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संप्रदायिकता नहीं, जातीय वर्चस्व की जंग में आजमगढ़ में मुलायम

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-मसीहुद्दीन संजरी

"...आजमगढ़ में बसपा बनाम भाजपा की जंग अब मुलायम सिंह के प्रत्याशी बनने के बाद बसपा बनाम सपा तो होती दिखाई दे रही है, लेकिन 'मुसलमान सपा के साथ नहीं आया तो भाजपा जीत सकती है'वाली सपा की पसंदीदा स्थिति यहां अभी नहीं है और उसके उत्पन्न होने की कोई संभावना भी कम है। वैसे तो पूरे प्रदेश में जातियों के राजनीतीकरण पर आधारित राजनीति स्थापित हो चुकी है, लेकिन पूर्वांचल की जलवायु इसके लिए अधिक अनुकूल साबित हुई है।..."

साभार- http://pbs.twimg.com/
मुलायम सिंह यादव आजमगढ़ से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी हो सकते हैं, समाचार माध्यमों में इस इस तरह की अटकलें पहले से ही थीं परन्तु हर बार पार्टी की ओर से इसका खण्डन किया जाता रहा। मंथन इस बात पर चल रहा था कि सपा के इस क्षेत्र में खिसकते जातीय आधार पर कैसे काबू पाया जाए? ऐसे में सपा द्वारा यह कहना कि सांप्रदायिकता के खिलाफ आजमगढ़ में मुलायम सिंह चुनाव मैदान में हैं, यह महज एक शिगूफा है, जिसे क्षेत्र का मुसलमान समझ रहा है। 

गौरतलबहै कि आजमगढ़ में कभी मुलायम के सिपहसालार रहे रमाकांत यादव पिछली लोकसभा में भाजपा के टिकट पर निर्वाचित हुए थे और यह साबित कर दिया था कि स्थानीय यादव मतदाताओं का बड़ा वर्ग उनके साथ है। इससे पहले भी दो बार सपा के कद्दावर यादव नतोओं को इस मामले में उनके सामने मुंह की खानी पड़ी थी। अपने इस जातीय आधार को पार्टी में वापस लाने का सपा नेताओं का हर प्रयास विफल साबित हो रहा था। अब यह समस्या मात्र आजमगढ़ तक सीमित नहीं रह गई थी। इसी राह पर चलते हुए एक तरफ गाजीपूर में एकता मंच गठबंधन की तरफ से प्रत्याशी बन कर आए डीपी यादव और दूसरी तरफ जौनपूर में पार्टी से बगावत करके चुनावी रण में कूद पड़ने वाले केपी यादव ने भी सपा की मुश्किलें बढ़ा दी थीं। कुल मिला कर सपा के लिए यह पूरा इलाका ’चिन्ता क्षेत्र’ में तबदील होने लगा था। जातिवाद की राजनीति करने वाली समाजवादी पार्टी को उसके उसी हथियार से सपा के इन पूर्व यादव क्षत्रपों ने इस चुनाव में पार्टी के घोषित और अघोषित भावी प्रत्याशियों को हाशिए पहुंचा दिया था। इन परिस्थितियों में अवश्यकता थी इस क्षेत्र में किसी ऐसे बड़े नेता की, जो इन चुनौतियों का सामना करने में सक्षम हो और आसपास के क्षेत्रों को भी प्रभावित कर सके। जाहिर सी बात है इसके लिए सपा प्रमुख से ज्यादा उपयुक्त और कौन हो सकता था।
 
दूसरीतरफ सपा शासन में होने वाले दंगों और अखिलेश सरकार द्वारा उससे निपटने के संदिग्ध तौर तरीकों से मुसलमान वोटर भी नाराज है। इस स्थिति में मुसलमानों को साथ लाने का एक ही मंत्र बचा था और वह था-अपने आपको भाजपा का विकल्प बना कर पेश करना, जिसका इस पूरे क्षेत्र में सपा दूर से भी कोई संकेत नहीं दे पा रही थी। मोदी के वाराणसी से प्रत्याशी बनते ही सपा के रणतीतिकारों को लगा कि उनकी यह समस्या भी हल हो गई। मुलायम सिंह के आजमगढ़ से चुनाव लड़ने की घोषणा के साथ यह प्रचारित किया जाने लगा कि पूर्वांचल में मोदी के प्रभाव को खत्म करने के लिए यह कदम उठाया गया है, लेकिन शायद समाजवादी पार्टी और उसके मुखिया के लिए यह राह उतनी आसान साबित न हो।

आजमगढ़में बसपा बनाम भाजपा की जंग अब मुलायम सिंह के प्रत्याशी बनने के बाद बसपा बनाम सपा तो होती दिखाई दे रही है, लेकिन 'मुसलमान सपा के साथ नहीं आया तो भाजपा जीत सकती है'वाली सपा की पसंदीदा स्थिति यहां अभी नहीं है और उसके उत्पन्न होने की कोई संभावना भी कम है। वैसे तो पूरे प्रदेश में जातियों के राजनीतीकरण पर आधारित राजनीति स्थापित हो चुकी है, लेकिन पूर्वांचल की जलवायु इसके लिए अधिक अनुकूल साबित हुई है। इस क्षेत्र में पिछड़ी तथा अनुसूचित जातियों के राजनीतिकरण ने छोटे-छोटे राजनीतिक दलों की संख्या हर चुनाव में बढ़ाई है। आजमगढ़ लोकसभा में यादव मतदाता का अनुपात सबसे अधिक लगभग 21 प्रतिशत है जबकि मुसलमान 19 प्रतिशत,  हरिजन लगभग 16 प्रतिशत और क्षत्रिय वोटों की संख्या 8 प्रतिशत है। बाकी मतदाताओं में बड़ी संख्या अति पिछड़ा वर्ग और अन्य दलितों की है, जिनकी पहचान किसी एक दल के वोटर के रूप में नहीं है। ऐसे में इस चुनाव में मुसलमान मतदाताओं की भूमिका निर्णायक हो सकती है। लेकिन यह स्थिति भी किसी भी तरह समाजवादी पार्टी सुप्रीमों के पक्ष में जाती नजर नहीं आती। 

यदियह मान लिया जाए कि भाजपा हार जीत की लड़ाई से बाहर हो गई है तो मुसलमानों को कई टुकड़ों में बंटने से रोक पाना मुश्किल हो जाएगा। अगर भाजपा की जीत की दावेदारी बरकरार रहती है तो यह उसी हालत में सम्भव होगी जब यादव मतदाताओं का एक वर्ग अपने क्षेत्रीय क्षत्रप के साथ खड़ा हो। इसका दूसरा अर्थ होगा मुलायम सिंह की दावेदारी का कमजोर होना। ऐसी हालत में मुसलमान इस आशंका के बावजूद कि चुनाव पश्चात सपा के मुकाबले में बसपा की राजग के साथ चले जाने की सम्भावना अधिक है, लामबंद होकर बसपा के साथ जा सकता है। कुल मिला कर जहां तक मुस्लिम मतदाताओं का सवाल है, यह दोनों ही परिस्थितियां मुलायम के खिलाफ जाती नजर आती हैं। इस प्रकार की किसी प्रतिकूल स्थिति से बाहर निकलने के लिए अति पिछड़ों और गैर हरिजन दलितों का एक बड़ा भाग शेष रह जाता है, जिस पर सभी पार्टियों साथ साथ प्रदेश के सत्ताधारी दल की निगाह भी अवश्य होगी। चनावी दंगल के अंतिम चरण में आजमगढ़ एक बड़ा अखाड़ा बनने वाला है यह तो निश्चित है, लेकिन सपा रणनीतिकारों की योजना कितनी सफल होती है इसमें राजनीतिक विश्लेषकों दिलचस्पी जरूर रहेगी। 

मसीहुद्दीन संजरी
ग्राम व पोस्ट-संजरपुर
जिला आजमगढ़
उत्तर प्रदेश
मोबाइल नम्बर-8090696449


रिवाल्वर रानी फूलन देवी नहीं है...

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अतुल आनंद
-अतुल आनंद

"...अगर रिवाल्वर रानी फूलन देवी नहीं है तो फिर क्या है? जवाब भी शायद फिल्म में ही मिल जाता है। क्लाइमेक्स में जिस गेस्ट हाउस की छत पर अल्का सिंह एक निर्णायक लड़ाई लड़ रही होती है, फिल्म में उस गेस्ट हाउस का नाम रानी लक्ष्मीबाई अकारण नहीं बताया जाता है। अल्का सिंह भी लक्ष्मीबाई ही है जो सत्ता के लिए लड़ रही होती है, किसी सामाजिक परिवर्तन के लिए नहीं!..."


फिल्म रिवाल्वर रानी में अल्का सिंह (कंगना रानाउत) को चंबल की डाकू के रूप में दिखाया गया है जो अपने बाप की हत्या का बदला लेने के लिए डाकू बन जाती है। अल्का के पहनावे का ढंग फूलन देवी और माइकल जैक्सन का मिलाजुला रूप लगता है। लेकिन अल्का सिंह उर्फ़ रिवाल्वर रानी फूलन देवी नहीं है। रिवाल्वर रानी अपनी जाति की वजह से हिंसा की शिकार हो डाकू नहीं बनी। रिवाल्वर रानी उन फिल्मों की फेहरिस्त में शामिल हो गयी है जो यथार्थवादी और समाज के वंचित तबकों की कहानी कहने का भ्रम पैदा करती है।

फिल्म में एक जगह अल्का सिंह अपने प्रतिद्वंदी पर पैसे लेकर गरीब आदिवासियों के जमीन हड़पने का आरोप लगाती दिखती है। अल्का सिंह का ‘आदिवासी-आदिवासी’ और ‘सिद्धांता’ चिल्लाना खोखला लगता है। पूरी फिल्म में कहीं कोई आदिवासी या उनके मुद्दे नज़र नहीं आते। यह बिलकुल वैसा ही जैसा कि रॉकस्टार फिल्म में अचानक एक गाने में तिब्बत मुक्ति के नारे वाले बैनर ठूंस दिये जाते है और हम खोजते रह जाते कि फिल्म की कहानी में तिब्बत का मुद्दा कहां है या फिर ‘साड्डा हक़’ चिल्लाता हुआ नायक आखिर इतना ‘क्रांतिकारी’ किस चीज को लेकर हो रहा है!

रिवाल्वररानी फिल्म के शुरू के क्रेडिट बिलकुल जेम्स बांड शैली में बनाये गए है जिसमें मार-धाड़ और एक्शन के बीच एक जगह अल्का सिंह को एक मार्क्सवादी प्रतीक के आगे खड़ा कर दिया जाता है। पूरे फिल्म में मुख्य किरदार अलका सिंह ऐशोआराम और विलासिता में डूबी हुयी है। अल्का बीच-बीच में रजनीकांत की तरह गोलियां भी चलाती है। कुछ लोग फिल्म को ‘ब्लैक कॉमेडी’ कह कर इसका बचाव करते नज़र आ सकते हैं लेकिन फिल्म ब्राह्मणवादी आदर्शों को स्थापित करने वाले एक भद्दे मजाक से ज्यादा कुछ नहीं है। अपने जाति के दबंगों के खिलाफ बंदूक उठाने वाली अल्का पतिव्रता भाव से हिन्दू पितृसत्तात्मक समाज के सभी कायदे-कानून निभाती है। रिवाल्वर रानी का प्रेमी भले ही बेवफा हो लेकिन उसके लिए करवाचौथ का व्रत करना वह नहीं भूलती।


अगररिवाल्वर रानी फूलन देवी नहीं है तो फिर क्या है? जवाब भी शायद फिल्म में ही मिल जाता है। क्लाइमेक्स में जिस गेस्ट हाउस की छत पर अल्का सिंह एक निर्णायक लड़ाई लड़ रही होती है, फिल्म में उस गेस्ट हाउस का नाम रानी लक्ष्मीबाई अकारण नहीं बताया जाता है। अल्का सिंह भी लक्ष्मीबाई ही है जो सत्ता के लिए लड़ रही होती है, किसी सामाजिक परिवर्तन के लिए नहीं! फिल्म के अंतिम शॉट में नायिका को गोली खा कर बुरी तरह घायल होने के बाद एक ‘आदिवासी’ कैंप में दिखाया जाता है जहां वह शायद एक ‘मार्क्सवादी’ देवी और आदिवासियों के मसीहा के रूप में पुनर्जन्म लेने के लिए तैयार बैठी है। दिलचस्प बात यह है कि रील लाइफ की इस ‘मार्क्सवादी देवी’ की एक रियल लाइफ समकक्ष का उदाहरण हमें हाल ही में देखने को मिला। एक लेखिका, जिसका दलितों के मुद्दों और अंबेडकर के लेखन से जुड़ने का कोई इतिहास न था, उसे अचानक ही अंबेडकर को दुनिया के सामने लाने का जिम्मा देकर दलितों के मसीहा के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जाती है। दलितों की प्रतिक्रिया पर लेखिका यह कहकर अपनी जिम्मदारियों से मुक्त हो जाती है कि दलित अगर चाहे तो अंबेडकर की किताब की और भी भूमिकाएं लिख सकते हैं (जैसे कि दलितों को भी उसके ही तरह अवसर दिये जाएंगे)। शायद ‘क्रांति’ इन ‘डीकास्ट’ हो चुके ‘मार्क्सवादियों’ के नेतृत्व में ही हासिल की जा सकती है...


अतुल 'टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान' (TISS), मुंबई से
मीडिया में स्नातकोत्तर कर रहे है.
इनसे संपर्क का पता है- thinker.atul@gmail.com

यह एक गाथा है… उनके लिए जो ज़िन्दगी से प्रेम करते हैं..

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हावर्ड फास्ट

-हावर्ड फास्ट

'मई दिवस'विशेष

वर्ष 1947 के मई दिवस के अवसर पर लिखा गया प्रसिद्ध अमेरिकी उपन्यासकार हावर्ड फास्ट का यह लेख मई दिवस की गौरवशाली परम्पराओं की याद एक ऐसे समय में करता है जब अमेरिका में लम्बे संघर्षों से हासिल मज़दूर अधिकारों पर हमला बोला जा रहा था। आज भारत में देशी-विदेशी पूँजी की मिली-जुली ताक़त ने श्रम पर ज़बरदस्त हमला बोल दिया है। ऐसे में यह लेख आज भारत के मज़दूरों के लिए लिखा गया महसूस होता है, और मई दिवस की यह गाथा उत्साह और जोश से भर देती है। इसका अनुवाद 1946 के नौसेना विद्रोह में शामिल रहे ‘मज़दूर बिगुल’ के वयोवृद्ध सहयोगी सुरेन्द्र कुमार ने किया है। 

The Potato Eaters

by - Vincent van Gogh,

 Oil on canvas, 81.5 x 114.5 cm
ह गाथा आपमें से बस उनके लिए है जो ज़िन्दगी से प्यार करते हैं और जो आज़ाद इन्सानों की तरह जीना चाहते हैं। आप सबके लिए नहीं, आपमें से बस उनके लिए, जो हर उस चीज़ से नफरत करते हैं, जो अन्यायपूर्ण और ग़लत है, जो भूख, बदहाली और बेघर होने में कोई कल्याणकारी तत्व नहीं देखते। आपमें से उनके लिए, जिन्हें वह समय याद है, जब एक करोड़ बीस लाख बेरोज़गार सूनी आँखों से भविष्य की ओर ताक रहे थे।

यह एक गाथा है, उनके लिए, जिन्होंने भूख से तड़पते बच्चे या पीड़ा से छटपटाते इन्सान की मन्द पड़ती कराह सुनी है। उनके लिए, जिन्होंने बन्दूक़ों की गड़गड़ाहट सुनी है और टारपीडो के दागे जाने की आवाज़ पर कान लगाये हों। उनके लिए, जिन्होंने फासिज्म द्वारा बिछायी गयी लाशों का अम्बार देखा है। उनके लिए, जिन्होंने युद्ध के दानव की मांसपेशियों को मज़बूत बनाया था, और बदले में जिन्हें एटमी मौत का ख़ौफ दिया गया था।
यह गाथा उनके लिए है। उन माताओं के लिए जो अपने बच्चों को मरता नहीं बल्कि ज़िन्दा देखना चाहती हैं। उन मेहनतकशों के लिए जो जानते हैं कि फासिस्ट सबसे पहले मज़दूर यूनियनों को ही तोड़ते हैं। उन भूतपूर्व सैनिकों के लिए, जिन्हें मालूम है कि जो लोग युद्धों को जन्म देते हैं, वे ख़ुद लड़ाई में नहीं उतरते। उन छात्रों के लिए, जो जानते हैं कि आज़ादी और ज्ञान को अलग-अलग नहीं किया जा सकता। उन बुद्धिजीवियों के लिए, जिनकी मौत निश्चित है यदि फासिज्म ज़िन्दा रहता है। उन नीग्रो लोगों के लिए, जो जानते हैं कि जिम-क्रो’ और प्रतिक्रियावाद दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। उन यहूदियों के लिए जिन्होंने हिटलर से सीखा कि यहूदी विरोध की भावना असल में क्या होती है। और यह गाथा बच्चों के लिए, सारे बच्चों के लिए, हर रंग, हर नस्ल, हर आस्था-धर्म के बच्चों के लिए  उन सबके लिए लिखी गयी है, ताकि उनका भविष्य जीवन से भरपूर हो, मौत से नहीं।
यहगाथा है जनता की शक्ति की, उनके अपने उस दिन की, जिसे उन्होंने स्वयं चुना था और जिस दिन वे अपनी एकता और शक्ति का पर्व मनाते हैं। यह वह दिन है, जो अमरीकी मज़दूर वर्ग का संसार को उपहार था और जिस पर हमें हमेशा फख़्र रहेगा।
पहला ”मई दिवस” 1886 में शिकागो नगर में मनाया गया। उसकी भी एक पूर्वपीठिका थी, जिसके दृश्यों को याद कर लेना अनुपयुक्त नहीं होगा। 1886 के एक दशक पहले से अमेरिकी मज़दूर वर्ग जन्म और विकास की प्रक्रिया से गुज़र रहा था। यह नया देश जो थोड़े-से समय में एक महासागर से दूसरे महासागर तक फैल गया था, उसने शहर पर शहर बनाये, मैदानों पर रेलों का जाल बिछा दिया, घने जंगलों को काटकर साफ़ किया, और अब वह विश्व का पहला औद्योगिक देश बनने जा रहा था। और ऐसा करते हुए वह उन लोगों पर ही टूट पड़ा जिन्होंने अपनी मेहनत से यह सब सम्भव बनाया था, वह सबकुछ बनाया था जिसे अमेरिका कहा जाता था, और उनके जीवन की एक-एक बूँद निचोड़ ली।

उन्होंने आपको यह नहीं बताया

स्कूल में आपने इतिहास की जो पुस्तकें पढ़ी होंगी उनमें उन्होंने यह नहीं बताया होगा कि ”मई दिवस” की शुरुआत कैसे हुई थी। लेकिन हमारे अतीत में बहुत कुछ उदात्त था और साहस से भरपूर था, जिसे इतिहास के पन्नों से बहुत सावधानी से मिटा दिया गया है। कहा जाता है कि 'मई दिवस'विदेशी परिघटना है, लेकिन जिन लोगों ने 1886 में शिकागो में पहले मई दिवस की रचना की थी, उनके लिए इसमें कुछ भी बाहर का नहीं था। उन्होंने इसे देसी सूत से बुना था। उजरती मज़दूरी की व्यवस्था इन्सानों का जो हश्र करती है उसके प्रति उनका ग़ुस्सा किसी बाहरी स्रोत से नहीं आया था।
स्त्री-पुरुष और यहाँ तक कि बच्चे भी अमेरिका की नयी फैक्टरियों में हाड़तोड़ मेहनत करते थे। बारह घण्टे का काम का दिन आम चलन था, चौदह घण्टे का काम भी बहुत असामान्य नहीं था, और कई जगहों पर बच्चे भी एक-एक दिन में सोलह और अठारह घण्टे तक काम करते थे। मज़दूरी बहुत ही कम हुआ करती थी, वह अक्सर दो जून रोटी के लिए भी नाकाफी होती थी, और बार-बार आने वाली मन्दी की कड़वी नियमितता के साथ बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी के दौर आने लगे। सरकारी निषेधाज्ञाओं के ज़रिये शासन रोज़मर्रा की बात थी।
परन्तु अमरीकी मज़दूर वर्ग रीढ़विहीन नहीं था। उसने यह स्थिति स्वीकार नहीं की, उसे किस्मत में बदी बात मानकर सहन नहीं किया। उसने मुक़ाबला किया और पूरी दुनिया के मेहनतकशों को जुझारूपन का पाठ पढ़ाया। ऐसा जुझारूपन जिसकी आज भी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती।
1877में वेस्ट वर्जीनिया प्रदेश के मार्टिन्सबर्ग में रेल-हड़ताल शुरू हुई। हथियारबन्द पुलिस बुला ली गयी और मज़दूरों के साथ एक छोटी लड़ाई के बाद हड़ताल कुचल दी गयी। लेकिन केवल स्थानीय तौर पर; जो चिनगारी भड़की थी, वह ज्वाला बन गयी। ”बाल्टीमोर और ओहायो” रेलमार्ग बन्द हुआ, फिर पेन्सिलवेनिया बन्द हुआ, और फिर एक के बाद दूसरी रेल कम्पनियों का चक्का जाम होता चला गया। और आख़िरकार एक छोटा-सा स्थानीय उभार इतिहास में उस समय तक ज्ञात सबसे बड़ी रेल हड़ताल बन गया। दूसरे उद्योग भी उसमें शामिल हो गये और कई इलाक़ों में यह रेल-हड़ताल एक आम हड़ताल में तब्दील हो गयी।
पहली बार सरकार और साथ ही मालिकों को भी पता चला कि मज़दूर की ताक़त क्या हो सकती है। उन्होंने पुलिस और फौज बुलायी; जगह-जगह जासूस तैनात किये गये। कई जगहों पर जमकर लड़ाइयाँ हुईं। सेण्ट लुई में नागरिक प्रशासन के अधिकारियों ने हथियार डाल दिये और नगर मज़दूर वर्ग के हवाले कर दिया। उन लोमहर्षक उभारों में कितने हताहत हुए होंगे, उन्हें आज कोई नहीं गिन सकता। परन्तु हताहतों की संख्या बहुत बड़ी रही होगी, इस पर कोई भी, जिसने तथ्यों का अध्ययन किया है, सन्देह नहीं कर सकता।
हड़ताल आख़िरकार टूट गयी। परन्तु अमरीकी मज़दूरों ने अपनी भुजाएँ फैला दी थीं और उनमें नयी जागरूकता का संचार हो रहा था। प्रसव-वेदना समाप्त हो चुकी थी और अब वह वयस्क होने लगा था।
अगला दशक संघर्ष का दौर था, आरम्भ में अस्तित्व का संघर्ष और फिर संगठन बनाने का संघर्ष। सरकार ने 1877 को आसानी से नहीं भुलाया; अमेरिका के अनेक शहरों में शस्त्रागारों का निर्माण होने लगा; मुख्य सड़कें चौड़ी की जाने लगीं, ताकि ”गैटलिंग” मशीनगनें उन्हें अपने नियन्त्रण में रख सकें। एक मज़दूर-विरोधी प्राइवेट पुलिस संगठन ”पिंकरटन एजेंसी” का गठन किया गया, और मज़दूरों के ख़िलाफ उठाये गये क़दम अधिक से अधिक दमनकारी होते चले गये। वैसे तो अमेरीका में दुष्प्रचार के तौर पर ”लाल ख़तरे” शब्द का इस्तेमाल 1830 के दशक से ही होता चला आया था, लेकिन उसे अब एक ऐसे डरावने हौवे का रूप दे दिया गया, जो आज प्रत्यक्ष तौर पर हमारे सामने है।
परन्तुमज़दूरों ने इसे चुपचाप स्वीकार नहीं किया। उन्होंने भी अपने भूमिगत संगठन बनाये। भूमिगत रूप में जन्मे संगठन नाइट्स ऑफ लेबर के सदस्यों की संख्या 1886 तक 7,00,000 से ज़्यादा हो गयी थी। नवजात अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर का मज़दूर यूनियनों की स्वैच्छिक संस्था के रूप में गठन किया गया, समाजवाद जिसके लक्ष्यों में एक लक्ष्य था। यह संस्था बहुत तेज़ रफ़्तार से विकसित होती चली गयी। यह वर्ग-सचेत और जुझारू थी और अपनी माँगों पर टस-से-मस न होने वाली थी। एक नया नारा बुलन्द हुआ। एक नयी, दो टूक, सुस्पष्ट माँग पेश की गयी : ”आठ घण्टे काम, आठ घण्टे आराम, आठ घण्टे मनोरंजन”।
1886तक अमेरिकी मज़दूर नौजवान योद्धा बन चुका था, जो अपनी ताक़त परखने के लिए मौक़े की तलाश कर रहा था। उसका मुक़ाबला करने के लिए सरकारी शस्त्रागारों का निर्माण किया गया था, पर वे नाकाफी थे। ”पिंकरटनों” का प्राइवेट पुलिस दल भी काफी नहीं था, न ही गैटलिंग मशीनगनें। संगठित मज़दूर अपने क़दम बढ़ा रहा था, और उसका एकमात्र जुझारू नारा देश और यहाँ तक कि धरती के आर-पार गूँज रहा था : ”एक दिन में आठ घण्टे का काम — इससे ज़रा भी ज़्यादा नहीं!”
1886के उस ज़माने में, शिकागो जुझारू, वामपक्षी मज़दूर आन्दोलन का केन्द्र था। यहीं शिकागो में संयुक्त मज़दूर प्रदर्शन के विचार ने जन्म लिया, एक दिन जो उनका दिन हो किसी और का नहीं, एक दिन जब वे अपने औज़ार रख देंगे और कन्धे से कन्धा मिलाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन करेंगे।
पहली मई को मज़दूर वर्ग के दिवस, जनता के दिवस के रूप में चुना गया। प्रदर्शन से काफी पहले ही ”आठ घण्टा संघ” नाम की एक संस्था गठित की गयी। यह आठ घण्टा संघ एक संयुक्त मोर्चा था, जिसमें अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर, नाइट्स ऑफ लेबर और समाजवादी मज़दूर पार्टी शामिल थे। शिकागो की सेण्ट्रल लेबर यूनियन भी, जिसमें सबसे अधिक जुझारू वामपक्षी यूनियनें शामिल थीं, इससे जुड़ी थी।
शिकागोसे हुई शुरुआत कोई मामूली बात नहीं थी। ”मई दिवस” की पूर्ववेला में एकजुटता के लिए आयोजित सभा में 25,000 मज़दूर उपस्थित हुए। और जब ”मई दिवस” आया, तो उसमें भाग लेने के लिए शिकागो के हज़ारों मज़दूर अपने औज़ार छोड़कर फैक्टरियों से निकलकर मार्च करते हुए जनसभाओं में शामिल होने पहुँचने लगे। और उस समय भी, जबकि ”मई दिवस” का आरम्भ ही हुआ था, मध्य वर्ग के हज़ारों लोग मज़दूरों की क़तारों में शामिल हुए और समर्थन का यह स्वरूप अमेरिका के कई अन्य शहरों में भी दोहराया गया।
औरआज की तरह उस वक्त भी बड़े पूँजीपतियों ने जवाबी हमला किया — रक्तपात, आतंक, न्यायिक हत्या को ज़रिया बनाया गया। दो दिन बाद मैकार्मिक रीपर कारख़ाने में, जहाँ हड़ताल चल रही थी, एक आम सभा पर पुलिस ने हमला किया। उसमें छह मज़दूरों की हत्या हुई। अगले दिन इस जघन्य कार्रवाई के विरुद्ध हे मार्केट चौक पर जब मज़दूरों ने प्रदर्शन किया, तो पुलिस ने उन पर फिर हमला किया। कहीं से एक बम फेंका गया, जिसके फटने से कई मज़दूर और पुलिसवाले मारे गये। इस बात का कभी पता नहीं चल पाया कि बम किसने फेंका था, इसके बावजूद चार अमेरिकी मज़दूर नेताओं को फाँसी दे दी गयी, उस अपराध के लिए, जो उन्होंने कभी किया ही नहीं था और जिसके लिए वे निर्दोष सिद्ध हो चुके थे।
इनवीर शहीदों में से एक, ऑगस्ट स्पाइस, ने फाँसी की तख्ती से घोषणा की :
”एक वक्त आयेगा, जब हमारी ख़ामोशी उन आवाज़ों से ज़्यादा ताक़तवर सिद्ध होगी, जिनका तुम आज गला घोंट रहे हो।” समय ने इन शब्दों की सच्चाई को प्रमाणित कर दिया है। शिकागो ने दुनिया को ”मई दिवस” दिया, और इस बासठवें मई दिवस पर करोड़ों की संख्या में एकत्र दुनियाभर के लोग ऑगस्ट स्पाइस की भविष्यवाणी को सच साबित कर रहे हैं।
शिकागो में हुए प्रदर्शन के तीन वर्ष बाद संसारभर के मज़दूर नेता बास्तीय किले पर धावे (जिसके साथ फ़्रांसीसी क्रान्ति की शुरुआत हुई) की सौवीं सालगिरह मनाने के लिए पेरिस में जमा हुए। एक-एक करके, अनेक देशों के नेताओं ने भाषण दिया।
आख़िरमें अमेरीकियों के बोलने की बारी आयी। जो मज़दूर हमारे मज़दूर वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रहा था, खड़ा हुआ और बिल्कुल सरल और दो टूक भाषा में उसने आठ घण्टे के कार्यदिवस के संघर्ष की कहानी बयान की जिसकी परिणति 1886 में हे मार्केट का शर्मनाक काण्ड था।
उसने हिंसा, ख़ूंरेज़ी, बहादुरी का जो सजीव चित्र पेश किया, उसे सम्मेलन में आये प्रतिनिधि वर्षों तक नहीं भूल सके। उसने बताया कि पार्सन्स ने कैसे मृत्यु का वरण किया था, जबकि उससे कहा गया था कि अगर वह अपने साथियों से ग़द्दारी करे और क्षमा माँगे तो उसे फाँसी नहीं दी जायेगी। उसने श्रोताओं को बताया कि कैसे दस आयरिश ख़ान मज़दूरों को पेनसिल्वेनिया में इसलिए फाँसी दी गयी थी कि उन्होंने मज़दूरों के संगठित होने के अधिकार के लिए संघर्ष किया था। उसने उन वास्तविक लड़ाइयों के बारे में बताया जो मज़दूरों ने हथियारबन्द ”पिंकरटनों” से लड़ी थीं, और उसने और भी बहुत कुछ बताया। जब उसने अपना भाषण समाप्त किया तो पेरिस कांग्रेस ने निम्नलिखित प्रस्ताव पास किया :
"कांग्रेस फैसला करती है कि राज्यों के अधिकारियों से कार्य दिवस को क़ानूनी ढंग से घटाकर आठ घण्टे करने की माँग करने के लिए और साथ ही पेरिस कांग्रेस के अन्य निर्णयों को क्रियान्वित करने के लिए समस्त देशों और नगरों से मेहनतकश अवाम एक निर्धारित दिन एक महान अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन संगठित करेंगे। चूँकि अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर पहली मई 1890 को ऐसा ही प्रदर्शन करने का फैसला कर चुका है, अत: यह दिन अन्तरराष्ट्रीय प्रदर्शन के लिए स्वीकार किया जाता है। विभिन्न देशों के मज़दूरों को प्रत्येक देश में विद्यमान परिस्थितियों के अनुसार यह प्रदर्शन अवश्य आयोजित करना चाहिए।"
तो इस निश्चय पर अमल किया गया और "मई दिवस"पूरे संसार की धरोहर बन गया। अच्छी चीज़ें किसी एक जनता या राष्ट्र की सम्पत्ति नहीं होतीं। एक के बाद दूसरे देश के मज़दूर ज्यों-ज्यों मई दिवस को अपने जीवन, अपने संघर्षों, अपनी आशाओं का अविभाज्य अंग बनाते गये, वे मानकर चलने लगे कि यह दिन उनका है  और यह भी सही है, क्योंकि पृथ्वी पर मौजूद समस्त राष्ट्रों के बरक्स हम राष्ट्रों का राष्ट्र हैं, सभी लोगों और सभी संस्कृतियों का समुच्चय हैं।

और आज के मई दिवस की क्या विशेषता है

पिछलेमई दिवस गत आधी शताब्दी के संघर्षों को प्रकाश-स्तम्भों की भाँति आलोकित करते हैं। इस शताब्दी के आरम्भ में मई दिवस के ही दिन मज़दूर वर्ग ने परायी धरती को हड़पने की साम्राज्यवादी कार्रवाइयों की सबसे पहले भर्त्सना की थी। मई दिवस के ही अवसर पर मज़दूरों ने नवजात समाजवादी राज्य सोवियत संघ का समर्थन करने के लिए आवाज़ बुलन्द की थी। मई दिवस के अवसर पर ही हमने अपनी भरपूर शक्ति से असंगठितों के संगठन का समारोह मनाया था।
लेकिन बीते किसी भी मई दिवस पर कभी ऐसे अनिष्टसूचक लेकिन साथ ही इतने आशा भरे भविष्य-संकेत नहीं दिखायी दिये थे, जितना कि आज के मई दिवस पर हो रहा है। पहले कभी हमारे पास जीतने को इतना कुछ नहीं था, पहले कभी हमारे खोने को इतना कुछ नहीं था।
जनता के लिए अपनी बात कह पाना आसान नहीं है। लोगों के पास अख़बार या मंच नहीं है, और न ही सरकार में शामिल हमारे चुने गए प्रतिनिधियों की बहुसंख्या जनता की सेवा करती है। रेडियो जनता का नहीं है और न फिल्म बनाने वाली मशीनरी उसकी है। बड़े कारोबारों की इज़ारेदारी अच्छी तरह स्थापित हो चुकी है, काफी अच्छी तरह — लेकिन लोगों पर तो किसी का एकाधिकार नहीं है।
जनता की ताक़त उसकी अपनी ताक़त है। मई दिवस उसका अपना दिवस है, अपनी यह ताक़त प्रदर्शित करने का दिन है। क़दम से क़दम मिलाकर बढ़ते लाखों लोगों की क़तारों के बीच अलग से एक आवाज़ बुलन्द हो रही है। यह वक्त है कि वे लोग, जो अमरीका को फासिज्म के हवाले करने पर आमादा हैं, इस आवाज़ को सुनें।
उन्हें यह बताने का वक्त है कि वास्तविक मज़दूरी लगभग पचास प्रतिशत घट गयी है, कि घरों में अनाज के कनस्तर ख़ाली हैं, कि यहाँ अमेरिका में अधिकाधिक लोग भूख की चपेट में आ रहे हैं।
यहवक्त है श्रम विरोधी क़ानूनों के ख़िलाफ आवाज़ बुलन्द करने का। दो सौ से ज़्यादा श्रम विरोधी क़ानूनों के विधेयक कांग्रेस के समक्ष विचाराधीन आ रहे हैं, जो यकीनन मज़दूरों को उसी तरह तोड़ डालने के रास्ते खोल देंगे, जिस तरह हिटलर के नाज़ीवाद ने जर्मन मज़दूरों को तोड़ डाला था।
संगठित अमेरिकी मज़दूरों के लिए आँख खोलकर यह तथ्य देखने का वक्त आ गया है कि यह मज़दूरों की एकता क़ायम करने की आख़िरी घड़ी है वरना बहुत देर हो जायेगी और एकताबद्ध करने के लिए संगठित मज़दूर रहेंगे ही नहीं।
आपयहाँ पढ़ रहे हैं गाथा, उन लोगों की जो बारह से पन्द्रह घण्टे रोज़ काम करते थे, आप पढ़ रहे हैं गाथा, उस सरकार की, जो आतंक और निषेधाज्ञाओं के बल पर चल रही है।
यह है उन लोगों का लक्ष्य, जो आज श्रमिकों को चकनाचूर करना चाहते हैं। वे अपने ”अच्छे” दिनों को फिर वापस लाना चाहते हैं। इसका सबूत यूनाइटेड माइन के खनिक मज़दूरों के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला है। आप जब मई दिवस के अवसर पर मार्च करेंगे तो आप उन्हें अपना जवाब देंगे।
वक्त आ गया है यह समझने का कि ”अमरीकी साम्राज्य” के आह्वान का, यूनान, तुर्की और चीन में हस्तक्षेप से क्या रिश्ता है! साम्राज्य की क़ीमत क्या है? जो दुनिया पर राज कर दुनिया को ”बचाने” के लिए चीख़ रहे हैं, उन्हें दूसरे साम्राज्यों के अंजाम को याद करना चाहिए। उन्हें यह आँकना चाहिए कि ज़िन्दगी और धन दोनों अर्थों में युद्ध की क्या क़ीमत होती है।
वक्तआ गया है यह देखने के लिए जाग उठने का कि कम्युनिस्टों के पीछे शिकारी कुत्ते छोड़े जाने का क्या अर्थ है? क्या एक भी ऐसा कोई देश है, जहाँ कम्युनिस्ट पार्टी को ग़ैरक़ानूनी घोषित किया जाना फासिज्म की पूर्वपीठिका न रहा हो? क्या ऐसा कोई एक भी देश है, जहाँ कम्युनिस्टों को रास्ते से हटाते ही मज़दूर यूनियनों को चकनाचूर न कर दिया गया हो?
वक्त आ गया है कि हम हालात की क़ीमत को समझें। कम्युनिस्टों को प्रताड़ित करने के अभियान की क़ीमत था संगठित मज़दूरों को ठिकाने लगाना — उसकी क़ीमत है फासिज्म। और आज ऐसा कौन है, जो इस बात को स्वीकार नहीं करेगा कि फासिज्म की क़ीमत मौत है?
मईदिवस इस देश के समस्त स्वतन्त्रताप्रिय नागरिकों के लिए प्रतिगामियों को जवाब देने का वक्त है। मार्च करते जा रहे लाखों-लाख लोगों की एक ही आवाज़ बुलन्द हो रही है — मई दिवस प्रदर्शन में हमारे साथ आइये और मौत के सौदागरों को अपना जवाब दीजिये।
http://www.mazdoorbigul.net/से साभार

दांव पर है हमारा राष्ट्रवाद

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-सत्येंद्र रंजन
सत्येंद्र रंजन

"...यह समझने की बात है कि आखिर वो भारतीय राष्ट्रवाद क्या हैऔर भाजपा क्यों उसकी एंटी-थीसिस (यानी प्रतिवाद) हैइसे हम भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के ऐतिहासिक क्रम और इसके मुख्य आधार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए तथा भाजपा की मूलभूत मान्यताओं के बरक्स उन्हें रखते हुए आसानी से समझ सकते हैं। आधुनिक भारत का विचार- जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई- भारतीय जनता के आर्थिक हितों के साझापन की एक व्यापक समझ के साथ आगे बढ़ा।..."


वैसे हर आम चुनाव खास और अहम होता है, किंतु 16वीं लोकसभा के चुनाव को अगर सबसे अलग श्रेणी में रखा जा रहा है तो इसके दो प्रमुख कारण हैं। कारणों पर हम बाद में आएंगे। पहले 16 मई को आने वाले नतीजों के महत्त्व को समझने की कोशिश करते हैं। इस बार के चुनाव परिणाम को बेशक 1977 और 2004 के चुनाव परिणामों के बरक्स रख कर देखा जाएगा। वे दो वो आम चुनाव थे, जिन पर आधुनिक भारतीय राष्ट्र के बुनियादी उसूल दांव पर लगे थे। 1977 में कांग्रेस जीत जाती तो भारतीय संविधान का एक मूल आधार- यानी लोकतंत्र- पराजित हो जाता। 2004 में भाजपा नेतृत्व वाला राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) जीत जाता तो हमारे संविधान के एक दूसरे मूल आधार- यानी धर्मनिरपेक्षता- की शिकस्त होती। कहा जा सकता है कि धर्मनिरपेक्ष भावना की हार 1998 और 1999 के लोकसभा चुनावों में भी हुई थी। मगर तब भाजपा ने अपने मुख और मुखौटे का फर्क कर यह भ्रम पैदा कर दिया था कि उसने अपने मुख्य मुद्दों को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और चुनाव वह शासन के राष्ट्रीय एजेंडे के आधार पर लड़ रही है, जिस पर खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले उसके सहयोगी दल भी सहमत हैँ। 

मगरएनडीए के छह वर्षों के शासनकाल में, जिस तरह सांप्रदायिक और उग्र अथवा अंध-राष्ट्रवादी मुद्दे हावी रहे उससे भाजपा के उदार होने की गलतफ़हमी टूट गई। 2002 के गुजरात के दंगों के जरिए नरेंद्र भाई ने दुनिया को हिंदुत्व का नमूना दिखाया। उसके बावजूद 2004 में भाजपा जनादेश पा लेती, तो बेशक यह इस ब्रांड की सियासत पर मुहर होती। मगर तब भारतीय मतदाताओं ने एक बार फिर 1977 जैसे विवेक का परिचय दिया। एनडीए हार गया। खुद अटल बिहारी वाजपेयी ने बाद में कहा कि उनके नेतृत्व वाले गठबंधन की हार का कारण गुजरात दंगे रहे।

अब न्यूटन के क्रिया-प्रतिक्रिया के सिद्धांत से उन दंगों को जायज ठहराने वाले नरेंद्र मोदी एनडीए के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हैं। छवि पर दंगों के कलंक के बावजूद मोदी का भाजपा और एनडीए का नेता चुना जाना कोई साधारण घटना नहीं है। ऊपर हमने इस चुनाव के सबसे अलग होने के जिन दो कारणों का जिक्र किया, उनमें पहला तो यही है कि इस चुनाव में मोदी सत्ता के सबसे प्रमुख दावेदार के रूप में सामने हैं। उनके इस हैसियत में पहुंचने के पीछे एक पूरा घटनाक्रम है। वे सिर्फ इसलिए भाजपा के सबसे बड़े नेता बन कर नहीं उभरे हैं कि उनके नेतृत्व में पार्टी ने गुजरात में तीन बार विधानसभा का चुनाव जीता। यह उपलब्धि तो शिवराज सिंह चौहान और रमन सिंह के साथ भी है। मगर मोदी का उन दोनों से फर्क यह है कि भाजपा जिस राजनीतिक विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती है, उसके जितने प्रखर प्रतीक मोदी हैं, संभवतः अतीत में कोई नहीं रहा। 1990 के दशक के आरंभिक वर्षों में लालकृष्ण आडवाणी ऐसे प्रतीक के रूप में जरूर उभरे थे। मगर (अयोध्या में) मंदिर “वहीं” बनाने के लिए भीड़ जुटाने और उसे उत्तेजित करने के बाद उसके परिणाम- यानी (बाबरी) मस्जिद के ध्वंस को उन्होंने अपनी जिंदगी का सबसे अफसोसनाक दिन बताने का पाखंड उन्होंने किया था। यानी जो उनके कार्य का परिणाम था, उसे खुलेआम स्वीकार करने से वे पीछे हट गए। इसके बाद ही भाजपा में मुख और मुखौटे का पाखंड शुरू हुआ। इसका अंत मोदी के नेता चुने जाने के साथ हुआ है। दरअसल नरेंद्र मोदी के नेता चुने जाने की यही विशेषता है कि इसके साथ भाजपा अपनी जड़ों की तरफ लौटी है। भाजपा ने उसका जो मुख है, उसी को मुखौटा भी बना लिया है। इसके जरिए राजनीतिक जोर-आजमाइश का दांव उसने खेला है। यह कितना सफल होता है, यह 16 मई को पता चलेगा।

नरेंद्र मोदी को इस बात श्रेय जरूर दिया जाना चाहिए कि वे वही कहते हैं, जो उनकी समझ है और फिर उस पर ही अमल करते हैं। उसी आधार पर गुजरात में उन्होंने ऐसा मजबूत राजनीतिक बहुमत तैयार किया, जो भारतीय राजनीति में अनूठा है। कहा जा सकता है कि अपनी स्थापना के बाद भारतीय जनसंघ जो करना चाहता था, उसे नरेंद्र मोदी ने गुजरात में करके दिखाया। हिंदुत्व की विचारधारा को व्यवहार में उतारते हुए कैसे सत्ता पर कायम रहा जा सकता है, इसका उनसे बेहतर नमूना किसी और ने नहीं दिखाया है। मुक्त बाजार और पूंजी के अनुकूल नीतियों पर निर्बाध अमल का भी संभवतः सबसे प्रभावी मॉडल मोदी के राज में ही देखने को मिला। यह ऐसा मॉडल है, जिसकी तरफ कॉरपोरेट जगत, शहरी मध्यवर्ग और बहुसंख्यक वर्चस्ववादी समूहों का आकर्षित होना लाजिमी है। भाजपा इसी सामाजिक गठजोड़ के बूते इस बार चुनाव लड़ रही है। 

क्या अब मोदी बदल गए हैं? अथवा क्या लोकतांत्रिक राजनीति की जरूरत ने उन्हें रणनीतिक रूप से नरम रुख अपनाने को मजबूर किया है? उगते सूरज को नमन करने वाले अनेक बुद्धिजीवी इन दोनों ही तर्कों का उपयोग करते हुए मोदी को भविष्य में एक नई भूमिका में देखने का प्रयास कर रहे हैं। यह सदिच्छा पूरी हो, तो उससे बेहतर कोई बात नहीं होगी। मगर सिर्फ इसलिए कि इस चुनाव अभियान में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने उग्र अल्पसंख्यक विरोधी भाषण नहीं दिए हैं, इस निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी हो सकती है। इस संदर्भ में दो बातें उल्लेखनीय हैं। पहली यह कि मोदी की उपस्थिति अपने-आप में एक पैगाम होती है। अतः अपने कट्टर समर्थकों के मन-माफिक वो बोलते रहें, यह मजबूरी उनके साथ नहीं है। इस चुनाव में उनका लक्ष्य मध्य-मार्ग पर आकर अपने प्रभाव-दायरे से बाहर के लोगों के आकर्षित करना है और ऐसा करने का कौशल उन्होंने दिखाया है। इसके बावजूद दूसरी बात पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। मांस निर्यात, कथित बांग्लादेशी घुसपैठियों और पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए हिंदुओं के मुद्दों पर मोदी ने बेलाग बयानी की है। पिंक रिवोल्यूशन की चर्चा छेड़ कर उन्होंन गौ-राजनीति को पुनर्जीवित किया, जो आरंभिक दिनों से भारतीय जनसंघ का मुद्दा था। बांग्लादेशी आव्रजकों के बीच हिंदू और मुसलमान का फर्क और पाकिस्तानी हिंदुओं के बारे में यह कह कर कि हिंदुओं के लिए अकेला देश भारत है, उन्होंने संघ परिवार की इस मूलभूत धारणा की पुष्टि की भारत असल में यहां के सभी बाशिन्दो का नहीं, बल्कि हिंदुओं का देश है। जबकि संघ की यही सोच असली समस्या है। ये वो सोच हैजिसका भारतीय संविधान की मूल भावना से सीधा अंतर्विरोध है। लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की आधुनिक भावना पर आधारित सर्व-समावेशी संविधान के तहत बहुसंख्यक वर्चस्ववाद की कोई जगह नहीं हो सकती।

बहरहाल,इसके पहले कि हम मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की राजनीतिक जड़ों और उसमें आधुनिक भारतीय राष्ट्र के लिए निहित खतरों को समझने का प्रयास करें, उस दूसरे कारण पर गौर कर लेना उचित होगा, जिसकी वजह से 2014 का आम चुनाव सबसे अलग हो गया है। ये कारण कुछ जानकारों से शब्द उधार लेकर कहें, तो भारत का रॉकफेलर मोमेन्ट (क्षण) है।जॉन डी रॉकफेलर 19वीं-20वीं सदी में अमेरिका के प्रमुख उद्योगपतियों में थे, जिन्होंने स्टैंडर्ड ऑयल कंपनी की स्थापना की थी। एक समय वे अमेरिका के सबसे धनी व्यक्ति माने जाते थे। उस युग में ही अमेरिकी कॉरपोरेट सेक्टर सबसे प्रभावशाली हुआ और अपने धन की ताकत से राजनीति को नियंत्रित करने लगा। कहा जाता है कि रॉकफेलर, कारनेगी आदि जैसे उद्योगपतियों का समूह चुनावों में विजेता का चयन करने लगा। वे जिसका समर्थन करते थे, उसके पक्ष में इतना धन और प्रचार शक्ति लगा देते थे कि उसके विरोधी मुकाबले से बाहर नजर आने लगते थे। क्या अबकी बार मोदी सरकार के प्रचार अभियान के पीछे ऐसी ही परिघटना नजर नहीं आ रही है। मेनस्ट्रीम मीडिया में ऐसी बड़ी-बड़ी खबरें छपी हैं कि बड़े कॉरपोरेट महारथियों ने अपनी पूर्व प्रिय पार्टी कांग्रेस को इस बार नगण्य चंदा दिया है। उसने अपना सारा दांव मोदी पर लगा दिया है। तो क्या यह अकारण है कि नव-उदारवाद के हक में माहौल बनाने के मकसद से स्थापित रॉकफेलर फाउंडेशन और कारनेगी एन्डाउमेंट फॉर इंटरनेशनल पीस जैसे थिंक टैंक जिस मिनिमन गर्वनमेंट, मैक्सिकम गवर्नेंस (लघुतम सरकार, अधिकतम शासन) के मंत्र को प्रचारित करते हैं, मोदी अपने टीवी इश्तहारों में उसे खुलेआम कह रहे हैं। इसका वास्तविक अर्थ कितने लोग समझते हैं, यह दीगर सवाल है।

असल में कॉरपोरेट सेक्टर के एक बड़े हिस्से और कम्यूनल पॉलिटिक्स में मेल की हालिया कथा, चार साल पीछे जाती है। 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में यूपीए सरकार ने कुछ  कॉरपोरेट घरानों असंतुष्ट कर कुछ घरानों को अनुचित लाभ पहुंचाया। इससे अंसतुष्ट घरानों ने बदला लेने को ठानी। लगातार दो आम चुनावों में पराजय से हताश राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार यूपीए की जड़े खोदने की पहले से फिराक में था। प्रमुख अखबारों में ऐसी खबरें छपी हैं, जिनका सार है कि इन दोनों के मिलन से इंडिया अगेन्स्ट करप्शन की नींव पड़ी। 2011 का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन उसी का परिणाम था। वो आंदोलन ब्रांड मनमोहन को ध्वस्त करने और यूपीए (या कांग्रेस) को भ्रष्टाचार के समानार्थी के रूप में पेश करने में सफल रहा। उस आंदोलन से जुड़ी अनेक हस्तियां- मसलन, बाबा रामदेव, श्री श्री रविशंकर, किरण बेदी आदि आज मोदी ब्रिगेड का हिस्सा हैं। कुछ ज्यादा महत्त्वाकांक्षी लोगों ने अपनी अलग पार्टी बना ली। इस कथित भ्रष्टाचार विरोधी पार्टी में भ्रष्ट छवि के लोगों की आज कोई कमी नहीं है। इसके बावजूद विडंबना देखिए कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर निशाने पर सिर्फ कांग्रेस है। जिस पार्टी में येदियुरप्पा, बी श्रीरामुलु जैसे नाम हैं, उसके प्रवक्ता टीवी चैनलों पर बैठ कर भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाते हैं। अन्ना आंदोलन से जुड़े लोग अपनी इस उपलब्धि पर जरूर फख्र कर सकते हैं!उन्होंने तीन साल पहले भाजपा के लिए रास्ता तैयार करने की जो मुहिम शुरू की थी, वह आज सफल होने के कगार पर है।

कुछ दिनों में इसका परिणाम यह हो सकता है कि भारतीय संविधान ने जिन उसूलों पर हमारे राष्ट्रवाद की नींव डाली उसकी सबसे प्रमुख विरोधी शक्ति अपने असली चेहरे के साथ दिल्ली के तख्त पर काबिज हो जाए। बहरहाल, राष्ट्रवाद का ये फर्क क्या है, इसे अधिक गंभीरता से समझने की जरूरत है। ध्यान दीजिए। नरेंद्र मोदी जब भारतीय जनता पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की होड़ में थेतब एक इंटरव्यू में उन्होंने खुद को हिंदू नेशनलिस्ट कहा। इसका विस्तार किया कि चूंकि वे हिंदू हैं और राष्ट्रवादी हैंइसलिए वे हिंदू राष्ट्रवादी हैं। क्या यह बात उतनी भोली है,जितनी मोदी ने दिखानी चाही? या इसके पीछे निहितार्थ कहीं गहरा है? दरअसलजब हम हमारे राष्ट्रवाद की बात करते हैंतब यह विचार करना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि इस हमारे में कौन-कौन शामिल है? एक हिंदू राष्ट्रवादी के नजरिए कौन-कौन हम का हिस्सा है और उस भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा में हम के दायरे में कौन-कौन आता है? अगर स्वतंत्रता आंदोलन के दौर से आज तक के भारतीय इतिहास पर हम गौर करें तो यह फर्क न सिर्फ साफ,बल्कि प्रतिस्पर्धी और काफी हद तक परस्पर विरोधी रूप में भी सामने आएगा। इस फर्क को समझे बिना हम राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ औऱ उससे प्रेरित भारतीय जनता पार्टी की राजनीति को नहीं समझ सकते। तो आखिर ये फर्क कैसा है?

कुछवर्ष पहले 14 फरवरी को भाजपा शासित छत्तीसगढ़ के सरकारी स्कूलों में मातृ-पितृ पूजन’ दिवस मनाया गया। सामान्य स्थितियों में इसमें वैसे बहुत आपत्ति की बात नहीं होती। मगर गौरतलब यह है कि ये दिन मनाने की योजना वेलेंटाइन दिवस के मुकाबले बनाई गई और अल्पसंख्यक स्कूलों की भावना का बिना ख्याल किए उनसे भी अपेक्षा की गई वे भी इस दिन को इसी तरह मनाएं। इसके पहले मध्य प्रदेश और गुजरात के स्कूलों में सूर्य नमस्कार और मध्य प्रदेश में गीता सार की पढ़ाई को इसी तरह अनिवार्य बनाने की कोशिश हुई थी। मध्य प्रदेश में भाजपा सरकार ने जैसा सख्त गौ-हत्या निषेध कानून बनायावह खासा चर्चित रहा। गौ हत्या रोकने का एजेंडा हमेशा से भाजपा (पहले भारतीय जनसंघ) के एजेंडे में रहा है। मध्य प्रदेश के कानून के कुछ प्रावधान मानवाधिकारों का हनन करते दिखे,लेकिन इससे राज्य सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ा। और फिर सबसे ऊपर गुजरात का उदाहरण हैजहां नरेंद्र भाई ने हिंदुत्व का जो नमूना दिखायावही आगे चल कर उनकी सियासी ताकत बना।

2002में गोधरा ट्रेन अग्निकांड के बाद नरेंद्र मोदी न्यूटन के बहुचर्चित क्रिया के बराबर लेकिन विपरीत प्रतिक्रिया का सिद्धांत का बखान कर दंगों को उचित ठहराया था। उसके बाद मियां मुशर्रफ और पांच बीवियां पच्चीस बच्चों वाले उनके बयान एक खास ढंग की गोलबंदी करते रहे। दंगों में इंसाफ की बात तो दूर हैदंगा पीड़ितों को मुआवजा देने में भी राज्य सरकार ने जो बेरुखी दिखाई वह अब इतिहास में दर्ज है। गुजरात हाई कोर्ट ने 2002 के दंगा पीड़ितों को मुआवजा देने के मामले में अदालत के आदेश का पालन करने के लिए राज्य प्रशासन के खिलाफ अवमनाना का नोटिस जारी किया था। उन्हीं दंगों में क्षतिग्रस्त धर्म स्थलों के पुनर्निमार्ण के लिए सहायता न देने के लिए हाई कोर्ट को राज्य सरकार को फटकार लगानी पड़ी। इन दंगों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट को पहले काफी सख्त टिप्पणियां करनी पड़ी थी। इसके बावजूद राज्य सरकार राजधर्म” निभाने को प्रेरित नहीं हुई। उलटे मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक आधार पर गोलबंदी की अपनी राजनीतिक पूंजी को सहेजने में लगे रहे। यही राष्ट्रीय स्तर पर उनकी सियासी ताकत है, जिससे उन्होंने संघ परिवार के समर्थक समूहों को उत्साहित एवं प्रेरित कर रखा है।

लेकिन यह वो राजनीति हैजिसका भारतीय संविधान की मूल भावना से अंतर्विरोध स्वयंसिद्ध है। लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की आधुनिक भावना पर आधारित सर्व-समावेशी संविधान के तहत चल रही व्यवस्था का भाजपा की बहुसंख्यक वर्चस्ववाद की राजनीति से सीधा विरोध है। यह सियासत का एक ऐसा पहलू हैजो भाजपा को सबसे अलग पहचान देती है। इस अर्थ में वह भारत की परिकल्पना के दो प्रतिस्पर्धी विचारों में से एक का प्रतिनिधित्व करती है। इस बात को समझने के लिए इस प्रश्न पर ध्यान देना चाहिए कि कांग्रेस किस विचार का प्रतिनिधित्व करती है?मौजूदा वक्त में सकारात्मक तर्कों से इसे समझाना मुश्किल हो सकता है। लेकिन जब ध्यान भाजपा पर जाता हैतो वैचारिक एवं राजनीतिक वर्ग चरित्र से जुड़े तमाम सवालों से घिरे होने के बावजूद भारत के दीर्घकालिक भविष्य के संदर्भ कांग्रेस एक प्रासंगिक ताकत मालूम पड़ने लगती है। कारण यह कि पिछले तकरीबन डेढ़ सौ साल में विभिन्न सामाजिक एवं राजनीतिक संघर्षों से जिस भारतीय राष्ट्रवाद या भारत के जिस विचार का उदय हुआउसके लिए सबसे बड़ी चुनौती के रूप में भाजपा खड़ी है।

यहसमझने की बात है कि आखिर वो भारतीय राष्ट्रवाद क्या हैऔर भाजपा क्यों उसकी एंटी-थीसिस (यानी प्रतिवाद) हैइसे हम भारतीय राष्ट्रवाद के उदय के ऐतिहासिक क्रम और इसके मुख्य आधार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए तथा भाजपा की मूलभूत मान्यताओं के बरक्स उन्हें रखते हुए आसानी से समझ सकते हैं। आधुनिक भारत का विचार- जिसकी अभिव्यक्ति हमारे संविधान में हुई- भारतीय जनता के आर्थिक हितों के साझापन की एक व्यापक समझ के साथ आगे बढ़ा। इसके आरंभिक सूत्र दादाभाई नौरोजी द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हाथों भारत के आर्थिक शोषण के गहरे विश्लेषण से निकलेजिसका निहितार्थ यह रहा कि हमें आजादी इसलिए चाहिए क्योंकि यह हम सबके आर्थिक हित में है। नवजागरण के मनीषियों ने जिस सर्व-समावेशी समाज एवं दिमागी खुलेपन की संस्कृति पर जोर दियावह इस राष्ट्रवाद का दूसरा आधार है। इसका निहितार्थ है कि भारत में जन्मा हर शख्स यहां का बाशिंदा है और उनके बीच धर्मजातिनस्ल, लिंग या किसी अन्य आधार पर कोई भेदभाव नहीं हो सकता। इसमें तीसरा पहलू लोकतंत्र का जुड़ा,जो हमारे स्वतंत्रता संग्राम में व्यापक जन भागीदारीउससे पैदा हुई जन चेतनाऔर विभिन्न विचारधाराओं के संघर्ष एवं समन्वय की परिणति है। और चौथा आधार विकास का वो एजेंडा हैजिसे लेकर आजादी के बाद यह राष्ट्र आगे बढ़ा। भारतीय राष्ट्रवाद की इस धारणा को तमाम क्रांतिकारी एवं प्रगतिशील शक्तियों ने आगे बढ़ाया, लेकिन इसकी सबसे बड़ी वाहक शक्ति कांग्रेस रही है।

कांग्रेस आज समूचे भारतीय जन के आर्थिक हितों की नुमाइंदगी करती हैयह शायद ही कहा जा सकता है। सर्व-समावेशी धारणा में उसकी आस्था संदिग्ध हैक्योंकि उस पर नवंबर चौरासी के सिख दंगों का दाग है एवं उस पर अनेक मौकों पर सांप्रदायिक कार्ड खेलने के विश्वसनीय आरोप हैं। आदर्श रूप में पार्टी का स्वरूप लोकतांत्रिक नहीं है,यह उसके वंशानुगत नेतृत्व से जाहिर है। और आज उसका जो विकास संबंधी एजेंडा हैवह प्रभुत्वशाली तबकों के हितों में झुका हुआ हैइसे तर्कों से साबित किया जा सकता है। मगर ये तमाम बातें उस समय छोटी हो जाती हैंजब उसके सामने भाजपा खड़ी दिखती है। इसलिए कि भाजपा मूल रूप से आधुनिक राष्ट्रवाद की धारणा को ही चुनौती देने वाली शक्ति है। भाजपा जिस संघ परिवार का हिस्सा हैउसकी राष्ट्रवाद की समझ में आर्थिक हितों के साझापनसर्व-समावेशी स्वरूपप्रगतिशील लोकतंत्र और जनपक्षीय विकास की कोई जगह नहीं है। इसके विपरीत यह राष्ट्रवाद कथित सांस्कृतिक आधार से परिभाषित होता है। सीधे शब्दों में कहें तो इसका अर्थ पुरातन हिंदू संस्कृति है। यह संस्कृति अपने आप में एक विवादास्पद धारणा हैलेकिन अगर कोई राष्ट्रवाद मजहबी संस्कृति पर खड़ा होगातो स्वाभाविक रूप से उसमें उन लोगों के लिए कोई जगह नहीं होगी जो उस संस्कृति का हिस्सा नहीं होंगे। उसमें बहुत से लोगों का स्थान उस सांस्कृतिक मान्यता के मुताबिक श्रेणी-क्रम में ऊपर या नीचे तय हो जाएगा। संघ परिवार का सारा विमर्श इस बात की पुष्टि करता है कि भाजपा जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद स्थापित करना चाहती हैउसमें एक इंसान की कीमत पुरातन मान्यताओं से तय होगी। इसलिए यह राष्ट्रवाद सिर्फ धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए नहींबल्कि दलितोंपिछड़ी जातियोंमहिलाओं और आधुनिक-ख्याल तमाम लोगों के लिए एक चुनौती है।

यह कथन कि व्यावहारिक राजनीति की मजबूरियां भाजपा को एक सामान्य राजनीतिक दल बना देती हैं और सत्ता की चाह में उसकी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचारधारा अप्रासंगिक हो जाती हैअनुभव से सिद्ध नहीं है। बल्कि आज भी यह गौर करने योग्य है कि भाजपा किन मुद्दों पर वोट मांगती हैउसके मुख्य मुद्दे अयोध्या में राम मंदिर का निर्माणसमान नागरिक संहिता और संविधान की धारा 370 की समाप्ति हैं। इसके अलावा गो-रक्षास्कूलों में सूर्य नमस्कार एवं गीता की पढ़ाई थोपनापाठ्यक्रम में अंधविश्वास भरी विषयवस्तुओं को जगह देना और विकास की धारणा को पूर्णतः अभिजात्य हितों के मुताबिक प्रस्तुत करना भाजपा शासन में रोजमर्रा के अनुभव हैं। दरअसलखुद भाजपा इन मुद्दों को अपनी खास पहचान मानती है। जाहिर हैइनके आधार पर ही बहुमत जुटाकर वह सत्ता में आना चाहती है। इस परिप्रेक्ष्य में नरेंद्र मोदी पार्टी में कोई अपवाद नहींबल्कि उसके सबसे स्पष्ट प्रतीक हैं। इस राजनीति में जोर-जबर्दस्ती का तत्व नैसर्गिक रूप से शामिल हैक्योंकि सिर्फ उसके जरिए ही कोई जीवन शैली या संस्कृति किसी अन्य पर थोपी जा सकती है। इसलिए वेलेंटाइन डे मना रहे लोगों पर हमला या किसी किताबकला-संस्कृति- या अभिव्यक्ति के दूसरे माध्यमों की आजादी को प्रतिबंधित करने की प्रवृत्ति कोई अलग-थलग रुझान नहींबल्कि इस विचारधारा का अभिन्न अंग है। 

1980के दशक तक भाजपा हाशिये पर की ताकत थी। लेकिन राम जन्मभूमि आंदोलन और बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद बनी परिस्थितियों में वह देश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गई। इसके साथ राजनीति में वह विभाजन रेखा (फॉल्टलाइन) सबसे प्रमुख हो गईजिसके आधार पर भाजपा एक तरफ और बहुसंख्यक वर्चस्ववाद एवं रूढ़िवाद विरोधी ताकतें दूसरी तरफ खड़ी दिखती हैं। चूंकि 1990 के दशक के घटनाक्रम ने भाजपा को केंद्र की सत्ता में पहुंचा दिया और सत्ता का अपना गतिशास्त्र होता हैइसलिए बहुत से ऐसे दलजो मूल रूप से संघी राष्ट्रवाद से सहमत नहीं हैंवे भाजपा के सहयोगी बन गए। सांप्रदायिकता की विभाजन रेखा की इस अनदेखी ने सबसे न्याय एवं सबको साथ लेकर चलने वाले राष्ट्रवाद के लिए गंभीर चुनौती पैदा कर दी। यह स्थिति इस आम चुनाव में बेहद खतरनाक रूप में हमारे सामने है। गौरतलब है। इस आम चुनाव के दौरान, जब भाजपा कथित रूप से विकास के मुद्दे पर मैदान में उतरी है, नरेंद्र मोदी गो-हत्या से लेकर बांग्लादेशी शरणार्थियों के मामले में  सांप्रदायिक नजरिए से बयान दे चुके हैं। मुजफ्फरनगर दंगों के दोषियों को उम्मीदवार बनाना यही साबित करता है कि भाजपा ने अपने मूल चरित्र से कोई समझौता नहीं किया है। चूंकि चुनावी राजनीति में सफल होने के लिए मिडिल ग्राउंड पर आना मजबूरी है, इसलिए यह भ्रम पैदा करने की कोशिश जरूर की गई है कि पार्टी सबको लुभाना चाहती है। लेकिन पार्टी का इतिहास और वर्तमान दोनों ऐसे हैं कि ये भ्रम ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता।  
इसपरिस्थिति में आधुनिकता एवं प्रगतिशीलता के अर्थ में राष्ट्र-भक्त एवं जन-पक्षीय लोगों के सामने पहला लक्ष्य भारत के आधुनिक विचार की रक्षा और भारतीय राज्य-व्यवस्था को राष्ट्रवाद के उस सिद्धांत पर टिकाए रखना हैजो न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की एक अनिवार्य शर्त है। कम्युनिस्ट विचारधारा में वस्तुगत परिस्थितियों के वस्तुगत विश्लेषण का सिद्धांत बहुमूल्य माना जाता है। इस सिद्धांत को अगर आज हम अपने हालात पर लागू करेंतो उससे यही समझ निकलती है कि धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र एवं संवैधानिक व्यवस्था की रक्षा एवं समाज के उत्तरोत्तर लोकतंत्रीकरण के संदर्भ में उन तमाम शक्तियों की आवश्यकता बनी हुई हैजो भाजपा के खेमे में नहीं हैं। जब तक भाजपा के राष्ट्रवाद को परास्त नहीं कर दिया जाताभारतीय राष्ट्रवाद की यह मजबूरी बनी रहेगी। मगर यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय राजनीति की इस प्रमुख विभाजन रेखा की प्रासंगिकता की समझ हाल के वर्षों में धुंधली होती गई है। इसके लिए काफी हद तक कांग्रेस नेतृत्व वाले यूपीए की नीतियां जिम्मेदार हैंलेकिन इसकी कुछ जिम्मेदारी उन पार्टियों की भी है,जिन्होंने फ़ौरी राजनीतिक फायदों को दीर्घकालिक उद्देश्यों पर ज्यादा तरजीह दी। और इसके लिए दोषी वे लोग भी हैं, जो अपनी अति-क्रांतिकारिता में समाज में विवेकहीनता फैलाने में मददगार बने। विवेकहीनता और अनावश्यक हताशा के इसी माहौल में नरेंद्र मोदी को खुद को मजबूत नेता के रूप में पेश कर बड़ी संख्या में ऐसे लोगों को भी अपने पक्ष में करने में सफल हुए हैं, जो आम तौर पर हिंदुत्व जैसी संकीर्ण सोच से संचालित नहीं होते।

बहरहाल,मीडिया खबरों से साफ है कि मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने कमर कसी हुई है। उसके स्वयंसेवक देश भर में बारीक ढंग से चुनाव अभियान और बूथ मैनेजमेंट को संभाल रहे हैं। कॉरपोरेट सेक्टर ने इस कार्य में धन की कोई कमी नहीं रहने दी है। संघ और कॉरपोरेट के मेल ने भारत का अपना खास रॉकफेलर पल हमारे सामने प्रस्तुत किया है। क्या भारतीय मतदाता एक बार फिर 1977 और 2004 जैसी राजनीतिक बुद्धि का परिचय देकर तमाम अनुमानों को झुठलाते हुए लोकतंत्र एवं धर्मनिरपेक्षता की मूल भावना को जिंदा रख पाएंगेया वे विकास की मुखौटे से धोखा खाकर उस मुख को सत्ता तक पहुंचा देंगे, जिससे हमें अपने जीवन के सबसे दुर्भाग्यपूर्ण सार्वजनिक क्षण का सामना करना पड़ेगा? इस चुनाव में यही प्रमुख सवाल हमारे सामने हैं।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 

बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

खुफिया एजेंसियों की जवाबदेही से डर क्यों?

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-हरे राम मिश्र

"...अब, सबसे गंभीर सवाल यह है कि आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? इसे रोका कैसे जाए? क्या यह सब लोकतंत्र को कमजोर नहीं कर रहा है? आखिर इन सबका इलाज क्या है? आखिर खुफिया एजेंसियों की जवाबदेही क्यों न तय की जाए? क्योंकि आम लोग इनके जाल में फंसते हैं और उनका जीवन बर्बाद हो जाता है, जिससे समाज में तनाव फैलता है और विघटनकारी ताकतें मजबूत होती हैं।..."

देश में इन दिनों सोलहवीं लोकसभा के लिए आम चुनाव चल रहे हैं और सभी राजनैतिक दलों ने अपने चुनावी घोषणापत्र भी जारी कर दिए हैं। इन चुनावी घोषणापत्रों में आतंकवाद, नक्सलवाद, आंतरिक सुरक्षा समेत कई समस्याओं से निपटने की रणनीति अपनी-अपनी तरह से दलों द्वारा घोषित की गई है। लेकिन, देश की खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने के सवाल पर लगभग सभी दलों के घोषणापत्र में एक अजीब सी चुप्पी दिखती है। भाजपा ने अपने घोषणापत्र में कहा है कि अगर वह सत्ता में आई तो खुफिया एजेंसियों को और ज्यादा स्वायत्तता देगी और राजनैतिक हस्तक्षेप से मुक्त करेगी ताकि आतंकवाद जैसी समस्याओं से निपटा जा सके।


गौरतलब है कि खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाने की मांग काफी दिनों से चल रही है, लेकिन इस दिशा में राजनैतिक दल, सरकारें और यहां तक कि अदालतें भी कुछ बोलने से कतराती रही हैं। अभी कुछ दिनों पहले ही, अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की गई है, जिसमें देश की खुफिया एजेंसियों को दिए जा रहे अकूत धन के आॅडिट की मांग की गई थी। अभी खुफिया एजेंसियों द्वारा खर्च किए गए धन का कोई आॅडिट नहीं होता है। इन दिनों खुफिया एजेंसियों की संसद के प्रति जवाबदेही का सवाल देश भर में चल रहे लोकतांत्रिक और मानवाधिकार आंदोलनों के केन्द्र में है। ऐसे ही मुद्दों पर लड़ने वाले संगठन ’रिहाई मंच’ द्वारा देश के समस्त राजनैतिक दलों को भेजे गए मांग पत्र में कहा गया है कि देश के बहुसंख्यक तबके से जुड़ी समस्याओं का निदान बहुत हद तक संसद द्वारा कानूनी प्रावधानों और संविधान संसोधनों के जरिए संभव है। ऐसे में खुफिया एजेंसियां, जो देश के संभवतः एक मात्र ऐसे संगठन है जो किसी के प्रति सीधे तौर पर जवाबदेह नही हैं को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाए। इस मांग पत्र में खुफिया एजेंसियों को देश की सर्वोच्च संस्था संसद के प्रति जवाबदेह बनाने की मांग की गई है।

अगरइनकी इस मांग का गंभीरता से विश्लेषण किया जाए तो उनकी मांगे गैर वाजिब नही दिखतीं। किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में संसद ही सर्वोच्च होती है, जो कि देश की आवाम का प्रतिनिधित्व करती है। इस लिहाज से कोई भी संगठन संसद से ऊपर नहीं हो सकता। वह संसद के प्रति जवाबदेह होता है। हालिया दिनों में जिस तरह से खुफिया एजेंसियों की कार्यप्रणाली गंभीर सवालों के घेरे में आयी है, को देखते हुए यह जरूरी हो गया है कि खुफिया एजेंसियों की कार्यपद्धति की एक माॅनीटरिंग हो। इन दिनों खुफिया एजेंसियों की निरंकुशता के कई मामले सार्वजनिक हुए हैं, जो गंभीर सवालों को जन्म देते है। उदाहरण के लिए अगर दरभंगा बिहार निवासी फसीह महमूद के मामले को ही देखें तो कई चीजें साफ हो जाती हैं। फसीह महमूद को 13 मई 2012 को सुरक्षा व खुफिया एजेंसियों द्वारा सउदी अरब से उठाया गया था और उसकी पत्नी द्वारा 24 मई 2012 को हैबियस काॅर्पस करने के बावजूद 48 घंटे की समय सीमा का उल्लंघन करते हुए, दो महीने बीत जाने के बाद 11 जुलाई 2012 को भारत सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में बताया था कि फसीह महमूद सउदी सरकार की हिरासत में है। लगभग पांच महीने की अवैध हिरासत के बाद अक्टूबर 2012 में फसीह महमूद के सउदी से भारत प्रत्यर्पण के बाद, यह बात स्पष्ट नहीं हो सकी कि किसके कहने पर उसे हिरासत में लिया गया था, क्योंकि सउदी सरकार ने स्पष्ट कहा था कि उनके यहां महमूद के खिलाफ कोई मामला नही है। यही नहीं, 16 जुलाई को दिल्ली और कर्नाटक पुलिस ने गृह मंत्रालय से कहा कि फसीह के खिलाफ किसी कोर्ट में चार्जशीट नहीं है। ऐसे में यह घटना इस बात को स्थापित करती है कि भारतीय खुफिया एजेंसियां किसी स्तर पर अपनी सरकार के प्रति भी कोई जवाबदेही नही रखतीं। ऐसे सैकड़ों मामले है जिन पर अगर गंभीरता से पड़ताल की जाए तो खुफिया एजेंसियों की निरंकुशता साफ दिखाई पड़ने लगती है। उत्तर प्रदेश के बिजनौर निवासी नासिर को जहां सुरक्षा एजेंसियों ने आतंकवादी बता कर देहरादून से पकड़ लिया था, को अपनी बेगुनाही साबित करने में सात साल जेल में बिताने पड़े। यही नहीं, मालेगांव ब्लाॅस्ट में फर्जी तरीके से फंसाए गए हिमायत बेग का जीवन खफिया एजेंसियों ने ही बर्बाद किया। आखिर इन बेगुनाहों का जीवन चैपट करने की जिम्मेदारी किस पर डाली जाएगी? सादिक जमाल मेहतर, सोहराबुद्दीन शेख, तुलसीराम प्रजापति समेत कई ऐसी फर्जी हत्याएं हैं जिनमें खुफिया एजेंसियों की ज्यादतियां खुल चुकी हैं। आईबी के रिटायर्ड अफसर राजेन्द्र कुमार के गुजरात में अंजाम दिए गए काले कारनामांे कौन भूल सकता है? नरेन्द्र मोदी की फर्जी फिजा बनाने के लिए, गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ फर्जी एनकाउंटरों की जो श्रृंखला 2002 के गुजरात दंगों के बाद चलाई गई थी, उसमें खुफिया विभाग की कारस्तानी को कौन नजरंदाज कर सकता है।

वैसे भी, दुनिया की खुफिया एजेंसियां हमारे देश में कितना सक्रिय हैं, इसे पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या की जांच के लिए बनाए गए जस्टिस जैन कमीशन की रिपोर्ट में देखा जा सकता है। राजीव गांधी की हत्या एलटीटीई के जरिए मोसाद और सीआईए ने करवाई थी। इस षडयंत्र में भारतीय खुफिया एजेंसियों से जुड़े अधिकारियों की भूमिका संदिग्ध थी। इसी तरह, खालिस्तानी आंदोलन में भारतीय एजेंसियों की संलिप्तता के भी कई तथ्य भी सामने आ चुके हैं। हिन्दू आतंकवादी संगठन अभिनव भारत के आतंकवादी इजराइली खुफिया एजेंसियों से मदद लेते थे, एटीएस की चार्जशीट में बकायदा इसका जिक्र है। जब खुफिया एजेंसियां किसी देश के प्रधानमंत्री की हत्या करा सकती हैं तो फिर इनके हाथ कितने लंबे होंगे, इसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती।

यही नहीं, आजकल आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए कई बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों का जीवन बर्बाद करने में खुफिया अफसरों के नाम सामने आ रहे हैं। फर्जी एनकाउंटर, अवैध हिरासत, गलत तरीके से आतंकवादी घटनाओं में फंसाना आजकल देश की खुफिया एजेंसियों का चरित्र बनता जा रहा है। यह सब देश के लोकतांत्रिक ताने-बाने के लिए बहुत खरनाक है। इशरतजहां की फर्जी मुठभेड़ कैसे भुलाया जा सकता है? सीबीआई ने अपनी जांच में आईबी के संयुक्त निदेशक रह चुके राजेन्द्र कुमार के खिलाफ इस मामले में इतने ज्यादा सबूत इकट्ठे किए थे कि, आईबी के निदेशक आसिफ इब्राहिम को राजेन्द्र कुमार को बचाने के लिए गृह मंत्रालय को धमकी देनी पड़ी कि अगर राजेन्द्र कुमार को हिरासत में लिया जाता है तो उनका विभाग सरकार को खुफिया सूचनाएं देना बंद कर देगा। इसके बाद तो हालात यहां तक बिगड़ गए कि गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे को मामले में हस्तक्षेप करते हुए आईबी के निदेशक आसिफ इब्राहिम और सीबीआई निदेशक रंजीत सिन्हा के साथ एक संयुक्त बैठक तक करनी पड़ी। आखिर फर्जी एनकाउंटर जैसा जघन्य अपराध करने के बाद यह तर्क कि कानूनी कार्यवाई से आईबी के कर्मचारियों का मनोबल गिरेगा, इंसाफ की कौन सी परिभाषा में आता है?  

उत्तरप्रदेश की कचहरियों में हुए ब्लास्ट में जौनपुर के मौलाना खालिद और आजमगढ़ के तारिक कासमी को फर्जी तरीके से फंसाया गया और जब जस्टिस निमेष आयोग ने यह साफ कर दिया कि विस्फोटकों के साथ दिखाई गई इनकी गिरफ्तारी ही फर्जी है, तो खुफिया और पुलिस अफसरों के जेल जाने के डर से पेशी से लौटते वक्त खालिद की हत्या करा दी जाती है। यह साफ है कि मुसलमान ही इनकी निरंकुशता के आसान शिकार होते हैं।

अब,सबसे गंभीर सवाल यह है कि आखिर ऐसा कितने दिन चलेगा? इसे रोका कैसे जाए? क्या यह सब लोकतंत्र को कमजोर नहीं कर रहा है? आखिर इन सबका इलाज क्या है? आखिर खुफिया एजेंसियों की जवाबदेही क्यों न तय की जाए? क्योंकि आम लोग इनके जाल में फंसते हैं और उनका जीवन बर्बाद हो जाता है, जिससे समाज में तनाव फैलता है और विघटनकारी ताकतें मजबूत होती हैं।

कुलमिलाकर, आज यह बेहद जरूरी हो गया है कि खुफिया एजेंसियों की जिम्मेदारी एक लोकतांत्रिक समाज में तय की जाए। बेशक देश को आतंकवाद और आंतरिक सुरक्षा में  चुनौतियां मिल रही हैं, लेकिन अराजक ढंग से उनसे नहीं निपटा जा सकता। अगर खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाता है तो इससे लोकतंत्र ही मजबूत होगा। जब इस मुल्क में हर संस्थान की जिम्मेदारी तय है तो फिर खुफिया एजेंसियां इससे मुक्त क्यों हैं? क्या हमारे राजनैतिक दल इस दिशा में पहल करेंगें? देश के उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी ने भी अपने लंबे अनुभवों के आधार पर कहा है कि खुफिया एजेंसियों को संसद के प्रति जवाबदेह बनाया जाना चाहिए। संसदीय लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए यह जरूरी है कि हम वास्तव में संसद को सबसे शक्तिशाली रूप में देखें। आखिर जवाबदेही मुक्त ताकत निरंकुशता को जन्म देती है और यह लोकतंत्र में स्वीकार्य नही है। सवाल लोकतंत्र और उसके भविष्य का है।

हरे राम मिश्र
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार
संपर्क मो-07379393876

भाजपा और सामाजिक न्याय का सच

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-मोहम्म्द आरिफ

"...नरेन्द्र मोदी और बीजेपी के इस चुनावी पिछड़ा प्रेम को समझने के लिए गुजरात के बारे में समझ लेना आवश्यक होगा। गुजरात में जब दलित आरक्षण लागू किया गया था तो उस वक़्त ब्राह्मणपाटीदार और बनिया वर्ग का जबरदस्त विरोध सामने आया जिसने बाद में 1981 में दलित विरोधी आंद¨लन का रूप लिया और बीजेपी ने इस दलित विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस दलित विरोधी आंदोलन ने दंगों की शक्ल अख्तियार की और गुजरात के 19 में से 18 जिलों में दलितों को निशाना बनाया गया।..."

सामाजिक न्याय का प्रश्न भारतीय सामाजिक संरचना और आर्थिक स्थितियों से गहरी तरह संबद्ध है। भारत में मौजूद सैकड़ों साल पुरानी मनुवादी वर्ण व्यवस्था से यहाँ सभी अच्छी तरह परिचित हैं
, और सामाजिक न्याय का सवाल हमारे स्वतंत्रता आंदोलन में भी अहम रहा है। इसी को देखते हुए संविधान में इसके लिए उपाय किये गए थे, लेकिन अभिलक्षित उद्देश्यों की पूर्ति न होने की वजह से मंडल कमीशन लागू किया गया। हालाँकि, इसके बाद भी पिछड़ों और दलितों की हालत में संतोषजनक बदलाव नहीं आए है। अभी भी उनकी शिक्षा, रोजगार, व्यापार राजनीति में भागीदारी केवल कुछ ऊपरी सतह पर ही सिमटकर रह गयी है। हाशिए पर मौजूद जनसमूह आज भी सामाजिक बराबरी और अपने नागरिक अधिकारों कोपाने के लिए संघर्षरत है।  

हकीकत तोयह है कि सामाजिक न्याय का सवाल या दलितों, पिछड़ों का सवाल भारतीय राजनीति का वह कोना है जिसे पैंडोरा बॉक्स कहा जा सकता है जिसका जिक्र होते ही तमाम तरह के मुददे जैसे जाति, समुदाय, सामाजिक बनावट, आर्थिक स्थिति, पिछड़ा बनाम अगड़ा आदि बहसें शुरू होजाती हैं। इस बार का लोकसभा चुनाव भी इन बहसों से अछूता नहीं है और हर बार की तरह इस बार भी पिछड़ों के सवाल पर ध्रुवीकरण की कोशिश की गयी है। 
     
इसबार किसी भी कीमत पर सत्ता प्राप्त करने के लिए बीजेपी भी पिछड़ा कार्ड खेल रही है। भारतीय जनता पार्टी जोसंघ की राजनीतिक इकाई के रूप में काम करती है और अपने मूल रूप में विचारधारात्मक स्तर एक यथास्थितिवादी संगठन है, के बावजूद बीजेपी के पीएम उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी इस बार सामाजिक न्याय का लालच देकर दलितों, पिछड़ों कोअपनी ओर मिलाने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं। इस क्रम में उन्होंने खुद कोपिछड़ा और राजनीतिक अछूत के रूप में भी पेश किया है।  मोदी ने ये ऐलान भी किया कि आगामी दशक पिछड़े समुदायों के सदस्यों का दशक होगा।’ 

नरेन्द्रमोदी और बीजेपी के इस चुनावी पिछड़ा प्रेम कोसमझने के लिए गुजरात के बारे में समझ लेना आवश्यक होगा। गुजरात में जब दलित आरक्षण लागू किया गया था तोउस वक़्त ब्राह्मण, पाटीदार और बनिया वर्ग का जबरदस्त विरोध सामने आया जिसने बाद में 1981 में दलित विरोधी आंद¨लन का रूप लिया और बीजेपी ने इस दलित विरोधी आंदोलन का नेतृत्व किया था। इस दलित विरोधी आंदोलन ने दंगों की शक्ल अख्तियार की और गुजरात के 19 में से 18 जिलों में दलितों कोनिशाना बनाया गया। इन दंगों में मुस्लिमों ने दलितों कोआश्रय दिया और उनकी मदद भी की। वास्तव में दलित, पिछड़ा और आदिवासी गुजरात की लगभग 75 प्रतिशत जनसंख्या बनाते हैं। इसी कोअपने साथ मिलाकर 1980 में कांग्रेस ने सत्ता प्राप्त की थी। यह गठजोड़ जिसे अंग्रेजी के खाम यानि क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम कहा जाता है, ने पहली बार ब्राह्मण और पाटीदारों कोसत्ता के केंद्र से दूर कर दिया। हालाँकि इसके ठीक बाद बीजेपी ने 1980 में अपने कट्टर हिन्दुत्ववादी एजेंडे पर काम करना शुरू किया और आडवानी की रथ यात्रा ने उस प्रक्रिया कोतेज किया, जिसमे सवर्ण और उच्च जाति के लोगों ने सत्ता से दूर होने के आधार पर एकजुट होकर आरक्षण विरोधी आंदोलन कोचलाया। साथ ही इसने गुजरात के भगवाकरण के लिए भी परिस्थितियां पैदा की। 1980 में कांग्रेस की जीत के बाद बीजेपी ने दलित विरोधी रणनीति में परिवर्तन कर इसे सांप्रदायिक रंग दिया और अब निचली जाति के दलित, आदिवासी समूह कोमुस्लिमों के विरुद्ध खड़ा किया। इसी कारण 1981 में आरक्षण विरोधी आंदोलन ने 1985 में सांप्रदायिक हिंसा का रूप धारण कर लिया और इसे आडवानी ने अपनी रथयात्रा से और भी उन्मादी और हिंसक बनाया। 1990 में जब आडवानी रथ यात्रा के जरिए देश में जहर घोल रहे थे, उस वक़्त गुजरात में उनके सिपहसलार नरेन्द्र मोदी थे जोगुजरात बीजेपी महासचिव थे।

बीजेपी न केवल दलित,पिछड़ा आरक्षण के विरोध का नेतृत्व करती रही है बल्कि सत्ता में आने के बाद नरेन्द्र मोदी की सरकार ने गुजरात में इस आरक्षण के लाभ कोभी सरकारी मशीनरी के दुरूपयोग से रोका है। इसके लिए मशीनरी का किस तरह इस्तेमाल किया गया है यह समझना आवश्यक है। बख्शी पिछड़ा वर्ग आयोग ने जिसने 1978 में अपनी संस्तुति प्रस्तुत की उसमे कुछ मुस्लिम पिछड़ी जातियों की पहचान की गई थी जिसमे जुलाया और घांची भी शामिल थे, में राज्य कल्याण विभाग ने इन जातियों के आवेदन निरस्त कर दिए और 1978 के पहले के रिकॉर्ड मांगे। जबकि उन्हें 1978 में शामिल किया गया था। इस प्रकार राज्य मशीनरी ने सामाजिक न्याय से उन्हें वंचित किया। इस तरह के हजारों मामले हैं जिनमे पिछड़ी, दलित और आदिवासियों कोसामाजिक न्याय के लाभ से राज्य मशीनरी द्वारा जान-बूझकर एक सोची-समझी रणनीति के तहत वंचित किया गया है। इसी तरह कुछ और मामले हैं जिनमे हाईकोर्ट ने हस्तक्षेप किया( इमरान राजाभाई पोलार बनाम गुजरात राज्य)। इस मामले में जाति कल्याण विभाग के डायरेक्टर ने जाति प्रमाण पत्रों कोजाली और गलत तरीके से प्राप्त कहकर ख़ारिज कर दिया था। ठीक इसी तरह से राज्य सरकार ने हजारों प्रमाण पत्रों कोनिरस्त कर दिया जबकि वे विधिसम्मत और प्रक्रिया से प्राप्त किये गए थे। इमरान राजाभाई के मामले में हाईकोर्ट ने सुनवाई करते हुए डायरेक्टर के फैसले कोरद्द किया और यह भी कहा कि डायरेक्टर ने जानबूझकर मामले कोआगे बढाया क्योंकि जुलाया समुदाय पहले से ही पिछड़ी जाति के रूप में अधिसूचित है।

अब इस मामले कोदेखें तोस्पष्ट होजायेगा कि यह केवल तकनीकी गड़बड़ी नहीं है बल्कि एक सोची समझी साजिश के तहत लोगों कोवंचित किया जा रहा है। यह सामाजिक न्याय कोनकारने का एक सरकारी उपक्रम है जोअपने स्वभाव से ही दलित, पिछड़ा और आदिवासी विरोधी है। बीजेपी वास्तव में संघ परिवार का राजनीतिक उपक्रम है और यह संघ की रणनीति कोही लागू करती है, जोअपने मूल वैचारिक स्वरुप में घोर सांप्रदायिक, प्रतिक्रियावादी, जनतंत्र विरोधी है। संघ का राष्ट्रवाद असमानता पर आधारित राष्ट्र के निर्माण की बात करता है। नरेन्द्र मोदी खुद कोभले ही पिछड़ा और राजनीतिक अछूत घोषित करें लेकिन हकीकत सभी कोअच्छी तरह पता है कि वोखुद दलित, पिछड़ा विरोधी आंदोलन के नेता रहे हैं। इसके अलावा रही बात संघ की तोयह बात जगजाहिर है की संघ मनुस्मृति कोही शासन का आधार मानता है और मनुस्मृति स्पष्ट रूप से वर्ण व्यवस्था की वकालत करती है क्योंकि उनके अनुसार यह प्रकृति का नियम है और असमानता शाश्वत है जिसे दूर नहीं किया जा सकता है।(एम एस गोलवलकर,बंच ऑफ़ थॉट्स,1960)

इससेसाफ़ है कि बीजेपी भले ही दिखावा करे लेकिन वह सामाजिक न्याय विरोधी और जनतंत्र की मूल अवधारणा के भी विरुद्ध है। इसका सामाजिक राजनीतिक दर्शन ही फासीवादी और एकात्मवादी है जहाँ दलितों,पिछड़ों,आदिवासियों के लिए सामाजिक न्याय की कल्पना नहीं की जा सकती है। बीजेपी कितना भी कोशिश कर ले किन्तु वह देश की जनता कोभ्रमित नहीं कर सकती है और आनेवाले दिनों में लोकसभा परिणाम इस तथ्य की पुष्टि करेंगे कि हमें फासीवादी नहीं बल्कि एक जनतांत्रिक और सामाजिक न्याय में यकीन रखने वाली सरकार चाहिए। 

मोहम्म्द आरिफ
मो-9807743675

इस तहजीब के नुकसान की भरपाई कौन करेगा ?

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जयशंकरबैरागी
-जयशंकरबैरागी

"…औरहां सामने जो भैंस बंधी है उसी के दूध ईद पर आसपास के मुसलमान भाईयों के घर बंटता है जिससे इबाबत के लिए सैवई तैयार होती है। यहां ना 'मोदी के गुजरात का दूध'आता है न मुलायम की बिरादरी वाले यदुवंशी भाइयों का, यहां हमारी भैंस के दूध में ईद की सैवइयां कढ़ती हैं।…" 


'कौन कहवे गंगा-जमुनी तहजीब काशी, इलाहाबाद या लखनऊ की है। झूठे पंडे, पत्रकार अर नेता कहवे ऐसा। भाई एक झूठ सौ बार कह दो तो सच हो जावे। अर ये पंडे पत्रकार औऱ नेता इस बार कू बढ़िया तरीके से जानै। गंगा-जमुनी तहजीब को म्हारे मुजफ्फरनगर- शामली अर बागपत की है।' 80 साल से ज्यादा उम्र के रामफल सिंह ने जब यह बात कही तो बेहद अटपटी लगी। 

शामली की जमीन पर बैठा मैं उनकी बात बड़ी गौर से सुन रहा था। मैं जानता था कि यहां का आदमी कड़वा मगर सपाट बोलता है, लिहाजा उम्मीद थी कि कोई खास बात जरूर सामने आएगी। मुजफ्फरनगर दंगों पर अपनी बात रख रहे रामफल का कहना है कि दंगे देश में कोई नई बात नहीं है लेकिन कहां हो रहे हैं ये बड़ी बात है। जिस मुजफ्फरनगर -शामली में पिछले दिन दंगों हुआ। आजादी के बाद आज तक पहले कभी ऐसी स्थिति की नौबत नहीं आई।

बूढ़े बाबा कहते हैं, 'सियासत ने इस इलाके को जो सांस्कृतिक नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई शायद अगले बीस-तीस सालों में भी ना हो पाए।'बूढ़े बाबा की बात में दर्शन भी था और गहरी सामाजिक समझ भी लेकिन मैं नहीं समझ पा रहा था कि आखिर वह किस सांस्कृतिक नुकसान की बात कर रहे हैं। आखिरकार मैंने उन्हें टोकते हुए पूछ ही लिया कि किस सांस्कृतिक नुकसान की बात रहे हैं आप। एक वाक्य में बिना किसी देर के उनका जवाब आया, 'दो महजबी भाइयों की गंगा-जमुनी तहजीब के खात्मे का'.

बूढ़े बाबा ने एक तीन चार साल के छोटे से बच्चे की ओर इशारे करते हुए, नितिन को जब भी नजर लग जाती है तो जानते हो इसकी मां क्या करती है? मैं ने कहा, काला टीका लगाती होगी। नहीं, तपाक से बूढ़े आदमी ने कहा, इसकी मां गांव के बीचो बीच बनी मस्जिद के मौलवी रफीकुद्दीन के पास जाती है। वह झूठ ही बच्चों को देखते हुए अपने होठों को कुछ देर तक हिला देता है और बच्चे की मां वापस आ जाती है। और हां यह भी भी जानते हैं कि तंत्र-मंत्र से बच्चा ठीक नहीं होता लेकिन ये एक रिवाज से ज्यादा कुछ नहीं। आप ही देखो एक हिंदू मां को वेद-उपनिषद से ज्यादा भरोसा उस मुस्लिम मौलवी की दुआ पर है जो केवल उसके रिवाद को जिंदा रखते हुए कुछ शब्द उर्दू में कह देता है।

औरहां सामने जो भैंस बंधी है उसी के दूध ईद पर आसपास के मुसलमान भाईयों के घर बंटता है जिससे इबाबत के लिए सैवई तैयार होती है। यहां ना 'मोदी के गुजरात का दूध'आता है न मुलायम की बिरादरी वाले यदुवंशी भाइयों का, यहां हमारी भैंस के दूध में ईद की सैवइयां कढ़ती हैं। जब किसी बीमारी में यह भैंस कम दूध देती है तो यहां के लोगों को लगता है कि इसे नजर लग गई है। नजर से बचाने के लिए देश की माएं अपने लाड़ले को काला टीका लगाती हैं लेकिन यहां काली भैंस को नजर लग जाती है। जब काली भैंस को ही नजर लग जाती है तो लोग गांव के मंदिर पुजारी के पास नहीं जाते। वे फिर अपने सांस्कृतिक रिवाजों की शरण में जाते हैं। लोग गांव के मुस्लिम लौहार के पास जाते हैं जिस पत्थर के जिस छोटे से कुंड में लौहार किसानों के औजारों को धार देता है, उसके पानी के लाकर भैंस के ऊपर झिड़क दिया जाता है। आपको सुनने में बड़ा अजीब लगेगा बेंगलुरु में रहने ईशान के लिए उसकी नानी ने एक धागा भी रफीकुद्दीन से बनबाया ताकि बुरी ताकतें उसके लाड़ले नाती से दूर रहे।

खेती-किसानी से लेकर रिवाजों तक जो लोग हमारी जीवन शैली को हिस्सा हैं। वे ही आज हमारे सबसे बड़े दुश्मन है। ना अब नितिन की मां मौलवी से उसकी नजर उतरवाती है, भैंस को अब नजर नहीं लगती! एक नानी को अब उसके नाती की फिक्र नहीं रही ! खेती बाड़ी के इलाके की तहजीब का जो नुकसान हुआ है, अब बताओं उसकी भरपाई कौन करेगा ?


जयशंकर युवा पत्रकार हैं. दिल्ली में एक दैनिक अखबार में  काम.
इनसे 
newmedia89@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है...

भगाणा में दलित उत्पीड़न और प्रतिरोध की प्रयोगशाला

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सरोज कुमार
-सरोज कुमार

"…हिसार जिला मुख्यालय जहां डिप्टी कमिनश्नर और एसपी ऑफिस से लेकर कोर्ट तक मौजूद हैं, वहां पहुंचते ही मेरी मुलाकात डाबड़ा गांव की उस 17 वर्षीय दलित लड़की से हुई जिसके साथ 2012 में जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया था. इस घटना के बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी. वह लड़की उस कोर्ट में एक 10 वर्षीय बच्ची को लेकर आई थी, जिसके साथ किसी अधेड़ शख्स ने बलात्कार किया था. इसी तरह वह अपनी ही तरह दरिंदगी की शिकार लड़कियों के लिए आवाज उठाती है और भगाना गांव में बलात्कार शिकार लड़कियों के आंदोलन में उतरी हुई है…" 

गर मैं यह कहूं कि भगाणा की हाल की घटना और वहां के पीड़ित दलितों का मामला महज सामाजिक नहीं है, बल्कि इसके सबसे अधिक राजनैतिक निहितार्थ हैं. तो शायद आपको अजीब भी लग सकता है. दलितों पर ताकतवर जातियों की ओर से हमेशा अत्याचार होते आए हैं, और यह सामाजिक ढांचे और उसकी बजबजाती गंदगी का मामला तो रहता ही है. लेकिन हरियाणा के हिसार के भगाणा गांव की घटना के व्यापक राजनैतिक जुड़ाव है. इस घटना के विरोधी में भी हो रहे संघर्ष की राजनैतिक वजह है और इसकी जरूरत भी है.

जंतर-मंतर पर भगाणा की बलात्कार पीड़िताएं

पिछले 23मार्च को भगाना गांव की दो नाबालिग समेत चार दलित लड़कियों का अपहरण गांव के ही जाट युवकों ने कर लिया और बलात्कार किया था. इन पीडि़ताओं में दो नाबालिगों की उम्र 15वर्ष और 17वर्ष है तो दोनों बालिगों की उम्र 18वर्ष है. घटना के बाद इंसाफ और पुर्नवास की मांग को लेकर पीडि़ताएं अपने परिजनों और गांव के करीब 90दलित परिवारों के साथ दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना दे रही हैं.

पीडि़ताओं का आरोप है कि 23मार्च की रात करीब 8बजे जब वे शौच के लिए पास के खेतों में गई थीं तो पांच युवकों ने उन्हें जबरन चारपहिया गाड़ी में बिठा लिया और कुछ सूंघा कर बेहोश कर दिया. उन्हें होश आया तो उन्होंने खुद को अगले दिन पंजाब के भटिंडा रेलवे स्टेशन के किनारे पड़ा पाया. खुद की हालत से उन्हें पता चला कि उनके साथ रात में बलात्कार किया गया है.

लेकिनकहानी इतनी भर नहीं है. 17वर्षीय बलात्कार की शिकार लड़की के पिता कहते हैं, ''इसी वर्ष जनवरी में गांव के सरपंच राकेश कुमार पंघाल ने उन्हें मारा-पीटा और बुरा अंजाम भुगतने की धमकी भी दी थी. वे राकेश के खेतों में ही काम करते थे. वे कहते हैं, मैं रात में खेतों में पानी देने के बाद थोड़ी देर के लिए सो गया था तो इससे नाराज होकर राकेश ने मारपीट की थी.”  उनका कहना है कि एसपी तक से गुहार लगाने के बाद भी कोई मामला दर्ज नहीं हुआ और ना ही कोई कार्रवाई की गई.

औरइस तरह कहानी महज बलात्कार तक सीमित नहीं रहती. यह हरियाणा में दलितों के लगातर जारी उत्पीडऩ की कहानी बन जाती है.

हिसार मुख्यालय और बलात्कार पीड़ित प्रेतात्माएं

हरियाणा के हिसार के जिला मुख्यालय पहुंचते ही मुझे अहसास हुआ कि आप किसी भी शहर के कोर्ट, थाने या अन्य प्रशासनिक मुख्यालय चले जाइए आपको बलात्कार पीड़िताएं प्रेतात्माओं की तरह मंडराती मिल जाएंगी. जी हां, प्रशासनिक उदासीनता और लापरवाही से तंग, न्याय की आस लिए चक्कर काटती असंतुष्ट प्रेतात्माओं की तरह ही. और शायद प्रशासनिक अधिकारी भी उन्हें प्रेतात्माओं या अन्य जगह की प्राणी टाइप ही देखते हैं, जिनके साए से वे दूर रहना चाहते हैं. हिसार जिला मुख्यालय जहां डिप्टी कमिनश्नर और एसपी ऑफिस से लेकर कोर्ट तक मौजूद हैं, वहां पहुंचते ही मेरी मुलाकात डाबड़ा गांव की उस 17वर्षीय दलित लड़की से हुई जिसके साथ 2012में जाट युवकों ने सामूहिक बलात्कार किया था. इस घटना के बाद उसके पिता ने आत्महत्या कर ली थी. वह लड़की उस कोर्ट में एक 10 वर्षीय बच्ची को लेकर आई थी, जिसके साथ किसी अधेड़ शख्स ने बलात्कार किया था. इसी तरह वह अपनी ही तरह दरिंदगी की शिकार लड़कियों के लिए आवाज उठाती है और भगाना गांव में बलात्कार शिकार लड़कियों के आंदोलन में उतरी हुई है.

और वहीं थोड़ी देर में मुझे एक और बलात्कार शिकार युवती मिल जाती है जिसके साथ एक जाट युवक ने बलात्कार किया था लेकिन अब तक उसे सजा न मिल पाई है और इसकी वजह यह थी कि उस आरोपी युवक का मामा एक जज है. जाहिर है अपने रूतबे से उसने तमाम तिकड़मों से युवती को ही टॉर्चर कराया. यहां तक कि पुलिस ने इस युवती को गिरफ्तार कर बुरी तरह से टॉर्चर किया था जिसकी वजह से वह विक्षिप्त-सी हो गई थी. अब वह इंसाफ के लिए अब तक लड़ तो रही है लेकिन उसके चेहरे पर अदालतों-प्रशासनिक ढांचों के प्रति वितृष्णा साफ नजर आ रही थी. हां, यह ध्यान देने वाली बात जरूर थी कि इन दोनों लड़कियों ने हार नहीं मानी और न ही किसी तरह की झिझक के भाव के साथ दिखाई पड़ी, जैसा कि अमूमन पीड़िताओं को प्रदर्शित करने की कोशिश की जाती है. साफ कहूं तो बलात्कार पीड़ितों को लाचार या मुंह न दिखाने लायक मानने वाले समाज के ठेकेदारों के मुंह पर वे कड़े तमाचे की तरह मुझे दिखाई पड़ीं.

भगाणा वाया हिसार

भगाणा गांव कि विवादित सामुदायिक जमीन
मुख्यालयकी छत के नीचे ही भगाणा गांव के वे दलित भी मिल गए जो दो साल से वहां धरने पर बैठे हुए हैं. भगाना गांव 2012में सुर्खियों में आ गया था जब सामुदायिक जमीन को लेकर यहां विवाद हुआ था. दलितों का आरोप है कि उन्होंने ग्राम पंचायत की जमीन पर बाबा साहेब भीम राव अंबेडकर की मूर्ति लगाने और खेल के मैदान पर पट्टे देने की मांग के खिलाफ जाटों ने सामाजिक बहिष्कार कर दिया. उनकी धमकियों से तंग आकर 136दलित परिवारों ने हिसार के मिनी सचिवालय में धरने पर बैठ गए और दिल्ली तक पैदल मार्च किया था. लेकिन उन्हें मिला कुछ नहीं.

हिसारके मिनी सचिवालय पर ये दलित परिवार आज भी अपने दिनचर्या की चीजों के साथ धरने पर बैठे हुए हैं. वहां धरने पर बैठे भगाना के32वर्षीय सतीश काजल बताते हैं, ''यहां अब भी हमें धरना देना पड़ रहा है. न तो प्रशासन और ना ही सरकार ने हमारी बात सुनी है.उनके अनुसार करीब 80परिवार अब भी वहां डेरा जमाए हुए हैं. मैंने वहां करीब दर्जन भर लोगों को धरने पर बैठा पाया. सतीश बताते हैं कि अधिकतर लोग काम-काज (मुख्य रूप से मजदूरी या छोटी-मोटा काम) करने निकल जाते हैं और देर शाम लौटते हैं. इन परिवारों की महिलाओं और बच्चों ने आसपास के गांवों में अपने रिश्तेदारों के यहां शरण ले रखी है. कुछ परिवार गांव लौटे भी हैं तो लाचार होकर. 

और प्रशासन यहां भला अलग कैसे हो सकता है

औरप्रशासन और पुलिस का नजरिया भला यहां अलग कैसे होता. हिसार के पुलिस अधीक्षक शिवास कविराज से इस संबंध में मुलाकात के लिए उनके पीए से मिलना पड़ा. उनके पीए ने पहले ही अनऑफिसिअली जो बात बताई वह बिल्कुल महिला विरोधी पुरूष मानसिकता का बयान था. उन्होंने यह कहते हुए लड़कियों को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की कि दरअसल एक आरोपी जाट युवक से एक पीड़िता का प्रेम-प्रसंग था और वह अपनी मर्जी से गई थी. बाकी तीन लड़कियां भी उसके साथ हो ली थीं. 


जाहिर है एक चाहे तरूण तेजपाल प्रकरण हो या हिसार जैसे कस्बों का मामला स्त्री की मर्जी की बात कह कर उसे ही कटघरे में खड़ा करने का रिवाज हमेशा से रहा है. एसपी शिवास कविराज का भी ठीक यही रवैया था, उन्होंने बताया, ''चीजों को बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है. वे बताते हैं कि गांव में लगातार पुलिस गश्त होती है.”  दो साल से जारी भगाणा के दलितों के धरने के बारे में पूछने पर भी वे यही कहते हैं, बैठे लोग गांव जाएं तो सही, हम उनके लिए पूरी सुरक्षा का बंदोबस्त कर देंगे.लेकिन जिस गश्तऔर सुरक्षा की बात वे कर रहे हैं वह तो प्रशासन ने दो साल पहले भी कहा था. फिर ऐसी घटनाएं कैसे जारी हैं. 

हालियागैंगरेप की घटना के बारे में पूछने पर वे कहते हैं, ''मामले का बहुत ज्यादा राजनीतिकरण किया जा रहा है. हमने 24घंटे के अंदर तीन आरोपियों और फिर दो दिन बाद ही बाकी दो आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया.पुलिस ने एक नाबालिग और एक बालिग किशोरी के साथ रेप की पुष्टि की है.चार किशोरियों का अपहरण और बलात्कार और दो दिन बाद एफआइआर दर्ज होना पुलिसिया सुरक्षा की बात पर सवाल तो खड़ा करता ही है.


दरअसलएसपी जिस राजनीतिकरण की बात कर रहे हैं, उसे क्लीयर करते हुए वह अनऑफिशिएली बसपा की ओर इशारा करते हैं. जाहिर है प्रशासन-सरकार और जाटों को ये बात चुभ रही है कि आखिर दलितों राजनीतिक जमीन कैसे मुहैया हो रही हैं.


वहीहिसार के डिप्टी कमिश्नर एम.एल कौशिक भी इसी लकीर पर हैं. उन्होंने कहा ''बलात्कार को दलित-उत्पीडऩ से जोडऩा ठीक नहीं है. हर समुदाय में अपराधी तत्व के लोग होते हैं. पीडि़तों को मुआवजा दिया जा चुका है.भगाना के सामाजिक बहिष्कार के मुद्दे पर उन्होंने कहा ''मैं गांव का दौरा कर चुका हूं. गांव में बहिष्कार जैसा कुछ नहीं है.

उत्पीड़न की धर्मस्थली भगाणा में

एक पीड़ित परिवार का घर जहां अब ताला लटका है
प्रशासनने सब कुछ सामान्य बताया लेकिन हिसार के करीब 20किमी दूर भगाना गांव में माहौल की तल्खी साफ महसूस की जा सकती है. यहां पहुंचते ही महिलाओं को गले के नीच तक पूरा घूंघट किए देखा जा सकता है, जो यहां की सामाजिक रूप-रेखा की अनायास चुगली कर देते हैं. वहीं दलितों और जाटों के बीच यहां बोल-चाल भी दिखाई नहीं पड़ रहा था. उनके बीच बना फासला साफ महसूस हो रहा था. दलित परिवारों के धरने प्रदर्शन के खिलाफ जाट तल्ख हैं. यहां मामले का दूसरा पक्ष भी उभर कर सामने आता है. बलात्कार की शिकार किशोरियों के खिलाफ ये लोग उसी तरह के स्त्री-विरोधी आरोप लगा रहे हैं जैसा कि खाप पंचायतों का होता है. गांव के फूल सिंह हों या सूरजमल, दलवीर सिंह या नफे सिंह मैंने दर्जन भर जाटों से बातचीत की और सभी पीडि़ताओं को ही दोषी ठहराते नजर आए. वहां के जाट फूल सिंह पूछते ही फट पड़ते हैं, “ वे अपनी मर्जी से गईं थी कोई जबरदस्ती नहीं ले गया था.वहीं यह ध्यान दिलाने पर कि दो किशोरियां तो नाबालिग थीं. लेकिन इसपर भी जाट समुदाय के लोगों का जवाब होता है, ''इससे क्या जी, सब मर्जी थी उनकी.गांव के जाट सामाजिक बहिष्कार की बात से भी इंकार करते हैं.

भगाणा का सरपंच राकेश
वहींअपने ऊपर लगे आरोपों से गांव के सरपंच राकेश बेफिक्र नजर आते हैं. वे पूरी धमक के साथ कहते हैं, ''लगाने दीजिए आरोप, आरोप से क्या होता है. पुलिस जांच कर रही है.वे दावा करते हैं ''हम भी तो मुख्यमंत्री तक जा सकते हैं.कृष्ण की बात पूछने पर वे कहते हैं, ''हां, मैंने उस समय दो-तीन थप्पड़ मार दिया था क्योंकि वे खेतों के काम में लापरवाही बरत रहा था. लेकिन फिर हमारा समझौता हो गया था.जाहिर है कि उन्हें या यों कहें उनके जाट समुदाय को किसी प्रकार का डर नहीं है और उन्हें अपनी ताकत पर पूरा भरोसा है.

सामाजिकबहिष्कार की बात पूछने पर वे स्वीकार करते हैं, ''हां, जाटों ने अपनी सेफ्टी के लिए ही उस समय सामूहिक रूप से अपने खेतों में दलितों को काम देने या घास वगैरह ले जाने से मना कर दिया था. ताकि वे हमारे खेतों में आकर हमारे ही खिलाफ कोई आरोप न लगा दें. लेकिन अब ऐसा नहीं है.”  जाटों में इस बात को लेकर भी नाराजगी है कि आखिरी दलित परिवार धरना देने चले क्यों जाते हैं. एक जाट धर्मवीर सिंह उलाहना देते हैं, ''सरकार उन्हें मुआवजा दे देती है इसी वजह से वे धरना करते हैं. सरकार ने उनका मन बढ़ाया है. जाहिर है यहां की फिजाओं में नफरत की बू बरकरार है.

गांवके दलितों का आरोप भी कायम है. वे थोड़े झिझके या हो सकता है जाटों की डर की वजह से उनमें झिझक मौजूद हो. पर जैसे-जैसे उन्हें लगा कि उनकी बात सुनने कोई आया है तो वे सब अपनी पीड़ा बयान करने लगते हैं. 22वर्षीय दलित सुरेंद्र बताते हैं, ''जाटों ने हमसे बातचीत, खेतों में काम देना, मंदिरों में जाने देना सबकुछ बंद कर दिया था जो अब तक कायम है. जो जाट हमसे बता करेगा उस पर 1,100रू. का जुर्माना लगाने की बात कही गई है.”  इनका घर विवादित सामुदायिक जमीन के सामने ही है. बगल में ही सुरेंद्र के चाचा का घर है जो 2012 के विवाद के बाद से ही घर छोड़ कर कहीं और रहने चले गए हैं.  प्रशासनिक सुरक्षा की बात पर 21वर्षीय सुखबीर उपेक्षा से कहते हैं, ''पुलिस मीडिया के आने की की भनक पर ही गांव आ जाती है वरना कोई सुरक्षा नहीं रहती.

इसबार जिन दलित किशोरियों का बलात्कार हुआ है वे उन धानक नामक दलित समुदाय से हैं जिन्होंने उस समय गांव नहीं छोड़ा था और वहीं रह रहे थे. जाहिर है गांव में रहने की कीमत उन्हें चुकानी पड़ी. मैं उनके घरों की ओर भी जाता हूं, जो जाटों के घरों से अलग बसे हुए दलितों के मोहल्ले में है. यहां पीड़ित लड़कियों के घर के बाहर ताला लटकता नजर आ रहा है.

आखिरमें जाट महिलाओं से बात करने की कोशिश मैंने की तो उन्होंने कह दिया कि जाइए मर्दों से ही पूछिए. गांव से वापस लौटते हुए मैंने गांव की सीमा पर तैनात दो एएसआइ से बात की. पूछने पर उन्होंने बताया कि वहां सुरक्षा के लिए पुलिस 24 घंटे तैनात है. लेकिन जैसा कि पहले एसपी मुझे बता चुके थे कि वहां गश्त करवाई जाती है. जाहिर है गश्त करवाने का यह मतलब नहीं कि 24 घंटे पुलिस तैनात रहती है. 

ताकतवर समुदायों के लिए हथियार है बलात्कार

डाबड़ाकी पीडि़त किशोरी कहती है, ''जाट दलितों के प्रतिरोध को कुचलने, उन्हें सबके सीखाने और अपमानित करने लिए बलात्कार को हथियार की तरह इस्तेमाल कर रहे हैं. वे चाहते हैं कि दलित चुपचाप उनकी बाकत मानते रहें. और इस तरह वह बलात्कार को जरूरी तरीके से समझने का नजरिया देती है.यह अनायास भी नहीं है कि एनसीआरबी के मुताबिक पिछले तीन वर्षों में हरियाणा में दलितों का बलात्कार बढ़ा है.

प्रतिरोध की प्रयोगशाला वाया दलित राजनीति

मिर्चपुर के विस्थापित होकर तंवर के फार्म हाउस में एक दलित परिवार
जाहिरहै कि जैसे-जैसे दलितों के प्रतिरोध की प्रयोगशाला बनती जा रही है, जाटों में नफरत बढ़ रही है. दूसरी ओर प्रशासन भी इसे स्थानीय राजनीति के लिए अनावश्यक बढ़ा-चढ़ा कर पेश करने की कोशिश बता रही है.

दरअसलयही वह मुख्य मुद्दा है जिस सबसे ज्यादा समझने की जरूरत है. हरियाणा की राजनीति में जाट ही केंद्रीय ताकत हैं. यहां के दोनों प्रमुख दलों का नेतृत्व जाटों के हाथ में है. हिसार में भी ठीक ऐसा ही है. जबकि अपने उत्पीड़न के खिलाफ दलितों को गैर-जाट केंद्रीयता वाले दल की जरूरत है. इसी वजह से वे अपनी अलग राजनैतिक जमीन की कोशिश कर रहे हैं. सपाट तरीके से देखने पर तो बस हमें लगेगा कि यहां हो रहा उत्पीड़न या जाटों में दलितों के प्रति आक्रमकता बस सामाजिक मुद्दा है. लेकिन नहीं यह राजैनितक मुद्दा भी है. यहां दलितों की एकजुट राजनैतिक जमीन तैयार करने में बसपा जुटी हुई है. और इसका ही असर देखने को मिल रहा है. दलितों का इन जगहों पर आंदोलन इसी दृष्टि से ही हो रहा है, और जहां तक मैं समझ पा रहा हूं, यह सब बसपा की जमीन तैयार करने की कोशिश भी है. यह यों ही नहीं था कि एसपी भी इशारों में ही बसपा को जिम्मेदार ठहरा रहे थे और गांव का सरपंच भी बसपा पर ही आरोप लगा रहा था कि लड़कियां अपनी मर्जी से जाट युवकों के साथ गई थीं, लेकिन जिस दिन (25 मार्च) को बसपा की रैली हिसार में हुई, उसके बाद ही लड़कियों और उनके परिजनों को भड़का कर एफआइआर दर्ज कराई गई और उन्हें दिल्ली ले जाया गया. जाहिर है प्रशासन, सरकार और जाटों को यह कतई रास नहीं आ रहा है कि दलितों की अपनी कोई मजबूत जमीन तैयार हो.   

मिर्चपुरआंदोलन समेत दलितों के उत्पीडऩ के खिलाफ कई आंदोलनों के अगुआ और इस बार भी पीडि़तों के दिल्ली तक लाने वाले सर्व समाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष वेदपाल सिंह तंवर कहते हैं, ''वे मनुष्य को मनुष्य नहीं मानते, अधिकार की बात तो दूर है. यह लड़ाई इसी अधिकार की है.  2010में मिर्चपुर कांड के पीडि़त कई दलित परिवारों ने अब तक इन्हीं के फॉर्म हाउस पर शरण ले रखी है.

तंवर के फार्महाउस में मिर्चपुर के दलित
हरियाणा में आखिर क्या वजह है कि दलितों को उत्पीडऩ बदस्तूर जारी है और वे उपेक्षा के शिकार है. तंवर इस ओर ध्यान दिलाते हुए कहते हैं, ''दरअसल हरियाणा की राजनीति में जाटों का ही वर्चस्व है. राजनैतिक नेतृत्व इन्हीं के हाथों में है. इतना ही नहीं बल्कि राजनैतिक पार्टियां जाटों को किसी भी तरह नाराज नहीं करना चाहतीं.”  यही वजह है कि उनके लिए दलित मायने नहीं रख रहे. इसी बात की ओर ध्यान मेरा मिर्चपुर के दलितों ने दिलाया.मिर्चपुर में 2010 में सिर्फ इसी वजह से दलितों के घरों में आग लगा दी गई थी क्योंकि एक दलित के कुत्ते ने जाट को भौंक दिया था और जाट ने जब कुत्ते के मारना शुरू किया तो दलित ने मना किया था. उसकी वीभत्सता कैसे कोई भूल सकता है कि एक अपाहिज लड़की अपने बूढ़े पिता के साथ जलाकर मार दी गई थी. मैं तंवर जी के फॉर्म हाउस में भी गया जहां पलायन के शिकार मिर्चपुर के दलित अभी तक शरण लिए हुए हैं. एक-एक तंबू में दो-दो तीन-तीन परिवार गुजारा कर रहे हैं. देख के साफ लगा कि या तो वे तंवर की ओर से ही मुहैया करा दिए काम करते हैं या फिर बाहर मजदूरी करते हैं. और उनसे बात करने की कोशिश करते हुए मुझे साफ अहसास हुआ कि वे भी अपना दुखड़ा सुनाते-सुनाते उकता गए हैं. यहां बूढ़ी हो चुकी मां भी थीं जिनके बेटे को जाटों ने इसलिए मार दिया क्योंकि वह मिर्चपुर की घटना का महत्वपूर्ण गवाह था. उसकी पथराई आंखें और उदास आवाज सुनकर हम सन्नाटे में आ जाते हैं. वहां के दलित भी कहते हैं, ''हमें तो चुनाव के समय भी कोई पूछने नहीं आता, इस बार भी कोई नहीं आया. गांव में भी हम डर के नहीं जाते जिसकी वजह से इस बार भी इक्का-दुक्का लोगों को छोड़ हम वोट देने नहीं गए.”  इसी 10मई को हिसार में लोकसभा का चुनाव संपन्न हुआ है.

हिसार और भगाणा के आबादी भी कुछ ऐसा ही बयान करती है. हिसार में दलित आबादी करीब 22  फीसदी है. हालांकि हरियाणा में कुल मिलाकर करीब 19 फीसदी दलित हैं. जाहिर है दलितों की आबादी कम नहीं है. लेकिन उनके मुकाबले जाट कहीं अधिक हैं. भगाणा इसका उदाहरण है. यहां जाट आबादी करीब 60 फीसदी है तो दलितों की आबादी करीब 27 फीसदी. जाहिर है हरियाणा में जाट बहुसंख्यक हैं. इसलिए सरकार और पार्टियों के लिए वे ज्यादा जरूरी हैं. और राजनैतिक रसूख की वजह से प्रशासन भी उन्हीं के पक्ष में खड़ा रहता है.

यहांदलितों के प्रतिरोध में वेदपाल तंवर की बात भी जरूरी हो जाती है. इनके आलीशान मकान जाने पर आपको अहसास हो जाता है किसी रईस के यहां पहुंच गए हैं. वेदपाल तंवर के बारे में कहा जाता है कि इन्होंने खनन से काफी पैसा बनाया है. हिसार के आला प्रशासनिक अधिकारी भी उनके बारे में बताते हैं कि तंवर खनन माफिया रह चुके हैं. यह यों ही नहीं है कि वे इन आंदोलनों में दलितों न केवल अपने बूते शरण दे पा रहे हैं बल्कि एकजुट कर रहे हैं. उनका दूसरा पहलू यह भी है कि वे बीजेपी से होते हुए अब बीएसपी में हैं. इस 2014 के लोकसभा चुनाव में इनको यों ही नहीं भिवानी-महेंद्रगढ़ लोकसभा सीट के उम्मीदवार उतारा था. और मुझे यहीं लगता है कि बीएसपी के लिए दलितों की जमीन तैयार करना भी की उनकी इस सक्रियता की एक वजह है. बाकी उनके बारे में और भी किस्से हैं कि जाटों ने उनके बेटे की हत्या कर दी थी. जाहिर है कोई भी वजह हो, उनकी अपनी राजनैतिक जमीन तैयार करने की कवायद हो,  वे गैर-जाट राजनैतिक मोर्चा बनाने के लिए पूरा जोर लगा रहे हैं, और इसके लिए दलित उनके लिए काफी महत्व रखते हैं. लेकिन जो भी हो, यह शख्स मिर्चपुर से लेकर भगाणा जैसे तमाम दलित उत्पीड़न के खिलाफ के आंदोलन को सालों अगुआई कर रहा है, इस जरिए अगर हरियाणा में दलित भीअपनी राजनैतिक जमीन तैयार कर सकें या फिर राजनैतिक रूप से एकजुट हो सकें तो यह दलितों के अधिकारों की जीत होगी. और इसलिए हमें तमाम संदेहों के बावजूद उम्मीद करनी चाहिए कि यह दलित आंदोलन हरियाणा में बदलाव की एक बड़ी वजह बन सकता है.

दिल्ली के रंग-ढंग में खलल पड़ेगा?

कहते हैं इंसाफ पाने के लिए दिल्ली तक गुहार या चोट करना जरूरी होता है. स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकार की ओर से लगातार हो रही उपेक्षा से भगाना के बलात्कार पीडि़त परिवारों ने इस बार भी दिल्ली गुहार लगाई है. वे गांव में वापस नहीं जाना चाहते. किशोरियों का आरोप है कि जाट युवक अकसर उनके साथ छेडख़ानी और परेशान किया करते थे. इसी वजह से उन्हें अपनी पढ़ाई भी बंद करनी पड़ी थी. नाबालिग पीडि़ता की मां कहती हैं, ''हम तो बच्चों को बाहर भी पढ़ाने नहीं भेज सकते. वे आते-जाते भी उन्हें रोक कर परेशान किया करते हैं. आखिर हम गरीबों की कौन सुनता है. पीडि़त उचित मुआवजा, पुर्नवास, और किशोरियों की पूरी शिक्षा की गारंटी की मांग कर रहे हैं. 27अप्रैल को जंतर-मंतर से जेएनयू के छात्रों समेत कई सामाजिक संस्थाओं ने गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के घेराव के लिए बड़ा प्रदर्शन किया. पीडि़तों की ओर से हरियाणा के कांग्रेसी मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के खिलाफ नारेबाजी से जंतर-मंतर गूंज रहा था. पीडि़तों के प्रतिनिधिमंडल की मुलाकात गृहमंत्री से भी कराई गई लेकिन उन्हें कोरे आश्वासनों के अलावा कुछ न मिला. 29अप्रैल को आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता योगेंद्र यादव भी जंतर-मंतर पहुंचे और उन्हें आश्वासन दिया. ये वही योगेंद्र यादव हैं जो हरियाणा के खाप पंचायतों की प्रशंसा कर चुके हैं. खुद इनके मुखिया अरविंद केजरीवाल उसी हरियाणा के हैं. इसे और अच्छी तरह से समझा जा सकता है कि पीड़ितों ने बताया कि योगेंद्र यादव ने ये कहा कि वे मामले को देख-समझ कर बताएंगे. यानी अपने स्तर के देख-जांच कर बताएंगे. क्या दिल्ली गैंग रेप की घटना के बाद आम आदमी पार्टी या राजनैतिक दलों को अपनी स्तर से जांच करने की जरूरत पड़ी थी? फिर यहां क्यों पड़ रही है. दरअसल ये लोग पहले ये जांच-परख लेगें कि पीड़ितों के समर्थन में आने पर उनका कितना नफा-नुकसान होगा. जाहिर है उनका इरादा क्या है. पीडि़त परिवारों को इस बात का डर कायम है कि कहीं उनका हाल भी पिछली बार की तरह ना हो जाए, जहां अभी तक इंसाफ बाट जोह रही है. आखिर दिल्ली अब मौन क्यों है? 

लेकिन आखिर संघर्ष का रूप क्या हो

ऊपरकी तमाम बातों, संघर्षों और स्थितियों को आखिर किस राह की ओर जानी चाहिए. अभी दिल्ली में दलित लड़कियों के इंसाफ के लिए जो आंदोलन चल रहा है, इसमें अगर इन पीड़िताओं को उचित मुआवजा, बेहतर भविष्य के लिए एजुकेशन की गारंटी और पीड़ित परिवारों के लिए पुर्नवास की सुविधा मिल जाती है तो क्या संघर्ष की जीत होगी. एक हद तक तो हां कहा जा सकता है. यह इसलिए भी कि अगर भगाणा के पीड़ितों को इंसाफ मिलता है तो इससे हरियाणा में रह रहे दलितों को हौसला मिलेगा और इससे वे संघर्ष के लिए प्रेरित होंगे. संघर्ष की सामाजिक चेतना का विकास होगा. लेकिन नहीं, सिर्फ यही व्यापक बदलाव या बुनियादी स्तर के बदलाव के लिए जरूरी नहीं है. 

दरअसलजैसा कि मैं ऊपर दोहरा चुका हूं कि राजनीतिक चेतना, दलितों की राजनीतिक अपनी खुद की जमीन का यह मामला है. और यही बनाना लक्ष्य होना चाहिए, जैसा कि बड़े हद तक कांशीराम ने किया था और यूपी में दलितों की अपनी राजनीतिक जमीन बन चुकी है. ठीक ऐसी ही मजबूत राजनीतिक जमीन हरियाणा में बननी चाहिए. भारतीय लोकतंत्र के ढांचे ने मुताबिक यही सबसे उपयुक्त रास्ता भी होगा. राजनीतिक भागीदारी और राजनीतिक ताकत जरूरी है चाहे स्थानीय राजनीति की भूमिका में या फिर केंद्रीय राजनीति की भूमिका में. हरियाणा में तभी दलितों की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन होंगे. इसलिए यह संघर्ष केवल इन पीड़ितों भर का मामला नहीं है.

(सरोज के ब्लॉग Raffooसे साभार)



सरोज युवा पत्रकार हैं. अभी इंडिया टुडे में काम. 
इनसे krsaroj989@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

संघ का मिशन मोदी

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बद्री नारायण
-बद्री नारायण
अनुवाद- अभिनव श्रीवास्तव

(EPWसे साभार अनुदित)

"...संघ का राजनीतिक धड़ा भाजपा है और संघ ये दावा करता है कि वह कभी भी किसी राजनीतिक पार्टी के लिये काम नहीं करेगा हालांकि जबसे बतौर प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा हुई है तबसे संघ ने नरेंद्र मोदी को चुनवाने और उन्हें प्रोजेक्ट करने की सभी संस्थागत गतिविधियों को अपने हाथ में ले लिया है. ऐसा तब है जब आरआरएस प्रमुख मोहन भागवत बंगलौर में साफ-साफ़ कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट करना उनका एजेंडा नहीं है..."

साभार- http://www.outlookindia.com/


लोकसभा के चुनाव प्रचार के दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री और भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी का मीडिया में जबरदस्त छवि निर्माण किया गया है. औपचारिक तौर पर माना जा रहा है कि इस पूरे प्रचार के पीछे भाजपा है, जो मोदी के छवि निर्माण, मुद्दों और  भाजपा के एजेंडे को रेखांकित करने का काम कर रही है. ज्यादातर विश्लेषणों में मोदी के इस सफल प्रचार अभियान का श्रेय कार्पोरेट पब्लिक रिलेशन एजेंसियों और ऐसे नौजवान पिछलग्गू समर्थकों को दिया जा रहा है जो सूचना तकनीकों की मदद से प्रचार करने में बेहद दक्ष रहे हैं. 


हालांकि पूरे प्रचार को एक परिप्रेक्ष्य और संरचना प्रदान करने में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की भूमिका पर कम बात हो सकी है. इस लेख में नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार अभियान में आरएसएस की भूमिका को समझने की कोशिश की जायेगी. यह लेख उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों में इन पंक्तियों के लेखक द्वारा किये गये दौरों के आधार पर जुटाई गयी प्राथमिक सामाग्री और अखबारों में प्रकाशित रिपोर्टों से मिली द्वितीयक सामाग्री के आधार पर तैयार किया गया है.  
चाहेवे भारतीय अकादमिक हों या विदेशी, दोनों ने संघ पर बहुत कम अध्ययन किया है. अक्सर अध्ययनों में भीतरी सूचनायें और जानकारियां नहीं होती हैं. आरआरएस पर राजनीतिक एथनोग्राफ़ी भी बेहद कम है. कुछ लोगों ने जो पहले आरआरएस में थे और जिन्होंने बाद में संगठन छोड़ दिया, संगठन के बारे में लिखा है, लेकिन उनमें भी संगठन के कामकाज के एथनोग्राफिक और राजनीतिक विवरणों के बजाय आलोचनात्मक राय देने की प्रवृत्ति बहुत मजबूत होती है. 

साल 1925 में अपनी स्थापना के बाद से लेकर आज तक संघ की भूमिका एक जैसी रहने के बजाय लगातार बदल रही है. फिर चाहे वह हिन्दू-मुस्लिम दंगों में संगठन की भूमिका की बात हो या फिर आपदा प्रबंधन में या फिर भाजपा के साथ इसके सम्बन्ध की बात हो- ये सभी चर्चा के जाने-पहचाने मुद्दे रहे हैं. संघ की आपातकाल के दौरान कांग्रेस पार्टी के खिलाफ अफवाहों को पैदा करना और फिर उन्हें फैलाने की क्षमता पर भी चर्चा होती रही है. 

संघका राजनीतिक धड़ा भाजपा है और संघ ये दावा करता है कि वह कभी भी किसी राजनीतिक पार्टी के लिये काम नहीं करेगा हालांकि जबसे बतौर प्रधानमंत्री पद उम्मीदवार नरेंद्र मोदी के नाम की घोषणा हुई है तबसे संघ ने नरेंद्र मोदी को चुनवाने और उन्हें प्रोजेक्ट करने की सभी संस्थागत गतिविधियों को अपने हाथ में ले लिया है. ऐसा तब है जब आरआरएस प्रमुख मोहन भागवत बंगलौर में साफ-साफ़ कह चुके हैं कि नरेंद्र मोदी को प्रोजेक्ट करना उनका एजेंडा नहीं है. भागवत के अनुसार-“संघ का एजेंडा लोगों के सामने बड़े मुद्दे लाना है. चूंकि संघ कोई राजनीतिक पार्टी नहीं है, इसलिए उसकी अपनी सीमायें हैं."
संघ द्वारा चुनाव प्रचार
अपनेसर संघ संचालक की इन बातों को दरकिनार करते हुये, चुनाव के अंतिम चरण में संघ ने -उन जगहों पर जहां चुनाव होना अब भी बाकी है- अपना पूरा ध्यान नरेंद्र मोदी की छवि को मजबूत करने में लगाया हुआ है. हालांकि मोदी के विज्ञापनों और प्रचार को उस आक्रामक अभियान ने भी तेजी प्रदान की है जो मीडिया में स्पष्ट रूप से दिखायी पड़ रहा है और जिसकी पहुंच मुख्यतः शहरी जनसंख्या तक है, लेकिन उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर इसकी देख-रेख संघ के हाथ में है.


विभिन्नअखबारों में प्रकाशित रिपोर्टें संकेत करती हैं कि लगभग एक लाख संघ नेता और पूरे देश की 42,000 इकाइयों से छह लाख स्वयंसेवक भाजपा की जीत को सुनिश्चित करने के प्रयास में लगे हुए हैं. संघ के उच्च स्तरीय नेताओं की एक टीम ने वाराणसी में कंट्रोल रूम की स्थापना की हुयी है जहां से वे पार्टी कार्यकर्ताओं पर हर वक्त नजर बनाये रखते हैं. इस टीम का नेतृत्व नरेंद्र मोदी के दाहिने हाथ कहे जाने वाले अमित शाह के हाथ में है और संघ के एक और शीर्ष नेता अनिल बंसल उनकी मदद कर रहे हैं. 

संघ द्वारा प्रचार के लिये अपनाये गये तरीकों में से एक दूर-दराज के इलाकों में ‘नमोरथ’ वाली गाड़ियों के साथ पहुंचना भी है. रिपोर्टों के अनुसार ऐसी चार सौ गाड़ियां इकट्ठी की गयी हैं और उनको उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और हिमांचल प्रदेश के अधिकांश गावों में इस्तेमाल किया गया है (या ऐसा करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया है). इन गाड़ियों में नरेंद्र मोदी के बड़े-बड़े चित्र लगाये गये हैं, ऊंची आवाज और छोटी-छोटी धुनों के साथ उनका प्रचार किया जा रहा है. ये गाड़ियां चौराहों और चौपालों पर रुकती हैं और फिल्में दिखाकर भीड़ का मनोरंजन भी करती हैं. संघ के कई स्वयंसेवक बहुत से गांवों में जा रहे हैं और घर-घर जाकर बहुत आक्रामक प्रचार में जुटे हुए हैं. संघ के भीतरी सूत्र बताते हैं कि संघ के स्वयंसेवकों और कार्यकर्ताओं को वीडियो कैमरे भी दिए गए हैं ताकि संदेह के दायरे में आने वाले भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं की (पार्टी विरोधी) गतिविधियों को रिकार्ड किया जा सके.  
प्रतिक्रियायें जुटाने वाली एजेंसी के रूप में संघ
संघ2014  केचुनावसेपहलेसेहीनरेंद्रमोदीकीरैलियोंमेंबोलेजानेवालेभाषणोंकेप्रभावकेबारेमेंजानकारी जुटाने में लगा हुआ था. साल2013 केनवम्बरमहीनेमेंमैंभाजपाद्वाराआयोजितकीगयीरैलीकाअध्ययनकरनेअपनीएकटीमकेसाथबहराइचगया. इसरैलीमेंनरेंद्रमोदीकोसंबोधितकरनाथा. जैसेहीरैलीखत्महुयीहमनेदेखाकिकरीब50 लोगोंकाएकसमूहरैलीमेंआयेहुएलोगोसेनरेंद्रमोदीकेभाषणकेबारेअपनीस्थानीयभाषामेंसवालकररहाथा. वेकुछऐसेसवालपूछरहेथे-“आपकोमोदीकाभाषणकैसेपसंदआया? मुस्लिमआतंकियोंकेबारेमेंमोदीनेजोकहाउसकेबारेमेंआपकाक्यासोचनाहै? मोदीनेइलाकेकेमुस्लिममाफियाओंकोभीचुनौतीदीहै, इसबारेमेंआपकाक्यासोचनाहै?इनऔरइनजैसेबहुतसेसवालोंकेजरियेवहमोदीकेभाषणोंपरअलग-अलगलोगोंसेऔरअलग-अलगतरीकेसेसवालकरप्रतिक्रियालेरहेथे. इनमेंसेकुछकेहाथमेंआडियोटेपथेऔरकुछमुंहज़ुबानीहीसवालकररहेथे

यहजाहिरथाकिसंघकालक्ष्यरैलीमेंआयेलोगोंसेमोदीकी  विकासकीयोजनाओंकेबारेमेंउनकीरायजाननेकेअलावा ‘मुस्लिमआतंकियोंकोचुनौतीदेनेवालेआक्रामकभाषणके हिन्दुओंपरपड़नेवालेप्रभावकोसमझनाथा. बादमें ‘मुस्लिमआतंकियों’ शब्द को सामान्य रूप से केवल ‘मुस्लिम’भीकहागया. यहभाषणपटनारैलीमेंहुएबमधमाकेकेकुछदिनबादहीदियागयाथा.      
हमये निश्चित रूप से कह सकते थे कि लोगों से सूचनायें इकट्ठे कर रहे इन स्वयंसेवियों का संघ से कुछ लेना-देना है क्योंकि ये लोग बहराइच में आरआरएस के आफिस गये थे. दिसंबर 2013 में वाराणसी में राजा तालाब में हुयी रैली के अनुभव भी ऐसे ही थे. यहां भी कुछ लोगों का एक सुनियोजित समूह रैली में पीछे रहे श्रोताओं से मोदी के भाषण के बारे में प्रतिक्रियाएं इकट्ठी कर रहा था. ये लोग भी बाद में संघ के आफिस चले गए. यहां मुख्य उद्देश्य आम लोगों से वाराणसी में गंगा की सफाई के मुद्दे पर मोदी के भाषण के बारे में, मोदी द्वारा कांग्रेस नेता राहुल गांधी की आलोचना के बारे में और मोदी द्वारा दिये गये ‘कांग्रेस मुक्त’ भारत के नारे में बारे में औपचारिक राय लेना था. 

ये लोग उन आम लोगों से भी चाय के नुक्कड़ों पर बात करते हुये देखे गये जो रैली में नहीं आ सके थे. हमने एक स्थानीय संघ स्वयंसेवक से इन दोनों रैलियों में संघ स्वयंसेवकों की गतिविधियों के बारे में जानने की कोशिश की. नाम नहीं जाहिर किये जाने की शर्त पर इसने हमें बताया कि संघ के स्थानीय स्वयंसेवकों के समूह मोदी के भाषणों के असर की जानकारी लेने के लिए सूचनायें इकट्ठी कर रहे हैं. कुछ हिचकिचाने के बाद उसने हमें बताया कि इन सूचनाओं को संघ आफिस में रैलियों की समीक्षा के लिए होने वाली बैठकों में पेश किया जाता है. आम लोगों की प्रतिक्रियाओं से जो मुख्य मुद्दे उभरते हैं उन्हें बड़े और मुख्य शहरों की संघ शाखाओं में पेश किया जाता है. इसके बाद इन प्रतिक्रियाओं को शीर्ष नेतृत्व तक पहुंचाया जाता है. अगर हम इस स्वयंसेवक की बात पर भरोसा कर लें तो यह जाहिर होता है कि इन शाखाओं के जरिये नरेंद्र मोदी की छवि को नया आकार देकर फैलाव प्रदान किया जाता है. 

इसकेअलावा मोदी के भविष्य के भाषणों के लिये इनसाइट्स भी इकट्ठे किये जाते हैं. यहीं से भाजपा की गोलबंदी की नीतियों की भी योजना बनायी जाती है. साल 2014 के चुनाव में नरेंद्र मोदी के भाषणों को भाजपा के पक्ष में होने वाली गोलबंदी का सबसे प्रभावी तरीका माना जा रहा है, यही वजह है कि मोदी की रैलियों के आयोजन को इतनी ज्यादा अहमियत दी गयी है. इस तरह संघ न सिर्फ आम लोगों तक हिंदुत्व की विचारधारा को फैला रहा है, बल्कि स्थानीय लोगों से उनकी प्रतिक्रिया भी ले रहा है. प्रतिक्रियाओं से सम्बंधित ये जानकारियां सबसे पहले संघ को दी जाती हैं और उसके बाद भाजपा को. इस तरह पार्टी की इस चुनाव की रणनीति तैयार होती है.
संघ और बूथ प्रबंधन
संघ की एक और अहम गतिविधि पोलिंग बूथ प्रबंधन है और भाजपा और संघ दोनों ने ही विभिन्न गांवों और छोटे शहरों में बेहद जमीनी स्तर पर बूथ प्रबंधन समितियां बना रखी हैं. जहां भाजपा ने प्रत्येक बूथ के लिये 25 सदस्यीय समिति बनायी है जिसका काम बूथ के मतदाताओं से बातचीत करना है तो वहीं संघ ने भी प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र में समान्तर बूथ समितियां बना रखी हैं. संघ की समितियों में स्थान और स्थितियों के अनुसार 10-12 बेहद ताकतवर स्वयंसेवक हैं. 

उदाहरणके लिये अगर कोई जगह दलितों और पिछड़ी जातियों के वर्चस्व वाली है तो समिति के सदस्य इन्हीं समुदायों से चुने जाते हैं. महिलाओं तक पहुंच बनाने के लिये, संघ ने महिला नेताओं और भाजपा के समर्थकों को प्रशिक्षित किया है और इनसे संघ लगातार संपर्क में है. समिति के सदस्य अपने निर्वाचन इलाके के प्रत्येक परिवार की सोच और मिजाज को पहचानते हैं, हर दिन समिति सदस्य कुछ परिवार वालों से मिलते हैं और उनकी सोच को नापने-तोलने की कोशिश करते हैं. 

अगरकोई परिवार मोदी के व्यक्तित्व या उनकी राजनीति से असंतुष्ट नजर आता है, तो वे उसे बेहद आराम से मोदी के शासन और उनके नेतृत्व के सकारात्मक पक्षों के बारे में बताकर भरोसे में लेने की कोशिश करते हैं. समिति के सदस्यों पर सबसे बड़ी जिम्मेदारी चुनाव के दिन पोलिंग बूथों पर उन लोगों को लाने की डाली गयी हैं जिन तक समिति ने अपनी पहुंच बना ली है. संघ की आयोजन टीम, जो नरेंद्र मोदी के चुनाव अभियान की बेहद गौर से निगरानी कर रही है, ने बेहद सख्त रुख अपनाया है- जो स्वयंसेवक पोलिंग बूथ के आस-पास के चिन्हित परिवारों में नहीं पहुंचते हैं, समिति के सदस्यों द्वारा उनकी जवाबदेही तय की जाती है. 

संघ के अलावा, उत्तर प्रदेश के शहरो और जिलों में पेशेवर दक्षताओं वाली एक टीम भी फ़ैली हुयी है. इस टीम का मिशन प्रत्येक जिले में मोदी के प्रचार में काम कर रही स्थानीय टीमों पर नजर रखना है और इसकी रिपोर्ट सीधे अमित शाह को देना है. इस टीम की ट्रेडमार्क ड्रेस नीला कुरता और नीली जींस है इसलिये टीम को ब्लू ब्रिगेड भी कहा जा रहा है. इस टीम के सदस्य एक संस्थान- सिटीजन आफ एकाउंटेबल गवर्नेंस का हिस्सा हैं और इनमें से अधिकांश भारत और ब्रिटेन के प्रतिष्ठित संस्थानों और विश्वविद्यालयों के पेशेवर पाठ्यक्रमों के स्नातक हैं. 


तकनीकी तरीकों के इस्तेमाल के बारे में जानकारी रखने वाले ये पेशेवर ही ‘चाय पे चर्चा’ और मोदी की ‘थ्री डी रैलियों’ जैसे अभियानों के विभिन्न पहलुओं को अपनी दिमाग दक्षता से मजबूती प्रदान कर रहे हैं. यह टीम दो सदस्यों की इकाइयों में बांटी गयी है, जिसको प्रत्येक को एक लोक सभा निर्वाचन क्षेत्र में भेजा गया है. इन टीमों को स्थानीय टीमों की गतिविधियों को जज करने का काम दिया गया है, साथ ही जहां पर स्थानीय टीमें ज्यादा दक्ष नहीं हैं, वहां पर इन तकनीकी टीमों के सदस्य स्वयं ही प्रचार टीमें बना लेते हैं.

तकनीकी टीम के सदस्य नियमित रूप से मोदी टीम की केंद्रीय इकाई को अपनी गतिविधियों के बारे में सूचित करती रहती है. भाजपा नेताओं के अनुसार एक तकनीकी टीम कई चुनाव अभियानों की देख-रेख कर रही है. यह टीम जिला और शहर कमेटियों से अलग रहकर स्वतंत्र रूप से काम करती है, लेकिन भाजपा के सभी उम्मीदवारों के संपर्क में रहती है. उत्तर प्रदेश के निर्वाचन क्षेत्रों में फैले हुये सभी टीम सदस्यों के पास बूथ प्रबंधन कमेटियों के अधिकारियों के नाम और टेलीफोन नंबर हैं. टीम ने सभी निर्वाचन क्षेत्रों में दस कार्यकर्ताओं वाले समूह तैयार करने को भी कहा है जो भाजपा के प्रति प्रचार के लिये पूरी तरह प्रतिबद्ध हों. 


इनकार्यकर्ताओं को वर्तमान बूथ समितियों का सदस्य भी बनाया गया है और ऐसी रिपोर्ट आयी है कि तकनीकी टीम ने दो दर्जन बूथ समितियों को बदल दिया है. संघ और भाजपा की बूथ समितियों के समान्तर उन्होंने प्रभावी रूप से अपनी खुद की समितियां बना ली हैं. यह तकनीकी समिति स्थानीय उम्मीदवार की जरुरत को देखती है और अपनी राय केंद्रीय टीम को भेज देती है जो स्थानीय भाजपा प्रत्याशी को आवश्यक समर्थन देता है. यह टीम संघ के साथ तालमेल बैठाकर काम करती है और चुनावी गोलबंदी की रणनीति बनाने के लिये सूचनाओं और विचारों का आदान-प्रदान भी करती है. 

साल2014चुनाव के अंतिम चरण में संघ परिवार की कई शाखायें, खुद संघ, भाजपा कैडर और तकनीकी क्षमताओं से लैस कार्यकर्ता, ‘दि ब्लू ब्रिगेड’ नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व को केंद्र में रखकर बुने हुए प्रचार अभियान की सफलता के लिये दिन रात काम कर रही हैं.  


बद्री नारायण समाजशास्त्री हैं.
सामाजिक-राजनीतिक विषयों में सक्रिय।
दलित रिसोर्स सेंटर के प्रोजेक्ट डाइरेक्टर।

नए भ्रम का युग, मगर पुरानी आशंकाएं!

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन  

"...नरेंद्रभाई के गुजरात के विकास मॉडल की हकीकत चाहे जो हो, लाखों लोग उससे आकर्षित हुए हैं। भाजपा के बुनियादी समर्थक समूहों के साथ इन्हीं लोगों के मेल से वह जनादेश तैयार हुआ, जिससे भारत में नए राजनीतिक युग की शुरुआत हो रही है। नरेंद्र मोदी के सामने यह चुनौती जरूर है कि वे अपने इन दोनों समर्थक वर्गों को खुश रखें। मगर दिक्कत यह है कि इन दोनों के बीच गहरा अंतर्विरोध है। विकास और सामाजिक अशांति साथ-साथ नहीं चल सकते। अशांति से बचने की बुनियादी शर्त यह है कि समाज के सभी तबके खौफ और अंदेशों से आजाद रहें।..."

रेंद्र मोदी जब विजय संबोधन के लिए वडोदरा के मंच पर आए तो वे एक नए युग के नेता के रूप में खड़े थे। ध्यान इस पर था कि क्या वे अपनी नई हैसियत और उसके साथ उनके कंधों पर आई नई जिम्मेदारी के मुताबिक अपना एक नया रूप पेश करेंगे। वे ऐसा कर सकते थे, अगर उन समुदायों की आशंकाओं को वे संबोधित करते जिनका जिक्र उन्होंने किसी अन्य संदर्भ में अपने “विरोधी” के रूप में किया। वे अपने भाषण का समापन वंदे मातरम के बजाय जय हिंद बोल कर करते तो उसमें एक राजनीतिक संदेश देखा जाता। 

और वे चुनावी विजय को “एक खास विचारधारा” पर आधारित पार्टी की जीत के बजाय करोड़ों लोगों की विकास एवं सुशासन संबंधी आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करते, तो उससे उन लोगों में उम्मीद जगती जो उनके नाम पर हुए राजनीतिक ध्रुवीकरण में दूसरी धुरी पर मौजूद हैं। इसके विपरीत उन्होंने यह तो कहा कि वे सवा अरब लोगों को साथ लेकर सबके विकास के एजेंडे पर चलेंगे और सरकार के लिए कोई अपना-पराया नहीं होता, परंतु इसमें आश्वस्ति का पहलू इसलिए नहीं है क्योंकि पिछले 12 वर्षों में पांच करोड़ गुजरातियों की नुमाइंदगी की बात करते हुए भी उन्होंने गुजरात में शासन का जो मॉडल तैयार किया, वह बहुसंख्यक वर्चस्ववाद की सोच पर खड़ा दिखा है।    

नरेंद्रमोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की जीत के साथ निर्विवाद रूप से भारत में नए राजनीतिक दौर की शुरुआत हुई है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि 25 वर्ष बाद किसी पार्टी ने अपने दम पर लोकसभा में बहुमत हासिल किया, अथवा भाजपा ऐसा करने वाली पहला गैर-कांग्रेस दल बनी है। इसकी वजह वही विचारधारा है जिसका उल्लेख मोदी ने किया। उन्होंने कहा कि इस विचारधारा से प्रेरित ये पार्टी 1952 (वास्तव में 1951) से कांग्रेस की विचारधारा से लड़ती आई थी। अब यह सफल हुई है। 

अब तक हमने जो भारत देखा है, वह उसी विचाराधारा के साथ आगे बढ़ा है, जिसे मोदी ने कांग्रेस की विचारधारा कहा। परंतु असल में यह राष्ट्रीय आंदोलन से उपजी विचारधारा है, जिसका मुख्य बिंदु यह है कि जो भी भारत में जन्मा है, वह यहां का समान नागरिक है- चाहे उसकी धार्मिक आस्था कुछ भी हो। इस विचारधारा में पुरातन समाज की जातिगत एवं लैंगिक दमन की बेड़ियों से मुक्ति का संकल्प निहित है। और विकास का वो एजेंडा इसका अभिन्न अंग है, जिसका मकसद है हर व्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार करना। 

राष्ट्रीयस्वयंसेवक संघ ने अपनी स्थापना के बाद से अपनी वैचारिक पहचान सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करते हुए बनाई, जिसका व्यावहारिक अर्थ हिंदू राष्ट्र का निर्माण है। ऐसा कोई राष्ट्र- जिसका वैचारिक आधार कोई खास धर्म हो- वह उस महजब में आस्था ना रखने वाले लोगों को समानता के अधिकार से वंचित रखते हुए ही कायम हो सकता है। इसीलिए मोदी ने इस विचारधारा का विजयघोष कर उन अंदेशों को अगर बल नहीं, तो कम से कम आधार जरूर प्रदान किया जो भाजपा को लेकर बहुत से लोगों, समूहों और समुदायों में बने रहे हैं। 

मुमकिन है कि कुछ आशंकाएं अतिशयोक्तिपूर्ण हों। लेकिन ये काल्पनिक नहीं हैं। इसलिए कि भाजपा एक सामान्य राजनीतिक पार्टी नहीं है। उसके नेता खुद गर्व से कहते हैं कि ये दल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार का हिस्सा है। यह परिवार अपने पूरे इतिहास में धार्मिक अल्पसंख्यकों, आधुनिक ख्याल और उदार सोच वाले लोगों के प्रति विरोध भाव लिए रहा है। वह जो जैसा है, उसे उसी रूप में स्वीकार करने के बजाय यह शर्त लगाता रहा है कि भारत में रहना है तो क्या-क्या करना होगा और कैसे रहना होगा। अगर यह अतीत ना होता, तो वंदे मातरम का नारा लगाने में कोई आपत्तिजनक बात नहीं हो सकती थी। 

अगरमोदी यह कहते कि उनकी सरकार हर तरह की विभिन्नता और बहुलता का सम्मान करेगी, तब भी वे जिस सांगठनिक परिवार के सदस्य हैं, उसका वैचारिक साया मद्धम नहीं पड़ता मगर तब यह आशा उत्पन्न होती कि वे शासन चलाते हुए उस न्यूनतम मर्यादा का पालन करेंगे, जिसे अटल बिहारी वाजपेयी ने “राज धर्म” कहा था। अगर 2002 में ऐसे हालात पैदा नहीं होते जिसमें वाजपेयी को “राज धर्म” की याद मोदी को दिलानी पड़ती, तो ना नरेंद्र मोदी की तीव्र ध्रुवीकरण करने वाली छवि बनती और ना उनसे अल्पसंख्यक मुस्लिम समुदाय तथा उदार ख्याल लोगों में इतने गहरे अंदेशे पैदा होते। 

धार्मिक स्पर्श लिए दक्षिणपंथी रुझान वाली पार्टियां (मसलन, जर्मनी में क्रिश्चियन डेमोक्रेटिक यूनियन) अनेक देशों में सत्ता में आती हैं। वे सामाजिक मामलों में रूढ़िवादी, आर्थिक क्षेत्र में दक्षिणपंथी और सांस्कृतिक मसलों में अनुदार रुख रखती हैं। उनकी नीतियां अल्पसंख्यकों के लिए कल्याणकारी नहीं होतीं। फिर भी ये समुदाय उनसे भयभीत नहीं रहते। अब भारत में नेहरुवादी उदारवाद के दौर पर विराम लग गया है और पुरातन मान्यताओं में (जिन्हें अनेक जातियां, महिलाएं और कई समुदाय अपने लिए दमनकारी मानते हैं) स्वर्णिम अतीत देखने वाली विचारधारा का सत्तारोहण होने जा रहा है। 

ऐसे मौके पर इस विचारधारा के दायरे से बाहर के विभिन्न वर्गों का अनेक प्रकार की चिंताओं से घिरना अस्वाभाविक नहीं है। आशंकाएं शिक्षा तथा सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों को एक खास रंग में रंगे जाने को लेकर हैं। भय कुछ संगठनों की संभावित उग्रता का है। और सबसे ऊपर यह सवाल है कि क्या भाजपा अब अपने ठंडे बस्ते से उन मुद्दों को निकालेगी, जिन्हें वह अपना “मुख्य एजेंडा” बताती है? यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि ऐसा करना सामाजिक अशांति और तनाव को न्योता देना होगा। 

नरेंद्रभाई के गुजरात के विकास मॉडल की हकीकत चाहे जो हो, लाखों लोग उससे आकर्षित हुए हैं। भाजपा के बुनियादी समर्थक समूहों के साथ इन्हीं लोगों के मेल से वह जनादेश तैयार हुआ, जिससे भारत में नए राजनीतिक युग की शुरुआत हो रही है। नरेंद्र मोदी के सामने यह चुनौती जरूर है कि वे अपने इन दोनों समर्थक वर्गों को खुश रखें। मगर दिक्कत यह है कि इन दोनों के बीच गहरा अंतर्विरोध है। विकास और सामाजिक अशांति साथ-साथ नहीं चल सकते। अशांति से बचने की बुनियादी शर्त यह है कि समाज के सभी तबके खौफ और अंदेशों से आजाद रहें। मोदी कम से कम पांच वर्ष के लिए प्रधानमंत्री बन रहे हैं, तो उन्हें यह तय करना है कि वे किस प्रकार के भारत का नेतृत्व करना चाहते हैं? ‘सबका साथ-सबका विकास’ उनका अच्छा नारा है। मगर आशंकाओं में जी रहे लोग आखिर मनोयोग से कैसे साथ आ सकते हैं? इस मनोभावना को संबोधित करने का पहला मौका मोदी ने गवां दिया। क्या आगे उनसे ये अपेक्षा की जा सकती है?

तो अच्छे दिन आने वाले हैं!

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-सुनील कुमार
सुनील कुमार

"…सवालयह है कि अच्छे दिन किसके लिए आने वाले हैं? क्या उन किसानों के लिए भी अच्छे दिन आने वाले हैं जो सरकारी नीतियों के कारण आत्महत्या करने और आधे पेट खाने को मजबूर हैं? क्या फैक्ट्रियों में हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले मजदूरों, जो 10-12 घंटे काम कर के कबूतरखाने जैसे बने कमरों में रहते हैं और तमाम तरह की बीमारियों से ग्रसित हो कर गांव वापस चले जाते हैं, के लिए भी अच्छे दिन आने वाले हैं?…"


16 वींलोकसभा के चुनाव परिणाम मीडिया, सभी पार्टियों एवं चुनावी विश्लेषकों के अनुमान के विपरीत रहे हैं। खुद बीजेपी के लिए ये परिणाम आश्चर्यजनक रहे हैं। इस जीत से आर.एस.एस. को संजीवनी मिल गई है। यह ऐसा चुनाव था जहां पहले से ही हार-जीत का फैसला हो चुका था। सट्टेबाजों ने कांग्रेस पर दांव लगना बंद कर दिया था। अदानी, टाटा, रिलायंस जैसे उद्योगपति के साथ-साथ पूरे उद्योगजगत के मुख्य चहेते नरेन्द्र मोदी थे। यह चुनाव पार्टियों की विचारधारा पर नहीं, व्यक्ति विशेष के आधार पर लड़ा गया। इसमें नरेन्द्र मोदी ने बाजी मारी और भाजपा को अब तक की सबसे बड़ी जीत दिलाई।


नरेन्द्रमोदी के चुनाव में इलेक्ट्रानिक व प्रिंट मीडिया एवं सोशल साईटों पर करोड़ों रूपये खर्च किये गये। अभी तक चुनाव में सबसे ज्यादा सभा एवं हवाई यात्रा (3 लाख कि.मी.) नरेन्द्र मोदी ने की। एक प्रधानमंत्री के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने इतिहास से सम्बन्धित इतनी ज्यादा गलत जानकारियां दी, लेकिन कभी भी इसके लिए खेद प्रकट नहीं किया। जिस तरह हिटलर ने जर्मनी को विश्व का अग्रणी देश बनाने का सपना देखा था उसी तरह मोदी भारत को ‘विश्वगुरू’ बनाना चाहते हैं। हिटलर का प्रचार मंत्री गोयबल्स कहता था कि एक बात को इतनी बार बोलो कि उसको लोग सही मानने लगें। उसी तर्ज पर गुजरात के विकास माॅडल का प्रचार किया गया और नारे दिये गये-‘अच्छे दिन आने वाले हैं’।

अच्छे दिन

सवालयह है कि अच्छे दिन किसके लिए आने वाले हैं? क्या उन किसानों के लिए भी अच्छे दिन आने वाले हैं जो सरकारी नीतियों के कारण आत्महत्या करने और आधे पेट खाने को मजबूर हैं? क्या फैक्ट्रियों में हाड़-तोड़ मेहनत करने वाले मजदूरों, जो 10-12 घंटे काम कर के कबूतरखाने जैसे बने कमरों में रहते हैं और तमाम तरह की बीमारियों से ग्रसित हो कर गांव वापस चले जाते हैं, के लिए भी अच्छे दिन आने वाले हैं? क्या उन महिलााओं के लिए अच्छे दिन आने वाले हैं जो पेट की आग बुझाने के लिए अपने शरीर को  बेचती हैं या चंद पैसे के लिए सरगोसी (किराये की कोख) का काम करती हैं? अहमदाबाद के जुहूपुरा में रहने वाली 65 साल की नियाज बीबी के दो मंजिला मकान को दंगे में जला दिया गया था, अब वो किराये के एक कमरे में 5 लोगों के साथ गुजारा करती हैं। वो बताती हैं कि उनको किराये पर दुकान इसलिए नहीं मिलती है क्योंकि लोगों को डर है कि इनकी दुकान जलाई जायेगी तो पास में दूसरे हिन्दु दुकानें भी जल सकती हैं। इसीतरह एसोसिएट प्रोफेसर हुमा बताती हैं कि उनके इलाके में सप्लाई का पानी कई-कई दिन नहीं आता है, जबकि जुहुपूरा के दूसरी तरफ पानी आता है। क्या निजाज बीबी और हुमा के भी अच्छे दिन आने वाले हैं?

क्या हरियाणा के उन दलित परिवारों के अच्छे दिन आने वाले हैं जो अपनी बच्चियों के साथ हुए बलात्कार के मामले में इंसाफ मांगने के लिए 1 माह से अंधिक समय से जंतर-मंतर पर बैठे हैं? क्या निप्पॅोन, गर्जियानो, मारूती के मजूदरों, जो सालों से जेल में बंद हैं और जिनकी परिवारिक हालत खराब होती जा रही है, के भी अच्छे दिन आयेंगे? या अच्छे दिन उन पूंजीपतियों के आने वाले हैं जिनके शेयर के दाम 12 मई के एक्जीट पोल दिखाने के बाद लगातार बढ़ते गये? 13 सितम्बर, 2013 को नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री के उम्मीदवार घोषित होने के बाद से ही अरविंद लिमिटेड, कैडिला, पीपावाव, अदानी जैसी गुजरात स्थित कंपनियों के शेयर लगातार बढ़ने लगे। मोदी इफेक्ट ही था कि अदानी की पूंजी में मध्य फरवरी से 9 मार्च तक 25 दिनों में 20000 करोड़ रु. की बढ़ोतरी हो गई। 

अदानीने 16 मई को चुनाव रिजल्ट के ही दिन 5500 करोड़ रु. के धमारा पोर्ट का अधिग्रहण करने के लिए टाटा के साथ समझौता की। निश्चित ही अच्छे दिन इन पूंजीपतियों के आने वाले हैं। अच्छे दिन रामदेव जैसे बाबाओं के आने वाले हैंै जिन्हांेने कुछ ही वर्षों में 1500 करोड़ रु. का साम्राज्य खड़ा कर लिया है। और अरूण जेटली अब उनकी तुलना गांधी और जयप्रकाश नारायण से कर रहे हैं।

उद्योग जगत की आशाएं

गौतमअदानी ने कहा कि ‘‘देश को ऐसी सरकार की जरूरत है, जो राजनीतिक रूप से व्यावहारिक और आर्थिक समझदारी वाले फैसले कर सके और इन पर रूख साफ रख सके। अपने प्रचार अभियान के दौरान नरेन्द्र मोदी ने ऐसी सरकार पर जोर दिया जो फैसले करने वाली हो और मजबूत प्रशासन मुहैय्या कराने पर केंद्रित हो। इसका नीति निर्माण और उन्हें लागू करने पर सकारात्मक असर पड़ेगा और नीतियों को लागू करने में पारदर्शिता आएगी। इससे परियोजनाओं को लागू करने में तेजी आएगी और साथ ही इससे निवेश में भी तेजी आएगी।’’ 

डाॅयचेबैंक के सह सीईओ गुनीत चड्ढ़ा का कहना है कि ‘‘नई सरकार का सबसे बड़ा काम भारत के काॅरपोरेट जगत का विश्वास बहाल करना है। इसके लिए बेहतरीन तरीका पुरानी परियोजनाओं की राह में आ रही बाधा दूर करने के लिए निश्चित कार्रवाई करना होगा। सरकार और नौकरशाही के बीच तालमेल से फैसले किए जाने की जरूरत है। ऐसे फैसलों से विश्वास बहाल किया जा सकता है।’’

एडलवाइसग्रुप के चेयरमैन रशेष शाह का कहना है कि ‘‘नई सरकार के आने से देश में निवेश का माहौल सुधरने की उम्मीद है। इसमें पूंजी बाजर महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। पिछले दो दशकों से भारतीय पूंजी बाजार का नाटकीय तरीके से विकास हुआ है लेकिन इसे अभी लम्बा सफर तय करना है.......। निवेशक और उद्योग पूंजी बाजार के अहम घटक हैं। अगर इनसे जुड़े मुद्दों का हल होगा तो इससे एक मजबूत पूंजी बाजार के निर्माण में मदद मिलेगी।’’ 

पीरामलसमूह के चेयरमैन अजय पीरामल भूमि अधिग्रहण कानून में बदलाव चाहते हैं-‘‘हमें तत्काल ही खान और ढांचागत क्षेत्र में सुधार लाना चाहिए और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और उदार बनाया जाना चाहिए। केन्द्र सरकार को निश्चित तौर पर इसके लिए जल्द से जल्द प्रयास करना चाहिए। दूसरी तरफ बैंकों को भी पूंजी देने की जरूरत है, ताकि उन्हें कारोबार आगे बढ़ाने और उधार देने में कोई दिक्कत नहीं आए और यह भी तत्काल किए जाने की जरूरत है। विनिर्माण और ढांचागत क्षेत्र को भी मजबूती देने की जरूरत है जिसके लिए पिछले साल पारित भूमि अधिग्रहण विधेयक को पलटना होगा।’’ (स्रोत: बिजनेस स्टैंडर्ड, 17 मई, 2014)

इसबात को बल भाजपा के वरष्ठि नेता रविशंकर प्रसाद के टीवी चैनल के वार्तालाप से मिल जाता है कि 200-250 कम्पनियों की फाइलें पर्यावरण विभाग के क्लियरेंस के लिए आॅफिसों में पड़ी हैं, उनका क्लियरेंस नहीं दिया गया है। इसका यह मतलब है कि मोदी सरकार आते ही जनता के संघर्षों को कुचलते हुए इन फाइलों का क्लियरेंस कर दिया जायेगा। वे मान रहे हैं कि जनता के लगातार संघर्ष के कारण जनदबाव में जो क्लियरेंस नहीं मिला है, वह अब मिल जायेगा। इसी बात से पूजीपतियों के समूह काफी उत्साहित नजर आ रहे हैं।

विकास का जन आन्दोलन

मोदीने अपनी विक्टरी रैली में बोलते हुए कहा कि वे विकास को एक जन आन्दोलन बनाना चाहते हैं, जैसा कि गांधीजी ने आजादी की लड़ाई को जन आन्दोलन बना दिया था। कोई पढ़ता था, कोई चरखा काटता था, वह भी आजादी की लड़ाई थी। उसी तरह हम विकास को जन आन्दोलन बनना चाहते हैं। उन्होंने जिस तरह से गुजरात में विकास का आन्दोलन बना कर नर्मदा बचाओ आन्दोलन की नेत्री मेधा पाटेकर पर हमला करवाया, क्या उसी तरह से कारपोरेट जगत के विकास की खिलाफत कर रहे लोगों पर हमला करवाना चाहते हैं? विकास के जन आन्दोलन का काम आर.एस.एस. के हाथों में सौंप दिया जायेगा?

मोदीके आने से साफ हो गया है कि उदारीकरण की नीतियों को तेजी से लागू किया जायेगा, जिसके  लिए एक फासीवादी व्यक्ति की जरूरत है, जो लोगों की आवाज को कुचल सके और उद्योगपतियों के लिए हर सुविधा दे सके। प्रत्यक्ष करों में छूट दी जायेगी और देश की जनता पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ बढ़ा दिया जाएगा। लोगों की जीविका के साधन जल-जंगल-जमीन और अन्य प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों के हवाले कर दिया जाए ताकि वे दिन चैगुनी-रात आठ गुनी तरक्की कर सकें। आम जनता को उसी तरह का सपना दिखाते रहो, जैसे धर्म में दिखाया जाता है कि इस जन्म में अच्छे कर्म करो, अगले जन्म में इसका फल मिलेगा। इसी तर्ज पर अच्छे दिन का सपना दिखाया जाता रहेगा।

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

विकास का दिवास्वप्न

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संजय बिष्ट
-संजय बिष्ट

"...मोदी के प्रचार की कॉर्पोरेटी बमबारी के बाद आम जनता का मन टटोलने से ये साफ नजर आ रहा है कि उसके दिमाग में आने वाले दिनों में एक ऐसे भारत की परिकल्पना है, जहां हर तरफ विकास ही विकास नजर आएगा। जीडीपी आसमान छू रही होगी। पाकिस्तान, चीन को रौंदकर भारत अमेरिका के सीने पर चढ़ा होगा। प्राइवेट कंपनियां नौकरी देने के लिए बेरोजगारों के घर के बाहर कतार में खड़ी होंगी। महंगाई इतनी कम की पचास पैसे के दिन भी वापस आ जाएं। भ्रष्टाचार तो जैसे वर्षों पुरानी बात हो जाएगी। सड़कें जैसे हीरोइनों के गाल और बिजली, पानी तो इतने इफरात में की खर्च करने से खत्म ही न हो..."


प्रत्येक चुनावों में उम्मीद के अलावा जनता के पास दरअसल कोई विकल्प नहीं है. ऐसे में यूपीए और कांग्रेस के खिलाफ १० साल की एंटी इंकम्पेन्सी के असंतुष्ट माहौल के बीच बेतहाशा खर्च कर प्रचार माध्यमों के जरिये जिस तरह मोदी के नाम के अनवरत नगाड़े बजाये गए थे, ऐसे में असल विकल्प की आवाजों को दब ही जाना था और मोदी के पक्ष में यही परिणाम आने थे. लेकिन यह बात इतनी सपाट नहीं है. मोदी की उनकी राजनीति के साथ इस तरह की स्वीकार्यता (चाहे वह किसी भी तरह बन पाई हो) के भारतीय राजनीति में गहरे निहितार्थ हैं. 'इतिहास खुद को दोहराता है'यह बात फिर एक बार साबित हुई है. यहाँ हिटलर के सत्तासीन होने पर बर्तोल्त ब्रेख्त की यह टिप्पणी भारतीय राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में फिर मौज़ू हो गई है, "चरवाहे से नाराज भेड़ों ने कसाई को मौका दे दिया..."

मोदी के प्रायोजित प्रचार का दिवास्वप्न अभी टूटा नहीं है। सोशल साइट्स, टीवी, अखबार, मीडिया के जरिए बनाए गए एक काल्पनिक माहौल अच्छे दिन आने वाले हैंने जनता को एक काल्पनिक सोच भी दे दी है। प्रचार को आंदोलन बनाने से मिले मोदित्वका सत्व जनता भोग रही है। मोदीमय  बैच, टोपी टीशर्ट स्कार्फ लपेटे जनता अब भी सुबह की मीठी नींद के खुमार में है। मोदी के प्रचार की कॉर्पोरेटी बमबारी के बाद आम जनता का मन टटोलने से ये साफ नजर आ रहा है कि उसके दिमाग में आने वाले दिनों में एक ऐसे भारत की परिकल्पना है, जहां हर तरफ विकास ही विकास नजर आएगा। जीडीपी आसमान छू रही होगी। पाकिस्तान, चीन को रौंदकर भारत अमेरिका के सीने पर चढ़ा होगा। प्राइवेट कंपनियां नौकरी देने के लिए बेरोजगारों के घर के बाहर कतार में खड़ी होंगी। महंगाई इतनी कम की पचास पैसे के दिन भी वापस आ जाएं। भ्रष्टाचार तो जैसे वर्षों पुरानी बात हो जाएगी। सड़कें जैसे हीरोइनों के गाल और बिजली, पानी तो इतने इफरात में की खर्च करने से खत्म ही न हो।

शायद मंगल दिनों की इसी कामना ने नरेंद्र मोदी का दामन कमलों से भर दिया। जो करिश्मा कभी अटल-आडवाणी नहीं कर सके, पहले झटके में ही मोदी उस करिश्मे के पर्याय बन चुके हैं।इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जनता को जो भी चाहिए बहुत जल्दी चाहिए। आम जनता सरकार को हमेशा से जादू की छड़ी समझती आई है, जिसे चलाकर रातों रात सभी परेशानियों का हल ढूंढा जा सकता है। इसी उम्मीदों के बोझ के तले दबकर आम आदमी पार्टी अपना बेड़ा गर्क कर चुकी है। राष्ट्रीय स्तर पर देश में समस्याएं ज्यादा हैं और उन्हें खत्म करने का सिस्टम बहुत लंबा और दुरुह। शायद इसीलिए पांच साल के अंदर ही अलग-अलग सरकारें इतनी अलोकप्रिय हो जाती हैं कि जनता अगले चुनाव में सत्तारुढ़ दल को अछूत बना डालती है। नरेंद्र मोदी ने जनता को बड़े बड़े सपने दिखाएं हैं, निश्चित तौर पर वो पूरे भी हो सकते हैं लेकिन उन्हें पूरा होने में इतना वक्त लग सकता है कि मोदी सरकार का एक कार्यकाल भी कम पड़ जाए। ऊपर से जब अच्छे दिनोंका फितूर लोगों के दिलों में हावी हो तो उम्मीदें और बढ़ जाती हैं।

ध्यान रखने वाली बात ये भी है कि ये जीत बीजेपी की जीत नहीं है बल्कि नरेंद्र मोदी की जीत है। मोदी बीजेपी में अब लार्जर दैन लाइफकी छवि में हैं। दरअसल मोदी उस दौर में हैं जिस दौर में कभी इंदिरा गांधी हुआ करती थी यानी मोदी इज बीजेपी और बीजेपी इज मोदी। (थोड़े दिनों बाद ये भी संभव है कि इस उक्ति को बदल कर बरुआ जैसे लोग कहने लगें- मोदी इज इंडिया, इंडिया इज मोदी)

पूरेचुनाव प्रचार में लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी और बीजेपी के दूसरे नेता कहीं नजर नहीं आए। बीजेपी का सिर्फ एक चेहरा था और वो चेहरा था नरेंद्र मोदी। राजनीति में व्यक्तिवाद का ये नया दौर है। आखिरकार व्यक्तिवाद ही तानाशाही में तब्दील होता है। भारत की लुंज-पुंज अवस्था को देखकर कई सोचशास्त्री ये कह सकते हैं कि देश को एक ऐसे नेता की जरूरत है जो अनुशासन की चाबुक से लोगों को सीधा कर सके चाहे इसके लिए उसे लोकतांत्रिक मूल्यों को ताक पर ही क्यों न रखना पड़े?लेकिन भिन्नता में एकता रखने वाले इस देश के लोगों की मानसिकता कुछ और है। प्यार के पैगामों से भी इस देश को सीधे रास्ते पर लाया जा सकता है। यहां व्यक्तिवाद की परंपरा नहीं बल्कि समरसता की धारा बहाई जा सकती है। लेकिन इस बात की अपेक्षा मोदी से नहीं की जा सकती क्योंकि वो ऐसे नेता हैं जो अपने सामने किसी को भी टिकने नहीं देते। चाहे सीनियर हो या जूनियर, कोई उनसे आगे बढ़ने की कोशिश करता है तो वो उसे रौंद देते हैं। मोदी की राजनीति को आप यूं भी समझ सकते हैं कि किसी गैर गुजराती राज्य के नागरिक से आप ये पूछेंगे की गुजरात में मोदी के बाद नंबर दो नेता कौन है? तो वो शायद आसमान की तरफ देखता नजर आए। कोई शख्स जिंदगी भर स्थान बदल सकता है लेकिन वो अपनी नियत और नियति कभी नहीं बदल सकता। केंद्र में आकर भी मोदी ऐसा ही करें तो कोई शक नहीं।

खैर अंत में ५६ इंच का सीना मापने सरीखे फूहड़बिम्बों के इतर अच्छे दिनों की कामना तो की ही जानी चाहिए। 

संजय पत्रकार हैं
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में लम्बा अनुभव।
संपर्क - bisht.sanj@gmail.com

नए जनादेश को कैसे समझें?

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-सत्येंद्र रंजन
सत्येंद्र रंजन

"...दरअसल, भाजपा को बहुमत मिलने का कारण यह है कि उसके मजबूत आधार वाले राज्यों (गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और झारखंड) में भी उसकी एकतरफा आंधी चली। उधर उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसके वोटों में जबरदस्त उछाल आया। वहां दूसरे तमाम दलों का लगभग सफाया हो गया। लेकिन ऐसा होने का एक कारण यह भी रहा कि भाजपा ने सहयोगी दल चुनने में बुद्धिमत्ता दिखाई।..."


ह निर्विवाद है कि लोकसभा चुनाव के नतीजे अप्रत्याशित और चौंकाने वाले रहे। इससे भारतीय राजनीति को लेकर पिछले ढाई दशकों में बनी कुछ धारणाएं अवश्य ध्वस्त हुईं। मसलन, यह राय कि अभी लंबे समय तक केंद्र में बगैर गठबंधन के कोई सरकार नहीं बन सकती। लेकिन इससे ऐसी तमाम समझ गलत साबित हो गई है, ये कहना अतिशयोक्ति होगी। मसलन, यह दावा करना कि चूंकि इस बार एक दल (भारतीय जनता पार्टी) ने पूर्ण बहुमत जरूर हासिल लिया है, तो इसका अर्थ यह है कि राष्ट्रीय राजनीति में जातीय या सांप्रदायिक गोलबंदी की भूमिका समाप्त हो गई है। अथवा यह कि राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण की परिघटना पर विराम लग गया है। मतदाताओं ने जाति और संप्रदाय की भावना से ऊपर उठ कर वोट डाला, इस धारणा को साबित करने या उसे चुनौती देने के लिए अभी अधिक गहरे अध्ययन की जरूरत है। मगर इस मुद्दे पर बाद में आएंगे। पहले यह देखते हैं कि क्या राज्य-व्यवस्था के उत्तरोत्तर संघीयकरण (जिसे क्षेत्रवाद भी कहा जाता है) का रुझान अब पलट गया है?

ध्यान दीजिए। 2009 के आम चुनाव में कांग्रेस को 206 और भाजपा को 116 सीटें मिली थीं, जिनका योग 322 बनता है। इस बार भाजपा को 282 और कांग्रेस 44 सीटें मिली हैं, जिनका योग 326 होता है। यानी पांच वर्ष पहले 221 सीटें बाकी दलों को गई थीं, इस बार ये आंकड़ा 217 है। 2006 में कांग्रेस ने 28.6 और भाजपा ने 18.82 फीसदी वोट हासिल किए थे। इसका जोड़ 47.42 प्रतिशत बनता है। इस बार भाजपा ने 31 और कांग्रेस ने 19.3 प्रतिशत वोट प्राप्त किए। यानी दोनों को मिला कर 50.3 फीसदी वोट मिले। मतलब यह कि दोनों राष्ट्रीय दलों के सम्मिलित वोटों में 2.88 फीसदी का इजाफा हुआ। उनकी चार सीटें बढ़ीं। क्या इस आधार पर यह कहने का आधार बनता है कि 1989 के बाद से राज्य-व्यवस्था के संघीयकरण (Federalization of Polity) की जो प्रक्रिया शुरू हुई थी, वह 2014 में निर्णायक रूप से पलट गई है?

दरअसल, भाजपा को बहुमत मिलने का कारण यह है कि उसके मजबूत आधार वाले राज्यों (गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ और झारखंड) में भी उसकी एकतरफा आंधी चली। उधर उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्यों में उसके वोटों में जबरदस्त उछाल आया। वहां दूसरे तमाम दलों का लगभग सफाया हो गया। लेकिन ऐसा होने का एक कारण यह भी रहा कि भाजपा ने सहयोगी दल चुनने में बुद्धिमत्ता दिखाई। इसी कौशल से आंध्र प्रदेश में भी उसे सफलता मिली। असम में उसने अनपेक्षित कामयाबी हासिल की। परंतु ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर जगहों पर उसे सफलता कांग्रेस की कीमत पर मिली। क्षेत्रीय दलों के वोटों में वह ज्यादा सेंध नहीं लगा पाई। तमिलनाडु, केरल, पश्चिम बंगाल, ओडीशा आदि में मोदी लहर का असर दिखा, लेकिन यह इतनी ताकतवर नहीं थी कि भाजपा को सीटों का महत्त्वपूर्ण लाभ होता।

उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी को कोई सीट नहीं, लेकिन उसे वोट 2009 की तुलना में ज्यादा मिले। समाजवादी पार्टी ने ज्यादा वोट पाने के बावजूद अपनी 18 सीटें गंवाई। बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल (यू) के वोटों को जोड़ दें, तो यह भाजपा गठबंधन से पूरे 15 प्रतिशत ज्यादा ठहरता है। ये आंकड़े क्या कहते हैं? यही कि ऊपरी तौर पर देश की राजनीतिक सूरत में भारी बदलाव के बावजूद जमीन पर कहानी बहुत नहीं बदली है। असल में जमीन पर जो गोलबंदी हुई, उसमें जाति और संप्रदाय की भूमिका नहीं रही, यह भी सिर्फ अयथार्थ सदिच्छाओं के आधार पर ही कहा जा सकता है। मोदी लहर के केंद्र में असल में हिंदुत्व समर्थक समूह ही थे। भाजपा ने बड़ी चालाकी से इस मूल समर्थन आधार के साथ उन वर्गों को जोड़ने का कथानक बुना जो यूपीए सरकार से नाराज और जो रोजमर्रा की मुश्किलों से आजीज थे। इन समूहों के बीच अच्छे दिन लाने के वादे की मार्केटिंग करने में पार्टी सफल रही। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी को बार-बार खुद के पिछड़ी जाति से आने की याद दिलानी पड़ी। क्यों? अगर समग्रता से देखें तो समझ यह बनती है कि भाजपा की टोकरी में सबको संबोधित करने वाली चीजें मौजूद थीं। जाति, मजहब और विकास- सब कुछ।

मगर इसके साथ ये विसंगति भी खुल कर उभरी है कि कैसे कुछ इलाकों में संकेंद्रित समर्थन आधार के जरिए कम वोट पाकर भी अधिक सीटें जीत लेने का चलन अपने देश में बढ़ता जा रहा है। भाजपा सिर्फ 31 प्रतिशत वोट पाकर पूर्ण बहुमत पाने में सफल रही है। इसके पहले के 15 आम चुनावों में कभी ऐसा नहीं हुआ जब किसी पार्टी को 40 फीसदी से कम वोट पर स्पष्ट बहुमत मिला हो। इसके पहले सबसे कम 41.3 फीसदी वोट पर जनता पार्टी को 1977 में पूरा बहुमत मिला था। दरअसल, यह राजनीति के लगातार होते विखंडन का ही परिणाम है कि वोटों और सीटों के बीच विसंगति बढ़ती जा रही है। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव (2010) में जनता दल (यू)-भाजपा गठबंधन को सिर्फ 39 फीसदी वोट मिले, जबकि उसे 80 फीसदी भी ज्यादा सीटें मिल गईं थीं। उत्तर प्रदेश में पिछले दो विधानसभा चुनावों (2007 और 2012) से 30 प्रतिशत या उससे कम वोट पाने वाली पार्टी पूर्ण बहुमत प्राप्त कर रही है। क्या अब फर्स्ट पास्ट द पोस्ट की चुनाव प्रणाली से मिल रहे नतीजे बेतुके स्तर पर नहीं पहुंच गए हैं? इस प्रणाली के तहत उस उम्मीदवार को विजेता माना जाता हैजिसको किसी सीट पर सबसे ज्यादा वोट मिलते हैं, भले वो वोट कितने ही कम क्यों ना हों। ऐसे में जहां मुकाबला बहुकोणीय हो वहां पर किसी सीट पर सिर्फ 20 या उससे कम फीसदी वोट मिलने वाला उम्मीदवार भी विजेता बन सकता हैक्योंकि बाकी वोट अलग-अलग उम्मीदवारों में बंट जाते हैं। इस चुनाव प्रणाली का लाभ सिर्फ भाजपा को ही मिला हो, ऐसा नहीं है। लेकिन क्या ये कहा जा सकता है कि इससे जनमत की सही अभिव्यक्ति हो रही है?

क्या चुनाव प्रणाली में परिवर्तन पर विचार होना चाहिए, यह अलग चर्चा का विषय है। फिलहाल, उपरोक्त वर्णन का मकसद सिर्फ स्थापित करना है कि 2014 के जनादेश के स्वरूप पर निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं की जानी चाहिए। इसमें नयापन जरूर है, लेकिन उतना नहीं कि देश की राजनीतिक संरचना की समझ आमूल रूप से बदल जाए।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

नेहरू और नई चुनौतियां

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सत्येन्द्र रंजन 
-सत्येंद्र रंजन

"... पिछले दो-ढाई दशकों में दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के ज्यादा प्रचलित होने, संपन्न और सवर्ण पृष्ठभूमि से उभरे मध्य वर्ग के मजबूत होने और अमेरिका-परस्त जमातों का दायरा फैलने के साथ सांप्रदायिक ताकतों को नया समर्थन आधार मिल गया है। नेहरू अपने सपने और आर्थिक एवं विदेश नीतियों की वजह से इन सभी ताकतों के स्वाभाविक निशाने के रूप में उभरते हैं। और ये ताकतें जानती हैं कि जब तक नेहरू को एक खलनायक के रूप में स्थापित नहीं कर दिया जाता, उनके विचारों की साख खत्म नहीं कर दी जाती, उनकी अंतिम कामयाबी संदिग्ध है..."



विडंबना ही है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई सरकार ने देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू की पचासवीं पुण्य तिथि की पूर्व संध्या पर कार्य-भार संभाला। नेहरू के राजनीतिक फलक से विदा होने के पचास वर्ष बाद उनके विचारों के प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) की प्रतिनिधि ताकतें देश की राजसत्ता पर संपूर्ण संसदीय बहुमत के साथ काबिज हो गई हैं। नेहरू के नेतृत्व में उदार, आधुनिक, बहुलवादी, धर्मनिरपेक्ष भारत की स्थापना की हुई थी। इस भारतीय राष्ट्रवाद की अवधारणा लंबे स्वतंत्रता संग्राम के दौरान अस्तित्व में आई। इसे विकसित करने में अनेक विचारधाराओं से चिंतकों, मनीषियों, नेताओं और कार्यकर्ताओं का योगदान रहा। नेहरू की खास भूमिका थी इसमें प्रगति और विकास की एक विशिष्ट समझ को जोड़ना। इस राष्ट्रवाद के विरुद्ध धर्म आधारित राष्ट्रवाद (जिसने खुद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कहा) की सोच समानांतर रूप से आगे बढ़ी। आजादी के बाद पहले आम चुनाव में नेहरू के नेतृत्व में उस सोच को पराजित कर दिया गया था। मगर 16वीं लोकसभा के चुनाव नतीजों ने उस विचारधारा को देश की सबसे प्रमुख राजनीतिक शक्ति बना दिया है। स्पष्टतः यहां से भारतीय राजनीति का संदर्भ बिंदु बदल गया है। इसीलिए आज आवश्यक है कि नेहरू के विचारों, उनके योगदान और उनके व्यक्तित्व का अब नए सिरे पुनर्मूल्यांकन हो। आखिर स्वतंत्रता के बाद से अब तक अपने देश को हम नेहरूवादी भारत के रूप में ही जानते रहे हैँ। 



ध्यानार्थहै कि जवाहर लाल नेहरू के दुनिया से विदा होने के बाद से उनकी विरासत गंभीर विचार-विमर्श के साथ-साथ गहरे मतभेदों का भी विषय रही है। अपने जीवन काल में, खासकर आजादी के बाद जब वो भारतीय राजनीति के शिखर पर थे, पंडित नेहरू ने अभूतपूर्व लोकप्रियता हासिल की थी। इसके बूते उन्होंने अपनी ऐसी हैसियत बनाई कि कहा जाता है, 1962 के चीन युद्ध में भारत की हार तक राष्ट्रीय मुख्यधारा में उन्हें आलोचना से परे माना जाता था। लेकिन निधन के बाद उनके व्यक्तित्व, उनके योगदान और उनके विचारों पर तीखे मतभेद उभरे। इतने कि यह बात बेहिचक कही जा सकती है कि नेहरू स्वतंत्र भारत में सबसे ज्यादा मत-विभाजन पैदा करने वाली शख्सियत नजर आते हैं। यह बात भी लगभग उतने ही ठोस आधार के साथ कही जा सकती है कि पिछले चार दशकों में नेहरू के विरोधी विचारों को देश में लगातार अधिक स्वीकृति मिलती गई है, और आज जिस कांग्रेस पार्टी में नेहरू-गांधी परिवार के प्रति वफादारी आगे बढ़ने का सबसे बड़ा पैमाना है, वह भी पंडित नेहरू के रास्ते पर चल रही है, यह कहना मुश्किल है। 


नेहरूके विरोध के कई मोर्चे हैं। एक मोर्चा दक्षिणपंथ का है, जो मानता है कि जवाहर लाल नेहरू ने समाजवाद के प्रति अपने अति उत्साह की वजह से देश की उद्यमशीलता को कुंद कर दिया। एक मोर्चा उग्र वामपंथ का है, जो मानता है कि नेहरू का समाजवाद दरअसल, पूंजीवाद को निर्बाध अपनी जड़ें जमाने का मौका देने का उपक्रम था। एक मोर्चा लोहियावाद का रहा है, जिसकी राय में नेहरू ने व्यक्तिवाद और परिवारवाद को बढ़ावा दिया और पश्चिमी सभ्यता का अंध अनुकरण करते हुए देसी कौशल और जरूरतों की अनदेखी की। लेकिन नेहरू के खिलाफ सबसे तीखा मोर्चा सांप्रदायिक फासीवाद का है, जिसकी राय में देश में आज मौजूद हर बुराई के लिए नेहरू जिम्मेदार हैं। 




नेहरू विरोधी इन तमाम ज़ुमलों को इतनी अधिक बार दोहराया गया है कि आज की पीढ़ी के एक बहुत बड़े हिस्से ने बिना किसी आलोचनात्मक विश्लेषण के इन्हें सहज स्वीकार कर लिया है। संभवतः इसीलिए आजादी के पहले महात्मा गांधी के बाद कांग्रेस के सबसे लोकप्रिय नेता और देश के पहले प्रधानमंत्री के प्रति आज सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक राय मौजूद है। चूंकि ऐसी राय अक्सर बिना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को ध्यान में रखे और वर्तमान के पैमानों को अतीत पर लागू करते हुए बनाई जाती है, इसलिए सामान्य चर्चा में इसे चुनौती देना आसान नहीं होता। 



इस संदर्भ में सबसे अहम पहलू यह समझना है कि आज जिन चीजों और स्थितियों को को हम तयशुदा मानते हैं, वह हमेशा से ऐसी नहीं थीं। मसलन, देश की एकता, लोकतंत्र का मौजूदा स्वरूप, विकास का ढांचा, प्रगति की परिस्थितियां आज जितनी सुनिश्चित-सी लगती हैं, 1947 में वो महज सपना ही थीं। देश बंटवारे के जलजले और बिखराव की आम भविष्यवाणियों के बीच तब के स्वप्नदर्शी नेता राज्य व्यवस्था के आधुनिक सिद्धांतों पर अमल और व्यक्ति की गरिमा एवं स्वतंत्रता के मूलमंत्र को अपनाने का सपना देख पाए, इस बात की अहमियत को सिर्फ यथार्थवादी ऐतिहासिक नजरिए से ही समझा जा सकता है। नेहरू उन स्वप्नदर्शी नेताओं में एक थे, अपने सपने को साकार करने के लिए उन्होंने संघर्ष किया। प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच उन्होंने अपने विचारों पर अमल का जोखिम उठाया, संभवतः इस बात से कोई असहमत नहीं होगा। 


असहमति की शुरुआत अमल के परिणामों को लेकर होती है। यह असहमति एक स्वस्थ बहस का आधार बनी है और निश्चित रूप से आज भी इस बहस को आगे बढ़ाने की जरूरत है। पंडित नेहरू के नेतृत्व में जो विकास नीति अपनाई गई, वह अपने मकसद को कितना हासिल कर पाई, जो नाकामियां उभरीं उसकी कितनी वजह नेहरू के विचारों में मौजूद थी औऱ उनमें कैसे सुधारों की जरूरत है, यह एक सकारात्मक चर्चा है, जो खुद नेहरू के सपने को साकार करने के लिए जरूरी है। लेकिन गौरतलब यह है कि नेहरू का विरोध हमेशा सिर्फ ऐसे ही सवालों की वजह से नहीं होता। नेहरूवाद का एक बड़ा प्रतिवाद सांप्रदायिक फासीवाद है, जिसका मकसद प्रगति और विकास नहीं, बल्कि पुरातन सामाजिक अन्याय और जोर-जबरदस्ती को कायम रखना है। 

देश में मौजूद कई विचारधाराओं का सांप्रदायिक फासीवाद से टकराव रहा है। लेकिन यह एक ऐतिहासिक सच है कि सवर्ण और बहुसंख्यक वर्चस्व की समर्थक इन ताकतों के खिलाफ सबसे मजबूत और कामयाब बुलवर्क पंडित नेहरू साबित हुए। देश विभाजन के बाद बने माहौल में भी ये ताकतें कामयाब नहीं हो सकीं, तो उसकी एक प्रमुख वजह नेहरू की धर्मनिरपेक्षता में अखंड आस्था और इसके लिए अपने को दांव पर लगा देने का उनका दमखम रहा। स्वाभाविक ही है कि ये ताकतें आज भी अपना सबसे तीखा हथियार नेहरू पर हमला करने के लिए सुरक्षित रखती हैं। पिछले दो-ढाई दशकों में दक्षिणपंथी आर्थिक नीतियों के ज्यादा प्रचलित होने, संपन्न और सवर्ण पृष्ठभूमि से उभरे मध्य वर्ग के मजबूत होने और अमेरिका-परस्त जमातों का दायरा फैलने के साथ सांप्रदायिक ताकतों को नया समर्थन आधार मिल गया है। नेहरू अपने सपने और आर्थिक एवं विदेश नीतियों की वजह से इन सभी ताकतों के स्वाभाविक निशाने के रूप में उभरते हैं। और ये ताकतें जानती हैं कि जब तक नेहरू को एक खलनायक के रूप में स्थापित नहीं कर दिया जाता, उनके विचारों की साख खत्म नहीं कर दी जाती, उनकी अंतिम कामयाबी संदिग्ध है।

पिछले डेढ़-दो दशकों में इन ताकतों के बढ़ते खतरे ने बहुत से लोगों को नेहरू की प्रासंगिकता पर नए सिरे से सोचने के लिए प्रेरित किया है। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में जिस आधुनिक भारत की कल्पना विकसित हुई और जिसे आजादी के बाद पंडित नेहरू के नेतृत्व में ठोस रूप दिया गया, उसके लिए पैदा हुए खतरे के बीच यह सवाल बेहद गंभीरता से उठा है कि आखिर इस भारत की रक्षा कैसे की जाए? यह विचार मंथन हमें उन रणनीतियों और सोच की अहमियत समझने की नई दृष्टि देता है, जो पंडित नेहरू ने प्रतिक्रियावादी, आधुनिकता विरोधी और अनुदार शक्तियों के खिलाफ अपनाई। उन्होंने इन ताकतों के खिलाफ वैचारिक संघर्ष जरूर जारी रखा, लेकिन उनकी खास रणनीति देश को विकास एवं प्रगित का सकारात्मक एजेंडा देने की थी, जिससे तब की पीढ़ी भविष्य की तरफ देख पाई और आर्थिक एवं सांस्कृतिक पिछड़ेपन की व्यापक पृष्ठभूमि के बावजूद एक नए एवं आधुनिक भारत का उदय हो सका।

पंडितनेहरू ने उस वक्त के मानव विकासक्रम की स्थिति, उपलब्ध ज्ञान और संसाधनों के आधार पर उस भारत की नींव रखी, जो धीरे-धीरे दुनिया में एक बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में उभरा। लेकिन नेहरू की रणनीतियों की नाकामी यह रही कि नए भारत में गरीबी, असमानता और व्यवस्थागत अन्याय को खत्म नहीं किया जा सका। नतीजतन, आज हम एक ऐसे भारत में हैं जहां संपन्नता और विपन्नता की खाई बढ़ती नजर आ रही है। नेहरू ने समाजवाद के जिन मूल्यों की वकालत की उनका साकार होना कहीं करीब नजर नहीं आता। यह विसंगति निसंदेह पंडित नेहरू की विरासत पर बड़ा सवाल है। लेकिन इस सवाल से उलझते हुए भी आज की पीढ़ी के पास सबसे बेहतरीन विकल्प संभवतः यह नहीं है कि नेहरू की पूरी विरासत को खारिज कर दिया जाए। बल्कि सबको समाहित कर और सबके साथ न्याय की जो बात नेहरू के भारत के सपने के बुनियाद में रही, वह आज भी इस राष्ट्र का सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू है, जिसकी जड़ें मजबूत किए जाने की जरूरत है। ये दोनों बातें विकास और प्रगति के एक खास स्तर के साथ ही हासिल की जा सकती हैं, नेहरूवाद की यह मूल भावना भी शायद विवाद से परे है। यह जरूर मुमकिन है कि विकास और प्रगति की नई अवधारणाएं पेश की जाएं और उनकी रोशनी में पुरानी रणनीतियों पर नए सिरे से विचार हो। बहरहाल, विश्व मंच पर भारत अपनी स्वतंत्र पहचान रखे और जिन मूल्यों पर भारतीय राष्ट्र की नींव डाली गई, उनकी इन मंचों पर वह वकालत करे, यह नेहरूवादी विरासत आज भी उतना ही अहम है, जितना जवाहर लाल नेहरू के जीवनकाल में थी। 

दरअसल, बात जब नेहरू की होती है, तब ये विचार ही सबसे अहम हैं। इन पर आज सबसे ज्यादा चर्चा की जरूरत है। नेहरू की नाकामियां जरूर रेखांकित की जानी चाहिए, लेकिन उनके कुल योगदान का विश्लेषण वस्तुगत और तार्किक परिप्रेक्ष्य में होना चाहिए। वरना, हम उन ताकतों की ही मदद करते दिखेंगे जो नेहरू की छवि एवं विरासत का ध्वंस दरअसल भारत के उस अपेक्षाकृत नए विचार का ध्वंस करने के लिए करती हैं, जो आजादी की लड़ाई के दिनों में पैदा हुआ, आधुनिक समतावादी चितंकों ने जिसे विकसित किया, जो गांधी-नेहरू के नेतृत्व में अस्तित्व में आया और जिसे आज दुनिया भर में सहिष्णुता, सह-अस्तित्व एवं मानव विकास का एक बेहतरीन आदर्श माना जा रहा है। नेहरू इसी भारत के प्रतीक हैं, और इसीलिए उनकी विरासत की आज रक्षा किए जाने की जरूरत है। 

सांप्रदायिकऔर दक्षिणपंथी ताकतों ने नेहरू की साख खत्म करने के लिए हर तरह के दुष्प्रचार और कुतर्कों का सहारा लिया है। गांधी बनाम नेहरू की बनावटी, निराधार बहस खड़ी करने की कोशिश की गई, ताकि नेहरू को गांधी का विरोधी दिखा कर यह धारणा बनाई जा सके कि प्रथम प्रधानमंत्री देश को गांधी की इच्छा के विपरीत या गलत मार्ग पर ले गए। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि यह प्रचार बड़े जन समुदाय में स्वीकृति बनाने में सफल रहा है। बहरहाल, अब नए हालात में धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक शक्तियों की यह जिम्मेदारी है कि वे उस भारतीय राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए खड़ी हों, जिसका उदय हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान हुआ, जिसकी मूर्त व्याख्या हमारे संविधान की प्रस्तावना में हुई, और जिसे अमली या व्यावहारिक रूप देने में जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्व की सर्व-प्रमुख भूमिका रही। नेहरूजी की पचासवीं पुण्य-तिथि पर आज अपने उसी राष्ट्रवाद की रक्षा के लिए संकल्प लेने का दिन है। 

                                                                                                                                  
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

मोदी, शरीफ की दोस्ती और अडानी का प्लांट

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प्रवीन मिश्रा
-प्रवीन मिश्रा
(www.truthofgujarat.com से साभार लेकर अनुवाद)

"...जो कुछ भी मोदी ने 'कहा' वह अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए था। और जो कुछ भी मोदी 'कर' रहे ​हैं वह कॉरपोरेट के फायदे और हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए कर रहे हैं। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मुकेश अंबानी ने 13 सितंबर 2013 को मोदी के बीजेपी पीएम उम्मीदवार बनने से उनके भाग्य पर 6 अरब डालर का निवेश किया है। गौतम अडानी की पूंजी सितंबर 13 के बाद 1.9 अरब डालर से चौगुनी होकर 7.6 अरब डालर हो गई है। यह इजाफा एक ऐसे देश में 2.5 करोड़ प्रतिदिन है जहां 80 करोड़ लोग प्रतिदिन 2 डालर से भी कम में अपना जीवन यापन कर रहे हैं।..."

साभार - http://pics.urduwire.com/
पिछले सालों में और 2014के इन आम चुनावों में पाकिस्तान के खिलाफ लगातार विषवमन करने के बाद नरेंद्र मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को शपथ ग्रहण समारोह के लिए निमंत्रण भेजा। दरअसल इसका असली कारण शांति नहीं है बल्कि अडानी है।

फाइनेंसियलएक्स्प्रेस की रिपोर्ट के अनुसार अडानी पावर, नरेंद्र मोदी सरकार से पाकिस्तान को बिजली का निर्यात करने की मंजूरी चाहता है. अडानी पावर गुजरात के कच्छ इलाके में 10000 मेगावाट थर्मल पावर प्लांट लगाने की योजना बना रहा है और अडानी पावर की, इस विद्युत उत्पादन की एक भारी मात्रा को पाकिस्तान को निर्यात करने की योजना है। यह कंपनी (अडानी पावर) 8.7 बिलियन डालर के अडानी ग्रुप का हिस्सा है। यह कंपनी अपने 8520 मेगावाट की उत्पादन क्षमता के साथ देश में थर्मल पावर उत्पादन के क्षेत्र में निजि क्षेत्र की प्रतिनिधि कंपनी है। इस वित्तीय वर्ष में पावर ग्रुप की योजना, विद्युत उत्पादन की क्षमता को 10,000 मेगावाट से अधिक बढ़ाने की है।

बीजेपीके पीएम उम्मीदवार मोदी के, पाकिस्तान के खिलाफ नफरत भरे बयानों में सुर में सुर मिलाते हुए मीडिया ने भी ‘देहाती औरत’ वाले नवाज शरीफ के बयान को भारत का ‘सबसे बड़ा अपमान’ बताते हुए चेतावनी दी थी कि ‘देश इसे बर्दाश्त नहीं करेगा’.मोदी ने यह भी कहा था "जो भारतीय पत्रकार हमारे देश के पीएम के अपमान के वक्त नवाज शरीफ की बांटी मिठाई खा रहे थे,देश को उनसे मिठाई को लात मारने की उम्मीद थी। वे मेरे देशवासियों के प्रति जवाबदेह हैं, देश का अपना स्वाभिमान और गरिमा है।"

नरेन्द्रमोदी के साक्षात्कार करने के बाद टाइम्स नाव के मुख्य संपादक अर्नब गोस्वामी से नरेन्द्र मोदी के पाकिस्तान के बारे में विचारों के बारे में बात करने पर उन्होंने कहा-
पाकिस्तान पर, नरेंद्र मोदी पूरी तरह स्पष्ट हैं। उन्होंने एक आन रिकार्ड बयान दिया है कि यदि आतंकवाद जारी रहता है तो कोई भी बातचीत नहीं की जानी चाहिए। पहले यह चर्चा थी कि वे अपना रवैया कुछ नर्म करते हुए बीच का रास्ता अपना रहे थे। लेकिन टाइम्स नाव के साथ अपने इंटरव्यू में वे अपने रूख के बारे में बिल्कुल स्पष्ट थे। जैसा मैंने कहा कि यह आन रिकार्ड इंटरव्यू था और मरे हिसाब से यूपीए के पाकिस्तान के बारे में रवैये के बनिस्बत यह काफी अलग रवैया होगा।
भारतीयसैनिकों के गला काटने वालों से तत्कालीन सरकार के वार्ता करने के कदम की आलोचना करते हुए मोदी ने अर्नब गोस्वामी को दिए एक साक्षात्कार में कहा "बम, बंदूक और पिस्तौल की आवाज में बातें सुनाई दे सकती हैं क्या?" अब जब मोदी ने चुनावों में बहुमत पा लिया है, उनके रवैये में जबरदस्त यू-टर्न आया है और कोई भी असल वजहों के बारे में बात नहीं कर रहा है। आज मीडिया आपको वे सारी क्लिपिंग्स नहीं दिखाएगा। बजाय इसके अब मीडिया मोदी के इस कदम को रिजनल इंगेजमेंट की निति की दिशा में भावी प्रधानमंत्री के एक ठोस कदम के तौर पर दर्शाने की कोशिश में व्यस्त है।

अडानीपावर ने यूपीए 2 के साथ भी अपने कच्छ प्रोजेक्ट पर चर्चा की थी लेकिन वहां ज्यादा बात नहीं बन सकी। अब कंपनी आने वाली एनडीए सरकार से इस प्रपोजल पर कार्रवाई की उम्मीद कर रही है। कोयला आधारित इस परियोजना की शुरूआत 3300 मेगावाट से करके फिर इसे अगले 5 सालों में बढ़ा कर 10000 मेगावाट किया जाना है।

सूत्रोंके अनुसार इस परियोजना में शुरूआती खर्च 13000 करोड़ रूपये का होगा और परियोजना को 10000 मेगावाट तक बढ़ाने में यह खर्च 40000 करोड़ हो जाएगा। यह परियोजना अडानी पावर की सहयोगी 'कच्छ पावर जनरेन कंपनी लिमिटेड'के संभावित नाम से शुरू होगी।केपीजीसीएल उत्पादन, निकासी और ट्रांसमिशन के लिए जवाबदेह होगी. सूत्रों के मुताबिक कच्छ के भद्रेश्वर में कंपनी के लिए जमीन का अधिग्रहण होना है  इस 31 मार्च 2014 को खत्म हुए चौथे तिमाही में अडानी पावर का कुल मुनाफा 2529 दर्ज किया गया जो कि पिछले वित्तीय वर्ष के तिमाही में उसे हुए 585.52 करोड़ के कुल नुकसान के विपरीत था। कंपनी के एक बयान के अनुसार वित्तीय वर्ष 14 में समेकित एबिटा में 4859 करोड़ की बढ़ोत्तरी ​हुई जो कि 322 प्रतिशत की वृद्धि है।

पिछलेहफ्ते राजस्व-आसूचना निदेशालय डीआरआइ ने अडानी ग्रुप पर कैपिटल इक्विपमेंट इंपोर्ट के अधिक मूल्यांकन के लिए 5500 करोड़ का शो कॉज नोटिस दिया था। इसके अलवा फर्म ने पिछले हफ्ते ही उड़ीसा में धर्मा पोर्ट के खरीद की घोषणा की।

जो कुछ भी मोदी ने 'कहा' वह अपने वोट बैंक को लुभाने के लिए था। और जो कुछ भी मोदी 'कर' रहे ​हैं वह कॉरपोरेट के फायदे और हमारे देश के प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए कर रहे हैं। ब्लूमबर्ग की रिपोर्ट के अनुसार इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि मुकेश अंबानी ने 13 सितंबर 2013 को मोदी के बीजेपी पीएम उम्मीदवार बनने से उनके भाग्य पर 6 अरब डालर का निवेश किया है। गौतम अडानी की पूंजी 13 सितंबर के बाद 1.9 अरब डालर से चौगुनी होकर 7.6 अरब डालर हो गई है। यह इजाफा एक ऐसे देश में 2.5 करोड़ प्रतिदिन है जहां 80 करोड़ लोग प्रतिदिन 2 डालर से भी कम में अपना जीवन यापन कर रहे हैं। सच है अच्छे दिन वाकई आ गए हैं.... पर कुछों के लिए. देश के अतिरंजित 'स्वाभिमान के नुकसान' को अगले चुनावों तक अब आराम करना चाहिए

प्रवीन मिश्रा एक्टिविस्ट और लेखक हैं.
डाक्यूमेंट्री फिल्म मेकिंग में भी दखल.

और कितने विस्थापन?

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अविनाश कुमार चंचल 

-अविनाश कुमार चंचल 

"...सिंगरौली में कई सारे पावर प्लाटं और कोयला खदान खुलने के बाद सिर्फ विनाश ही नहीं हुआ, विकास भी हुआ है। स्थानीय लोगों का विनाश, बाहरी जमीन और कोयला माफियाओं का विकास। बड़े-बड़े अधिकारी और पहुंच वाले लोग विस्थापन के लिए प्रस्तावित जमीन को खरीदते हैं और फिर उसे मोटी रकम में कंपनी को बेच देते हैं और असल विस्थापित स्थानीय लोग दर-बदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं। यहां भी वही हुआ है।..."

मीन खान उम्र के पांचवे दशक में पहुंच चुके हैं। 1960 में रिहन्द बाँध से विस्थापित एक परिवार की अगली पीढ़ी के मुखिया। मजदूरी करके अपने परिवार का पेट पालने वाले आमीन खान अब हर रोज मजदूरी करने भी नहीं जा पा रहे हैं। वजह है उनके उपर मंडरा रहा विस्थापन का खतरा। एक बार फिर से विस्थापन का डर। दो बार विस्थापन झेल चुके परिवार के मुखिया आमीन खान का ज्यादातर समय जिला कलेक्टर और थाना के चक्कर काटने में बीत रहा है।

आमीनखान की कहानी शुरू होती है सन् 1960 से। जब देश नेहरुवियन समाजवाद के नाम पर विकास का सफर शुरू करने वाला था। सिंगरौली-सोनभद्र इलाके में भी इस विकास की नींव डाली गयी- रिहन्द बाँध के नाम पर। लोग बताते हैं कि तब नेहरु ने यहां के स्थानीय लोगों से अपील की थी कि वे देश के विकास के लिए अपनी जमीन और घर दें। बदले में इस पूरे इलाके को स्वीजरलैंड की तरह बनाया जाएगा। स्थानीय लोगों ने तो अपनी जमीन देकर देशभक्ति का नमूना पेश कर दिया लेकिन बदले में इस जगह को नेहरु स्वीजरलैंड बनाना भूल गए। बाद में चलकर परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी कि लोगों के सपने में भी गलती से स्वीजरलैंड आना बंद हो गया।

तो 1960 में अपनी जमीन देश के विकास के लिए सौंपने वालों में मोहब्बत खान भी थे। आमीन खान के अब्बू। अपनी खेती की जमीन और घर छोड़कर पूरा परिवार दूसरे गांव वालों के साथ शाहपुर गांव पहुंच गए। यहां भी किसी तरह मजदूरी-किसानी करके लोगों का खर्च चलता रहा। रिहन्द बांध का कुछ हिस्सा जब पानी से उपर आता तो वहां खेती भी हो जाती।

उसजमाने में इस इलाके में जंगल भी खूब थे। आमीन बताते हैं कि, 'महुआ, तेंदू, लकड़ी,  किसानी, गेंहू, धान, चना, मसूर उपजाते, भेड़-बकरी चराते थे और घर का पेट पलता था'

लेकिननब्बे के दशक में सिंगरौली में विन्ध्याचल सुपर थर्मल पावर प्रोजेक्ट (NTPC)विन्ध्यनगर ने दस्तक दिया। पावर प्लांट आया तो उसके एश पॉंड के लिए शाहपुर को चुना गया। आमीन खान का परिवार एक बार फिर विस्थापित होने को मजबूर हुआ।

1999का साल था। विस्थापित आमीन खान को न तो कुँआ का मुआवजा मिला और न ही पेड़ों का। घर का मुआवजा मिला तो सिर्फ 7,153 रुपये। जब भी लोगों ने अपना हक मांगा तो नियमों का हवाला देकर चुप करा दिया गया।

आमीनबोलते हैं,
'जब लोगों ने घर नहीं देने की जिद की तो पुलिस-प्रशासन हमलोगों को डरा-धमका कर घर खाली करवा दिया'

इतिहास फिर से लौटा, विस्थापन का डर भी

शाहपुरसे विस्थापित होकर आमीन खान बलियरी में आकर बस गए। बलियरी वो गाँव है जहां फिर से एनटीपीसी ने एश पॉण्ड बनाने का काम शुरू किया है। मतलब एक बार फिर से आमीन खान जैसे लोगों के लिए विस्थापन का खतरा। फिर से पुलिस ने डराने का काम शुरू कर दिया है। फिर से वही नियमों का हवाला देकर तहसीलदार सिंगरौली ने आमीन खान को नोटिस भेजा है- मध्यप्रदेश भू. राजस्व संहिता 1959 की धारा 248 के तहत घर खाली करवाने की धमकी और साथ में दरोगा को मामले पर कानूनी कार्यवायी करने का फरमान।

कई बार ऐसा होता है जब आमीन खान को दरोगा साहब पूरे परिवार के साथ थाने में बुलाते हैं और दिन भर बैठा कर फिर उन्हें वापस भेज दिया जाता है। आमीन निराश हैं। बेहद। कहते हैं,
'कई बार खुद एनटीपीसी के अधिकारी बीआर डांगे ने धमकी दिया है। जेल में डाल देगा नहीं तो घर पर बुलडोजर करवा देगा'

मुआवजे की हेराफेरी

सिंगरौलीमें कई सारे पावर प्लाटं और कोयला खदान खुलने के बाद सिर्फ विनाश ही नहीं हुआ, विकास भी हुआ है। स्थानीय लोगों का विनाश, बाहरी जमीन और कोयला माफियाओं का विकास। बड़े-बड़े अधिकारी और पहुंच वाले लोग विस्थापन के लिए प्रस्तावित जमीन को खरीदते हैं और फिर उसे मोटी रकम में कंपनी को बेच देते हैं और असल विस्थापित स्थानीय लोग दर-बदर भटकने को मजबूर हो जाते हैं। यहां भी वही हुआ है। आमीन आरोप लगाते हैं, 'कई सारे एनटीपीसी के अधिकारियों ने पहले से ही जमीन की रजिस्ट्री अपने नाम करवा लिया और मुआवजा पा रहे हैं। कई सारे ऐसे लोगों का नाम भी विस्थापितों में है जो 200 किलोमीटर दूर रीवा जिले के रहने वाले हैं'

और रहस्यमय बिमारियां...

सिंगरौलीके पावर प्लांट ने भले देश के शहरों को रौशन किया है लेकिन यहां के लोगों के हिस्से सिर्फ रहस्यमयी बिमारियों के सिवा और कुछ नहीं। आमीन को 5 लड़के और 2 लड़कियां हैं। वे कहते हैं, 'पता नहीं, पिछले कई सालों से तीन बच्चों को पेट में दर्द रहता है और तेज बुखार आता है। डॉक्टर भी बिमारी का पता नहीं लगा पाते। शाहपुर में एनटीपीसी ने एक अस्पताल खोला था वो भी बंद कर दिया गया'

फिलहालआमीन खान बच्चियों की शादी को लेकर चिंतित हैं, एक अदद छत की चिंता भी है और इन सबसे ज्यादा चिंता भूख की, कुछ रोटियों की भी।

अविनाश युवा पत्रकार हैं. 
पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
ग्रीन पीस के साथ काम और स्वतंत्र लेखन. 
इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.

मोदी सरकारः कैसा चेहरा, कैसी शुरुआत?

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सत्येन्द्र रंजन
-सत्येन्द्र रंजन 

नरेंद्र मोदी सरकार कैसी है, यह साफ होने में एक हफ्ते का वक्त भी नहीं लगा। नई सरकार को शपथ लिए एक सप्ताह सोमवार को पूरा होगा। इस बीच उसके स्वच्छ प्रशासन के दावे, सामाजिक चरित्र और वैचारिक रुझान को स्पष्ट करने वाले कई उदाहरण सामने हैं। भारतीय जनता पार्टी 2014 के जनादेश को किस रूप में समझा, यह भी जाहिर हो चुका है। इसके बावजूद अगर कुछ लोग मानते हों कि हालिया जनादेश आर्थिक विकास के लिए था, तो उनकी समझ उन्हें मुबारक हो! 

इसजनादेश के पीछे मुख्य शक्ति के रूप में जिस कथितApparitional (ऊंची आकांक्षाओं वाले) वर्ग की कल्पना की गई उसकी सच्चाई भी अब धीरे-धीरे सामने आ रही है। तो उदाहरणों और तथ्यों से बात आगे बढ़ाते हैँ।


साभार - www.cartoonistsatish.blogspot.in/
- डिग्री और योग्यता को जोड़ने की समझ निराधार और अभिजात्यवादी है। इसलिए यह मुद्दा अप्रसांगिक है कि मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी कहां तक पढ़ी-लिखी हैं। लेकिन इस सवाल को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि (जैसाकि आरोप है) कि उन्होंने 2004 और 2014 के चुनावों में भरे अपने पर्चों में अपनी शैक्षिक योग्यता अलग-अलग बताई।क्या यह जनता को गुमराह करना नहीं है?वैसे यह संभवतः गैर-कानूनी भी है औऱ यह मामलादिल्ली विश्वविद्यालय के उनका ऐडमिट कार्ड लीक करने वाले कर्मचारियोंको सस्पेंडकरने से दफन होने वाला नहीं है। 

- नरेंद्र मोदी ने राव इंदरजीत सिंह को मंत्री बनाया। ये वही इंदरजीत सिंह है, जो मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री थे। उन पर भाजपा नेता किरिट सोमैया ने (जो अब भाजपा सांसद हैं) ने भ्रष्टाचार के आरोपलगाए थे। सोमैया अब चुप क्योंहैं?भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करते हुए सत्ता मे आए मोदी ने इन्हें अपनी टीम में क्यों चुना?
-कुछ रोज पहले सुब्रह्मण्यम स्वामी की शिकायत पर ये सामने आया था कि प्रियंका गांधी और कार्ति चिदंबरम (पी चिदंबरम के बेटे) के पास दो डायरेक्टर आइडेन्टीफिकेशन नंबर (DIN) हैं। किसी कंपनी में डायरेक्टर बनने पर यह नंबर लेना पड़ता है, ताकि यह मालूम रहे कि कोई व्यक्ति कितनी कंपनियों में डायरेक्टर है। ऐसा नियम कंपनी फ्रॉड से बचने के लिए बनाया गया। इसके उल्लंघन की सजा जुर्माना और जेल दोनों है। प्रियंका गांधी ने दोष मानते हुए जुर्माना देने की पेशकश की थी। तब स्वामी ने इसे अपनी बड़ी जीत बताया था। लेकिन अब सामने आया है कि मोदी सरकार में मंत्री बने पीयूष गोयल के पास भी दो दिन हैं। यानी कानून का उल्लंघन करने वाला व्यक्तिअब मंत्री है। स्वामी ये मामला नहीं उठाएंगे। लेकिन क्या ऐसे व्यक्ति को देश का मंत्री रहना चाहिए?

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एक संदेह ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे की डिग्री को लेकर भी उठा है। उनके बारे में आरोप है कि उनके पास 1978 में बने कॉलेज से 1976 में पास होनेकी डिग्री है। क्या इस आरोप पर केंद्रीय मंत्री को स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए?वैसे याद कर लें कि इन्हीं मुंडे ने पिछले साल जुलाई में यह कह कर हलचल मचा दी थी कि 2009 के आम चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपए खर्च किए। (हालांकि बाद में वे इस बयान से पलट गए)।

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अब एक नजर मुकुल रोहतगी के रिकॉर्ड पर जिन्हें मोदी सरकार ने अपना अटार्नी जनरल बनाया है। उनके बारे में वेबसाइट ट्रूथ ऑफ गुजरात ने यह टिप्पणी की है- CBI lawyer in Sohrabuddin encounter case replaced. Public Prosecutor in Sadiq Jamal encounter quits. Accused police officers GL Singhal and Dinesh MN reinstated! Abhay Chudasama and Rajkumar Pandian waiting for their turn. Advocate who successfully defended Gujarat government in riot cases and fake encounter cases, Mukul Rohatgi appointed Attorney General of India.

सामाजिक चरित्र

-नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान अपने पिछड़ी जाति से आने की चर्चा बार-बार की। घोषणा की कि अगला दशक दलित-पिछड़ों का होगा। लेकिन उन्होंने जो सरकार बनाई उसमें किसका दबदबा है? 46 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में उत्तर भारत की सवर्ण जातियों ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, वैश्य, दक्षिण भारत की लिंगायत और वोक्कालिगा जैसी दबंग जातियों और महाराष्ट्र में दबदबा रखने वाले मराठों को मिला कर 20 मंत्री हैं। ओबीसी के 13 मंत्री हैं, आदिवासी छह और दलित सिर्फ तीन हैं। मुस्लिम के नाम पर अकेली नजमा हेपतुल्ला हैं, जो मुसमानों को अल्पसंख्यक मानती ही नहींहैं। बहरहाल, जब भाजपा और संघ परिवार में हालिया जनादेश के बारे में यही समझ बनी है कि उसकी जीत बिना मुसलमानों का वोट पाए संभव हुई और इसकी पृष्ठभूमि सवर्ण जातियों ने बनाई तो यह उदाहरण अकारण नहीं है।

वैचारिक रुझान

-प्रधानमंत्री बनने से नरेंद्र मोदी ने राजघाट जाकर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी। 28 मई को उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को उनके जन्म दिन पर श्रद्धांजलि दी। मोदी सावरकर को श्रद्धांजलि दें, इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। जब उन्होंने पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) की वेबसाइट पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने संबंध पर गर्व व्यक्त किया है औरइस संगठन की प्रशंसाकी है, तो इसके वैचारिक प्रेरणा-स्रोत सावरकर को श्रद्धांजलि देना उचित ही है। संघ ने ताजा जनादेश को अपने अपनी विचारधारा की जीत माना है, और मोदी भी ऐसा ही मानते होंगे, तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। मगर अस्वाभाविक बात यह है कि इसके साथ ही वे गांधीजी को भी श्रद्धांजलि देँ।सावरकर गांधी हत्याकांड में संदेह के घेरे में आए थे। नाथूराम गोडसे उनसे प्रेरणा लेता था। उनका गोडसे के साथ संपर्कथा। क्या गांधी और गोडसे दोनों के लिए एक साथ सम्मान भाव रखना संभव है?

-ऐसा मुमकिन नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि मंत्रिमंडल के गठन से जो स्वरूप नई सरकार का उभरा है, उसे भाजपा खुल कर कहे। गांधी और सावकर (या गोडसे) की विचारधारा में समन्वय नहीं हो सकता। इन दोनों विचारों का संघर्ष तकरीबन 9 दशकों से जारी है। आज वक्त यह तय करने का है इसमें कौऩ कहां खड़ा है?

- बेहतर यह होगा कि नई सरकार बनने के बाद उसकी प्रशंसा के तर्क गढ़ कर उसमें अपने लिए जगह की तलाश कर रहे बुद्धिजीवी यह भ्रम बनाने की कोशिश ना करें कि हाल के चुनाव में हिंदुत्व विचारधारा की जीत नहीं हुई है। इस चुनाव में जाति-संप्रदाय या सामाजिक आर्थिक विभाजन रेखाएं खत्म नहींहुईं। बल्कि वे और स्पष्ट हुई हैं। भाजपा की सफलता यह है कि वह इन विभाजन रेखाओं के दूसरी तरफ के लोगों को भी विकास का सपना दिखा कर अपने खेमे में खींचने में सफल रही। लेकिन यही तो सांप्रदायिक राजनीति की रणनीति है। मुख और मुखौटे का फर्क रखते हुए बहुमत निर्माण की ये रणनीति नई नहीं है, लेकिन इस बार इसे अभूतपूर्व सफलता मिली। चुनाव प्रणाली के दोष की वजह से एक तिहाई से कुछ अधिक वोट पाकर ही ये विचारधारा निर्णायक जीत पाने में सफल रही है।

-  लेकिन यह स्पष्ट है कि इस घटना को सामाजिक और आर्थिक प्रति-क्रांति के रूप में ही देखा जा सकता है। 19वीं और 20वीं सदी में सामाजिक न्याय और आर्थिक समता के पक्ष में जो मूल्य विकसित हुए यह उसका प्रतिवाद है। यह प्रतिगामी सरकार है। जिन प्रगतिशील शक्तियों और व्यक्तियों को के खतरे समझ में आते हैं, उनके लिए यह वक्त लंबे संघर्ष की रणनीति बनाने का है।


(ऊपर जिन खास प्रसंगों का जिक्र है, उनके विस्तार में जाने के लिए हाइपर लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।)

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

कभी सोचा है दूर देश के परिंदे हमेशा साथ क्यूं रहते हैं?

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अंकित फ्रांसिस
-अंकित फ्रांसिस

"...फिल्मअच्छी है तो है लेकिन कहीं-कहीं बेहद कमज़ोर है. जैसे डायरेक्शन पर बात की जाए तो एक दृश्य में राजकुमार राव मजदूरी (मतलब सीमेंट के बोरा ढोने जैसी) कर खांसते हुए लौटते हैं और जब वे शर्ट उतारते हैं तो उनका बनियान सफेदी की चमकार के साथ बाहर आता है. मेरी समझ से तो बाहर यह भी है कि कैसे रोज़ कई किलोमीटर साइकिल चलाने वाला व्यक्ति एक दिन मजदूरी करने से हांफ जाता है? खैर यहां साफ़ हो जाता है कि शहरी किस्म के नज़रिए से बचना बेहद ज़रूरी होता है खासकर जब मजदूरी और गरीबी से जुड़े किसी दृश्य को दिखाया जाना हो…"

http://i1.wp.com/boxofficecollection.in/wp-content/uploads/2014/05/citylights-movie-poster.jpg?resize=640%2C360येपरिंदे बड़ी दूर से उड़कर यहां पहुंचते हैं और जानते हो ये हमेशा साथ-साथ क्यूं रहते हैं..ताकि यह शहर इन्हें अकेला समझकर निगल ना जाए. बिहारी है, नेपाली है, पहाड़ी है, चाइनीज़ है, मद्रासी है..इन सब सवालनुमा पहचानों का जवाब यह फिल्म स्पष्ट तौर पर नहीं लेकिन टुकड़ों में देती है. यह पहचान आपको दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों के कोनों में सिमटी मिल जायेगी. दिल्ली में तो इन नामों के मोहल्ले और सोसायटी भी इजाद हो चुकी हैं. फिल्म मूलतः उसी सपने का पीछा करती है जो 90 के दशक ने हमें उधार दिया है. फिल्म उसी सपने की सच्चाई को दिखाने का दावा करती नज़र आती है लेकिन यह दावा इतनी आसानी से मान लेना संभव नज़र नहीं आता खासकर अगर आप फिम के अंत पर गौर फरमाए. 
 

दरअसलसिटीलाइट्स जैसी फिल्मों से हिंदी फिल्म जगत भरा पड़ा है. गांव से शहर पहुंचा नायक और उसकी कुल जमापूंजी (चाहे वो भावनात्मक हो या अर्थ के रूप में) को लूटता कोई दैत्य शहर. इसमें कुछ भी झूठ नहीं है. इस तरह की फिल्मों पर कई तरह के सवाल किए जा सकते हैं मसलन 'अपनों'के बीच में सुरक्षित समझने का भाव जो शहर के कोनों को आबाद करता है यह तो गांव के कई जाति आधारित टोलों को भी आबाद करता ही है. यहां टीवी से उपजे गांव की बात नहीं की जा रही है जिसे शहरों ने अक्सर दिल बहलाने के लिए देखा है. यह वह गांव है जहां जन्संख्याँ बढ़ते जाने से आज भी टोले भले ही ख़त्म हो रहे हों लेकिन पंचायती चौपालें तक जाति-धर्म आधारित हैं. फिल्म बिना शक एक कमज़ोर कहानी है. वही एक लंबे अरसे से शहर आया गांव का एक युवक जो लुटता है, रोता है, सीखता है, आदर्शों को लेकर दृढ़ता दिखाते हुए चोरी के लिए राजी होता है और उसी दौरान मारा जाता है लेकिन आखिर में सब खोकर पा लेने जैसा बेबुनियादी और चालकी से भरा फिल्मी प्रसंग. हिंदी सिनेमा की जानी-मानी होप जो आपको अगली हिंदी फिल्म तक ले जायेगी..बहरहाल..

'शाहिद'जैसी फिल्म बनाने वाले हंसल मेहता की इस फिल्म की कई चीज़ों पर कई सारी बातें की जा सकतीं हैं. यह फिल्म घोषित तौर पर अमेरिकी-फिलीपिन फिल्म ‘मेट्रो मनीला’ की हिंदी रीमेक है. फिल्म दीपक (राज कुमार राव) उसकी पत्नी राखी (पत्रलेखा)और राव के दोस्त और सहकर्मी विष्णु (मानव कौल) की कहानी है. राजस्थान के रहनेवाले दीपक और राखी अपनी गरीबी मिटाने के लिए मुंबई आते हैं. यहां गरीबी के चलते राखी को बार डांसर का काम करना पड़ता है और दीपक एक सिक्योरिटी एजेंसी में काम करता है. फिल्म का संगीत अच्छा है, गाने भी सुने जा सकते हैं. अदाकारी के मामले में राजकुमार राव अपने पिछले सभी किरदारों पर इक्कीस ही हैं. मानव कॉल इतना सहज नज़र आते हैं कि उनकी एक्टिंग देखना सुखद लगता है. पत्रलेखा के एक्सप्रेशन देखकर आप उनके अच्छे भविष्य की कामना करने को मजबूर होंगे. 

फिल्मअच्छी है तो है लेकिन कहीं-कहीं बेहद कमज़ोर है. जैसे डायरेक्शन पर बात की जाए तो एक दृश्य में राजकुमार राव मजदूरी (मतलब सीमेंट के बोरा ढोने जैसी) कर खांसते हुए लौटते हैं और जब वे शर्ट उतारते हैं तो उनका बनियान सफेदी की चमकार के साथ बाहर आता है. मेरी समझ से तो बाहर यह भी है कि कैसे रोज़ कई किलोमीटर साइकिल चलाने वाला व्यक्ति एक दिन मजदूरी करने से हांफ जाता है? खैर यहां साफ़ हो जाता है कि शहरी किस्म के नज़रिए से बचना बेहद ज़रूरी होता है खासकर जब मजदूरी और गरीबी से जुड़े किसी दृश्य को दिखाया जाना हो. फिल्म आपको अपने नज़दीक महसूस होगी अगर आप किसी छोटे शहर/गांव से किसी मैट्रो शहर आएं हैं और पढ़ लिख कर नौकरी कर रहे हैं भले ही प्राइवेट या छोटी-मोटी लेकिन जिनकी कहानी यह फिल्म दिखाने की कोशिश कर रही हैं वहां यह पूरी तरह असफल और नासमझ नज़र आती है. फिल्म मध्यवर्गीय किस्म के संघर्षों के बने बनाए नज़रिए से माइग्रेटेड मजदूर की कहानी दिखाने लगती है. कोई शक नहीं कि फिल्म संघर्ष ही दिखा रही है लेकिन यहां पूरी दिक्कत सिर्फ प्वाइंट ऑफ़ व्यू की नज़र आती है.

कई बार गरीबी देखना-दिखाना भी फिल्म बनाने वाले के किसी पर्सनल नोस्टेल्जिया से ग्रसित हो जाता है. हो सकता है मेरी यह बात सिर्फ एक शक हो..सिर्फ एक बेबुनियाद किस्म का शक. फिल्म उन्हें ज़रूर देखनी चाहिए जो ज़मीन के किसी टुकड़े को पूंजी आधारित शासन में ज्यादा अहमियत दिए जाने से उपजे असमान विकास पर रीझ कर उसी ज़मीन के किसी दूसरे टुकड़े से रोटी तलाशते आए लोगों को सवालियां नज़रों से घूरते हैं. उन लोगों को भी देखनी चाहिए जिन्हें लगता है कि छोटे शहरों से हर रोज महानगरों में रोजी-रोटी की चाह में आने वालों की वजह से उनके शहर का तथाकथित विकास रुक रहा है. इतनी सारी बातों के बाद आखिर में इतना ही की हंसल मेहता प्रभाव फिल्म में है चाहे हज़ार कमियां हों और फिल्म देखी जानी चाहिए..
 
 
अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल। 
इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है।
 

दिल्‍ली का जल संकट और लोगों को जेल

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सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"…दिल्लीजल बोर्ड का दावा है कि उसके पास प्रति व्यक्ति 225 लीटर पानी प्रतिदिन उपलब्ध है तो इन बस्ती वालों को पानी क्यों नहीं दिया जा रहा है? रईस ईलाकों में 450 लीटर प्रति व्यक्ति पानी और आधी आबादी को 50 लीटर प्रतिव्यक्ति पानी क्यों? प्रकृति से मुफ्त में मिले पानी का व्यापार क्यों किया जा रहा है? पानी मफियाओं पर जल बोर्ड कार्रवाई क्यों नही कर रहा है?…"

http://media.newindianexpress.com/APTOPIX-India-Water-S_Siva.jpg/2013/05/24/article1604047.ece/alternates/w620/APTOPIX%20India%20Water%20S_Siva.jpgपानी को लेकर बोलीविया में क्रांति हुई तो भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री बाजपेयी ने कहा कि तृतीय विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा। दक्षिण अफ्रीका, कोलम्बिया में पानी के लिए सफल संघर्ष हुए हैं। इटली में जून 2011 में पानी के निजीकरण को जनमत संग्रह के द्वारा खरिज कर दिया गया। भारत के छत्तीसगढ़ में ‘श्योनाथ नदी’ को ही बेच दिया गया। जनता के विरोध के कारण सरकार को फैसला वापस लेना पड़ा। म.प्र. में महिलाओं ने पानी के लिए 40 दिन सामूहिक श्रमदान करके चट्टानों को तोड़कर पानी निकाला। दिल्ली जैसे शहरों में पानी के लिए लोग आपस में लड़ कर तो कभी टैंकर के नीचे कुचलकर मर जाते हैं। जिस इलाके में पानी सप्लाई आती भी है वह इतना स्वच्छ होता है कि पीलिया जैसी बीमारियां होती रहती हैं!

दिल्लीसरकार ने पानी के निजीकरण की प्रक्रिया 2005 में शुरू कर दी थी लेकिन विरोध के कारण उसने निजीकरण की प्रक्रिया को एक-एक करके लागू करना शूरू किया। बाद में पीपीपी (पब्लिक प्राइबेट पार्टनरशीप) मॉडल के तहत दिल्ली के तीन इलाके मालवीय नगर, बसंत बिहार, नागलोई में पायलेट प्रोजेक्ट चलाया। ‘वाटर डेमोक्रेसी एण्ड वाटर वर्कर्स एलाइंस ग्रुप’ नागलोई प्लांट में 4,000 करोड़ रु. घोटला होने का अनुमान लगाया है। सोनिया विहार के भागीरथी वॉटर ट्रीटमेंट प्लान्ट में 200 करोड़ का घोटला पकड़ा गया है। पानी जो कि प्रकृति से निःशुल्क मिलता है और जीवन के लिए जरूरी है मुनाफे का एक साधन बन गया है। इसमें भारी मुनाफा कमा रही हैं जिसका एक हिस्सा मंत्री व नौकरशाहों की जेबों में भी जा रहा है।

विश्वस्वास्थ्य संगठन के अनुसार प्रति व्यक्ति को 120 लीटर पानी प्रतिदिन मिलना चाहिए, जबकि दिल्ली जल बोर्ड का दावा है कि वह दिल्ली की जनता को 225 लीटर प्रति व्यक्ति, प्रतिदिन पानी देने में सक्षम है। इसी आधार पर वह पीपीपी मॉडल के द्वारा 24 x 7 पानी पहुंचाने का भी दावा करता है। दिल्ली के अन्दर रइसों के ईलाकों में प्रति व्यक्ति 450 लीटर पानी प्रतिदिन मिलता है, जबकि इस शहर के आधी आबादी को प्रतिदिन 50 लीटर प्रति व्यक्ति ही पानी मिलता है तो कुछ इलाकों में उससे भी कम मिलता है। दिल्ली के कुछ ईलाकों में पाईपलाईन भी नहीं बिछी है, कही बिछी है तो उसमें पानी भी नहीं आता है और उनको निजी टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ता है या कई किलोमीटर दूर जाकर एक-दो गैलन पानी ला पाते हैं। जब इस क्षेत्र के लोग पानी की मांग करते हैं तो प्रशासन द्वारा अनसुनी कर दी जाती है और धरना-प्रदर्शन करने पर पुलिस के द्वारा बर्बर तरीके से हमले किये जाते हैं, झूठे केसों में फंसाया जाता है। ऐसी ही एक घटना पूर्वी दिल्ली के झिलमिल इलाके में हुई है। 
http://static.indianexpress.com/pic/uploadedImages/bigImages/B_Id_387678_water_tank.jpg
झिलमिल इलाके में 30-35 साल पुराने अम्बेडकर कैम्प, सोनिया कैम्प, राजीव कैम्प हैं, इन तीनों कैम्पों में करीब 6000 परिवार रहते हैं। इन बस्तियों में दिल्ली विधानसभा चुनाव से पहले पानी सप्लाई आया करता था। उस समय इन बस्तियों के सप्लाई पास के विवेक विहार जैसी कालोनियों के साथ ही जुड़ा था। दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद इन बस्तियों में पानी आना बंद हो गया, क्योंकि इनके इलाके के पानी सप्लाई को विवेक विहार जैसी कालोनियों से अलग कर दिया गया। इन बस्तियों के लोग कई बार दिल्ली जल बोर्ड ऑफिस, विधायक, निगम पार्षद के पास गये लेकिन इनको झूठा आश्वासन ही मिलता रहा उनकी कॉलोनी में पानी नहीं आया।  लोग दूर-दूर से पानी लाकर काम चलाते रहे। जब दिल्ली की तापमान बढ़ने लगा तो दूसरे इलाकों में भी पानी का संकट होने लगा और 44-45 डिग्री तापमान में बाहर निकल कर पानी लाना भी मुश्किल काम हो गया। तीनों बस्ती के लोग एकजुट हुए और 19 मई को चिंता मणी चौक, जीटी. रोड पर ‘जल ही जीवन है’ के लिए जाम लगा दिया। लोगों की भारी संख्या को देखते हुए अलग-अलग पार्टी के छुट भैय्या नेता भी पहुंच गये। यह खबर जब निगम पार्षद ‘बहन प्रीति’ के पास पहुंची तो वह भी चिंता मणी चौक पहुंची। वह अन्य पार्टी के नेताओं को देखकर पुलिस वालों से कुछ बात करके चली गईं (प्रीति का भाई इस क्षेत्र से भाजपा विधायक है, जबकि प्रीति आप पार्टी से जुड़ी हुई हैं)। उनके जाते ही पुलिस वाले बस्ती वालों पर टूट पड़े, उन्होंने बच्चों और महिलाओं को भी पीटा। बस्ती वालों ने पुलिस के इस रवैए का प्रतिरोध किया जिससे पुलिस की गाड़ी क्षतिग्रस्त हो गई।  पुलिस वालों ने इस प्रतिरोध को नाक का सवाल बना लिया और बस्ती में धड़-पकड़ शुरू हो गई और लोगों को थाने में लाकर बुरी तरह पीटा गया।

सोनियाकैम्प में रहने वाले केशव के पैरों-हाथों में पुलिस की पिटाई का जख्म है। केशव अपनी जनरल स्टोर की दुकान पर थे तो पुलिस आई और फोटो पहचान कराने के लिए उन्हें थाने ले गई। केशव को थाने ले जाकार बुरी तरह पीटा गया। 22 मई को वह 5000 रु. खर्च करके जमानत पर छूट कर घर आया, पुलिस ने उसके दो मोबाईल फोन को भी तोड़ दिए। पानी सप्लाई बंद होने के बाद  से वो दिलशाद गार्डन से पीने के लिए पानी लाते हैं। नहाने, कपड़े धोने के लिए 20-22 लोगों ने मिलकर सम्बरसिवल लगा रखे हैं।

इसबस्ती की रहने वाली रोशन तारा बताती हैं कि जब पानी आना बंद हो गया तो पीने का पानी उनका बेटा सुंदर नगरी से लाता है और घर के काम के लिए उन्होंने सम्बरसिवल लगाया जिसके लिए पुलिस वालों को 3000 रु. देने पड़े।

फूलसिंह राजीव कैम्प में 5-7 साल से चाय की दुकान चलाते हैं पुलिस उनको दुकान से पकड़ कर ले गयी और उनकी पिटाई की जिससे उनका सिर फट गया और वह 5000 रु. खर्च करके जमानत पर 22 मई को जेल से बाहर आये।

सोनियाकैम्प का बालकिशन जो बारहवीं का छात्र है। घटना के दिन वह डॉक्टर के पास गया था बुखार की दवा लेने के लिए उसको भी पुलिस आई और पकड़ कर ले गई। बाल किशन के पिता रामू बताते हैं कि ‘‘राजेश पुलिस वाला आया और उसका स्कूल सर्टिफिकेट मांग कर ले गया कि उसकी उम्र कम है छुड़वा देंगे लेकिन उसको जेल भेज दिया और अभी तक (25 मई, 2014) उसका सार्टिफिकेट भी नहीं लौटाया और वह अभी भी जेल में है।’’

आजादनिर्माण मजदूर है उस दिन बुखार होने के कारण वह काम पर नहीं गया था। वह दवा लेने के लिए डॉक्टर के पास गया था जहां से पुलिस उसे बालकिशन के साथ पकड़ कर ले गयी। मनीष और लालू को पुलिस ने रास्ते से पकड़ लिया जो कि लोनी व संबोली में रहते हैं जिनका इन बस्तियों से कोई सम्पर्क भी नहीं है। यह दोनों जेल में हैं। इसी तरह अभी भी कालीचरण, अनवर व सोविन्दर जेल में बंद है। कई लोगों के ऊपर ‘अनाम’ के नाम से एफआईआर दर्ज है जिसको पुलिस बोलती है कि हम विडियो से उसकी पहचान करेंगे। इस तरह अभी भी इन बस्ती के लोग दहशत में जी रहे हैं कि पुलिस कभी भी किसी को पकड़ कर ले जा सकती है।
 
इससारे घटनाक्रम के बाद नगर निगम पार्षद प्रीति ने एक पर्चा इन बस्तियों में वितरित किया। इस पर्चे का विवरण इस प्रकार है ‘‘आपकी बहन प्रीति भी एक बार इसी प्रकार के प्रदर्शन की शिकार होकर हवालात में रही और दस वर्ष तक केस चला।.... कुछ शैतान लोगों ने सरकारी सम्पत्ति का नुकसान किया, जिससे पुलिस ने हमारे निर्दोष साथियों को शिकार बनाया।’’ यह एक जनप्रतिनिधि के पर्चे की भाषा है जो कि अपने अधिकारों की मांग कर रही जनता को हतोत्साहित करती है।

दिल्लीजल बोर्ड का दावा है कि उसके पास प्रति व्यक्ति 225 लीटर पानी प्रतिदिन उपलब्ध है तो इन बस्ती वालों को पानी क्यों नहीं दिया जा रहा है? रईस ईलाकों में 450 लीटर प्रति व्यक्ति पानी और आधी आबादी को 50 लीटर प्रतिव्यक्ति पानी क्यों? प्रकृति से मुफ्त में मिले पानी का व्यापार क्यों किया जा रहा है? पानी मफियाओं पर जल बोर्ड कार्रवाई क्यों नही कर रहा है? मॉडल टाऊन पुलिस स्टेशन रोड की दूसरी तरफ 100 मीटर की दूरी पर (शक्ति इन्टरप्राइजेज) पानी का बड़े स्तर पर कारोबार होता है, जहां से पुलिस की गाड़ियां भी केन में पानी लेकर जाती हैं। क्या यह जलबोर्ड और पुलिस की सांठ-गांठ नहीं है? क्या इस सांठ-गांठ का मूल्य इन बस्ती वालों को प्यासा रहकर चुकाना पड़ेगा? 

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

इस तहजीब के नुकसान की भरपाई कौन करेगा ?

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जयशंकरबैरागी
-जयशंकरबैरागी

"…औरहां सामने जो भैंस बंधी है उसी के दूध ईद पर आसपास के मुसलमान भाईयों के घर बंटता है जिससे इबाबत के लिए सैवई तैयार होती है। यहां ना 'मोदी के गुजरात का दूध'आता है न मुलायम की बिरादरी वाले यदुवंशी भाइयों का, यहां हमारी भैंस के दूध में ईद की सैवइयां कढ़ती हैं।…" 


'कौन कहवे गंगा-जमुनी तहजीब काशी, इलाहाबाद या लखनऊ की है। झूठे पंडे, पत्रकार अर नेता कहवे ऐसा। भाई एक झूठ सौ बार कह दो तो सच हो जावे। अर ये पंडे पत्रकार औऱ नेता इस बार कू बढ़िया तरीके से जानै। गंगा-जमुनी तहजीब को म्हारे मुजफ्फरनगर- शामली अर बागपत की है।' 80 साल से ज्यादा उम्र के रामफल सिंह ने जब यह बात कही तो बेहद अटपटी लगी। 

शामली की जमीन पर बैठा मैं उनकी बात बड़ी गौर से सुन रहा था। मैं जानता था कि यहां का आदमी कड़वा मगर सपाट बोलता है, लिहाजा उम्मीद थी कि कोई खास बात जरूर सामने आएगी। मुजफ्फरनगर दंगों पर अपनी बात रख रहे रामफल का कहना है कि दंगे देश में कोई नई बात नहीं है लेकिन कहां हो रहे हैं ये बड़ी बात है। जिस मुजफ्फरनगर -शामली में पिछले दिन दंगों हुआ। आजादी के बाद आज तक पहले कभी ऐसी स्थिति की नौबत नहीं आई।

बूढ़े बाबा कहते हैं, 'सियासत ने इस इलाके को जो सांस्कृतिक नुकसान पहुंचाया है उसकी भरपाई शायद अगले बीस-तीस सालों में भी ना हो पाए।'बूढ़े बाबा की बात में दर्शन भी था और गहरी सामाजिक समझ भी लेकिन मैं नहीं समझ पा रहा था कि आखिर वह किस सांस्कृतिक नुकसान की बात कर रहे हैं। आखिरकार मैंने उन्हें टोकते हुए पूछ ही लिया कि किस सांस्कृतिक नुकसान की बात रहे हैं आप। एक वाक्य में बिना किसी देर के उनका जवाब आया, 'दो महजबी भाइयों की गंगा-जमुनी तहजीब के खात्मे का'.

बूढ़े बाबा ने एक तीन चार साल के छोटे से बच्चे की ओर इशारे करते हुए, नितिन को जब भी नजर लग जाती है तो जानते हो इसकी मां क्या करती है? मैं ने कहा, काला टीका लगाती होगी। नहीं, तपाक से बूढ़े आदमी ने कहा, इसकी मां गांव के बीचो बीच बनी मस्जिद के मौलवी रफीकुद्दीन के पास जाती है। वह झूठ ही बच्चों को देखते हुए अपने होठों को कुछ देर तक हिला देता है और बच्चे की मां वापस आ जाती है। और हां यह भी भी जानते हैं कि तंत्र-मंत्र से बच्चा ठीक नहीं होता लेकिन ये एक रिवाज से ज्यादा कुछ नहीं। आप ही देखो एक हिंदू मां को वेद-उपनिषद से ज्यादा भरोसा उस मुस्लिम मौलवी की दुआ पर है जो केवल उसके रिवाद को जिंदा रखते हुए कुछ शब्द उर्दू में कह देता है।

औरहां सामने जो भैंस बंधी है उसी के दूध ईद पर आसपास के मुसलमान भाईयों के घर बंटता है जिससे इबाबत के लिए सैवई तैयार होती है। यहां ना 'मोदी के गुजरात का दूध'आता है न मुलायम की बिरादरी वाले यदुवंशी भाइयों का, यहां हमारी भैंस के दूध में ईद की सैवइयां कढ़ती हैं। जब किसी बीमारी में यह भैंस कम दूध देती है तो यहां के लोगों को लगता है कि इसे नजर लग गई है। नजर से बचाने के लिए देश की माएं अपने लाड़ले को काला टीका लगाती हैं लेकिन यहां काली भैंस को नजर लग जाती है। जब काली भैंस को ही नजर लग जाती है तो लोग गांव के मंदिर पुजारी के पास नहीं जाते। वे फिर अपने सांस्कृतिक रिवाजों की शरण में जाते हैं। लोग गांव के मुस्लिम लौहार के पास जाते हैं जिस पत्थर के जिस छोटे से कुंड में लौहार किसानों के औजारों को धार देता है, उसके पानी के लाकर भैंस के ऊपर झिड़क दिया जाता है। आपको सुनने में बड़ा अजीब लगेगा बेंगलुरु में रहने ईशान के लिए उसकी नानी ने एक धागा भी रफीकुद्दीन से बनबाया ताकि बुरी ताकतें उसके लाड़ले नाती से दूर रहे।

खेती-किसानी से लेकर रिवाजों तक जो लोग हमारी जीवन शैली को हिस्सा हैं। वे ही आज हमारे सबसे बड़े दुश्मन है। ना अब नितिन की मां मौलवी से उसकी नजर उतरवाती है, भैंस को अब नजर नहीं लगती! एक नानी को अब उसके नाती की फिक्र नहीं रही ! खेती बाड़ी के इलाके की तहजीब का जो नुकसान हुआ है, अब बताओं उसकी भरपाई कौन करेगा ?


जयशंकर युवा पत्रकार हैं. दिल्ली में एक दैनिक अखबार में  काम.
इनसे 
newmedia89@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है...
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