहे पर फ़ांसी देने’, ‘सामूहिक रूप से पीट-पीट कर मार डालने’ की बात उठती है तो उनको आधार बनाकर क्या मीडिया को उसे लगातार उछालते रहना चाहिए? तिस पर मिर्च-मसाला का पूरा कारखाना तो मीडिया के लिए बना ही है! आख़िरकार सज़ा के जिस पुराने रूप को इन अख़बारों और टीवी चैनलों के संपादक देश में स्वीकार्य बनाना चाहते हैं वे उसे अपनी राय न बताकर जनता की आवाज़ क्यों करार दे रहे है? इससे अलग एक सवाल है कि मीडिया को घटना-घटना ऐसे औचक ख़याल क्यों आता रहता है और घटना पुरानी हो जाने के बाद वह उसे ठंडे बस्ते में लादकर क्यों फेंक आता है? कुछ हफ़्ते पहले अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू ने दिल्ली में छेड़छाड़ और यौन शोषण के मुद्दे पर श्रृंखला में स्टोरी चलाई। इसमें पत्रकारों के निजी अनुभव तक शामिल थे।
 
बाक़ी अख़बार या चैनल मुद्दे को ट्रेस करके क्यों नहीं अपने पन्नों या एयर टाइम में जगह देते हैं? क्या बलात्कार का मामला महज इस एक घटना तक सीमित है या फिर समाज में हमेशा सुसुप्त अवस्था में यह मौजूद रहता है? मीडिया इन बातों की पड़ताल क्यों नहीं करता और बलात्कार के बाद महिला सशक्तिकरण के मुद्दे पर बहस कराने के लिए टीवी चैनल अपने पैनल में अर्चना पूरण सिंह जैसे मेहमानों को क्यों बुलाता है जिनके पूरे करियर का अहाता ही स्त्रीविरोधी हल्के, फूहड़ चुटकुलों पर हंसने तक सीमित है। 
लाइवदिखाने और ग़ुस्से को इनकैश करने के लिए टीवी चैनल जिस तड़प के साथ अपने रिपोर्टर को सड़क पर तैनात करता है उसमें कई बार रिपोर्टर यह तक भूल जाता है कि वह ऑन एयर है। ‘आजतक’ के संवाददाता ने इंडिया गेट पर लाइव रहते हुए आह्वान किया- ‘मारे, मारो’। उसी चैनल पर एक लड़की ने अपने ग़ुस्से को जताया- ‘सरकार कुछ करती क्यों नहीं बहन***’। यानी एक महिला की ज़ुबान से गाली के रूप में भी महिलाविरोधी शब्द ही निकलते हैं। मीडिया इसे भी सारी महिलाओं की राय क्यों नहीं करार दे देता?

दिलीपपत्रकार हैं. अभी राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता dilipkmedia@gmail.com है.

प्रोटेस्ट को कवर करने आये मीडिया कर्मियों की एक पड़ताल

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केशव कुमार 

"...इसी बीच कुछ टीवी चैनल पर समाचार 'चमके' कि ‘असामाजिक तत्व हैं प्रोटेस्ट में’, ‘पुलिस पर पथराव किया गया है’ ‘हिंसक हो रहे हैं लोग’, ‘सुरक्षा घेरा तोडा जा रहा है’, ‘पुलिस तो बचाव कर रही है.’ इस बारे में इन रिपोर्टर्स से पुछा गया कि ‘साहब! राजपथ तो दिन में कई बार साफ़ किया जाता है. यहाँ पुलिस पर फैंकने के लिए जनता के पास पत्थर कहाँ से आ गया यहाँ तो दुकाने भी नहीं कि लोग बोतल खरीद कर पुलिस पर फैंकें. इस सवाल पर मीडिया कर्मी गुस्सा गए और कुछ तो व्यक्तिगत होने लगे..."


स भयानक हादसे का एक हफ्ता पूरा हो गया है. पीड़िता को सहानुभूतियों के अलावे क्या हासिल हुआ है? सोचने की इस एक बात से आगे अनेक बातें और हैं. बहरहाल देश–विदेश के अलग–अलग हिस्सों के बरक्स बलात्कार और बलात्कारियों के लिए सर्वाधिक माकूल जगह दिल्ली में कुछ चुनिन्दा जगहों पर हो रहे जन-आंदोलनों और उसकी कवरेज़ के लिए पहुंचे पत्रकार दोस्तों से बात करके हमने उनकी सोच और संवेदना की जमातलाशी करने की कोशिश की. मुनिरका, जंतर मंतर, इंडिया गेट, राष्ट्रपति भवन, मुख्यमंत्री आवास, गृह मंत्री के दफ्तर, दस-जनपथ और सफदरजंग अस्पताल के सामने आन्दोलन कर रहे छात्र-छात्राओं, आमजनों और राजनितिक कार्यकर्ताओं की गतिविधियों को कवर कर रहे इलेक्ट्रोनिक मीडियाकर्मियों से गपशप की तो कई बातें उभरकर सामने आई.


समाज, कानून, दर्शन वगैरह की बातों से परे हटकर सीधे-सीधे मन की बात कहने का हमने आग्रह किया तो लोग खुल कर सामने आये.

जगह- मुनिरका, समय- दोपहर से ठीक पहले, दिन-पहला


सड़क जाम कर रहे और उसके बाद वसंत विहार पुलिस थाने के सामने मानव श्रृंखला बना रहे छात्र –नौजवानों को कवर करने आये कई मीडियाकर्मी हादसे से ठीक तरह से वाकिफ नहीं थे शायद, देर से उठकर सीधे असाइनमेंट पर आ जाने से बेखबर होने को जस्टिफाई किया उन सबने , खैर !

जगह- सीएम आवास के सामने, समय- दोपहर के आसपास, दिन– दूसरा

स्टुडेंट्स पर वॉटर कैनन और आंसू गैस के गोले बरसने की शुरुआत, कुछेक संजीदा संवाददाताओं में गुस्सा. पर जिनसे कुछ पूछा उसने कहा– ‘ऐसा होता है, सीएम् क्या कर सकती है.’
इसी दिन आई.टी.ओ. पर पुलिस हेडक्वार्टर के सामने जमा नौजवानों की बातों के  बजाय कमिश्नर से मिलने पहुंची राज्यसभा सांसद जया बच्चन का इंतज़ार कर रहे मीडिया के दोस्तों ने सवालों से पहले ही कहा – समझते तो तुम हो ही चीजें ....

जगह- सफदरजंग अस्पताल, समय– शाम सात बजे, दिन- तीसरा

जे.एन.यू. छात्रसंघ और विभिन्न विश्वविद्यालयों के स्टूडेंट यहाँ मोमबत्ती जलाकर पीड़िता के लिए समर्थन और दोषियों को सख्त सजा की मांग कर रहे थे. पुलिस आंदोलन की विडियोग्राफी करवा रही थी और हिदायते देने में लगी थी . मिडिया की बड़ी भीड़ में कुछ ने जवाब देने का समय निकाल लिया. ज्यादातर मीडियाकर्मियों ने रिपोर्ट में अपना नाम ना देने का वादा पहले करवा लिया .

सवाल –
*आपका इस दिल दहला देनेवाले हादसे के बारे में क्या सोचना है ?
*अपराधियों को सजा के बारे में आपकी राय ..?
*ऐसे दर्दनाक हादसे फिर ना होने पाए के लिए आपके सुझाव..?
*सरकार से आपकी मांग ..?
*दिल्ली को लेकर आपकी चिंता ?

एक मशहूर बिजनेस चैनल की महिला रिपोर्टर – “आई एम् सो हैप्पी ...फाइनली आई एम डीप्ल्योड हियर. यहाँ ऑनस्क्रीन रहने के ज्यादे चांस हैं. सरकार क्या करेगी ? लोगों को ही कुछ करना होगा.”

खबरिया चैनल की महिला रिपोर्टर – “मेरी पूरी संवेदना है पीड़िता के साथ.” फिर चुप्प ..

अंग्रेजी खबरिया चैनल का रिपोर्टर जो सड़क पर ‘लेट’ कर भी लिंक दे रहा था – “अपराधियों को चौराहे पर फांसी देना चाहिए. दिल्ली बेकार शहर है.”

अंग्रेजी खबरिया चैनल का एक रिपोर्टर – “इट्स नॉट माय बिजनेस . आई एम् डूइंग माय जॉब . फांसी लोगों के कहने से दी जाती है क्या ?? ”

इसी दरम्यान एक क्रिस्पी खबर आने से सब एक तरफ निकल पड़े.

जगह- जंतर मंतर, समय- दोपहर एक बजे , दिन- चौथा

‘आप’ का धरना प्रदर्शन . यहाँ महिला पत्रकारों की संख्या औसतन काफी कम .

सवाल – वही.

ज्यादातर पत्रकारों के मिलते जुलते जवाब. यहाँ पत्रकार भी लोगों को सोनिया गाँधी के घर की ओर कूच करने की सलाह दे रहे हैं.

जगह- इण्डिया गेट, समय-शाम के तक़रीबन आठ बजे, दिन– पांचवां

एक सामजिक संस्था के लोग यहाँ अन्तः वस्त्रों की होली जला रहे हैं. एक थियेटर ग्रुप के लोग नुक्कड़ नाटक कर लोगो को जागरूक कर रहे हैं .

सवाल- ज्यादातर वही, एक सवाल नया कि आप इस पुरे घटनाक्रम में अपनी भूमिका  कहाँ देखते हैं?

ज्यादातर  लोगों को कहना है कि उन्हें जो करना है कर रहे हैं . सरकार पर दवाब बनाना सबसे बड़ा उपाय है . बाकी पहले के सवालों के जवाब वही स्टीरियोटाईप .

जगह- राष्ट्रपति भवन क सामने, समय– दोपहर के पहले से अँधेरा होने तक, दिन- चौथे से सातवें तक

पानी की बौछारें दी जा रही हैं संघर्ष कर रहे लोगों पर. आंसू गैस के गोले के साथ लाठियां भी स्टूडेंट्स पर बरसा रही है पुलिस. लोगों के गुस्से के बीच  कई बड़े टीवी पत्रकार पहुंचे हुए हैं. आपाधापी के बीच सवाल कि लोगों को फैसले के लिए कितना इंतज़ार करना पड़ेगा. इसके लिए आपकी ओर से कोशिशों की कोई जानकारी..

जवाब– यह तो वक़्त ही बताएगा . पीड़िता की तबियत सुधर रही है . कोर्ट जल्द ही कन्विक्सन देगा. बाकी पेंडिग केसेस के लिए भी फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट का  दवाब बनाया जा रहा है ..पर यह वक़्त लेगा.

इसी बीच कुछ टीवी चैनल पर समाचार 'चमके' कि ‘असामाजिक तत्व हैं प्रोटेस्ट में’, ‘पुलिस पर पथराव किया गया है’ ‘हिंसक हो रहे हैं लोग’, ‘सुरक्षा घेरा तोडा जा रहा है’, ‘पुलिस तो बचाव कर रही है.’ इस बारे में इन रिपोर्टर्स से पुछा गया कि ‘साहब! राजपथ तो दिन में कई बार साफ़ किया जाता है. यहाँ पुलिस पर फैंकने के लिए जनता के पास पत्थर कहाँ से आ गया यहाँ तो दुकाने भी नहीं कि लोग बोतल खरीद कर पुलिस पर फैंकें. इस सवाल पर मीडिया कर्मी गुस्सा गए और कुछ तो व्यक्तिगत होने लगे.

अगले दिन इसका जवाब मिला कि रूलिंग पार्टी के स्टूडेंट विंग ने पत्थर से भरे झोले मंगवाए थे. कुछेक  पत्थरबाजों  की  तस्वीरें भी दिखाई गयी. खैर यहाँ सवाल करना इन सबके लिए ज्यादा हो जाता.

                    अब, जबकि प्रधानमंत्री ,गृहमंत्री , गृहसचिव , कमिश्नर, उपराज्यपाल और रूलिंग पार्टी की सर्वेसर्वा इन सबका बयान आ चुका है. किसीने यह नहीं पूछा कि फास्ट ट्रैक सुनवाई और दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा की  इतनी  संगठित इच्छाशक्ति के बावजूद अभी तक मामलें में चार्जशीट तक दाखिल नही किया जा सका है. क्यों हाईकोर्ट भी पुलिस और प्रशासन की अबतक की कारवाईयों को नाकाफी बता रहा है और नाखुश है?

जंतर मंतर पर पूर्व आर्मी चीफ वी के सिंह और 'राजनीति' योग गुरु रामदेव पर केस दर्ज हो चुका है, हजारों छात्र नौजवान और अवाम के साथ मीडियाकर्मी भी घायल हो गये हैं.  एक कांस्टेबल की संयोग से हुई मौत को पुलिस आला-अधिकारियों ने आन्दोलन के खिलाफ माहौल बनाने के लिए भुनाने की असफल कोशिश की हैं..  पुलिस के इस फर्जीवाड़े की पोल जल्द ही खुल जाने से पुलिस की रही बची साख भी जाई रही है.  इस सबसे आगे सूचना और प्रसारण मंत्री ने इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए एडवाईजरी निकाल दिया है . कुल मिलाकर मामला थमा नहीं है.

चित्र सामने है , निष्कर्ष के लिए आप स्वतंत्र हैं. समाज में मिडिया के लिए काम कर रहे लोग भी शामिल हैं. जिम्मेदारी हर जगह की जड़ता और  यथास्थितिवादिता तोड़ने की उठानी होगी. नए सिरे से सोच रहे लोगो के साथ अपनी सोच और समझ को मिलाकर सहयोग का समय है. यह इंतज़ार का समय नहीं है ..कोशिशों का है. तो अपनी अपनी  जिम्मेदारियों के लिए अपने अंदर ही भूमिका की तलाश और खुद से ही शुरुआत करके हम आगे बढ़ेंगे . अगर नारीमुक्ति संघर्ष से जुड़े और पितृसत्ता के खिलाफ़ जमकर लड़े तो यह सिरा हमें तमाम सुधारों की  ओर  खुद-ब-खुद आगे ले जायेगा... तो निकलिए .. 

केशव पत्रकार हैं. अभी ईएमएमसी में नौकरी. 
इनसे संपर्क का पता keshavom@gmail.com है. 

मुख्यमंत्री की 'पांच लाख' की 'संवेदना' का सच!

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Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी


"...क्या संवेदनशीलता ऐसी चीज हो सकती है,जो एक जैसे ही कई मामलों में अलग-अलग स्तर पर नजर आती हो?जो मामला मीडिया की सुर्खियाँ बन जाए उसमें संवेदनशीलता का स्तर अत्याधिक बढ़ जाए और  मामला यदि सुर्खियाँ ना बटोर रहा हो तो उसकी तरफ झांका भी ना जाए! मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार और क़ानून का अनुपालन कराने के लिए उत्तरदायी पद पर बैठे व्यक्ति के संवेदनशीलता प्रदर्शन में यदि ऐसा उतार-चढ़ाव दिखा रहा हो तो उस संवेदनशीलता के प्रदर्शन पर संदेह होना लाजमी है..."



उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा
दिल्ली में एक युवती के साथ जघन्य गैंग रेप के खिलाफ जनाक्रोश की गूँज पूरे देश में सुनाई दी तो उत्तराखंड भी उससे अछूता नहीं रहा. उत्तराखंड का इस जघन्य कांड से एक सम्बन्ध यह भी है कि इस बर्बर घटना की शिकार हुई युवती देहरादून के ही एक निजी शिक्षण संस्थान की छात्रा रही है. उत्तराखंड के मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने उक्त युवती के इलाज के लिए पांच लाख रुपये देने की घोषणा की है. विजय बहुगुणा के राजनीतिक विरोधी भी, उत्तराखंड के मुख्यमंत्री की इस घोषणा के प्रशंसक हो सकते हैं. एक ऐसी युवती जिसका उत्तराखंड से इतना ही सम्बन्ध है कि वो यहाँ पढ़ती है, उसके लिए मुख्यमंत्री की दरियादिली काबिले तारीफ ही कही जानी चाहिए. संवेदनहीन राजनीति के इस दौर में एक मुख्यमंत्री का इतना संवेदनशील होना तो सुखद ही प्रतीत होता है. लेकिन इस संवेदनशीलता की असलियत पर तब संदेह होने लगता है,जब राज्य के भीतर युवतियों और छोटी बच्चियों के साथ घटी दिल्ली कांड जैसी ही घटनाओं पर हम सरकार का संवेदनहीन रवैया देखते हैं. इस लेख में ऐसी तीन घटनाओं का विवरण है,जिनमें दो युवतियों और एक बच्ची की बलात्कार के बाद हत्या की बात सामने आई है, लेकिन जिनकी जघन्यता के बावजूद सरकार के माथे पर ना तो चिंता की कोई लकीर दिखती है और ना ही दोषियों को सजा दिलवाने की कोई इच्छा.
देहरादूनमें 2009में अंशु नौटियाल हत्याकांड हुआ. डी.ए.वी.(पी.जी.)कालेज में बी.काम की छात्रा अंशु,घर की कमजोर आर्थिक स्थिति के चलते पी.सी.ओ. में भी नौकरी करती थी और उसके बाद कम्प्युटर कोर्स करने जाती थी. ये उसकी रोज की दिनचर्या थी. लेकिन 23मई 2009को 21 वर्षीय अंशु घर नहीं पहुँची. दो दिन बाद 25मई  2009को देहरादून के जिलाधिकारी के आवास के बाहर एक बोरे में उसकी लाश मिली. इस हत्याकांड से देहरादून दहल गया. लोग सड़कों पर उतर आये. लगभग दो महीने तक चले आंदोलन और अंशु के परिजनों की मांग पर सरकार ने इस मामले में सी.बी.-सी.आई.डी. जांच के आदेश दिए. पुलिस ने इस मामले में एक दुकान के सेल्समैन प्रवीण चावला को हत्यारोपी बताकर गिरफ्तार किया. पुलिस के दावे के अनुसार प्रवीण का एक युवती से प्रेम प्रसंग चल रहा था. उसके पिता को फंसाने के लिए ही उसने अंशु की हत्या की. आरोप था कि वह 23 मई को अंशु को बहलाकर अपने घर ले गया और वहां उसकी हत्या कर दी. लेकिन पुलिस की यह सारी कहानी अदालत में रेत के महल की तरह ढह गयी और आरोपी युवक कुछ समय पहले अदालत से बरी हो चुका है. अंशु हत्याकांड में न्याय के लिए अभियान चला रहे डी.ए.वी.कालेज के पूर्व छात्र संघ अध्यक्ष पंकज क्षेत्री कहते हैं कि आरोपी तो बरी हो गया,लेकिन अंशु की हत्या तो हुई थी,तो हत्यारा कौन है और वो कैसे पकड़ा जायेगा? जिस समय अंशु नौटियाल हत्याकांड हुआ उस समय विजय बहुगुणा इस क्षेत्र के सांसद थे. तब भी इस प्रकरण में उनकी कोई उल्ल्लेखनीय भूमिका नहीं रही थी.आज जब वे मुख्यमंत्री हैं तब भी दोषियों को सजा दिलवाने में ना उनकी और ना ही उनकी सरकार की कोई रूचि दिखाई दे रही है.

नवम्बर2008में हल्द्वानी में प्रीती शर्मा हत्याकांड हुआ. नैनीताल जिले के हल्द्वानी के नजदीक स्थित मोतीनगर के तिराहे से लगभग आधा किलोमीटर दूर एक गन्ने के खेत में, प्राईवेट नौकरी करने वाली युवती प्रीती शर्मा की लाश मिली. इस हत्याकांड में बलात्कार के बाद हत्या का आरोप है. इस हत्याकांड के खिलाफ संघर्ष समिति बना कर इस क्षेत्र की जनता ने लगातार चार महीने तक आंदोलन चलाया. पुलिस ने भास्कर जोशी नामक एक व्यक्ति को इस हत्याकांड के सन्दर्भ में गिरफ्तार किया, जो पिछले दिनों अदालत से जमानत पर छूटा है. लेकिन प्रीती शर्मा हत्याकांड के विरुद्ध आंदोलन के लिए बनी संघर्ष समिति के संयोजक और भाकपा(माले) के राज्य कमेटी सदस्य कामरेड बहादुर सिंह जंगी का आरोप है कि पुलिस ने राजनीतिक संरक्षण प्राप्त बड़े अपराधियों को बचाने के लिए एक छुटभय्ये अपराधी को गिरफ्तार किया था. कौन जाने ये छुटभय्या भी कल ‘बाइज्ज़त’ बरी हो जाए.इस हत्याकांड के खिलाफ चले आंदोलन के दबाव में तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूडी ने इस हत्याकांड की सी.बी.आई, जांच की घोषणा की थी.खंडूडी सत्ता से हट गए,उनके ममेरे भाई विजय बहुगुणा राज्य के मुख्यमंत्री हो गए.लेकिन चार साल बाद भी प्रीती शर्मा हत्याकांड की सी.बी.आई.जांच का दूर-दूर तक पता नहीं है.जिस समय इस हत्याकांड की सी.बी.आई.जांच की घोषणा हुई थी,उस समय राज्य में भाजपा की सरकार थी.मुख्यमंत्री खंडूडी समेत सभी भाजपाई ये दावा करते थे कि उनकी सरकार ने तो सी.बी.आई.जांच की संस्तुति केंद्र को भेज दी है.वहीँ नैनीताल संसदीय क्षेत्र के सांसद के.सी.सिंह बाबा का आरोप था कि भाजपा सरकार ने संस्तुति उचित प्रारूप के अनुसार नहीं भेजी,इसलिए उक्त हत्याकांड की सी.बी.आई.जांच नहीं हो पा रही है.इस तरह एक युवती की हत्या से जुड़ा इतना संवेदनशील मसला कांग्रेस-भाजपा के एक दूसरे को कमतर साबित करने की राजनीति की भेंट चढ गया. लेकिन आज तो राज्य में भी कांग्रेस की सरकार है और केंद्र में भी.मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा महिलाओं के यौन उत्पीडन की घटनाओं के प्रति अगर वाकई उतने ही संवेदनशील हैं,जितना कि उन्होंने दिल्ली गैंगरेप प्रकरण में स्वयं को दिखाना चाहा है तो वे क्यूँ नहीं चार साल से लंबित पडी प्रीती शर्मा हत्याकांड की सी.बी.आई.जांच के मामले को आगे बढ़ाते ?

उक्तदो मामले बेहद संगीन हैं.लेकिन इनसे भी संगीन मामला है संजना ह्त्याकांड का.10जुलाई 2012को नैनीताल जिले की लालकुआं तहसील के बिन्दुखता में आठ साल की बच्ची संजना को रात में घर से अगवा किया गया.सुबह उसकी लाश गन्ने के खेत में पायी गयी.दरिंदों ने अबोध संजना से दुष्कर्म करने के बाद गला घोट कर उसको मार डाला था.इस घटना के खिलाफ पूरे इलाके के लोग सड़क पर उतरे हुए हैं.इस क्षेत्र के विधायक और उत्तराखंड सरकार में श्रम मंत्री हरिश्चंद्र दुर्गापाल ने घटना के तुरंत बाद संजना के घर वालों को सांत्वना देते हुए ऐलान किया था कि अडतालीस घंटे में इस मामले का खुलासा कर दिया जाएगा.राज्य के एक जिम्मेदार कैबिनेट मंत्री की इस घोषणा से पीड़ित परिवार को लगा कि शायद उन्हें न्याय मिलेगा और दोषी जेल की सलाखों की पीछे होंगे.लेकिन घटना के 6महीने पूरे होने को हैं और मंत्री महोदय की 48घंटे में खुलासे की घोषणा के पूरे होने के कोई आसार नजर नहीं आ रहे हैं.संजना हत्याकांड के दोषियों की गिरफ्तारी के लिए महिला संगठन-अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला एसोसियेशन(ऐपवा) ने सैकड़ों महिलाओं के साथ 27सितम्बर 2012को लालकुआं कोतवाली का घेराव किया.25दिसम्बर 2012 को ऐपवा ने प्रधानमन्त्री और मुख्यमंत्री को संजना हत्याकांड की सी.बी.आई.जांच के लिए एक हज़ार से अधिक लोगों के हस्ताक्षर वाला ज्ञापन भेजा है.ऐपवा नेता विमला रौथाण का कहना है कि संजना हत्याकांड में स्थानीय पुलिस ने बेहद लचर तरीके से काम किया है और मंत्री की घोषणा के बावजूद अपराधी पुलिस की पकड़ से बाहर हैं.इसलिए मासूम बच्ची के हत्यारों के पकडे जाने के लिए इस केस को अविलम्ब सी.बी.आई.को सौंपा जाना जरुरी हो जाता है.

संजना हत्याकांड के अलावा जिन दो ह्त्याकांडों का जिक्र यहाँ किया गया है,उनसे विजय बहुगुणा यह कह कर भी पल्ला झाड सकते हैं कि जब ये कांड हुए तो वे मुख्यमंत्री नहीं थे.हालांकि यह तर्क बहुत वजनदार नहीं क्यूंकि सांसद तो वे तब भी थे और संवेदनशीलता का परिचय देने में, मुख्यमंत्री ना होना,एक सांसद के लिए कतई बाधक नहीं हो सकता.लेकिन एक बारगी उनका यह तर्क मान भी लिया जाए तो संजना हत्याकांड के मामले में वे क्या कहेंगे?आठ साल की मासूम संजना की तो बलात्कार के बाद हत्या विजय बहुगुणा के ही शासनकाल में हुई है.एक ऐसे क्षेत्र में हुई है,जहां का विधायक उनके मंत्रिमंडल में कबिनेट मंत्री है.इस कैबिनेट मंत्री की घोषणा के बावजूद पुलिस नहीं हिलती और सरकार चुपचाप घोषणा सुन कर बैठ जाती है तो क्या एक संवेदनशील और सक्षम सरकार होने के लक्षण हैं?

वापसलौटते हैं दिल्ली गैंगरेप पर जिसकी पीड़ित को मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने पांच लाख रुपया देने की घोषणा की है.उक्त तीनों घटनाएं जो मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के शासन वाले राज्य में घटी और जिन में अपराधी पुलिस की गिरफ्त से बाहर हैं,उनके प्रति मुख्यमंत्री और उनकी सरकार का उपेक्षापूर्ण रवैया क्या दर्शाता है?इन मामलों में राज्य सरकार का रुख कम से कम उस संवेदनशीलता से तो मेल नहीं खाता है,जो मुख्यमंत्री ने दिल्ली गैंगरेप के मामले में दिखाई है.क्या संवेदनशीलता ऐसी चीज हो सकती है,जो एक जैसे ही कई मामलों में अलग-अलग स्तर पर नजर आती हो?जो मामला मीडिया की सुर्खियाँ बन जाए उसमें संवेदनशीलता का स्तर अत्याधिक बढ़ जाए और  मामला यदि सुर्खियाँ ना बटोर रहा हो तो उसकी तरफ झांका भी ना जाए! मुख्यमंत्री जैसे जिम्मेदार और क़ानून का अनुपालन कराने के लिए उत्तरदायी पद पर बैठे व्यक्ति के संवेदनशीलता प्रदर्शन में यदि ऐसा उतार-चढ़ाव दिखा रहा हो तो उस संवेदनशीलता के प्रदर्शन पर संदेह होना लाजमी है. उत्तराखंड के ऊपर वर्णित और इन जैसे कई अन्य प्रकरणों के अपराधियों को सजा दिलवाने और पीड़ितों को न्याय दिलवाने में मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा की भूमिका से ही तय हो सकेगा कि दिल्ली गैंग रेप पीड़ित के मामले में,उनकी संवेदनशीलता वास्तविक थी या फिर सुर्खियाँ बने मामले में,सरकारी खर्च पर अपने लिए चर्चा बटोरने के लिए किया गया भंगिमा प्रदर्शन(Posturing)!अभी तो यह अभिनय कौशल से भरपूर नाटकीय अभिव्यक्ति ही मालूम पड रही है.संवेदनशीलता को नाटकीय तो नहीं होना चाहिए मुख्यमंत्री महोदय ! 

इन्द्रेश भाकपा (माले) के सक्रिय कार्यकर्ता हैं. 
इनसे इंटरनेट पर indresh.aisa@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है. 

कविता : ...और भी करीब आएँगे वे!

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-मृत्युंजय भास्कर 

तुम्हारे पास डंडे हैं
आंसू गैस है
तेज पानी की बौछारें हैं
हूटर लगी तुम्हारी गाडिय़ां कर रही 144 का ऐलान
पुलिस के पीछे है रिजर्व पुलिस
उसके पीछे अर्धसैनिक और फौज
बंदूकगोलेतोपेंलांचर.

तुम दूरबीनों से देख लेते
हो विरोधी टुकडिय़ों को आते हुए
तुमने पूरे शहर में लगा रखे हैं हजारों हजार खुफिया कैमरे
मुखबिर छोड़ रखे हैं,
जहां भी लोग आपस में बात करते हैं.


तुम्हारे पास सब कुछ है
तुम्हारी ताकत का अंदाजा नहीं.

मगर तुम क्यों नहीं रोक पा रहे उनको फिर से आने से
वे पिटते हैं तुम्हारे हाथों मगर नहीं टूटता उनका हौंसला

टिड्डों के दल की तरह वे उमड़े चले आ रहे हैं
पता नहीं कितनों की हड्डियां तोड़ चुके हो तुम
कितनों का थोबड़ा खराब कर चुके तुम्हारे बहादुर जवान
तुम चूक चुके हो भारत सरकार.

तुमने,
तुम सबों ने जनता का भरोसा खो दिया है
तुम रंगे सियार मत दो उलाहना.
आखिर कितनी उलाहना
कितनी दलीलें?
कितने आश्वासन?
उस सब का जिक्र मत करवाओ
लाखों लाख पन्नों में लिखे जा सकते हैं तुम्हारे गुनाह.
अब ये लश्कर नहीं थमेंगे
वे कोई नहीं हैं
निखालिस साधारण लोग हैं
जिन्होंने बहुत धैर्य दिखाया
रायसीना हिल्स चढऩे में
अब तक वे आते थे जंतर मंतर
और पूरे कायदे से.
तुम सुनना भूल चुके थे
इसलिए और करीब आए हैं.

सावधान !  वे और भी करीब आएंगे तुम्हारे.
वे एक दिन नहीं
या किसी तय समय पर नहीं आएंगे.

हांनहीं है उनके पास इस बार कोई नेता
जो उन्हें बताए लडऩे की रणनीति
संवैधानिक सीमाएं.
उनके सारे स्पार्टाकस डाल दिए हैं तुमने सलाखों के भीतर
या मार डाला उन्हें जंगलों में फर्जी एनकाउंटर कर.

मगर देखो तुम्हारा वहम गलत निकला
बगावतें नहीं थामी जा सकतीं
वे हो सकतीं हैं सीसी मेंबरों के बगैर.

 तुम तो महज देख रहो हो अभी दिल्ली
कस्बों-गांवों में जो धुंआ उठ रहा है उसका क्या करोगे? 
बुरी तरह टूट चुके हैं तुम्हारे सैनिकों के हौंसले
वे बात-बात में आपा खो बैठते हैं
मत समझना वे तुम्हारे पालतू कुत्ते हैं
रोज-रोज की झकझक से आजिज आकर एक दिन वो तुम्हीं पर गुर्राने लगेंगे
और ऐसा निश्चित रूप से होगा.
अखबारो तुम भी चुप करो! 
तुम्हारी सनसनियां नहीं 
ये जो घट रहा है रोज 
तुम थक जाओगे स्याही खराब कर
ओ मसखरे चैनलो! 
बंद करो गिटर-पिटर
तुम्हारी लपलपाती जीभ पर बहुत चढ़ चुका है टीआरपी सना रक्त
खून पीना बंद करो!


तुम सब नफीस लोग, याद नहीं रखते अपने कुकृत्य
जनता भूलती नहीं है
बहुत पुरानी लड़ाई है येजो सडक़ों पर सनक आई है.
सालों पुराना गुस्सा है
ये नहीं थमेगा शेयर बाजार के गिर जाने और ढह जाने की चिंताओं में.
यह बढ़ा आ रहा है सीवर लाइनों की तरह 
बास मारता हुआ
वेंटिलेटर पर जिंदगी को जूझती
उस मामूली लडक़ी ने 
निकाल दिया है 
मुल्क की सबों लड़कियों को दहलीज से बाहर
तुम्हारी ताकत से उनका भरोसा उठ चुका है.

वे नहीं मांगेंगी अब कभी पुलिस की मदद
अब ये वो नहीं रही जो सडक़ पर छेड़े जाने से डरेंगी
उनके भीतर की आग बहुत है अत्याचारियों को जला देने के लिए
तुम अपने वजूद की सोचो
ओ राजाओ?
भागोगे कहां तक
जनता उमड़ी आ रही है...


मृत्युंजय भास्कर पेशे से पत्रकार हैं और तेवर से कवि. 
इनसे संपर्क का पता chebhaskar@gmail.com है.

असल मुद्दा है बलात्कार की मानसिकता

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-सत्येंद्र रंजन
सत्येन्द्र रंजन

"...जबकि मृत्युदंड अगर बलात्कार सहित किसी भी अपराध को रोकने में सहायक होता, तो समाज को काफी पहले अपराध-मुक्त बनाने में सफलता मिल गई होती। अतीत में और आज भी दुनिया के बहुत से समाजों में बलात्कारियों को न सिर्फ मृत्युंदड देने का प्रावधान है, बल्कि ऐसा पत्थरों से मार कर करने की क्रूर व्यवस्थाएं भी हैं। दिल्ली की घटना निसंदेह अत्यंत बर्बर है। लेकिन हकीकत यह है कि बलात्कार की ज्यादातर घटनाओं में अपराधी इस हद नहीं जाते।..."



दिल्ली में तेइस वर्षीय छात्रा से बलात्कार की बेहद दुखद और आक्रोश पैदा करने वाली घटना के बाद जिस तरह लोग आंदोलित हुए हैं, उसे भारत के बेहतर भविष्य का संकेत माना जा सकता है। पिछले साल भ्रष्टाचार और अब बलात्कार के खिलाफ बड़ी संख्या में लोगों- खासकर नौजवानों- का स्वतः-स्फूर्त ढंग से सड़कों पर उतर आना यह संकेत देता है कि लोग अब सब कुछ चुपचाप सह लेने को तैयार नहीं हैं। कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र ऐसे जन हस्तक्षेप से समृद्ध और स्पदंनशील बनता है। ताजा घटनाक्रम में लोगों की दिखी दृढ़-संकल्पशक्ति का ही यह नतीजा है कि सरकार और प्रशासन हरकत में आए हैं। इस बहुचर्चित घटना में फुर्ती से सभी छह आरोपियों की गिरफ्तारी, ड्यूटी में ढिलाई बरतने वाले एसीपी स्तर के बड़े अफसरों समेत कई पुलिसकर्मियों का निलंबन, न्यायिक जांच, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का फैसला, दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के लिए घोषित अतिरिक्त उपाय, थानों में तुरंत शिकायत लिखने का निर्देश, और राजनीतिक स्तर मची हलचल- ये सब जन दखल का ही परिणाम हैं। अगर सचमुच इनमें से कुछ उपायों को संस्थागत रूप दिया गया, तो वह अपराध- खासकर यौन अपराधों- से महिलाओं को सुरक्षित बनाने की दिशा में एक टिकाऊ उपलब्धि होगी।

बहरहाल,इस आंदोलन ने राजनीतिक दलों की सीमा को फिर रेखांकित किया है। यह सचमुच हैरतअंगेज है कि इस जनाक्रोश को नेतृत्व देने के लिए आगे आने का साहस किसी दल ने नहीं दिखाया। इसी माहौल के बीच ही दोनों प्रमुख दलों- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने एक-एक राज्य का चुनाव जीत लिया, जो जाहिर है उनके लिए बड़े संतोष की बात होगी। चूंकि राजनीतिक पार्टियां अब सिर्फ चुनाव की मशीन में तब्दील हो गई हैं, इसलिए उनके नेताओं को जागरूक जनता के एक बड़े हिस्से को परेशान कर रही समस्याएं या मुद्दे स्पर्श तक तक नहीं करते। जब कोई बड़ी हलचल मच जाए तो बयानबाजी या फ़ौरी असर वाले एलान करके वे अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अपने इसी रवैये के कारण समाज को वैचारिक एवं वास्तविक नेतृत्व देने के लिहाज से ये दल अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं। दुखद यह है कि इन दलों को इस बात का अहसास तक नहीं है।
         
चूंकिसमाज में ऐसे नेतृत्व का अभाव है, इसलिए लोगों के आंदोलन का अराजक रुख अख्तियार कर लेना अस्वाभाविक नहीं है। नतीजा यह होता है कि एक बड़ी ऊर्जा या तो बेकार चली जाती है, या अपनी दिशा खो देती है या फिर उसका लाभ समाज को प्रतिगामी दिशा में ले जाने वाली ताकतें उठा लेती हैं। अगर बलात्कार विरोधी आंदोलन बलात्कार की मानसिकता एवं संस्कृति तक बहस को ले गए बिना महज एक घटना के अपराधियों को कठोरतम सजा दिलवाने की मांग तक सिमट कर रह गया, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी। किसी आंदोलन की ऊर्जा को बदलाव या समाज सुधार की कहीं जटिल एवं बारीक परिघटना में बदलने के लिए गहन वैचारिक विमर्श की जरूरत होती है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा संदर्भ में यह कोशिश बिल्कुल नहीं हुई है। अनेक महिला अधिकार कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों ने तथ्यों, तर्क एवं अनुभवजन्य यथार्थ को मीडिया के जरिए लोगों के सामने रखा है। लेकिन यह आक्रोश जता रहे जन-समुदायों के साथ संवाद का आधार बना है, यह कहना संदिग्ध है। नतीजतन, वहां बलात्कारियों को फांसी देने और पुलिस-सुरक्षा के इंतजाम सख्त करने के नारों से बात आगे नहीं बढ़ी है।

जबकिमृत्युदंड अगर बलात्कार सहित किसी भी अपराध को रोकने में सहायक होता, तो समाज को काफी पहले अपराध-मुक्त बनाने में सफलता मिल गई होती। अतीत में और आज भी दुनिया के बहुत से समाजों में बलात्कारियों को न सिर्फ मृत्युंदड देने का प्रावधान है, बल्कि ऐसा पत्थरों से मार कर करने की क्रूर व्यवस्थाएं भी हैं। दिल्ली की घटना निसंदेह अत्यंत बर्बर है। लेकिन हकीकत यह है कि बलात्कार की ज्यादातर घटनाओं में अपराधी इस हद नहीं जाते। तो क्या उससे यह माना जा सकता है कि वे घटनाएं मान्य या स्वीकार्य हैं? गौरतलब है कि पीड़ित महिलाओं की बहुसंख्या अपने परिजनों या परिचितों से जबरदस्ती का शिकार होती है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि पुलिस व्यवस्था भ्रष्ट या लापरवाह है- वह तो अपने देश में निश्चित रूप से है, जो आम जन की आम हिफाजत से जुड़ी अनेक दिक्कतों की जड़ है। मगर महिला उत्पीड़न के संदर्भ में उससे भी अधिक गंभीर समस्या घर, परिवार, समाज और हर मानवीय संस्था में स्त्रियों का निम्न दर्जा और उनके यौन-व्यक्तित्व (सेक्लुएलिटी) पर पुरुष नियंत्रण की परंपरा है। भारत में अभी भी विवाह संबंध के भीतर बलात्कार की बात लोगों को अटपटी लगती है। यह पहलू अभी बहस के दायरे में भी नहीं है। लेकिन हकीकत यही है कि अपने यहां वैवाहिक संबंध असमानता के आधार पर बनते हैं और उसमें महिला से सेवा एवं एक विशेष  कर्त्तव्य को निभाने की अपेक्षा की जाती है, इसलिए यौन संबंध में जबरदस्ती का पहलू सिरे से शामिल रहता है। जो संबंध किसी समाज की मूल इकाई है, अगर उसमें ही महिला एवं उसकी इच्छा का सम्मान नहीं है, तो सड़कों पर ऐसे सम्मान की अपेक्षा किसी ठोस आधार पर खड़ी नजर नहीं आ सकती।

स्त्रियों के प्रति असम्मान एवं अपमान के इस भाव का इजहार रोजमर्रा के स्तर पर घर से लेकर दफ्तर तक होता है। इसकी चरम परिणति बलात्कार के रूप में होती है। प्रतिरोध करने वाली स्त्री हिंसा का शिकार हो जाती है। यह हिंसा कभी-कभी उतनी बर्बर भी होती है, जिसका शिकार होकर वह तेइस वर्षीय युवती फिलहाल सिंगापुर के अस्पताल में मौत से संघर्ष कर रही है। यह अच्छी बात है कि इस बर्बरता ने लोगों की संवेदना को झकझोरा है। अगर इसके परिणामस्वरूप कानूनों में सुधार हुआ, पुलिसवालों की जवाबदेही तय करने का कोई सिस्टम बना और सरकारों की तंद्रा एवं उदासीनता टूटी- तो यह एक बड़ी बात होगी। इसके बावजूद मूल प्रश्न अपनी जगह बना रहेगा। स्त्रियों का निम्न दर्जा और यौन-शुचिता के आधार पर उनके मूल्यांकन की परंपरा पर अगर चोट नहीं हुई, तो बात कहीं आगे नहीं बढ़ेगी। अगर आंदोलित युवा यही बोलते रहे कि बलात्कार की शिकार स्त्री की जिंदगी मौत से भी बुरी होती है- तो वे पारंपरिक स्त्री/मानव विरोधी मान्यताओं को ही बल प्रदान करेंगे। आखिर जबरन किसी व्यक्ति के यौनांगों के उल्लंघन से उसकी इज्जत चली जाने की बात समाज में क्यों स्थापित रहनी चाहिए? स्त्री को आखिर सिर्फ शरीर के रूप में क्यों देखा जाना चाहिए? इसी मान्यता के जरिए सदियों से महिलाओं की स्वतंत्रता पर नियंत्रण रखा गया है।

इसलिएयह सवाल अहम है कि बलात्कार विरोधी आंदोलन बलात्कार को लेकर कैसी मानसिकता के साथ चल रहा है? अगर उसकी नजर में भी महिला एक वस्तु है, जिसकी पवित्रता उसके यौनांगों से जुड़ी है, तो यह आंदोलन एक तात्कालिक भावावेश से अधिक कुछ नहीं है। चूंकि यह स्त्री विरोधी पारंपरिक मूल्यों को बल देता नजर आएगा, इसलिए उसे प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, युवा उत्साह एवं जज्बे को सही दिशा ना देना राजनीतिक एवं सामाजिक नेतृत्व की विफलता है। कुल मिलाकर आवश्यकता सिर्फ सड़कों पर नारेबाजी की नहीं, बल्कि मुद्दे को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रख कर समग्र संवाद की है, ताकिसमाज की समझ सचमुच कुछ आगे बढ़े। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.


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