-अभिषेक श्रीवास्तव
पिछले महीने मीडिया में लीक हुई एक 'खुफिया'रिपोर्ट में भारत की इंटेलिजेंस ब्यूरो ने कुछ व्यक्तियों और संस्थाओं के ऊपर विदेशी धन लेकर देश में विकास परियोजनाओं को बाधित करने का आरोप लगाया था। इसमें ग्रीनपीस नामक एनजीओ द्वारा सिंगरौली में एस्सार-हिंडाल्को की महान कोल कंपनी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन का भी जि़क्र था। आज़ादी के बाद सिंगरौली के विकास की पूरी कहानी विश्व बैंक और अन्य विदेशी दानदाताओं के पैसे से लगी सरकारी परियोजनाओं के कारण मची व्यापक तबाही व विस्थापन के कई अध्याय संजोए हुए है।
जहां छह दशक से विकास के नाम पर विदेशी पैसे से सिर्फ विनाशलीला को सरकारें अंजाम दे रही हों, वहां विकास के इस विनाशक मॉडल के खिलाफ बोलने वाला कोई संस्थान या व्यक्ति खुद विकास विरोधी कैसे हो सकता है? जो सरकारें सिंगरौली में कोयला खदानों व पावर प्लांटों के लिए विश्व बैंक व एडीबी से पैसा लेने में नहीं हिचकती हो, उन्हें जनता के हित में बात करने वाले किसी संगठन के विदेशी अनुदान पर सवाल उठाने का क्या हक है?
विकास के मॉडल पर मौजूदा बहस को और साफ़ करने के लिहाज से इन सवालों की ज़मीनी पड़ताल करती अभिषेक श्रीवास्तव की यह रिपोर्ट, हम पाठकों के लिए 4 किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं, ताकि वे जान सकें कि मानव विकास के असली विरोधी कौन हैं और सरकार जिस विकास की बात करती है, उसका असल मतलब क्या है। पहलीऔर दूसरीके बाद अब ये-
-तीसरी किस्त-
अविश्वास की ज़मीन
सिंगरौली का इलाका बहुत पिछड़ा और सामंती रहा है। यहां हमेशा से ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्व रहा है। लोगों की मानें तो अब भी ऐसे गांव यहां पर हैं जहां कोई निचली जाति का दूल्हा अपने पैरों में चप्पल पहन कर गांव के रास्ते से नहीं जा सकता। यह बात अलग है कि अधिकतर आदिवासी बहुल गांवों में ऊंची जातियों की संख्या नगण्य रही है, मसलन अमिलिया में ज्यादा आबादी खैरवार, यादव, गोंड, साकेत और चार बैगा परिवारों से मिलकर बनी है जबकि राजपूत और ब्राह्मणों के दो-चार परिवार हैं। फिर भी यहां के सरपंच संतोष सिंह हैं जो कि राजपूत हैं और महान कंपनी के हमदर्द हैं। इसी तरह बुधेर गांव में सिर्फ एक ब्राह्मण परिवार है और ज्यादातर यादव हैं। कंपनियों को यहां पैर जमाने में इसलिए आसानी हुई क्योंकि ऊंची जातियां स्वाभाविक रूप से उनकी सहायक बन गईं। अमिलिया गांव में करीब 75 फीसदी लोगों ने एस्सार-हिंडाल्को को अपनी ज़मीन नहीं दी है, फिर भी दबाव के तहत 345 एकड़ की रजिस्ट्री कंपनी के नाम हो चुकी है। नतीजा यह हुआ है कि गांव की आबादी दो हिस्सों में बंट गई है। एक वे जिन्होंने कंपनी को ज़मीन लिखवाई है और दूसरे वे जिन्होंने अपनी ज़मीनें देने से इनकार कर दिया है। इसकी स्वाभाविक परिणति यह हुई है कि ज़मीन न देने वालों ने जहां महान संघर्ष समिति बनाकर लड़ाई शुरू की, उसके उलट कंपनी के हमदर्द लोगों ने महान बचाओ समिति बना ली। संघर्ष समिति के कृपा यादव बताते हैं कि महान बचाओ समिति में सब कंपनी के लोग हैं और वे लोग हमेशा संघर्ष समिति के कार्यक्रमों से उलट अपने कार्यक्रम करते हैं व गांव वालों को बहकाते हैं।
संघर्षसमिति के सदस्य विजय शंकर सिंह अपने संदर्भ में कहते हैं, ''ये बात तो ठीक है कि ब्राह्मण-राजपूत कंपनी के साथ हैं, लेकिन सब नहीं हैं। जो गरीब होगा वो कंपनी के साथ क्यों जाएगा। इससे क्या फर्क पड़ता है कि हम राजपूत हैं, लेकिन हम ता कंपनी के खिलाफ ही हैं।''शहर में मेरी जिन लोगों और कार्यकर्ताओं से बात हुई, सबकी बातचीत में अपने आप ''ब्राह्मण-ठाकुर''का जिक्र एक न एक बार ज़रूर आया। सीपीएम के गुप्ताजी के मुताबिक ऊंची जातियों ने अपने स्वार्थ में पूंजी का दामन थाम लिया है और आज की स्थिति ऐसी है कि सिंगरौली के परियोजना क्षेत्र वाले गांवों में वर्ग विभाजन और जाति विभाजन दोनों ही एक साथ एक ही पैटर्न पर देखने में आ रहा है। जो कंपनी के खिलाफ है, वह अनिवार्यत: गरीब और निचली जाति का है।
जाति का यह ज़हर सिर्फ सामान्य लोगों में ही व्याप्त नहीं है बल्कि लंबे समय से आंदोलन कर रहे यहां के कथित आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं के बीच भी अपनी-अपनी जातियों के हिसाब से कंपनी से दूरी या निकटता बनाने की प्रवृत्ति मौजूद है। एक कार्यकर्ता नाम गिनवाते हुए बताते हैं कि पिछले बीसेक साल में जिन लोगों के हाथों में यहां के मजदूरों-किसानों के संघर्ष की कमान रही, उन्होंने कैसे आखिरी मौके पर अपनी ऊंची जाति का लाभ लेते हुए कंपनियों से डील कर ली।
रविशेखर बताते हैं, ''इसी का नतीजा है कि आज सिंगरौली में जब कोई नया चेहरा दिखता है तो सबसे पहले लोगों के दिमाग में यही खयाल आता है कि आया है तो दो अटैची लेकर ही जाएगा।''पिछले वर्षों में जिस कदर यहां पैसा आया है और बंटा है, उसने सामान्य और सहज मानवीय बोध को ही चोट पहुंचाई है। बैढ़न में राजीव गांधी चौक पर समोसे की दुकान के बगल में पहली शाम जब कुछ लोगों से मिलने हम पहुंचे, तो मेरे कुछ पूछने पर जवाब देने से पहले ही मेरे सामने ऐसा ही एक सवाल उछल कर आया, ''पहले ये बताइए कि किसके यहां से आए हैं। क्यों आए हैं।''अपने बारे में बताने पर टका सा जवाब मिला, ''ठीक है, बहुत पत्रकार यहां आते हैं और झोला भरकर ले जाते हैं। आप बुरा मत मानिएगा। यहां का कुछ नहीं हो सकता। आए हैं तो अपना काम बनाकर निकल लीजिए।''
लोगयहां धीरे-धीरे खुलते हैं। आसानी से उन्हें किसी पर भरोसा नहीं होता। उनका भरोसा कई बार तोड़ा जो गया है। सवाल सिर्फ घरबार, पुनर्वास और नौकरी का नहीं है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी दिलचस्प होगा। सिंगरौली में जब एनटीपीसी लगा था, तो कहा गया था कि परियोजना क्षेत्र के आठ किलोमीटर के भीतर बिजली मुफ्त दी जाएगी। कई साल तक ऐसा नहीं हो सका। उसके बाद नियमों में बदलाव कर के आठ को पांच किलोमीटर कर दिया गया। फिर भी यह लागू नहीं किया जा सका। फिर मध्यप्रदेश सरकार ने अपनी मांग बताई, तो एनटीपीसी ने कहा कि हम तो 32 मेगावाट ही दे सकते हैं। यह मांग से काफी कम मात्रा थी। आज तक यह ''नियम''सिंगरौली में लागू नहीं हो सका है और इसका सबसे बड़ा प्रहसन यह यह कि सामान्य लोगों के बिजली के बिल इस बार 2000 से 65000 रुपये तक आए हैं। लोग अब ऐसी बातों पर हंसते हैं और हंस कर टाल देते हैं।
कुछनई चीज़ों पर लोगों को भरोसा कायम हुआ था। पता चला कि उसे भी देर-सबेर टूटना ही था। मसलन, एक स्थानीय महिला हैं मंजू जी, जो एनटीपीसी विंध्यनगर की पुनर्वास कॉलोनी नवजीवन विहार में 40 बटा 60 के प्लॉट में रहती हैं। बिहार के वैशाली की रहने वाली हैं। इन्होंने पिछले दो दशक की अपनी सिंगरौली रिहाइश में विस्थापन का दंश झेला है लेकिन अपनी मेहनत और समझ बूझ के चलते आज सामान्य खुशहाल जीवन बिता रही हैं। वे आजकल सरकारी स्कूलों में मिड डे मील की आपूर्ति करती हैं। खाना घर की औरतें ही मिल कर बनाती हैं जिससे बाहरी रसोइये का खर्चा बचता है और उनकी बच्ची को अच्छी शिक्षा हासिल होती है। मंजू करीब एक दशक तक समाजवादी पार्टी से जुड़ी रही थीं, लेकिन उन्हें आम आदमी पार्टी में इस बार नई उम्मीद दिखी थी। उन्होंने आम आदमी पार्टी की तरफ से इलाके में काफी सामाजिक काम किया और जब चुनाव का वक्त आया तो नियम के मुताबिक पर्याप्त प्रस्तावकों के दस्तखत लेकर पार्टी मुख्यालय में उम्मीदवारी के लिए भेज दिया। अपेक्षा से उलट संसदीय चुनावों में यहां से उम्मीदवार पंकज सिंह को बना दिया गया जो ग्रीनपीस से जुड़े रहे थे।
मंजू हंसते हुए कहती हैं, ''पता नहीं क्या हुआ, समझ में ही नहीं आया। अब तो चुनाव के बाद कुछ पता ही नहीं चल रहा है कि पार्टी है भी या नहीं। पंकज भी कई दिनों से नहीं दिखे हैं।''उन्हें टिकट क्यों नहीं मिला, इस बारे में पूछने पर वे कहती हैं, ''सब जगह तो देखिए रहे हैं कि टिकट किसको मिला। हस्ताक्षर करवाने वाला मामला तो बस दिखाने के लिए कि पार्टी में लोकतंत्र है। मेहनत हम लोगों से करवाया और उम्मीदवार ऊपर से गिरा दिया।''उधर पंकज सिंह, जो ग्रीनपीस की नौकरी छोड़ने के बाद चुनाव प्रचार के लिए बैढ़न में जहां एक मकान में किराये पर रह रहे थे, अब वे वहां नहीं रहते। मकान कई दिनों से बंद पड़ा है।
(...जारी)
( 'जनपथ' से साभार )
अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं.
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम
संपर्क - guruabhishek@gmail.com