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सिंगरौली: इंसान और ईमान का नरक कुंड-3

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-अभिषेक श्रीवास्‍तव
पिछले महीने मीडिया में लीक हुई एक 'खुफिया'रिपोर्ट में भारत की इंटेलिजेंस ब्‍यूरो ने कुछ व्‍यक्तियों और संस्‍थाओं के ऊपर विदेशी धन लेकर देश में विकास परियोजनाओं को बाधित करने का आरोप लगाया था। इसमें ग्रीनपीस नामक एनजीओ द्वारा सिंगरौली में एस्‍सार-हिंडाल्‍को की महान कोल कंपनी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन का भी जि़क्र था। आज़ादी के बाद सिंगरौली के विकास की पूरी कहानी विश्‍व बैंक और अन्‍य विदेशी दानदाताओं के पैसे से लगी सरकारी परियोजनाओं के कारण मची व्‍यापक तबाही व विस्‍थापन के कई अध्‍याय संजोए हुए है। 
जहां छह दशक से विकास के नाम पर विदेशी पैसे से सिर्फ विनाशलीला को सरकारें अंजाम दे रही हों, वहां विकास के इस विनाशक मॉडल के खिलाफ बोलने वाला कोई संस्‍थान या व्‍यक्ति खुद विकास विरोधी कैसे हो सकता है? जो सरकारें सिंगरौली में कोयला खदानों व पावर प्‍लांटों के लिए विश्‍व बैंक व एडीबी से पैसा लेने में नहीं हिचकती हो, उन्‍हें जनता के हित में बात करने वाले किसी संगठन के विदेशी अनुदान पर सवाल उठाने का क्‍या हक है? 
विकास के मॉडल पर मौजूदा बहस को और साफ़ करने के लिहाज से इन सवालों की ज़मीनी पड़ताल करती अभिषेक श्रीवास्‍तव की यह रिपोर्ट, हम पाठकों के लिए 4 किस्‍तों में प्रस्‍तुत कर रहे हैं, ताकि वे जान सकें कि मानव विकास के असली विरोधी कौन हैं और सरकार जिस विकास की बात करती है, उसका असल मतलब क्‍या है।  पहलीऔर दूसरीके बाद अब ये-
-तीसरी किस्‍त- 

अविश्‍वास की ज़मीन  

सिंगरौली का इलाका बहुत पिछड़ा और सामंती रहा है। यहां हमेशा से ब्राह्मणों और राजपूतों का वर्चस्‍व रहा है। लोगों की मानें तो अब भी ऐसे गांव यहां पर हैं जहां कोई निचली जाति का दूल्‍हा अपने पैरों में चप्‍पल पहन कर गांव के रास्‍ते से नहीं जा सकता। यह बात अलग है कि अधिकतर आदिवासी बहुल गांवों में ऊंची जातियों की संख्‍या नगण्‍य रही है, मसलन अमिलिया में ज्‍यादा आबादी खैरवार, यादव, गोंड, साकेत और चार बैगा परिवारों से मिलकर बनी है जबकि राजपूत और ब्राह्मणों के दो-चार परिवार हैं। फिर भी यहां के सरपंच संतोष सिंह हैं जो कि राजपूत हैं और महान कंपनी के हमदर्द हैं। इसी तरह बुधेर गांव में सिर्फ एक ब्राह्मण परिवार है और ज्‍यादातर यादव हैं। कंपनियों को यहां पैर जमाने में इसलिए आसानी हुई क्‍योंकि ऊंची जातियां स्‍वाभाविक रूप से उनकी सहायक बन गईं। अमिलिया गांव में करीब 75 फीसदी लोगों ने एस्‍सार-हिंडाल्‍को को अपनी ज़मीन नहीं दी है, फिर भी दबाव के तहत 345 एकड़ की रजिस्‍ट्री कंपनी के नाम हो चुकी है। नतीजा यह हुआ है कि गांव की आबादी दो हिस्‍सों में बंट गई है। एक वे जिन्‍होंने कंपनी को ज़मीन लिखवाई है और दूसरे वे जिन्‍होंने अपनी ज़मीनें देने से इनकार कर दिया है। इसकी स्‍वाभाविक परिणति यह हुई है कि ज़मीन न देने वालों ने जहां महान संघर्ष समिति बनाकर लड़ाई शुरू की, उसके उलट कंपनी के हमदर्द लोगों ने महान बचाओ समिति बना ली। संघर्ष समिति के कृपा यादव बताते हैं कि महान बचाओ समिति में सब कंपनी के लोग हैं और वे लोग हमेशा संघर्ष समिति के कार्यक्रमों से उलट अपने कार्यक्रम करते हैं व गांव वालों को बहकाते हैं।

संघर्षसमिति के सदस्‍य विजय शंकर सिंह अपने संदर्भ में कहते हैं, ''ये बात तो ठीक है कि ब्राह्मण-राजपूत कंपनी के साथ हैं, लेकिन सब नहीं हैं। जो गरीब होगा वो कंपनी के साथ क्‍यों जाएगा। इससे क्‍या फर्क पड़ता है कि हम राजपूत हैं, लेकिन हम ता कंपनी के खिलाफ ही हैं।''शहर में मेरी जिन लोगों और कार्यकर्ताओं से बात हुई, सबकी बातचीत में अपने आप ''ब्राह्मण-ठाकुर''का जिक्र एक न एक बार ज़रूर आया। सीपीएम के गुप्‍ताजी के मुताबिक ऊंची जातियों ने अपने स्‍वार्थ में पूंजी का दामन थाम लिया है और आज की स्थिति ऐसी है कि सिंगरौली के परियोजना क्षेत्र वाले गांवों में वर्ग विभाजन और जाति विभाजन दोनों ही एक साथ एक ही पैटर्न पर देखने में आ रहा है। जो कंपनी के खिलाफ है, वह अनिवार्यत: गरीब और निचली जाति का है।

जाति का यह ज़हर सिर्फ सामान्‍य लोगों में ही व्‍याप्‍त नहीं है बल्कि लंबे समय से आंदोलन कर रहे यहां के कथित आंदोलनकारी कार्यकर्ताओं के बीच भी अपनी-अपनी जातियों के हिसाब से कंपनी से दूरी या निकटता बनाने की प्रवृत्ति मौजूद है। एक कार्यकर्ता नाम गिनवाते हुए बताते हैं कि पिछले बीसेक साल में जिन लोगों के हाथों में यहां के मजदूरों-किसानों के संघर्ष की कमान रही, उन्‍होंने कैसे आखिरी मौके पर अपनी ऊंची जाति का लाभ लेते हुए कंपनियों से डील कर ली।

रविशेखर बताते हैं, ''इसी का नतीजा है कि आज सिंगरौली में जब कोई नया चेहरा दिखता है तो सबसे पहले लोगों के दिमाग में यही खयाल आता है कि आया है तो दो अटैची लेकर ही जाएगा।''पिछले वर्षों में जिस कदर यहां पैसा आया है और बंटा है, उसने सामान्‍य और सहज मानवीय बोध को ही चोट पहुंचाई है। बैढ़न में राजीव गांधी चौक पर समोसे की दुकान के बगल में पहली शाम जब कुछ लोगों से मिलने हम पहुंचे, तो मेरे कुछ पूछने पर जवाब देने से पहले ही मेरे सामने ऐसा ही एक सवाल उछल कर आया, ''पहले ये बताइए कि किसके यहां से आए हैं। क्‍यों आए हैं।''अपने बारे में बताने पर टका सा जवाब मिला, ''ठीक है, बहुत पत्रकार यहां आते हैं और झोला भरकर ले जाते हैं। आप बुरा मत मानिएगा। यहां का कुछ नहीं हो सकता। आए हैं तो अपना काम बनाकर निकल लीजिए।''    

लोगयहां धीरे-धीरे खुलते हैं। आसानी से उन्‍हें किसी पर भरोसा नहीं होता। उनका भरोसा कई बार तोड़ा जो गया है। सवाल सिर्फ घरबार, पुनर्वास और नौकरी का नहीं है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण काफी दिलचस्‍प होगा। सिंगरौली में जब एनटीपीसी लगा था, तो कहा गया था कि परियोजना क्षेत्र के आठ किलोमीटर के भीतर बिजली मुफ्त दी जाएगी। कई साल तक ऐसा नहीं हो सका। उसके बाद नियमों में बदलाव कर के आठ को पांच किलोमीटर कर दिया गया। फिर भी यह लागू नहीं किया जा सका। फिर मध्‍यप्रदेश सरकार ने अपनी मांग बताई, तो एनटीपीसी ने कहा कि हम तो 32 मेगावाट ही दे सकते हैं। यह मांग से काफी कम मात्रा थी। आज तक यह ''नियम''सिंगरौली में लागू नहीं हो सका है और इसका सबसे बड़ा प्रहसन यह यह कि सामान्‍य लोगों के बिजली के बिल इस बार 2000 से 65000 रुपये तक आए हैं। लोग अब ऐसी बातों पर हंसते हैं और हंस कर टाल देते हैं।   

कुछनई चीज़ों पर लोगों को भरोसा कायम हुआ था। पता चला कि उसे भी देर-सबेर टूटना ही था। मसलन, एक स्‍थानीय महिला हैं मंजू जी, जो एनटीपीसी विंध्‍यनगर की पुनर्वास कॉलोनी नवजीवन विहार में 40 बटा 60 के प्‍लॉट में रहती हैं। बिहार के वैशाली की रहने वाली हैं। इन्‍होंने पिछले दो दशक की अपनी सिंगरौली रिहाइश में विस्‍थापन का दंश झेला है लेकिन अपनी मेहनत और समझ बूझ के चलते आज सामान्‍य खुशहाल जीवन बिता रही हैं। वे आजकल सरकारी स्‍कूलों में मिड डे मील की आपूर्ति करती हैं। खाना घर की औरतें ही मिल कर बनाती हैं जिससे बाहरी रसोइये का खर्चा बचता है और उनकी बच्‍ची को अच्‍छी शिक्षा हासिल होती है। मंजू करीब एक दशक तक समाजवादी पार्टी से जुड़ी रही थीं, लेकिन उन्‍हें आम आदमी पार्टी में इस बार नई उम्‍मीद दिखी थी। उन्‍होंने आम आदमी पार्टी की तरफ से इलाके में काफी सामाजिक काम किया और जब चुनाव का वक्‍त आया तो नियम के मुताबिक पर्याप्‍त प्रस्‍तावकों के दस्‍तखत लेकर पार्टी मुख्‍यालय में उम्‍मीदवारी के लिए भेज दिया। अपेक्षा से उलट संसदीय चुनावों में यहां से उम्‍मीदवार पंकज सिंह को बना दिया गया जो ग्रीनपीस से जुड़े रहे थे।

मंजू हंसते हुए कहती हैं, ''पता नहीं क्‍या हुआ, समझ में ही नहीं आया। अब तो चुनाव के बाद कुछ पता ही नहीं चल रहा है कि पार्टी है भी या नहीं। पंकज भी कई दिनों से नहीं दिखे हैं।''उन्‍हें टिकट क्‍यों नहीं मिला, इस बारे में पूछने पर वे कहती हैं, ''सब जगह तो देखिए रहे हैं कि टिकट किसको मिला। हस्‍ताक्षर करवाने वाला मामला तो बस दिखाने के लिए कि पार्टी में लोकतंत्र है। मेहनत हम लोगों से करवाया और उम्‍मीदवार ऊपर से गिरा दिया।''उधर पंकज सिंह, जो ग्रीनपीस की नौकरी छोड़ने के बाद चुनाव प्रचार के लिए बैढ़न में जहां एक मकान में किराये पर रह रहे थे, अब वे वहां नहीं रहते। म‍कान कई दिनों से बंद पड़ा है। 

(...जारी)

( 'जनपथ' से साभार )




अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम 
 संपर्क - guruabhishek@gmail.com

सिंगरौली: इंसान और ईमान का नरक कुंड - आखिरी किस्‍त

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-अभिषेक श्रीवास्‍तव
पिछले महीने मीडिया में लीक हुई एक 'खुफिया'रिपोर्ट में भारत की इंटेलिजेंस ब्‍यूरो ने कुछ व्‍यक्तियों और संस्‍थाओं के ऊपर विदेशी धन लेकर देश में विकास परियोजनाओं को बाधित करने का आरोप लगाया था। इसमें ग्रीनपीस नामक एनजीओ द्वारा सिंगरौली में एस्‍सार-हिंडाल्‍को की महान कोल कंपनी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन का भी जि़क्र था। आज़ादी के बाद सिंगरौली के विकास की पूरी कहानी विश्‍व बैंक और अन्‍य विदेशी दानदाताओं के पैसे से लगी सरकारी परियोजनाओं के कारण मची व्‍यापक तबाही व विस्‍थापन के कई अध्‍याय संजोए हुए है। 
जहां छह दशक से विकास के नाम पर विदेशी पैसे से सिर्फ विनाशलीला को सरकारें अंजाम दे रही हों, वहां विकास के इस विनाशक मॉडल के खिलाफ बोलने वाला कोई संस्‍थान या व्‍यक्ति खुद विकास विरोधी कैसे हो सकता है? जो सरकारें सिंगरौली में कोयला खदानों व पावर प्‍लांटों के लिए विश्‍व बैंक व एडीबी से पैसा लेने में नहीं हिचकती हो, उन्‍हें जनता के हित में बात करने वाले किसी संगठन के विदेशी अनुदान पर सवाल उठाने का क्‍या हक है? 
विकास के मॉडल पर मौजूदा बहस को और साफ़ करने के लिहाज से इन सवालों की ज़मीनी पड़ताल करती अभिषेक श्रीवास्‍तव की यह रिपोर्ट, हम पाठकों के लिए 4 किस्‍तों में प्रस्‍तुत कर रहे हैं, ताकि वे जान सकें कि मानव विकास के असली विरोधी कौन हैं और सरकार जिस विकास की बात करती है, उसका असल मतलब क्‍या है।  पहलीदूसरी और तीसरी के बाद अब ये-
-आखिरी किस्‍त- 

धुंधलाती उम्‍मीद-

धुंधलाती उम्‍मीदें, पथरायी आंखें
पनी महान नदी और उससे लगे महान के जंगल को बचाने के लिए ग्रामीणों के पास नियमगिरि के संघर्ष के मॉडल से चलकर एक उम्‍मीद ग्राम सभा के नाम से आई थी। उन्‍हें बताया गया था कि कानूनी दायरे में किस तरह संघर्ष संभव है और ग्रामसभा अगर चाहे तो परियोजना व जमीन अधिग्रहण को खारिज कर सकती है। बीते साल 6 मार्च को यहां अमिलिया, बुधेर और सुग्‍गो गांव में ग्रामसभा आयोजित की गई। ग्रामसभा में कुल 184 लोगों की मौजूदगी थी लेकिन जब दस्‍तावेज सामने आए तो पता चला कि कुल 1125 लोगों के दस्‍तखत उसमें थे। नाम देखने पर आगे साफ़ हुआ कि इसमें 10 ऐसे लोगों के दस्‍तखत थे जो काफी साल पहले गुज़र चुके थे। इसके अलावा ऐसी तमाम महिलाओं और पुरुषों के भी दस्‍तखत थे जो ग्रामसभा में आए ही नहीं थे। यह खबर काफी चर्चित हुई और आज भी ग्रीनपीस के दफ्तर में या गांवों में कोई पत्रकार पहुंचता है तो लोग सवा साल पुरानी इस घटना का जि़क्र करते हैं। इस मामले पर नेशरल ग्रीन ट्रिब्‍यूनल में एक याचिका भी सात लोगों के नाम से दायर है। अभी तक इसकी ग्रामसभा के निर्णय की स्थिति अस्‍पष्‍ट है। ताज़ा खबरों के मुताबिक कंपनी के हमदर्द समूह महान बचाओ समिति ने दोबारा ग्रामसभा रखवाने का प्रस्‍ताव भेजा है और जिला कलक्‍टर सेल्‍वेंद्रन ने अगले एक माह के भीतर इसे आयोजित करने का आश्‍वासन दिया है।

फिलहाल,अमिलिया, बुधेर, बन्‍धोरा, खराई, नगवां, सुहिरा, बंधा, पिडरवा आदि कुल 54 प्रभावित होने वाले गांवों के लोग कंपनी और प्रशासन से बचते-बचाते इस ग्रामसभा की उम्‍मीद में हैं। वे एक बात तो समझ चुके हैं कि ग्रामसभा भी उनकी समस्‍या का असल इलाज नहीं है। जहां तक स्‍थानीय प्रशासन और पुलिस में उत्‍पीड़नों से जुड़ी शिकायत का सवाल है, तो इस इलाके में यह एक बेहद भद्दा मज़ाक बनकर रह गया है क्‍योंकि स्‍थानीय पुलिस चौकी बन्‍धोरा स्थित एस्‍सार कंपनी के प्‍लांट के भीतर मौजूद है। सुहिरा के पास एक नई पुलिस चौकी की इमारत कब से बनकर तैयार है, लेकिन आज तक उसमें पुलिस चौकी को स्‍थानांतरित करने का आश्‍वासन ही मिल रहा है। बेचन लाल साहू कहते हैं, ''कोई भी शिकायत लिखवानी हो तो पहले आपको कंपनी के मेन गेट पर गार्ड के यहां रजिस्‍टर में अपना नाम पता लिखना होगा और उसकी अनुमति से ही आप पुलिस चौकी जा सकते हैं। बताइए, इससे बड़ा मज़ाक और क्‍या होगा।''

स्‍थानीय प्रशासन, संस्‍थाएं, सरकारी और निजी कंपनियां व रसूख वाले ऊंची जाति के लोग- इन सबका एक ऐसा ख़तरनाक जाल सिंगरौली में फैला हुआ है जिसे तोड़ना तकरीबन नामुमकिन दिखता है। इसके बावजूद कुछ बातें उम्‍मीद जगाती हैं। मसलन, करीब नब्‍बे साल के कड़क सफेद मूंछों वाले एक बुजुर्ग हनुमान सिंह को आप हमेशा राजीव गांधी चौक पर बैठे देख सकते हैं। वे पुराने समाजसेवी हैं और आज तक इसी काम में लगे हुए हैं। 25 जून की दोपहर वे कोई आवेदन लिखवाने के लिए संजय नामदेव के पास कालचिंतन के दफ्तर आए हुए थे। जबरदस्‍त उमस और गर्मी में पसीना पोंछते हुए वे संजय से कह रहे थे, ''जल्‍दी लिखो संजय भाई। आज जाकर कलेक्‍टर को दे आऊंगा। नहीं सुनेगा तो फिर से अनशन पर बैठ जाऊंगा।''

उनकी उम्र और जज्‍बा देखकर एक उम्‍मीद जगी, तो मैंने उनसे शहर के बारे में पूछा। वे बोले, ''यहां सब खाने के लिए आते हैं। अब देखो, पहले यहां साडा (विशेष क्षेत्र प्राधिकरण) था, फिर नगर निगम बना और अब नगरमहापालिका बन चुका है। दो सौ करोड़ रुपया नगरमहापालिका को आया था यहां के विकास के लिए। सामने सड़क पर देखो, एक पैसा कहीं दिख रहा है? ये गंदगी, कूड़ा, नाली... बस बिना मतलब का सात किलोमीटर का फुटपाथ बना दिया और बाकी पैसा खा गए सब। हम तो जब तक जिंदा हैं, लड़ते रहेंगे।''उनका आशय बैढ़न के राजीव गांधी चौक से इंदिरा गांधी चौक के बीच सड़क की दोनों ओर बने सात किलोमीटर लंबे फुटपाथ से था, जिसका वाकई में कोई मतलब नहीं समझ आता।

उस शाम हम जितनी देर चौराहे पर सीपीएम के दफ्तर में कामरेड गुप्‍ताजी के साथ बैठे रहे, कम से कम चार बार बिजली गई। राजीव और इंदिरा चौक के बीच शहर की मुख्‍य सड़क कही जाने वाली इस पट्टी से रात दस बजे अंधेरे में गुज़रते हुए नई नवेली मोटरसाइकिल पर एक शराबी झूमता दिखा, एक सिपाही एक हाथ में मोबाइल लिए उस पर बात करते और दूसरे हाथ से मोटरसाइकिल की हैंडिल थामे लहरा रहा था, तो एक तेज़ रफ्तार युवक हमसे तकरीबन लड़ते-लड़ते बचा। रवि शेखर बोले, ''यहां हर रोज़ एक न एक हादसा होता है। पहले ऐसा नहीं था। जिस दिन मुआवज़ा मिलने वाला होता है, लोगों को इसकी खबर बाद में लगती है लेकिन मोटरसाइकिल कंपनियों को पहले ही लग जाती है। वे बिल्‍कुल कलेक्‍ट्रेट के सामने अपना-अपना तम्‍बू गाड़कर ऐन मौके पर बैठ जाती हैं। इस तरह बाज़ार का पैसा घूम-फिर कर बाज़ार में ही चला जाता है।'' 

ग्रीनपीस के बैनर तले एक कंपनी के खिलाफ ग्रामीणों का संघर्ष सिंगरौली में ज्‍यादा से ज्‍यादा एक मामूली केस स्‍टडी हो सकता है। कैमूर की इन वादियों में कोयला खदानों, पावर प्‍लांटों, एल्‍युमीनियम और विस्‍फोटक कारखानों के बीचोबीच मुआवज़े और दलाली का एक ऐसा बाज़ार अंगड़ाई ले रहा है जहां सामंतवाद और आक्रामक पूंजी निवेश की दोहरी चक्‍की में पिसते सामान्‍य मनुष्‍यों से उनकी सहज मनुष्‍यता ही छीन ली गई है और उन्‍हें इसका पता तक नहीं है। यह सवाल ग्रीनपीस या उसके किसी भी प्रोजेक्‍ट से कहीं ज्‍यादा बड़ा है। आज का सिंगरौली इस बात का गवाह है कि कैसे विदेशी पूंजी और उससे होने वाला विकास लोगों को दरअसल तबाह करता है। लाखों लोगों को बरबाद करने, उनसे उनकी सहज मनुष्‍यता छीनने व इंसानियत को दुकानदारी में तब्‍दील कर देने के गुनहगार वास्‍तव में विश्‍व बैंक व अन्‍य विदेशी अनुदानों से यहां लगाई गई सरकारी-निजी परियोजनाएं हैं। विकास के नाम पर यहां तबाही की बात अमेरिकी अटॉर्नी डाना क्‍लार्क ने कई साल पहले कही थी, लेकिन अब तक इस देश की इंटेलिजेंस एजेंसियां इस बात को नहीं समझ पाई हैं। सिंगरौली इस बात का सबूत भी है कि या तो हमारी इंटेलिजेंस एजेंसियों में इंटेलिजेंस जैसा कुछ भी मौजूद नहीं है या फिर गैर-सरकारी संस्‍थानों की भूमिका पर आई उसकी रिपोर्ट दुराग्रहपूर्ण राजनीति से प्रेरित और फर्जी है।
(समाप्‍त) 

( 'जनपथ' से साभार )




अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं. 
ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम 
 संपर्क - guruabhishek@gmail.com

फ़ीफ़ा का तमाशा और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल

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-श्वेता रानी खत्री

"…ब्राज़ील में बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है…"


ब्राजीलियन स्ट्रीट आर्टिस्ट पाउलो इटो की बनाई एक ग्रैफ़िटी
जून के महीने में अगर आपने रेड एफ़.एम. सुना हो तो गानों के बीच विज्ञापनों के पारंपरिक व्यवधानों के अलावा फ़ीफ़ा विश्व कप की अपडेट और कपिल शर्मा के लाइव कंसर्ट की सूचना मिलती रही होगी. गूगल ने फ़ीफ़ा वर्ड कप के पहले से लेकर आखिरी दिन तक के लिए अलग-अलग ‘गूगल-डूडल’ मुक़र्रर कर रखे है. इसी गूगल सर्च पर कपिल टाईप करते ही आने वाले सुझावों में कपिल ‘शर्मा’, ‘देव’ और ‘सिब्बल’ को पीछे छोड़ चुका है. फ़ीफ़ा वर्ड कप और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल अपनी-अपनी दुनिया में मनोरंजन के सिरमौर बन चुके हैं. इनके  सर्वव्यापीपन से अनजान होना आपके ‘बोरिंग’ होने या फिर आपके पिछड़ेपन (?) का सबूत माना जा सकता है. कपिल शर्मा इस महीने की पांच तारीख को अपने कंसर्ट में करोड़ों बटोर चुके हैं, आगे शायद फ़िल्मों में काम करेंगे. चौदहवें विश्व कप का विजेता भी घोषित हो गया है. खेलों को, ब्राज़ील को, हास्य को और हमें क्या मिला? ये सवाल रह जाएगा.


ब्राज़ीलमें बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है. दरअसल, मनोरंजन अब वक्त काटने का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा अफ़ीम बन गया है जिसकी खुराक लेकर हम सच्चाई से पलायन कर जाना चाहते है. जिसके नशे में हम लिंगभेद, नस्लभेद, भ्रष्टाचार को भुलाए रखना चाहते हैं. ऐसे में ब्राज़ील का अपनी ही ज़मीन पर हारना शायद इस तंद्रा को तोड़े.

प्रसिद्धदार्शनिक वोल्टेयर का कहना था कि ‘अगर ये जानना हो कि आपके ऊपर राज कौन करता है, ये जानने की कोशिश करो कि आप किसकी आलोचना नहीं कर सकते.’ इसी तर्ज़ पर क्या ये माना जा सकता है कि हम जिसकी आलोचना बिना किसी बात के कर सकते हैं, जिस पर बात-बेबात हंस सकते हैं, वो समाज का सबसे शोषित वर्ग है? व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर मनोरंजन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है और इसे हम किस हद तक मनोरंजन के नाम पर अनदेखा कर सकते हैं? भव्यता का अश्लील प्रदर्शन और गले फाड़ कर हंसना ही मनोरंजन का पर्याय कब से बन गया? इन सब सवालों के सही-सही जवाब मिलना शायद संभव न हो पर इनकी पड़ताल करना किसी समाज की नब्ज़ टटोलने जैसा है.

कॉमेडीनाइट्स विद कपिल के हास्य, या कहें परिहास का केंद्र सारे महिला पात्र हैं. उसकी पत्नी जब-तब अपनी औसत शक्ल सूरत और कम दहेज लाने के लिए अपमानित होती रहती है. कपिल अर्थात बिट्टू शर्मा की एक ढलती उम्र की बुआ है जिसका कुंवारा रह जाना उसकी सबसे बड़ी व्यथा है और उसकी पुरुष-पिपासा हमारे हास्य का स्रोत. थोड़ी आज़ादी है तो दादी के चरित्र के लिए जो दारू पी कर झूम सकती है और शो में आये पुरुषों को ‘शगुन की पप्पी’ चस्पा कर सकती है. उम्रदराज़ औरतों पर हमारे समाज में बंधन नियंत्रण की ज़रुरत वैसे भी नहीं समझी जाती. एक वजह यह भी है कि दादी का चरित्र एक पुरुष अदाकार निभा रहा है. पुरुषों का स्त्रियों जैसी वेशभूषा पहनना और उनके जैसी हरकतें करना हमारे लिये इतना हास्यास्पद है कि इसके अलावा हमें हंसाने के लिए उसे ज़्यादा मेहनत की भी ज़रुरत नहीं पड़ती.

फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुमान के मुताबिक़ २०१४ के विश्व कप पर लगभग ४० अरब डॉलर का खर्च आया है. ब्राज़ील के आर्थिक हालातों को मद्देनज़र रखते हुए विश्वकप का आयोजन पहले ही देश पर वैसे भी एक भार था. विश्व के अब तक के सबसे महंगी स्पर्धा की तैयारी के लिए ब्राजील सरकार को पब्लिक परिवहन का किराया बढ़ाना पड़ा साथ ही बहुत सी ज़रूरी सार्वजनिक परियोजनाओं को भी रोकना पड़ा. विश्व कप के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए किये गए चाक-चौबंद सुरक्षा इंतज़ामात में हुआ खर्च एक अतिरिक्त भार था. फ़ीफ़ा प्रमुख ‘सेप ब्लैटर’ पर जब-तब भ्रष्टाचार की आरोप लगते रहें है. ब्रिटेन के सन्डे टाइम्स के एक खुलासे के अनुसार २०२२ में फ़ीफ़ा के आयोजन का अधिकार ‘क़तर’ को मिलना एक अंदरूनी फिक्सिंग थी. न सिर्फ़ इस अरबी देश की गर्म जलवायु इस खेल के आयोजन के प्रतिकूल है बल्कि वहां खेलों की तैयारी के लिए भारतीय और नेपाली प्रवासी मजदूरों से अमानवीय तरीके से काम लिया जा रहा है. मजदूरों की लगातार होती मौत और उनके मानवाधिकारों का हनन, क़तर के चुनाव को निष्पक्ष बताने वालों के गले की हड्डी बनती जा रही है.

हिन्दीमें हास्य को एक अलहदा विधा का रूप देने वाले हरिशंकर परसाई का तीखा व्यंग्य सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार होता था. स्टैंड अप कॉमेडी में भी फूहड़पन शुरुआत से रहा हो ऐसा नहीं है. सुरेन्द्र शर्मा के हास्य में भी ‘घरवाली’ आती है लेकिन सिर्फ़ नीचा दिखाई जाने के लिए नहीं. शैल चतुर्वेदी और अशोक चक्रधर का व्यंग्य ज़्यादातर या तो ट्रेजेडी से उपजता है या फिर ख़ुद की कमियों पर ही हँसते हुए उत्तम हास्य की कसौटी पर खरा उतरता रहा है. ये धारा अब टी.वी. के कॉमेडी शोज़ में तिरोहित हो चुकी है.

इसीतरह फ़ुटबॉल का उद्भव ‘हार्पेस्तान’ नाम के एक प्राचीन यूनानी खेल से हुआ माना जाता है. ये एक बर्बर,  आक्रामक और ग्रामीण खेल था जिसके कोई ख़ास नियम नहीं थे. सालों के मानकीकरण और वैश्वीकरण ने फ़ुटबॉल को उसका आधुनिक रूप बख्शा है. इस विषय में ऑस्कर वाइल्ड का प्रसिद्ध कथन है, ‘फ़ुटबॉल बर्बर लोगों के लिए बना वह खेल है जिसे सभ्य लोग खेलते हैं.’ व्यवसायीकरण और मुनाफ़े की मंशा में गुड़ में मक्खी की तरह आ जुटे प्रायोजकों ने कॉमेडी और फ़ुटबॉल दोनों ही को उसका मौजूदा विकृत रूप दिया है. ज़ाहिर है, तत्सम जब तद्भव बनता है तो अपनी बर्बरता तो बचा ले जाता है लेकिन अपनी सादगी नहीं.

कपिलशर्मा के शो पर कई बार महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने पर केस दर्ज करने की कोशिश हुई. लेकिन उसे एक अतिवादी प्रतिक्रया कह कर पल्ला झाड़ लिया गया. ब्राज़ील विश्व कप पर हुए अनाप-शनाप खर्च को वहन करना भी सालों तक बढ़े हुए टैक्स के रूप में वहां के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से ही आयेगा और सारा मुनाफ़ा फ़ीफ़ा का होगा. लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी इस अन्याय का विरोध करने के लिए अपनी ही सरकार का दमन झेल रहें है. जो सबसे ज़्यादा प्रभावित है उसे ही मनोरंजन के नाम पर सबकुछ बर्दाश्त करने को कहना हमारी प्रवित्ति है और ये किसी टी.वी. कलाकार या खेल संस्था से ज़्यादा हमारी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.

ये एक अजीब संयोग है लेकिन भ्रष्टाचार का गढ़ होने के साथ- साथ ऐसे खेल आयोजन  प्रतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का भी एक ज़रिया बन सकते हैं. ब्राज़ील के नागरिकों का विश्व कप की पूर्व संध्या पर किया गया अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन इस मामले में हमारी प्रेरणा बनने लायक है जिसमें फ़ीफ़ा और जागरूक नागरिक, अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में एक दूसरे के आमने- सामने थे. ऐसे में नागरिकों का इनकी दी अफ़ीम चाटकर अशक्त नींद में सो जाना एक पाले की सबसे बड़ी उम्मीद है दूसरे पाले की सबसे बड़ी हार. क्यूंकि टी.वी. के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है और फ़ीफ़ा जैसी संस्थाएं किसी भी सरकार के लिए उत्तरदायी नहीं है.

महिलाएं,बच्चे, मजदूर और आर्थिक रूप से अल्पविकसित तबका इस चमकती तस्वीर का वो निगेटिव है जिसकी ज़रुरत सिर्फ़ भव्य आयोजनों और भड़कीले कॉमेडी शोज़ की रंगीन तस्वीर रचने के लिए पड़ती है. कुछ विरले लोग इस तस्वीर और निगेटिव के बीच की खाई लांघ भी सके हैं. ख़ुद साधारण पृष्ठभूमि से आये ख़ुद कपिल शर्मा की सफ़लता इसका प्रमाण है. या फिर सोमालिया जैसे पिछड़े देश से आये रैपर ‘के नान’ की कहानी जिसका गाना २०१० के फ़ीफ़ा विश्व कप का आधिकारिक चिन्ह और अफ्रीकी देशों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरा था. पर इन गिने चुने उदाहरणों के अलावा ज़्यादातर किस्से निराशाजनक ही हैं. आज, १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार ‘डाऊज़ केमिकल’ लन्दन के ओलम्पिक का प्रायोजक हो सकता है, आई.पी.एल. की टी.आर.पी. मैच फिक्सिंग की खबरों के बाद और भी बढ़ सकती है, महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाले ‘मिस इंडिया’ के निर्णायक हनी सिंह हो सकते हैं. हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि ये बातें अब हमें परेशान भी नहीं करतीं. हालिया विश्व कप के लिए गाया गया ‘पिटबुल’ का गाना ‘वी आर द वन’ हमारी इस स्थिति के लिए सबसे सटीक रूपक है. इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी सह लेने के मामले में क्या भारत, क्या ब्राज़ील हम सब एक ही हैं.




श्वेता रानी खत्री दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हैं.
यूनिवर्सिटी के कम्युनिटी रेडियो में सक्रिय. 
संपर्क- shwetakhatri02@gmail.com

एक औरत के मन तक ले जाती फिल्म : A woman under influence

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-उमेश पंत

"...मेबल नाम की एक अधेड़ महिला के इर्द गिर्द घूमने वाली इस फिल्म को देखना एक स्त्री के मनोभावों की दुनियां में नंगे पांव घूम आने सा अनुभव है। वो दुनियां जिसकी धरती कहीं पावों को गुदगुदाती है, कहीं चुभती है, कहीं खंरोंचती है और कहीं भावनाओं की धार से चीर कर रख देती है। आप लहूलुहान होकर उस दुनियां से लौटते है, एक ऐसी टीस के साथ जिसे आप आमतौर पर आधी आबादी की उस दुनियां में चारों ओर बिखरा हुआ देख सकते हैं। ये फिल्म उसी टीस को समेटने की एक कोशिश करती नज़र आती है।..."

कितनी फिल्में होंगी जो स्त्रियों के मनोविज्ञान में बहुत गहरे तक झांकने की कोशिश करती हैं। फिल्म जगत में ऐसी फिल्मों की स्थिति माइनोरिटी की तरह ही होगी। जाॅन कैसेवेटस (John cassavetes) की फिल्म अ वुमन अन्डर इन्फलुएंस ऐसी ही फिल्मों में है जो रिश्ते, परिवार, अपने व्यवहार और यहां तक कि अपने वजूद के प्रति एक स्त्री की असुरक्षा, भय और इस वजह से पनपी मनोवैज्ञानिक अस्थिता को मानव स्वभाव की तहों तक जाकर समझने की कोशिश करती है।
मेबलनाम की एक अधेड़ महिला के इर्द गिर्द घूमने वाली इस फिल्म को देखना एक स्त्री के मनोभावों की दुनियां में नंगे पांव घूम आने सा अनुभव है। वो दुनियां जिसकी धरती कहीं पावों को गुदगुदाती है, कहीं चुभती है, कहीं खंरोंचती है और कहीं भावनाओं की धार से चीर कर रख देती है। आप लहूलुहान होकर उस दुनियां से लौटते है, एक ऐसी टीस के साथ जिसे आप आमतौर पर आधी आबादी की उस दुनियां में चारों ओर बिखरा हुआ देख सकते हैं। ये फिल्म उसी टीस को समेटने की एक कोशिश करती नज़र आती है।
एककंस्ट्रक्शन साइट में काम करने वाले मजदूर निक और उसकी पत्नी मेबल की शादीशुदा जि़न्दगी में ये एक तकलीफ भरा पड़ाव है। कई अनकही सी वजहें हैं जिनसे परिवार के बीच एक अन्तर्कलह का माहौल है। ये कलह निक के अपनी पत्नी को समय न दे पाने से उपजा है या निक के अपनी पत्नी के अन्य पुरुषों के प्रति खुले से लगने वाले व्यहार की वजह से या फिर मेबल की उस मानसिक स्थिति की वजह से जो सामान्य नज़रों से देखने पर सामान्य सी नहीं लगती। मेबल मनोवैज्ञानिक तौर पर एक समस्याग्रस्त महिला लगती है। उसके व्यवहार को सरसरे तौर पर देखने पर वह एक मनोरोगी नज़र आती है। लेकिन उसके भीतर चल रही उथल-पुथल को देखकर और उस उथल-पुथल से उसके व्यक्त्वि में आये बदलावों को देखकर दोषी कोई और नज़र आता है।
मेबलबार बार ये सवाल करती है कि क्या वो सही व्यवहार नहीं कर रही ? वो निक से बार बार ये पूछती है कि क्या वो उससे प्यार करता है ? वो बार-बार अपने तीन बच्चों के जीवन में अपनी अहमियत को परखती है। बार बार उसका मन एक असुरक्षा के भाव से गुजरता हुआ और कमज़ोर होता चला जाता है। अपने पति को खो देने का डर, अपने बच्चों से दूर चले जाने का डर और इस सब के बीच एक औरत के रुप में अपने अस्तित्व को न बचा पाने का डर।
tumblr_m9pcrvloRu1qd6qqeo1_1280मेबलएक ऐसी औरत है जो उन्मुक्त होना चाहती है। पर उसने अपनी ही उन्मुक्कताओं को जैसे दायरे में कैद कर लिया है। मसलन फिल्म के एक दृश्य में अकेलेपन से जूझ रही मेबल एक बार में जाती है और वहां उसे एक आदमी मिलता है जो उसके साथ उसके फ्लैट तक आता है। फ्लैट में आते ही वो उसके साथ यौन व्यवहार करना चाहता है लेकिन मेबल उसे रोक देती है। अपने पति से असंतुष्ट होने के बावजूद कुछ है जो उसे रोक देता है। वो उसके मध्वर्गीय मूल्य हैं या वो अपने पति से सचमुच इतना प्यार करती है कि उस प्यार को बांट ही नहीं सकती या फिर वो इतनी मजबूत ही नहीं है कि वो अपनी इच्छाओं और रिश्तों दोनों को अलग-अलग जगह पर रखकर उनसे जुड़ी अपनी समस्याओं को सुलझा सके। वो कन्फयूज़ है। ये कन्फयूजन इस हद तक उसपर हावी है कि वो धीरे-धीरे सनक में बदल चुका है। सनक जो धीरे-धीरे उसे एक मनोरोगी साबित करने पर तुली है।
कई बार मेबल ओवर पजेसिव हो जाती है। फिल्म के एक दृश्य में सुबह-सुबह वो बच्चों को स्कूल भेजने की जल्दी में दिखाई देती है क्योंकि उसे निक के साथ अकेले में वक्त बिताना है। लेकिन कुछ देर बाद वो अपने बच्चों के स्कूल जाने से बेचैन दिखती है। छुटटी के वक्त से बहुत पहले उस जगह पर चली जाती है जहां स्कूल बस उन्हें छोड़कर जाती है। नंगे पांव सड़क पर वो अपने बच्चों का बेसब्री से इन्तज़ार कर रही है। लोगों से बार बार समय पूछ रही है। और जब बस आती है तो वो बस की ओर लगभग लपककर अपने बच्चों से मिलती है, उन्हें गले से लगा लेती है।
फिल्मदरअसल एक वर्किग क्लास मध्यवर्गीय परिवार में महिला और पुरुष के बीच सम्बन्धों को बहुत गहरे से देखती है। एक पुरुष जो पैसा कमाने के लिये तकरीबन अमानवीय सी व्यवस्था में खपने को अभिशप्त है। जिसके पास अपनी पत्नी और अपने बच्चों के लिये वक्त नहीं है। जो अपनी पत्नी को वक्त नहीं दे पाता लेकिन उस वक्त न दे पाने से उसके भीतर उस रिश्ते को लेकर गहरी असुरक्षाएं भी हैं जो एक हद तक शक की दहलीज़ तक जा पहुंचती हैं। जिसके लिये पार्टी का मतलब दोस्त और शराब हैं लेकिन अपने पुरुष दोस्तों से पत्नी की निकटता जिसे असहज करने लगती है। जो अपनी पत्नी से बहुत प्यार करता है पर इसके बावजूद वो उसके पास इतना वक्त नहीं है कि वो अपनी पत्नी की मनोवैज्ञानिक समस्याओं को बिना मनोवैज्ञानिक की मदद से दूर कर पाये।
निककी मां भी एक औरत के रुप में मेबल के व्यवहार को देखने के बजाय उसे सरसरे तौर पर देखती है। उसे लगता है कि मेबल की वजह से निक के बच्चे और निक दोनों की जिन्दगी बुरी तरह से प्रभावित हो रही है। वो मेबल को एक पागल की तरह देखती है जिसे उसके परिवार की बेहतरी के लिये तुरंत घर से निकाल दिया जाना चाहिये।
6 महीनेबाद जब मेबल अस्पताल से लौटती है तो वो एकदम खामोश है। मेबल के पति, उसकी सास और उसके रिश्तेदारों का उसके लिये जो रवैया है उसे देखकर लगता है कि कई बार सामान्य कहे जाने वाले लोग भी पागलों सी हरकतें करते हैं। सारे लोग मेबल को घेरकर बैठे हैं और उसे घूर रहे हैं ये देखने के लिये कि वो सामान्य बर्ताव करती है कि नहीं। अस्पताल से लौटकर वो सामान्य हुई है कि नहीं। इस एक छोटे से दृश्य में फिल्म ये बखूबी समझा देती है कि मनोवैज्ञानिक रुप से परेशान व्यक्ति को असामान्य बना देने में एक समाज, दोस्त, रिश्तेदारों और यहां तक कि अपने जीवनसाथी के रुप में हम एक सामान्य व्यक्ति की भूमिका में भी कितनी नकारात्मक भूमिका निभा रहे होते हैं।
कैसेवेटसकी ये फिल्म बड़े बिम्बों के साथ नहीं खेलती, संवादों और मुख्यतह हावभावों के ज़रिये पूरी फिल्म उतना ही दिखाना चाहती है जितना आप परदे पर देख रहे हैं। कई दृश्य बार बार आते हैं पर उनकी पनरावृत्ति उबाउ कतई नहीं लगती। जितनी बार वो दोहराये जाते हैं आप किरदारों के उतनी नज़दीक पहुंचते चले जाते हैं।
01657_woman_critआपकोअसामान्य व्यवहार करने के बावजूद मेबल अपनी जगह एकदम सही लगती है और समान्य व्यवहार करने के बावजूद आपको उसके पति निक और उसकी सास का व्यवहार असामान्य लगता है। फिल्म की शायद सबसे बड़ी और अहम बात यही है कि फिल्म देखते हुए आप एक असामान्य से लग रहे किरदार के, उसकी भावनाओं के, उसकी ज़रुरतों के, उसकी मजबूरियों के और उसके अन्र्तद्वन्द्ववों की जटिलता के ज्यादा पास खड़े महसूस करते हैं जबकि ऐसा होना आपको असहज ज्यादा करता है। आप एक दर्शक के तौर पर उस असहजता को अपनाने का ज़ोखिम उठाते हैं और यहीं निर्देशक अपने काम में सफल हो जाता है।
जेना रोलेन्ड (Gene rowlands) ने बतौर मेबल बहुत ही शानदार अभिनय किया है। इतना शानदार कि आप पूरी फिल्म के दौरान उस किरदार के नज़रिये से सोचते लगते हैं। उसके अकेलेनप, उसके दर्द और उसके प्यार और कुल मिलाकर उसके पक्ष को गहरे तक समझ पाते हैं और महसूस करने लगते हैं। पीटर फाॅक ( Peter falk) ने भी निक के रुप में अपने किरदार को कही फीका नहीं पड़ने दिया है।
कुलमिलाकरये फिल्म उन विरली फिल्मों में है जो मनोविज्ञान की जटिलताओं को बहुत आसान सी भाषा में समझा देती है और ये बता देती है कि मनोरोगी को रोगी बनाने में एक समाज, एक रिश्तेदार, एक जीवनसाथी और एक व्यक्ति के रुप में अक्सर हम कहां गलत होते हैं।


उमेश लेखक हैं. कहानी, कविता और पत्रकारीय लेखन.
गुल्लक नाम से एक वेबसाइट चलाते हैं.
mshpant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

बलात्कार का समाजशास्त्र

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डॉ. मोहन आर्या

-डॉ.मोहन आर्या

बैंगलौर में एक बच्ची के साथ हुए एक जघन्य बलात्कार के बाद उभरे आंदोलन ने भी दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ उमड़े आंदोलन की ही तरह समाज को झकझोरने की कोशिश की है. लखनऊ से भी एक महिला के साथ वीभत्स बलात्कार और उसकी दर्दनाक हत्या की खबरें आ रही हैं. इतने व्यापक आन्दोलनों और राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा-परिचर्चा के बावजूद भी रेप की घटनाओं में कोई रोकथाम नहीं है. वह कौन सी वजहें हैं जिसके चलते रेप जैसे अपराध और भी अधिक वीभत्सता के साथ लगातार सामने आ रहे हैं?

 दिल्ली गैंग रेप के बाद praxis ने इस विषय पर आलेखों के जरिए इस विमर्श के विविध पहलुओं पर ठोस बात करने की कोशिश की. praxis में प्रकाशित आलेखों और कुछ नए आलेखों का संकलन कर उन्हें 'उम्मीद की निर्भयाएँ'नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित कराया। इसी किताब से कुछ आलेखों को हम, इस विमर्श को और मुकम्मल ढंग प्रसार देने के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. पढ़ें डॉ. मोहन आर्या का यह महत्वपूर्ण आलेख- 
-संपादक


दिल्ली में हुए बलात्कार कांड के बाद पैदा हुआ जनाक्रोश, वर्मा कमेटी की प्रशंसनीय सिफारिशें, उनके क्रियान्वयन वाले अध्यादेश के बारे में हुई बहसें, बलात्कार के दोषियों को मृत्युदंड और उनके बधियाकरण की मांग आदि बातें बलात्कार और यौन उत्पीड़न के विषय में जायज भावुक अतिरेक के इतर जाकर समस्या को और गहरे समझने की मांग करती है। कठोर कानून की मांग महिलाओं की समुचित सुरक्षा व्यवस्था की मांग आदि बेहदजरूरी मांग जनसमूहों द्वारा उठाई जा रही हैं। कुछ समझदार व्यक्ति और समूह महिलाओं को लेकर समाज की संकीर्ण मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज के निर्माण की आवश्यकता पर जोर दे रहे हैं। कठोर कानून, यौन उत्पीड़न और बलात्कार के मामलों में त्वरित और समयबद्ध प्रक्रिया की व्यवस्था महिलाओं की समुचित सुरक्षा की व्यवस्था आदि उपाय अत्यावश्यकीय होते हुए भी फौरी कार्यवाहियां ही हैं। 


समाज की मानसिकता में बदलाव और एक जेंडर सेंसटिव समाज का निर्माण ही मुख्य मुद्दा है। परंतु ये होगा कैसे? मानसिकता में बदलाव शून्य में नहीं हो सकता और नहीं बलात्कार की घटनाओं से पैदा हुई भावुकतापूर्ण सहानुभूति ही समाज की मानसिकता में बदलाव की ठोस बुनियाद हो सकती है। क्योंकि ये सहानुभूति उस विस्तृत और शक्तिशाली पितृसत्तात्मक ढांचे और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने के लिए पर्याप्त नहीं है, जिसके चलते पुरूष मानसिकता पैदा होती है। दरअसल यौन हिंसा और बलात्कार तो पितृसत्तात्मकता और अन्य वर्चस्वशाली ताकतवर व्यवस्थाओं के चलते पुरूषों द्वारा महिलाओं पर किए जाने वाले अनगिनत अत्याचारों में से केवल एक है। बलात्कार को केवल कुछ सिरफिरे लोंगों की अनियंत्रित यौनेच्छा का परिणाम मानना बेहद संकुचित विचार होगा साथ ही इसे केवल मनोविकृति और अपराधिक या असामाजिक कृत्य मानना भी इस कृत्य के कई पहलुओं की अनदेखी करना होगा। क्योंकि सामान्य यौनेच्छा और सामान्यतया मनोविकार रहित पुरूष भी बलात्कार में शामिल पाए गए हैं। परंतु इसका यह तात्पर्य भी नहीं है कि बलात्कार पुरूषों की प्राकृतिक प्रवृत्ति है। बलात्कार स्त्री के ऊपर पुरूष के सामाजिक वर्चस्वों के अनगिनत रूपों में से एक है। 

अशान्त क्षेत्रों में सशस्त्रबलों द्वारा किए गए जाने वाले बलात्कारों, दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ दबंगों द्वारा किए जाने वाले बलात्कारों, में पित्रसत्तात्मकता के साथ वर्चस्व की अन्य श्रेणियां मसलन नस्लीय घृणा, जाति व्यवस्था, संप्रभु का राजनीतिक वर्चस्व आदि भी गुंथे हुए दिखाई देते हैं। उपर्युक्त किस्म के बलात्कारों के साथ ही सांप्रदायिक दंगों के समय बड़े पैमाने पर होने वाले बलात्कार, विरोधी समुदाय को सबक सिखाने के हथियार के रूप में प्रयोग किए जाते हैं। इसके अलावा यौन उत्पीड़न और बलात्कार के कई मामलों में महिलाओं के परिचितों, मित्रों, रिश्तेदारों और पड़ौसियों का शामिल होना दिखाता है अन्यथा सामान्य पुरुषों द्वारा किया जाने वाला आचरण है। जो अपने संस्थागत वर्चस्व के चलते मौके का फायदा उठाने की कोशिश करते हैं बलात्कार को उसके सही रूप में पितृसत्तात्मकता के साथ ही समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों से अलग करके नहीं समझा जा सकता है।

बलात्कार दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों और संस्थाओं की पैदाइश है

यूँ तो मानव समाज में पाए जाने वाले तमाम अपराध जैसे चोरी, हत्या, लूट, भ्रष्टाचार आदि व्यापक परिप्रेक्ष्य में गलत सामाजिक व्यवस्था और दोषपूर्ण सामाजिक संबंधों के ही परिणाम हैं परंतु यौन हिंसा या बलात्कार अन्य किसी भी अपराध या प्रवृत्ति से आधारभूत रूप में भिन्न है। जहां अन्य अपराध या प्रवृत्तियां प्रकृति में मनुष्येत्तर प्राणियों में प्रतिस्पर्धात्मक प्रक्रियांओं के रूप में बेहद स्वनियंत्रित स्वरूप में मौजूद रहते हैं और प्राणियों के अस्तित्व और जीवन संघर्ष के अनिवार्य अंग के रूप में दिखाई देते हैं वहीं बलात्कार सामान्यतया किसी भी मनुष्येत्तर प्राणिजाति में नहीं पाया जाता है। कुछ नगण्य अपवादों को छोड़ते हुए बहुत ही सामान्य प्रेक्षणों और प्रकृति विज्ञान की सामान्य समझ के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने का जोखिम उठाया जा सकता है कि बलात्कार केवल मनुष्य समाज में पाया जाने वाला घोर अप्राकृतिक अपराध है और आत्महत्या (जिसे अपराध की श्रेणी से हटाया ही जाना चाहिए) के अलावा एक मात्र ऐसी प्रवृत्ति है जिसका कोई प्राकृतिक जस्टिफिकेशन नहीं हो सकता है। 

यहां कई लोग तर्क दे सकते हैं कि बलात्कार पुरूषों की अनियंत्रित यौनइच्छा का परिणाम है जो कि विशुद्ध नैसर्गिक और प्राकृतिक कारणों से है और इसी तर्क की बुनियाद पर बलात्कार को रोकने के लिए कुछ बेहद गैरजिम्मेदाराना सुझाव दिए जाते हैं, मसलन वैश्यावृत्ति को वैध व्यवसाय के रूप में मान्यता देना और किशोरावस्था के तुरंत बाद ही अथवा किशोरावस्था में ही विवाह करा के सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध कराना। परंतु ऐसा कतई नहीं है जिन देशों में वैश्यावृत्ति वैध है वहां बलात्कार की घटनाएं नहीं होती हैं या फिर विवाहित पुरूष बलात्कार में शामिल नहीं होते हैं। विवाह या वैश्यावृत्ति द्वारा सामान्य सहवास के अवसर उपलब्ध होने पर भी पुरूष बलात्कारी होता है। अमूमन होता भी है। देखा गया है कि बलात्कार और यौन उत्पीड़न के मामले में अधिकांश मामले ऐसे हैं जिनमें लिप्त पुरूष विवाहित होते हैं। विवाह संस्था के भीतर होने वाले यौन शोषण को शामिल कर लें (जैसा कि वाजिब रूप में वर्मा समिति की सिफारिश है) तो विवाहित पुरूषों का बहुत बड़ा हिस्सा यौन हिंसा में लिप्त पाया जाएगा। 

अतः वैश्यावृत्ति को वैधता प्रदान करना और जल्दी विवाह जैसे उपाय बलात्कार और यौन उत्पीड़न को रोकने में असफल तो होंगे ही साथ ही ये उस वर्चस्वशाली व्यवस्था को और मजबूत बनाएंगे जिससे पुरूष को बलात्कार करने का औचित्य और साहस मिलता है। क्यूंकि जल्दी विवाह और वैश्यावृत्ति दोनों से ही स्त्री की पुरूष पर निर्भरता अधिक स्थाई होती है।

पुनः लौटते हैं बलात्कार के कारण के रूप में पुरूषों की अनियंत्रित यौनेच्छा की ओर। यहां पर यह स्पष्ट करना समीचीन होगा कि यौनेच्छा तो प्रकृति के विस्तार का आधार है। जो कि अनियंत्रित रूप में मनुष्येत्तर प्राणियों में भी पाई ही जाती है। परंतु प्रकृति में यौनेच्छा नर और मादा की संयुक्त यौनेच्छा और सामान्य सहवास के रूप में दृष्टिगोचर होती है। यदि नर या मादा में से किसी एक की यौनेच्छा नहीं है तो प्रकृति में सहवास या इस स्थिति में कहें तो बलात्कार हो ही नहीं सकता। साथ ही प्राकृतिक चयन और जैवविकास की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के चलते प्रकृति में मादा को नर के चयन का विशेषाधिकार भी प्राप्त है। अर्थात प्रकृति में मादा के सहवास के लिए तैयार ना होने पर सामान्य सहवास हो ही नहीं सकता। और मादा के सहवास के लिए तैयार होने पर भी अपने लिए उपयुक्त साथी के चयन का अंतिम अधिकार भी मादा के पास होता है। नर केवल शारिरिक बल के आधार पर ऐसी मादा से सहवास नहीं कर सकता जिसकी उस समय यौनेच्छा ना हो और यौनेच्छा हो भी (जैसा कि मदकाल में होता है) तो नर को अन्य नरों के साथ प्रतिस्पर्धा करके मादा के वैयक्तिक चयन (जो कि वास्तव में प्रजाति की जैवविकासीय प्रवृत्ति ही है) के पैमानों पर खरा उतरना होता है। (ऐसा प्रकृति में शुक्राणुओं और अंडाणुओं की संख्या के बीच भारी अंतर के कारण होता है) इसके उपरांत ही यौनेच्छा अपने स्वाभाविक परिणाम अर्थात सहवास तदोपरांत संतानोत्पत्ति तक पहुंच पाती है। 

अब यहां तर्क दिया जा सकता है कि मनुष्य ने अपने यौन व्यवहार को मनुष्येत्तर प्राणियों की तुलना में काफी विकसित किया है। और इसे संतानोत्पत्ति तक सीमित नहीं रखा है। साथ ही मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा प्रकृति के अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है। (हांलाकि ऐसा कुछ अन्य प्राणी जातियों में भी होता है।) जहां तक यौनव्यवहार को संतानोत्पत्ति तक सीमित ना रखने वाली बात है तो प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि यौन व्यवहार को उसके कर्ता या माध्यम द्वारा अपने लिए किस रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है भले ही यौन व्यवहार मात्र-मात्र यौन आनंद के लिए किया उसके मूलभूत उद्देश्य और परिणाम की प्राकृतिकता का जैव वैज्ञानिक स्वरूप अपरिवर्तित रहता है, तो यह एक सामाजिक परिघटना है कि बलात्कार में यौन व्यवहार में वर्चस्व के एक औजार के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। यह बात सत्य है कि मनुष्य की मादाओं में मदकाल जैसी अवधारणा अन्य प्राणियों के समतुल्य नहीं है और यौन परिपक्वता के बाद महिलाएं जैव-वैज्ञानिक तौर पर किसी भी समय सामान्य शारिरिक संबंधों के लिए तैयार रहती हैं परंतु एक महत्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य का यौन व्यवहार हारमोनल के साथ ही मनोवैज्ञानिक भी है। और इसीलिए मनुष्य के शारिरिक विषय में जैववैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक तौर पर ही महिलाओं के साथी के चयन का विशेषाधिकार समाप्त नहीं हो जाता है। और जटिल मानव समाज में महिला की सहमति ही इस चयन के विशेषाधिकार का मानवोचित रूप है। 

Les Demoiselles d'Avignon (1907)
by 
Pablo Picasso
ऊपर की सारी कवायद का मेरा उद्देश्य यही दिखाना है कि बलात्कार प्राकृतिक जगत में ना पाई जाने वाली प्रवृत्ति है। प्रकृति में बलात्कार नहीं हो सकता और सामूहिक बलात्कार तो बिल्कुल नहीं। इस तरह अपने अस्तित्व और पहचान के जटिल प्रश्नों से उलझने वाली प्राणीजगत की श्रेष्ठतम मानव जाति इस प्राकृतिक जगत की सबसे अप्राकृतिक प्रवृत्ति की शिकार है और इस प्रवृत्ति को पाशविक कहना पशुओं की प्राकृतिकता का अपमान होगा। इस तरह बलात्कार सभ्यता का संकट है। अब तर्क दिया जा सकता है कि बलात्कार तो कुछ ही पुरूषों द्वारा किए जाते हैं। इसके लिए क्यों संपूर्ण मानव समाज व्यवस्था को पशुओं से बदतर माना जाना चाहिए। दरअसल बलात्कार अपनी अप्राकृतिकता के कारण उतना घृणित नहीं है जितना कि सामाजिक उत्पत्ति और सामजिक परिणामों के कारण।  इस बात को और समझने के लिए हम अनियंत्रित यौनेच्छा के तर्क की ओर पुनः लौटते हैं। अनियंत्रित यौनेच्छा तो महिलाओं की भी हो सकती है। क्या होगा यदि आनियंत्रित यौनेच्छा के वशीभूत होकर कोई महिला किसी असहाय पुरूष के साथ जबरन यौन संबंध बनाए। इस कृत्य का कोई सामाजिक कारण नहीं होगा परंतु इसके सामाजिक परिणाम क्या होंगे और पुरूष पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा? हो सकता है पुरूष इसे अपने वैयक्तिक चयन के अधिकार का अतिक्रमण मानकर अप्रसन्नता प्रदर्शित करे और शारिरिक और मनोवैज्ञानिक रूप से आहत भी हो। परंतु इस कृत्य के सामाजिक परिणामों की ओर गौर कीजिए, पुरूष अधिक से अधिक कुछ छोटे अंतराल तक उपहास का पात्र बन सकता है। हो सकता है उसे खुशनसीब का दर्जा भी दिया जाय। इस घटना के कोई मनोवैज्ञानिक और शारिरिक दुष्परिणाम हो भी तो इसके दूरगामी सामाजिक परिणाम उस पुरूष के प्रतिकूल नहीं होंगे। परंतु जब बलात्कार महिला के साथ किया जाता है तो यह बलात्कार के रूप में पुरूषों द्वारा महिला के सहमति के अधिकार का अतिक्रमण उन्हें शारिरिक या मनोवैज्ञानिक रूप से चोट पहुंचाने तक सीमित नहीं है, बलात्कार का वीभत्स रूप तो महिला के लिए बलात्कार के बाद सामने आता है और सारी उम्र उस महिला के जीवन पर छाया रहता है। शील भंग की दकियानूसी और घटिया सामाजिक अवधारणा महिला के सामाजिक जीवन को नष्ट कर देती है। बलात्कार की शिकार महिला के विवाह में कई दिक्कतें आती हैं अथवा विवाहित महिलाओं को कई बाद उनके पतियों द्वारा त्याग दिया जाता है। वो महिला किसी भी सामाजिक संबंध में सहज नहीं हो पाती है। बलात्कार की शिकार स्वयं होने के बावजूद वो एक किस्म के अपराधबोध या हीनताबोध से ग्रस्त रहती है। और उसे हमेशा अपनी पहचान छिपाकर रखनी पड़ती है। उसके सामान्य सामाजिक जीवन जीने की संभावना न के बराबर है इसलिए सूर्यनेल्ली प्रकरण में यौन हिंसा की शिकार द्वारा यह कहा गया कि दिल्ली में वीभत्स बलात्कार कांड की शिकार छात्रा की मौत होना उस छात्रा के लिए अच्छा ही हुआ। इस सबके कारण मनोवैज्ञानिक और शारिरिक न होकर मूलरूप में सामाजिक हैं।

स्त्री के द्वारा पुरूष के बलात्कार और पुरूष के द्वारा स्त्री के बलात्कार के सामाजिक परिणाम एक दूसरे से बहुत ही अलग हैं। इस तरह लिंग निर्धारण के समय का प्राकृतिक संयोग महिला के लिए एक सामाजिक दुर्घटना बनकर रह जाता है। चूंकि प्राकृतिक जगत में किसी खास लिंग का होना किसी दुर्घटना का कारण नहीं होता है इसी रूप में मनुष्य सभ्यता पशुओं से बदतर है। साथ ही महिलाओं द्वारा पुरूषों पर बलात्कार के नगण्य मामले ही प्रकाश में आए हैं। तो अनियंत्रित यौनेच्छा का तर्क पुनः खारिज होता है। अब यदि कोई प्रवृत्ति प्रकृति में नहीं है और समाज में है तो इसके कारण प्राकृतिक से अधिक सामाजिक होने चाहिए। बलात्कार करते समय पुरूष की मस्कुलैनिटी ही निर्णायक कारक दिखती है। परंतु इस शारीरिक बल के पीछे निश्चित रूप से वे संस्थागत् बल कहीं अधिक महत्वपूर्ण है जो कि हमारे समय में पुरूषों को प्राप्त है। 

हमारी सभ्यता, मूल्य, संस्कृति हर तरह से पुरूषों को छूट देते हैं कि वे महिलाओं की इच्छा और उनकी सहमति का अतिक्रमण कर सकते हैं। जब मैं हमारी सभ्यता मूल्य या संस्कृति का जिक्र करता हूं तो इसका तात्पर्य केवल भारतीय सभ्यता या संस्कृति से नहीं है यह सर्वलौकिक मानवीय सभ्यता का सामान्य अनुभव है। अब यह तर्क दिया जा सकता है कि लगभग सभी धर्मों, संस्कृतियों, समाजों और सभ्यताओं में बलात्कार को गलत माना गया है और इसके उपचार के लिए कई नैतिक नियम और सजाएं भी तय की गई हैं। परंतु जैसा कि पहले कहा गया है कि बलात्कार को पितृसत्ता और वर्चस्व की अन्य सामाजिक व्यवस्थाओं से अलग करके एक अकेली घटना के रूप में नहीं समझा जा सकता है। यह सांस्कृतिक ढांचा जो कि तथकथित नैतिक नियमों और सजाओं/बहिष्कारों आदि के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रयास करता है उस भौतिक ढांचे की बिल्कुल अनदेखी करता है या यह कहें कि जानबूझकर उसे बनाए रखता है जिसपर स्त्री और पुरूष के संबंध और समाज में उनकी स्थिति निर्धारित होती हैं। समाज के भौतिक सामातिक संबंधों में स्त्री के दोयम दर्जे की हैसियत को बनाए रखते हुए यदि उसकी सुरक्षा के तथाकथित नैतिक नियम बनाए जाएंगे तो ये नियम असफल ही हो जाएंगे भले ही कितनी भी कठिन सजाओं का प्रावधान किया जाय। और इस तरह के नियमों का खामियाजा स्त्रियों को ही अधिक भुकतना पड़ता है। सभी जानते हैं कि बलात्कार होने पर सबसे पहले महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। उन पर ही लक्ष्मण रेखाएं लाघने का आरोप लगाया जाता है। समाज में स्त्री पुरूष की स्थिति के विषय में हमारा सांस्कृतिक ढांचा गलत बुनियाद पर खड़ा है। और कुछ मातृसत्तात्मक और आदिम संस्कृतियों को छोड़कर ऐसा सभी संस्कृतियों में हुआ है। चूंकि वह भौतिक बुनियाद ही स्त्री विरोधी है जिस पर सांस्कृतिक ढांचा टिका है इसीलिए यह सांस्कृतिक ढांचा भी स्त्री विरोधी है। 

अब समझने का प्रयास करते हैं कि वह भौतिक बुनियाद क्या है जिसमें दोषपूर्ण सामाजिक संबंध पैदा होते हैं। फ्रेडरिक एंगेल्स ने अपनी पुस्तक परिवार निजी संपत्ति और राज्य की उत्पत्ति में इस भौतिक बुनियाद का काफी विश्वसनीय विश्लेषण किया है। वे दिखाते हैं कि पहला वर्ग विभाजन स्त्री और पुरूष के बीच हुआ था। उनके अनुसार आदिम समाज में जब संपत्ति का प्रादुर्भाव हुआ और प्रारंभ में जब सम्पदा कम थी तो सम्पत्ति पर गोत्र का अधिकार माना जाता था। साथ ही मातृसत्तात्मक व्यवस्था कायम थी अर्थात वंश स्त्री परंपरा के अनुसार चलता था और उत्तराधिकार प्रथा के तहत किसी सदस्य की मृत्यु पर उसकी सम्पत्ति उसके गोत्र संबंधियों को मिलती थी ताकि सम्पत्ति गोत्र के भीतर ही रहें स्त्री वंश परंपरा के अनुसार संपत्ति मां की तरफ के रक्त संबंधियों को मिलती थी। 

एंगेल्स लिखते हैं प्रारंभ में माता के दूसरे रक्त संबंधियों के साथ-साथ बच्चों को भी मां की संपत्ति का भाग मिलता था। संभवतः बाद में बच्चों का प्रथम अधिकार मान लिया गया। यह अधिकार मां की संपत्ति में था परंतु उन्हें अपने पिता की सम्पत्ति नहीं मिल सकती थी क्योंकि वे अपने पिता के गोत्र के सदस्य नहीं होते थे और संपत्ति का गोत्र के भीतर रहना आवश्यक था। किसी पुरूष रेवड़ पशुपालक की मृत्यु पर उसकी संपत्ति पहले उसके भाईयों और बहिनों को और बहनों के बच्चों को या मौसियों के वंशजों को मिलती थी। लेकिन उसके बच्चे उत्तराधिकार से वंचित थे। जैसे-जैसे भौतिक संपदा बढ़ी और परिवार के भीतर पुरूष का दर्जा महत्वपूर्ण हुआ पुरूष ने उत्तराधिकार की पुरानी मातृसत्ता को पलटने का काम किया। इसके लिए फैसला लिया गया कि गोत्र के पुरूष सदस्यों के वंशज गोत्र में ही रहेंगे और स्त्रियों के वंशज गोत्र से अलग करके अपने पिताओं के गोत्र में शामिल कर दिए जाएंगे। इस तरह पैत्रक वंशानुक्रम और पैत्रक उत्तराधिकार स्थापित हुआ। फ्रैडरिक ऐंगल्स ने इस घटना को मानव जाति द्वारा अनुभूत सबसे निर्णायक क्रांतियों में से एक कहा है। इस घटना के विषय में माक्र्स लिखते हैं, ‘‘मनुष्य की अंतर्जात वाकछल प्रवृत्ति जिसके द्वारा वह वस्तुओं के नाम बदलकर स्वयं उन वस्तुओं को बदलने का प्रयास करता है। जब भी कोई प्रत्यक्ष हित जबरदस्त रूप में प्रेरित करता है वह परंपरा को तोड़ने के लिए परंपरा में खोट निकालता है।’’ 

एंगेल्स आगे लिखते हैं, मातृसत्ता का विनाश नारी जाति की विश्व ऐतिहासिक महत्व की पराजय थी। अब घर के अंदर भी पुरूष ने अपना आधिपत्य जमा लिया, नारी पदच्युत कर दी गई, जकड़ दी गई। वह पुरूष की वासना की दासी, संतान उत्पन्न करने का एक यंत्र बनकर रह गई। वीरगाथा काल के और उससे भी अधिक क्लासिकीय यूनानियों में नारी की गिरी हुई हैसियत खास तौर पर देखी गई। बाद में धीरे-धीरे तरह तरह के आवरणों में ढककर और सजाकर तथा आंशिक रूप से थोड़ी नर्म शक्ल देकर उसे पेश किया जाने लगा। पर वह दूर नहीं हुई।’’

इस तरह वह भौतिक आधार जिस पर स्त्री का सामाजिक अस्तित्व टिका हुआ है पित्रसत्तात्मक आधार है और यही आधार तमाम धर्मों संस्कृतियों और सभ्यताओं में स्त्री के दोयम दर्जे के लिए जिम्मेदार है। इसी भौतिक आधार पर वह मूल्य प्रणाली पैदा होती है जिसके कारण पुरूष स्त्री के शरीर पर अपना स्वाभाविक अधिकार मानता है और स्त्री से बिना शर्त समर्पण की उम्मींद करता है। इसने स्त्री को असहाय बनाकर रख दिया है। यह पित्रसत्तात्मक वर्चस्व अकेले या अन्य वर्चस्वशाली संस्थाओं के साथ मिलकर स्त्री के यौन संबंधों में सहमति के अधिकार को समाप्त करता है। 

धर्म, व्यक्तिगत नैतिकता, पूंजीवादी राज्य और कानून की नाकामी

यद्यपि हम धर्म एवं सांस्कृतिक ढांचे की बलात्कार को रोकने के संबंध में नाकामी की चर्चा कर चुके हैं। परंतु समाज में धर्म के व्यापक प्रभाव और मूल्य प्रणाली के निर्माण में इसकी भूमिका को देखते हुए यह विस्तृत जांच की मांग करता है। धर्म अपने दार्शनिक और आद्यात्मिक स्वरूप में जहां विश्व की समस्याओं का समाधान उन समस्याओं के भौतिक मूल की अनदेखी करके प्रस्तुत करता है वहीं अपने सामाजिक स्वरूप में धर्म ना केवल यथास्थितिवाद का पोषक है बल्कि स्वयं भी एक शोषक वर्चस्वशाली ढांचा तैयार करता है। धर्म एक तरफ तो अनुयायियों को व्यक्तिगत् नैतिकता की सतही अवधारणा देता है जिसे वह बलात्कार जैसी घटनाओं को रोकने का माध्यम मानता है। वहीं दूसरी ओर व्यापक संहिंताएं तैयार कर स्त्रियों की परतंत्रता को सुनिश्चित करता है। और इन संहिताओं का प्रभाव निश्चित तौर पर धर्म की नैतिकता की अव्यवहारिक मांग से अधिक पड़ता है। 

साथ ही धर्म कई बार स्त्रियों की अधीनता का इस्तेमाल समाज में वर्चस्व के अन्य ढांचों को बनाए रखने के लिए करता है। धर्म की स्त्रियों के विषय में दी गई व्यवस्थाओं और उनके कार्यात्मक अनुभवों से स्पष्ट है कि धर्म हमेशा से स्त्री विरोधी रहा है। यहां पर आदिम तथा मातृसत्तात्मक समाजों की धार्मिक रीति रिवाज, टोटमवाद इत्यादि की बात नहीं की जा रही है परन् धर्म के बहुराष्ट्रीय व्यापक स्वरूप की चर्चा की जा रही है। हिंदू धर्म को ही लें तो इसकी तमाम समाजिक संहिंताएं स्त्री विरोधी हैं। मनुस्मृति शूद्रों की गुलामी के साथ साथ स्त्रियों की गुलामी का दस्तावेज भी है। चूंकि ब्राह्मणवाद की तथाकथित श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए आवश्यक था कि जातियों के बीच रक्त संबंध स्थापित न हो पाएं। इसके लिए स्त्रियों को गुलाम बनाए रखना आवश्यक था। 

डा0 अंबेडकर अपने शोध में दिखाते हैं कि किस तरह विधवा के पुनर्विवाह पर रोक लगाकर अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोका गया। मनुस्मृति के श्लोक  5-157 और 5-161 में पति की मृत्यु के बाद दूसरे पुरूष का नाम लेने पर भी स्त्री को निंदा का पात्र बताया गया है। साथ ही मनु ने विधुर पुरूष के पुनर्विवाह पर रोक नहीं लगाई। परंतु यहां पर भी अंतर्जातीय विवाह की संभावनाओं को रोकने के लिए यह नियम बनाया गया कि 30 वर्ष की आयु का पुरूष 12 वर्ष की कुमारी से विवाह करे और 24 वर्ष की आयु का पुरूष 8 वर्ष की कन्या से विवाह करे (देखिए मनुस्मृति 9-24) ताकि यदि कोई पुरूष 24 या 30 की आयु में विदुर हो जाए तो अपने ही वर्ण की वयस्क स्त्री ना मिलने पर बच्चियों से विवाह कर सके। साथ ही धर्म की संहिताओं में स्त्रियों को स्वभाव से ही चंचल और चारित्रिक गुणों से ही रहित बताया गया है। कहा गया है कि पुरूषों को दूषित करना ही स्त्री का स्वभाव होता है (मनुस्मृति 2-213)। स्त्री की गुलामी के प्रबंध के लिए कहा गया है कि बाल्यकाल में स्त्री पिता के अधीन रहे यौनावस्था में पति के अधीन रहे, पति की मृत्यु पर पुत्रों के अधीन रहे। स्त्री कभी स्वतंत्र ना रहे। (मनुस्मृति श्लोक 5-149) कुछ जगहों पर तो हद ही कर दी गई है- न तो वे (स्त्रियां) रूप ही देखती हैं और न उम्र ही सुंदर हो या असुंदर पुरूष होने से ही वे उनके साथ भोग करती हैं (मनुस्मृति श्लोक 9-14)। इस तरह के अनगिनत उदाहरण और दिए जा सकते हैं। 

हिंदु धर्म में स्त्रियों की जो सामाजिक स्थिति है उसका आधार मनुस्मृति के नियम ही हैं। जब धार्मिक कानून में ही स्त्रियों का दोयम दर्जा स्वीकार कर लिया जाए तो आचरण में समानता का प्रश्न ही नहीं उठता। हिंदु धर्म का सामाजिक आदर्श पूर्ण रूप से पित्रसत्तात्मक और स्त्रीविरोधी है। अन्य धर्मों की स्थिति भी इस संदर्भ में अच्छी नहीं है। इस्लाम में स्त्री को स्वाभाविक तौर पर ही पुरूष के संरक्षण में रहने योग्य माना गया है- ‘पुरूष महिलाओं के पोषक और संरक्षक हैं उन विशिष्टताओं के आधार पर जो ईश्वर ने एक व्यक्ति को दूसरे पर दी हैं।’ (कुरान 4/34 संदर्भ इस्लाम सिद्वांत और स्वरूप, जफर रज़ा)

ईसाई धर्म की प्रोटेस्टेंट शाखा में पूंजीवादी प्रभाव के तौर पर स्त्रियों के संदर्भ में कुछ खुलापन अवश्य नज़र आता है। परंतु इसकी वही सीमाएं हैं जो पूंजीवादी समाज की सीमाएं हैं। इस पर अलग से चर्चा की जाएगी। ईसाई धर्म की कैथोलिक शाखा में कौमार्य की अवधारणा पर विशेष जोर दिया गया है। इतिहास है कि कैथोलिक शाखा के मठाधीशों द्वारा बड़े पैमाने पर स्वतंत्र विचार वाली स्त्रियों को मृत्युदंड समेत कठोर सजाएं दी गई। बौद्ध धर्म पर अवश्य ही सिद्धांत के तौर पर स्त्री और पुरूष के भेद का निषेध किया गया है। कई स्थानों पर बुद्ध ने स्वयं कहा है कि निर्वाण प्राप्ति के लिए स्त्री और पुरूष का कोई भेद नहीं है और वे स्त्रियों की अपेक्षा किसी भी तरह से पुरूषों को विशेष नहीं मानते (अंगुत्तर निकाय 8ः2ः2ः1)। एक स्थान पर बुद्ध कहते हैं पुत्री, पुत्र से अधिक योग्य हो सकती है (संयुत्त निकाय)। परंतु साथ ही बुद्ध स्त्री और पुरूष की सामाजिक हैसियत के भौतिक आधार को परिवर्तित करने के प्रति सचेत नहीं दिखाई देते हैं। इसलिए वे कन्याओं को यह उपदेश देते हैं कि उन्हें पति से पहले सोकर उठने वाली और पति के बाद में सोने वाली होना चाहिए और काम करने वाली और चीजों को व्यवस्थित करने वाली होना चाहिए। (उग्ग्ह सुतंत अंगुत्तर निकाय) 

इस तरह चूंकि सभी धर्म (बौद्ध धर्म कुछ सीमा तक) स्त्री को पुरूषों से निम्न और प्राकृतिक तौर पर निर्भर मानते हैं अतः धर्म और उसके नैतिक नियमों का सांस्कृतिक ढांचा कभी भी पुरूष वर्चस्व के खिलाफ नहीं जाएगा। इसलिए धर्म बलात्कार को रोकने के लिए तो कुछ नहीं कर सकता साथ ही यौन नैतिकता के इसके नियम किस तरह स्त्रियों के ही खिलाफ जाते हैं इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। 

पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता: स्त्री बनाम आधुनिकता

राज्य कानून के माध्यम से बलात्कार को नियंत्रित करने का प्रया स करजा है परंतु इसमें सफलता नहीं मिली है। इसका कारण है राज्य कम से कम पूंजीवादी राज्य पितृसत्तात्मकता और समाज के अन्य वर्चस्वशाली ढांचों को समाप्त करने की इच्छाशक्ति नहीं रखता है। परंतु हां पूंजीवादी समाज व्यवस्था में सामंती जकड़ के ढीले होने से स्त्रियों के प्रति नजरिए में कुछ हद तक बदलाव जरूर आता है। पूंजीपादी राज्य और कानून पुरूष वर्चस्व को समाप्त नहीं कर पाता तो इसका एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि पूंजीवादी राज्य को अपने कृत्य काफी सीमित रखने होते हैं। सामाजिक व्यवस्थाओं तक पूंजीवादी राज्य की पहुंच उसके अपने अंतर्निहित चरित्र के कारण गलत सामाजिक संबंधों के उन्मूलन की हद तक होती ही नहीं है। साथ ही यदि कुछ सुधारात्मक कानून लाए भी जाएं तो उनका व्यापक विरोध भी होता है। याद करें हिंदु समाज में स्त्री पुरूष समानता के लिए अंबेडकर द्वारा किए गए हिंदु कोड बिल का क्या हश्र हुआ था। और किसी तरह कानून ले भी आया जाए जैसा कि हिंदु कोड बिल के प्रावधानों को अलग-अलग अधिनियमों के रूप में लाकर किया गया तो उसे लागू करने के क्या औजार राज्य के पास हैं। 

राज्य अपने आप को कानून बनाने तक सीमित रखता है। कानूनों से जुड़ा कोई वाद न्यायालय के समक्ष आने पर ही कानून लागू होता है। स्त्री को उत्तराधिकार दिलाने के लिए राज्य कोई व्यापक सामाजिक आंदोलन नहीं चलाता क्योंकि यह राज्य की प्राथमिकता में ही नहीं है। साथ ही समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से अधिक और कई मायनों  मंे अधिक ताकतवर हैं। अतः कानून बनाने की कवायद औपचारिकता मात्र रह जाती है। दूसरा महत्वपूर्ण कारण है। पूंजीवादी राज्य विधि के स्रोत के रूप में परंपरा को स्वीकार करता है।  इसी आधार पर कई समुदायों के पर्सलन लाॅ, विवाह व्यवस्था, तलाक आदि के प्रावधानों को राज्य स्वीकारता है। इन व्यवस्थाओं में स्त्री की स्थिति प्रथम दृष्टया ही दोयम दर्जे की होती है। उस समुदाय विशेष की स्त्री के उन व्यवस्थाओं से शोषण को रोकने के लिए राज्य कुछ नहीं करता है। राज्य की एजेंट अर्थात सरकार किसी बड़े समुदाय की नाराजगी झेलने के लिए किसी राजनैतिक कारणों से तैयार नहीं रहती है और सामान्यतया उदासीन और कभी कभी तो प्रतिक्रियावादी भूमिका में नजर आती है। शाहबानो प्रकरण में राजीव गांधी की सरकार ने जो कृत्य किया उसे आजादी के बाद मुस्लिम महिलाओं के अधिकरों पर राज्य द्वारा किया गया सबसे बड़ा कुठाराघात माना जाना चाहिए। 

समाज और उसकी व्यवस्थाएं राज्य से कितनी ताकतवर हैं इसका उदाहरण हरियाणा सरकार की खाप पंचायतों की असंवैधानिक अधिकारिता के सामने घुटने टेकने से जाहिर होता है। यदि सरकार में इच्छाशक्ति की कमी होगी जैसा कि उपर्युक्त मामले में दिखाई देता है तो राज्य भी पंगु हो जाता है। पूंजीवादी राज्य और कानून की असफलता का सबसे बड़ा कारण है स्त्री पुरूष संबंधों की उस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के प्रति उसकी अंतर्निहित अनिच्छा जिसके विषय में फ्रेड्रिक एंगेल्स के विचारों की हम चर्चा कर चुके हैं। पूंजीवादी कानून उत्तराधिकार की पित्रसत्तात्मकता को नष्ट नहीं करता बल्कि उसमें स्त्रियों को भी विधि के माध्यम से हिस्सा दिलाने का प्रयास करता है। (यह स्थिति भी केवल वास्तविक पूंजीवादी देशों में ही है।) चूंकि पुरूषों का सामाजिक वर्चस्व कायम रहता है इसलिए यह कवायद कभी अंजाम तक नहीं पहुंच पाती। 

अक्सर कहा जाता है कि जैसे जैसे आधुनिकता शिक्षा और तकनीक का प्रसार होगा स्त्री की स्वतंत्रता भी बढ़ती जाएगी। परंतु इस आधुनिकता की वही अंतर्निहित सीमाएं हैं जो कि पूंजीवादी समाज की हैं। आधुनिकता की एक अन्य समस्या स्त्रियों के विषय में इसका विकृत दृष्टिकोण भी है। सामंती समाज यदि स्त्री को ढकी हुई उपभोग की चीज मानता है तो आधुनिक पूंजीवादी समाज उसे उपभोग की खुली हुई चीज मानता है। यह सही है कि स्त्रियां सार्वजनिक जीवन के सभी क्षेत्रों में प्रवेश कर रही हैं आधुनिकता ने स्त्रियों को अवसर प्रदान किए हैं परंतु इसने पुरूषों का स्त्रियों के प्रति दृश्टिकोण को बदल दिया है ऐसा कतई नहीं है। आधुनिकता और स्त्री आजादी के विषय में लिव इन रिलेशन का जिक्र करना समीचीन होगा। यह सामान्य समझदारी पर आधारित संबंध है परंतु इसके नतीजों के अंतिम नुकसान यदि कोई हों तो स्त्रियों को ही उठाने पड़ते हैं। और कभी कभी तो यह संबंध पुरूष स्त्रियों को धोखे में रखकर मात्र शारिरिक आवश्यकताओं के लिए ही बनाते हैं। इस आधुनिकता में कितने अंतर्विरोध हैं इसका प्रमाण पश्चिमी समाजों में हाईमैनोप्लास्टी का बढ़ता चलन है। क्या आधुनिकता के पास पुरूषों के कौमार्य की पुनस्र्थापना का आग्रह है? 

क्या है रास्ता?

हमने बलात्कार और यौन उत्पीड़न से बात शुरू की थी परंतु ये घटनाएं स्त्री-पुरूष की सामाजिक स्थितियों के साथ इस तरह गुथी हैं कि पितृसत्तात्मकता के नष्ट हुए बगैर ये बने ही रहेंगे। 

1. पितृसत्ता की समाप्ति आवश्यक है

एंगेल्स ने स्त्री पुरूष के बीच के वर्ग विभाजन के आधार के रूप में पितृसत्ता की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित की है। उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति के पितृसत्तात्मक स्वरूप को नष्ट करना आवश्यक है। परंतु पितृसत्ता का विकल्प क्या हो सकता है। मातृसत्तात्मक व्यवस्था इसकी जगह ले सकती है? असल में मातृसत्तात्मक समाज व्यवस्था के अपने अंतर्विरोधों के कारण ही पितृसत्तात्मक समाज व्यवस्था का जन्म हुआ था। अतः मातृसत्ता पितृसत्ता का विकल्प नहीं हो सकती। सही कदम तो होगा कि उत्तराधिकार के रूप में मिलने वाली संपत्ति का स्वरूप ही न रहे। अतः संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक हो। जब संपत्ति का स्वरूप निजी न होकर सामाजिक होता है तो स्त्री-पुरूष के संबंध बेहद स्वाभाविक एवं वर्चस्व रहित होते हैं। इसका उदाहरण प्रकृति से तादाम्य के साथ रहने वाली वे जनजातियां हैं जिनके समाज में संपत्ति का स्वरूप सामुदायिक होता है। इन समाजों में स्त्रियां उत्पादन प्रणाली में अपने योगदान के अनुंरूप और समाज के पुरूष सदस्य के समान ही अधिकार और स्वतंत्रता का आनंद उठाती हैं। इस तरह की आदिम और घुमंतू जनजातियों में स्त्री पुरूष भेद बेहद कम और बलात्कार जैसी घटनाएं भी नगण्य होती हैं। संपत्ति के निजी स्वरूप और उत्तराधिकार प्रणाली से ही स्त्री की गुलामी की शुरूआत हुई थी। अतः इस भौतिक बुनियाद को नष्ट करने के साथ ही यह गुलामी भी वास्तविक रूप से नष्ट होगी। कई लोग संपत्ति के सामाजिक स्वरूप वाली प्रणाली में परिवार और एकनिष्ट विवाह जैसी संस्थाओं के उन्मूलन हो जाने के खतरे की बात करते हैं। निजी संपत्ति के उन्मूलन से परिवार और एकनिष्ठ विवाह का उन्मूलन नही। होगा वरन् इनका शोषक और वर्चस्वशाली स्वरूप समाप्त होगा। जैसा कि एंगेल्स दिखाते हैं कि एकनिष्ठ विवाह निजी संपत्ति के उन्मूलन पर अधिक मजबूत होगा क्योंकि यह प्रेम और रूचियों की समानता पर आधारित होगा। यहां पर यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि निजी संपत्ति के उन्मूलन के साथ ही बलात्कार और यौन शोषण पूरी तरह से समाप्त नहीं हो जाएंगे। कुछ घटनाएं तब भी हो सकती हैं। परंतु तब पुरूष वर्चस्व की समाप्ति होगी और बलात्कार के सामाजिक परिणाम बदल जाएंगे। क्योंकि भौतिक आधार नष्ट होने से मूल्य प्रणाली भी बदल जाएगी। 

उपर्युक्त विश्लेषण की एक सीमा यह है कि इसमें सभी महिलाओं को एक ही समुदाय के रूप में प्रदशित किया गया है। महिलाएं वर्ग, जाति, रंग आदि कई वर्चस्व वाली श्रेणियों में बंटी हुई हैं अतः निजी संपत्ति के उन्मूलन का रास्ता इतना आसान नहीं। जैसा कि इस लेख की शुरूआत में ही स्पष्ट किया गया कि पितृसत्ता के साथ ही समाज की अन्य वर्चस्वशाली ढांचों के कारण महिलाएं अधिक असुरक्षित होती हैं। अतः महिला मुक्ति का प्रश्न मानव मुक्ति के अन्य प्रश्नों के साथ गहराई से जुड़ा हुआ है। 

निजी संपत्ति के उन्मूलन का एजेंडा राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में माक्र्सवादियों का प्रमुख ऐजेंडा है और माक्र्सवादियों ने ही सही रूप में स्त्री की गुलामी की भौतिक बुनियाद को समझा है। परंतु राजनैतिक कार्यवाहियों में जेंडर के प्रश्न को माक्र्सवादियों ने उपेक्षित ही छोड़ा है। यह शुरूवात कम्युनिष्ट घोषणापत्र से ही हुई है जब माक्र्स और एंगेल्स घोषणा करते हैं कि कम्युनिष्टों पर ज्यादा से ज्यादा यह आरोप ही लगाया जा सकता है कि वे पुराने काल से चली आरही स्त्री की सर्वोपभोग्यता के गोपनीय रूप को समाप्त कर खुला कानूनी रूप देना चाहते हैं। यहां पर माक्र्स और एंगेल्स के मंतव्य पर कोई संदेह नहीं कि वे स्त्री की स्वतंत्रता की बात कर रहे हैं परंतु ‘स्त्री की सर्वोपभोग्यता का कानूनी रूप’ ये शब्द कम्युनिष्ट घोषणा पत्र जैसी महान कालजयी कृति में ना होते तो अच्छा था। ये बुर्जुआ नैतिकता का आग्रह नहीं परंतु स्त्री की ही सर्वोपभोग्यता ही क्यों पुरूष की क्यों नहीं? यह जायज प्रश्न माक्र्स से पूछा ही जाना चाहिए था। यही जेंडर का नाजुक प्रश्न है जिसपर निजी संपत्ति का उन्मूलन करने के लिए प्रतिबद्ध राजनैतिक कौम से अधिक समझदारी और गंभीरता की अपेक्षा है। इसे मात्र अस्मिता का प्रश्न मानने से समस्याएं हल नहीं होंगी। 

2.सेक्सिज्म का विरोध करना होगा 

यह पूंजीवादी समाज की देन है कि यौन आवश्यकताओं को उनकी प्राकृतिकताओं से कहीं अधिक महत्व दिया जा रहा है। यह कुत्सित प्रचार किया जा रहा है कि भोजन की तरह ही यौन संबंध भी जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं। यह सोच प्राकृतिकता के बजाय कृत्रिम मनोविज्ञान पर आधारित है। क्योंकि भोजन के बगैर जीवन संभव नहीं है परंतु यौन संबंधों के बगैर निश्चित संभव है। क्योंकि भोजन जीवन के लिए आवश्यक है तो यौन संबंध जीवन की निरंतरता के लिए। यहां पर यह स्पष्ट करना जरूरी है कि मेरे द्वारा ब्रह्मचर्य जैसी अव्यावहारिक अवधारणा का समर्थन नहीं किया जा रहा है। परंतु वर्तमान मुनाफा केंद्रित व्यवस्था। जिस रूप में यौनवाद को बढ़ावा दे रही है। उसका विरोध होना ही चाहिए क्योंकि यौनवाद अपने आधारभूत स्वरूप में ही स्त्री विरोधी है। यह यौनवाद का ही परिणाम है कि बाजार पुरूषों की उत्तेजना बढ़ाने वाले अनगिनत उत्पादों से भरा पड़ा है और इसका बाजार बढ़ता ही जा रहा है। ब्रह्मचर्य अव्यवहारिक है तो यौनवाद भी बेहद खतरनाक प्रवृत्ति है। बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए इसका विरोध आवश्यक है साथ ही इसके पीछे बाजार की शक्तियों को बेनकाब करना भी।

3.धर्म की सत्ता का विनाश करना होगा

चूंकि धर्म आधारभूत रूप से स्त्री विरोधी है। अतः स्त्री मुक्ति के लिए धर्म की सत्ता का विनाश आवश्यक है। हमें धर्म का स्थान लेने में सक्षम ऐसे नैतिक ढांचे का आविष्कार करना होगा जो मनुष्यों के संतुलित भौतिक संबंधों पर आधारित हो। 

4.कानून/सुरक्षा/न्यायिक व्यवस्था में सुधार

किसी बड़े सामाजिक आंदोलन के अभाव में तदर्थ उपाय तो करने ही होंगे। इसके लिए कठोर कानून और उसका समयबद्ध क्रियान्वयन आवश्यक है। परंतु बलात्कार के लिए मृत्युदंड एक गलत विचार है क्योंकि ऐसा होने पर बलात्कारी पीडि़त महिला की सुबूत मिलाने के लिए हत्या कर देगा। अभी हमारे पास कानूनी पहलुओं के विषय में वर्मा समिति की प्रशंसनीय और विस्तृत सिफारिशें हैं उन्हें पूरी तरह लागू करना होगा। 

मोहन स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
संपर्क- mohanmanuarya@gmail.com

मृत्‍युदंड के नकार का तर्क

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-डाॅ. प्रभात उप्रेती

डाॅ. प्रभात उप्रेती
बैंगलौर में एक बच्ची के साथ और लखनऊ में एक महिला के साथ हुए जघन्य बलात्कार के बाद उभरे आंदोलनों ने भी दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ उमड़े आंदोलन की ही तरह समाज को झकझोरने की कोशिश की है. इतने व्यापक आन्दोलनों और राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा-परिचर्चा के बावजूद भी रेप की घटनाओं में कोई रोकथाम नहीं है. वह कौन सी वजहें हैं जिसके चलते रेप जैसे अपराध और भी अधिक वीभत्सता के साथ लगातार सामने आ रहे हैं?

 दिल्ली गैंग रेप के बाद praxis ने इस विषय पर आलेखों के जरिए इस विमर्श के विविध पहलुओं पर ठोस बात करने की कोशिश की. praxis में प्रकाशित आलेखों और कुछ नए आलेखों का संकलन कर उन्हें 'उम्मीद की निर्भयाएँ'नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित कराया। इसी किताब से कुछ आलेखों को हम, इस विमर्श को और मुकम्मल ढंग प्रसार देने के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. 

अक्‍सर इन घटनाओं की प्रतिक्रिया में जो आंदोलन उभरते हैं. उनमें 'बलात्‍कारियों को फांसी दो'का नारा आम तौर पर सुनाई देता है. लेकिन क्‍या बलात्‍कारियों को फांसी इस समस्‍या से निजात दिलाने की तरफ एक मामूली सा भी कदम साबित हुआ है/हो सकता है. या उलटे यह हमारी न्‍याय व्‍यवस्‍था के विकासक्रम में उभरे 'मृत्‍युदंड के नकार'के एक प्रबल विचार को और भी पीछे धकेलता है. इस विषय पर एक गंभीर चर्चा करता राजनीतिशास्‍त्री डाॅ. प्रभात उप्रेती का यह आलेख 'उम्‍मीद की निर्भयाएं'से लेकर हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं.  
-संपादक

साभार- http://www.thehindu.com/
सुकरात को जब एथेंस की लोकतांत्रिक व्यवस्था ने मृत्युदंड दिया था तो उन्होंने कहा था- ‘‘सोचना, खतरनाक हो सकता है, पर ‘नहीं सोचना’ अंततः सबसे अधिक खतरनाक हो जाता है...।’’ यह उन्होंने लोकतंत्र के उत्तेजनात्मक खतरे को देख कर कहा था। दिल्ली गैंग रेप के बाद भी जब एक अनिवार्य आंदोलन उभरा तो यह भी एक घटना की उत्तेजनात्मक प्रतिक्रिया ही थी। जो दो वैचारिक धाराएं वहां आंदोलनरत थी उनका स्पष्ट अंतर दोषियों को फांसी देने या न देने के उनके तर्काधार में दिखाई दिया। यहीं सुकरात के कथन के ‘सोचने’ और ‘ना सोचने’ को इन तर्काधारों के संदर्भ में देखा जा सकता है। जिस उन्माद में चारों तरफ से फांसी की सजा के नारे उछले (या मीडिया द्वारा इसे हवा दी गई) वह इस बात पर बिना सोचे समझे ही उभरे कि दुनिया भर में मृत्युदंड के नकार का एक प्रबल विचार भी मौजूद है, जिसका अपना मजबूत तर्क है। साथ ही ऐसा भी नहीं था कि मृत्युदंड के नकार के इस विचार के समर्थक इस आंदोलन में नहीं थे, अपितु इस विचार के वाहकों ने ही आखिरकार आंदोलन को ‘फांसी के प्रतिगामी नारों’ के बजाय ‘महिलाओं की समूची आजादी के नारों’ का रास्ता दिखाया था। जो अंतत आंदोलन का प्रतिनिधि नारा बना।

लेकिनबावजूद इसके अगर हम अब भी फांसी के बारे में सामान्यतया हमारे समाज के नजरिए की पड़ताल करें तो पाएंगे कि फांसी एक सर्वमान्य सजा है। अधिकतर आबादी तो जघन्यतम अपराध करने वालों को भीड़ के हवाले कर देने से बिलकुल सहमत होती है। और बहुत हुआ तो कुछ प्रगतिशील लोग हमारे न्यायिक प्रावधानों से ही सहमत होते हुए यह कह देते हैं कि ‘रेयरेस्ट आॅफ द रेयर केस’ में फांसी की सजा मान्य हो सकती है। दरअसल ये समूची मानसिकता हमारे समाज की सभ्यता के विकासक्रम की पैरामीटर है। इस पैरामीटर में भारतीय समाज का एक बड़ा तबका तो दरअसल ‘सजा’ और ‘बदले’ के मूलभूत फर्क को ही नहीं जानता। इसलिए वह सजा के तौर पर बदला लेने की शक्ल में, अपराधी को भीड़ में सौंप देने, लिंग काट देने, रसायनिक बंधियाकरण और फांसी की सजा/मृत्युदंड को स्वाभाविक तौर पर जायज मानता है।  

यहांइस आलेख में मृत्युदंड के प्रति समग्र समझ बनाने के उद्देश्‍य से इसे इसके ऐतिहासिक संदर्भों में देखने की कोशिश की जाएगी। इसलिए इसे सिर्फ अपराधियों को दिए गए मृत्युदंडों तक ही सीमित नहीं रखा जाएगा, वरन् इतिहास के उन नायकों को भी इस विश्‍लेषण में शामिल किया जाएगा जिन्हें तत्कालीन राज-व्यवस्थाओं ने अपराधी बता कर ही मृत्युदंड दिया। इतिहास में तलाशने पर मृत्युदंड शब्द के साथ सुकरात, ईसा मसीह से लेकर भगतसिंह और जरा सा दूसरे संदर्भों में गांधी तक का नाम भी साथ पैबस्त मिलता है। यह उदाहरण इतिहास व समाज के सर्वोच्च आदर्श व्यक्तियों के उदाहरण हैं।

मृत्युदंडप्रारम्भ से ही कबीलाई संस्कृति और उसके बाद की संस्कृतियों में भी न्याय की ‘नायब’ चीज मानी गयी। नैतिकता के मापपंदड के आधार पर न्याय की धारणा बनी। सत्ता ने हमेशा ही न्याय का आकलन अपने मापदंडों के आधार पर किया। इसमें यह स्पष्ट था कि मृत्युदंड पाने वाला तात्कालिक न्याय व्यवस्था के मानदंडों को पूरा नहीं कर पाया। यही कारण रहा कि समाज में प्रचलित कुरीतियों और अंधविश्‍वासों के खिलाफ प्रतिरोध की आवाज उठाने वाले अनगिनत नायकों को भी राज-सत्ताओं ने लगातार मृत्युदंड दिया।

कबीलाईव्यवस्था से ही धर्मो ने न्याय का स्वरूप लगातार अपनी नैतिकता, इलहाम के अनुसार रखा और न्याय व्यवस्था को कायम रखने के लिए दंड व्यवस्था को ‘आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत’ सरीखा अमानवीय बनाए रखा। इसलिए किसी को मारने पर या ‘देशद्रोह’ करने पर, मृत्यदंड को अनिवार्य व घोर ‘नैतिक’ बनाए रखा। देशभक्ति के अर्थ भी इस मृत्युदंड की व्यवस्था से खतरनाक ढंग से ‘नैतिक’ बन गए। यह विचार कभी आया ही नहीं कि मृत्युदंड अमानवीय है। जबकि उसे ही न्याय का प्रमुख आधार माना गया। 

न्याय के बर्बर कबीलाई नुस्खों के इतर यूनानी व रोमन समाज व्यवस्थाओं में जैसे-जैसे कानून और न्याय की अवधारणाओं में तरक्की हुई, प्राकृतिक अधिकारों और आदमी के जीवन के अधिकार केा लेकर प्रर्याप्त बहसें होने लगीं। ‘जस्टजैनसियम जस सिविली’ जैसे कानूनों ने नियमों-कानूनों को अधिक मानवीय बनाया। परंतु यूनानी विचारधारा ने न्याय व्यवस्था की एक बेहतर धारणा दी। प्लेटो ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक रिपब्लिक का नाम ही ‘कंसर्निंग जस्टिस’ रखा। यद्यपि उसकी विचारधारा में न्याय कानूनी धारणा नहीं, सामाजिक समरसता की धारणा थी। उसने यह शास्‍वत सत्य उजागर किया -जब तक राजा दार्शनिक नहीं हो जाते, दार्शनिक राजा नहीं हो जाते तब तक राज्य पूर्ण नहीं होंगे। वह राज्य को पूर्ण समझदारी से भरे लोगों का संगठन मानता है। यह भी कहा गया कि राज्य वहां रहने वाले लोगों के चरित्र पर निर्भर करता है। उसकी बौद्धिक तानाशाही से भले ही हम इंकार करें पर यह अवश्‍य है उसने जिस तरह से प्रबुद्धता व जन-साझेदारी समझदारी की बात की, वह आधुनिक राज्य के लिए भी आदर्श न्याय का अहम चिंतन है। उसने साफ कहा- ‘न्याय का मतलब प्रत्येक नागरिक को उसका देय प्राप्त होना है।’ अर्थात उसकी योग्यता के अनुसार समाज में जगह प्राप्त करना है। यह एक बहुत बड़ा दर्शन था जिसे अभी तक आधुनिक समाज में भी नहीं समझा पाया है। उसका न्याय मनोवैज्ञानिक व समाजिक समझ का एक भाग है। यह दृष्टि ही सही न्याय को समझ सकती है। यदि प्रत्येक व्यक्ति को उसकी गुणवत्ता के अनुसार समाज में स्थान मिलता हो तभी समाज पूर्ण होगा। 

यूनानीविचारकों ने लोकतंत्र का व्यंग्यात्मक चित्र भी खींचा। प्लेटो ने तो ऐथेंस के लोकतंत्र को कभी माफ नहीं किया जिसने उसके गुरू को मृत्युदंड दिया। वहां लोकतंत्र की उपमा ऐसी व्यवस्था से की गई जैसे किसी जहाज में एक-एक कप्तान को डाकुओं ने मस्तूल से बांध दिया है और उस जहाज का निर्देशन एक ऐसा डाकू कप्तान कर रहा है जो डाकू है पर उसे न जहाज कला का ज्ञान है और वह कमजोर आंख वाला है। यानी कप्तान के सारे गुणों से वंचित वह राज्य को गलत दिशानिर्देशन दे रहा है। यूनानियों ने समझ, प्रबुद्धता पर जोर दिया। और मध्ययुग में जैसे ही यह प्रबुद्ध चितंन खत्म हुआ सारा यूरोप पंद्रहवीं शताब्दी तक अंधकार युग में चला गया। यूनानी पूर्व चितंन, यह मनोवैज्ञानिक सत्य बार-बार अपने दर्शन में दुहराता है कि जब तक आम आदमी में भी समझदारी न आये और सबसे बड़ा समझदार राजा न हो, तब तक राज्य का कल्याण नहीं होने वाला। भले ही यह दर्शन आदर्शवादी हो पर आदमी का लक्ष्य यही है। यह दर्शन आम जीवन में उतर नहीं पाया और यह आज के राज्यों की समस्या बनी है।

बहरहाल इस छोटे से विषयांतर, जो कि आलेख के मूल प्रविषय का ही एक विस्तार था, हम दुबारा मूल विषय की और लोटते हैं। न्याय की अवधारणा धर्मग्रन्थों ने अपने नैतिक व हवाई चिंतन द्वारा उपलब्ध करायी। लेकिन हर धर्म ग्रन्थ में मृत्युदंड को आंखरी दंड माना गया। दंड की धारणा जब तक आदम रही, मृत्युदंड उसका आवश्‍यक तत्व रहा। लेकिन बाद के दौर में भी मृत्युदंड अब तक अमान्य नहीं हो पाया है। मृत्युदंड की शुरूआती अधारणा कबीलाई समाज से उभरी। बाद के समाजों में भी इसे पर्याप्त प्रशय मिला। धर्म और राज्य सत्ताओं ने भी अपने विरोधियों को खत्म करने के एक ढंग के तौर पर इसे इस्तेमाल किया। प्रत्येक क्रान्ति अथवा विद्रोह में यह अपने विरोधियों को खत्म करने का साधन रहा। फ्रांस की क्रांति हो, रूस की क्रांति या अमेरिका की क्रांति यह दंड सबसे अधिक प्रचलित अपने विरोधियों को खत्म करने में रहा। यहाँ इसका सबसे बड़ा आधार देशद्रोह रहा। प्रतिक्रांतियों ने लोकतंत्र के क्रांतिकारियों यथा राॅब्स्पीयर तक को भी गिलोटिन पर चढ़ा दिया। उनको जब गिलोटिन पर चढ़ाया गया तो उनसे पूछा गया कि ‘सिर किस तरफ रखना चाहेंगे।’ तो उन्होंने कहा- ‘सिर कहीं भी रखा जाय, हृदय सही जगह होना चाहिए।’

न्याय की धारणा निरंतर अपनी-अपनी नैतिकता के अनुसार बदलती रही। उसका मानवीय व सर्वमान्य नियम विश्‍व के इतिहास में कहीं नहीं रहा। लेकिन मृत्युदंड लगातार न्याय के एक शाश्‍वत औजार के बतौर बरकरार रहा। मूलतः यह एक तरह से बदला लेने की प्रवृत्ति रही। वह बदला कई शक्लों में था। इसमें आदमी में जो सुधार की सम्भावना थी उसे सिरे से इनकार कर दिया गया। और साथ ही इसमें अपराधी को अपराध के लिए, समाज के वातावरण से इतर प्रशिक्षित मान, समाज ने एक अपराधी के अपराधी बनने की प्रक्रिया में अपनी भूमिका और उत्तरदायित्वों से पल्ला झाड़, मृत्युदंड को जायज माना।  

इंगलेंडमें ‘कानून के शासन’ की धारणा ने न्याय व्यवस्था व कानून के संबंधों को गहरा किया और न्याय की ऊर्जा को आगे बढाया। टी.एच.ग्रीन ने न्याय दण्ड व्यवस्था को और भी विस्तृत किया और उसने कहा- ‘एक उदारवादी राज्य के लिए एक उदारवादी समाज की जरूरत है, एक ऐसे मंच की जरूरत है जहां समाज का हर व्यक्ति अपनी विचारधारा के अनुसार अपने को व्यक्त कर सके।’ यह लोकतांत्रिक आदर्शवाद था जो जर्मन आदर्शवाद का ब्रिटेनीकरण था। राज्य निर्माण के समझौते के सिद्धांत के तीन पुरोधा, हाॅब्स, लाॅक और रूसो, आजादी, समानता व व्यक्ति के जिंदा रहने के अधिकार को अपने-अपने कारणों से सामने लाए। उन्होंने राज्य को कृतिम माना। राज्य का आधार, स्वतंत्रता समानता, सम्पत्ति का अधिकार माना। उनका दर्शन यद्यपि दार्शनिक नहीं था पर इस विचारधारा ने आदमी के जीने के अधिकार को बहुत महत्व दिया।

औद्यौगिक क्रांति के बाद बैंथम मिल की जिस लेसेफैयर की व्यक्तिवादी विचारधारा ने न्याय व्यवस्था में सुधार किये, उसने भी न्याय व कानून की धारणा को नये ढंग से सोचने के लिए विवश किया। नरक जैसी जेल व्यवस्था में सुधार की बात की। इंगलेंड में जहां एक पैन चुराने पर भी बच्चों को मृत्युदंड दिया गया, वहां इन सब नाकारा कानून का विरोध किया। माॅनटैस्क्यू के सत्ता की क्रूरता, उसके तानाशाही दुरूप्रयोग को रोकने के दर्शन ने न्याय व दंड व्यवस्था में सुधार किया। औद्याोगिक क्रांति के बाद बेंथम ने जहां न्याय को सुखवाद व उपयोगितावाद के आधार पर रखा वहां जाॅन स्र्टुअट मिल ने इसे व्यक्ति की स्वतंत्रता पर जोर दे कर न्याय की धारणा को और भी आगे बढ़ाया। रसेल ने भी न्याय की धारणा में सुधार किया। न्याय व कानून की विचारधारा को समाजिक विचारकों ने जितना दृढ़ किया उतना कानूनविदों ने नहीं किया। सभी समाज सुधारकों व दार्शनिकों ने न्याय व दंड की धारणा में परिवर्तन किया। 

बेंथमके बाद टी.एच. ग्रीन ने इस मामले में महत्वपूर्ण कार्य किये। उसने रूसो की सामान्य इच्छा को उजागर किया साथ ही उसने बतलाया राज्य का आधार इच्छा है, बल नहीं। उसने ‘प्रतिरोध के सिद्धांत’, ‘निवारक सिद्धांत’, ‘सुधार का सिद्धांत’ के दंड के सिद्धांतों को नकार कर एक मिली जुली व्यवस्था की बात कही। ‘अपराधी मानसिक रूप से बीमार है। उसमें सुधार करना, उसके दंड को समाज के लिए उपयोगी बनाना व दूसरों को सबक देना कि- अपराध से दंड मिलता है, को ही उसने दंड का आधार माना। राज्य का उद्देश्‍य व्यक्ति की नैतिकता के मार्ग में बाधाओं को दूर करना है इसलिए दंड आवश्‍यक है। राजाओं के जमाने में न्याय, दंड अलग-अलग रहे। 

न्याय के मामले में हमेशा इतिहास में सुधार को लेकर बातें चलती रहीं। दंड, जेल व्यवस्था आदि को लेकर सुधार की बातें चलीं पर मृत्युदंड को हमेशा बनाये रखने दिया गया। उस पर बहुत बहसें हुई नहीं। उल्टा उसे बनाये रखने के लिए हमेशा बात होती रही। पर कुछ समय बाद 1750 से हल्की-हल्की बहस होने लगीं। 1764 में इटैलियन कानूनविद सिजेर बकारिया ने अपना पेपर ‘ऐसे आन क्राइम एण्ड पनिशमेंट’ प्रस्तुत किया जिसमें उसने मृत्युदंड को अमानवीय बतलाया और कहा अगर हमारे समाज को सभ्य होना है तो मृत्यदंड को खत्म करना जरूरी है। वे कहते हैं कि क्या यह मूर्खता नहीं है कि जो कानून इंसान को कत्ल से बचाने के लिए बनाये गये हैं वही कानून इंसान को खुले आम उसका कत्लेआम कर रहे हैं। विकारिया का विचार दो तर्को पर आधारित था- प्रथम सजा के उद्देश्‍य दो हैं, पहला- भविष्य के अपराध को रोकना, जिसे मृत्यदंड रोक नहीं सकता। दूसरा- राज्य की संम्प्रभुता का अधिकार, नागरिक को बचाना, वह इससे प्रभावित होता है। यह राज्य के प्रमुख गुण के खिलाफ है। उनका तर्क था मृत्युदंड की अपेक्षा सामान्य दंड दिया जाय तो यह उन्हें अपराध करने से रोकेगा। जब तक इसकी बहुत आवश्‍यकता न हो जाये यह कर्म तानाशाही कर्म है। दंड में वह शक्ति होनी चाहिए कि इंसान दुबारा अपराध न कर पाये। बिकारिया के तर्क अभी तक बने हुए हैं। 

भारत की आधुनिक न्याय व्यवस्था में मृत्युदंड का स्रोत 1860 की आइपीसी है। यह सोचा गया कि इससे भविष्य में यह वारदात कम होंगी। समाज में अन्य लोग भी इससे आगे वह अपराध करने का साहस न करें। लार्ड मैकाले ने जिसने यह कोड लिखा था उसने साफ लिखा है कि ऐसा कोई भी तर्क मेरे सामने नहीं आया जो मृत्युदंड से होने वाले लाभ के बारे में संतुष्ट करता। मैकाले खुद मृत्युदंड के खिलाफ थे लेकिन ड्राफ्टिंग कमेटी में उनके इस विचार को विरोधाभासी मान मृत्युदंड को स्थाई रखा गया। 

1982में सर्वोच्च न्यायालय ने बचन सिंह बनाम पंजाब में कहा कि फांसी, ‘रेयरेस्ट आफ द रेयेरे केस’ में ही दी जायेगी। कोर्ट ने मैकाले का संन्दर्भ देते कहा कि कुछ कुछ लोगों मौका देना चाहिए। पर उसने ‘रेयरेस्ट आफ रैयेरेस्ट’ को परिभाषित नहीं किया। जस्टिस अयर ने ऐडिगाअम्मा बनाम आन्ध्र राज्य में कहा- यह बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी कोई दंड-संहिता नहीं दी गयी है जिसके अन्तर्गत हमें बताये जा सकें कि दंड कैसे और कब देना है. हम तो फारसेनिक गवाह के मामले में ही उलझ जाते हैं। पी.एन.भगवती ने कहा- इसके पीछे सिद्धांत ही गलत है। अपराधी सवाल कर सकता है कि ये निर्णय आत्मगत है। यह इस पर निर्भर है कि कौन सी बैंच बैठेगी। यह इतना अस्पष्ट है कि एक प्रसिद्ध उपन्यास में एक जज सिफारिश से जज बन गया। उसके पास फांसी का मामला आया। वह इतना जटिल था कि उसकी समझ में कानून की बारीकियां ही नहीं आयीं। इस पर वह सिक्का उछालता है और मृत्युदंड चित्त आने पर दे देता है। 

बहुतसे कानूनी मामले सामने आए जिससे लगा हमारी न्याय व्यवस्था हमारे कानून और हमारी समाजाकि स्थिति ऐसी है कि यहां न्याय व्यवस्था विशेषकर फांसी जैसी सजा को जारी रख कर हम मानवीय संभावनाओं को नकारने का एक बहुत बड़ा नकारात्मक कार्य कर रहे हैं। एक समय में रंगाबिल्ला व धनजंय मामले में भी क्रूरतम मामले में फांसी की सजा को अनिवार्य मानने की बात आई। मीडिया ने फांसी की सजा को इस तरह रंग दिया कि दुर्लभतम क्रूर मामले में फांसी की बात मानवतावादी भी करने लगे। पर उसके विपरीत यह मामला भी सामने आया कि फांसी की सजा अमानवीय है। 

दक्षिण अफ्रीकी जज कैलसन ने अपने प्रसिद्ध निर्णय में फांसी को लेकर कहा है-

'....The right to life and dignity are the most important of all human rights….. and this must be demonstrated by the state in everything it does including the way in punishes criminals...' 

मृत्युदंडका दक्षिणपंथी रवैया कैलसन के उपरोक्त कथन के इतर जीवन जीने के अधिकार के प्रश्‍न को महत्वपूर्ण नहीं मानता अपितु इसे शेष समाज के लिए सबक के तौर पर इसे जायज मानता है। मगर यह काूनन और न्याय के दो उदेश्‍यों को ही खत्म करता हे। पहली कि- किसी निर्दोष को सजा न मिले और दूसरी अपराधी में सुधार करना।  न्याय का मतलब दरअसल बर्बर युग की तरह बदला लेना नहीं है। भारत जैसे देश के हालात में पुलिस और न्याय व्यवस्था की जैसी स्थिति है, आदमी की सम्भावना, उसके बैकग्राउड को देखे बगैर फांसी की सजा रेयरैस्ट आॅफ दि रेयर में भी न्याय नहीं, अन्याय ही होगी। 

दरअसलहमारे पास कोई ऐसे अनुभव भी नहीं है जिससे यह साबित होता है कि मृत्युदंड से अपराध कम हुए हैं बल्कि समाज में इसका उल्टा देखा गया है। ऐसे कई देशों में जहाँ फांसी का प्रावधान है वहां अपराध अधिक हैं अपेक्षाकृत उन देशों के जहां फांसी का प्रावधान नहीं हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि मृत्युदंड सजा/न्याय के उद्देश्‍य को पूरा नहीं करता दो समस्याओं का समाधान नहीं होता। दिल्ली रेप के मामले में चार लोगों को हुई फांसी की सजा देने के बावजूद भी रेप के बाद कत्ल के 235 मामले सामने आए हैं। क्या सुधार हुआ है? जघन्य अपराध करने वाला यह सोच कर अपराध नहीं करता कि उसे फांसी लगेगी या नहीं। वह तो एक उन्मादी बीमार इंसान की तरह व्यवहार करता है। मृत्युदंड में अपराधी का कोई सुधार नहीं होता क्योंकि यह तो अपराधी का वह जीवन ही समाप्त हो जाता है जिसमें सुधार की अपेक्षा होनी चाहिए। 

फांसी के खिलाफ सबसे मजबूत तर्क यह है कि मृत्यदंड दे दिए जाने के बाद किसी भी तरह वापस नहीं किया जा सकता। 2009 में संतोष कुमार बरियार बनाम महाराष्ट्र वाले मामले में यही बात सामने आई। जस्टिस सिंन्हा और फिराक जौजफ ने इससे पहले जो 13 मृत्यु दंड दिये थे, वह गलतफहमियों में दिये गये थे। उन 13 में से दो को फांसी हो चुकी है। अब किसी के जीवन को छीन लेने के बाद न्याय व्यवस्था से हुई गलती का उसे क्या मुआवजा दिया जा सकता है?

यह दर्शाता है ऐसा दंड जिसका समाज में असर ही नहीं हो रहा, और वह अमानवीय भी है तो उसका क्या लाभ। भारत में मृत्युदंड का यही दृष्टिकोण है इससे एक सबक स्थापित होगा। विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज्य ने यही मांग की। दुर्भाग्य यही है कि इन प्रभावशाली लोगों की तरफ से ऐसी मांग नहीं आती कि अच्छा कानून हो, पुलिस में सुधार हो, उसे विशेष ट्रेनिंग दी जाय। हमारे समाजिक मापदंड बदलें, जेल में सुधार हो। हमारे समाजिक मूल्य जो महिलाओं को सर्वथा एक नारकीय जिंदगी जीने को विवश करते हैं उनमें परिवर्तन किया जाय। दरहसल मृत्युदंड की यह सजा असभ्य और अनैतिक ही नहीं, यह न्याय की हमारी अवधारणा में ही विरोधाभास पैदा करती है। यह दंड के उद्देश्‍यों का ही सर्वनाश कर देती है।

स्पष्ट है आज मृत्युदंड की सार्थकता से ज्यादा जरूरी है इस प्रथा को समाप्त किया जाय इस बात पर जोर डाला जाय कि कानून व्यवस्था, तुरंत न्याय, पुलिस व्यवस्था सुधार, जेलों की बेहतर व्यवस्था बनाने पर व अपराधियों के सुधार पर जोर दिया जाय। हाल ही में टीवी रिर्पोट में दिखाया गया था कि सम्पूर्णानन्द जेल में अपराधियों में जबरदस्त सुधार आया है। कत्ल करने वाला अपराधी गणित पढ़ाता है। यह देखा गया है पैरोल में छूटा कोई भी व्यक्ति विगत् पांच साल से भागा नहीं है। और जो छूट कर गये हैं वह व्यवसाय सीख कर आज समाज में हैं। अच्छा जीवन जी रहे हैं। 

आवश्‍यकतातो यहां की कानून व समाजिक व्यवस्था में सुधार लाने की है, अपराधियों को अपराध से दूर ले जाने की है न कि उनका जीवन छीन लेने की। साथ ही यह भी अनिवार्य रूप से समझा जाना चाहिए कि बिना सामाजिक जागरण और चेतना के रूढि़यों के पक्षघात से पंगु हुआ समाज, बदला लेने की बर्बर मानसिकता से बलात्कार जैसे मामलों से नहीं निपट सकता। 





प्रभात जी कुमांऊ विश्‍वविद्यालय से 
राजनीतिशास्‍त्र के सेवानिवृत्‍त अध्‍यापक हैं.
अभी हल्‍द्वानी में रहते हैं. 

अपराध और दंड : किशोर न्‍याय का सवाल

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-कंचन जोशी

कंचन जोशी
बैंगलौर में एक बच्ची के साथ और लखनऊ में एक महिला के साथ हुए जघन्य बलात्कार के बाद उभरे आंदोलनों ने भी दिल्ली गैंग रेप के खिलाफ उमड़े आंदोलन की ही तरह समाज को झकझोरने की कोशिश की है. इतने व्यापक आन्दोलनों और राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा-परिचर्चा के बावजूद भी रेप की घटनाओं में कोई रोकथाम नहीं है. वह कौन सी वजहें हैं जिसके चलते रेप जैसे अपराध और भी अधिक वीभत्सता के साथ लगातार सामने आ रहे हैं?

 दिल्ली गैंग रेप के बाद praxis ने इस विषय पर आलेखों के जरिए इस विमर्श के विविध पहलुओं पर ठोस बात करने की कोशिश की. praxis में प्रकाशित आलेखों और कुछ नए आलेखों का संकलन कर उन्हें 'उम्मीद की निर्भयाएँ'नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित कराया। इसी किताब से कुछ आलेखों को हम, इस विमर्श को और मुकम्मल ढंग प्रसार देने के लिए यहाँ प्रकाशित कर रहे हैं. 

नई सरकार की केंद्रीय महिला एवं बाल कल्‍याण विकास मंत्री मेनका गांधी ने पदभार ग्रहण करते ही जिस मसले पर सबसे ज्‍यादा सक्रियता दिखाई है वह है बलात्‍कार के मामलों में जुवेनाइल के फर्क को अनदेखा कर उन्‍हें वयस्‍काें की ही तरह लिया जाना. इस संदर्भ में वे जुवेनाइल जस्‍िटस एक्‍ट में संसोधन के लिए भी सक्रिय हैं. किशोरों के बीच अध्‍यापन कर रहे युवा अध्‍यापक कंचन जोशी ने इस विषयक अपने अनुभवों, अध्‍ययन और समझ को इस आलेख में पिरोया है. वे बताते हैं कि किसी किशोर का किसी भी अपराध में शामिल होना (बलात्‍कार में भी)किस सोशल कंडिशनिंग के क्रम में बनता है. और ऐसे में जुवेनाइल की उम्र कम किए जाने के क्‍या मायने होंगे? पढें-   
-संपादक

Illustration by Noma Barr
साभार- 
http://www.economist.com/
क्टूबर माह की एक घटना है. मेरे कक्षा की एक छात्रा मेरे पास आकर शिकायत करती है कि कक्षा का एक छात्र उसे 'बलात्कार'की धमकी दे रहा है. मेरे लिए ये सब बहुत अप्रत्याशित था क्योंकि दोनों ही एक ही कक्षा नौ के विद्यार्थी थे. और बात सिर्फ इतनी सी थी कि लड़की ने किसी बात पर लड़के की शिकायत कर दी थी, जिससे लड़का भड़क गया. और उसने यह धमकी दे डाली. लड़के के पिता को बुलाया गया, लड़के को उन्ही के सामने समझाया गया, लेकिन बाद में उस लड़के ने स्कूल छोड़ दिया. यह शायद मेरी कमी भी रही. मेरे जैसे अनेक शिक्षक साथियों को ऐसे घटनाक्रमों से अक्सर दो चार होना पड़ता होगा. यह मामला सामान्य मामलों से इतर आपवादिक रहा जिसमें लड़के ने स्कूल छोड़ दिया (यह भी त्रासद ही है) वरना अधिकतर ऐसे मामलों में स्कूल छोड़ने वाली छात्राओं की संख्या बहुत अधिक है.


वर्ष 2011 में देशभर में बलात्कार और हत्या जैसे अपराधों के मामलों में 33 हजार से अधिक किशोरों को गिरफ्तार किया गया जिसमें से ज्यादातर 16 से 18 वर्ष के आयुवर्ग के हैं. यह आंकड़ा पिछले एक दशक में सर्वाधिक है. आंकड़ों से यह भी स्पष्ट होता है कि किशोरों द्वारा बलात्कार के मामलों में भी बढोत्तरी हुई है. वर्ष 2011 में इस तरह के 1419 मामले दर्ज हुए जबकि 2001 में यह आंकड़ा 399 था.

यहबड़ी चिंता का सबब है कि जिस कच्ची उम्र में किशोर समाज को धीरे-धीरे समझने की कोशीश कर ही रहा होता है उस उम्र में हमारा समाज उसे पुरुषत्व के पाश्विक अहंकार का बोध भी देने लगता है. पैदा होते ही हमारे घरों के वातावरण उसे जिस पहली सत्ता का आभास देते हैं वह पिता की सत्ता होती है. इसी सत्ता की छाँव में वो अपना आगे का सफ़र तय करता है. किशोरावस्था में विद्यालयों में वह इसी सत्ताबोध के साथ आता है. और बुरी बात यह है कि हमारे अधिकाँश शिक्षण संस्थान इस बोध से उसे कभी मुक्त भी नहीं कर पाते.

दिल्ली में हालिया बर्बरता का मुख्य अभियुक्त अभी अपने जीवन के इसी पड़ाव पर था. यहाँ एक और महवपूर्ण बात जिसपर गौर किया जाना चाहिए, वह यह है कि “निर्भया” प्रकरण के बाद से किशोर अपराधियों के लिए आयु सीमा कम किये जाने पर बड़ी बहस जारी है. आयु सीमा को घटाए जाने की यह बहस तब प्रारंभ होती है जब हम यह मान लें कि किशोरों द्वारा किये जाने वाले इन जघन्य अपराधों के पीछे समाज द्वारा परोसी जा रही अपसंस्कृति जिम्मेदार नहीं है. किशोरावस्था शारीरिक और मानसिक विकासक्रम में एक ऐसी अवस्था है जब भावी मानव का निर्माण अपना लगभग अंतिम रूप ग्रहण कर रहा होता है. इस अवस्था में किये जा रहे अपराध सबसे पहले उस समाज पर प्रश्न खड़ा करते हैं जो अपने किशोरों को अपराधी बना रहा है. इन प्रश्नों का हल खोजने के बजाय सिर्फ आयुसीमा में संशोधन का नीम हकीमी नुस्खा देकर समाज और राज्य अपनी जिम्मेदारी से फारिग नहीं हों सकते.1985 में संयुक्तराष्ट्र की आम सभा ने किशोर न्याय के लिए मानक न्यूनतम नियम का अनुमोदन किया जिसे पेइचिंग रूल्स भी कहते हैं. इसके आधार पर भारत में 1986 में किशोर न्यायकानून बनाया गया, जिसमें 16 वर्ष से कम उम्र के लड़के और 18 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों को किशोर मानागया.1989 में बच्चों के अधिकार पर संयुक्त राष्ट्र का अगला अधिवेशन हुआ जिसमें लड़का-लड़की दोनों को 18 वर्ष में किशोर माना गया. भारत सरकार ने 1992 में इसे स्वीकार किया और सन् 2000 में 1986 के अधिनियम की जगह एक नया किशोर न्याय कानून बनाया गया। फिर 2006 में इसमें संशोधन किया गया तथा 2007 में मॉडल नियम बनाए गए. 18 वर्ष तक की आयु का काल सबसे तीव्र मानसिक विकास और बदलाव का काल होता है. “जनता की माँग” के नाम पर कुछ लोगों के द्वारा किशोरवय अपराधियों की आयुसीमा में संशोधन कर इसे सोलह वर्ष कर दिए जाने की माँग, एक तरह से उन्हें सुधार का मौका दिए जाने के बजाय समाज से विरत कर और भयानक अपराधों के गर्त में धकेल दिए जाने की शुरुवात होगी.

इससंबंध में एक और बात जो उद्धेलित करती है वह यह कि क्या सुधार के नाम पर चलाई जा रही हमारी जेलें इस यौन कुंठा और अपराध की भावना से मुक्त हैं? अधिकाँश मामलों में जेलें शोषण का अड्डा साबित होती हैं , न कि सुधार का. यौन हिंसा की मानसिकता के लिए फाँसी, अंग-भंग जैसी सजाओं की माँग करने, या किशोरों की आयुसीमा में संशोधन करने से पहले हमें यह भी सोचना होगा कि इस तरह के अपराध सजा के भय से नहीं रुकते.

जिस देश में पुलिस और सेना द्वारा थर्ड डिग्री के नाम पर यौन हिंसा खुली बात हो, वहाँ मानसिकता से लड़ाई के बिना आप सिर्फ सजा का डर दिखाकर यौन हिंसा नहीं रोक सकते. अब सवाल उस संस्कृति पर खड़ा होने लगता है जो हमारे समाज में किशोरों को परोसी जा रही है. यह तो बड़ी स्पष्ट सी बात है कि अपने प्रारंभ से भारत का तथाकथित सभी समाज स्त्री विरोधी रहा है. भारतीय उपमहाद्वीप की आदिवासी और दलित संस्कृतियों में एक हद तक स्त्री को बराबरी का हक मिला रहा है, किन्तु उच्च जातियों में स्त्री सदैव अधिक शोषित दमित रही है. तथाकथित सभ्यता के प्रसार के साथ ही स्त्री को बाँध के रखने वाली यह संकृति घर-घर में पैठ बना चुकी है.

किशोरावस्था में कदम रखने के साथ ही घुट्टी में घोलकर पिलाई गयी यह संस्कृति अपना रंग दिखाने लगती है, यहाँ बड़ा होता लड़का अपनी-अपनी सत्ता के अभिमान को प्राप्त करता जाता है, और लड़की अपनी बंदिशों के लिए तैयार की जाती है. किशोरावस्था की दहलीज में लड़कों को “मर्द बनने” की सलाहें और शिक्षा मिलने लगती है, और लड़कियों को “पत्नी” बनने के लिए तैयार किया जाने लगता है| बहुत सामान्य सी बात कहूँ तो हमारे गाँवों के विद्यालयों में लड़कों को गणित और लड़कियों को गृहविज्ञान की कक्षाओं में बाँट दिया जाता है| 

शारीरिकपरिवर्तनों के साथ जहाँ लड़कों में आत्मविश्वास बढ़ता है वहीँ यही शारीरिक परिवर्तन सामंती अपसंस्कृति की बदौलत लड़की को असुरक्षा के गहरे आभास से भर देते हैं. इसी परिवर्तन के दौर में किशोर मन जब समाज में अपनी पहचान तलाश रहा होता है तब वह घर की सामंतशाही से इतर जिस दूसरी संस्कृति से टकराता है वह बाजार की वह संस्कृति है जो औरत को एक उत्पाद के रूप में प्रस्तुत करती है. विभिन्न संचार साधनों के साथ हमारे घरों में पैठ बनाती यह संस्कृति किशोर मानस पर गहरा प्रभाव डालती है. इस संस्कृति में औरत मात्र सजावट का साधन है जिसे किसी भी उत्पाद की पैकिंग के लिए इस्तेमाल किया जा रहा होता है. अब ऐसे सांस्कृतिक माहौल में पल रहे किशोरों में अगर बलात्कार की कुंठित मानसिकता नहीं पनपेंगी तो क्या पनपेगा? 

हमारासमाज किशोर मन को इस प्रकार शिक्षित ही नहीं कर पता कि वह लड़की को साथी के रूप में मान्यता दे| माँ, बहन और पत्नी इन रूपों से इतर स्त्री की स्वीकार्यता समाज में बन ही नहीं पाती, और ये रूप पुरुष की सत्ता के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं. प्रेमिका के रूप में भी वो प्रेमी की सत्ता से बहुत कम ऊपर उठ पाती है.

सिमोनका कथन था कि औरत पैदा नहीं होती, बनाई जाती है. यानि औरत होना एक मानसिकता है. इसी प्रकार बलात्कार भी एक मानसिकता है जो सदियों से औरत पर सत्ता को साबित करने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल की जाती रही है. ये मानसिकता हमारा समाज किशोरों को बकायदा हस्तांतरित कर रहा है. हमारी फौजें भी कश्मीर, उत्तरपूर्व से लेकर छातीसगढ़ तक इसी संस्कृति का झंडा उठाए घूमती हैं.

कश्मीरमें कुपवाड़ा जिले में कोनम-पोशपोरा के गाँव जहाँ 23 फ़रवरी 1991 में सेना ने सौ महिलाओं के साथ बलात्कार किया, उत्तरपूर्व में मनोरमा देवी की वहशियाना हत्या और छत्तीसगढ़ में सोनी सोरी की बर्बर प्रताडना इसका उदाहरण है. इनमे किसी भी मामले में कोई सजा आज तक नहीं हुई, और सोनी सोरी मामले में तो तो जिम्मेदार अधिकारी को बाकायदा पुरस्कृत किया गया है.

हमारेदेश के विधानसभाओं और संसद में ऐसे कई लोग बैठे हैं जो बलात्कार के मामलों में मुक़दमे झेल रहे हैं. हमारा मीडिया और सिनेमा अपने कथानकों में बलात्कार को मसाले के बतौर परोसता है. और ये सब अनन्तः इसी समाज में हमारे आने वाली पीढ़ी को जा रहा है जो इसे जाने अनजाने अपने दिलो दिमाग में ज़ज्ब कर रही है. इस तरह हम जाने अनजाने एक एक ऐसी संस्कृति को आगे बढ़ाते जा रहे हैं जिसमे बलात्कार दमन का एक मान्य हथियार बनता जा रहा है.

जरूरतहै कि सबसे पहले इस बाज़ार और सामंती संस्कृति के मिले जुले ज़हर के खिलाफ प्रतिरोध की संस्कृति को समाज में बढ़ाया जाए. हम अपनी बेटियों को 'औरत'बना देने के इस मिशन से तौबा करके उन्हें इंसान के रूप में बढ़ने का मौका दें. हम अपने बेटों को 'मर्द'बनाने से बाज़ आयें और इस समाज के “बन चुके मर्दों” की छाया से उन्हें मुक्त करें.

बाज़ारऔर रूढियों के इस मकडजाल के इतर संस्कृति जब तक हम नयी पीढ़ी को नहीं देंगे तब तक बलात्कार की मानसिकता के खिलाफ बड़ी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती| किशोरियों को सीता- सावित्री के आदर्शों में जकडकर हम उन्हें सामंती बंधनों की ओर ही ले जाते हैं| ये आदर्श केवल पति की चिताओं पर जल मरने वाली गूंगी गाथाएँ ही पैदा करते हैं| जब तक श्रम में साझेदारी की संस्कृति हम किशोरों को नहीं देते तब तक हम कभी भी एक अच्छे समाज का निर्माण नहीं कर सकते| 

लड़कियोंके साथ रोज ब रोज बंदिशों, अश्लील विज्ञापनों, भद्दे मजाकों और छेड़ाखानी के रूप में जो बलात्कार हो रहे हैं उनके खिलाफ किसी भी कानून के अतिरिक्त एक सांस्कृतिक प्रतिरोध की आवश्यकता है जो हमारे किशोरों को लोकतान्त्रिक, सहिष्णु और समतावादी दृष्टिकोण प्रदान कर सके| अगर हम ऐसा नहीं कर पाए तो ना तो दिल्ली के उस किशोर जैसे वहशीपन को रोक पाएँगे ना संस्कृति रक्षा के दूसरे वहशीपन को, जिसका शिकार औरतें धर्म के नाम पर होती हैं.

कंचन उत्‍तराखंड के एक सुदूर गांव में अध्‍यापक हैं.
संपर्क- kanchancrpp@gmail.com

परीक्षा परिणाम में देरी से नहीं बच रहा छात्रों का साल

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- संजय कुमार बलौदिया

"...एक बात तो यह स्पष्ट होती है कि उत्तरपुस्तिकाओं का सही तरीके से मूल्यांकन नहीं होता है। दूसरी बात यह है पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था के जरिए एक तरफ छात्रों को लूटा जा रहा और वहीं छात्रों का साल भी नहीं बच रहा है।पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था को लागू करने के पीछे उद्देश्य छात्रों का एक साल बचाना था।..." 

दिल्ली विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग (एसओएल) का परीक्षा परिणाम हर बार स्नातकोत्तर में दाखिले की प्रक्रिया पूरी होने के बाद आता है। इस वजह से विद्यार्थियों को रेगुलर स्नातकोत्तर कोर्स में दाखिला नहीं मिल पाता है। इस वर्ष एसओएल के छात्र-छात्राओं ने रिजल्ट के देर से आनेको लेकर विरोध प्रदर्शन भी किया। वहीं एसओएल में पुनर्मूल्यांकन करवाने वाले छात्र-छात्राओं का रिजल्ट भी देरी से आया। जिससे उन छात्रों को कहीं दाखिला नहीं मिला और उनका एक साल बर्बाद हो गया। 

दिल्लीविवि में चार वर्षीय पाठ्यक्रम को लागू करने के बाद से पुनर्मूल्यांकन की प्रक्रिया को खत्म कर दिया गया। लेकिन दिल्ली विवि के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग में चार वर्षीय पाठ्यक्रम न होने के कारण वहां पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था है। इस व्यवस्था का लाभ उठाने और अपना एक साल बचाने के लिए कुछ छात्र-छात्राएं पुनर्मूल्यांकन करवाते हैं। मैंने आरटीआई के जरिए पुनर्मूल्यांकन के संबंध में जानकारी जुटाई। मई-जून 2013 (चौथे सेमेस्टर) में एम.ए राजनीति विज्ञान के 38 छात्र-छात्रों और एम.ए हिंदी के 5 छात्र-छात्राओं ने पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया। एम.ए राजनीति विज्ञान में पुनर्मूल्यांकन में 38 में से 11 छात्र और एम.ए. हिन्दी में 5 में से 1 छात्र पास हो गया। इससे पता चलता है कि 25 से 30 फीसदी छात्र पुनर्मूल्यांकन के दौरान पास हो रहे है। इसे एक उदाहरण के रूप में लिया जाए तो अन्य विषयों के छात्र-छात्राओं ने भी पुनर्मूल्यांकन करवाया होगा। इस एक आंकड़े से यह भी समझा जा सकता है कि दिल्ली विवि के एसओएल में कैसे छात्रों के भविष्य के साथ खिलवाड़ हो रहा है।

एकबात तो यह स्पष्ट होती है कि उत्तरपुस्तिकाओं का सही तरीके से मूल्यांकन नहीं होता है। दूसरी बात यह है पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था के जरिए एक तरफ छात्रों को लूटा जा रहा और वहीं छात्रों का साल भी नहीं बच रहा है।पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था को लागू करने के पीछे उद्देश्य छात्रों का एक साल बचाना था। पुनर्मूल्यांकन के नियमानुसार 45 से 60 दिन के भीतर रिजल्ट आ जाना चाहिए, लेकिन एसओएल के जिन छात्रों पुनर्मूल्यांकन के लिए आवेदन किया, उनका रिजल्ट 2 महीने 18 दिन में आया। जैसा कि एसओएल का परीक्षा परिणाम देरी से आता है, ठीक उसी तर्ज पर पुनर्मूल्यांकन करवाने वाले छात्रों का रिजल्ट भी देरी से आया। जिससे उन छात्रों को कहीं भी दाखिला नहीं मिला और उनका एक साल बर्बाद हो गया, तो पुनर्मूल्यांकन व्यवस्था के होने का क्या मतलब रह जाता है। पुनर्मूल्यांकन की व्यवस्था होना ही काफी नहीं, उस व्यवस्था का छात्र-छात्राओं को लाभ भी मिलना चाहिए।

ठीकइसी तरह का मामला दिल्ली विवि के कॉलेजों के छात्रों ने उठाया था जब एक खास विषय में उन्हें कम अंक दिए गए थे और उन्होंने पुनर्मूल्यांकन की मांग भी की थी। पुनर्मूल्यांकन के समय को लेकर मार्च 2011 में दिल्ली उच्च न्यायालय ने केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) को कक्षा 12 वीं के छात्रों के अंकों को पुनर्मूल्यांकन समयबद्ध ढंग से पूरा करने के लिए एक तंत्र विकसित करने का निर्देश दिया था। लेकिन लगता है कि उच्च न्यायालय के निर्देश से कोई सबक दिल्ली विवि के स्कूल ऑफ ओपन लर्निंग ने नहीं लिया।

लेखक शोध पत्रिका जनमीडिया से जुडे हैं.
संपर्क- snjiimc2011@gmail.com


'अच्छे दिनों'का टूटता भ्रम : उत्तराखंड उप-चुनाव परिणाम

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-रोहित जोशी

"...दरअसल, इस हार में छिपे संकेत और निहितार्थ सिर्फ उत्तराखंड की क्षेत्रीय राजनीति के लिए ही नहीं बल्कि देश की राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी हैं. मोदी चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अपनी सफल प्रचार रणनीति के चलते, लोगों के बीच ऐसे सपने बो पाने में सफल हुए थे, जिसने उनपर वोटों की भारी बरसात कराई और बीजेपी ने अप्रत्याशित तौर से 284 सीटों का आंकड़ा पा लिया था. लेकिन सरकार बनाने के बाद जिस तरह मोदी सरकार हर मोर्चे पर असफल हुई है और जनता को दिखाए गए जादुई सपनों की कलई जब उतरने लगी है तो इस पर जनता की प्रतिक्रिया उत्तराखंड के इन चुनावों में देखने को मिली है..."

कार्टून- गोपाल शून्य की फेसबुक वाल से साभार
त्तराखंड उपचुनावों में कांग्रेस की तीनों सीटों में हुई जीत की खबर तो तब भी राष्ट्रीय मीडिया में दिखी है, लेकिन इन सीटों में बीजेपी की करारी हार के तौर पर यह खबर मीडिया से बिलकुल नदारत है. जबकि पत्रकारिता के नजरिये से बीजेपी की हार की खबर की न्यूज वेल्यू, 'मोदी की लहर/आंधी/सुनामी से मिले 284 के आंकड़े के चलते, ज्यादा है. लेकिन यह खबर कोई मीडिया नहीं छू रहा. वह अब भी मोदी महिमा-मंडन में ही व्यस्त है. 

उत्तराखंड में - धारचूला, सोमेश्वर और डोईवाला - इन 3 सीटों में उपचुनाव हुए. जहाँ डोईवाला और सोमेश्वर सीटों के विधायक, रमेश पोखरियाल 'निशंक'और अजय टम्टा के, लोकसभा चुनाव में जीत जाने से खाली हुई इन सीटों पर उप चुनाव हुए, वहीँ धारचूला में उत्तराखंड के वर्तमान सीएम हरीश रावत के लिए उनके विश्वासपात्र विधायक हरीश धामी ने अपनी सीट छोड़ी थी.


मोदी की भयंकर लहर के बाद बनी भाजपा सरकार के अभी दो महीने ही गुजरे हैं. ऐसे में उस प्रदेश से इस तरह उसके क्लीन स्वीप हो जाने को कैसे देखा जाना चाहिए, जहां से दो महीने पहले ही वह लोकसभा की पाँचों सीटों को जीत कर आई है. क्या यह मोदी के 'अच्छे दिनों'के मीडिया प्रचारित वादों की दो महीने में ही कलई खुल जाने की प्रतिक्रिया है?

इन चुनावों में धरचूला सीट में हरीश रावत ने बीजेपी प्रत्याशी बीडी जोशी को 20000 मतों से हराया। वहीँ पूर्व मुख्यमंत्री और डोईवाला सीट से बीजेपी के विधायक रमेश पोखरियाल 'निशंक'की इस सीट में बीजेपी को हार का मुह देखना पड़ा. यहाँ कांग्रेस प्रत्याशी हीरा सिंह बिष्ट ने बीजेपी प्रत्याशी त्रिवेन्द्र सिंह रावत को 3000 वोटों से मात दी. त्रिवेन्द्र बीजेपी के राष्ट्रीय सचिव हैं और वे लोकसभा चुनावों में उत्तरप्रदेश में अमित शाह के साथ सह-प्रभारी भी रह चुके हैं, जहाँ बीजेपी ने जबरदस्त प्रदर्शन किया था. इसी तरह सोमेश्वर सीट में जहाँ बीजेपी के अजय टम्टा पिछले दो बार से लगातार जीतते आ रहे थे वहां भी कांग्रेस की रेखा आर्या ने  बीजेपी के मोहन लाल आर्या को भारी मतों से मात दी है.

मोदी नाम की इतनी बड़ी आंधी और भारत विजय जैसी घोषणाओं के तुरंत दो महीने बाद, उत्तराखंड के इन उपचुनावों में बीजेपी की इस हार के गहरे निहितार्थ हैं. यह हार जिन तीन सीटों में हुई है उनमें से दो सीटें तो बीजेपी की रही हैं जिन्हें कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में अपनी ऐतिहासिक हार के बाद भी भाजपा से छीना है. यह कैसे संभव हुआ?

कार्टून- गोपाल शून्य की फेसबुक वाल से साभार
दरअसल, इस हार में छिपे संकेत और निहितार्थ सिर्फ उत्तराखंड की क्षेत्रीय राजनीति के लिए ही नहीं बल्कि देश की राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी हैं. मोदी चुनाव प्रचार अभियान के दौरान अपनी सफल प्रचार रणनीति के चलते, लोगों के बीच ऐसे सपने बो पाने में सफल हुए थे, जिसने उनपर वोटों की भारी बरसात कराई और बीजेपी ने अप्रत्याशित तौर से 284 सीटों का आंकड़ा पा लिया था. लेकिन सरकार बनाने के बाद जिस तरह मोदी सरकार हर मोर्चे पर असफल हुई है और जनता को दिखाए गए जादुई सपनों की कलई जब उतरने लगी है तो इस पर जनता की प्रतिक्रिया उत्तराखंड के इन चुनावों में देखने को मिली है. यूँ तो उत्तराखंड के लोगों के कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही सरकारों के साथ के एक जैसे ही अनुभव रहे हैं लेकिन फिर भी बीजेपी और मोदी के हवाई सपनों का उसके पास जो भी विकल्प था उसने उसे चुनकर अपनी प्रतिक्रिया जाहिर कर दी.

मोदी सरकार बनने के बाद बेकाबू महंगाई, सब्जी-तेल से लेकर रेल किरायों में बढ़ोत्तरी, अटपटा बजट, और एक भी जनपक्षीय योजना के बजाय बुलैट ट्रेन जैसे गैर-जरूरी 'विकास अभियान'की ओर जोर, साथ ही अपने एक एक कदम का बेजा प्रोपगेंडा. लोगों के पास यही सब कुछ पहुंचा है. और अब वे इससे दो महीनों में ही आजिज आ चुके हैं. अगर वे लें तो उत्तराखंड में तीनों सीटों में मिली यह हार, बीजेपी और मोदी दोनों को एक सबक है. क्योंकि अभी आगे और कई चुनाव होने हैं.  

'नये दौर'और 'नये मोदी'की तफतीश...

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अभिनव श्रीवास्तव
-अभिनव श्रीवास्तव

"...ऊपर दिये गये विवरणों के आधार पर ये प्रश्न सहज उठ सकता है कि आखिर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बगैर कोई राजनीतिक कीमत चुकाये ऐसे निर्णय क्यों ले पा रही है? कुछ टिप्पणीकारों और विश्लेषकों ने जिसे 'सत्ता का अति सकेन्द्रण'और 'लोकतांत्रिक कायदे-कानूनों का उल्लंघन'कहा है, उस पर सार्वजनिक विमर्श के एक बड़े दायरे में लगभग मौन सहमति का माहौल क्यों है? निश्चित तौर पर इसका एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और उसके सहयोगियों को मिला संगठित जनादेश है, लेकिन इससे भी बड़ा कारण इस जनादेश के साथ जुड़ा हुआ खास सन्देश और वह विशिष्ट पृष्ठभूमि और हालात हैं, जिनमें 'भाई नरेंद्र मोदी'की मसीहा और भाजपा की एक 'उत्थानवादी पार्टी'जैसी छवि तैयार की गयी..."

साभार; द हिन्‍दू
गर कोई पिछले कुछ महीनों में देश के राजनीतिक हालातों पर नजर डाले तो स्वभाविक रूप से इस निष्कर्ष पर पहुंच सकता है कि 'राजनीति'की जमीन एकाएक बहुत उर्वर हो गयी है। नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में एनडीए सरकार लगभग हर रोज अपने 'ताजे'फैसलों से यह सन्देश देने की कोशिश में जुटी हुयी है कि देश की राजनीति, संस्कृति और अर्थव्यवस्था को वह किसी पुरानी जकड़न से बाहर निकाल रही है। सरकार के लगभग हर फैसले पर मीडिया का बड़ा तबका इस सन्देश को इसी रूप में ग्रहण करके प्रचारित-प्रसारित करने में लग जाता है। नतीजतन, सार्वजनिक दायरों में यह भ्रम बहुत आसानी से बना हुआ है कि मोदी सरकार वास्तव में कोई 'बदलाव वाली'और 'उत्थानवादी परिघटना'है।
इससेपहले कि इस अंर्तविरोध की तह में जाया जाये, सरकार द्वारा अपने शासन के शुरुआती कार्यकाल में लिये कुछ बड़े फैसलों पर नजर डालते हैं-

1) सबसे ताजा फैसला बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाने का है। खबर है कि सरकार की आर्थिक मामलों की कैबिनेट समिति बजट सत्र में बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा को 29 फीसदी से बढ़ाकर 49 फीसदी करने का मन बना चुकी है। गौर करने वाली बात ये है कि साल 2008 में बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने का प्रस्ताव यूपीए सरकार ने रखा था, लेकिन तब स्वयं भाजपा और विपक्षी दलों के विरोध के चलते संबंधित संशोधन विधेयक राज्य सभा में नहीं रखा जा सका था। भाजपा राज्य सभा में इस संशोधन का विरोध करने वाली पार्टियों में बढ़-चढ़कर शामिल थी। वैसे मोदी सरकार का कुछ इसी तरह का रुख तब भी सामने आया था जब वाणिज्य और उद्योग मंत्री निर्मला सीतारमन ने आधिकारिक तौर पर मल्टी ब्रांड रिटेल में 51 फीसदी विदेशी निवेश के फैसले को वापस लेने से इंकार किया था। याद दिलाने की जरुरत नहीं कि यूपीए सरकार द्वारा लिये गये इस फैसले पर विरोध का सबसे मजबूत झंडा भाजपा ने ही बुलंद किया था। वैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा को खुलकर बढ़ाने की मोदी सरकार की पहलकदमियों और संघ और भाजपा की देसी संस्कृति और स्वदेशी अपनाओ की मांगों को साथ में रखकर किस तरह देखा जाना चाहिये?

2)काले धन को वापस लाना भाजपा के लिये यूपीए शासन के दौरान तत्कालीन और पूर्ववर्ती सरकारों को घेरने का एक सदाबहार मुद्दा रहा। मोदी सरकार ने सत्ता में आने के बाद सुप्रीम कोर्ट के आदेशानुसार एम बी शाह की अध्यक्षता में एक जांच समिति का गठन कर यह दिखाने की कोशिश भी की कि वह इस मामले के प्रति गंभीर है। हालांकि समय बीतने पर इस पहल की वास्तविकता और खोखलापन खुद सरकार के मंत्रियों के मुंह से ही जाहिर होने लगा। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने संसद में दिये गये एक लिखित जवाब में यह स्वीकार किया कि सरकार के पास देश के अन्दर और बाहर जमा काले धन का कोई आधिकारिक आंकड़ा मौजूद नहीं है। इस आंकलन के लिये नेशनल इंस्टीट्यूट आफ पब्लिक फाइनेंस एंड पालिसी और नेशनल काउंसिल आफ एप्लाइड इकोनोमिक रिसर्च द्वारा साल 2011 में शुरू किये गये स्वतंत्र अध्ययन भी किसी निष्कर्ष पर पहुंच नहीं पाये हैं। भाजपा के ही एक अन्य सांसद निशिकांत दुबे फाइनेंस बिल पर चर्चा के दौरान काले धन पर अपनी खीझ का इजहार ये कहते हुये कर चुके हैं कि इस जीवन में सरकार स्विट्जरलैंड के बैंको में जमा काला धन वापस नहीं ला पायेगी। दुबे ने मामले की पेचीदगी की ओर संकेत करते हुये बताया कि स्विट्जरलैंड के बैंकों में खाताधारकों ने वहां के नागरिकों के साथ ट्रस्ट बनाये हुये हैं और जब तक सम्बंधित ट्रस्टियों के नाम की सूची सरकार को उपलब्ध नहीं होती, काला धन वापस लाने की कोई कोशिश कामयाब नहीं हो सकती। इससे पहले संसद में एक प्रश्न के जवाब में अरुण जेटली स्विस सरकार की ओर से चार जुलाई को आयी जानकारी को भी साझा कर चुके हैं जिसके अनुसार-"स्विटज़रलैंड के वित्तीय संस्थानों में अपने नाम से या किसी अन्य संरचना के तहत कर संपत्ति रखने वाले भारतीय करदाताओं और नागरिकों की कोई सूची तैयार नहीं की गयी है"। इसके बावजूद वित्त मंत्री अरुण जेटली आये दिन बयानबाजी कर देश को ये आश्वासन दिलाने में जुटे हैं कि सरकार जल्द ही काला धन वापस ले आयेगी। क्या ऐसे बयान सिर्फ माहौल बनाये रखने की कोशिश का हिस्सा नहीं है?

3)विपक्ष में रहते हुये भाजपा और देश में मीडिया के एक तबके ने यूपीए सरकार की साल 1962 में हुये चीन युद्ध से संबंधित विवादित हेंडरसन रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं करने के लिये जमकर आलोचना की थी। खुद वर्तमान रक्षा और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने तब संसद में दो टूक शब्दों में रिपोर्ट को सार्वजनिक करने को कहा था। हालांकि सत्ता में आने के बाद जेटली को सांप सूंघ गया और उन्होंने हेंडरसन रिपोर्ट को यह कहते हुये सार्वजनिक करने से मना कर दिया कि संबंधित रिपोर्ट को सार्वजनिक करना ‘राष्ट्रीय हितों’ के लिये खतरनाक होगा। जेटली के इस बयान से एक बार फिर भाजपा के दोहरे और अवसरवादी रवैये का पता चलता है।   

4)एक चर्चित विवाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्तमान मुख्य सचिव नृपेन्द्र मिश्रा की नियुक्ति को लेकर भी रहा। मिश्रा साल 2006-2009 तक ट्राई के अध्यक्ष रहे और ट्राई अधिनियम 1997 के प्रावधान 5 (एच) के तहत मुख्य सचिव पर पर उनकी नियुक्ति नहीं हो सकती थी। इस एक्ट के अनुसार ट्राई के अध्यक्ष पद पर रहा कोई भी व्यक्ति भविष्य में केंद्र और राज्य सरकारों के अंतर्गत किसी पद पर कार्यरत नहीं हो सकता था। लेकिन नरेंद्र मोदी सरकार ने आनन-फानन में अध्याधेश लाकर इस एक्ट में संशोधन का रास्ता तैयार कर दिया। कांग्रेस ने सरकार के इस कदम पर उचित ही यह ध्यान दिलाया कि भाजपा ही वह पार्टी थी जिसने भ्रष्टाचार-विरोधी विधेयक और खाद्य सुरक्षा विधेयक पर कुछ महीनों पहले यूपीए सरकार द्वारा अध्याधेश के जरिये अफसर नियुक्त करने की प्रक्रिया को असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक बताया था।

5)नरेंद्र मोदी सरकार के छोटे से कार्यकाल में ही ऐसे उदाहरणों की एक लम्बी सूची तैयार हो गयी है, जिनसे बरसों के संघर्ष और जद्दोजहद के बाद हासिल किये गये कई कानूनी प्रावधान सर के बल खड़ा होने को तैयार दिख रहे हैं। इस दिशा में सबसे ताजी और आपत्तिजनक पहलें महिला और बाल कल्याण मंत्री मेनका गांधी ने की हैं। पहले उन्होंने यह बयान दिया था कि 18 वर्ष से कम उम्र के किशोर निर्भय हो कर बलात्कार कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें मालूम रहता है कि बाल न्याय कानून के कारण उन्हें कड़ी सजा नहीं मिलेगी। हाल में यह खबर भी आई है कि वे घरेलू हिंसा कानून में भी ऐसे संशोधन का मन बना रही हैं जिसके तहत बहू की हिंसा से सास को भी सुरक्षा हासिल हो सके। तमाम जानकार इस ओर ध्यान खींच चुके हैं कि बाल न्याय कानून के दायरे में 18 वर्ष से कम के आयु किशोरों को लाना समस्या का समाधान नहीं है और ऐसा कोई भी संशोधन तमाम वैज्ञानिक निष्कर्षों की उपेक्षा करने की कीमत पर ही लिया जा सकता है। घरेलू हिंसा कानून के सन्दर्भ में भी मेनका गांधी की मंशा पर सवाल लग सकते हैं, क्योंकि सासों को बहु की हिंसा के खिलाफ अधिकार देने की सोच अंततः एक परिवार में बाहरी महिला की हैसियत से आयी बहू के लिये स्थितियों को और मुश्किल बनायेगी। बहुत संभव है कि ऐसे प्रावधान का व्यवहारिक इस्तेमाल सांसें बहु पर अत्याचार करने के बाद कानूनी संरक्षण के लिये करें।

6)मोदी सरकार ने सत्ता में आते ही विदेशी धन से चलने वाले गैर सरकारी संस्थानों (एनजीओ) की गतिविधियों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाने के संकेत दिये थे। इसे देखकर ऐसा लग सकता था कि सरकार इन संगठनों की कार्यप्रणाली को जवाबदेह बनाने के लिये  कदम उठा रही है, लेकिन जल्द ही ये जाहिर हो गया कि इस कदम के पीछे सरकार का ऐसा कोई सरोकार नहीं है, बल्कि वास्तविक मंशा असहमति और प्रतिरोध के समूहों का गला दबाने की है। मोदी सरकार ने आईबी से देश की आर्थिक सुरक्षा के लिये खतरा बने विदेशी धन प्राप्त एनजीओ पर रिपोर्ट तैयार करवायी, लेकिन इस रिपोर्ट में एनजीओ समूहों के साथ गुजरात के कई जनसंगठनों को भी शामिल किया गया। भूमि अधिग्रहण आदि मुद्दों पर आंदोलनरत जन संगठनों को रिपोर्ट में शामिल करने के तुरंत बाद नर्मदा कंट्रोल आथारिटी ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई सत्रह मीटर बढ़ाने की इजाजत दी, जिसके फलस्वरूप बड़ी संख्या में आदिवासी विस्थापित होने वाले थे। सवाल उठता है कि आईबी की इस रिपोर्ट के आने के तुरंत बाद ही बांध की ऊंचाई बढ़ाने का निर्णय क्यों लिया गया? वहीं खबरों से यह सामने आया कि आईबी ने अपनी रिपोर्ट में नरेंद्र मोदी के एक पूर्व भाषण के अंशों को उठाकर ज्यों का त्यों शामिल कर लिया है। आईबी की इस रिपोर्ट के बारे में गृह मंत्रालय को कोई खबर नहीं थी और यह सीधे गृह मंत्री राजनाथ सिंह को दी गयी थी। ये सभी इस बात के संकेत थे कि गैर सरकारी संगठनों को जवाबदेह बनाने की आड़ में मोदी सरकार ने देश में असहमति की आवाजों को सन्देश दिया है।

7)नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में जब एनडीए को जनादेश मिला था तो इस बात को लेकर ख़ास तौर पर आशांकायें थीं कि कहीं भाजपा अपने ‘एक धर्म एक राष्ट्र’ के अभियान को नयी सरकार के नेतृत्व में लागू करने की कोशिश तो नहीं करेगी। स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बतौर शासक पहचान और वैधता पर भी कई तरह के सवाल थे। कहा ये भी गया कि मोदी एक बदले हुये दौर के शासक हैं और वह ये सन्देश देने का अवसर हाथों से जाने नहीं देंगे। लेकिन नयी सरकार के कार्यकाल में भी ऐसे कई मामले और विवादित निर्णय लिये गये जिनसे यह भ्रम टूटता रहा-
अ)इस दिशा में सबसे विवादित फैसला इन्डियन काउंसिल आफ हिस्टोरिकल रिसर्च (आईसीएआर) के अध्यक्ष पद पर सनातन हिन्दू धर्म के पैरोकार कहे जाने वाले वाई सुदर्शन राव की नियुक्ति का  रहा। आईसीएआर की स्थापना सोसायटी रजिस्ट्रेशन एक्ट, 1972 के तहत देश में इतिहास से जुड़े हुये वैज्ञानिक शोधों को बढ़ावा देने के लिये हुयी थी। राव की नियुक्ति पर देश की नामी और बरसों से  कार्यरत हस्तियों ने यह कहकर आपत्ति दर्ज की कि राव की पहचान मुख्यतः एक इतिहासकार की नहीं है और न ही उनकी पृष्ठभूमि वैज्ञानिक शोध कार्यों को बढ़ावा देने की रही है। खबरों में यह भी सामने आया कि वे पौराणिक हिन्दू ग्रन्थ महाभारत की तिथि निर्धारण के कार्य में लगे हैं, जिसका  देश के अधिकांश इतिहासकारों की राय में वैज्ञानिक निर्धारण नहीं किया जा सकता है। इस संबंध में इतिहासकार और आईसीएआर के पूर्व अध्यक्ष रहे इरफ़ान हबीब की यह टिप्पणी गौर करने वाली रही-“ यह सही है कि आईसीएआर के अध्यक्ष पद के लिये किसी योग्यता का प्रावधान नहीं है, लेकिन ऐसी नियुक्ति के समय संस्था की स्थापना के उद्देश्यों का ध्यान रखा जाता है। नये अध्यक्ष को सीधे संस्था के मूल उद्देश्यों को खत्म करने की ओर नहीं बढ़ना चाहिये "। 
ब)एक अन्य ताजा और चौकाने वाला मामला गुजरात में शिक्षा बचाओ आन्दोलन समिति के प्रमुख और कुछ महीनों पहले वेंडी डोनिगर की किताब 'दि हिन्दूज- एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री'की प्रतियां पेंगुइन प्रकाशन को नष्ट करने के लिये मजबूर करने वाले  दीनानाथ बत्रा से जुड़ा है। खबर है कि बीती 30 जून को गुजरात सरकार ने राज्य के 42,000 प्राथमिक और माध्यमिक स्कूलों को दीनानाथ बत्रा की हिन्दी से गुजराती में अनुदित की गयी नौ किताबों को बतौर पूरक साहित्य पाठ्यक्रम में शामिल करने का आदेश दिया है। इन नौ किताबों में लिखी गयी कुछ बातें इतनी आपत्तिजनक हैं कि उनको सार्वजानिक मंचों पर दोहराने में भी किसी प्रगतिशील और आजादी पसंद व्यक्ति को हिचक हो सकती है। इन किताबों में अपने जन्म दिन पर बर्थ दे केक काटने से मना करने की बात कहते हुये इसे पश्चिमी संस्कृति बताया गया है। इतना ही नहीं नौनिहालों को यह शिक्षा दी गयी है कि वह भारत का मानचित्र खींचते समय पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, श्रीलंका और बांग्लादेश को भी अखंड भारत का हिस्सा दिखाये। इसके अलावा पाकिस्तान के स्वतंत्रता दिवस चौदह अगस्त को छुट्टी घोषित करने और अखंड भारत स्मृति दिवस के रूप में भी मनाने की भी मांग की गयी है। खबर ये भी है कि गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल राज्य के स्कूलों में महिला अध्यापकों के जींस और टी शर्ट पहनने पर पाबंदी लगाने और इसके स्थान पर साड़ी या सलवार पहनने को अनिवार्य बनाने की तैयारी में हैं। गुजरात राज्य सरकार के इन फैसलों का जिक्र इसलिये जरूरी है क्योंकि हाल ही में दीनानाथ बत्रा ने यह दावा किया है कि उनकी सलाह पर मानव एवं संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी पहले ही शिक्षा नीति और पाठ्यक्रमों में बदलाव का भरोसा उन्हें दे चुकी हैं। बत्रा ने यह भी जोड़ा है कि एनसीईआरटी, एनसीटीई पहले ही पाठ्यक्रमों के मूल्यांकन का काम शुरू कर चुके हैं। राज्य सभा में बीती 23 जुलाई को बोलते हुये गृह मंत्री राजनाथ सिंह भी यह संकेत कर चुके हैं कि नैतिक मूल्यों के गिरते स्तर के चलते सरकार पाठ्य पुस्तकों में बदलाव पर विचार कर रही है। 
स)महाराष्ट्र सदन में कुछ शिव सेना सांसदों द्वारा एक मुस्लिम मैनेजर के साथ की गयी कारगुजारियों की अंतर्कथा ने इस समय देश में चर्चा का विषय है। खबरों में और सोशल मीडिया पर जारी किये गये वीडियो में यह साफ तौर पर सामने आया है कि शिव सेना सांसद ने महाराष्ट्र सदन के मेस में अपनी पसंद के खाने के उपलब्ध नहीं होने से नाराज होकर मेस के मुस्लिम मैनेजर के मुंह में जबरन रोटी डाल दी, जबकि वह कर्मचारी अपने खुद के रोजा (व्रत) पर होने की जिरह कर रहा था। इतनी गंभीर घटना पर इन पंक्तियों के लिखे जाने तक सरकार ने कोई अफसोस जाहिर नहीं किया है। संसद में कुछ भाजपा सांसदों ने शिव सेना सांसद की कोशिश को अनुचित सार्वजनिक व्यवहार जरूर कहा है, लेकिन कुल मिलाकर इन सांसदों का रुख रक्षात्मक ही है।

ऊपर दिये गये विवरणों के आधार पर ये प्रश्न सहज उठ सकता है कि आखिर नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार बगैर कोई राजनीतिक कीमत चुकाये ऐसे निर्णय क्यों ले पा रही है? कुछ टिप्पणीकारों और विश्लेषकों ने जिसे 'सत्ता का अति सकेन्द्रण'और 'लोकतांत्रिक कायदे-कानूनों का उल्लंघन'कहा है, उस पर सार्वजनिक विमर्श के एक बड़े दायरे में लगभग मौन सहमति का माहौल क्यों है? निश्चित तौर पर इसका एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भाजपा और उसके सहयोगियों को मिला संगठित जनादेश है, लेकिन इससे भी बड़ा कारण इस जनादेश के साथ जुड़ा हुआ खास सन्देश और वह विशिष्ट पृष्ठभूमि और हालात हैं, जिनमें 'भाई नरेंद्र मोदी'की मसीहा और भाजपा की एक 'उत्थानवादी पार्टी'जैसी छवि तैयार की गयी। 

यूपीए राज में फैली नीतिगत निरंकुशता, दुनिया भर में पूंजीवादी व्यवस्थाओं द्वारा अपने विस्तार के नये ढांचों की तलाश में की गयी जोर-आजमाइश और उसके नतीजे में मध्य वर्ग के भीतर बढ़े असंतोष की परिस्थितियों का इस्तेमाल कर भाजपा ने भारतीय राजनीति के सन्दर्भ बिंदु को बदलने में सफलता हासिल की। साथ ही बीते दो दशकों से सांस्कृतिक स्वायत्तता की तलाश कर रहे हिन्दू मध्य वर्ग की स्थिति को भांपकर नरेंद्र मोदी ने संघ और भाजपा की स्वीकार्यता को सर्वथा नये मुकाम पर पहुंचा दिया। यहीं से भाजपा और भाई नरेंद्र मोदी ने 'परिवर्तन'और उत्थान के लिये सत्ता में आयी पार्टी का सन्देश और भाव तैयार किया। यह अकारण ही नहीं था कि भाजपा समर्थक तबकों के बुद्धिजीवी कहे जाने वाले वर्ग ने इस बात का जोर-शोर से प्रचार किया कि नरेंद्र मोदी की जीत से भारतीय राजनीति के पुराने और बने-बनाये समीकरण बदल गये हैं। 

एक दैनिक अंग्रेजी अखबार में चुनाव नतीजों के ठीक अगले दिन स्तंभकार भानु प्रताप मेहता ने 'इलेक्शन दैट ब्रोक एवरी नोन रूल आफ इंडियन पोलिटिक्स'शीर्षक से लिखे गये अपने लेख में कहा-"नरेंद्र मोदी की जीत ने भारतीय राजनीति के हर बने-बनाये समीकरण को बदल दिया है। देश के सभी वर्गों ने जाति और वर्ग के समीकरणों से ऊपर उठकर नरेंद्र मोदी को स्वीकार्यता दी है।"गौर से देखा जाये तो भानु प्रताप मेहता की तरह ही नरेंद्र मोदी की जीत के बाद जाति और पहचान के समीकरणों के अप्रासंगिक हो जाने की घोषणा कई बुद्धिजीवियों ने की। हालांकि ऐसा कहते हुये स्वयं भानु प्रताप मेहता और उनके जैसे कई विचारक ये भूल गये कि संभवतः सोलहवीं लोकसभा का चुनाव भारतीय संसदीय इतिहास में एक मात्र ऐसा चुनाव था जिसमें प्रधानमंत्री पद के सबसे मजबूत माने जाने वाले उम्मीदवार की 'जाति'ही केन्द्रीय मुद्दा बनी हुयी थी। नरेन्द्र मोदी ने लगभग हर चुनावी सभा में अपनी जातीय पृष्ठभूमि का उल्लेख किया। जाहिर है कि भारतीय राजनीति में जाति की भूमिका ने पुर्नआकार लेकर नये रूप तो लिये हैं, लेकिन उसकी प्रासंगिकता पूरी तरह खत्म हो गयी,ये तथ्यों और हालातों की उपेक्षा करने की कीमत पर ही कहा जा सकता है।

ऐसा बिलकुल नहीं है कि इन बुद्धिजीवी जमातों ने किसी नासमझी के चलते राजनीति के बने-बनाये नियमों की विदाई की घोषणा कर दी। वास्तव में 'परंपरागत समीकरणों की विदाई'जैसे विमर्शों के बार-बार दोहराये जाने से ही यह भ्रम और भाव तैयार होता है कि 'भाई नरेंद्र मोदी'किसी 'मसीहा'की तरह देश को नये दौर में लेकर जा रहे हैं। आज ये सन्देश इतने गहरे से सरकार के हर निर्णय और पहलकदमी के साथ गुथा हुआ है कि इन कदमों पर विरोध जताने की कोई सामान्य कोशिश भी नजर नहीं आ रही है। इस रूप में आज देश के प्रगतिशील धाराओं के ऊपर ऐतिहासिक जिम्मेदारी आ गयी है। अगर आज इन समूहों ने हालातों को समझने और लड़ने का माद्दा नहीं दिखाया तो देश की राजनीति लम्बे समय के लिये प्रतिगामी दिशा की ओर मुड़ जायेगी।


अभिनव पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से.
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम. अभी स्वतंत्र लेखन.
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है.

ग़ज़ा के नरसंहार पर भारत की चुप्पी की वजह...

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

"...1980के दशक तक भारत फिलिस्‍तीनी मुक्ति का समर्थक माना जाता था। इस्रायल से उसने राजनयिक सम्‍बन्‍ध तक नहीं बनाया था। नरसिंह राव सरकार के शासनकाल के दौरान नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ का विघटन हुआ तथा अन्‍तरसाम्राज्‍यवादी प्रतिस्‍पर्द्धा का लाभ उठाने की स्थिति समाप्‍त हो गयी। ऐसी स्थिति में भारतीय बुर्जुआ शासक वर्ग अमेरिका के सामने और अधिक झुकने के लिए मज़बूर हुआ। इन्‍हीं स्थितियों में 1992 में इस्रायल के साथ राजनयिक सम्‍बन्‍ध स्‍थापित हुआ और देखते ही देखते वह भारत का घनिष्‍ठ व्‍यापारिक और सामरिक साझीदार बन गया।..."

माम हिन्‍दु‍त्‍ववादी सोशल मीडिया पर इस्रायली जियनवादियों द्वारा गाजा (ग़ज़ा)  नरसंहार का पक्ष लेते हुए नस्‍ली नफरत की गंद उड़ेल रहे हैं। मोदी सरकार संसद में इस सवाल पर चर्चा को टालने की हर चंद कोशिश करती रही। हर किस्‍म की फासीवादी विचारधारा के अनुयायी आपस में सगे-चचेरे भाई ही होते हैं। उनका भाईचारा निभाहना स्‍वाभाविक है। हिन्‍दुत्‍ववादी तर्क दे रहे हैं कि यह इस्रायलियों की देशभक्ति है कि वे अपने ऊपर हमला करने वाले फिलिस्‍तीनी आतंकवादियों को सबक सिखा रहे हैं। यह कैसी राष्‍ट्रभक्ति और देशरक्षा की लड़ाई है जिसमें फिलिस्‍तीन के 1000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं जो सभी नागरिक हैं जबकि इस्रायल के 45 लोग मारे गये हैं जो सभी सैनिक हैं। यह कैसी देशभक्ति है जिससे प्रेरित लोगों ने 66 वर्षों के दौरान एक राष्‍ट्र के 70 प्रतिशत भूभाग को हड़प लिया और अब शेष बचे इलाके के निवासियों को भी या तो खदेड़ देना चाहते हैं या गुलामों की तरह जीने के लिए मजबूर कर देना चाहते हैं। यह जियनवादी राष्‍ट्रवाद हिन्‍दुत्‍ववादियों को खूब भा रहा है।

अबइस गहरी यारी और फिलिस्‍तीन के साथ भारतीय शासक वर्ग की गद्दारी से जुड़े कुछ और तथ्‍यों पर निगाह डालें। रूस के बाद इस्रायल आज भारत को हथियारों का दूसरा सबसे बड़ा सप्‍लायर है। भारत इस्रायल से सालाना दो अरब डालर के हथियार खरीदता है। दोनों के बीच सालाना 5 अरब डालर का व्‍यापार होता है। भारत में इस्रायल ने बड़े पैमाने पर पूँजी निवेश किया है। यह निवेश गत दो दशकों से लगातार जारी है, लेकिन सबसे अधिक पूँजी एन.डी.ए. के गत शासनकाल के दौरान आयी। इस्रायल की सबसे अधिक पूँजी गुजरात में लगी है और यह सारी पूँजी नरेन्‍द्र मोदी के शासनकाल के दौरान आयी। भारत सरकार के खुफियातंत्र को उन्‍नत बनाने में मोसाद एक विशेष समझौते के तहत तकनी‍क एवं प्रशिक्षण की सुविधाएँ मुहैया कराता है। इसकी शुरुआत वाजपेयी सरकार के शासनकाल के दौरान हुई।

1980के दशक तक भारत फिलिस्‍तीनी मुक्ति का समर्थक माना जाता था। इस्रायल से उसने राजनयिक सम्‍बन्‍ध तक नहीं बनाया था। नरसिंह राव सरकार के शासनकाल के दौरान नवउदारवादी नीतियों की शुरुआत हुई। सोवियत संघ का विघटन हुआ तथा अन्‍तरसाम्राज्‍यवादी प्रतिस्‍पर्द्धा का लाभ उठाने की स्थिति समाप्‍त हो गयी। ऐसी स्थिति में भारतीय बुर्जुआ शासक वर्ग अमेरिका के सामने और अधिक झुकने के लिए मज़बूर हुआ।

इन्‍हींस्थितियों में 1992 में इस्रायल के साथ राजनयिक सम्‍बन्‍ध स्‍थापित हुआ और देखते ही देखते वह भारत का घनिष्‍ठ व्‍यापारिक और सामरिक साझीदार बन गया। भारतीय बुर्जुआ राज्‍यसत्‍ता के क्रमश: ज्‍यादा से ज्‍यादा निरंकुश प्रतिक्रियावादी होते जाने की प्रक्रिया के साथ इस्रायल के साथ बढ़ती घनिष्‍ठता की पक्रिया जुड़ी रही है। हिन्‍दुत्‍ववादी भाजपा ने इसी प्रक्रिया को उसकी तार्किक परिणति तक पहुँचा दिया है।

पूरेविश्‍व स्‍तर पर और भारत के भीतर गाजा नरसंहार के विरुद्ध उठ खड़े हुए जनमत के भारी दबाव को देखते हुए चेहरा बचाने के नाम पर संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ के मानवाधिकार आयोग की बैठक में इस्रायली हमले के खिलाफ वोट दिया। सभी जानते हैं कि इस आयोग और इस मतदान का कोई मतलब नहीं होता। भारत ने न तो संयुक्‍त राष्‍ट्रसंघ की महासभा की और न ही सुरक्षा परिषद की बैठक बुलाने की माँग की। भारत सरकार का कहना है कि वह मिस्र के युद्ध विराम प्रस्‍ताव का समर्थन करती है। यह युद्धविराम प्रस्‍ताव वास्‍तव में एक आत्‍म समर्पण प्रस्‍ताव था, जो सिर्फ दोनों तरफ से युद्ध रोकने की बात करता था, लेकिन गाजा पट्टी की घेरेबन्‍दी हटाने और इस्रायल की रोज-रोज की उकसावेबाजी को रोकने के सवाल पर मौन था। हमास ने इस प्रस्‍ताव को ठुकरा दिया था और उस युद्धविराम प्रस्‍ताव पर वार्ता की रजामंदी जाहिर की जो वह पहले ही रख चुका था। नया युद्धविराम प्रस्‍ताव रखने वाले मिस्र ने खुद इस्रायल की मदद करते हुए गाजा पट्टी से लगी अपनी सीमा सील कर रखी है।

भारतसरकार ब्रिक्‍स सम्‍मेलन में भी गाजा(ग़ज़ा)-इस्रायल के बीच शांति बहाली सम्‍बन्‍धी पारित प्रस्‍ताव के हवाले देती है। उसकी असलियत भी जान लें। उक्‍त प्रस्‍ताव में सिर्फ आपसी बात-चीत के द्वारा शांति बहाली की अमूर्त और रस्‍मी चर्चा है, गाजा पर इस्रायली बमबारी रोकने और गाजा (ग़ज़ा) पट्टी की घेरेबन्‍दी हटाने की कोई चर्चा नहीं है। जाहिर है कि रूस और चीन के वर्तमान बुर्जुआ शासकों और ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के शासक वर्ग की आज दुनिया के मुक्ति संघर्षों और मुक्तिकामी जनता के साथ कोई वास्‍तविक हमदर्दी नहीं रह गयी है। मण्‍डेला और लूला के वारिस भी फिलिस्‍तीनी जनता के साथ वैसे ही दगा कर चुके हैं जैसे भारत का शासक वर्ग।

कविता सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार

इच्छामृत्यु : एक जटिल प्रश्‍न

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अंजुम शर्मा
-अंजुम शर्मा

"…पिछले कुछ वर्षों में भारत में आर्थिक तंगी के चलते इलाज न करा सकने वाले कई व्यक्तियों और परिवारों ने इच्छामृत्यु की अनुमति के लिए जिला कलेक्टर, राज्य सरकारों से लेकर राष्ट्रपति तक के पास आवेदन किए हैं। यही नहीं, कानपुर के कोपरगंज इलाके में बरसों से रह रहे चीनी मिल परिसर के निवासियों को अदालत के आदेश पर जब घर खाली करने पड़े तो बेघर हुए करीब छियासी परिवारों ने राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की मांग की।.…" 

‘मरते हैं आरजू में मरने की , मौत आती है पर नहीं आती’
मिर्जा ग़ालिब का यह शेर कभी इच्छामृत्यु के संदर्भ में भी पढ़ा जाएगा, सोचा नहीं था। विश्व में कई मुद्दे ऐसे हैं जो मूर्छित अवस्था में रहते हैं। वे जब जब होश में आते हैं, व्यापक बहस को जन्म देते हैं। ऐसा ही एक संवेदनशील विषय है- इच्छामृत्यु, जिसने विश्व भर की सरकारों और न्यायालयों के सामने समय-समय पर चुनौती खड़ी की है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस विषय पर केंद्र एवं राज्य सरकारों से अपनी राय देने के लिए कहा है. दरअसल, यह मुद्दा बेहद विरल परिस्थितियों की उपज है जहां दोनों ओर मजबूरी भी है और मानवता भी। प्रत्येक देश अपने सांस्कृतिक, सामाजिक, दार्शनिक और नैतिक आधारों के आलोक में इस पर विचार करता है। यही कारण है कि इस विषय पर कभी एक राय बनती नहीं दिखी।

सक्रिय और निष्क्रिय इच्छामृत्यु पर हमेशा विवाद रहा है. निष्क्रिय दयामृत्यु यानी लाइलाज परिस्थिति में इलाज बंद कर देना या जीवनरक्षक प्रणालियों को हटा देना. इसे दुनिया के कई देशों में कानूनी मान्यता है लेकिन यदि मरीज मानसिक तौर पर अपनी मौत की मंजूरी देने में असमर्थ हो तब उसे इरादतन दवाईयों द्वारा मृत्यु देना पूरी दुनिया में गैरकानूनी है। वहीँ सक्रिय इच्छामृत्यु में मरीज की पूर्ण मंजूरी के बाद डॉक्टर दवाई देकर जीवन पर पूर्ण विराम लगाते हैं। 

दुनिया में सबसे पहले आॅस्ट्रेलिया के उत्तरी राज्य ने 1996 में इच्छामृत्यु को वैध घोषित किया था, लेकिन 1997 में पुन: विमर्श के बाद इस फैसले को वापस ले लिया गया। फरवरी 2014 में जब बेल्जियम आयु संबंधी समस्त प्रतिबंध हटा कर अपने सभी नागरिकों को ऐसा अधिकार देने वाला विश्व का पहला राष्ट्र बना, तो इस फैसले ने कई सवाल खड़े कर दिए। मसलन, प्रायः जब यह माना जाता है कि बच्चे आर्थिक और भावनात्मक मामलों में अहम फैसले लेने में परिपक्व नहीं होते तो फिर वे अपने जीवन के अंत का स्वैच्छिक और स्वतंत्र निर्णय कैसे ले सकते हैं? क्या पांच वर्षीय बालक उस परिस्थिति पर ठीक वैसे ही विचार कर सकता है जैसा सोलह वर्ष का किशोर कर सकता है? क्या दोनों की समझ और परिपक्वता का स्तर एक ही होता है? अगर नहीं तो फिर ऐसे गंभीर कानून में आयु सीमा का निर्धारण क्यों नहीं किया गया। ऐसे कई सवाल है।

बेल्जियम सहित नीदरलैंड्स और लक्जमबर्ग में भी सक्रिय इच्छामृत्यु की अनुमति दी गई है, जिसके लिए बेहद कड़े कानूनों का प्रावधान है। यहां बीमारियों की सूची तैयारी की गई है और एक खास आयोग को इच्छामृत्यु के फैसले तय करने का अधिकार दिया गया है. फ्रांस और कनाडा में लाइलाज बीमारी से ग्रस्त रोगी की जीवनरक्षक प्रणाली  मरीज के अनुरोध पर डॉक्टर हटा सकते हैं, पर रोगी किसी की सहायता से आत्महत्या की मांग नहीं कर सकता। जबकि स्विट्जरलैंड में 1937 से ही ‘असिस्टेड सुसाइड’ (डॉक्टर के सहयोग से आत्महत्या) की मंजूरी मिली हुई है। लेकिन चिकित्सक यदि स्वार्थ स्वरूप ऐसा करता पाया गया तो उसे अपराध की श्रेणी में रखने का भी प्रावधान है। नीदरलैंड और बेल्जियम में भी चिकित्सक के सहयोग से आत्महत्या को वैधानिक माना जाता है। अमेरिका में सक्रिय इच्छामृत्यु प्रतिबंधित है, पर ओरेगॉन, वाशिंगटन और मोंटाना राज्य में अगर रोगी की मांग पर जीवनरक्षक उपचार बंद कर दिया जाए तो डॉक्टर दोषी नहीं माने जाएंगे।

दरअसल, इच्छामृत्यु बेहद जटिलताओं से भरा विषय है और भारत भी इससे अछूता नहीं रहा। भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को भारतीय दंड संहिता की धारा 302 या धारा 304 के तहत और सहयोगात्मक आत्महत्या को धारा306 के तहत अपराध माना गया है। भारत में समय-समय पर इस पर कई तरह की राय सामने आई है। लेकिन अरुणा शानबाग प्रकरण से इस मुद्दे पर बहस में तीव्रता आई। सत्ताईस नवंबर 1973 को वार्ड बॉय मोहनलाल ने नर्स अरुणा को गले में जंजीर बांध कर अप्राकृतिक दुष्कर्म का शिकार बनाया। जंजीर के कारण अरुणा के दिमाग की तरफ रक्त और प्राणवायु का संचार बंद हो गया। तत्कालीन कानूनी व्यवस्था और सजा के लचर प्रावधानों के चलते आरोपी सात साल में रिहा हो गया, लेकिन अरुणा तब से लेकर आज तक लगभग मृत अवस्था में मुंबई के अस्पताल में भर्ती हैं।

वर्ष 2011 में तत्कालीन न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ ने अरुणा के लिए दायर इच्छामृत्यु की याचिका को खारिज करते हुए भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु को गैरकानूनी करार दिया था। हालांकि असामान्य परिस्थितियों में निष्क्रिय दयामृत्यु या इच्छामृत्यु की अनुमति दी जा सकती है,लेकिन जब तक संसद इस बारे में कोई कानून नहीं बनाती तब तक निष्क्रिय और सक्रिय दोनों प्रकार की इच्छामृत्यु को अवैधानिक ही माना जाएगा। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार, और वे सब पहलू, जो जीवन को अर्थपूर्ण और जीने-योग्य बनाते हैं, शामिल हैं। कई लोगों ने गरिमामय जीवन न होने का हवाला देकर तर्क किया कि अगर जीने का अधिकार है तो मरने का भी होना चाहिए। लेकिन 1996 में उच्चतम न्यायालय ने ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य के मामले में साफ  किया कि अनुच्छेद 21 के अंतर्गत ‘जीवन के अधिकार’ में मृत्युवरण का अधिकार शामिल नहीं है। ऐसा करने पर आइपीसी की धारा 306 और 309 के तहत आत्महत्या का अपराध माना जाएगा।

आत्महत्या के प्रयास के लिए दोषी माने जाने को लेकर भी विवाद उठते रहे हैं। मसलन बेबसी, लाचारी या अवसाद की स्थिति में किए गए खुदकुशी के प्रयास को धारा 309 के तहत लाया जाना चाहिए या नहीं? ऐसे किसी व्यक्तिको सजा मिलनी चाहिए या समस्या का उपचार? इस धारा को समय-समय पर खारिज करने की मांग उठती रही है। लेकिन यह एक अलग बहस का मुद््दा है, क्योंकि इच्छामृत्यु और आत्महत्या दो बिल्कुल अलग-अलग स्थितियां हैं, जिनमें भेद करना जरूरी है। सवाल है कि इस अधिकार की अंतिम सीमा क्या है? एक बार अधिकार मिलने के बाद यह मांग कहां तक तक जाएगी, इस पर विचार किया जाना चाहिए। भारत जैसे देश में जहां बेरोजगारी, गरीबी, कुपोषण आदि सामाजिक और व्यवस्थागत चुनौतियां विद्यमान हैं, वहां इच्छामृत्यु जैसे अधिकारों का दुरुपयोग होने की आशंकाएं प्रबल हैं।

पिछले कुछ वर्षों में भारत में आर्थिक तंगी के चलते इलाज न करा सकने वाले कई व्यक्तियों और परिवारों ने इच्छामृत्यु की अनुमति के लिए जिला कलेक्टर, राज्य सरकारों से लेकर राष्ट्रपति तक के पास आवेदन किए हैं। यही नहीं, कानपुर के कोपरगंज इलाके में बरसों से रह रहे चीनी मिल परिसर के निवासियों को अदालत के आदेश पर जब घर खाली करने पड़े तो बेघर हुए करीब छियासी परिवारों ने राष्ट्रपति से इच्छामृत्यु की मांग की। यह स्थिति केवल भारत की नहीं है, विश्व के अधिकतर देश इसके दुरुपयोग होने की आशंकाओं के चलते संशय में रहते हैं। बेल्जियम में 2002 से 2012 के बीच वयस्कों के लिए इच्छामृत्यु के अधिकार के तहत करीब साढ़े छह हजार आवेदन आए, जिनमें अधिकतर मामलों में वैसे लोगों के आवेदक होने की संभावना है जोनिराशापूर्ण जीवन से तंग आ चुके हैं। ‘डॉक्टर डेथ’ के नाम से प्रसिद्ध अमेरिका के डॉक्टर जैकब ‘जैक’केवोरकियन को एक सौ तीस व्यक्तियों को इच्छामृत्यु के नाम पर जहर देकर मौत देने के आरोप में जब दोषी पाया गया तो भारत से लेकर अमेरिका तक के डॉक्टर यह मानने लगे कि इस तरह के कानून की आड़ में मानव अंगों की तस्करी से लेकर स्वार्थी गतिविधियों और दूसरे अवैध धंधों को बल मिल सकता है।

चिकित्सकीय नीतिशास्त्र के मुताबिक  डॉक्टर से यह अपेक्षा की जाती है कि जब तक संभव हो सके तब तक मरीज को जिंदा रखने का प्रयास किया जाना चाहिए। टीबी और कैंसर के इलाज में मिली सफलता इस बात का प्रमाण है कि नई-नई खोजों से लाइलाज बीमारियों का इलाज कब संभव हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। ऐसे में किसी मरीज को हताशा के गर्त में कैसे झोंका जा सकता है?

इच्छामृत्यु के समर्थक मानते हैं कि विशेष और अपवाद जैसी परिस्थितियों के चलते पीड़ित को ‘सम्मानजनक मौत’ दी जानी चाहिए। लेकिन क्या ‘सम्मानजनक मृत्यु’ का ‘विशेष’ और ‘अपवाद’ परिस्थिति ही पैमाना है? या इसके और भी अर्थ निकल सकते हैं? क्या बेल्जियम के सभी आवेदकों की परिस्थिति ‘अपवाद’ हो सकती है?निस्संदेह प्रत्येक व्यक्ति इसका अपने अनुसार अर्थ निकाल सकता है। अगर अरुणा शानबाग को ‘विशेष परिस्थितियों’ के चलते निष्क्रिय दयामृत्यु का अधिकार मिल भी जाए तो क्या उसे ‘सह-सम्मान मृत्यु’ की संज्ञा दी जा सकेगी? इस पर विचार करने की जरूरत है।

भले ही किसी भी देश में इच्छामृत्यु को वैधानिक मान्यता मिल जाए, पर भारतीय संसद और न्यायालय के सामने सबसे बड़ी चुनौती यहां की धर्म और आस्थाओं से घिरी जिंदगी है। आज भी सवा रुपए से लेकर परिक्रमा, व्रत और लंगर नाउम्मीदी के अंधेरे को पसरने नहीं देते। यहां डॉक्टर भगवान का पर्याय है और डॉक्टर भगवान पर भरोसा रखने के लिए भी कहता है। ऐसे में इच्छामृत्यु के सवाल से जूझना क्या आसान होगा?

अंजुम शर्मा 
साहित्यिक लेखन के साथ समकालीन विषयों पर स्वतंत्र लेखन
संपर्क- artistanjum@gmail.com

कैसे याद किया जाय नबारुण भट्टाचार्य को..जबकि शब्द न हों

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-संदीप सिंह

नबारुण भट्टाचार्य
मुक्तिबोध मदद करते हैं. दोनों ने सिखाया, नफरत करनी क्यों आनी चाहिए और किससे. और इसके आये बिना सब मनुष्यता,पेड़-प्रेम, जंतु-प्रेम, प्रेम-प्रेम नकली है,अधूरा है, झांसा है और मनुष्यता की जंजीरों को तोड़ने में, खोलने में कोई मदद नहीं करता.

ऐसे समय में जब रीढ़विहीन, गलदश्रु, बेहूदे, औरतखोर, नकलची, दलाल और लिजलिजे किस्म के लोग भी कवि का तमगा सीने पे लगाकर सत्ता संस्थानों की आँखों का तारा बने हुए हैं और दिन-रात आत्म प्रचार में लगे हुए हैं. कवियों की ये जमात प्लेटो के समय में हो गयी होती तो कुलीनशाही का समर्थन करने वाले उस विराट दार्शनिक को यह स्थापित न करना पड़ता कि "कविता और कवियों को राज्य (Polis) से बाहर कर देना चाहिए."जालिब ने शायद ऐसे ही लोगों को देखकर लिखा था "हुक्‍मरां हो गये कमीने लोग, खाक में मिल गये नगीने लोग." 

नवारुण दा की कविताएँ और जीवन, हमारा हौसला बनाये रखते हैं, उम्मीद जगाये रहते हैं. वे कहती हैं कि इस दुधर्ष और मायावी समय में भी जमीन पर खड़े रहकर रचा जा सकता है, बिना झुके, बिना बिके. इतिहास "हमें"सही साबित करेगा'. 

जिस 'सभ्यता-समीक्षा'ने मुक्तिबोध का सारा खून चूस लिया उसी राह पे चलते हुए नवारुण दा 'बांग्ला के मुक्तिबोध'बने. हममें से कुछ ने उनको बोलते, बतियाते, कविता पढ़ते, गरियाते और बहुत कुछ करते देखा है, सुना है. वह हमारी थाती है. प्राणवायु की तरह. 

समझ में नहीं आता कि अभी क्या लिखा जाये, मुक्तिबोध की दो कविताओं के ये दो हिस्से बोलेंगे, नवारुण दा के लिए भी, हमारे लिए भी, तुम्हारे लिए भी.. 

1. 
मैं तुम लोगों से इतना दूर हूँ

'तुम्हारी प्रेरणाओं से मेरी प्रेरणा इतनी भिन्न है
कि जो तुम्हारे लिए विष है, मेरे लिए अन्न है।
मेरी असंग स्थिति में चलता-फिरता साथ है,
अकेले में साहचर्य का हाथ है,
उनका जो तुम्हारे द्वारा गर्हित हैं
किन्तु वे मेरी व्याकुल आत्मा में बिम्बित हैं, पुरस्कृत हैं
इसीलिए, तुम्हारा मुझ पर सतत आघात है !!
सबके सामने और अकेले में.' 
................... 

2. 

पूंजीवादी समाज के प्रति

'इतने प्राण, इतने हाथ, इतनी बुद्धि
इतना ज्ञान, संस्कृति और अंतःशुद्धि
इतना दिव्य, इतना भव्य, इतनी शक्ति
यह सौंदर्य, वह वैचित्र्य, ईश्वर-भक्ति
इतना काव्य, इतने शब्द, इतने छंद –
जितना ढोंग, जितना भोग है निर्बंध
इतना गूढ़, इतना गाढ़, सुंदर-जाल –
केवल एक जलता सत्य देने टाल. 
छोड़ो हाय, केवल घृणा औ'दुर्गंध
तेरी रेशमी वह शब्द-संस्कृति अंध
देती क्रोध मुझको, खूब जलता क्रोध
तेरे रक्त में भी सत्य का अवरोध
तेरे रक्त से भी घृणा आती तीव्र
तुझको देख मितली उमड़ आती शीघ्र
तेरे ह्रास में भी रोग-कृमि हैं उग्र
तेरा नाश तुझ पर क्रुद्ध, तुझ पर व्यग्र. 
मेरी ज्वाल, जन की ज्वाल होकर एक
अपनी उष्णता में धो चलें अविवेक
तू है मरण, तू है रिक्त, तू है व्यर्थ
तेरा ध्वंस केवल एक तेरा अर्थ.'


नवारुण के शब्दों में... 

"ज्वालामुखी के मुहाने पर
रखी हुई है एक केतली
वहीं निमंत्रण
है आज मेरा
चाय के लिए।

हे लेखक, प्रबल पराक्रमी क़लमची 
आप वहाँ जाएँगे?


(संदीप सिंह की फेसबुक वॉल से साभार..)

संदीप सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष.
इनसे सम्पर्क का पता है- sandeep.gullak@gmail.com

'सी सैट'और भाषा का सवाल

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-कविता कृष्‍णपल्‍लवी

"...भारतीय भाषाओं में शासकीय कामकाज और अध्‍ययन शोध का सवाल भारतीय समाज के जनवादीकरण (डेमोक्रेटाइजेशन) का अहम मुद्दा है। साथ ही, यह हमारी सर्जनात्‍मक क्षमता और कल्‍पनालोक की मुक्ति के लिए अनिवार्य है। स्‍वप्‍न और कल्‍पनाओं की मौलिक भाषा अपनी मिट्टी और हवा पानी से उपजी और उन्‍हीं के रंग-गंध में रची-पगी अपनी मातृभाषा ही हो सकती है, औपचारिक शिक्षातंत्र द्वारा सिखाई गई कोई भाषा कतई नहीं हो सकती। स्‍वप्‍न, कल्‍पना और सर्जना की मुक्ति के बिना सामाजिक मुक्ति की संकल्‍पना का खाका तैयार नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी की मानसिक-भौतिक गुलामी से मुक्ति का प्रश्‍न हमारी सामाजिक मुक्ति के प्रश्‍न से नाभिनालबद्ध है।..."

भाषा का अपना वर्गचरित्र नहीं होता, लेकिन वर्ग-समाज में भाषा अपने आप में वर्ग संघर्ष का क्षेत्र बन जाती है। प्राय: सभी उत्‍तर-औपनिवेशिक समाजों में, भूतपूर्व औपनिवेशिक स्‍वामियों की भाषा आज भी इन समाजों के शासकों और उच्‍च मध्‍यवर्गीय कुलीनों की भाषा बनी हुई है।


भारत में शासन का सारा कामकाज मूलत: अंग्रेजी में होता है, प्रकृति विज्ञान और समाज विज्ञान की सारी उच्‍चस्‍तरीय पढ़ाई और शोध अध्‍ययन अंग्रेजी में होते हैं। जो अनुवाद के जरिए अपनी भाषा में पढ़ते हैं, उनकी अपनी रही-सही भाषा भी (घटिया और फूहड़ अनुवाद के कारण) चौपट हो जाती है। ज्ञानी होना एक 'स्‍टेटस सिंबल'है और आप राष्‍ट्रीय-अन्‍तरराष्‍ट्रीय स्‍तर के ज्ञानी तभी हो सकते हैं जब अंग्रेजी़दाँ हों। 

अंग्रेजी अंग्रेजियत की कुलीन संस्‍कृति की रीढ़ है। साथ ही, अंग्रेजी शासन और राजकाज की भाषा के रूप में शासक वर्गों की कूट भाषा का काम करती है। वह शासन और विधि के रहस्‍यों को जन समुदाय के लिए अबूझ बनाये रखने का काम करती है। 

इत्‍तफ़ाक से आज की दुनिया के मुख्‍य साम्राज्‍यवादी महाप्रभु अमेरिका की भाषा भी अंग्रेजी है। अंग्रेजी भारत के विदेश जाने को लालायित जमातों के लिए अमेरिका, इंगलैण्‍ड, कनाडा, आस्‍ट्रेलिया, न्‍यूजीलैण्‍ड जाना सुगम बना देती है। हालाँकि इसके लिए उच्‍च अध्‍ययन-शोध की भाषा अंग्रेजी होना ज़रूरी नहीं है। विदेश जाने के लिए कोई भाषा अलग से सीखी जा सकती है, जैसे चीन, जापान, रूस और पूर्वी यूरोपीय देशों के लोग करते हैं। लेकिन मुख्‍य बात यह है कि अंग्रेजी की औपनिवेशिक विरासत को बनाये रखकर कुलीन उच्‍च मध्‍यवर्ग अपने विशेषाधिकारों और आम जनों से अपनी दूरी को बनाये रखना चाहता है तथा आम लोगों के हीनताबोध को बनाये रखना चाहता है ताकि शासक वर्गीय वर्चस्‍व की स्‍वीकार्यता के लिए उनके दिमाग को आसानी से अनुकूलित किया जा सके। 

भारतीय भाषाओं में शासकीय कामकाज और अध्‍ययन शोध का सवाल भारतीय समाज के जनवादीकरण (डेमोक्रेटाइजेशन) का अहम मुद्दा है। साथ ही, यह हमारी सर्जनात्‍मक क्षमता और कल्‍पनालोक की मुक्ति के लिए अनिवार्य है। स्‍वप्‍न और कल्‍पनाओं की मौलिक भाषा अपनी मिट्टी और हवा पानी से उपजी और उन्‍हीं के रंग-गंध में रची-पगी अपनी मातृभाषा ही हो सकती है, औपचारिक शिक्षातंत्र द्वारा सिखाई गई कोई भाषा कतई नहीं हो सकती। स्‍वप्‍न, कल्‍पना और सर्जना की मुक्ति के बिना सामाजिक मुक्ति की संकल्‍पना का खाका तैयार नहीं हो सकता। इसलिए अंग्रेजी की मानसिक-भौतिक गुलामी से मुक्ति का प्रश्‍न हमारी सामाजिक मुक्ति के प्रश्‍न से नाभिनालबद्ध है।

मातृभाषा में अध्‍ययन और सभी शासकीय कामकाज की लड़ाई जनता के बुनियादी अधिकारों की लड़ाई का एक बुनियादी मुद्दा है और इस रूप में हम इस माँग का पूरी तरह समर्थन करते हैं कि न्‍यायपालिका और नौकरशाही के सभी कामकाज भारतीय भाषाओं में होने चाहिए। चूँकि भारत एक बहुभाषी देश है, इसलिए जाहिरा तौर पर, ऐसा करने के लिए बड़े पैमाने पर अनुवाद, अनुवादकों और दुभाषियों की ज़रूरत होगी। शिक्षा में अपनी भाषा के अतिरिक्‍त एक या दो भारतीय भाषाओं और एक विदेशी भाषा की शिक्षा का प्रावधान करके इस काम को आसानी से किया जा सकता है, यदि शासक वर्ग चाहे तो! 

लेकिन सवाल यही है। शासक वर्ग ऐसा चाहेगा ही क्‍यों? यदि वह किसी हद तक ऐसा करेगा भी तो जन दबाव से बाध्‍य होकर ही करेगा। शिक्षा और शासकीय कामों में फूहड़ और बोझिल अनुवाद अंग्रेजी को अनिवार्य विवशता के रूप में स्‍थापित करने की साजिश का हिस्‍सा है। अखबारों और मनोरंजन उद्योग द्वारा हिन्‍दी में बाजारू सस्‍तापन लाने की कोशिशें और 'हिंगलिश'को चलन में लाने की कोशिशों, गहन विचार, अमूर्तन और अभिव्‍यक्ति के माध्‍यम के रूप में हिन्‍दी को पंगु बना देने की एक गहरी सांस्‍कृतिक भाषाई कपट-परियोजना का एक अंग है। 

आम बोलचाल की भाषा और दार्शनिक-वैज्ञानिक चिन्‍तन की भाषा में, इस अंतर को यदि सम्‍भ्रांत ज्ञानी समाज की भाषा और आम लोगों की भाषा के अंतर के रूप में जड़ीभूत कर दिया जाये, तो यह भी एक ओर भाषाई कुलीनतावादी षड्यंत्र है और दूसरी ओर भाषा की सजीवता और गतिमानता का गला घोंटकर उसकी मृतप्राय और अश्‍मीभूत बना देने का षड्यंत्र है।

जैसा कि हमने ऊपर कहा है, शासन और न्‍याय की भाषा भारतीय भाषाएँ ही होनी चाहिए -- यह जनता का जनवादी अधिकार है। इसलिए नौकरशाहों के चयन-परीक्षा और प्रशिक्षण भी भारतीय भाषाओं में ही होना चाहिए। वे सारा शासकीय कामकाज आम जनों की भाषा में करें, इसे भी कानूनी तौर पर अनिवार्य बनाया जाना चाहिए।

इसी दृष्टिकोण से हम सिविल सर्विसेज की प्रारम्भिक परीक्षा से सी सैट हटाये जाने की प्रतियोगी छात्रों की माँग का समर्थन करते हैं और बस इसी दृष्टिकोण से समर्थन करते हैं। सारे शासकीय कामकाज भारतीय भाषाओं में हो, इसके लिए यह ज़रूरी भी है कि नौकरशाहों की चयन-परीक्षा और प्रशिक्षण भी भारतीय भाषाओं में ही हो। हम जनहित और जनअधिकार के पक्ष से यह माँग उठाते हैं। यह भाषा के प्रश्‍न पर जनता की व्‍यापक लड़ाई का एक सीमित और छोटा मुद्दा है। हमें यह मुगालता नहीं है कि भारतीय भाषाओं के छात्र यदि कलक्‍टर और एस.पी. बन जायेंगे तो बुर्जुआ व्‍यवस्‍था को थोड़ा अधिक लोक कल्‍याणकारी बना देंगे, आंदोलनरत जनता पर कम लाठी-गोली बरसायेंगे, टॉर्चर-एनकाउण्‍टर कम कर देंगे, या यदि वे मंत्रालयों में सचिव आदि बन जायेंगे तो शासक वर्ग की नीतियों में कुछ बदलाव ला देंगे। 

बुनियादी नीतिेयों और अमल के स्‍तर पर वे एक विराटकाय सत्‍ता मशीनरी के नट-बोल्‍ट और दाँते-चक्‍के-पट्टे ही होंगे। यदि आम घरों के कुछ नेकदिल लोग नौकरशाह बन भी जायें तो बुनियादी नीतियाँ तो वे बुर्जुआ वर्ग की ही लागू करेंगे, भ्रष्‍टाचार और गैरजरूरी अत्‍याचार कम करेंगे। लेकिन सत्‍ताधारी भी भ्रष्‍टाचार, लालफीताशाही और अनावश्‍यक दमन नहीं चाहते। ये चीज़ें उनकी इच्‍छा से स्‍वतंत्र व्‍यवस्‍था के भीतर से पैदा होती है। व्‍यवस्‍था में हमेशा ही कुछ शेषन, खैरनार, भूरेलाल, लिंगदोह आदि-आदि निजी तौर पर भ्रष्‍टाचार न करने वाले नौकरशाह पैदा होते रहते हैं, कभी-कभी कुछ भ्रष्‍ट नेता उन्‍हें सताते भी हैं, लेकिन कुल मिलाकर व्‍यवस्‍था के सिद्धांतकार और नीति निर्माता ऐसे ''सदाचारी बुर्जुआ जेंटलमैनों''की कीमत समझते हैं और उन्‍हें अध्‍ययन एवं नीति निर्माण के कामों में लगा दिया जाता है। 

दूसरे, प्राय: ऐसे सदाचारी बुर्जुआ सज्‍जन लोग व्‍यवस्‍था में आमूलगामी बदलाव की किसी कोशिश को कट्टर प्रतिबद्ध विरोधी होते हैं और उसे लोहे के हाथों से कुचलने तथा सुधार-कार्य के सेफ्टीवॉल्‍व तैयार करने की दोहरी नीति की पुरजोर पैरोकारी करते हैं। तीसरे, ''सदाचारी''ईमानदार नौकरशाह अपने सदाचरण के डिटरजेण्‍ट से पूँजीवादी व्‍यवस्‍था के दामन पर लगी गंदगी और खून के धब्‍बों को धोने का ही काम करते हैं। आमूलगामी बदलाव का पक्षधर किसी व्‍यक्ति की इस बात में भला क्‍या दिलचस्‍पी हो सकती है कि किसी आम घर का लड़का कलक्‍टर या एस.पी. बनकर आम जनता पर लाठी-गोली चलवाने का और खूनी बुर्जुआ राज्‍यसत्‍ता की रीढ़ की हड्डी (नौकरशाही) का हिस्‍सा बनने का काम करे? यह कौन सी जनवादी अधिकार की माँग हुई कि भारतीय भाषाओं में पढ़ने वाले शहर-देहात के आम घरों के युवाओं को भी बुर्जुआ वर्ग की ताबेदारी करने, जनता को चूसने लूटने में मददगार बनने और उसपर लाठी-गोली बरसाने का उतना ही मौका मिलना चाहिए, जितना कि अंग्रेजीदाँ कुलीन घरों के लड़कों को। 

इसलिए कलक्‍टर-एस.पी. के नौकरियों तक आम घरों के युवाओं की पहुँच को आसान बनाने के स्‍थितिबिन्‍दु से हम सी सैट हटाये जाने की माँग का कत्‍तई समर्थन नहीं करते और इसे एक नितान्‍त प्रतिक्रियावादी स्थितिबिन्‍दु समझते हैं। हम जनता के जनवादी अधिकार की लड़ाई के एजेण्‍डे पर भाषा के प्रश्‍न की मौजूदगी के स्थितिबिन्‍दु से, शासन और न्‍याय का सारा कामकाज जनता की भाषा में किये जाने की माँग की स्थितिबिन्‍दु से ही सी-सैट हटाये जाने की माँग का समर्थन करते हैं।

निश्‍चय ही इस माँग को लेकर आंदोलनरत छात्रों पर लाठियाँ बरसाकर और उनके साथ धोखाधड़ी भरी वायदाखिलाफी करके सरकार ने अपना 'चाल-चेहरा-चरित्र'एक बार फिर नंगा कर दिया है। इसकी कठोर भर्त्‍सना की जानी चाहिए। लेकिन एक बात और साफ है। जो लोग सी सैट हटाये जाने के प्रश्‍न पर लाठियाँ खा रहे हैं, उनमें से अधिकांश भाषा या भारतीय भाषाओं में शासकीय कामकाज के बारे में न तो कोई जनोन्‍मुख नज़रिया रखते हैं, न ही उनकी सोच का कोई वृहत्‍तर परिप्रेक्ष्‍य है। वे कलक्‍टर-एस.पी., कमिश्‍नर-आई.जी., सेक्रेटरी वगैरह-वगैरह बनने के समान अधिकार के लिए लाठियाँ खा रहे हैं।

मैं अपना व्‍यक्तिगत अनुभव बताऊँ। बरसों से हमलोग लगभग हर साल मुखर्जी नगर इलाके में भी प्रगतिशील पुस्‍तकों की प्रदर्शनियाँ लगाते रहे हैं। चूँकि ज्‍यादातर पुस्‍तकें हिन्‍दी में होती हैं, इसलिए आम छात्रों के अतिरिक्‍त सिविल सर्विसेज की तैयारी हिन्‍दी में करने वाले ज्‍यादातर युवा ही स्‍टॉल पर ज्‍यादा आते थे। बातचीत, बहस-मुबाहसे के दौरान ऐसे युवाओं के विचारों से अवगत होने का खूब अवसर मिलता था। यदि उनके कुल विचारों को थोड़े में समेटा जाये तो वे इस प्रकार होते थे: 'भारत को तरक्‍की के रास्‍ते पर आगे बढ़ाने के लिए तानाशाही ज़रूरी है', 'भ्रष्‍टाचार, लालफीताशाही, नेताशाही -- सबकुछ तानाशाही से ठीक हो जायेगा', 'समाजवाद भी फासीवाद का ही एक रूप था जो फेल हो गया', 'सबकी बराबरी सम्‍भव नहीं', 'योग्‍य को आगे बढ़ने का अधिकार है' -- 'सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्‍ट', 'मज़दूर कामचोर होते हैं', 'हड़तालें देश की तरक्‍की में बाधक हैं', उन्‍हें सख्‍ती से कुचल देना चाहिए और यूनियनों पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए'... वगैरह-वगैरह, इसी किस्‍म की निरंकुशतापूर्ण और  मध्‍यवर्गीय कूपमण्‍डूकतापूर्ण बातें। 

ऐसे कई युवा मिले जिन्‍होंने ईमानदारी से बताया कि आपलोगों से बहस करने से हम लोगों का जनरल नॉलेज बढ़ता है और तर्क-वितर्क का अभ्‍यास होता है जो ग्रुप डिस्‍कशन और साक्षात्‍कार में काम आता है। ज्‍यादातर ऐसे छात्र इतिहास, राजनीति विज्ञान, राजनीतिक अर्थशास्‍त्र और साहित्‍य की किताबें भी प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी की दृष्टि से ही खरीदते थे। अपवादों को छोड़ दें, तो बहुतायत इन्‍हीं विचारों वाले युवाओं की होती थी। कुछ ऐसे आदर्शवादी भी मिलते थे कि जिनका मानना होता था कि यदि अच्‍छे लोग नौकरशाही में आ जायें तो काफी हद तक व्‍यवस्‍था को दुरुस्‍त कर देंगे, हर व्‍यक्ति यदि स्‍वयं को ठीक कर ले तो सबकुछ ठीक हो जायेगा। ऐसे लोग तो क्रांति और आंदोलनों के प्रति और अधिक वितृष्‍णा का नजरिया रखते थे और ऐसी किसी भी सामाजिक कार्रवाई को घोर अराजकता मानते थे।

तो ऐसे तमाम भाई लोगों, आसानी से कलक्‍टर-कप्‍तान बनकर आप हमारे ही ऊपर लाठी-गोली चलवायें, हमें ही चूसने-पीसने-रौंदने-पछीटने-निचोड़ने में शासक वर्ग की मदद करें, आपके इस ''जनवादी अधिकार''के संघर्ष में तो हम आपके साथ नहीं हैं, साफ-साफ बता दें। 

हाँ, सारी शिक्षा और सभी शासकीय काम भारतीय भाषाओं में हों, जनता की इस व्‍यापक जनवादी माँग की दृष्टि से हम सी सैट हटाये जाने की माँग का समर्थन करते हैं और आपके ऊपर हुए बर्बर सरकारी दमन का विरोध करने में पूरीतरह आपके साथ हैं।  

कविता सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
यह आलेख उनकी फेसबुक वॉल से साभार

'काल तुझसे होड़ है मेरी', मानो यही कह रहे वीरेन दा...

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-भास्‍कर उप्रेेती

(कल कवि वीरेन डंगवाल का जन्‍मदिन था. पिछले कुछ समय से अपनी खराब तबियत से जूझ रहे वीरेन दा इधर इंद्रापुरम (गाजियाबाद) में रहने लगे हैं. खूब लिख रहे हैं.. पढ रहे हैं.. 'समकालीन तीसरी दुनिया', 'कबाडखाना'और कुछ अन्‍य जगहों में छपी उनकी ताजा कविताएं बता रही हैं कि बीमार देह हो सकती है कवि नहीं. बीमार वीरेन दा से मिलने उनके चाहने वाले अक्‍सर मिलने चले आते हैं.. परसों हल्‍द्वानी से भास्‍कर उप्रेती और दीप भट्ट भी उनका हाल-चाल जानने और गप्‍पें मारने पहुंच गए. लौटकर भास्‍कर उप्रेती ने इसी मुलाकात पर एक छोटा टुकडा लिखा है.. प्रैक्‍िसस में आज यही....      सं.)


(वीरेन दा को जन्मदिन की ढेरों-ढेर शुभकामनाएं)

सुनीता ने 'कबाड़खाना'और 'समकालीन तीसरी दुनिया'में छपी वीरेन दा की कविता पढ़ाई तो दिल उनसे मिलने को बेताब हो उठा. "पिछले साल मेरी उम्र पैसठ की थी, तब मैं तकरीबन पचास साल का रहा होऊंगा, इस साल मैं पैसठ का हूँ. मगर आ गया हूँ गोया पचहत्तर के लपेटे में.."कई मित्रों संग उनसे मिलने जाने की योजनायें बनीं. लेकिन अंततः गत रविवार को मिलना हो पाया, इन्द्रापुरम दिल्ली स्थित उनके आवास पर. वीरेन दा तो वीरेन दा हुए. हमारे पहुँचने से पहले ही हमारा खाना तैयार करवा रक्खा था. हम उनका स्वास्थ्य पूछते इससे पहले ही उन्होंने हमारे लिए कई सवाल तैयार रख छोड़े थे. काया तो उनकी एकदम बदल गयी है लेकिन दिलोदिमाग और जवां हो उठा है. 

उन्होंने बताया कि वे अपने इस आवास पर दो दिन पहले ही आये हैं. इससे पहले अपनी बड़ी बहू के तीमारपुर स्थित सरकारी आवास पर थे. उस आवास पर मेरा जाना तब हुआ था जब उनका इस पारी का पहला ऑपरेशन हुआ था. (रायगढ़, छत्तीसगढ़ के वाकये के बाद). उन्होंने बताया वे यहाँ वे कविताएँ लिखने आये हैं. और जमकर लिखना चाहते हैं. जैसे गिर्दा कहते थे, 'बब्बा मरोड़ उठ रही है भीतर', वैसे ही वे भी व्यक्त करने को बेचैन थे. वे इतने चुस्त हो रखे थे कि हमें जिस बेड रूम में आराम के लिए रक्खा था, वहां खुद ही कुछ न कुछ सुनाने के बहाने चले आ रहे थे. बहुत बोल-बता रहे थे. हँसी-ठट्टा जमकर और फिर कह रहे थे अब मुझे चुप हो जाना चाहिए. ज्यादा बोलने से फीवर हो जाता है. दिल्ली में इतवार का दिन होने से बहुत से मित्रगण वहां मिलने पहुँच रहे थे. हमसे पहले आशुतोष, मंगलेश दा, डॉ. आशुतोष मिलकर जा चुके थे. 

इस दरम्यान पत्रकार पंकज श्रीवास्तव और उनकी पत्नी पहुँचीं. वीरेन दा ने उनकी पत्नी से कोई बनारसी गाना सुनाने की फरमाइश की और हमें उनकी गायकी कला के बारे में विस्तार से बताया. इस जोड़े के बारे में भी उनके पास बताने के लिए बहुत कुछ था. उन्हें तो वे जैसे बचपन से ही जानते थे. गाना वाकई कमाल का था. वीरेन दा की जिद थी कि हम रात को वहीँ रुकें, लेकिन नौकरी हम दोनों को डरा रही थी और वीरेन दा इस डर को पढ़ पा रहे थे. उनकी आखें चेतावनी दे रही थीं- "इतने भले मत बन जाना साथी, जितने भले होते हैं सर्कस के हाथी, गदहा बनने में लगा दी सारी कूबत सारी प्रतिभा, किसी से कुछ लिया नहीं, न किसी को कुछ दिया, ऐसा भी जिया जीवन तो क्या जिया."उन्होंने सुनीता के लिए दो किताबें पहले से बाँध रक्खी थी..और आते-आते भी हमसे डटकर जिंदगी जीने के लिए कह रहे थे. उन्होंने गाजा पट्टी हमले पर इतवार की सुबह ही लिखी लम्बी कविता हमें सुनाई, बिना लिखे हुए को देखे. चित्रकार अशोक भौमिक ने अपनी जो पेन्टिंग उन्हें भेंट की थी, उसके अर्थ करती एक और ताजा कविता उनके मन में थी. कहीं से नहीं लगा वीरेन दा भयानक व्याधि की जद में हैं. यही लगा वे पल-पल बीमारी को मात दे रहे हैं. उनसे मिलना हमेशा की तरह नया जीवन मिल जाने जैसा था.


मोदी की नेपाल यात्रा और नेपाली नेतृत्व का हीनता बोध

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आनंद स्‍वरूप वर्मा
-आनंद स्‍वरूप वर्मा 

शायद ही किसी देश का समूचा नेतृत्व इस कदर हीनताबोध का शिकार हो जैसा मोदी की यात्रा के दौरान नेपाल में देखने को मिला। संविधान सभा भवन में मोदी के भाषण के दौरान एक जादुई सम्मोहन में डूबे सभासद हतप्रभ थे। उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि अपने दबदबे से आक्रांत रखने वाले ‘विस्तारवादी’ भारत का कोई प्रधानमंत्री इतनी प्यार-मोहब्बत की बातें उनसे कर सकता है। वे नरेन्द्र मोदी को पहली बार रू-ब-रू देख रहे थे, पहली बार सुन रहे थे... 

...उस नरेन्द्र मोदी को, जिसके बारे में तरह-तरह की आशंकाएं थीं- क्या वह नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र देखना चाहते हैं, क्या उनकी निगाह करनाली नदी पर लगी हुई है, क्या वह नेपाल में बढ़ रहे चीन के प्रभाव पर अपनी चिंता व्यक्त करेंगे, क्या वह नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता और अराजकता के लिए उन्हें कोसेंगे आदि-आदि। नरेन्द्र मोदी ने उनकी आशंकाओं के विपरीत ऐसा कुछ भी नहीं किया जबकि उनकी यात्रा का मुख्य मकसद ही नेपाल में चीन के बढ़ते प्रभाव को रोकना और नदी जल समझौतों को अपने अनुकूल बनाने का रास्ता तैयार करना था। वह जिस संघ संप्रदाय से आते हैं, उसके एक घटक विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल ने पूर्व राजा ज्ञानेन्द्र को ‘हिन्दू हृदय सम्राट’ कहा था। औरों की तो बात छोड़िए, मोदी की पार्टी भाजपा के अभी हाल तक अध्यक्ष रहे और मौजूदा समय में गृहमंत्री राजनाथ सिंह सहित सभी प्रमुख नेताओं ने किसी न किसी समय नेपाल के हिन्दू राष्ट्र न रहने पर दुख जाहिर किया है और कामना की है कि नेपाल को उसका पुराना गौरव फिर हासिल हो जाए। लेकिन मोदी इस पर कुछ नहीं बोले- उल्टे उन्होंने ‘संघीय लोकतांत्रिक गणतंत्र की कल्पना’ के प्रति पूरा आदर दिखा कर राजावादियों को निराश किया।

मोदी ने अपने भाषण का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा नेपालियों के गौरव-गान में बिताया। उन्होंने बताया कि ‘हिन्दुस्तान ने वह कोई लड़ाई नहीं जीती है जिस जीत में किसी नेपाली का रक्त न बहा हो।’ भाड़े के सैनिकों के रूप में नेपाली गोरखा को सारी दुनिया में जो (कुख्याति) मिली है उस पर जब प्रचण्ड जैसे लोगों ने ताली बजायी तो हैरानी होती है।

मोदी की दो दिन की यात्रा को समग्र रूप में देखें तो ऐसा लगता है कि किसी हिन्दू राष्ट्र का प्रधानमंत्री एक दूसरे हिन्दू राष्ट्र में पहुंचा हो। उनके भाषण का समूचा अंडरटोन धार्मिक आग्रहों से भरा हुआ था। एमाले नेता माधव नेपाल की तिरुपति के मंदिर में सर मुंडवाने से लेकर माओवादी नेता अमिक शेरचन के देवी को भैंसे की बलि देने तक की घटनाओं से अनभिज्ञ न रहने वाले मोदी को भरोसा है कि प्रचण्ड, बाबूराम और इन जैसे कुछ की बात छोड़ दें तो यहां के कम्युनिस्टों को भी धर्म की अफीम चटाना बहुत आसान है। मोदी ने इस मानसिकता का भरपूर लाभ उठाया। उन्होंने अपने भाषण में बताया कि सोमनाथ की भूमि से चलते हुए उन्होंने काशी विश्वनाथ की छत्रछाया में राष्ट्रीय राजनीति की शुरुआत की और आज पशुपतिनाथ के चरणों में आ पहुंचे हैं। उन्होंने याद दिलाया कि काशी का प्रतिनिधि बनने की वजह से नेपाल से स्वतः भी उनका नाता जुड़ गया ‘क्योंकि काशी में एक मंदिर है जहां पुजारी नेपाल का होता है और नेपाल में पशुपतिनाथ है जहां का पुजारी हिन्दुस्तान का होता है’। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि हिन्दू धर्म में पूज्य जो 51 शक्तिपीठ हैं उनमें से दो नेपाल में ही हैं। उन्होंने जनकपुर की धरती को याद किया जहां सीता माता पैदा हुई थीं। सारी दुनिया में गणेश की मूर्ति को दूध पिलाने में माहिर संघी प्रचार तंत्र ने बड़े सुनियोजित ढंग से यह फैला रखा है कि मोदी जी अब अगले 20-25 साल तक भारत पर राज करेंगे और नेपाल जैसे ‘हल्ले-हल्ला को देश’ में इस प्रचार के प्रभाव में डूबे सभासदों के बीच मोदी के प्रति सहज अनुराग की वजह को समझा जा सकता है। वे भावविभोर और मंत्रमुग्ध होकर मोदी को सुन रहे थे। हद तो तब हो गयी जब मोदी के इस कथन पर कि ‘नेपाल एक सार्वभौम राष्ट्र है’, सदन तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा। ऐसा लगा जैसे भारत के प्रधानमंत्री से ये मीठे बोल सुनने के लिए उनके कान कब से तरस गए थे। क्या उन्हें पहली बार एहसास हुआ कि नेपाल सचमुच एक संप्रभु राष्ट्र है?

हीनता की यह ग्रंथि उस समय से ही दिखायी दे रही थी जब से मोदी के पांव काठमांडो की धरती पर पड़े थे। उनके स्वागत समारोह को देखकर ऐसा लग रहा था कि जैसे अंग्रेजों के शासनकाल में महारानी विक्टोरिया भारत के दौरे पर आयी हों। खुद प्रधानमंत्री सुशील कोईराला का प्रोटोकॉल तोड़कर हवाई अड्डे पर आना, शानदार गॉर्ड ऑफ ऑनर, 19 तोपों की सलामी, संसद को संबोधित करने का अवसर देना- ये सारी बातें नेपाल के इतिहास में पहली बार हो रही थीं। मोदी ने अपनी वाक्पटुता और भाषण शैली से ऐसा समा बांध दिया था कि लगभग 20 मिनट के भाषण के बाद जब उनके हाव-भाव, उनकी बॉडी लैंग्वेज में एक उग्र आत्मविश्वास का प्रवेश हुआ तो इसे सभासद भांप ही नहीं सके। अब वह उपदेश की मुद्रा में आ गए थे और बता रहे थे कि संविधान क्या होता है और संविधान निर्माण में किन-किन बातों का ध्यान रखा जाना चाहिए। वह उन्हेें कह रहे थे कि ‘आप अपने नेतृत्व का परिचय दीजिए’ और भारत आपका साथ देगा। फिर उन्होंने ‘हिट’ (HIT) का नायाब मंत्र दिया जिसका अर्थ उन्होंने बताया कि एच यानी हाइवे (सड़क), आइ यानी आइवे (सूचना क्रांति) और टी यानी ट्रांसवे (संचार क्रांति)। यहां तक आते-आते उनकी शैली ऐसी हो गयी थी गोया वह नगालैंड या मिजोरम जैसे किसी पिछड़े राज्य की असेम्बली में भाषण दे रहे हों। अब वह अपने उपकारों और उपहारों का पिटारा खोल चुके थे और उसमें से एक-एक बांट रहे थे। हिमालय पर रिसर्च से लेकर फोन की दरों को सस्ता करने, गरीबी के खिलाफ मिलजुल कर लड़ने, नेपाली छात्रों की स्कॉलरशिप में बढ़ोत्तरी करने, महाकाली नदी पर पुल बनाने आदि के वायदे करते-करते उन्होंने समापन के रूप में 10 हजार करोड़ नेपाली रुपए का आसान दर पर कर्ज देने की बात की।

असल मुद्दे पर वे बहुत बाद में आए, लेकिन अपर करनाली परियोजना का जिक्र भी नहीं किया जिसको लेकर सबसे ज्यादा तनाव और आशंका आज की तारीख में नेपाल के अंदर व्याप्त है। 900 मेगावाट की इस परियोजना पर जीएमआर नामक कंपनी के साथ 2008 में ही एमओयू हस्ताक्षरित हुआ था लेकिन स्थानीय जनता के विरोध के कारण अभी तक इस पर काम शुरू नहीं हो सका। यहां तक कि दैलेख में इस कंपनी के दफ्तर को भी लोगों ने जला दिया। लोगों को उम्मीद थी कि शायद करनाली परियोजना का भाषण में जिक्र हो। उन्होंने त्रिशूली और सेती नदी से संबंधित जल विद्युत परियोजनाओं का भी जिक्र नहीं किया जिसे भारत को पीछे छोड़ते हुए चीन ने हथिया लिया है। मोदी को पता है कि जल विद्युत परियोजनाओं के साथ भारत का उल्लेख नेपाल की एक दुखती रग है। अतीत में गंडकी और कोसी नदियों पर भारत के साथ हुए समझौतों के बाद नेपाल की जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया है। 1997 में महाकाली नदी से संबंधित परियोजना ने तो इतना गंभीर रूप लिया कि एमाले पार्टी में विभाजन ही हो गया और कई वर्षों बाद पार्टी फिर एक हो सकी। बेशक उन्होंने पंचेश्वर से जुड़ी 5600 मेगावाट की परियोजना का जिक्र किया और वादा किया कि 17 साल से ठंडे बस्ते में पड़ी इस परियोजना पर एक साल के अंदर काम शुरू हो जाएगा। 

मोदी के भाषण का सबसे विडंबनापूर्ण अंश वह था जब उन्होंने हिंसा और अहिंसा की बात की। उन्होंने सदन में मौजूद उन लोगों को बधाई दी और उनका नमन किया जिन्होंने ‘शस्त्र को छोड़कर शास्त्र के सहारे जीवन को बदलने’ का रास्ता अपनाया। उन्हें बधाई दी जिन्होंने युद्ध को छोड़कर बुद्ध की शरण में जाना बेहतर समझा और इस संदर्भ में इस प्रयास को उन्होंने सम्राट अशोक के साथ जोड़ा। मोदी का इशारा नेपाल के माओवादियों की ओर था और पहला मौका था जब भाषण के इस हिस्से पर प्रचण्ड और बाबूराम भट्टराई के हाथ मेज पर थाप देने की बजाय निश्चल पड़े रहे और चेहरे पर मुस्कान की जगह तनाव ने ले ली। युद्ध और बुद्ध पर मोदी ने एक लंबा प्रवचन दिया- पाखंडपूर्ण प्रवचन। शायद वह भूल गए कि नेपाल के लोगों को भी 2002 के गुजरात के उनके अतीत की जानकारी है। उन्हें भी पता है कि युद्ध से बुद्ध की ओर जाने की बात कहने वाले इस व्यक्ति ने अभी अपने देश में रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में 49 प्रतिशत से लेकर 75 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की जो इजाजत दी है उससे जो हथियार तैयार होंगे वे किस बुद्ध का निर्माण करेंगे! रक्षा उत्पादन के क्षेत्र में पूंजी निवेश के लिए ब्रिटेन, फ्रांस और इजरायल की जो कंपनियां आतुर दिखायी पड़ रही हैं, क्या वे एक सीमा के बाद मुनाफा कमाने के लिए इन हथियारों को उन क्षेत्रों में बेचेंगी नहीं जहां संघर्ष चल रहे हैं? क्या यह बात किसी से छिपी है कि हथियारों के सौदागर किस तरह दुनिया की संसदों में अपने प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं जो संघर्ष के नए-नए क्षेत्रों का निर्माण कर सकें जिससे उनके हथियारों की खपत बढ़े। उस स्थिति में क्या भारत कभी यह चाहेगा कि इस उपमहाद्वीप के देशों में शांति बनी रहे? जब आप इसी को बढ़ावा दे रहे हैं तो यह युद्ध और बुद्ध का पाखंड कैसा? 

नरेन्द्र मोदी ने अपनी यात्रा की तारीख काफी सोच-समझ कर तय की थी। सावन का वह सोमवार जब शिव की मूर्ति पर जल चढ़ाते हैं। देश के सर्वश्रेष्ठ कांवड़िये की हैसियत में पहुंचा धर्मनिरपेक्ष भारत का प्रधानमंत्री जिस वेशभूषा में सोमवार को पशुपतिनाथ मंदिर जाने के लिए प्रकट हुआ उससे उसके एक दिन पहले दिए गए भाषण की उदार और उदात्त भावना का पर्दाफाश होने में एक क्षण भी नहीं लगा। आने वाले दिन ही बता सकेंगे कि प्रधानमंत्री मोदी के इन मीठे वचनों, प्रवचनों और सुभाषितों के बीच तथा नेपाल की जलसंपदा पर ललचाई निगाहों से देख रहे भारत के कॉर्पोरेट घरानों के बीच किस तरह का रिश्ता कायम होने जा रहा है।

आनंद स्वरूप वर्मा वरिष्ठ पत्रकार हैं.
'समकालीन तीसरी दुनिया'का संपादन.
संपर्क - vermada@hotmail.com 

फ़ीफ़ा का तमाशा और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल

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-श्वेता रानी खत्री

"…ब्राज़ील में बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है…"


ब्राजीलियन स्ट्रीट आर्टिस्ट पाउलो इटो की बनाई एक ग्रैफ़िटी
जून के महीने में अगर आपने रेड एफ़.एम. सुना हो तो गानों के बीच विज्ञापनों के पारंपरिक व्यवधानों के अलावा फ़ीफ़ा विश्व कप की अपडेट और कपिल शर्मा के लाइव कंसर्ट की सूचना मिलती रही होगी. गूगल ने फ़ीफ़ा वर्ड कप के पहले से लेकर आखिरी दिन तक के लिए अलग-अलग ‘गूगल-डूडल’ मुक़र्रर कर रखे है. इसी गूगल सर्च पर कपिल टाईप करते ही आने वाले सुझावों में कपिल ‘शर्मा’, ‘देव’ और ‘सिब्बल’ को पीछे छोड़ चुका है. फ़ीफ़ा वर्ड कप और कॉमेडी नाइट्स विद कपिल अपनी-अपनी दुनिया में मनोरंजन के सिरमौर बन चुके हैं. इनके  सर्वव्यापीपन से अनजान होना आपके ‘बोरिंग’ होने या फिर आपके पिछड़ेपन (?) का सबूत माना जा सकता है. कपिल शर्मा इस महीने की पांच तारीख को अपने कंसर्ट में करोड़ों बटोर चुके हैं, आगे शायद फ़िल्मों में काम करेंगे. चौदहवें विश्व कप का विजेता भी घोषित हो गया है. खेलों को, ब्राज़ील को, हास्य को और हमें क्या मिला? ये सवाल रह जाएगा.


ब्राज़ीलमें बच्चों के स्कूल ज़रूरी थे या फिर महंगे फ़ुटबॉल स्टेडियम? ये एक बहुरूपिया बहस है. मैच फिक्सिंग का विरोध करें या फिर खेल भावना के नाम पर आई.पी.एल. को सहते जाएं? अश्लील लिरिक्स का विरोध करें या हनी सिंह के गानों को भी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता बता दें? दिल्ली में कॉमनवेल्थ का खर्च ज़रूरी था या फिर पब्लिक शौचालयों का निर्माण? एक ही बहस अपने अलग-अलग रूपों में बार-बार सर उठाती रही है और जीत लगभग हमेशा ही टी.आर.पी. और बाज़ार की हुई है. दरअसल, मनोरंजन अब वक्त काटने का साधन नहीं बल्कि एक ऐसा अफ़ीम बन गया है जिसकी खुराक लेकर हम सच्चाई से पलायन कर जाना चाहते है. जिसके नशे में हम लिंगभेद, नस्लभेद, भ्रष्टाचार को भुलाए रखना चाहते हैं. ऐसे में ब्राज़ील का अपनी ही ज़मीन पर हारना शायद इस तंद्रा को तोड़े.

प्रसिद्धदार्शनिक वोल्टेयर का कहना था कि ‘अगर ये जानना हो कि आपके ऊपर राज कौन करता है, ये जानने की कोशिश करो कि आप किसकी आलोचना नहीं कर सकते.’ इसी तर्ज़ पर क्या ये माना जा सकता है कि हम जिसकी आलोचना बिना किसी बात के कर सकते हैं, जिस पर बात-बेबात हंस सकते हैं, वो समाज का सबसे शोषित वर्ग है? व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर मनोरंजन की अहमियत से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन इसकी कीमत कौन चुका रहा है और इसे हम किस हद तक मनोरंजन के नाम पर अनदेखा कर सकते हैं? भव्यता का अश्लील प्रदर्शन और गले फाड़ कर हंसना ही मनोरंजन का पर्याय कब से बन गया? इन सब सवालों के सही-सही जवाब मिलना शायद संभव न हो पर इनकी पड़ताल करना किसी समाज की नब्ज़ टटोलने जैसा है.

कॉमेडीनाइट्स विद कपिल के हास्य, या कहें परिहास का केंद्र सारे महिला पात्र हैं. उसकी पत्नी जब-तब अपनी औसत शक्ल सूरत और कम दहेज लाने के लिए अपमानित होती रहती है. कपिल अर्थात बिट्टू शर्मा की एक ढलती उम्र की बुआ है जिसका कुंवारा रह जाना उसकी सबसे बड़ी व्यथा है और उसकी पुरुष-पिपासा हमारे हास्य का स्रोत. थोड़ी आज़ादी है तो दादी के चरित्र के लिए जो दारू पी कर झूम सकती है और शो में आये पुरुषों को ‘शगुन की पप्पी’ चस्पा कर सकती है. उम्रदराज़ औरतों पर हमारे समाज में बंधन नियंत्रण की ज़रुरत वैसे भी नहीं समझी जाती. एक वजह यह भी है कि दादी का चरित्र एक पुरुष अदाकार निभा रहा है. पुरुषों का स्त्रियों जैसी वेशभूषा पहनना और उनके जैसी हरकतें करना हमारे लिये इतना हास्यास्पद है कि इसके अलावा हमें हंसाने के लिए उसे ज़्यादा मेहनत की भी ज़रुरत नहीं पड़ती.

फ़ोर्ब्स पत्रिका के अनुमान के मुताबिक़ २०१४ के विश्व कप पर लगभग ४० अरब डॉलर का खर्च आया है. ब्राज़ील के आर्थिक हालातों को मद्देनज़र रखते हुए विश्वकप का आयोजन पहले ही देश पर वैसे भी एक भार था. विश्व के अब तक के सबसे महंगी स्पर्धा की तैयारी के लिए ब्राजील सरकार को पब्लिक परिवहन का किराया बढ़ाना पड़ा साथ ही बहुत सी ज़रूरी सार्वजनिक परियोजनाओं को भी रोकना पड़ा. विश्व कप के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारियों को रोकने के लिए किये गए चाक-चौबंद सुरक्षा इंतज़ामात में हुआ खर्च एक अतिरिक्त भार था. फ़ीफ़ा प्रमुख ‘सेप ब्लैटर’ पर जब-तब भ्रष्टाचार की आरोप लगते रहें है. ब्रिटेन के सन्डे टाइम्स के एक खुलासे के अनुसार २०२२ में फ़ीफ़ा के आयोजन का अधिकार ‘क़तर’ को मिलना एक अंदरूनी फिक्सिंग थी. न सिर्फ़ इस अरबी देश की गर्म जलवायु इस खेल के आयोजन के प्रतिकूल है बल्कि वहां खेलों की तैयारी के लिए भारतीय और नेपाली प्रवासी मजदूरों से अमानवीय तरीके से काम लिया जा रहा है. मजदूरों की लगातार होती मौत और उनके मानवाधिकारों का हनन, क़तर के चुनाव को निष्पक्ष बताने वालों के गले की हड्डी बनती जा रही है.

हिन्दीमें हास्य को एक अलहदा विधा का रूप देने वाले हरिशंकर परसाई का तीखा व्यंग्य सामाजिक विद्रूपताओं पर प्रहार होता था. स्टैंड अप कॉमेडी में भी फूहड़पन शुरुआत से रहा हो ऐसा नहीं है. सुरेन्द्र शर्मा के हास्य में भी ‘घरवाली’ आती है लेकिन सिर्फ़ नीचा दिखाई जाने के लिए नहीं. शैल चतुर्वेदी और अशोक चक्रधर का व्यंग्य ज़्यादातर या तो ट्रेजेडी से उपजता है या फिर ख़ुद की कमियों पर ही हँसते हुए उत्तम हास्य की कसौटी पर खरा उतरता रहा है. ये धारा अब टी.वी. के कॉमेडी शोज़ में तिरोहित हो चुकी है.

इसीतरह फ़ुटबॉल का उद्भव ‘हार्पेस्तान’ नाम के एक प्राचीन यूनानी खेल से हुआ माना जाता है. ये एक बर्बर,  आक्रामक और ग्रामीण खेल था जिसके कोई ख़ास नियम नहीं थे. सालों के मानकीकरण और वैश्वीकरण ने फ़ुटबॉल को उसका आधुनिक रूप बख्शा है. इस विषय में ऑस्कर वाइल्ड का प्रसिद्ध कथन है, ‘फ़ुटबॉल बर्बर लोगों के लिए बना वह खेल है जिसे सभ्य लोग खेलते हैं.’ व्यवसायीकरण और मुनाफ़े की मंशा में गुड़ में मक्खी की तरह आ जुटे प्रायोजकों ने कॉमेडी और फ़ुटबॉल दोनों ही को उसका मौजूदा विकृत रूप दिया है. ज़ाहिर है, तत्सम जब तद्भव बनता है तो अपनी बर्बरता तो बचा ले जाता है लेकिन अपनी सादगी नहीं.

कपिलशर्मा के शो पर कई बार महिलाओं पर अभद्र टिप्पणी करने पर केस दर्ज करने की कोशिश हुई. लेकिन उसे एक अतिवादी प्रतिक्रया कह कर पल्ला झाड़ लिया गया. ब्राज़ील विश्व कप पर हुए अनाप-शनाप खर्च को वहन करना भी सालों तक बढ़े हुए टैक्स के रूप में वहां के मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग के हिस्से ही आयेगा और सारा मुनाफ़ा फ़ीफ़ा का होगा. लेकिन शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारी इस अन्याय का विरोध करने के लिए अपनी ही सरकार का दमन झेल रहें है. जो सबसे ज़्यादा प्रभावित है उसे ही मनोरंजन के नाम पर सबकुछ बर्दाश्त करने को कहना हमारी प्रवित्ति है और ये किसी टी.वी. कलाकार या खेल संस्था से ज़्यादा हमारी मानसिकता का प्रतिबिम्ब है.

ये एक अजीब संयोग है लेकिन भ्रष्टाचार का गढ़ होने के साथ- साथ ऐसे खेल आयोजन  प्रतिरोध को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्यता दिलाने का भी एक ज़रिया बन सकते हैं. ब्राज़ील के नागरिकों का विश्व कप की पूर्व संध्या पर किया गया अभूतपूर्व विरोध प्रदर्शन इस मामले में हमारी प्रेरणा बनने लायक है जिसमें फ़ीफ़ा और जागरूक नागरिक, अंतर्राष्ट्रीय सुर्ख़ियों में एक दूसरे के आमने- सामने थे. ऐसे में नागरिकों का इनकी दी अफ़ीम चाटकर अशक्त नींद में सो जाना एक पाले की सबसे बड़ी उम्मीद है दूसरे पाले की सबसे बड़ी हार. क्यूंकि टी.वी. के लिए कोई सेंसर बोर्ड नहीं है और फ़ीफ़ा जैसी संस्थाएं किसी भी सरकार के लिए उत्तरदायी नहीं है.

महिलाएं,बच्चे, मजदूर और आर्थिक रूप से अल्पविकसित तबका इस चमकती तस्वीर का वो निगेटिव है जिसकी ज़रुरत सिर्फ़ भव्य आयोजनों और भड़कीले कॉमेडी शोज़ की रंगीन तस्वीर रचने के लिए पड़ती है. कुछ विरले लोग इस तस्वीर और निगेटिव के बीच की खाई लांघ भी सके हैं. ख़ुद साधारण पृष्ठभूमि से आये ख़ुद कपिल शर्मा की सफ़लता इसका प्रमाण है. या फिर सोमालिया जैसे पिछड़े देश से आये रैपर ‘के नान’ की कहानी जिसका गाना २०१० के फ़ीफ़ा विश्व कप का आधिकारिक चिन्ह और अफ्रीकी देशों के प्रतिरोध का प्रतीक बनकर उभरा था. पर इन गिने चुने उदाहरणों के अलावा ज़्यादातर किस्से निराशाजनक ही हैं. आज, १९८४ में भोपाल गैस त्रासदी के लिए ज़िम्मेदार ‘डाऊज़ केमिकल’ लन्दन के ओलम्पिक का प्रायोजक हो सकता है, आई.पी.एल. की टी.आर.पी. मैच फिक्सिंग की खबरों के बाद और भी बढ़ सकती है, महिला सशक्तिकरण का दावा करने वाले ‘मिस इंडिया’ के निर्णायक हनी सिंह हो सकते हैं. हम इतने संवेदनहीन हो चुके हैं कि ये बातें अब हमें परेशान भी नहीं करतीं. हालिया विश्व कप के लिए गाया गया ‘पिटबुल’ का गाना ‘वी आर द वन’ हमारी इस स्थिति के लिए सबसे सटीक रूपक है. इंटरटेनमेंट के नाम पर कुछ भी सह लेने के मामले में क्या भारत, क्या ब्राज़ील हम सब एक ही हैं.




श्वेता रानी खत्री दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा हैं.
यूनिवर्सिटी के कम्युनिटी रेडियो में सक्रिय. 
संपर्क- shwetakhatri02@gmail.com

नबारूण भट्टाचार्य : एक राजनीतिक रचनाकार

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- प्रणय कृष्‍ण

"...एक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में नबारून दा के चरित्र की दृढ़ता उनके एक्टिविज्म और रचनाकर्म में ही नहींदेश-दुनिया में दमन-शोषण और मानवद्रोह की तमाम वारदातों के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर भी निर्भीकता के साथ उठ खड़े होने में दिखाई देती है. उन्होंने सच कहने के लिए किसी के अनुमोदन का इंतज़ार कभी नहीं किया..."

 
मेरे द्वारा निर्मित शब्दों का घर
टूट जायेगा रूदन से
मेरे मरने के बाद
वैसे अचंभित होने जैसा कुछ भी नहीं है इसमें

पुछ जाऊंगा घर के आईने से
दीवारों पर नहीं होंगे मेरे चित्र
वैसे दीवार अच्‍छी नहीं लगी कभी मुझे
अब आकाश ही मेरी दीवार होगी
जिस पर चिमनियों के धुँए से
पंछी मेरा नाम लिखेंगे
आकाश ही मेरे लिखने का टेबिल होगा अब
ठंडा पेपरवेट होगा चाँद
काले मखमली कुशन में तारे टिमटिमायेंगे

मुझे याद करके
दुखी होने की जरूरत नहीं है तुम्हें
इन बातों को लिखते हुए मेरे हाँथ नहीं काँप रहे
पर जब पहली बार थामा था तुम्हारे हाथों को
कुछ आवेग और कुछ झिझक में
मेरे हाँथ जरूर काँपे थे

मेरी सुन्दर पत्नी मेरी प्रेयषी
मेरी यादें तुम्हें घेरे रहेंगी
जरूरी नहीं है जकड़ी रहो तुम भी उनमें
गढ़ना अपना जीवन खुद
मेरी यादें होंगी तुम्हारा साथी
तुम करो यदि प्रेम किसी से
दे देना इन सारी यादों को उसे
कॉमरेड बना लेना उसे अपना
हाँ मैं जरूर सबकुछ तुम पर छोड़े जा रहा हूँ
मेरा विश्वास है कि गलतियाँ नहीं करोगी तुम

तुम मेरे बेटे को
अक्षरज्ञान के समय
मनुष्य धूप और तारों से प्रेम करना सिखाना
वह मुश्किल से मुश्किल गणित सुलझा पायेगा तब
क्रांति का एलजेब्रा भी
वह मुझसे बेहतर समझेगा
चलना सिखायेगा मुझे जुलूसों में
पथरीले जमीन पर और घास पर
हाँ! मेरी कमियों के बारे में भी बताना उसे
पर ध्यान रहे वह मुझसे नफरत न करे

कोई बड़ी बात नहीं है मेरा मरना
जानता था
बहुत दिनों तक जिंदा रहने वाला नहीं हूँ मैं
पर समस्त तरह के मृत्यु का अतिक्रमण कर
हर तरह के अन्धकार को अस्वीकार कर
मेरा विश्वास कभी नहीं डिगा
क्रांति हमेशा दीर्घायु हुई है
क्रांति हमेशा चिरजीवी हुई है

(नबारून दा की 'अंतिम इच्छा' (শেষ ইচ্ছে) शीर्षक कविता, बांग्ला से अनुवाद- राजीव राही)

क्याऐसी 'अंतिम इच्छा'आपने किसी की सुनी है? कैसा रहा होगा वह जीवन जिसकी 'अंतिम इच्छा'ऐसी हो? ३१ जुलाई, २०१४ को जब हम सब अपने अपने शहरों में प्रेमचंद जयन्ती मना रहे थे, नबारून दा दुनिया को चुपचाप लगभग साढ़े चार बजे अलविदा कह गए. पिछली २३ फरवरी को पटपड़गंज, दिल्ली के मैक्स हास्पिटल में अंतिम बार भेंट हुई थी. लोकसभा चुनाव, वाम एकता और कुछ हंसी-दिल्लगी की बातों के बीच बमुश्किल उनके स्वास्थ्य पर बात टिक पा रही थी. कह रहे थे कि रेडियोथेरेपी के बाद यदि ट्यूमर छोटा हो जाता है, तो ऑपरेशन संभावित है. यह भी कि शायद कुछ कहानियों और एक उपन्यास को वे पूरा कर पाएँगे.

धूमिल के गाँव खेवली( बनारस) में सन २००8में जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय सम्मेलन में उनसे आग्रह किया गया कि वे 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश' ( मंगलेश डबराल कृत हिन्दी अनुवाद) ज़रूर पढ़ें. दो पंक्तियाँहिन्दी में पढ़ने के बाद उन्होंने बांगला में शेष कविता पढ़नी शुरू की. लगा मानों मेघ गड़गड़ा रहे हैं. उस काव्यपाठ कीयाद अभी भी सिहरन पैदा करती है.

एक मार्क्सवादी बुद्धिजीवी के रूप में नबारून दा के चरित्र की दृढ़ता उनके एक्टिविज्म और रचनाकर्म में ही नहीं, देश-दुनिया में दमन-शोषण और मानवद्रोह की तमाम वारदातों के खिलाफ व्यक्तिगत स्तर पर भी निर्भीकता के साथ उठ खड़े होने में दिखाई देती है. उन्होंने सच कहने के लिए किसी के अनुमोदन का इंतज़ार कभी नहीं किया. पश्चिम बंगाल विधानसभा के पिछले चुनावों से पहले का वाकया याद आता है. सिंगूर-नंदीग्राम के बाद इन चुनावों में वाममोर्चा की हार तय दीख रही थी. दशकों से वाम प्रतिष्ठान का संरक्षण पाए बौद्धिक भी 'माय, माटी, मानुष'की ममतामयी पुकार लगा रहे थे. तमाम भूतपूर्व और ''भूतपूर्व क्रांतिकारी बौद्धिक और खुद को माओवादी बतानेवाले भी ममतामय हुए जा रहे थे. 

नबारून अकेले ही यह कहने को उठ खड़े हुए कि वाममोर्चा का विकल्प ममता नहीं, बल्कि एक क्रांतिकारी वाम विकल्प ही हो सकता है. यदि वह बंगाल में अभी उपलब्ध नहीं है तो क्या मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों को उसे बनाने के काम में नहीं लगना चाहिए? उपलब्ध बूर्जुआ विकल्पों में से किसी एक के पीछे खड़ा हो जाना एक बुद्धिजीवी द्वारा अपने दायित्व का विसर्जन है. यह वही व्यक्ति कह सकता था जिसने 'नक्सलबाड़ी विद्रोह'को खड़ा करने और उसके सन्देश को जनता में पहुँचाने में बुद्धिजीवियों की भूमिका को देखा था और खुद इस भूमिका में खड़ा हुआ था. 

नबारून न केवल वाममोर्चा के लिए, बल्कि ममता-राज के लिए भी भारी असुविधा खड़ा करने वाले बुद्धिजीवी थे. अकारण नहीं कि उनके २००३ में लिखे उपन्यास 'कोंगाल मालसाट' ( भिखारियों का रणघोष) पर जब २०१३ में सुमन मुखोपाध्याय ने फिल्म बनाई, तो ममता बनर्जी सरकार उसे सहन न कर पाई. उसे सेंसर की तमाम आपत्तियां झेलनी पडीं. मूल उपन्यास में चोकटोर (काला जादू करने वाले) और फ्यातरू (उड़ने वाले मानव) ऐसे काल्पनिक पात्र हैं जिन्होंने सत्ता के खिलाफ युद्ध छेड़ रखा है. 

इन विद्रोहियों को दंडबयोष ( चिर-पुरातन, सतत बतियाता रहनेवाला कव्वा) और बेगम जानसन के भूत ने प्रशिक्षित किया है. ये पात्र पारंपरिक योद्धाओं की तरह नहीं हैं, बल्कि आजीविका के लिए ये छल-कपट, झूठ-फरेब भी करते हैं, शराब भी पीते हैं. ये दबे-कुचले लोगों के जीवन के निर्मम यथार्थ को प्रतिबिंबित करते हैं. नबारून दिखाना चाहते हैं कि जनता ही विद्रोह की ताकत है, चाहे वह जितनी भी खराब भौतिक और भावपरक स्थितियों में हो. चंद शुद्ध और आदर्श क्रांतिकारी उसकी जगह नहीं ले सकते. इन विद्रोहियों के पास कोई अत्याधुनिक हथियार नहीं, बल्कि कुदाल, छुरा, सब्जी काटनेवाला चाकू, टूटे फर्नीचर के टुकड़े जैसे हथियार ही इनके पास हैं. इन्हें अतिप्राकृतिक सहायता के तौर पर छोटी-छोटी उड़नतश्तरी जैसी वस्तुएं भी हासिल हैं जो शत्रु की गर्दन धड़ से अलग कर देने की क्षमता रखती हैं. 

2013 में बनी फिल्म में मूल उपन्यास के बरअक्स स्क्रीन-प्ले में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए. बंगाल के सत्ता -परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए चोकटोर और फ्यातरू जैसे चरित्र जो कभी विद्रोह के प्रतिनिधि थे, उन्हें सत्ता, सम्मान और वित्तीय सुरक्षा के लिए सत्ता-प्रतिष्ठान का अंग बनते दिखाया गया है. इसीलिए दंडबयोष कहता है, "लड़ाई जारी रहेगी, यह तो (सत्ता-परिवर्तन) सामयिक है."इसलिए भले ही ममता सरकार और फिल्म बोर्ड ने आपत्ति गाली-गलौज की भाषा, आन्दोलन की हंसी उड़ाने, ममता बनर्जी का शपथ-ग्रहण दिखाने और उस पर आपत्तिजनक टिप्पणियाँ करने पर की, लेकिन वास्तविक आपत्ति तो इस बदली हुई अंतर्वस्तु पर ही थी.                

नबारून, बिजॉन भट्टाचार्यऔर महाश्वेता देवी के पुत्र ही नहीं,बल्कि वाम संस्कृतिकर्मियों की एक महान परम्परा के वारिस थे, जिसका अहसास उन्हें हर पल था.जन संस्कृति मंच के १३वें राष्ट्रीय सम्मेलन (२०१०, दुर्ग-भिलाई) को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, "....मुझको ही पूछता हो, तुम तो तुम्हारा... जब तुम बच्चा थे, तब से बहुत लोग को देखा, तुम बिजॉन भट्टाचार्य का बेटा हो, उसके साथ था, तुम उत्पल दत्त को देखा, ऋत्विक घटक की फिल्म में तुम रिफ्लेक्टर..दिया है, तुम मानिक बाबू को देखा, तुम अरुण मित्र, विष्णु डे को, सुभाष मुखोपाध्याय को देखा, मखदूम मोहियुद्दीन को देखा, बलराज साहनी को देखा, Now how do you plan to re-view life?तुम क्या करोगे अब?....Should I go and join the market forces and create something for the market? Might be that will fetch me some money. Actually I require money, but I cannot afford to earn it by indecent means...क्योंकि आप लोग ये समझें कि .. मेरा एक नावेल है ऑटो .. एक auto-driverको लेकर. तो उसपर तो मैंने एक young aspiring filmmakerको बोल दिया कि तुम इसको बनाओ. उसका dream है film बनाना.. और उसके बाद बंगाल का जो सबसे बड़ा hero है, उसका जो industrial  production houseहै वो मुझको बोला -हमको 'auto' दे दो , तुम को बहुत अच्छा 'ये'मिलेगा- 'price'. But I told him that, 'Bhai! this is not for sale. It is my word  as given to him and he is a young man. If I don't help the young man, he will reject me and all the youth will reject me in future.' That is one thing I am afraid of. I don't want two face. That will be 'पाप'. Our Indian concept- 'पाप'- Certain things should be renounced to gain something. और एक बात है ...कि एक French intellectual थे Guy Debord.बहुत पगला था. मेरा याद में...Suicide किया. उसका एक book है- ‘The Society of the Spectacle’.....This damn bloody capitalist society is always trying to create spectacles. .... This society of spectacles must be challenged and that is the risk. That is what, not only our forefathers have done, it is also done by the international literati.... a great man like Aragon, like Eluard, like Neruda, like ... everyone, so we belong to a very great heritage which we cannot renounce."

नबारून दा के पास सिर्फ क्रान्ति की उल्लासमयी कल्पना ही न थी, उन्होंने क्रान्ति के दमन को, बुरी तरह से कुचले जाने के बाद, विभ्रम और विकृति की और ढकेले जाने के बाद भी, फिर फिर 'हठ इनकार का सर'तानते देखा. विश्व-क्रांतिकारी प्रयासों का उन्होंने भीषण शोध किया था. उपरोक्त भाषण में ही उन्होंने कहा था, " And this is the heritage we must keep alive and this is the struggle in which we cannot lose... May be, we will die. You see, defeat is nothing, defeat is nothing.All the wars cannot be won. Che-Guevara didn't win, but he has won it forever. That is the main thing.We must keep everything in perspective. We must fight globalization, we must fight local reaction, we must fight the show of military state power in the adivaasi area and we must protest everything illegal, evil and pathetic  that is happening in my country. "   

नबारून बंगाल के नक्सल आन्दोलन के आवयविक बुद्धिजीवी थे, जिसकी मूल प्रतिज्ञा और आशय को बदलती विश्व-परिस्थिति में सतत पुनर्नवा करते जाने की उनकी क्षमता अपार थी. 'यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश'जैसी कविताएँ और 'आमार कोनो भय नेई,तो?'सरीखी तमाम कहानियां वास्तविक घटनाओं से प्रेरित हैं जिन्हें उन्होंने देखा भी था और भोगा भी था. महाश्वेता देवी ने अपने कालजयी उपन्यास ‘1084 वें की मां'की निर्माण प्रकिया के बारे में अमर मित्र और सब्यसाची देब से बातचीत के दौरान कहा था कि, "....बारासात और बड़ानगर के दो जनसंहारों के बारे में हमें जानकारी थी. इन जगहों पर नक्सल युवकों का कत्लेआम हुआ था. लेकिन इससे पहले विजयगढ़ के पास श्री कॉलोनी में एक ह्त्या हुई. मेरे छात्र सुजीत गुप्ता की ह्त्या हुई थी, जिसके पिता एक डॉक्टर के कम्पाउण्डर थे. घटना के एक हिस्से कीमैं साक्षी थी. बाकी बातें मुझे मेरे बेटे नबारून और दूसरे लोगों से पता चलीं. नबारून कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़ाव रखते थे. उन्होंने अनेक तरीकों से नक्सलपंथियों की मदद करने की कोशिश की."(Mahasweta Devi: In Conversation with Amar Mitra And Sabyasachi Deb(Indian Literature, Vol. 40, No. 3 (179), (May - June1997)

नबारून दा के लिए नक्सलबाड़ी कभी भी विगत रोमान नहीं रहा. उन्होंने उस आन्दोलन के ऐतिहासिक आशय को आत्मसात किया, नयी से नयी परिस्थिति के बीच उसकी विकासमानता को, भारत के वामपंथी आन्दोलन की परम्परा और दुनिया भर में चले क्रांतिकारी प्रयासों की विरासत के परिप्रेक्ष्य में उसको परखा और अपने कलाकार के लिए भी जीवित सच्चाई के रूप में सतत उसका नवोन्मेष किया.

उन्हें निरंतर उद्वेलित कलाकार का हृदय मिला था, जिसके चलते वे तमाम विधाओं में लगातार आवाजाही करते थे. फिल्म, थियेटर, कथा और कविता में बहुधा विधाओं के तटबंध तोड़ती हुई उनकी रचना-धारा प्रवाहित होती थी. नबारून दा का कथाकार अमानवीय व्यवस्था पर मारक हमले संगठित करता है. उनकी कहानियों और उपन्यासों में कथा का ढांचा टूट-फूट जाता है, आख्यान विश्रंखलित होकर दूसरे आख्यानों में मिल जाते हैं, पात्रों की आतंरिक दुनिया भी भीषण रूप से विभाजित है, मानो वे एक साथ कई दुनियाओं में रहते और उनसे निर्वासित होते रहते हों, उनके कार्य-व्यापार और संवाद भी ऊपरी तौर पर असंगत और अतर्क्य (किन्तु अयथार्थ नहीं) लगते हैं, तब जो चीज़ उनके कथा-संसार को संरचना और उद्देश्य की एकता प्रदान करती है, वह है कथाकार की प्रचंड व्यस्था-विरोधी युयुत्सु चेतना जिसका निर्माण '70 और '80 के दशक के नक्सल आन्दोलन की आंच में हुआ है. 

उनका कथाकार जादू और फैंटेसी के हथियारों से लैस है. अपने समाज के कारोबार को नज़दीक से देखना 'खतरनाक'है क्योंकि इस तरह देखने से इस समाज(पूंजी की दुनिया) की निरंकुशता, अतार्किकता और असंगति साफ़ नज़र आती है. इस दुनिया को चलानेवाले मुट्ठी भर तत्व अपने मनमानेपन, व्यभिचार और अपराध को जब तर्क और यथार्थ के परदे से ढँक लेते हैं तब क्या तार्किक है, क्या अतार्किक, क्या यथार्थ है और क्या अयथार्थ, यह जानना सामान्य समझ से परे प्रतीत होता है. पूंजी की दुनिया ने तर्क और यथार्थ का जो कवच पहन रखा है, उसे भेदने के लिए ही महान कलाकारों ने जादू और फैंटेसी के हथियारों का सहारा लिया है. नबारून दा हमारे समय में जीवित और कर्मरत ऐसे ही महान कलाकार थे. 

उनके पात्रों की हंसी-दिल्लगी उस रुग्णता और विकृति में लिथड़ी हुई है जिसमें रहने को इस दुनिया के अश्लील नियंताओं ने उन्हें विवश कर रखा है. उनके पात्रों की विकारग्रस्त दिल्लगी भी ज़िंदगी की तर्कहीनता और क्रूरता को उघाड़ कर रख देने की कला है. 'हार्बर्ट' (1993) और 'काँगाल मालसाट' (2003) जैसे उनके उपन्यास उनकी इसी कलानिष्ठा के नमूने हैं.'हार्बर्ट'के नायक 'हार्बर्ट सरकार'कायह नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वह गोरा है. उत्तरी कोलकाता में पला बढ़ा हार्बर्ट यतीम है. वह असुरक्षित, अकेला, खुद से घृणा करनेवाला, अधपगला, मृतात्माओं से संवाद करने का स्वघोषित माध्यम और खराब कवि है. जीवन में उसका एकमात्र प्रेम एकसाथ दुखांत और हास्यास्पद है. वह एक ऐसा पात्र प्रतीत होता है जिसकी नियति है असफलता और गुमनामी, लेकिन वह अपने झक्कीपने और बाजीगरी से पाठक को लगातार चौंकाता है. मानो कह रहा हो कि कोई भी जीवन कितना भी टूटा, बिखरा, अभिशप्त और हास्यास्पद क्यों न हो, वह बेमतलब नहीं है, उसमें मौलिक होने की अपार संभावना है. 

उपन्यास हार्बर्ट की आत्महत्या से शुरू होकर फ्लैशबैक में उसकी ज़िंदगी में उतरता है, न केवल अपने नायक के जीवन में बल्कि कोलकाता शहर के कई दशकों के अद्भुत जीवन तथा संस्कृति, राजनीति और मानव-स्वभाव की गहराइयों में उतरता चला जाता है, देश-काल के अनेक संस्तरों में आवाजाही निरंतर चलती रहती है. हार्बर्ट ने मृतात्माओं से संवाद के स्वघोषित हुनर से जो किस्मत बनाई थी, उसे तर्कबुद्धिवादियों द्वारा फर्जी घोषित किए जाने और कानूनी कार्रवाई की धमकी दिए जाने के बाद, सदमें में वह आत्मघात कर लेता है. लेकिन जैसे ही इलेक्ट्रिक शवदाह के चैंबर में उसके शरीर को रखा जाता है, एक भीषण धमाका होता है और पूरी इमारत दरकजाती है, अनेक लोग जो आस-पास हैं, वे घायल होते हैं. अखबारों की सुर्ख़ियों में हार्बर्ट के मरणोपरांत उसकी 'आतंकवादी'गतिविधि की सुर्खियाँ हैं, जिसका रहस्य जानने के लिए उच्च स्तरीय जांच बैठाई जाती है. उसकी चमत्कारिक शक्तियों की विस्फोटक छाप उसकी मृत्यु के क्षण में और भी गहरा जाती है. इस जादुई यथार्थवाद के प्रतीकार्थ को न जाने कितने कोणों से कोई व्याख्यायित कर सकता है. नबारून दा की कला का मरणोपरांत जादू भी अमिट है और निस्संदेह उनकी कला शासक जमातों को उनके मरणोपरांत सदैव आतंकित करती रहेगी, चाहे वे जितनी जांच बैठा लें.

अभी तो उनकी पार्थिव अनुपस्थिति भी ज्वालामुखी के दहाने पर रखी चाय की केतली में खलबला रही चाय पर हम सब को आमंत्रित कर रही है-

कलम को काग़ज़ पर फेरते हुए
आप दृष्टि को
बड़ा नहीं कर सकते
क्योंकि कोई नहीं कर सकता।

दृश्य के नीचे जो बारूद और कोयला है
वहाँ एक चिनगारी
जला सकेंगे आप?

दृष्टि तभी बड़ी होगी
लहलहाते
फूल फूलेंगे धधकती मिट्टी पर
फटी-जली चीथड़े-चीथड़े ज़मीन पर
फूल फूलेंगे।

ज्वालामुखी के मुहाने पर
रखी हुई है एक केतली
वहीं निमन्त्रण है आज मेरा
चाय के लिए।
हे लेखक, प्रबल पराक्रमी कलमची
आप वहाँ जायेंगे?


( जन संस्कृति मंच की ओर से प्रणय कृष्ण)

उत्‍तराखंड : फिर बरसात और फिर आपदा

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इन्‍द्रेश मैखुरी
-इन्द्रेश मैखुरी 

"...यह सिर्फ एक नौताड़ का ही किस्सा नहीं है. पहाड़ में जितनी बसासतें पिछले दस-बीस सालों में अस्तित्व में आई हैं,वे इसी तरह से खतरे के मुहाने पर खड़ी हैं. दरअसल पहाड़ में जहाँ भी सड़कें बनी,वे नदियों के किनारे ही बनी. सड़के के नजदीक नयी बसासतें बसनी शुरू हुई और आबादी बढ़ते-बढ़ते प्राकृतिक जल निकासी के स्रोतों तक आ गयी या उन्हें भी अतिक्रमित करने लगी. यह पूरे पहाड़ की ही समस्या है..."



दुनिया में नदियों के किनारे सभ्यताओं के विकास का लंबा इतिहास रहा है.लेकिन पिछले कुछ अरसे से उत्तराखंड में नदी तो क्या छोटे-छोटे गाड़-गदेरे(नाले-झरने) भी यहाँ के मनुष्य के लिए खतरनाक होते जा रहे हैं.पिछले दिनों टिहरी जिले के नौताड नामक स्थान पर बदल फटने और उसके बाद गदेरे में आये भारी मलबे से हुई तबाही ने प्रकृति के विकराल रूप को एक बार फिर सामने ला दिया. नौताड़,राजस्व गाँव जखन्याली का एक छोटा सा तोक है,जहां मुश्किल से 15-20 परिवार निवास करते हैं.यह स्थान घनसाली से लगभग पांच किलोमीटर और पुराने टिहरी शहर को डुबो कर अस्तित्व में आये नए टिहरी शहर से यह लगभग पचास किलोमीटर की दूरी पर है.

30 जुलाई की रात को जब नौताड़ के वाशिंदे सोने गए होंगे तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं रहा होगा कि कैलेण्डर में तारीख बदलने के कुछ घंटों के बाद ही उनका सब कुछ मलबे में दफ़न हो जाएगा.रात में लगभग सवा दो बजे के आसपास, आबादी से प्रतीत होते हैं, लेकिन तबाही की भयावहता का सबसे अविश्वसनीय सबूत,वह मलबे का ढालदार मैदान है,जिसके बारे में स्थानीय निवासी इंगित करके बताते हैं कि यहाँ आठ कमरों का दो मंजिला मकान था,वहां पर चक्की थी, गौशाला थी,खेत थे.पहली बार मलबे के इस ढालदार ढेर को देख कर अपने दिमाग में यह आकृति बनाना भी मुश्किल है कि मलबे के नीचे दफ़न वह आठ मंजिला मकान कैसा दिखता होगा ? 


इस तबा लग कर बहने वाल रुईस गदेरा अपने साथ पहले पानी और फिर भारी मात्रा में मलबा ले कर आया.उसने पूरे नौताड़ को तहस-नहस कर दिया.कुछ मकानों के टूटे हुए हिस्से तो तबाही की कहानी बयान करतेही ने सात लोगों की जीवनलीला समाप्त कर दी,जिसमें दो बच्चियां और दो महिलायें शामिल थी. बच्चियों के बारे में सरकारी स्कूल में शिक्षक रविन्द्र बिष्ट बताते हैं कि एक बच्ची उनके स्कूल में पढ़ती थी. उनके परिवार को शाम को घनसाली वापस लौटना था,लेकिन किन्ही कारणों से नहीं लौट पाए और इस हादसे का शिकार हो गये.एक व्यक्ति गंभीर हालत में है, जिसे पहले हिमालयन अस्पताल,जौलीग्रांट, देहरादून में भर्ती करवाया गया और वहां से दिल्ली रेफर कर दिया गया है. मरने वालों में एक व्यक्ति मलबे के ढेर में या तो दफ़न हो गया या पानी के तेज बहाव में बह गया,कहना मुश्किल है. लापता हुए इस शख्स का नाम राजेश नौटियाल था. ग्रामीण बताते हैं कि राजेश नौटियाल ग्राम प्रहरी था. उसी ने लोगों को गदेरे में पानी बढ़ने और मलबा आने के खतरे से आगाह किया था. कुछ लोग और गाय आदि तो वह बचाने में सफल रहा. लेकिन स्वयं को न बचा सका. राजेश नौटियाल ग्राम प्रहरी था,वही ग्राम प्रहरी जिन्हें सरकार मानदेय के नाम पर 500 रूपया महीना यानि 16 रूपया प्रतिदिन देती है.यह भी बढ़ा हुआ मानदेय है.पहले ये ग्राम प्रहरी 200 रूपया प्रतिमाह यानि 6 रूपया प्रतिदिन पाते थे.बताते हैं कि राज्य सरकार ने घोषणा तो 1000 रुपया प्रतिमाह की कर दी है पर मिल 500 रूपया ही रहा है. इतने कम पैसा पाने वाले,नाममात्र के सरकारी तंत्र के अंग ने अपने पद “ग्राम प्रहरी” के नाम को तो सार्थक कर ही दिया.पर क्या राज्य के प्रहरियों और रखवालों के लिए नौताड़ का ग्राम प्रहरी किसी प्रेरणा का स्रोत बन पायेगा?


ऐसी आपदाएं जब भी घटित होती हैं सरकारी तंत्र कितना ही संवेदनशील दिखने की कोशिश क्यूँ ना करें,वो लचर ही नजर आता है. देखिये ना कैसी अजीब हालत है कि सामजिक संस्थाएं तत्काल मौके पर पहुँच कर लोगों को खाना,कपडे आदि उपलब्ध करवाने का काम शुरू कर देती हैं. लेकिन शासन-प्रशासन या तो उदासीन या फिर लाचार नजर आता है. 2 अगस्त को नौताड का दौरा करने वाले युवा सामाजिक कार्यकर्ता अरण्य रंजन बताते हैं कि टिहरी के जिलाधिकारी ने उनके साथियों से बच्चों के लिए कपडे उपलब्ध करवाने का आग्रह किया.वे सवाल उठाते हैं कि क्या प्रशासन इतना भी सक्षम नहीं कि 6 बच्चों के लिए कपड़ों का इंतजाम कर सके?बिजली-पानी बहाल करने में ही 48 घंटे से अधिक का समय लग गया.2 अगस्त को शाम के सात बजे के आसपास नौताड में बिजली और पानी बहाल किया जा सका.यह बेहद अजीब है कि एक छोटी सी जगह पर आया मलबा सरकारी अमले को इस कदर मजबूर कर दे कि उसे बिजली-पानी सुचारू करने में दो दिन लग जाएँ.अलबत्ता सरकारी कारिंदों ने नल में पानी आते ही उसकी फोटो खींचने में जरुर बिजली की सी फुर्ती दिखाई.प्रशासन के इस ढीलेपन के चलते ही प्रभावितों ने पहले दिन राहत राशि के चेक लौटा दिए.प्रभावितों का आक्रोश जायज ही था कि बच्चों के लिए दूध,दवाईयों,कपडे और बिजली-पानी का इंतजाम नहीं हो रहा है तो वे इन चेकों का क्या करेंगे.मकानों के लिए मिलने वाले मुआवजे को लेकर भी लोगों में असंतोष है.स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता जयवीर सिंह मियाँ कहते हैं कि आठ कमरों के दो मंजिले मकान का,जिसमें 6 भाई रहते थे,एक लाख रूपया दिया जा रहा है और इस लाख रुपये को ही 6 हिस्सों में बांटने को कहा जा रहा है.जाहिर सी बात है कि 1 लाख रुपये में 6 भाई तो क्या एक भाई के लिए भी मकान बना पाना मुमकिन नहीं है.लेकिन वो सरकार ही क्या जो लोगों के संकट के समय भी तर्कहीन और संवेदनहीन नजर ना आये ! 


भाकपा(माले) ने क्षेत्र का भ्रमण कर मांग की कि नौताड़ वासियों को सुरक्षित स्थान पर पुनर्वासित किया जाए और उन्हें जमीन के बदले जमीन और मकान के बदले मकान मिले.अपना सब कुछ गँवा चुके परिवारों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने तक प्रतिमाह दस हजार रूपया गुजरा भत्ता दिया जाए.लोगों को बचाने में अपनी जान गँवा देने वाले ग्राम प्रहरी राजेश नौटियाल को मरणोपरांत वीरता पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए और उनके परिवार के एक आश्रित को सरकारी सेवा में लिया जाना चाहिए.
 
नौताड़ में इस त्रासदी का कारण रुईस गदेरे का आक्रामक रूप अख्तियार करना था.आम दिनों में मुश्किल से एक मीटर पानी वाला यह गदेरा,31 जुलाई को जितना पानी और मलबा लेकर आया,वह अकल्पनीय है.लेकिन पानी के इस प्राकृतिक स्रोत के इतने सटा कर बनाए गए मकान एक तरह से दुर्घटना को आमन्त्रण ही थे. इसी क्षेत्र के 74 वर्षीय बुजुर्ग उत्तम सिंह मिंयाँ बताते हैं कि नौताड़ गाँव तो पहले पहाड़ पर ऊपर था.जिस स्थान पर बसासत को रुईस गदेरे ने तहस-नहस कर दिया,वहां तो पहले लोगों की छानियां(गौशालाएं) और खेत ही होते थे.सड़क आने पर ही यहाँ मकान बनाना शुरू हुए.उत्तम सिंह मिंयाँ कहते हैं कि गदेरे के नजदीक मकान नहीं बनाने चाहिए थे.तबाही का यह भयावह दृश्य देख रही पड़ोस के गाँव की एक महिला को वे डांटते हुए कहते हैं कि उस के परिवार ने गदेरे के किनारे मकान बना कर अपने को ऐसे ही संकट के मुंह में डाल दिया है.ये बुजुर्गवार बताते हैं कि लगभग 50 साल पहले भी छ्म्ल्याण के गदेरे(भिलंगना नदी के दूसरे छोर की तरफ स्थित) में ऐसे ही भारी बारिश के बाद पानी और मलबा आया था.लेकिन उस समय तबाही कम हुई क्यूंकि लोगों के मकान गदेरे के इतने नजदीक नहीं थे.वे बताते हैं कि उस तबाही को लेकर इस क्षेत्र में लोकगीत भी गाया जाता है-


“रैंसी खेली पैंसी,
रै सिंह दिदा बचो मेरी भैंसी”

पहली पंक्ति टेक है,दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि राय सिंह भाई मेरी भैंस को बचाओ.इस लम्बे से गीत में उस समय हुई भारी बारिश के बाद की आपदा का पूरा विवरण है कि कैसे कुछ लोग विपदा में फंसे,रात को 12 बजे बाद यह आपदा आना शुरू हुई,आदि-आदि.


यह सिर्फ एक नौताड़ का ही किस्सा नहीं है. पहाड़ में जितनी बसासतें पिछले दस-बीस सालों में अस्तित्व में आई हैं,वे इसी तरह से खतरे के मुहाने पर खड़ी हैं. दरअसल पहाड़ में जहाँ भी सड़कें बनी,वे नदियों के किनारे ही बनी. सड़के के नजदीक नयी बसासतें बसनी शुरू हुई और आबादी बढ़ते-बढ़ते प्राकृतिक जल निकासी के स्रोतों तक आ गयी या उन्हें भी अतिक्रमित करने लगी. यह पूरे पहाड़ की ही समस्या है.नौताड़ का निकटवर्ती कस्बा घनसाली भी ऐसे ही खतरे के मुहाने पर है,जहां नदी में कॉलम खड़े करके मकान बनाए गए हैं. नौताड़ में नदी तो आबादी से थोडा दूरी पर है. परन्तु रुईस गदेरा आबादी से सट कर गुजरता है. 31 जुलाई की रात से पहले भी यह गदेरा बेहद शांत और निरापद नजर आता रहा होगा और उस हौलनाक रात के बाद भी यह शांत और निरापद ही दिखता है. लेकिन उस रात को जितना पानी और उससे कई गुना ज्यादा मलबा यह गदेरा अपना साथ लाया,उससे ऐसा लगता है,जैसे कि रुईस गदेरा लोगों की जान की कीमत पर भी अपने रास्ते में पड़ने वाले हर अवरोध,हर अतिक्रमण को हटा लेना चाहता हो.
 

प्रश्न यह है कि क्या हम हर बार नौताड़ जैसी त्रासदियों पर रोने को अभिशप्त हैं? पुरानी बसासतों को हटाया नहीं जा सकता,क्या सिर्फ इस तर्क के साथ उन्हें आपदा की भेंट चढ़ने का इन्तजार करना चाहिए?सवाल तो यह भी है कि क्या हमारा सरकारी तंत्र आपदाओं से कोई सबक सीखता है? 2012 में रुद्रप्रयाग जिले के उखीमठ क्षेत्र के मंगोली और चुन्नी गाँव भीषण आपदा के शिकार बने थे.लेकिन आज मंगोली गाँव में उसी गदेरे के मुहाने पर मकान बनाना शुरू हो गए हैं, जो 2012 में तबाही लेकर आया था.वहां मकान बनवा रहे एक सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य श्री भट्ट ने इस लेखक को इसी वर्ष जनवरी में बताया कि वे अगस्त्यमुनि में बसना चाहते थे,लेकिन 2013 की आपदा के बाद अगस्त्यमुनि भी निरापद नहीं रहा. देहरादून में जमीन खरीदने की कोशिश की,लेकिन वहां आसमान छूते जमीनों के भाव उनकी सामर्थ्य से बाहर थे. सो वे वहीँ बसने को विवश हैं.बहुत सारी जगहों पर कुछ प्रभावशाली लोग और कुछ लोग मजबूरी के वशीभूत होकर नदियों,प्राकृतिक जल निकासों को अतिक्रिमित कर भी भवन आदि बना रहे हैं. तो क्या सिर्फ लोगों को ही सब आपदाओं में हुई तबाही के लिए जिम्मेदार मान लेना चाहिए? लोग तो गलत प्रभाव का इस्तेमाल करके या फिर मजबूरीवश ही ऐसे आपदा संभावित स्थानों पर बसेंगे ही. लेकिन प्रशासन,नियामक निकाय-इनका काम क्या है? ये घूस-रिश्वत लेकर लोगों को खतरे की जगह पर बसने दें और फिर संकट आने पर लोगों को ही दोषी ठहरा दें,क्या इतनी ही प्रशासन और नियामक निकायों की भूमिका है या होनी चाहिए? जाहिर सी बात है कि उनकी भूमिका लोगों को खतरनाक स्थानों पर बसने से रोकने के प्रभावी उपाय और कदम उठाने की होनी चाहिए.लगातार एक बाद एक आने वाली आपदा उत्तराखंड में नए सिरे से सड़कें,भवन बनाने के तौर-तरीके पर विचार करने,ठेकेदार परस्त,पूँजीपरस्त विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करने का सबक लेकर आ रही है.हमारे भाग्यविधाताओं के पास आम लोगों की चिंता करने की फुर्सत ही नहीं है.इसलिए साल दर साल हम आपदा का दंश झेलने को विवश हैं.

क्यों हाशिये पर योजना आयोग?

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"…महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या नए मॉडल से सचमुच देश के वास्तविक विकास का रास्ता निकलेगा?इस बिंदु पर आकर यह प्रश्न अहम हो जाता है कि आखिर विकास का मतलब क्या है?क्या इसके अर्थ को फिर से महज सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के रूप में समेटा जा सकता है?या इसे मानव एवं सामाजिक विकास सूचकांकों की कसौटी पर परखने और हर व्यक्ति की स्वतंत्रता में विस्तार के रूप में इसे देखने की दृष्टियां प्रासंगिक बनी रहेंगी?…"

Daily wage labourers are seen outside the office of Planning Commission in New Delhi. A report of the National Commission for Enterprises in the Unorganised Sector recorded that 836 million Indians live on Rs.20 a day or less. File Photo: V.V. Krishnanह तो साफ है कि नरेंद्र मोदी के शासनकाल में योजना आयोग हाशिये पर चला गया है। लेकिन जिस नेता (या पार्टी) ने लघुतम सरकार, अधिकतम शासनके नारे को सामने रख कर जनादेश प्राप्त किया हो, उसके राज में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं है। योजना आयोग और यह नारा दो विपरीत विचारों या सामाजिक आदर्शों के प्रतीक हैं। योजना आयोग देश के आर्थिक विकास को नियोजित ढंग से दिशा देने के मकसद से बना था। लघुतम सरकारकी धारणा अर्थव्यवस्था में न्यूनतम सार्वजनिक हस्तक्षेप- यानी मुक्त अर्थव्यवस्था- के विचार को प्रतिबिंबित करती है।

भारत में नियोजित विकास का विचार जवाहरलाल नेहरू के प्रयासों व्यवहार में आया। इसके पीछे एक पृष्ठभूमि थी। नेहरू 1927 में तत्कालीन सोवियत संघ की यात्रा पर गए थे। उनकी यात्रा वहां समाजवादी क्रांति की दसवीं सालगिरह के मौके पर हुई थी। सोवियत संघ में जो अभिनव और अद्भुत प्रयोग हो रहे थे, उनसे नेहरू बेहद प्रभावित हुए। उन्होंने लिखा- अक्टूबर क्रांति निसंदेह विश्व इतिहास की सबसे महान घटनाओं में एक थी- फ्रांस की क्रांति के बाद यह महानतम घटना थी। मानवीय नजरिए और नाटकीयता के लिहाज से यह किसी कहानी या कल्पना से भी अधिक दिलचस्प है।दरअसल, उन दिनों सोवियत संघ में जो रहा था, उससे प्रभावित ना होना किसी विवेकशील पर्यवेक्षक के लिए असंभव था। कवींद्र रवींद्रनाथ टैगोर 1930 में सोवियत संघ गए थे। वहां से लिखे पत्रों में उन्होंने वहां हो रहे विकास की तस्वीर खींची थी। एक पत्र में उन्होंने लिखा- रूसी धरती पर कदम रखते ही जिस पहली बात ने मेरा ध्यान खींचा वह शिक्षा है। किसी भी कसौटी पर बीते कुछ वर्षों में किसानों और मजदूरों ने जो जबरदस्त तरक्की की है, वैसा हमारी यात्रा के पिछले डेढ़ सौ वर्षों में कभी नहीं हुआ।

और यह सब संभव हुआ था नियोजित विकास से। पंचवर्षीय योजना के जरिए वहां जिस उन्नति एवं विकास को हासिल किया गया, वह अप्रतिम था। ऐसे में नेहरू नियोजित विकास की धारणा से प्रभावित होकर लौटे, तो उसमें कोई हैरत की बात नहीं थी। दरअसल, सोवियत संघ से आने वाली जानकारियों ने भारत में नियोजित विकास के प्रति सशक्त आकर्षण पैदा कर दिया था। इसी का परिणाम था कि 1938 में जब नेताजी सुभाषचंद्र बोस कांग्रेस अध्यक्ष बने, तो उन्होंने नेहरू की अध्यक्षता में देश के भावी विकास की रूप-रेखा तय करने के लिए राष्ट्रीय नियोजन समिति का गठन किया। बाद में जब नेहरू प्रधानमंत्री बने और अवाडी महाधिवेशन में विकास के समाजवादी रास्ते की अपनी विचारधारा पर कांग्रेस की मुहर लगवाने में सफल रहे, तो उन्होंने नियोजित विकास की अपनी धारणा को कार्यरूप दिया। इसी क्रम में योजना आयोग अस्तित्व में आया था। नेहरू ने कहा था- स्पष्ट शब्दों में मैं स्वीकार करता हूं मैं समाजवादी और गणराज्यवादी हूं।यानी उन्होंने समाजवादी दर्शन और लोकतांत्रिक मूल्यों के बीच समन्वय बनाने की कोशिश की थी।

जाने-माने विद्वान प्रोफेसर एमएल दांतवाला ने लिखा है- आर्थिक रणनीति में नेहरू का सबसे बड़ा योगदान राष्ट्र को नियोजित आर्थिक विकास के प्रति वचनबद्ध करना था। किसी रूप में यह आसान कार्य नहीं था।... योजना आयोग की कार्यशैली के बारे में किसी के विचार चाहे जो भी हों, इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इसका गठन देश की आर्थिक नीति और विकास में एक महत्त्वपूर्ण युगांतकारी घटना थी।इसी आर्थिक रणनीति के तहत पब्लिक सेक्टर अस्तित्व में आया और आर्थिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में प्रगतिशील नीतियों की शुरुआत की गई।

इसके विपरीत लघुतम सरकार का विचार नव-उदारवाद के उदय से जुड़ा है। वैश्विक स्तर पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति रोनाल्ड रेगन के जमाने यह जुमला सर्वाधिक प्रचलन में आया। इसमें यह अंतर्निहित है कि आर्थिक नीतियां तय करने में सरकार की भूमिका कम से कम की जाए। निवेशकों को खुली छूट मिले। दावा यह किया जाता है कि इससे आर्थिक वृद्धि दर में तेजी आएगी, तो समाज में अधिक धन पैदा होगा, जिसका लाभ धीरे-धीरे रिस कर सभी तबकों तक पहुंचेगा। जाहिर है, यह एक बिल्कुल अलग दृष्टि है। इसमें वंचित तबकों के लोग एक कथित नैसर्गिक प्रक्रिया के रहमो-करम पर हैं, जबकि नियोजित विकास में मानव हस्तक्षेप से सबकी प्रगति का रास्ता तैयार किया जाता है।

नेहरूवादी समाजवाद से हर व्यावहारिक रूप में 1991 में किनारा कर लिया गया। इसके बावजूद योजना आयोग की अहमियत बनी रही, तो इसीलिए पूर्व सरकारों में कल्याणकारी राज्य की धारणा को सीधे तौर पर ठुकराने का साहस नहीं था। यूपीए के दस साल के शासनकाल में सामाजिक एजेंडे के नाम से केंद्रीय कल्याण योजनाओं का विस्तार हुआ। उनके लक्ष्य निर्धारित करने, उनके लिए बजट तय करने और उन पर अमल की एक मोटी निगरानी करने की भूमिका योजना आयोग निभाता रहा। मगर 2014 के आम चुनाव ने उस दौर पर विराम लगा दिया।

योजना आयोग के हाशिये पर जाने की यही पृष्ठभूमि है। यहां ये उल्लेख अप्रासंगिक नहीं है कि नरेंद्र मोदी ने अपना चुनाव अभियान नेहरू और उनके विचारों के खिलाफ राजनीतिक जंग छेड़ते हुए लड़ा। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार और भारतीय जनता पार्टी की जो मूलभूत आस्थाएं हैं, उसको उन्होंने आगे रखा। इन आस्थाओं का नेहरूवाद से सीधा विरोध है। बल्कि कहा जा सकता है कि मोदी जिन विचारों का प्रतिनिधित्व करते हुए केंद्र में सत्तारूढ़ हुए, वह नेहरूवादी समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता और जनतंत्र की धारणाओं का प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) है। चूंकि वे अपने इन विचारों के लिए भारी जनादेश जुटाने में सफल रहे, इसलिए यह आलोचना बेमतलब है कि उनकी सरकार विकास या राजकाज की पुरानी नीतियों या चलन को हाशिये पर धकेल रही है। इसके विपरीत इसे 2014 के जनादेश से उत्पन्न एक स्वाभाविक घटनाक्रम के रूप में देखा जाना चाहिए।  
बहरहाल, महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि क्या नए मॉडल से सचमुच देश के वास्तविक विकास का रास्ता निकलेगा?इस बिंदु पर आकर यह प्रश्न अहम हो जाता है कि आखिर विकास का मतलब क्या है?क्या इसके अर्थ को फिर से महज सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर के रूप में समेटा जा सकता है?या इसे मानव एवं सामाजिक विकास सूचकांकों की कसौटी पर परखने और हर व्यक्ति की स्वतंत्रता में विस्तार के रूप में इसे देखने की दृष्टियां प्रासंगिक बनी रहेंगी?दुनिया भर का अनुभव यही है कि इन मानदंडों पर उन्नति हमेशा उच्च आदर्शों से प्रेरित नियोजन से ही संभव हुई है। इसीलिए योजना आयोग की भूमिका या विकास के समाजवादी रास्ते की अवधारणा कभी अप्रासंगिक नहीं होगी। मुद्दा सिर्फ यह है कि फिलहाल अपनाए गए रास्ते की विफलताएं सामने आने में कितना वक्त लगता है। समाजवादी प्रयोग की रणनीतियां वक्त के साथ जरूर बदलेंगी, मगर यह सपना दफ़न नहीं होगा। इसीलिए फिलहाल नियोजित विकास और समाजवादी सपने की श्रद्धांजलि लिख रहे लोगों को इस संघर्षगाथा का अगला अध्याय पढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.
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