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कैसे महसूस हो सुरक्षा?

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                                                     -सत्येन्द्र रंजन 

नरेंद्रभाई मोदी 16 मई को लोकसभा चुनाव में अपनी अप्रत्याशित और सबको चौंकाने वाली जीत के बाद जब विजय संबोधन के लिए वडोदरा में सार्वजनिक मंच पर आए तो उन्होंने कहा कि वे सवा सौ करोड़ भारतीयों का नेतृत्व करेंगे  और सरकार के लिए कोई अपना-पराया नहीं होता। (http://bit.ly/1nYAIB5).

उन्हीं सवा सौभारतीयों में एक 3 जून को पुणे में हिंदू राष्ट्र सेना नामक संगठन के उपद्रवियों के हाथों मारा जा चुका है (http://bit.ly/1pTEJnh)। लेकिन नरेंद्रभाई या उनके कार्यालय ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है (http://bit.ly/1kH714k)। उनकी पार्टी ने भी अपेक्षित ढंग से इस घटना की निंदा की नहीं है। जबकि यह मौका था, जब प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी सख्त और बेलाग राजनीतिक संदेश भेज कर सभी भारतीयों में सुरक्षा की भावना मजबूत कर सकते थे। (http://bit.ly/1pXQc5g)। अगर वे ऐसा करते तो उससे उन चरमपंथियों को पैगाम मिलता, जिन्होंने एक आईर्टी फर्म में मैनेजर मोहसिन सादिक शेख की न सिर्फ हत्या की, बल्कि एक निर्दोष की जान लेने पर अफसोस के बजाय उस पर में बर्बर प्रतिक्रिया दिखाई (http://bit.ly/1ktheCh)।

एक विचित्रसवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री या सत्ताधारी पार्टी के लिए देश की हर घटना पर प्रतिक्रिया जताना अनिवार्य है। सामान्य स्थितियों में मुमकिन है, ऐसा करना जरूरी नहीं समझा जाए। लेकिन महत्त्व संदर्भ से तय होता है। क्या भाजपा नेता इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में उनकी पार्टी के बारे में क्या धारणा है? (http://bit.ly/1xcdppd). ऐसे में क्या यह उनका कर्त्तव्य नहीं बनता कि सत्ताधारी दल के रूप में अपनी जिम्मेदारी समझते हुए वे समाज के सभी वर्गों में भरोसा पैदा करेंवैसे भी किसी भी रूप में किसी समुदाय के प्रति नफरत की भावना से प्रेरित अपराध को कोई सभ्य समाज बर्दाश्त नहीं कर सकता। (http://bit.ly/1rSDnOw)

भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने के बाद अगर अपने  राज-धर्म की याद है, तो उसे ऐसे तत्वों के खिलाफ राजनीतिक संदेश देने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए। (http://bit.ly/1xmlJ62)

ऐसाना होने से समाज में आतंक और तनाव का माहौल बढ़ेगा। अकादमिक किताबों पर संघ परिवार से जुड़े संगठनों के सधते निशाने के साथ बौद्धिक हलकों में ऐसा वातावरण पहले ही बन चुका है। (http://bit.ly/1opeQfP). पहले वेंडी डोनिगर की किताब द हिंदुज को पेंगुइन ने वापस लिया और अब उसी शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति की मांग पर ओरिएंड ब्लैक्सवॉन ने मेघा कुमार की शोध अधारित किताब Communalism and Sexual Violence: Ahmedabad since 1969 की पुनर्समीक्षा कराने का फैसला किया है। (http://bit.ly/1kBK57x)। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस मामले में भी केंद्र सरकार या सत्ताधारी पार्टी की तरफ से आश्वस्त करने वाला कोई बयान नहीं आया है। इस हाल पर द टाइम्स ऑफ इंडिया की व्यंग्य में की गई ये टिप्पणी प्रासंगिक है कि किताबों को प्रतिबंधित कराने से बेहतर यह होगा कि दीनानाथ बत्रा और उनकी शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति सीधे शिक्षा और सारक्षता को खत्म करने की मांग करें, ताकि ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी की तर्ज पर जब पढ़ने-लिखने में सक्षम लोग ही नहीं रहेंगे तो किताबें आखिर लिखेगा कौन! (http://bit.ly/1pk97HH)

सोशल मीडियापर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने के मामले में गोवा के देवू चोडानकर (http://bit.ly/TpjDCP) और कर्नाटक के सैयक वकास (http://bit.ly/1iagrAL)  को जिन मुसीबतों से गुजरना पड़ा है, वह तो जग-जाहिर है। मोहसिन सादिक की मौत भी फेसबुक पर बनाए गए कथित आपत्तिजनक पेजों के मामले में ही हुई। (http://bit.ly/1xmnGiN). इन घटनाओं ने सोशल मीडिया पर खुली अभिव्यक्ति को लेकर दहशत पैदा कर दी है। क्या यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह लोगों में निर्भयता और उनके अधिकारों के संरक्षण के प्रति आश्वस्त करे?

केंद्र में मजबूत सरकार बनी है।  (http://bit.ly/Skccvq). अलग संदर्भों में प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता के अति-सकेंद्रण की आशंकाएं जताई जा रही हैं। (http://bit.ly/1p5wJ5k). बहरहाल, एक आम नागरिक के नजरिए से सबसे अहम सवाल यह है कि क्या मजबूत सरकार के होने से क्या वह अपनी और अपने अधिकारों की सुरक्षा को लेकर अधिक आश्वस्त होगा? अथवा मजबूत सरकार और शीघ्र निर्णय प्रक्रिया का लाभ सिर्फ कॉरपोरेट सेक्टर को मिलेगा, जिसके यूपीए के काल में पोलिसी पैरालिसिस (नीति एवं निर्णय प्रक्रिया के लकवाग्रस्त) के शोर की भाजपा के लिए सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त करने में शायद सबसे खास भूमिका रही?
                                                                                                       
                                                                                                                                 लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
 जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

कैसे महसूस हो सुरक्षा?

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-सत्येन्द्र रंजन

सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने के मामले में गोवा के देवू चोडानकर और कर्नाटक के सैयक वकास को जिन मुसीबतों से गुजरना पड़ा है, वह तो जग-जाहिर है। मोहसिन सादिक की मौत भी फेसबुक पर बनाए गए कथित आपत्तिजनक पेजों के मामले में ही हुई। इन घटनाओं ने सोशल मीडिया पर खुली अभिव्यक्ति को लेकर दहशत पैदा कर दी है। क्या यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह लोगों में निर्भयता और उनके अधिकारों के संरक्षण के प्रति आश्वस्त करे?


रेंद्रभाई मोदी 16 मई को लोकसभा चुनाव में अपनी अप्रत्याशित और सबको चौंकाने वाली जीत के बाद जब विजय संबोधन के लिए वडोदरा में सार्वजनिक मंच पर आए तो उन्होंने कहा कि वे सवा सौ करोड़ भारतीयों का नेतृत्व करेंगे और सरकार के लिए कोई अपना-पराया नहीं होता। (http://bit.ly/1nYAIB5).

उन्हीं सवा सौ भारतीयों में एक 3 जून को पुणे में हिंदू राष्ट्र सेना नामक संगठन के उपद्रवियों के हाथों मारा जा चुका है (http://bit.ly/1pTEJnh)। लेकिन नरेंद्रभाई या उनके कार्यालय ने इस पर कोई टिप्पणी नहीं की है (http://bit.ly/1kH714k)। उनकी पार्टी ने भी अपेक्षित ढंग से इस घटना की निंदा की नहीं है। जबकि यह मौका था, जब प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी सख्त और बेलाग राजनीतिक संदेश भेज कर सभी भारतीयों में सुरक्षा की भावना मजबूत कर सकते थे। (http://bit.ly/1pXQc5g)। अगर वे ऐसा करते तो उससे उन चरमपंथियों को पैगाम मिलता, जिन्होंने एक आईर्टी फर्म में मैनेजर मोहसिन सादिक शेख की न सिर्फ हत्या की, बल्कि एक निर्दोष की जान लेने पर अफसोस के बजाय उस पर बर्बर प्रतिक्रिया दिखाई (http://bit.ly/1ktheCh)।

एक विचित्र सवाल यह है कि क्या प्रधानमंत्री या सत्ताधारी पार्टी के लिए देश की हर घटना पर प्रतिक्रिया जताना अनिवार्य है। सामान्य स्थितियों में मुमकिन है, ऐसा करना जरूरी नहीं समझा जाए। लेकिन महत्त्व संदर्भ से तय होता है। क्या भाजपा नेता इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय में उनकी पार्टी के बारे में क्या धारणा है? (http://bit.ly/1xcdppd). ऐसे में क्या यह उनका कर्त्तव्य नहीं बनता कि सत्ताधारी दल के रूप में अपनी जिम्मेदारी समझते हुए वे समाज के सभी वर्गों में भरोसा पैदा करेंवैसे भी किसी भी रूप में किसी समुदाय के प्रति नफरत की भावना से प्रेरित अपराध को कोई सभ्य समाज बर्दाश्त नहीं कर सकता। (http://bit.ly/1rSDnOw)

भारतीय जनता पार्टी को सत्ता में आने के बाद अगर अपने  राज-धर्म की याद है, तो उसे ऐसे तत्वों के खिलाफ राजनीतिक संदेश देने में कोई कोताही नहीं करनी चाहिए। (http://bit.ly/1xmlJ62)

ऐसा ना होने से समाज में आतंक और तनाव का माहौल बढ़ेगा। अकादमिक किताबों पर संघ परिवार से जुड़े संगठनों के सधते निशाने के साथ बौद्धिक हलकों में ऐसा वातावरण पहले ही बन चुका है। (http://bit.ly/1opeQfP). पहले वेंडी डोनिगर की किताब द हिंदुज को पेंगुइन ने वापस लिया और अब उसी शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति की मांग पर ओरिएंड ब्लैक्सवॉन ने मेघा कुमार की शोध अधारित किताब Communalism and Sexual Violence: Ahmedabad since 1969 की पुनर्समीक्षा कराने का फैसला किया है। (http://bit.ly/1kBK57x)। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इस मामले में भी केंद्र सरकार या सत्ताधारी पार्टी की तरफ से आश्वस्त करने वाला कोई बयान नहीं आया है। इस हाल पर द टाइम्स ऑफ इंडिया की व्यंग्य में की गई ये टिप्पणी प्रासंगिक है कि किताबों को प्रतिबंधित कराने से बेहतर यह होगा कि दीनानाथ बत्रा और उनकी शिक्षा बचाओ आंदोलन समिति सीधे शिक्षा और सारक्षता को खत्म करने की मांग करें, ताकि ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी की तर्ज पर जब पढ़ने-लिखने में सक्षम लोग ही नहीं रहेंगे तो किताबें आखिर लिखेगा कौन! (http://bit.ly/1pk97HH)

सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने के मामले में गोवा के देवू चोडानकर (http://bit.ly/TpjDCP) और कर्नाटक के सैयक वकास (http://bit.ly/1iagrAL)  को जिन मुसीबतों से गुजरना पड़ा है, वह तो जग-जाहिर है। मोहसिन सादिक की मौत भी फेसबुक पर बनाए गए कथित आपत्तिजनक पेजों के मामले में ही हुई। (http://bit.ly/1xmnGiN). इन घटनाओं ने सोशल मीडिया पर खुली अभिव्यक्ति को लेकर दहशत पैदा कर दी है। क्या यह केंद्र सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह लोगों में निर्भयता और उनके अधिकारों के संरक्षण के प्रति आश्वस्त करे?

केंद्र में मजबूत सरकार बनी है।  (http://bit.ly/Skccvq). अलग संदर्भों में प्रधानमंत्री कार्यालय में सत्ता के अति-सकेंद्रण की आशंकाएं जताई जा रही हैं। (http://bit.ly/1p5wJ5k). बहरहाल, एक आम नागरिक के नजरिए से सबसे अहम सवाल यह है कि क्या मजबूत सरकार के होने से क्या वह अपनी और अपने अधिकारों की सुरक्षा को लेकर अधिक आश्वस्त होगा? अथवा मजबूत सरकार और शीघ्र निर्णय प्रक्रिया का लाभ सिर्फ कॉरपोरेट सेक्टर को मिलेगा, जिसके यूपीए के काल में पोलिसी पैरालिसिस (नीति एवं निर्णय प्रक्रिया के लकवाग्रस्त) के शोर की भाजपा के लिए सत्ता में आने का मार्ग प्रशस्त करने में शायद सबसे खास भूमिका रही?
                                                                                                       
                                                                                                                                 लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
 जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

सुप्रीम कोर्ट से बरी 'आतंकियों'की कहानी

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"...मोदी के नेतृत्व में जिस दिन (16 मई) बीजेपी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिल रहा था उसी दिन भारत के ‘सर्वोच्च न्यायालय’ (सुप्रीम कोर्ट) ने अक्षरधाम केस में फैसला सुनाया और सभी 6 अभियुक्तों को बरी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने मोदी के सुशासन की पोल खोल दी। मोदी के मुख्यमंत्री व गृहमंत्री रहते हुए इन 6 लोगों को इस अक्षरधाम के फर्जी केस में फंसाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पोटा की सुनवाई करते वक्त यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस कानून में मानवाधिकारों के उल्लंघन और पुलिस को दी गई ताकत का बेजा इस्तेमाल किया गया। ..."

फ़ाइल फोटो
(साभार - www.thehindu.com)
रेन्द्र मोदी 13 साल गुजरात के मुख्यमंत्री रहने के बाद आज प्रधानमंत्री के पद पर आसीन हो चुके हैं। इस पद पर आसीन होने के लिए उनकी कट्टर हिन्दुत्वा सोच ने मदद की। इसी सोच के कारण राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आर एस एस) ने अपना एजेंडा लागू करने के लिए सबसे उपयुक्त व्यक्ति नरेन्द्र मोदी को माना और उनके नाम पर प्रधानमंत्री पद के लिए मुहर लगा दी। 

नरेन्द्र मोदी को कट्टर हिन्दुत्व का तमगा गुजरात दंगो से मिला। उसके बाद सोहराबुद्दीन, इशरत जहां फर्जी एनकाउंटर, अक्षरधाम पर हमले, हिरेन पांड्या केस हुआ जिसमें कि बेकसूर मुसलमानों को फंसाया गया। इन तेरह सालों में मोदी सीढि़यां चढ़ते हुए प्रधानमंत्री बन गये। सीढि़यां चढ़ने के लिए एक विशेष समुदाय के लोगों की कुर्बानियां ली गयीं, उनके घर-परिवार बर्बाद कर दिये गये। 

मोदी के नेतृत्व में जिस दिन (16 मई) बीजेपी को पहली बार पूर्ण बहुमत मिल रहा था उसी दिन भारत के ‘सर्वोच्च न्यायालय’ (सुप्रीम कोर्ट) ने अक्षरधाम केस में फैसला सुनाया और सभी 6 अभियुक्तों को बरी कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले ने मोदी के सुशासन की पोल खोल दी। मोदी के मुख्यमंत्री व गृहमंत्री रहते हुए इन 6 लोगों को इस अक्षरधाम के फर्जी केस में फंसाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पोटा की सुनवाई करते वक्त यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इस कानून में मानवाधिकारों के उल्लंघन और पुलिस को दी गई ताकत का बेजा इस्तेमाल किया गया।

आगेसुप्रीम कोर्ट कहता है कि गृहमंत्री ने विवेक से काम नहीं किया और बिना सोचे समझे अभियुक्तों पर पोटा के तहत मुकदमा चलाए जाने की इजाजत दी थी जो कि गलत है। दुर्भाग्य है कि 11 सालों तक छह परिवारों को इतना बड़ा कष्ट सहना पड़ा, घर बर्बाद हो गये, बच्चों की पढ़ाई खत्म हो गई लेकिन वह मीडिया के लिए खबर नहीं बन पाया। मीडिया मोदी की सुशासन और संसेक्स की उछाल बताने में लगी हुई थी उसे मोदी के कुशासन के सबूत दिखाई नहीं दे रहे थे। 

यहीकारण है कि समाज के एक तबके में मोदी कीे छवि क्रूर शासक जैसी है। मीडिया द्वारा इस छवि को बदलने की भी कोशिश की जा रही है। जब वह संसद भवन के सेंट्रल हाॅल में भावुक हुए तो वह मीडिया के लिए पहला समाचार बना, सभी न्यूज पेपर के पहले पन्ने पर इस तस्वीर को छापा गया। इसी तरह गुजरात विधान सभा से विदाई का समय हो या मां से मिलने का समय इन तस्वीरों को प्रमुखता से दिखाकर यह एहसास कराया जाता है कि मोदी के पास भी दिल है वह भी भावुक होते हैं वह कट्टर नहीं है।
 
गांधीनगरअक्षरधाम मंदिर पर 24 सितम्बर, 2002 को ‘हमला’ हुआ था जिसमें 34 लोगों की मौत हो गई थी। उस समय उप पुलिस अधीक्षक गिरीश सिंघल थे जिन्होंने अक्षरधाम मंदिर के ‘हमलावरों’ को मारकर सुर्खियां बटोरी थीं। अक्षरधाम ‘हमले’ के एक साल बाद तक कोई गिरफ्तारी नहीं हुई तो इसकी जांच की कमान सिंघल को सौपी गई। सिंघल ने 24 घंटे के अन्दर ही 6 लोगों को गिरफ्तार करके मामले सुलझाने का दावा किया। सिंघल के जुटाये हुए साक्ष्य के आधार पर 6 लोगों को गुजरात की अदालत ने सजा (3 को मृत्यु दंड, 1 को आजीवन कारवास, 2 को 10 साल की सजा, 1 को पांच की सजा) भी सुना दी।

अक्षरधाम‘हमलावरों’ के पास से एक पत्र मिला था जिस पर कोई दाग-धब्बा नहीं था जब कि मारे गये ‘हमलावरों’ की लाशें खून और मिट्टी में सनी हुयी थीं। इस तरह के साक्ष्य जुटाये थे सिंघल जी ने! सिंघल वही पुलिस आॅफिसर हैं जिन्हें सीबीआई ने इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में गिरफ्तार किया गया था लेकिन 90 दिन में चार्जशीट प्रस्तुत नहीं कर पाने के कारण जमानत मिल गई और अभी 28 मई को गुजरात सरकार ने उनको राज्य रिजर्व पुलिस में समूह कमांडेट के पद पर बहाल किया है। (सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले के आरोपी आईपीएस अफसर दिनेश एम.एन. को वसुंधरा सरकार ने बहाल कर दिया है)।

सुप्रीम कोर्ट से बरी हुये लोगों की कहानी

Five of the six men who were freed by the court in the Akshardham temple terror attack case in Gujarat, in New Delhi on Tuesday.   Tashi Tobgyal अब्दूल कयूमदरियापुर इलाके के मस्जिद में मुफ्ती थे। उनके ऊपर ‘फिदायीन को चिट्ठी लिखकर देने और 2002 दंगों का बदला लेने के लिए अहमदाबाद में फिदायीन को शरण देने व हैदाराबाद के कुछ लोगों के साथ मिलकर हमले के लिए जगह तलाशने का आरोप लगाया गया था। गुजरात की अदालत ने इस आरोप को सही मानते हुए उन्हें मौत की सजा सुनाई थी। कयूम कहते हैं कि ‘‘17 अगस्त, 2003 को हमें क्राइम ब्रांच ले जाया गया और हरेन पांड्या और अक्षरधाम मंदिर हमले के बारे में बताया गया। हमें गुनाह कबूल करने के लिए करंट लगाया गया, बेड़ियों से बांधकर डंडो से पिटाई की गई। हमें गुनाह कबूल करने से इनकार करने पर तब तक मारा जाता रहा जब तक कि हम बेहोश नहीं हो जाते, होश में आने पर दुबारा वही प्रक्रिया अपनाई जाती थी।

एक दिन, रात में हमें कोतरपुर (इशरत जहां और उसके तीन दोस्तों को फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था) ले जाया गया और मेरे आस-पास पांच गोलियां चलाई गई। मुझे लगा कि अगर मैं ‘गुनाह’ नहीं कबूला तो एनकाउंटर कर दिया जायेगा।’’ कयूम कहते हैं कि ‘‘हमने 11 साल जेल में गुजारे, परिवार बर्बाद हो गया। मुझे फांसी की सजा हुई तो अखबारों ने बड़े-बड़े फोटो छापे लेकिन जब हम रिहा हुए तो इसकी खबर कुछ अखबारों और चैनलों ने ही दिखायी।’’

कयूमकी मुलाकात जेल में कभी-कभी पुलिस अफसर सिंघल (इशरत जहां फर्जी मुठभेड़ में सीबी आई ने गिरफ्तार किया था) से हो जाया करती थी तो एक बार मैंने सिंघल से पूछा कि ‘‘तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया?  सिंघल के पास कोई जवाब नहीं था।’’ कयूम अपनी गिरफ्तारी से दो दिन पहले 15 अगस्त 2003 को मस्जिद में तकरीर दी थी कि ‘‘आजाद भारत में मुसलमानों का उतना ही हक है, जितना किसी और का।’’ कयूम के पिता का इंतकाल हो चुका है और अब उनका परिवार उस घर में भी नहीं रहता जिसमें वो 11 साल पहले रहा करते थे।
मोहम्मद सलीमके ऊपर आरोप था कि वह सऊदी अरब में भारतीय मुसलमानों को इकट्ठा करके 2002 गोधरा दंगे और अन्य भारत विरोधी वीडियो दिखाते थे। पैसा इकट्ठा कर अक्षरधाम हमले के लिए फाइनेंस किया था। सलीम को आजीवन करावास की सजा सुनाई गई थी। सलीम की मां मुमताज बानो को सलीम की गिरफ्तारी के बाद हार्ट अटैक हुआ और वे लकवे की शिकार हो गईं। अखबार में सलीम के नाम के साथ आतंकवादी शब्द देखते ही वह पूरे दिन रोती रहती हैं। पहले वह अपने बेटे सलीम की प्रशंसा करती थकती नहीं थीं। सलीम ने सऊदी अरब जाकर दर्जी का काम करके पैसा कमाया और अपनी दो बहनों की शादी की, अहमदाबाद में मकान खरीदा, अपने बच्चे जुबैद को इंग्लिश मीडियम में दाखिला दिलाया। सलीम छुटियां खत्म कर सऊदी अरब वापस जाने की तैयारियां कर रहे थे। मां ने खीर बनाई थी तभी घर के दरवाजे पर किसी की दस्तक हुई और वो सलीम को बुलाकर ले गया उसके 11 साल बाद सलीम अपने परिवार के पास वापस लौटा है।

सलीमकहते हैं कि ‘‘मुझे क्राइम ब्रांच ले जाने के बाद पुलिस ने मुझसे पूछा कि मैं सऊदी अरब में क्या करता हूं, मेरे दोस्त कौन-कौन हैं? मुझे पहले बताया गया कि यह जांच मेरे पासपोर्ट में गड़बड़ी की वजह से हो रहा है फिर मुझे मारना शुरू किया गया, मुझे इल्म नहीं था कि मुझे क्यों मारा जा रहा है। अगर मेरा नाम सुरेश, रमेश या महेश होता तो मेरे साथ यह कभी नहीं होता। हमें 29 दिन तक अवैध हिरासत में रखा गया। क्राइम ब्रांच में 400-500 डंडे मेरे तलवे पर मारते थे मेरी पांव की उंगली फ्रैक्चर हो गयीं। आज भी मेरे पांव कांपते हैं पैरों में जलन होती है, मेरे कूल्हे पर आज भी 11 साल पुरानी मार के निशान मौजूद हैं। एक सीनियर अफसर ने मुझे बुलाया और पूछा कि सलीम, कौन से केस में जेल जाएगा? हरेन पंड्या, अक्षरधाम या 2002 के दंगे में। मुझे इन तीनों के बारे में कुछ ज्यादा पता नहीं था, मैं 1990 से सऊदी अरब में था और जब घर आता तब इनके बारे में कभी बात होती। मेरे पास मार खाने की बिल्कुल ताकत नहीं बची थी और मैं जैसा वह कहते वैसा करता था।’’

भविष्य के बारे में सलीम बताते हैं कि ‘‘मेरा मकान बिक गया, छोटे भाई को परिवार चलाने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़नी पड़ी, मेरे बच्चे अंग्रेजी स्कूल से उर्दू स्कूल में आ गए, अम्मी बिस्तर पर हैं। मेरे पास वक्त बहुत कम है कि मैं अपनी बिखरी हुई जिंदगी समेट सकूं। अहमदाबाद में अब एक छोटी सी दुकान किराये पर लेकर वापस सिलाई का काम शुैरू करूंगा, दुनिया बहुत आगे बढ़ गई है, मैं और मेरे बच्चे बहुत पीछे रह गए।’’ गिरफ्तारी की बात पर बताते हैं कि ‘‘2002 दंगों के बाद एक रिलीफ कैंप में अनाज और पानी की मदद करने के लिए 13,000 रुपए ज़कात (दान) के तौर पर दिए थे शायद उसी से मैं पुलिस के नजर में आ गया।’’

अब्दुल मियां कादरीदरियापुर इलाके की एक मस्जिद में मौलाना हैं, उन पर आरोप था कि वह कय्यूम भाई की चिट्ठी ‘फिदायनों’ तक पहुंचाई थी। इस अपराध में गुजरात की अदालत ने उन्हें 10 साल की सजा सुनाई थी।   अब्दुल मियां बताते हैं कि ‘‘कोर्ट में पेश करने से 13 दिन पहले 17 अगस्त, 2013 की उनकी गिरफ्तारी हुई थी। हमें पकड़ने  के बाद एक कमरे में बिठाया गया कुछ देर बाद एक अधिकारी मुझसे इधर-उधर की बात करने लगा। मुझे लगा कि वह शायद मुझसे कोई जानकारी चाहते हैं। अधिकारी ने मुझसे पूछा अक्षरधाम हमले के बारे में क्या जानते हो? उस समय ऐसा लगा मानो मेरे पांव के नीचे जमीन फट गई!’’

29 अगस्त, 2003 को जुमे के दिन हमें मुंह पर काले कपड़े बांधकर पत्रकारों के बीच खड़ा कर दिया गया। वह मंजर देख कर मुझ पर कयामत टूट पड़ी, घर वालों पर इसके बाद क्या बीतेगी इस ख्याल से मेरे रोंगटे खड़े हो गए। अब्दुल मियां आगे कहते हैं कि ‘‘हम वतन के वफादार आज भी हैं और हमेशा रहेंगे। हमें भारत के कानून पर यकीन था। हाईकोर्ट से इंसाफ नहीं मिला पर सुप्रीम कोर्ट से मिलेगा यह यकीन था। लेकिन मेरा हुकूमत पर से भरोसा उठ गया है क्योंकि यहां 100 में से 90 प्रतिशत मामलों में बेगुनाहों को अंदर कर दिया जाता है। जेल में मैं देख कर आया हूं कई मासूम आज भी जेल में कैद हैं। उन्हें तुरंत बाहर निकालना चाहिए। गलत केस में लोगों को अंदर कर देने से दहशतगर्दी बढ़ती है।’’

अब्दुलमियां पूछते हैं कि ‘‘11 साल बाद हम बेकसूर करार हो चुके हैं लेकिन हमारा गुज़रा वक्त कौन लौटा सकता है? मैंने आज तक अक्षरधाम मंदिर नहीं देखा। अपने ऊपर बैठे लोगों को खुश करने या उनके आदेश से पुलिस वालों ने हमारी और हमारे घर वालों की जिन्दगी की खुशियां लूट लीं।’’
आदम भाई अजमेरीको गुजरात की अदालत ने फांसी की सजा सुनाई थी। आदम बताते हैं कि ‘‘8 अगस्त 2003 को रात के करीब डेढ़ बजे आदम अजमेरी अपने भाई के आॅटो गैराज के पास दोस्तों के साथ बातचीत कर रहे थे। चार लोग मारूति जेन में आये और आकर पूछे कि तुम में से आदम कौन है? पहचान होते ही बोले कि तुम को बड़े साहब ने क्राइम ब्रांच बुलाया है। पुलिस से डर लगता है इसलिए थोड़ा घबराते हुए मैं उनके साथ चला गया।

रातको ले जाकर मुझे एक अफसर के सामने बिठा दिया गया। अफसर ने पूछा क्या तुम मुझे जानते हो? मैंने कहा नहीं। अफसर बोला की मेरा नाम डीजी वंजारा है। वंजारा ने पूछा कि तुम हरेन पंड्या के बारे में क्या जानते हो? मैंने कहा कि उनके कत्ल के बारे में अखबार में पढ़ा है। वंजारा ने दुबारा पूछा कि तुम टिफिन बम ब्लास्ट के बारे में क्या जानते हो? मैंने कहा कुछ नहीं। अगला प्रश्न था कि अक्षरधाम मंदिर हमले से तुम्हारा क्या ताल्लुक है? मैंने कहा कुछ नहीं। मेरे यह कहते ही वंजारा ने कहा कि डंडा पार्टी को बुलाओ। वह 20 दिन तक मुझे दिन-रात पीटते जब तक मैं बेहोश न हो जाऊं। मुझे कोर्ट में हाजिर करने से पहले धमकाया गया कि मैंने अगर कोर्ट में मुंह खोला या वकील करने की कोशिश की तो परिवार को मार देेंगे। मुझे कहा गया जहां कहा जाए हस्ताक्षर कर देना। मेरी बीबी और बच्चों को सीसीटीवी कैमरे में क्राइम ब्रांच में बैठे हुए दिखाया गया।’’

उनकीबेटी शबाना आदम अजमेरी दरियापुर के म्युनिसिपल स्कूल में छठी क्लास की छात्रा है। शबाना का सपना है वकील बनने का। वह अपने मां से कहती हैं कि ‘‘मैं वकील बन कर आप लोगों को बचाऊंगी’’। आदम अब दस बाई दस के कमरे में अपने बीबी और बच्चों के साथ रह रहे हैं। वह अभी भी नाम बताने से पहले अपना कैदी नम्बर बोल जाते हैं। वह कहते हैं कि ‘‘अखबारों में बड़े-बड़े फोटो छपे थे मेरे, जिससे बच्चों का घर से बाहर निकलना बंद हो गया और उनके स्कूल छूट गये। मैं अपने बच्चों से कहता हूं कि मैं नहीं पढ़ पाया क्योंकि हमारे अब्बू के पास पैसे नहीं थे और यह अब अपने बच्चों से बतायेंगे कि हम नहीं पढ़ पाए क्योंकि इनके अब्बू आतंकवाद के झूठे केस में जेल में थे।’’

वहकहते हैं कि जब उनको क्राइम ब्रांच में अवैध रूप से रखा गया था उस समय और 100-150 लोग अलग-अलग कमरों में बंद थे। अजमेरी बताते हैं कि 1998 के चुनाव में मैंने अपने इलाके में बैलेट पेपर की धांधली होते देखी तो रिटर्निंग अफसर से शिकायत की और कोर्ट में एप्लीकेशन भी लगाई, लेकिन उस मामले में कुछ नहीं हुआ। शायद तब से ही मैं पुलिस की नजर में था।

अजमेरी,अब्दूल कयूम, सलीम व अब्दुल मियां कादरी के बयानों से लगता है कि आप अपने हक की बात करते हैं, किसी की सहायता करते हैं या किसी गलत काम का विरोध करते हैं तो आप सरकार की नजर में देशद्रोही हैं। आप पर वह सभी अत्याचार किये जायेंगे जो इनके साथ किया गया है। इन लोगों को जिस तरह से पकड़ कर झूठे केसों में फंसाया गया उससे तो यह लगता है कि अक्षरधाम मंदिर, टिफिन बम हो या हरेन पांड्या केस इनके असली गुनाहगारों को छिपाया गया है गलत लोगों को फंसा कर। जिस तरह से कोर्ट ने गुजरात के गृहमंत्री से लेकर सी.जे.एम. तक पर सवाल उठाये हैं उससे लगता है कि शासन-प्रशासन से न्यायपालिका तक एक समुदाय व एक वर्ग के खिलाफ काम करता है। क्या इन बेकसूरों की 11 साल की जिन्दगी कोई लौटा सकता है? उनको इस स्थिति तक पहुंचाने वाले गुनाहगारों को सजा हो सकती है? 

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

ये कैसे संकेत हैं?

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-सत्येन्द्र रंजन 

"...हम सत्ता का एक हाथ में अति संकेंद्रण होते देख रहे हैं। इस परिघटना के समर्थक कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव राष्ट्रपति शैली में जीता है, इसलिए उन्हें उसी ढंग से शासन करने का जनादेश है। मगर ऐसा कहते वक्त शक्तियों के अलगाव (separation of power)और अवरोध एवं संतुलन (check and balance)की दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतो की अनदेखी की जाती है, जो लोकतंत्र का मूल-आधार हैं।..."

प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी की कार्य-शैली कैसी होगी, अब तक इसके पर्याप्त संकेत मिल चुके हैं। उनके संभावित परिणामों और व्यापक निहितार्थों की चर्चा से पहले बेहतर होगा, उनके कुछ प्रमुख निर्णयों पर ध्यान देना। ये तीन कदम गौरतलब हैं- 

-    मोदी ने अपने जिम्मे जो विभाग रखे हैं, उनमें सभी महत्त्वपूर्ण नीतिगत विषयभी शामिल है। (http://bit.ly/TgFmfW) ऐसा संभवतः पहली बार हुआ है। इसका मतलब यह समझा गया है कि नीतिगत मामलों में मंत्रियों को स्वतंत्रता नहीं होगी। यह कार्य प्रधानमंत्री कार्यालय (पीएमओ) के नियंत्रण एवं निर्देशन में रहेगा।

    /अगर पूर्व मनमोहन सिंह सरकार की कार्य-शैली से तुलना करें, तो इस निर्णय के स्वरूप को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। तब पीएमओ ने मंत्रियों को अधिकांश मामलों में खुद फैसले लेने का अधिकार दे रखा था। प्रावधान यह था कि जहां मंत्री आवश्यक समझें, वे प्रधानमंत्री को सूचित करेंगे। यानी यह उनके स्वविवेक पर था कि किस मुद्दे या विषय को वे प्रधानमंत्री की जानकारी में लाएं। (http://bit.ly/1hAZ5SN)
    /आरोप यह है इससे यूपीए राज में कई मंत्रालय परस्पर विरोधी उद्देश्यों के लिए काम करते नजर आए। कॉरपोरेट मीडिया ने इस संदर्भ में पर्यावरण और आर्थिक तथा बुनियादी ढांचे से संबंधित मंत्रालयों के बीच के टकराव की चर्चा की है। चूंकि पर्यावरण मंजूरी में लगने वाले समय को निर्णय प्रक्रिया का लकवाग्रस्त होना बताया गया, इसलिए कहा गया है कि मोदी के नीतिगत मामले अपने हाथ में रखने से इससे निर्णय प्रक्रिया सरल होगी। सरकार के समान उद्देश्य के लिए काम करती नजर आएगी।
     /लेकिन क्या इससे पीएमओ के हाथ में अधिकारों का अत्यधिक संकेंद्रण नहीं होगासंसदीय व्यवस्था में प्रधानमंत्री के बारे में समझ यह है कि वह समकक्षों बीच प्रथम होता है। (http://bit.ly/1tKCBP0) यानी उसका दर्जा मंत्रियों से ऊपर नहीं होता, बल्कि उसकी भूमिका सिर्फ अग्रणी की होती है। सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत के तहत सभी मंत्री अपने-अपने विभागों में फैसले लेने के लिए अधिकार-प्राप्त माने जाते हैं। मोदी की कार्य-शैली क्या इस संसदीय जनतांत्रिक परंपरा का उल्लंघन नहीं कर रही है?

-    नरेंद्र मोदी का दूसरा अहम प्रशासनिक फैसला नीतिगत या दूसरे महत्त्वपूर्ण मामलों में फैसला लेने के लिए मंत्रि-समूह (जीओएम) और अधिकार प्राप्त मंत्रि-समूहों (ईजीओएम) को भंग कर देना है। (http://bit.ly/1i4NbLD)


/जीओएम या ईओजीएम बनाने का चलन अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के दौर में शुरू हुआ। मकसद महत्त्वपूर्ण निर्णयों के संदर्भ में विभिन्न मंत्रालयों के बीच समन्वय और उनके मतभेदों का निवारण करना था। जाहिर है, इस प्रक्रिया के तहत फैसलों तक पहुंचने में समय लगता है। लेकिन लोकतांत्रिक शासन के क्रम में- जहां अनेक हितों, विचारों और मांगों के बीच संतुलन बनाना होता है, इससे बचने का क्या तरीका हो सकता है?

/यह बात ठीक है कि यूपीए के समय ऐसी धारणा गहराती गई कि ये मंत्रि-समूह फैसलों को टालने का जरिया बन गए हैं। एक समय ऐसा था जब जीओएम और ईजीओएम की संख्या 80 तक हो गई थी। कई जीओएम की तो कभी बैठक ही नहीं हुई। लेकिन इसे यूपीए की अकुशलता का प्रमाण माना जाना चाहिए। उसके आधार पर लोकतांत्रिक निर्णय की एक बनी-बनाई प्रक्रिया को सिरे से खत्म कर देना कितना उचित है?

/अब निर्णय संबंधित मंत्रालय लेंगे और नीतिगत मामलों में उसे प्रधानमंत्री कार्यालय अंतिम रूप देगा। इसके अलावा मंत्रियों से कहा गया है कि किसी बिंदु पर उनके मंत्रालय कठिनाई महसूस करें तो वे कैबिनेट सचिवालय और प्रधानमंत्री कार्यालय की मदद वे ले सकेंगे। जाहिर है, एक बार फिर पूरी कमान प्रधानमंत्री के हाथ में है।  

-    अगले कदम के रूप में नरेंद्र मोदी ने विभिन्न मंत्रालयों के 72 सचिवों से सीधी मुलाकात की। अफसरों को उनका पैगाम था- अपना काम करते समय डरने की जरूरत नहीं है, आपकी रक्षा के लिए मैं मौजूद हूं। (http://bit.ly/1iZR6cX) फिर उन्हें प्रेरित किया कि वे अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को गंभीरता से लें। काम तेजी से हो और शासन में सुधार हो, इसके लिए अधिकारी निर्णायक रुख अख्तियार करें। इस तरह एक नई परंपरा शुरू हुई।


/क्या इससे सत्ता का अति-संकेद्रन नहीं होगा?खासकर प्रश्न यह है कि सचिव सीधे प्रधानमंत्री से संपर्क में रहेंगे, तो मंत्रियों की क्या हैसियत रह जाएगी? (http://bit.ly/1hdTelS) नीतिगत एवं निर्णय प्रक्रिया में सचिवों को सशक्त करने का परिणाम कहीं मंत्रियों के शक्तिहीन होने के रूप में तो सामने नहीं आएगा?

/ध्यानार्थ है कि मंत्री विभिन्न जन समूहों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उनकी राय में समाज के बहु-स्तरीय हितों की झलक होती है। जबकि अधिकारियों की कोई जनतांत्रिक जवाबदेही नहीं होती। वे मंत्रियों के निजी सेवक काम ना बनें- यह सुनिश्चित करना तो अनिवार्य है, मगर इस क्रम में मंत्रिमंडल के सामूहिक उत्तरदायित्व के सिद्धांत का उल्लंघन हो तो इससे समस्याएं खड़ी होंगी।


संकेत क्या हैं?हम सत्ता का एक हाथ में अति संकेंद्रण होते देख रहे हैं। इस परिघटना के समर्थक कह सकते हैं कि नरेंद्र मोदी ने चुनाव राष्ट्रपति शैली में जीता है, इसलिए उन्हें उसी ढंग से शासन करने का जनादेश है। मगर ऐसा कहते वक्त शक्तियों के अलगाव (separation of power)(http://abt.cm/Swyvye)और अवरोध एवं संतुलन (check and balance) (http://bit.ly/1owHGcA) की दो महत्त्वपूर्ण सिद्धांतो की अनदेखी की जाती है, जो लोकतंत्र का मूल-आधार हैं। जिन देशों में राष्ट्रपति ढंग की प्रणाली है, वहां कार्यपालिका (राष्ट्रपति) का संसद से पूरा अलगाव रहता है। अमेरिका में राष्ट्रपतियों को बजट तक पास कराने में कितनी दिक्कत आई है, इसके अनगिनत उदाहरण हैं। वहां राष्ट्रपति के लिए अपने मनमाने कानून पास कराना टेढ़ी खीर बना रहता है।

गौरतलब है कि अमेरिका जैसे देश में सांसद पार्टी ह्विप से बंधे नहीं रहते। बल्कि अपनी समझ और विवेक से विभिन्न विधेयकों पर मतदान करते हैं। इसलिए किसी कानून को पास कराने में सहमति बनाने की दुरूह प्रक्रिया से सरकार को गुजरना पड़ता है। जबकि अपने यहां दल-बदल विरोधी कानून बनने के बाद सांसदों की स्वतंत्रता खत्म हो गई। अब पार्टी ह्विप के आगे वे लाचार रहते हैं। ऐसे में बहुमत प्राप्त सरकार जो बिल चाहे पास करा लेती है। अमेरिका या फ्रांस जैसे राष्ट्रपति प्रणाली वाले देशों में अवरोध एवं संतुलन की व्यवस्था इतनी सख्त है कि किसी नेता के लिए सर्व-शक्तिमान बन कर उभरना लगभग असंभव है।

लेकिनभारत की स्थिति अलग है। यहां इमरजेंसी के दौरान आखिर क्या हुआ था?यही तो कि मंत्रिमंडल, संसद और प्रशासन-तंत्र सब प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और कालांतर में उनके बेटे संजय गांधी और उनकी चौकड़ी के प्रति जवाबदेह हो गए। संजय और उनकी चौकड़ी ने बेलगाम ढंग से उनका उपयोग किया। जो नतीजा हुआ, वह सामने है। तब कांग्रेस के भीतर इंदिरा गांधी/संजय गांधी का विरोध करने की किसी में हिम्मत नहीं थी। क्या आज वही स्थिति भारतीय जनता पार्टी में बनती नहीं जा रही है?
  
नईसरकार की नजर में कानून या संसदीय परंपरा की कितनी इज्जत है, यह तब जाहिर हो गया जब नृपेन मिश्र को प्रधानमंत्री का प्रमुख सचिव बनाने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया गया। टेलीकॉम रेगुलेटरी ऑथरिटी ऑफ इंडिया का अध्यक्ष रहने के नाते मिश्र अब किसी सरकारी पद पर नियुक्त नहीं हो सकते थे। ऐसा प्रावधान TRAI Act, 1997की धारा 5(8) में है। इससे उबरने के लिए सरकार ने निसंकोच अध्यादेश जारी कर दिया। यूपीए सरकार पर अध्यादेशों के जरिए संसदीय मर्यादा के उल्लंघन का आरोप लगाने वाली भारतीय जनता पार्टी ने इस मामले में कैसा मानदंड अपनाया यह साफ है। (http://bit.ly/1owIgqM)

सारीसत्ता एक दफ्तर या व्यक्ति के हाथ में केंद्रित हो जाए और नियम-कानून का कोई बंधन ना रहे, तो कॉरपोरेट सेक्टर और दूसरे शासक वर्गों के लिए इससे बेहतर बात कोई और नहीं होगी। इसलिए लोकतंत्र के लिए हानिकारक प्रवृत्ति का अगर मेनस्ट्रीम मीडिया जयगान कर रहा है, तो उसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। मगर यह वक्त है जब तमाम जनतांत्रिक ताकतों के कान खड़े हो जाने चाहिए। मसीहा और सुपर हीरो का उदय हमेशा लोकतंत्र की कीमत पर होता है। इतिहास में इसकी अनगिनत मिसालें हैं। 

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही 
फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

खेल शुरू हो चुका है...

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  -आनंद तेलतुंबड़ेअनुवाद-रेयाज उल हक

गरीबों-उत्पीड़ितों की हिमायत के ऐलान के साथ मोदी सरकार के बनते ही भगाणा के आंदोलनकारी दलित परिवारों को जंतर मंतर से बेदखल करने की कोशिशों और पुणे में एक मुस्लिम नौजवान की हत्या में आनंद तेलतुंबड़े ने आने वाले दिनों के संकेतों को पढ़ने की कोशिश की है.

(हाशियासे साभार)

http://3.bp.blogspot.com/-vTBs1TDnW7Q/U5dOl1w7EqI/AAAAAAAAC7I/5q0cg_t9W5Y/s1600/Bhagana+2.jpg
ब इस आधार पर कि लोगों ने भाजपा की अपनी उम्मीदों से भी ज्यादा वोट उसे दिया है और नरेंद्र मोदी ने ‘अधिकतम प्रशासन’ की शुरुआत कर दी है, बहुत सारे लोग यह सोच रहे थे कि हिंदुत्व के पुराने खेल की जरूरत नहीं पड़ेगी. अपने हाव-भाव और भाषणों के जरिए मोदी ने बड़ी कुशलता से ऐसा भ्रम बनाए भी रखा है. इसके नतीजे में मोदी के सबसे कट्टर आलोचक तक गलतफहमी के शिकार हो गए हैं. यहां तक कि जिन लोगों ने भाजपा को वोट नहीं दिया है, उनमें से भी कइयों को ऐसा लगने लगा है कि मोदी शायद कारगर साबित हों. लेकिन संसद के केंद्रीय कक्ष में, भावनाओं में लिपटी हुई लफ्फाजी से भरे ऐलान के आधार पर यह यकीन करना बहुत जल्दबाजी होगी कि मोदी सरकार गरीबों और उत्पीड़ितों के प्रति समर्पित होगी. तब भी कइयों को लगता है कि चूंकि वे एक साधारण पिछड़ी जाति के परिवार से आते हैं और पूरी आजादी से काम करते हैं, इसलिए हो सकता है कि गरीबों और उत्पीड़ितों के प्रति ज्यादा संवेदनशील हों. नहीं भी तो वे मुसलमानों (जिन्होंने मोदी को वोट नहीं दिया है) और दलितों (जिन्होंने भारी तादाद में उन्हें वोट दिया है) के प्रति संवेदनशील होंगे. यही वे दो मुख्य समुदाय हैं जिनसे मिल कर वह गरीब और उत्पीड़ित तबका बनता है, जिसके प्रति मोदी समर्पित होने की बात कह रहे हैं. 

लेकिनइस हफ्ते हुई दो महत्वपूर्ण घटनाओं ने इन उम्मीदों को झूठा साबित कर दिया. दलितों के बलात्कारों और हत्याओं की लहर तो चल ही रही थी, उनके साथ साथ घटी इन दो घटनाओं ने ऐसे संकेत दिए हैं कि शायद पुराना खेल शुरू हो चुका है.

दलितों की नामुराद मांगें

भगाणा की भयानक घटना देश को शर्मिंदा करने के लिए काफी थी: घटना ये है कि हरियाणा में 23 मार्च को 13 से 18 साल की चार लड़कियों को नशा देकर रात भर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया, फिर प्रभुत्वशाली जाट समुदाय के ये अपराधी उन्हें ले जाकर भटिंडा रेलवे स्टेशन के पास झाड़ियों में फेंक आए. लेकिन इसके बाद जो हुआ वह कहीं अधिक घिनौना और शर्मनाक है. लड़कियों को मेडिकल जांच के दौरान अपमानजनक टू फिंगर टेस्ट से गुजरना पड़ा, जिसका बलात्कार के मामले में इस्तेमाल करने पर आधिकारिक पाबंदी लगाई जा चुकी है. हालांकि पुलिस को दलित समुदाय के दबाव के चलते शिकायत दर्ज करनी पड़ी, लेकिन उसने अपराधियों को पकड़ने में पांच हफ्ते लगाए. जबकि हिसार अदालत में उनको रिहा कराने की न्यायिक प्रक्रिया फौरन शुरू हो गई. और यह गिरफ्तारी भी तब हुई जब भगाणा के दलितों को उन लड़कियों के परिजनों के साथ इंसाफ के लिए धरने पर बैठना पड़ा. ये दलित परिवार अपने गांव वापस लौटने में डर रहे हैं क्योंकि उन्हें जाटों के हमले की आशंका है. भगाणा के करीब 90 दलित परिवार, जिनमें बलात्कार की शिकायतकर्ता लड़कियों के परिवार भी शामिल हैं, दिल्ली के जंतर मंतर पर 16 अप्रैल से विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. इसके अलावा 120 दूसरे परिवार हिसार के मिनी सचिवालय पर विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं. इन प्रदर्शनों के दौरान ही नाबालिग लड़कियों के बलात्कारों की अनेक भयानक खबरें निकल कर सामने आई हैं. जैसा कि एक हिंदी ब्लॉग रफू ने प्रकाशित किया है, पास के डाबरा गांव की 17 साल की एक दलित लड़की का जाट समुदाय के ही लोगों ने 2012 में सामूहिक बलात्कार किया था जिसके बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी. एक और 10 वर्षीय बच्ची का एक अधेड़ मर्द ने बलात्कार किया था. इसके अलावा एक और लड़की का एक जाट पुरुष ने बलात्कार किया जो आज भी सरेआम घूम रहा है और उल्टे पुलिस ने लड़की को ही गिरफ्तार करके उसे यातनाएं दीं. ये सारी लड़कियां इंसाफ के लिए निडर होकर लड़ रही हैं और इन विरोध प्रदर्शनों का हिस्सा हैं.

जंतरमंतर पर 6 जून को सुबह करीब 6 बजे, जब ज्यादातर प्रदर्शनकारी सो रहे थे, पुलिसकर्मियों का एक बड़ा समूह आया और उसने प्रदर्शनकारियों के तंबू गिरा दिए. उन्होंने उनके तंबुओं को जबरन वहां से हटा दिया और चेतावनी दी कि वे लोग दोपहर 12 बजे तक वहां से चले जाएं. हिसार मिनी सचिवालय में भी विरोध करने वाले इसी तरह हटाए गए. दोनों जगहों पर पुलिस ने उन्हें तितर बितर कर दिया और उनका सामान तोड़ फोड़ दिया. छोटे-छोटे बच्चों समेत ये निर्भयाएं (बलात्कार से गुजरी लड़कियों के लिए मीडिया द्वारा दिया गया नाम) सड़कों पर फेंक दी गई, लेकिन पुलिस ने उन्हें वहां भी नहीं रहने दिया. वहां पर जुटे महिला, दलित और छात्र संगठनों के प्रतिनिधियों तथा दो शिकायतकर्ता लड़कियों की मांओं को साथ लेकर प्रदर्शनकारी दोपहर 2 बजे संसद मार्ग थाना के प्रभारी अधिकारी को यह ज्ञापन देने गए कि उन्हें जंतर मंतर पर रुकने की इजाजत दी जाए क्योंकि उनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है. लेकिन इस समूह को थाना के सामने बैरिकेड पर रोक दिया गया. जब महिलाओं ने जाने देने और थाना प्रभारी से मिलने की इजाजत देने पर जोर दिया तो पुलिसकर्मी उन्हें पीछे हटाने के नाम पर उनके साथ यौन दुर्व्यवहार करने लगे. वुमन अगेंस्ट सेक्सुअल वायलेंस एंड स्टेट रिप्रेशन की कल्याणी मेनन सेन के मुताबिक, जो प्रदर्शनकारियों का हिस्सा थीं, पुलिस ने प्रदर्शनकारी महिलाओं के गुप्तांगों को पकड़ा और उनके गुदा को हाथ से दबाया. शिकायतकर्ता लड़कियों की मांओं और अनेक महिला कार्यकर्ताओं (समाजवादी जन परिषद की वकील प्योली स्वातीजा, राष्ट्रीय दलित महिला आंदोलन की सुमेधा बौद्ध और एनटीयूआई की राखी समेत) पर इसी घटिया तरीके से हमले किए गए. बताया गया कि एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी चिल्ला रहा था, ‘अरे ये ऐसे नहीं मानेंगे, लाठी घुसाओ.’ इस घिनौने हमले के बाद अनेक कार्यकर्ताओं को पकड़ कर एक घंटे से ज्यादा हिरासत मे रखा गया.

इस नवउदारवादी दौर में जनसाधारण के लिए लोकतांत्रिक जगहें सुनियोजित तरीके से खत्म कर दी गई हैं और इन जगहों को राज्य की राजधानियों के छोटे से तयशुदा इलाके और दिल्ली में जंतर मंतर तक सीमित कर दिया गया है. लोग यहां जमा हो सकते हैं और पुलिस से घिरे हुए वे अपने मन की बातें कह सकते हैं, लेकिन वहां उनकी बातों की सुनवाई करने वाला कोई नहीं होता. यह भारतीय लोकतंत्र का असली चेहरा है. इस बदतरीन मामले में गांव के पूरे समुदाय को दो महीने तक धरने पर बैठना पड़ा है, अपने आप में यही बात घिनौनी है. उनकी जायज मांग की सुनवाई करने के बजाए – वे अपने पुनर्वास के लिए एक सुरक्षित जगह मांग रहे हैं क्योंकि वे भगाणा में नहीं लौट सकते – सरकार लोकतंत्र की इस सीमित और आखिरी जगह से भी उन्हें क्रूरतापूर्वक बेदखल कर रही है. यह बात यकीनन इसे दिखाती है कि ये दलितों के लिए वे ‘अच्छे दिन’ तो नहीं हैं, जिनका वादा मोदी सरकार ने किया था. दिल्ली पुलिस सीधे सीधे केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत आता है और यहां पुलिस तब तक इतने दुस्साहस के साथ कार्रवाई नहीं करती जब तक उसे ऐसा करने को नहीं कहा गया हो. यह बात भी गौर करने लायक है कि हरियाणा और दिल्ली की पुलिस ने, जहां प्रतिद्वंद्वी दल सत्ता में हैं, समान तरीके से कार्रवाई की है. तो संदेश साफ है कि विरोध वगैरह जैसी बातों की इजाजत नहीं दी जाएगी. क्योंकि अगर जंतर मंतर और आजाद मैदान जैसी जगहें आबाद रहीं तो फिर कोई ‘अच्छे दिनों’ का नजारा कैसे कर पाएगा।

पहला विकेट गिरा

ऊपरकी कार्रवाई तो सरकार की सीधी कार्रवाई थी, लेकिन कपट से भरी ऐसी अनेक कार्रवाइयां ऐसे संगठनों ने भी की हैं, जिनके हौसले भाजपा की जीत के बाद बढ़े हुए हैं. भगाणा के प्रदर्शनकारियों को उजाड़े जाने से ठीक दो दिन पहले 2 जून को पुणे में एक मुस्लिम नौजवान को हिंदू राष्ट्र सेना से जुड़े लोगों की भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला. दशक भर पुराना यह हिंदू दक्षिणपंथी गिरोह फेसबुक पर शिव सेना के बाल ठाकरे और मराठा प्रतीक छत्रपति शिवाजी की झूठी तस्वीरें लगाए जाने का विरोध कर रहा था. पुणे पुलिस के मुताबिक, इन झूठी तस्वीरों वाला फेसबुक पेज पिछले एक साल से मौजूद था और उसको 50,000 लाइक मिली थीं. भीड़ को उकसाने के लिए हिंदू राष्ट्र सेना के उग्रवादियों ने इस बहुप्रशंसित पेज के लिंक को चैटिंग के जरिए तेजी से फैलाया. उनका कहना था कि यह पेज एक मुसलमान ‘निहाल खान’ द्वारा बनाया गया और चलाया जाता है, लेकिन पुलिस के मुताबिक यह असल में एक हिंदू नौजवान निखिल तिकोने द्वारा चलाया जाता है, जो काशा पेठ के रहने वाले हैं. फिर इस गड़बड़ी का अहसास होते ही इस पेज को शुक्रवार को सोशल नेटवर्किंग साइटों से हटा लिया गया और तब इस मुद्दे पर विरोध को हवा देने की जरूरत नहीं रह गई थी. लेकिन हिंदू राष्ट्र सेना और शिव सेना के गुंडे सोमवार को प्रदर्शन करने उतरे. पुणे के बाहरी इलाके हदसपार में शाम उन्होंने एक बाइक रोकी, इसके सवार को उतारा और उसके सिर पर हॉकी स्टिक और पत्थरों से हमला किया और दौरे पर ही उसे मार डाला. मार दिया गया वह व्यक्ति मोहसिन सादिक शेख नाम का एक आईटी-प्रोफेशनल था और उसका उन तस्वीरों से कोई लेना देना नहीं था. लेकिन चूंकि उसने दाढ़ी रख रखी थी और हरे रंग का पठानी कुर्ता पहन रखा था हमलावरों ने उसे मार डाला. शेख के साथ जा रहे उनके रिश्ते के भाई बच गए जबकि दो दूसरे लोगों अमीन शेख (30) और एजाज युसूफ बागवान (25) को चोटें आईं. पुलिस ने पहले हमेशा की तरह इस रटे रटाए बहाने के नाम पर इस मामले को रफा दफा करने की कोशिश की कि हमलावर शिवाजी की मूर्ति का अपमान किए जाने और एक हिंदू लड़की के साथ मुस्लिम लड़कों द्वारा बलात्कार किए जाने की अफवाह के कारण वहां जमा हुए थे. मानो इससे एक बेगुनाह नौजवान की हत्या जायज हो जाती हो. 

शेखकी हत्या के फौरन बाद, आनेवाले दिनों के बारे में बुरे संकेत देता हुआ एक एसएमएस पर भेजा गया जिसमें मराठी में कहा गया था: पहिली विकेट पडली (पहला विकेट गिरा है). इस संदेश को मद्देनजर रखें और शेख को मारने के लिए इस्तेमाल किए गए हथियारों पर गौर करें तो यह साफ जाहिर है कि यह एक योजनाबद्ध कार्रवाई थी. पुलिस ने रोकथाम करने के लिए कोई कदम नहीं उठाए हैं. हालांकि उसको बस इसी का श्रेय दिया जा सकता है, खास कर संयुक्त आयुक्त संजय कुमार का, कि उन्होंने हिंदू राष्ट्र सेना के प्रमुख धनंजय देसाई समेत 24 व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया है और उनमें से 17 पर हत्या का मुकदमा दर्ज किया है. देसाई पर शहर के विभिन्न थानों में पहले से ही दंगा करने और रंगदारी वसूलने के 23 मामले दर्ज हैं. लेकिन इस फौरी कार्रवाई को इसके मद्देनजर भी देखना चाहिए कि आने वाले विधानसभा चुनावों में अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए महाराष्ट्र की कांग्रेस-राकांपा सरकार अपना धर्मनिरपेक्ष मुखौटा दिखाने की कोशिश करेगी. लेकिन चूंकि मोदी सरकार इस पर चुप है, इसलिए संकेत अच्छे नहीं दिख रहे हैं.

ऐसालगता है कि खेल शुरू हो गया है. देखना यह है कि नरेंद्र मोदी इस खेल में किस भूमिका में उतरते हैं.

आनंद तेलतुंबड़े आइआइटी खड़गपुर में प्रबंधन के प्रोफेसर हैं. उन्होंने भारत में जाति, वर्ग, राजनीतिक अर्थशास्त्र और लोकतांत्रिक राजनीति पर क़रीब दो दर्जन किताबें लिखी हैं. परसिस्टेंस ऑफ़ कास्ट, ऑन इम्पेरियलिज्म एंड कास्ट और ग्लोबलाइजेसन एंड दलित उनकी कुछ चर्चित किताबें हैं. उन्हें देश और दुनिया में मौलिक प्रस्थापनाओं के लिए जाना जाता है और काफी सम्मान के साथ पढ़ा-सुना जाता है.

धारा 370: भाजपा और उसके मिथक

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-अनिल यादव

"…जहां तक राज्य मंत्री जीतेन्द्र सिंह का कुछ सीटों और वोट प्रतिशत का हवाला देकर धारा 370 कीसमाप्ति की बात करते हैं तो उन्हें यह जानना चाहिए कि भारत सरकार ने नोटाके अधिकार को जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को नहीं दिया है। क्योंकि जम्मू और कश्मीर के नागरिक जनमत संग्रह की बात लगातार करते आए हैं और भारत सरकार को यह खतरा था कि अगर वह वहां नोटा के अधिकार को देगी तो वह उसके खिलाफ एक जनमत संग्रह का प्रमाण पत्र हो सकता है।.…"

Cartoon by: @Satishacharya via Twitterहालिया, राज्य मंत्री जीतेन्द्र सिंह का धारा 370 को समाप्त करने कोलेकर आए बयानको प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और पाकिस्तान केप्रधानमंत्री नवाज शरीफ की मुलाकात को हमें जोड़कर देखना होगा। क्योंकिसंघी राष्ट्रवादपाकिस्तान विरोध और जम्मू औरकश्मीर को लेकर ही हमारेदेश में फल-फूलताहै। क्योंकि इनके पूर्वजश्यामा प्रसाद मुखर्जी नेकश्मीर संबन्धी धारा 370 के खिलाफ एक अभियान चलाकर 7 अगस्त 1952 में एकनारा दिया एक देश दो निशान, एक देश दो विधान, नहीं चलेगा। इस अनुच्देछके विरुद्धमुखर्जी ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की, जो 1980 में भाजपा केरुप में परिवर्तित हो गया। वस्तुतः भाजपा का उदय ही धारा 370 के विरोधमें हुआ। ऐसे में जब भी भाजपा राजनीति की चक्रव्यूह में फंसती है तो वहधारा 370 की संजवनीका इस्तेमाल करती है।

राज्यमंत्री जितेन्द्र सिंह कहना है कि केन्द्र सरकार जम्मू और कश्मीरके हर वर्ग के साथ बात-चीत के माध्यम से असहमति को सहमति में बदलने की कोशिश करेगी। असहमति को सहमति में बदलने के खिलाफ कश्मीर की अवाम का विरोध प्रदर्शन साफ करता है कि जम्मू और कश्मीर उनके लिए किसी आस्था का नहीं बल्कि स्वायत्ता व स्वतंत्रता से जुड़ा मसला है। बहरहाल, श्यामा प्रसाद मुखर्जी से लेकर जीतेन्द्र सिंह तक इस धारा को समाप्त करने कातर्क देश हितके रुप में देते हैं, आखिर यह देश हितक्या है। दर्शन शास्त्र में ऐसे अमूर्त विचारों और सिद्धांतों को निरंकुशता के रुप में चिन्हित किया जाता है। दक्षिणपंथी राजनीति का यही देश हितराष्ट्रपितामहात्मा गांधी की हत्या को वध बताकर तर्क संगत साबित करता है। यही देश हित’ 2002 गुजरात दंगे को क्रिया की प्रतिक्रिया बताता है। गौरतलब है कि ऐसे तमाम शब्दों के आडंबर निरंकुशता व फासीवाद के पोषक होते हैं।

लोकसभाचुनावों के मद्देनजर दिसंबर 2013 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी  ने एक रैली में धारा 370 के लाभ-हानि को अपने विवेकके तराजू पर तौलकर उसे समाप्त करने की घोषणा कर दी थी। दक्षिणपंथी हिन्दुत्वादी गुट धारा 370 को लेकर लगातार एक भ्रामक प्रचार करते हैं कि यह महिला विरोधी है। वे भ्रम फैलाते हैं कि जम्मू और कश्मीर की कोई महिला यदि देश के अन्य किसीव्यक्ति से शादी करती है तो वो अपनी सम्पत्ति के अधिकार के साथ ही साथ उसकी कश्मीर की नागरिकता भी समाप्त हो जाती है। जबकि महिला की संपत्ति और नागरिकता का संबंध धारा 370 से नहीं बल्कि जम्मू और कश्मीर के राज्य के संविधान के कानून से था, जिसे जम्मू और कश्मीर के उच्च न्यायालय ने 2002 में ही समाप्त कर दिया था। परन्तु प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी सहिततमाम भाजपा व संघ के नेताओं द्वारा यह मिथक प्रचारित किया जाता रहा है।

एकतरफ जहां पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को आने का न्योता दिया जाता है तो वहीं दूसरी तरफ जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को चिढ़ाने के लिए जिस तरह से धारा 370 को समाप्त करने का बयान दिया गया उससे स्पष्ट होता है कि यह सरकार इस मुद्दे का कोई तार्किक हल नहीं चाहती। जहां तक राज्य मंत्री जीतेन्द्र सिंह का कुछ सीटों और वोट प्रतिशत का हवाला देकर धारा 370 कीसमाप्ति की बात करते हैं तो उन्हें यह जानना चाहिए कि भारत सरकार ने नोटाके अधिकार को जम्मू और कश्मीर के नागरिकों को नहीं दिया है। क्योंकि जम्मू और कश्मीर के नागरिक जनमत संग्रह की बात लगातार करते आए हैं और भारत सरकार को यह खतरा था कि अगर वह वहां नोटा के अधिकार को देगी तो वह उसके खिलाफ एक जनमत संग्रह का प्रमाण पत्र हो सकता है। इसलिए भाजपा को यह समझ लेना चाहिए कि देश जुमलों से नहीं चलता हैं, जम्मू और कश्मीर की अवाम को सेना से नहीं बल्कि उनके अधिकारों के संरक्षण व उनकी स्वयतत्ता औरस्वतंत्रता जैसे मसलों पर हमें गंभीर होना होगा। 

कश्मीरसे जुड़े मुद्दों पर सेवानिवृत्त न्यायाधीश सगीर अहमद के नेतृत्व में मनमोहन सिंह की सरकार द्वारा गठित पाचवी कार्य समिति ने अपनी अनुसंशा में कहा है कि कश्मीर के लोगों को ही तय करना है कि वह धारा 370 के तहत विशेष दर्जा चाहते हैं यानहीं। कश्मीर मसले का हल संघ कार्यालयसे नहीं बल्कि कश्मीर की अवाम से बात-चीत पर ही संभव है। जीतेन्द्र सिंह को बताना चाहिए कि अगर उनकी कश्मीर के लोगों से बात-चीत थी तो उनके इस बयान के बाद वहां हो रहे विरोध प्रदर्शन का आधार क्या है। राज्य मंत्री के अतार्किक बयान के आधार को हम पा´चजन्य के सोशल साइट्स पर देख सकते हैं। पर मंत्री महोदय को जाननाचाहिए कि देश पा´चजन्य से नहीं बल्कि डा0 भीमराव अम्बेडकर द्वारा लिखित संविधान से चलता है।

हिन्दुत्वादी धारा कहती है कि धारा 370 वास्तविकता के मुकाबले एक मानसिक  बाधा है। जम्मू और कश्मीर में आखिर बाधा क्या है? प्रसिद्ध मानवाधिकार नेता गौतम नवलखा द्वारा जारी रिपोर्ट अत्याचार और पीड़ामें बताया गया है कि पिछले दो दशक में उत्तर कश्मीर के मात्र दो जिलों- कुपवाड़ा और वारामूला के पचास गांव से 500 व्यक्ति या तो मार दिए गए हैं या तो अभी तकलापता हैं। सेना द्वारा किए जा रहे अत्याचार जग जाहिर है। जम्मू और कश्मीर तथा धारा 370 पर बहस करने वालों को यह जान लेना चाहिए कि यह धारा भारत और कश्मीर का एक पुल है, इसे खत्म करने का अर्थ कश्मीर से अलग होना ही है, इन सारे तथ्यों को नजरंदाज कर भाजपा दूसरा मुद्दा उठा रही है। भाजपा के घोषणा पत्र या संघ के मुखपत्र इस बात की पुष्टि करतें हैं किभाजपा की नीति में हथियारों का खेल खेलना प्रमुख एजेंडा होगा। देश की तमाम सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों को सशक्त बनाने के नाम पर देश में तनाव का वातावरण कायम कर जनता के बुनियादी सवालों से ध्यान हटाने की कोशिश मात्र है धारा 370 खत्म करने का बयान। 


 अनिल यादव
110/46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट
लाटूश रोड
, नया गांव, ईस्ट लखनऊ, उत्तर प्रदेश

प्रहार एनजीओज या असहमति पर?

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-सत्येन्द्र रंजन

 "...खुद आईबी की रिपोर्ट यह मानती है कि गैर सरकारी संगठन लोगों से जुड़ी चिंताओं का इस्तेमाल करते हैं। क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह पहले लोगों की इन चिंताओं के निवारण पर ध्यान देएनजीओज कई मौकों पर नीतियों एवं उन पर अमल की उचित आलोचना भी प्रस्तुत करते हैं। उन्हें बेशक कानून के दायरे में रह कर काम करना चाहिए, मगर आलोचना एक मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकार है, इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती।..."

कार्टून साभार- http://www.shanland.org/
बात आगे बढ़ाने से पहले यह साफ कर लें कि गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओज) और उन्होंने गतिविधियों की जैसी संस्कृति बनाई है, मैं उसका समर्थक नहीं हूं। इन संगठनों से मेरी निम्नलिखित आपत्तियां हैं-
-    इन संगठनों ने सामाजिक गतिविधियों और जनसंघर्ष को कारोबार बना दिया है।  
- आम तौर पर इनका अपना कोई स्व-निर्धारित एजेंडा नहीं होता, उनका एजेंडा फंडिंग एजेंसी की प्राथमिकताओं से तय होता है।  
- एनजीओ सार्वजनिक महत्त्व के मुद्दों पर विवेकपूर्ण नजरिया अपनाने के बजाय चरमपंथी दृष्टिकोण अपनाते हैं। उनमें अपना नजरिया सही होने का भाव कट्टरपंथ की सीमा तक भरा होता है। दूसरे पक्ष को ना सुनने या खुद से असहमत पक्ष को बेईमान समझने का भाव लेकर वे चलते हैं।  
- उनकी आंतरिक कार्य-प्रणाली नौकरशाही आधारित है, जिसमें कार्यकर्ता असल में कर्मचारी बन जाते हैं। अंदरूनी निर्णय प्रक्रिया में ऐसे कर्मचारियों की कोई भूमिका नहीं होती।  
-  इन आरोपों में दम है कि ये संगठन जिन कार्यों या उद्देश्यों के लिए अनुदान प्राप्त करते हैं, उसका उपयोग उससे इतर भी करते हैं। परोक्ष रूप से राजनीतिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी बढ़ती गई है।  
- इन संगठनों की समाज में नैराश्य और विवेकहीनता का माहौल बनाने में बड़ी भूमिका रही है, जिसका लाभ धुर दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक ताकतों ने उठाया है।
      
बहरहाल,इन आलोचनाओं का अलग संदर्भ है, जिस पर विस्तार से चर्चा की जरूरत है। एनजीओज को जवाबदेह और उनकी कार्य-प्रणाली को पारदर्शी अवश्य बनाया जाना चाहिए। लेकिन जिस रूप में फिलहाल ये चर्चा सामने लाई गई है, (http://bit.ly/1kRK1L9) उससे इस आशंका को बल मिलता है कि असल निशाना सिर्फ (भटके) एनजीओ नहीं, बल्कि प्रतिरोध और असहमति है।

इसके लिए खुफिया ब्यूरो (आईबी) से रिपोर्ट तैयार कराई गई है। (http://bit.ly/1oc582N). आईबी ने ये रिपोर्ट सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी। गृह मंत्रालय तक को इसकी जानकारी नहीं थी, जिस बात को सीधे गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने स्वीकार किया। (http://bit.ly/1vaqi17). आईबी की रिपोर्ट आते ही प्रधानमंत्री कार्यालय ने विभिन्न मंत्रालयों से एनजीओज के बारे में जानकारी मांग कर यह साफ किया कि वह इस मामले में कितनी शीघ्र कार्रवाई करने के मूड में है। (http://bit.ly/UztFCd). फिर खबर आई कि गृह मंत्रालय 10 एनजीओज को कारण बताओ नोटिस जारी कर रहा है और उनमें एक- ग्रीनपीस- को ये नोटिस भेजा भी जा चुका है। (http://bit.ly/1luv5Hy)

आईबीकी रिपोर्ट का सार यह है-
- विदेशी धन से चलने वाले कई एनजीओ भारत के आर्थिक विकास पर बुरा प्रभाव डाल रहे हैं। 
- ये जनता की चिंता से जुड़े मुद्दों का इस्तेमाल कर ऐसा माहौल बना रहे हैं, जिससे विकास परियोजनाएं बाधित हुई हैं। 
- आईबी ने अनुमान लगाया है कि ऐसे अभियानों से सकल घरेलू उत्पाद पर सालाना 2-3 प्रतिशत नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। 
- आईबी ने ऐसे सात क्षेत्रों का जिक्र किया है, जिन्हें एनजीओज ने निशाना बना रखा है। परमाणु ऊर्जा संयंत्रों, यूरेनियम खनन, ताप विद्युत संयंत्रों, कृषि बायोटेक्नोलॉजी, बड़ी औद्योगिक परियोजनाओं, पनबिजली परियोजनाओं और खनन को ऐसा क्षेत्र बताया गया है। 
- रिपोर्ट के मुताबिक पहले एनजीओ पहले जातीय भेदभाव, मानवाधिकार और विस्थापन का मुद्दा उठा कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को बदनाम करने की कोशिश करते थे। अब उन्होंने आर्थिक विकास परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया है। 
- इस वर्ष (2014 में) ये संगठन इलेक्ट्रॉनिक कचरे को मुद्दा बना कर भारत की सूचना तकनीक कंपनियों के लिए मुश्किल खड़ा करने वाले हैं। 
- ध्यानार्थ यह है कि आईबी ने हालांकि देश की आर्थिक सुरक्षा के लिए खतरा बने विदेशी धन प्राप्त एनजीओ पर रिपोर्ट तैयार की, लेकिन उसने उसमें गुजरात के अनेक जन संगठनों को भी शामिल किया है। (http://bit.ly/1xUvcSm). क्या यह महज संयोग है कि गुजरात में भूमि अधिग्रहण आदि मुद्दों पर आंदोलन करने वाले संगठनों के बारे में ऐसी रिपोर्ट आने के तुरंत बाद नर्मदा कंट्रोल ऑथरिटी ने सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई 17 मीटर बढ़ाने की इजाजत दे दी, जिससे बड़ी संख्या में लोग- खासकर आदिवासी विस्थापित होंगे। (http://bit.ly/1mRKmyS)
यहफैसला ये दलील देते हुए किया गया कि गुजरात में सिंचाई, बिजली और पेय जल उपलब्ध कराने के लिए बांध की ऊंचाई बढ़ाना जरूरी है। मगर हकीकत यह है कि गुजरात का मुख्यमंत्री रहते हुए नरेंद्र मोदी ने राज्य के कोने-कोने तक पानी पहुंचाने कि लिए आवश्यक बुनियादी ढांचा बिछाने पर ध्यान नहीं दिया। इसके लिए नहरें बनाई जाने थीं, जो नहीं बनी हैं। (http://bit.ly/1qKrvK9तो क्या यह निष्कर्ष निकालना गलत होगा, जिस तरह गुजरात मॉडल का मिथ प्रचारित कर वे चुनाव में मतदाताओं को भ्रमित करने में सफल रहे, वैसी ही कोशिश सिंचाई, बिजली और पेय जल की बातें करते हुए की जा रही हैऔर आईबी का इस्तेमाल विरोध की संभावना को खत्म करने के लिए किया जा रहा है? इस क्रम में बांध की ऊंचाई बढ़ने से विस्थापित होने वाले लोगों की चिंता दरकिनार कर दी गई है। (http://bit.ly/1pugIWO)

इससंदर्भ में द इंडियन एक्सप्रेस में छपी ये रिपोर्ट महत्त्वपूर्ण है कि आईबी की रिपोर्ट में नरेंद्र मोदी के एक पूर्व भाषण के अंशों को उठा कर सीधे शामिल कर लिया गया। (http://bit.ly/1v7mAVU)

डेवलमेंटऔर सोशल सेक्टर में काम करने वाले संगठनों से भारतीय जनता पार्टी का विरोध पुराना है। अतः आईबी रिपोर्ट की जो पृष्ठभूमि और संदर्भ है, उसमें इस शक का वाजिब आधार बनता है कि नरेंद्र मोदी सरकार राजनीतिक कारणों से ऐसे संगठनों पर नकेल कसने की तैयारी में है।

इससिलसिले में यह रेखांकित किए जाने की जरूरत है कि एनजीओ अगर कोई कानून तोड़ते हैं, या अपने दायरे से बाहर जाकर काम करते हैं, अथवा वे किसी विदेशी कंपनी या सरकार के इशारे पर अभियान चलाते हैं तो उन अवश्य कार्रवाई होनी चाहिए। लेकिन ऐसा तथ्यों के आधार पर ही होना चाहिए। कौन सी गतिविधि देश के आर्थिक हित में है और कौन सी नहीं, इस बारे में अलग-अलग समझ की गुंजाइश है। कम से कम यह आकलन करना आईबी जैसी एजेंसी का काम नहीं है।

एनजीओजकी समाज में क्या भूमिका हो, इस सवाल का दायरा बड़ा है। (http://bit.ly/TMlHoo). इस सवाल से निपटने का विवेकपूर्ण तरीका इस मुद्दे से जुड़े सभी पक्षों और पहलुओं पर ध्यान देना है, ना कि सिर्फ अपनी समझ के आधार पर कानून और पुलिस का सहारा लेकर असहमति जताने वाले संगठनों का गला घोंट देना।

खुदआईबी की रिपोर्ट यह मानती है कि गैर सरकारी संगठन लोगों से जुड़ी चिंताओं का इस्तेमाल करते हैं। क्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में यह सरकार की जिम्मेदारी नहीं है कि वह पहले लोगों की इन चिंताओं के निवारण पर ध्यान देएनजीओज कई मौकों पर नीतियों एवं उन पर अमल की उचित आलोचना भी प्रस्तुत करते हैं। उन्हें बेशक कानून के दायरे में रह कर काम करना चाहिए, मगर आलोचना एक मूलभूत लोकतांत्रिक अधिकार है, इस तथ्य की अनदेखी नहीं की जा सकती। (http://bit.ly/1prPf8d). इस संदर्भ में पूर्व पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की टिप्पणी गौरतलब है, जिसमें उन्होंने कहा है कि उन्हें एनजीओज से कोई लगाव नहीं है, लेकिन प्रतिपक्ष के रूप में उनकी उपस्थिति बने रहने का अपना महत्त्व है। (http://bit.ly/1lhv5WG)

इस सिलसिले में खास सवाल यह है कि एनजीओज पर शिकंजा कसने की कोशिश को क्या असहमति पर हो रहे प्रहार से अलग कर देखना संभव है? आलोचनात्मक टिप्पणियों के प्रति पुलिस की कार्रवाई कितनी सख्त हो चुकी है, इसकी मिसाल सोशल मीडिया या दूसरे माध्यमों का इस्तेमाल करने वाले अनेक लोग भुगत रहे हैं। केरल में हाल में सात लोग गिरफ्तार हुए हैं (http://bit.ly/1p0wwio) जबकि 11 छात्रों पर मुकदमा दर्ज हो चुका है। (http://bit.ly/1luvPw5)
जिस सरकार बलात्कार के आरोपी मंत्री हैं, (http://bit.ly/1qKrsOd), एक ऐसे मंत्री हैं जिनके सेनाध्यक्ष रहते हुए उठाए कदमों को खुद वर्तमान सरकार ने गैर-कानूनी, असंगत और पूर्व नियोजित बता चुकी है (http://bit.ly/1veDCl9), वह अपनी छवि सुधारने के लिए आलोचकों पर नियंत्रण करने की कोशिश करे, तो उसके निहितार्थ समझे जा सकते हैं।

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लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही 
फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

हे IRCTC ! ट्रेन का टिकिट मांगा है, लोकसभा का नहीं...

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- Umesh Pant
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Umesh author. Story, poetry and journalistic writing. piggy bank runs a blog by name.
They can be contacted at mshpant@gmail.com.

गैर-बराबरी तो फिर अमन कैसे?

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-सत्येंद्र रंजन

"...थॉमस पिकेटी की किताब ने दुनिया में बहस का रुख मोड़ दिया है। अपने देश के हुक्मरानों को भी आमदनी एवं संसाधनों के न्यायपूर्ण पुनर्वितरण पर अब सोचना होगा। वरना, वे देश में अशांति को न्योता देंगे।..."


शायद यह अतिरंजना हो, लेकिन पश्चिमी मीडिया में थॉमस पिकेटी को नया कार्ल मार्क्स भी कहा गया है। ऐसा उनके प्रशंसकों ने तो संभवतः कम कहा है, लेकिन उन लोगों को उनमें मार्क्स की छाया ज्यादा नजर आई है जो गैर-बराबरी का मुद्दा उठते ही खलबला जाते हैं। उनके लिए सबसे अच्छी बात तो यह होती है कि यह सवाल कालीन के नीचे दबा रहे, लेकिन अगर किसी ने इसे उठा दिया तो वे उसकी समझ और साख को संदिग्ध बनाने की मुहिम में पूरी ताकत से जुट जाते हैं। उनकी परेशानी का सबब यह है कि पिकेटी ने अपनी किताबकैपिटल इन ट्वेन्टी-फर्स्ट सेंचुरीमें आमदनी और धन की विषमता को तथ्यात्मक एवं तार्किक ढंग से पूंजीवादी व्यवस्था का परिणाम सिद्ध कर दिया है। उन्होंने इन दावों को निराधार ठहरा दिया है कि ये व्यवस्था उद्यम और प्रतिभा को प्रतिस्पर्धा के समान अवसर उपलब्ध कराती है। अगर ये धारणा टूट जाए तो पूंजीवादी व्यवस्था का औचित्य जनमत के कठघरे में खड़ा हो जाएगा। 2011में ऑक्यूपाई वॉल स्ट्रीट आंदोलन ने एक प्रतिशत बनाम 99प्रतिशत का नारा उछाला था। जाहिर है, उसे तब मिली सफलता कारण बढ़ती गैर-बराबरी से लोगों की नाराजगी थी। अब फ्रेंच अर्थशास्त्री थॉमस पिकेटी ने इस बहस को ग्राफ, सारणी, आंकड़ों और तर्कों से इतना सशक्त बना दिया है कि उनके निष्कर्षों का खंडन नव-उदारवाद के घोर समर्थक भी नहीं कर पा रहे हैं।
तोआखिर पिकेटी के निष्कर्ष क्या हैं? इसे खुद उनके शब्दों में ही समझते हैं। एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा- मेरी किताब औद्यगिक क्रांति के बाद से 20से ज्यादा देशों में आमदनी और धन के वितरण के इतिहास से संबंधित है। इतिहास हमें बताता है कि शक्तिशाली ताकतें दोनों ही दिशाओं (समता और विषमता) में जाती हैं। उनमें कौन मजबूत पड़ेगा वह मौजूद संस्थाओं और उन नीतियों पर निर्भर करता है जिन्हें हम सामूहिक रूप से अपनाते हैं। ऐतिहासिक रूप से देशों के अंदर और देशों के बीच समता लाने वाली मुख्य शक्ति ज्ञान एवं कौशल का प्रसार रही है। लेकिन समावेशी शिक्षण संस्थाओं और कौशल विकास में निरंतर निवेश के बगैर यह प्रक्रिया ठीक ढंग से काम नहीं कर सकती।पिकेटी ने बताया है कि ज्यादा शक्तिशाली ताकतें इस प्रक्रिया को रोक देती हैं। नतीजतन पूंजी पर मुनाफा अर्थव्यवस्था वृद्धि दर से अधिक हो जाता है। इससे विषमता बढ़ती है। ऊपरी वर्ग के लोगों के हाथ में धन अधिक पहुंचता है और उत्तराधिकार के रूप में उनके परिवार में सिमटा रहता है। पिकेटी के मुताबिक 1987-2013की अवधि में पूंजी पर मुनाफा विकास दर की तुलना में बढ़ता गया।



पिकेटीने इसकी व्याख्या की है कि
1914से 1945के बीच पूंजीवादी दुनिया में विषतमा क्यों घटी। खुले बाजार की नीतियों के समर्थक इस दौर को ही पूंजीवाद के तहत उद्यम भावना और हुनर के फूलने-फलने का दौर बताते हैं। मगर पिकेटी कहते हैं कि ऐसा उस काल में पूंजी को लगे झटकों की वजह से हुआ। वो दो विश्व युद्धों का काल है, जिस दौरान महंगाई दर तेज रही और अमेरिका महामंदी का शिकार हुआ। इस वजह से अमेरिका और यूरोप में नई वित्तीय एवं सामाजिक संस्थाएं बनानी पड़ीं। विश्व युद्धों से हुए नुकसान के बाद नव-निर्माण के कार्य में सार्वजनिक निवेश पड़े पैमाने पर हुआ, जिससे रोजगार के लाभकारी अवसर पैदा हुए। इससे आर्थिक विकास के लाभ अधिक लोगों के हाथ में पहुंचे और गैर-बराबरी घटी। लेकिन जैसे ही पूंजीवाद स्थिर हुआ, पूंजी पर मुनाफे का अनुपात बढ़ने लगा और अब यह आर्थिक विकास से लगभग स्वतंत्र हो गया है। इसका प्रमाण यह है कि अमेरिका में 2007में आई मंदी के बाद भी बड़ी कंपनियों के कार्यकारी अधिकारियों के वेतन-भत्तों और बोनस में इजाफा होता गया, जबकि लाखों लोगों की नौकरियां गईं और उनकी तनख्वाह में कटौती हुई। यह पूरी परिघटना यूरोप और दुनिया के दूसरे हिस्सों में भी दोहराई गई है।


औरइनमें अपना भारत भी है। भारत की कथा तो और फिर जटिल है। विकसित देशों में तो कम से कम इस बात के विश्वसनीय आंकड़े मौजूद हैं कि कितना राष्ट्रीय धन पैदा हो रहा है और उसमें कितना किस वर्ग के हाथ में जा रहा है। भारत का हाल क्या है? इस बारे में पिकेटी की राय जानना उपयोगी होगा। उन्होंने कहा है-
भारत में आमदनी की गैर-बराबरी को मापने में बड़ी समस्याएं हैं। बेशक आंकड़ों की समस्या हर देश में है। लेकिन सभी लोकतांत्रिक देशों के भीतर भारत संभवतः अकेला देश है जहां के आंकड़े पाने में हमें सबसे ज्यादा दिक्कत हुई। खासकर भारत के आय कर प्रशासन ने आय कर के आंकड़ों को विस्तृत रूप से तैयार करने का काम लगभग छोड़ ही दिया है, हालांकि ऑल इंडिया इनकम टैक्स स्टैटिस्टिक्स नामक विस्तृत वार्षिक रिपोर्ट 1922से 2000तक के मौजूद हैं। पारदर्शिता का यह अभाव समस्यामूलक है, क्योंकि इस वजह से खुद दी गई जानकारियों पर आधारित सर्वेक्षण रिपोर्टों पर निर्भर रहना पड़ता है, जो संतोषजनक नहीं हैं। आय कर के आंकड़े हर देश में सूचना के मुख्य अतिरिक्त स्रोत हैं। परिणाम यह है कि भारत में पिछले कुछ दशकों के दौरान सकल घरेलू उत्पाद का विभिन्न सामाजिक वर्गों के बीच वास्तविक बंटवारा कैसे हुआ है, इस बारे में बहुत कम जानकारी है।


यहजानकारी सामने हो, तो भयावह तस्वीर सामने आ सकती है। आखिर याराना (क्रोनी) पूंजीवाद का जितना खुला खेल अपने देश में हुआ है, उतना शायद ही किसी लोकतांत्रिक देश में हुआ हो। इस वर्ष अपने स्टेट ऑफ द यूनियन संबोधन में अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने कहा था कि बढ़ती गैर-बराबरी स्वीकार्य नहीं है और वे इसे नियंत्रित करने की नीतियां अपनाएंगे। उन्होंने संकेत दिया था कि वे इसके अस्थिरता लाने वाले परिणामों के प्रति सचेत हैं। अपने देश में अभी इस समस्या की चर्चा तक नहीं है। ऐसा सवाल उठाने वालों को समाजवाद की घिसी-पिटी विचारधारा का पैरोकार बता कर खारिज कर दिया जाता है। लेकिन ऐसा करना अब शायद संभव ना हो। इसलिए कि थॉमस पिकेटी की किताब ने दुनिया में बहस का रुख मोड़ दिया है। अपने देश के हुक्मरानों को भी आमदनी एवं संसाधनों के न्यायपूर्ण पुनर्वितरण पर अब सोचना होगा। वरना, वे देश में अशांति को न्योता देंगे।



लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही 
फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

अलोकतांत्रिक जमीन तैयार करती सरकार

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-अंशु शरण

"...बहुमत लेकर आई यह सरकार अपने शुरुआत में ही एक अलोकतांत्रिक जमीन तैयार कर रही है. और असहमति की आवाजों को लगातार कुचलने की तैयारी की जा रही है…"

साभार- बामुलाहिज़ा
रकार गठन के महज एक महीने भीतर ही मोदी सरकार को लेकर जो चिंताए और आशंकाए व्यक्त की जा रही थी वो इन दिनों सरकार की कार्य शैली मे नज़र आ रही है. संसद मे प्रथम प्रवेश के दौरान माथा टेकते प्रधानमंत्री ने, रेल बजट की घोषित तिथि से पूर्व बिना किसी संसदीय चर्चा के रेल भाड़े मे अभूतपूर्व वृद्धि का जनविरोधी और अलोकतांत्रिक फैसला लेकर संसदीय मर्यदाओ को तार-तार कर दिया. जनादेश के नशे मे चूर भाजपा भूल गयी की देश की जनता ने संसद को चुना है, और संसद ने कॅबिनेट को. सवारी गाड़ी का किराया बढ़ाया जाना और उसमें भी अनारक्षित और सामान्य श्रेणी को भी वृद्धि के दायरे में लाना घोर-जनविरोधी है . इसके साथ ही डीज़ल, घरेलू गैस और केरोसिन के दाम मे वृद्धि और जेट-ईंधन, कार टी. वी. को सस्ता करना भी सरकार के नियति पर सवाल उठाती है.






सत्तापक्ष द्वारा संवैधानिक पदों को खाली करने की जल्दीबाज़ी में १७ राज्यपालों से और विभिन्न आयोगों के अध्यक्षों का इस्तीफा मांगा जाना, जबकि २००४ मे सत्ता परिवर्तन के बाद भाजपा के नेताओं ने इस तरह की कारवाई को असंवैधानिक बताया था . संसद मे महिला सुरक्षा पर बोलते प्रधानमंत्री का अपने मंत्री निहाल चंद के बलात्कार की घटना मे आरोपी होने पर चुप्पी साधे रहना, भाजपा शाषित मध्य प्रदेश का लगातार बलात्कार के मामले में शीर्ष पर होना, ये सारी घटनाएं ना सिर्फ भाजपा का दोहरा चरित्र उजागर करती हैं बल्कि उनके वरिष्ठ नेताओं की सत्ता लोलुपता भी दर्शाती है .
इसकेअलावा भी भाजपा को वैचारिक खुराक देने वाले संघ के नेताओं द्वारा "महिलाओं को विवाह के सामाजिक अनुबंध के तहत घर में रहना"या "फिर बलात्कार तो इंडिया मे होते हैं भारत मे नहीं"जैसे बयान और भाजपा नेता प्रमोद मुतालिक का पब में घुसकर महिलाओ की पिटाई करना, इनकी महिलाओं के प्रति सोच को दर्शाता है . 
सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ टिप्पणी करने के मामले में गोवा के देवू चोडानकरऔर कर्नाटक के सैयक वकासको भारी मुसीबतों से गुजरना पड़ा. वहीँ मोहसिन सादिक को भी अपनी अभिव्यक्ति की कीमत अपनी जान देकर चुकानी पड़ी.इन घटनाओं में भी सरकार की तरफ से कोई जिम्मेदार टिप्पणी न करना जहाँ एक और खुली अभिव्यक्ति को लेकर दहशत पैदा करता है. वहीँ यह अल्पसंख्यकों को असुरक्षा के भाव से घेर देता है. 

सरकारकी गैर सरकारी संगठनों पर नकेल लगाने की कवायद लोकतंत्र मे दबाव-समूह को खत्म करने की दिशा मे एक कदम है. यह सरकार उस ओर भी अग्रसर है. विकास के नाम पर लोगों को बेघर करती रही सरकार अब लोगों के हक़ के लिये लड़ने वाले संगठनो को विकास-विरोधी बता कुचलने की तैयारी में है. राजनैतिक दल भरपूर कॉर्पोरेट चंदे के दम पर चुनाव लड़ रहे हैं. ऐसे में हम कैसे विश्वास करें कि कार्पोरेट के चंदे पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी निष्पक्ष काम करेगी. ख़ास कर उन इलाकों में जहाँ जनता के प्रतिरोध से इन कॉर्पोरेट्स की कई मुनाफा बटोरू परियोजनाएं लटकी पड़ी हैं. सरकार इन प्रतिरोधों का दमन कर कॉर्पोरेट्स का रास्ता साफ़ करने की तैयारी में हैं. इसी क्रम में गैर सरकारी संगठनों को उन पर विदेशी फंडिंग का आरोप लगा कर उन्हें ख़त्म करने की कवायद की जा रही है. हद तो तब हो गयी जब विकास के समकालीन मॉडल को विभिन्न आन्दोलनों के जरिये चुनौती दे रहे गांधीवादी संगठन और उनसे जुड़े लोग भी आइ. बी. की निगरानी सूची में शामिल हो गये.
बहुमत लेकर आई यह सरकार अपने शुरुआत में ही एक अलोकतांत्रिक जमीन तैयार कर रही है. और असहमति की आवाजों को लगातार कुचलने की तैयारी की जा रही है. 

अंशु शरण वाराणसी संपर्क- 9415362110
anshubbdec@gmail.com

इराक संकट : मुल्के शाम की सुबह आख़िर कब?

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 -आदिल रजा खान

"...बीते दो हफ़्तों के दरम्यान आईएसआईएस जैसे चरमपंथी संगठन का किसी इतने बड़े देश की सत्ता और सैन्य ताक़त को चुनौती देना बेहद चौंकाने वाली बात है. दरअसल आईएसआईएस आतंकी संगठन अलक़ायदा की इराक़ इकाई से ही पैदा हुआ संगठन है जिसका नेतृत्व जॉर्डनवासी अबु मुसाब अल ज़रकावी था. ज़रकावी 2006 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया जिसके बाद अबुबक्र अल बग़दादी ने उसकी विरासत संभाली. बाद में चलकर बग़दादी ने ही आईएसआईएस की बुनियाद रखी..."

मुल्के शाम यानि पश्चिमी एशिया का वो हिस्सा जो इन दिनों आंतरिक विद्रोह से बिखरने के कगार पर है. दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में एक मेसोपोटामिया यानि आधुनिक इराक में युद्ध के हालात ने वहां के ही कुछ नागरिकों को असभ्य बना दिया है जो कि आईएसआईएस के लड़ाकों के रूप में उभरकर सामने आएं हैं.

साभार - http://collapse.com/
आईएसआईएसयानि इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया ने 10 जून को उत्तरी इराक़ के मोसूल शहर में केंद्रीय बैंक के खज़ाने से करीब 40 करोड़ डॉलर की रक़म लूटकर सनसनीखेज़ तरीक़े से एक नए जिहादी अभियान की शूरूआत कर डाली. बैंक लूटने के ठीक बाद आईएसआईएस के लड़ाकों ने मौसूल को पूरी तरह अपने कब्ज़े में लिया और युद्ध से टूट चुके देश में एक नई आफ़त खड़ी कर दी. 

इसकेबाद क्षेत्र में तेज़ी से अागे बढ़ते हुए आईएसआईएस ने उत्तरी इराक़ के बैजी स्थित प्रमुख तेल रिफाइनरी को अपने नियंत्रण में ले लिया. राजधानी बग़दाद से महज़ 150 मील दूरी पर स्थित रिफाइनरी पर सुन्नी विद्रोहियों के कब्ज़े का नतीजा ये है कि इराक़ी नागरिक आज ख़ौफ़ज़दा हैं. 15 दिनों से जारी ख़ूनी संघर्ष में अबतक करीब एक हज़ार से ज़्यादा लोगों की जानें जा चुकी हैं. लाखों इराक़ी नागरिक अपने ही देश में शरणार्थी बनकर सुरक्षित ज़मीन और छत तलाश रहे हैं. इराक़ी सेना और नागरिक लड़ाके मिलकर भी आईएसआईएस के जिहादियों का मुकाबला नहीं कर पा रहे हैं. हालत ये है कि देश में एक ही धर्म के दो विरोधी मतावलंबियों (शिया-सुन्नी) के बीच नागरिक युद्ध के आसार पैदा हो गए हैं.

आईएसआईएस का वजूद और मक़सद

बीते दो हफ़्तों के दरम्यान आईएसआईएस जैसे चरमपंथी संगठन का किसी इतने बड़े देश की सत्ता और सैन्य ताक़त को चुनौती देना बेहद चौंकाने वाली बात है. दरअसल आईएसआईएस आतंकी संगठन अलक़ायदा की इराक़ इकाई से ही पैदा हुआ संगठन है जिसका नेतृत्व जॉर्डनवासी अबु मुसाब अल ज़रकावी था. ज़रकावी 2006 में अमेरिकी ड्रोन हमले में मारा गया जिसके बाद अबुबक्र अल बग़दादी ने उसकी विरासत संभाली. बाद में चलकर बग़दादी ने ही आईएसआईएस की बुनियाद रखी.

आईएसआईएसके ख़तरनाक मंसूबों और तेज़ी से बढ़ते उसके अभियान से ये अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि संगठन इराक, सीरिया, जॉर्डन, फिलस्तीन और लेबनान (लेवेंट) जैसे मुल्कों में इस्लामिक राष्ट्रवाद की स्थापना के मक़सद के काम कर रहा है. हालांकि आईएसआईएस की पृष्ठभूमि से ऐसा कहा जा सकता है कि वो कट्टर इस्लामिक राष्ट्र की स्थापना चाहता है लेकिन आईएसआईएस के मौजूदा अभियान को देखकर ये पूरी तरह स्पष्ट नहीं हो पाता कि ये राष्ट्रवादी जिहादियों का ही समूह है. संगठन में तकरीबन 1 लाख से ज़्यादा जिहादी शामिल हैं. जिसमें ब्रिटेन समेत यूरोप के कई देशों से आयातित भाड़े के लड़ाके शामिल हैं. 

आईएसआईएसलड़ाकों की विविधता और केवल संघनित तेल उत्पादन वाले क्षेत्रों को ही निशाना बनाया जाना इस बात का संकेत करता है कि इसके पीछे का एजेंडा कुछ और भी है. इसके अलावा जानकार ये भी मानते हैं कि इराक़ी सुन्नी भेदभावपूर्ण सरकारी नीतियों के बावजूद चरमपंथियों के बजाए राजनीतिक प्रक्रिया के ज़रिए अपनी दिक्कतों का हल चाहते हैं. इस स्थिति में ये कहा जा सकता है कि चरमपंथियों को जनसमर्थन प्राप्त नहीं हैं.

आईएसआईएस के उदय के पीछे की वजह

मौजूदा संकट दरअसल इराक़ और सीरिया में तेज़ी से बदले राजनीतिक हालात की वजह से अचानक से सामने आया. सीरिया में बशर-अल-असद के ख़िलाफ़ संयुक्त मोर्चाबंदी के बावजूद असद को 80 फ़ीसदी मतों के साथ भारी सफलता मिली. इस तरह सीरिया में अमेरिकी नीति को भारी झटका लगा. परिणामतः सीरिया में असद की मुख़ालिफ़त कर रहे चरमपंथियों और इराक़ी सत्ता से असंतुष्ट विद्रोहियों को एकजुट कर एक प्रायोजित विद्रोह का मार्ग प्रशस्त किया गया.

अचानक से शुरू हुआ ये विद्रोह अपने आप में एकदम अलग और नए क़िस्म का है। आईएसआईएस का सीरिया और इराक़ के सीमावर्ती इलाके से देश के भीतरी हिस्से में प्रवेश करना इराक़ की जिस सरकार के लिए आज परेशानी का सबब बन गया है उसकी ज़िम्मेदार भी बहुत हद तक वो ख़ुद है.

शियाबाहुल्य इराक़ में अप्रैल में हुए चुनाव के बाद देश की बागडोर शिया नेता नूरी-अल-मलिकी के हाथों गई। चुनाव में पूर्ण बहुमत हासिल नहीं होने के बावजूद भी अमेरिका समर्थित मलिकी, सरकार बनाने में कामयाब रहे। सरकार बनाने के ठीक बाद मलिकी ने साम्प्रदायिक नीति, ख़ासकर सुन्नी अलपसंख्य कों के ख़िलाफ भेदभावपूर्ण रवैया अपनाकर चरमपंथियों के उदय को और ज़्यादा उग्र किया जिसकी बुनियाद सऊदी अरब-अमेरिकी गठजोड़ बहुत पहले ही रख चुका था. खबरों में आई जानकारी के मुताबिक पिछले साल भी मलिकी सरकार ने ऐसे ही एक घटनाक्रम में करीब 800 से ज़्यादा सुन्नी अलगाववादियों को बंदी बना लिया था. जिसके बाद उन सुन्नी क़ैदियों के बारे में कुछ पता नहीं चल सका. 

2003 में इराक़ में अमेरिकी आक्रमण और सद्दाम हुसैन के सत्ता के अंत के बाद अमेरिका ने पूरे क्षेत्र पर अपना प्रभाव लगातार दस साल तक क़ायम रखा. पिछले साल अमेरिकी सेना की वतन वापसी जिसके पीछे कई मजबूरियां रही हैं. ख़ुद अमेरिका में वहां के नागरिकों के विरोध के बाद अमेरिका को इस क्षेत्र में अपने प्रभुत्व को क़ायम रखना एक चुनौती रही. हालांकि अमेरिका ने शुरू से ही मलिकी सरकार का समर्थन किया लेकिन मलिकी सरकार की आंतरिक नीतियों से अमेरिका ख़ुद जाल में उलझता गया. एकतरफ इराक़ में लंबे समय तक लोकतंत्र बहाली के नाम पर अरबों डॉलर पानी की तरह बहाने और अपने सैनिकों की क़ुर्बानी देने वाले अमेरिका ने अंततः अपनी पसंद की सरकार बनाने में अहम भूमिका निभाई. वहीं दूसरी तरफ अमेरिका ऐसा करके अपने पुराने साथी सऊदी अरब की नज़रों में चुभने सा लगा. क्योंकि सऊदी अरब सीधे तौर पर इराक़ में शिया हुकूमत की मुख़ालिफ़त करता रहा है.

सऊदी अरब की भूमिका

साभार - http://economictimes.indiatimes.com/
सऊदीअरब की इराक़ में शिया हुकूमत की मुखालिफत के पीछे दो अहम वजहें हैं. एक तो सऊदी अरब का व्यापारिक हित और दूसरी वजह है धार्मिक अंतर्विरोध. सुन्नी बाहुल्य सऊदी हुकूमत जो सुन्नी सम्प्रदाय के ही अलग फिरक़े (उपवर्ग) वहाबी और सलफ़ी फिरक़े से ताल्लुक रखती है और इस हुकूमत का शियाओं और सुन्नियों के ही दूसरे फिरक़े सूफ़ी सुन्नियों से गहरा धार्मिक मतभेद है. इराक़ में इस्लाम धर्म के कुछ महत्वपूर्ण स्मारक या धार्मिक स्थल मसलन कई सूफ़ियों, ख़लीफ़ाओं की दरगाह आदि है. सऊदी सरकार दरगाह संस्कृति के सख्त ख़िलाफ है और किसी भी इस्लामिक गणराज्य में ऐसी विचारधारा के प्रभुत्व को कभी बरदाश्त नहीं कर सकती है.

दूसरीमहत्वपूर्ण वजह सऊदी का व्यापारिक हित है. इराक कच्चे तेल के उत्पादन में वेनेज़ुएला. सऊदी अरब और पड़ोसी ईरान के बाद चौथे नंबर पर है. पिछले दस सालों में युद्ध से क्षतिग्रस्त इराक़ का तेल उत्पादन इस दरम्यान लगातार कम हुआ है. अब चूंकि देश में नए सिरे से सरकार और व्यवस्था क़ायम हुई है ऐसे में ये स्वभाविक है कि अपने विशाल तेल भंडार के बूते इराक़ सऊदी अरब सहित पेट्रलियम निर्यातक देशों के समूह (ओपेक) के बीच दोबारा मज़ूबूती से वैश्विक तेल बाज़ार में अपने पांव जमा सकता है. इस बात के डर से सऊदी अरब इस क्षेत्र को अशांत बनाए रखने में अहम भूमिका अदा कर रहा है.

अमेरिका की चुप्पी

इराक़ी सरज़मीं पर तेज़ी से अपना विस्तार कर रहे आईएसआईएस के लड़ाकों और उनके द्वारा जारी हिंसा को रोकने के लिए अमेरिकी सरकार ने अबतक बड़ी ही निष्क्रिय प्रतिक्रिया दी है. मलिकी सरकार की तरफ़ से अमेरिकी सैन्य मदद की गुहार के बावजूद ओबामा प्रशासन का इसमें हस्तक्षेप नहीं करना कई तरह के सवाल पैदा करता है. अंतरराष्ट्रीय मामलों के कई जानकार सीधे तौर पर ये मानते हैं कि आईएसआईएस का अभ्युदय अमेरिका के हित में है. विशेषज्ञ तो सीधे तौर पर ये आरोप लगाते हैं कि आईएसआईएस को खड़ा करने में अमेरिका का ही हाथ है. इतने कम सनय मेंआईएसआईएस के लड़ाकों की बड़ी तादाद, अत्याधुनिक हथियारों की मौजूदगी और उनका बेख़ौफ़ आगे बढ़ना इन संदेहों को पुख़्ता करता है.

मौजूदा समय में इराक़ में शियाओं की सरकार है. ऐसे में ईरान की इराक़ के साथ दोस्ती के आसार प्रबल हुए हैं. वैसे भी इन सब घटनाक्रमों के दरम्यान ही ईरान ने आईएसआईएस के ख़िलाफ इराक़ को मदद देने की पेशकश भी की है. ऐसे हालात में अमेरिका अपने पुराने प्रतिद्वंदी ईरान को इराक़ में अपना प्रभाव जमाने का कोई मौक़ा नहीं देना चाहता.

साभार- http://www.themalaysianinsider.com/
अबहालात ये हो गए हैं कि इराक़ टुकड़ों में बंटने के कगार पर है. दो अलग-अलग सम्प्रदायों के बीच नागरिक युद्ध (सिविल वार) जैसे हालात पैदा हो गए हैं. सुन्नी समुदाय मलिकी की पिछली सरकार और मौजूदा हुकूमत के साम्प्रदायिक रवैये से तंग आ चुका है तो वहीं इराक़ की डेमोग्राफी में एक अहम जगह रखने वाले कुर्दों का अपना अलग राग है. कुर्दों ने क्षेत्रीय स्वायत्ता और तेल के ख़ज़ानों पर अपना ध्यान केंद्रित किया हुआ है. कुर्दों का क्षेत्रीय शासन पहले ही संघीय सरकार के राय मशविरे के बिना अमेरिका के क़रीबी दोस्त इज़रायल को तेल का खेल चला रहा है. अरब जगत के कई देश इज़रायल को तेल की आपूर्ति के पक्ष में नहीं हैं ऐसे में असीमित तेल भंडार वाले क्षेत्र को क्षेत्रीय स्वायत्ता दिलाने के नाम पर टुकड़ों में बांटने का खतरा पैदा होता जा रहा है.

इसतरह मौजूदा संकट से ख़तरा सिर्फ इराक़ को ही नहीं बल्कि सीरिया, जॉर्डन और आसपास के कई क्षेत्रों पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं. सीरिया में भी उतने ही बुरे हालात हैं जितने कि इराक़ में. पिछले दो सालों से सीरिया में जारी संघर्ष की वजह से तकरीबन 6 लाख लोग जॉर्डन में राजनीतिक शरण ले रहे हैं जिसकी वजह से जॉर्डन भी चरमपंथियों के निशाने पर है.

इनसब हालात के बीचों-बीच इराकी नागरिक हिंसा के इस दौर में ख़ौफ की चादर ओढ़े अपने ही वतन में मुहाजिरों की तरह कोई सुरक्षित ठिकाना ढूंढ रहे हैं. इनमें जवान लड़कियां हैं, नवयुवक हैं, मासूम बच्चे हैं, बूढ़े मां-बाप हैं. वे पढ़ना चाहते हैं, खेलना, चाहते हैं, बेख़ौफ़ होकर चैन की सांस लेना चाहते हैं, अपनी तहज़ीब को ज़िदा रखना चाहते हैं और एक दशक से ये ख्बाव देख रहे हैं मुल्के शाम की भी कभी नई सुबह होगी.

आदिल युवा पत्रकार हैं. 
अभी राज्‍य सभा टीवी में काम.
संपर्क- adilraza88@gmail.com

जनमत और चुनाव नतीजों का फर्क

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-सत्येंद्र रंजन

"...राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो कांग्रेस को इस बार दस करोड़ 69 लाख वोट मिले। 2009 की तुलना में उसके वोटों में लगभग एक करोड़ 22 लाख की गिरावट आई है। लेकिन यह अंतर इतना नहीं हैजिससे तब 206 सीटें पाने वाली पार्टी इस बार महज 44 पर सिमट जाती। भाजपा को 17 करोड़ से ऊपर यानी 2009 की तुलना में करोड़ 32 लाख 22 हजार से अधिक वोट मिले। लेकिन यह बढ़ोतरी भी उतनी नहीं थी,जिससे पिछली बार 116 सीटें पार्टी को 282 सीटें मिलना तार्किक लगे। दरअसलइस बार कांग्रेस को जहां हर 24 लाख वोट पर एक सीट मिलीवहीं भाजपा को हर छह लाख वोटों पर एक सीट मिल गई। कारण वही है। भाजपा को वोट जहां मिले वहां खूब मिले। कांग्रेस के वोट बिखरे-बिखरे मिले। बहरहालसवाल यह है कि क्या हालिया चुनाव नतीजे जनमत की सही अभिव्यक्ति हैं?..."

Illustration by Shyamal Banerjee/mint
साभार-http://www.livemint.com/

सोलहवीं लोकसभा के चुनाव में मतदान का रिकॉर्ड बना। 66 प्रतिशत से अधिक मतदाता वोट डालने पहुंचे। यानी 55 करोड़ से अधिक लोग। इनमें से 1.1 एक प्रतिशत यानी साठ लाख से ज्यादा लोगों ने नोटा- यानी उपरोक्त में से कोई नहीं (नन ऑफ द एबॉव)- का बटन दबाया। ये वे लोग हैं, जिन्हें भारतीय राजनीति में उपलब्ध विकल्पों के बीच कोई अपने माफिक नहीं लगा। उन असंतुष्ट या लोकतंत्र की वर्तमान प्रणाली को भ्रष्ट मानने वाले बहुत से दूसरे लोगों से चुनाव सुधारों के बारे में से पूछें, तो वे वोटिंग मशीन पर नोटा का विकल्प मिलने को सुधार की दिशा में एक बड़ा कदम बताएंगे। 

इसकेबाद अब उनकी मांग है कि प्रतिनिधि वापसी का अधिकार दिया जाए। यानी अपने प्रतिनिधि को बदलने के लिए मतदाताओं को पांच वर्ष इंतजार नहीं करना पड़े। बीच में भी जब एक खास संख्या में लोग ऐसा करना चाहें तो उन्हें इसका अवसर मिलना चाहिए। कुछ दूसरे लोग प्रातिनिधिक जनतंत्र के बजाय प्रत्यक्ष लोकतंत्र की वकालत करते मिलेंगे। वे सीधे जनमत संग्रह से देश का शासन चलाने के पक्ष में दलील देंगे। उनका तर्क है कि हर गांव में इंटरनेट कियोस्क लगा दिए जाएं तो हर नीतिगत या दूसरे अहम मसलों पर इंटरनेट आधारित मतदान से देश का शासन चलाया जा सकता है। यानी वे जनता और सरकार के बीच संसद या विधानसभाओं की जरूरत नहीं समझते। 

मुमकिनहै कि एक युग ऐसा आए, जब सचमुच इस तरह का लोकतंत्र स्थापित करना संभव हो जाए। परंतु आज के दौर में ये बातें रूमानी ही ज्यादा हैं। कोई व्यवस्था किसी देश की सामाजिक-आर्थिक यथार्थ और मानव विकास-क्रम के स्तर से अनुरूप ही हो सकती है। भारत में वर्तमान लोकतंत्र क्रमिक रूप से अधिक जन-भागीदारी की तरफ बढ़ा है। इसका प्रमाण लोगों की मतदान और राजनीतिक चर्चाओं में बढ़ती भागीदारी है। जिस सहजता एवं शीघ्रता से यहां सत्ता परिवर्तन हो जाता है, वह भी इसी बात को पुष्ट करता है।

इसलिएभारतीय लोकतंत्र के सामने फिलहाल असली चुनौती इसके प्रातिनिधिक स्वरूप को बदलने की नहीं है। बल्कि यह है कि इस व्यवस्था में अधिकतम जन-भागीदारी और चुनावों में जन-भावनाओं की अधिकतम अभिव्यक्ति को कैसे सुनिश्चित किया जाए। इस संदर्भ में मिले वोटों के अनुपात में सीटें ना मिलना एक ठोस समस्या मानी जा सकती है। हाल के वर्षों में चुनावों में पार्टियों को मिलने वाले वोट प्रतिशत और सीटों के बीच विसंगति कुछ ज्यादा खुल कर सामने आने लगी है। 

2010में बिहार में सिर्फ 39 प्रतिशत वोट के साथ नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन ने 241 सदस्यों वाली विधानसभा में दो सौ से ऊपर सीटें जीत लीं। उधर 2012 में उत्तर प्रदेश में 30 प्रतिशत वोट के साथ समाजवादी पार्टी ने भारी जीत हासिल कर ली। उसके पहले 2007 में बहुजन समाज पार्टी ने भी वोटों के लगभग इतने ही प्रतिशत के आधार पर 403 सदस्यों की विधानसभा स्पष्ट बहुमत हासिल कर लिया था।

यह तो निर्विवाद है कि हाल के लोकसभा चुनाव के नतीजे कई अर्थों में अप्रत्याशित और चौंकाने वाले रहे। इससे भारतीय राजनीति को लेकर पिछले ढाई दशकों में बनी कुछ धारणाएं ध्वस्त हो गईं। मसलनयह राय कि अभी लंबे समय तक केंद्र में बगैर गठबंधन के कोई सरकार नहीं बन सकती। मगर इसके साथ ये विसंगति भी खुल कर उभरी कि कुछ इलाकों में संकेंद्रित समर्थन आधार के जरिए कम वोट पाकर भी अधिक सीटें जीत लेने का चलन अपने देश में बढ़ता जा रहा है। 

भारतीयजनता पार्टी ने सिर्फ 31प्रतिशत वोट पाकर पूर्ण बहुमत प्राप्त कर लिया। इसके पहले के 15 आम चुनावों में कभी ऐसा नहीं हुआ जब किसी पार्टी को 40 फीसदी से कम वोट पर स्पष्ट बहुमत मिला हो। इसके पहले सबसे कम 41.3फीसदी वोट पर जनता पार्टी को 1977 में पूरा बहुमत मिला था। दरअसलयह राजनीति के लगातार होते विखंडन का ही परिणाम है कि वोटों और सीटों के बीच विसंगति बढ़ती जा रही है।

ऐसाहोने की वजह अपनी फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की चुनाव प्रणाली है। इस प्रणाली के तहत उस उम्मीदवार को विजेता माना जाता हैजिसको किसी सीट पर सबसे ज्यादा वोट मिलते हैंभले वो वोट कितने ही कम क्यों ना हों। ऐसे में जहां मुकाबला बहुकोणीय हो वहां पर किसी सीट पर सिर्फ 20 या उससे भी कम फीसदी वोट पाने वाला उम्मीदवार भी विजेता बन सकता हैक्योंकि बाकी वोट अलग-अलग उम्मीदवारों में बंट जाते हैं। अपने देश में राजनीति के बढ़ते विखंडन यानी राजनीतिक दलों की बढ़ती संख्या और उनके बीच वोटों के बढ़ते बंटवारे के कारण इस प्रणाली के तहत मिल रहे नतीजे धीरे-धीरे बेतुके स्तर पर पहुंचते जा रहे हैं। प्रश्न यह है कि क्या इससे जनमत की सही अभिव्यक्ति हो रही है?

तो क्या अब वक्त आ गया हैजब फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम में बदलाव पर विचार किया जाए? इसका विकल्प क्या हो सकता है? सीधे आनुपातिक मतदान प्रणालीया सिंगल ट्रांफरेबल आनुपातिक प्रणालीया फर्स्ट पास्ट दो पोस्ट और आनुपातिक प्रणाली का मिला-जुला रूपजैसाकि कई देशों में अपनाया जाता है। गौर कीजिए। बहुजन समाज पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर 4.1 प्रतिशत वोट पाकर भाजपा और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर रही। लेकिन उसे सीट एक भी नहीं मिली। उत्तर प्रदेश में इस बार बहुजन समाज पार्टी को एक करोड़ 59 लाख से अधिक वोट मिलेजो 2009 की तुलना में तकरीबन सवा सात लाख ज्यादा हैं। मगर तब उसे लोकसभा की 20 सीटें मिली थीइस बार खाता नहीं खुला। राज्य में समाजवादी पार्टी को करीब 1 करोड़ 80 लाख वोट मिलेजबकि 2009 में उसे तकरीबन एक करोड़ 29 लाख वोट ही मिले थे। किंतु तब उसे 23 सीटें मिली थींइस बार वह पांच पर सिमट गई। पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे को 30 प्रतिशत वोट मगर सिर्फ दो सीटें मिलीं। दूसरी तरफ कांग्रेस ने सिर्फ 9.6 प्रतिशत वोट पा कर चार सीटें जीत लीं।

राष्ट्रीयस्तर पर देखें तो कांग्रेस को इस बार दस करोड़ 69 लाख वोट मिले। 2009 की तुलना में उसके वोटों में लगभग एक करोड़ 22 लाख की गिरावट आई है। लेकिन यह अंतर इतना नहीं हैजिससे तब 206 सीटें पाने वाली पार्टी इस बार महज 44 पर सिमट जाती। भाजपा को 17 करोड़ से ऊपर यानी 2009 की तुलना में करोड़ 32 लाख 22 हजार से अधिक वोट मिले। लेकिन यह बढ़ोतरी भी उतनी नहीं थी,जिससे पिछली बार 116 सीटें पार्टी को 282 सीटें मिलना तार्किक लगे। दरअसलइस बार कांग्रेस को जहां हर 24 लाख वोट पर एक सीट मिलीवहीं भाजपा को हर छह लाख वोटों पर एक सीट मिल गई। कारण वही है। भाजपा को वोट जहां मिले वहां खूब मिले। कांग्रेस के वोट बिखरे-बिखरे मिले। बहरहालसवाल यह है कि क्या हालिया चुनाव नतीजे जनमत की सही अभिव्यक्ति हैं?

साभार- http://ianwoolford.wordpress.com/
सिर्फसीटों पर गौर करें तो ऐसी धारणा बनती है कि 2014 के चुनाव नतीजों ने भारतीय राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण (Federalization of Polityकी परिघटना पर विराम लगा दिया। मगर क्या यह सच है? ध्यान दीजिए। 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस को 206 और भाजपा को 116 सीटें मिली थींजिनका योग 322 बनता है। इस बार भाजपा को 282 और कांग्रेस 44 सीटें मिली हैंजिनका योग 326 होता है। यानी पांच वर्ष पहले 221 सीटें बाकी दलों को गई थींइस बार ये आंकड़ा 217 है। 2006 में कांग्रेस ने28.6 और भाजपा ने 18.82 फीसदी वोट हासिल किए थे। इसका जोड़ 47.42 प्रतिशत बनता है। इस बार भाजपा ने 31 और कांग्रेस ने 19.3 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। यानी दोनों को मिला कर 50.3 फीसदी वोट मिले। मतलब यह कि दोनों राष्ट्रीय दलों के सम्मिलित वोटों में 2.88 फीसदी का इजाफा हुआ। उनकी चार सीटें बढ़ीं। क्या इस आधार पर यह कहने का आधार बनता है कि 1989 के बाद से राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण) की जो प्रक्रिया शुरू हुई थीवह 2014 में निर्णायक रूप से पलट गई है? लेकिन चुनाव परिणामों के स्वरूप से ऐसी ही धारणा बनी।

दरअसल, भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलने का कारण यह है कि उसके मजबूत आधार वाले राज्यों (गुजरात,राजस्थानमध्य प्रदेशछत्तीसगढ और झारखंड) में भी उसकी एकतरफा आंधी चली। उधर उत्तर प्रदेश,बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसके वोटों में जबरदस्त उछाल आया। वहां दूसरे तमाम दलों का लगभग सफाया हो गया। लेकिन ऐसा होने का एक कारण यह भी रहा कि भाजपा ने सहयोगी दल चुनने में बुद्धिमत्ता दिखाई। इसी कौशल से आंध्र प्रदेश में भी उसे सफलता मिली। असम में उसने अनपेक्षित कामयाबी हासिल की। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर जगहों पर उसे सफलता कांग्रेस की कीमत पर मिली। क्षेत्रीय दलों के वोटों में वह ज्यादा सेंध नहीं लगा पाई। तमिलनाडुकेरल,पश्चिम बंगालओडीशा आदि में मोदी लहर का असर दिखालेकिन यह इतनी ताकतवर नहीं थी कि भाजपा को सीटों का महत्त्वपूर्ण लाभ होता।

इसके अलावा चुनाव सुधार से जुड़े जो मुद्दे हैंउनका संदर्भ सिर्फ तकनीकीकानूनी या प्रक्रियागत नहीं है। मतलब यह कि उनका राजनीतिक संदर्भ है। वे सुधार जनता की जागरूकता और सक्रिय भागीदारी से जुड़े हुए हैं। महज कानून या संहिताएं बना कर उन मोर्चों पर ज्यादा कुछ हासिल नहीं किया जा सकता। मसलन चुनाव सुधारों पर चर्चा में आदर्श चुनाव आचार संहिता एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा है। इस संदर्भ में हमें यह याद करना चाहिए कि 2012 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के समय जब चुनाव आचार संहिता को कानूनी आधार देने की बात आईतो निर्वाचन आयोग ने इसका कड़ा विरोध किया था। मतलब यह कि चुनाव आयोग की आज की स्थिति को बेहतर माना। आयोग की राय है कि आचार संहिता को विधायी रूप दे दिया जाए तो उससे संबंधित विवाद अदालतों के दायरे में चले जाएंगे, और फैसले वर्षों तक लटके रहेंगे। जाहिर है, इसे निर्वाचन आयोग स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराने के लिहाज से माफिक नहीं मानता। ये बात क्या यह जाहिर नहीं करती कि कम से कम सियासी मामलों में जनमत का दबाव कानून से मिलनी वाली ताकत से ज्यादा कारगर होता हैआखिर आचार संहिता के मामले में चुनाव आयोग की ताकत क्या हैपूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी ने एक चर्चा के दौरान कहा था कि आयोग चुनाव आचार संहिता को लागू कर पाता हैतो इसलिए कि राजनीतिक दल उससे सहयोग करते हैं। स्पष्टतः राजनीतिक दल ऐसा करते नहींबल्कि जनमत के दबाव में उन्हें ऐसा करना पड़ता है।

यहमिसाल चुनाव सुधारों को लेकर जारी चर्चा में इसलिए महत्त्वपूर्ण हैक्योंकि जिन सुधारों की कल्पना की जाती है या इस बारे में जो भी ठोस सुझाव दिए जाते हैंउनकी सफलता इसी पर निर्भर करती है कि आखिरकार लोग उस अमल के लिए कितने निगहबान होंगे। भारतीय चुनावों की आज उच्च विश्वसनीयता कायम हो पाई हैतो इसका श्रेय चुनाव आयोग को तो जाता हैलेकिन टीएन शेषन से लेकर आज तक के दौर में निर्वाचन आयोग इसीलिए सफल हैक्योंकि उसके साथ जनमत की ताकत है। आज लगभग पूरे भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अपने यहां चुनाव भले स्वच्छ ना रह पाते हों, लेकिन परिणाम लोगों के वोट से ही तय होते हैं। मुमकिन है कि कई संदर्भों में वोट देने के पीछे जो प्रेरक कारण रहते हैं, उन्हें स्वस्थ ना माना जाए। लेकिन उनकी जड़ें हमारे अपने समाज में हैं। लेकिन इन कारणों को समझने के लिए हमें अपने सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमियों पर गौर करना होगा। मतदाता जातीय या सांप्रदायिक भावनाओं से प्रेरित होते हैंया कोई धन देकर उनके वोट खरीद लेता है- तो इन बुराइयों को चुनाव संबंधी कानून या नियमों में किसी परिवर्तन से दूर नहीं किया जा सकता।

हां, धन का प्रभाव एक बड़ा मुद्दा है। चुनावों में गैर-कानूनी धन के इस्तेमाल की शिकायत बढ़ती गई है। इससे पेड न्यूज और मतदाताओं को सीधे नकदी के भुगतान या शराब की बिक्री आदि जैसे चलन सामने आए हैं। यह आशंका बढ़ती जा रही है कि अगर इस पर नियंत्रण नहीं हुआतो लोकतंत्र असल में धन तंत्र में तब्दील हो जाएगा। हालांकि ऐसी आशंकाएं भी अक्सर लोकतंत्र के वर्गीय चरित्र की अनदेखी करके ही जताई जाती हैं। उनमें अपने लोकतंत्र के वास्तविक चरित्र की समझ का अभाव रहता हैइसके बावजूद इस आशंका को पूरी तरह निराधार नहीं कहा जा सकता। मगर इसे कैसे रोका जाएइस बारे में चुनाव आयोग जो कदम उठाता रहा हैउसका व्यवहार में कम ही असर हुआ है। बल्कि कुछ राजनीति शास्त्रियों का यह कहना बिल्कुल सही है कि पहले चुनावों में जो धन खुलकर खर्च होता थाअब वह परदे के पीछे से होने लगा है। परिणाम यह है कि प्रचारझंडेबैनर आदि पर जो पैसा खर्च होताउसे उम्मीदवार अब नकद या शराब के रूप में बांट देते हैं। ऐसे ही अनुभवों के आधार पर यह कथन अब आम हो गया है कि चुनाव आयोग पिछले डेढ़ या दो दशकों में चुनावों से गुंडागर्दी खत्म करने में तो काफी हद तक सफल है,लेकिन धन का प्रभाव वह नहीं रोक पाया है। तो इसे कैसे रोका जा सकता है?


आयोगचुनावों के दौरान खर्च पर नियंत्रण के लिए जिन कानूनों की जरूरत बताता हैउससे यह होने पाने की उम्मीद नहीं हैक्योंकि बिना कानूनी प्रावधान के भी चुनाव आयोग के पास आज पर्याप्त अधिकार हैं। आखिर कानून बन जाने से कितना फर्क पड़ जाएगाफिर राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों में पारदर्शिता के उपायों की जो मांग की जाती हैउससे सरकारों की निर्णय या नीतियों संबंधी जवाबदेही तय करने में तो काफी मदद मिल सकती हैलेकिन उससे चुनाव खर्च नियंत्रित हो सकेगा- यह मानना कठिन है। दरअसलअगर चुनावों पर धन का प्रभुत्व हैतो उसका सीधा नाता अपने समाज के ढांचे से है। एक वर्ग विभाजित और विषम समाज में महज कानून के जरिए ताकतवर के प्रभाव को नियंत्रित करने की कोशिशें कभी पूरी तरह सफल नहीं हो सकतीं। इसलिए जो लोग लोकतंत्र बनाम धनतंत्र की बहस में पड़ते हैंउन्हें धन एवं ताकत के वर्चस्व को समग्रता में समझने और समाज में उसे नियंत्रित करने के उपायों पर विचार करना चाहिए। वैसेमौजूदा परिस्थितियों में सामाजिक यथार्थ से परिचित राजनीति शास्त्रियों का यह सुझाव जरूर गौरतलब है कि चुनाव में गैर-कानूनी धन को रोकने के लिए उपाय करने के साथ-साथ यह भी जरूरी है कि इसमें अच्छे धन के लिए गुंजाइश बनाई जाए। यानी कोई धन के अभाव में चुनाव लड़ने से वंचित ना हो जाएऐसा नहीं होना चाहिए। इसलिए चुनाव के लिए सरकारी धन दिए जाने का सुझाव दिया जाता है। यह तथ्य है कि सिर्फ धन चुनाव परिणाम को तय नहीं करता। ऐसा होताहर चुनाव वही लोग जीतते जिनके पास सबसे ज्यादा धन है। फिर भी यह हकीकत जरूर है कि धन के अभाव में लोग चुनावी मुकाबले में नहीं आ पाते। ईमानदारी से समाज सेवा करने या विचारधारात्मक आग्रहों के कारण राजनीति में आने वाले लोगों के साथ अक्सर यह समस्या रहती है। अगर उनके लिए वैध धन उपलब्ध होतो अपने सामाजिक कार्यों या विचारों के कारण समाज में पहचान बनाने वाले लोगों के लिए न सिर्फ चुनाव लड़नाबल्कि धीरे-धीरे मुकाबले में अपनी उपस्थिति बनाना भी संभव हो सकता है।

यह महज संयोग नहीं है कि चुनाव सुधारों के प्रति प्रशंसनीय उत्साह दिखाने वाले पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी चुनाव लड़ने के लिए सरकारी धन दिए जाने के प्रति अनुत्साहित रहे। जबकि यह चुनाव सुधारों की दिशा में एक बुनियादी कदम साबित हो सकता है। इसके विपरीत कुरैशी ने प्रक्रियागत बदलाव के अनेक सुझाव दिए। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लिखे पत्र में उन्होंने प्रस्तावित सुधारों का विस्तार से जिक्र किया। कहा जा सकता है कि आयोग के अनुभवों के आधार पर ये सुझाव तैयार किए गए। यानी कुरैशी के सुझाव अहम हैं। उन पर गौर किया जाना चाहिए। लेकिन यह बेहिचक कहा जा सकता है कि ये सुझाव पर्याप्त नहीं हैं। बल्कि कुछ मामलों में वे नौकरशाही नजरिए से निकले लगते हैंजिनमें चिंता व्यवस्था को अधिक से अधिक लोकतांत्रिक बनाने के बजाय राजनीतिक दलों एवं उनकी गतिविधियों को नियंत्रित करने की लगती है। मसलनराजनीति का अपराधीकरण रोकने के लिए सुझाए गए उपायों को लिया जा सकता है।

अपराधी राजनीति में नहीं आएंयह सही दिशा में सोचने वाले हर व्यक्ति की इच्छा होगी। मगर ऐसा करने की कोशिश में सामाजिक संघर्षों की पृष्ठभूमि से राजनीति में आए नेताओं का रास्ता बंद कर दिया जाएयह लोकतंत्र की मूल भावना के खिलाफ होगा। अक्सर दलितपिछड़े एवं आर्थिक रूप से शोषित समूहों के हित में संघर्ष करने वाले लोगों पर अनेक तरह के मुकदमे थोप दिए जाते हैं। अगर कुरैशी के सुझावों को मान लिया जाएतो ऐसे तमाम लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लग जाएगीजिन के खिलाफ कोर्ट में आरोप तय हो चुके हों। फिलहाल यह रोक सजायाफ्ता होने पर लगती है। भारत के सामाजिक यथार्थ को देखते हुए क्या कोई न्यायप्रिय व्यक्ति इस सुझाव की तरफदारी कर सकता है

साभार - http://www.timeslive.co.za/
दरअसल, सिर्फ कानून या नियमों में बदलाव से चुनाव स्वच्छ हो जाएंगेयह आशा भी नहीं की जा सकती। ऐसे सुझाव सिर्फ उन समूहों की तरफ से आते हैंजो राजनीति की धूल-धक्कड़ से दूर हैं। यह उन लोगों की सोच है जो एक व्यक्ति- एक वोट- एक मूल्य” की व्यवस्था ने भारतीय समाज में सदियों से उत्पीड़ित समूहों को जो राजनीतिक ताकत दी हैउससे नावाकिफया खफा या खौफजदा हैं। इसीलिए चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक विषयवस्तु को जोड़ना अब बेहद जरूरी हो गया है। लेकिन यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसा करने वाली ताकतें पर्याप्त संख्या में मौजूद नहीं हैं। अपने को जन-आंदोलन कहने वाले संगठनों से ऐसी उम्मीद जरूर की जा सकती थी। लेकिन ये संगठन संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति एक गजब किस्म के द्रोह भाव से ग्रस्त नजर आते हैं। चुनावों की साख और प्रकारांतर में लोकतंत्र के विकासक्रम की सीढ़ी के रूप में संसदीय व्यवस्था की वैधता को संदिग्ध बनाने में वे और आम शासक एवं मध्य वर्ग के लोग समान धरातल पर हैं। ऐसे संगठनों या उनके कार्यकर्ताओं से संवाद करेंतो मौजूदा चुनाव प्रणाली की खामियों की एक लंबी फेहरिश्त वहां उभरती है। लेकिन इसकी बारीकी में जाएंतो यह साफ होगा कि उनकी शिकायत असल में चुनाव प्रणाली से नहींबल्कि मौजूदा लोकतांत्रिक व्यवस्था से है। इस संदर्भ में शासकसवर्ण एवं आम मध्यवर्ग की अपने लोकतंत्र से शिकायत समझी जा सकती है। वोट के अधिकार ने व्यवस्था में संख्या बल को जो ताकत दी हैउससे उनकी परेशानी स्वाभाविक है। अपनी तमाम खामियों के साथ हमारी संवैधानिक व्यवस्था ने सामाजिक लोकतंत्र का जो आधार तैयार किया है,उससे सुविधाओं एवं अधिकारों का उन समूहों तक प्रसार शुरू हुआ हैजिसकी पूर्व-व्यवस्थाओं में कोई गुंजाइश नहीं थी। जाहिर हैऐसा कुछ वर्गों के विशेषाधिकारों की कीमत पर हुआ है। इसलिए ऐसे समूहों की चर्चा में चुनाव सुधार का मतलब या मकसद राजनीति के इस लोकतांत्रिक स्वरूप को नियंत्रित करना होतो इसे समझा जा सकता है। मगर इस ऐतिहासिक प्रक्रिया के प्रति कथित जन आंदोलनों एवं उनके कार्यकर्ताओं का नकारात्मक दृष्टिकोण चुनाव सुधारों की चर्चा में जनतांत्रिक आयाम जोड़ने की राह में रुकावट बन जाएतो इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जाएगा।

फिलहाल असली मुद्दा यह है कि चुनाव सुधारों की चर्चा को महज नकारात्मक उपायों तक सीमित न रहने दिया जाए। इसमें सकारात्मक पहल की संभावना को अधिक से अधिक जगह दी जाए। एनजीओ संचालित जन आंदोलन और नौकरशाहों से इस संदर्भ में उम्मीद जोड़ने का कोई आधार नहीं हैजिनके लिए चुनाव सुधार का मतलब लोकतांत्रिक राजनीति को बदनाम करना और उसकी प्रक्रियाओं पर नियमों तथा कानूनों का ऐसा शिकंजा कसना है, जो लोकतंत्र के आगे बढ़ने का रास्ता अवरुद्ध कर दे। ऐसा संभवतः वे लोग या समूह ही कर सकते हैंजो भारतीय लोकतंत्र के प्रति सकारात्मक नजरिया रखते हैं। उन लोगों को फिलहाल उन विकल्पों पर सोचना चाहिए जिनसे भारतीय चुनावों जनमत की वास्तविक अभिव्यक्ति हो सके।





लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही 
फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

इतिहास मरता नहीं, बल्कि सवाल करता है...

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-अनिल यादव

('पलासी से विभाजन तक'के बहाने)

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प्रो. शेखर बंधोपाध्याय

"...2004में प्रकाशित ‘पलासी से विभाजन तक’ को दीनानाथ बत्रा द्वारा आईपीसी की धारा 295ए के तहत कानूनी नोटिस भेजा गया है और कहा गया है कि इसमें आरएसएस के खिलाफ अपमानजनक और अनादरपूर्ण बातें लिखी गयी हैं। इस किताब में लगभग छः या सात जगह आरएसएस का जिक्र है। ‘भारतीय राष्ट्रवाद के विविध स्वर’ नामक अध्याय में आरएसएस के बारे में शेखर बंद्योपाध्याय ने क्रिस्तोफ़ जेफ्रीला के हवाले से लिखा है- ‘‘हिन्दू महासभा ने 1924 में हिन्दू संगठन की मुहिम शुरू की और एक खुले-आम हमलावर हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना इसी साल हुई।’’ हो सकता है ऐसे ही तथ्यों से शायद दीनानाथ बत्रा की भावनाएं आहत हुई हों। परन्तु सवाल इतिहास की वस्तुनिष्ठता का है, क्या इतिहास को ‘भावनाओं’ की सीमा में कैद कर लिया जाये?..."

यी सरकार आने के बाद पिछले दिनों ‘पलासी से विभाजन तक’ नामक किताब को आरएसएस के अनुषांगी संगठन विद्या भारती के महामंत्री दीनानाथ बत्रा द्वारा कानूनी नोटिस भेजा गया है। न्यूजीलैण्ड के विक्टोरिया विश्वविद्यालय के प्रो0 शेखर वंद्योपाध्याय द्वारा लिखी गयी यह पुस्तक आधुनिक भारत के इतिहास की एक बेहतरीन पुस्तक है। इसकी गंभीरता का अंदाजा इसकी भूमिका की दूसरी पंक्ति से लगाया जा सकता है, जिसमें कहा गया है- ‘‘यह उपनिवेशी राजसत्ता से या ‘भारत पर राज करने वाले व्यक्तियों’ से अधिक भारतीय जनता पर केन्द्रित है’’। वस्तुतः इतिहास ही वह सबसे धारदार अस्त्र है जो शिक्षार्थियों में समग्रतावादी और वैज्ञानिक दृष्टि पैदा करता है और यह अकारण नहीं कि है शिक्षा के क्षेत्र में संघ परिवार का पहला और केन्द्रित हमला इतिहास पर हुआ है। इतिहास मानव जाति को सच्ची आत्म-चेतना से लैस करने का साधन है और उज्जवल भविष्य की ओर उनके बढ़ने की कुंजी भी।

2004में प्रकाशित ‘पलासी से विभाजन तक’ को दीनानाथ बत्रा द्वारा आईपीसी की धारा 295ए के तहत कानूनी नोटिस भेजा गया है और कहा गया है कि इसमें आरएसएस के खिलाफ अपमानजनक और अनादरपूर्ण बातें लिखी गयी हैं। इस किताब में लगभग छः या सात जगह आरएसएस का जिक्र है। ‘भारतीय राष्ट्रवाद के विविध स्वर’ नामक अध्याय में आरएसएस के बारे में शेखर बंद्योपाध्याय ने क्रिस्तोफ़ जेफ्रीला के हवाले से लिखा है- ‘‘हिन्दू महासभा ने 1924 में हिन्दू संगठन की मुहिम शुरू की और एक खुले-आम हमलावर हिन्दू संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की स्थापना इसी साल हुई।’’ हो सकता है ऐसे ही तथ्यों से शायद दीनानाथ बत्रा की भावनाएं आहत हुई हों। परन्तु सवाल इतिहास की वस्तुनिष्ठता का है, क्या इतिहास को ‘भावनाओं’ की सीमा में कैद कर लिया जाये? आजादी के पहले तथ्यों को यदि छोड़ भी दिया जाये तो हम पाते हैं कि संघ परिवार के तमाम संगठन आतंकी गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं। इसका उदाहरण इतिहास में भरा पड़ा है- बात चाहे 2002 में गुजरात के दंगों में या फिर उड़ीसा के कंधमाल जिले में चरमपंथी हिन्दुत्ववादी बजरंग दल की भूमिका हो या फिर समझौता एक्सप्रेस से लेकर मालेगांव विस्फोट की। क्या किसी भावनाओं की भावनाओं की खातिर इनके काले कारनामों पर इतिहास राख डाल दें?


मोदी सरकार का गठन हुए अभी महीना भी नहीं बीता कि आरएसएस के लोगों ने यह सिद्ध कर दिया कि ‘विकास-विकास’ का ढिढोरा पीटने वाली भाजपा के एजेंडे में ‘विकास’ की कोई प्राथमिकता नहीं है। धारा-370 और समान दण्ड संहिता और अब इतिहास में फेर-बदल ही उनका मुख्य एजेंडा है। इतिहास और शैक्षिक पाठयक्रमों में हस्तक्षेप का नमूना पिछली राजग सरकार में देखने को मिल गया था कि किस तरह कक्षा-ग्यारह की एनसीईआरटी के ‘प्राचीन भारत’ की किताब में प्रो0 रामशरण शर्मा के पाठ के पृष्ठों को हटा दिया गया था। इस पाठ में प्रो0 शर्मा ने महान प्राच्यवादी राजेन्द्र लाल मित्र के हवाले से तर्कसम्मत और वस्तुनिष्ठ दृष्टिकोण अपनाते हुए आर्योंं के गोमांस खाये जाने की प्रथा पर एक सशक्त लेख लिखा था। यह तथ्य सिर्फ इसलिए छिपाया गया ताकि वे ‘गाय’ पर राजनीति कर सकें।


ठीक इसी तरह अब इतिहास में नये-नये राष्ट्रीय प्रतीकों और नायकों को गढ़ा जायेगा। इसकी शुरूआत नरेन्द्र मोदी ने कर दी है। इकतीस मई को उन्होंने राणा प्रताप की जयंती पर ट्वीट करके श्रद्धांजलि दी, इस प्रकार मेवाड़ के छोटी सी रियासत के राजा प्रताप का राष्ट्रीय चरित्र उकेरा जायेगा। आखिर इतिहास के छः गौरवशाली महायुगों पर इतराने वाली दक्षिणपंथी राजनीति को सिर्फ मध्यकालीन प्रतीक ही क्यों मिलते हैं? वस्तुतः इसके पीछे की रणनीति यह है कि जब राणा प्रताप और शिवाजी सरीखे लोगों को ‘राष्ट्रनायक’ बताया जायेगा तो इसके विपरीत अकबर महान और औरंगजेब को खलनायकों की भूमिका में ही चिन्हित किया जायेगा। इस रणनीति के जरिये ही भाजपा अपने ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ के एजेण्डे के औचित्य को स्थापित करके भारत के अन्दर ‘छोटे-छोटे पाकिस्तान’ के खात्मे के नाम पर गंगा-जमुनी तहजीब को तार-तार करेगी।

मार्केकी बात यह है कि प्राचीन इतिहास को ‘हिन्दू काल’ बताने वालों के पास कोई प्रतीक प्राचीन काल का नहीं है क्योंकि जब भी प्राचीन काल बात होगी तो तमाम विरोधाभाष आयेगें जो विचारधारा के तौर पर दक्षिण पंथी राजनीति के अनुकूल नहीं है। उदाहरण के तौर पर यहाँ के मूलनिवासियों पर किये गये तरह-तरह अत्याचार सामने आयेगें कि किस तरह शिक्षा ग्रहण करने पर ऊपर पाबंदी थी। वेद के मंत्रों को सुन लेने पर कान में पिघला सीसा डालने का प्रावधान था, जो इनके ‘हिन्दुत्व’ की राजनीति के लिए घातक साबित होगा। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को ‘अजातशत्रु’ की उपाधि देने वाले पुष्पमित्र शुंग की बात क्यों नहीं करते जिसने ब्राह्मणवादी सत्ता से उत्पीडि़त हो बौद्ध धर्म ग्रहण करने वाले दलितों-पिछड़ों का सर कलम करने के लिए अलग से मंत्रालय तक खोल रखा था। आखिर ‘हिन्दूकाल’ पर इतराने वाली दक्षिणपंथी राजनीति यह प्रतीक क्यों नहीं दिखाती है? खैर ‘अजातशत्रु’ (पितृहंता) की पहचान पोरियार-अम्बेडकर की पीढ़ी करेगी और वह ‘अजातशत्रु’ के हाथों कत्ल नहीं होगी।

फिलहाल, 16 वीं लोकसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी ने ‘राष्ट्रवाद’ का नारा खूब लगाया, अब ‘उसी राष्ट्रवाद’ को बेहतर ढंग से समझाने वाली किताब ‘पलासी से विभाजन तक’ को नोटिस देना कहाँ तक जायज है? राजग की पिछली सरकार में एनसीईआरटी के निदेशक रहे जगमोहन सिंह राजपूत ने भी ‘इतिहास’ में बदलाव का संकेत दिया है। अब पूरी कवायद से इतिहास का पुनर्लेखन होगा और विगत वर्षों में इतिहास ने एक विषय के रूप में जो प्रगति की है, उसे ध्वस्त करते हुए ‘नया इतिहास’ लिखा जायेगा, जिसमें राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी की हत्या को ‘वध’ बताया जायेगा, सावरकर और अटल बिहारी के शर्मनाक माफीनामा पर पर्दा डाल दिया जायेगा। परन्तु संघ परिवार और भाजपा को नहीं भूलना चाहिए कि इतिहास मरता नहीं, बल्कि सवाल करता है।



अनिल यादव
द्वारा- मोहम्मद शुएब
एडवोकेट
110 / 46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट
लाटूश रोड, नया गांव, ईस्ट लखनऊ, उत्तर प्रदेश

ध्रुवीकरण की राजनीति में गुम अस्मिताएं

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-अरविंद शेष

"...इसलिएकम से कम यह न कहा जाए कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत ने साबित किया है कि जाति की राजनीति खत्म हो गई। जाति या अस्मिता की राजनीति खत्म नहीं हुई। बल्कि वह ज्यादा बड़ी अस्मिता में विलीन हुई है और उसमें घुल-मिल जाने के बाद जो अस्मिता की राजनीति मुखर होगी, वह ज्यादा खतरनाक साबित होगी, जिसकी गाज आखिरकार वंचित और कमजोर जातियों पर ही गिरनी है।..." 



Illustration by Shyamal Banerjee/mint
साभार-http://www.livemint.com/
रेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री के रूप शपथ-ग्रहण के बाद अब शायद यह कहना अप्रासंगिक होगा कि खुद भाजपा को भी इतनी सशक्त जीत की उम्मीद नहीं थी। इसके बावजूद अगर भाजपा ने चुनावों से पहले से ही खुद को एक तरह से जीते हुए पक्ष के रूप में पेश करना शुरू कर दिया था तो इसकी क्या वजहें रही होंगी, सोचने का मसला यह है। सवाल है कि आखिर भाजपा किस भरोसे यह दावा कर रही थी। क्या वह इस बात को लेकर आश्वस्त थी कि सियासी शतरंज पर उसने जो बिसात बिछाई है, उसमें नतीजे उम्मीद के हिसाब से ही आएंगे? वह बिसात बिछाते हुए आरएसएस या भाजपा ने किन-किन चुनौतियों को ध्यान में रखा और उसके बरक्स कौन-से मोर्चे मजबूत किए? उसके सामने चुनौतियों की शक्ल में जितनी भी राजनीतिक ताकतें थीं, उनके लिए यह अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल था कि वे आरएसएस की चालों को भांप तक नहीं पाए? आम अवाम के पैमाने पर क्या ऐसा किया गया कि अब तक भाजपा के लिए चुनौती रहा एक साधारण वोटर एक खास तरह के "हिप्नोटिज्म"की जद में आकर भाजपा के पाले में जा खड़ा हुआ? क्यों ऐसा हुआ कि यह सब विकास लगभग बिना किसी सवाल या रोकटोक के अपने अंजाम तक पहुंचा?

इसीजगह पर जवाब की तरह यह सवाल सामने आता है कि भारत जैसे देश में सामाजिक विकास फिलहाल जिस पायदान पर है, उसमें उसे अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए आखिर कौन-कौन से रास्ते अख्तियार किए जाने चाहिए? इस सवाल से अब तक सबसे बेहतर तरीके से कांग्रेस निपटती आई है। अब शायद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज भाजपा जिस बुनियाद पर अपना महल खड़ा कर सकी है, वह बुनियादी तौर पर कांग्रेस की ही तैयार की हुई है। क्या वजह है कि आजादी के बाद लगभग पूरे समय सत्ता में रहते हुए भी उसने आम जनता की समझदारी को मूल्यांकन या विश्लेषण आधारित बनाने की अपनी जिम्मेदारी की आपराधिक स्तर की न केवल अनदेखी की, बल्कि संवैधानिक तकाजों को भी ताक पर रखते हुए उसने यथास्थितिवाद की जमीन को और मजबूत ही किया? यह यथास्थितिवाद आखिर किस खास व्यवस्था के लिए खाद-पानी का काम कर सकता है, करता रहा है? यह समझने के लिए कोई बहुत ज्यादा मंथन करने की जरूरत शायद नहीं है कि कांग्रेस ने जिस खेल की जमीन तैयार की थी, उसमें भाजपा एक ज्यादा ताकतवर खिलाड़ी के रूप में इस बार सामने आई है। और पता नहीं, यह रिवायत किन हालात में शुरू हुई होगी कि अकेले भारत में नहीं, शायद समूची दुनिया की आम जनता आखिर विजेता के पक्ष में खड़ी होती है, बिना इस बात पर विचार किए कि युद्ध में किसने, किसी को पराजित करने के लिए कौन-सा तरीका आजमाया।

अपनेपिछले दो शासनकाल में कांग्रेस ने जिस घनघोर स्तर पर सबसे जरूरतमंद वर्गों की उपेक्षा की, उन्हीं आस्थाओं का नरम कारोबार किया, जिस पर भाजपा एक स्पष्ट चेहरे के साथ लोगों के सामने थी, वैसी हालत में अभाव में मरते-जीते लोगों को उनके ‘मूल’ और उनकी ‘परंपरागत’ भावनाओं और सपनों का पोषण करके बड़ी आसानी से अपने पक्ष में किया जा सकता था। यों सपनों को जमीन पर उतारना और जीवन की भूख का हल करना इस देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी की जवाबदेहियों-जिम्मेदारियों में शामिल नहीं रहा है। पिछली बार मजबूरी में वामपंथी दलों के सहयोग के चलते उसने जनता के सामने अपने सरोकार की सरकार का दावा किया भी था, लेकिन इस बार सच यही रहा कि कुल मिला कर अपने बीते एक दशक के रिकार्ड के हिसाब से कांग्रेस जनता के सामने यह पांसा भी फेंक सकने की हालत में नहीं थी। दूसरी ओर, उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में भाजपा के पास ‘जड़ों'की खुराक भी थी और अभाव में पलते समाज के सामने ‘विकास’ के मिथकों से लैस सपने भी थे। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह कि इन दोनों हथियारों के बेहतर इस्तेमाल के लिए उसके पास एक सुचिंतित तंत्र भी था जो एक ओर आरएसएस के स्वयंसेवकों के रूप में तमाम परंपरागत अवधारणाओं के औजार से लोगों के ‘मूल’ को ‘जगा’ रहा था, तो दूसरी ओर अपने कार्यकर्ताओं से लेकर मीडिया के रूप में उसे हर स्तर पर बने-बनाए कार्यकर्ता मिल गए थे, जो दिन-रात उसकी खेत की सिंचाई कर रहे थे। नतीजा सामने है।

सवालहै कि भाजपा के बरक्स जितनी भी राजनीतिक ताकतें थीं, क्या उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका समर्थक वर्ग जिस समाज का हिस्सा है, पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान सचेत तौर पर उसकी चेतना में किन-किन तरीकों से किस तरह की व्यवस्था घोल दी गई है? वह व्यवस्था ज्यादातर लोगों के लिए एक नियति की तरह है, जिस पर वे सोचना नहीं चाहते। किसी भी राजनीतिक पार्टी ने शहरों से लेकर दूरदराज के इलाकों तक में छोटे-बड़े जागरण टाइप के उन धार्मिक आयोजनों या पूजा-पाठ की सार्वजनिक गतिविधियों पर गौर करना जरूरी नहीं समझा, जिसके जरिए समाज के हिंदू मानस को तुष्ट किया गया, उसके राजनीतिक दायरे को लगातार छोटा करके एक केंद्र में समेटने की कोशिश की गई, सांप्रदायीकरण किया गया और इस तरह आखिरकार ध्रुवीकरण की राजनीति की जमीन तैयार हुई। यह ध्रुवीकरण बहुत छोटी-छोटी बातों से सक्रिय की जा सकती थी। सामाजिक चेतना के बरक्स धार्मिक चेतना को खड़ा करके उस पर हावी करने के लिए आस्था को बतौर हथियार इस्तेमाल किया गया और उसका सबसे आसाना जरिया रहा नरेंद्र मोदी के रूप में एक प्रतीक को उसी "तैयार की गई"जनता के सामने खड़ा कर देना। ये नरेंद्र मोदी "गुजरात-2002"की छवि वाले मोदी थे, जो एक आम हिंदू मानस को सहलाता है। इसमें आरएसएस पूरी तरह कामयाब रहा।

धर्मनिरपेक्षऔर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के सामने इस जटिल चुनौती से निपटने का क्या कोई रास्ता नहीं था? जब अपने ही राजनीतिक आदर्शों को ताक पर रख दिया जाता है तब ऐसे हालात का सामना एक स्वाभाविक परिणति होती थी।

मैदानमें खड़ा होकर सामना करने का एकमात्र रास्ता था कि शासक अस्मिताओं के बरक्स शासित अस्मिताओं को सीधे संबोधित किया जाए। इसके कामयाब प्रयोग का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। करीब ढाई दशक पहले जब मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल की घोषणा हुई तो उसके बाद यह हुआ भी। तभी पहली बार यह लगा कि एक सहज-सी दिखने वाली व्यवस्था के जरिए जिस यथास्थितिवाद का पालन-पोषण होता आ रहा था, उसकी परतों के नीचे कितने विद्रूप पल रहे हैं।

उसी दौर में मंडल आंदोलन ने शासित सामाजिक वर्गों की अस्मिता की लड़ाई के जरिए एक ऐसे नेतृत्व वर्ग की शृंखला खड़ी की, जो पहले से चली आ रही शासन और समाज व्यवस्था के ढांचे में सीधे-सीधे तोड़-फोड़ थी। इसका अहसास उसी समय सत्ताधारी तबकों को हो गया था और प्रतिक्रिया भी बहुत तीखी शक्ल में सामने आई थी, लेकिन वह बाद में बहुत सोच-समझकर किसी दीर्घकालिक योजना का हिस्सा साबित हुई। तब मेरिट की शक्ल में आसानी से "पॉपुलर"होने वाले जुमलों से लैस सवाल उछाले गए, आरक्षण के खिलाफ आत्मदाही ‘आंदोलन’ या दूसरे प्रतिगामी प्रचारों से जब काम नहीं चलता लगा तब लालकृष्ण आडवाणी की ‘रथयात्रा’ चल पड़ी, जिसने शासित अस्मिताओं के उभार को रोकने और आखिरकार इस चुनाव में अपने हिंदू अस्मिता में समाहित कर लेने में कामयाबी हासिल कर ली। आरएसएस और भाजपा को इस "प्रोजेक्ट"को ताजा निष्कर्ष तक लाने में महज सवा दो या ढाई दशक का वक्त लगा।

जिन अस्मिताओं से हिंदुत्व के मूल ढांचे को नुकसान हो सकता था, उनके बीच से कुछ हिम्मती चेहरे सामने तो आए, लेकिन एक ओर सत्ता और तंत्र के बीच फर्क समझ सकने में नाकामी और अदूरदर्शिता के साथ-साथ दूसरी ओर इनके बीच से ही कुछ स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी तत्त्वों ने सत्ता में पहुंचने के लिए उस समूचे आंदोलन का बेड़ा गर्क करने में अपनी पूरी भूमिका निबाही। अस्मिता के संघर्ष का मकसद जहां इसके जरिए ऐतिहासिक रूप से छीने गए अधिकारों को हासिल करके भेदभाव पर आधारित एक व्यापक पहचान, यानी हिंदुत्व के ढांचे को तोड़ना था, वहां अस्मिता ही राजनीति का एक हथियार बन गया।  ऐसी स्थिति में जो होना था, वही हुआ। संघर्ष मुक्ति के लिए होना था, लेकिन उसने अपने लिए ऐसे दायरे पैदा किए, जिसके भीतर ही उसे गोल-गोल घूमना था। जबकि मकसद उसी दायरे को तोड़ कर आगे का रास्ता अख्तियार करना होना चाहिए था। क्या इस दायरे की दीवार इतनी मजबूत है कि उससे पार न पाया जा सके? यह शायद आखिरी सच नहीं है। लेकिन किसी दबाव से उपजे संघर्ष की दिशा कई बार भ्रम का शिकार हो जाती है। जबकि यही संघर्ष अगर किसी सुचिंतित योजना का हिस्सा हो तो नई व्यवस्था की जमीन तैयार कर सकता है।

जातिकी अस्मिता धर्म की व्यापक अस्मिता के दायरे के भीतर की चीज थी। इसलिए जब अधिकारों के लिए खड़ी हुई अस्मिताएं संघर्ष का रास्ता छोड़कर वैचारिक रूप से भी जातिगत दायरे में सिमटने लगीं तो ऐसे में उस पर उसकी व्यापक अस्मिता का हावी होना लाजिमी था। हिंदुत्व की व्यवस्था चलाने वाले एक सक्षम समूह के रूप में आरएसएस को यह बहुत अच्छे से मालूम है कि अगर उसकी व्यवस्था के मूल ढांचे को खतरा हो तो उसे समान हथियार से ही वापस मोड़ा जा सकता है। तो जिस तरह सामाजिक वंचना के नतीजे में छीने गए अधिकारों को हासिल करने के लिए जाति की अस्मिता आंदोलन की शक्ल में खड़ी हुई, उसी जाति को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन के साए में आरएसएस ने उसकी व्यापक अस्मिता, यानी हिंदुत्व में समाहित करने के लिए रथयात्रा से अपना अभियान शुरू किया और फिर गुजरात जनसंहार से लेकर हिंदू-मुसलिम तनाव को एक मुद्दे के रूप में जिंदा रखने की कामयाब कोशिश की।

लेकिनयह अगर आरएसएस की राजनीति का प्रत्यक्ष और हावी पहलू रहता तो देश से लेकर दुनिया भर में यह साबित करना मुश्किल होता कि उनकी यह राजनीति ‘प्रतिगामी’ नहीं है। इसलिए गुजरात जनसंहार के बाद कट्टर हिंदुत्व के नायक के चेहरे के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी नेतृत्व में ही विकास के ‘गुजरात मॉडल’ का मिथक खड़ा किया गया, ठीक उसी तरह जिस तरह धर्म और पारलौकिक मिथकों के सहारे सामाजिक सत्ताएं अपना शासन बनाए रखती हैं, शासित तबकों के सोचने-समझने, विश्लेषण करने के दरवाजों को बंद रखती हैं।

इनसबको जमीनी स्तर पर पहुंचाने के लिए जहां आरएसएस के पास अपने स्वयंसेवक थे, वहीं इस सामाजिक सत्ता-तंत्र में पहले से ही एक ‘इम्यून सिस्टम’ की तरह काम करने वाले वाचाल तंत्र को सिर्फ शह की जरूरत थी। इसके अलावा, आज दूरदराज के इलाकों तक अपनी मजबूत पहुंच और दखल बना चुके मीडिया ने अपने सामाजिक ढांचे और कारोबारी क्षमता का अपूर्व प्रदर्शन करते हुए आरएसएस की तमाम परोक्ष कवायदों को स्थापना दी। मूल तत्त्व हिंदुत्व की व्यापक अस्मिता में जातीय अस्मिताओं को समाहित करना था, लेकिन उस पर विकास के ‘गुजरात मॉडल’ की चमकीली चादर टांग दी गई। यानी ‘प्रतिगामी’ होने के तमाम आरोप अब ‘अग्रगामी’ संदेशों में तब्दील हो गए। इसके बाद इस ढांचे से लड़ने की चुनौती इस रूप में खड़ी हुई कि अस्मिता के संघर्ष को राजनीति में झोंकने वालों की जमीन खिसक गई और उस पर हिंदुत्व की अस्मिता का महल खड़ा हो गया।

इसलिएकम से कम यह न कहा जाए कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत ने साबित किया है कि जाति की राजनीति खत्म हो गई। जाति या अस्मिता की राजनीति खत्म नहीं हुई। बल्कि वह ज्यादा बड़ी अस्मिता में विलीन हुई है और उसमें घुल-मिल जाने के बाद जो अस्मिता की राजनीति मुखर होगी, वह ज्यादा खतरनाक साबित होगी, जिसकी गाज आखिरकार वंचित और कमजोर जातियों पर ही गिरनी है। इस वंचना की सबसे बड़ी त्रासदी की तुलना पारलौकिक अंधविश्वासों में डूबी उस गुलाम चेतना से लैस समाज के अंत से की जा सकती है जिसमें कोई व्यक्ति कुछ मनचाहे की कामना पूरी होने के लालच में किसी पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ने के बाद अपने ही हाथों से अपनी गर्दन काट लेता है।

बहरहाल, भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के एक सक्षम सत्ताधारी ताकत के तौर पर उभरने के बाद अब इसके पीछे कॉरपोरेट, पूंजी-जगत, सत्ता-तंत्र, हजारों करोड़ रुपए खर्च कर तैयार की गई चुनावी ‘परियोजना’ के सूत्रधारों की खोज और व्याख्या की जाएगी और की जानी चाहिए। लेकिन भारत जैसे देश में आग्रहों-पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों, भक्ति, व्यक्ति पूजा, प्रचार, अफवाहों पर मारने-मरने पर उतर जाने वाले समाज में एक अर्धविकसित मतदाता अगर दक्षिणपंथ के लिए अपना हाथ उठाता है तो यह किसी भी विकासमान समाज की नाकामी है। वह मतदाता विकास नहीं समझता। उसे विकास का ‘गुजरात मॉडल’ समझाया जाता है, जो दरअसल एक नफरत की एक अनदेखी बुनियाद पर खड़ा होता है। लेकिन उस अनदेखी बुनियाद पर परदा उतारने का जिम्मा आखिर किसका है?

अब चुनौती उन ताकतों के सामने है जो हिंदुत्व की मौजूदा धारा के खिलाफ एक तरह से व्यवस्था विरोधी प्रतीक के रूप में खड़े हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने भी नरम कार्ड खेलना शुरू किया था। बिना इस सच को समझे कि उनकी मूल ताकत और चुनौती क्या है और कौन है...! नब्बे के दशक में राजनीति की एक वैकल्पिक जमीन तैयार करने के साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर व्यवस्था-विरोधी प्रतीक के रूप में देखे जाने वाले राजनीतिक समूहों के सामने अब खुद को बचाए रखने का सवाल सबसे अहम है। अगर वे पहचान सकें कि इस प्रतीक के रूप में उन पर कहीं व्यवस्था के एजेंट तो हावी नहीं है और उन्हें दूर करना उनका सबसे पहला मकसद होना चाहिए, तो शायद बचने-बढ़ने और एक विकल्प की उम्मीद को जमीन पर उतारा जा सकता है...!


 
 
 
 
अरविंद शेष पत्रकार हैं.
अभी  जनसत्ता (
दिल्ली) में नौकरी.
संपर्क- arvindshesh@gmail.co
arvind.shesh@facebook.com

आपकी अदालत में आपके लिये भी तो कोई कठघरा हो.. ?

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-उमेश पंत

“और ये जो नया काम आपने शुरु किया है ज़रा बताइये कि इसका न्यूज़रुम से क्या सरोकार है ? इस नये काम को क्या कहते हैं क्या आप जानते हैं ? रितु धवन, अनिता शर्मा और प्रसाद जिनका नाम तनु ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है उन्हें आप जानते तो होंगे ना ? कोई विशाखा गाइडलाइन होती है ऐसे मसलों के लिये, आपने सुना तो होगा ही। इस गाइडलाईन के तहत खुद पर और इन लोगों पर कोई कार्रवाई करें तो खबर ज़रुर चलवा दीजियेगा, इससे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ और हो भी क्या सकती है। इस खबर की न्यूज़ वैल्यू और गम्भीरता बाबा बर्फानी के साक्षात दर्शन से ज्यादा है। सच मानिये।”

पकी अदालत में इस बार कठघरे में आप खुद खड़े हैं शर्मा जी। आज हमारे पास आपके खिलाफ बड़े आरोपों की लिस्ट है। आपने अच्छे-अच्छों को अपनी स्वयंभू अदालतों के चक्कर लगवाये हैं। अच्छे-अच्छों पर अपनी अदालत में फैसले सुनवाये हैं। आज आपकी बारी है शर्मा जी। आप बताइये क्या इंडिया टीवी नाम के आपके कथित समाचार चैनल में काम करने वाली तनु शर्मा झूठ बोल रही हैं ? क्या उनकी चार पन्ने की वो एफआइआर जिसमें वो सिलसिलेवार आपके समाचार चैनल में अन्दरखाने चल रहे व्याभिचारी खेल का पर्दाफाश करती हैं, झूठ का बस पुलिंदा भर है ? आपके खिलाफ गढ़ा जा रहा है एक शड़यंत्र भर ? या फिर समाचार चैनल के नाम शड़यंत्र आप कर रहे हैं ?

आपकेचैनल में समाचार के नाम पर हमने दूध पीती मूर्तियों को देखा है, हमने देखा कि है कैसे प्राइम टाइम को आप पीआर एजेन्सी के माकेर्टिंग स्टंट की तरह प्रयोग कर ले जाते हैं। आपके छोटे परदे पर समाचार की शक्ल में कसीदे पढ़कर बिकने की बू हमें पहले से आती रही है। ये तो हम सब अब समझ ही चुके हैं कि समाचार में समाचार कितना और प्रचार कितना होता है, पर इस बार आपको नहीं लगता कि हद हो गई है ?

अगरतनु शर्मा नाम की वो लड़की सच कह रही है तो आप जानते भी हैं कि आप कितने बड़े अपराधी हैं ? एक लड़की आपके और आपके संबंधियों और चाटुकारों के रचे जाल में फंसकर मरते-मरते बची है, क्या आपको इस बात की गम्भीरता का इलहाम भी हैं ?

उन मासूम, भोले पत्रकारों की कोई गलती नहीं है जो ये सब सुनकर भी चुप हैं। वो तो दरअसल गलती से अपने आपको पत्रकार समझ बैठे हैं। वो क्लर्की का काम कर रहे हैं। वो लिख रहे हैं, जो उनसे लिखाया जाता है। वही बोल रहे हैं, जो उनसे बोलने को कहा जाता है।

vlcsnap-00164चैनलोंकी गाइडलाइन दरअसल आपके उन आदेशों की फेहरिस्त ही तो है जिनके इस्तेमाल से आप जैसे लोग बड़े-बड़े पूंजीपतियों के और अपने-अपने अध्येता नेताओं के हित साधते हैं। जो काम आप कोट-पैंट पहनकर स्टूडियो में करते हैं वही बाज़ारों में, रेलवे स्टेशनों में और किसी गली के अपने छोटे से दफ्तर में वो लोग अपनी-अपनी तरह से करते हैं जिन्हें हम दलाल कहते हैं। नही, हम आपको दलाल नहीं कह रहे, दलाल तो फिर भी बताते हैं कि वो दलाल हैं, ब्रोकर्स यू नो ? पर आप तो…. और ये जो नया काम आपने शुरु किया है ज़रा बताइये कि इसका न्यूज़रुम से क्या सरोकार है ? इस नये काम को क्या कहते हैं क्या आप जानते हैं ? रितु धवन, अनिता शर्मा और प्रसाद जिनका नाम तनु ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है उन्हें आप जानते तो होंगे ना ? कोई विशाखा गाइडलाइन होती है ऐसे मसलों के लिये, आपने सुना तो होगा ही। इस गाइडलाईन के तहत खुद पर और इन लोगों पर कोई कार्रवाई करें तो खबर ज़रुर चलवा दीजियेगा, इससे बड़ी ब्रेकिंग न्यूज़ और हो भी क्या सकती है। इस खबर की न्यूज़ वैल्यू और गम्भीरता बाबा बर्फानी के साक्षात दर्शन से ज्यादा है। सच मानिये।

आप ऐसे अचानक महज इसलिए किसी के सपनों का गला नहीं घोंट सकते क्यूंकि वो हर किसी की तरह आपके तलुवे चाटते हुए आपके हित साधने से मना कर देता है. शर्मा जी आप पर आरोप ये भी है कि तनु शर्मा के साथ हुए  जिस करार में आपने कहा है की आप तो प्रेजेंटर के साथ कोंट्रेक्ट ख़तम कर सकते हैं पर प्रेजेंटर को ये हक़ नहीं है फिर किस हक़ से आपकी कंपनी ने एक एसएमएस को इस्तीफा मानकर उसे मंजूर करने की बात की है ? किस हक़ से आपने उसे एक रात में सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया जिसका जिक्र वो अपने फेसबुक स्टेटस में कर रही है.

एक
युवा जब नौकरी की तलाश में नये शहर में आता है, अपने-अपने काॅलेजों से निकलकर नौकरी की तलाश में भटकता हुआ आप जैसे लोगों तक पहुंचता है तो वो कितनी उम्मीदें पाल बैठता है। आप उन्हें बाल बराबर पैसा देकर उनके सपने उनसे खरीद लेते हैं पर इसका ये मतलब नहीं कि आपकी नौकरी कर रहा शख्स आपका दास होता है। यहां-वहां हर जगह से पैसा बटोर-बटोर कर आप तो पूंजिपति हो जाते हैं, और पत्रकारों के नाम पर जमा किये मजदूरों को आप अपनी जूठन उनकी छोटी तनख्वाहों के रुप में दे देते हैं। हर किसी की मजबूरियां होती हैं पर हर कोई इस मजबूरी के नाम पर सबकुछ नहीं सह जाता शर्मा जी। कुछ लोग तनु की तरह मरने का फैसला करके ही सही पर सच को जग जाहिर करने का हौसला रखते हैं।


तनुशर्मा की मौत के इस ऐलान के बाद आप अब किस मुंह से आपकी अदालत लगायेंगे ? आज ये अदालत आपको मुलजि़म ठहराती है, पता नही हमारी कानून व्यवस्था आप जैसे लोगों को मुज़रिम कब ठहरा पायेगी।

उमेश लेखक हैं. कहानी, कविता और पत्रकारीय लेखन.

गुल्लक नाम से एक वेबसाइट चलाते हैं.
mshpant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

चियर्स फॉर फ्रीडम !

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-केशव भट्ट

"...रातके भोजन के वक्त मीठा भाई ने वोदका से भरे पैमाने को हवा में हमारी ओर लहराते हुए जब ‘चियर्स फॉर फ्रीडम’ कहा तो हमारे लिये असमंजस की स्थिति हो गई। नशे में धुत होने के बावजूद मीठा भाई हमारे चेहरे पर आये भावों को समझ गये और फिर जोर-जोर से ठहाके लगा बातों को बदलने और माहौल को सामान्य बनाने की कोशिश में लग गये।..."

श्रीनगर में डल झील के किनारे साईबर कैफे के साथ परचून व सब्जी की छोटी सी दुकान चलाने वाला वह व्यक्ति आस्ट्रेलियाई महिला पत्रकार के टेढ़े-मेड़े सवालों का उत्तर देते-देते भन्नाकर दुकान के बाहर आ गया। मुझ से मुखातिब हो कर वह बोला, काश! भारत दो साल बाद आजाद होता, तो ये समस्या नहीं होती…. बात करते हैं साले….! अब हम क्या बताएँ इस अंग्रेजन को……हमारी कौम पर आरोप लगा रही है कि हम भारत के साथ रहने में सहयोग नहीं कर रहे हैं…. भारत धर्मनिरपेक्ष देश है… तुम लोग पाकिस्तान की ओर झुके हो। तंज कस रही है कि, तुम्हारी कौम परेशान रहेगी। 
इधर-उधरके दुकानदारों से बातें करने के बाद महिला पत्रकार चली गई तो उन्होंने एक गहरी साँस छोड़ी। पूछने लगा, भाईजान! आप बताइए क्या आतंकवाद इस्लाम या हिंदू की कोख से पैदा होता है ? अरे, इसे तो राजनीति ही पैदा करती आई है। और इस सबमें दोषी हमें ठहराया जा रहा है। मेरी चुप्पी पर उन्होंने गौर से मुझे देखा तो मैं हड़बड़ाते हुए इतना ही बोल पाया, भाईजान! इस बारे में तो आप कश्मीरी ही बेहतर जानते हैं। आप ही भोग रहे हो ये सब। अब चाहे ये अच्छा हो या बुरा। मेरे जवाब से उन्हें शायद शंका हुई कि कहीं मैं भी तो उसी महिला पत्रकार जैसा या हिन्दुस्तान सरकार का एजेंट तो नहीं हूँ। लेकिन मैं भी काम-धंधे वाला हूँ, यह जान कर वे निश्चिन्त हो गये। फिर उनके साथ बतियाते हुए वक्त कब खिसका पता ही नहीं चला।

अपनेशुरूआती तर्क को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा, भाई जान मुहम्मद अली जिन्ना तो बीमार था। टीबी का मरीज था जिन्ना ….बँटवारे के एक साल बाद 11 सितंबर 1948 को अपनी मनमर्जी की कर के वो तो कब्र में सो गया…..और उसके किये की सजा अब हम भुगत रहे हैं तब से….। दो-एक साल तक अंग्रेज अगर भारत का बँटवारा न करते तो आज शायद कश्मीरी अमन-चैन से रहते। खैर, भाईजान! एक बात कहूँ बुरा न मानियेगा, कश्मीर के हालात के लिये हिन्दुस्तानी फौज भी कम जिम्मेदार नहीं है। फौज और सरकार जितना दबाएगी उससे भारत के खिलाफ यहाँ के अवाम में नाराजगी बढ़ना लाजिमी है। हम बिजनेस वालों का तो नुकसान ही हो रहा है। हमारा कारोबार तो टूरिस्टों को लेकर ही है। यहाँ दहशतगर्दी का माहौल रहेगा तो वो कैसे आएगा ? इस साल तो कारोबार ठंडा हो गया….. आगे क्या होगा अल्ला जाने!

डलझील में जिस हाउस बोट में हम रह रहे थे, उसके मालिक का नाम मोहम्मद अशरफ था, लेकिन हर कोई उन्हें मीठा भाई के नाम से पुकारता था। मसखरापन लिए वह एकदम अलमस्त इन्सान थे। इस बार कश्मीर में टूरिस्ट कम थे। डल झील भी खामोश सी थी। दो-एक शिकारे आ-जा रहे थे। बूढ़ी अम्मा को अपनी पोती को स्कूल छोड़ने की जल्दी थी। वह पतवार को तेजी से खे रही थी। कुछ कामगार अपने खेतों के लिए झील में से मिट्टी, घास निकाल रहे थे।

डल झील में अकेले शिकारा चलाते हुए मैं मीठा भाई को देख रहा था और वे मुझे। उनके चेहरे पर मुस्कुराहट थी। मैं रह-रह कर उस दुकानदार की बातें याद कर सोच रहा था कि जिन्ना के अडि़यल रुख से हुए बँटवारे के बाद आज कश्मीर के ये हालात हैं! जिन्ना का मानना था कि हिंदुस्तान कभी सही मायने में एक कौम नहीं रहा, सिर्फ नक्शे पर देखने में वह एक लगता है। उनका कहना था कि हिंदू और मुसलमानों में एक ही चीज समान है और वह है अंग्रेज की गुलामी। इस जिद ने बँटवारा करवा कर ही छोड़ा, जिससे हजारों लोग दंगे-फसाद में मारे गए और करोड़ों लोग बेघरबार हुए। बँटवारे के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर को अपने कब्जे में लेने के लिए जंग छेड़ दी, जिसके बाद तेजी से घटे घटनाचक्र में कश्मीर का भारत में विशेष राज्य के रूप में विलय हुआ। उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि यह विलय किस तरह की परेशानियों का सबब बनेगा।

कश्मीरकी जनता का कहना है कि भारत सरकार ने कश्मीर की स्वायतत्ता में कई बार दखलअंदाजी कर अलगाववादी धारा को मजबूत किया। वैसे देखा जाए तो कश्मीर समस्या 1989 में अफगानिस्तान से सोवियत सेना की वापसी के बाद ज्यादा जटिल हुई। पाकिस्तान उसके बाद अफगान मुजाहिदीन की तरह गुरिल्ला लड़ाई कर कश्मीर को भारत से छीन लेने की रणनीति पर जुट गया। और अब अफगानिस्तान से अमरीकी की वापसी के संकेत मिल रहे हैं तो पाकिस्तान ने फिर से कश्मीर के हालात खराब कर दिये हैं। अब तो सांप्रदायिक ताकतों का भारत के हर क्षेत्र में बोलबाला हो जाने की वजह से कोई कश्मीरी भी देश के अन्य भागों में अपने आप को सुरक्षित नहीं समझता है।

रातके भोजन के वक्त मीठा भाई ने वोदका से भरे पैमाने को हवा में हमारी ओर लहराते हुए जब ‘चियर्स फॉर फ्रीडम’ कहा तो हमारे लिये असमंजस की स्थिति हो गई। नशे में धुत होने के बावजूद मीठा भाई हमारे चेहरे पर आये भावों को समझ गये और फिर जोर-जोर से ठहाके लगा बातों को बदलने और माहौल को सामान्य बनाने की कोशिश में लग गये।

दिन में डल झील में शिकारा चला रहे एक बुजुर्ग की बात भी मुझे याद आई, ‘‘साहब, कश्मीरी खुद भी नहीं चाहेगा कि कश्मीर की समस्या सुलझे…… इसे कुछ इस तरह से समझें……कश्मीर को एक ओर जहाँ भारत से सुरक्षा व पर्यटन के साथ अन्य विशेष पैकेजों की सौगात मिलती है तो वहीं पाकिस्तान से भी अपरोक्ष रूप से यहाँ की कौम के रहनुमाओं को रुपया-पैसा सहित अन्य कई सहूलियतें मिल जाती हैं। अब भला वे क्यों चाहेंगे कि उनकी ऐयाशी में कमी आए…..!

http://1.bp.blogspot.com/-s7i89NaPRDo/TzDBlOfOeVI/AAAAAAAAARQ/_QwYT5wBYhg/s1600/keshav+bhatt.jpgकेशव भट्ट पत्रकार भी है और यात्री भी.
पत्रकारिता इनका पेशा है और यात्राएँ शौक.
उच्च हिमालय की ढेरों यात्राएं रही हैं और उन पर निरंतर लेखन.
संपर्क- keshavbhatt1@yahoo.com

'अच्छे दिन'और 'गोरा बनाने वाली क्रीम'...

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-पलाश विश्वास

"…आंकड़ों और परिभाषाओं से जब अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकते हैं, तो बजट की कवायद आखिर क्यों है और जब नीतिगत घोषणाएं बजट से पहले हो जाती है तो संसद में बजट पेश करने का औचित्य नवधनाढ्यों को मामूली राहत देने और पूंजी को हर संभव छूट और रियायत देने के अलावा क्या हो सकता है?…"


भारतमें अब सत्ता की भाषा विज्ञापनी सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण के मुताबिक है। इसे इस तरह से समझेंबालीवूड के बादशाह आजकाल पुरुषों को गोरा बनाने के एक विज्ञापन के लिए माडलिंग कर रहे हैं। पूर्व पीएमईएसी चेयरमैन सी. रंगराजन की अध्यक्षता वाली एक समिति ने देश में गरीबी के स्तर के तेंदुलकर समिति के आकलन को खारिज कर दिया है और कहा है कि भारत में 2011-12 में आबादी में गरीबों का अनुपात कहीं ज्यादा था और 29.5 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे थे। रंगराजन समिति के अनुसार, देश में हर 10 में से 3 व्यक्ति गरीब है। 

रंगराजनसाहेब ने जैसे ही तेंदुलकर साहेब के प्रतिमानों और आंकड़ों में थोड़ा फेरबदल किया तो दस करोड़ लोग और गरीबी रेखा के नीचे चले आये। इसका मतलब यह हुआ कि तेंदुलकर साहेब ने मंटेक राज के दौरान गरीबी रेखा की परिभाषा बदलकर बिना कुछ किये एक झटके से दस करोड़ लोगों को गरीबी के भूगोल से बाहर निकाल दिया था। जाहिर है कि अच्छे दिन आ गये हैं तो इन दस करोड़ के साथ बाकी गरीबों का कल्याण भी हो जायेगा।

भारतमें गोरा बनने की ललक पहले महिलाओं में थीगोरा न होकर भी पुरुष वर्चस्व और पुरुषतांत्रिक सामंती समाज व्यवस्था में कोई परिवर्तन नहीं आया है।

हालांकि बेरोजगारी और अंधेरे भविष्य के मद्देनजर अब युवा समाज को सेक्स और नशे के नेटवर्क में कैद कर लेने का चाकचौबंद इतजाम हो चुका है,जिसके तहत वर्च्युअल सेक्स यानी बिना शारीरिक संबंध के तकनीकी सेक्स का कारोबार चल रहा है।


पुरुषोंकी उत्कट सौंद्रर्य चेतना अब स्त्रियों को भी लज्जित कर सकती है। सुगंधतेल और कंडोम का कारोबार तो था हीअब गोरा बनाने का कारोबार भी चल निकला है। अब पुरुषों को गोरा बनाने का एक प्रोडक्ट लांच हुआ हैजिसमें बादशाह सीना ठोककर कह रहे हैं कि संघर्ष के दिनों में इस उत्पाद को हमेशा साथ रखने में ही उनकी कामयाबी का राज है। अबजो प्रोडक्ट अभी-अभी लांच हुआ हैदो दशक पहले उसे संघर्ष के दिनों में वे कैसे सात रखते हैंयह सवाल कोई पूछ नहीं रहा है।

अच्छे दिन का सौंदर्यशास्त्र भी गोरा बनाने के कारोबार का सौंदर्यशास्त्र है।

बजटके दिनों में आंकड़ों की कलाबाजी कुछ ज्यादा ही निखर जाती है। आंकड़ों के मार्फत नीतिगत घोषणाएं होती हैं और योजनाएं भी उसी मुताबिक बनती है। विकास दर का आंकड़ा ग्लोबीकरण समय में विकास और सभ्यता के प्रतिमान हैं तो सेनसेक्स की उछाल अर्थव्यवस्था की सेहत का वेदर क्लाक हैं।

भारतकी राजनीति अस्मिताओं के मुताबिक चलती हैं,यह तो सारे लोग बूझ ही गये हैं। बूझी हुई पहेली गरीबी भी हैं।

एकरेखा खींच देने से ही जब गरीब खत्म हो जाती हैतो गरीबी उन्मूलन की इतना घोषणाओं और कार्यक्रमों की क्या जरुरत हैसमझ से बाहर हैं। तेंदुलकर साहेब ने गरीबी घटा दी थी और नई परिभाषा गढ़कर रंगराजन ने गरीबी बढ़ा दी। मजा तो यह है कि आर्थिक नीतियों की निरंतरता बनी हुई है और जनसंहारक सुधारों का दूसरा चरण निर्माय़क निर्ममता से जारी है।

तो सवाल है कि जिन नीतियों के चलते यह गरीबी बढ़ी और जिसे छुपाने का काम परिभाषा और आंकड़ों से हुआउन्हीं नीतियों से यह बढ़ी हुई गरीबी कैसे दूर होगी और कैसे आयेंगे अच्छे दिन।

अर्थव्यवस्थाके विशेषज्ञ जमीनी हकीकत से जुड़ने के लिए शीत ताप नियंत्रित महलों से बाहर नहीं निकलते तो हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि करोड़पति कम से कम हैं और थोक दरों पर अरबपति भी बन रहे हैं। लेकिन इंदिरा समय से बिना कृषि या औदोगिक उतापादन प्रणाली में सुधार किये सिर्फ परिभाषाओं और आंकड़ों से गरीबी उन्मूलन का यह महती कार्यक्रम इंदिरा समय से चला आ रहा है।रंगराजन रपट से इस अनंत धारा में कोई बदलाव के आसार नहीं है।

उत्पादकशक्तियों की इस देश की अर्थव्यवस्था में कोई भूमिका नहीं है। नई सरकार के श्रम कानून संशोधन एजंडा से साफ जाहिर है। तो अतिरिक्त दस समेत आंकड़ों में मौजूद गरीबों की गरीबी दूर करने का ठेका फिर वही बिल्डर प्रमोटर कारपोरेट राजक्रययोग्य अनुत्पादक सेवा उपभोग क्षेत्रों,अबाध पूंजी प्रवाह के लिए विनियमन,विनिवेश,निवेशकों की अटल आस्था और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के भरोसे पर ही अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने का उपक्रम है।सारे कानून बदलकर पूरे देश को आखेटगाह बनाकर और औद्योगीकरण के नाम पर मुक्तबाजार के मेगा कत्लगाहों ,कत्ल गलियारों के निर्माण जरिये अंधाधुध शहरीकरण और जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता मानवाधिकार नागरिक अधिकार से बेदखली का फिर वही निरंतर जारी धर्मोन्मादी खेल।

फिर वही धर्म राजनीति और पूंजी का संहारक गठजोड़।आर्थिक अंग्रेजी अखबारों की तो कहिये मत,भाषाई मीडिया में बजट पूर्व प्राथमिकताओं में कारपोरेटलाबिइंग की धार देख लीजिये और इस त्रिभुज में बढ़ते धर्मोन्मादी तड़की की गंध समझ लीजिये।अमित साह और जावड़ेकर कम पड़ गये,देश की राजनीति दुरुस्त करने के लिए राममाधव का आवाहन है।

समांतरसत्ता चलाने वाले कारपोरेट मीडिया का गरीबों से कोई वास्ता नहीं है।

अबयह भी समझने वाली बात है कि इस मुक्त बाजारी अश्वमेध की जो अवैध संतानें हैं,अकूत धन संपत्ति बिना किसी उत्पादन या बिना किसी लागत या बिना किसी पूंजी के यूंही हासिल कर रहे हैं जो लोग,जो मलाईदार तबका बनकर तैयार है और जो लोग इस नवधनाढ्य समय में उड़ते हुए नोटों के दखल खेल में निष्णात हैं, आजादी, दूसरी आजादी और क्रांति,समता और सामाजिक न्याय की उदात्त घोषणाओं के बावजूद व्यवस्था परिवर्तन में उनकी क्या दिलचस्पी हो सकती है,समझने वाली बात है।

विश्व के इतिहास में जनविद्रोहों और क्रांतियों के इतिहास को देखें तो समझा जा सकता है कि व्यवस्था के शिकार लोग जब सड़कों और खेतों,कारखानों,जंगलों और पहाड़ों में गोलबंद होकर प्रतिरोध करते हैं,तभी परिवर्तन होता है। नेतृत्वभी उन्हीं तबकों से उभर कर आता है।

मौजूदाव्यवस्था को यथावत रखने या उसको और ज्यादा जनसंहारक तत्व परिवर्तन के पक्षधर कैसे हो सकते हैं,यह समझने वाली बात है।

देश में उत्पादक और सामाजिक शक्तियों के मौजूदा तंत्र के विरुद्ध लामबंद होने की हलचल नहीं है।


'जनांदोलन'विदेशी वित्त पोषित कार्यक्रम है और सब्जबाग सजोकर,मस्तिष्क नियंत्रण मार्फत राजकाज और नीति निर्धारण की तमाम सूचनाओं को सिरे से अंधेरे में रखकर विज्ञापनी भाषा में जो सत्ता की राजनीति चल रही है,देश का हर तबका,विंचिक निनानब्वे फीसद जनता भी उसी आभासी ख्वाबगाह के तिलिस्म में कैद है।

अर्थशास्त्री तेंदुलकर और अर्थशास्त्री रंगराजन, दोनों मुक्तबाजारी अर्थव्यवस्था के महान प्रवक्ता है,दूसरी तमाम रपटों और आंकड़ों को जारी करने वालों की तरह। रंगराजन की यह रपट बल्कि केसरिया समय की पहल हैजिसका मुख्यकार्यभार इस गरीबी का ठीकरा पर्ववर्ती सरकार के मत्थे डालना हैगरीबी उन्मूलन का कतई नहीं।

देश में हालात लगातार बदतर होते जा रहे हैं। न कृषि और न औद्योगिक उत्पादन में कोई चाम्कारिक वृद्धि हुई है। अर्थव्यवस्था की बुनियाद में भी कोई बेसिक परिवर्तन नहीं हुआ है,विदेशी रेटिंग और सेनसेक्स की बढ़त के अलावा। 

कोईपरिवर्तन हुआ नहीं है विदेशी निवेशकों की आस्था मुताबिक धर्मोन्मादी जनादेश माध्यमे बिजनेस फ्रेंडली सरकार के अलावा। कोई परिवर्तन हुआ नहीं है चुनी हुई सरकार और सत्ता पार्टी,संसद के हाथों से सत्ता संघ परिवार में केंद्रित होने के अलावा। कोई परिवर्तन हुआ नहीं है दूसरे चरण के नरमेधी राजसूय को रिलांच करने के अलावा।

प्रतिमानोंमें फेरबदल भी खास नहीं है लेकिन गरीबी की परिभाषा से ही दस करोड़ लोगों की गरीबी खत्म हो गयी। तो परिभाषा बदलकर दस करोड़ लोगं को और गरीब बता दिये जाने से,तमाम कायदे  कानून खत्म कर दिये जाने से,दूसरे चरण के आर्थिक सुधारों से यह बड़ी हुई गरीबी दूर हो जायेगी,ऐसा किस अर्थशास्त्त्र में लिखा हैइसके पाठ के संदर्भ तो डां.मनमोहन सिंह, मंटेक सिंह आहलूवालिया,राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और चिदंबरम जैसे लग दे सकते हैं,जिनके बीस साल के किये धरे को खारिज किया जा रहा है।

बुनियादीमसला तो यह है कि आंकड़ों और परिभाषाओं से जब अर्थव्यवस्था में सुधार हो सकते हैं, तो बजट की कवायद आखिर क्यों है और जब नीतिगत घोषणाएं बजट से पहले हो जाती है तो संसद में बजट पेश करने का औचित्य नवधनाढ्यों को मामूली राहत देने और पूंजी को हर संभव छूट और रियायत देने के अलावा क्या हो सकती है,गैर अर्थ विशेषज्ञों के लिए समझना मुश्किल है।

लेकिनइस जनविरोधी,जनसंहारक सर्वनाशी अर्थ शास्त्र के तिलिसम को समझे बिना उत्पादक और सामाजिक शक्तियों की गोलबंदी पीड़ितों और वंचितों की अगुवाई में असंभव ही है।

बहरहालयोजना मंत्री राव इंद्रजीत सिंह को सौंपी गई रिपोर्ट में रंगराजन समिति ने सिफारिश की है कि शहरों में प्रतिदिन 47 रुपए से कम खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब की श्रेणी में रखा जाना चाहिए, जबकि तेंदुलकर समिति ने प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 33 रुपए का पैमाना निर्धारित किया था।

रंगराजनसमिति के अनुमानों के अनुसार, 2009-10 में 38.2 प्रतिशत आबादी गरीब थी जो 2011-12 में घटकर 29.5 प्रतिशत पर आ गई। इसके विपरीत तेंदुलकर समिति ने कहा था कि 2009-10 में गरीबों की आबादी 29.8 प्रतिशत थी जो 2011-12 में घटकर 21.9 प्रतिशत रह गई।

सितंबर, 2011 में तेंदुलकर समिति के अनुमानों की भारी आलोचना हुई थी। उस समय, इन अनुमानों के आधार पर सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में दाखिल एक हलफनामे में कहा गया था कि शहरी क्षेत्र में प्रति व्यक्ति रोजाना 33 रुपए और ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति रोजाना 27 रुपए खर्च करने वाले परिवारों को गरीबी रेखा से ऊपर समझा जाए।

सरकारने तेंदुलकर समिति के मानकों और तरीकों की समीक्षा के लिए पिछले साल रंगराजन समिति का गठन किया था ताकि देश में गरीबों की संख्या के बारे में भ्रम दूर किया जा सके। रंगराजन समिति के अनुमान के मुताबिक, कोई शहरी व्यक्ति यदि एक महीने में 1,407 रुपए (47 रुपए प्रति दिन) से कम खर्च करता है तो उसे गरीब समझा जाय, जबकि तेंदुलकर समिति के पैमाने में यह राशि प्रति माह 1,000 रुपए (33 रुपए प्रतिदिन) थी।

रंगराजनसमिति ने ग्रामीण इलाकों में प्रति माह 972 रुपए (32 रुपए प्रतिदिन) से कम खर्च करने वाले लोगों को गरीबी की श्रेणी में रखा है, जबकि तेंदुलकर समिति ने यह राशि 816 रुपए प्रति माह (27 रुपए प्रतिदिन) निर्धारित की थी।

रंगराजनसमिति के अनुसार, 2011-12 में भारत में गरीबों की संख्या 36.3 करोड़ थी, जबकि 2009-10 में यह आंकड़ा 45.4 करोड़ था। तेंदुलकर समिति के अनुसार, 2009-10 में देश में गरीबों की संख्या 35.4 करोड़ थी जो 2011-12 में घटकर 26.9 करोड़ रह गई।





पलाश विश्वास वरिष्ठ पत्रकार हैं.
संपर्क- palashbiswaskl@gmail.com

पुलिस से अलग हो विवेचना ईकाई

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-राजीव यादव

"...यह कोई भूल नहीं बल्कि सत्ता व पुलिस का गठजोड़ है जो एक दूसरे के मनोबल के प्रति इतना फिक्रमंद होता है कि आम नागरिक का मनोबल सर न उठा सके। इस पूरे मनोबल को बचाने में विवेचनाधिकारी लगा रहता हैजो सबूतों का आभाव खड़ा कर उन्हें बरी करवाने की कोशिश करता है। फिलहाल यह मामला सीबीआई के पास हैदेखते हैं कि क्या वह असली दोषियों को सजा दिलावा पाती है। पर यहां यह सवाल है कि ऐसे कितने मामलों की जांच सीबीआई कर रही हैं या करेगी?..."

त्तर प्रदेश के मेरठ जिले में एसआई अरुणा राय द्वारा आईपीएस अधिकारीडीपी श्रीवास्तव पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने के बाद जिस तरह से यहमामला सामने आया कि विवेचनाधिकारी ने मुकदमें से गैरजमानती धाराओं कोहटाकर श्रीवास्तव की जमानत का रास्ता साफ किया, उसने पुलिस विवेचना पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। आरोपी आईपीएस को जमानत दिलाने वालों कोअरुणा ने सहअभियुक्त कह कर उनके साथ हुए अन्याय में विवेचनाधिकारी को भीबराबर का दोषी माना है। पुलिस पर यह आरोप लगातार लगता रहता है कि वहरिश्वत लेकर या समाज में रसूख रखने वाले व्यक्तियों के दबाव में ऐसा करतीहै। वहीं इस मामले ने साफ कर दिया है कि जब एक महिला पुलिस अधिकारी कोअपने साथ हुए यौन उत्पीड़न के मामले में एफआईआर दर्ज कराने में इतनीमशक्कत करनी पड़ी तो एक सामान्य महिला की पुलिस कितना सुनती होगी।

इससवाल को सिर्फ यूपी तक सीमित करना या महिला उत्पीड़न तक सीमित करने केबजाए इसको व्यापकता में देखने का जरुरत है कि, यह कौन सी जेहनियत है जोऐसा करने की विवेचना कार्यप्रणाली की परंपरा बन चुकी है। खासकर महिला केसाथ होने वाली हिंसा वह भी जब वह दलित व अल्पसंख्यक समाज की हो तब तो यहकुत्सित इंसाफ विरोधी परंपरा अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच जाती है। पिछलेदिनों बदांयू में दो लड़कियों के साथ बलात्कार मामले में भी हम देख सकतेहैं कि जब इस घटना की पूरीदुनिया में निंदा हो रही थी तो पुलिस मौके सेसबूतों को मिटाने या फिर उसे उपेक्षित कर बलात्कार में संलिप्त दोषीपुलिस कर्मियों को बचाने की फिराक में थी। लड़कियों का शव गांव में एकखेत में पेड़ से टंगा मिला था पर लड़कियों के साथ जिस स्थान पर बलात्कारहुआ था उस स्थान को उपेक्षित कर सबूतों को खत्म करने का प्रयास किया गया।

यहकोई भूल नहीं बल्कि सत्ता व पुलिस का गठजोड़ है जो एक दूसरे के मनोबलके प्रति इतना फिक्रमंद होता है कि आम नागरिक का मनोबल सर न उठा सके। इसपूरे मनोबल को बचाने में विवेचनाधिकारी लगा रहता है, जो सबूतों का आभावखड़ा कर उन्हें बरी करवाने की कोशिश करता है। फिलहाल यह मामला सीबीआईकेपास है, देखते हैं कि क्या वह असली दोषियों को सजा दिलावा पाती है। परयहां यह सवाल है कि ऐसे कितने मामलों की जांच सीबीआई कर रही हैं याकरेगी?

इसी तरह सितंबर 2013 में मुजफ्फरनगर-शामली व आस-पास के जिलों मेंसांप्रदायिक हिंसा के दौरान मुस्लिम महिलाओं के साथ हुए बलात्कार केमामलों को हम तीन हफ्ते से अधिक समय बाद थाने में दर्ज होता पाते हैं।बलात्कार जैसे जघन्यतम अपराध जिसमें पीडि़ता की तहरीर के बाद प्रथम सूचनारिपोर्ट दर्ज करते हुए 24 घंटे के भीतर पीडि़ता का चिकित्सकीय परीक्षणकराने का निर्देश है, वहां पर हफ्तों की जाने वाली पुलिस की यह देरीबलात्कारी को बचाने की हर संभव कोशिश होती है। आखिर सवाल यह उठता है किमुजफ्फरनगर ही नहीं देश में ऐसे तमाम दलित व अल्पसंख्यक विरोधी हिंसाओंमें पुलिस की इस आपराधिक कार्यशैली को क्या विवेचनाधिकारी अपनी विवेचनामें शामिल करता है, तो इसका जवाब नहीं होगा। ऐसा इसलिए कि विवेचनाधिकारीभी उसी पुलिस विभाग का होता है

अरुणा राय मामले में जिस तरह विवेचना अधिकारी सवरणजीत कौर हैं, जो सीओरैंक की अधिकारी हैं और वह आईपीएस रैंक के पुलिस अधिकारी श्रीवास्तवद्वारा यौन उत्पीड़न की जांच कर रही हैं, यहां पर इंसाफ नहीं बल्कि उच्चपद का विभागीय दबाव काम करता है, जो निष्पक्ष विवेचना को प्रभावित करताहै। क्योंकिइस मामले में डीपी श्रीवास्तव द्वारा हमला या आपराधिक कृत्य,जिससे महिला की लज्जा भंग होती है, कोमानते हुए भी उन्होंने गैरजमानतीयइस कृत्य की धारा को समाप्त करके आईपीएस को बचाने की कोशिश की। इससे यहबात भी खारिज होती है कि महिला, महिला प्रकरण की निष्पक्षता से जांचकरेगी। जबकि सुप्रिम कोर्ट विवेचनाधिकारी को एक स्वंतंत्र जांच अधिकारीके बतौर कार्य करने की बात कहता है। अक्सरहां देश में पुलिस द्वारा की गईफर्जी मुठभेड़ों की जांच चाहे वो यूपी के सोनभद्र में रनटोला कांड, जहांइलाहाबाद विश्वविद्यालय के दो छात्रों को डकैत बताकर की गई हत्या कामामला हो या फिर उत्तराखंड केरणवीर हत्याकांड इन सभी में विवेचनाधिकारीने पुलिस अधिक्षक का नाम न लेकर उसे बचाने का कार्य किया है। जबकि सजापाने वाले पुलिस कर्मियों ने सार्वजनिक तौर पर कहा है कि ऐसा उन्होंनेएसपी के कहने पर किया था।

निष्पक्षविवेचना न्याय का आधार होती है। ऐसे में छत्तीसगढ़ में सोनीसोरी के गुप्तांगों में पत्थर डालने वाले पुलिस अधिकारियों जिसमें एसपीअंकित गर्ग जिन्हें राष्ट्रपति द्वारा स्वर्ण पदक से सम्मानित किया जाताहै, वह हमारे तंत्र की निष्पक्षता और इंसाफ दिलाने नहीं बल्कि उसको बाधितकरने वाले विवेचनाधिकारी के अस्तित्व पर सवालिया निशान है। इशरत जहांफर्जी मुठभेड़ कांड को कौन भूल सकता हैं, जिसमें राज्य के पुलिसअधिकारियों पर राज्य सरकार के संरक्षण में हत्या का आरोप है, वहां पर भीइसे साफ देखा जा सकता है। वहीं उत्तर प्रदेश में आतंकवाद के नाम पर फर्जीतरीके से गिरफ्तार किए गए तारिक-खालिद की गिरफ्तारी पर गठित निमेष कमीशन,गिरफ्तारी को संदिग्ध मानते हुए पुलिस के अधिकारियों को दोषी मानता है,वहीं इस मामले के विवेचनाधिकारी ने पुलिस की गिरफ्तारी को सही माना है।

आतंकवादऔर नक्सल उन्मूलन के नाम पर चलाए जाने वाले अभियानों में तोविवेचनाधिकारी पुलिस के सहयोगी अंग के बतौर कार्य करता है। 16 मई, जिसदिन भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को पूर्ण बहुमतमिला, उसी दिन अक्षरधाम मंदिर पर हमले को लेकर आए फैसले में सुप्रिमकोर्ट ने उस दौर के मौजूदा गृह मंत्री और विवेचनाधिकारियों के विवेक औरकार्यशैली पर सवाल उठाया है। विवेचनाधिकारी सिर्फ पुलिस द्वारा समाज केवंचित तबके पर लगाए गए आरोपों को सिर्फ सही साबित करने की न सिर्फ कोशिशकरता है बल्कि वह उसको ऐसा करके अन्याय करने के लिए प्रेरित भी करता है।यह पूरा तंत्र मिलकर समाज के सत्ता संपन्न वर्गों, जातियों, धर्मों केपक्ष व उनके हित में कार्य करता है।

अरुणाराय के आरोपों के बाद पुलिस महा निदेशक उत्तर प्रदेश और मुख्य सचिवका हवाला देते हुए डीपीश्रीवास्तव ने बात को खत्म करने की बात कही। वहींपुलिस का रवैया हां दुव्यवहार तो हुआ तो है लेकिनइसमें ऐसी कोई खास बातनहींजैसे भाव की अभिव्यक्ति से आकलन किया जा सकता है कि जब कोईदलित-आदिवासी महिला के साथ उत्पीड़न होता है तो पुलिस का रवैया क्या होताहै, अरुणा राय आज इस परिघटना की चश्मदीद है।ऐसे में सवाल लाजिमी हो जाता है कि सिर्फ विवेचनाधिकारी को बदलने भर सेइसका हल नहीं है, बल्कि उसके खिलाफ कानूनी कार्यवाई की गारंटी की जाए।वहीं आपराधिक विवेचना कीजांच के लिए पुलिस प्रशासन से अलग एक विवेचनाईकाई का गठन किया जाए। इस विषय में पुलिससुधार आयोग की भी यही सिफारिशहै।

राजीव यादव
द्वारा- मोहम्मद शुऐब (एडवोकेट)

110/46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट, नया गांव पूर्व
लाटूश रोड लखनऊ उत्तर प्रदेशमो0- 09452800752


सिंगरौली: इंसान और ईमान का नरक कुंड- 1

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-अभिषेक श्रीवास्‍तव
पिछले महीने मीडिया में लीक हुई एक 'खुफिया'रिपोर्ट में भारत की इंटेलिजेंस ब्‍यूरो ने कुछ व्‍यक्तियों और संस्‍थाओं के ऊपर विदेशी धन लेकर देश में विकास परियोजनाओं को बाधित करने का आरोप लगाया था। इसमें ग्रीनपीस नामक एनजीओ द्वारा सिंगरौली में एस्‍सार-हिंडाल्‍को की महान कोल कंपनी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन का भी जि़क्र था। आज़ादी के बाद सिंगरौली के विकास की पूरी कहानी विश्‍व बैंक और अन्‍य विदेशी दानदाताओं के पैसे से लगी सरकारी परियोजनाओं के कारण मची व्‍यापक तबाही व विस्‍थापन के कई अध्‍याय संजोए हुए है। 
जहां छह दशक से विकास के नाम पर विदेशी पैसे से सिर्फ विनाशलीला को सरकारें अंजाम दे रही हों, वहां विकास के इस विनाशक मॉडल के खिलाफ बोलने वाला कोई संस्‍थान या व्‍यक्ति खुद विकास विरोधी कैसे हो सकता है? जो सरकारें सिंगरौली में कोयला खदानों व पावर प्‍लांटों के लिए विश्‍व बैंक व एडीबी से पैसा लेने में नहीं हिचकती हो, उन्‍हें जनता के हित में बात करने वाले किसी संगठन के विदेशी अनुदान पर सवाल उठाने का क्‍या हक है? 
विकास के मॉडल पर मौजूदा बहस को और साफ़ करने के लिहाज से इन सवालों की ज़मीनी पड़ताल करती एक रिपोर्ट सीधे सिंगरौली से हम पाठकों के लिए किस्‍तों में प्रस्‍तुत कर रहे हैं, ताकि वे जान सकें कि मानव विकास के असली विरोधी कौन हैं और सरकार जिस विकास की बात करती है, उसका असल मतलब क्‍या है।  

7 जून, 2014 की रात  

बीते 3 जून को 'विदेशी'अनुदान वाली स्‍वयंसेवी संस्‍थाओं पर भारत के गुप्‍तचर ब्‍यूरो द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को कथित तौर पर सौंपी गई एक खुफिया रिपोर्ट के मीडिया में लीक हो जाने के बाद जब राष्‍ट्रीय मीडिया में आरोप-प्रत्‍यारोप का दौर चल रहा था, तो दिल्‍ली से करीब हज़ार किलोमीटर दूर मध्‍यप्रदेश के सिंगरौली जि़ले में एक अलग ही कहानी घट रही थी। सिंगरौली रेलवे स्‍टेशन से करीब 40 किलोमीटर दूर स्थित जिला मुख्‍यालय बैढ़न में कलेक्‍ट्रेट के पीछे हरे रंग के एक मकान को 7 जून की रात 12 बजकर पांच मिनट पर पुलिस ने अचानक घेर लिया। उस वक्‍त वहां मौजूद आधा दर्जन लोगों में से पुलिस ने दो नौजवानों को चुन लिया। जब पुलिस से पूछा गया कि ये क्‍या हो रहा है, तो टका सा जवाब आया कि अभी पता चल जाएगा। इन दोनों युवकों को उठाकर एक अज्ञात ठिकाने पर ले जाया गया। फिर इस मकान में बचे लोगों ने परिचितों को फोन लगाने शुरू किए। बात फैली, तो पलट कर प्रशासन के पास भी दिल्‍ली-लखनऊ से फोन आए। काफी देर बात पता लग सका कि इन्‍हें छत्‍तीसगढ़ की सीमा से लगे माडा थाने में पुलिस उठाकर ले गई है। इन दो युवकों के अलावा दो और व्‍यक्तियों को उठाकर पुलिस माडा थाने में ले आई थी। थाने में पहले से ही एस्‍सार कम्‍पनी के तीन अधिकारी बैठे हुए थे। वे रात भर बैठ कर पुलिस को एएफआइआर लिखवाते रहे। चारों पकड़े गए लोगों के ऊपर धारा 392, 353 और 186 के तहत मुकदमा दर्ज किया गया। अगले दिन अदालत में पेशी के बाद इन्‍हें न्‍यायिक हिरासत में भेज दिया गया। फिर जबलपुर उच्‍च न्‍यायालय से जब एक बड़े वकील राघवेंद्र यहां आए, तब कहीं जाकर चार में से तीन की ज़मानत अगले दिन हो सकी। चौथे शख्‍स पर शायद तीसेक साल पहले कोई मुकदमा हुआ था, जिसका फायदा उठाकर पुलिस उसे 28 दिनों तक जेल में रखने में कामयाब हो सकी।

महान संघर्ष समिति के सदस्‍य: दाएं से विजय शंकर सिंह, कृपा यादव और बेचनलाल साहू

येकहानी विनीत, अक्षय, विजय शंकर सिंह और बेचन लाल साहू की है। विनीत और अक्षय शहरों से पढ़े-लिखे युवा हैं जो ग्रीनपीस नाम के अंतरराष्‍ट्रीय एनजीओ में नौकरी करते हैं। उमर बमुश्किल 25 से 30 के बीच और जज्‍बा ऐसा गोया किसी इंकलाबी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता हों। विजय शंकर सिंह और बेचन लाल दोनों पड़ोस के अमिलिया गांव के निवासी हैं जहां ग्रीनपीस का ''जंगलिस्‍तान बचाओ''प्रोजेक्‍ट चल रहा है। ग्रीनपीस वैसे तो इस देश में जलवायु परिवर्तन और जैव-संवर्द्धित फसलों के मुद्दे पर लगातार काम करता रहा है, लेकिन सिंगरौली जिले में एस्‍सार और हिंडालको के संयुक्‍त उपक्रम महान कोल लिमिटेड के खिलाफ ग्रामीणों के संघर्ष के बहाने इसका नाम इधर बीच ज्‍यादा चर्चा में आया है और इंटेलिजेंस ब्‍यूरो ने भी अपनी लीक हो चुकी खुफिया रिपोर्ट में इस प्रोजेक्‍ट का जिक्र करते हुए कहा है कि ग्रीनपीस विदेशी पैसे से देश के विकास में रोड़ा अटका रहा है। खुद ग्रीनपीस के लोग मानते हैं कि यह संस्‍था मोटे तौर पर ''फोटो ऑप''यानी फोटो खिंचवाने वाली संस्‍था के तौर पर जानी जाती रही है और ऐसा पहली बार है जब उसने किसी जनसंघर्ष में सीधा दखल दिया है तथा अपनी मौजूदगी बनाए रखी है। महान संघर्ष समिति नाम के एक खुले संगठन की मार्फत ग्रीनपीस सिंगरौली में अपना काम कर रही है। बीते 7 जून की रात गिरफ्तार हुए बेचन लाल साहू और विजय शंकर सिंह दोनों इसी समिति के सदस्‍य बताए जाते हैं। चूंकि यह समिति न तो पंजीकृत है और न ही इसका कोई आधिकारिक लेटरहेड इत्‍यादि है, इसलिए इसके सदस्‍यों समेत अन्‍य पदाधिकारियों का कोई अता-पता नहीं है। ग्रीनपीस का दावा है कि पूरे के पूरे गांव ही इस समिति के सदस्‍य हैं और हर सदस्‍य इसका अध्‍यक्ष है। यह बात सुनने में चाहे कितनी ही अच्‍छी क्‍यों न लगे, लेकिन सिंगरौली की हवा में यह संदेश साफ़ समझा जा सकता है कि यहां किसी किस्‍म की असहमति के लिए कोई जगह नहीं है, चाहे आप पंजीकृत हों या खुले संगठन के तौर पर काम कर रहे हों। ग्रीनपीस पर सरकार की टेढ़ी नज़र, महान संघर्ष समिति और कंपनियों के प्रोजेक्‍ट के प्रति जनता के रुख़ के आपसी रिश्‍ते को समझने के लिए हमें इस जगह के इतिहास-भूगोल पर एक नज़र डालते हुए यहां के समाज को समझना होगा।

ऊर्जांचल में प्रवेश

सिंगरौली से बाहर रहने वालों के लिए यह एक ऐसा नाम है जो देश को बिजली देता है। यहां एनटीपीसी, कोल इंडिया, एनसीएल, जेपी, रिलायंस, एस्‍सार, हिंडालको आदि कंपनियों के पावर प्रोजेक्‍ट और कोयला खदानें हैं। इस इलाके को ऊर्जांचल भी कहते हैं। सिंगरौली हालांकि अपने आप में सिर्फ एक रेलवे स्‍टेशन है जबकि इसका जिला मुख्‍यालय स्‍टेशन से 40 किलोमीटर दूर बैढ़न में है। इसे जिला बने हुए महज पांच साल हुए हैं। इसके पहले यह मध्‍यप्रदेश के सीधी जिले में आता था। एक तरफ उत्‍तर प्रदेश के सोनभद्र, दूसरी तरफ झारखंड के गढ़वा रोड और तीसरी तरफ छत्‍तीसगढ़ के सरगुजा व अम्बिकापुर से घिरा यह इलाका कैमूर की हरी-भरी पहाडि़यों में बसा है। बिहार की सीमा भी यहां से बहुत दूर नहीं है। यहां से कटनी, इलाहाबाद, बनारस, जबलपुर, हावड़ा के लिए रेलगाडि़यां मिल जाती हैं लेकिन दिल्‍ली के लिए कोई सीधी गाड़ी नहीं है। मध्‍यप्रदेश के कटनी से आते वक्‍त ऊर्जा परियोजनाओं की चमकदार बत्तियां भरसेन्‍डी से दिखना शुरू हो जाती हैं। फिर मझौली और बरगवां आते-आते बत्तियों की चमक बढ़ती जाती है। कटनी से आठ घंटे के सफ़र में बीच में कोई बड़ा स्‍टेशन नहीं है। छोटे-छोटे प्‍लेटफॉर्मों पर पानी मिलना भी मुश्किल है। दोनों तरफ कैमूर की पहाडि़यां और घने जंगल हैं। सिंगरौली उतर कर आम तौर से लोग बैढ़न ही जाते हैं क्‍योंकि काम भर का शहर और बाज़ार वहीं है।

इसी बैढ़न में नॉरदर्न कोलफील्‍ड्स लिमिटेड (एनसीएल) के अमलोरी गेस्‍टहाउस में अपनी पहली रात की रिहाइश में यह पता चला कि बिजली यहां भी जाती है। एनसीएल की कई परियोजनाओं में एक अमलोरी परियोजना है। इसी परियोजना का विशाल गेस्‍टहाउस बैढ़न के राजीव गांधी चौक से करीब सात किलोमीटर आगे स्थित है। यहां के कर्मचारी बताते हैं कि जब एनसीएल की खदानें अस्‍सी के दशक में बन रही थीं और यहां मशीनें लगाने के लिए जापान और रूस से इंजीनियर आए थे, तो इस गेस्‍टहाउस में स्विमिंग पूल में बैठे हुए तंदूर पर पका खाना खाने और शराब पीने की आलीशान व्‍यवस्‍था थी। आज बीस साल बाद यह गेस्‍टहाउस तकरीबन उजाड़ है। कमरों में पंखे नहीं चलते और एसी मशीनें रह-रह कर ऐसी आवाज़ें करती हैं कि सोये में दिल दहल जाए। बिजली का आलम ये है कि पहली ही रात वह लगातार छह घंटे गायब रही। सवेरा होने पर एक और बात पता चली कि यदि आपके पास अपना साधन नहीं है तो आप सिंगरौली में एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा सकते। निजी टैक्सियों की दर प्रतिदिन दो हज़ार रुपये है। पैदल चलना दूभर है क्‍योंकि दूरियां बहुत हैं। कुछ निजी बसें ज़रूर हैं जिनके पास चलकर जाना होता है। बाहर निकलते ही सवेरे के अखबार पर नज़र पड़ी जिसका पहला शीर्षक कुछ यूं था, ''एनसीएल की अमलोरी परियोजना से काली हो गई कांचन नदी।''यह अखबार था दैनिक भास्‍कर, जिसके मालिकान की कंपनी डीबी कॉर्प को भी यहां एक पावर प्रोजेक्‍ट की अनुमति मिली हुई है। एनसीएल के जनसंपर्क विभाग के एक कर्मचारी बताते हैं कि ऐसी खबरें आए दिन यहां छपती हैं ताकि कंपनी से कोई डील की जा सके। देर शाम तक यह खबर लिखने वाले रिपोर्टर को 'मैनेज'करने की कोशिश भी होती रही।

ग्रीनपीस का बैढ़न स्थित दफ्तर और स्‍कॉर्पियो गाड़ी 
बहरहाल,बैढ़न के जिस हरे रंग के मकान से 7 जून की रात गिरफ्तारियां हुई थीं, हम वहां पहुंचे। यह ग्रीनपीस का गेस्‍टहाउस था। इससे करीब सौ मीटर पहले हरे रंग का ही ग्रीनपीस का एक दफ्तर भी है। गेस्‍टहाउस में ग्रीनपीस के कर्मचारी रहते हैं। इसमें एक रसोई भी है और रसोइया भी। संस्‍था के पास एक स्‍कॉर्पियो गाड़ी है जिसकी पहचान विरोधियों को बिल्‍कुल साफ़-साफ़ है। यहां से 40 किलोमीटर दूर अमिलिया गांव की ओर बढ़ते हुए जैसे ही हमने मुख्‍य सड़क छोड़ी, हमें बताया गया कि कंपनी की एक जीप हमारा पीछा कर रही है। ऐसा रोज़ ही होता है। ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं पर लगातार नज़र रखी जाती है। बैढ़न के राजीव गांधी चौक पर स्थित सीपीएम के दफ्तर में बैठे पार्टी प्रभारी रामलल्‍लू गुप्‍ता बताते हैं कि आज से दो साल पहले जब ग्रीनपीस की प्रिया पिल्‍लई यहां काम करने आई थीं, तो वे अपने साथ सीपीएम के केरल से एक सांसद को लेकर आई थीं जिसका स्‍थानीय प्रशासन पर काफी दबाव रहा। शुरुआत में यहां सीटू (सीपीएम का मजदूर संगठन) और एटक (सीपीआइ के मजदूर संगठन) ने ग्रीनपीस के कामों को काफी समर्थन दिया था जिसके चलते इन्‍हें कोई खतरा नहीं हुआ और संस्‍था अपना काम करती रह सकी। पिछले चुनाव में सीपीआइ से लोकसभा चुनाव लड़ चुके एटक प्रभारी संजय नामदेव कहते हैं, ''जब तक ये लोग हमारे साथ रहे, किसी की हिम्‍मत नहीं थी कि इन्‍हें कुछ बोल सके। बाद में इन्‍होंने कुछ गड़बडि़यां कीं, जिसके कारण हम लोगों ने अपना पैर पीछे खींच लिया। नतीजा आपके सामने है।''

ऐसा नहीं है कि निशाने पर सिर्फ ग्रीनपीस है। रामलल्‍लू गुप्‍ता का इस इलाके में बहुत सम्‍मान है। उन्‍होंने अपना जीवन और परिवार सब कुछ मजदूर आंदोलन के हित दांव पर लगा दिया है। प्रशासन ने उन्‍हें एक ज़माने में नक्‍सली घोषित कर दिया था और बिना बताए उनके घर की कुर्की का आदेश दे दिया था। स्‍थानीय लोगों के बीच ईमानदार लेकिन अराजक माने जाने वाले संजय नामदेव के ऊपर तकरीबन चार दर्जन मुकदमे कायम हैं। उन्‍हें रासुका के तहत निरुद्ध किया जा चुका है। इतने हमलों के बावजूद वे बिल्‍कुल कलेक्‍ट्रेट के सामने राजीव गांधी चौक पर एक कमरे के दफ्तर में बैठे 'काल चिंतन'नाम का अखबार अब भी निकालते हैं। गुप्‍ता कहते हैं, ''इस इलाके को तो 1995 में ही नक्‍सली घोषित कर दिया गया था ताकि कंपनियों को अपना कारोबार करने में आसानी हो। मुझसे पहले यहां पार्टी का काम रमणिका गुप्‍ता देखती थीं जो हज़ारीबाग से एमएलए रह चुकी हैं। उस दौरान कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन जिस उफान पर था, वैसा कभी नहीं देखा गया। कांग्रेस उनकी जान के पीछे ऐसा पड़ गई थीं कि उन्‍हें मुरदे की तरह कंधे पर लादकर शहर की सीमा से बाहर निकालना पड़ा।'' 

एटकऔर सीटू की नाराज़गी के कारण ग्रीनपीस आज सिंगरौली में अकेला पड़ चुका है। कुछ बिरादराना संस्‍थाएं हैं जो इसके साथ संवाद रखती हैं, लेकिन इसके काम करने की शैली पर सिंगरौली में सवाल हैं। सरकार इसके विदेशी फंड पर सवाल उठाती है, लेकिन यहां स्‍थानीय स्‍तर पर विदेशी फंड की कोई खास चर्चा नहीं है। ग्रीनपीस का जो आधार क्षेत्र है, वहां खबर के लिहाज से बहुत कुछ हाथ नहीं लगता क्‍योंकि देश के ऐसे तमाम हिस्‍से हैं जहां एनजीओ काम कर रहे हैं और वहां के लोग एनजीओ की ही बात को दुहराते हैं। मसलन, अमिलिया गांव में बच्‍चा-बच्‍चा जिंदाबाद बोलना सीख गया है। एक-एक आदमी सामान्‍य संबोधन की जगह जिंदाबाद बोलता है। अनपढ़ औरतें भी सामुदायिक वनाधिकार की बात करती हैं। जेल में 28 दिन बिता चुके बेचन लाल साहू पूछते हैं, ''हम लोग अपने अधिकार के लिए थाने से लेकर दिल्‍ली तक जा चुके, हर जगह अर्जी लगाए, इतना मुकदमा किए, लेकिन सरकार हमारी एक नहीं सुनती। आखिर क्‍यों?''जब मैं लड़ाई के तरीकों पर सवाल उठाता हूं, तो वे तुरंत बोलते हैं, ''नहीं, लड़ाई तो अहिंसक और शांतिपूर्ण ही रहेगी।''बीच में उन्‍हें टोकते हुए ग्रीनपीस के एक कार्यकर्ता कहते हैं, ''आखिर कानून के दायरे में नियमगिरि के लोगों ने वेदांता से लड़ाई जीती ही, तो हम ऐसा क्‍यों नहीं कर सकते?''सभी लोग सहमति में सिर हिलाते हैं। जिंदाबाद बोलकर सब आगे बढ जाते हैं और हम घाटी की तरफ चल पड़ते हैं जहां कुछ औरतों ने कंपनी के खिलाफ गोलबंदी की हुई है।

अमिलिया गांव की औरतों ने वन क्षेत्र को घेरने वाले पिलर निर्माण का काम रोक दिया है

बुधेर गांव के रास्‍ते में पड़ने वाली एक घाटी में एक पेड़ के नीचे करीब तीसेक औरतें बैठी हैं। पता चलता है कि पेड़ों की मार्किंग के बाद एस्‍सार कंपनी वाले पत्‍थर लगाकर वन क्षेत्र को घेरने की तैयारी कर रहे हैं। पेड़ के पास में ही एक अधबना पिलर मौजूद है। पिछले कुछ दिनों से अमिलिया गांव की ये औरतें रोजाना यहां एकजुट हो रही हैं और पिलर को बनने से रोके हुए हैं। आज भी ये सवेरे से ही यहां डटी हुई हैं और कंपनी के लोगों को लौटा चुकी हैं। हमारे वहां पहुंचने पर सभी एक स्‍वर में नारा लगाती हैं, 'जिंदाबाद'। थोड़ी बातचीत करने पर एक महिला बताती हैं, 'इस जंगल से हम लोग तेंदु, डोरी, महुआ बीनते हैं। इसी पर हमारा जीवन निर्भर है और कंपनी वाला इसको लेना चाह रहा है। जंगल तो हमारा था और हमारा ही रहेगा।'' 

इसी बातचीत के बीच में ग्रीनपीस के विनीत अचानक उस महिला से कहते हैं, 'पहले तुम लोग ये समझती थीं कि जंगल सरकार का है अब ये समझती हो कि जंगल जनता का है। ये समझदारी कैसे बनी, जरा इसके बारे में भी बताओ।'महिला कहती है, 'जंगल तो हमारा हइये है।'मैंने विनीत की बात को साफ़ करते हुए महिला से कहा, ''ये बताइए कि ग्रीनपीस के लोगों ने आपकी जागरूकता बढ़ाने में कैसे मदद की।''इस पर वह महिला मुस्‍कुरा दी। उसके हंसने का आशय जो भी रहा हो, लेकिन विनीत ने फिर विस्‍तार से बताया कि कैसे इस गांव के लोग पहले जंगल को सरकारी समझते थे और उन्‍हें बताना पड़ा कि यह जंगल उन्‍हीं का है। विनीत बोले, ''जो भी फैसला लेना है, इन्‍हीं लोगों को लेना है। सारी लड़ाई महान संघर्ष समिति की है। हम तो बस पॉलिसी लेवल पर इनकी मदद करते हैं।''

( 'जनपथ' से साभार )




अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम 
 संपर्क - guruabhishek@gmail.com 

सिंगरौली: इंसान और ईमान का नरक कुंड-2

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-अ‍भिषेक श्रीवास्‍तव

पिछले महीने मीडिया में लीक हुई एक 'खुफिया'रिपोर्ट में भारत की इंटेलिजेंस ब्‍यूरो ने कुछ व्‍यक्तियों और संस्‍थाओं के ऊपर विदेशी धन लेकर देश में विकास परियोजनाओं को बाधित करने का आरोप लगाया था। इसमें ग्रीनपीस नामक एनजीओ द्वारा सिंगरौली में एस्‍सार-हिंडाल्‍को की महान कोल कंपनी के खिलाफ चलाए जा रहे आंदोलन का भी जि़क्र था। आज़ादी के बाद सिंगरौली के विकास की पूरी कहानी विश्‍व बैंक और अन्‍य विदेशी दानदाताओं के पैसे से लगी सरकारी परियोजनाओं के कारण मची व्‍यापक तबाही व विस्‍थापन के कई अध्‍याय संजोए हुए है। 
जहां छह दशक से विकास के नाम पर विदेशी पैसे से सिर्फ विनाशलीला को सरकारें अंजाम दे रही हों, वहां विकास के इस विनाशक मॉडल के खिलाफ बोलने वाला कोई संस्‍थान या व्‍यक्ति खुद विकास विरोधी कैसे हो सकता है? जो सरकारें सिंगरौली में कोयला खदानों व पावर प्‍लांटों के लिए विश्‍व बैंक व एडीबी से पैसा लेने में नहीं हिचकती हो, उन्‍हें जनता के हित में बात करने वाले किसी संगठन के विदेशी अनुदान पर सवाल उठाने का क्‍या हक है? 
विकास के मॉडल पर मौजूदा बहस को और साफ़ करने के लिहाज से इन सवालों की ज़मीनी पड़ताल करती एक रिपोर्ट सीधे सिंगरौली से हम पाठकों के लिए किस्‍तों में प्रस्‍तुत कर रहे हैं, ताकि वे जान सकें कि मानव विकास के असली विरोधी कौन हैं और सरकार जिस विकास की बात करती है, उसका असल मतलब क्‍या है। 

चयनित विरोध की राजनीति

हम निकलने को हुए तो एक नौजवान जंगल की ओर से आता दिखा। उसने एक खूबसूरत सी सफेद रंग की टीशर्ट पहनी हुई थी। उस पर लिखा था ''आइ एम महान''। जंगलिस्‍तान प्रोजेक्‍ट का लोगो भी छपा था। उसने बताया कि यह शर्ट उसने बंबई से खरीदी है। बंबई क्‍यों गए थे, पूछने पर पता चला कि ग्रीनपीस की तरफ से गांव के कुछ लोगों को एस्‍सार कंपनी के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए ले जाया गया था जहां इन्‍हें गिरफ्तार कर लिया गया। विनीत ने बताया कि वहीं इस प्रदर्शन के सिलसिले में यह टी-शर्ट कार्यकर्ताओं में बांटी गई थी, हालांकि गांव में ही रहने वाले समिति के एक युवक जगनारायण ने तुरंत बताया कि एक शर्ट की कीमत 118 रुपये है। कुल 40 पीस बनवाए गए थे। टी-शर्ट की कहानी चाहे जो हो, लेकिन शहर के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता यह सवाल ज़रूर उठाते हैं कि जब कोयला खनन करने वाली कंपनी महान कोल में एस्‍सार और हिंडालको की आधा-आधा हिस्‍सेदारी है, तो फिर सारा का सारा विरोध एस्‍सार का ही क्‍यों किया जा रहा है। लोकविद्या जनांदोलन से जुड़े एक स्‍थानीय कार्यकर्ता रवि कहते हैं, ''मैंने भी एक बार पूछा था कि आखिर एस्‍सार की इमारत पर ही क्‍यों बैनर टांगा गया? यह काम तो हिंडालको की बिल्डिंग पर भी किया जा सकता था? मुझे इसका जवाब नहीं मिला।''

संजय नामदेव ग्रीनपीस के काम के बारे में विस्‍तार से समझाते हैं। शुरुआती दौर में महान कोल के खिलाफ संयुक्‍त संघर्ष में एक अनशन की याद करते हुए वे कहते हैं, ''अनशन सबने मिलकर किया था। अनशन की योजना मेरी थी। शाम को ग्रीनपीस ने अपने नाम से प्रेस में बयान जारी कर दिया। ये क्‍या बात हुई? इन लोगों ने हमारे आंदोलन को हाइजैक कर लिया। उसके बाद से मैं पलट कर वहां नहीं गया।''इसके उलट ग्रीनपीस के कार्यकर्ता और समिति के लोग संजय का नाम सुनते ही एक स्‍वर में कहते हैं, ''वह तो भगोड़ा है। तीन दिन बाद बीच में ही अनशन को छोड़ कर भाग गया।''ग्रीनपीस के यहां आने से काफी पहले से संजय नामदेव सिंगरौली में ऊर्जांचल विस्‍थापित एवं कामगार यूनियन चला रहे हैं। इसका दफ्तर बरगवां में है। बीती 17 जनवरी को उन्‍होंने बरगवां में विस्‍थापितों और मजदूरों का एक विशाल सम्‍मेलन किया था। संजय कहते हैं, ''हम लोग तो यहां की सारी परियोजनाओं से विस्‍थापित लोगों और इनमें काम करने वाले मजदूरों की बात करते हैं। सवाल उठता है कि जब इतनी सारी परियोजनाएं यहां लगाई जा रही हैं तो ग्रीनपीस वाले सिर्फ एस्‍सार के पीछे क्‍यों पड़े हुए हैं।''ग्रीनपीस के सुनील दहिया ऐसे सवाल उठाने पर जवाब देते हैं, ''इस सवाल का जवाब मैं नहीं दे सकता। हो सकता है कि ऊपर के अधिकारियों ने यह देखा हो कि कौन सी कंपनी का विरोध करना ज्‍यादा 'फीजि़बिल'होगा। शायद उन्‍होंने सर्वे किया हो कि किसी बिल्डिंग पर जाकर विरोध करना ज्‍यादा आसान, व्‍यवहारिक और प्रचार के लिहाज़ से उपयुक्‍त है। शायद यही सोचकर उन्‍होंने एस्‍सार को चुना हो। बार-बार एस्‍सार का नाम आने की एक वजह यह भी हो सकती है कि जिन गांवों के जंगलों को उजाड़ा जा रहा है, वहां एस्‍सार कंपनी का प्‍लांट मौजूद है। चूकि गांव वालों को सामने एस्‍सार का प्‍लांट ही दिखता है, इसलिए समिति के लोगों ने एस्‍सार का विरोध करना चुना हो। हालांकि हम तो हिंडालको का भी विरोध करते हैं।''

चुनिंदा विरोध और व्‍यापक विरोध की राजनीति का फ़र्क सिंगरौली में बिल्‍कुल साफ़ दिखता है। पिछले कुछ वर्षों से यहां के विस्‍थापितों के बीच लोकविद्या की अवधारणा पर काम कर रहे रवि शेखर बताते हैं, ''यहां शुरू से तीन किस्‍म के संगठन रहे हैं। एक, जिनका अंतरराष्‍ट्रीय एक्‍सपोज़र रहा है। दूसरे, जिनका राष्‍ट्रीय एक्‍सपोज़र रहा है। तीसरे, जो स्‍थानीय हैं। तीनों ने अपने-अपने हिसाब से कंपनियों पर अलग-अलग मसलों को लेकर दबाव बनाया है और संघर्ष को आखिरी मौके पर भुना लिया है। कुछेक लोग अवश्‍य हैं जिन्‍हें हम ईमानदार कह सकते हैं, जैसे संजय या सीपीएम के रामलल्‍लू गुप्‍ता, वरना सबने ठीकठाक पैसा बनाया है।''ऐसा कहते हुए हालांकि रवि ग्रीनपीस के काम को ज़रूर सराहते हैं, ''शुरुआत में इनके काम करने का तरीका ठीक नहीं था। ये लोग पहली बार फील्‍ड में काम कर रहे थे और कई मसलों पर अपने निर्णय स्‍थानीय लोगों पर थोपते नज़र आते थे। धीरे-धीरे इन्‍होंने काम करना सीखा और मुझे खुशी है कि लोगों की भावनाओं को जगह देकर आज ग्रीनपीस ने यहां बरसों बाद एक बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है। मुझे लगता है कि यहां काम कर रहे मजदूर संगठनों और अन्‍य को भी काम करने के अपने तरीकों में बदलाव लाना चाहिए।'' 

अमिलिया से लेकर बुधेर गांव तक आंदोलन की एक ज़मीन अवश्‍य दिखती है। पेड़ के नीचे गोलबंद औरतों से लेकर जिंदाबाद बोलता बच्‍चा-बच्‍चा ग्रीनपीस की मेहनत का अक्‍स है। कुछ बातें हालांकि ऐसी हैं जो अस्‍पष्‍टता लिए हुए हैं। मसलन, हम अपनी यात्रा के अगले पड़ाव में अनिता कुशवाहा के घर बुधेर गांव में पहुंचते हैं। अनिता शादीशुदा हैं। अपने पिता के घर पर रहती हैं। आंदोलन का महत्‍वपूर्ण चेहरा हैं लेकिन उनके पति खुद एस्‍सार कंपनी में नौकरी करते हैं। वे तीन दिन से काम पर गए हुए हैं और नहीं लौटे हैं। वे बताती हैं कि कंपनी ने 12000 रुपये का भुगतान अब तक नहीं किया है। उनके पिता के पास इस सीज़न में तेंदू पत्‍ते के संग्रहण का टेंडर है। हम जब वहां पहुंचते हैं, तो उनके पिता तेंदू पत्‍ता संग्राहकों के जॉब कार्ड उलट-पलट रहे होते हैं। इस गांव के 40 परिवारों में से 30 का ठेका उनके पास है। अगले दसेक दिन में तेंदू पत्‍ते का सीज़न समाप्‍त हो जाएगा। सरकार जो भी कमीशन देगी, वही उनकी कमाई होगी। जॉब कार्ड पर सबसे ज्‍यादा नाम क्रमश: खैरवार, यादव और कुशवाहा के हैं। खैरवार यहां के आदिवासी हैं। जो बातें हमें घाटी में गोलबंद महिलाओं ने बताई थी, अनिता भी कमोबेश वही सारी बातें हमसे बिल्‍कुल रटे-रटाए लहजे में कहती हैं। उनकी ससुराल बिहार के औरंगाबाद जिले में है। अब तक दो-तीन बार ही वे वहां गई हैं। यहां रहकर आंदोलन में हाथ बंटाती हैं। उन्‍हें नहीं पता कि उनके पति कंपनी में क्‍या काम करते हैं अलबत्‍ता कंपनी के उन अधिकारियों के नाम उन्‍हें कंठस्‍थ हैं जो गाहे-बगाहे यहां डराने-धमकाने आते हैं। हम अनिता के घर से देर शाम को लौटे। अगले दिन पता चला कि आधी रात उनके चाचा ने इस बहाने उनकी पिटाई की थी कि उन्‍होंने उनकी ज़मीन से फल क्‍यों बंटोरे। ग्रीनपीस के कार्यकर्ताओं का कहना है कि उसका चाचा कंपनी का आदमी है। अनिता कह रही थी कि उसका पूरा परिवार कंपनी का विरोधी है। किस घटना का क्‍या तर्क है, यह समझना यहां वाकई मुश्किल है।

पहचान का संकट

सिंगरौलीमें कौन किसका आदमी है, यह जानना सबसे मुश्किल काम है। यही सिंगरौली का सबसे बड़ा सवाल भी है। यह सवाल नया नहीं है, बल्कि आज़ाद भारत में उभरे औद्योगिक केंद्रों के भीतर नागरिकता की पहचान के संकट से जुड़ी जो प्रवृत्तियां अकसर दिखती है, उसकी ज़मीन सिंगरौली में बाकी हिंदुस्‍तान से काफी पहले तैयार हो चुकी थी जब 1840 में यहां पहली बार कोयला पाया गया। सिंगरौली में कोयला खनन की पहली संभावना को एक अंग्रेज़ कैप्‍टन राब्‍थन ने तलाशा था (लीना दोकुज़ोविच, सन्‍हति, 30 सितंबर 2012)। अठारहवीं सदी के अंत में यहां खनन का कारोबार शुरू हुआ। सिंगरौली की पहली ओपेन कास्‍ट खदान 1857 में कोटव में खोदी गई और सोन नदी के रास्‍ते दूसरे शहरों तक कोयले का परिवहन शुरू हुआ। कालांतर में रेलवे के विकास के चलते कोयले को ले जाना ज्‍यादा आसान हो गया जिसके चलते दूसरी खदानों को तरजीह दी जाने लगी और अगले कई सालों तक सिंगरौली की खदानें निष्क्रिय पड़ी रहीं। भारत की आज़ादी के बाद राष्‍ट्रीयकरण के दौर में जब ऊर्जा की जरूरत बढ़ी, तो कोल इंडिया ने पचास के दशक के आरंभ में सिंगरौली में दोबारा खनन कार्य शुरू किया। इसी दौर में यह बात साफ़ हो सकी कि 200 किलोमीटर की पट्टी में बिखरी कोयला खदानों के साथ प्रचुर मात्रा में पानी की उपलब्‍धता के चलते यह थर्मल पावर प्‍लांटों के लिए आदर्श जगह हो सकती है।

इसकेबाद 1960 में अचानक बिना किसी पर्याप्‍त सूचना के गोबिंद सागर जलाशय और रिहंद बांध के लिए विस्‍थापन का काम शुरू कर दिया गया। चूंकि आबादी बहुत ज्‍यादा नहीं थी और सरकार के पास वन भूमि प्रचुर मात्रा में थी, इसलिए प्रत्‍येक परिवार को शुरू में पांच एकड़ ज़मीन दे दी गई। विस्‍थापितों में कुल 20 फीसदी परिवार जिनमें अधिसंख्‍या आदिवासी थे, उन्‍होंने इसके बावजूद इलाका छोड़ दिया जिनका आज तक कुछ अता-पता नहीं है (जन लोकहित समिति की रिपोर्ट, कोठारी 1988)। किसी पुनर्वास नीति के अभाव में लोगों ने औना-पौना मुआवज़ा स्‍वीकार कर लिया जिसमें एक नया मकान बनाना भी मुमकिन नहीं था। इन विस्‍थापित परिवारों में करीब 60 फीसदी जलाशय के उत्‍तरी हिस्‍से में बस गए, जो एक बार फिर कालांतर में एनटीपीसी के सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्‍ट लगने के कारण विस्‍थापित हुए।

हार्डीकरकी रिपोर्ट के मुताबिक सिंगरौली में बांध/जलाशय, खनन और ताप विद्युत परियोजनाओं से दो लाख से ज्‍यादा लोग अब तक उजड़े हैं। हार्डीकर अपनी रिपोर्ट में डाना क्‍लार्क को उद्धृत करते हैं (सेंटर फॉर इंटरनेशनल लॉ में अमेरिकी अटॉर्नी, जिन्‍होंने सिंगरौली में विशेष तौर से विश्‍व बैंक अनुदानित परियोजनाओं की भूमिका पर टिप्‍पणी की है), ''...सिंगरौली में ग्रामीणों की यातना की कहानी चौंकाने वाली है और इन लोगों का समग्र आकलन होना चाहिए जिनकी जिंदगी विकास के नाम पर तबाह कर दी गई।''जिस विकास की बात क्‍लार्क कर रही हैं, उसमें तेज़ी अस्‍सी के दशक में आई जब एनटीपीसी के तीन प्रोजेक्‍ट यहां प्रस्‍तावित हुए, साथ ही उत्‍तर प्रदेश बिजली बोर्ड का अनपरा प्रोजेक्‍ट प्रस्‍तावित किया गया। इन सभी परियोजनाओं के लिए नौ ओपेन कास्‍ट खदानें लगाई गईं जिनका मालिकाना नॉरदर्न कोलफील्‍ड्स लिमिटेड के पास है। अगले दशक में इनके चलते 20,504 भूस्‍वामियों की ज़मीनें गईं और 4,563 परिवार विस्‍थापित हो गए। कई दूसरी बार विस्‍थापित हुए थे।

विश्‍वबैंक ने हालांकि एनटीपीसी से प्रभावित लोगों के लिए उपयुक्‍त पुनर्वास और पुनर्स्‍थापन पर ज़ोर दिया था और कोयला खनन परियोजनाओं ने हर प्रभावित परिवार में से एक व्‍यक्ति के लिए रोजगार का प्रावधान किया था, लेकिन लोगों ने खुद को जन लोकहित समिति के बैनर तले संगठित किया और परियोजनाओं का विरोध किया। समिति की रिपोर्ट कहती है, ''5 फरवरी 1988 को सामूहिक विरोध की एक विशाल अभिव्‍यक्ति के तहत 15000 से ज्‍यादा लोग जिनमें अधिकतर आदिवासी थे, सिंगरौली की सड़कों पर उतरे... वे बीते दिन दशकों में बार-बार हुए विस्‍थापन के सदमे और असुरक्षा से तंग आ चुके थे...।''विस्‍थापन की कहानी हालांकि यहीं नहीं रुकी बल्कि सिंगरौली के ''विकास''की तीसरी लहर निजी कंपनियों के रूप में देखने को अई जब यहां रिलायंस, हिंडाल्‍को और एस्‍सार ग्‍लोबल को परियोजनाएं शुरू करने की अनुमति मिली। एक बार फिर पहले से विस्‍थापित लोगों के सामने फिर से विस्‍थापित होने का खतरा पैदा हो गया। पहली और दूसरी लहर में विश्‍व बैंक व अंतरराष्‍ट्रीय वित्‍त संस्‍थाओं के कर्ज की भूमिका थी तो इस बार सीधे तौर पर कॉरपोरेट वित्‍तीय पूंजी से लोगों का सामना था।

संजयकहते हैं, ''जब तक सरकारी कंपनियों से विस्‍थापन का सवाल था, उनसे तो हम किसी तरह लड़-झगड़ लेते थे। माहौल इतना खराब नहीं था। प्राइवेट कंपनियों के आने के बाद स्थिति काबू से बाहर हो गई है। कब किसे उठा लिया जाए, मार दिया जाए, कोई पता नहीं।''छह दशक में लोगों के बीच पनपा यही डर और अविश्‍वास था कि हर व्‍यक्ति चाहे वह प्रभावित हो या अप्रभावित, निजी समृद्धि के एजेंडे में जुट गया और धीरे-धीरे आंदोलनों के ऊपर से जनता का विश्‍वास जाता रहा। रामलल्‍लू गुप्‍ता कहते हैं, ''लोगों को पैसा दो तो वे भागे हुए आएंगे। इनका ईमान बिगड़ गया है। अब हमारे बार-बार बुलाने पर भी कोई नहीं आता।''सिंगरौली एटक के महासचिव राजकुमार सिंह कहते हैं, ''यहां की जनता ही दोगली हो गई है। जब तक यहां की जनता का आखिरी रस नहीं निचुड़ जाएगा, उसे अपने सामने मौजूद खतरे की बात समझ में नहीं आने वाली। हम लोग उसी दिन का इंतज़ार कर रहे हैं।''
...जारी

( 'जनपथ' से साभार )




अभिषेक स्वतंत्र पत्रकार हैं.
 ढेर सारे अख़बारों और इलेक्ट्रोनिक मीडिया में भी काम 
 संपर्क - guruabhishek@gmail.com 
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