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csat के बहाने भाषाई रंगभेद

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-सौरभ त्रिपाठी

 "...जैसा कि मीडिया में प्रचारित कराया गया है कि यह आन्दोलन अंग्रेजी विरोधी या तकनिकी विरोधी है जबकि ये पूरी तरह गलत है। यह किसी के विरोध में न होकर एक बड़े समुदाय के अधिकारों समर्थन  में लड़ाई है जो csat के माध्यम से भाषाई रंगभेद का शिकार हो रहा है । स्थाई कार्यपालिका, जो देश के  नीतियों के निर्धारण और योजनाओं के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसमे एक बड़े वर्ग का पीछे छूट जाना भारत जैसे देश के लिए भविष्य में सामाजिक आर्थिक तानेबाने में गतिरोध उत्पन्न करने वाला होगा।.."

4अगस्त, शाम 6 बजे, स्थान मुखर्जीनगर के पास स्थित नेहरु विहार, किसी के लिए भी वो दृश्य आश्चर्य चकित कर देने वाला ही था जब सरकार के एक फैसले के प्रति विरोध जताने के लिए आधे घंटे में सैनिक छावनी के रूप में तब्दील नेहरु विहार के सेंट्रल पार्क में करीब हज़ार लड़कों ने इकठ्ठा होकर हाथ में मोमबत्ती लेकर मार्च करने की इजाजत स्थानीय पुलिस से मांगी।

इनकाकोई अपना नेता नही था, ये खुद के नेता थे। स्थानीय पुलिस अधिकारी ने छात्रों को पहले अनुमति देने से इंकार किया। लेकिन छात्रों के बढ़ते दबाव ने उन्हें शांतिपूर्वक कैंडल मार्च निकलने की अनुमति सशर्त दी कि कोई भी गड़बड़ी होने पर भारी लाठीचार्ज होगा। अनुमति मुखर्जी नगर तक जाने की मिली थी लेकिन लगातार बढती भीड़ ने अधिकारी को अपना फैसला बदल कर इसे नेहरु बिहार तक सीमित रखने के लिए विवश किया। 

छात्रमार्च के बाद इकठ्ठा हुए, ताकि पुनः आगे की रणनीति बन सकें। कुछ लडको ने भाषण देना शुरू किया जिसपर आक्रोश मुखर होता गया। सबको लग गया कि आग सबके अन्दर लगी है, प्लान बनाया गया कि अगले दिन पार्लियामेंट का घेराव होगा, भनक लगते ही पुलिस द्वारा बिना वजह लाठी चार्ज कर भीड़ को भगा दिया गया, और मीडिया को मुखर्जी नगर में ही रोक दिया गया था। इसी घटना के अगले दिन वंकैय्या नायडू का संसद में बचकाना बयान आया कि सारे लड़के संतुष्ट है, केवल कुछ लोग है जिन्हें अपनी राजनीति चमकानी है वह अभी भी विरोध कर रहे हैं, जबकि हकीकत कुछ और है जो भी मुखर्जी नगर आता है उसे इसका अहसास होता है।


इसअसंतोष की भी एक लम्बी कहानी है। विभिन्न प्रशासनिक सुधार समितियों के सुझाव पर csat का पेपर 2011 में यूपीएससी द्वारा लाया गया, लेकिन यकायक इसका लागू होना उन छात्रों के लिए घातक हो गया जो वर्षों से इसी की तैयारी कर रहे थे और अपने आप को सफलता के आसपास ही पाते थे। बिना समय दिए यूपीएससी द्वारा ये परिवर्तन गलत था, जिसे बाद में 2014 में अभी हाल के आन्दोलन के बाद यूपीएससी ने भी स्वीकार कर उन छात्रों को एक प्रयास और दिया। लेकिन इन 4 वर्षों में छात्रों को जो अमूल्य हानि हुई उसका जबाब भी यूपीएससी को देना चाहिए ।

2014में फिर से एक बार मुख्य परीक्षा में मूलभूत परिवर्तन लाया गया, इस बार भी बिना अग्रिम समय दिए इसे लागू किया गया। दूसरे इसमें पहली बार अंग्रेजी के प्रश्नपत्र जो अब तक केवल क्वालीफाइंग होते थे, उसके नम्बर मेरिट में जोड़े जाने का प्रावधान किया गया, जबकि भारतीय भाषाओं का अंक नही जुड़ता ।विभिन्न विरोधों के बाद तत्कालीन सरकार और यूपीएससी ने लीपापोती कर इसे वापस लिया। यहीं से भाषा के आधार पर भेदभाव का पहला प्रत्यक्ष प्रमाण छात्रों को मिला (हालाँकि इंटरव्यू आदि में अप्रत्यक्ष भेदभाव की शिकायतें व्यक्तिगत स्तर पर सुनने को पहले भी मिलती रहती थीं) मेन्स में अचानक व्यापक बदलाव ने भी छात्रों को असंतुष्ट कर दिया। प्रारम्भिक परीक्षा के कारण उस समय छात्र कमरों में रहे लेकिन परीक्षा ख़त्म होते ही इस परिवर्तन से प्रभावित होने वाले हजारों छात्र सड़कों पर उतर आये। लगभग 4 महीने के संघर्ष के बाद UPA सरकार ने इनकी मांग पूरी की और 2 अतिरिक्त प्रयास दिए गये, लेकिन दूसरी मांगो पर ध्यान नही दिया, जिसमे csat वाला मुद्दा प्रमुख था। 

लेकिन एक बार फिर इन सबकी जिम्मेदार संस्था यूपीएससी पर कोई आंच नही आई। इस संस्था से इस मुद्दे पर कोई प्रश्न नही पूछा गया।


इस बीच सत्ता परिवर्तन के बाद नई सरकार की ओर छात्र बड़ी आशा भरी निगाह से देखते रहे। इसके कई कारण थे- 

*पुरानी सत्ता के मंत्रियो के विपरीत इस सरकार के मंत्रियों की देशीय शैक्षिक पृष्ठभूमि।
*पुरानी सरकार की नीतियों की जबरदस्त विरोधी छवि के कारण इस मामले में भी हस्तक्षेप की उम्मीद थी 
*नए प्रधानमंत्री मोदी का खुद इस मामले का पूर्व में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को चिट्ठी लिखे जाना और इसे देशी भाषा विरोधी बताये जाना। 
* चुनाव के समय वर्तमान गृहमंत्री राजनाथ सिंह द्वारा इलाहाबाद में छात्रों को इस विषय पर दिया आश्वासन। 
* अब RTI के द्वारा छात्रों को निवेगकर कमेटी की रिपोर्ट मिल चुकी थी जो csat की समीक्षा के लिए upsc द्वारा गठित हुई थी जिसमें यह कहा गया था कि नई परीक्षा प्रणाली ग्रामीण पृष्ठभूमि के छात्रों के विरुद्ध और एक विशेष वर्ग ( तकनीकि ) को लाभ पहुचाने वाली है। 
* माना जा रहा था कि नई सरकार युवाओं के बूते सत्ता में आई है और इनकी मांगो पर तुरंत ध्यान देगी साथ ही सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और हिंदी इनके पसंदीदा विषय रहे हैं।


CSAT का विरोध क्यों?

इस पैटर्न ने हिंदी तथा अन्य भाषाओं के माध्यम वाले उम्मीदवारों के सामने एक असंभव सी चुनौती पेश की जिसका परिणाम यह हुआ कि जहाँ 2010 तक मुख्य परीक्षा में बैठने वाले उम्मीदवारों में 40-45% अनुपात हिंदी माध्यम के उम्मीदवारों का था, वहीं 2011 से यह घटकर 15-16% के आसपास पहुँच गया. जल्दी ही उन्हें महसूस होने लगा कि अब वे प्रारम्भिक परीक्षा में सफल होने के लायक भी नहीं रहे. 

यह संकट इसलिए नहीं आया कि ये छात्र अयोग्य थे, संकट की जड़ें परीक्षा पैटर्न में निहित भेदभाव में थीं. मसलन, ‘सीसैट’ में कुल 80 में से 8-9 सवाल सिर्फ़ अंग्रेज़ी में पूछे जाने लगे थे जिनका कुल मूल्य 20 से 22.5 अंकों का था. अंग्रेज़ी वालों के लिए बेहद आसान और कम समय लेने वाले थे जबकि ग्रामीण और गैर-अंग्रेज़ी भाषियों के लिए कठिन कठिनाई यह थी कि अगर उनसे 3 सवाल भी गलत हो जाएँ तो 7.5 अंक तो जाएंगे ही, साथ ही निगेटिव मार्किंग के कारण 2.5 अंक और कटेंगे. 

इसी तरह, 30-35 सवाल कोम्प्रिहेंशन क्षमता की जाँच के लिए पूछे जाने लगे जिनका हिंदी अनुवाद बेहद अटपटा और बेतुका होता था (जैसे ‘टैबलेट कंप्यूटर’ के लिए ‘गोली कंप्यूटर’, ‘स्टील प्लांट’ के लिए ‘इस्पात पौधा’ और ‘लैंड रिफॉर्म्स’ के लिए ‘आर्थिक सुधार’)

संकट यह था कि अगर हिंदी वाला छात्र ऐसा अनुवाद पढ़कर उत्तर देना चाहे तो 5-7 सवाल गलत होना तय था और अगर वह साथ में अंग्रेज़ी पाठ भी देखे तो समय की कमी से बाकी खण्डों के सवाल छूटने तय थे. कुल मिलाकर, जिस परीक्षा में 1-1 अंक के अंतराल से सैकड़ों उम्मीदवार विफल हो जाते हैं, उसमें उन्हें कम से कम 25-30 अंकों का अवैध नुकसान उठाने के लिए मजबूर किया गया. 

साथ ही, ‘सीसैट’ में गणित और रीज़निंग के ज़्यादा प्रश्न होने और उनका मूल्य (2.5 अंक प्रति प्रश्न) सामान्य अध्ययन के प्रश्नों (2 अंक) से ज़्यादा होने के कारण मानविकी विषयों के छात्र भी तुलनात्मक रूप से नुकसान में रहे. सामान्य अध्ययन का पेपर इतना मुश्किल पूछा जाता है कि शायद ही कोई 100 में से 60-65 प्रश्नों से आगे बढ़ सके जबकि ‘सीसैट’ के पेपर में तकनीकी पृष्ठभूमि के लोग आसानी से 70-75 प्रश्न (80 में से) कर लेते हैं. चूँकि मैरिट सूची दोनों पेपर के अंकों को जोड़कर बनाई जाती है, इसका परिणाम है कि पिछले तीन वर्षों में इस परीक्षा में सफल होने वाले उम्मीदवारों की सामाजिक पृष्ठभूमि व्यापक तौर पर बदल गई है.
      
ध्यान देने लायक बात ये है कि भारत में भाषा और विषय का बड़ा सीधा सम्बन्ध है। प्रसिद्ध समाज शास्त्री योगेन्द्र यादव के अनुसार यहाँ 80% के आसपास छात्र अपनी स्नातक की डिग्री हिंदी और अन्य स्थानीय भाषाओ में लेते हैं। ये ज्यादातर मानविकी के विषय ही होते है। पूरे भारत में ज्यादातर तकनीकी और प्रबंधन विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी माध्यम में ही होती है। जिससे एक अंग्रेजी +तकनीकी का फार्मूला बन जाता है जो csat में अन्य मानविकी के छात्रों पर भारी पड़ जाता है। 20% छात्र ही कुल पदों के 90% से ज्यादा के योग्य बना दिए गये हैं जबकि 2010 के पहले ऐसा असमान वितरण नही था। राज्य सेवा आयोग भी upsc का अनुसरण ही करती हैं जिससे ये समस्या प्रांतीय सेवाओ में भी पैर पसार रही है।


छात्रों की मांग -

यूपीएससी, कुछ नौकरशाह और कुछ मीडिया प्रतिष्ठान लगातार कोशिश कर रहे हैं कि भारतीय भाषाओं के आंदोलन को 'अंग्रेज़ी बनाम हिंदी'या 'अंग्रेज़ी विरोधी मानसिकता'के तौर पर पेश कर दिया जाए और सारे मुद्दे को प्रिलिम्स के 8 प्रश्नों पर समेट दिए जाय।

जबकि इस आंदोलन की बुनियादी मांग यह है कि सिविल सेवा परीक्षा के लिये ऐसी प्रणाली विकसित की जानी चाहिये जो अंग्रेज़ी तथा गैर-अंग्रेज़ी, शहरी तथा ग्रामीण, तकनीकी तथा मानविकी पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को समान स्तर पर प्रतियोगिता में शामिल होने का मौका देती हो, किसी विशेष पृष्ठभूमि को अवैध बढ़त हासिल न कराती हो.

आंदोलन की विभिन्न मांगों को निम्नलिखित बिन्दुओं से समझा जा सकता है-

क) 24 अगस्त को होने वाली प्रारंभिक परीक्षा को कम से कम एक महीने के लिये स्थगित किया जाए ताकि जिन विद्यार्थियों ने आंदोलन में अपना एक महीना लगाया है, उन्हें तैयारी का मौका मिल सके.

ख)प्रारंभिक परीक्षा में निम्नलिखित परिवर्तन किये जाएँ-
  • 1-सी-सैट को 'भाषा-तटस्थ'अर्थात् 'लैंग्वेज न्यूट्रल'बनाया जाए. इसके लिये यह पर्याप्त नहीं है कि अंग्रेज़ी में पूछे जाने वाले 8 प्रश्न हटा दिए जाएँ. ज़्यादा ज़रूरी यह है कि कॉम्प्रिहेंशन के 30-35 प्रश्न, जो अंग्रेज़ी तथा हिंदी दोनों में पूछे जाते हैं, उनमें हिंदी के अनुच्छेद अंग्रेज़ी पाठ के अनुवाद के रूप में न होकर स्वयं मूल पाठ हों. दोनों (या सभी) भाषाओं में समान स्तर के अनुच्छेद देकर प्रश्न पूछे जाने चाहियें और अगर ऐसा संभव नहीं है तो ऐसे प्रश्न होने ही नहीं चाहियें।
  • प्रशासनिक निर्णय क्षमता से जुड़े प्रश्नों का महत्व बढ़ाया जाना चाहिये क्योंकि ये सवाल सीधे तौर पर सिविल सेवाओं के लिये अपेक्षित अभिवृत्ति की परीक्षा करते हैं. इनमें अनुवाद की समस्या भी आड़े नहीं आती है।
  • गणित तथा तर्कशक्ति से जुड़े प्रश्नों का अनुपात ऐसा नहीं होना चाहिये कि किसी एक पृष्ठभूमि के उम्मीदवारों को अतिरिक्त लाभ मिले। 
  • पेपर-1 तथा पेपर-2 के कठिनाई स्तर में इतना अंतर नहीं होना चाहिये कि सिर्फ़ पेपर-2 में कुशलता के आधार पर कोई उम्मीदवार सफल हो जाए. दोनों में अर्हता अंकों का स्तर भी लगभग बराबर होना चाहिये. (गौरतलब है कि अभी पेपर-1 में सिर्फ़ 30 अंक लाने की बाध्यता है जबकि पेपर-2 में न्यूनतम 70 अंक लाना ज़रूरी है)।
  • बेहतर यही होगा कि सी-सैट के वर्तमान ढाँचे को निरस्त किया जाए. सामान्य अध्ययन के पेपर में ही अभिवृत्ति से जुड़े प्रश्न शामिल करके नया ढाँचा बनाया जाए।

ग)मुख्य परीक्षा में निम्नलिखित संशोधन किये जाएँ-
  • सामान्य अध्ययन के प्रश्नपत्रों में मॉडल उत्तर सिर्फ़ अंग्रेज़ी में न होकर सभी माध्यमों में होने चाहियें।
  • सामान्य अध्ययन की उत्तर-पुस्तिकाओं का मूल्यांकन उसी भाषा में अभ्यस्त परीक्षकों से कराया जाना चाहिये जिस माध्यम की उत्तर-पुस्तिका है।
  • मॉडरेशन या स्केलिंग की ऐसी व्यवस्था अपनाई जानी चाहिये जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि विभिन्न माध्यमों की उत्तर-पुस्तिकाओं के मूल्यांकन में एक जैसा स्तर रखा गया है।
  • अंग्रेज़ी (क्वालिफाईंग) पेपर का कठिनाई स्तर वही होना चाहिये जो भारतीय भाषाओं के पेपर का होता है। साक्षात्कार के स्तर पर इन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिये-
I.किसी भी भारतीय भाषा के उम्मीदवारों को सीधे या छिपे तौर पर अंग्रेज़ी बोलने के लिये बाध्य न किया जाए।
II.मॉडरेशन या स्केलिंग की कोई ऐसी व्यवस्था अपनाई जानी चाहिये जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि विभिन्न माध्यमों के उम्मीदवारों के मूल्यांकन में एक जैसा स्तर रखा गया है।


सरकार का अभी तक का प्रतिउत्तर -


सरकार का रवैय्या शुरू से ही ढुलमुल रहा। 17 जून 2014 को पहली बार लगभग 500 छात्रों ने 7rcr का घेराव किया और प्रधानमंत्री से मिलने की मांग की जिसमें सफलता नही मिली। 27 जून को करीब 10 हज़ार छात्रों ने मुखर्जी नगर से राजघाट होते हुए प्रधानमंत्री आवास तक की यात्रा की लेकिन सरकार को कोई प्रतिनिधि मिलने नही आया। करीब 400 लड़के रात में रुके रहे जिन्हें भोर में बसों में भर कर जेल में डाल दिया गया और शाम तक छोड़ा गया। इसपर छात्रों ने मुखर्जी नगर को ही केंद्र बनाकर लड़ाई आगे बढ़ाने की ठानी और अनसन की शुरुआत हुई। आमरण अनसन के आठवे दिन सरकार की और से आश्वासन के बाद अनसन तोड़ा गया। लेकिन पूरी प्रक्रिया में सरकार दोहरा रुख अपनाती रही। जहाँ वह छात्रों के साथ अन्याय न होने देने की बात करती रही और वर्मा कमेटी गठित की, वहीँ राज्यसभा के अतारांकित प्रश्नं के जवाब में यह भी कह डाला कि upsc परीक्षा में कोई भेदभाव नही हो रहा। उसी दिन शाम को upsc द्वारा प्रवेश पत्र जारी करने से छात्रों का धैर्य जबाब दे गया और उन्होंने सरकारी वाहनों के साथ तोड़फोड़ और आगजनी की कार्यवाही की। इसका भी दमन बहुत बुरी तरह किया गया, गाँधी बिहार एक छावनी में तब्दील हो गया। 20 के करीब छात्र गिरफ्तार हुए, सैकड़ो घायल हुए।



आन्दोलन फिर भी आगे बढ़ा, लगातार महीने भर छात्र कैंडल मार्च, घेराव, मीडिया के माध्यम से अपनी आवाज उठाते रहे । धैर्य दिखा रहे इन छात्रों पर कई बार अनायास भी लाठियाँ भी पड़ी, कितने ही लोगो को दो-दो, तीन-तीन दिन जेलों में रहना पड़ा, कुछ तो ऐसे भी है जो रोज विरोध करते रहे और जेल जाते रहे, लेकिन अपनी उम्मीदों को पाने के लिए ये छात्र सब सहते गये।लेकिन अंत में सरकार द्वारा 8 अंग्रेजी के प्रश्न मेरिट में न जोड़े जाने का झुनझुना पकड़ा दिया गया (इसे भी upsc ने मानने से इंकार कर दिया है)। सरकार द्वारा कैंसर का इलाज़ फोड़े का ऑपरेशन कर के करने का दावा किया गया।साथ ही upsc के पूर्व नियत समय 24 अगस्त पर परीक्षाएं कराने का निर्णय ने छात्रों की कमर तोड़ दी।इसी घोषणा के शाम की घटना का जिक्र पहले पैराग्राफ में किया गया है।

यूपीएससी और स्वायतता-

सरकार ने इस मसले पर एक महत्वपूर्ण तर्क देने की कोशिश की जो यूपीएससी को संविधान द्वारा प्रदत्त स्वायत्तता के सम्बन्ध में है। इसी का फायदा सालों से यूपीएससी उठा रहा है और तमाम भारी गलतियों के बाद भी सवालों से परे रहा है। वस्तुतः संविधान ने यूपीएससी को एक परीक्षा आयोजित कराने वाली और इसके लिए आयोजन के तरीके की सलाहकारी संस्था के रूप में स्वायत्तता दी है जिसकी कोई भी सलाह किसी भी प्रकार से सरकार पर बाध्यकारी नहीं होगी। पिछले दिनों मेन्स में अंग्रेजी के पेपर और 2 प्रयास बढ़ाने के सम्बन्ध में UPA सरकार के हस्तक्षेप के बाद ही upsc ने फैसले बदले हैं। अभी हाल ही में 2011 में आखिरी परीक्षा देने वालों को 2015 में फिर से मौका दिए जाने का प्रस्ताव भी सरकार का था जिसे अब upsc ने माना। 

साथ ही यहाँ स्पष्ट करना आवश्यक है कि स्वायत्तता का मतलब स्वछंदता नही होता बल्कि अनावश्यक बाहरी हस्तक्षेप से परीक्षा प्रक्रिया को मुक्त बनाये रखने के लिए दिया गया विशेष अधिकार है लेकिन जब हस्तक्षेप आवश्यक हो तब उसी संविधान ने पूरी व्यवस्था दी है। हस्तक्षेप आवश्यक इसलिए है कि इतनी गलतियों के बावजूद न तो आयोग ने कोई जिम्मेदार संस्था की तरह व्यवहार किया है न ह़ी अपनी गलतियों को खुद संज्ञान में लिया है। 

यहाँ तक कि इस संस्था को अपने पेपर्स के हिंदी और अन्य भाषाओँ में हुए अनुवादों की गलतियों का ज्ञान तब तक नही हुआ जब तक इस आन्दोलन के माध्यम से विभिन्न मंचो पर उनके घटिया और बनावटी अनुवाद नही दिखाए गये ।स्वायतता की यह तर्क तब तक उचित था जब तक संस्था खुद से सुधार में यकीन रखे, जबकि ऐसा दिखा नही है। जबकि अन्य मसलों पर सरकार संविधान की मूल मर्यादाओं को तोड़ने में वक्त नही लगाती और आनन फानन में अध्यादेशो को जारी करने में गुरेज नही करती, ऐसे में एक संविधान सम्मत आवश्यक कर्यवाही क्यों नही कर रही यह समझ से परे है।

अब आगे क्या -

सरकारी फैसलों को लेकर आक्रोश यहाँ सभी के मन में है। जब भी आसपास कोई विरोध कार्यक्रम होता है तो ये शरीक होते है लेकिन छावनी जैसी स्थिति के कारण न ये भारी संख्या में इकठ्ठा हो सकते है न ही एक साथ कही जा सकते हैं। लगभग 500 अर्धसैनिक और सैनिक बलों की टुकड़ी इन पर निगरानी रखती है, फिर भी जंतर मंतर पर ये छात्र जा डटे हैं जहाँ शुरुआती दिनों में न इन्हें टेंट लगाने की अनुमति थी न ही माइक की। करिअर संबधी दबाव और संपन्न पारिवारिक पृष्ठिभूमि का आभाव कुछ छात्रों को कमरों में बंद होने के लिए मजबूर कर रहा है। फिर भी परीक्षा पूर्व इस कीमती समय में ये कुछ समय आन्दोलन को देने का प्रयास करते है। इन सबके मन की दशा ठीक वैसे ही है जैसे कि इन्हें फांसी की सजा सुना दी गई हो, और इन्हें पता है कि 24 अगस्त को इन्हें लटकना ही है। लगातार 2 महीने से सड़को पर रहने के बाद सरकार द्वारा ठगे से महसूस कर रहे ये छात्र बुझे मन से ही संगीनो के साये में परीक्षा की तैयारी करने की कोशिश कर रहे है , हालाँकि इन्हें भी अपनी सफलता पूरी तरह संदिग्ध नज़र आती है।

वहीँ दूसरी तरफ हजारों की संख्या में वो भी छात्र हैं जिन्होंने इस बार की परीक्षा का बहिष्कार करने की ठानी है जबकि इनमें से ज्यादातर के अनिवार्य प्रयास (compulsory attempt) हैं। हालाँकि upsc पर इन सबका कोई प्रभाव पड़ता दिख नही रहा है फिर भी यह एक साहसिक कदम है। इस बीच एक अच्छी खबर है कि भाषाई भेदभाव के खिलाफ शुरू यह आन्दोलन विभिन्न प्रांतीय शहरो में जगह बना चुका है। चेन्नई, हैदराबाद, मुंबई , जयपुर, इलाहाबाद, पटना ,बनारस आदि में छात्रों का संगठित प्रयास चल रहा है। कुछ जगह अनसन भी शुरू हो चुके हैं। विभिन्न प्रबुद्ध लोगो का समर्थन भी इसे मिल रहा है जो मंच पर लगातार उपस्थिति बनाये हुए हैं।


जैसा कि मीडिया में प्रचारित कराया गया है कि यह आन्दोलन अंग्रेजी विरोधी या तकनिकी विरोधी है जबकि ये पूरी तरह गलत है। यह किसी के विरोध में न होकर एक बड़े समुदाय के अधिकारों समर्थन  में लड़ाई है जो csat के माध्यम से भाषाई रंगभेद का शिकार हो रहा है । स्थाई कार्यपालिका, जो देश के  नीतियों के निर्धारण और योजनाओं के कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, उसमे एक बड़े वर्ग का पीछे छूट जाना भारत जैसे देश के लिए भविष्य में सामाजिक आर्थिक तानेबाने में गतिरोध उत्पन्न करने वाला होगा।

यह उस ग्रामीण भारत के सम्बन्ध में है जो पिछले कई वर्षों से केवल लाल किले के भाषणों का हिस्सा मात्र बन के रह गया है, जहाँ आधी से ज्यादा जनसँख्या मनरेगा, और मिड डे मील जैसी योजनाओं में काम और भोजन तलाशती है, जहाँ प्राइमरी स्कूल में बच्चे जमीन पर बैठ कर सभी मौसमों और गाँव की शादियों तक से प्रभावित, साथ ही गुणवत्ता में घटिया दर्जे की शिक्षा पाते है, फिर भी वे 12th आते आते IIT और स्नातक पूरा होते ही IAS के सपने देखते है। 

प्रश्न बहुत व्यापक है जिसकी शुरुआत निम्न मध्य वर्गीय परिवारों से आने वाले बच्चों ने की है। ध्यान रहे बास्तील के दुर्ग को तोड़कर क्रांति की शुरुआत फ्रांस में किसी मजदूर वर्ग ने नही बल्कि इसी मध्य वर्ग ने अपने अधिकारों के लिए की थी जिसने बाद में पूरे विश्व को स्वतंत्रता, समानता, और बंधुत्व का आदर्श दिया।अपने हक की मांग करते ये छात्र जाने अनजाने व्यवस्था में बैठे उन एलीट वर्ग से भिड़ चुके हैं जो एक भी इंच जमीन आसानी से नही छोड़ने वाला और जहाँ तक संभव हो अपनी श्रेष्ठता को भाषा के माध्यम से बनाये रखना चाहता है और इसके लिए वो तर्कों को समितियों के माध्यम से गढ़ लेते है और जो समिति उनके तर्क को कमजोर करती है उसे पब्लिक डोमेन में नही आने देते ( निवेगकर समिति की रिपोर्ट )। 

अंतिम व्यक्ति की बात करने वाले देश के प्रधानमंत्री की चुप्पी एक अहम् सवाल खड़ा कर रही है जबकि कार्मिक मंत्रालय उनके अधिकार में आता है। एक बात तो तय है कि देर सबेर सरकार को ये माँग माननी ही पड़ेगी, बस ये देखना बाकी है कि कितने लोगो की जिन्दगी और कितने वर्षों के नुकसान पर ?? बस सवाल यही है...


बाल अपराध से निपटने का प्रश्न

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"...सवाल यह है कि जो बच्चा 11 साल की उम्र में घर से बाहर आता है, वह हर अच्छे बच्चे की तरह संवेदनशील, दूसरों की इज्जत करने वाला और परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाला होता है। वह जब अपने परिवार से दूर शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आता है तो वह इतना क्रूर और हिंसक हो जाता है कि वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है- वह परिवार या हमारा समाज और हम?..."

हाल ही में मोदी सरकार के मंत्रिमंडल ने बाल अपराधियों की उम्र की सीमा को 18 वर्ष से कम करके 16 वर्ष कर दिया है। इसके बाद महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने लोकसभा में 12 अगस्त को ‘किशोर न्याय विधेयक’ पेश किया है। तर्क दिया जा रहा है कि ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2000’ के तहत मौजूदा व्यवस्था और प्रावधान इस आयु वर्ग के बाल अपराधियों से निपटने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार (निर्भया कांड) के नाबालिग दोषी को हुये तीन साल की सजा के आधार पर तर्क दिया जा रहा है कि कोई भी नाबालिग जब बालिग जैसे अपराध (सेक्स, हत्या) करता है तो वह नाबालिग नहीं रहता है। उसे अपने अपराध के विषय में पता होता है, इसलिए उसका अपराध किशोर न्याय अधिनियम की श्रेणी में नहीं आता है। मंत्रिमंडल के फैसले में कहा गया है कि इस तरह के केस को जूवेनाइल कोर्ट चाहे तो अपराधिक कोर्ट में भेज सकता है जिसमें मृत्यु दण्ड या आजीवन करावास नहीं दिया जा सकता है।

इस तरह के कानून अमेरिका में है और भारत उसी माॅडल को अपना रहा है। अमेरिका में जेल जाने वाले किशोर जब जेल से बाहर आते हैं तो उनमें से 80 प्रतिशत अपराध करते हैं। भारत में इस तरह का कोई रिकाॅर्ड सरकार के पास नहीं है। लेकिन बाल अधिकारों के लिए काम करने वाले अधिवक्ता आनन्द आस्थाना के अनुसार उनके क्लांइट के मात्र 10 प्रतिशत ही बाद में चोरी और डकैती जैसे अपराध में लिप्त हुए हैं। उन्होंने तीन से चार हजार किशोर अधिनियम के तहत केस लड़े हैं।

भारत में बाल अपराध को हम तालिका 1 और 2 में देख सकते हैं:

तालिका 1
स्रोत : मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेटिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन, 2013
तालिका एक से स्पष्ट होता है कि भारत में ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2000’ सफल रहा है। दस सालों में बाल अपराध में मामूली बढ़ोतरी हुई है। अमेरिका में 10-17 वर्ष के ‘अपराधियों की संख्या 2010 में एक लाख व्यक्ति पर 225 थी, जबकि अगर उसी साल की हम भारत में बाल अपराधियों की संख्या देखें तो एक लाख आबादी पर मात्र दो का है। बाल अपराध में भी ज्यादातर घटनाएं चोरी और दंगे (तालिका 2 देखें) की है, जबकि बलात्कार और हत्या की संख्या कम रही है। हम जानते हैं कि दंगे समाज के किस वर्ग के द्वारा और किसलिए कराया जाता है। चोरी की घटनाएं भी ज्यादातर पेट की भूख को मिटाने के लिए ही होती हैं। भारत के जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखा जाता है। ऐसे में अगर इन किशोरों को जेल भेजा जायेगा तो जेलों में कैदियों की  संख्या और बढ़ेगी। किशोर जब अपनी सजा पूरी करेंगे निकलेंगे तो अपराधों की संख्या भी बढ़ेगी। मोदी सरकार ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2000’ में बदलाव करके किशोरों की उम्र 18 से 16 क्यों करना चाहती है? क्या इससे अपराध की संख्या में कमी आयेगी?

तालिका - 2
स्रोत : द रजिस्ट्रार जेनरल ऑफ इंडिया
इस कानून को बदलने के लिए जिस दिल्ली गैंग रेप के नबालिग सजायफ्त्ता का उदाहरण दिया जा रहा है वह कितना सही है? जब नाबालिग की मां से मिलने के लिए जब बीबीसी संवाददाता गई तो बिना लाग लपेट के उसने कहा- ‘‘हमारे घर में भी दो बेटीयां हैं; अगर मेरे बेटे ने किसी लड़की के साथ ऐसा किया है तो उसे कड़ी सजा होनी चाहिए। पता नहीं मैं उसे माफ कर सकती हूं या नहीं, लेकिन उसकी वजह से हमारी बहुत बदनामी हुई है। मुझे अब यह चिंता खाए जा रही है कि मेरी बेटियों से विवाह कौन करेगा?’’

जब उन्हें बताया गया कि वह नाबालिग है और सजा काट कर जल्द ही वापस गांव आ जायेगा तो गुस्से से उन्होंने कहा ‘‘इतनी बदनामी के बाद गांव वाले उसे यहां कदम भी नहीं रखने देंगे’’। ऐसे तबके में समाज में भी दंड देने का प्रावधान है जिससे अपराधी, अपराध करने से डरता है। इस तबके के पास इतना पैसा भी नहीं होता कि वो पैरवी करें या दूर कहीं मिलने के लिए जायें। अपने बच्चों की पैरवी करने, जेल या हवालात में सुविधा या राहत दिलाने का काम एक वर्ग विशेष ही कर पाता है। समाज का एक तबका उसको निर्दोष और भोला कहता है, जिसका लाभ उसको केस में भी मिलता है।

समाज की भूमिका

दिल्ली गैंग रेप का नाबालिग दोषी उत्तर प्रदेश के बंदायू जिले का रहने वाला है। वह 11 साल की उम्र में अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिल्ली कमाने के लिए आ गया। मां बताती है कि ‘‘वह बहुत संवेदनशील बच्चा था और गांव में सभी से डरता था; मुझे लगता है कि वह दिल्ली जाकर बुरी संगत में पड़ गया जिसकी वजह से उसने यह घिनौना अपराध किया’’। वह बताती है कि ‘‘बेटे से अंतिम मुलाकात छह-सात साल पहले दिल्ली जाने के समय ही हुई थी। दिल्ली जाने से पहले आखिरी बार उसने हमसे कहा कि मैं अपना ख्याल रखूं और फिर वो बस पकड़ कर शहर के लिए रवाना हो गया। वहां जाने के बाद दो-तीन साल तक उसने अपनी कमाई का पैसा भेजा लेकिन उसके बाद उसका कोई पता नहीं चला, मुझे लगता था कि वह अब जिन्दा नहीं होगा।’’ 

सवाल यह है कि जो बच्चा 11 साल की उम्र में घर से बाहर आता है, वह हर अच्छे बच्चे की तरह संवेदनशील, दूसरों की इज्जत करने वाला और परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाला होता है। वह जब अपने परिवार से दूर शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आता है तो वह इतना क्रूर और हिंसक हो जाता है कि वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है- वह परिवार या हमारा समाज और हम?

दूसरी घटना दिल्ली की मदनगीर इलाके की है। 15-17 साल उम्र के पांच बच्चे दिन-दहाड़े, बाजार में एक सचिन (उम्र 20 साल) नामक व्यक्ति को चाकू गोद को मार डालते हैं। यह घटना बाजार में लगे सीसीटीवी में आ जाती है जिसकी निशानदेही पर पुलिस इन अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लेती है। ये ‘अभियुक्त’ पुलिस के पूछ-ताछ में बताते हैं कि उनको इस हत्या का कोई अफसोस नहीं है, उन्होंने जो किया है वह अच्छा किया है। सचिन गली का बदमाश था, वह मौजमस्ती करने के लिए कम उम्र के बच्चों से चोरी, छिनौती करवाता था। इन ‘अभियुक्तों’ में से एक की गली में राशन की दुकान थी और सचिन इस पर दबाव डाल कर नमकीन के चार-पांच पैकेट मंगवाया करता था। दूसरे ‘अभियुक्त’ के पिता बिल्डर के पास लेबर का काम किया करते थे, उस पर सचिन पैसे चुराने का दबाव डालता था। यह सिलसिला करीब एक साल से चल रहा था और सचिन के शिकार ये सभी ‘अभियुक्त’ हो चुके थे। इन ‘अभियुक्तों’ ने रोज-रोज के झंझट से तंग आकर सचिन को ठिकाने लगाने का मन बना लिया। आखिर इस तरह के अपराध के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या हमारा शासन-प्रशासन सही काम करता तो इन  ‘अभियुक्तों’ द्वारा हत्या करने की नौबत आती? सचिन, जिसकी उम्र 20 साल थी, इस तरह की मौज-मस्ती करने का तरीका कहां से सीखा? इसके लिए कौन दोषी है? क्या हम ऐसे अभियुक्तों को जेल भेज कर सुधार पाएंगे या अपराध की दुनिया में ढकेलेंगे?

अगर हम सचमुच बाल अपराधों की संख्या को कम करना चाहते हैं तो सबसे पहले बालश्रम को सख्ती से रोकना होगा और गरीब शोषित-पीडि़त तबकों के बच्चों के लिए बुनियादी सुविधाएं एवं उचित शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। सर्वोपरी शोषण-दमन एवं अन्याय पर आधारित आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को बदलना करना होगा।

सुनील सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
समकालीन विषयों पर निरंतर लेखन.
संपर्क- sunilkumar102@gmail.com

लाल किला और बहुमत का 'प्रधान सेवक'

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अभिनव श्रीवास्तव
-अभिनव श्रीवास्तव

"...दरअसल प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नरेंद्र मोदी कई अवसरों पर ‘छद्म उदारता’ से पेश आकर अपने राजनीतिक विरोधियों के सामने असमंजस की स्थिति पैदा करते रहे हैं। इसी कोशिश में उन्होंने अपने भाषण में पूर्ववर्ती सरकारों के योगदान को स्वीकारा और ‘बहुमत’ के बजाय ‘सहमति’ से चलने की बात कही। हैरानी की बात थी कि ये ऐसा उस सरकार का प्रधानमंत्री कह रहा था जिसके शासन के शुरुआती कार्यकाल में ‘सत्ता के सकेन्द्रण’ के नये रिकार्ड बने और नीति-निर्माण के स्तर पर लोकतांत्रिक कायदे-कानूनों के साथ जमकर खेल हुआ। इसके बावजूद ये समझने की आवश्यकता है कि नरेंद्र मोदी इस छद्म तरीके से स्वयं को उदार पेश कर क्या सन्देश देना चाहते हैं?..."

अगर ये कहा जाये कि स्वतंत्रता दिवस पर लाल-किले से दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण उनकी चुनावी रैलियों का विस्तार था, तो ये बात उनके समर्थक तबकों को कुछ अटपटी लग सकती है। खासकर, ऐसे माहौल में जब उनके भाषण और संवाद शैली को लोगों की कल्पनशीलता को सीधे छूने वाला और बनी-बनायी परम्पराओं को तोड़ने वाला बताया जा रहा हो। गौर से देखें तो नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों से लेकर शपथ ग्रहण समारोह और अपनी नेपाल यात्रा के दौरान भी ‘उत्सवधर्मिता’ का ऐसा ही माहौल तैयार करने में सफलता हासिल की थी। इसके पीछे संभवतः एक बड़ा कारण उपरोक्त अवसरों का ‘अनुष्ठानों’ में बदलना रहा है। ध्यान दें कि ऐसे हर अवसर पर मीडिया और मुख्य धारा विमर्श द्वारा तैयार किये जाने वाले माहौल और सन्देश में काफी हद तक समानता है।    

मोदी के भाषण पर बात की जाये उससे पहले ये सवाल उठाना जरूरी है कि बतौर ‘प्रधानमंत्री’ लाल किले की प्राचीर से बोलते हुये वह कैसे उस व्यक्ति से अलग थे, जिसे भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद का ‘उम्मीदवार’ घोषित किया था। उनको सुनने वाला कोई भी व्यक्ति यह आसानी से बता सकता था कि अपने भाषण में उन्होंने उन्हीं नारों, प्रतीकों और संकेतों का इस्तेमाल किया जिनकी सफलता को वह लोकसभा चुनाव प्रचार में आजमा चुके थे। इतना जरूर है कि एक ऐतिहासिक अवसर पर उन्होंने कुछ प्रतीकों को विस्तार दिया। चुनावी रैलियों में वह ‘गरीब के बेटे’ थे, लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को संबोधित करते हुये वह ‘प्रधान सेवक’ बन गये! यह अस्वभाविक नहीं था कि नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत स्वयं को लोगों का ‘प्रधान सेवक’ बताकर की। यह उनकी और भाजपा की उस नीति के अनुरूप था जिसके तहत नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी जातीय पृष्ठभूमि को केंद्र में रखकर और खुद को ‘गरीब’ परिवार से आया व्यक्ति बताकर नये चुनावी समीकरण बनाये और भाजपा के बुनियादी विचार को को अपने गैर-परंपरागत समर्थक तबकों में भी स्वीकार्य बना दिया।


कहा जा सकता है कि भाजपा के सत्ता में आ जाने और स्वयं प्रधानमंत्री बन जाने के बाद इस ‘छवि’ को बरकरार रखने का कोई औचित्य नहीं था, लेकिन गुजरात दंगों से जुड़े अपने अतीत के संदर्भ में नैतिक वैधता का संकट नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के साथ स्थायी रूप से जुड़ा हुआ है। अपनी जातिगत और जमीनी पृष्ठभूमि का केंद्र में रखने के सियासी दांव का महत्त्व सिर्फ इस बात में नहीं है कि उसके दम पर नरेंद्र मोदी ने भाजपा के लिये आवश्यक जनमत जुटा लिया, बल्कि इस सियासी दांव से उन्हें जो नैतिक और लोकतांत्रिक वैधता हासिल हुयी, उसका महत्त्व उनके लिये आज भी कहीं ज्यादा है। निश्चित तौर पर लाल किले से ‘प्रधान सेवक’ और ‘मैंने गरीबी देखी है’ जैसे जुमलों को दोहराकर उन्होंने अपनी इस नैतिक वैधता को ही निरंतरता प्रदान की।


दरअसल प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नरेंद्र मोदी कई अवसरों पर ‘छद्म उदारता’ से पेश आकर अपने राजनीतिक विरोधियों के सामने असमंजस की स्थिति पैदा करते रहे हैं। इसी कोशिश में उन्होंने अपने भाषण में पूर्ववर्ती सरकारों के योगदान को स्वीकारा और ‘बहुमत’ के बजाय ‘सहमति’ से चलने की बात कही। हैरानी की बात थी कि ये ऐसा उस सरकार का प्रधानमंत्री कह रहा था जिसके शासन के शुरुआती कार्यकाल में ‘सत्ता के सकेन्द्रण’ के नये रिकार्ड बने और नीति-निर्माण के स्तर पर लोकतांत्रिक कायदे-कानूनों के साथ जमकर खेल हुआ। इसके बावजूद ये समझने की आवश्यकता है कि नरेंद्र मोदी इस छद्म तरीके से स्वयं को उदार पेश कर क्या सन्देश देना चाहते हैं? वास्तव में, पुरानी सरकारों के योगदान को स्वीकार करने की बात कहना आजादी के बाद के भारत की सम्पूर्ण विकास यात्रा पर अपनी दावेदारी पेश करने और पूर्ववर्ती सरकारों को अपनी ओर से प्रमाण पत्र जारी करने का प्रयास होता है। मोदी जानते हैं कि जिस परिघटना के परिणामस्वरूप वह प्रधानमंत्री बने हैं, वहां ऐसे सन्देश देने की वैधता उन्हें हासिल है। हालांकि आज ये बात सिर्फ सन्देश देने तक सीमित नहीं हैं। उनके नेतृत्व में देश की ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत को संघ और भाजपा के बुनियादी एजेंडे के अनुसार बदल डालने और गड़प करने का कार्य जितना योजनाबद्ध तरीके से चल रहा है, वह सबके सामने है।


योजना आयोग को खत्म करना भी इस लिहाज महज एक औपचारिक घोषणा भर नहीं है। यह उस विच्छेद बिंदु (Exclusionary point)  का ‘ठोस प्रतीक’ है, जो भाजपा के सत्ता में आ जाने के बाद भारतीय राज्य व्यवस्था के भीतर बना है। नरेंद्र मोदी और एनडीए सरकार के लिये योजना आयोग को खत्म करना वैचारिक और रणनीतिक दोनों उद्देश्यों को पूरा करता है। वैचारिक नजरिये से नेहरूवादी विचार की विदाई जिससे एक विशेष राजनीतिक सन्देश जाता है और रणनीतिक नजरिये से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को समाप्त कर ‘विकास’ के उस रास्ते को तैयार करना जिसे मोदी ने अपने भाषण के अगले हिस्से में ‘मेक इन इण्डिया’ और ‘मेड इन इण्डिया’ के जुमलों के साथ उछाल दिया।


इन जुमलों के माध्यम से नरेंद्र मोदी ने ‘विकास’ के अपने माडल को बेहद आक्रामक अपील के साथ लागू करने का आह्वान किया। ये बात गौर करने वाली है कि कामकाज और नीति-निर्माण के स्तर पर मोदी सरकार पहले ही अपने चुने गये इस रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी है। रक्षा सौदों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाना और श्रम कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया की शुरुआत ऐसे फैसले हैं जो ‘मेक इन इण्डिया’ की सोच को ध्यान में रखकर ही लिये जा रहे हैं। कई मायनों में ‘मेक इन इण्डिया’ और ‘मेड इन इण्डिया’ की अपील एक ऐसे ‘घरेलू’ पूंजीवादी माडल की वकालत करती है, जो भगवा रंग में रंगी हुयी हो। भले ही इसके लिये कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जमींदोज और श्रम कानूनों के वास्तविक औचित्य को खत्म करना पड़े। यही नरेंद्र मोदी के ‘विकास’ के नारे की वास्तविकता है कि उन्होंने पिछले एक दशक में तैयार हुये मध्य वर्ग को ‘हिन्दू श्रमिक वर्ग’ के रूप में गोलबंद करने में सफलता हासिल की है। उनके खास व्यक्तित्व और पृष्ठभूमि ने इस वर्ग के भीतर वह असीमित सांस्कृतिक आजादी मिल जाने का भरोसा पैदा किया है, जिसको आधार बनाकर संघ और भाजपा आजादी के पहले से लेकर अब तक अपनी राजनीति करते रहे हैं।


नरेंद्र मोदी के भाषण के उस हिस्से को काफी सराहा गया है जिसमें उन्होंने बलात्कार और महिलाओं के लिये शौचालय नहीं होने जैसी बातों को उठाया। सामाजिक मुद्दों को एक महत्वपूर्ण अवसर पर अपने भाषण का विषय बनाने के लिये भी उनकी तारीफ की जा रही है। वास्तव में अगर इन दोनों मुद्दों पर प्रधानमंत्री द्वारा कही गयी बातों पर गौर करें तो पता चलता है कि इतने संजीदा विषयों का इस्तेमाल भी उन्होंने अपने भाषण में सिर्फ तड़का लगाने के लिये किया। वह सामाजिक मुद्दों पर बोल जरुर रहे थे, लेकिन भारत के सामाजिक यथार्थ से एक सचेत दूरी बरतकर। वरना उन्हें अवश्य मालूम होता है कि लड़कियों के अधिकांश बलात्कार घर की चारदीवारियों की भीतर होते हैं। वह एक ‘प्रधानमंत्री’ की भूमिका में मंच पर थे लेकिन बलात्कार की घटनाओं पर सिर्फ अफ़सोस और शर्म से गर्दन नीचे झुकाकर रह गये। जहां उन्हें एक प्रशासक और नीति-निर्माता के तौर पर बात करनी चाहिये थी, वहां वह कोरी भावुकता में बात कर रहे थे। यही वजह थी कि उनकी बात ‘लड़को पर नियंत्रण’ लगाने की अपील से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पायी। महिलाओं के सशक्तिकरण से जुड़ी किसी भी नीति पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की। शौचालयों की राजनीति को गांधी के प्रतीक से जोड़कर उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले भी वाह-वाही हासिल की है, आज जब नीति-निर्माण का समय आया तो उन्होंने इसे एक ऐसी योजना-सांसद ग्राम सड़क योजना का नाम दिया, जिसका व्यवहारिक मतलब कुछ भी नहीं है। सांसदों के पास पहले ही  सांसद निधि के रूप में मुहैया राशि शौचालय, सड़क आदि निर्माण कार्यों के लिये होती है। कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के लाल किले से दिये गये भाषण में भी वही अंर्तविरोध और सन्देश गुथा हुआ था, जो रोज देश में मीडिया के बड़े हिस्से द्वारा छिपाया और प्रचारित किया जा रहा है। ये विडम्बना ही है कि स्वयं को प्रशासक और विकास पुरुष कहने वाले प्रधानमंत्री ने महंगाई जैसे मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की। एक ऐसी सरकार से देश के बिगड़ते साम्प्रदायिक माहौल पर कोई संतुलित टिप्पणी करने की अपेक्षा अनुचित ही थी जिसके मुखिया की नैतिक वैधता स्वयं संदिग्ध हो। बतौर प्रधानमंत्री लाल किले से बोलते हुये नरेंद्र मोदी ने इस बात को सही साबित किया।  


जिस ख़ास पृष्ठभूमि और परिघटना ने भाजपा और नरेंद्र मोदी को सत्तासीन किया, आज भले ही उसके प्रभाव के चलते मोदी की जय-जयकार हो रही हो, लेकिन ये अनुभवसिद्ध है कि एक सीमा के बाद जुमलों, नारों और प्रतीकों की ठोस व्याख्या की जरुरत पड़ती है। देर-सबेर मोदी को भी ये सीमा लांघनी पड़ेगी।  

अभिनव शोधार्थी और पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से.
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम.
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है.

कौन है योजना आयोग का असली दुश्‍मन?

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अभिषेक श्रीवास्तव
-अभिषेक श्रीवास्‍तव 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले की प्राचीर से देश की जनता को तमाम हितोपदेश देने के साथ-साथ जो इकलौती कार्यकारी घोषणा की थी वह योजना आयोग को समाप्‍त किए जाने की थी। इस पर हफ्ते भर के भीतर काम काफी तेजी से शुरू हो चुका है। एक थिंक टैंक की बात बार-बार आ रही है जो आयोग की जगह लेगा। सवाल उठता है कि योजना आयोग को खत्‍म करने के पीछे प्रधानमंत्री के पास कोई वाजिब तर्क है या फिर यह उनकी निजी नापसंदगी का मसला है।

Daily wage labourers are seen outside the office of Planning Commission in New Delhi. A report of the National Commission for Enterprises in the Unorganised Sector recorded that 836 million Indians live on Rs.20 a day or less. File Photo: V.V. Krishnan
यह संयोग नहीं है कि आज से तीन साल पहले यानी 2011 में अंग्रेजी के एक अख़बार में अर्थशास्‍त्री बिबेक देबरॉय ने भी योजना आयोग को समाप्‍त करने की सिफारिश करते हुए लिखा था, ''यदि हम योजना आयोग के माध्‍यम से राज्‍यों को किए जाने वाले सभी हस्‍तांतरणों को हटा रहे हैं और अनुसंधान के काम से भी उसे फ़ारिग कर रहे हैं, तो योजना आयोग आखिर करेगा क्‍या? यह तो दिलचस्‍प सवाल है।''ठीक तीन साल बाद नरेंद्र मोदी ने यही किया। संसद में किसी भी परिचर्चा के बगैर मोदी ने अपने स्‍वतंत्रता दिवस अभिभाषण में कह डाला, ''हम बहुत जल्‍द योजना आयोग की जगह एक नई संस्‍था का गठन करेंगे।''इस घोषणा के तुरंत बाद ख़बर आ गई कि प्रधानमंत्री प्रस्‍तावित संस्‍था में बिबेक देबरॉय को भी शामिल करेंगे। आखिर मोदी और देबरॉय के बीच क्‍या रिश्‍ता है?

प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में देबरॉय द्वारा संपादित एक पुस्‍तक का लोकार्पण किया था। लोकार्पण समारोह में अपनी शुरुआती टिप्‍पणी उन्‍होंने यह की थी कि उनका बोझ काफी कम हो गया है क्‍योंकि सारा काम इस पुस्‍तक के लेखकों ने कर डाला है। यही वह सिरा है जहां से हम योजना आयोग के असली दुश्‍मन की शिनाख्‍त कर सकते हैं। दरअसल, मोदी पर बिबेक देबरॉय का खासा प्रभाव रहा है। दोनों के बीच रिश्‍ता बहुत पुराना है। देबरॉय ने 2005 में राजीव गांधी इंस्टिट्यूट फॉर कन्‍टेम्‍पोररी स्‍टडीज़ (आरजीआइसीएस) में निदेशक के पद पर काम करते हुए एक रिपोर्ट लिखी थी जिसमें भातीय राज्‍यों की आर्थिक स्‍वतंत्रता का आकलन किया गया था। इस सूची में गुजरात को शीर्ष पर बताया गया था। इस रिपोर्ट के बारे में मोदी ने अखबारों में अपने राज्‍य में विज्ञापन जारी कर के प्रशंसा बटोरी थी। इसका भारी मीडिया कवरेज हुआ था।

चूंकि देबरॉय आरजीआइसीएस के रास्‍ते राजीव गांधी फाउंडेशन से भी जुड़े थे, इसलिए एक गलत धारणा का प्रचार यह हुआ कि खुद सोनिया गांधी ने गुजरात के तथाकथित आर्थिक विकास को स्‍वीकार्यता दे दी है। लोगों में इस खबर के जोरदार विज्ञापन का असर यह हुआ कि वे मानने लगे थे कि मोदी की अर्थनीति इतनी अच्‍छी है कि उनके राजनीतिक दुश्‍मन भी उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा कर रहे हैं। रातोरात देबरॉय ने इस रिपोर्ट के माध्‍यम से मोदी को देश में विकासनीति का सुपरस्‍टार बना दिया। मोदी ने 2012 में गुजरात के विधानसभा चुनाव प्रचार में इस रिपोर्ट का एक हथियार के तौर पर सोनिया व राहुल गांधी के खिलाफ़ जमकर इस्‍तेमाल भी किया और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी उन्‍होंने अपने कई संबोधनों में इस रिपोर्ट का जि़क्र किया था।

देबरॉय और मोदी दोनों ही इस एक तथ्‍य का जि़क्र करना भूल गए कि देबरॉय के परचे में प्रयोग किए गए आंकड़े 2002 से पहले के थे जब मोदी गुजरात के मुख्‍यमंत्री नहीं हुआ करते थे। इसका उद्घाटन गुजरात की एक अर्थशास्‍त्री ऋतिका खेड़ा ने बहुत पहले एक रिपोर्ट में कर डाला था। इससे कहीं ज्‍यादा अहम बात यह थी कि देबरॉय का परचा पूरी तरह भ्रामक था क्‍योंकि वह ए‍क दक्षिणपंथी वैश्विक थिंकटैंक फ्रेज़र इंस्टिट्यूट द्वारा तैयार की गई प्रविधि पर आधारित था। फ्रेज़र इंस्टिट्यूट स्‍टेट पॉलिसी नेटवर्क (एसपीएन) का हिस्‍सा है जो अपने बारे में कहता है कि वह ''ऐसे थिंकटैंक समूहों का एक संगठन है जो मोटे तौर पर प्रमुख कॉरपोरेशनों और दक्षिणपंथी दानदाताओं के लिए प्रच्‍छन्‍न तरीके से पैरोकारी करने वाली मशीनरी के तौर पर भूमिका निभाता है।''उसके मुताबिक:

देबरॉय की किताब से ''पटरी पर आने''की सीख लेते मोदी
''उसकी नीतियों में कर कटौती, जलवायु परिवर्तन संबंधी नियमनों का विरोध, श्रम संरक्षण में कटौती की पैरोकारी, दिहाड़ी में कटौती की पैरोकारी, शिक्षा का निजीकरण, मताधिकार पर बंदिश लगाना और तम्‍बाकू उद्योग के लिए लॉबींग शामिल हैं।''

इंस्टिट्यूट अपने आय के स्रोतों के बारे में कहता है, ''इस नेटवर्क का सालाना 83.2 मिलियन डॉलर का राजस्‍व प्रमुख दानदाताओं से आता है। इनमें कोश बंधु शामिल हैं जो ऊर्जा के क्षेत्र के बड़े खिलाड़ी हैं जो अमेरिका के टी पार्टी समूहों व जलवायु परिवर्तन नियमन के विरोधियों के पीछे की ताकत हैं। इसके अलावा इसमें तम्‍बाकू कंपनी फिलिप मौरिस और उसकी मातृ संस्‍था एट्रिया समूह शामिल है। इसमें खाद्य क्षेत्र की बड़ी कंपनी क्राफ्ट भी है और बहुराष्‍ट्रीय दवा कंपनी ग्‍लैक्‍सोस्मिथक्‍लाइन भी शामिल है।''

गौरतलब है कि जिस तम्‍बाकू कंपनी फिलिप मौरिस का दानदाता के तौर पर जि़क्र ऊपर किया गया है, नरेंद्र मोदी और गुजरात सरकार की आधिकारिक जनसंपर्क एजेंसी ऐपको वर्ल्‍डवाइड उसी की एक शाखा है। ज़ाहिर है, यह संयोग नहीं है क्‍योंकि गुजरात सरकार ने नरेंद्र मोदी की ब्रांडिंग के लिए ऐपको को 2007 के बाद ही ठेका दिया था जब देबरॉय के मोदी से निजी रिश्‍ते पर्याप्‍त पनप चुके थे।

बहरहाल, अपनी भ्रामक रिपोर्ट के कारण बिबेक देबरॉय को आरजीआइसीएस से इस्‍तीफा देना पड़ा था क्‍योंकि उन पर आरोप था कि उन्‍होंने अपने संरक्षकों को बाहरी ताकतों द्वारा प्रायोजित रिपोर्ट तैयार कर शर्मसार किया है। देबरॉय दिल्‍ली के लिबर्टी इंस्टिट्यूट से भी जुड़े हुए हैं और उसकी गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं। देबरॉय की उक्‍त पुस्‍तक में एक खंड लिखने वाले वरुण मित्रा लिबर्टी इंस्टिट्यूट के प्रबंधकीय ट्रस्‍टी हैं और यह संस्‍थान ऐटलस नेटवर्क का सहयोगी है। पत्रकार जॉर्ज मॉनबियो लॉबीवॉच में लिखते हैं, ''मित्रा और लिबर्टी इंस्टिट्यूट ने मोनसेंटो कंपनी के जीएम कपास के लिए भारी लॉबींग की थी और दावा किया था कि सरकारी दखलंदाज़ी के बगैर नई प्रौद्योगिकी तक मुफ्त पहुंच होनी चाहिए।''

बिबेक देबरॉय: मोदी का दायां हाथ
आरजीआइसीएस आने से पहले बिबेक देबरॉय को अर्थशास्‍त्र के क्षेत्र में कोई नहीं जानता था। देबरॉय के भारत सरकार के भीतर रिश्‍ते तब बनना शुरू हुए जब वे 1993 से 1998 के बीच हुए कानून सुधारों पर वित्‍त मंत्रालय द्वारा बाहरी पर्यवेक्षकों से पर्यवेक्षण की एक परियोजना के संयोजक बने। आरजीआइसीएस में देबरॉय को 1998 में आबिद हुसैन लेकर आए जो वहां के उपाध्‍यक्ष हुआ करते थे और पूर्व नौकरशाह भी थे जिनकी भूमिका राजीव गांधी के कार्यकाल में नवउदारवादी सुधारों की पहली लहर देश में कायम करने में बड़ी अहम रही थी। यह पहली लहर ही थी जिसके कारण देश में 1991 में खाड़ी युद्ध के दौरान व्‍यापार संतुलन घाटा पैदा हो गया था और जिसका बहाना बनाकर नरसिंह राव उदारीकरण का दूसरा चरण लेकर आए।

नब्‍बे के दशक के मध्‍य से लेकर अंत तक आरजीआइसीएस भारत का सबसे बड़ा गैर-सरकारी संस्‍थान था जिसके संरक्षक दुनिया भर की शख्सियतें थीं। यहां का निदेशक बनने के बाद ही देबरॉय के संपर्क तमाम क्षेत्रों में अहम बने। बिबेक देबरॉय नाम के अनजान शिक्षक के फ़र्श से अर्श पर पहुंचने की कहानी यहीं से शुरू होती है जो अब नरेंद्र मोदी का आर्थिक सलाहकार बन चुका है और जिसकी किताब से मोदी को लगता है कि उनका सारा बोझ कम हो गया है।

साफ़ है कि योजना आयोग को समाप्‍त करने समेत अन्‍य आर्थिक कदमों के पीछे मोदी का अपना विवेक नहीं, देबरॉय का दिमाग है जिसे विदेशी कॉरपोरेट दानदाताओं से खाद-पानी मिल रहा है। मीडिया और पत्रकारों के बीच बिबेक देबरॉय की ताकत का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि देश की एक बड़ी पत्रिका की एक वरिष्‍ठ संपादक ने नई सरकार के बजट पर उनसे एक प्रायोजित टिप्‍पणी लिखवाने के अनुरोध के बहाने अपने लिए ''अच्‍छी नौकरी''की मांग आधिकारिक ई-मेल से कर डाली थी, जिसका मजमून इस लेखक के पास सुरक्षित है। 
(यह आलेख जनपथसे साभार)

अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम.
अभी
 जनपथ डॉट कॉम
 के संपादक
संपर्क- guruabhishek@gmail.com.

कितना जायज समूचे मिड डे मील पर प्रश्न?

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-अभिषेक कुमार चंचल 

"....इनसारे सवालों का उठना लाजमी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस योजना ने स्कूलों में बच्चों के नामंकन को बढ़ाया है। अब स्कूल में सभी समुदाय के बच्चे एक साथ बैठ कर खाना खाते हैं जिसके कारण मिड-डे मील ने सामाजिक विषमता को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ ने आँध्रप्रदेश में गरीबी पर एक रिर्पोट में लिखा कि एक जिले में बच्चे और समुदाय यह मांग कर रहे हैं कि रविवार को भी स्कूल खुलना चाहिए इस पर अध्ययन करने पर पता चला कि बच्चे हर रोज का स्कूल इसलिए चाहते थे ताकि उन्हे हर दिन भोजन मिल सके। जिस दिन वहाँ स्कूल की छुट्टी होती थी, बच्चे भूखे रहते थे। दरअसल मिड-डे मिल जैसे कल्याणकारी योजनाओं पर सारे सवाल उन वर्गों से उठ कर आ रहा है जहां पर लोग भूख की लड़ाई नही लड़ रहे हैं।..."


बिहार के गोरौल प्रखंड के नवसृजित प्राथमिक विद्यालय कोरिगांव में 5 जुलाई  2014 को मिड डे मिल खाने से 33 बच्चे बीमार पड़ गए। बिहार या अन्य राज्यों में यह कोई नयी घटना नहीं है। इससे पहले भी मिड- डे मील से कई बच्चे मौत के मुहं मे जा चुके है। केवल बिहार में ही नही पूरे देश में मिड- डे मील में लापरवाही की घटना अक्सर सुनने को मिल जाती है और जब तक यह आलेख आप तक पहुंचे तब तक यह भी संभव है कि इस तरह की कोई नयी घटना आप तक पहुंच जाए। दरअसल  इस तरह की लापरवाही को रोकनें के लिए सरकार को कोई तरकीब नहीं सूझ रही है। केंद्र सरकार राज्य सरकार पर और राज्य की सरकार केन्द्र सरकार पर आरोप लागाती रही है। जिसके चलते यह योजना बच्चों को कुपोषण से बचाने के बजाए मौत के मुंह में धकेल रही है। 

अबइस योजना पर कई सारे सवाल उठ रहे हैं। पहला सवाल कि जब इस तरह की घटनाएँ सामने आ रही हैं तो सरकार इन योजना बंद क्यों नही कर देती। दूसरा सवाल की स्कूल में पढ़ाई की जरुरत है न की खाने की। तीसरा सवाल कि स्कूल में भोजन की गुणवत्ता बहुत खराब होती है, जहां दाल नही दाल का पानी मिलता है। चौथा सवाल कि इस योजना में भारी मात्रा में भ्रष्टाचार शामिल है। शिक्षा विभाग का करोड़ों का बजट, प्राथमिक शिक्षा और मिड-डे-मिल के नाम पर खर्च हो रहा हैं। पांचवा सवाल की प्राथमिक विद्यालयों में शिक्षकों की कमी होने के कारण बच्चों को शिक्षा नहीं मिल पा रही हैऔर जो शिक्षक हैं उन्हें स्कूल भवन बनवाने, 'मिड-डे-मिल'का हिसाब-किताब लगाने से लेकर जनगणना, पल्स पोलियो, चुनाव जैसे काम भी करने होते हैं। इसलिये कुछ लोगों का यह भी कहना है कि गरीब के बच्चों को 'मिड-डे-मिल'खाने का झुनझुना पकड़ाया गया है।

इनसारे सवालों का उठना लाजमी है, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इस योजना ने स्कूलों में बच्चों के नामंकन को बढ़ाया है। अब स्कूल में सभी समुदाय के बच्चे एक साथ बैठ कर खाना खाते हैं जिसके कारण मिड-डे मील ने सामाजिक विषमता को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है। जाने-माने पत्रकार पी साईनाथ ने आँध्रप्रदेश में गरीबी पर एक रिर्पोट में लिखा कि एक जिले में बच्चे और समुदाय यह मांग कर रहे हैं कि रविवार को भी स्कूल खुलना चाहिए इस पर अध्ययन करने पर पता चला कि बच्चे हर रोज का स्कूल इसलिए चाहते थे ताकि उन्हे हर दिन भोजन मिल सके। जिस दिन वहाँ स्कूल की छुट्टी होती थी, बच्चे भूखे रहते थे। दरअसल मिड-डे मिल जैसे कल्याणकारी योजनाओं पर सारे सवाल उन वर्गों से उठ कर आ रहा है जहां पर लोग भूख की लड़ाई नही लड़ रहे हैं।


वर्ल्डफूड प्रोग्राम(WFP) द्वारा प्रस्तुत स्टेट ऑव स्कूल फीडिंग वर्ल्डवाइड 2013 नामक रिपोर्ट पर गौर करें तो हम पाते हैं कि भारत में साल 1995 में शुरु की गई मध्याह्न भोजन (मिड डे मील) स्कीम देशभर के प्राथमिक स्कूलों में चलायी जाने वाली एक लोकप्रिय योजना है। भारत में सुप्रीम कोर्ट के दिशानिर्देशों के बाद 28 नवंबर 2001 को इस योजना को विधिवत् रुप से अपनाया गया। बाद में साल 2005 के बाद इस योजना को सम्रग रुप से अपनाया गया। वर्ष 2001-02 से 2007-08 के बीच के स्कूली नामांकन से संबंधित आकड़ों पर गौर करे तो हम पाते हैं कि अनुसूचित जाति के बच्चों के स्कूली नामांकन में बढ़ोतरी (103.1 से 132.3 फीसदी तक लड़कों एंव 82.3 से 116.7 फीसदी लड़कियां) है। अनुसूचित जनजाति के बच्चों के स्कूली नामांकन में बढ़ोतरी (106.9 से 134.4 फीसदी तक लड़कों एंव 85.1 से 124 फीसदी लड़किया) दर्ज किया गया है। साल 2011 में इस योजना की पहुंच भारत के 11 करोड़ 30 लाख 60 हजार बच्चों तक थी जिनको पोषणयुक्त भोजन मुहैया कराया जा रहा है। वर्ल्ड फूड प्रोग्राम की तरफ से जारी स्टेट ऑफ स्कूल फीडिंग वर्ल्डवाइड 2013रिपोर्ट के मुताबिक दुनियाभर में विभिन्न देशों में ऐसी योजना चलायी जा रही है। दुनिया के विकासशील और विकसित देशों में मौजूदा हालात को देखें, तो कुल 36 करोड़ 80 लाख यानी हर पांच में से एक बच्चे को स्कूलों में पोषाहार देने की योजना चलाई जा रही है, जिससे कि भूख से मरने वाले बच्चों की संख्या में कमी आयी है। आकड़ों से साफ है कि मिड-डे मिल योजना लाखों बच्चों को नयी दिशा देने का काम कर रहा है। बच्चे भूखे पेट पढ़ाई कर सकते हैं क्या?

इस योजना को सूचारु रुप से चलाने के लिए पंचायतें और स्थानीय निकाय की भागीदारी को तय करने की जरुरत है। बिहार के लगभग स्कूलों मे रसोई घर नही है इसकी व्यस्था करने की जरुरत है। इसका उदाहरण हम न्यूज-क्लिपिंग्स् की रिर्पोट से ले सकते हैं इसमें बताया गया है कि जहां अधिकांशतः स्कूल मिड डे मिल के बजट का रोना रोते रहते हैं और कहते हैं कि इस बजट से छात्रों को कैसे अच्छे भोजन दे सकते हैं वहीं भिवानी जिले के गांव धनाना में चल रही राजकीय प्राथमिक विधायल बच्चों को शुद्ध देशी घी के हलवे के अलावा मटर पनीर की सब्जी के साथ सलाद भी परोस रहा है। मिड डे मील के इंचार्ज राजेंद्र सिंह ने बताया कि बच्चों को मिलने वाले खर्च में अच्छा खाना दिया जा सकता है, बशर्ते काम करने की नीयत साफ हो।  
प्रत्येक बच्चे के लिए तीन रुपये 34 पैसे एक दिन के लिए मिलते हैं। इसके अलावा चावल और गेहूं सरकार की तरफ से मिलते ही हैं। राजेंद्र सिंह ने बताया कि इस समय स्कूल में विद्यार्थियों के लिए 10 प्रकार के व्यंजन बनाए जाते हैं, इसमें पुलाव, खिचड़ी, कढ़ी-चावल, दाल-चावल, आलू और काले चने की सब्जी व रोटी, काला चना व आटे का हलवा बनाया जाता है। विद्यार्थियों को सप्ताह में एक बार मटर पनीर की सब्जी भी दी जाती है। बच्चों को मिलने वाली राशि को बड़े ध्यान से खर्च किया जाता है। जब भी मिड डे मिल के लिए किसी सामान की जरूरत होती है तो उस ओर से आने-जाने वाले शिक्षक को इसका जिम्मा दे दिया जाता है। इससे इस सामान को लाने पर होने वाला खर्च बच जाता है। वे सब्जियां भी खेत में जाकर सीधे किसानों से खरीदते हैं। 
एक गैर-सरकारी संगठन, ‘एकाउंटबिल्टी इनिशिएटिवने कई राज्यों में मिड-डे-मील योजना के कार्यान्वयन का सर्वेक्षण कराया जिसमें पाया गया बिहार और उत्तर प्रदेश के हालात काफी खराब है। बिहार के पूर्णिया जिले में मिड-डे-मील स्कूलों में साल के 239 कार्य दिवसों में दर्शाया गया। जबकि, जांच के दौरान पाया कि मिड-डे-मील का वितरण इन स्कूलों में महज 169 कार्य दिवसों में ही हुआ था। इतना ही नहीं मिड-डे-मीलतय मैन्यू के हिसाब से नहीं पाया गया। यहां गुणवत्ता के साथ तय मापदंडों के अनुसार भोजन के वजन में भी कमी पाई गई। उत्तर प्रदेश के हरदोई और जौनपुर में सैम्पल सर्वे के दौरान यह जानकारी मिली कि स्कूलों में मिड-डे-मील खाने वाले जितने बच्चों का नामांकन किया जाता है, उसमें से केवल 60 प्रतिशत बच्चे ही दोपहर का भोजन करते हैं। ऐसे बच्चों को भी भोजन लाभार्थी दिखाया गया, जो कि स्कूल में महीनों से गैर-हाजिर थे। सर्वेक्षण रिपोर्ट में कहा गया कि समुचित निगरानी न होने की वजह से योजना बहुत लुंज-पुंज ढंग से लागू हो पा रही है।

आश्चर्य की बात है कि हम शिक्षा व्वस्था को सुधारने के बजाय मिड डे मील के पिछे पड़े हुए है। अगर शिक्षा व्वस्था में सुधार हो जाए तो इस समस्या का भी समाधान हो जाऐगां। शिक्षा पर कुल बजट का 4 प्रतिशत खर्च किया जा रहा है, और सरकारी स्कूल में दिन-प्रतिदिन शिक्षा का स्तर गिरता जा रहा है। स्कूल चलो अभियान के नाम पर सैकड़ो एनजीओ लाखों कमा रहे हैंआज सरकारी स्कूल के आठवीं के बच्चों को सही से किताब पढ़नी अन्हि आती है। आज से कुछ दशक पहले तक सरकारी स्कूल से पढ़े बच्चे तमाम तरह की प्रतियोगता में सफलता प्राप्त करते थे।
 
हमें जरुरत है शिक्षा व्यवस्था को दुरुस्त करने की। मिड-डे मील को सुचारु रुप से चलाने व निगरानी रखने का एक नियोजित तंत्र बनाने की। इसके लिए हरेक लोगों को, समाज को, एंव सरकार को जागरुक होनें होगें। ऐसे में ही सुधार हो सकता है। वरना, अरबों रुपए के बजट से चलने वाली इस नायाब महायोजना का पूरी तरह से बंटाधार होना तय है।

अभिषेक युवा टिप्पणीकार हैं.
IIMC से पत्रकारिता की पढ़ाई. अभी शिक्षा के क्षेत्र में काम.

सौ दिन की हकीकत

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...‘अच्छे दिन’ चाहने वालों में उन तबकों का बड़ा हिस्सा है- जिनकी पहचान मोदी ने नव-मध्य वर्ग के रूप में की थी। उनके लिए असली मुद्दे महंगाई और रोजगार हैं। महंगाई के मुद्दे पर भाजपा सरकार लगभग यू-टर्न ले चुकी है। यानी वो वही भाषा बोलने लगी है, जो यूपीए के मंत्री और नेता बोलते थे। ऐसे में आम आदमी का यह भरोसा टूटता जा रहा है कि उनके पास महंगाई पर काबू पाने का कोई विशेष फॉर्मूला है। बल्कि रेल किराया बढ़ा कर और पेट्रोलियम की कीमतों पर अनियंत्रित छोड़ कर उसने यही संकेत दिया कि आम लोगों को तुरंत राहत देने की उसकी कोई इच्छा या तैयारी नहीं है। करोड़ों रोजगार सरकार कैसे पैदा करेगी, इसका भी कोई खाका उसने नहीं रखा है।..."

साभार- ndtv.com
रेंद्र मोदी सरकार के पहले 100 दिन का ठोस विश्लेषण करना हो, तो पहले 2014 के आम चुनाव में उभरे जनादेश के स्वरूप को समझना आवश्यक होगा। मतलब यह कि भारतीय जनता पार्टी को राष्ट्रीय स्तर पर जिन 31 प्रतिशत लोगों ने वोट दिए, वे कौन थे तथा उन्होंने किन अपेक्षाओं के साथ नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री चुना?

चुनाव उपरांत सर्वेक्षणों और सामान्य विवेक से बनी समझ के मुताबिक इन मतदाताओं में पहला तबका उनका है, जो बहुसंख्यक वर्चस्व यानी हिंदुत्व की विचारधारा के लगभग स्थायी समर्थक बने हुए हैं। 8-10 प्रतिशत ऐसे मतदाता तो बाबरी मस्जिद ध्वंस आंदोलन के पहले भी थे। इस आंदोलन ने इनकी संख्या में खासा विस्तार किया। आज अनुमान लगाया जा सकता है कि इनकी संख्या 15 प्रतिशत तक है। नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के साथ ऐसे मतदाताओं का स्वाभाविक ध्रुवीकरण हो गया। इसकी वजह गुजरात के मुख्यमंत्री के बतौर मोदी की छवि थी। मोदी की यह विशेषता उनके विरोधी भी मानते हैं कि वे मुखौटे के भीतर से सियासत नहीं करते। बल्कि जो मानते हैं, उसे कहते हैं और फिर वैसा ही आचरण करते हैं। एक दौर में लालकृष्ण आडवाणी की भी ऐसी छवि बनी थी। लेकिन बाद में अपनी राजनीतिक स्वीकार्यता बढ़ाने के चक्कर में उन्होंने खुद ही इस छवि को फीका कर लिया। इससे राजनीति में कट्टर हिंदुत्ववादी नेतृत्व का जो स्थान उन्होंने बनाया था, वह खाली हो गया। मोदी ने 2002 के गुजरात दंगों के बाद अपनी ऐसी छवि उभारी, जिससे इस जगह को भरने में वे कामयाब रहे। अतः उनके नाम से हिंदुत्ववादी मतदाताओं या जन समूहों का उत्साहित होना स्वाभाविक घटनाक्रम है। पिछले चुनाव में मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की उद्देश्य भावना इन समूहों में प्रबलता से उभरी, जिसके परिणास्वरूप ये ऐसे तमाम मतदाता मजबूती से लामबंद हुए और मतदान केंद्रों तक पहुंचे।

मोदी के समर्थन आधार का दूसरा बड़ा वर्ग वो है, जो अच्छे दिन’ के प्रचार अभियान से इकट्ठा हुआ। हर वर्ग, हर तरह के पेशे के लोगों में बेहतर दिन आने का भरोसा मोदी के प्रचार अभियान ने प्रभावी ढंग से भरा। आने वाले समय में संचार के अध्ययनकर्ताओं के लिए यह शोध का विषय होगा कि इतने लोगों के मन में विकास के गुजरात मॉडल का मिथक इतने दृढ़ ढंग से बैठाने में सफलता आखिर कैसे हासिल की गई। अधिकांश लोग ऐसे हैं, जो कभी गुजरात नहीं गए। लेकिन उनकी जुबान पर यह बात चढ़ गई कि मोदीजी ने गुजरात में यह या वह कर दिखाया है। राज्य में निवेश की वास्तविकता, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर में गुजरात का औसत प्रदर्शन और मानव विकास सूचकांकों पर उसकी निराशाजनक स्थिति के आंकड़े मोदी विरोधी पार्टियों और सामाजिक संगठनों ने रखे, लेकिन इतने विस्तार और सूक्ष्मताओं में जाने की किसे फिक्र थी! बहरहाल, इस तबके को लेकर मोदी और भाजपा को चिंतित रहने की जरूरत है, क्योंकि इसके ज्यादातर हिस्सों में अच्छे दिन का लंबे समय तक इंतजार करने सब्र नहीं है।

मोदी के समर्थन आधार का तीसरा हिस्सा उद्योग जगत, उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग का है, जो यूपीए सरकार के सामाजिक एजेंडे और उसके कार्यकाल में आखिरी वर्षों में आर्थिक वृद्दि दर गिरने और रुपये की कीमत में गिरावट से खफा थे। इन तबकों ने यूपीए के सामाजिक एजेंडे को संसाधनों की बर्बादी माना और उसे राजकोषीय घाटे की वजह बताया गया। विभिन्न कारणों से विकास दर में आई गिरावट को पॉलिसी पैरालिसिस (नीतिगत निर्णय के लकवाग्रस्त होने) का परिणाम बताया गया। इन तबकों को यूपीए का विकल्प चाहिए था, जो उन्हें मोदी के रूप में दिखा। मोदी की सुपर ह्यूमन (अति मानवी) छवि गढ़ने में इन वर्गों ने अपने संसाधन और मेधा झोंक दिए। इस क्रम में उन्होंने अपने लिए भी कुछ भ्रम बुने, जिनमें एक यह था कि सत्ता में आते ही मोदी समाजवादी जकड़नों से उद्यमियों, निवेशकों और कुल मिला कर अर्थव्यवस्था को मुक्ति दिला देंगे।

मोदी सरकार की आगे कैसी छवि रहेगी, यह इसी से तय होगा कि कि इन तीनों तबकों की कितनी उम्मीदें पूरी होती हैं। बाकी जन समहूों में बड़ा हिस्सा उन लोगों का है, जो स्वतंत्रता के बाद जो भारत अस्तित्व में आया अथवा जो भारत का विचार (आइडिया ऑफ इंडिया) मुख्यधारा रहा (bit.ly/1uasqEW), मोदी को उसका प्रतिवाद (एंटी थीसीसी) मानते हैं। वे मोदी को अकेली शख्सियत के रूप में नहीं, बल्कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की राष्ट्र की धारणा एवं उसकी सकल परियोजना के हिस्से के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह मुद्दा नहीं है कि मोदी कैसे अच्छे दिन लाएंगे। उनकी असली चिंता यह है कि मोदी के सत्ता में आने के साथ भारत का वह विचार हाशिये अथवा द्वितीयक स्थल पर चला गया है, जिसके प्रतीक पुरुष दादा भाई नौरोजी, महात्मा गांधी, रवींद्र नाथ टैगोर, अमर शहीद भगत सिंह, बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर और जवाहर लाल नेहरू रहे हैं। अनगिनत समाजवादी एवं साम्यवादी विचारकों एवं कार्यकर्ताओं ने भी भारत के इस विचार का सींचा। इसके विपरीत मोदी उस भारत के प्रतीक हैं, जिसकी धारा विनायक दामोदार सावरकर (bit.ly/1rG3E2H), गुरु गोलवरकर आदि के साथ शुरू होकर आगे बढ़ी। उपरोक्त दोनों धाराओं में कोई मिलन बिंदु नहीं हो सकता। अतः अपनी छवि और वोट समर्थन आधार के संदर्भ में मोदी अगर इन तबकों की फिक्र ना करें, तो यह स्वाभाविक ही है।

दूसरी तरफ वे उन समूहों को लेकर निश्चिंत रह सकते हैं, जो हिंदुत्व का स्थायी वोट आधार हैं। उनके लिए मोदी सरकार की सफलता-विफलता के आकलन की कसौटी आर्थिक या विकास अथवा सामाजिक समावेशन के क्षेत्रों में उसका प्रदर्शन नहीं होगा। उनके लिए फिलहाल यही काफी है कि हिंदुत्व या संघ की धारा से आया व्यक्ति देश में राजकाज के सर्वोच्च पद पर है और वहां वह हिंदू प्रतीकों को स्थापित करने में कोई हिचक नहीं दिखा रहा है।

बहराहल, अच्छे दिन की उम्मीद में पिछले चुनाव में बढ़-चढ़ कर भाजपा के हक में मतदान करने वाले तबकों को लेकर मोदी निश्चिंत नहीं हो सकते। उद्योग जगत तथा उच्च और मध्यम वर्गों को लेकर भी उन्हें सचेत रहना चाहिए। दरअसल पहले 100 दिनों में मोदी सरकार के इरादों और क्षमता को लेकर अगर कहीं सबसे ज्यादा संदेह पैदा हुआ है, तो वह इन वर्गों का दायरा है। इन वर्गों की निम्नलिखित उम्मीदें टूटी हैं-
  • मोदी की सरकार में टेक्नोक्रेट्स अधिक होंगे, जो वोट की चिंता किए बगैर फैसले लेंगे और उन पर अमल कराएंगे।
  • मोदी सरकार बनते ही भूमि अधिग्रहण कानून, पर्यावरण संरक्षण कानून, वनाधिकार कानून आदि जैसे विकास की राह में कथित रूप से रोड़ा बने अधिनियमों को खत्म करने की पहल कर दी जाएगी।
  • श्रम कानूनों में तुरंत आमूल बदलाव लाए जाएंगे, जिससे कंपनियों के लिए कर्मचारियों को मनचाहे ढंग से रखना और हटाना आसान हो जाएगा।
  • मोदी सरकार एक झटके से निवेश और व्यापार की राह के तमाम बंधन हटा देगी।
  • वह पूंजी के लिए ऐसा अनुकूल माहौल बना देगी, जैसा शायद दुनिया में कहीं नहीं है।
ऐसा नहीं है कि मोदी सरकार ने उपरोक्त कार्यों को ना करने का एलान किया हो। मगर पूंजी क्षेत्र की शिकायत यह है कि उसने सिर्फ इरादा दिखाया है, वास्तव में अब तक कुछ नहीं किया। फिलहाल यह क्षेत्र अगले बजट तक इंतजार करने को तैयार दिखता है। लेकिन अगर तब तक मोदी ने अपनी सरकार कोन्यूनतम और निवेशकों के लिए मौके को अधिकतम नहीं किया, तो फिर इन तबकों की मायूसी सक्रिय रूप से जाहिर हो सकती है। (मोदी सरकार के बारे में इन तबकों समझ को ब्रिटिश पत्रिका द इकॉनोमिस्ट के दिल्ली स्थित संवाददाता ऐडम रॉबर्ट्स ने द इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में बखूबी व्यक्त किया, जिसे इस वेबलिंक पर जाकर पढ़ा जा सकता है- (bit.ly/1zO4EQE ) यहां ये नहीं भूलना चाहिए कि इन तबकों के हाथ में मीडिया का मजबूत तंत्र है, जिसने पिछले चुनाव में यूपीए को खलनायक और मोदी को महानायक के रूप में पेश करने में सबसे अहम भूमिका निभाई थी।

अच्छे दिन चाहने वालों में उन तबकों का बड़ा हिस्सा है- जिनकी पहचान मोदी ने नव-मध्य वर्ग के रूप में की थी। उनके लिए असली मुद्दे महंगाई और रोजगार हैं। महंगाई के मुद्दे पर भाजपा सरकार लगभग यू-टर्न ले चुकी है। यानी वो वही भाषा बोलने लगी है, जो यूपीए के मंत्री और नेता बोलते थे। ऐसे में आम आदमी का यह भरोसा टूटता जा रहा है कि उनके पास महंगाई पर काबू पाने का कोई विशेष फॉर्मूला है। बल्कि रेल किराया बढ़ा कर और पेट्रोलियम की कीमतों पर अनियंत्रित छोड़ कर उसने यही संकेत दिया कि आम लोगों को तुरंत राहत देने की उसकी कोई इच्छा या तैयारी नहीं है। करोड़ों रोजगार सरकार कैसे पैदा करेगी, इसका भी कोई खाका उसने नहीं रखा है।

भ्रष्टाचार, काला धन और स्वच्छ सार्वजनिक छवि के मोर्चों पर भी मोदी सरकार के दौर में यू-टर्न ही ज्यादा देखने को मिले हैं। इससे अबकी बार सबसे अलग सरकार की आशाएं कमजोर पड़ी हैं। इस बिंदु पर यह उल्लेख जरूर किया जाना चाहिए कि नरेंद्र मोदी ने अपने चुनाव प्रचार अभियान के क्रम में लोगों के बीच अयथार्थ आशाएं जगाईं। इस बिंदु पर उनकी तुलना अरविंद केजरीवाल से हो सकती है। जैसे केजरीवाल ने दिल्ली में ऐसे वादे किए, जिन्हें वे पूरा नहीं कर सकते थे, वैसा ही राष्ट्रीय स्तर पर मोदी ने किया। दोनों ने यह ख्याल नहीं रखा कि ऐसे वादे काठ की हाड़ी होते हैं, जो एक बार ही आग पर चढ़ते हैं।

बहरहाल, यहां मोदी के साथ एक सुविधा जरूर है, जो केजरीवाल के साथ नहीं थी। उनके पीछे आरएसएस की ताकत है। मशहूर विद्वान और स्तंभकार क्रिस्टोफे जेफ्रेलॉ ने इसका बेहतर विश्लेषण किया है (bit.ly/1tILFqZ )। उनके मुताबिक मोदी के लिए विकास का विमर्श उनका प्लान-ए है। इससे उन्होंने उन तबकों को जोड़ने में सफलता पाई, जो विकास की मृग-मरीचिका के बगैर उन्हें वोट नहीं देते। मोदी उन्हें जोड़े रखने के लिए कुछ करेंगे और सफल हुए तो उनका वोट आधार सुरक्षित बना रहेगा। लेकिन विकास के मोर्चे पर फेल हुए (जिसकी संभावना अधिक है, क्योंकि उनकी घोषणाएं दिखावटी अधिक और जमीन पर कम हैं, जैसाकि जन-धन योजना के मामले में जाहिर हुआ है- bit.ly/1qQ7rEg ) तो उस हाल के लिए उनके पास प्लान-बी है। यह हिंदुत्व का प्लान है। तब हिंदुत्व से जुड़े उग्र या उग्रतम मुद्दे उछाले जाएंगे। उत्तर प्रदेश में लव जिहाद  को सियासी मुद्दा बना कर इसका खासा सफल प्रयोग हो रहा है। ऐसे मुद्दे कैसा जुनून पैदा करते हैं, इतिहास इसका साक्षी रहा है (bit.ly/1lxtHXq )। यह खबर भी अप्रासंगिक नहीं है कि भाजपा उत्तर प्रदेश के अगले महीने के उपचुनावों के लिए योगी आदित्यनाथ (bit.ly/1oucgl9को अपना स्टार प्रचारक बनाने वाली है। अमित शाह पहले से मौजूद हैं। क्या इसमें किसी को शक है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ने पूरी तरह से (उग्र) हिंदुत्व के मुद्दे को अपना लिया है यानी प्लान-ए और प्लान-बी पर साथ-साथ अमल जारी है। गौरतलब है कि हमेशा के लिए तो नहीं, लेकिन एक लंबी अवधि तक जज्बाती या सांप्रदायिक मुद्दों से चुनावी बैतरणी जरूर पार की जा सकती है। मोदी सरकार के 100 दिनों का अनुभव का संदेश यह है कि ऐसे मुद्दे देश के एजेंडे में खासे ऊपर आ गए हैं। क्या वे सबसे ऊपर जाएंगे, यह जानने के लिए अभी हमें कुछ और इंतजार करना होगा।


लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

सफाई तो ठीक पर क्या गंगा पहाड़ों से नीचे आएगी भी?

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त्रेपन सिंह चौहान
-त्रेपन सिंह चौहान

 "...नरेंद्र मोदी और आरएसएस का गंगा के प्रति आस्था का असली चेहरा तब उजागर हो जाता है, जब एक तरफ गंगा की निर्मलता पर देश का हजारों करोड़ रुपए बहने का ऐलान हो चुका है और दूसरी ओर बड़े औद्योगिक घरानों के धंधों में किसी प्रकार की रुकावट न आये इसके लिए भी वह प्रतिबद्ध दिखती है। उनके लिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रहे बांधों को विकास के नाम पर खुली छूट दी जा रही है।..."

साभार- www.thehindu.com
मोदी सरकार ने अपने पहले ही बजट में गंगा की सफाई के लिए बनाई गई योजना के तहत 2037 करोड़ रुपए का प्रावधान कर लिया है। मोदी सरकार ने इस बात पर खूब जोर दिया है कि गंगा की सुरक्षा और सफाई सरकार की प्राथमिक सूची में से एक है। गंगा को लेकर मोदी की दिलचस्पी का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि वाराणसी चुनाव प्रचार में एक प्रमुख नारा था; जब वह टीवी पर एक चुनावी विज्ञापन में कहते हैं कि ‘मैं यहां किसी के बुलाने पर नहीं आया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।‘ मोदी के शब्दों और आवाज में यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का ही नारा है। अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए कई धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ इस तरह के धार्मिक नारों का बखूबी इस्तेमाल करने की इस संगठन की हमेशा एक रणनीति रही है। 


नरेंद्र मोदी और आरएसएस का गंगा के प्रति आस्था का असली चेहरा तब उजागर हो जाता है, जब एक तरफ गंगा की निर्मलता पर देश का हजारों करोड़ रुपए बहने का ऐलान हो चुका है और दूसरी ओर बड़े औद्योगिक घरानों के धंधों में किसी प्रकार की रुकावट न आये। उनके लिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रहे बांधों को विकास के नाम पर खुली छूट दी जा रही है।

प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए जो पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (सार्वजनिक और निजी भागीदारी) का नारा इस बजट में बड़े स्तर पर उछाला गया है, वह भी कम आश्चर्य पैदा नहीं करता। मानो पीपीपी ही इस देश की सारी समस्याओं का समाधान हो। 

बात गंगा सफाई की हो रही है। उत्तराखण्ड जो कभी गंगा-जमुनी संस्कृति के स्रोत होने पर गर्व करता था, आज यही नदियां यहां के लोगों के लिए अभिशाप बन गई हैं। ये नदियां बरसात में भूस्खलन और बाढ़ के कारण हजारों मौतों को बांटने वाली बन गई हैं। सरकार चाहे राज्य की हो या केन्द्र की, लोगों के बीच विकास के नाम पर विनाश को रोप रही है। लोगों के ऊपर जबरन थोपे जा रहे इस विकास से आज पहाड़ के मूल निवासियों की पीढ़ियों पर खतरा मंडराने लगा है। 

टिहरी बांध जहां गरीबों के लिए विस्थापन और देश के लिए एक नया खतरा लेकर आया है, वहीं कई छोटे-बड़े निर्माणाधीन और प्रस्तावित बांध प्रदेश के भूगोल के प्रतिकूल पहाड़ों की छाती में गाड़े जा रहे हैं। खास बात तो यह है कि जो बिजली पहाड़ की छातियों को दल के बनेगी, वह भी इस अभागे राज्य के हिस्से नहीं आयेगी। जो थोड़ी-बहुत बिजली राज्य के हिस्से आयेगी, वह भी सेलाकुई, सिडकुल जैसे उद्योगों के लिए पहली प्राथमिकता में होगी। आम आदमी की हिस्सेदारी उसमें कहीं नहीं रहेगी। कह सकते हैं कि उद्योगपतियों द्वारा बनाई गई बिजली उद्योगपतियों के लिए ही होगी।
 
उत्तराखण्ड में गंगा की हितैषी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकाल में उत्तराखण्ड जल विद्युत नीति के तहत 40,000 मेगावाट विद्युत पैदा करने की योजना बनाकर केन्द्र सरकार के पास भेजी थी। अपने कार्यकाल के दौरान कांग्रेस सरकार के मुखिया नारायणदत्त तिवाड़ी ने जून 2004 को केन्द्र सरकार के ऊर्जा मंत्रालय को एक पत्र लिखा था कि उत्तराखण्ड प्रदेश में 18,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन की क्षमता है। कांग्रेस के जाने के बाद जब भाजपा की सरकार आई, तो सरकार के मुखिया भुवनचंद्र खण्डूड़ी ने इसे बढ़ाकर 20,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन करने की क्षमता बता दी। भुवनचंद्र खण्डूड़ी को एक षड्यंत्र के तहत कुर्सी से विदा करने के बाद स्वयं मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक ने 40,000 हजार मेगावाट जल विद्युत उत्पादन का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास भेज दिया।

उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लिमिटेड के यमुना नदी पर किए गए एक अध्ययन से सरकार की मंशा का पता भी चल जाता है। निगम अपनी रिपोर्ट में कहता है कि यमुना नदी में लगातार पानी घट रहा है, पानी कम होने के चलते विद्युत उत्पादन में दिक्कतें पैदा हो रही हैं। इसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि यमुना नदी पर काफी बांध बनाये जाएं, जिससे विद्युत उत्पादन ठीक से हो सके।

विद्युत उत्पादन के लिए बांध ज्यादा बनाये जाएं, यह बात सिर्फ यमुना के संदर्भ में ही नहीं हो रही है। यह बात उत्तराखण्ड की हर नदी पर लागू की जा रही है। उसके लिए केन्द्र सरकार ने पांच हेक्टेयर तक वन भूमि की क्लीयरेंस राज्य सरकार के हवाले कर अपनी मंशा भी जता दी है। राज्य सरकार जिसमें माफिया का बड़े स्तर पर हस्तक्षेप रहता है, वे अपने तथा अपने आकाओं के हितों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। राज्य सरकार को पांच हेक्टेयर तक वन भूमि की अनुमति देकर केन्द्र सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों के लूट की संभावनाओं को और बढ़ा दिया है।

सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरणीय पहलू को ध्यान में रखते हुए उत्तराखण्ड की कई जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाई हुई है। जून 2013 में केदारनाथ त्रासदी के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही जल विद्युत परियोजनाओं को त्रासदी के लिए जिम्मेदार मानते हुए 13 अगस्त 2013 को 24 अन्य जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी। रोक को हटाने के लिए राज्य सरकार लगातार छटपटा रही है। वर्तमान सरकार जिस तरह से विकास को गति देने के नाम पर तमाम प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए विश्वभर के बड़े कॉरपोरेट घरानों को आमंत्रित कर रही है, उससे यह शंका भी होने लगी है कि देर-सबेर लोहारीनाग पाला, पाला मनेरी और भैरो घाटी जैसी विवादित एवं पर्यावरण के लिए खतरनाक हो चुकीं जल विद्युत परियोजनाओं पर से रोक हटा दी जाएगी।

विद्युत परियोजनाओं पर से जल्दी रोक हटे, इसके लिए राज्य में जोंक की तरह चिपके कुछ एनजीओ के स्वर भी सुनाई देने लगे हैं। लोगों के विकास के नाम पर बने ये मौकापरस्त एनजीओ मोदी की भाषा बोलते नजर आने लगे हैं। इन्हीं के साथ राज्य के कुछ बुद्धिजीवी भी पाला बदलते नजर आने लगे हैं।

राज्य के लोगों के खिलाफ और पूंजीपतियों के पक्ष में हमारे राजनेता कैसे पलटी मारते हैं, इसका ठोस उदाहरण आजकल केन्द्रीय मंत्री उमा भारती और मुख्यमंत्री हरीश रावत के बयानों और कार्यपद्धति में देखा जा सकता है। जब केन्द्र में भाजपा सरकार नहीं थी, उमा भारती बांधों के विरोध में दहाड़ा करती थीं और गंगा की अविरलता की बात पुरजोर ढंग से उठा रही थीं। वह गाहे-बगाहे धारीदेवी, श्रीनगर गढ़वाल की परिक्रमा कर जातीं और अपनी जान देकर भी गंगा में बांध न बनने देने की कसमें खाया करती थीं। जब कुछ पुरातनपंथी केदारनाथ त्रासदी को धारी देवी मंदिर के विस्थापन से जोड़ रहे थे, तो यही उमा भारती नदियों पर बन रहे बांधों को कोसते हुए उनके स्वर में अपना स्वर मिला रही थीं।

बांधों के विरोध में उमा भारती अपने समर्थक कई साधु-संतों के साथ 10 मई 2011 में हरिद्वार में बीस दिन तक भूख हड़ताल तक कर चुकी हैं। अब वह केन्द्र में जल संसाधन एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय संभाल रही हैं। मंत्रालय के नाम से ही समझ सकते हैं कि मृत गंगा को उमा भारती किस तरह का पुनर्जीवन प्रदान करेंगी। जून में गंगा दशहरे के दिन हरिद्वार में अपने पूर्व के बयानों एवं कर्मों से पलटी खाते हुए मैडम बयान देती हैं कि मैं कभी भी; किसी भी आकार के बांधों की विरोधी नहीं रही हूं। मेरी लड़ाई हमेशा गंगा की अविरलता को लेकर रही है, न की बांधों को रोकने की। अब हमें थोड़ा इंतजार करना होगा कि गंगा की अविरला की उमा भारती कौन-सी नई परिभाषा गढ़ती हैं? क्योंकि अब वह देश के विकास के लिए हर स्तर के बांधों की अनिवार्यता पर जोर दे रही हैं।

हमें भूलना नहीं चाहिए की उमा भारती गेरूए कपड़े पहनती हैं और उन्हीं कपड़ों के रंग से उन्होंने अपनी पहचान एक साध्वी की बनाई है। गंगा पर बन रहे बांधों के खिलाफ अब तक दिए गए उनके बयानों को लोग एक साध्वी की गंगा के प्रति तड़प के रूप में देखते थे, इसलिए उन पर विश्वास भी करते थे। मगर जिस तरह से इस साध्वी ने पलटी मारी है, उससे गेरूए रंग के गैंग के गंगा ढोंग को सामने आने में समय नहीं लगा है।

जब केंद्र में कांग्रेस सरकार लोहारी नागपाला और पाला मनेरी सहित कई जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाने का फैसला कर रही थी, तब उत्तराखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री केंद्र में थे और इन फैसलों को हर स्तर पर जायज ठहरा रहे थे। उनका बयान था कि प्रदेश के पर्यावरणीय हितों के लिए इस तरह की परियोजनाओं पर रोक लगानी बहुत जरूरी है। जून 2011 में उच्च न्यायालय नैनीताल के न्यायमूर्ति सुधाशु धूलिया ने एक फैसले में पांच किलोवाट से ऊपर की सभी तरह की जल विद्युत परियोजनाओं पर बिना पर्यावरणीय अध्ययन के रोक लगा दी थी। उस फैसले से राज्य को यह फायदा हुआ की तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों को नीलाम करके पैसे बनाने की नीति पर रोक लग गई। इसने तत्कालीन राज्य सरकार और कॉरपोरेट सेक्टर के स्थानीय दलालों को परेशान कर दिया था।

इससे पहले जून 2013 में प्रदेश में आई भीषण तबाही के बाद सर्वोच न्यायालय ने तकरीबन 800 छोटी परियोजनाओं के साथ 24 अन्य बड़ी परियोजनाओं पर भी रोक लगा दी थी। इन्हें खोलने के लिए उच्चतम न्यायालय तक जाने के फैसले में हरीश रावत सरकार की बेचैनी साफ देखी जा सकती है। इस मामले में 22 मई 2014 को वह अपने मंत्रिमंडल से इस आशय का एक प्रस्ताव भी पास करा चुके हैं। वह यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने 25 मेगावाट की स्वीकृति का अधिकार केन्द्र से राज्य को देने का प्रस्ताव भी केन्द्र सरकार को भेज दिया है। अगर केन्द्र ने राज्य सरकार की इस मांग को मान लिया तो उनको अपने चहेतों के साथ तथा कई अन्य लोगों को भी नदियों में उठा-पटक करने की कानूनी मान्यता मिल जाएगी। 

नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद जो सबसे पहला काम किया वह सरदार सरोवर की ऊंचाई 121.92 मीटर बढ़ाने का था। सरदार सरोवर के खिलाफ आंदोलन कर रहीं मेधा पाटेकर गुजरात में इसी बात को लेकर खलनायिका घोषित कर दी गई थीं। सरदार सरोवर का पानी जो गुजरात के धनी किसानों और उद्योगपतियों को मिलना चाहिए था, वह मेधा पाटेकर के विरोध के कारण नहीं मिल पा रहा था। बांध की ऊंचाई बढ़ाने से कितने लोग विस्थापित होंगे, इसको लेकर मोदी सरकार की कोई चिंता नहीं दिखती। उनको किसी भी हाल में गुजरात के उस वर्ग को खुश करना है, जो हर स्तर पर चुनाव लड़ने के लिए उनको आर्थिक संसाधन उपलब्ध करवाता रहा है। सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाने और उत्तराखण्ड की नदियों पर उमा के बयान से जहां संकट और गहराता दिख रहा है, वहीं पांच हेक्टेयर वन भूमि को राज्य सरकार के हवाले कर स्थानीय निवासियों के जीवन में खतरे को और बढ़ा दिया है। 

आगे जनता अपने ऊपर हो रहे हर स्तर के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाये, उससे पहले केन्द्र सरकार की गुप्तचर एजेंसी आईबी सरकार को रिपोर्ट दे चुकी है कि जन आंदोलन चलाने वाले संगठन देश के विकास कार्यों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इस तरह की खबरों का सिलसिला अचानक तेज हो गया है, जो अच्छे लक्षण नहीं हैं। कुछ एनजीओ को छोड़ दिया जाए, तो इस देश में अपने जीवन यापन करने के प्राकृतिक संसाधनों पर हो रहे हमले के खिलाफ अक्सर स्वत:स्पूर्त आंदोलन खड़े होते आये हैं। फिर चाहे वह भट्टा परसोल हो या वेदांता के खिलाफ चल रहे उड़ीसा के लोगों का आंदोलन। आईबी की रिपोर्ट से स्पष्ट हो गया है कि आगे पूंजीपतियों के लूट के खिलाफ खड़े होने वाले किसी भी जनतांत्रिक आंदोलन के दमन की संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं। 

त्रेपन सिंह चौहान, आन्दोलन-कर्मी साहित्यकार हैं.
'यमुना'और 'हे ब्वारी'दो उपन्यास उपन्यास.
और विविध लेखन में सक्रीय.

‘लव जिहाद’ का जातीय समाजशास्त्र

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-राजीव यादव

 "...इस इलाके में पहले से ही गोत्रों और जातियों में गहरी खाई थी। ऐसे में बहुत आसानी से सांप्रदायिक भावनाओं को पाल पोसकर बड़ा करने वाले हिन्दुत्वादी संगठनों ने आगे इस इलाके में बहू-बेटी बचाओ’ पंचायतों के माध्यम से जाट समुदाय को गोलबंद किया। इस गोलबंदी के बाद क्षेत्र में जगह-जगह रविदास मंदिरों को केन्द्र बनाकर दलितों में हिंदू बोध’ को संगठित कर लव जिहाद’ को आतंकी षडयंत्र बताते हुए प्रसारित किया जा रहा है।... "

साभार- http://www.outlookindia.com/
सुप्रीम कोर्ट ने एक गैर सरकारीसंगठन जयति भारतम की याचिका पर कड़ी टिप्पड़ी करते हुए कहा कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। धर्म को न्यायालय में न लाने की नसीहत देते हुए मामलेको जो रंग जयति भारतम दे रहा था, उस पर चिंता व्यक्त की।


जयतिभारतम की पश्चिमी उत्तर प्रदेश में धर्मांतरण और दुष्कर्म के मसले पर दायरयाचिका में धार्मिक रंग देने और अभद्र भाषा के इस्तेमाल को तो न्यायालय नेखारिज कर दिया पर समाज में हो रहा यह विषरोपण कैसे खारिज हो, यह एक चुनौतीहै। मेरठ के खरखौदा प्रकरण व साल भर से भी अधिक समय से पश्चिमी यूपी मेंसांप्रदायिक ताकतें हावी हैं और पूरे क्षेत्र में जिस तरीके से महिलाओं कीसुरक्षा के नाम पर ऐसी ताकतों को चुनावी सफलता मिली है, इसमें महिलाओं कीस्थिति का आकलन करना निहायत जरुरी हो जाता है। इसी बीच मुजफ्फरनगर केजाडवाड गांव में एक पंचायत ने लड़कियों के मोबाइल फोन व जींस पहनने पर रोक लगाते हुए कहा कि अगर वे ऐसा करती हैं तो इसके लिए उनके परिवारों पर भी दंडलगेगा।
 
वैसे तो खापों वाले इस इलाके में ऐसे पंचायती फैसले नएनहीं हैं। पर महिला सुरक्षा का सवाल जिस तरीके से हिंदू के लिए अलग औरमुस्लिम के लिए अलग हो रहा है वह एक मजबूत सांप्रदायिक पृष्ठभूमि कानिर्माण कर रहा है। इस इलाके में जहां गोत्रों और दूसरी जातियों मेंलड़के-लड़कियों के शादी कर लेने पर मारकर पेड़ से लटका दिया जाता हो वहांपर इस नई त्रासदी के आगमन और खासतौर पर दलित और मुस्लिम क्षेत्रों में ऐसीसांप्रदायिकता एक खतरनाक रुप अख्तियार कर चुकी है। इसकी पृष्ठभूमि मेंसंस्कृतीकरण की मूल अवधारणा है जो आधुनिकता को तो मौजूदा हालात मेंबर्दाश्त कर लेती है पर किसी दूसरे समुदाय के लड़के से प्रेम विवाह को हमलेके बतौर देखती है। जहां आज एक लड़की जो भले ही मोबाइल फोन या जींस पहननापसन्द करती है पर उसके साथ वह इस संशय में भी है कि वह कहीं किसी दूसरीसमुदाय के साथी के साथ प्रेम विवाह कर उसके धर्म को मजबूतीऔर अपने धर्मको कंलकिततो नहीं कर रही है।
 
इस इलाके में पहले से हीगोत्रों और जातियों में गहरी खाई थी। ऐसे में बहुत आसानी से सांप्रदायिकभावनाओं को पाल पोसकर बड़ा करने वाले हिन्दुत्वादी संगठनों ने आगे इस इलाकेमें बहू-बेटी बचाओपंचायतों के माध्यम से जाट समुदाय को गोलबंद किया। इसगोलबंदी के बाद क्षेत्र में जगह-जगह रविदास मंदिरों को केन्द्र बनाकरदलितों में हिंदू बोधको संगठित कर लव जिहादको आतंकी षडयंत्र बतातेहुए प्रसारित किया जा रहा है। आरएसएस के अनुषांगिक संगठन धर्म जागरण मंच नेहिंदू लड़कियों को बरगलाकर शादी और धर्म परिवर्तन के लिए चल रहे लवजिहादके खिलाफ जंग जारी करते हुएरक्षाबंधन के मौके पर अभियान चलाकर इसमामले को एक पुख्ता आधार प्रदान किया। धर्म जागरण मंच इस बात को प्रचारितकरता है कि मुस्लिम लड़के जो हाथों में कलावा बांधते हैं, वो आज का फैशनहै, हिंदू लड़कियां उनके झांसे में न आएं कि वो उनके धर्म का सम्मान करतेहैं।
 
हमारे देश में बहुत सी हिंदू लड़कियां मुस्लिम लड़कों कोभाई मानते हुए राखी बांधती हैं पर षडयंत्र के ऐसे सिद्धांतहमारीसांस्कृतिक ऐतिहासिक परंपरा को खत्म करने पर आमादा हैं। इन अफवाह तंत्रोंका इतना असर रहा कि रक्षाबंधन के पूरे त्योहार को जहां सोशल साइट्स परशौर्यताका भाव दिया गया तो वहीं ईद की बधाई क्यों नहीं दी जाएकेअभियान चले। इसे हम अपनी संसद में भी देख सकते हैं, जहां प्रधानमंत्रीद्वारा ईद की बधाई न देने व देने और इफ्तार पार्टी क्यों नहीं दी गई जैसेसवाल उठे। लोकसभा अध्यक्ष सुमित्रा महाजन ने इसे संसदीय कार्यवाई में भलेही शामिल न करने का निर्णय लिया पर देश की आम अवाम की जेहन में इससे निकलाजो संदेश दर्ज हो गया है, उसे निकालना इतना आसान न होगा। 
 
हिंदुओंऔर मुस्लिमों में बढ़ती दरार का अंदाजा सहारनपुर के बाबा रिजकदास के बारेमे आई खबरों से लगाया जा सकता है कि वह मुस्लिमों के प्यार में बीमारलड़कियों को ठीककरते हैं। संघ गिरोह के प्रचार कि लव जिहादचल रहा हैने परिजनों में आतंक का संचार कर दिया है। इसका आकलन इससे लगाया जा सकता हैकि जिस समय सहारनपुर में सांप्रदायिक हिंसा की वजह से पूरा क्षेत्र अशांतथा, उस दौर में भी लव जिहादसे आतंकित परिजन सहारनपुर आ रहे थे। प्रेमजिसके भाव का संचार आचार-विचार जैसे मूल तत्वों से होता उसे यहां भूत समझकरबाबा रिजकदास के यहां लड़की के सर से मुस्लिम लड़के का भूत उतरवाने लोगआते हैं। क्योंकि बाबा की ख्यातीदूर-दूर तक फैली है कि बाबा मुस्लिमलड़के का भूत उतारने के महारथीहैं।
 
हिंदू समाज के रक्षक केतौर पर सुशोभितबाबा के सामने लोग अपनी लड़की को लाकर उसके बारे मेंबताते हैं कि कैसे वह मोबाइल, फेसबुक या अन्य के जरिए मुस्लिम लड़के केप्रभाव आई, उसके साथ घूमते-फिरते देखी गई, और लाख मना करने पर भी मानतीनहीं इस तरह से अपनी परेशानी बताते हैं। और फिर क्या बाबा पवित्रमिनरलवाटर की एक बोतल और चावल के कुछ दानों के जरिए उन्हें ठीककरते हैं।कभी-कभी पवित्रमिनरल वाटर को छूने से इनकार करने पर लड़की के साथ बल काइस्तेमाल भी किया जाता है और हां बाबा तंत्र मंत्रों के जरिए भी इस कालेजादूको खत्म करते हैं।
 
संघ इस पूरे क्षेत्र में लव जिहादके खिलाफ जागरुकता पैदा करने के नाम पर एनजीओ की श्रंखला भी विकसित किए हुएहै। जो उन हिंदू लड़कियों को जिन्होंने मुस्लिमों से विवाह कर लिया है, उनकी घर वापसीकरवाने की मुहीम चलाने के सहारे लव जिहादके अफवाह तंत्रको विकसित कर रहे हैं।
 
लव जिहादका हौवा संघ परिवार ने खड़ाकिया है या यह वास्तविक है जैसे सवालो पर दक्षिणपंथी बुद्धिजीवी दिसंबर 2009 के केरल उच्च न्यायालय के फैसले को उद्धृत करते हैं। ऐसे में पिछलेदिनों सुप्रीम कोर्ट की टिप्पड़ी को भी हमको नजरंदाज नहीं करना चाहिएजिसमें अभद्र भाषा, धर्म को न्यायालय में लाने, याचिकाकर्ता द्वारा मामलेको जो रंग दिया जा रहा था इत्यादि पर यह याद दिलाया गया कि भारत धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है। देश की धर्मनिरपेक्षता न्यायालय परिसर तक सीमित नहोकर आम-अवाम तक हो इसके लिए नागरिक समाज को एक जुट होना होगा।  
 
हमारासमाज जो गैर बराबरी, सांप्रदायिक, जातीय, नस्लीय और लिंग के आधार पर भेदकरता है वैसे समाज में लव जिहादके सहारे समाज को विघटित करना बहुत आसानहो जाता है। पर यह ध्यान में रहे कि यह वही मुनवादी ताकतें हैं जो पश्चिीमीउत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान आदि में गोत्रों के मध्यकालीन और बर्बरफरमानों का समर्थन करता है, आदिवासी-दलित लड़के की सवर्ण जाति की लड़की सेविवाह को मान्यता ही नहीं देता बल्कि इज्जत के नाम पर हत्याएंभी करता हैऔर आदिवासी-दलित लड़कियों के साथ यौन दुराचार को अपना अधिकार समझता है।ऐसे में हमारे समाज को किसी काले जादूवाले तांत्रिक रिजकदास की नहींबल्कि कबीर की अवधारणा की जरुरत है- ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय।

राजीव यादव
media.rajeev@gmail.com


यौन हिंसा का साम्प्रदायीकरण और न्याय का सवाल

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गुफरन सिद्दीकी
-गुफरन सिद्दीकी

"...तो क्या निर्भया कांड के बाद हम एक समाज के बतौर बिल्कुल ही नहीं बदले हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता। हम संवेदनशील तो हुए हैं लेकिन हमारी संवेदना की अपनी सीमाएं भी उजागर हुई हैं जो हमारी, धार्मिक और जातीय अस्मिता से संचालित होने वाली  राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं  की बंधक बन गई हैं। इसीलिए मौनी बाबा के हवस की शिकार लड़की की पहचान जब मुस्लिम की निकलती है तब, समाज का बहुसंख्यक हिस्सा और मीडिया उदासीन दिखने लगता हैै।..."

मेठी के कथित तांत्रिक की हवस की शिकार एक नाबालिग बच्ची से पुलिस अधिक्षक द्वारा अपने साथ हुए बलात्कार के मामले में आरोपियों का नाम पूछने पर बच्ची जब मौनी बाबा का नाम लेती है तो उसे डांट कर भगाते हुए यह भी धमकी दी जाती है कि वह अगर मौनी बाबा का नाम लेगी तो उसके पूरे परिवार को वे झूठे मामले में फंसा देंगे। पीडि़ता को यही बातें उसकी मेडिकल जांच करने वाले डाॅक्टर से भी सुनने को मिलती है और न्यायिक मजिस्ट्रेट से भी। अंत में थक-हार कर पीडि़ता और उसके पूरे परिवार को अपना घर छोड़ कर लखनऊ में अपने किसी परिचित के घर शरण लेनी पड़ती है। यह घटना निर्भया कांड के बाद की है जब पूरे प्रशासनिक तंत्र को बलात्कार के मामलों में पहले से ज्यादा मुस्तैद और संवेदनशील बनाने की प्रतिवद्धता हमारी सरकारें दोहराती रही हैं।


तो क्या निर्भया कांड के बाद हम एक समाज के बतौर बिल्कुल ही नहीं बदले हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता। हम संवेदनशील तो हुए हैं लेकिन हमारी संवेदना की अपनी सीमाएं भी उजागर हुई हैं। जो हमारी, धार्मिक और जातीय अस्मिता से संचालित होने वाली  राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं  की बंधक बन गई हैं। इसीलिए मौनी बाबा के हवस की शिकार लड़की की पहचान जब मुस्लिम की निकलती है तब, समाज का बहुसंख्यक हिस्सा और मीडिया उदासीन दिखने लगता हैै। ठीक जिस तरह वह मुजफ्फरनगर की साम्प्रदायिक हिंसा में बलात्कार की शिकार मुस्लिम महिलाओं के सवाल पर दिल्ली में मोमबत्ती जलाने नहीं निकलता। यानी, एक समाज के बतौर हम महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटननाओं को जाति या धर्म निरपेक्ष नजरिए से नहीं देख पाते।  

दरअसल दिक्कत समाज के ही ताने-बाने में है जब हम धर्म, जाति और लिंग के आधार पर दूसरों से घृणा करेंगे या स्वयं को उससे श्रेष्ठ समझेंगे तो हमारे अंदर के घोर सामंती मूल्य हमें हिंसा की तरफ ही ले जाएंगे। धर्म के नाम पर हिंसा करने वाले उसके मूल्यों और सन्देश को समझने का प्रयास ही नहीं करते और क्रियाकलापों को मदभेद का आधार बना कर आसानी से हिंसक हो जाते हैं। कई बार हिंसा करने का कारण भी लोगों को पता नहीं होता है। हिंसा में सबसे पहले महिलाओं पर ही हमले किए जाते हैं, गुजरात दंगों के बाद तो और भी वीभत्स रूप में यह हमारे सामने आ रहा है। जहाँ पर गर्भवती महिलाओं के पेट चीर कर भ्रूण तक को जला दिया गया था। 

लेकिन कितनी महिलाओं को इन्साफ मिला? शायद इसीलिए इस तरह के आकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं। यहाँ तक की न्यायाधीशों तक पर आरोप लगने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ की एसआई अरुणा राय, इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा जैसी महिलाओं के लिए बड़ा सवाल बना ही रह गया कि क्या इनको कभी इन्साफ मिल पाएगा। 

दरअसल न्याय का सवाल हमेशा से राजनीति सापेक्ष रहा है। किसे न्याय मिलेगा किसे नहीं यह राजनीतिक रूप से प्रभुत्व वाली विचारधारा के मानकों से तय होता है और उसी अनुपात में अपराध की घटनाओं में भी इजाफा होता है। मसलन हम देख सकते हैं कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा के पूर्ण बहुमत से सत्ता में आते ही सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं या तुलसी प्रजापति फर्जी मुठभेड़ कांड के आरोपी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के अदालत में पेश न होने पर जब न्यायाधीश सवाल उठाते हैं तो दूसरे ही दिन उनका तबादला कर दिया जाता है। 
दरअसल एक न्यायोन्मुख व्यवस्था सिर्फ अदालती सक्रीयता से नहीं सम्भव नहीं होती। समाज में न्याय के लिए भूख और जनमत तैयार किया जाना उसकी पहली शर्त होती है। मसलन, अगर जमर्नी में नाजीवाद का उभार हिटलर के बाद दुबारा नहीं हो सका तो इसकी वजह वहां की अदालतों द्वारा नाजीवादी विचारों के प्रति कठोरता प्रदर्शित करना ही नहीं था बल्कि एक समाज के बतौर पूरे जमर्नी द्वारा ‘नेवर अगेन’ यानी ‘अब दुबारा कभी नहीं’ का नारे को आत्मसात किया जाना था। जिसने तय किया कि अब वह कभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। 

लेकिन इसके विपरीत अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस सवाल को देखें तो यहां साफ विरोधाभास देखा जा सकता है। जैसे किसी भी राजनीतिक पार्टी के उदय की सबसे बड़ी वजह उसके द्वारा एक न्यायपूर्ण समाज और सत्ता का निमार्ण का दावा होता है। उसका तर्क होता है कि दूसरी पार्टियों ने जनता के साथ न्याय नहीं किया है इसलिए जनता उसे चुने। लेकिन हम अपने यहां राजनीति के इस बुनियादी अवधारणा पर भी बहुत सारी पार्टियों को खरा उतरते नहीं देख सकते। मसलन जब बीजेपी विपक्ष में थी तब उसके सारे बड़े नेता आरएसएस के साथ मिल कर बेटी बचाओ मुहीम चला रहे थे और गली-मोहल्लों में बलात्कार जैसे अपराधिक कृत्य का सम्प्रदायिकरण करते हुए पूरे देश में एक धर्म विशेष और उनकी महिलाओं से प्रतिशोध लेने की बात करते फिर रहे थे। जबकि दूसरी तरफ कुकर्मी आशाराम बापू और उसके पुत्र पर जब हिंदु महिलाओं के साथ ही बलात्कार का आरोप लगा तब सुषमा स्वराज से लेकर बीजेपी के बड़े नेता आशाराम के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे थे। वहीं उनके तरफ से संघ परिवार और भाजपा नेताओं द्वारा अपने ही कार्यकर्ताओं के साथ अप्राकृतिक यौनाचार की घटनाओं जैसे कि मध्यप्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री राघव जी या पिछले दिनों भिंड में संघ कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में वरिष्ठ प्रचारक समेत कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं पर लग चुका है, पर एक शब्द भी नहीं बोला। जाहिर है, संघ और भाजपा को यहां बेटी-बेटों के लिए न्याय की जरूरत महसूस नहीं हुई।   

गुफरन सिद्दीकी
ghufran.j@gmail.com 

'मैरी कॉम'के बहाने

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प्रीति तिवारी
-प्रीति तिवारी

"...मैं मैरी कॉमको भाग मिल्खा भागकी अगली कड़ी के रूप में नहीं देखती बल्कि पान सिंह तोमरके ज्यादा करीब देखती हूँ. सीधे तौर पर यहाँ प्रतिरोध की शक्ल अलग है पर प्रतिरोधसे इन्कार कैसे किया जाएगा! सिर्फ पान सिंह तोमरही नहीं बल्कि मैरी कॉमभी प्रतिरोध का सिनेमाहै..."


हिन्दी सिनेमा ने अपने पिछले सौ सालों में बहुत कहानियाँ कही हैं पर तथ्यात्मक ढंग से जीवनी आधारित कहानी कहने का अनुभव हिन्दी सिनेमा को कम है. सीधे-सीधे कहा जाए तो यह कि बायोपिकबनाने का अभ्यास कम है. बायोपिकयानी कि बायोग्राफिकल फिल्म या जीवनी आधारित फिल्म.


यह ज़रूर है कि किसी एक व्यक्ति विशेष की जिन्दगी को केंद्र में रखकर कहानी कहने-सुनाने का चलन यहाँ पुराना है. एक उदाहरण से देखें तो मोहनदास करमचंद गाँधी के जीवन को केंद्र में रखकर कई तरह की फिल्में लगातार बनाई गईं. जिनमें एक खास तरह की फिल्में वह थीं जिनमें उनकी जिन्दगी के कुछ पहलुओं की तथ्यात्मकता को बनाते हुए सीधे-सीधे उनके जीवन के बारे में कुछ कहा जा रहा था, वहीं कुछ फिल्मों में उनके इर्द-गिर्द कहानी बुनकर कुछ नया कहने की कोशिश की गई. मसलन श्याम बेनेगल की द मेकिंग ऑफ महात्माया गांधी से महात्मा तक’ (1996) जैसी बायोग्राफिकल फिल्म जिसमें गाँधी और उनके जीवनानुभव को तथ्यों के साथ प्रस्तुत किया गया वहीं फिरोज अब्बास खान के निर्देशन में गाँधी माई फादर’ (2007) जैसी फिल्म भी बनाई गई जो विचारधारा के स्तर पर नए आयामों को छूती है, और ठीक इसके विपरीत लगे रहो मुन्नाभाई’ (2006) जैसी फिल्म भी आती है जिसमें कहानी में नए संदर्भ पिरोने के लिए गाँधी और उनके विचारों का सहारा लिया गया.


इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि किसी एक ही शख्सियत पर फिल्म बनाना कई मायनों में एक-दूसरे से अलग हो सकता है और होता रहा है. किसी भी हालत में जीवनी आधारित फिल्म को सम्बन्धित व्यक्ति के जीवन का हूबहू या ठीक-ठीक अनुकरण नहीं कहा जा सकता. जाहिर तौर पर उसमें सिनेमाई तत्व अपनी जगह बनाते हैं पर बावजूद इसके जी गई जिन्दगीऔर कही गई कहानीके बीच अंतर बहुत बड़ा नहीं होना चाहिए. 

अभी हाल ही में गुलाब गैंग’ (2013) फिल्म आई थी. यह फिल्म विवादों में रही. इसके विवादों में रहने के कई कारण रहे. यह बात सच है कि गुलाब गैंगफिल्म कोरी काल्पनिकता से नहीं निकली थी बल्कि गुलाबी गैंगजो कि बुंदेलखंड में महिलाओं द्वारा संचालित उस संगठन को केंद्र में रख कर बनाई गई जो महिलाओं की शिक्षा व स्वन्त्रता की आवाज़ उठाती है. वास्तिवकता में गुलाबी गैंगकी मौजूदगी के बावजूद इस फिल्म को बायोपिक नहीं कहा गया. यहाँ तक कि इस फिल्म में दिखाए गए गुलाब गैंगको वास्तविक गुलाबी गैंगसे अलग रखा गया. माधुरी दीक्षित कहानी में गुलाब गैंगकी मुखिया हो कर भी गुलाबी गैंगकी मुखिया संपत पाल नहीं हो सकीं. ऐसा होने के पीछे कई हद तक कहानी का बनावटी हो जाना भी कारण रहा, जो सही था.


भाग मिल्खा भाग’ (2013) ने बायोपिक की शक्ल में सबसे ज्यादा लोकप्रियता हासिल की पर इसके अलावा भी बॉलीवुड में व्यक्ति विशेष की जीवनी पर फिल्म बनाने का चलन रहा है. अजीब स्थिति यह है कि पान सिंह तोमरको इस हद तक प्रतिरोध का सिनेमाकहा और माना गया जिससे वह एक व्यक्ति के संघर्ष से बहुत आगे बढ़ गई और बायोपिक की श्रेणी से ही गायब हो गई. यही कारण रहा कि जब हिन्दी सिनेमा में बायोपिक गिने गए तो सबसे ज्यादा नज़रें भागते हुए मिल्खा सिंह पर टिक गईं और भाग मिल्खा भागकई मायनों में पहली बायोपिक मान ली गई. शायद इस तरह की (बायोग्राफिकल) फिल्मों में भी श्रेणियाँ अलग-अलग तय की गईं. मसलन खेल और खिलाड़ी जीवन से जुड़ी बायोपिक अलग होंगी, किसी राजनेता की बायोपिक अलग होगी, किसी फ़िल्मी जगत के सितारे से जुड़ी कहानियाँ अलग होंगी इत्यादि. अगर ऐसा न हुआ होता तो संभवतः शेखर कपूर के निर्देशन में फूलन देवी के जीवन पर बनी फिल्म बैंडिट क्वीन’ (1994), सिल्क स्मिता के जीवन पर बनी द डर्टी पिक्चर’ (2011), 2013में आई एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता शाहिद आज़मी के जीवन पर बनी शाहिदको सीधे तौर पर बायोपिक माना जाता और फिल्म भाग मिल्खा भाग’ (2013) इसके आगे की कड़ी के तौर पर जोड़ी जाती. धुंधले तौर पर खिंची हुई रेखाओं ने इन सभी फिल्मों को मूल्यांकित करने के मानदंड ही अलग कर दिए.


इन्हीं बहसों के बीच राकेश ओम प्रकाश मेहरा भाग मिल्खा भागजैसी फिल्म के साथ सामने आते हैं जिसने पूरी तरह से बायोपिक होने का दावा किया. हालांकि इस फिल्म में दिखाए गए तथ्यों को चुनौती दी गई और आलोचकों द्वारा इसके कई अन्य पहलुओं पर भी चर्चा की गई. केवल यही नहीं फरहान अख्तर द्वारा निभाई गई मिल्खा सिंह की भूमिका भी चर्चित रही. इसके बाद सामने है मैरी कॉम’!


मैं मैरी कॉमको भाग मिल्खा भागकी अगली कड़ी के रूप में नहीं देखती बल्कि पान सिंह तोमरके ज्यादा करीब देखती हूँ. सीधे तौर पर यहाँ प्रतिरोध की शक्ल अलग है पर प्रतिरोधसे इन्कार कैसे किया जाएगा! सिर्फ पान सिंह तोमरही नहीं बल्कि मैरी कॉमभी प्रतिरोध का सिनेमाहै. प्रतिरोधकी शक्ल तय करते ही खांचे अलग कर दिए जाते हैं पर फिर सवाल कई हैं, फिल्म में फेडरेशन द्वारा मुहैया करवाई जा रही सुविधाओं और उनके सहयोगको साफ़ देखा जा सकता है. वहाँ लड़ाई बने रहने की भी होती है. अगर प्रतिरोध ही पान सिंह तोमरको बनाता है तो वही प्रतिरोध मैरी कॉमभी बनाता है. 

इसके बारे में अगर कुछ बहुत आसान शब्दों में कहा जा सकता है तो वह यह कि मैरी कॉम होना आसान काम नहीं था. खासकर तब जब जीवन की समस्याएं बहुस्तरीय हों. जब यह परिवार देश के उस क्षेत्र का हो जो हाशिए पर रहा है, जहाँ पहली लड़ाई अस्तित्व की होती है, इसके अलावा जब यह परिवार एक निम्न-मध्यवर्गीय परिवार हो, उसके भी ऊपर जब पुरुषप्रधान समाज के सामने एक महिला खड़ी हो, और इन सबसे ऊपर जो शौक उसने पालाहो वह बॉक्सिंगहो ! वाकई मैरी कॉम होना आसान बात नहीं है. बॉक्सिंग को एक ग्लैमरस फिल्ड नहीं माना गया और सोचने वाली बात यह है कि जिस समय मैरी कॉम खुद को मैंगते चंग्नेइजैंग मैरीकॉम से मैरी कॉम बना रही थीं उस समय यह कितना मुश्किल रहा होगा.


कहानी कहने का ढंग भी कहानी की शक्ल तय करता है. मैरी कॉम के निर्माता ने सबसे पहले इस बात को समझा कि मैरी कॉम को दिखाने के दौरान उन्हें एक इंसान से बदल कर भगवान या सर्वशक्तिमान दिखाने की कोशिश करना उसे वास्तविकता से दूर कर देना होगा. इसके अलावा ऐसा करना बतौर एक साधारण इंसान जो मैरी कॉम ने किया और जिस मुकाम को हासिल किया उसके साथ नाइंसाफी होगी.


मैरी कॉमफिल्म के साथ संजय लीला भंसाली का नाम भी जुड़ा रहा पर फिल्म का निर्देशन ओमंग कुमार ने किया है और फिल्म में यह साफ़ दिखाई देता है कि संजय लीला भंसाली ने निर्देशक को फिल्म में पूरी छूट दी है जिससे वह फिल्म को अपने मन मुताबिक एक शक्ल दे सके. यह छूट फिल्म निर्देशन के लिए ज़रूरी भी है. कई स्तरों पर निर्देशन में कमियाँ भी नज़र आईं मसलन कहानी को कहने का अंदाज़ और बेहतर हो सकता था पर इन्हें नजरअंदाज किया जा सकता है. कहानी जिस बारिश और कर्फ्यू से शुरू होती है वह बहुत मजबूती से मणिपुर की परिस्थितियों को सामने रखती है. जहाँ एक ओर फिल्म में हाशिए पर जी रहा एक समाज सामने दिखाई देता है वहीं उसकी आर्थिक स्थिति भी उसके खान-पान रहन-सहन में दिख जाती है. वह अपनी जीत के बाद भी उतनी ही सामान्य होती जितनी सामान्य जिन्दगी वह पहले जी रही होती है. खाना बनाते और खाने के दौरान ही प्रेस रिपोर्टर को सहजता से इंटरव्यू देने जैसी छोटी-छोटी चीज़ें मैरी कॉम फिल्म को मैरी कॉम की सहज जिन्दगी के करीब ला देता है.  


ओलम्पिक का मैडल मैरी कॉम को बहुत बड़ा नहीं बनाता बल्कि उन्हें पहचान दिलाने का काम करता है. ओलम्पिक के कांस्य पदक के पहले ही मैरी कॉम पांच बार विश्व चैम्पियन रहीं जिनमें से तीन बार शादी से पहले और दो बार शादी के बाद उन्होंने यह रिकॉर्ड अपने नाम दर्ज किया. फिल्म में ओलम्पिक तक की उनकी यात्रा को पूरा नहीं दिखाया गया. शायद निर्माताओं को इस बात का संदेह रहा होगा कि स्वर्ण पदकऔर कांस्य पदकमें फर्क होता है और शायद भारतीय दर्शक अभी भी जीतऔर गोल्डको ही एक दूसरे का पर्याय मानता रहा है और संभवतः वह ब्रोंज़की जीत के समय उस नेशनल एंथम को नहीं सुन पाता जिसे वह तब सुन पाता है जब मैरी कॉम गोल्डहासिल करती हैं. इसलिए कहानी को ओलम्पिक तक पहुँचने से पहले ही नेशनल एंथम के साथ खत्म कर दिया जाता है.


एक बड़े वर्ग की फिल्म से यह अपेक्षा रही कि क्या प्रियंका चोपड़ा मणिपुर की मैरी कॉम जैसी दिख पाएंगी या नहीं! तो सवाल यह है कि एक जैसा दिखना ज्यादा अहम है या उस जीवन शैली और उस जीवन संघर्ष को सफलता से पर्दे पर उतारना अहम है? इस बात में कोई शक नहीं है कि जिसकी भूमिका अदा की जा रही है उस जैसा दिखने से कहानी से जुड़ाव की स्थिति बढ़ जाती है पर यह समझना ज़रूरी है कि यह कोई अनिवार्य नियम नहीं है. सिनेमा का दर्शक पर्दे पर मैरी कॉम की जुड़वा बहन देखने नहीं गया था बल्कि मैरी कॉम ने कैसा जीवन जिया, यह देखने गया था. मेरी नज़र में प्रियंका चोपड़ा से मैरी कॉम या उनकी जुड़वा बहन दिखने की अपेक्षा करना एक बेजा मांग के सिवा कुछ नहीं.



इस फिल्म के बारे में यह कहा जा सकता है कि व्यसायिकता के दबाव के बावजूद निर्माताओं ने कहानी को दमदारबनाने की फर्जी कोशिश नहीं और न ही बड़े समझौते किए हैं. जितना संघर्ष असल जिन्दगी में मैरी कॉम करती हैं मैंगते चंग्नेइजैंग मैरीकॉम से मैरी कॉमबनने में उसका कुछ प्रतिशत प्रियंका चोपड़ा भी करती हैं पर्दे पर मैरी कॉम की भूमिका को निभाते हुए. खासकर उस सिनेमाई जगत में जहाँ फिल्म में स्त्री पात्र ट्राफीया शो पीससे ज्यादा कुछ नहीं कर पातीं. ऐसे दौर में यह फिल्म और भी अहम हो जाती है. पर्दे पर नॉन-ग्लैमरसऔर एक स्पोर्ट्सपर्सन की जिन्दगी को दोहराना बड़ी चुनौती है. प्रियंका चोपड़ा उसे निभाती हैं और उसे निभाने के दौरान उनकी मेहनत साफ़ देखी जा सकती है.


http://st2.india.com/wp-content/uploads/2014/07/priyanka-chopra-mary-kom-poster-2_small.jpgफिल्म से उम्मीदें रखना जायज़ है पर फिल्म से सुपरस्टारटाइप की उम्मीदें रखना मूर्खता! यह बात पहले ही जान लेनी चाहिए कि मैरी कॉम के बॉक्सिंग करने के दौरान कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनके बॉक्सिंग ग्लव्स में से चमत्कारिक किरणें निकल कर प्रतिद्वंदी पर प्रहार करती हों और न ही कभी मैरी कॉम को गुस्से में अपने प्रतिद्वंदी के चेहरे के सामने जा कर आटा माजी सटकलीबोलते हुए पाया गया हो. इसलिए फिल्म से भी ऐसी कोई उम्मीद नहीं करनी चाहिए. फिल्म यथार्थ की ज़मीन पर है, प्रियंका चोपड़ा बतौर मैरी कॉम बहुत सामान्य  दिखती हैं, उनके कोच भी पौराणिक कथाओं के गुरु नहीं बल्कि वास्तविक ही दिखते हैं.


अंत में एक अपील, फिल्म की कहानी मजेदारनहीं है. अगर मजेदार कहानी चाहिए तो किक’, ‘दबंगऔर तीस मार खांदेखिये पर 'मैरी कॉम'नहीं. इसके अलावा यह कि अगर इस फिल्म को अच्छी-बुरी, बहुत अच्छी बहुत बुरी, बढ़िया, ठीक-ठाक जैसे शब्दों में न बाधें तो बेहतर होगा. यह कोई कहानी नहीं थी जिसका मूल्यांकन किया जाए. महज दो घंटे तीन मिनट में एक प्रयास था उस महिला के जीवन को दिखाने का जिसने अपनी तमाम सीमाओं के बावजूद वह मुकाम हासिल किया जो उसका लक्ष्य था क्योंकि उसका दिल जिद्दीथा और जिद्दीहै.



प्रीति तिवारी
संपर्क - preetiwari90@gmail.com

इस सांप्रदायिक गठजोड़ पर क्यों नहीं होती कार्रवाई

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- राजीव यादव

"...सहारनपुर सांप्रदायिक हिंसा पर आई रिपोर्ट के बाद भाजपा ने ताल ठोका है कि सपा सरकार मुकदमा दर्ज करके दिखाए। जब प्रशासनिक अधिकारियों को मालूम था कि वहां सांप्रदायिक भीड़ इकट्ठा हो रही है और अब जब इस संलिप्तता को सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है तो क्या सरकार प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज करेगी?..." 

त्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में जुलाई 2014 में हुई सांप्रदायिक हिंसा पर आई रिपोर्ट ने भाजपा सांसद राघव लखनपाल व प्रशासनिक अमले को जिम्मेवार ठहराया तो वहीं भाजपा ने इसे राजनीति से प्रेरित रिपोर्ट करार दिया। इस रिपोर्ट के आने के बाद लाल किले की प्राचीर से सांप्रदायिकता पर जीरो टाॅलरेंस की बात करने वाले प्रधानमंत्री से अपनी पार्टी की स्थिति स्पष्ट करने की मांग की जा रही है। वहीं अमित शाह जब खुद कहते हैं कि यूपी में भाजपा सरकार बनाने तक उनका काम खत्म नहीं होगा। अब वह ‘मिशन यूपी पार्ट टू’ की रणनीति पर चल रहे हैं तो ऐसे में इस रणनीति के मायने समझने होंगे कि अब कौन सा नया ‘मॉडल’ बनाने की जुगत में वो हैं। सत्ता प्राप्ति तक संघर्ष जारी रखने का आह्वान करने वाले ने मिशन ‘पार्ट वन’ में क्या-क्या ‘संघर्ष’ किया इसको भी जांचना होगा।




बहरहाल, इस रिपोर्ट में भाजपा सांसद और प्रशासन की भूमिका को जिस तरह से कटघरे में खड़ा किया गया है उसकी रोशनी में प्रदेश में हुई अन्य सांप्रदायिक घटनाओं की अगर तफ्तीश की जाए तो आरोप लगाने वाले और आरोपी की भूमिका की शिनाख्त में थोड़ा आसानी होगी।



सहारनुपर के करीबी जनपद मुजफ्फरनगर और उसके आस-पास के क्षेत्रों को ठीक एक साल पहले सांप्रदायिकता की आग में झोंके जाने की तैयारी पहले से ही दिखने लगी थी। 7 सितंबर 2013 को हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा नंगला मंदौड़ में बिना अनुमति की पंचायत के बाद पूरे क्षेत्र को सांप्रदायिक हिंसा की आग में झोंक दिया गया था। यह आश्चर्य ही है कि इस पंचायत और इससे पहले हुई कई पंचायतों की कोई वीडियो रिकार्डिंग प्रशासन ने नहीं करवाने की बात कही है। ऐसा अमूमन नहीं होता पर सबूत तो निकल ही आता है, एक बड़ा सबूत कुटबा-कुटबी गांव के एक मोबाइल चिप से प्राप्त हुआ जिसे कुछ मानवाधिकार संगठनों ने सुप्रीम कोर्ट मंे दायर याचिका में भी लगाया है। जिसमें 8 सितंबर यानी जनसंहार के दिन हमलवार आपस में किसी ‘अंकल’ की बात कर रहे हैं, जिसने गांव में पीएसी को देर से आने के लिए तैयार किया ताकि उन्हें मुसलमानों को मारने उनके घरों को जलाने का पर्याप्त वक्त मिल सके।



गौरतलब है कि इस साम्प्रदायिक हिंसा में सबसे ज्यादा प्रभावित होने वाले गांवों में से कुटबा-कुटबी जहां आठ मुसलमानों की निर्मम हत्या कर दी गई थी नवनिर्वाचित भाजपा सांसद व केन्द्रीय कृषि मंत्री संजीव बालियान का गांव है। इस मोबाइल कनर्वसेशन को रिहाई मंच नामक संगठन द्वारा इस सांप्रदायिक हिंसा की जांच कर रही एसआईसी को सौंपा गया लेकिन आज तक ‘अंकल’ कौन हैं इसकी शिनाख्त नहीं की जा सकी। ठीक यही प्रवृत्ति 24 नवंबर 2012 को फैजाबाद में हुई सांप्रदायिक हिंसा में भी देखने को मिली थी।

तत्कालीन डीजीपी एसी शर्मा ने मौके पर मौजूद एसपी सिटी राम सिंह यादव को आंसू गैस छोड़ने व रबर बुलेट चलाने को कहा लेकिन आदेश को लागू करने के बजाए यादव ने अपना मोबाइल स्विच आॅफ कर लिया। पुलिस तीन घंटे तक मूकदर्शक बनी रही और वह फैजाबाद जो 1992 में भी सांप्रदायिक तांडव से अछूता था, धूं-धूं कर जलने लगा। 24 अक्टूबर की शाम 5 बजे से शुरू हुई इस सांप्रदायिक हिंसा के घंटों बीत जाने के बाद 25 अक्टूबर की सुबह 9 बजकर 20 मिनट पर कर्फ्यू लगाया गया। चैक फैजाबाद पर शाम से शुरू हुई आगजनी और लूटपाट के वीडियो और फोटोग्राफ्स में पुलिस की मौजूदगी में पूर्व विधायक व नवनिर्वाचित भाजपा सांसद लल्लू सिंह की उपस्थिति में देर रात तक दुकानों को लूटने व आगजनी को देखा जा सकता है। पर आश्चर्य है कि कर्फ्यू सुबह लगाया जाता है और वहां मौजूद फायर ब्रिगेड की गाडि़यों से दुकानों की आग न बुझाने के सवाल पर प्रशासन कहता है कि गाडि़यों में पानी नहीं था? प्रेस काउंसिल आॅफ इंडिया द्वारा गठित एकल सदस्यीय शीतला सिंह कमेटी की रिपोर्ट ने रुदौली के भाजपा विधायक रामचन्द्र यादव और पूर्व विधायक व अब भाजपा सांसद लल्लू सिंह, तत्कालीन डीएम, एसएसपी, पुलिस अधिक्षक, एडीएम समेत पूरे पुलिसिया अमले की सांप्रदायिक हिंसा में संलिप्तता पर सवाल उठाए हैं।



सहारनपुर सांप्रदायिक हिंसा पर आई रिपोर्ट के बाद भाजपा ने ताल ठोका है कि सपा सरकार मुकदमा दर्ज करके दिखाए। जब प्रशासनिक अधिकारियों को मालूम था कि वहां सांप्रदायिक भीड़ इकट्ठा हो रही है और अब जब इस संलिप्तता को सांप्रदायिक हिंसा के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है तो क्या सरकार प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ भी मुकदमा दर्ज करेगी?



इन सवालों में उलझी सरकार को पूर्ववर्ती सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं से सबक जरूर लेना चाहिए। मुख्यमंत्री बार-बार कहते हैं कि दोषी प्रशासनिक अधिकारियों को बख्शा नहीं जाएगा पर ऐसी घटनाओं के बाद कार्रवाई न करने से सांप्रदायिक आपराधिक मनोबल को बढ़ावा मिलता है। क्योंकि किसी एसपी सिटी राम सिंह यादव का मोबाइल आॅफ कर देना कोई चूक नहीं है ठीक उसी तरह जिस तरह यादवों और  पिछडे वर्ग के एक बड़े हिस्से का भाजपा की थैली में जाना। चूंकी फैजाबाद में सांप्रदायिक तनाव रुदौली से भाजपा विधायक रामचन्द्र यादव की अगुवाई में शुरू हुआ और जिस अधिकारी पर इसे रोकने की जिम्मेवारी थी उसकी पहचान आधारित अस्मिता ठीक राम चन्द्र यादव की तरह ही सपा पूरी नहीं कर सकती थी इसलिए वह सांप्रदायिकता का हथियार बना। ठीक इसी परिघटना को मुजफ्फरनगर-शामली में भी देखा जा सकता है जहां भी जाट समुदाय के थानेदार थे, वह इलाका सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ गया।



दरअसल, दलित और पिछड़ी जातियों की अस्मितावादी राजनीति ने जो गोलबंदी की थी वह जाति के नाम पर थी न कि धर्मनिरपेक्षता के नाम पर। जैसे ही ‘महिला सुरक्षा’ जैसे सवालों को आगे कर पुरुषवादी समाज का सीना ‘56 इंच’ फुला दिया गया दलित और पिछड़ा वर्ग सांप्रदायिक राजनीति का पैदल सिपाही बन गया। अब इस अंधे कुएं से इन्हें निकालना किसी अस्मितावादी राजनीति के बस की बात नहीं है। मुजफ्फरनगर में हुई सांप्रदायिक हिंसा को जाट और मुस्लिम संघर्ष बताने और फैजाबाद में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच अविश्वास के चलते हुई साम्प्रदायिक हिंसा बताने वाली सपा सरकार को अपनी जाति आधारित अस्मितावादी राजनीति के खोल से बाहर आना चाहिए। 

लोकसभा चुनावों के बाद प्रदेश की 600 से अधिक सांप्रदायिक घटनाओं में से 259 घटनांए सिर्फ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में घटित हुई हैं और 358 घटनाएं उन 12 विधानसभा क्षेत्रों में हुई हैं जहां पर उपचुनाव होने हैं, इससे साफ है कि यह पूरा खेल चुनावों के लिए हो रहा है। ठीक इसी तरह लोकसभा चुनावों के पहले भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक हिंसा हुई जिसके पीडि़त आज भी विस्थापित हैं। पर सांप्रदायिक हिंसा के उन आरोपियों जिन्होंने अपने ऊपर लगे आरोपों को राजनीति से प्रेरित बताया वह संसद की चहारदिवारी में चले गए। इस तरह से हम देखें तो पाते हैं कि भाजपा के पूर्व सांसद या विधायक इन सांप्रदायिक हिंसा के कारकों की बदौलत ‘वर्तमान’ हो गए हैं। सपा को यह समझ लेना चाहिए कि सांप्रदायिकता से हुए ध्रुवीकरण का लाभ उसे नहीं मिलेगा जिसे पिछले लोकसभा चुनाव ने सिद्ध कर दिया है। क्योंकि संस्कृतिकरण की प्रक्रिया के तहत उससे फिसला यादव समेत अन्य पिछड़ा वर्ग ऐसे किसी भी ध्रुवीकरण के बाद भाजपा को ही मजबूत करेगा।



राजीव यादव
media.rajeev@gmail.com

कटती घास के बीच ज़िन्दगी सहेजती घसियारिनें

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-त्रेपन सिंह चैहान

"...हमारी घसियारी हमारे पारिस्थितिक तंत्र का वह हिसा है, जो जीवन यापन के पूरे चक्र से जुडा हुआ है। घसियारी होने की पहली शर्त है पशुओं से जुड़ा रहना। पशु पालन के लिए सिर्फ घास ही नहीं काटना होता। उन्हें घास के बाड़ो का संरक्षण करना होता है। जहां परिन्दों से लेकर तमाम तरह के सरीसृप और कीट पंतगों को फलने फूलने का मौका मिलता है। बांज, बुरासं, रियोंस, कणदी, सहित चौड़ी पत्तियों, के जंगलों की सुरक्षा करनी होती है; जिससे पशुओं और खेतों के लिए चारा के साथ पानी का समुचित संसाधन उपलब्ध हो सकें।..."

बात 1983 की है। गर्मियों के दिन थे। चिपको आन्दोलन का समाज में काफी असर था। टिहरी गढ़वाल के बालगंगा रेंज मुख्यालय में नई टिहरी से डीएफओ को आना था। सिल्यारा, चमियाला और आस-पास के गांव की सैकड़़ों महिलायें एक जुलूस की शक्ल में रेंज आॅफिस पहुंची। सिल्यारा की श्रीमती जुपली देवी एक मूठ चीड़ के छिलकों को जला कर ले आई थी। इस सम्बन्ध में उसने कुछ महत्वपूर्ण बातें कही। पहली बात 'जंगलात विभाग हमारे बीच में अंधेरा बांट रहा है। उजाला बाल के उनको अक्ल दिखाना बहुत जरूरी है। हम घसियारी हैं हम जब घास काटती हैं तो ध्यान रखते हैं कि गलती से भी पेड़ों का कोई नवजात पौधा घास के साथ न कट जाय। अगर हम घास काटते समय तमाम पेड़-पौधों को नहीं बचाते तो जंगल कहां बच पाता। फिर जंगलात विभाग कहां होता? जंगल हम घसियारियों से बनाता है, जंगल के नाम से वन विभाग खाता है। यह तो सरासर अंधेर है।’इस मूल बातों का सार काफी व्यापक जाता है। संक्षेप में कह सकते हैं कि घसियारी सिर्फ घसियारी नहीं है। वह जहां पारिस्थितिकी तंत्र की सबसे बड़ी विशेषज्ञा हैं वहीं पर्यवरण के क्षेत्र में पर्यवरणविदों से भी आगे जाती हुई दिखती है।

उपनिवेश सत्ता के कुछ महत्वपूर्ण हथियार रहे हैं। उनमें प्रमुख है अगर किसी समाज को गुलाम बनाना है तो उसकी भाषा, संस्कृति और इतिहास खत्म कर दो। तब वह समाज बेपेन्दी का लौटा हो जाता है, उसके बाद उपनिवेशिक सता जो शिक्षा, भाषा और संस्कृति गढ़ती है, ऐसा समाज बिना सवाल किये उसे स्वीकार करता जाता है। कुछ जीवन यापन के जो साधन उपनिवेश सत्ता के फायदे से जुडा़ होता है; उसे अपने हित में वह बखूबी इस्तेमाल करता आया है। अगर फायदे से नहीं जुडा़ हो तो उसकी इतनी उपेक्षा की गई कि लोग उससे खुद ही उखड़ते चले गये और विकास के नाम पर गड़े गये उनके पैमाने पर फिट होने का संघर्ष शुरू हो गया, जो तब से लेकर आज तक निरन्तर जारी है।  

गांव के समाज में उनके जीवन यापन करने के साधनों पर गौर करेंगे तो पायेंगे आजादी के बाद भी इस देश में जितनी भी सरकारें आई उन्होंने उनकी घोर उपेक्षा की है। चाहे वह ठेठ पहाड़ी हो या आदिवासी समाज हो। आजादी के बाद सत्ता प्रतिष्ठान जिन लोगों के हाथों में आया हैं उन्होंने भी गांव को उपनवेशी सत्ता की तरह ही इस्तेमाल किया है। घास काटने वालों का दूसरा उपेक्षित रूप उपनिवेशिक सत्ता द्वारा पोषित कथित सभ्य समाज इस तरह से रखता है जैसे घसियारी या घसियारा का मतलब अनपढ़, जाहिल, गंवार, अनाड़ी होना हो। ’मुझे भी जीवन का काफी अनुभव है, मैंने कोई घास नहीं छिला।’ इस तरह के मुहबरों का जो मतलब निकाला जाता है जैसे घास काटना सबसे बड़ा निकृष्टतम काम हो। इस तरह की उपेक्षा श्रमजीवी समाज का सबसे बड़ा उपहास है और उस समाज के काम को सम्मान न देने की उपनवेशिक मानसिकता का दम्भ ।

आज के दौर में घसियारी यानी घास काटने वाली। एक बेहद उपेक्षित नाम और व्यवसाई बन गया है। जब हम गौर से इसे उत्तराखण्ड़ के संदर्भ में देखते हैं तो एक विराट जीवन पद्यति नजर आती है। घास यानी उत्तराखण्ड के गाॅंव का अर्थशास्त्र। जो जीवन चलाने हेतु हमारे परम्परा का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है। घसियारी यानी हमारी सांस्कृतिक विरासत का संभाग, हमारी धार्मिक आस्थाओं का केन्द्र बिन्दु, और सबसे महत्वपूर्ण पारस्थितिकी तंत्र की सबसे बड़ी विशेषज्ञा।

हमारी घसियारी हमारे पारिस्थितिक तंत्र का वह हिसा है, जो जीवन यापन के पूरे चक्र से जुडा हुआ है। घसियारी होने की पहली शर्त है पशुओं से जुड़ा रहना। पशु पालन के लिए सिर्फ घास ही नहीं काटना होता। उन्हें घास के बाड़ो का संरक्षण करना होता है। जहां परिन्दों से लेकर तमाम तरह के सरीसृप और कीट पंतगों को फलने फूलने का मौका मिलता है। बांज, बुरासं, रियोंस, कणदी, सहित चौड़ी पत्तियों, के जंगलों की सुरक्षा करनी होती है; जिससे पशुओं और खेतों के लिए चारा के साथ पानी का समुचित संसाधन उपलब्ध हो सकें। घसियारियों के उपर ही पशु पालने की जिम्मेदारी है, जिसमें दुधारू पशुओं के साथ हल चलाने के लिए बैल और भेड़ बकरियों तक शामिल है। जो खेतों के लिए पर्याप्त मात्रा में मोळ (गोबर की खाद) उपलब्ध करा सकें। उत्तराखण्ड़ में घसियारी ही किसान है। एक किसान को पानी, पशु और मेहनत ही जिन्दा रख सकता है। तभी वह अपने खेतों को उपजाऊ बनाकर अच्छी पैदावार ले पाता है। घसियारियों की जिन्दगी सामुहिकता के बिना चलना संम्भव नहीं है। क्योंकि खेती, जंगल से पंजार आदि जीवन को चलने वाले काफी सारे कामों को समाज के सामुहिक सहयोग के बिना संपादित नहीं किये जा सकते। सामुहिकता भी पहाड़ी समाज की समृद्व सांस्कृतिक परम्परा है। घासियारियों के दम पर हमारे पहाड़ की सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत जिंदा है और यह पहाड़ उन्ही के बूते पर सांस ले रहा है।       

हम जब घसियारियों को अपने सांस्कृतिक धार्मिक परम्परा से जोड़ कर देखते हैं, तो  बाजूबंद, न्योली जैसे गीतों को गाने के लिए जंगल का होना नितान्त जरूरी है। ये गीत मुख्यतः एकान्त में ही गाये जाते हैं। कई सारे विरह के गीत घसियारियों के दिमाग एवं कंठों से रचे एवं गाये जाने के कारण ही हमारे सांस्कृतिक श्रोतों की समृद्वि में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दूसरा पक्ष घर गांव सहित प्रदेश गये अपने प्रियजन, अपने धन चैन (पशुओं) की सुख समृद्वि के लिये पहाड़ की चोटियों पर आस्थाओं के कई मंदिर गडे़ गये और पूजे जाते हैं। यहां तक की अपने जंगल एवं घास के बाडों सहित विसम भूगोल में चरते पशुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी इन्ही देवताओं के भरोसे छोड़े जाने की रही है।

अपने जीवन यापन के साधनों की घनघोर उपेक्षा के चलते राज्य बनने के बाद पहाड़ के 831 गांव खाली हो चुके हैं। पहाड़ के गांव से जिस अनुपात में पलायन हो रहा है आने वाले कुछ सालों में अगर पहाड़ आबादी विहीन हो जाय तो आश्चार्य नहीं है। इन खाली हो रहे़ गांव को कुछ समय बाद इको टूरिज्म और अन्य किसी बहाने हमारे राजनेता बाहर के पूंजीपति के हाथों न बेच दें यह शंका भी बनने लगी है।

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्ही घसियारियों या उनकी सन्तानों के बड़े बलिदान से उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया है। आज भी इन घसियारियों के बेटे मुख्यमंत्री से लेकर बड़े अधिरकारियों की कुर्सियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन सब के वावजूद वह आज भी उपेक्षित और अपमानित है। घसियारी होना सम्मानजनक पेशा नहीं रह गया है। आज इस राज्य में ’मजबूरी का नाम घसियारी’ है। अब वक्त आ गया है कि हमें एक बार अपने समाज संस्कृृति एवं परम्परा के रूप में उस घसियारी को सम्मानित करें जिसके दम पर यह पहाड़ जिन्दा है। और उनके बलिदान से ही यह राज्य अस्थित्व में आया है।


त्रेपन सिंह चौहान, आन्दोलन-कर्मी साहित्यकार हैं.
'यमुना'और 'हे ब्वारी'दो उपन्यास उपन्यास.
और विविध लेखन में सक्रीय.

अधूरी और अकेली होकर भी मुकम्मल दुनिया : Finding Fanny

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http://profile.ak.fbcdn.net/hprofile-ak-ash4/371599_596263424_340334600_n.jpg-उमेश पन्त

"...फाइन्डिंग फैनी में कोई बहुत उम्दा कहानी तलाशने जाएंगे तो निराश होंगे। बड़े ट्विस्ट ढूंढते फिरेंगे तो भी खाली हाथ ही लौटेंगे। किसी दिल दहला देने वाले क्लाइमेक्स को खोजेंगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा। पर आप अगर उन किरदारों को और उस सफर को समझने की कोशिश भर करेंगे तो फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। छोटी-छोटी भावनाएं जिन्हें अक्सर हम अपनी जिन्दगी में दरकिनार कर आते हैं फिल्म उन्हीं भावनाओं को खोजती-फिरती है। अगर आप उस खोज में ज़रा भी रुचि रखते हैं तो आपको मज़ा आएगा वरना ये फिल्म आपके लिये है ही नहीं।..."

फाइन्डिंग फैनी इस स्वार्थी और व्यस्त होती जा रही दुनिया में एक ऐसी जगह की खोज की कहानी है जहां सबसे सबको मतलब होता है। या फिर ये कि स्वार्थी और व्यस्त जैसे बड़े और गम्भीर लफ्ज़ों से उपजने वाले भावों को किसी पुरानी जंग लगी कार में बिठाकर रोजी की उस उस मरी हुई बिल्ली के साथ दफना आने की कहानी है फाइन्डिंग फैनी।

रात के वक्त एक अकेले से घर में रह रहे फर्डी को एक खत आता है। खत देखकर फर्डी ज़ोर-ज़ोर से रोने लगता है। उसकी पड़ौसी और सबसे अच्छी दोस्त एंजी उसे चुप कराती है। ये खत दरअसल 46 साल पहले फर्डी ने उस लड़की फैनी को भेजा है जिससे उसने बेइन्तहां प्यार किया और अपनी बाकी की जिन्दगी वो उस इन्तज़ार की नाव को अपनी उम्र की सूखी नदी में खेता रहा, उस पानी के इन्तजार में जो कभी बहकर नहीं आएगा। पर फर्डी की जिन्दगी में एक एंजी भी तो है जो फर्डी के उस मासूम प्यार की कोमल भावना को अच्छे से समझती है और फर्डी को एक और कोशिश करके देखने का हौसला देती है। क्योंकि वो मानती है कि कोई लव स्टोरी अधूरी नहीं रहनी चाहिये।

फिल्म आगे बढ़ती है और आप एक ऐसी दुनिया का हिस्सा हो जाते हैं जहां सब अधूरे हैं। गोआ के पास पोकोलिम नाम की उस छोटी सी काल्पनिक जगह की रानी अधेड़ उम्र की रोज़लिन यानि रोज़ी (डिम्पल कपाडि़या), आर्टिस्ट ब्लाॅक से जूझ रहा एक मशहूर पेन्टर डाॅन पेद्रो (पंकज कपूर), अपने ही भेजे खत के इन्तजार में बैठा एक पोस्टमास्टर फर्डी (नसीरुददीन शाह) और सावियो (अर्जुन कपूर) भी जिसने उम्र भर एंजी से प्यार किया पर कभी कह नहीं पाया। उन पांचों के अन्दर का अधूरापन उस छोटी सी दुनिया में एक दूसरे को पूरा करने का एक मात्र ज़रिया है।

फैनी क्या है ? कौन है ? उससे कई ज्यादा अहम उस खोज के बहाने शुरु हुआ वो सफर है जिसके पांचों के लिये अलग-अलग मायने हैं। सावियो इस यात्रा में अपनी उस दोस्त से नज़दीकियों की सम्भावना तलाश रहा है जिससे वो कभी अपने प्यार का इजहार नहीं कर पाया। क्योंकि एंजी ने उसके उस दोस्त से शादी कर ली जो शादी के दिन ही जिन्दगी नाम की उस यात्रा में कहीं पीछे छूट गया। सावियो का ईगो उसे उस छोटी सी दुनिया से दूर मुम्बई ले आया  और अब जब वो लौटा भी है तो वहीं ईगो फिर उसके कदम पीछे खींच रहा है। ये ईगो भी ना। दुनिया की सबसे गैरज़रुरी चीज़ है जिसे हम अपने सबसे करीब रखते हैं और अपनों से दूरियां बढ़ा लेते हैं।
एंजी का मकसद उसके सबसे अच्छे उम्रदराज दोस्त फर्डी को उसकी प्रेमिका से मिलाना है और इस बहाने सावियो के नज़दीक भी आना है। उसे शायद एक सबक भी देना है और उन 6 सालों की वो कसर भी पूरी करनी है जिनमें चाहकर भी उसका शरीर उस सुख से वंचित रहा जिसकी उम्र के इस पड़ाव में शायद सबसे ज्यादा ज़रुरत होती है।

डाॅन पैद्रो, रोजी के भीतर की उस रुह को देखने के लिये बेताब है जिसने उसके अन्दर के कलाकार को कसमसा कर रख दिया है। उसकी दैहिक भाषा दरअसल उस कुंठा का परिणाम है जो अधूरी रह गई इच्छाओं से उपजती है। पेद्रो के भीतर का कलाकार उन इच्छाओं का दमन नहीं कर पा रहा। उसकी बातों, उसके हाव भावों और रोजी के शरीर पर उसके अनैच्छिक स्पर्शों में एक कुलबुलाती सी बेताबी है। वो बेताबी जो अधूरेपन से आती है। किसी को पूरा जान लेना उस बेताबी को खत्म कर देता है। यात्रा में अंतिम पड़ाव में रोजी की पेन्टिंग बनाने के बाद पेैद्रो जब उसे पूरा जान लेता है तो कैनवस पर उतरी रोजी की रुह के ज़रिये वो बेताबी भी अपनी मौत मर जाती है।

फर्डी एक खूबसूरत दिल का बूढ़ा सा बच्चा है। वो दिल जिसमें हिचक है, अपनापन है, वक्त-वक्त पर थैंक्यू स्पीच देने की ताब है, और उम्रभर सहेजकर रखा वो अधूरा प्यार भी है जो अब तक एकदम साफ-सुधरा है। इन्तज़ार के झोले में इतना महफूज कि उस पर वक्त की कोई धूल कभी जम ही नहीं पाई। फर्डी रात के अंधेरे से डरता है, रोजी की बिल्ली से डरता है, फैनी की ना से डरता है पर जिन्दगी भर प्यार के इन्तजार में बैठे रहने का जो सबसे बड़ा डर पूरी दुनिया को डराता है उससे नहीं डरता। पूरी मासूमियत से पुरज़ोर और पाकीज़ा प्यार करने से नहीं डरता फर्डी।

फाइन्डिंग फैनी में कोई बहुत उम्दा कहानी तलाशने के लिये जाएंगे तो निराश होंगे। बड़े ट्विस्ट ढूंढते फिरेंगे तो भी खाली हाथ ही लौटेंगे। किसी दिल दहला देने वाले क्लाइमेक्स को खोजेंगे तो कुछ हाथ नहीं लगेगा। पर आप अगर उन किरदारों को और उस सफर को समझने की कोशिश भर करेंगे तो फिल्म आपको निराश नहीं करेगी। छोटी-छोटी भावनाएं जिन्हें अक्सर हम अपनी जिन्दगी में दरकिनार कर आते हैं फिल्म उन्हीं भावनाओं को खोजती-फिरती है। अगर आप उस खोज में ज़रा भी रुचि रखते हैं तो आपको मज़ा आएगा वरना ये फिल्म आपके लिये है ही नहीं। ये फिल्म न अच्छी है न बुरी। ये उस एकतरफा प्यार की तरह है जिसमें मिले अच्छे-बुरे हर तरह के अनुभव आप कभी भुला नहीं पाते।

अनिल मेहता की आंखें गोआ के इर्द गिर्द हरे खेतों के बीच पतली सी सड़कों पर खूबसूरती से घूमते हुए कैमरे में जैसे सुकून कैद कर लेती हैं। फुरसत एक-एक फ्रेम से किसी पत्ती पर बची रह गई आंखिरी बूंद की तरह टपकती है और आप उसे अपनी नज़रों में एकदम हौले-हौले समा लेना चाहते हैं। आगे क्या होगा इसकी कोई जल्दबाजी नहीं रह जाती। अभी जो हो रहा है आप उसी में थमे रह जाते हैं। जल्दबाजी की इस दुनिया का एकदम शान्त सा प्रतिरोध है फाइन्डिंग फैनी।

दीपिका पादुकोण ऐंजी के किरदार को इतनी खूबसूरती से निभाती हैं कि आपको उस किरदार से प्यार हो जाता है, नसीरुद्दीन शाह ने फर्डी को इतना आत्मीय बना दिया है कि जब वो खराब पड़ी गाड़ी के लिये तेल लाने के लिये जरकीन पकड़े गाड़ी का इन्तज़ार कर रहा होता है तो एक बार के लिये रोजी के साथ-साथ आपको भी डर लगने लगता है कि उसे अकेले कैसे जाने दें ? डिंपल कपाडि़या, पंकज कपूर और अर्जुन कपूर भी अपने-अपने किरदारों को क्या खूबसूरती से निभाते हैं। किरदार इतने अच्छी तरह बुने गये हैं कि एक बार के लिये कहानी की कमियों को आप भूल ही जाते हैं।

होमी अदजानिया निर्देशित ये फिल्म उस दो सौ-चार सौ करोड़ के फिल्मी तमाशे को सिरे से नकार देती है। ये स्टार कास्ट और तकनीकी ताम-झाम से उपजने वाले फर्जी सिनेमाई चमत्कार की दुनिया से बाहर लौटने के लिये कहती एक फिल्म है। इसे देखना दिल्ली या मुम्बई में रह रहे व्यस्त लोगों का अपने छोटे-छोटे कस्बों में लौटना है जहां सपने भले ही बड़े-बड़े न पलते हों पर जि़न्दगी बड़ी होती है। जहां का भूगोल भले ही छोटा हो पर जीवन का फलक बड़ा होता है।

  उमेश पन्त
संपर्क - mshpant@gmail.com
www.umeshpant.com

क्यों न हो सांप्रदायिक हिंसा के ‘अर्थशास्त्र’ पर बहस

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- राजीव यादव

"...मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसाग्रस्त गांवों की वह तस्वीर नहीं भूलनी चाहिए, जिसमें सांप्रदायिक तत्वों को बचाने के लिए तमंचे, गड़ासा, पलकटी आदि घातक हथियारों के साथ प्रर्दशन हुए। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब भारतीय सेना उनके सामने नहीं टिक पा रही थी तो आम गरीब निहत्थे मुसलमान जो उनके यहां खेतों में बंधुआ मजदूर की हैसियत रखता है, उसके सामने वहां से भागने के सिवाए क्या रास्ता था? अगर हम अन्य सामंती ढाचों की शिनाख्त करें, तो ऐसी तस्वीरें हमें बिहार में रणवीर सेना की सक्रियता के समय भी दिखाई देती हैं।..."

तस्वीर साभार- http://www.thehindu.com/
त्तर प्रदेश सरकार ने मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के समक्ष कहा है कि मुजफ्फरनगर को इसलिए चुना गया क्योंकि वहां के मुसलमान गरीब वर्ग के थे और ग्रामीण पृष्ठभूमि के थे। सांप्रदायिक हिंसा के इस ‘अर्थशास्त्र’ को विचित्र सिद्धांत कहते हुए, चिंतन-मनन न करके सांप्रदायिक घटनाओं को रोकने की नसीहत देते हुए कहा गया कि विफल सरकार इन घटनाओं को रोकने से ज्यादा इनकी विवेचना और विश्लेषण कर रही है। बेशक, 2013 में पूरे देश में सांप्रदायिक हिंसा की 823 वारदातों में अकेले उत्तर प्रदेश में 247 वारदातें हुई। इसी साल के सात महीने में तकरीबन 65 घटनाएं हो चुकी हैं। पर इसका यह मतलब नहीं है कि इस पर चिंतत-मनन न किया जाए, क्योंकि समाज में घटित किसी घटना के पीछे की वैचारिक प्रक्रिया को समझना नितांत जरुरी है, वह भी सांप्रदायिक हिंसा में तो बेहद जरुरी हो जाता है। 


मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा को देख उस वक्त हर कोई यही कहता कि इतनी बड़ी त्रासदी कैसे घटित हो गई? सांप्रदायिक हिंसा जिसका केन्द्र बिंदु कस्बाई-शहरी क्षेत्र हुआ करते थे, पर जिस तरह से मेल-जोल वाली ग्रामीण संस्कृति में यह भड़की, ऐसे में खापों वाले इस इलाके के वर्गीय चरित्र को समझना नितांत जरुरी होगा। लाक, लिसाड़, फुगाना, कुटबा, कुटबी, बहावड़ी समेत ऐसे दस से अधिक गांव जहां सितंबर 2013 में हुई सांप्रदायिक हिंसा के बाद पूरे के पूरे गांव के मुस्लिम परिवार पूर्ण रुप से विस्थापित हो चुके हैं, इसमें ज्यादातर रंगरेज, धोबी, लोहार, जुलाहा ऐसी निचली श्रमिक जातियों के लोग हैं, जिनकी खेती-किसानी में मजदूर की हैसियत है। वहीं पास के बुढ़ाना, जौला, कांधला, कैराना व उनके आस पास के गांव जहां जाट मुस्लिम और गुर्जर मुस्लिमों का बाहुल्य था वहां सांप्रदायिक हिंसा नहीं हुई, बल्कि इन्हीं क्षेत्रों में सांप्रदायिक हिंसा से पीडि़त मुसलमानों को आसरा प्रदान किया गया। इनकी समृद्धि का आकलन इस बात से लगाया जा सकता है कि शुरु में हफ्तों तक राहत कैंपों ने कोई सरकारी सहायता नहीं ली। प्रदेश सरकार द्वारा राहत कैंपों को कागज में खत्म कर देने के बाद, आज भी इस इलाके के सम्पन्न मुसलमान पीडि़त परिवारों को राशन की व्यवस्था कर रहे हैं तो कहीं-कहीं पर राहत कैंप भी चला रहे हैं। 

इस अर्थशास्त्र के तहत शिकार सिर्फ मुजफ्फरनगर ही नहीं बल्कि आस-पास के जिलों के ग्रामीण क्षेत्र भी हुए। मसलन, आठ सितंबर को सांप्रदायिक हिंसा से बचने के लिए बागपत जिले के अंछाड़ गांव़ के सभी मुस्लिम परिवार गांव छोड़कर भाग गए। आमिर को अपने घर की चिंता सता रही थी। जब वह 12 सितंबर को गांव गया तो सांप्रदायिक तत्वों ने उसको मारकर घर में छत से उसके शव को टांग दिया। जब आमिर का परिवार उसे ढूंढ़ते हुए गांव पहुंचा तो कहा गया कि इसको जल्दी दफनाओ नहीं तो हम इसे जला देंगे, और बिना गुस्ल के उसे इस्लामिक मान्यता के विरुद्ध उत्तर-दक्षिण दिशा में दफना दिया गया। उसके पिता रईसुद्दीन, मां और पत्नी को बंधक बना लिया गया और कहा गया कि आमिर ने अस्सी हजार रुपए लिए थे, अगर रुपए नहीं लौटाओगे तो उसकी पत्नी को रख लेंगे और उसके पिता-माता से गोबर पानी करवाएंगे। अन्ततः 30 सितंबर को रकम अदा करने के बाद वे वहां से मुक्त हो पाए। इसके बाद तमाम शिकायतों के बाद आज तक इंसाफ की गुंजाइस नहीं बनी। सांप्रदायिक हिंसा के दौरान हत्या किए गए शव का पोस्टमार्टम तक नहीं हो सका। इसी तरह की कहानी डूगर के मेहरदीन की भी है, जिसे मारकर छत से टांग दिया गया था। रिहाई मंच की तहरीर पर मुकदमा तो पंजीकृत हुआ और शव निकालकर पोस्टमार्टम कराने की तैयारी भी हुई पर गांव वालों के दबाव के चलते पोस्टमार्टम नहीं हो पाया। इंसाफ के ऐसे बहुतेरे सवाल सामंती सांप्रदायिक वर्चस्व की जमीन में आज भी दफ्न हैं।

बहरहाल, आमिर के सहारे इस क्षेत्र की सामाजिक संरचना को समझने की कोशिश की जा सकती है। इस क्षेत्र में आज भी बधुंआ मजदूरी आम है और बंधक बनाने की परंपरा है, जिसमें बड़े पैमाने पर महिलाओं के साथ यौन हिंसा भी होती हैं। आमिर के दाह संस्कार की प्रक्रिया से समझा जा सकता हैं कि कितना कठोर सामंती वर्चस्व है जो धार्मिक मान्याताओं का भी गला घोंट देता है। मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसाग्रस्त गांवों की वह तस्वीर नहीं भूलनी चाहिए, जिसमें सांप्रदायिक तत्वों को बचाने के लिए तमंचे, गड़ासा, पलकटी आदि घातक हथियारों के साथ प्रर्दशन हुए। आसानी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि जब भारतीय सेना उनके सामने नहीं टिक पा रही थी तो आम गरीब निहत्थे मुसलमान जो उनके यहां खेतों में बंधुआ मजदूर की हैसियत रखता है, उसके सामने वहां से भागने के सिवाए क्या रास्ता था? अगर हम अन्य सामंती ढाचों की शिनाख्त करें, तो ऐसी तस्वीरें हमें बिहार में रणवीर सेना की सक्रियता के समय भी दिखाई देती हैं।

अंग्रेजों के शासनकाल में कांग्रेस की यह मांग थी कि हिन्दुस्तानियों को भी शस्त्र रखने का लाइसेंस दिया जाना चाहिए। अंग्रेजों के बाद दलितों के खिलाफ सवर्णों के हमलों की घटनाओं के बढ़ने के साथ यह मांग की गई कि दलितों को आत्म सुरक्षा के लिए हथियार के लाइसेंस मिलने चाहिएं। क्योंकि उनकी सुरक्षा में तैनात पुलिस भी उनके खिलाफ खड़ी नजर आती रही है। बिहार में कर्पूरी ठाकुर ने दलितों को हथियार चलाने का प्रशिक्षण देने, लाइसेंस देने और मुफ्त में शस्त्र मुहैया कराने का फैसला 1978 में बनी अपनी सरकार के दौरान लिया था। देश भर में आत्म सुरक्षा का अधिकार केवल उन्हीं लोगों के पास सुरक्षित है, जो बड़ी भूमि के मालिक हैं, जो धनवान हैं, जो बड़ी जाति के हैं और उनमें से ज्यादातर बहुसंख्यक धर्म के सवर्ण समूह के सदस्य हैं। जबकि हमले कमजोर वर्गों के खिलाफ होते हैं और उनमें दलित, आदिवासी, पिछड़ों के अलावा अल्पसंख्यक होते हैं। दलितों के खिलाफ जाति के नाम पर हमले होते हैं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ धर्म के नाम पर। सच्चर समिति मानती है कि मुसलमानों के हालात दलितों से भी बदतर हैं, तो ऐसे में मुसलमानों को आत्मरक्षा करने का अधिकार मिलना चाहिए। आजाद हिन्दुस्तान में साम्प्रदायिक हमलों में उनकी सबसे ज्यादा जानें गई हैं और उनके घर बर्बाद हुए हैं। 

जो समाजशास्त्री चिंतत-मनन न करने के लिए कहकर इस धारणा को विकसित करने का प्रयास करते हैं कि दंगे क्षणिक आक्रोश से जन्मते और लूटपाट के इरादे से शामिल हुए असामाजिक तत्वों के कारण फैलते हैं, दरअसल वह सांप्रदायिक सामंती वर्चस्व को बरकरार रख मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाना चाहते हैं। जो सिर्फ सांप्रदायिक हिंसा पीडि़त होने पर ही नहीं बल्कि विकास और सामाजिक सुरक्षा से जुड़ी योजनाओं को तुष्टिकरण कहकर दूसरे वर्ग को इनके विरुद्ध लामबंद करते हैं। जब यह प्रदेश सरकार मान रही है कि गरीबी और ग्रामीण पृष्ठभूमि सांप्रदायिक हिंसा का कारण है तो उसके निवारण के लिए उसे सामाजिक सुरक्षा के साथ आत्म रक्षा के सवाल को भी हल करना ही होगा। 


राजीव यादव
संपर्क-  media.rajeev@gmail.com

उपचुनाव नतीजों के सात सबक : पी साईनाथ

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पी साईनाथ
-पी साईनाथ
 अनुवाद- अभिनव श्रीवास्तव
पने अनैतिक और गोलमोल कामों से खुद के प्रति लोगों का मोहभंग करने में यूपीए-को पांच वर्ष का समय लगा, लेकिन भाजपा ने सिर्फ पांच महीने के अन्दर ही सबको गलत साबित कर दिया। इस हफ्ते जिन 32 सीटों पर उपचुनाव हुआ, उनमें से 24 भाजपा के पास थीं। अभी मीडिया में मोदी सरकार के पहले सौ दिनों के पूरा होने वाले जश्न को ज्यादा दिन नहीं बीते थे कि इनमें से आधी सीटें भाजपा से छिन गयीं। इन नतीजों से चुनावी रूप से तो बहुत ज्यादा निष्कर्ष नहीं निकाले जाने चाहिये, लेकिन नतीजों के राजनीतिक सन्देश को पढ़ने की कोशिश अवश्य होनी चाहिये। हालांकि अब से एक महीने से भी कुछ कम समय में महाराष्ट्र में होने वाले चुनाव में भाजपा-शिव सेना के जीतने की उम्मीद की जा रही है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इन नतीजों से कोई सबक नहीं लिया जाना चाहिये।

पहला सबक
भाजपा ने बहुत कम समय में देश भर में अल्पसंख्यकों को आतंकित करने में सफलता हासिल की। साल 2014 के चुनाव में अल्पसंख्यक वोट बुरी तरह विभाजित रहा था। इन उपचुनावों में राज्य दर राज्य अल्पसंखयकों के वोट भाजपा के अलावा सबसे बड़ी पार्टी को मिले हुये प्रतीत होते हैं। फिर चाहे वह असम की बात हो या फिर राजस्थान की या फिर उत्तर प्रदेश की।

लोकसभा चुनाव में साम्प्रदायिक तनाव के माहौल में और सरगर्मी पैदा करने के लिये नरेन्द्र मोदी ने अमित शाह, गिरिराज सिंह और बाबा रामदेव जैसे नामों को आउटसोर्स किया, जबकि स्वयं को महान विकास पुरुष के तौर पर पेश किया था। वैसे साम्प्रदायिकता की आंच को तेज करने वाले ये चेहरे अब अपने-अपने ठिकानों की ओर लौट आये हैं!

यहां तक कि पश्चिम बंगाल में जहां भाजपा राज्य विधान सभा में बहिर्सत दक्षिणी सीट पर अपना खाता खुलने का जश्न मना रही है, उसकी जीत का गणित दिलचस्प है। सीमा पर स्थिति इस इलाके में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में बड़ा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में सफलता हासिल की थी। तब भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस पर तीस हजार वोटों की प्रभावशाली बढ़त ली थी। इस हफ्ते भाजपा ने बड़ी गिरावट यानि सत्रह सौ से भी कुछ कम वोटों के अंतर से यहां से जीत दर्ज की।

दूसरा सबक
दूसरा सबक ये कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा से लोगों का मोहभंग कही तेजी से होते है। इन उपचुनावों से थोडा ही पहले भाजपा उत्तराखंड में हुये उपचुनावों में तीनों सीटें हार गयी थीं। ठीक इसी तरह लोकसभा चुनाव में अच्छा करने के बावजूद कर्नाटक और मध्य प्रदेश में उसने इन उपचुनावों में महत्वपूर्ण सीटें गंवा दीं।

इस उपचुनाव में जिन सीटों पर भाजपा हारी है, उनमें से ज्यादातर सीटें खाली थीं। ये सीटें खाली इसलिये हुयी थीं क्योंकि यहां के प्रतिनिधियों को भाजपा ने लोकसभा में प्रत्याशी बनाकर उतारा था और वे सभी जीत गये थे।राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में यही हुआ। स्वभाविक तौरपर पार्टी इन जगहों पर मजबूत थी। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की उन ग्यारह सीटों में से पार्टी आठ सीटें हार गयी, जो उसका गढ़ कही जाती हैं। चार महीनों के भीतर पार्टी को बड़े अंतर से हार का सामना करना पड़ा है। बाकी सीटों पर भी भाजपा के जीत के अंतर में गिरावट आयी है। इस चुनावी रेस में शुरुआत में पीछे रहने के बावजूद कांग्रेस राजस्थान में चार में से तीन सीटें जीतने में सफल रही, जबकि गुजरात में नौ में से तीन सीटें उसके खाते में गयी। इन सब जगहों पर भाजपा को नुकसान हुआ।    

तीसरा सबक
भाजपा अब दिल्ली में चुनाव को लेकर बहुत ज्यादा अनिच्छुक होगी। हालांकि चुनाव टालने में उसे अब काफी मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है। मीडिया ने इससे पहले भाजपा के एक स्थानीय नेता पर हुये स्टिंग को दिखने में आनाकानी की थी, लेकिन अब ऐसा करना मुश्किल होगा। मीडिया अब आगे होने वाली घटनाओं की अधिकाधिक जांच करने को बाध्य होगी।

चौथा सबक
चौथा सबक ये है कि गणित बेहद महत्वपूर्ण है। मैंने बीती मई में भी यह तर्क दिया था कि चुनाव में चल रही लहर आवश्यक रूप से कांग्रेस-विरोधी और यूपीए विरोधी लहर है। जिस राज्य में जो भी बड़ी कांग्रेस-विरोधी ताकत थी, उसे इस लहर का फायदा मिला। ज्यादा सीटों वाले राज्यों-उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में यह पार्टी भाजपा थी। ओडीसा में यह पार्टी नवीन पटनायक का बीजू जनता दल था। पश्चिम बंगाल में यह तृणमूल कांग्रेस थी। दक्षिण में आंध्र प्रदेश में टी डीपी और तमिलनाडु में एआईडीएमके को इसका लाभ मिला।

मेरा यह भी तर्क था कि साल 2014 के चुनाव में फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट सिस्टम (एफपीटीपी) ने जरुरत से ज्यादा गुल खिलाया है। सामान्यतः यह सिस्टम तब नुकसान पहुंचाता है जब मुकाबला त्रिकोणीय हो, लेकिन अगर किसी सीट पर चार या पांच मजबूत पार्टियों के बीच मुकाबला हो, तो यह सिस्टम और ज्यादा बेतुका हो जाता है।

इसलिए एआईडीएमके को कुल 44 फीसदी वोट मिलते हैं, लेकिन उसके खाते में 95 फीसदी से भी ज्यादा सीटें चली जाती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को 31 फीसदी वोट मिले और उसे सीटें 282 मिली  19फीसदी वोट पाकर कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटों से संतोष करना पड़ा। साल2009 में भाजपा को मोटे तौर पर इतने ही प्रतिशत वोट मिले जितने इस बार कांग्रेस को,लेकिन तब उसके खाते में 116 सीटें आयीं थीं। स्वभाविक तौर पर इस सिस्टम ने साल 2014 के आम चुनाव में कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभायी।

पांचवा सबक
उत्तर प्रदेश में हुये उपचुनावों में इस बार बसपा ने चुनाव नहीं लड़ा। पार्टी ने अपना एक भी प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा। इसका मतलब था कि समाजवादी पार्टी का भाजपा के खिलाफ प्रदर्शन नाटकीय तौर पर सुधरना चाहिये था और हुआ भी ऐसा ही। एक महीना पहले ही बिहार में हुये उपचुनावों में आरजेडी और जेडीयू के एक साथ मिलकर आने से भाजपा को चुनाव में6-4 के अंतर से हार का सामना करना पड़ा।  

छठा सबक
जाति, जिसके खात्मे की घोषणा मीडिया और इसके पालतू विश्लेषकों ने कर दी थी, अब भी मायने रखती है। जाति के बराबर बने हुये महत्त्व को स्वीकार करने में इन विश्लेषकों ने आनाकानी दिखायी थी।

सातवां सबक
मीडिया को उपचुनावों के नतीजे ऐसे आने का अंदाजा नहीं लगा। मीडिया ने अपने आप को न सिर्फ इस   बात के लिये आश्वस्त कर लिया था कि चुनाव में मोदी का जादू अचूक होकर काम करेगा, बल्कि इसी आश्वस्ति में उसने यह भी मान लिया था कि अमित शाह का चुनाव प्रचार कमाल कर देगा। ये कमाल हुआ भी लेकिन वैसा नहीं जिसकी उम्मीद थी।

कहा जा सकता है कि इन उपचुनाव के नतीजों का चुनावी से ज्यादा राजनीतिक सन्देश है। महाराष्ट्र में भाजपा मजबूत होगी। बाकी सब इन उपचुनाव के नतीजों से मिल रहे संकेतों से तय होगा।

http://www.indiaresists.com से साभार

मोदी जी, पब्लिक है सब जानती है

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"....ये सभी घटनाएं मोदी जी आपके द्वारा लाल किले की प्राचीर से की गई अपील के बाद हुई है लेकिन आप इस किसी भी घटना पर अपना मुह खोलना वाजिब नहीं समझा। आप तो इस देश के ‘प्रधान सेवक’ हैं और जब आप इन सारी घटनाओं पर चुप रहते हैं तो यह कैसे मान लिया जाये कि आप 2002 वाले मोदी नहीं हैं?..." 

फोटो साभार- www.rediff.com
रेन्द्र मोदी ने सी.एन.एन. के लिये फरिद जकारिया को दिये गये साक्षात्कार में कहा है कि‘‘भारतीय मुसलमानों की देशभक्ति पर सवाल उठाये नहीं जा सकते। भारतीय मुस्लिम भारत के लिए जीते हैं और भारत के लिए ही मरते है’’। मोदी का यह शब्द सुनने में काफी अच्छा लगता है और मोदी के असली चेहरे को नहीं जानने वाला उनका युवा मातदाता उन्हें एक धर्मनिरपेक्ष नेता भी मानने लगता है। इस युवा वर्ग का जिक्र मोदी हमेशा पूंजीपति वर्ग को लुभाने के लिए करते रहे हैं। मोदी 2002 के गुजरात जनसंहार में साम्प्रदायिकता के लगे धब्बे को लगातार छुड़ाने की कोशिश करते रहे हैं। 2014 के चुनाव अभियान हो या लाल किले के प्राचीर से मोदी का साम्प्रदायिकता के खिलाफ की गई अपील या सी.एन.एन. को दिया गया साक्षात्कार मोदी को अपने उपर लगे धब्बे को छुड़ाने का असफल प्रयास है।

मोदीके मुख्यमंत्री काल में 2002 के जनसंहार को एक बार भुला भी दिया जाये (जिसके कारण ही उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी मिली) और मोदी जी को एक नया मोदी मान कर भी सोचा जाये तो यह हमारे दिल में कहां तक उतरता है कि वे एक धर्म विशेष के साथ भेद-भाव नहीं करते। चुनावी भाषणों को छोड़ भी दिया जाये (जहां वोट लेने के लिए वादे झूठे ही किये जाते हैं) तो प्रधानमंत्री के रूप में लाल किले के प्राचीर से दिये गये भाषण की हम बहुत लड़-कट लियेमार दिया और किसी को कुछ नहीं मिला। जातिवादसाम्प्रदायवाद देश के विकास में रूकावट है।’ प्रधानमंत्री के रूप में मोदी का देश से जातिवादसाम्प्रदायिकता के खिलाफ 10 साल के लिए स्थगित तय करने की अपील के चार दिन बाद ही उन्हीं के सरकार का गृह मंत्रालय मुजफ्फरनगर दंगे के जिम्मेदार भाजपा विधायक को जेड प्लस श्रेणी की सुरक्षा मुहैय्या कराने की बात कहती है। क्या इससे सम्प्रदायिक शक्तियों को बढ़ावा नहीं मिलता है?

चुनावप्रचार के समय भजपा सांसद गिरिराज सिंह के पाकिस्तान भेजने वाली बात को अगर छोड़ भी दिया जाये तो मोदी सरकार के भाजपा सांसद साक्षी महाराज का वह बयान कि‘‘मदरसों में आतंकवाद की शिक्षा दी जाती है’’ को कैसा भुलाया जा सकता है। सांसद योगी आदित्यनाथ जो कि मोदी सरकार में उत्तर प्रदेश के चुनाव प्रभारी थे चुनाव प्रचार के दौरान कहा कि जहां 10 प्रतिशत से अधिक मुसलमान हैं वहीं सम्प्रदायिक झगड़े हो रहे हैं इसके साथ ही उन्होंने प्रचार के दौरान लव जेहाद’ के मुद्दे को जोर-शोर से उठाया और कहा किलव जेहाद’ के लिए आई.एस.आई. पैसा दे रहा है। क्या यह साम्प्रदायिकता नहीं है?

बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने आतंकवाद और बम बनाने में धन जुटाने के लिये पिंक रेवल्युशन’ (गउ हत्या) की बात कर एक सम्प्रदाय विशेष पर निशाना साधा। इन्दौर की भाजपा विधायक उषा ठाकुर द्वारा यह कहना कि प्रति वर्ष 4.5 लाख हिन्दु लड़कियों का धर्म परिवर्तन किया जाता है और पर्चे-पोस्टर के माध्यम से हिन्दुवादी संगठनों को अगाह करना कि दशहरे के दौरान गरबा नृत्य में गैर हिन्दु लोगों को नहीं आने दिया जाये। आने वाले लोगों की पहचान पत्र देख करके ही पंडाल के अन्दर प्रवेश दिया जाये। क्या इससे देश में साम्प्रदायिकता की जहर नहीं फैलती है?

उज्जैनके विक्रम विश्वविद्यालय के उपकुलपति प्रो. जवाहरलाल कौल के बयान वापसी को लेकर बजरंग दल व विश्व हिन्दु परिषद (जो आपके सहयोगी हैं) के 35-40 कार्यकर्ताओं (गुण्डे) द्वारा पुसिल की मौजूदगी में उपकुलपति पर हमले किये गये और विश्वविद्यालय में तोड़-फोड़ किया गया। इस घटनाक्रम को बिजेपी शासित प्रदेश के पुलिस मुक दर्शक बन कर देखती रही। प्रो. कौल का मात्र यह दोष’ था कि उन्होंने कश्मीर में आई विपदा के लिए मकान मालिकों से अनुरोध किया था कि कश्मीर छात्रों के साथ मकान मालिक कुछ महिनों के लिए किराये में रियायत दे और इस विपदा में सहयोग करते हुए तत्काल किराये देने के लिए बाध्य न करें। अपने स्टाफों से बाढ़ पिड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने के लिए अपील की। इस तरह का दोष मोदी जी आपने भी कश्मीर जाकर किया लेकिन आपको तो इसके लिए वाह वही मिली। यह आपका कैसा शासन है जहां एक ही तरह के काम के लिए एक को दफनाने के लिए लोग’ उतारू हो जाते हैं तो दूसरो को दिलों’ में बसाया जाता है।

येसभी घटनाएं मोदी जी आपके द्वारा लाल किले की प्राचीर से की गई अपील के बाद हुई है लेकिन आप इस किसी भी घटना पर अपना मुह खोलना वाजिब नहीं समझा। आप तो इस देश के ‘प्रधान सेवक’ हैं और जब आप इन सारी घटनाओं पर चुप रहते हैं तो यह कैसे मान लिया जाये कि आप 2002 वाले मोदी नहीं हैं?

आपके मौन व्रत से साम्प्रदायिक शक्तियों के द्वारा समाज में साम्प्रदायिक विद्वेष को बढ़ावा देने का मौका नहीं मिल रहा हैयह कैसे मान लिया जाये कि आप के मन में एक विशेष समुदाय के प्रति नफरत नहीं रह गई हैअगर आप दिल से भी सबका साथसबका विकास’ की बात करें तो आप नहीं कर सकते हैं। आप की पितामह संस्थाएं इसलिए आपको प्रधान सेवक’ बनाया है कि आप एक विशेष समुदाय व विशेष वर्ग की ही सेवा कर सकें। यही कारण है कि आप के मातहत नेता आपके अपीलों का नजरअंदाज करते हुए जो चाहते हैं वह कहते हैं और आप उसको मौन स्वीकृति के रूप में स्वीकार करते हैं। मोदी जी आपके वायदेअपील व साक्षात्कार को जनता आत्मसात कर पायेगीयह पब्लिक है सब जानती है।

सुनील सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
समकालीन विषयों पर निरंतर लेखन.

संपर्क- sunilkumar102@gmail.com

उन्मादी एजेंडे के बीच बनारस के अंदरूनी प्रश्न

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 -अंशु शरण


"...लम्बे अरसे से बनारस भाजपा का मजबूत गढ़ है शहर में सभासद से लेकर सांसद तक भाजपा का ही रहता है जो मुख्य रूप से  इस बदहाली के लिए जिम्मेदार भी है हालाँकि अब मिनी पीएमओ के खुलने के बाद भाजपाई इन मुद्दों पर शोर मचाते दिख रहे हैं और इनका ये रवैया अभी भी ध्यान भटकाने वाला ही है जैसे की जल संरक्षण के बजाय गंगा का महिमामंडन, गंगा को पूजनीय बनाना जबकि वरुणा और अस्सी नदी पर होने वाले अतिक्रमण और प्रदुषण पर चुप्पी, क्या बनारस को वाराणसी नाम देने वाली वरुणा और अस्सी नदी अपने पूजनीय ना हो होने की कीमत उठा रही है।..."



विश्व के प्राचीनतम शहरों में शामिल यह शहर, एक लम्बे सांस्कृतिक क्रमिक विकास के बदौलत ही आज बहुलतावादी साझा सांस्कृतिक विरासत का गवाह बना हुआ है इसके अलावा भी बनारस पूर्वांचल और पश्चिमी बिहार का एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केंद्र भी हैं | और यही वजह है की बनारस का चयन लोकसभा चुनावों में पूर्वांचल के सम्प्रेषण केंद्र के तौर पर हुआ और भाजपा के पूर्व घोषित प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनारस से सांसद चुने गए। जिसके बाद जहाँ एक ओर लोगो की उम्मीदें बढ़ी है वहीँ दूसरी ओर बनारस में राष्ट्रवाद का शोर भी जोर पकड़ रहा है।

बहुलतावादी संस्कृति बनाम सांस्कृतिक राष्ट्रवाद

सांस्कृतिक, स्थात्पय और जीवनशैली के विभिन्न रंगों से भरा बनारस ना सिर्फ भारत बल्कि दुनिया भर के लोगों में आकर्षण पैदा करता है, हर साल लाखों में देसी विदेशी सैलानी इसी आकर्षणवश खींचे चले आतें हैं। बनारस का अल्हड़पन यहाँ के जीवनशैली के अलावा नगर स्थात्पय में भी दिखाई देता है। लेकिन पिछले कई वर्षों की उपेक्षा और आबादी के बढ़ते दबाव का असर अब बनारस पर दिखने लगा है। नगर स्थात्पय में जर्जरता तो जीवनशैली में झुंझलाहट दिखाई दे रही है। बनारस की इस बदहाली के पीछे जिम्मेदार एक ही राजनैतिक दल जिम्मेदार है , जिसके जनप्रतिनिधियों की 2014 से पूर्व की शिथिलता, नगर की जर्जरता और जीवनशैली में आये बदलाव के पीछे जिम्मेदार है और अब उनकी अति-सक्रियता लगातार बहुलतावादी संस्कृति को छेड़ रही है।
 
बनारस शहर का घाटों गलियों मंदिरो से पटा पुराना हिस्सा अपनी ही जर्जर और बदहाली अवस्था को देखने को विवश है. यहाँ के ज्यादातर निवासीयो ने भी इस स्थिति को स्वीकार लिया है और शायद यही बनारस है जहाँ हर फ़िक्र लोग मौज में उड़ाते हैं| गंदगी का आलम तो यूँ है की शहर की ज्यादातर गलियां सूखे नाले का रूप ले चुकी हैं जो बरसात में या तो बहने लगती है या बजबजाने| धार्मिक नगरी काशी की गलियों में वेस्ट मैनेजमेंट यानि की कूड़ा निवारण का काम गौ माता और सांडो की मौजूदगी से आसान हो जाता है, घाटों पर की गंदगी गंगा मैया में बहा दी जाती है। 

लम्बे अरसे से बनारस भाजपा का मजबूत गढ़ है शहर में सभासद से लेकर सांसद तक भाजपा का ही रहता है जो मुख्य रूप से  इस बदहाली के लिए जिम्मेदार भी है हालाँकि अब मिनी पीएमओ के खुलने के बाद भाजपाई इन मुद्दों पर शोर मचाते दिख रहे हैं और इनका ये रवैया अभी भी ध्यान भटकाने वाला ही है जैसे की जल संरक्षण के बजाय गंगा का महिमामंडन, गंगा को पूजनीय बनाना जबकि वरुणा और अस्सी नदी पर होने वाले अतिक्रमण और प्रदुषण पर चुप्पी, क्या बनारस को वाराणसी नाम देने वाली वरुणा और अस्सी नदी अपने पूजनीय ना हो होने की कीमत उठा रही है। ये सारी बातें बनारस के राष्ट्रवाद के असर को बताती हैं| बहुलतावादी संस्कृति को छद्म सांस्कृतिक राष्ट्रवाद से उससे भी बड़ा खतरा है।

घोषणायें : काशी से क्योटो तक

उत्तर प्रदेश में 80 में से 73 सीटें जीतने के बाद भाजपा का पूरा ध्यान अब 2017 में होने वाले विधानसभा चुनावों पर है और पूर्वांचल में इस उत्साह को बरक़रार रखने के लिए काशी से प्रधानमंत्री को जोड़े रखने भी जरुरी था फलस्वरूप मिनी पीएमओ का खोला गया जो असल में लोकसभा 77 वाराणसी का जनसंपर्क कार्यालय है। जहाँ शिकायतें सुनी तो जाती है लेकिन निदान नहीं होता है और हो भी कैसे जब गृह मंत्रालय की फाइलें पीएमओ हो के जाती हैं तो भला इस मिनी पीएमओ की क्या बिसात और ये हमें वहाँ पर देखने को भी मिला जहाँ कार्यालय प्रभारी शिव शरण उपाध्याय किसी भी औपचारिक बयान देने से कतराते दिखे। 

मिनी पीएमओ के खुलने के माह भर भीतर ही लोग इसे आश्वासन केंद्र की संज्ञा देने लगे हैं जिसकी पुष्टि भाजपा महासचिव राम माधव का बयान "मिनी पीएमओ ना बन जाय समस्याओं का संग्रहालय"करता है। अभी हाल में उत्तर प्रदेश में हुए उपचुनाव में प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र की रोहनिया विधानसभा में भाजपा-अपना दल को मिली हार यहाँ के जनमानस के
मोहभंग को भी दर्शाता है।
 
अभी हाल में ही प्रधानमंत्री ने अपनी जापान यात्रा के दौरान काशी के कायाकल्प के लिए क्योटो शहर में घोषणा की | बनारस शहर की मूल समस्याये को समझे बगैर इलाज के लिए क्योटो मॉडल का ये प्रत्यारोपण बनारस के मूल स्वरुप के साथ छेड़छाड़ साबित हो सकता है| सम्पूर्ण भारत के सारे रंगों को परावर्तित करने वाले जिले बनारस में किसी एक मॉडल का प्रत्यारोपण या विकास का कोई एक एप्रोच यहाँ के लिए अनुकूल नहीं होगा मैग्सेसे पुरुस्कार विजेता, आइ० आइ० टी० बी एच यू (bhu) के प्रोफेसर संदीप पाण्डेय  ने बताया की "बनारस शहर के 85 % नाले बिना ट्रीटमेंट के गंगा में जा गिर रहें है वरुणा और अस्सी नदी प्रदुषण के अलावा अतिक्रमण
का दोहरा मार झेल रही है । शहर के विस्तार के नाम पर पूंजीपतियों द्वारा जल और जमीन दोंनो पर कब्जा जारी है । ऐसे में नमामि गंगा और क्योटो माडल जैसी महत्वकांक्षी योजनायें बनारस के साथ बेईमानी साबित हो सकती है। "

नारों से फ़ैल रहा उन्मादी संक्रमण, मीडिया से फ़ैल रहा नियोजित प्रोपेगंडा, बनारस में एक नए तरह के वैचारिक प्रदुषण को जन्म दे रहा है।  जैसे काशी और गँगा को लेकर मचाये जाने वाला राष्ट्रवादी शोर जो बहुत सारे स्थानीय मुद्दों की आवाज़ दबा रहा है । अधिकतर मीडिया घराने एक खास राजनैतिक दल का मुखपत्र बने पड़े हैं और बनारस के अल्हड़पन को छद्म राष्ट्रवादी दिशा देना चाहते हैं । लेकिन बनारस में किसी भी तरह के विकास कार्यक्रम के क्रियान्वन पर गंभीर हुए बिना, सिर्फ विकास मॉडल की ब्रांडिंग से कोई भी बदलाव संभव नहीं है।

अंशु शरण 
anshubbdec@gmail.com

आईसीएचआर के अध्यक्ष का ‘इतिहास बोध, अ-बोध’

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अनिल यादव
-अनिल यादव

"...प्राचीन इतिहास लेखन में राव के अनुसार अब ‘कलेक्टिव मेमोरी’ को प्राथमिकता दी जायेगी। इतिहास के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों को ताक पर रखकर अब किंवदंतियों और गाथाओं को आधार माना जायेगा। एक तरफ इतिहास पुरानी घटनाओं, वस्तुओं की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए कई वैज्ञानिक उपकरणों व प्रक्रियाओं से लैस हुआ है, वही दूसरी तरफ भारत के इतिहास शोध के सर्वोच्च संस्थान के चेयरमैन ‘कलेक्टिव मेमोरी’ की बात कर रहे हैं।..."

तस्वीर साभार : आउटलुक
यी सरकार आने के बाद अकादमी क्षेत्र में सबसे त्वरित और केन्द्रीत हमला इतिहास पर हुआ है क्योंकि शासक और विजेता इतिहास को तलवार-बंदूक से अधिक कारगर हथियार मानते हैं। किसी भी समाज की मानसिकता बदल देने में इतिहास की बहुत बड़ी भूमिका होती है, इसलिए हर शासक अपने अनुकूल इतिहास लिखवाने की कोशिश करता है। मोदी सरकार ने रणनीति के तहत इसकी शुरूआत कर दी है। भारत में इतिहास अनुसंधान और इतिहास लेखन की सर्वोच्च संस्था भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) के चेयरमैन वाई0 सुदर्शन राव की नियुक्ति इस रणनीति का पहला कदम है। 

कालकाटिया विश्वविद्यालय में इतिहास विभाग के प्रमुख रहे सुदर्शन राव ने 2007 में लिखे गये एक लेख- ‘इण्डियन कास्ट सिस्टमः अ रीअप्रेजल’ के कारण विवाद में रहे। इस लेख में उन्होंने लिखा है कि ‘‘जाति व्यवस्था प्राचीन काल में बहुत अच्छे ढंग से कार्य कर रही थी और हमें किसी भी पक्ष से शिकायत नहीं मिलती। इस व्यवस्था को अक्सर शोषक सामाजिक व्यवस्था कहा जाता है, जिसके जरिये सत्ताधारी वर्ग ने आर्थिक-सामाजिक आधिपत्य बनाया है। लेकिन वह गलत धारणा है।’’

इतिहास लेखन की वैज्ञानिकता और वस्तुनिष्ठता प्रदान करने के उद्देश्य से 1972 में स्थापित आईसीएचआर के चेयरमैन नियुक्त होने के बाद वाई0 सुदर्शन राव ने अंग्रेजी पत्रिका आउटलुक को एक साक्षात्कार दिया, (21 जुलाई अंक में) जो इतिहास के प्रति उनकी सोच और विचारधारा प्रस्तुत होती है। इस लेख में आउटलुक को दिये साक्षात्कार के सारांश को विश्लेषित करने का प्रयास किया गया है-

‘भारतीय परिदृश्य’ में इतिहास-लेखन-

वाई0 सुदर्शन राव का मानना है कि इतिहास का लेखन ‘भारतीय परिदृश्य’ में होना चाहिए। अब तक का इतिहास-लेखन वामपंथ और पाश्चात् विद्वानों द्वारा किया गया है। जोकि भ्रामक है।

वस्तुतः किसी भी देश का इतिहास, दुनिया के इतिहास का एक हिस्सा होता है। इतिहास को मुल्क की सीमा रेखाओं में कैद करना मुश्किल ही नहीं बल्कि आने वाली पीढि़यों के लिए घातक भी होता है। पिछले छः दशकों में इतिहास एक विषय के रूप में उल्लेखनीय प्रगति की है, खास कर ‘विवादित या भ्रामक इतिहास’ का सही चेहरा उजागर हुआ है। सीड्स आॅफ पीस अन्तर्राष्ट्रीय शिविर जैसी संस्था का उदय हुआ है ताकि आने वाली पीढि़याँ ‘सही इतिहास’ को जान सके। 

इसी तर्ज पर भारत और पाकिस्तान के युवा इतिहासकारों ने ‘द हिस्ट्री प्रोजेक्ट’ नाम से एक संस्था बनायी है जिसका काम है भारत और पाकिस्तान के परस्पर विरोधी इतिहास लेखन को उजागर करना। ताकि इसे पढ़कर लोगों के भीतर एक प्रक्रिया शुरू हो और कथित रूप से स्थापित किये उन तथ्यों पर संदेह करना शुरू करें जो उन्हें भ्रामक लगते हैं। परन्तु आईसीएचआर के निदेशक महोदय ने इतिहास को सीमाओं में कैद कर लेने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया है।

इतिहास लेखन को लेकर दक्षिणपंथी विचारधारा की चिंता नयी नहीं है। पूर्व मानव संसाधन मंत्री रहे डा0 मुरली मनोहर जोशी ने 30 दिसम्बर 2001 में ‘द हिन्दू’ में लिखा कि- ‘‘इस देश को दो प्रकार के आतंकवाद का सामना करना पड़ रहा है। एक है ‘बौद्धिक आतंकवाद’ जो देश में धीमें जहर की तरह फैला हुआ है, जो वामपंथी इतिहासकारों द्वारा ‘भारतीय इतिहास के गलत प्रस्तुतीकरण’ की वजह स्थापित हुआ है और वह सरहद पार आतंकवाद से कहीं ज्यादा घातक है।’’ वस्तुतः इतिहास के सबसे करीब पहुँचने वाले इतिहासकार के ऊपर वामपंथ का ठप्पा लगाकर दक्षिणपंथी और ‘राष्ट्रवादी’ लोग इतिहास बोध को दबा देना चाहते हैं। ताकि जिस ‘राष्ट्रवाद’ की आग में वे अपनी रोटियाँ सेंक रहे हैं, उस पर सवाल न खड़ा हो सके।

इतिहास का पुर्नलेखन-

इतिहास के पुर्नलेखन पर पूछे गये एक सवाल के उत्तर में सुदर्शन राव ने कहा कि ‘वह सत्य के फालोवर हैं।’ और ‘सत्य’ सामने आना चाहिए। राव साहब के इस जवाब से स्पष्ट है कि ‘सत्य’ के नाम पर एक बार फिर से ‘इतिहास का भगवाकरण’ किया जायेगा। वह पूरी प्रक्रिया हिन्दूत्व और राष्ट्रवाद के कलेवर में हमारे सामने आयेगी। नरेन्द्र मोदी ने जिस तरह से अपनी 385 ‘भारत विजय रैलियों’ में राष्ट्रवाद का नारा बुलंद किया, वह जर्मन राष्ट्रवाद ‘मेरा राष्ट्र सही या गलत परन्तु सबसे अच्छा’ से रत्ती भर कम नहीं है। परन्तु इतिहास के लिए यह बेहद घातक होगा जैसा कि एरिक हाॅब्सबाॅम ने सटीक सुझाया है कि राष्ट्रवाद इतिहास के लिए अफीम जैसा है।

वस्तुतः इतिहास लेखन फिर से साम्प्रदायिक इतिहास लेखन की तरफ मुड़ रहा है। जेम्स मिल द्वारा ‘इतिहास विभाजन’ के औचित्य को सुदर्शन राव जी सही साबित करना चाहते हैं कि प्राचीन भारत (हिन्दूकाल) में भारतीय सभ्यता का स्वर्णिम काल था और मध्यकालीन भारत (मुस्लिमकाल) राष्ट्र और सभ्यता के विघटन और विध्वंश का काल था। दक्षिणपंथी विचारधारा इसकी प्रबल समर्थक रही है तभी तो देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी संसद में 9 जून को अभिभाषण में कहा कि- ‘‘कुछ बातों में बारह सौ सालों की गुलामी हमें परेशान करती है।’’ वह 1200 वर्षों की गुलामी आखिर किस तरफ इशारा करती है? गौरतलब है कि यह धारणा यह स्थापित करती है कि 711 ई0 में सिंधु पर अरबों का आक्रमण और उसके बाद ‘तुर्की शासन’ की स्थापना भारत के लिए गुलामी थी। अब इतिहास पूर्नलेखन के नाम पर फिर से राष्ट्रनायक और खलनायको को परिभाषित किया जायेगा।

ऐतिहासिक स्रोत बनाम ‘कलेक्टिव मेमोरी’-

प्राचीन इतिहास लेखन में राव के अनुसार अब ‘कलेक्टिव मेमोरी’ को प्राथमिकता दी जायेगी। इतिहास के प्राथमिक और द्वितीयक स्रोतों को ताक पर रखकर अब किंवदंतियों और गाथाओं को आधार माना जायेगा। एक तरफ इतिहास पुरानी घटनाओं, वस्तुओं की प्रमाणिकता को सिद्ध करने के लिए कई वैज्ञानिक उपकरणों व प्रक्रियाओं से लैस हुआ है, वही दूसरी तरफ भारत के इतिहास शोध के सर्वोच्च संस्थान के चेयरमैन ‘कलेक्टिव मेमोरी’ की बात कर रहे हैं। वस्तुतः ‘कलेक्टिव मेमोरी’ और कुछ नहीं बल्कि बहुसंख्यकवाद की एक अभिव्यक्ति होगी जो यह स्थापित करने में सफल होगी कि राजा दशरथ के बाद ‘शब्दभेदी बाण’ दिल्ली का अंतिम ‘हिन्दू शासक’ हेमू और पृथ्वीराज चैहान चलाते थे। साथ ही साथ वह भी प्रमाणित कर देगी कि मु0 गोरी को पृथ्वीराज ने ‘शब्दभेदी बाण’ से मार गिराया।

यह सत्य कि इतिहास लेखन में गाथाओं और किवदंतियों की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता है परन्तु जिस ‘कलेक्टिव मेमोरी’ की बात सुदर्शन राव जी कर रहे हैं वह हिन्दूत्व का महिमा मंडन ही है। जिस तरह से ‘जनभावनाओं की संतुष्टी’ के नाम फांसी की सजा सुनाई जा रही है, उसकी तरफ अब ‘कलेक्टिव मेमोरी’ के नाम पर इतिहास को दफन करने की कोशिश की जायेगी।

प्राचीन इतिहास और ‘महाभारत प्रोजेक्ट’-

सुदर्शन राव जी ने ‘महाभारत प्रोजेक्ट’ नाम एक शोध कार्य किया है और उनका मानना है कि महाभारत और रामायण दोनों सत्य घटनाओं पर आधारित हैं। इसके लिए बकायदा तिथि निर्धारण का भी कार्य किया जा रहा है। इन दोनों महाकाव्यों को लेकर एक इतिहासकार के सामने मुख्यतः दो समस्या होती है- पहला इनकी महाकाव्यों की पवित्रता और दूसरा आस्था और इतिहास में फर्क न कर पाना। प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर का मानना है कि ‘‘आज इतिहास को आस्था पर नहीं बल्कि गहन अन्वेषण पर आधारित होना होगा।’’ परन्तु क्या हम सुदर्शन राव से आस्था से इतर सोचने की उम्मीद कर सकते हैं, जिन्होंने अपने साक्षात्कार में अपने आप को सिर्फ हिन्दू ही नहीं कहा बल्कि यह भी जोड़ा कि वे ब्राह्मण भी हैं।

प्रायः कहा जाता है कि भारतीयों में इतिहासबोध बिल्कुल नहीं होता। वस्तुतः इतिहास बदलावों का एक दस्तावेज है, परन्तु भारतीय इतिहास में वाई0 सुदर्शन राव सरीखे व्यक्तियों की भरमार रही है जो प्रतिगामी रहे हैं और समाज को स्थिर बनाये रखने में यकीन रखते हैं। रामायण या महाभारत जैसे महाकाव्य समाज को समझने का एक स्रोत हो सकते हैं। परन्तु आँख बंद करके यह मान लेना कि महाभारत या रामायण के सारे पात्र ऐतिहासिक हैं, गलत ही नहीं बल्कि घातक है। रोमिला थापर का मानना है, ‘‘यदि आपने तय कर लिया है कि वह राम है जिसने धर्म की स्थापना की थी, तब आपको सिद्ध करना पड़ेगा कि वह बुद्ध, ईसा और मोहम्मद साहब की तरह ही ऐतिहासिक रूप से अस्तित्व में था।

‘महाभारत प्रोजेक्ट’ वस्तुतः यही साबित करना चाहता है ताकि धर्म के आधार पर ही ‘भारतीय गुलामी’ को परिभाषित करते हुए मुसलामानों और ईसाइयों को बाहरी साबित किया जा सके। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो पहले ही घोषित कर रखा है कि भारत हिन्दूओं के लिए ‘सुरक्षित स्थान’ होगा, आखिर इसे कोई तर्क चाहिए ना।

राम की अयोध्या-

अयोध्या पर पूछे गये एक सवाल के जवाब में सुदर्शन राव जी ने कहा कि यदि राम का जन्म अयोध्या में नहीं हुआ तो कहाँ हुआ? वस्तुतः सुदर्शन राव जी इतिहास के जरिये अयोध्या को राम की जन्मभूमि बनाने की कवायद में जुट जायेगें ओर भारतीय जनता पार्टी के घोषणा-पत्र में शामिल राममंदिर मुद्दा का संवैधानिक हल निकालकर मंदिर निर्माण के सपने को हकीकत में बदलने की पुरजोर कोशिश करेगें।

प्राचीन काल में छुआछूत नहीं थी-

प्राचीन काल का महिमा मण्डन करने वाले सुदर्शन राव ने स्पष्ट कहा है कि प्राचीन काल में छुआछूत अस्तित्व में नहीं था। 2007 में लिखे अपने लेख में भी ‘जाति-प्रथा’ को भारतीय संस्कृति का सकारात्मक पक्ष मानते हुए लिखा है कि प्राचीन काल की जाति व्यवस्था में किसी भी वर्ग को किसी से शिकायत नहीं थी। यदि सुदर्शन राव के द्वारा जारी ‘कलेक्टिव मेमोरी’ को सही माना जाये तो कई सवाल इसके तथ्य को आईना दिखाने के लिए खड़े हो जाते
हैं। जैसे- यदि महाभारत अथवा रामायण के समय छुआछूत नहीं थी तो लक्ष्मण ने शबरी का बेर क्यों नहीं खाया? तपस्वी रहते हुए भी राम ने शंबूक की हत्या क्यों की? एकलव्य से निर्लज्जतापूर्वक अंगूठा कैसे और क्यों मांगा गया।

गौरतलब है कि अपनी अतीतग्रस्तता के वजह से सुदर्शन जी ने इन सारी गाथाओं को नजर अंदाज कर दिया होगा। अतीतग्रस्तता एक सहज प्रवृत्ति है, मतुख्यतः असहाय बने अकर्मण्य लोगों की। दक्षिणपंथी विचारधारा यहीं मार खा जाती है, जब वही ‘स्वर्णिम काल’ की बात करती है और जब सवाल वर्णव्यवस्था या जातिवाद पर उठ जाता है तो सारा इतिहास बोध पारलौकिकता और नियतिवाद में तब्दील हो जाता है। जातिभेद के सवाल पर अपने साक्षात्कार में वाई0 सुदर्शन ने कहा कि विश्वामित्र ने दलित के घर कुत्ते का मांस खाया था। सुदर्शन राव साहब इसके जरिये यह दिखाना चाहते हैं कि दलित कुत्ता खाता था, परन्तु क्या उनमें यह हिम्मत है कि आर्यों के गोमांस खाने के प्रमाणिक तथ्यों को वह स्वीकार करेगें?

इतिहास बनाम धर्म-

इतिहास साक्ष्यों पर आधारित होता है वही धर्म आस्था का विषय है। परन्तु सुदर्शन राव साहब ने सिर्फ आस्थावान व्यक्ति ही नहीं बल्कि असहिष्णु भी है। तभी तो सनातन धर्म की बड़ाई करते-करते राव साहब यहाँ तक दावा कर दिया है कि सनातन धर्म सर्वश्रेष्ठ धर्म है। साथ ही साथ इस्लाम को विध्वंसक धर्म बताया है कि मध्यकाल में किस तरह से उन्होंने मंदिरो को नुकसान पहुँचाया। इतिहासबोध की इतनी छिछली जानकारी रखने वाले राव साहब को पता होना चाहिए कि तुर्कों से पहले भी भारत में हिन्दू शासको ने एक दूसरे के मंदिरों को तोड़ा था, क्योंकि मंदिर शासक की प्रतिष्ठा हुआ करते थे। अतः यह कहना कि सिर्फ मुसलमानों ने मंदिर तोड़े यह बचकाना बात है। मध्य काल में मंदिरो का तोड़ा जाना मुख्यतः आर्थिक कारण था न कि धार्मिक कारण।

खैर 1972 में स्थापित आईसीएचआर के पहले चेयरमैन प्रो0 रामशरण शमा्र के साथ इरफान हबीब, सव्यसाची भट्टाचार्य का ‘इतिहासबोध’ को दोराहे पर खड़ा कर दिया गया है। क्योंकि सुदर्शन राव ने इतिहास की धारा को ‘इतिहास जो है’ से ‘इतिहास जो हो सकता है’ की तरफ मोड़ने का प्रयास किया है। फिलहाल समाज और सरकारों को नहीं भूलना चाहिए कि यदि हम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलायेगें तो आने वाला भविष्य हम पर तोप से गोले दागेगा।

-अनिल यादव

धर्मनिरपेक्ष ‘महागठबंधन’ और साम्प्रदायिक गुथ्थीयां

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-राजीव यादव

"...जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि बिहार के नतीजे भाजपा को और तीखे ध्रुवीकरण की तरफ ले जाएंगे, जिसकी तस्दीक बिहार से आने वाली सांप्रदायिक तनाव की खबरें कर रही हैं। लालू-नितीश हों या फिर माया-मुलायम सबने जातीय अस्मिता व अवसरावादी गोलबंदी करते-करते ऐसा समाज रच डाला है। अब सिर्फ इनके ‘रिवाइवल’ या ‘सर्ववाइवल’ से अधिक इस बात की चिंता की जानी चाहिए कि यह अविश्वास का सांप्रदायिक ढांचा कैसे ढहेगा।..."

बिहार उपचुनाव में नीतीश-लालू के महागठबंधन को 6 सीटें और राजग को 4 सीटें मिलने के बाद पूरे देश में इस तरह के ‘गठबंधन’ बनने-बनाने का गुड़ा-भाग शुरु हो गया है। महागठबंधन को मिली सफलता से उत्साहित शरद यादव ने कहा कि ‘‘भाजपा को रोकने के लिए अगले चुनाव में अब देश भर में महागठबंधन करेंगे।’’ सांप्रदायिक ताकतों को शिकस्त देने वाले इस महागठबंधन पर इस बात को जेहन में रखना चाहिए कि इस महागठबंधन के दोनों मुस्लिम प्रत्याशियों नरकटिया गंज से कांग्रेस के फ़ख़रुद्दीन और बांका से राजद के इकबाल हुसैन अंसारी की हार हुई है। बांका में कड़ी टक्कर देते हुए इकबाल मात्र 711 मतों से हारे हैं पर इससे यह भी साफ है कि जातीय समीकरणों से ऊपर उठकर भाजपा को हिंदू वोट मिले हैं। महागठबंधन ने मुस्लिम वोटों को तो समेट लिया पर हिंदू वोटों को अब भी समेट नहीं पाया, जो एक जेहनियत है, जिससे लड़ने का वायदा महागठबंधन कर रहा है।


सामाजिक गठजोड़ के दबाव से बना राजनीतिक गठजोड़ तभी तक सत्ता के वर्चस्व को तोड़ पाएगा जब तक सामाजिक गठजोड़ बरकारार रह पाएगा। रही बात इस सामाजिक गठजोड़ की तो यह जातीय गिरोहबंदी है जो अभी कुछ ही महीने पहले ‘कम्युनल’ से ‘सेक्युलर’ हुआ है। बहरहाल, अभी ‘कमंडल’ से ‘मंडल’ बाहर नहीं निकल पाया है। नीतीश ने दलित-महादलित और पिछड़े-अति पिछड़े की जो रणनीतिक बिसात बिछाई उसके कुछ मोहरे अभी भी दूसरे खेमें में बने हैं। इसे मंडल का बिखराव भी कहा गया, जिसकी छीटें यूपी में भी पड़ीं। बिहार में जहां कुशवाहा व पासवान तो वहीं यूपी में पटेल, शाक्य, पासवान समेत अति पिछड़ी-दलित जातियां भगवा खेमें में चली गईं। पर ऐसा भी नहीं है कि इन जातियों के बल पर सिर्फ भाजपा मजबूत हुई। उदाहरण के तौर पर पटेल जाति के प्रभुत्व वाला अपना दल इसके पहले भी भाजपा से गठजोड़ कर चुका है। इसका अर्थ है कि बड़़ी संख्या में उन पिछड़ी जातियों का भी मत भाजपा में गया जिनके ऊपर अति पिछड़ी-दलित जातियों के हिस्से की भी मलाई खाने का आरोप था। 

यादव जाति के बाहुल्य व इस जाति के उत्तर प्रदेश के सबसे बड़े नेता मुलायम सिंह यादव के निर्वाचन क्षेत्र आजमगढ़ से इस ‘गणित’ को समझने की कोशिश की जा सकती है। इस निर्वाचन क्षेत्र के बारे में चैधरी चरण सिंह का कहना था कि अगर उन्हें अजमगढ़ और बागपत में चुनना होगा तो वह आजमगढ़ को चुनेंगे, फिलहाल मुलायम सिंह ने मैनपुरी को छोड़कर आजमगढ़ को चुना है। जब नरेन्द्र मोदी ने वाराणसी से लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला किया तो आजमगढ़ से सांप्रदायिक ताकतों को मुंहतोड़ जवाब देने के दावे के साथ मुलायम अखाड़े में उतर गए। मुलायम के ‘दाव’ और दावों का जब परिणाम आया तो पैरों तले की जमीन खिसक गई। सपा से ही कभी सांसद रहे तत्कालीन भाजपा सांसद रमाकांत यादव दूसरे स्थान पर रहे तो बसपा के शाहआलम तीसरे पर रहे। इस परिणाम ने जहां यह साफ किया कि प्रदेश के यादवों के सबसे बड़े नेता कहे जाने वाले मुलायम को एक यादव ने कड़ी टक्कर दी तो यहीं यह भी साफ हुआ की यादवों ने एक मुश्त वोट उन्हें नहीं दिया। वहीं तीसरे स्थान पर बसपा के शाहआलम का जाना यह साफ करता है कि उन्हें दलितों का वोट तो मिला पर मुसलमानों का नहीं क्योंकि अगर मुस्लिम वोट उन्हें मिलता तो मुलायम हार जाते। क्योंकि जहां मुस्लिम वोट 19 फीसदी है तो यादव 21 फीसदी है। ऐसे में मुस्लिमों ने तो मुलायम को वोट दिया पर उनकी अपनी ही जाति ने खुलकर ऐसा नहीं किया। ठीक इसी तरह जहां-जहां मुस्लिम प्रत्याशी रहे वहां कुछ ज्यादा ही ‘जातिगत और सामाजिक समीकरणों’ से ऊपर उठकर मताधिकार किया गया। जिसका परिणाम संसद में उनकी कम संख्या है।

लोकसभा की चुनावी हार के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश में राष्ट्रीय लोकदल ने मेरठ को केन्द्र बनाकर अब जाट-मुस्लिम गठजोड़ के भरोसे न रहते हुए अतिपिछड़ों व अतिदलितों को जोड़ने की बात कही है। निःसदेह अतिपिछड़ी व अतिदलित जातियों को जोड़ा जाए पर इस गठजोड़ का आधार क्या होगा इसको भी स्पष्ट किया जाना जरूरी है। क्योंकि पश्चिमी यूपी में जो ‘सांप्रदायिक गोलबंदी’ हुई है, उसमें बह जाने का खतरा भी कम नहीं है। यह हालत सिर्फ यहीं नहीं बल्कि पूरे प्रदेश में है, मुलायम का गढ़ माने जाने वाली मैनपुरी के अलीपुर खेड़ा कस्बा हो या फिर अवध का फैजाबाद या शाहजहांपुर।

मुख्यमंत्री अखिलेश यादव सांप्रदायिकता फैलाने वालों से जरुर पूंछे कि ‘क्या मोहब्बत पर पाबंदी लगा दी जाएगी’ पर इस बात का भी पुख्ता इंतजाम करें कि सांप्रदायिक अफवाह तंत्र का खात्मा होगा। मेरठ जिसे ‘लव जिहाद’ व धर्मांतरण की प्रयोगशाला बताया जा रहा है वहां इस साल बलात्कार के 37 मामले आए हैं जिनमें 7 में आरोपी मुस्लिम हैं और 30 में हिंदू हैं। ठीक इसी तरह मेरठ जोन के मेरठ, बुलंदशहर, गाजियाबाद, गौतम बुद्ध नगर, बागपत, हापुड़, सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और शामली में 334 बलात्कार के मामले सामने आए हैं। जिनमें 25 में आरोपी मुस्लिम और स्त्री हिंदू, 23 में आरोपी हिंदू और स्त्री मुस्लिम, 96 में दोनों मुस्लिम और 190 में दोनों हिंदू हैं। इस तरह देखा जाए तो यूपी में निःसदेह सरकार महिला हिंसा रोकने में विफल है पर स्त्री हिंदू या मुस्लिम से नहीं बल्कि अपने ही समाज के पुरुषों से ज्यादा उत्पीडि़त है।

जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक भी मान रहे हैं कि बिहार के नतीजे भाजपा को और तीखे ध्रुवीकरण की तरफ ले जाएंगे, जिसकी तस्दीक बिहार से आने वाली सांप्रदायिक तनाव की खबरें कर रही हैं। लालू-नितीश हों या फिर माया-मुलायम सबने जातीय अस्मिता व अवसरावादी गोलबंदी करते-करते ऐसा समाज रच डाला है। अब सिर्फ इनके ‘रिवाइवल’ या ‘सर्ववाइवल’ से अधिक इस बात की चिंता की जानी चाहिए कि यह अविश्वास का सांप्रदायिक ढांचा कैसे ढहेगा। क्योंकि जातियों का जो स्ट्रक्चर है वह धर्म से निकलता है और वहीं समाहित हो जाता है। इसीलिए इनकी अपनी ही जातियां ‘लव जिहाद’ जैसे हिंदुत्ववाद प्रचार के प्रभाव में आकर इनसे बिखर जाती हैं।

आने वाले दौर में अगर सांप्रदायिकता जैसे सवालों को हल नहीं किया गया तो फिर जो मुस्लिम इसे रोकने के नाम पर वोट देता है वह भी अपने और पराए का निर्णय समुदाय के आधार पर लेने लगेगा तो न तो यह कथित धर्म निरपेक्ष पार्टियां बचेंगी बल्कि धर्म निरपेक्षता भी संकट में आ जाएगी। सिर्फ यह कह देने से कि मुस्लिमों ने हमें वोट नहीं दिया इसलिए हार हुई, नहीं चलेगा। क्योंकि भाजपा की जीत ने अल्पसंख्यक वोट बैंक को नकारते हुए बहुंख्यक के बल पर सत्ता हासिल की है। ऐसे में सामाजिक न्याय के पैरोकार बहुसंख्यक को अपने पाले में लाकर दिखाएं। बिहार उपचुनाव में 10 में से महागठबंधन के 4 व भाजपा के एक सवर्ण प्रत्याशी की जीत हुई है। ऐसे में क्या यह कहा जा सकता है कि जिस तरह से महागठबंधन के सवर्ण प्रत्याशी के पक्ष में पिछड़ों-अतिपिछड़ों, दलित-महादलित और मुस्लिमों के मत पड़े हैं, क्या सवर्ण मतदाता भविष्य में इन समाज से जुड़े महागठबंधन प्रत्याशियों को अपना मत देगा? जो भी हो पर चुनाव के ऐन पहले ‘कम्युनल’ से ‘सेक्युलर’ बनाने का सर्टीफीकेट बांटना बंद करना होगा,  क्योंकि इससे धर्मनिरपेक्षता आहत होती है।
राजीव यादव
संपर्क-  media.rajeev@gmail.com

'मुजफ्फरनगर कांड'का भी एक 2 अक्टूबर है

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Indresh Maikhuri
इन्द्रेश मैखुरी
-इन्द्रेश मैखुरी

"...जस्टिस रवि एस. धवन ने मुजफ्फरनगर काण्ड को राज्य का आतंकवाद करार दिया.जस्टिस ए.बी.श्रीवास्तव ने लिखा कि “महिलाओं का शीलभंग करना,बलात्कार करना,महिलाओं के गहने और अन्य सामान लूटना,वहशीपन की निशानी है जो कि आदिम पुरुषों में भी नहीं पायी जाती थी और यह देश के चेहरे पर एक स्थायी धब्बे की तरह रहेगा.”यह धब्बा आज भी धुला नहीं और पीड़ितों को न्याय की दरकार है,न्याय का इन्तजार है पर न्याय की उम्मीद नजर नहीं आती है..."


जोघाव लगे और जाने गयीं वे प्रतिरोध की राजनीति की कीमत थी” 1996 में इलाहबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति रवि एस.धवन ने अपने फैसले में लिखा. जिस सन्दर्भ में वे इस बात को लिख रहे थे,उस बात को आज 2 अक्टूबर 2014 को बीस साल हो गए हैं. आज से बीस वर्ष पहले 2 अक्तूबर 1994 को केंद्र में बैठी “मौनी बाबा” नरसिम्हा राव की सरकार से अलग राज्य की मांग करने दिल्ली जा रहे उत्तराखंड आन्दोलनकारियों को उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार के पुलिस प्रशासन ने मुजफ्फरनगर में तलाशी के बहाने रोका और फिर हत्या, लूटपाट,महिलाओं से अभद्रता और बलात्कार यानि जो कुछ भी गुंडे-बदमाश या कुंठित-विकृत मानसिकता के अपराधी कर सकते थे,वो सब देश की सर्वोच्च प्रशासनिक व पुलिस सेवा-आई.ए.एस. और आई.पी.एस. के अफसरों की अगवाई में किया गया.



आज बीस बरस बाद भी उत्तराखंड को इन्तजार है कि इन हत्यारे,बलात्कारी अफसरों और अन्य कर्मियों को सजा मिले.चूँकि उत्तराखंड को आज भी मुजफ्फरनगर काण्ड के मामले में अभी भी न्याय की दरकार है,इसलिए उस जघन्य काण्ड को मैं न्यायपालिका के कुछ फैसलों के नजरिये से याद करने की कोशिश करता हूँ.मुजफ्फरनगर काण्ड के खिलाफ यदि कोई सबसे सशक्त फैसला था तो वो 6 फ़रवरी 1996 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ती रवि एस.धवन और ए.बी.श्रीवास्तव की खंडपीठ ने दिया.273 पेजों के इस फैसले में इन दोनों न्यायाधीशों ने इस प्रशासनिक अपराध के प्रति बेहद कठोर रुख अपनाया और पीड़ित उत्तराखंडी स्त्री-पुरुषों के प्रति इनका रवैया बेहद संवेदनशील था.दोनों न्यायाधीशों ने अलग-अलग फैसला भी लिखा और उनकी खंडपीठ ने संयुक्त निर्देश भी जारी किये.

जस्टिस रवि एस. धवन ने मुजफ्फरनगर काण्ड को राज्य का आतंकवाद करार दिया.जस्टिस ए.बी.श्रीवास्तव ने लिखा कि “महिलाओं का शीलभंग करना,बलात्कार करना,महिलाओं के गहने और अन्य सामान लूटना,वहशीपन की निशानी है जो कि आदिम पुरुषों में भी नहीं पायी जाती थी और यह देश के चेहरे पर एक स्थायी धब्बे की तरह रहेगा.”यह धब्बा आज भी धुला नहीं और पीड़ितों को न्याय की दरकार है,न्याय का इन्तजार है पर न्याय की उम्मीद नजर नहीं आती है. इलाहाबाद उच्च नयायालय ने ही इस काण्ड की सी.बी.आई.जांच का आदेश भी दिया.उक्त फैसले में सी.बी.आई. की कार्यप्रणाली की तीखी आलोचना की गयी है कि वह जानबूझ कर मामले को लटका रही है.अदालत ने लिखा कि सी.बी.आई. ने इस मामले में जिस तरह कार्यवाही की,उससे “समय और सबूत दोनों नष्ट” हो गए.आज बीस साल बाद सी.बी.आई. की अदालतों में लंबित मुकदमों और एक-एक कर छूटते अभियुक्तों,तरक्की पाते और शान से रिटायरमेंट के बाद का जीवन गुजारते मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषी अफसरों को देख कर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की बात सच होती प्रतीत हो रही है कि सी.बी.आई. की रूचि दोषी अफसरों को सजा दिलाने में नहीं है.इलाहाबाद उच्च  न्यायालय के उक्त फैसले में पुलिस की गोलीबारी में मरने वालों और बलात्कार की शिकार महिलाओं को 10 लाख रूपया मुआवजा देने का आदेश किया किया गया.साथ ही घायलों को 25 हज़ार,गंभीर रूप से घायलों को 2.5 लाख और अवैध रूप से बंदी बनाये जाने वालों को 50 हज़ार रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया गया था.उत्तराखंड की तब की 60 लाख जनसँख्या के लिए अदालत ने आदेश किया था कि पांच साल तक एक रुपाया,प्रति व्यक्ति,प्रति माह केंद्र और राज्य मिलकर जमा करें और इस राशि को उत्तराखंड के लोगों विशेषतौर पर महिलाओं के विकास के लिए खर्च किया जाए.अदालत ने इसे उत्तराखंडियों के घावों पर मरहम लगाने के छोटी विनम्र कोशिश कहा था.

1999 में 273 पन्नों के उक्त फैसले को मुजफ्फरनगर काण्ड के समय वहां के डी.एम.रहे अनंत कुमार सिंह की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने कुछ किन्तु-परन्तु लगा कर खारिज कर दिया.अनंत कुमार सिंह ने ही आन्दोलनकारियों पर गोली चलाने का आदेश दिया था और बाद में यह शर्मनाक बयान भी उन्ही का था कि “कोई महिला यदि रात के समय गन्ने के खेत में अकेली जायेगी तो उसके साथ ऐसा ही होगा”.ये अनंत कुमार सिंह ना केवल सपा,बसपा बल्कि कांग्रेस,भाजपा को भी अत्यधिक प्रिय रहे हैं.मुख्यमंत्री रहते हुए वर्तमान गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने अनंत कुमार सिंह के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने से इन्कार कर दिया और इन्हें प्रमोशन देकर अपना प्रमुख सचिव बनाया.केंद्र की पिछले कांग्रेस सरकार के दौरान अनंत कुमार सिंह केंद्र सरकार में सचिव पद पर आरूढ़ हो चुके थे.

अदालती फैसलों की श्रंखला में 2003 में अजब-गजब तो नैनीताल उच्च न्यायलय में हुआ. न्याय की मूर्ती एम.एम.घिल्डियाल और पी.सी.वर्मा ने मुजफ्फरनगर काण्ड के आरोपियों अनंत कुमार सिंह आदि को बरी कर दिया.इसके खिलाफ प्रदेश भर में तूफ़ान खड़ा हो गया.आन्दोलनकारियों ने हाई कोर्ट के घेराव का ऐलान कर दिया.1 सितम्बर 2003 को होने वाले इस घेराव के एक दिन पहले उक्त दोनों न्याय की मूर्तियों ने अपना फैसला यह कहते वापस ले लिया कि अदालत के संज्ञान में यह बात नहीं थी कि 1994 में एम.एम.घिल्डियाल उत्तराखंड संयुक्त संघर्ष समिति के वकील रहे थे और अब वे उसी मामले में फैसला सुना रहे हैं.यह विचित्र था क्यूंकि किसको मालूम नहीं था,यह तथ्य-स्वयं एम.एम.घिल्डियाल को?बहरहाल जनता के घेराव के दबाव में अदालत द्वारा अपना फैसला वापस लेने की यह अनूठी मिसाल है.

लेकिन इतने कानूनी दांवपेंच के बावजूद भी उत्तराखंड के सीने पर मुजफ्फरनगर काण्ड के घाव हरे हैं.उत्तराखंड में कांग्रेस-भाजपा के नेता सत्तासीन होने के लिए अपनी पार्टियों के भीतर सिर-फुट्टवल मचाये हुए हैं.लेकिन जिनकी शहादतों और कुर्बानियों के चलते वे सत्ता सुख भोगने के काबिल हुए,उनको न्याय दिलाना सत्ता के लिए मर मिटने वालों के एजेंडे में नहीं है.इलाहबाद उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में लिखा था कि “भारत के संविधान की यह अपेक्षा है कि हम एक लोकतान्त्रिक लोकतंत्र चलायें,एक जनवादी जनतंत्र चलायें ना कि पिलपिला लोकतंत्र(banana republic) या तानाशाही हुकूमत.”लेकिन उत्तराखंड ही क्यूँ देश के कई हिस्सों में न्याय,लोकतंत्र और संविधान का यह तकाजा पूरा होना बाकी है.

मुजफ्फरनगर काण्ड के दोषियों को बीस वर्ष बाद भी सजा ना मिलना अंग्रेजी नाटककार जॉन गाल्सवर्दी के इस प्रसिद्द कथन को ही सच सिद्ध करता है कि “न्याय देने में विलम्ब करना,न्याय देने से इनकार करना है(justice delayed is justice denied)”.खटीमा,मसूरी,मुजफ्फरनगर काण्ड आदि दमन कांडों के दोषियों को बीस बरस बाद भी सजा ना मिल पाना,हमको न्याय देने से इनकार ही तो है.     

इन्द्रेश 'आइसा' के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं 
 भाकपा-माले के सक्रीय कार्यकर्ता हैं. 
संपर्क- indresh.aisa@gmail.com 
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