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एक ‘क्वीन’ का आज़ाद होना!

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"...फिल्म हमारे समाज में लड़कियों की कुचल दी जाने वाली उन इच्छाओं के समर्थन में खड़ी होती है जिन्हें मोरेलिटी के नाम पर खारिज कर दिया जाता है। आज़ादखयाली और आवारगी से जीने की इच्छा रखने वाली लड़कियां ‘खराब‘ नहीं होती फिल्म ये बात बड़े सहज ढ़ंग से कह जाती है और सबसे अच्छी बात ये कि ये बात कहते हुए ये फिल्म (हालिया आई इम्तियाज अली की फिल्म हाइवे की तरह) कहीं भाषण देती हुई नज़र नहीं आती।..."

दिल्ली में कॉलेज आने जाने वाले लड़कों के बीच एक टर्म बहुत प्रचलित है। ‘बहन जी‘। ‘बहन जी टाइप‘ होना शहरी परिप्रेक्ष में एक लड़की के लिये अच्छा नहीं माना जाता। ‘यूथ‘ की भाषा में कहें तो ‘हैप‘ होना शहर के युवाओं की मुख्यधारा में आने के लिये एक ज़रुरी मानदंड है। इसके उलट परिवार और सगे सम्बन्धियों की परिभाषा में ‘बहन जी टाइप‘ लड़की एक आदर्श लड़की है। फिल्म क्वीन की कहानी में रानी की आयरनी शायद यही थी कि वो ‘हैप‘ नहीं थी। ‘बहन जी टाइप‘ थी।
queen_ver5_xlgहैपलड़की होने के लिये ज़रुरी है कि वो गिटर-पिटर अंग्रेजी में बतिया सके। सलवार सूट जितना हो सके कम पहने और आधुनिक कपड़े जितना हो सके ज्यादा पहने। अमूमन लड़के ऐसी ही लड़कियों को हैप मानते हैं। और अपनी जिन्दगी को हैपनिंग बनाने के लिये वो ऐसी लड़कियों को ‘पटाने‘ का हर नुस्खा आजमाते हैं। ऐसे में ‘प्यार‘ बस ‘किसी और‘ भावना पर चढ़े रैपर की तरह हो जाता है। एक रंगीन रैपर जिसमें बाकी सारी भावनाएं होती हैं बस प्यार कहीं नहीं होता।
रानीदिल्ली में ‘रजोरी’ की रहने वाली एक ऐसी ही ‘बहन जी टाइप‘ लड़की है। जो एक आम मध्यवर्गीय परिवार के नियम कानूनों में खुशी-खुशी बंधी है। या फिर खुशी असल में होती क्या है उसे ये जानने का कभी मौका ही नहीं मिला। पापा की मिठाई की दुकान है। मां हाउज़वाइफ हैं। एक छोटा भाई है। पापा के दोस्त का एक लड़का विजय उसे पसंद करने लगता है। रानी उसे पसंद तो करती है पर कुछ दिन घुमाती है। वो उसे मनाता है। और प्यार परवान चढ़ता है। शादी तय हो जाती है। रानी खुश है। सब कुछ अच्छा चल रहा है। एक आम जिन्दगी। बिल्कुल उस ढ़र्रे पर जिसपर चलते हुए 90 फीसदी भारतीय लड़कियां ‘खुश‘ रहती हैं। हमारे सामंती समाज में उनके हिस्से में जो बची-खुची खुशी है उसी में खुश।
VEKW3AMNQL8DJHZ47PXS1389209485पररानी यहां एक आम भारतीय लड़के की उस सोच का शिकार हो जाती है जिसके हिसाब से एक आदर्श लड़की वही है जो ‘हैप‘ हो पर किसी सार्वजनिक जगह पर खुलकर बात न करे। शादी वगैरह में अपनी मनमर्जी से न नाचे और अपनी शादी में तो ना…. बिल्कुल नहीं। मॉडर्न कपड़े पहने पर बस उसके लिये। उसकी सोच आधुनिक हो पर उस आधुनिकता की परिभाषा को तय लड़का ही करे। मतलब ये कि कहां आधुनिक लगना है कहां नहीं वो लड़का तय करे। अपनी मनमर्जी के एवज़ में अपने तौर तरीकों, रहन-सहन, फैसलों और आजीविका आदि के लिये वो लड़के पर निर्भर हो जाये। एक लाईन में कहें तो ‘शादी‘ नाम के खूंटे में बंधकर वो अपनी आज़ादी लड़के के नाम कर दे। बस।
रानीअब तक इस ‘खुशी‘ को हासिल करने के लिये खुशी खुशी तैयार बैठी है। लेकिन शादी के ठीक दो दिन पहले विजय उसके और अपने लिये बिना उससे पूछे एक फैसला कर लेता है। क्योंकि अब वो विदेश जा चुका है और वहां जाकर ‘बदल‘ गया है और उसे लगता है कि इस बदलाव के साथ रानी ‘एडजस्ट‘ नहीं कर पाएगी। क्योंकि वो अभी ‘वैसी ही‘ (बहन जी टाइप) है। तो ये उसके लिये ही अच्छा है कि वो ये शादी ना करें। और ये बात शादी से ठीक दो दिन पहले कॉफ़ी शॉप में विजय रानी को बताता है। रानी अब तक विजय के साथ अपनी भावी जिन्दगी के हवामहल बनाते हुए काफी आगे निकल आई है। ये हवामहल जब अचानक चकनाचूर हो जाता है तो उसे कुछ समझ नहीं आता कि ये कैसा मज़ाक है। उसे भरोसा नहीं होता कि विजय ऐसा कैसे कर सकता है। लेकिन विजय तो एक लड़का है। वो कुछ भी कर सकता है। एक लड़की के लिये खुद फैसला लेने से लेकर उस फैसले को बिना सलाह मशविरा किये बदल लेने तक। कुछ भी।
रानीकी तो जैसे दुनिया उजड़ गई है। वो इस सच से बाहर नहीं आ पा रही। और इस हालत में वो एक अजीब सा फैसला लेती है। वो queenबिना शादी के, और बिना अपने टल गये पति के, अपने हनीमून पे जाना चाहती है। परिवार वाले उससे प्यार करते हैं उसे सदमे में देखकर वो इस अजीब से फैसले के लिये उसे मना भी नहीं कर पाते। वीज़ा, टिकिट, होटेल सब पहले से तय है। वो कुछ दिनों के लिये अपनी उजड़ गई जिन्दगी से दूर एक अनजान सफर पर निकल जाती है। एक सफर जो उसकी जिन्दगी को पूरी तरह बदल देता है।
अबवो पेरिस में है। अनजान लोगों के देश में। अपने टूटे हुए आत्वविश्वास को बटोरती वो अपने होटेल में पहुंचती है। होटेल जो उसके उस टल गये पति के नाम पर बुक है जिसके बिना वो अपना ही हनीमून मनाने अकेले आई है। अपने भारी सूटकेस को घसीटती वो होटेल के कमरे में पहुंचती है। संकोच इतना कि अपने कमरे की खिड़की का परदा तक खोलने में हिचकिचाहट हो रही है। तभी एक चीख सुनकर वो डरती है। ये एक लड़की के चीखने की आवाज़ है जो दूसरे कमरे से आ रही है। डरते हुए वो बालकनी में पहुचती है जहां एक लड़की है। सिगरेट पीती हुई। जो बालकनी में बैठे हुए सड़क पर जाते उस लड़के को झिड़क रही है जिससे उसने अभी-अभी गेस्टरुम में सेक्स किया है।
Lisa Haydon and Kangana Ranaut in a ‘O Gujariya’ song still from ‘Queen’रानीउस लड़की को देखकर हैरत में है। उसकी नज़र में वो एक ‘गन्दी’ लड़की है जिसे कपड़े तक पहनने का शउर नहीं है। अगले दिन वो लड़की उसके कमरे में आकर रानी से रिक्वेस्ट करती है कि वो होटेल के मैनेजर को ना बताये कि कल रात वो गेस्ट रुम में एक गेस्ट के साथ थी। धीरे-धीरे कुछ और मुलाकातों के बाद रानी विजय लक्ष्मी नाम की उस लड़की को और पास से जानती है। दोनों में अच्छी दोस्ती हो जाती है। वो उसे पेरिस घुमाती है। उस दुनिया से रुबरु कराती है जिसमें बेपरवाही है, मनमर्जी है, उत्सृंखलता है, आवारगी है, वो सब कुछ है जिसे एक मध्यवर्गीय भारतीय समाज से आने वाली रानी ने आज तक कभी अनुभव ही नहीं किया। उसे ये सब अच्छा लग रहा है। वो धीरे धीरे उन अदृश्य सलाखों से आज़ाद हो रही है जो उसके घर-परिवार या होने वाले पति ने उसकी भलाई के नाम पर उसकी इच्छाओं के आगे लगा दी थी। जिन्हें तोड़ने का न उसमें साहस था, न इसका हक उसे दिया गया था। आज जब वो सलाखें टूट रही हैं तो रानी के भीतर की छिपी ‘क्वीन’ भी आज़ाद हो रही है। यहां वो अपनी मनमर्जी से नाच सकती है, घूम सकती है। विजय लक्ष्मी के द्वारा सुझाये गये हौस्टल में तीन अजनबी लड़कों के साथ एक कमरे में रह सकती है। उनसे दोस्ती कर सकती है। एक क्यूट से लगने वाले शैफ के सामने पहले खुद को अच्छे कुक के रुप में साबित कर सकती है और उसे अपनी जिन्दगी का पहला किस कर सकती है।
आधुनिककपड़े पहनकर वो क्वीन जब अपनी फोटो शेयर करती है तो विजय का दिमाग खराब हो जाता है। उसने रानी के अन्दर की इस क्वीन को कभी देखा ही नहीं था। या फिर अनजाने ही उस क्वीन को बाहर निकलने का मौका ही नहीं दिया। अब जब उसे खुद क्वीन हो जाने का मौका मिला है तो ऐसे विजय जिनके लिये उसकी इच्छाएं कहीं मायने ही नहीं रखती थी वो उसकी जूती पर आ जाते हैं। अब वो जान गई है कि किससे उसे दोस्ती करनी है और कौन उसके काबिल नहीं है।
Queen-Hindi-Movieक्वीन पिछले दौर में आई शादी की पृश्ठभूमि पर बनी तमाम फिल्मों में से एकदम ताज़ा और सधी हुई फिल्म है। ‘शुद्ध देसी रोमांस’ या ‘हंसी तो फंसी’ जैसी फिल्में जिस मेच्योरिटी के अभाव में सतही सी हो जाती हैं, क्वीन उस मेच्योरिटी के साथ बनी फिल्म है और इसलिये इन सबसे अलग है। ये फिल्म दरअसल उन छोटे-छोटे लमहों और प्रतीकों के दिल छू लेने वाले फिल्मांकन की वजह से एक बेहतर फिल्म हो जाती है जो आमतौर पर पटकथाओं में नज़रअंदाज़ कर दिये जाते हैं।
विजयसे मिलकर कॉफ़ी शॉप से रोती हुई बाहर आती रानी को देखकर छोटे भाई का विजय को उंगली दिखाना, दादी का होटल के कमरे से निकलकर घूमने फिरने के लिए कहना, एफिल टावर को देखकर रानी को होने वाली वो अजीब सी उलझन, डिस्क में नाचते हुए पिये होने के बावजूद अपने कार्डिगन को अपने बैग में ठूसना, हॉस्टल से निकलते वक्त अपने नये दोस्त के स्वर्गवासी मम्मी-पापा की तस्वीर के बगल में अपने शादी के कार्ड को चस्पा करना, अपने दोस्तों के साथ रौक शो में जाने के लिये रानी का विजय को दूसरे दिन मिलने के लिये कहना, एयरपोर्ट से निकलते हुए रानी के चेहरे पर आया वो गज़ब का आत्मविश्वास, फिल्म में ऐसे कई लमहे हैं जो एक छोटे से दृश्य में बहुत गहरी बातें कह जाते हैं। इन प्रतीकों को पटकथा में जिस सटीक तरीके से पिरोया गया है वो इस फिल्म की खासियत है।
queen 2कंगना रानाउत ने क्वीन के किरदार को एकदम जीवंत बना दिया है। उन्होंने एक बार फिर साबित कर दिया है कि वो एक बेहतरीन अदाकारा हैं। राजकुमार यादव इस फिल्म में अपने किरदार में कुछ नयापन नहीं ला पाये हैं। उनके लिये शायद कहानी में ज्यादा स्कोप था भी नहीं। क्वीन उनकी नहीं कंगना रानाउत की फिल्म थी। लिज़ा हेडन ने भी एक बेपरवाह, आज़ाद खयाल लड़की के अपने किरदार को बखूबी निभाया है। अब तक प्रोड्यूसर के रुप में फिल्म जगत में चर्चित विकास बहल का निर्देशन बहुत सधा हुआ है।
फिल्म हमारे समाज में लड़कियों की कुचल दी जाने वाली उन इच्छाओं के समर्थन में खड़ी होती है जिन्हें मोरेलिटी के नाम पर खारिज कर दिया जाता है। आज़ादखयाली और आवारगी से जीने की इच्छा रखने वाली लड़कियां ‘खराब‘ नहीं होती फिल्म ये बात बड़े सहज ढ़ंग से कह जाती है और सबसे अच्छी बात ये कि ये बात कहते हुए ये फिल्म (हालिया आई इम्तियाज अली की फिल्म हाइवे की तरह) कहीं भाषण देती हुई नज़र नहीं आती।

उमेश'लेखक हैं. कविता-कहानी से लेकर पत्रकारीय लेखन तक विस्तार.
सिनेमा को देखते, सुनते और पढ़ते रहे हैं. 
mshpant@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है. 

दंगों की सिंचाई और वोटों की खेती

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-मोहम्म्द आरिफ

"...सपा
 की बीजेपी के साथ नजदीकियां यहीं ख़त्म नहीं होती हैं। बल्कि बात और आगे तक एक दुसरे के लिए वोट शिफ्ट करने की भी है। जहाँ कहीं भी सपा बीजेपी के प्रत्याशी जीत से दूर होते हैं वहां पर ये एक दुसरे को स्पेस देने का भी काम करते हैं। राजनाथ सिंह के खिलाफ सपा अपने प्रत्याशी नहीं लड़ाती है, तो इसके बदले में कन्नौज में उपचुनाव में बीजेपी ने जानबूझकर अपना प्रत्याशी नहीं घोषित किया। बीजेपी के साथ सपा का इस तरह का समझौता किस आधार पर होता है, अगर उनकी विचारधारा अलग-अलग है ?..."


जैसे जैसे चुनाव नजदीक आ रहे हैं, उत्तर प्रदेश की सियासत और भी गरमाती जा रही है। भारतीय जनता पार्टी, जो पिछले दो लोकसभा चुनावों से सत्ता का वनवास झेल रही है, वापसी के लिए अपने मूल हिन्दुत्ववादी विचारधारा और हिन्दू राष्ट्रवाद (मैं हिन्दू राष्ट्रवादी हूँ -मोदी) के सहारे इस वनवास से निकलने की जी तोड़ कोश्‍िाश कर रही है। इसीलिए संघ के समर्पित कार्यकर्ता और कट्टर छवि वाले नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया गया है। वहीँ दूसरी ओर, समाजवादी पार्टी जो फिलहाल सूबे की हुकूमत पर काबिज़ है, मुसलमानों की मदद से लोकसभा में दिल्ली की कुर्सी तक पहुँचाना चाहती है। मुसलमानों के आपसी मतभेदों को भुलाकर उन्हें अपने साथ लाने के लिए समाजवादी पार्टी भरसक कोशिश कर रही है।

इसपूरे सियासी दांवपेंच में, अल्पसंख्यकों की सहानुभूति जुटाने और खुद को उनका मसीहा साबित करने की पुरजोर कोशिश की जा रही है। पिछले दिनों बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने मुसलमानों से माफ़ी मांगने का प्रस्ताव किया था, इसका उत्तर देते हुए मुलायम सिंह ने पहले क़त्ल कराने और फिर माफ़ी मांगने का आरोप लगाया था। दूसरी ओर, नरेन्द्र मोदी ने मुज़फ्फरनगर में मुसलमानों के क़त्ल का जिम्मेदार सपा को कहा है। समाजवादी पार्टी खुद को सेक्युलर बताती है और खुद को मुसलमानों का सच्चा हमदर्द जताने वाले मुलायम जहाँ बीजेपी को सांप्रदायिक और देश तोड़ने वाली पार्टी बतातें हैं वहीँ सपा का दामन भी दंगों के रंग में रंगा हुआ है। 

सपा के कार्यकाल में अब तक 100 से ज्यादा दंगे हो चुके है, और उन पर मुलायम और उनकी पार्टी के नेताओं के शर्मनाक बयान जगजाहिर हैं। मुज़फ्फरनगर में जाट वोटों की खातिर सपा के लालच का परिणाम वीभत्स दंगे के रूप में सबके सामने है और मोदी ने जो कुछ गुजरात में किया, वही सब कुछ सपा ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में किया है। ऐसा लगता है सपा ने संघ और बीजेपी का एजेंडा यूपी में लागू करने की डील की हुई है। मोदी ने मेहसाना में एक सभा में गुजरात के दंगा पीडि़तों के राहत कैम्पों को बच्चे पैदा करने का डेरा कहा था। उन्होंने मुसलमानों पर अपमानजनक टिप्पणी करते हुए उन्हें 'हम पांच और हमारे पच्चीस'का पैरोकार कहा था। कुछ इसी तरह की बेहूदा और शर्मनाक टिप्पणी समाजवादी नेताओं ने मुज़फ्फरनगर के दंगा पीडि़तों पर करते हुए उन्हें भिखारी और बसपा-कांग्रेस का एजेंट करार दिया था। 

अगरकेवल मुज़फ्फरनगर के सवाल को देखें तो सपा और बीजेपी की नूराकुश्ती को समझा जा सकता है। उत्तर प्रदेश में लगभग 18 प्रतिशत मुस्लिम निर्वाचक हैं लेकिन, निर्णायक वोटों की दृष्टि से ऊपरी दोआबा और रोहेलखंड क्षेत्र अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। इन दोनों क्षेत्रों में मुसलमानाें की टैक्टिकल वोटिंग ही हार जीत तय करती है। चूँकि बीजेपी के लिए यह लोकसभा चुनाव जीवन-मरण का प्रश्न बन चुका है इसलिए पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम और अन्य पिछड़ी, दलित जातियों का गठजोड़ टूटना बीजेपी के लिए आवश्यक है। साथ ही, समाजवादी पार्टी के लिए मुस्लिमाें का एकजुट रहना आवश्यक है। इस कारण वोटों का ध्रुवीकरण करने के लिए सपा और बीजेपी की सांठगांठ को आसानी से समझा जा सकता है। इसे अंजाम देने के लिए संघ ने पुराने तरीके पर ’बहू बेटी बचाओ’ ’लव जिहाद’ जैसे कांसेप्ट को जोर शोर से प्रचारित कर दंगों की ज़मीन तैयार की। 
बीजेपीदंगों के बाद से लगातार सपा हुकूमत पर मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाती रही है जबकि खुद बीजेपी विधायक ठाकुर सुरेश राणा ने  बार-बार कहा है कि बहू-बेटी के सम्मान के लिए 100 बार भी जेल जाने को तैयार हैं। इसी तरह अन्य बीजेपी नेता भी समाजवादी सरकार की छूट का लाभ लेकर खुद को हीरों की तरह पेश करते रहे हैं। इसमें चार क़दम आगे बढ़कर बीजेपी ने मोदी की आगरा रैली में विधायक संगीत सोम और सुरेश राणा का सम्मान किया। अपनी मुस्लिम हितैषी होने के तमाम दावों के बावजूद सपा ने न सिर्फ मुज़फ्फरनगर में मुसलमानों का कत्लेआम होने दिया बल्कि, दंगा पीडि़तों के राहत शिविरों पर बुलडोज़र भी चलवाए।

सपाहुकूमत में अस्थान, कोसी कलां से लेकर मुज़फ्फरनगर तक पूरे प्रदेश को पूर्वनियोजित दंगों में झोंक दिया गया है। मुलायम सिंह ने इलाहाबाद में कहा है कि क्या बीजेपी मुसलमानों को बेवकूफ समझती हैं? वस्तुतः ये सवाल सपा मुखिया को खुद अपने  आप से करना चाहिए कि मुस्लिम वोटों की मदद से सत्ता में आये मुलायम मुस्लिमों को जीवन और संपत्ति की सुरक्षा का अधिकार भी नहीं दे सके हैं, और सौ से ज्यादा दंगों के बाद भी वो किस तरह के सेक्युलर और मुस्लिमों के हमदर्द हैं कि दंगे रुक नहीं रहे हैं?

वास्तवमें समाजवादी पार्टी ने बीजेपी के साथ मिलकर संघ के कारनामों को ही अंजाम देने का काम किया है। संघ से मुलायम की नजदीकी को जुलाई में कारसेवकों पर गोली चलवाने की घटना पर माफ़ी से समझा जा सकता है। ऐसी कौन सी वजह रही कि मुलायम ने 23 साल बाद संघ परिवार से सार्वजानिक रूप से खेद जाहिर किया। इसी क्रम में 84 कोसी परिक्रमा से पूर्व अशोक सिंघल और मुलायम ने मुलाक़ात की, और बाद में दोनों ने बयानी नूराकुश्ती की।

सपाकी बीजेपी के साथ नजदीकियां यहीं ख़त्म नहीं होती हैं। बल्कि बात और आगे तक एक दुसरे के लिए वोट शिफ्ट करने की भी है। जहाँ कहीं भी सपा बीजेपी के प्रत्याशी जीत से दूर होते हैं वहां पर ये एक दुसरे को स्पेस देने का भी काम करते हैं। राजनाथ सिंह के खिलाफ सपा अपने प्रत्याशी नहीं लड़ाती है, तो इसके बदले में कन्नौज में उपचुनाव में बीजेपी ने जानबूझकर अपना प्रत्याशी नहीं घोषित किया। बीजेपी के साथ सपा का इस तरह का समझौता किस आधार पर होता है, अगर उनकी विचारधारा अलग-अलग है ?

मुसलमानोंको विश्वस्त और समझदार बताने वाले मुलायम ने मुस्लिम मतदाताओं के साथ विश्वासघात किया है और बीजेपी के एजेंडे को ही आगे बढाया है। उनके सेक्युलर होने का अर्थ बिलकुल साफ़ है वोटों के बदले सुरक्षा का आश्वासन, जो कि दंगों का डर दिखा कर या गुजरात और मुज़फ्फरनगर की तस्वीर सामने रख कर प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन अब असलियत खुल चुकी है। इस बार प्रदेश से सपा का सूपड़ा साफ होना तय है।

मोहम्म्द आरिफ
मो-9807743675
कमरा नंम्बर-55
मुस्लिम बोर्डिंग हाउस
इलाहाबाद विश्वविद्यालय
इलाहाबाद उत्तर प्रदेश 

बीजेपी का ऊंट अब मुस्‍लिम करवट क्‍यों?

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अनिल यादव
-अनिल यादव

'...बड़े मार्के की बात है कि ‘वी आॅर आवर नेशनहुड डिफाइन’ जिसे संघ के आन्दोलन का वैचारिक घोषणा पत्र समझा जाता है, अपने शीर्षक से ही घोषित करता है कि इसके अन्दर जिस राष्ट्रीयता की बात की गयी है वह ‘हम’ और ‘वे’ में अंतर करती है। जाहिर है कि वह ‘हम’ में भारत में रहने वाले सभी लोग नही हैं। कुछ ‘वे’ भी हैं जो गैर हिन्दू है। ध्यान देने की बात है कि संघ के लोग भौगोलिक राष्ट्रवाद नही बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं। तभी तो मोदी सांस्कृतिक रूप से दूसरे देशों में रहने वाले हिन्दुओं की सुरक्षा की गारण्टी ले रहे हैं। जबकि ‘भौगोलिक राष्ट्रवाद’ के अन्‍तर्गत ‘सुरक्षा की गारण्टी’ मुलसमानों को नही दे रहे हैं।...'

साभार - http://indiaopines.com/
मौलाना मौदूदी का पाकिस्तान को एक इस्लामी राष्ट्र के रूप में देखने का जो सपना था, उसमें पारिवारिक सम्बन्धों, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक मसलों, नागरिक अधिकारों, न्यायपालिका इत्यादि को इस्लामी शरियत के अनुसार डील किए जाने की व्यवस्था थी। उन्होंने नागरिकों की दो श्रेणी बनायी थी। एक मुस्लिम और दूसरे जिम्मी। उन्होंने अपनी किताब 'मीनिंग आॅफ कुरान'में लिखा है कि ‘‘राष्ट्र गैर मुस्लिम को तभी सुरक्षा दे सकता है जब, वे दोयम दर्जे की जिंदगी गुजारने के लिए तैयार हो जायें, और जजिया तथा शरियत के कानून को मानें।

इस संदर्भ को अगर आगे बढ़ाया जाए तो हम पाते हैं कि आज हिन्दुस्तान और पाकिस्तान मौदूदी और गोलवलकर के सपनों का मुल्क बनने की राह पर चल पड़े हैं, अभी हाल ही में नरेन्द्र मोदी ने पूर्वोत्‍तर की एक रैली में कहा था कि पूरी दुनिया में हिन्दुओं पर जहां कहीं अत्याचार होगा, वह भारत ही आयेंगे क्योंकि, उनके लिए भारत अब सुरक्षित होगा। वास्तव में मोदी जिस राजनीति से आते हैं उसका उद्देश्य ही भारत को हिन्दू राष्ट्र में बदलने का है, और मोदी जो आज-कल बोलते हैं उसमें संघ परिवार का हस्तक्षेप होता है। 

19 जनवरी 2014 को सोशल साइटों पर ‘माई आइडिया आॅफ इण्डिया’ के कार्यक्रम के तहत सभी नये स्वयं सेवकों से यह लिखने के लिए कहा गया कि प्रधानमंत्री के तौर पर वह मोदी से क्या चाहते हैं? इन सारे नोट्स को मोदी के भाषणों में शामिल किया जाता है। संघ के लोग नेपाल के धर्म निरपेक्ष घोषित हो जाने के बाद अब भारत को ही ‘हिन्दू राष्ट्र’ के रूप में देखना पसंद करते हैं। आज मोदी भले मीडिया के माध्यम से यह प्रचारित करने में लगे हैं कि उनकी रैली-सभाओं के लिए मुसलमान अपनी जमीन दे रहा है, परन्तु यदि हम इतिहास की गर्त में डुबकी लगाएं तो हकीकत कुछ दूसरी ही है। इतिहास के पास कई ऐसे गवाह हैं जिनका सामना संघ परिवार या भाजपा के लोग नहीं कर सकते हैं। 

इसकाएक नमूना हम ‘आर्गनाइजर’ में प्रकाशित हुए लेख ‘लेट मुहम्मद गो टू द माउण्टेन’ में देख सकते है-‘‘मुसलमान महसूस करते हैं कि स्वतन्त्र भारत में उनके साथ अच्छा सलूक नही किया गया, लेकिन हिन्दू गहरे तौर पर महसूस करता है कि मुसलमानों ने पिछले 1000 वर्षों से उनके साथ बदसलूकी की है। मेरी इच्छा है कि भारतीय मुस्लिम प्रतीकात्मक कदम उठाकर ‘साॅरी’ कहें। इससे देश में एक महान मनोवैज्ञानिक परिवर्तन आएगा (3 जून, 1979, पृष्ठ-7)। यह सारी चीजें सिर्फ इसलिए कि एक समुदाय को अहसास करवाया जाए कि वह दोयम दर्जे का नागरिक है।

संघके लोगों की यह धारणा रही है कि देश के मुसलमानों की वफादारी देश की सीमा-पार के मुल्कों से है। आरएसएस हमेशा आग्रहपूर्वक यह विचार प्रकट करता रहा है कि पाकिस्तान की स्थापना मुसलमानों के देश के रूप में हुई। अतः उन्हें पाकिस्तान चले जाना चाहिए। खुद गोलवलकर ने ‘बंच आॅफ थाॅट्स’ में लिखा है कि देश में ‘अनेक छोटे-छोटे पाकिस्तान’ हैं। बड़े मार्के की बात है कि ‘वी आॅर आवर नेशनहुड डिफाइन’ जिसे संघ के आन्दोलन का वैचारिक घोषणा पत्र समझा जाता है, अपने शीर्षक से ही घोषित करता है कि इसके अन्दर जिस राष्ट्रीयता की बात की गयी है वह ‘हम’ और ‘वे’ में अंतर करती है। जाहिर है कि वह ‘हम’ में भारत में रहने वाले सभी लोग नही हैं। कुछ ‘वे’ भी हैं जो गैर हिन्दू है। ध्यान देने की बात है कि संघ के लोग भौगोलिक राष्ट्रवाद नही बल्कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वकालत करते हैं। तभी तो मोदी सांस्कृतिक रूप से दूसरे देशों में रहने वाले हिन्दुओं की सुरक्षा की गारण्टी ले रहे हैं। जबकि ‘भौगोलिक राष्ट्रवाद’ के अन्‍तर्गत ‘सुरक्षा की गारण्टी’ मुलसमानों को नही दे रहे हैं। गोलवलकर और उनके साथी मुसलमानों को कोई अधिकार नहीं देना चाहते हैं, यही कारण है कि भारत-पाक संघर्ष में उच्चतम देशभक्ति और पराक्रम दिखाने पर जब वीर अब्दुल हमीद और कीलर बंधु को सम्मानित किया गया तो गोलवलकर ने आपत्‍ति की थी। (स्वतन्त्र भारत-दिसम्बर 24, 1965)

साभार - http://1.bp.blogspot.com/
हालांकिकभी-कभी संघ के ही इशारे पर भाजपा के नेता धर्मनिरपेक्षता का ड्रामा भी करते है। यह संघ का पुराना ट्रेंड है। एक दौर में अटल बिहारी इसके सटीक उदाहरण रहे हैं। अटल बिहारी बाजपेयी बतौर विदेश मंत्री व प्रधानमंत्री नेहरू की गुटनिरपेक्ष विदेश नीति पर चले। अरब के देशों से मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित किया। पाकिस्तान की यात्रा पर गये और संघ परिवार ‘उर्दू’ जिसे एक खास तबके की भाषा समझता है में अच्छी-खासी शायरी भी की। यह सारी चीजे संघ परिवार के वैचारिक रूप से प्रतिकूल थीं परन्तु यह भी संघ परिवार के ही रणनीति का एक प्रमुख हिस्सा रहा है। जैसा कि देशराज गोयल ने अपनी किताब ‘राष्ट्रीय स्वयं सेवक’ में लिखा है कि ‘‘आरएसएस से वाजपेयी के अलग होने का सवाल ही पैदा नही होता है। यह पूरी समझदारी के साथ किया जा रहा है। अगर वाजपेयी की कुछ अदाओं से साम्प्रदायिकता का कलंक धुल जाएं तो आरएसएस का क्या नुकसान होगा। (पृष्ठ संख्या-152) अब चुनाव के समय भाजपा के तमाम नेता यही फार्मूला अपना रहे हैं। भाजपा के अध्यक्ष राजनाथ सिंह का माफी मांगना-सिर झुकाना इसी रणनीति का एक हिस्सा है। माफी मांगने से इंसाफ के लिए भटक रहे लोगों के जीवनचर्या में क्या कोई परिवर्तन होगा?

संघकी शाखाओं में एक कहानी बार-बार सुनाई जाती है कि शिवाजी ने अपनी विजय के उपरांत अपना राजमुकुट और राजदण्ड रामदास के चरणों में रख दिया था। रामदास ने उन्हें अपना प्रतिनिधि बनकर शासन करने की आज्ञा दी। हो सकता है कि इससे शिवाजी को शासन करने में मदद मिली हो, परन्तु आरएसएस की दृष्टि से यह उसके और राजनीति के सम्बन्धों का आदर्श है। यानी राजसत्ता को संघ के आगे झुकना चाहिए और उसी की रणनीति के तहत ही काम करना चाहिए। मोदी बार-बार स्वयं को सेवक कहते है। वस्तुतः वह जनता के सेवक नही हैं बल्कि दलित, वंचित, अल्पसंख्यक विरोधी संघ के सेवक हैं। संघ में वैचारिक रूप से ऐसा परिवर्तन कभी नही हो सकता है क्योंकि रूढि़वादी विचार ही उसके अस्तित्व का आधार है। इसलिए राजनाथ की मुसलमानों से माफी केवल एक सियासी नाटक से ज्यादा कुछ नहीं है जिसकी पूरी पटकथा ही आजकल केवल नागपुर से लिखी जा रही है।

अनिल यादव
द्वारा- मोहम्मद शुएब
एडवोकेट
110 / 46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट
लाटूश रोड, नया गांव, ईस्ट लखनऊ, उत्तर प्रदेश

साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज : भगत सिंह

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-भगत सिंह

भगत सिंह


आधुनिक भारतीय राजनीति में सांप्रदायिक दंगों का प्रतीक पुरुष बन चुका व्यक्ति, जब प्रधानमन्त्री पद का प्रबल उम्मीदवार प्रतीत हो रहा है... और साथ ही सेकुलरवाद को नारा बनाने वाले राजनीतिक दल भी दंगा भड़काने में बराबर सिरकत कर रहे हैं... ऐसे त्रासद दौर में आज भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस के मौके पर भगत सिंह के साम्प्रदायिकता पर लिखे एक आलेख को आज हम आपको फिर पढ़ा रहे हैं....
-सं.     

भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है. एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं. अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है. यदि इस बात का अभी यकीन न हो तो लाहौर के ताजा दंगे ही देख लें. किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों,हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है. यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है या सिख है या मुसलमान है. बस किसी व्यक्ति का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों द्वारा मारे जाने के लिए काफी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था. जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है.

ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नजर आता है. इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है. और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे. इन दंगों ने संसार की नजरों में भारत को बदनाम कर दिया है. और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं. कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है,जो अपना दिमाग ठण्डा रखता है, बाकी सब के सब धर्म के यह नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रौब को कायम रखने के लिए डण्डे लाठियाँ, तलवारें-छुरें हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सर-फोड़-फोड़कर मर जाते हैं. बाकी कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं. इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेजी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग का कीड़ा ठिकाने आ जाता है.


यहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अखबारों का हाथ है. इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली. वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्रा कराने का बीड़ा अपने सिरों पर उठाया हुआ था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज्य-स्वराज्य’ के दमगजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बहाव में बह चले हैं. सिर छिपाकर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है? लेकिन ऐसे नेता जो साम्प्रदायिक आन्दोलन में जा मिले हैं, जमीन खोदने से सैकड़ों निकल आते हैं. जो नेता हृदय से सबका भला चाहते हैं, ऐसे बहुत ही कम हैं. और साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे. ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है.

दूसरेसज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, अखबार वाले हैं. पत्रकारिता का व्यवसाय, किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था. आज बहुत ही गन्दा हो गया है. यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर फुटौव्वल करवाते हैं. एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए हैं कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं. ऐसे लेखक बहुत कम है जिनका दिल व दिमाग ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो.

अखबारोंका असली कर्त्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्त्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई-झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है. यही कारण है कि भारतवर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आंखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’

जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है. कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्राता की झलक सामने दिखाई देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्रा बन गया है. बस यही तीसरा लाभ है, जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है. जिसके अस्तित्व को खतरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी वही नौकरशाही आज अपनी जड़ें इतनी मजबूत कर चुकी हैं कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है.

यदिइन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है. असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्राकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं. उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी. असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया जिससे आजकल के बहुत से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये. विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल जरूर होता है. कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है. इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णनीय है.

बस,सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है दरअसल भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी खराब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है. भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है. सच है, मरता क्या न करता. लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होेना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती. इसीलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिये और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की सांस न लेना चाहिए.

लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग-चेतना की जरूरत है. गरीब, मेहनतकशों व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं. इसलिए तुम्हें इनके हथकंडों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए. संसार के सभी गरीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं. तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म,रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताकत अपने हाथों मंे लेने का प्रयत्न करो. इन यत्नों से तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी जंजीरें कट जायेंगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्राता मिलेगी.

जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि जार के समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं वहाँ भी कितने ही समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे. लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक-शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है. अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए. अब वहाँ सभी को ‘इन्सान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं. जार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही खराब थी. इसलिए सब दंगे-फसाद होते थे. लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है और उनमें वर्ग-चेतना आ गयी है इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की खबर नहीं आयी.

इनदंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी. वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियन के मजदूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थमगुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू-मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे. यह इसलिए कि उनमें वर्ग-चेतना थी और वे अपने वर्गहित को अच्छी तरह पहचानते थे. वर्गचेतना का यही सुन्दर रास्ता है, जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है.

यहखुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा करना सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं. उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नजर से-हिन्दू, मुसलमान या सिख रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इन्सान समझते हैं, फिर भारतवासी. भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है. भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए. उन्हें यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, और दंगे हों ही नहीं.

1914-15के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था. वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है इसमें दूसरे का कोई दखल नहीं. न ही इसे राजनीति में घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता. इसलिए गदर पार्टी जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू मुसलमान भी पीछे नहीं रहे.

इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं. झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं.

यदि धर्म को अलग कर दिया जाये तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते है. धर्मों में हम चाहे अलग-अलग ही रहें.

हमारा ख्याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर जरूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमे बचा लेंगे.


दंगों की राजनीति पर आतंकवाद का तड़का

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-मसीहुद्दीन संजरी

    "...मुज़फ्फरनगर दंगे के बाद से ही जिस प्रकार से दंगा पीडि़तों का रिश्ता आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास किया गया उससे इस आशंका को बल मिलता है कि दंगा भड़काने के आरोपी हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्वों के कुकृत्यों की तरफ से ध्यान हटा कर उसका आरोप स्वंय दंगा पीडि़तों पर लगाने का षड़यंत्र रचा गया था। आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के बाद भगवा टोले ने खुफिया और सुरक्षा एंव जांच एजेंसियों में अपने हिमायतियों की मदद से इसी तरह की साजिश को पहले कामयाबी के साथ अंजाम दिया था।..."                      

मुज़फ्फरनगर, शामली बाग़पत और मेरठ के दंगे, जो आमतौर पर मुज़फ्फरनगर दंगा के नाम से मशहूर हैं, के बाद हुए विस्थापन और दंगा पीड़ित कैम्पों की स्थिति की चर्चा तथा राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप का दौर अभी चल ही रहा था कि अचानक अक्तूबर महीने में राजस्थान में एक जनसभा को सम्बोधित करते हुए राहुल गांधी ने आईएसआई के दंगा पीडि़तों के सम्पर्क में होने की बात कह कर सबको चौंका दिया। राहुल गांधी का यह कहना था कि दंगा पी़िड़त 10-12 युवकों से पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई सम्पर्क साधने का प्रयास कर रही थी। इसकी जानकारी उन्हें खुफिया एजेंसी आईबी के एक अधिकारी से मिली थी। यह सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आईबी अधिकारी ने यह जानकारी राहुल गांधी को क्यों और किस हैसियत में दी? उससे अहम बात यह है कि क्या यह जानकारी तथ्यों पर आधारित थी या फर्जी इनकाउंटरों, जाली गिरफ्तारियों और गढ़ी गई आतंकी वारदातों की कहानियों की तरह एक राजनीतिक खेल जैसा कि आतंकवाद के मामले में बार बार देखा गया है और जिनकी कई अदालती फैसलों से भी पुष्टि हो चुकी है। 

राहुलगांधी के मुंह से यह बात कहलवा कर आईबी दंगा भड़काने के आरोपी उन साम्प्रदायिक तत्वों को जिसमें कांग्रेस पार्टी के स्थानीय नेता भी शामिल थे, बचाना चाहती थी। राहुल गांधी ने इसके निहितार्थ को समझते हुए यह बात कही थी या खुफिया एजेंसी ने यह सब उनकी अनुभव की कमी का फायदा उठाते हुए दंगे की गम्भीरता की पूर्व सूचना दे पाने में अपनी नाकामी से माथे पर लगे दाग को दर्पण की गंदगी बता कर बच निकलने के प्रयास के तौर पर किया था। क्या उस समय राहुल के आरोप को खारिज करने वाली उत्तर प्रदेश की सरकार ने बाद में खुफिया एजेंसी की इस मुहिम को अपना मूक समर्थन दिया था जिससे दंगा पीडि़तों, कैम्प संचालकों और पीडि़तों की मदद करने वालों को भयभीत कर कैम्पों को बन्द करने की राह हमवार की जाए ताकि इस नाम पर सरकार की बदनामी का सिलसिला बन्द हो?

राहुलगांधी के बयान के बाद दंगा भड़काने वाली साम्प्रदायिक ताकतों ने आईएसआई को इसका जिम्मेदार ठहराने के लिए ज़ोर लगाना शुरू कर दिया था। इस आशय के समाचार भी मीडिया में छपे। दंगे के दौरान फुगाना गांव के 13 लोगों की सामूहिक हत्या कर उनकी लाशें भी गायब कर दी गई थीं। वह लाशें पहले मिमला के जंगल में देखी र्गइं परन्तु बाद में उनमें से दो शव गंग नहर के पास से बरामद हुए। शव न मिल पाने के कारण उन मृतकों में से 11 को सरकारी तौर मरा हुआ नहीं माना गया था। समाचार पत्रों में उनके लापता होने की खबरें प्रकाशित हुईं जिसमें इस बात की आशंका ज़ाहिर की गई थी कि जो लोग आईएसआई से सम्पर्क में हैं उनमें यह 11 लोग भी शामिल हो सकते हैं। यह भी प्रचारित किया जाने लगा कि कुछ लोग दंगा पीडि़तों की मदद करने के लिए रात के अंधेरे में कैम्पों में आए थे। उन्होंनें वहां पांच सौ और हज़ार के नोट बांटे थे। इशारा यह था कि वह आईएसआई के ही लोग थे। आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने की इस उधेड़ बुन में ऊंट किसी करवट नहीं बैठ पा रहा था कि अचानक एक दिन खबर आई कि रोज़ुद्दीन नामक एक युवक आईएसआई के सम्पर्क में है। कैम्प में रहने वाले एक मुश्ताक के हवाले से समाचारों में यह कहा गया कि वह पिछले दो महीने से लापता है। 

जबराजीव यादव के नेतृत्व में रिहाई मंच के जांच दल ने इसकी जांच की तो पता चला कि रोज़ुद्दीन जोगिया खेड़ा कैम्प में मौजूद है और वह कभी भी कैम्प छोड़ कर कहीं नहीं गया। तहकीकात के दौरान जांच दल को पता चला कि रोज़ुद्दीन और सीलमु़ुद्दीन ग्राम फुगाना निवासी दो भाई हैं और दंगे के बाद जान बचा कर भागने में वह दोनों बिछड़ गए थे। रोज़ुद्दीन जोगिया खेड़ा कैम्प आ गया और उसके भाई सलीमुद्दीन को लोई कैम्प में पनाह मिल गई। जब मुश्ताक से दल ने सम्पर्क किया तो उसने बताया कि एक दिन एक पत्रकार कुछ लोगों के साथ उसके पास आया था और सलीमुद्दीन तथा राज़ुद्दीन के बारे में पूछताछ की थी। उसने यह भी बताया कि सलीमुद्दीन के लोई कैम्प में होने की बात उसने पत्रकार से बताई थी और यह भी कहा था कि उसका भाई किसी अन्य कैम्प में है। पत्रकार के भेस में खुफिया एजेंसी के अहलकारों ने किसी और जांच पड़ताल की आवश्यक्ता नहीं महसूस की और रोज़ुद्दीन का नाम आईएसआई से सम्पर्ककर्ता के बतौर खबरों में आ गया। इस पूरी कसरत से तो यही साबित होता है कि खुफिया एजेंसी के लोग किसी ऐसे दंगा पीडि़त व्यक्ति की तलाश में थे जिसे वह अपनी सविधानुसार पहले से तैयार आईएसआई से सम्पर्क वाली पटकथा में खाली पड़ी नाम की जगह भर सकें और स्क्रिप्ट पूरी हो जाए। 

परन्तुइस पर मचने वाले बवाल और आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के मामले को लेकर पहले से घिरी उत्तर प्रदेश सरकार व मुज़फ्फनगर प्रशासन ने ऐसी कोई जानकारी होने से इनकार कर दिया। केन्द्र सरकार की तरफ से गृह राज्य मंत्री आरपीएन सिंह ने भी कहा कि गृह मंत्रालय के पास ऐसी सूचना नहीं है। राहुल गांधी के बयान की पुष्टि करने की यह कोशिश तो नाकाम हो गई। लेकिन थोड़े ही दिनों बाद आईबी की सबसे विश्वास पात्र दिल्ली स्पेशल सेल ने दावा किया कि उसने मुज़फ्फरनगर दंगों का बदला लेने के लिए दिल्ली व आसपास के इलाकों में आतंकी हमला करने की योजना बना रहे एक युवक को मेवात, हरियाणा से गिरफतार कर लिया है और उसके एक अन्य सहयोगी की तलाश की जा रही है। यह दोनों मुज़फ्फरनगर के दो अन्य युवको के सम्पर्क में थे। हालांकि पूर्व सूचनाओं से उलट इस बार यह कहा गया कि जिन लोगों से इन कथित लश्कर-ए-तोएबा के संदिग्धों ने सम्पर्क किया था उनका सम्बंध न तो राहत शिविरों से है और न ही वह दंगा पीडि़त हैं। 

मेवात के गा्रम बज़ीदपुर निवासी 28,वर्षीय मौलाना शाहिद जो अपने गांव से 20 किलोमीटर दूर ग्राम छोटी मेवली की एक मस्जिद का इमाम था, 7, दिसम्बर 2014 को गिरफतार किया गया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि अखबारों में यह खबर छपी कि पुलिस को उसके सहयोगी राशिद की तलाश है। राशिद के घर वालों को दिल्ली पुलिस की तरफ से एक नोटिस भी प्राप्त हुआ था जिसके बाद 16,दिसम्बर को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट नूहपुर (मेवात का मुख्यालय) की अदालत में राशिद ने समर्पण कर दिया। राशिद खान वाली मस्जिद घघास में इमाम था और वहां से 25 किलोमीटर दूर तैन गांव का रहने वाला था। इन दोनों पर आरोप है कि इनका सम्बंध पाकिस्तान के आतंकी संगठन लश्कर-ए-तोएबा से है। इन दोनों ने मुज़फ्फरनगर के लियाकत और ज़मीरुलइस्लाम से मुलाकात की थी। लियाकत सरकारी स्कूल में अध्यापक और ज़मीर छोटा मोटा अपराधी है। मौलाना शाहिद और राशिद इन दोनों से मिले थे और मुलाकात में अपहरण की योजना बनाने और इस प्रकार प्राप्त होने वाले फिरौती के पैसे का इस्तेमाल मस्जिद बनवाने के लिए करने की बात उक्त दोनों ने की थी। बाद में उन्हें बताया गया कि फिरौती की रकम को मस्जिद बनाने के लिए नहीं बल्कि आतंकी वारदात को अंजाम देेने लिए हथियार की खरीदारी पर खर्च किया जाएगा तो दोनों ने इनकार कर दिया। दिल्ली स्पेशल सेल का यह दावा समझ से परे है क्योंकि एक साधारण मुसलमान भी जानता है कि मस्जिद बनाने के लिए नाजायज़ तरीके से कमाए गए धन का इस्तेमाल इस्लाम में वर्जित है। ऐसी किसी मस्जिद में नमाज़ नहीं अदा की जा सकती। ऐसी सूरत में पहले प्रस्ताव पर ही इनकार हो जाना चाहिए था। यह समझ पाना भी आसान नहीं है कि एक दो मुलाकात में ही कोई किसी से अपहरण जैसे अपराध की बात कैसे कर सकता है।

दूसरीतरफ पटियाला हाउस कोर्ट में रिमांड प्रार्थना पत्र में स्पेशल सेल ने कहा है कि इमामों की गिरफतारी पिछले वर्ष नवम्बर में प्राप्त खुफिया जानकारी के आधार पर की गई है। स्थानीय लोगों का कहना है कि शाहिद सीधे और सरल स्वभाव का है। वह मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद दंगा पीडि़तों के लिए फंड इकट्ठा कर रहा था और उसके वितरण के लिए किसी गैर सरकारी संगठन एंव मुज़फ्फरनगर के स्थानीय लोगों के सम्पर्क किया था। तहलका के 25 जनवरी के अंक में छपी एक रिपोर्ट में यह भी खुलासा किया गया है कि लियाकत और ज़मीर दिल्ली व उत्तर प्रदेश पुलिस के लिए मुखबिरी का काम करते थे। आतंकवाद के मामले में अबरार अहमद और मुहम्मद नकी जैसी कई मिसालें मौजूद हैं जब मुखबिरों को आतंकवादी घटनाओं से जोड़ कर मासूम युवकों को उनके बयान के आधार पर फंसाया जा चुका है। 

राहुलगांधी का आईबी अधिकारी द्वारा दी गई जानकारी के आधार पर दिया गया वक्तव्य, कैम्पों में खूफिया एजेंसी के अहलकारों द्वारा पूछताछ, रोज़ुद्दीन के आईएसआई से सम्पर्क स्थापित करने का प्रयास और अन्त में मौलाना शाहिद और राशिद की खुफिया सूचना के आधार पर गिरफतारी और लियाकत तथा ज़मीर की पृष्ठिभूमि और भूमिका को मिला कर देखा जाए तो चीज़ों को समझना बहुत मुश्किल नहीं है। साम्प्रदायिक शक्तियों ने खुफिया एंव जांच एजेंसियों में अपने सहयोगियों की सहायता से मुसलमानों को आतंकवाद और आतंकवादियों से जोड़ने का कोई मौका नहीं चूकते चाहे कोई बेगुनाह ही क्यो न हो। गुनहगार होने के बावजूद अगर वह मुसलमान नहीं है तो उसे बचाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी जाती। पांच बड़ी आतंकी वारदातों का अभियुक्त असीमानन्द अंग्रेज़ी पत्रिका ‘दि कारवां‘ को जेल मे साक्षात्कार देता है और आतंकवादी वारदातों के सम्बन्ध में संघ के बड़े नेता इन्द्रेश कुमार और संघ प्रमुख मोहन भगवत का नाम लेता है तो उसे न तो कोई कान सुनने को तैयार है और न कोई आंख देखने को। 

किसीऐजेंसी ने उस साक्षात्कार के नौ घंटे की आडिओ की सत्यता जानने का कोई प्रयास तक नहीं किया। चुनी गई सरकारों से लेकर खुफिया और सुरक्षा एंव जांच ऐजेंसियां सब मूक हैं। मीडिया में साक्षात्कार के झूठे होने की खबरें हिन्दुत्वादियों की तरफ सें लगातार की जा रही हैं परन्तु उसके सम्पादक ने इस तरह की बातों को खारिज किया है और कहा है कि उसके पास प्रमाण है। देश का एक आम नागरिक भी यह महसूस कर सकता है कि हमारे राजनीतिक नेतृत्व में न तो इच्छा है और न ही इतनी इच्छा शक्ति कि इस तरह की चुनौतियों का सामना कर सके। यही कारण है कि आतंक और साम्प्रदायिक हिंसा का समूल नाश कभी हो पाएगा इसे लेकर हर नागरिक आशंकित है।

मुज़फ्फरनगरसाम्प्रदायिक हिंसा को लेकर एक और महत्वपूर्ण खुलासा सीपीआई (माले) ने अपनी जांच रिपोर्ट में किया है। दंगे के मूल में किसी लड़की के साथ छेड़छाड़ नहीं है यह तो पहले ही स्पष्ट हो चुका था। 27, अगस्त को शहनवाज़ कुरैशी और सचिन व गौरव की हत्याओं के मामले में दर्ज एफआईआर में झगड़े का कारण मोटर साइकिल और साइकिल टक्कर बताया गया था। परन्तु सीपीआई (माले) द्वारा जारी रिपोर्ट से पता चलता है कि मोटर साइकिल टक्कर भी सचिन और गौरव की तरफ से शहनवाज़ की हत्या के लिए त्वरित कारण गढ़ने की नीयत से की गई थी। इस पूरी घटना के तार एक बड़े सामूहिक अपराध से जुड़े हुए हैं। रिपोर्ट के अनुसार शहनवाज़ कुरैशी और सचिन की बहन के बीच प्रेम सम्बन्ध था। जब इसकी जानकारी घर और समाज के लोगों को हुई तो मामला पंचायत तक पहुंच गया और उन्होंने सचिन और गौरव को शहनवाज़ को कत्ल करने का फरमान जारी कर दिया। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उक्त लड़की उसके बाद से ही गायब है और इस बात की प्रबल आशंका है कि उसकी भी हत्या हो चुकी है। इस तरह से यह आनर किलिंग का मामला है जो एक गम्भीर सामाजिक और कानूनी अपराध है। एक घिनौने अपराध के दोषियों और उनके समर्थकों ने उसे छुपाने के लिए नफरत के सौदागरों के साथ मिलकर इतनी व्यापक तबाही की पृष्ठिभूमि तैयार कर दी और हमारे तंत्र को उसकी भनक तक नहीं लगी। कुछ दिखाई दे भी कैसे जब आंखों पर साम्प्रदायिक्ता की ऐनक लगी हो।

मुज़फ्फरनगरदंगे के बाद से ही जिस प्रकार से दंगा पीडि़तों का रिश्ता आईएसआई और आतंकवाद से जोड़ने का प्रयास किया गया उससे इस आशंका को बल मिलता है कि दंगा भड़काने के आरोपी हिन्दुत्ववादी साम्प्रदायिक तत्वों के कुकृत्यों की तरफ से ध्यान हटा कर उसका आरोप स्वंय दंगा पीडि़तों पर लगाने का षड़यंत्र रचा गया था। आतंकवादी वारदातों को अंजाम देने के बाद भगवा टोले ने खुफिया और सुरक्षा एंव जांच एजेंसियों में अपने हिमायतियों की मदद से इसी तरह की साजिश को पहले कामयाबी के साथ अंजाम दिया था। देश में होने वाली कुछ बड़ी आतंकी वारदातों में मुम्बई एटीएस प्रमुख स्व0 हेमन्त करकरे ने अपनी विवेचना में इस साजिश का परदा फाश कर दिया था। 

गुजरातमें वंजारा एंड कम्पनी द्वारा आईबी अधिकारियों के सहयोग से आतंकवाद के नाम पर किए जाने वाले फर्जी इनकाउन्टरों का भेद भी खुल चुका है। शायद यही वजह है कि बाद में होने वाले कथित फर्जी इनकाउन्टरों में मारे गए युवकों और आतंकी वारदातों में फंसाए गए निर्दोशों के मामले में सामप्रदायिक ताकतों के दबाव के चलते जांच की मांग को खारिज किया जाता रहा है। मुज़फ्फरनगर दंगों की सीबीआई जांच को लेकर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार ने भी ऐसी किसी जांच की मुखालफत की है। सच्चाई यह है कि किसी निष्पक्ष जांच में जो खलासे हो सकते हैं वह न तो दंगाइयों मे हित में होंगे और न ही सरकार के और दोनों हितों की राजनीति का पाठ एक ही गुरू ‘अमरीका‘ से सीखा है। 

करेकोई और भुगते कोई की राजनीति यदि मुज़फ्फरनगर दंगों के मामले में भी सफल हो जाती तो इसका सीधा अर्थ यह होता कि किसी भी राहत कैम्प को चलाने की कोई हिम्मत नहीं कर पाता, दंगा पीडि़तों की मदद करने वाले हाथ रुक जाते या उन्हें आतंकवादियों के लिए धन देने के आरोप में आसानी से दबोच लिया जाता और पीडि़तो की कानूनी मदद करने का साहस कर पाना आसान नहीं होता। शायद साम्प्रदायिक शक्तियों ऐसा ही लोकतंत्र चाहती हैं जहां पूरी व्यवस्था उनकी मर्जी की मुहताज हो। हमें तय करना होगा कि हम कैसा लोकतंत्र चाहते है और हर स्तर पर उसके लिए अपेक्षित प्रयास की भी करना होगा। 
मसीहुद्दीन संजरीग्राम व पोस्ट- संजरपुरजिला- आजमगढ़ उ प्रमोबाइल नम्बर-8090696449

क्या मतदाता भी पाला बदलेंगे?

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...प्रत्याशी दल-बदलू, दागी या भ्रष्ट हो, तब भी उसकी चुनावी संभावनाओं पर अधिक अंतर नहीं पड़ता, बशर्ते उसने सही जातीय समीकरण बिठाया और हवा के मुताबिक दल का चयन किया। गहराई में जाकर देखें तो दल-बदल या सिद्धांतहीन राजनीति की असली जड़ें इस प्रवृत्ति में छिपी दिखेंगी। मगर इसी रुझान का दूसरा पक्ष यह है कि मतदाताओं के लिए दलों का सामाजिक आधार और उनका विचारधारात्मक झुकाव महत्त्वपूर्ण है। धर्मनिरपेक्षता या भारत का आधुनिक विचार सुरक्षित है, तो इसीलिए कि अधिकांश मतदाता भारत के दूसरे विचार (हिंदू राष्ट्र) से प्रभावित नहीं हुए हैं।..."

 
साभार- http://media2.intoday.in/
बिहार प्रदेश कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष महबूब अली कैसर ने पाला बदल कर लोक जनशक्ति पार्टी में शामिल होते समय कोई पाखंड नहीं किया। साफ-साफ कहा कि कांग्रेस ने उन्हें टिकट नहीं दिया, तो वे नई पार्टी में आ गए। रामकृपाल यादव फिलहाल पाटलिपुत्र लोकसभा क्षेत्र से भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार हैं। वे राष्ट्रीय जनता दल छोड़ कर भाजपा में इसलिए आए, क्योंकि लालू प्रसाद यादव ने उनका टिकट काट कर अपनी बेटी मीसा भारती को दे दिया। दलबदल के तुरंत बाद रामकृपाल यादव को एक टीवी इंटरव्यू के दौरान याद दिलाया गया कि अतीत में उन्होंने नरेंद्र मोदी के खिलाफ कितनी कठोर भाषा बोली थी। इस पर यादव का जवाब था कि वह आरजेडी का विचार है, जिसे उन्होंने व्यक्त किया था। मतलब यह कि रामकृपाल यादव का अपना कोई विचार नहीं है! वे जब जहां होंगे, उस दल की राय को तोता की तरह दोहरा देंगेरामकृपाल यादव या महबूब कैसर जैसे नेताओं की आज कोई कमी नहीं है। लेकिन इसका बड़ा कारण यही है कि किसी भी पार्टी को ऐसे अवसरवादी नेताओं से गुरेज नहीं है। ऐसे नेताओं का हर दल में स्वागत है, बशर्ते जातीय या सांप्रदायिक समीकरण, शोहरत अथवा अपनी आर्थिक हैसियत से वे जीतने की क्षमता रखते हों।

फिलहाल,इस प्रवृत्ति का सबसे ज्यादा फायदा भाजपा को मिलता दिखता है। पिछले वर्ष हुए चार विधानसभाओं के चुनाव नतीजों, मीडिया और जनमत सर्वेक्षणों ने ये धारणा बना दी कि नरेंद्र मोदी का प्रधानमंत्री बनने की अब सिर्फ रस्म-अदायगी होनी है। तो सत्ता के साथ रहने के इच्छुक नेता और दल भाजपा के खेमे में जुटने लगे। आम समझ यही है कि इसका भाजपा को लाभ मिलेगा, हालांकि मोदी ने पैराशूट से नेताओं को उतार पार्टी में जो असंतुलन पैदा किया है, उसकी आंतरिक प्रतिक्रिया के प्रभावों से पार्टी बिल्कुल बची रहेगी- ऐसा नहीं लगता। यह बात साफ झलकती है कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा का मंडलीकरण हो रहा है। बाहर से दलित और ओबीसी नेताओं को लाने में मोदी गुट ने खास रुचि दिखाई है। इसका सवर्ण समूहों के भाजपा के प्रति रुख पर अल्प और दीर्घकाल में क्या असर होता है, यह देखने की बात होगी।

जहां तक भाजपा विरोधी खेमे की बात है, तो यह याद कर लेने की जरूरत है कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय राजनीतिक दलों या नेताओं के लिए अनुलंघनीय विभाजक रेखा है, यह भ्रम 1998-2004 के भाजपा नेतृत्व वाले शासन के दौर में ही मिट गया था। उस अवधि में यह स्पष्ट हुआ कि हिंदू राष्ट्रवाद समर्थक ताकतों के खिलाफ गोलबंदी में सिर्फ दो ताकतों पर भरोसा किया जा सकता है। उनमें भी केवल कम्युनिस्ट पार्टियां ऐसी हैं, जिनके पास मजहबी सियासत की विचारधारात्मक आलोचना मौजूद है और जिनकी सियासी रणनीति तर्क से प्रेरित है। दूसरी ताकत कांग्रेस है, जो हालांकि अतीत में सर्व-समावेशी, न्याय आधारित भारतीय राष्ट्रवाद की प्रमुख वाहक शक्ति रही, लेकिन वर्तमान में महज अपने राजनीतिक हितों के कारण वह बहुसंख्यक वर्चस्व की राजनीति के विरुद्ध है। बहरहाल, भाजपाई सियासत और कांग्रेस के हित इस हद तक परस्पर विरोधी हैं कि कांग्रेस धर्मनिरपेक्षता की झंडाबरदार बनी रहेगी, इस पर यकीन किया जा सकता है। बाकी दलों में जिनके हित धर्मनिरपेक्षता के नारे से अभिन्न रूप से जुड़े हैं (मसलन, सपा और आरजेडी) वे भाजपा विरोधी खेमे में रहेंगे, यह जरूर माना जा सकता है, हालांकि वे कब भाजपा से अंतर्संबंध बना लें, इस बारे में कुछ कहना कठिन है।

ऐसीधुंधली स्थिति और दलों/नेताओं के ढुलमुल रुख के बावजूद भारतीय समाज की संरचना ऐसी है कि धर्मनिरपेक्षता बनाम बहुसंख्यक वर्चस्व (अथवा हर किस्म की सांप्रदायिकता) के बीच विभाजन रेखा अभी लंबे समय तक मुख्य राजनीतिक विभाजन रेखा बनी रहेगी। इसलिए धर्मनिरपेक्षता भले अधिकांश दलों/नेताओं के लिए आस्था का मूल्य ना बने, मगर इस मुद्दे पर राजनीतिक ध्रुवीकरण होता रहेगा। इसीलिए व्यापक संदर्भ में देखें, तो कथित धर्मनिरपेक्ष खेमे से दलों/नेताओं के भाजपा के पाले में जाना महत्त्वहीन घटना है। इससे भाजपा की ताकत बढ़ सकती है, लेकिन इससे धर्मनिरपेक्ष जनमत एवं ऐसी आस्था वाले जन समुदायों के बीच उसकी स्वीकृति नहीं बन सकती। तब तक, जब तक कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के राजनीतिक मोर्चे के रूप में काम करती रहेगी।

हालके एक महत्त्वपूर्ण सर्वेक्षण से ये सामने आया (जिससे पहले के कई सर्वेक्षण निष्कर्षों और आम अनुभव की पुष्टि ही हुई) कि अधिकांश भारतीय मतदाताओं का मतदान संबंधी निर्णय उम्मीदवार के गुण-दोष के आधार पर नहीं, बल्कि दल और जाति से प्रेरित होता है। मतलब यह कि प्रत्याशी दल-बदलू, दागी या भ्रष्ट हो, तब भी उसकी चुनावी संभावनाओं पर अधिक अंतर नहीं पड़ता, बशर्ते उसने सही जातीय समीकरण बिठाया और हवा के मुताबिक दल का चयन किया। गहराई में जाकर देखें तो दल-बदल या सिद्धांतहीन राजनीति की असली जड़ें इस प्रवृत्ति में छिपी दिखेंगी। मगर इसी रुझान का दूसरा पक्ष यह है कि मतदाताओं के लिए दलों का सामाजिक आधार और उनका विचारधारात्मक झुकाव महत्त्वपूर्ण है। धर्मनिरपेक्षता या भारत का आधुनिक विचार सुरक्षित है, तो इसीलिए कि अधिकांश मतदाता भारत के दूसरे विचार (हिंदू राष्ट्र) से प्रभावित नहीं हुए हैं। 7 अप्रैल से 12 मई तक लोकतंत्र के महा-आयोजन में दांव पर लगा सबसे बड़ा सवाल यही है कि क्या ये स्थिति अब बदल सकती हैअगर ये जाहिर हुआ कि ऐसा नहीं है, तो फिर दलबदलू नेताओं का क्या होता है, ऐतिहासिक नजरिए यह अप्रासंगिक प्रश्न है।

इसआम चुनाव में उससे कहीं अधिक बड़ा सवाल दांव पर है। भाजपा इस बार संघ के एजेंडे के साथ सफल होने की जैसी स्थिति में है, वैसा पहले कभी नहीं हुआ। भारतीय जनसंघ के दिनों में उसकी ताकत इतनी कम थी कि उसकी उद्घोषणाओं का ज्यादा मतलब नहीं था। 1991 या 1996 में भारतीय राज्य-व्यवस्था को पुनर्परिभाषित करने के उद्घोष के साथ वह मैदान में जरूर उतरी थी, लेकिन तब वह राजनीतिक फलक पर अलग-थलग पड़ी हुई थी। तब सफल होने के लिए उसे अपने मुख और मुखौटे में फर्क करना पड़ा। मगर इस बार हालात अलग हैं। उसने नरेंद्र मोदी को अपना नेता चुना है। अब मोदी ही उसके मुख और मुखौटा दोनों हैं। मोदी ने संघ प्रचारक से लेकर अब तक का सफर तय करते हुए संघ के वैचारिक मॉडल को जितने खुलेआम ढंग से आगे बढ़ाया, उतना शायद ही किसी और ने किया हो। इसलिए ये अकारण नहीं है कि मोदी के कारण भाजपा एवं संघ के समर्थक-समूह उत्साहित नजर आते हैँ। संघ नेताओं ने कुछ महीने पहले कहा था कि 2014 का आम चुनाव उनके लिए मेक या ब्रेक इलेक्शन है। जब भारतीय राष्ट्रवाद को चुनौती देने वाली विचारधारा उतनी कृत-संकल्प नजर आती हो, तो यह स्वयंसिद्ध है कि इस राष्ट्रवाद के समर्थकों के सामने कैसी और कितनी बड़ी चुनौती है।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. 
 स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल 
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में 
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं. 

पुराना है संघ और भाजपा का कॉर्पोरेट प्रेम

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मोहम्मद आरिफ
-मोहम्मद आरिफ

"...वास्तव में जिस पूंजीवादी लूट खसोट को नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में लागू किया है,अब वही मॉडल पूरे देश में लागू कर खुली कॉर्पोरेट-लूट की चाहत में कॉर्पोरेट जगत मोदी को पीएम बनाने के लिए मुक्तहस्त सहयोग कर रहा है| लेकिन इसका सबसे भयावह पहलू वह है जिसे हम फासीवादी-पूँजीवाद है| यह फासीवादी-पूँजीवाद बिलकुल वैसा है जैसे द्वितीय विश्व युद्ध की पूर्वसंध्या पर जर्मनी में विद्यमान था और सारे प्रतिक्रियावादी और पूंजीवादी तत्व एकजुट होकर हिटलर को सत्ता प्राप्ति में हरसंभव मदद कर रहे थे...."

साभार- firstpost.in
राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और भाजपा के कॉर्पोरेट प्रेम को 16वीं लोकसभा के चुनावों में स्पष्ट रूप से महसूस किया जा सकता है |द नीलसन/इकोनॉमिक्स टाइम्स समाचारपत्र की ओर से किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार 100 उद्योगपतियों में से 74% नरेन्द्र मोदी को अगले पीएम के रूप में देखना चाहते हैं| देश-विदेश की सारी कॉर्पोरेट शक्तियां लम्बे समय से पीएम पद के लिए नमो नमो का जाप करते नहीं थक रही हैं | गुजरात सरकार के अदानी और अम्बानी समूह जैसे कॉर्पोरेट घरानों को नीतिगत स्तर पर लाभ पहुँचाने के प्रकरण सबके सामने हैं | पिछले दिनों आरआईएल के परिमल नथवाणी को भाजपा के 18 विधायकों के समर्थन से राज्यसभा सदस्य बनाये जाने के बाद से भाजपा से आरआईएल की नजदीकियां और भी प्रगाढ़ हुई है|
         

आजकलनरेन्द्र मोदी अपनी चुनावी सभाओं में देश को आर्थिक महाशक्ति बनाने और देश का पुनर्निर्माण करने के बड़े-2 दावे करते हैं और देश के दलित,पिछड़े,मध्यवर्ग को आर्थिक रूप से सशक्त करने की बात करते हैं | मोदी के इन दावों की हकीकत जानने के लिये संघ और भाजपा के अतीत को जान लेना आवश्यक होगा कि वास्तव में संघ अपने मूल रूप में विचारधारात्मक स्तर एक यथास्थितिवादी संगठन है | दो स्पष्ट वर्ग स्थितियों के बीच के त्रिशंकु की तरह लटकने वाली इस पार्टी के लिए कोई जन हितैषी कार्यक्रम पेश कर पाना आसान नही है| भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान भी संघ सदैव जनवादी शक्तियों का विरोध करता रहा है| 

गुरुगोलवलकर ने संघ के आर्थिक दर्शन को साम्यवाद विरोध का आयाम दिया और नारा दिया “समाजवाद नहीं,हिन्दूवाद”| आरएसएस की कम्युनिस्ट विरोधी प्रवृत्ति जे.ए.करान ने अपने शोध में कही हैं जो 1950 के आस-पास आरएसएस के विशेष अध्ययन के दौरान उन्हें ज्ञात हुईं कि “यदि भारत में वामपंथी शक्तियां अत्यधिक महत्व प्राप्त कर लें या साम्यवादी भारत की प्रभुसत्ता के लिए इतना बड़ा खतरा पैदा कर दें कि कांग्रेसी सरकार उसे न रोक पाए तो आरएसएस फायदे में रहेगा| इसके उग्र मार्क्सवादी-विरोधी तत्व एकजुट हो जायेंगे|” (करान, जे.ए. 1951. मिलिटेंट हिंदूइस्म इन इंडियन पॉलिटिक्स : ए स्टडी ऑफ़ आरएसएस, न्यूयॉर्क) इस कारण से समाज में आमूल-चूल परिवर्तन से भय खाने वाले सभी तत्व संघ के समर्थन में आ गए | इसी तथ्य कि पुष्टि करते हुए गोविन्द सहाय लिखते हैं “पूंजीपति,जमींदार तथा अन्य निहित स्वार्थी भी कुछ हैं जो निजी कारणों से कांग्रेस के ‘किसान-मजदूर राज’ के आदर्श से डरते हैं | अपने संकीर्ण वर्गीय हितों के निष्ठुर तर्क से चालित ये लोग भी संघ को एकमात्र ऐसा संगठन मानते हैं जो सत्ता से कांग्रेस को हटा सकते हैं और इस प्रकार उन्हें जनतंत्र के क्रोध और आक्रोश से उन्हें बचा सकते हैं|”

संघ की इस जनविरोधी नीति का उल्लेख मधु लिमये ने अपनी किताब “सेक्युलर डेमोक्रेसी” में भी किया है| लिमये के अनुसार “जब संजय गाँधी ने सार्वजनिक क्षेत्र के विरूद्ध और स्वतंत्र बाज़ारवाली पूंजीवादी व्यवस्था के समर्थन में अपना इंटरव्यू प्रकाशित कराया तो संघी महान नेता कहकर उनकी जय जयकार करने लगे |” इस घटना से संघ के रणनीतिकारों के पूंजीवादी लगाव को समझा जा सकता है |

वास्तवमें संघ के पास कोई रचनात्मक आर्थिक कार्यक्रम नहीं है बल्कि इसके विपरीत वे यथास्थितिवादी और  कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी नीति का पालन करते हैं | गोलवलकर हमेशा कहा करते थे कि प्रकृति का सामंजस्य असमानता पर टिका हुआ है और इसमें समानता लाने की कोशिश प्रकृति का विनाश करेगी| यही विचार उनके समाज के आर्थिक पहलू पर भी लागू होता है | संघ के इन्ही विचारों के कारण पूंजीपति,व्यवसायी और मध्य वर्ग के एक तबके का उसे सदैव समर्थन मिलता रहा है |


आपातकालके बाद से अबतक परिस्थितियां काफी बदल चुकी है और देश में नयी आर्थिक नीति के लागू होने के बाद से अर्थव्यवस्था के स्वरुप में काफी परिवर्तन आये हैं| उदारवाद के नाम पर अर्थव्यवस्था से जुड़े जो भी प्रयोग किये गए हैं उससे पूंजीवादियो को मज़बूत आधार मिला है,फलस्वरूप भाजपा के कॉरपोरेट जगत के साथ सम्बन्ध भी काफी प्रगाढ़ हुए है | भाजपा ने रामजन्मभूमि आन्दोलन पर सवार होकर इस दौर में एक नए तरीके के पूंजीवादी-सांप्रदायिक गठजोड़ की शुरुआत की जो अब अपने भयावह रूप तक पहुँच चुकी है| 1991 के आम चुनावों से पहले आडवाणी शहर-2 घूमकर पूंजीपतियों के साथ बैठकें कर भाजपा के लिए रुपये बटोरते रहे और उस समय कलकत्ता के बी एम बिड़ला से निजी तौर पर मिलने उनके घर भी गए |

Modi with Karnataka BJP President Joshi with Adani’s Challenger 605 in the backdrop
साभार- truthofgujarat.com

वर्तमानपरिदृश्य को देखें तो साफ़ हो जाता है कि यह पूंजीवादी-फासीवादी गठजोड़ और भी मजबूत हो गया है| गुजरात दंगों के आरोपी नरेन्द्र मोदी को आज विकासपुरुष का दर्जा देने वालों में एक बड़ी संख्या उन मोदी भक्तों की है जिन्हें गुजरात में औने-पौने दामों पर संपत्ति प्राप्त हुई है या ऐसे निजी स्वार्थी समूह हैं जिन्हें मोदी के पीएम बनने से लाभ मिलने की आशा है| पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के मूल में लाभ अन्तर्निहित होता है और इस कारण वह लाभ को केंद्र में रखकर अपनी रणनीति तय करती है| अब यह समझाने की जरुरत नहीं है कि कॉर्पोरेट शक्तियां मोदी का समर्थन कर क्यों रही हैं और उनके पीएम बनने के रंगीन सपने क्यों बन रही हैं| 

वास्तवमें जिस पूंजीवादी लूट खसोट को नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में लागू किया है,अब वही मॉडल पूरे देश में लागू कर खुली कॉर्पोरेट-लूट की चाहत में कॉर्पोरेट जगत मोदी को पीएम बनाने के लिए मुक्तहस्त सहयोग कर रहा है| लेकिन इसका सबसे भयावह पहलू वह है जिसे हम फासीवादी-पूँजीवाद है| यह फासीवादी-पूँजीवाद बिलकुल वैसा है जैसे द्वितीय विश्व युद्ध की पूर्वसंध्या पर जर्मनी में विद्यमान था और सारे प्रतिक्रियावादी और पूंजीवादी तत्व एकजुट होकर हिटलर को सत्ता प्राप्ति में हरसंभव मदद कर रहे थे | इसने पूरी दुनिया को नारकीय विश्वयुद्ध में धकेल दिया जिसके लिए इतिहास उन्हें कभी माफ़ नहीं करेगा | आज भारतीय लोकतंत्र के सामने कुछ इसी तरह का संकट फासीवादी-पूँजीवाद के रूप में मुंह फैलाए खड़ा है | सवाल यह है कि इसे रोकने के लिए हम क्या कर रहे हैं | अब हमे तय करना ही होगा कि हम किस ओर हैं ?


                                             मोहम्मद आरिफ
                                           मो.9807743675
                                                Email- mdarifmedia@gmail.com
                                                     पता- कमरा न. 55 एम बी हाउस
                              इलाहाबाद विश्वविद्यालय,इलाहाबाद
              

क्या कोई नरेन्द्र मोदी को रोक सकता है ?

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अभिषेक पुनेठा

"...दंगों की जांच के अनिर्णायक होने का कारण है सबूतों का खो जाना या अनुपलब्ध होना या उन्हें जानबूझ कर नष्ट कर देना. और अगर २००२ के तथ्य धुंधले हैं तो श्री मोदी के वर्तमान में विचार भी. वह जो हुआ उसे स्पष्ट करके और उसके लिए माफ़ी मांग कर के  इस नरसंहार को पीछे छोड़ सकते हैं. लेकिन अभी भी वो इन सवालों के जवाब देने से इनकार कर देते है. एक दुर्लभ टिपण्णी में पिछले साल उन्होंने मुसलमानों की पीड़ा पर यह कह कर अफ़सोस जताया की उन्हें दुःख तो तब भी होता है जब कोई पिल्ला कार के नीचे आ जाये..."

अभिषेक ने The Economist की कवर स्‍टोरी को Praxis के लिए अनुवाद कर भेजा है. पढ़ें...
-सं.

वह शायद भारत के अगले प्रधानमंत्री बन जायें लेकिन वो इस योग्य नहीं.

   

साभार- http://whatthafact.com/
कौन भारत में होने वाले चुनावों के परिणामों में चमत्कार की सम्भावना पर नहीं सोच रहा है ? अप्रैल से शुरू हो रहे चुनावों में सरकार चुनने के मामले में अनपढ़ ग्रामीणों, बेसहारा झुग्गी बस्ती में रहने वाले लोग और मुंबई के करोड़पति सबको एक सामान अवसर मिलेगा. लगभग 81.5 करोड़ नागरिक नौ चरणों में होने वाले और पांच सप्ताह तक चलने वाले इस लोकतंत्र के महापर्व में वोट डालने के अधिकारी होंगे. 

लेकिनभारत के राजनेताओं की अयोग्यता और बिकाऊपन की कौन निंदा नहीं करता है? देश में इस समय समस्याओं की भरमार है. लेकिन कांग्रेस के दस वर्ष की गठबंधन सरकार ने इसे नियंत्रणहीन बना दिया है. विकास दर गिर कर आधी हो गई है करीब ५ प्रतिशत जो भारत के लाखों युवाओं को रोज़गार दिलाने के लिए काफी कम है .सुधारों के रास्ते बंद हैं . रोड और बिजली अभी भी अनुपलब्ध है. बच्चे अभी भी शिक्षा से वंचित हैं. अनुमान के मुताबिक इसी समय में राजनेताओं और अधिकारीयों ने कांग्रेस के कार्यकाल में ४ अरब डॉलर से १२ अरब डॉलर तक की रिश्वत ली है. राजनीति का अर्थ भारतवासियों के लिए भ्रष्टाचार हो गया है .

कोई आश्चर्य की बात नहीं की भारतीय जनता पार्टी के नरेन्द्र मोदी इन्ही कारणों के चलते प्रधानमंत्री पद के लिए पसंदीदा हैं. कांग्रेस के उनके प्रतिद्वंदी राहुल गाँधी से वह बहुत अलग नहीं हो सकते हैं. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु के प्रपौत्र राहुल गाँधी प्रधानमंत्री बनना अपना दैवी अधिकार मानकर चले हैं. श्री मोदी एक चाय बेचने वाले हैं जो अपनी क्षमता से शीर्ष पर पहुचे हैं. श्री गाँधी सत्ता चाहते भी है या नहीं ये वो खुद भी नहीं जानते. श्री मोदी की गुजरात के सी.एम. के तौर पर प्रदर्शन को देखते हुए ये कहा जा सकता है की उन्होंने आर्थिक रूप से विकास किया है और कर सकते हैं. श्री गाँधी के गठबंधन पर भ्रष्टाचार के दाग है. तुलनात्मक रूप से मोदी का दामन साफ़ है.

सराहनाकरने के लिए और भी बहुत कुछ है. पर इस सब के बावजूद ये अखबार भारत के सर्वोच्च पद के लिए मोदी जी को समर्थन नहीं दे सकता.

इसकी वजह है की गुजरात में २००२ में मुसलमानों के खिलाफ हिन्दू उपद्रव में १००० लोग मारे गए. अहमदाबाद और उसके आस पास के शहरों और गाँवों मैं मचा हत्या और बलात्कार का ये तांडव मुसलमानों द्वारा एक ट्रेन पर 59 हिंदू तीर्थयात्रियों के मारे जाने का बदला था.

श्री मोदी ने 1990 में अयोध्या में एक पवित्र स्थल पर एक मार्च आयोजित करने में मदद की थी. दो साल बाद जो हिन्दू मुस्लिम संघर्ष में होने वाली 2,000 मौतों के लिए जिम्मेदार बना. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, एक हिन्दू राष्ट्रवादी संघ के आजीवन सदस्य के रूप में उन्होंने आजीवन ब्रह्मचर्य की कसम खाई है. उन्होंने अपने शुरुवाती दौर में बढ़ी बेशर्मी से हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने वाले भाषण दिए. २००२ में श्री मोदी मुख्यमंत्री थे और उन पर दंगाइयों को  इजाजत देने और बर्बादी यानि तबाही के लिए उकसाने तक के आरोप लगे थे.

श्री मोदी के बचाव करने वाले जिनकी संख्या बहुत है खासकर अभिजात्य व्यापारी वर्ग के लोग जिसमें शामिल हैं. वे दो तर्क देते हैं – पहला की  बार बार होने वाली जांचों में जिसमें सुप्रीम कोर्ट भी शामिल है जो की स्वतंत्र है द्वारा ऐसा कुछ भी नहीं पाया गया जिसके आधार पर उनके ऊपर अभियोग लगाया जा सके. और दूसरा ये की श्री मोदी बदल गए हैं. उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों के व्यापर को फायदा पहुचने के उद्देश्य से निवेश को आकर्षित करने के लिए अथक काम किया है. सोचने की बात है की वो कहते हैं की पूरे भारत में गरीब मुसलमानों को स्वस्थ अर्थव्यवस्था से  बेहद लाभ हुआ है .

दोनों ही मामलो में ये कारण देना बहुत अधिक उदारता दिखाना है. दंगों की जांच के अनिर्णायक होने का कारण है सबूतों का खो जाना या अनुपलब्ध होना या उन्हें जानबूझ कर नष्ट कर देना. और अगर २००२ के तथ्य धुंधले हैं तो श्री मोदी के वर्तमान में विचार भी. वह जो हुआ उसे स्पष्ट करके और उसके लिए माफ़ी मांग कर के  इस नरसंहार को पीछे छोड़ सकते हैं. लेकिन अभी भी वो इन सवालों के जवाब देने से इनकार कर देते है. एक दुर्लभ टिपण्णी में पिछले साल उन्होंने मुसलमानों की पीड़ा पर यह कह कर अफ़सोस जताया की उन्हें दुःख तो तब भी होता है जब कोई पिल्ला कार के नीचे आ जाये. इस बयान पर हो रहे हंगामे के बीच उन्होंने कहा की मेरा मतलब था की हिन्दुओं को सबके जीवन की परवाह है. मुस्लिमों और अंध राष्ट्रवादी हिन्दुओं को इससे एक अलग सन्देश मिला. बी.जे.पी. के अन्य नेताओं से इतर मोदी ने मुस्लिम टोपी पहनने से इंकार कर दिया और २०१३ में हुए मुजफ्फ्फर नगर दंगों की निंदा भी नहीं की जिसमें अधिकतर पीड़ित मुसलमान ही थे.

किसी एक समुदाय विशेष के खिलाफ घृणा फ़ैलाने वाली राजनीति करना किसी भी देश में निंदनीय है. भारत में तो हिन्दू मुस्लिम संघर्षों और हिंसा का लम्बा इतिहास रहा है. विभाजन के वक्त भी १२० लाख लोगों को विस्थापित होना पढ़ा था और हजारों मारे गए थे. २००२ के बाद से सांप्रदायिक हिंसा कम हुई है पर फिर भी हर साल सैकड़ों सांप्रदायिक घटनाएँ होती है और उसमें सैकड़ों की संख्या में लोग मारे जाते हैं. उत्तर प्रदेश में तो कभी कभी हिंसा खतरनाक स्तर पर पहुच जाती है. चिंगारी बाहर से भी आ सकती है. मुंबई में २००८ में भारत को आतंकवादयों के भीषण हमले का सामना करना पढ़ा था जो मुस्लिम देश पाकिस्तान के थे और पाकिस्तान हमारा पडोसी परमाणु हथियारों से लैस है.

मोदीने मुसलमानों की चिंता को कम करने के बजाय बढ़ा दिया है. वह ऐसा कर के एंटी-मुस्लिम वोट पाना चाहते हैं. अपनी चरमसीमा पर भारत विभिन्न धर्मों लोगों, विश्वासों, पवित्र पुरुषों और विद्रोहियों का एक खुशियों भरा कोलाहल है. स्वर्गीय खुशवंत सिंह जी जैसे लोग सांप्रदायिक घृणा के दर्द को अच्छी तरह से समझते थे.

हो सकता है श्री मोदी दिल्ली में अच्छी शुरुवात कर लें लेकिन जल्द ही या हो सकता है बाद में उन्हें सांप्रदायिक हिंसा का सामना करना पड़ेगा या पाकिस्तान के साथ किसी तकरार का तो वे क्या करेंगे ये कोई नहीं जानता. वे भी नहीं जो उनकी प्रशंसा कर रहे हैं और न ही ये जानते है की ऐसे विभाजनकारी मनुष्य के प्रति मुसलमानों की क्या प्रतिक्रिया होगी?

अगरश्री मोदी दंगों में अपनी भूमिका को स्पष्ट कर देते और उन पर वास्तव में पश्चाताप जताते तो हम उनका समर्थन करने के बारे में सोच भी सकते थे पर उन्होंने ऐसा कभी किया नहीं. ऐसे विभाजनकारी मनुष्य का जो अपनी विभाजन की राजनीति से संपन्न हुआ है का भारत जैसे विखंडनीय और संवेदनशील राष्ट्र का प्रधानमंत्री बनना उचित नहीं होगा. हमें श्री गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार भी दमदार और प्रेरक नहीं लगाती है. पर हम भारतवासियों से एक कम परेशानी वाला विकल्प चुनने की उम्मीद रखते हैं.

अगरकांग्रेस जीतती है जिसकी संभावना कम ही है तो इसने खुद को नवीनीकृत करने का और देश में सुधार करने का प्रयास करना चाहिए. श्री गाँधी को अपने नैतिक गुण का परिचय देते हुए और अपने संशय को दूर करते हुए पीछे हट जाना चाहिए और किसी नए चेहरे को आगे बढ़ाना चाहिए. अगर बी.जे.पी. सत्ता में आती है जिसकी संभावना ज्यादा है तो इसके गठबंधन सहयोगियों को मोदी के अलावा किसी और को चुनना चाहिए.

अगरफिर भी वे मोदी को ही चुनते हैं तो उन्हें शुभकामनाएं. हमें ख़ुशी होगी अगर श्री मोदी ईमानदार और निष्पक्ष ढंग से भारत को चलाते हुए हमें गलत साबित कर दें. पर अभी उनका आकलन उनके रिकॉर्ड के आधार पर ही किया जायेगा जो अभी भी साम्प्रादायिक घृणा के साथ जुड़ा हुआ है. वहां निष्पक्ष, ईमानदार और आधुनिकता जैसी कोई चीज़ नहीं है. भारत बेहतर का हकदार है.

अभिषेक स्नातक के छात्र हैं.
पिथौरागढ़ (उत्तराखंड) में रहते हैं.
लिखने पढ़ने में गहरी रूचि.
संपर्क का पता 
abhishekpunethaa@gmail.com


हमारे दौर के लिए एक आंबेडकर

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आनंद तेलतुंबड़े

-आनंद तेलतुंबड़े
अनुवाद: रेयाज उल हक
(हाशियासे साभार)

"...हालांकि यह बात उलझन में डालने वाली है कि जब अनगिनत गैर दलित पहले ही आंबेडकर और उनके लेखन पर लिख चुके हैं, ऐसा विवाद सिर्फ अरुंधति के मामले में ही क्यों पैदा हुआ? क्या यह उनकी नामी-गिरामी हैसियत की वजह से है या मध्य वर्गीय दलितों की नजर में उनके माओवादी समर्थक होने की बदनामी की वजह से? इस दूसरी बात की गुंजाइश ज्यादा है, और यह उनकी प्रतिक्रिया की मूल वजह हो सकती है. क्योंकि उनके लिए कम्युनिज्म से दूर दूर से भी किसी चीज का जुड़ा होना उससे दूर भागने और उसे खारिज कर देने के लिए काफी है..."

बाबासाहेब आंबेडकर की क्रांतिकारी रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट पर अरुंधति रॉय द्वारा लिखी गई हालिया प्रस्तावना 'द डॉक्टर एंड द सेंट' के बारे में छिड़े विवाद पर यह सबसे तर्कसंगत, सटीक और रचनात्मक हस्तक्षेप है, जिसमें आनंद तेलतुंबड़े ने न सिर्फ जातियों के खात्मे के सवाल को केंद्र में रखते हुए पूरे विवाद का विश्लेषण किया है, बल्कि उन्होंने आंबेडकर को एकांगी और सरलीकृत प्रतीक के रूप में पेश किए जाने की राजनीति और इसके खतरों को भी सामने रखा था. 
-अनुवादक
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उटलुक (10 मार्च 2014) में छपे अपने एक साक्षात्कार में अरुंधति रॉय ने कहा, ‘हमें अंबेडकर की जरूरत है-अभी और तुरंत’. यह बात उन्होंने नई दिल्ली के एक प्रकाशक नवयाना से बाबासाहेब आंबेडकर की रचना एनाइहिलेशन ऑफ कास्ट के एक नए, व्याख्यात्मक टिप्पणियों वाले संस्करण के प्रकाशन के सिलसिले में कही. अरुंधति ने ‘द डॉक्टर एंड द सेंट’ के नाम से एक 164 पन्नों का निबंध इस किताब की प्रस्तावना के रूप में लिखा है. इस तरह करीब 100 पन्नों की मूल रचना अब प्रस्तावना और टिप्पणियों समेत 415 पन्नों की मोटी किताब के रूप में हमारे सामने है.

एक अनुचित विवाद

अरुंधतिकी प्रस्तावना ने दलित हलकों में एक अनुचित विवाद पैदा किया है. इसने 1970 के दशक में शुरुआती दलित साहित्य के दौर में चली बहस की याद दिला दी, कि कौन दलित साहित्य लिख सकता है. दलितों के पक्ष में दलील देनेवालों का जोर इस पर था कि दलित साहित्य लिखने के लिए जन्म से दलित होना जरूरी है. मौजूदा विवाद में भी पहचान को लेकर ऐसी ही सनक की झलक दिखी है, कि आंबेडकर या उनकी किसी रचना की प्रस्तावना लिखने के लिए या उनसे परिचित कराने के लिए अनुसूचित जाति का प्रमाण पत्र पेश करना जरूरी है. हालांकि यह बात उलझन में डालने वाली है कि जब अनगिनत गैर दलित पहले ही आंबेडकर और उनके लेखन पर लिख चुके हैं, ऐसा विवाद सिर्फ अरुंधति के मामले में ही क्यों पैदा हुआ? क्या यह उनकी नामी-गिरामी हैसियत की वजह से है या मध्य वर्गीय दलितों की नजर में उनके माओवादी समर्थक होने की बदनामी की वजह से? इस दूसरी बात की गुंजाइश ज्यादा है, और यह उनकी प्रतिक्रिया की मूल वजह हो सकती है. क्योंकि उनके लिए कम्युनिज्म से दूर दूर से भी किसी चीज का जुड़ा होना उससे दूर भागने और उसे खारिज कर देने के लिए काफी है.


इसशोरगुल की जो भी वजह हो, यकीनन यह अनुचित था. सोशल मीडिया पर घटिया फिकरों की बाढ़ को नजरअंदाज कर दें तो इस रचना को लेकर तर्कसंगत स्तर की जो मुख्य आपत्तियां रहीं उनमें ये थीं कि उन्होंने आंबेडकर से परिचय कराने में गांधी को अनुचित रूप से ज्यादा जगह दी है. या यह कहा गया कि क्या इस काम के लायक काबिलियत उनमें थी. या फिर यह कि उनकी प्रस्तावना किताब में शामिल मूल रचना की प्रस्तावना नहीं है. अगर कोई इन नजरियों को जायज मान भी ले तो यह मानना मुश्किल है कि उनको ऐसी शिद्दत के साथ और खारिज कर देने के लहजे में जाहिर करना जरूरी था. वास्तविकता ये है कि अरुंधति के भीतर के सृजनात्मक लेखक ने पारंपरिक अर्थों में मूल रचना को नहीं बल्कि मूल पाठ पर गांधी की पत्रिका हरिजन में छपी गांधी की प्रतिक्रिया के संदर्भ में आंबेडकर और गांधी के बीच विवाद को चुना. उन्होंने सोचा कि नीरस, मशीनी तरीके से विषय को उठाने के बजाए अगर वे आंबेडकर और गांधी के बीच विरोधाभास की मदद लेंगी तो वे जातियों की समस्या को कहीं ज्यादा कारगर तरीके से पेश कर पाएंगी क्योंकि गांधी उदार हिंदू समाज का बेहतर प्रतिनिधित्व करते हैं. जहां तक काबिलियत का सवाल है, हालांकि अरुंधति जिस किसी भी विषय के बारे में लिखती हैं, उसे समझने के लिए काफी मेहनत करती हैं, लेकिन उनके लेख में उनकी शैली की मांग के मुताबिक, आमफहम समझदारी से परे जाकर किसी विशेषज्ञता की तड़क-भड़क नहीं दिखाई देती है. और शायद इसीलिए, उनका निबंध आम लोगों को ज्यादा आकर्षित करता है बजाए तथाकथित बुद्धिजीवियों के.



हालांकि यह अजीब विरोधाभास है कि सबसे दिलचस्प दलील दलितों की तरफ से नहीं बल्कि एक ऊंची जाति के पत्रकार की तरफ से लाइव मिंट के 18 मार्च 2014 अंक में आई ('बीआर आंबेडकर, अरुंधति रॉय एंड द पॉलिटिक्स ऑफ एप्रोप्रिएशन', जी संपत) जिसमें अरुंधति को यह चुनौती दी गई कि अगर वे नियमगिरी पहाड़ियों के नीचे मौजूद बॉक्साइट को आदिवासियों के पास छोड़ देने की मांग करती हैं, तो क्यों नहीं उन्हें आंबेडकर को दलितों के लिए छोड़ देना चाहिए, जो दलितों की अकेली संपत्ति हैं. यह दलील दिलचस्प भले ही हो, इसको लागू किया जाना खतरनाक है क्योंकि जातियों के आधार पर ‘अन्य’ बता दिए गए लोगों की किसी भी भागीदारी या संवाद को अनुचित बता कर खारिज किया जा सकता है. आंबेडकर दलितों के सांस्कृतिक हितों के प्रतीक हो सकते हैं, लेकिन तब भी सिर्फ दलितों के लिए उनकी घेरेबंदी कर दिए जाने का मतलब उनकी तौहीन करना और दलितों के हितों को बेहिसाब नुकसान पहुंचाना होगा. नियमगिरी को आदिवासियों के लिए छोड़ दिया जाना विकास की प्रचलित अवधारणा को एक प्रगतिशील चुनौती है, जबकि आंबेडकर को सिर्फ दलितों तक सीमित कर देने का मतलब होगा बाबासाहेब आंबेडकर के जातियों के खात्मे के मकसद को पीछे की ओर ले जानेवाली प्रतिक्रांति.

आंबेडकर: वास्तविक और अवास्तविक

हैरानीकी बात यह है कि पूरी बहस ने मुख्य मुद्दे को पीछे धकेल दिया है, वो यह है कि अरुंधति से किताब की प्रस्तावना लिखवाने के पीछे बुनियादी वजह प्रकाशक का कारोबारी हिसाब-किताब था. एक बुकर पुरस्कार प्राप्त लेखिका होने के रुतबे के कारण, जिसमें बाद में विभिन्न मौकों पर विभिन्न मुद्दों पर जनता की हिमायत में निडरता से खड़े होने से और भी बढ़ोतरी हुई है, किताब को मशहूरियत मिलनी ही थी. इससे भी आगे बढ़कर, यह कल्पना भी की जा सकती थी कि उनके लेखन से विवाद भी जरूर पैदा होगा जैसा कि सचमुच हुआ भी. किसी भी प्रकाशक के लिए यह किताब की बिक्री के लिहाज से मुंहमांगी मुराद है. भले ही नवयाना ने सचेत रूप से इसके बारे में सोचा हो या नहीं, लेकिन कोई व्यक्ति एक प्रकाशक की उत्पाद संबंधी स्थापित रणनीतियों के बारे में कोई शिकायत नहीं कर सकता, क्योंकि जो भी हो उसे इस कारोबार के तौर तरीकों पर ही चलना होता है. खुद को ‘जाति विरोधी’ बताने के बावजूद नवयाना में इधर गिरावट के रुझान भी दिखे हैं. आंबेडकर को लेकर बेहद प्रशंसा और भक्तिभाव से भरा साहित्य प्रकाशित करना और जातियों के उन्मूलन को समर्थन देना एक ही बात नहीं है. कुछ लोगों द्वारा शुरू किया गया यह विवाद एक बार ठंडा पड़ जाए तो दलितों की व्यापक बहुसंख्या इस पर गर्व करेगी कि अरुंधति रॉय जैसी शख्सियत तक उनके देवता की पूजा में शामिल हो गई हैं. आंबेडकर के प्रति ऐसा भक्तिभाव असल में जातीय पहचान को मजबूत करता आया है और जातियों के खात्मे की परियोजना को और भी दूर धकेलता आया है.

आंबेडकर की स्वीकार्यता बढ़ रही है तो इससे लाजिमी तौर पर यह नहीं मान लिया जाना चाहिए कि आंबेडकर जो चाहते थे, ऐसा जाति-विरोधी सदाचार भी बढ़ रहा है. आज आंबेडकर आम स्वीकार्यता के मामले में किसी भी दूसरे नेता से यकीनन कहीं आगे निकल गए हैं. कोई भी दूसरा नेता प्रतिमाओं, तस्वीरों, सभाओं, किताबों, शोध, संगठनों, गीतों या लोकप्रियता की दूसरी सभी निशानियों के मामले में आंबेडकर का मुकाबला नहीं कर सकता. दिलचस्प बात यह है कि फिल्मों और टीवी धारावाहिकों तक में उनकी तस्वीर स्थायी जगह पाने लगी है. हालांकि जातीय भेदभाव, जातीय उत्पीड़न, जातीय संगठनों और जातीय विमर्श आदि से जो बात साफ होती है, ये है कि आंबेडकर की स्वीकार्यता के समांतर जातिवाद का हमला भी बढ़ता गया है. इस अजीब रूप से विरोधाभासी परिघटना को केवल तभी समझा जा सकता है, जब वास्तविक आंबेडकर को अवास्तविक आंबेडकर से जुदा किया जाए. उस अवास्तविक आंबेडकर को, जिसे निहित स्वार्थों ने प्रतीकों में बदल दिया है, ताकि दलित जनता में पैदा होने वाली क्रांतिकारी बदलाव की चेतना को कुंद किया जा सके. ये प्रतीक वास्तविक और गूढ़ आंबेडकर को एक सरलीकृत प्रतीक में बदल देते हैं: संविधान का निर्माता, महान राष्ट्रवादी, आरक्षण का जन्मदाता, एक कट्टर कम्युनिस्ट विरोधी, एक उदारवादी जनवादी, संसदीय व्यवस्था का एक महान हिमायती, दलितों का मसीहा, एक बोधिसत्व आदि. एक हानिरहित, यथास्थितिवादी आंबेडकर के ये प्रतीक हर जगह छा गए हैं और इन्होंने वास्तविक आंबेडकर को क्रांतिकारी तरीके से देखने की संभावनाओं की राह में रुकावट खड़ी कर दी है. 

कौन से आंबेडकर

राज्य के सक्रिय समर्थन के साथ निहित स्वार्थों द्वारा ऐसे प्रतीकों को बढ़ावा दिए जाने के पीछे की साजिशें जो भी हों, आंबेडकर द्वारा जिंदगीभर अपने नजरिए को विकसित करते रहने, और किसी विचारधारा विशेष में उलझे बगैर व्याहारिक प्रयोगों पर जोर देने के कारण आंबेडकर को समझना बेहद मुश्किल हो जाता है. युवा आंबेडकर ने जातियों को एक घेरे में बंद वर्गों के रूप में देखा, जिस घेरेबंदी को अंतर्विवाह और बहिर्विवाह की व्यवस्था के जरिए कायम रखा जाता है. उन्होंने उम्मीद की कि व्यापक हिंदू समाज जागेगा और अंतर्जातीय विवाह जैसे सामाजिक सुधारों को अपनाएगा ताकि जातियों को वर्गों के रूप में खोला जा सके. उनकी यह राय यकीनन ही महाड के बाद के आंबेडकर के उलट है, जिनका सवर्ण हिंदुओं की उन्माद से भरी प्रतिक्रिया के कारण मोहभंग हो गया था और अब उन्होंने अपने मकसद को पूरा करने के लिए राजनीति का रुख कर लिया था. क्या उनकी इस्लाम धर्म कबूल कर लेने की धमकी दलितों की अलग राजनीतिक पहचान हासिल करने के लिए थी या सवर्ण हिंदुओं को सामाजिक सुधारों के बारे में विचार करने पर मजबूर करने के लिए थी? 1930 के दशक के आंबेडकर एक जातिविहीन मजदूर वर्गों के दायरे में जगह बनाने को उत्सुक दिखते हैं, जिन्होंने इंडियन लेबर पार्टी की स्थापना की. यह तर्कसंगत रूप से भारत की पहली वामपंथी पार्टी थी. तब वे कम्युनिस्टों के साथ भी कुछ दूर तक गए लेकिन तभी उन्होंने जातियों से पीछा छुड़ाने के लिए किसी दूसरे धर्म को अपनाने का एलान भी किया. 

1940के दशक के आंबेडकर, जो जातियों की तरफ फिर से लौटे, आईएलपी को भंग किया और शिड्यूल्ड कास्ट्स फेडरेशन की स्थापना की. उन्होंने सड़क पर आकर प्रतिरोध करने की राजनीति को छोड़ा और श्रम मंत्री के रूप में औपनिवेशिक सरकार में शामिल हुए. या वे आंबेडकर जिन्होंने स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज लिखी, जिसमें आजाद भारत के प्रस्तावित संविधान में एक स्थायी बुनियादी चरित्र के रूप में राजकीय समाजवाद की हिमायत की गई. कांग्रेस के सख्त विरोधी आंबेडकर या वे आंबेडकर जिन्होंने सर्वदलीय सरकार में शामिल होते हुए कांग्रेस के साथ सहयोग किया और संविधान सभा में शामिल होने के लिए जिनका समर्थन हासिल किया. वे आंबेडकर जिन्होंने प्रतिनिधित्व के तर्क को विकसित किया जो आखिरकार आरक्षण के रूप में सामने आया, जिन्होंने उम्मीद की थी कि दलितों के बीच के कुछ आगे बढ़े हुए तत्व पूरे समुदाय की तरक्की में मदद करेंगे या फिर वे आंबेडकर जिन्होंने इस पर सार्वजनिक रूप से अफसोस जाहिर किया कि उन्हें पढ़े लिखे दलितों ने धोखा दिया है. वे आंबेडकर जिन्होंने संविधान की रचना की और दलितों को सलाह दी कि अपनी समस्याओं के समाधान के लिए सिर्फ संवैधानिक पद्धतियों को ही अपनाएं या वे आंबेडकर जिन्होंने संभवत: सबसे कड़े शब्दों में इस संविधान को नकार दिया और कहा कि इसे जलाने वाले वे पहले इंसान होंगे. वे आंबेडकर जो एक तरह से अपने फैसलों की कसौटी के रूप में बार बार मार्क्स का जिक्र करते हैं या वे आंबेडकर जिन्होंने बौद्ध धर्म को अपनाया और, आंबेडकर के विशेषज्ञों में से एक एलियानॉर जेलियट के शब्दों में कहें तो, भारत में कम्युनिज्म के खिलाफ एक किलेबंदी खड़ी कर दी, या वे आंबेडकर जिन्होंने दुनिया को अलविदा कहने के कुछ ही दिन पहले बुद्ध और मार्क्स की सराहना के लहजे में तुलना करते हुए कहा कि इनका मकसद तो एक ही था, लेकिन उसे हासिल करने के तरीके अलग थे. उनके मुताबिक इसमें बुद्ध का रास्ता मार्क्स से बेहतर था. ये महज कुछ ऐसी मिसालें हैं, जो आंबेडकर को एकतरफा तरीके से पेश करने को चुनौती देती हैं. अगर कोई थोड़ी और गहराई में जाए उसका सामना कुछ और भी गंभीर समस्याओं से होगा.


इसधरती पर जब तक जाति का वायरस मंडराता रहेगा, आंबेडकर की जरूरत यकीनी तौर पर बनी रहेगी. लेकिन यह आंबेडकर उस पुराने आंबेडकर का फिर से अवतार भर नहीं होंगे, जिनकी ज्यादातर दलित भावुकता के साथ कल्पना करते हैं. वैसे भी नहीं जैसे अरुंधति उन्हें अभी और तुरंत बुलाना चाहेंगी. आंबेडकर को यकीनन ही तब की तुलना में आज के समाज में जातियों की कहीं अधिक जटिल और बिखरी हुई समस्या का सामना करने के लिए फिर से गढ़ा जाना जरूरी होगा.

अजीत सिंह के चुनावी दांव-पेंच

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-हरे राम मिश्र

"…चूंकि दंगों की त्रासदी और उस पर अजीत सिंह की चुप्पी को लेकर मुसलमानों को जितनी पीड़ा है, उसे पाटने के लिए अजीत सिंह को लंबा वक्त चाहिए। लेकिन चुनाव सिर पर हैं और अब ऐसा कुछ भी कर पाना अजीत सिंह के बस में नहीं है लिहाजा, अब उनका पूरा ध्यान केवल जाट मतदाताओं को संगठित करने पर ही लगा हुआ है। उनकी कोशिश है कि भाजपा ने जाटों और ठाकुर मतदाताओं के बीच दंगे के दौरान और उसके बाद सेंधमारी की जो कोशिशें की थीं, को प्रभावहीन बनाया जा सके.…"

साभार- http://4.bp.blogspot.com/
देश के राजनैतिक परिदृश्य में कुछ चेहरे और उनके कृत्य हमेशा से ही आवाम के लिए बेहद दिलचस्प रहे हैं। राष्ट्रीय लोक दल के मुखिया और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट अस्मिता के वाहक चौधरी अजीत सिंह इस देश के राजनैतिक परिदृश्य में एक ऐसी ही शख्सियत रहे हैं जिन्होंनें, विचारधारा से हटकर किसी भी दल के साथ गठबंधन करने और उस गठबंधन को अपने हित के लिए कभी भी खत्म करने में कतई गुरेज नहीं किया। अगर पिछले लोकसभा चुनाव की ही बात की जाए तो, उन्होंने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था लेकिन भाजपा गठबंधन के चुनाव हार जाने के बाद वे कांग्रेस का दामन थाम कर केन्द्र में मंत्री बन गए। अपने गढ़ पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इस बार का आम चुनाव वे कांग्रेस के साथ मिलकर लड़ रहे हैं लेकिन, अतीत के अनुभवों को देखते हुए यह दावे से नहीं कहा जा सकता कि चुनाव के बाद उनकी राजनैतिक प्रतिबद्धता किस दल के साथ जाकर हाथ मिला लेगी।

साभार- www.bamulahija.com
गौरतलबहै कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश के शामली और मुजफ्फरनगर जिलों में हाल ही में भूमिहीन और गरीब मुसलमानों के खिलाफ हुई भीषण सांप्रदायिक हिंसा के बाद उपजे सामाजिक और राजनैतिक उथल-पुथल के बीच पहले से ही लगातार सिमटते जा रहे जनाधार को बचाने की कोशिशों में लगे रालोद सुप्रीमो चौधरी अजीत सिंह इन दिनों अपने जाट वोट बैंक को संगठित करने का मैराथन प्रयास कर रहे हैं। उनका प्रयास है कि इस चुनाव में जाट और ठाकुर मतदाताओं को अपनी ओर किसी भी कीमत पर रखा जाए। शायद यही वजह है कि उन्होंने कभी मुलायम सिंह के करीबी रहे अमर सिंह और अभिनेत्री जया प्रदा को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है ताकि, पश्चिम के ठाकुरों में यह संदेश दिया जा सके कि पार्टी एक ठाकुर चेहरा भी जातीय प्रतिनिधि के बतौर रखती है। यही नहीं, भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत, जिन्हें दंगे के बाद, पहले भाजपा से प्रत्याशी बनाए जाने की चर्चा थी, को अमरोहा से टिकट देकर अपने बिखर रहे जाट वोट बैंक को जातिवादी अस्मिता और किसान हितैषी होने के नाम पर रोकने की कोशिश की है। लेकिन अफसोस यह भी है कि दंगा पीडि़त मुसलमानों की नाराजगी को दूर करने का कोई नुस्खा अब तक अजीत सिंह खोज नही सके हैं। 

यहां यह ध्यान देने लायक है कि चौधरी चरण सिंह के समय में जाट-मुसलमान एकता का नारा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में रालोद के अस्तित्व की एक असली वजह था। लेकिन हालिया हुए दंगों के बाद जिस तरह से मुसलमानों का बड़े पैमाने पर पलायन हुआ और जाटों से उन्हे गहरा अविश्वास हो गया, उससे जाट-मुस्लिम एकता का पूरा ताना बाना ही भरभराकर टूट गया। चूंकि अब तक पश्चिम में रालोद एक बड़ी ताकत थी, लिहाजा इस जाट-मुस्लिम एकता के टूट जाने के बाद अजीत सिंह का अस्तित्व पहली बार दांव पर लग गया है। अजीत सिंह की सारी छटपटाहट अपने इसी अस्तित्व को बचाने के इर्द गिर्द घूम रही है। जाटों पर आरक्षण का दांव खेलना इसी का एक प्रयास भर है। और बाहर से ऐसा लगता है कि अजीत सिंह ने जाटों को अपने पक्ष में कर भी लिया है।

लेकिन, राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि अजीत सिंह द्वारा मुसलमानों के बीच से रालोद के खिसक चुके जनाधार को वापस पाने के लिए चाहे जितने प्रयास अजीत सिंह द्वारा किए जाएं, यह लगभग साफ हो चुका है कि अब पश्चिम का मुसलमान अजीत सिंह के साथ कतई जाने वाला नही है। चूंकि दंगों की त्रासदी और उस पर अजीत सिंह की चुप्पी को लेकर मुसलमानों को जितनी पीड़ा है, उसे पाटने के लिए अजीत सिंह को लंबा वक्त चाहिए। लेकिन चुनाव सिर पर हैं और अब ऐसा कुछ भी कर पाना अजीत सिंह के बस में नहीं है लिहाजा, अब उनका पूरा ध्यान केवल जाट मतदाताओं को संगठित करने पर ही लगा हुआ है। उनकी कोशिश है कि भाजपा ने जाटों और ठाकुर मतदाताओं के बीच दंगे के दौरान और उसके बाद सेंधमारी की जो कोशिशें की थीं, को प्रभावहीन बनाया जा सके। मौजूदा परिदृश्य इस बात का संकेत दे रहा है कि भाजपा पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के बीच कुछ खास नही करने जा रही है। अजीत सिंह ने भाजपा के मंसूबों पर फिलहाल पानी फेर दिया है।

जहां तक कांग्रेस के साथ अजीत सिंह के गठबंधन का सवाल है, जहां तक मेरा आकलन कहता है यह कांग्रेस के लिए ज्यादा लाभदायक रहेगा। ऐसा माना जा रहा है कि जिन इलाकों में रालोद चुनाव नही लड़ रही है वहां के जाट मतदाता कांग्रेस को वोट कर सकते हैं। रालोद जाटों से दिए गए आरक्षण के नाम पर कांग्रेस के लिए इन इलाकों में वोट मागेंगी। भारतीय किसान यूनियन की पश्चिम के आम किसानों में आज भी पैठ है और ऐसा माना जा रहा है कि अगर राकेश टिकैत या नरेश टिकैत कांग्रेस के पक्ष में वोट की अपील करेंगे तो जाट वोट कांग्रेस की झोली में आ सकते हैं। जहां तक पश्चिम के मुसलमानों की बात है दंगे के बाद उनका वोट गैर भाजपा और गैर सपा के पक्ष में ही जाएगा। उन्हें कांग्रेस से भी कुछ नाराजगी है, लेकिन फिर भी वे कांग्रेस को वोट दे सकते हैं। ऐसे में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस जाट और दलित मुसलमानों के वोट पा सकती है जो उसे काफी फायदा पहुंचा सकता है। अजीत सिंह पश्चिम की 25 लोकसभा सीटों में से केवल आठ पर लड़ रहे हैं, बाकी पर कांग्रेस लड़ रही है ऐसे में यहां पर फायदा कांग्रेस को ही ज्यादा होता हुआ दिख रहा है। पश्चिम में कांग्रेस मजबूत हो कर उभर सकती है। 

गौरतलब है कि दंगों के बाद भारतीय किसान यूनियन के नेताओं का अचानक राजनीति में आना कई गंभीर सवाल तो खड़े करता ही है, भाकियू के भविष्य पर भी संकट के बादल मंडरा सकते हैं। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता और महेन्द्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत ने भले ही जाट अस्मिता बचाने के नाम पर अजीत सिंह के साथ हाथ मिलाया है लेकिन ऐसी खबरें पहले से ही आ रही थीं कि महेन्द्र सिंह टिकैत के वारिस भाजपा के टिकट पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसे में यहां पर सवाल उठना लाजिमी है कि क्या इन दंगों के मार्फत इन दोनों भाइयों की चुनावी समर में कूदने की कोई रणनीतिक तैयारी तो नही थी। चूंकि राकेश और नरेश टिकैत जाटों की सबसे शक्तिशाली खाप के प्रतिनिधि हैं और उनके प्रभाव क्षेत्र में एक बड़ा वोट उनकी अपनी खाप का ही है। ऐसे में यह सवाल जरूर उठेगा कि उन्होंने राजनीति में पदार्पण का यही समय क्यों चुना? चूंकि दंगा रोकने के लिए इन दोनों भाइयों ने भी सिवाय तमाशा देखने के कुछ नहीं किया, लिहाजा क्या यह मानना गलत होगा कि इस दंगे में इन दोनों भाइयों की भी रणनीतिक संलिप्ता थी। आखिर महेन्द्र सिंह टिकैत के इन वारिसों ने दंगा रोकने के लिए क्या किया? 

बहरहाल, राजनैतिक विश्लेषकों का मानना है कि राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजीत सिंह ने अमरोहा से राकेश टिकैत को लोकसभा प्रत्याशी बनाकर एक तीर से दो निशाने साध दिए हैं। राष्ट्रीय लोकदल जहां राकेश को अमरोहा से चुनाव लड़ाकर किसानों के सबसे बड़े संगठन भकियू में अपनी पकड़ मजबूत करना चाह रहा है। वहीं मुजफ्फरनगर दंगों के बाद अजित सिंह से नाराज चल रहे जाट समुदाय को जाट अस्मिता और रिजर्वेशन के नाम पर खुश करने की कोशिश भी की है। वेस्ट यूपी में बदले सियासी समीकरण में सभी दलों का ध्यान जाट व मुस्लिम वोट पर ही है। पश्चिमी यूपी के सम्भल, मुरादाबाद, बिजनौर, अमरोहा, मेरठ, मुजफ्फरनगर, बागपत, सहारनपुर, बुलंदशहर की सीट जाट बाहुल्य है। इसीलिए पश्चिमी यूपी में जाटों और किसानों में अपनी मजबूत पकड़ रखने वाले भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत को अजीत सिंह ने अमरोहा से प्रत्याशी बनाया है। लेकिन, अब सवाल यह है कि पहली बार मुसलमान रालोद को बड़े पैमाने पर वोट नही करने जा रहा है और एक बड़ी आबादी के अचानक साथ छोड़ देने के बाद पहली बार अजीत सिंह का भविष्य ही दांव पर नही लग गया है। अब देखना यह है कि अजीत सिंह की यह चुनावी रणनीति कितनी कामयाब होती है और कितने दिन तक वह कांग्रेस के लिए वफादार साथी बने रह सकेंगें। यही नहीं, सवाल अब भारतीय किसान यूनियन के भविष्य का भी है क्योंकि सिर्फ जातिवादी राजनीतिक अस्मिता लंबे समय तक राजनीति के मैदान में टिकाए नहीं रख सकती। ऐसा लगता है कि अब अजीत सिंह के साथ भारतीय किसान यूनियन भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने राजनीति के मैदान में आ गया है और अगर अजीत सिंह का सफाया होता है तो इसे भी डूबने से कोई बचा नहीं पाएगा। अब अजीत का अस्तित्व भारतीय किसान यूनियन के अस्तित्व का भी निर्धारण करेगा।

हरे राम मिश्र

सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार
पता- 
द्वारा- मोहम्म्द शुऐब एडवोकेट
110/46 हरिनाथ बनर्जी स्टरीट
लाटूश रोड नया गांव ईस्ट
लखनउ उ प्र
मो-07379393876

हिटलर और मोदीः क्या साम्यताएं महज संयोग हैं?

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अनिल यादव
-अनिल यादव

"...हिटलर ने राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रम दल (नात्सीदल) के अध्यक्ष डेक्सलर को भी अपने रास्ते से हटा दिया। इसी क्रम में यदि मोदी को देखा जाए तो हम आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए भाजपा के संस्थापक सदस्यों को ही अपने रास्ते से हटा दिया। लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेता जो भाजपा के ‘पीएम इन वेटिंग’ थे को भी नहीं बक्शा। इस क्रम में जसवंत सिंह, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी, लाल जी टंडन जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी संघ परिवार के साथ मिलकर अपने रास्ते से लगभग हटा ही दिया है। ये नेता आज अपनी सीटों से बेदखल होकर अपनी स्वयं की जीत-हार में ही परेशान हैं।..."

मानव का स्वभाव है कि वह किसी चीज को किसी परिप्रेक्ष्य में रखकर ही पहचान सकता है, उसे पूरी तरह समझ सकता है। अब तो सापेक्षता विज्ञान की भी स्वीकृत धारणा है। कोई चीज किसी संदर्भ में ही मोटी-पतली या अच्छी-बुरी होती है। अगर इसी बात को दूसरे शब्दों में कहा जाये तो तुलना और उदाहरण बुद्धि द्वारा विकसित बौद्धिक उपकरण हैं- इससे ही विकास की धारा का, इतिहास की दिशा का पता चलता है। वस्तुतः बिना दूरी लिए हम किसी भी वस्तु को पूर्ण रूप से नहीं देख सकते हैं और वर्तमान से दूरी लेने का एक ही तरीका है कि उसे अतीत से जोड़कर देखा जाए। इतिहास में एक परम्परा रही है कि किसी भी व्यक्तित्व को समझने के लिए ‘उसी जैसा’ व्यक्ति इतिहास की गर्त में खंघाला जाता है, इतिहास के विद्यार्थियों के पास ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब वह किसी ऐतिहासिक व्यक्ति को समझने के लिए अतीत की धारा में आगे-पीछे होते हैं। कभी किसी को ‘कश्मीर का अकबर’ तो कभी किसी को ‘भारत का नेपोलियन’ कह कर उसे आंकता है। अभी हाल में ही भारत में तमाम लोगों ने अन्ना हजारे को गांधी के सापेक्ष करके अतीत को खंघाला।



खैरअभी हाल में राहुल गांधी ने नरेन्द्र मोदी को हिटलर कह कर हमें फिर से अतीत की धारा में पीछे जाने के लिए विवश किया है। पूरी भारतीय राजनीति में हिटलर (जर्मनी का) फिर से चर्चा में है- आखिर कौन है ये हिटलर? नरेन्द्र मोदी से उसका क्या रिश्ता है? मोदी जिस संघ परिवार में खेल-कूद कर बड़े हुए हैं क्या उसकी विचारधारा से हिटलर जुड़ा हुआ है? ये सारे सवाल आज राजनैतिक विश्लेषकों और मीडिया द्वारा उछाले जा रहे हैं।

हमें नरेन्द्र मोदी को समझने के लिए अतीत की धारा में लौटाना होगा- आॅस्ट्रिया के एक छोटे से शहर ब्रानों में, जहाँ 20 अप्रैल 1889 को हिटलर ने एक मध्यवर्गीय परिवार में जन्म लिया, एक सैनिक के तौर पर हिटलर ने अपना जीवन शुरू किया परन्तु बड़ी तेजी के साथ परिस्थितियाँ बदलती गयी और अपनी जालसाजी और कुटिलता के चलते हिटलर जर्मनी का फ्यूहरर (प्रधान नेता) बन बैठा। इसी क्रम में हिटलर ने राष्ट्रीय समाजवादी जर्मन श्रम दल (नात्सीदल) के अध्यक्ष डेक्सलर को भी अपने रास्ते से हटा दिया। इसी क्रम में यदि मोदी को देखा जाए तो हम आसानी से देख सकते हैं कि किस तरह नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए भाजपा के संस्थापक सदस्यों को ही अपने रास्ते से हटा दिया। लालकृष्ण आडवाणी सरीखे नेता जो भाजपा के ‘पीएम इन वेटिंग’ थे को भी नहीं बक्शा। इस क्रम में जसवंत सिंह, उमा भारती, मुरली मनोहर जोशी, लाल जी टंडन जैसे वरिष्ठ नेताओं को भी संघ परिवार के साथ मिलकर अपने रास्ते से लगभग हटा ही दिया है। ये नेता आज अपनी सीटों से बेदखल होकर अपनी स्वयं की जीत-हार में ही परेशान हैं।

हिटलरने तात्कालीन जर्मनी के आर्थिक हालात का बड़ी चतुराई के साथ लाभ उठाया था। 1929 में आयी महा आर्थिक मंदी ने जर्मनी की व्यवस्था को चैपट कर दिया था। उस समय जर्मनी की सड़कों पर बड़ी संख्या में बेरोजगार गले में तख्ती लटकाये- ‘मैं कोई भी काम करने को तैयार हूँ’ दिखायी देने लगे थे। पूँजीपतियों को भय सताने लगा था कि कहीं जर्मनी में साम्यवादी क्रान्ति न हो जाये। आज भारत भी आर्थिक उदारीकरण के नाम पर लूट-खसोट की नीतियों से पीडि़त है। अर्थव्यवस्था के हालात ठीक नहीं हैं, वस्तुतः इतिहास में ऐसे तमाम उदाहरण हैं जब फासिस्ट संगठन अपना प्रभाव बढ़ाते हैं तो पूंजीपति वर्ग उनके साथ जुड़ जाता है। आज जब नरेन्द्र मोदी अम्बानी और आडानी के पैसों से उड़नखटोले में उड़ कर विकास का जुमला उछाल रहे हैं तो अनायास ही हिटलर के साथ जर्मनी के पूंजीपतियों के सम्बन्धों की यादें ताजा नहीं हो रही हैं। यहाँ जर्मनी के इतिहास के पन्नों को पलटना बेहद उपयोगी होगा क्योंकि प्रश्न हिटलर और जर्मनी के पूंजीपतियों के सम्बंधों अथवा मोदी और अम्बानी के सम्बंधों का नहीं है बल्कि इसका है कि इन सम्बन्धों के चलते मनुष्यता को कैसे-कैसे दुख झेलने पड़ते हैं।

हिटलरके पतन के बाद न्यूरेमबर्ग में नाजियों के खिलाफ मुकदमा चला, जिसमें बाल्थर फंक नामक का एक व्यक्ति भी था जो जर्मनी के प्रसिद्ध आर्थिक अखबार ‘बर्लिनर वोरसेन जेतुंग’ का सम्पादक था और पूंजीपतियों और हिटलर के बीच का महत्वपूर्ण कड़ी भी। उसने कई रहस्यों को उजागर किया जिससे हिटलर और पूंजीपतियों का संबंध उजागर हुआ। हिटलर ने कोयला खानों के मालिकों से पैसे वसूलने के लिए ‘सर ट्रेजरी’ नाम से एक फण्ड भी बनाया था। फंक ने एक लम्बी लिस्ट बतायी जिसमें काॅर्टन आई.जी. फाखेन, वान स्निजलर, अगस्त दिहन, जैसे उद्योगपति थे जो हिटलर को अपने स्वार्थों के लिए चंदा देते थे। आज भारत में खास कर के गुजरात में मोदी ने अडानी को 1 रू0 प्रति वर्गफुट से हिसाब से जमीने दी हैं, से साफ जाहिर है कि आडानी और अम्बानी मोदी को किस लिए पैसे दे रहे हैं? क्यों भारत के दो-तिहाई पूंजीपति मोदी को बतौर प्रधानमंत्री देखना चाहते हैं?

हिटलरने अपना प्रचार करवाने के लिए एक पोस्टर जारी किया था- जिसमें सिर्फ हिटलर का एक फोटो था। यानि नाजीवादी पार्टी के अन्य नेताओं ने हिटलर के समक्ष समर्पण कर दिया था। भारत के इतिहास में ऐसे उदाहरण कम हैं जब एक व्यक्ति ने पूरी पार्टी को हाइजैक कर लिया हो- तभी तो आज ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी का नारा उछाला जा रहा है। भारत के इतिहास में कोई भी व्यक्ति प्रधानमंत्री बनने के लिए शायद ही इतना उतावला या हड़बड़ी में रहा हो। आज संसदीय गरिमा को ताक पर रखकर ‘प्रेसीडेन्सियल फोबिया’ से ग्रसित मोदी ‘प्रधानमंत्री का चुनाव’ लड़ रहे हैं।

मोदी अपनी छवि बनाने के लिए प्रतिदिन 25 हजार डाॅलर खर्च करते हैं। सोशल साइटों, फेसबुक, ट्यूटर, यू-ट्यूब पर हजारों की संख्या में पेशेवर लोग बैठाए गए हैं जो मोदी के भाषणों और वीडियो को अपलोड करते हैं। उनकी रैलियों को लाईव कवर करने के लिए टीवी चैनलों को अपना ओवी वैन नहीं भेजना पड़ता, उनकी पीआर एजेंसी खुद लाईव कवरेज चैनलों के दफ्तरों तक पहुंचाती है। यह तरीका कोई नया नहीं है जर्मनी में हिटलर भी ठीक इसी तरीके से अपना प्रचार करता था। उसने चार लाख रेडियो सेट बांटे थे जिस पर उसका भाषण सुनना अनिवार्य था। आज मोदी जिस तरह से ‘विकास-विकास’ रट रहे हैं, वह एक पुराना हथियार है। अपने चुनाव प्रचार में हिटलर ने भी एक पोस्टर जारी करवाया था- जिस पर लिखा हुआ था- ‘आपकी फाॅक्सवागन’। इसके जरिये यह एहसास करवाने की कोशिश की गयी कि अब आम मजदूर भी कार खरीद सकता है। आज भारत के 16वीं लोक सभा के चुनाव में भाजपा मध्यवर्ग को कुछ ऐसे ही सपने दिखा रही है।

भाषा का भ्रमजाल ऐसा होता है कि बहुत सारी चीजों पर लोग धूल डालने में सफल हो जाते हैं। यदि हम हिटलर के भाषणों को सुनें तो पाएंगे कि उसने कुछ शब्द ईजाद किए थे जिसका वह बखूबी प्रयोग करता था। यहूदियों की हत्या और गैस चैम्बरों में दम घोट कर मारने वाली प्रक्रिया के लिए क्रमशः वह ‘अन्तिम समाधान’ और ‘इवैक्युएशन’ शब्द का प्रयोग करता था। आज मोदी भी अपने ‘राजधर्म’ की असफलता और गुजरात दंगे को ‘क्रिया की प्रतिक्रिया’ कह कर अपने ‘खूनी दाग’ को छुपा लेते हैं। ठीक हिटलर की तरह वह भी अपने विरोधियों के लिए अपमानजनक शब्दों का प्रयोग करते नजर आते हैं।

खैरमोदी और हिटलर की इस बहस को आगे ले जाने के लिए हमें आर0 एस0 एस0 और नाजीवाद के संबंधों और विचार धारा को देखना होगा। जैसा कि हिटलर ने नाजी पार्टी को मजबूत करने के लिए एस0 एस0 नाम का एक सशक्त सैनिक दल बनाया जो भूरी रंग की कमीज पहनते थे। यह मात्र संयोग नहीं माना जाना चाहिए कि मोदी जिस संगठन में खेल-कूद कर बड़े हुए हैं उसका नाम भी आर0 ‘एस0 एस0’ है। इनका पहनावा भी इन्हीं लोगों से प्रेरित है। संघियों के लिए गीता मानी जाने वाली पुस्तक ‘वी आॅर आवर नेशनहुड डिफाइंड’ में गोलवलकर ने राष्ट्र को परिभाषित भी हिटलर की तरह ही किया है। गोलवलकर ने राष्ट्र की परिभाषा में इसके पांच तत्वों को बताया है- भौगोलिक (देश), नस्वी (नस्ल) धार्मिक (धर्म), सांस्कृतिक (संस्कृति), भाषायी (भाषा), इसमें से एक भी तत्व हटा दिया जाए तो राष्ट्र समाप्त हो जाता है। आज जब भी मोदी राष्ट्र अथवा राष्ट्रीयता की बात करते हैं तो वह धर्म को नहीं भूलते हैं, तभी तो खुद को हिन्दू राष्ट्रवादी कहते हैं। वस्तुतः नाजियों के लिए भी धर्म और नस्ल राष्ट्र के प्रमुख नियामक अंग होते थे। इसी आधार पर वे राष्ट्रीयता की जमीन तैयार करते थे। आज मोदी भी खुले मंचों से भारत को हिन्दुओं के लिए सुरक्षित जगह बनाने की गारंटी देते नजर आते हैं। नाजियों द्वारा राष्ट्र के लिए ‘वोल्क’ शब्द का प्रयोग किया जाता था जिसका अर्थ था- ‘धार्मिक-रक्त संबंधी एकता वाला जनसमूह’। ठीक इसी तर्ज पर संघ के लोगों ने ‘रेस’ की अवधारणा गढ़ी है।

वस्तुतः इतिहास वह प्रयोगशाला है जिसमें मानव-कृतियों का लेखा-जोखा सुरक्षित है। उसमें हिटलर के भी सारे कारनामे दर्ज हैं और जब-जब ऐसी परिस्थितियां बनेंगी तब-तब वर्तमान को इसी प्रयोगशाला में समझा जायेगा और मौजूदा दौर के हिटलर को पहचाना जायेगा ताकि हम अपने लोकतांत्रिक मूल्यों को बचा सकें।

अनिल यादवद्वारा- मोहम्मद शुएबएडवोकेट110 / 46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीटलाटूश रोड, नया गांव, ईस्ट लखनऊ, उत्तर प्रदेश

कि भूख से मरने से बेहतर है कि लड़ कर मरें..

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अविनाश कुमार चंचल
-अविनाश कुमार चंचल 

"....‘हमलोग सुतल (सोए) थे। कि अचानक से कंपनी वाला लोग बुलडोजर लेकर आ गया। हमारा फोटो खिंचने लगा और फिर घर को खाली करवा दिया।’ गुलाबी पनिका उस दिन को याद करने लगती है जब कंपनी के लोगों ने उनको जमीन और घर से निकाला था। गुलाबी सही सवाल उठाती है, ‘हमारा तीन बेटा है। एक को प्लाट मिला बांकि कहां जाएगा। वैसे भी प्लाट सिर्फ पुरुषों को बांटा गया है महिलाओं को देने का नियम भी नहीं है। हम कबतक पुरुषों की तरफ टकटकी लगाए रहेंगे।’… "


एस्सार ने तोड़े वादे, 35 दिन से अनशन पर महिलाएँ


रीब पांच साल पहले जब फुलझरिया अपने बेटे के कैंसर का ईलाज करवा कर जबलपुर से लौटी तो देखा कि उसके घर को तोड़ दिया गया है और उसके सामान को बाहर एक कोने में फेंक दिया गया है। एक तरफ बीमार बेटा तो दूसरी तरफ तोड़ दिया घर। फुलझरिया के ऊपर मुसीबतों का पहाड़ टूट चुका था, जिसे पांच साल बाद भी हर रोज फुलझरिया झेलने को मजबूर है।

दरअसल, यह किस्सा अकेले किसी फुलझरिया की नहीं है बल्कि 35 दिन से अनशन पर बैठी सैकड़ों दलित-आदिवासी महिलाओं की है जिन्हें एस्सार नाम की कंपनी के पावर प्लांट को स्थापित करने के लिए पांच साल पहले विस्थापित होने पर मजबूर किया गया था। साल 2007 में एस्सार पावर प्लांट को सिंगरौली के बंधौरा गांव में स्थापित किया गया था। कंपनी के आने से क्षेत्र का विकास होगा, विस्थापित परिवार के लोगों को नौकरी मिलेगी, बच्चे स्कूल जायेंगे और बीमार को ईलाज के लिए घर के पास ही अस्पताल की सुविधा होगी- हर तरफ खुशहाली के ये कुछ सपने थे जो पावर प्लांट लगने से पहले इन दलित-आदिवासी आँखों को दिखाये गए थे।

हालांकिसिंगरौली जिले में न तो ‘विकास’ के ये सपने नये हैं और न यहां के लोगों का इन सपनों के बहाने ठगे जाना। 1962 में बने रिहंद बांध से चलकर ये सपने एनसीएल, एनटीपीसी, रिलायंस के पावर प्लांट और कोयला खदान से होते हुए हिंडाल्को और एस्सार तक पहुंचा है। इस सफर में यहां की जनता के साथ-साथ सिंगरौली भी कभी स्वीजरलैंड तो कभी सिंगापुर बनने का ख्वाब देखती रही और उन ख्वाबों के टूटने, छले जाने के दर्द को सहती रही है।

मानमतिबियार दलित महिला है। मानमति पावर प्लांट लगने से पहले की कहानी को सुनाना चाहती है। ‘जमीन लेते समय हमलोग को बहलाता-फुसलाता रहा। खुद प्रशासन और कंपनी मिलकर समझौता किया था। कंपनी के मनई (आदमी) हर रोज घर पर आकर दुआ-सलाम करता और कहता कि अब हमार दुख दूर भई जाई।’ धीरे-धीरे मानमति के आँखों में कहानी सुनाते-सुनाते जो चमक आयी थी वो कम और अंत में सख्त होती चली गयी। ‘वादा के मुताबिक न प्लाट न भत्ता कुछ नहीं दिया कंपनी। अब यही शासन और कंपनी कहता है-कुछ नहीं देंगे’। बात खत्म करते-करते मानमति की सख्त आँखों में पानी उतर आता है।

अपने 50 डिसिमिल जमीन में बसे लंबे आहाते वाले घर को छोड़कर कंपनी के 60 बाय 90 के दिए गए प्लाट में रहने को मजबूर जागपति देवी उस दिन को याद करती है जब कंपनी ने उसके घर और जमीन को खाली करवाया था। सुबह का वक्त था। चूल्हे पर अभी चावल-दाल चढ़ाया ही था कि कंपनी और प्रशासन के लोग पुलिस वालों के साथ आ गए। ‘हम कहे कि हम नहीं डोलव( जायेंगे) जबतक मुआवजा न देवे। पटवारी कहा- मिलेगा लेकिन अब कोई पुछने भी नहीं आता है’।

इनविस्थापित परिवारों में ज्यादातर खेती और पशु पालन पर निर्भर रहने वाले लोग ही थे। जमीन से विस्थापन ने इनसे इनकी अर्थव्यवस्था का ये दो मजबूत आधार ही खत्म कर दिया। पहले लगभग सभी परिवारों के पास गाय-बकरियां होती थी लेकिन विस्थापित कॉलोनी में न तो चारागाह है और न ही इतनी जगह की पशुपालन किया जा सके। नतीजन खेती के साथ-साथ पशुपालन उद्योग भी खत्म। चैनपति बड़े उत्साह से फसल गिनाती है, “हम लोगों की अपनी दो एकड़ की खेती थी। अरहर, गेंहू, धान, उड़द, तिली, मक्का। सबकुछ खुद के खेत में उपजा लेते थे। कभी बाजार से खरीद कर अनाज नहीं खरीदे। पूरा परिवार मिलकर खेती करते और गुजर-बसर होता रहा।’ चैनपति का पति आज घर बनाने के काम में जाकर मजदूरी करता है।
इसतरह किसानों के मजदूर बनते जाने की कहानी अंतहीन है। कोई आशचर्य नहीं कि कल देश भर के किसान शहरों के किनारे घर बनाते या फिर पत्थर तोड़ते नजर आयेंगे। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़िशा, नोएडा तक। हर जगह किसानों-आदिवासियों से जमीन-जंगल छीन कर कॉर्पोरेट हाथों को बेचा जा रहा है और उन्हें मजदूर बने रहने को मजबूर कर दिया गया है।


एस्सारपावर प्लांट से विस्थापित लोगों को कंपनी ने जिस कॉलोनी में बसाया है वहां न तो बिजली की सुविधा है और न ही पानी की। अगर पानी का टैंकर नहीं पहुंचता तो लोग पानी के बिना ही रहने को मजबूर होते हैं। जिन लोगों के संसाधनों के सहारे कंपनी देश को रौशन कर मुनाफा कमाना चाहती है उन्हीं लोगों के घरों में अँधेरा पसरा है।

‘हमलोग सुतल (सोए) थे। कि अचानक से कंपनी वाला लोग बुलडोजर लेकर आ गया। हमारा फोटो खिंचने लगा और फिर घर को खाली करवा दिया।’ गुलाबी पनिका उस दिन को याद करने लगती है जब कंपनी के लोगों ने उनको जमीन और घर से निकाला था। गुलाबी सही सवाल उठाती है, ‘हमारा तीन बेटा है। एक को प्लाट मिला बांकि कहां जाएगा। वैसे भी प्लाट सिर्फ पुरुषों को बांटा गया है महिलाओं को देने का नियम भी नहीं है। हम कबतक पुरुषों की तरफ टकटकी लगाए रहेंगे।’

एस्सारपावर प्लांट से निकलने वाले जहरीले राखड़ (ऐश पॉण्ड) को खुले में ही बनाया गया है और ज्यादातर हिस्सा नदी में बहा दिया जाता है। जहरीले नदी के पानी को पीने से गांव वालों के जानवर आए दिन मरते रहते हैं लेकिन कंपनी ऐश पॉण्ड को लेकर बने सरकारी नियम को भी लागू करने के लिए तैयार 

कंपनी के शोषण, विस्थापन, पलायन, बेचारगी, मजबूरी, हताशा की अंतहीन कहानी यहां पसरी हुई हैं। चाहे विधवा फूलमति पनिका हो जिसे अपने दो बच्ची की शादी की चिंता है, अपने तीन बेटे को पढ़ा-लिखा कर कंपनी में नौकरी करते देखने का चाहत लिए मानमति रजक हो, प्लाट, मुआवजा, भत्ता के इंतजार में सोनमति साकेत हो, पति द्वारा छोड़ दी गयी सुगामति साकेत हो, गुजरतिया हो, कौशल्या साकेत हो या फिर झिंगुरी। भले सबकी अपनी अलग-अलग कहानी है लेकिन दर्द एक है- विस्थापन और हताशा से भरी।

अपनाकाम-धंधा छोड़कर कब तक बैठे रहियेगा?- मैं पूछता हूं।“कौन-सा काम धंधा। काम ही नहीं है तो। खेती-किसानी भी नहीं है। होली तक में हमलोग अपने-अपने घर नहीं गए। अब तो जबतक मांग पूरी नहीं होगी नहीं हटेंगे”। सारी महिलाओं ने एक आवाज में जवाब दिया। फिलहाल पुलिस और कंपनी हर रोज अनशन पर बैठी महिलाओं पर हटने का दबाव बना रही है। कभी महिला पुलिस के डंडे का खौफ तो कभी आँसू गैस के गोले का लेकिन अपना सबकुछ गवां चुकी इन महिलाओं ने अपना डर भी काफी पीछे छोड़ दिया है।चलते-चलते एक महिला कहती है, “भूख मरने से बेहतर है लड़ाई ले लें। इसलिए महिला लोग लड़ाई में कूदे हैं”।

अविनाश युवा पत्रकार हैं. 
पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी स्वतंत्र लेखन. 
इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है.

नोटा बटन किसलिए?

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-सुनील कुमार

"...नोटा के विषय में जहां कम मतदताओं को जानकारी है वहीं चुनाव आयोग इसकी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए निष्क्रय है। सामाजिक कार्यकर्तां इसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं तो अधिकारियों द्वारा नोटा के प्रचार की अनुमति नहीं दी जा रही है। नोटा का प्रचार करने से रोका जाना दर्शाता है कि चुनाव के दौरान अफसरशाही पूरी तरह से हावी हो जाती है।.…"

सुनील कुमार

सामाजिक संगठनों और एन.जी.द्वारा दायर की गई पीआईएल पर सनुवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 27  सितम्बर,2013 भारतीय मतदताओं को नोटा (इनमें सेकोई नहींका अधिकार दिया। कोर्ट ने कहा कि नकरात्मक वोट भी अभिव्यक्ति की आजादी का अनुच्छेद 19  के तहत संवैधानिक अधिकार है। कोर्ट ने चुनाव आयोग को सभी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीनों में नोटा (इनमें से कोई नहींबटन लगाया जाये का निर्देश दिया। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद 5 राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव मेंइस बटन को लगाया गया जिसमें 15 लाख से अधिक लोगों ने नोटा बटन का इस्तेमाल किया। मध्यप्रदेश की 26, छत्तीसगढ़ की 15, राजस्थान की 11  दिल्ली की 4सीटों पर जीत हार का अंतर नोटा पर परे वोटों से कम था।

भारत के ग्रामीण इलाकों में साक्षरता दर कम होने के कारण बहुत से मतदताओं को नोटा बटन के विषय में जानकारी नहीं है। 16 वीं लोकसभा में पहली बार नोटा बटन का प्रयोग देश में होगा। कोई भी राजनीतिक पार्टी इसकी जानकारी मतदाता को देना भी नहीं चाहता वहीं चुनाव आयोग भी इसकी जानकारी मतदाताओं तक नहीं पहुंचाती है।  चुनाव आयोग मतदान करने के लिए प्रचार  एस एम एस तो करवा रहा है लेकिन नोटा को लेकर कोई जानकारी नहीं दे रहा है। यहां तक कि चुनाव अधिकारियों को भी इसके विषय में ट्रेनिंग नहीं दी जाती है जैसा कि विधानसभा चुनाव में दंतेवाड़ा के कट्टेकल्यान के मतदान अधिकारी मुन्ना रमयणम से जब बीबीसी संवादाता ने नोटा बटन में विषय बात की तो वे नोटा बटन को लेकर अनभिज्ञ थे। मुन्ना रमयण गोंडी भाषा भी जानते हैं जिससे वे वहां के मतदाताओं को आसानी से समझा सकते थे लेकिन जब उनको ही मालूम नहीं है तो वो मतदाता को कैसे बतायेंगे?
साभार bamulahija.com
नोटा के विषय में जहां कम मतदताओं को जानकारी है वहीं चुनाव आयोग इसकी जानकारी उपलब्ध कराने के लिए निष्क्रय है। सामाजिक कार्यकर्तां इसकी जानकारी लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं तो अधिकारियों द्वारा नोटा के प्रचार की अनुमति नहीं दी जा रही है। नोटा का प्रचार करने से रोका जाना दर्शाता है कि चुनाव के दौरान अफसरशाही पुरी तरह से हावी हो जाती है। चुनाव आयोग भी मनमानी करने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई करने को तब तक तैयार नहीं होता जब तक मामला किसी राजनीतिक दल द्वारा  उठाया जाये। राजनीतिक दल नोटा के प्रावधान से नाखुश हैं यही कारण है कि वे भी नोटा के विषय में लोगों को नहीं बताना चाहते हैं और नोटा की प्रचार की अनुमति नहीं दिये जाने पर कोई भी राजनैतिक दल किसी प्रकार की टीका टिप्पणी करने को तैयार नहीं है।

मुलताई क्षेत्र से दो बार विधायक रहे डॉसुनीलम को विधानसभा चुनाव में नोटा के प्रचार की अनुमति यह कहकर प्रदान नही की कि वे प्रत्याशी या उसके एजेंट नहीं है।इस बार भी बैतुल निर्वाचन अधिकारी द्वारा अब तक नोटा के प्रचार के अनुमति प्रदान नहीं की गई है। डॉ सुनीलम ने चुनाव आयुक्त भारत सरकार को पत्र लिखकर नोटा के प्रचार की अनुमति  देने वाले अधिकारियों पर कार्रवाई करने की मांग करते हुए कहा है कि गत विधानसभा चुनाव में भी मध्यप्रदेश में नोटा की प्रचार की अनुमतिनहीं दी गई थी। सुनीलम को छिंदवाड़ा के निर्वाचन अधिकारी द्वारा 25 मार्च, 2014 को अनुमति प्रदान की गई लेकिन 3 अप्रैल, 2014 को अनुमति निरस्त कर दी गई।उल्लेखनिय है कि गत विधानसभा चुनाव में छिंदवाड़ा में 39,235 मतदताओं ने नोटा का बटन दबाया था।

इसी तरह किसान संघर्ष समित के महामंत्री लीलाधर चौधरी ने 22 मार्च को देवास निर्वाचन अधिकारी से अनुमति मांगी थी जो आज तक नहीं दी गई है। सिद्धी में 4अप्रैल, 2014 कोसंयोजक उमेश तिवारी ने निर्वाचन अधिकारी सिद्धी से अनुमति मांगी थी लेकिन अनुमति प्रदान नहीं की गई जिसकी शिकायत राज्य निर्वाचनअधिकारी को उमेश तिवारी जी द्वारा 8 अप्रैल को की गई।  

डॉ सुनीलम द्वारा कई बार चुनाव आयोग को शिकयतें भेजने तथा सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता संजय पारिख द्वारा चुनाव आयुक्त को दो बार पत्र लिखे जाने केबावजूद अब तक चुनाव आयोग द्वारा नोटा के प्रचार की अनुमति  देने वाले अधिकारियों पर कोई कार्रवाई नहीं की गई हैं। भारत की संविधान अभिव्यक्ति की स्वतंत्रतादेता है लेकिन अधिकारियों द्वारा संवैधानिक अधिकार का हनन खुलेआम किया जा रहा है।

अन्ना हजारे भी नोटा के मुद्दों को लेकर चुनाव आयोग से मिले थे तब आयुक्त एवं अन्य अधिकारियों ने उन्हें बताया था कि नोटा के प्रचार-प्रसार पर कोई रोक नहीं है. 

इसी तरह की जानकारी संजय पारिख जी को अधिकारियों द्वारा दी गई लेकिन नोटा का प्रचार प्रसार नहीं हो पाने के बावजूद कोई कार्रवाई नहीं की जा रही है।

सुप्रीम कोर्ट ने जनभवनाओं को देखते हुए आदेश तो दे दिया कि नोटा बटन के रूप में मतदाताओं को विकल्प उपलब्ध कराया जाये। तो क्या यह विकल्प वोट प्रतिशत बढ़ाने के लिए हैजैसा कि नोटा में डाले गये वोट कोअवैध ही माना जाता है उस वोट की गिनती हटा कर ही जमानत जप्त करने का प्रावधान है। जब मतदाता सोचसमझ कर नोटा का बटन दबाया है तो उस वोट को अवैध कैसे माना जा रहा हैक्या इस तरह का प्रावधान व्यवस्था से रूष्ट मतदाताओं की प्रक्रिया को ही अवैध घोषित नहीं कर रहा हैक्या यह मतदाताओं का अपमान नहीं हैजिस तरह से चुनाव आयोग द्वारा नोटा में डाले गये मत को अवैध माना जाता है उससे तो यही लगता है कि नोटा कोई विकल्प है ही नहीं। नोटा वोट को अवैध माना जाना सुप्रीम कोर्ट की अवेहलना है या मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक पहुंचाने का शिगुफा है?

घातक बनता मल्टीनेशनल का चुनावी चंदा

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-हरे राम मिश्र

"...अब सवाल यह उठता है कि सरकार के गठन के बाद इतनी ज्यादा मात्रा में दिए गए चंदे की वसूली ये कंपनियां किस प्रकार से करेंगी? मल्टीनेशलन कंपनियों का जब केवल एक ही लक्ष्य- 'किसी भी तरह अधिकतम मुनाफा’ हो तो आखिर इस चंदे के पीछे उनकी क्या आर्थिक रणनीति होती होगी? जहां तक मेरा आकलन है, सरकार चाहे जिस पार्टी की बने वेदांता जैसे बड़े समूह जो दोनों ही राष्ट्रीय दलों को भरपूर मात्रा में चुनावी चंदा दे चुके हैं, का सरकार के औद्योगिक निर्णयों पर बड़ा दबाव रहेगा। चाहे वह झारखंड हो या फिर उड़ीसा, इन कंपनियों द्वारा देश के प्राकृतिक संसाधनों की बेखौफ लूट का किस्सा किसी से छुपा नहीं हैं।..."

भी हाल ही में, अधिवक्ता प्रशांत भूषण द्वारा दिल्ली उच्च न्यायालय में दायर की गयी एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायालय ने केन्द्र सरकार और चुनाव आयोग को आदेश दिया है कि वे बहुराष्ट्रीय कंपनी वेदांता और उसकी सहायक कंपनियों से गैर कानूनी तरीके से करोड़ों रुपए चुनावी चंदा लेने के लिए भाजपा और कांग्रेस पर कार्यवायी करे। उच्च न्यायालय का यह आदेश दोनों राजनैतिक दलों द्वारा 'फाॅरेन कंन्ट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट-1976'का उल्लंघन करने पर आया है, जिसमें किसी भी विदेशी स्त्रोत या संस्थान से चुनावी चंदा लेने की स्पष्ट मनाही है। 


न्यायमूत्रिप्रदीप नन्दाजोग और जयंतनाथ की खण्डपीठ ने अपने फैसले में कहा है कि इन दोनों ही पार्टियों के चंदों की रसीदों की जांच होनी चाहिए और केन्द्र सरकार छह महीने के भीतर इन पर कार्यवायी करे। याचिका में मांग की गयी थी कि इन दोनों पार्टियों को जो भी चंदा इन विदेशी कंपनियों से मिला है उसे हाईकोर्ट की निगरानी में जब्त कर लिया जाए। ब्रिटेन की मल्टीनेशनल कंपनी वेदांता रिसोर्स ने कई सौ करोड़ रुपए चुनावी चंदा दोनों ही दलों को चुनाव लड़ने के लिए दिया है। यही नहीं, वेदांता समूह की अन्य सहायक कंपनियां-सेसागोवा, मार्को, स्टरलाइट इंडस्ट्री, जो देश में कारोबार करतीं हैं, ने भी बड़ी मात्रा में चुनावी चंदा इन दोनों दलों को दिया है।

गौरतलबहै कि वित्तवर्ष 2011-12 में वेदांता रिसोर्स ने अकेले ही 2.1 मिलियन डाॅलर चुनावी चंदे के रूप में भाजपा और कांग्रेस को दिए थे। वहीं इसी अवधि में, स्टरलाईट ने चुनावी चंदे के रूप में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर इन दोनों दलों को पांच करोड़ रुपए दिए। यहां यह स्मरण रहे कि देश के कानून के मुताबिक विदेशों से या फिर विदेशी कंपनियों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष किसी भी रूप में चुनावी चंदा नहीं लिया जा सकता है। और इस प्रकार इन दोनों ही दलों ने इन कंपनियों से गैरकानूनी तरीके से फंड लिया है, जो कि कानूनन दंडनीय है।

बहरहाल,राजनैतिक दलों के गैरकानूनी तरीके से चुनावी चंदा लेने की इस सच्चाई के बाद कई गंभीर सवाल उठने लाजिमी हैं। यह कटु सत्य है कि ज्यादातर दल चुनावी चंदे के मामले में पारदर्शिता कतई नही बरतते और यह लोकतंत्र के लिए एक खतरनाक और घातक प्रवृत्ति है। सवाल यह है कि आखिर केन्द्र सरकार अपने ही दल कांग्रेस पर इस सिलसिले में क्या कार्यवायी करेगी? जाहिर सी बात है इस मामले में इन दलों पर कोई कार्यवायी कतई होने नहीं जा रही है। चूंकि दोनों ही दलों पर समान आरोप हैं लिहाजा यह संभव है कि आपसी सहमति के आधार पर दोनो ही दल चुप हो जांए और मामला चुपचाप खत्म हो जाए। चूंकि न्यायपालिका की अपनी सीमा है लिहाजा वह फैसला देने से आगे कुछ नही कर सकता है।
दरअसलयह मामला ही समूची लोकतांत्रिक प्रक्रिया और चुनाव सुधार के क्रान्तिकारी पुर्नगठन से जुड़ा हुआ है तथा देश की राजनीति में लंबे समय से बहस का केन्द्र रहा है। सन् 1976 में विदेशों से चुनावी चंदे के लिए संसद में ऐतिहासिक बहस हुई थी, वहीं इस बात के प्रमाण हैं कि अमेरिकी कंपनियां कांग्रेस को देश की वामपंथी ताकतों को कमजोर करने तथा चुनाव हरवाने के लिए काफी मात्रा में विदेशी चंदा देती थी। दरअसल समूचा विदेशी चंदा देश में पूंजीवाद के बेरोक-टोक प्रश्रय और प्रभाव जमाने की प्रक्रिया के इर्द गिर्द घूमता है।  

बहरहाल,सवाल यह है कि विदेशी कंपनियों द्वारा दिया जा रहा यह चुनावी चंदा हमारे लोकतंत्र को, तथा नीतिगत स्तर पर आम जनता से सरकार के रिश्तों को कितना प्रभावित करेगा? देश की आर्थिक नीतियों पर इन चंदों का क्या असर होगा? आखिर इन चंदों के पीछे मल्टीनेशनल कंपनियों के कौन से कारोबारी हित छिपे हैं? आखिर मुख्यधारा के दोनों राजनैतिक दलों को ही विदेशी कंपनियां इतनी ज्यादा मात्रा में फंडिंग क्यों कर रही हैं? स्टील कारोबार में लगी वेदांता रिसोर्स हो, या फिर उसकी सहायक कंपनियां, भारी मात्रा में दिए जा रहे इस चुनावी चंदे के पीछे आखिर उनकी कौन सी सोच काम कर रही है? क्या वे यह मान चुकी हैं कि आगामी चुनाव के बाद इन्हीं दोनों दलों में से किसी एक के नेतृत्व में सरकार बनेगी और अन्य दल महज सहायक की भूमिका में ही रहेंगे? और ऐसी स्थिति में नीतिगत स्तर पर इन्हीं दोनों दलों के पास सारी ताकत केन्द्रित रहेगी। जाहिर सी बात है इसके पीछे भी इन कंपनियों का कारोबारी फायदे का गुणा गणित ही होता है।

अबसवाल यह उठता है कि सरकार के गठन के बाद इतनी ज्यादा मात्रा में दिए गए चंदे की वसूली ये कंपनियां किस प्रकार से करेंगी? मल्टीनेशलन कंपनियों का जब केवल एक ही लक्ष्य- 'किसी भी तरह अधिकतम मुनाफा’ हो तो आखिर इस चंदे के पीछे उनकी क्या आर्थिक रणनीति होती होगी? जहां तक मेरा आकलन है, सरकार चाहे जिस पार्टी की बने वेदांता जैसे बड़े समूह जो दोनों ही राष्ट्रीय दलों को भरपूर मात्रा में चुनावी चंदा दे चुके हैं, का सरकार के औद्योगिक निर्णयों पर बड़ा दबाव रहेगा। चाहे वह झारखंड हो या फिर उड़ीसा, इन कंपनियों द्वारा देश के प्राकृतिक संसाधनों की बेखौफ लूट का किस्सा किसी से छुपा नहीं हैं। सरकार द्वारा वहां के स्थानीय निवासियों को देश के ही पुलिस बल से उत्पीडि़त करवाना और उन्हें जबरिया विस्थापित करने की कोशिशें इन्हीं कंपनियों के मुनाफे के लिए लगातार जारी है। इन चंदों की आड़ में वे इस प्रक्रिया को और तेज करवाएंगी। 

यही नहीं, वे सरकार पर अपना अप्रत्यक्ष होल्ड भी रखेंगी। ये कंपनियां दिए गए चुनावी चंदों के बदले श्रम कानूनों में और ढील मांगेंगी, ताकि मजदूरों से न्यूनतम वेतन में अधिकतम काम लिया जा सके। लूट और शोषण की पीड़ादायक संस्कृति को औचित्यपूर्ण सिद्ध करने के लिए वे ऐसे कानूनों के निर्माण की मांग करेंगी जो उनके मुनाफे को अधिकतम करते हुए इस लूट को कानूनी वैधता प्रदान कर सके। कुल मिलाकर सरकार उनके मुनाफे को व्यवस्थित करने की एक कमेटी भर होगी जिसके मुखौटे केवल भारतीय होंगे। 

चंदेके बाद नीतिगत स्तर पर ये कंपनियां सरकार पर एक जबरजस्त प्रेशर बनाकर रखेंगी, और इस मुल्क की आर्थिक नीतियों को अपनी मर्जी के मुताबिक ही चलाएंगी। दरअसल चुनावी चंदा देना भी इन बड़ी कंपनियों के कारोबार का एक हिस्सा होता है। और इस चंदे के पीछे वे अपने घातक पूंजीवादी हितों को बढ़ावा देती हैं। लोकतंत्र की मजबूती के लिए अंशदान का सिद्धांत तो केवल एक भ्रम है। असल खेल तो चंदे के बहाने सरकार के पाॅलिसीगत निर्णयों पर होल्ड करने का है।

जहांतक आम जनता के भविष्य और उसके हितों का सवाल है, मौजूदा परिदृश्य में वह साल दर साल और तेजी से लोकतंत्र के हाशिए पर ही जाएगी। चूंकि पूंजी और मजदूर का हित एक जैसा नहीं हो सकता, लिहाजा जहां पूंजी का वर्चस्व सरकार में बढ़ेगा, मजदूर और आम जनता स्वयं ही हाशिए पर लुढ़क जाएंगे। आने वाले समय में सरकार उनकी होगी जिन्होंने दलों को पैसा देकर चुनाव लड़ाया है। उस सरकार को उनके हित के काम करने ही होंगे जिनसे उन्होंने चंदा लिया है। 

वेदांता द्वारा भाजपा और कांग्रेस को जिस तरह से चुनावी चंदा दिया गया है वह यह साफ करता है कि भाजपा और कांग्रेस की आर्थिक नीतियां समान हैं और सरकार चाहे जिस दल की बने, वेदांता समूह जैसी कंपनियों को इससे फर्क नही पड़ता। उनका फायदा होना तय है। कुल मिलाकर, एक तरह से वेंदाता जैसे ग्रुप ही अब चुनाव लड़ते हैं, राजनैतिक दल तो केवल मुखौटा मात्र हैं। आम आदमी के पास केवल वोट देने के अलावा इस लोकतंत्र में और कुछ भी अधिकार नहीं हैं। अब राजनीति पर सारा होल्ड मल्टीनेशनल का हो रहा है। देश की सरकारें केवल भारतीय चेहरों वाली वे मुखौटा होंगी जिनका काम ही इन कंपनियों का हित संरक्षित करना होगा। आम आदमी तेजी से व्यवस्था के हाशिए पर जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसा लोकतंत्र कितनी साल चल पाएगा? क्या इस देश के राजनैतिक दल ही लोकतंत्र की हत्या करने पर आमादा नही हैं?

हरे राम मिश्र
मो- 07379393876
सामाजिक कार्यकर्ता और स्वतंत्र पत्रकार
द्वारा-
मोहम्मद शुऐब एडवोकेट
110/46 हरिनाथ बनर्जी स्ट्रीट
लाटूश रोड, नया गांव ईस्ट,
लखनऊ  उत्तर प्रदेश

हिटलर का नया संस्करण

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सुनील कुमार

-सुनील कुमार

"…हिटलर को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती थी। मोदी के गृहमंत्री हिरेन पांडा मोदी सरकार में ही मार दिये गये लेकिन सही कात्लिों का पता नहीं चला। हिटलर अखंड जर्मनी का सपना देखता था। मोदी जी अखंड भारत की बात करते हैं। हिटलर ने बचपन में पेंट करने और रंग बेचने का काम किया। मोदी जी भी बचपन में चाय बेचा करते थे। हिटलर अपने पड़ोसी देशों को जर्मनी का दुश्मन मानता था। मोदी पाकिस्तान और चीन को दुश्मन मानते हैं। प्रचार के साधन अखबार, पत्र-पत्रिकाएं हिटलर के प्रचार में लगे थे उसी तरह आज मोदी के प्रचार में इलेक्ट्रानिक, प्रिंट, सोशल मीडिया लगी हुई है.…"

16वीं लोकसभा का चुनाव ऐतिहासिक होने जा रहा है जहां अभी तक चुनाव पार्टियों के आधार पर लड़ा जाता था वहीं इस बार का चुनाव व्यक्ति विशेष के नाम पर लड़ा जा रहा है। इस बार के चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी पहले से ही अपने को प्रधानमंत्री मान चुके हैं। यही कारण है कि 15 अगस्त, 2013 को उन्होंने बनावटी लालकिले से भाषण दिया। वह अपने को देश का चौकीदार बताते हैं जबकि उनके हाव भाव कहीं से चौकीदार की नहीं दिखते हैं उनका भाषण, उनके हाव-भाव से हमेशा ही तानशाही झलकती है। 

वे हिटलर के प्रोपेगेंडा मंत्री गोयबल्स के तर्ज पर रैलियों में अपनी बात को तब तक दुहराते हैं जब तक कि रैली में शामिल लोगों की तरफ से उनका मनमाफिक जवाब न आ जाये। इस तरह वह भारत में नये हिटलर और मुसोलिनी के उत्तराधिकारी के रूप में उभरते नजर आ रहे हैं। हिटलर, मुसोलिनी का राज समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व की शक्तियों के विरूद्ध था लेकिन इसे अर्थव्यवस्था व समाज के ताकतवर तबकों का समर्थन प्राप्त था। इसी तरह मोदी से अल्पसंख्यक वर्ग के साथ साथ समाज का धर्मनिरपेक्ष, मानवाधिकार व जनवाद पसंद व्यक्ति डरा हुआ है। 

मोदी को कारपोरेट जगत का पूरा समर्थन प्राप्त है, मोदी के अन्दर प्रधानमंत्री बनने की गुणवत्ता सबसे पहले रत्न टाटा ने देखी थी। रत्न टाटा को जब जनता के विरोध के कारण सिंगुर (पश्चिम बंगाल) से अपनी नैनो को लेकर गुजरात भागना पड़ा था जहां मोदी ने टाटा के लिए लाल कालीन बिछाते हुए अहमदाबाद में 725 एकड़ जमीन टाटा के लिए उपलब्ध कराई। इससे टाटा इतने गदगद हो गये कि मोदी का एक्सरे कर डाला और उनके अन्दर प्रधानमंत्री बनने की गुणवत्ता देख ली। 

टाटाकी घोषणा करने के बाद मीडिया में कई पूंजीपतियों ने मोदी के प्रधानमंत्री के रूप में प्रोजेक्ट किया। मोदी सरकार ने 10 साल के शासन काल में दो लाख हेक्टेयर जमीन पूंजीपतियों को एक से 900 रु. प्रति वर्ग मीटर के हिसाब से दी है। मोदी ने अदानी ग्रुप को 1 रु. वर्ग मीटर के हिसाब से बड़ौदा शहर से ज्यादा क्षेत्रफल में जमीन मुहैय्या कराई है।
 
मानेसरमें मारूति सुजूकी के मजदूर जब अपनी जायज मांग को लेकर लड़ाई लड़ रहे थे उस समय मोदी ने मारूति सुजूकी कम्पनी को अपने यहाँ आने का न्यौता दिया और साथ में आश्वासन भी दिया कि यहां पर आपको उद्योग चलाने का पूरा महौल दिया जायेगा। मोदी के इस आमंत्रण का गुजारात के 5000 किसानों ने 15 अगस्त, 2013 को विरोध किया और ‘मारूति वापस जाओ’ के नारे लगाये। मोदी ने 13 ‘विशेष निवेश क्षेत्र’ बनाने की घोषाणा की है, प्रत्येक ‘विशेष निवेश क्षेत्र’ के लिए सौ किलोमीटर तक किसानों की जमीन अधिग्रहण की जायेगी जिसका लगातार किसान विरोध कर रहे हैं और 15 अगस्त, 2013 तक ‘विशेष निवेश क्षेत्र’ अधिसूचना की रद्द करने की मांग की थी लेकिन मोदी ने इस प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए संबंधित विभाग को कह दिया है।  

प्रोजेक्ट का विरोध कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता लालजी देसाई और सागर रबारी को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया था। सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी 15 अगस्त को बिना अनुमति तिरंगा फहराने के आरोप में दिखायी गयी है। मोदी की प्रधानमंत्री बनने के बाद आपको तिरंगा (भारतीय झंडा) फहराने के लिए भी सरकार से इजाजत लेनी लड़ेगी। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अपने अधिकारों की मांग के लिए धरना-प्रदर्शन करने के लिए प्रशासन से इजाजत लेनी पड़ती है और प्रशासन कभी भी इजाजत देता नहीं है। 

भारतमें नई आर्थिक नीति लागू हुए दो दशक से ऊपर हो चुके हैं लेकिन अभी तक वह पूरी तरह से लागू नहीं हो पायी है। अभी तक कल्याणकारी राज्य का मुखौटा लगाकर नई आर्थिक नीतियों को लागू किया जा रहा था लेकिन इसके अगले चरण को लागू करने में यह मुखौटा अड़चन बन रहा है। नई आर्थिक नीति के अगले चरण को फासीवादी तरीके से ही लागू किये जा सकता है। फासीवाद में समस्याओं के मूल कारणों और उसके जिम्मेदार कारणों से ध्यान हटाते हुए एक झूठा हौवा खड़ा करके अंध देश-भक्ति जगायी जाती है। जिसे कुछ शक्तिशाली लोगों का समर्थन प्राप्त होता है। यही कारण है कि आज मोदी देश को झूठे खतरों से आगाह करके सत्ता में आना चाहते हैं जिसे शक्तिशाली कारपोरेट जगत का समर्थन प्राप्त है। 

सच्चाईयह है कि भारत नहीं भारत की जनता की जीवन संकट में है जबकि यहां पर करोड़पतियों की संख्या भी बढ़ती जा रही है। गुजरात में ग्रामीणों इलाकें में 11 रु. तथा शहरी इलाकों में 17 रु. प्रतिदिन के कम आय वालों को गरीब माना जाता है वहीं मोदी के पीएम इफेक्ट से 25 दिनों में (मध्य फरवरी 2014 से 9 मार्च, 2014 तक) 20000 करोड़ रु. की बढ़ोतरी हो चुकी है। भारत की जनता की जीवन का संकट का मूल कारण है पूंजीपतियों की लूट जो दिन दूना रात चौगूना  बढ़ती रही है। इस लूट को छिपाने के लिए भारत की जनता के सामने मनगढंत बातों का जाल बुना जा रहा है जो कि फासीवाद के आने की आहट है।
  

हिटलर और मोदी में समानताएं

हिटलरने शादी नहीं की थी। मोदी भी अपनी पत्नी का नाम अप्रैल 2014 से पहले कभी नहीं लिया था। हिटलर एक पक्का राष्ट्रवादी था। मोदी भी अपने को हिन्दु राष्ट्रवादी कहते हैं। हिटलर एक धर्म विशेष के लोगों को देश का दुश्मन मानता था। मोदी सभी धर्मों के टोपी, पगड़ी तो पहन लेते हैं लेकिन मुस्लिम टोपी कभी नहीं पहनी। हिटलर कम्युनिस्टों और समाजवादियों को विदेशी एजेंट कहता था। संघ परिवार कम्युनिस्ट विचार को विदेशी के रूप में प्रचारित करते हैं। हिटलर को आलोचना बर्दाश्त नहीं होती थी। मोदी के गृहमंत्री हिरेन पांडा मोदी सरकार में ही मार दिये गये लेकिन सही कात्लिों का पता नहीं चला। हिटलर अखंड जर्मनी का सपना देखता था। मोदी जी अखंड भारत की बात करते हैं। हिटलर ने बचपन में पेंट करने और रंग बेचने का काम किया। मोदी जी भी बचपन में चाय बेचा करते थे। हिटलर अपने पड़ोसी देशों को जर्मनी का दुश्मन मानता था। मोदी पाकिस्तान और चीन को दुश्मन मानते हैं। प्रचार के साधन अखबार, पत्र-पत्रिकाएं हिटलर के प्रचार में लगे थे उसी तरह आज मोदी के प्रचार में इलेक्ट्रानिक, प्रिंट, सोशल मीडिया लगी हुई है। हिटलर ने मजदूर आन्दोलनों को कुचल दिया था। मारूति सुजूकी के खिलाफ गुड़गांव के मजदूर लड़ रहे थे तो मोदी जी मारूति सुजूकी को गुजरात में आने का निमंत्रण दे रहे थे और यह मारूति सुजूकी के प्रबंधन को आश्वासन दे रहे थे कि गुजरात में मजदूरों के विरोध का सामना नहीं करना पड़ेगा। हिटलर ये प्रचार करके सत्ता में आया था कि देश की समस्याओं को चुटकी में खत्म कर देगा। मोदी जी भी अपने लिए 60 माह (5 वर्ष) मांगते हैं उससे देश की सभी समस्याएं खत्म हो जायेगी और भारत अग्रणी देशों की सूची में आ जायेगा। क्या मोदी हिटलर बन पायेंगे?

सुनील कुमार सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता हैं. 
इनसे संपर्क का पता sunilkumar102@gmail.com है.

'आप की अदालत'और 'मोदी का झूठ!'

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Dilip Khan
दिलीप ख़ान

-दिलीप ख़ान
(दखल की दुनिया से साभार)

इंडिया टीवी के कार्यक्रम आप की अदालत में रजत शर्मा ने हाल ही में नरेन्द्र मोदी पर 'मुकदमा' चलाया। जज साहब पुष्पेष पंत ने उन्हें बरी किया। पास किया। मैंने वो इंटरव्यू बाद में यू-ट्यूब पर देखा तो देखते समय कुछ नोट्स भी लिए। मैं अगर जज होता तो मोदी को बरी करने के बजाय जेल भेजता। एक झूठ हो तो बरी हो सकते थे वो, लेकिन पूरे इंटरव्यू में झूठ-दर-झूठ बोलते रहे और स्टूडियो में दर्शकों के रूप में बैठे बीजेपी कार्यकर्ता मोदी के पक्ष में नारे लगाते रहे। कई बातें नोट करना भूल गया। फ़िलहाल 14 प्वाइंट्स हैं। आप भी ज़रा ग़ौर फ़रमाइए...। 

- ले.
1.  "इस देश के सवा सौ करोड़ देशवासी देशभक्त हैं। किसी की देशभक्ति किसी से नीचे नहीं होतीकिसी से ऊपर नहीं होती। इसलिए न मैं किसी की देशभक्ति पर शक करता हूं और न ही मैं कोई महान देशभक्त होने का दावा करता हूं।"
[मोदी हर बात पर देशभक्ति का सर्टिफिकेट बांटते हैं। संघी लाइन से ज़रा सा हटने पर पाकिस्तानी और देशद्रोही कहने में 2 मिनट की देर नहीं करते। अभी हाल ही में 26 मार्च को केजरीवाल को पाकिस्तानी एजेंट कहा था।] 

2.  "मैं देश की ये जो क्रिएटिव जेनरेशन हैं उनका अभिनंदन करता हूं और मैं मानता हूं कि अगर ये सोशल मीडिया न होता तो देश की क्रिएटिविटी कादेश की आवाज़ का, पता ही नहीं चलता। (10.51)
[सोशल मीडिया पर लाखों लोगों को चुनाव तक रोज़गार दिए हुए हो महोदय। फ़ायदे का सौदा है सोशल मीडिया आपके लिए। ग़ाज़ियाबाद में आपकी रैली के बाहर लैपटॉप पर बीजेपी वाले गेम नहीं खेल रहे थे। ट्विटर-ट्विटर और फ़ेसबुक-फ़ेसबुक खेलकर आपको महान बता रहे थे।] 

3.  "2002 में गुजरात का चुनाव हुआ कांग्रेस के मित्र यही कहते थे2007 में गुजरात का चुनाव हुआ कांग्रेस के मित्र यही कहते थे..2012 में गुजरात का चुनाव हुआ कांग्रेस के मित्र यही कहते थेऔर गुब्बारा उनका फूट गया..देश जानता है।"
[सवाल 2004 और 2009 के लोक सभा चुनाव पर पूछा गया और मोदी ने जवाब में गुजरात को ला पटका। आप गुजरात में ही जमे रहिए। आपसे नहीं हो पाएगा।

4.  "मेरी जिंदगी का उसूल है और मैं आज आपकी अदालत के माध्यम से ये ज़रूर कहना चाहूंगा मै वो इनसान हूं जिसने इस मिनट तक कभी कुछ बनने का सपना नहीं देखा...और मैं भी नौजवानों को कहता हूं कि कभी भी बनने के सपने मत देखो...अगर सपना देखना है तो कुछ करने का देखो।" (18.41)
[कितने झूठ बोलते हो मोदी साहबजहां जाते हो, वहीं बचपन के सपने को लेकर बोलने लग जाते हो। SRCC पहुंचे तो टीचर बनने की बात कही। रेवाड़ी पहुंचे तो बोले कि बचपन से फ़ौज में जाने का सपना था। आपकी अदालत तक पहुंचते-पहुंचते ये सब सपने ग़ायब हो गए?? रजत शर्मा इतने डरावने तो नहीं हैं।

5.   "जिसने कहा है वो ग़लत कहा हैकौन है वो कहने वाला? मैं कभी न ऐसा सोच सकता हूं न कभी बोल सकता हूं।" 27.20
[मतलब कुत्ते का पिल्ला मोदी ने नहीं कहा था। नारद मुनि ने आकाशवाणी की थी और वही स्वर तब से लेकर अब तक गूंज रहा है। शायद मोदी की आवाज़ और आकाशवाणी में काफी समानता है।

6.  "इंटरव्यू लेने वाला एक फॉरेनर भी मेरी संवेदना को समझ पाया..लेकिन जो न्यूज़ ट्रेडर्स है..मैं मीडिया की बात नहीं कर रहा हूं। मीडिया तो बहुत अच्छा है। मीडिया की ताकत बहुत महत्वपूर्ण है। इसलिए मीडिया के खिलाफ कुछ नहीं कहना है , लेकिन जो न्यूज ट्रेडर्स है इस न्यूज ट्रेडर्स के लिए माल बेचने के काम आता है।" (29.30)
[मीडिया बहुत अच्छा है ये तो आज-कल हर बीजेपी वाला कह रहा है। लेकिन, ज़रा ये तो बताइए कि ये न्यूज़ ट्रेडर्स कौन हैंहम तो मीडिया को ही न्यूज़ ट्रेडर्स समझते हैं। माने, न्यूज़ का धंधा मीडिया के अलावा भी कोई करता है क्या?] 

7.  "आज गुजरात ने जो तरक्की की है उसका मूल कारण है गुजरात की शांतिगुजरात की एकता गुजरात का भाईचारासद्भावना। वही हमारी सबसे बड़ी पूंजी है।
[ये शायद बड़ा वाला जोक है। रजनीकांत से मिलकर आपने अच्छा किया। 

8.  "हमारे यहां संप्रदायवाद नहीं चल सकता है। हम धार्मिक हो सकते हैं सांप्रदायिक जुनून हमारे देश में कतई नहीं चल सकता है। और इसलिए भारतीय जनता पार्टी का ये मोटो रहा है..सर्व पंथ समभाव। सभी पंथों के प्रति समभाव होनी चाहिए।" (36.00)
[और इसलिए हिंदूराष्ट्र की चाहत रखने वाला आरएसएस आपकी मदर कंपनी है।] 

9.   "मैंने उनसे (मुलायम सिंह से) कहा था कि गुजरात बनाने के लिए 56 इंच का सीना लगता है। गुजरात बनाने का मतलब होता है 24 घंटे 365 दिन बिजली। गुजरात बनाने का मतलब होता है अधिकतम घरों में नल से पीने का पानी। गुजरात बनाने का मतलब होत है 99 प्रतिशत गांवों में पक्की सड़क।" (40.20)
[दांग और पंचमहाल तो शायद अफ़गानिस्तान में है फिर। और सौराष्ट्र से लेकर कच्छ तक जो हर साल पानी के लिए कोहराम मचता है उस वक्त शायद वो कश्मीर के अधीन होते हैं।] 

10. मेरे मुख्यमंत्री बनने से पहले शाम के नास्ते के वक्त 2 घंटे भी बिजली नहीं आती थी। आज 24 घंटे 365 दिन बिजली मिलती है। 42.15
[अतिशयोक्ति में सुनना हमें अच्छा लगता है। फीलगुड होता है। सुनाते रहिए। दिल्ली के जिन मोहल्लों में बिजली कटती है वो शायद अब गुजरात शिफ़्ट कर जाए।]

11. ये नहीं है कि उनके (जसवंत सिंह के) प्रति नकारात्मक भाव था। देखिए भाजपा में लाखों कार्यकर्ता हैं अब टिकट तो 500 लोगों को मिलने वाला है। अब थोड़ा बहुत नाराजगी की संभावना तो हर जगह बनी रहती है।   56.30
[जसवंत सिंह ‘कार्यकर्ता’ है। मुरली मनोहर कार्यकर्ता हैं। आडवाणी कार्यकर्ता हैं। मोदी प्रधानमंत्री हैं। यही बात तो मोदी बताना चाहते हैं। लेकिन फिर कहते हैं कि वो कुछ बनना नहीं चाहते। आयो दाद्दा, क्या होगा?]

12. ये जो दिन-रात वो (राहुल गांधी) कहते रहते हैं कि हमने ये कानून दियावो कानून दिया। ज़रा ये तो जवाब दो कि आपका कानून कश्मीर में लागू होता है क्या। क्या आरटीआई कानून कश्मीर में लागू हुआ है। एंटी करप्शन कानून कश्मीर में लागू हुआ क्या,, राइट टू एजुकेशन कश्मीर में लागू हुआ क्या..ज़रा पहले अपने गरीबान (गिरेबान) में भी झांक ले। 
[कश्मीर और गुजरात के बीच के फ़र्क को नहीं जानते हो मोदी बाबू, तुम क्या प्रधानमंत्री बनोगेधारा 370 तो आपका फेवरेट है। फिर भी चूक क्यों हो जाती हैचूक करते रहने से जितने हो, वो भी चुक जाएगा।]

13. फ़ौज़ में सब हिंदुस्तानी होते हैं यहां हिंदू और मुसलमान की गिनती नहीं होगी। मना कर दिया। ये सौभाग्य है। डिविसिव पॉलिटिक्स कर रही है कांग्रेस। (23.20)
[फ़ौज में मुसलमानों की संख्या जानना डिविसिव पॉलिटिक्स कैसे हो गईसच्चर कमेटी की रिपोर्ट में सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की कमज़ोर हिस्सेदारी को लेकर चिंता जताई गई थी। देश के हर महकमें में मुसलमानों-दलितों-आदिवासियों और पिछड़ों की संख्या जानना डिविसिव नहीं है। कोई भी पार्टी अगर ये संख्या जानने की कोशिश करती है तो उसका स्वागत होना चाहिए।

14. "उनको (मनमोहन सिंह) ये भी याद रहना चाहिए था कि 2002 के सितंबर में अक्षरधाम पर हमला हुआ। मंदिर के अंदर दसको लोग मारे गए..लेकिन गुजरात पूर्ण शांत रहा। उनको ये भी पता होना चाहिए कि गुजरात में सीरियल बम ब्लास्ट हुए थेकाफी लोग मारे गए थे. अस्पताल में लोग मारे गए थे..उसके बाद भी गुजरात शांत रहा। जहां गुजरात में क्रिकेट के मैच पर दंगे होते थे..जहां गुजरात में पतंग चलाने में दंगे होते थे..वो गुजरात आज 12 साल हो गए..कर्फ्यू किस चीज़ को कहते हैं वहां के बच्चों को मालूम नहीं।" (32.00)
[मरघट में शांति रहती है।]

दिलीप पत्रकार हैं. अभी राज्यसभा टीवी से जुड़े हैं. 
इनसे संपर्क का पता dilipkmedia@gmail.com है.

भाजपा का धर्मनिरपेक्ष उदारवादी मुखौटा

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-मोहम्म्द आरिफ


"...मुसलमानों में अपनी छवि सुधारने के लिए तो भाजपा ने बाकायदा एक इकाई का भी निर्माण कर रखा हैइस क्रम में राजनाथ सिंह की माफ़ी और हाल में शाहनवाज हुसैन के सच्चर समिति की सिफारिशों को लागू करने जैसे बयानो को देखा जा सकता हैभाजपा के इन दावों की हकीकत को समझ लेना जरुरी है कि कल तक मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोप लगाने वाली भाजपा आज खुद मुसलमानों पर इतनी मेहरबान क्यों है ?..."

http://indiaopines.com/ से साभार
पि
छले कुछ दिनों से भारतीय जनता पार्टी के नेता मुस्लिम मतदाताओं में 
अपनी उदारवादी और सकारात्मक छवि बनाने का प्रयास कर रहे हैं| भाजपा केनेता अल्पसंख्यकों को सेक्युलर पार्टियों से सावधान रहने की नसीहत भी देते नजर आ रहे हैं उनके अनुसार ये सेक्युलर पार्टियाँ सच्चे अर्थों में सेक्युलर नहीं हैं बल्कि अवसरवादी हैं| मुसलमानों में अपनी छवि सुधारने के लिए तो भाजपा ने बाकायदा एक इकाई का भी निर्माण कर रखा है| इस क्रममें राजनाथ सिंह की माफ़ी और हाल में शाहनवाज हुसैन के सच्चर समिति कीसिफारिशों को लागू करने जैसे बयानो को देखा जा सकता है| भाजपा के इनदावों की हकीकत को समझ लेना जरुरी है कि कल तक मुस्लिम तुष्टिकरण का आरोपलगाने वाली भाजपा आज खुद मुसलमानों पर इतनी मेहरबान क्यों है ?

अगरपिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम पर नजर डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है की लोकसभा चुनावों के ठीक पहले भाजपा के नेताओं के सुर बदले हुए हैंइस बार भाजपा नेता बहुत ही कूटनीतिक और सोच समझकर बयान दे रहे हैं| भाजपाअध्यक्ष राजनाथ सिंह ने तो यहाँ तक कह दिया कि हम मुसलमानों से माफ़ीमांगने को तैयार हैं लेकिन दूसरे ही दिन भाजपा प्रवक्तामुख़्तार अब्बासने इसका खंडन करते हुए  कहा कि जब कोई गलती ही नहींकी तो माफ़ी किस बातकी ? अगर इन बयानों का निहितार्थ देखें तो साफ़ पता चलता है कि गुजरातदंगों को लेकर भाजपा नेतृत्व न ही शर्मिंदा है नही उसे गलती मानने कोतैयार है| यह नरेन्द्र मोदी के उस बयान का ही मुख़्तार अब्बास वर्जन हैजिसमे मोदी ने कहा था कि प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया होती है| इससेसाफ़ पता चलता है की भाजपा ने अल्पसंख्यकों को लेकर न अपनी रणनीति बदली हैऔर न ही उनके पास संघ की विचारधारा से स्वतंत्र कोई राजनैतिककार्यक्रमहै|

भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने एक साक्षात्कार में मुसलमानों को इंसाफ देने की बात कही है, उन्होंने कांग्रेस पर आरोप लगाते हुए कहा कि 60सालों में कांग्रेस ने मुसलमानों को छला है, भाजपा अब सच्चर समिति के आधार पर मुस्लिमों के विकास के लिए कार्यक्रम बनायेगी| इसमें सबसेरोचकतथ्य ये है कि भाजपा शुरुआत से ही सच्चर समिति की सिफारिशोंका विरोधकरती रही है और इसे पूर्वाग्रहग्रस्त और मुस्लिम-तुष्टिकरण करार देती है| सवाल ये है कि भाजपा लोकसभा चुनावों के ठीक पहले मुसलमानों पर इतनामेहरबान क्यों हैगुजरात दंगों के बाद से ही भाजपा के चरित्र और संघीविचारधारा को लागू करने के एजेंडे ने देश के तमाम बुद्धिजीवियों और धर्मनिरपेक्ष इंसाफपसंद आवाम को इस सांप्रदायिक जहर से निपटने के लिए सोचने पर मजबूर कर दिया था| जिस से भाजपा की छवि उग्र  हिंदुत्व की पैरोकार के रूप में बनी है| वस्तुतः वर्तमान में इस तरह की बयानबाजी का मकसद गुजरात दंगों के दाग को मिटाने का प्रयास है और नरेन्द्र मोदी को पूरे भारत के नेता के रूप में प्रस्तुत करने के एजेंडे का हिस्सा है| ये निर्विवाद रूप से सत्य है कि बौद्धिक चेतना के लोग और तमाम धर्मनिरपेक्ष लोग संघ की इस भेड़चाल को अच्छी तरह से समझते हैं| उनके मुखरविरोध को कमकरने के लिए भाजपा इस तरह की बयानबाज़ी कर रही हैऔर यह ड्रामा कर रही हैकि वह विकास पर आधारित राजनीति करती है|

सच्चरसमिति की रिपोर्ट की ही तरह भाजपा सांप्रदायिक हिंसा रोकथाम एवं लक्षित हिंसा (न्याय एवं क्षतिपूर्ति) विधेयक को भी नकारती है और इसे हिन्दू समुदाय के विरुद्ध विद्वेषपूर्ण बताकर दुष्प्रचारित करती है|राष्ट्रीय एकता परिषद की सोलहवीं बैठक जो सांप्रदायिक दंगों से निपटने कीरणनीति पर आयोजित की गयी थी उसमे नरेन्द्र मोदी ने न तो हिस्सा लिया और न ही अपना प्रतिनधि भेजना उचित समझा, ये उपेक्षा मोदी के संघी विचारों को ही पुष्ट करती है कि सांप्रदायिक हिंसा क्रिया की प्रतिक्रियाकापरिणाम है|

वास्तवमें भाजपा मुसलमानों को लेकर केवल एक भ्रम पैदा कर रही है|भाजपा की सदैव रणनीति रहती है कि मुसलमानों के विरुद्ध हिंदुत्व के नाम पर वोटों का ध्रुवीकरण किया जाये  और यह संघ की पुरानी वैचारिकरणनीतिका हिस्सा रहा है| यहाँ मुसलमानों के संबंध में संघ के विचारों को जानलेना उचित होगा संघ यह स्पष्ट घोषणा करता है कि हिंदुस्तान में राष्ट्र का अर्थ ही हिन्दू है| गुरु गोलवलकर के शब्दों में विदेशी तत्वों केलिए सिर्फ दो रास्ते खुले हैं, या तो वे राष्ट्रीय जाति  के साथ मिल जाएँऔरउसकी दया पर रहें...... यही अल्पसंख्यकों की समस्या के बारे मेंआजमाया हुआ विचार है| यही एकमात्र तर्कसंगत और सही समाधान है| जाति और संस्कृति की प्रशंसा के अलावा मन में कोई और विचार न लाना होगा अर्थात हिन्दू राष्ट्रीय बन जाना होगा और हिन्दू जाति में मिलकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को गँवा देना होगा, या इस देश में पूरी तरह से हिन्दू राष्ट्र की गुलामी करते हुए,बिना किसी प्रकार का विषेशाधिकार मांगे,विशेष व्यव्हार की कामना करने की तो उम्मीद ही न करे,यहाँ तक कि बिना नागरिकताके अधिकार के रहना होगा | उनके लिए इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं छोड़नाचाहिए| हम एक प्राचीन राष्ट्र हैं और हमे उन विदेशियों सेउसी प्रकारनिपटना चाहिए जैसे की प्राचीन राष्ट्र विदेशी नस्लों से निपटाकरते हैं| ”(गोलवलकर,’वीपृष्ठ 47-48) गोलवलकर राष्ट्र को परिभाषित करते हुए कहतेहैं,“सिर्फ वे लोग ही राष्ट्रवादी  देशभक्त हैं जो अपने ह्रदय में हिन्दू जाति और राष्ट्र की शान बढ़ने की आकांक्षा रखते हुए इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं अन्य सभी या तो राष्ट्रीय हित के लिए विश्वासघाती और शत्रु हैं या नरम शब्दों में कहें तो मूर्ख हैं|”(वहीपृष्ठ 44 ) फासीवादी विचारों का विरोध करने वाली सभी पार्टियों को आरएसएससदैव नकली राष्ट्रवादीकहता रहा है | इसीतरह वर्तमान में भी आरएसएसने सभी पार्टियों को धर्मनिरपेक्षता का ढोंग करने वाला घोषित कर रखा है|भाजपा प्रवक्ता शाहनवाज हुसैन ने कहा है कि वे दीनदयाल उपाध्याय केअन्त्योदयदर्शन का पालन करते हुए अंतिम पंक्ति के हर व्यक्ति (मुसलमानों को भी) को विकास से जोड़ेंगे | दीनदयाल उपाध्याय एकात्म  मानववाद औरजनसंघके सिद्धान्तकर रहे हैं | उनके विचारों पर आरएसएस ने 7 खण्डों में एकपुस्तक माला प्रकाशित की है जिसमे केंद्रीय सूत्र के रूप में मुसलमानोंको राजनीतिक तौर पर पराजित करने का प्रमुख लक्ष्य छाया हुआ है| वे यहमानते हैं कि जब तक मुसलमानों की राजनीतिक हैसियत को पूरी तरह से रौंदनहीं दिया जाता है तब तक उनके हिंदुत्व पर आधारित राष्ट्र की स्थापनानहीं हो सकती है गोलवलकर की तरह वे भी मुसलमानों को हिन्दू राष्ट्र केआतंरिक संकटमानते थे |

Assorted Political Cartoons - BJP / Modi (2)
http://vpolitico.com/ से साभार
दरअसलभाजपा अपने पितृ-संगठन की वैचारिक कार्यक्रमों को लागू करने काही एक राजनैतिक उपक्रम है जिसे संघ से ही प्राणवायु मिलती है | वस्तुतःसंघ का उद्देश्य केवल सत्ता प्राप्ति नहीं है बल्कि वह इसके माध्यम से अपने एकात्मवादी हिन्दू राष्ट्र की स्थापना करना चाहता है जो अपने मूल वैचारिक स्वरुप में घोर सांप्रदायिक,प्रतिक्रियावादी,जनतंत्र विरोधी है|संघ का राष्ट्रवाद असमानता पर आधारित राष्ट्र के निर्माण की बात करता है| “हमारे दर्शन के अनुसार ब्रह्माण्ड का उदय ही सत्व,रजस ,और तमस के तीन गुणों के बीच संतुलन बिगड़ने के कारन हुआ है और इन तीनो में यदिबिलकुलसही गुणसाम्यस्थापित हो जाये तो ये ब्रह्मांड फिर शून्य में विलीन होजायेगा | इस लिए असमानता इस प्रकृति का अविभाज्य अंग है| इसलिएऐसी कोईभी व्यवस्था जो इस अन्तर्निहित असमानता को पूरी तरह समाप्त करना चाहतीहै,वह विफल होने के लिए बाध्य है |”(एम एस गोलवलकर,बंचऑफ़ थॉट्स,1960पृष्ठ31) इस प्रकार संघ वैचारिक स्तर पर न केवलअल्पसंख्यक विरोधी हैअपितु दलित और पिछड़ा विरोधी भी है और सामाजिक न्याय को नकारता है | संघभारत के वैविध्यपूर्ण स्वरुप को एकात्मवादी बनाना चाहता है | गोलवलकर केही शब्दों में इस लक्ष्य कोहासिल करने का सबसे महत्वपूर्ण औरप्रभावशाली कदम हमारे संविधान केसंघीय ढांचे की तमाम बैटन को भगवान केलिए बहुत गहरे दफना देनाहोगा, एक भारत के अन्दर सभी स्वायत्त याअर्धस्वायत्त राज्यों के अस्तित्वको समाप्त कर देना होगा और एक देश,एकराज्य,एक विधायिका और एककार्यपालिकाकी घोषणा करनी होगी .....संविधानका पुनर्निरीक्षण किया जाना चाहिए तथा इस प्रकार की एकात्म सरकार कीस्थापना के लिए उसका पुनर्लेखन किया जाना चाहिए| (एम एस गोलवलकर,बंच ऑफ़ थॉट्स,1966 पृष्ठ 435- 436)


इससेस्पष्ट हो जाता है कि भाजपा नेतृत्व द्वारा दिए जा रहे बयान केवल एक दिखावा मात्र है जबकि संघ के आगे भाजपा पूरी तरह से नतमस्तक हैयह बात शीशे की तरह साफ़ है चाहे वह मोदी को प्रधानमत्री पद का उम्मीदवारबनाया जाना हो या फिर मुरली मनोहर जोशी और लालजी टंडन को लोकसभा सीटेंछोड़ने का निर्देश,भाजपा नेतृत्व आज्ञाकारीबच्चे की तरह उसका पालन करताहै| ऐसे में भाजपा का मुसलमानों के प्रतियह उदारवादी मुखौटा किसी कोदिग्भ्रमित नहीं कर सकता है क्योंकि हमारेयहाँ एक कहावत है कि दूध काजला छाछ भी फूंक कर पीता है|

मोहम्म्द आरिफ
मो-9807743675
Email- mdarifmedia@gmail.com

एस्सार कंपनी का कहर, लोगों के बीच पहुंचा जहर

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अविनाश कुमार चंचल

-अविनाश कुमार चंचल

"...कोयला विद्युत संयंत्रों से फ्लाई ऐश सिंगरौली के निवासियों के लिए एक बारहमासी समस्या हो गई है और हाल ही में एस्सार पावर प्लांट से विषाक्त फ्लाई एश का रिसाव स्वीकार नहीं किया जा सकता है। फ्लाई एश में भारी धातु जैसे आर्सेनिक, पारा होते हैं जिससे लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को सीधा नुकसान पहुंच सकता है।..."


एस्सार का फ्लाई एश डैम टूटने से पानी खेतों और घरों तक पहुंचा, स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा

सिंगरौली में एस्सार द्वारा बड़े पैमाने पर लापरवाही का एक और उदाहरण सामने आया है।जिले के खैराही स्थित एस्सार पावर प्लांट के फ्लाई एश डेम के मिट्टी की दीवार टूटने से राखयुक्त जहरीला पानी गांव में फैल गया है। 



ऐसानहीं है कि पहली बार एस्सार की गलतियों की वजह से लोगों की जान खतरे में पड़ी है।  कुछ ही महीनों में यह दूसरा उदाहरण है। पिछले साल सिंतम्बर में, मध्यप्रेदश प्रदुषण नियंत्रण बोर्ड के क्षेत्रिय कार्यालय (सिंगरौली) ने फ्लाई एश की एक बड़ी मात्रा पास के गाड़ा नदी और आसपास के क्षेत्र में फैलने की सूचना दी थी। इस साल जनवरी में प्रदुषण बोर्ड ने इस ओवरफ्लो की वजह से प्लांट को बंद करने का आदेश दिया था लेकिन कंपनी किसी सुरक्षा उपायों को पूरा किए बिना प्लांट को चालू करने में कामयाब रही थी। ऐसा होना स्वाभाविक ही था क्योंकि सरकार कंपनी के जेबमेंहोती है।

कोयला विद्युत संयंत्रों से फ्लाई ऐश सिंगरौली के निवासियों के लिए एक बारहमासी समस्या हो गई है और हाल ही में एस्सार पावर प्लांट से विषाक्त फ्लाई एश का रिसाव स्वीकार नहीं किया जा सकता है। फ्लाई एश में भारी धातु जैसे आर्सेनिक, पारा होते हैं जिससे लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण को सीधा नुकसान पहुंच सकता है।

सिंगरौलीके निवासी अस्थमा, तपेदिक, क्रोनिक ब्रोंकाइटिस जैसी बिमारियों से नियमित रुप से पीड़ित हैं। स्थानीय डाक्टर इसकी वजह सीधे तौर पर औद्योगिक प्रदुषण को मानते हैं। अगर अभी भी सरकार इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए कदम नहीं उठाती है तो इसके गंभीर परिणाम स्थानीय लोगों को भुगतने होंगे।

कोयलेके जलने से फ्लाई एश उत्पादित होता है और इसके वातावरण में जाने से यह पानी और वायु दोनों को दूषित करता है। बीच गांव में फ्लाई एश के लिए तालाब होने से वहां के लोगों पर बिमारियों का खतरा बढ़ जाता है।

फ्लाई एश का पानी के साथ मिलना जल प्रदुषण का सबसे बुरा रुप है। फ्लाई एश डैम के टूटने से वहां के भूमिगत जल स्रोत भी प्रभावित हो सकते हैं। यह प्रदुषित पानी कुएँ और दूसरे जल स्रोतों में मिलकर खाद्य श्रृंखला में प्रवेश कर सकता है।

हालही में आयी रिपोर्ट के अनुसार इस क्षेत्र में जहरीले पारा के बढ़ने के संकेत मिल चुके हैं। आदमी और मछली दोनों के खून जांच में उच्च स्तर का पारा पाया गया था। पारा नियुरोओक्सिसिटी के साथ जुड़ा एक भारी धातु है और यह फ्लाई ऐश के गठन की प्रमुख घटकों में से एक है।

इस तरह की घटना से बचने के लिए फ्लाई एश पॉण्ड को लेकर दिशा-निर्देश बनाये गए हैं लेकिन दुर्भाग्य से शायद ही, पावर प्लांट्स इस नियम का पालन करते हैं। पिछले कई महीनों से एस्सार का नया एश पॉण्ड निर्माणाधीन है लेकिन काम पूरा किए बिना पावर प्लांट को चलाया जा रहा है।

भारी धातु के अलावा फ्लाई एश में रेडियोएक्टिव गुणों के होने का भी संदेह होता है जो आनुवांशिक परिवर्तन पैदा कर सकता है। फ्लाई एश के इस अनिश्चित निपटान से आसपास के लोगों की जिन्दगी और जीविका खतरे में है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय (एमओईएफ) के विशेषज्ञ मूल्यांकन समिति (ईएसी) ने भारी धातुओं और रेडियोधर्मी तत्वों की वजह से  फ्लाई ऐश के उपयोग के खिलाफ मजबूत तर्क  व्यक्त किया है।

सिंगरौली में, स्थानीय लोगों और स्वास्थ्य अधिकारियों द्वारा फ्लाई एश प्रदुषण के खिलाफ शिकायत के बावजूद  सरकार और कंपनी इस मुद्दे को हल करने में कोई रुचि नहीं दिखाती।


अविनाश युवा पत्रकार हैं. 
पत्रकारिता की पढ़ाई आईआईएमसी से. 
अभी स्वतंत्र लेखन. 
इनसे संपर्क का पता- avinashk48@gmail.com है. 

आपकी ज़िंदगी से बात करती एक फिल्म : ‘Her’

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-उमेश पंत

"...फिल्म जब अपने आंखिरी मोड़ पर पहुंचती है तो समान्था, थियोडोर के साथ अपने रिश्ते के बारे में बताते हुए कहती है – “ये ऐसा है जैसे मैं एक किताब पढ़ रही हूं। और ये एक ऐसी किताब है जिसे मैं बहुत प्यार करती हूं। लेकिन अब मैं इसे बहुत धीमे पढ़ रही हूं। इसीलिये शब्द बहुत दूर दूर हैं और इन शब्दों के बीच का अन्तराल अनन्त है।..."

स्पाइक जोन्ज (Spike Jonze) निर्देशित फिल्म ‘हर‘ आपको टूटे हुए रिश्तों से उपजे अकेलेपन, इन्तजार, विछोह जैसी भावनाओं के रास्ते उस खालीपन की तरफ ले जाती जिसे भरा जाना ज़रुरी सा लगने लगता है।
herथियोडोर (जैकिन फीनिक्स/ Joaquin Phoenix) एक लेखक है जो रिश्तों को जोड़ने के लिये लोगों की चिट्ठियां लिखता है। उसके शब्दों में रिश्तों की गहरी समझ है। लेकिन उसके अपने रिश्तों की दुनिया में एक असमंजस है जो उसे अपनी पुरानी प्रेमिका और पत्नी से तलाक की दहलीज़ पर ले आया है। तलाक के पेपर अभी साइन होने बांकी है। पर वो अब अकेले रह रहा है। और उस अकेले फ्लैट में उसके इर्द गिर्द अब अकेलापन है, अपनी प्रेमिका से बिछड़ने का दर्द है, एक आत्मीय रिश्ते के टूट जाने की तड़प है। इन भावनाओं से मिलकर जो एक नई किस्म की भावना बन रही है उसका कोई नाम नहीं है। वो कुछ है पर क्या ये उसे नहीं मालूम है। बस इतना मालूम है कि उस भावना से उपजी खाली जगह में एक खास किस्म की आत्मीयता की ज़रुरत है जो महज शारीरिक नहीं हो सकती।
थियोडोरकी उस आत्मीयता की तलाश के दौरान उसे एक दोस्त मिलती है। लेकिन वो दोस्त शरीर से परे है। एक आॅपरेटिंग सिस्टम जो इन्सानों की तरह सोच सकता है, बात कर सकता है, प्रतिक्रिया दे सकता है, यहां तक कि सेक्स भी कर सकता है। उसमें वो हर इन्सानी भावनाएं हैं जो बेशरीर होती हैं। समान्था नाम की यह दोस्त जो दरअसल एक कम्प्यूटर प्रोग्राम है धीरे धीरे थियोडोर के जीवन में मौजूद खालीपन को भर रही है। या फिर उस खालीपन को भरे जाने का एक आभासी अहसास दे रही है। थियोडोर खुद इस बात से अचम्भित है कि कोई कंप्यूटर प्रोग्राम किसी को इतनी अच्छी तरह कैसे समझ सकता है। कैसे हर उस ज़रुरत को भांप सकता है जो एक आम संवाद से परे जाकर ही समझी जा सकती है। वो किसी सुलझे हुए इन्सान की तरह संवेदनशील है, उसके पास जिन्दगी की दार्शनिक व्याख्या है और ज़रुरत पड़़ने पर उसे हंसाना और गुदगुदाना भी आता है। एक गर्लफ्रेंड जो कभी ये अहसास ही नहीं होने देती कि वो दरअसल महज एक कम्प्यूटर डिवाइस भर है।  समान्था थियोडोर की जिन्दगी में इस हद तक शामिल हो चुकी है कि वो उसे प्यार करने लगता है।
एकतकनीक होने के बावजूद समान्था का दावा है कि वो हर रोज थियोडोर के साथ खुद के ही बारे में नई बातें जान रही है। वो उसके साथ हर रोज एक नये इन्सान के रुप में बदलता हुआ महसूस कर रही है। थियोडोर को भी उसकी लत लगती जा रही है। फिल्म में समान्था को एक बिम्ब के तौर पर लें तो वो दरअसल हमारी उन अनकही भावनाओं का प्रतिबिम्ब है जो किसी न किसी वजह से कभी बयां ही नहीं हो पाती। डिजिटल तकनीक के दौर में हम अपने कम्प्यूटरों और आॅपरेटिंग सिस्टम्स और अपने गैजेट्स के जितने नज़दीक हैं अपने असल रिश्तों से हम उतने ही दूर हैं। आंखिर तक जाते जाते फिल्म समान्था यानी एक तकनीक की सीमाओं को भी जाहिर कर देती है। एक मशीन की प्रवृत्तियां भले ही कितनी ही इन्सानी क्यों न लगती हों लेकिन वो आभासी ही रहेंगी। आप उनके जितने तलबगार होते रहेंगे वो आंखिर में आपको उतना ही मजबूर करके छोड़ देंगी।
HERपूरी फिल्म में नरेशन अहम भूमिका निभाता है। उसकी लिखावट बेहद खूबसूरत है। छोटी छोटी भावनाओं की खूबसूरती फिल्म के तमाम हिस्सों में बिखरी पड़ी है। मसलन समान्था एक बारगी कहती है कि “हम दोनों की साथ में कोई तस्वीर नहीं है। और ये गाना एक तस्वीर की तरह हो सकता है जो हमें जिन्दगी के इस लमहे में एक साथ उकेरता है।“ ये एक खूबसूरत बात है क्योंकि साथ होने का अहसास कई बार बिना शारीरिक रुप से एक साथ हुए भी हो सकता है अगरचे आप मन से एक साथ हों।
समान्थाएक बेहद खूबसूरत बात तब कहती है जब वो अतीत के बारे में अपनी राय देतीहुई कहती है- “अतीत दरअसल वो कहानियां जो हम खुद के लिये गढ़ते हैं..
फिल्मजब अपने आंखिरी मोड़ पर पहुंचती है तो समान्था, थियोडोर के साथ अपने रिश्ते के बारे में बताते हुए कहती है – “ये ऐसा है जैसे मैं एक किताब पढ़ रही हूं। और ये एक ऐसी किताब है जिसे मैं बहुत प्यार करती हूं। लेकिन अब मैं इसे बहुत धीमे पढ़ रही हूं। इसीलिये शब्द बहुत दूर दूर हैं और इन शब्दों के बीच का अन्तराल अनन्त है। मैं अब भी तुम्हें और हमारी कहानी के शब्दों को महसूस कर सकती हूं। लेकिन अब मैं अपने आप को शब्दों के बीच के इस कभी खत्म न होने वाले रिक्त स्थान में पा रही हूं। ये एक ऐसी जगह है जो भौतिक संसार में नहीं पाई जाती। ये एक कहीं और ऐसी जगह है जिसके बारे में मुझे पता भी नहीं था कि उसका अस्तित्व भी है। मैं तुम्हें बहुत प्यार करती हूं। लेकिन अब मैं इस जगह पर हूं। और मैं अब यही हूं। और मैं चाहती हूं कि तुम मुझे जाने दो। बहुत चाहने के बावजूद अब मैं तुम्हारी इस किताब को और नहीं जी सकती। “
फिल्मका धीमा संगीत हर वक्त आपको ऐसा अहसास कराता है जैसे आप किसी शान्त और गुनगुनी नदी की लहरों में लेटे हुए हों और लहरें आपको धीमे धीमे ऊपर नीचे ले जा रही हों। उसी ख़ूबसूरती से फिल्म में फ्लेशबैक को बिना संवादों के दिखाया गया है जो फिल्म के बहाव से अच्छी तरह मेल खाते हैं.
Her Joaquin Phoenix ukuleleथियोडोरके रुप में जेकिन फीनिक्स (Joaquin Phoenix) की अदाकारी कमाल की है। समान्था से बात करते हुए उनके चेहरे के हावभाव जिस खूबी से बदलते हैं वो काबिले तारीफ है। खास बात ये है कि उनके बिल्कुल अव्यावहारिक से प्यार के बावजूद आप एक दर्शक के रुप में उस प्यार के समर्थन में न केवल खड़े होते हैं बल्कि उसे उसी गहराई से महसूस भी कर पाते हैं। समान्था के रुप में स्कारलेट जोहान्सन की आवाज़ कहानी में एक अलग किरदार है जो अपना प्रभाव पूरी तरह से छोड़ती है।
अच्छीलिखावट को उतनी ही अच्छी तरह से कैसे फिल्माया जा सकता है ‘हर’ उसका बेहतरीन उदाहरण है। स्पाइक जोन्ज (Spike Jonze) ने ये फिल्म लिखी भी है और उसका निर्देशन भी खुद ही किया है। जिन्हें बिना बहुत ज्यादा ड्रामा और एक्शन के बिना भी फिल्म देखने में मज़ा आता है उन्हें ये फिल्म ज़रुर देखनी चाहिये। ये फिल्म उन कुछ फिल्मों में से है जो आपसे आपकी जिन्दगी के बारे में वो सभी बातें करती है जिन्हें अपनी व्यस्त जिन्दगी में आप पूरी तरह नकार देते हैं।
उमेश'लेखक हैं. कविता-कहानी से लेकर
 पत्रकारीय लेखन तक विस्तार.
सिनेमा को देखते, सुनते और पढ़ते रहे हैं. 
mshpant@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

लोकतंत्र के लिए घातक होगा भाजपा का घोषणा-पत्र

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अनिल यादव
-अनिल यादव

"…आजजब दुनिया के तमाम देश अपनी खुफिया एजेसियों को अपने संसद के प्रति जवाब देह बना रहे हैं तो भारत में सत्ता पाने के लिए सबसे ज्यादा आतुर भाजपा अपने घोषणा में खुफिया एजेंसियों को और अधिकार देने की बात कर रही है। गौरतलब है कि भाजपा के अनुषांगी रहे तमाम उग्रवादी संगठन खुफिया एजेंसियों द्वारा लगातार बचाये जाते रहे है। ..."

सोलहवींलोक सभा चुनाव मे तमाम पार्टियो नें देश की आंतरिक व बाह्य सुरक्षा को मुद्दा बनाया है, परन्तु यादि हम भाजपा के घोषणा पत्र को देखें तो पता चलता है कि देश की सुरक्षा को लेकर वह कुछ ज्यादा ही गम्भीर है। भाजपा ने अपने घोषणा- पत्र में खुफिया एजेंसियों को ‘और अधिक’ स्वायŸाता देने की बात कही है। 


भारत के संविधान के प्रस्तावना में भारत के लोगों (हम भारत के लोग) को संविधान की शक्ति का स्रोत बताया है और यहीं शक्ति संसद के रूप में प्रतिबिम्बित होती है। लोकतंत्र की तमाम मशीनरी इसी संसद के प्रति जबावदेह है परन्तु दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत की बिड्म्बना है कि उसकी खुफिया ऐसेजियाँ संसद के प्रति जवाबदेह नही हैं। आज जब हमारा देश 16वीं बार लोकतन्त्र की कसौटी पर परखा जा रहा है तो जायज है कि सवाल उठे कि लोकतन्त्र के इस सफर में हम कहाँ तक पहुँच है? आजादी के 66 साल बाद हमारे रहनुमा लोकतंत्र, देश के लोगांे कि आजादी और उनकी सुरक्षा का मतलब क्या समझते हैं ? क्या एक लोकतान्त्रिक देश में किसी संस्था को इतनी स्वयŸाा और स्वतन्त्रता मिलनी चाहिए ?

रिहाईमंच (आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की लड़ाई लड़ने वाला संगठन) द्वारा जारी 25 सूत्री मांग पत्र में खुफिया एंजेसियों को संसद के प्रति जिम्मेदार बनाने की मांग प्रमुखता के साथ कही गयी है। देश के उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी तक ने खुफिया एजेंसियों को संसद के दायरे में रखने की बात कही है। देश में तमाम मानवाधिकार संगठनों ने खुफिया एजेंसियों की कार्य प्रणाली पर सवाल उठाया है, खासकर के आंतकवाद और आंतकवाद के नाम पर फंसाये गये बेगुनाहों के मामले में खुफिया एजेंसियों की भूमिका संदिग्ध पायी गयी है। साथ ही साथ यह भी देखा गया है कि इसकी स्वायŸाता व स्वतन्त्रता देश की संप्रभुता और लोक तांत्रिक व्यवस्था के लिए भी घातक है।

आंतकवादव आंतकवाद के नाम पर हुई गिरप्तारियों में आई0बी0 समेत तमाम खुफिया एजेंसियों की भूमिका संदिग्ध रही है। उत्तर प्रदेश में आर0डी0 निमेष आयोग ने जिस तरह से तारिक और खालिद (उŸार प्रदेश से हुए कचहरी बम बिस्फोट के अभियुक्त) को निर्दोष बताते हुए आई0बी0 और एटीएस के ऊपर सवालिया निशान लगाया है।

गौरतलबहै कि आर0डी0 निमेष की रिपोर्ट आने से पहले ही 18 मई 2013 को मौलाना खालिद की हिरासत में मौत हो गयी। उत्तर प्रदेश ही नही बल्कि भारत के इतिहास में यह पहली घटना है जब आई0बी0 के ऊपर इस मामले में मुकदमा दर्ज किया गया है। आई0बी0 के आपराधिक कृत्य का एक और उदाहरण हैदराबाद के अब्दुल रज्जाक की आत्महत्या है। अब्दुल रज्जाक पर खुफिया एजेंसियां लगातार मुखबिर बनने का दबाव बना रहीं थीं। इसी कारण उसे आत्महत्या करने के लिए बाध्य होना पड़ा।

खुफियाएजेंसियों का इतिहास ऐसे काले-कारनामों से भरा हुआ है। यदि हम जैन रिपोर्ट (राजीव गांधी हत्याकाण्ड पर गठित आयोग) की बात करें तो स्थिति बिल्कुल साफ हो जाती है कि भारत की खुफिया ऐजेंसी किस तरह से सी0आई0ए0 और मोसाद के साथ इस षड़यंत्र में शामिल थी। दुनिया भर में हम खुफिया एजेंसियों के कारनामों को देख चुके है। इराक पर हमले की पूरी जमीन खुफिया एजेंसियों ने पूरी दुनिया को गलत और झूठी जानकारी देकर तैयार की थी।

आजजब दुनिया के तमाम देश अपनी खुफिया एजेसियों को अपने संसद के प्रति जवाब देह बना रहे है तो भारत में सत्ता पाने के लिए सबसे ज्यादा आतुर भाजपा अपने घोषणा में खुफिया एजेंसियों को और अधिकार देने की बात कर रहा है। गौरतलब है कि भाजपा के अनुषांगी रहे तमाम उग्रवादी संगठन खुफिया एजेंसियों द्वारा लगातार बचाये जाते रहे है। यदि हम उत्तरप्रदेश के कचहरी बम विस्फोट की बात करे तो पाते है कि बम विस्फोट एक खास संगठन से जुड़े वकीलों के चेम्बर में हुआ और विशेष समय पर भी हुआ जब वहाँ उपस्थित नही थे। इसी क्रम में देखा जाये तो अजमेर, समझौता एक्सप्रेस और मालेगाँव बम-विस्फोट में भी पहले मुस्लिम नौवजवनों को फसाया गया परन्तु मानवाधिकार संगठनों के दबाव में आकर असली गुनहगार सामने आये। इस तरह से खुफिया एजेंसियों की साम्प्रदायिक जेहनियत भी साफ है।

भाजपाके प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेन्द्र मोदी ने भी खुफिया एजेंसियों का इस्तेमाल गुजरात में बखुबी ढंग से किया है। मामला चाहे अक्षरधाम मंदिर काण्ड का हो या फर्जी मुठभेड़ों का नरेन्द्र मोदी भूमिका भी खुफिया एजेंसियों की तरह संदिग्ध रही है। राष्ट्रवाद और हिन्दूत्व का जाप करने वाल नरेन्द्र मोदी और भाजपा की जेहनियत साफ नही है। खुफिया एजेंसियों के सहारे एक खास तबके के ऊपर बर्बर दमन और उसे अपराधी घोषित करवाने की योजना के तहत भाजपा ने अपने घोषणा पत्र में ऐसे अलोकतान्त्रिक एजेंडे को शामिल किया है। भाजपा का घोषणा में शामिल यह एजेंडा हिन्दी के मुहावरे ‘करेला चढ़े नीम की डाल’ को चरितार्थ  करता नजर आता है।

अनिल यादव
द्वारा- मोहम्मद शुएब
एडवोकेट
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लाटूश रोड, नया गांव, ईस्ट लखनऊ, उत्तर प्रदेश
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