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मध्यवर्गीय व्यक्तिवाद के खिलाफ लगातार लड़ते रहे वाल्मीकि

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बृजेश यादव
-बृजेश यादव

"...स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज में दलित साहित्य कला केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित सभा में प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय ने कबीर, नाभादास, अश्वघोष और बुद्ध को याद करते हुए प्रतिरोध की उस साहित्यिक परंपरा को रेखांकित किया जिसकी बुनियाद पर ओमप्रकाश वाल्मीकि और विशेष तौर पर दलित रचनात्मकता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।..."

लदश्रु भावुकता और श्रृद्धालुओं की फूल मालाओं से ख़बरदार रहकर ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनात्मकता को समझा जा सकता है। मध्यवर्गीय अवसरवाद के खि़लाफ उनकी कहानियों में जो प्रतिरोध दर्ज हुआ है-उसे देखा जाना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय में रविवार को आयोजित संयुक्त स्मृति सभा में ये विचार व्यक्त किये गए। 

स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज में दलित साहित्य कला केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित सभा में प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय ने कबीर, नाभादास, अश्वघोष और बुद्ध को याद करते हुए प्रतिरोध की उस साहित्यिक परंपरा को रेखांकित किया जिसकी बुनियाद पर ओमप्रकाश वाल्मीकि और विशेष तौर पर दलित रचनात्मकता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। वाल्मीकि की भाषा को उन्होंने उल्लेखनीय बताया। सभा को कुल 11 वक्ताओं ने संबोधित किया। अध्यक्षता करते हुए प्रो. विमल थोराट ने वाल्मीकि जी के साथ अपनी सुदीर्घ वैचारिक निकटता को भावपूर्ण शब्दों में याद किया।

इसके पहले बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि मिथकों की फिसलनभरी राह के प्रति वाल्मीकि जी की रचनात्मक सचेतनता उनके प्रखर धर्मिक बोध का प्रमाण है। उन्होंने ओमप्रकाश जी की अप्रकाशित रचनाओं को एकत्र कर रचनावली प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया।'घुसपैठिए'समेत वाल्मीकि की तीन कहानियों पर अपनी बात को केन्द्रित करते हुए जेएनयू के शोध छात्र मार्तण्ड प्रगल्भ ने कहा कि मध्यवर्गीय दलित अधिकारी 'घुसपैठिए'के अंतर्द्वंद्व और मेडिकल के दलित छात्रा की आत्महत्या के बीच इस कहानी को जिस तरह रचा गया है वह मध्यवर्गीय विरोध-वादी नैतिकता के खि़लाफ लेखक के असंतोष की दास्तान बन जाती है। व्यकित और लेखक के विचार में अंतर भी हो सकता है और कर्इ बार रचना का अर्थ लेखक की घोषित मंशा से 'स्वतंत्र'भी हो सकता है। मार्तण्ड के मुताबिक, वाल्मीकि की कहानियों को जातिगत उत्पीड़न के सिंगिल फ्रेम में रखकर देखने के बजाय हमें हिंदी की अपनी आलोचनात्मक दृष्टि का विकास करना चाहिए और ओमप्रकाश जी की उस कथात्मक अंतर्दृष्टि को पहचानना चाहिए जो मध्यवर्गीय दलित व्यक्तिवाद के खि़लाफ निरंतर संघर्षरत रही है।

स्मृतिसभा को अनीता भारती, चित्रकार सवि सावरकर, कवि जयप्रकाश लीलवान, डा. रामचंद्र और प्रो. एसएन मालाकार ने भी संबोधित किया। प्रो. चमनलाल ने वाल्मीकि की कहानियों में अभिव्यक्त यथार्थ के स्वरूप की अर्थ गांभीर्य को रेखांकित करते हुए उन्हें सच्चा यथार्थवादी लेखक बताया। प्रो. तुलसीराम ने कहा कि हिंदी की रचनाओं में दलित पात्रों के लुम्पेनाइजेशन के विरोध में वाल्मीकि ने जिस साहस से लगातार संघर्ष किया, वह स्मरणीय है। इस प्रसंग में उन्होंने प्रेमचंद की 'कफन'कहानी को याद किया। सभा के अंत में एक मिनट का मौन रखा गया। 

बृजेश साहित्यिक राजनीतिक एक्टिविस्ट हैं. 
इनसे संपर्क का पता kavibrijesh@gmail.com है.


प्रतिबद्धता नहीं, बस खानापूर्ति :19 वां वॉरसा जलवायु परिवर्तन सम्मलेन

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...वॉरसा में तय यह होना था कि धरती के वातावरण को पिछले ढाई सौ साल में मुख्य रूप से प्रदूषित करने वाले देश कार्बन कटौती के किसी निर्धारित वैधानिक लक्ष्य के लिए खुद को वचनबद्ध करेंगे या नहीं। अब इसका जवाब मिल गया है। वे ऐसा नहीं करेंगे।..."

www.kaltoons.com से साभार
वॉरसा में दो दशक से जारी रवायत दोहराई गई। संबंधित पक्षों की 19वीं जलवायु वार्ता में आखिरकार सभी देशों की सरकारें सहमत हो गईं कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की कटौती में वे योगदान देंगी, मगर किसी ने इसके लिए खुद को वचनबद्ध नहीं किया। पिछले कई मौकों की तरह इस बार भी वार्ता टूटने के कगार पर थी। तभी कमिटमेंट शब्द को बदल कर कंट्रीब्यूशन कर दिया गया। इससे सभी देशों को रास्ता मिल गया। अब धरती को गरम होने से बचाने के उपाय करने में वे स्वेच्छा से यथासंभव योगदान करेंगे। उससे तापमान वृद्धि को (1750 की तुलना में) 2 डिग्री से नीचे सीमित रखना मुमकिन हो या नहीं, यह संभवतः उनकी चिंता नहीं है। अगर इस दिशा में प्रगति नहीं हुई, तो जिम्मेदारी दूसरों के माथे मढ़ दी जाएगी। 

यह सहमति ऊपरी तौर पर सभी देशों के हक में दिखती है, जबकि हकीकत ऐसी नहीं है। वास्तविक कथा यह है कि धनी देश अपनी पुरानी वचनबद्धता और धरती को गरम करने में अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी की कीमत चुकाने से बच निकले हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि विकासशील देशों ने ऐसा होने दिया। परिणाम यह होगा कि 1992 में रियो द जनेरो में हुई धरती सम्मेलन के साथ जलवायु परिवर्तन रोकने की शुरू हुई प्रक्रिया की दिशा परिवर्तित हो गई है। जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हुई संधि (यूनाइडेट नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेशन ऑन क्लाइमेट चेंज- यूएनएफसीसी) के आधार सिद्धांत बदल गए हैं। तब जलवायु न्याय को इस प्रयास का मूलभूत सिद्धांत माना गया था। सहमति हुई थी कि जलवायु परिवर्तन रोकने की जिम्मेदारी तो सबकी है, मगर इसकी मात्रा अलग-अलग होगी। अर्थ यह था कि जिन देशों में पहले औद्योगिकरण हुआ, उन्होंने ग्रीनहाउस गैसों- खासकर कार्बन डायऑक्साइड का अधिक उत्सर्जन धरती के वातावरण में किया है। इन्हीं गैसों के वहां परत बनाकर जम जाने से धरती का तापमान बढ़ना शुरू हुआ, जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का खतरा पैदा हुआ। 

उपरोक्तसिद्धांत के तहत तब धनी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के पूर्व-निर्धारित एवं अनिवार्य लक्ष्य को स्वीकार किया था। 1997 में क्योतो प्रोटोकॉल के तहत इस लक्ष्य के ब्योरे तय किए गए। अमेरिका तो उसी वक्त इस सहमति से हट गया, लेकिन जिन यूरोपीय देशों ने लक्ष्य स्वीकार किए उन्होंने भी निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप कटौती नहीं की। क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि 2012 में खत्म हो गई। तब नई संधि की प्रक्रिया शुरू हुई। वॉरसा में तय यह होना था कि धरती के वातावरण को पिछले ढाई सौ साल में मुख्य रूप से प्रदूषित करने वाले देश कार्बन कटौती के किसी निर्धारित वैधानिक लक्ष्य के लिए खुद को वचनबद्ध करेंगे या नहीं। अब इसका जवाब मिल गया है। वे ऐसा नहीं करेंगे।

क्योतो प्रोटोकॉल के बाद की संधि के सिलसिले में धनी देशों का तर्क है कि पिछले दो दशक में चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से विकसित हुई हैं। अब चीन सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है और भारत चौथे नंबर पर है। मगर यह दलील इस तथ्य की अनदेखी करके दी जाती है कि ऐतिहासिक रूप से सकल उत्सर्जन में इन दोनों देशों का योगदान अब भी बहुत कम है। फिर अगर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन देखें तो चीन और भारत आज भी अमेरिका और यूरोप से बहुत पीछे हैँ। अमेरिका और यूरोप ने उपभोग का जो जीवन स्तर हासिल किया है, वह अभी इन दोनों देशों की पहुंच से बहुत दूर है। 

बहरहाल, वॉरसा सम्मेलन से पहले विकासशील देशों ने यह मान लिया था कि उत्सर्जन कटौती में वे भी योगदान करेंगे। भारत सरकार ने इस नीति को मंजूरी दी थी। मगर भारत समेत विकासशील देशों की मांग थी कि सभी देश यह घोषित करें कि वे कितनी कटौती करेंगे। उसके बाद देखा जाए कि क्या वह तापमान वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रखने के लिहाज से पर्याप्त है। अगर ऐसा नहीं है, तो जो कमी रह जाएगी उसकी पूर्ति धनी देश करें। वे इसके लिए तय लक्ष्य के प्रति खुद को वचनबद्ध करें। चीन के वार्ताकार सु वेई ने वॉरसा में इसी बात पर जोर दिया। कहा कि वचनबद्धता सिर्फ धनी देशों की होनी चाहिए। विकासशील देशों का योगदान स्वैच्छिक होना चाहिए। मगर धनी देश अड़े रहे। अंततः विकासशील देशों ने झुक कर यह समझौता कर लिया कि सभी देश सिर्फ योगदान करेंगे, कोई उत्सर्जन में कटौती के पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के प्रति खुद को वचनबद्ध नहीं करेगा। कुछ देशों का इस समझौते पर राहत जताना हैरतअंगेज है। मुद्दा यह है कि अगर इससे धरती को गरम (ग्लोबल वॉर्मिंग) होने से बचाने का लक्ष्य पूरा नहीं होगा, तो इसका अर्थ क्या है?

1992 के धरती सम्मेलन में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर ने बेलाग कहा था कि अमेरिकी नागरिकों की जीवनशैली पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। जाहिर है, जलवायु वार्ता में आज भी धनी देश इसे अपना बुनियादी सिद्धांत बनाए हुए हैं। मगर मुश्किल यह है कि उपभोग में कटौती के बिना कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाना नामुमकिन है। अमेरिका के विपरीत यूरोपीय देशों ने अतीत में जलवायु वार्ता में अधिक सकारात्मक रुख अपनाया। मगर हाल के आर्थिक संकट के बीच उनकी प्राथमिकता भी यही है कि किसी तरह ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने की जिम्मेदारी अधिक से अधिक उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों पर डाल दी जाए। मगर इस रणनीति की नाकामी तय है, क्योंकि भारत जैसे देशों की मुख्य समस्या गरीबी और पिछड़ापन है। इन देशों में आबादी के बहुत बड़े हिस्से को अभी बिजली उपलब्ध नहीं है, जबकि ऊर्जा उत्पादन की प्रक्रिया का धरती को गरम करने में संभवतः सबसे ज्यादा योगदान होता है। फिर इन देशों में पर्यावरण (अथवा ग्रीन) तकनीक उपलब्ध नहीं है, जिससे वे पर्यावरणसम्मत से अपना औद्योगीकरण कर सकेँ। यह तकनीक भी धनी देशों के पास है। यूएनएफसीसीसी में यह जिम्मेदारी धनी देशों की मानी गई थी कि वे ग्रीन टेक्नोलॉजी को पेटेन्ट से मुक्त कर गरीब देशों को उपलब्ध कराएंगे। लेकिन इस वचनबद्धता से भी वे मुंह मोड़ चुके हैं। यानी ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने में वे कोई ऐसा योगदान नहीं करना चाहते, जिससे उन पर आर्थिक बोझ पड़े या जिस कारण उनके यहां उपभोग को नियंत्रित करना पड़े।

विकसितदुनिया के औद्योगीकरण के कारण जलवायु परिवर्तन से जो नुकसान गरीब देशों को उठाना पड़ रहा है, उसकी क्षतिपूर्ति में योगदान के जो वादे अतीत में धनी देशों ने किए- उससे भी एक तरह से वे पीछे हटते दिखते हैँ। वॉरसा बैठक से पहले सबसे कम विकसित देशों की तरफ से क्षति एवं क्षतिपूर्ति’ का मुद्दा जोरशोर से उठाया गया। मांग यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण समुद्र के जलस्तर में वृद्धि तथा मौसम का मिजाज बदलने से उन्हें जो नुकसान हो रहा है, उसे नियंत्रित करने के लिए धनी देश उन्हें वित्तीय मदद दें। मगर यह मांग स्वीकार करना तो दूर धनी देश आज तक उस हरित कोष में योगदान की रूपरेखा भी तय नहीं कर पाए, जिसका खूब धूम-धड़ाके के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 में कोपेनहेगन में हुई संबंधित पक्षों की बैठक में एलान किया था। 100 अरब डॉलर का यह कोष 2011-12 तक के लिए था। लेकिन आज तक इसमें कोई अनुदान नहीं आया। अब इसे 2020 तक के लिए टाल दिया गया है। इसके बावजूद यह तय नहीं है कि इसमें कौन देश कितना योगदान करेगा।

वॉरसासम्मेलन में वचनबद्धता की जगह योगदान शब्द को लाकर वार्ता को टूटने से तो बचा लिया गया, लेकिन उपरोक्त मुद्दों पर तस्वीर और भी धुंधली होती दिखी। क्योतो प्रोटोकॉल के बाद नई संधि के पूरी होने लिए 2015 की समयसीमा तय है। ये संधि 2020 से लागू होगी। वॉरसा में तय हुआ कि सभी देश उत्सर्जन कटौती में अपने योगदान की मात्रा की घोषणा 2015 की पहली तिमाही या दिसंबर 2015 में पेरिस में होने वाली संबंधित पक्षों की बैठक के पहले कर देंगे। जो लक्ष्य वे घोषित करेंगे, उस पर निगरानी, रिपोर्टिंग और उसे सत्यापित करने की व्यवस्था की जाएगी। मतलब यह कि घोषित लक्ष्य पर पालन हो, इसे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत सुनिश्चित कराया जाएगा।  मगर इसके बीच जो बात गायब हो गई, वो वह कि आखिर 2020 तक ये देश क्या करेंगे

पिछलेसाल संबंधित पक्षों की बैठक में सहमति बनी थी कि इस बीच की अवधि के लिए भी उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय किया जाएगा। इसका ब्योरा वॉरसा में सामने नहीं आया। यह कहा गया कि चरम मौसमी दुर्घटनाओं से पीड़ित गरीब देशों की मदद के लिए एक तंत्र बनेगा और ये देश जलवायु परिवर्तन के असर को झेल सकें इसके लिए धनी देश सहायता की मात्रा बढाएंगे। साथ ही जंगल कटने से रोकने के लिए एक अरब डॉलर के ग्रीन क्लाइमेंट फंड की स्थापना की जाएगी। लेकिन ये तीनों बातें अत्यंत अस्पष्ट हैं। ये अच्छे इरादे जताने से अधिक कुछ नहीं हैं, क्योंकि इनमें विवरण का अभाव है। कहा जा सकता है कि इन इरादों को अगले दो साल में व्यावहारिक रूप देने की योजना तैयार की जाएगी। मगर पिछले दो दशकों का अनुभव इसके लिए बहुत उम्मीद नहीं बंधने देता। 

जयवायु परिवर्तन का मुद्दा किस तरह देशों की प्राथमिकता में लगातार नीचे जा रहा है, इसकी एक मिसाल जापान का रुख है। उसने साफ कह दिया कि क्योतो प्रोटोकॉल के तहत उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को वह 2020 तक पूरा नहीं करेगा। जापान उन देशों में था, जिन्हें 1990 के स्तर की तुलना में 25 प्रतिशत कटौती करनी थी। मगर जापान ने कहा कि असल में 2020 तक उस स्तर में 3 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। उधर ऑस्ट्रेलिया ने किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को वॉरसा भेजने की जरूरत महसूस नहीं की। धनी देश इस पर अड़े रहे कि क्योटो प्रोटोकॉल की तरह कटौती के अनिवार्य लक्ष्य को वे स्वीकार नहीं करेंगे। हालात यहां तक पहुंचे कि एक दिन विकासशील देशों के प्रतिनिधि बैठक से वॉकआउट कर गए। एक मौके पर गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों को भी यही रास्ता अख्तियार करना पड़ा।

निष्कर्षयह कि जलवायु परिवर्तन रोकने के नाम पर 195 देशों के प्रतिनिधि इस बार वॉरसा में जुटे और धरती तथा भविष्य की पीढ़ियों के प्रति चिंता जताने की रस्म-अदायगी की। मगर इससे बात कहीं आगे बढ़ी, कहना कठिन है। वार्ता को टूटने से बचा लेना अगर अपने-आप में कोई उपलब्धि हो, तो धरती के भविष्य की कीमत इसे जरूर हासिल किया गया। यहां ये बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि इस बैठक से कुछ ही समय पहले जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति (आईपीसीसी) ने हाल ही में अपनी पांचवीं आकलन रिपोर्ट में दुनिया को फिर से याद दिलाया था कि जलवायु परिवर्तन मानव-गतिविधियों का परिणाम है। उसने चेतावनी दी थी कि अगर कॉर्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन में तेजी से कटौती नहीं हुई तो धरती पर ऐसे परिवर्तन होंगे, जिन्हें फिर पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकेगा। स्पष्ट है सरकारों- खासकर धनी देशों की सरकारों ने इसकी अनदेखी कर दी है। तात्कालिकता दीर्घकालिक तकाजे पर फिर भारी पड़ी है। 
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

तिग्मांशु के सिनेमा का बुलेट राजा

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मिथिलेश प्रियदर्शी
-मिथिलेश प्रियदर्शी

"...तो 'बुलेट राजा'की कहानी है, एक ब्राह्मण घर में पैदा हुए एक लंठ लड़के की, जिसे इस कुल में पैदा होने के सारे मतलब अच्छे से मालूम हैं, जो खुद को ब्राह्मण कुल का होने की वजह से पैदाइशी समझदार मानता है, जो अब तक 155 लड़कियों के भीतर जानवर जगा चुका है, (और महिलाओं की इज्जत करता है), जो चलाता तो तमंचा झन्नाटेदार है, पर आर्ट की महता को भी समझता है और अंत में एक जरूरी बात ये कि वह कहानी के शुरू में बेरोजगार है, पर तमंचा संभालने के बाद नहीं..."

सा है कि बेजोड़ 'कौन्फ़िडेंस'में तो हम सब रहते हैं. सबको लगता है कि हमारे सीन में आने से गर्मी बढ़ जाएगी, अब ये उतना ही भाजपा को लगता है, उतना ही कांग्रेस को, उतना ही 'आप'को और उतना ही 'बुलेट राजा'को भी. और गर्मी और तापमान है कि बढ़ता जा रहा है. अब ये तापमान बढने-बढ़ाने की ज़िम्मेदारी न अमेरिका स्वीकार रहा है न उसके जिगरी दोस्त. तो शुक्र है कि ऐसे ही भयानक जलवायविक परिवर्तनों के दौर में 'बुलेट राजा'आए हैं, जिन्होंने खुलेआम इसका ठिकरा कुबूल किया है कि हम आएंगे तो गर्मी बढ़ जाएगी. अब शायद आगे आने वाले जलवायु संबन्धित अंतराष्ट्रीय सेमिनारों में यह बहस थम जायेगी.
Bullet Raja [First Look]


तो 'बुलेट राजा'की कहानी है, एक ब्राह्मण घर में पैदा हुए एक लंठ लड़के की, जिसे इस कुल में पैदा होने के सारे मतलब अच्छे से मालूम हैं, जो खुद को ब्राह्मण कुल का होने की वजह से पैदाइशी समझदार मानता है, जो अब तक 155 लड़कियों के भीतर जानवर जगा चुका है, (और महिलाओं की इज्जत करता है), जो चलाता तो तमंचा झन्नाटेदार है, पर आर्ट की महता को भी समझता है और अंत में एक जरूरी बात ये कि वह कहानी के शुरू में बेरोजगार है, पर तमंचा संभालने के बाद नहीं.



तो जाहिर है, ऐसे दिमाग के आदमी को अगर राजनीतिक 'सपोर्ट'मिल जाये और कहानी में उसी के तेवर के आसपास का अगर उसका एक जिगरी दोस्त हो तो वो आग तो मूतेगा ही, और फिर गर्मी भी बढ़ेगी. पहले गलती से अपराध, फिर मजबूरी में, फिर राजनीतिक जरूरतों के लिए और अंत में व्यक्तिगत बदले के लिए. अपराध जगत पर बनी फिल्मों में इस किस्म की कहानियों की एक लंबी फेहरिस्त है. 'हीरोइन जो हीरो को देखते ही उस पर मर मिटती है और जिसका काम कहानी में केवल इठलाना और गाना गाने के लिए प्रस्तुत होना होता है'उसका या उसके परिवार का इस कहानी में अपहरण तो नहीं होता, पर हीरो का जिगरी दोस्त बीच में जरूर हीरोइन को बचाते हुये मर जाता है, फिर इसके बाद श्मशान में अर्जुन टाइप शपथ खाना भी बनता है और 21वीं सदी है तो हालत के मद्देनजर शपथ को थोड़ा 'एडजस्ट'करना भी. बाद में राजनीतिक समीकरणों का बनना-बिगड़ना स्वाभाविक तरीके से चलता है और अंत में 'गौडफादर'का हाथ खींच लेने के बाद उसके साज़िशों का अंत कर हाथ और कपड़े झाड़ते हुए सकुशल निकल जाना भी. अब जब सब निपट गया तो बाहर मुस्कुराती, बाँहें फैलाये हीरोइन खड़ी ही है, तब तक, जब तक पर्दे पर टेक्स्ट लिखाने-पढ़ाने न शुरू हो जाएँ. 



अबअगर कोई लापरवाह सिनेमा प्रेमी, जो तिग्मांशु धूलिया के फिल्म व्याकरण को अच्छे से जानता हो, पर इस फिल्म के बारे में जानने से रह गया हो (मान लीजिये न, कुछ दिनों के लिए भूमिगत हो गया था), 'बुलेट राजा'देखता है और पूछता है, किसकी फिल्म थी, आप उसे 'सहर'वाले कबीर कौशिक का नाम बता देते हैं या 'अपहरण'वाले प्रकाश झा का या विशाल भारद्वाज या अपने गली के किसी लौंडे का ही, तो तय जानिए वो लंबी गर्दन वाले किसी मुर्गे की माफिक हौले से सिर हिला के 'अच्छा'कह कर हामी दे देगा और सवाल नहीं करेगा. ( हाँ, पर ध्यान रहे अनुराग कश्यप का नाम मत ले लीजिएगा, उनके यहाँ 'डिटेलिंग'बहुत होती है. वहाँ बाप के मरने की खबर सुनकर बेटा बदहवास भागता तो है, पर चट्टी पहिनने वापस आता है).



2012में अनुराग कश्यप की देखरेख में समीर शर्मा की एक फिल्म आयी थी 'लव शव ते चिकन खुराना', उसमें प्रसिद्ध चिकन खुराना की रेसिपी जानने के लिए प्रतिद्वंदी ढाबे का मालिक लाला जब कई तिकड़मों के बाद इसके एवज में एक करोड़ रुपए तक की पेशकश भी खुशी से करता है तो नायक लाला को रेसिपी की जगह एक मुफ्त का नुस्खा देते हुए कहता है, ''जिस बंदे का चिकन खाके पूरी दुनिया उँगलियाँ चाट जाती थीं, उसे चस्का था आप की दाल मखनी का. लेकिन पैसा आते ही आपकी सब्जी में से स्वाद गायब हो गया, प्यार गायब हो गया.''



बसयही बात कहनी थी, अपनी जो विशेषता है, जिसमें महारत है, जिस बात के लिए दुनिया आपके हाथों का बोसा लेती है, उस पर यकीन बनाए रखिए बस, बाकी रविश जी वाला, बात जो है सो तो हइए है. 



(अबजाते-जाते एक मजेदार प्रसंग, लड़का यूपी का ब्राह्मण है, लड़की बंगालन. शादी के लिए बाप राजी नहीं है, लड़की उम्मीद से भरकर अपने चाचा को कहती है,''आप तो कम्यूनिस्ट हैं, आप कुछ बोलिए.''चाचा का त्वरित जवाब,''कम्यूनिस्ट कम्यूनिस्ट होता है, परिवार परिवार.'' )

मिथिलेश स्वतंत्र लेखक हैं. 
मूलतः कहानी और समसामयिक घटनाओं पर विश्लेषण के क्षेत्र में लेखनरत् हैं. 
इनसे संपर्क का पता askmpriya@gmail.com है.

तेजपाल के बहाने...

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अतुल आनंद

-अतुल आनंद

"...प्रभात खबर और तहलका जैसे प्रकाशनों ने अपने संघर्ष के शुरूआती दौर में वंचित तबकों के मुद्दों की पत्रकारिता कर अपना एक ब्रांड स्थापित किया. संघर्ष का दौर निवेश था, ब्रांड स्थापित हो जाने के बाद अब लाभ कमाने की बारी आती है. ये अब धर्मनिरपेक्षता और जन मुद्दों की भी इस तरह पैकेजिंग कर सकते हैं जिससे कॉर्पोरेट और उनके उपभोक्ता वर्ग को कोई एतराज़ ना हो और साथ में आप ‘जनपक्षधर’ भी कहलाए जाएँ. हमें भूलना नहीं चाहिए कि मीडिया एक व्यापार है, जिसका उद्देश्य अपने उत्पाद बेचना है..."


हलका पत्रिका के विरोधियों के लिए बीता हफ्ता काफी अच्छा रहा. अपने संस्थान में काम करने वाली एक युवा महिला पत्रकार पर यौन हमले की घटना के प्रकाश में आने के बाद तरुण तेजपाल और तहलका के भविष्य को लेकर चर्चा का बाज़ार गर्म है. एक तरफ़ जहाँ भाजपा के कई वरिष्ठ नेता और प्रवक्ता अचानक ‘नारीवादी’ बनकर अपने खिलाफ हुए स्टिंग ऑपरेशनों का बदला तहलका और तरुण तेजपाल पर हमला कर ले रहे हैं, तो वहीं दूसरी तरफ पत्रकार मधु त्रेहान ने तहलका को बंद करने की मांग करते हुए एक नयी बहस छेड़ दी. हालांकि इस बहस को चलाने वाले लोग, मीडियाकर्मी और संस्थान खुद कितने दूध के धुले हैं, वह एक अलग बहस का विषय है.

साभार-http://pbs.twimg.com



तहलकाके समर्थन में उतरे लोग तहलका और तरुण तेजपाल को अलग कर देखने की मांग कर रहे हैं. तहलका के हिंदी संस्करण के पत्रकार यह यकीन दिलाने की कोशिश कर रहे हैं कि हिंदी का तहलका तरुण तेजपाल से आगे की चीज है और वे बिलकुल भी तेजपाल के समर्थन में नहीं खड़े हैं. यह बहुत हद तक शोमा चौधरी का पीड़िता को उसके इस्तीफे के बाद इस मामले में अपनी भूमिका पर सफ़ाई देने जैसा है. यह बात तो तय है कि तहलका प्रबंधन आगे भी तेजपाल के साथ खड़ा रहेगा. 



तहलकाके बचाव में इसकी खोजी पत्रकारिता और भारतीय पत्रकारिता में दिए गए इसके योगदान की दुहाई दी जा रही है. मीडिया के इस भेड़ियाधसान में एक ऐसा मुद्दा है जिसपर बहुत कम चर्चा हो रही है. यह मुद्दा पत्रकारिता के मूल्यों का है. अरुंधती रॉय ने तेजपाल प्रकरण पर अपनी प्रतिक्रिया में इस मुद्दे की ओर संकेत किया था. तहलका अपने मूल्यों ‘स्वतंत्र-निष्पक्ष-निर्भीक’ की हत्या कब का कर चुका है. तहलका में यौन शोषण से जुड़े छिटपुट मामले पहले भी हुए हैं जिनमें कुछ शिकायतें तो तेजपाल के खिलाफ भी थीं. तहलका प्रबंधन ने कभी इन मामलों को गंभीरता से नहीं लिया. यौन शोषण के मामलों पर विशाखा दिशा-निर्देशों के अनुसार संस्थान में इन मामलों से निपटने के लिए एक समिति पहले से ही होनी चाहिए थी. तहलका, जहाँ महिलाओं के मुद्दों पर लिखा जाता रहा है, वहाँ इस तरह की समिति का ना होना आश्चर्य की बात है. अभी हाल के यौन दुष्कर्म मामले में तरुण तेजपाल का पीड़िता के प्रति रवैया हमारे मीडिया में गहरी पैठ बनाए पितृसत्ता को दर्शाता है.



तहलका का पतन तेजपाल प्रकरण होने के बहुत पहले से ही शुरू हो गया था. कॉर्पोरेट और खनन कंपनी तहलका के प्रमुख विज्ञापनदाता और साल 2011 से शुरू हुए इसके सालाना कार्यक्रम ‘थिंकफेस्ट’ के प्रायोजक रहे हैं. इस साझेदारी का असर तहलका के खबरों पर भी पड़ा. खनन और रियल स्टेट की कंपनियाँ तहलका को ‘अनुग्रहित’ करती रही हैं और बदले में तहलका भी उनका ‘ख़याल’ रखता रहा है. इसका एक अच्छा उदाहरण गोवा का है जब तहलका ने अपने रिपोर्टर की गोवा खनन घोटाले और खनन माफियाओं पर की गई रपट को दबा दिया था. तहलका पर यह आरोप गोवा में पर्यावरण के मुद्दों पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने लगाया था. बाद में उस रिपोर्टर की खबर को फर्स्टपोस्ट वेबसाईट ने छापा. बाद में तहलका ने अपने बचाव में कहा है कि वह खबर उसके ‘मापदंडों’ के अनुरूप नहीं थी. गोवा में होने वाले तहलका के ‘थिंकफेस्ट’ आयोजन में कॉर्पोरेट यूँ ही पैसे नहीं लुटाते. 



एंडरसन और मेयेर (1975) ने अपनी किताब ‘फंक्शनलिज्म एंड दी मास मीडिया’ में मीडिया प्रकार्यवाद के सिद्धांत की चर्चा की थी. इस सिद्धांत के अनुसार कोई भी मीडिया तभी तक जन मुद्दों को जोर-शोर से उठा सकती है जब तक कि उसके पाठकों का आधार सीमित हो. पाठकों के आधार में वृद्धि के साथ ही उस मीडिया की जन मुद्दों की पत्रकारिता की धार कुंद पड़ने लगती है. रांची से शुरू हुआ हिंदी दैनिक ‘प्रभात खबर’ इस सिद्धांत का अच्छा नमूना है. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद नब्बे के दशक में जहाँ रांची में पढ़े जाने वाले हिंदी के दूसरे अखबार हिन्दू दक्षिणपंथियों के समर्थन में थे, वहीं प्रभात खबर शायद अकेला ऐसा अखबार था जिसने मीडिया के इस सांप्रदायिक धुव्रीकरण से किनारा किया. दूसरी ओर जहाँ हिंदी के अखबार आदिवासियों के मुद्दों को महत्व नहीं देते थे और पृथक् झारखण्ड राज्य के आंदोलन को विदेशी षड्यंत्र बताते थे, प्रभात खबर ने आदिवासी मुद्दों पर ख़बरें की और झारखण्ड आंदोलन का समर्थन किया. बहुचर्चित चारा घोटाले काण्ड के पर्दाफ़ाश में प्रभात खबर की प्रमुख भूमिका थी. समाज के वंचित तबकों के मुद्दों को प्रमुखता से जगह देने की वजह से ही प्रभात खबर काफी कम समय में झारखण्ड में लोकप्रिय हो पाया. लेकिन बाद के दिनों में पाठकों के आधार के बढ़ने के साथ ही प्रभात खबर की प्राथमिकताओं में भी बदलाव आया. दक्षिणपंथियों से अब पहले जैसा दुराव नहीं रहा और ना ही आदिवासी मुद्दों को लेकर पहले जैसा उत्साह. प्रभात खबर के झारखण्ड राज्य संपादक अनुज सिन्हा के शब्दों में कहे तो उनका अखबार अब ‘युवाओं’ पर ज्यादा ध्यान देता है और पहले की तरह ‘बेवजह’ किसी को परेशान नहीं किया जाता. 



इंटरनेटसंस्करण से शुरुआत करने वाले तहलका ने बाद में अपने प्रिंट संस्करणों, खोजी पत्रकारिता और क्षेत्रीय मुद्दों पर खबरों से एक अच्छा पाठक वर्ग बनाया. समय के साथ तहलका के पाठकों के आधार में भी वृद्धि हुई और कॉर्पोरेट का भी अच्छा साथ मिला. शायद तहलका उस संक्रमण काल से गुजर रहा है जिससे कभी प्रभात खबर गुजरा था. 



इससाल के शुरू में तहलका के हिंदी संस्करण के कार्यकारी संपादक संजय दुबे का आशीष नंदी के विवादस्पद बयान पर एक लेख आया था. तहलका के 31 जनवरी के अंक में छपे ‘नंदी शिंदे, वरुण और ओवैसी नहीं हैं’ शीर्षक वाले इस लेख की बाईलाइन थी “हमारे देश में कुछ लोगों को कुछ भी कहने-करने का विशेषाधिकार है. लेकिन नंदी उन लोगों में शामिल नहीं हैं”. कहने की जरुरत नहीं है कि उनका संकेत दलितों और कट्टरपंथियों की ओर था. संजय इस लेख में गृहमंत्री सुशील कुमार के एक विवादस्पद बयान पर कहते है कि चूँकि शिंदे सोनिया गाँधी के विश्वास पात्र है और दलित भी है, इसलिए मीडिया उनका कुछ नहीं बिगाड़ पायी. नंदी के विवादस्पद बयान पर सवाल खड़ा करने वाले लोगों को संजय नासमझ बताते है जो उस बयान में छिपे ‘व्यंग्य’ को समझ नहीं पाए. 



मुजफ्फरनगरदंगों के दौरान तहलका, खासकर तहलका के हिंदी संस्करण के कवरेज पर गौर करने की जरुरत है. तहलका के 16 सितंबर के अंक में अतुल चौरसिया की रपट ‘आपराधिक गड़बड़ी के बारह दिन!’ को पढ़ने से ऐसा लगता है कि गलती मुख्यतः प्रशासन और मुस्लिमों की रही थी, हिन्दू जाट तो बस प्रतिक्रियावश दंगों में शामिल हुए थे. इस रपट में संघ और भाजपा को भी यह कहते हुए लगभग क्लीन चिट दे दी गयी है कि वे तो प्रशासन की ‘नाकामी’ का फायदा उठा रहे थे. जैसे कि दंगों में उनकी कोई ख़ास भूमिका ना रही हो. तहलका के किसी भी रपट में इस बात की तरफ ध्यान दिलाने की कोशिश नहीं की गयी कि दंगों की सबसे अधिक मार मुस्लिमों को झेलनी पड़ी. दंगों के कारण जो लोग विस्थापित हुए उनमें से नब्बे प्रतिशत से भी अधिक लोग मुस्लिम थे. संघ परिवार के ‘लव जिहाद’ जैसे फर्जी और मुस्लिम विरोधी अभियान पर भी कुछ नहीं कहा गया जो दंगे भड़काने में महत्वपूर्ण रहे थे. इन रपटों में 'बहू-बेटी बचाओ जाट महासभा'का जिक्र तो आता है लेकिन इसके पीछे ‘लव जिहाद’ जैसे दुष्प्रचार अभियान की भूमिका और समाज की पितृसत्तात्मक सोच का जिक्र बिलकुल भी नहीं आता. तहलका के ‘खोजी’ पत्रकारों ने अपने पाठकों को लव जिहाद जैसे दुष्प्रचार की वजह से हिन्दू जाटों में अपनी औरतों के धर्म परिवर्तन करा लिए जाने के भय और दंगों में इसकी भूमिका के बारे में बताना मुनासिब नहीं समझा. 



कॉर्पोरेट समर्थक और आय के लिए विज्ञापनों पर निर्भर मीडिया से ‘स्वतंत्र-निष्पक्ष-निर्भीक’ और ‘अखबार नहीं आंदोलन’ जैसे दावों की रक्षा करने की उम्मीद नहीं की जानी चाहिए. मीडिया में विज्ञापन पाने के लिए उस वर्ग का ख़ास ख़याल रखना पड़ता है जिसके पास क्रय-शक्ति होती है. इस क्रय-शक्ति वाले वर्ग और विज्ञापनदाताओं को समाज के कड़वे सच कुछ ख़ास पसंद नहीं होते. प्रभात खबर और तहलका जैसे प्रकाशनों ने अपने संघर्ष के शुरूआती दौर में वंचित तबकों के मुद्दों की पत्रकारिता कर अपना एक ब्रांड स्थापित किया. संघर्ष का दौर निवेश था, ब्रांड स्थापित हो जाने के बाद अब लाभ कमाने की बारी आती है. ये अब धर्मनिरपेक्षता और जन मुद्दों की भी इस तरह पैकेजिंग कर सकते हैं जिससे कॉर्पोरेट और उनके उपभोक्ता वर्ग को कोई एतराज़ ना हो और साथ में आप ‘जनपक्षधर’ भी कहलाए जाएँ. हमें भूलना नहीं चाहिए कि मीडिया एक व्यापार है, जिसका उद्देश्य अपने उत्पाद बेचना है. ‘जनपक्षधरता’ की पत्रकारिता उत्पाद बेचने की मार्केटिंग रणनीति है. जो वाकई जनपक्षधरता की पत्रकारिता कर रहे हैं उन्हें कॉर्पोरेट और बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपना जमीर बेचने की जरुरत नहीं पड़ती.



अतुल, रांची से जनसंचार में स्नातक करने के बाद 
अभी टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS), मुंबई 
से मीडिया में स्नातकोत्तर कर रहे है.
इनसे संपर्क का पता है- thinker.atul@gmail.com

नेपाल राजनीति का दलित प्रश्न

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प्रेम पुनेठा
-प्रेम पुनेठा

"...राजशाही के दौर में तो उनके लिए कोई स्थान था ही नहीं। जब राजशाही खत्म हो गई तब भी उन्हें अपना अधिकार नहीं मिल रहा है। जब कि सच यह है कि राजशाही को खत्म करने के लिए चले माओवादियों के जनयुद्ध में दलितों की बड़ी भागीदारी थी। जनयुद्ध में मारे गए 13000 लोगों में एक हजार से ज्याद दलित थे। तब दलितों को यह आशा थी कि नए शासन व्यवस्था में उनके साथ अन्याय नहीं होगा लेकिन माओवादी भी नेपाल में दलित सवाल को सही तरीके से उठा पाने में असफल ही रहे...."


नेपाल में दूसरी संविधान सभा के चुनाव पूरे हो चुके है। इस चुनाव में माओवादियों और मधेसी पार्टियों की तो भारी पराजय हुई ही है। जिस समुदाय को सबसे अधिक झटका लगा है वह दलित समुदाय है। नेपाल में दलितों की संख्या लगभग चौदह प्रतिशत है। लेकिन चुनाव परिणामों के अनुसार दलितों का प्रतिनिधित्व पिछली बार से भी कम हो गया है। पिछली संविधान सभा में प्रत्यक्ष निर्वाचन में सात दलित सभासद चुनाव जीते थे लेकिन इस बार केवल दो ही चुनाव जीत सके। ये दोनों भी कम्युनसिट पार्टी आफ नेपाल एमाले के सदस्य हैं।

संविधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस बन कर उभरी है लेकिन आश्चर्य यह है कि इस पार्टी ने प्रत्यक्ष चुनाव में एक भी दलित को टिकट नहीं दिया था। एमाले ने छह और माओवादियों ने नौ लोगों को टिकट दिए थे। इनमें से भी केवल दो ही चुनाव जीत सके। जो दो सदस्य जीते हैं वे भी सुनार जाति के हैं। भारत में सुनारों को दलित नहीं ओबीसी माना जाता है। नेपाल की जाति व्यवस्था में सुनार दलित तो हैं लेकिन उनका स्तर दलितों में सबसे उपर है। नेपाल के दलितों के तीन वर्ग हैं। पहाड़, मधेस और काठमांडू घाटी में रहने वाले नेवारी दलित। इनमें आठ प्रतिशत पहाड़ में और छह प्रतिशत मधेस में रहते है। नेपाल में दलित सबसे अधिक उपेक्षित और कमजोर वर्ग है और शताबिदयों से उनकी सिथति में कोर्इ परिवर्तन नहीं आया है।

नेपालमें जाति व्यवस्था की शुरुआत लगभग सात सौ वर्ष पूर्व जय सिथति मल्ल ने लागू की थी। उनका शासन काल 1360-95 तक माना जाता है। तब नेपाली समाज का हिंदूकरण शुरू हुआ। इसमें इसके बाद नेपाल कई राजाओं के आधीन रहा और हिंदू वर्ण व्यवस्था के तहत जाति व्यवस्था दिन प्रतिदिन कठोर होती चली गर्इ। 1750 के बाद नेपाल का शाह वंश के तहत एकीकृत किया गया। 1820 के बाद नेपाल में राणाओं का प्रभाव बढ़ गया। कुछ समय बाद राजा केवल नाममात्र का रह गया और सारी ताकत राणाओं के पास आ गई। 1854 में राणा जंग बहादुर यूरोप के दौरे में गए और वापस आने के बाद उन्होंने नेपाल में मुल्की आइन के नाम से कोड आफ कंडक्ट लागू किया। इस आइन के माध्यम से नेपाल की जाति व्यवस्था को शासकीय मान्यता दे दी गर्इ। इसमें सामाजिक गतिशीलता के आधार पर जाति व्यवस्था का कठोर बनाया गया। इसमें किन जातियों से क्या काम लिया जाएगा। किन जातियों को क्या काम करना होगा, किन जातियों को दास बनाया जा सकता है और किन जातियों को दास नहीं बनाया जा सकता पूरा विवरण दे दिया गया। जाति आधारित व्यवस्था को तोड़ने पर दंड की व्यवस्था की गई।

इस तरह पूरे नेपाल में छुआछूत को सरकारी मान्यता दे दी गई। नेपाल में दलित, राजशाही और सवर्ण सामंतों के दोहरे शोषण का शिकार बने रहे। दलित महिलाएं राजशाही, सवर्ण सामंत और महिला होने के नाते तीन तरह के शोषण का शिकार रही। नेपाल में यह व्यवस्था सौ साल से ज्यादा समय तक चलती रही। नेपाल में पहली बार प्रजातंत्र की स्थापना होने पर 1963 में सरकारी स्तर पर दलितों के साथ किसी भी स्तर के भेदभाव को समाप्त कर दिया गया लेकिन यह केवल कानूनी स्तर पर रहा। सामाजिक स्तर पर दलितों के साथ भेदभाव और छुआछूत लगातार जारी रही और आज भी है। 

समाजिकभेदभाव का परिणाम यह हुआ कि दलित आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से पिछड़ते चले गए। नेपाल दुनिया का सबसे गरीब देशों में से एक है और गरीबी की रेखा के नीचे 35 प्रतिशत लोगों है लेकिन दलितों में यह संख्या पहाड़ में 48 और मधेस में 46 प्रतिशत है। इस गरीब देश में गरीबी की रेखा के नीचे रहने वालों की सिथति क्या होगी यह सोचा जा सकता है। इससे भी खराब यह है कि दलित महिलाओं में 90 प्रतिशत गरीबी के रेखा के नीचे यह संख्या अधिक इसलिए है कि अधिकतर दलित पुरुष काम के लिए गांव से बाहर चले जाते हैं और अकुशल मजदूर का काम करते है और महिलाएं ही घरों में रहती हैं। 80 प्रतिशत दलित महिलाएं कुपोषित हैं। दलितों की बड़ी संख्या भूमिहीनों की है। पहाड़ में लगभग 20 प्रतिशत और मधेस में 44 प्रतिशत दलितों के पास कोर्इ भूमि नहीं है। पहाड़ में जिन दलितो के पास भूमि है भी तो वह जीवन यापन के लिए पर्याप्त नहीं है।  भूमिहीन दलित सवर्ण जोतदारों के बंधुआ मजदूर बनकर रह जाते हैं। इन बंधुआ मजदूरों को हलिया, लागी, फकटटो, बलिघरे, खालो, डोली, हरुआ, चरूआ के नाम से जाना जाता है। नाम चाहे कुछ भी हो लेकिन ये हैं बंधुआ मजदूर ही। वैसे शासन स्तर पर बंधुआ मजदूरी को समाप्त कर दिया गया है लेकिन सामाजिक स्तर पर यह अब भी विदयमान है। 

कमजोरसामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्तर के कारण दलितों को हमेशा उपेक्षा ही मिली। दलितों के साथ सबसे अधिक भेदभाव राजनीतिक स्तर पर होता रहा। राजशाही के दौर में तो उनके लिए कोई स्थान था ही नहीं। जब राजशाही खत्म हो गई तब भी उन्हें अपना अधिकार नहीं मिल रहा है। जब कि सच यह है कि राजशाही को खत्म करने के लिए चले माओवादियों के जनयुद्ध में दलितों की बड़ी भागीदारी थी। जनयुद्ध में मारे गए 13000 लोगों में एक हजार से ज्याद दलित थे। तब दलितों को यह आशा थी कि नए शासन व्यवस्था में उनके साथ अन्याय नहीं होगा लेकिन माओवादी भी नेपाल में दलित सवाल को सही तरीके से उठा पाने में असफल ही रहे। जब राजशाही को खत्म करने के बाद पहली गणतांत्रिक सरकार बनी तो एक भी दलित को मंत्री पद नहीं दिया गया। अंतरिम संविधान में दलितों के हितों की पूरी तरह से रक्षा नहीं की गई। प्रत्यक्ष निर्वाचन में दलितों के लिए किसी भी तरह का आरक्षण नहीं था। यह जरूर है कि समानुपातिक प्रणाली से चुनाव में दलितों को आबादी के हिसाब से 13 प्रतिशत प्रतिनिधित्व दिया गया। इसके बाद पहली संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों ने नौ दलितों को प्रत्यक्ष निर्वाचन में उतारा था और इसमें से दो महिलाओं सहित सात चुनाव भी जीते थे।

संविधानसभा में सात सभासद दलित थे। लेकिन यह भी केवल तीन प्रतिशत ही था और उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं था। इसका नतीजा यह हुआ कि जब समानुपातिक प्रणाली से चुनाव हुआ तब भी पूरे सदन में दलितों का प्रतिनिधित्व केवल आठ प्रतिशत तक ही पहुंच पाया। नेपाल में इस संविधान सभा में 123 राजनीतिक दलों ने पंजीकरण कराया था लेकिन दलितों की मांग को लेकर कोई भी अलग से राजनीतिक दल नही था। जो सत्ता न पाता लेकिन समाज में एक दबाव समूह के रूप में काम करता।

इस संविधान सभा में तो दलितों का प्रतिनिधित्व प्रत्यक्ष चुनाव में एक प्रतिशत से भी नीचें चला गया है और समानुपाति प्रणाली से 13 प्रतिशत मिल भी जाए तो वह पांच या छह प्रतिशत से ज्यादा होने वाला नहीं है। नेपाली कांग्रेस जैसी यथासिथति वादी पार्टी से किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती क्यों कि जो पार्टी प्रत्यक्ष चुनाव में एक भी दलित को टिकट नहंी दे रही है वह उनके हित में किस तरह काम करेगी। जरूरत तो इस बात की है कि शताबिदयों से शोषित और उत्पीड़त इस समुदाय को हर क्षेत्र में विशेष सुविधाएं दी जाएं।

प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
नेपाल और मध्य-पूर्व के इतिहास-राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

बीएमसी को नहीं चाहिए मुंबई बनाने वाले मजदूर

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अंकुर जायसवाल
-अंकुर जायसवाल 

"...पर धीरे-धीरे बम्बई शहर के बढ़ने से मानखुर्द के उन जंगलों मतलब जमीनों की जरुरत और कीमत बढ़ने लगी, तो भूमि माफियाओं की नजर यहाँ पड़ना लाजमी था तो अचानक से ये लोग गैरकानूनी हो गये और जहाँ घर बना के रहते थे वहां से 2005 में खदेड़ दिए गये और सामने के फुटपाथ पे आ के रहने लगे और फिर वहां से भी उनको स्वाभाविक रूप से हटा दिया गया क्यूंकि एक साहब वहीँ पीछे ही शादी का हाल बनवा रहे है..."

Coping with the elements is a part of the homeless people’s struggle for survival. Here is Uma in south Mumbai. Photo: Vivek Bendre
साभार - द हिन्दू

राम चन्द्र जी से परिचय बहुत पुराना रहा है..मेरे घर से कोई सत्तर किलोमीटर दूर एक मस्जिद तोड़ दी जाती है क्यूँ की लोगों का कहना है की वहां वो पैदा हुए थे शेष सारा आस्था, श्रद्धा, विश्वास की बात है खैर अभी मैं बम्बई में रहता हूँ और जहाँ पढाई करता हूँ वहां से कोई दो किलोमीटर दूर आगरवाड़ी (मानखुर्द) नाम की जगह पे एक और राम चन्द्र जी हैं जो अपने एक सौ तीस सदस्यीय आदिवासी परिवारों के साथ रहते थे|

वे बताते हैं कि वो लोग
 आंध्रप्रदेश और कर्नाटक की सीमाओं के पास रहने वाले हैं और बूरिया जंगम और मसान जोगी नाम की आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखते हैं. 1984 में उनके चाचा-पापा कोई यहाँ मजदूरी करने आये थे और वर्ली के मोरारजी मिल में काम करते थे फिर एक ठेकेदार ने इन्हें चिल्ड्रेन ऐड सोसाइटी नाम की संस्था जो की मानखुर्द में स्थित है की बाउंड्री बनाने के लिए बुलाया और फिर ठेकेदार और सोसाइटी के झगड़े में इनको पूरा पैसा भी नही मिला तो ये लोग वहीँ पास के ही जगह को साफ़-सूफ़ कर के रहने लगे. वे बताते है पहले यह पूरा जगह वीरान था और तमाम हत्याएं और अपराध हुआ करते थे. 

परधीरे-धीरे बम्बई शहर के बढ़ने से मानखुर्द के उन जंगलों मतलब जमीनों की जरुरत और कीमत बढ़ने लगी, तो भूमि माफियाओं की नजर यहाँ पड़ना लाजमी था तो अचानक से ये लोग गैरकानूनी हो गये और जहाँ घर बना के रहते थे वहां से 2005 में खदेड़ दिए गये और सामने के फुटपाथ पे आ के रहने लगे और फिर वहां से भी उनको स्वाभाविक रूप से हटा दिया गया क्यूंकि एक साहब वहीँ पीछे ही शादी का हाल बनवा रहे है.

अबऐसे में उस शादी के हाल की शोभा में ये लोग किरकिरी बनने लगे तो बृहनमुंबई महानगर पालिका
(BMC ) ने महात्मा गांधी के नाम वाली किसी योजना के तहत उस फुटपाथ पे एक उद्यान बना के उसे बाड़ों से घेर दिया | फिर ये लोग सड़क के इस पार आ गये और फिर 27अगस्त 2013को लोक निर्माण विभाग (PWD) ने भी उन्हें बिना किसी लिखित नोटिस के वहां से मार-पीट कर सामान फेंक कर भगा दिया तो ये मजदूर दुनिया भर का घर बनाने के बाद सड़क पे आ गये.


बीते28 नवम्बर को BMC ने करीब बारह बजे मुंबई पुलिस के साथ आ कर उनके सामानों को जबरदस्ती ट्रक में फेंकने लगे और थोड़ी सी मोहलत भी नही दी और उनके बने बनाये खाने तक को फेंक दिया, महिलाओं बच्चों के साथ बदसुलूकी की और जब टाटा सामाजिक संस्थान के बारह छात्र-छात्राओं ने मजदूर महिलाओं के साथ इंसानियत का हवाला देते हुए इसका विरोध किया तो उनको भी मारा-पीटा गया और गिरफ्तार कर के करीब दस घंटों तक ट्राम्बे पुलिस स्टेशन में रखा गया. संस्थान के डायरेक्टर के आने पर सारे लोगों को छोड़ा गया और अब ये सारे 130 लोग संस्थान में ही पिछले दो दिनों से रह रहे हैं. बाद में यह भी पता चला कि इनके बचे हुए सामानों को भी जला दिया गया जिसमे राशन कार्ड थे ताकि उनके यहाँ पे होने का नामो-निशान तक मिट जाये.

ऐसीघटनाएँ रोज की हैं और ये बताती हैं कि हमारा पूरा तंत्र पुलिस से ले के तमाम संस्थाएं किसके हित के लिए काम करती हैं और देश का कानून किसके हितों के लिए प्रयोग में लाया जाता है, टीवी मीडिया के लिए यह कैम्पा-कोला जैसी बड़ी खबर नहीं है क्यूंकि ये तो रोजमर्रा की बाते हैं.

अबसवाल ये उठता है कि आगे क्या ? क्या यह सिर्फ इन 130लोगों का मामला है या फिर उन ढेर सारे मजदूरों का ?जिस तरह से पिछले सालों से जैसे जैसे  लोग सड़कों पे धकेले गये हैं और वहां से पता नहीं कहाँ? इनके लिए उतने ही एनजीओ भी पैदा हुए हैं और फूले-फले भी हैं पर इन मजदूरों को हक़ नहीं मिलता है और कुछ तो हो रहा है के नाम पे बुनियादी मुद्दा पूरे परिदृश्य से गायब हो जाता है, जिन घरों-इमारतों को ये बनाते हैं वो क़ानूनी होते हैं और ये खुद बेघर और गैर-क़ानूनी करार दे दिए जाते हैं.  

एकअनुमान के मुताबिक दुनिया भर में आठ में से एक आदमी तथाकथित स्लम मतलब झुग्गी- झोपड़ियों में रहता है, और हम अपने आस-पास फैली असीम असमानता के प्रति उदासीन हो जाते हैं और आज जरुरत है की हम अपने आस-पास की गरीबी-बदहाली को बुनियादी तौर पे देखें कि ये हमारा सामजिक-आर्थिक ढांचा कैसा है जो सैकड़ों मील दूर से लोगों को काम करने के लिए बड़े-बड़े शहरों में आने के लिए मजबूर करता है और फिर उनकी ऐसी हालत हो जाती है. एक तरफ दुनिया का सबसे अमीर आदमी इसी शहर में अट्ठाईस मंजिला इमारत में अपने छोटे से परिवार के साथ रहता है और दूसरी तरफ अगर उसी इमारत की मंजिल से देखा जाये तो दूर तक फैली झुग्गी-झोपड़ियाँ दिखेंगी जिनका जीवन स्तर दुनिया भर में सबसे निम्न है और उसी के बीच ऐसे सैकड़ों लोग महिलाएं बच्चे जो सड़कों पे सोते हैं और ऐसे ही रोज उन्हें इधर से उधर भगाया जाता है.

हमऐसे देश में रहते हैं जहाँ रामलला अपना केश खुद लड़ते हैं और देश की राजनीति तय होती है और ना जाने कितने रामचन्द्र रोज दर-दर की ठोकरें खाते हैं.

अंकुर एक्टिविस्ट और स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.
 पहले IIMC और अब TISS में अध्ययनरत. 
इनसे संपर्क का पता ankur9x@gmail.com है.

नेल्सन मंडेला : एक स्थाई प्रकाशस्तंभ

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सत्येंद्र रंजन
-सत्येंद्र रंजन

"...मडिबा का नाम कबीलाई अस्मिता और नस्लों में बंटे उनके देश में एकता का भाव पैदा करता था। नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला का एकता का ऐसा प्रतीक बन जाना सचमुच उल्लेखनीय है। जो व्यक्ति गोरों के रंगभेदी शासन को खत्म करने के लिए हुए ऐतिहासिक संघर्ष का नेता और उसका सबसे बड़ा प्रतीक रहा हो, बाद में उसी के साये को श्वेत समुदाय के लोग अपनी सुरक्षा की गारंटी समझने लगे तो इस महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम का ऐतिहासिक महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है।..." 

क्षिण अफ्रीका के रंगभेद विरोधी संग्राम में शार्पविले हत्याकांड एक महत्त्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। इसी घटना के बाद नेल्सन मंडेला ने सशस्त्र संघर्ष छेड़ने का निर्णय लिया था। उसके पहले 1960 में अफ्रीकन नेशनल कांग्रेस पर प्रतिबंध लगने के बाद से वे भूमिगत थे। जब वे गिरफ्तार हुए, तो उन पर सरकार का तख्ता पलटने का आरोप लगा। इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान उन्होंने अपनी वकालत खुद की। तब उन्होंने अदालत में कहा था- मैंने एक ऐसे लोकतांत्रिक और स्वतंत्र समाज का आदर्श संजो रखा है, जिसमें हर व्यक्ति सद्भाव एवं समान अवसरों के साथ जी सके। उन्होंने कहा था- मैं इसी आदर्श के लिए जीने और उसे प्राप्त करने की आशा करता हूं। लेकिन अगर जरूरी हुआ तो यह ऐसा आदर्श है, जिसके लिए मैं अपनी जान देने को भी तैयार हूं। इतिहास गवाह है कि ये महामानव इन पंक्तियों को अपने जीवन में उतारने से कभी विचलित नहीं हुआ। 1994 में दक्षिण अफ्रीका का राष्ट्रपति पद ग्रहण करने के वक्त उन्होंने कहा- इस खूबसूरत भूमि पर अब कभी भी किसी के हाथों किसी का दमन नहीं होगा।... इस गौरवमय मानव उपलब्धि का कभी सूर्यास्त नहीं होगा... आइए, स्वतंत्रता का राज स्थापित करें...। यही वो भावना है, जिसे हम नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला की आत्मा कह सकते हैँ।
दक्षिणअफ्रीका और पूरी दुनिया से अब मडिबा (नेल्सन मंडेला को आदर के साथ वहां उनके इसी कुल-नाम से पुकारा जाता है) का साया उठ चुका है। दक्षिण अफ्रीकी लोगों की भावना को वहां के वर्तमान राष्ट्रपति जैकब जुमा ने इस शब्दों में अभिव्यक्ति दी है- यह गहनतम दुख का क्षण है। हमारे राष्ट्र ने अपने सबसे महान पुत्र को खो दिया है। नेल्सन मंडेला उन्हीं गुणों के कारण महान बने, जिन्होंने मनुष्य बनाया था। हम उनमें वह देखते थे, जिसकी तलाश हम अपन भीतर करते हैं।"

मडिबाका नाम कबीलाई अस्मिता और नस्लों में बंटे उनके देश में एकता का भाव पैदा करता था। नेल्सन रोलिहलाहला मंडेला का एकता का ऐसा प्रतीक बन जाना सचमुच उल्लेखनीय है। जो व्यक्ति गोरों के रंगभेदी शासन को खत्म करने के लिए हुए ऐतिहासिक संघर्ष का नेता और उसका सबसे बड़ा प्रतीक रहा हो, बाद में उसी के साये को श्वेत समुदाय के लोग अपनी सुरक्षा की गारंटी समझने लगे तो इस महत्त्वपूर्ण घटनाक्रम का ऐतिहासिक महत्त्व स्वयंसिद्ध हो जाता है।

पिछलेजून में जब मडिबा गंभीर रूप से बीमार थे, श्वेत समुदाय की चर्चाओं में यह आशंका अक्सर जाहिर हो रही थी कि 
स्वार्ट गेवार’  (काले समुदाय का खतरा) अब कहीं हकीकत तो नहीं जो बन जाएगा, जो 1990 में मानवीय मूल्यों एवं लोकतंत्र के प्रति मंडेला की निष्ठा के कारण निराधार साबित हुआ था। देश की सवा पांच करोड़ की आबादी में गोरे सिर्फ 9 प्रतिशत हैं। बहरहाल, दक्षिण अफ्रीका के सभी समुदायों में मंडेला की विरासत जितनी जीवंत और उनके प्रति लगाव जितना गहरा है, उसे देखते यह भरोसा रखा जा सकता है कि गोरों का भय एक बार फिर निराधार साबित होगा। लेकिन उनकी सोच दो दशक पहले दक्षिण अफ्रीका जिस मुकाम पर था, उसकी एक झलक हमें जरूर देती है।

मडिबाकी शख्सियत निसंदेह उनके संघर्ष से बनी। उनके त्याग, समर्पण और नेतृत्व क्षमता ने ही रंगभेद विरोधी हजारों सेनानियों में उन्हें सबसे केंद्रीय स्थान प्रदान किया। मगर बीसवीं सदी के इतिहास पर गौर करें तो उपनिवेशवाद तथा रंगभेद के खिलाफ संघर्षों में इन गुणों का परिचय देने वाले अनेक नेताओं के नाम उभर हमारे सामने आते हैं। इन गुणों के साथ मंडेला भी इतिहास में अवश्य अमर होते, लेकिन उनसे अपनी कोई अलग विरासत वे कायम नहीं कर पाते। जबकि आज उनकी एक विशिष्ट विरासत है।

इसकेबनने की कथा 1990 से शुरू होती है, जब 27 वर्ष लंबे कारावास के बाद वे बाहर आए, अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस (एएनसी) की अध्यक्षता संभाली, लगभग चार साल तक निवर्तमान श्वेत राष्ट्रपति एफ डब्लू डी क्लार्क और देश के अन्य नेताओं के साथ मिल कर दक्षिण अफ्रीका के भविष्य को स्वरूप दिया, 10 मई 1994 को देश के पहले अश्वेत राष्ट्रपति बने और उसके बाद पांच साल अपनी देखरेख में एकता, मेलमिलाप और लोकतंत्र के मूल्यों को स्थापित करते हुए देश को नई दिशा दी।

यहनए दक्षिण अफ्रीका के निर्माण का दौर था। इस समय दक्षिण अफ्रीका समाज में काले समुदाय और राजनीति में एएनसी और प्रकारांतर में मंडेला का एकाधिकार या वर्चस्व कायम होने की दिशा में भी बढ़ सकता था। मंडेला और एएनसी गोरों के ऐतिहासिक अन्याय के खिलाफ प्रतिशोध की नीति अपना सकते थे, जिसके जरिए जज्बाती आधार पर राजनीतिक बहुमत तैयार करना आसान होता।

लेकिनमडिबा ने दूसरा रास्ता चुना। उनके नेतृत्व में नई सरकार ने सत्य एवं पुनर्मिलाप को अपना आदर्श बनाया। अतीत के अन्याय का बदला लेने के बजाय उन्होंने एक ऐसा अभिनव प्रयोग किया, जो तब से दुनिया भर के लिए अनुकरणीय मॉडल बना हुआ है। ट्रूथ एंड 
रेकन्सिलीऐशन आयोग की स्थापना कर नए शासन ने अतीत में रंगभेदी अत्याचार या उसके खिलाफ संघर्ष में मानवाधिकार का हनन करने वाले लोगों को मौका दिया कि वे अपनी गलती सार्वजनिक रूप से स्वीकार करें और उसके बाद वो अध्याय हमेशा के लिए बंद हो जाए। आयोग की कार्यवाही में उत्पन्न हुए भावुक दृश्यों और वहां पेश हुए लोगों में पैदा हुए पाश्चाताप एवं प्रायःश्चित के भाव ने तब दिखाया कि कैसे उदार एवं दिव्य दृष्टि के साथ की गई ईमानदार पहल बुराइयों की पृष्ठभूमि के बीच भी सहज मानवीय संवेदना से उदात्त नव-निर्माण की जमीन तैयार कर देती है।

यहीदृष्टि दक्षिण अफ्रीका के नए संविधान में भी अभिव्यक्त हुई, 
जिसे सर्वोच्च मानवीय एवं लोकतांत्रिक मूल्यों पर आधारित किया गया। यही नेल्सल मंडेला की स्थायी विरासत है। आधुनिक इतिहास में ऐसे विरले नेता हुए हैं, जिन्होंने अपने सुपरिभाषित उद्देश्यों को पूरा करने के बाद स्वेच्छा से सत्ता एवं सार्वजनिक जीवन से विदाई ले ली। 1999 में मंडेला ने जब ऐसा किया, तब तक आधुनिक दक्षिण अफ्रीका स्थिरता प्राप्त कर चुका था, लेकिन उसके संविधान में निहित व्यापक लक्ष्यों को अभी प्राप्त किया जाना बाकी था। मडिबा ने यह जिम्मेदारी अपनी अगली पीढ़ी को सौंप दी।

बुरेलोगों के बजाय बुराई को शत्रु समझना और सत्ता का परित्याग- ये दो ऐसे गुण हैं, जो सहज ही महात्मा गांधी की याद दिला देते हैं। रंगभेद के खात्मे के बाद सामाजिक मेलमिलाप की भावना उस सपने का स्मरण कराती है, जो बीसवीं सदी के मध्य में मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने देखा था। यह अस्वाभाविक नहीं है कि नेल्सन मंडेला की विरासत में हम उन दोनों शख्सियतों की भावना तलाश सकते हैं, जिनमें एक उपनिवेशवाद विरोधी और दूसरा रंगभेद विरोधी संघर्ष का स्वाभाविक प्रतीक है।

बहरहाल, भारत में गांधीजी आजादी के कुछ ही महीनों बाद सांप्रदायिक नफरत की गोलियों का शिकार हो गए और नए भारत के निर्माण में प्रत्यक्ष योगदान नहीं कर सके। यहां ये जिम्मेदारी अंबेडकर और नेहरू के कंधों पर आ पड़ी। जहां अंबेडकर ने भारत को इनसानी उसूलों पर आधारित संविधान देने में अप्रतिम योगदान किया, उस संविधान की भावनाओं को कार्यरूप देने तथा देश के विकास को दिशा देने में नेहरू की भूमिका असाधरण रही। जबकि दक्षिण अफ्रीका में शोषक व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष और नई उदार व्यवस्था के निर्माण- दोनों ही विशिष्ट परिघटनाओं का नेतृत्व मडिबा ने ही किया।

भारतीयराष्ट्रीय कांग्रेस और अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस में यह अद्भुत समानता है कि इन दोनों को अपनी संघर्ष एवं नव-निर्माण की विरासत से भटकने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। जिस तरह भारत में कांग्रेस सत्ता में रहने के दो दशक के अंदर महज सत्ता पाने की मशीन में तब्दील हो गई, वैसा ही एएनसी के साथ भी हुआ है। जैसे भारत में आजादी के बाद विकास के लक्षण तलाशे जा सकते हैं, लेकिन आम तौर पर व्यवस्था आम जन के हितों से दूर होती चली गई, वैसी ही कथा दक्षिण अफ्रीका में भी दोहराई गई है।

गिरावटके ऐसे तमाम संकेतों के बीच मडिबा ही इस देश को अलग सम्मान और स्थान देते रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे अंबेडकर की विरासत भारत में न्याय की उम्मीदों को जिंदा रखे हुए है और गांधी एवं नेहरू का नाम देश को आज भी नैतिक प्रतिष्ठा दिलाता है। अब मडिबा नहीं हैं, तब भी दक्षिण अफ्रीका इसलिए प्रतिष्ठा पाता रहेगा कि वह इस महान व्यक्ति की जन्म, संघर्ष एवं प्रयोग स्थली है। अब यह महामानव अपने भौतिक रूप में मौजूद नहीं है, लेकिन अन्याय से संघर्ष और सत्य एवं पुनर्मिलाप की उच्च भावना पर आधारित पुनर्निर्माण की उसकी विरासत हमारे साथ बनी रहेगी।

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

कैमरे की नजर : नेपाल संविधान सभा चुनाव

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आगामी मंगसिर ४ गते (यानी 19 नवम्बर ) को नेपाल अपनी संविधान सभा को बनाने के लिए दुबारा चुनाव करेगा. बहुत जटिल प्रश्नों पर राजनीतिक दलों के आपसी मतभेद के चलते अभी भी स्पष्ट नहीं हो पा रहा है कि नेपाल अबकी संविधान सभा के चुनाव के बाद भी संविधान बना पायेगा या नहीं. संविधान निर्माण की प्रक्रिया के जिन अंतर्विरोधों से नेपाल अभी जूझ रहा है, इनकी परिणति ही भविष्य के नेपाल का खाका खींचेंगी. नेपाल का चुनाव सिर्फ नेपाल ही नहीं बल्कि वैश्विक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है. सामंती युग के बाद वामपंथी उम्मीदों के साथ लोकतंत्र की तरफ करवट बदलता नेपाल, अपने भीतर के घटनाक्रमों की तरफ ध्यान खींचता है. praxis में हम नेपाल से जुड़े घटनाक्रमों पर लगातार अपडेट दे रहे हैं. यहाँ प्रस्तुत है नेपाल से रोहित जोशी का एक फोटो फीचर...

 
सरहद बांटता पत्थर : बॉडर पिलर नंबर 7
(बनबसा-गड्डाचौकी)

सरहद पार कराने वाला तांगा 

वेलकम टू नेपाल

नेपाल का पहला शहर 6 किमी दूर

पहले चुनावी पोस्टर से मुलाक़ात (गड्डा चौकी)
चुनाव आयोग की ओर से फोर कलर पोस्टर पर है प्रतिबन्ध



बाईक रैली माने शक्ति प्रदर्शन का नया तरीका







नेकपा एमाले की बैक रैली देखती महिला
नेपाल में यातायात पूरी तरह निजी हाथों में है
यातायात मजदूरों के संगठन की एक चौकी

संविधान सभा चुनाव : नई यात्रा की तयारी

नेपाल संविधान निर्माण : एक धुंधला रास्ता

संविधान सभा चुनाव : अपना लक पहन के चलो

महेन्द्रनगर

संतरे

खसों की भी दावेदारी
नेपाल में 120 से अधिक राजनीतिक पार्टियाँ चुनावी मैदान में हैं  

'राष्ट्रीय जन मोर्चा'की बाइक रैली और आम सभा
ये पार्टी एक मात्र पार्टी है जो नेपाल को संघीय गणराज्य बनाए जाने के खिलाफ है

नेपाल में नंबर प्लेट का रंग लाल है
और इसे देवनागरी में सफ़ेद रंग से ही लिखा गया है. शायद इसकी अनिवार्यता है.  

मधेशी जनाधिकार फोरम

कंचनपुर (महेन्द्रनगर) में नेपाली कांग्रेस के
वरिष्ठ नेता शेर बहादुर देउबा की प्रेस वार्ता

शेर बहादुर देउबा

पुलिस की चुनावी तैयारी के बारे में बताते एसपी कंचनपुर, राजेंद्र प्रसाद चौधरी

बाइक रैली के लिए तेल भराते बाइकर्स

एनेकपा माओवादी का आह्वान

पांच लीटर तेल के लिए सभी बाइकें सभी पार्टियों की रैली में घूमती हैं

एक चौक पर माओवादी झंडा

गोल घेरे में हसिया हथौड़ा माओवादियों का चुनाव निशान


उजाले की ओर

भूमिहीनों की रैली : भूमि सुधार की मांग

यह रैली बाइकों में नहीं है

ज़िन्दगी का मुकद्दर suffer दर सफ़र

उमींद की बाईं करवट

पुलिस तैनात है

नोट गुनना

हुजूर को सामान छुट्यो की?

निर्वाचन आयोग के जागरूकता अभियान

लोकतंत्र के ऑब्जर्वर

नेकपा माओवादी के बंद के पहले की शाम में पुलिस की तैनाती


पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : पहली क़िस्त

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http://www.laika-verlag.de/sites/default/files/JohnBellamyFoster.png
जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन और सुनील

(जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक भी हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है। यह आलेख यहाँ पढ़ा जाना इसलिए भी मौंजू है कि आज का भारत भी बिलकुल उन्हीं प्रवृतियों के शुरूआती दौर में है जिनसे अमेरिका गुजरा है। सार्वजनिक/सरकारी शिक्षा प्रणाली तकरीबन बेकार घोषित की जा चुकी है. तमाम फाउन्डेशनों, एनजीओज ने यहाँ सुनहरा भविष्य देख भारत की 'शिक्षा व्यवस्था'को 'पटरी'पर लाने के लिए 'कमर कस'ली है. वे गाँव-गाँव, शहर-शहर में फ़ैल कर शिक्षा की नई अलख जगाने के उन्माद में हैं. इसी दौर में प्राइवेट प्लेयर्स ने स्कूलों और कॉलेजों का ऐसा जाल बिछाया है कि तकरीबन सारा मध्य वर्ग/निम्न मध्य वर्ग अपने बच्चों के सुनहरे भविष्य के लिए इस जाल में बुरी तरह फंस गया है. फ़ॉस्टर ने अमेरिका की शिक्षा व्यवस्था में ठीक इसी तरह की प्रवृत्तियों की तफसील से पड़ताल की है. अमेरिका में यह प्रव्रत्तियां उस चरम पर पहुँच गईं हैं जहाँ से इस समस्या की विकरालता साफ़ समझ आती है. भारत में अभी इस आलेख को पढ़ना, सचेत हो जाने के लिए जरूरी होगा. इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ देंगे... ) 

http://www.alternet.org/files/styles/story_image/public/story_images/privatization.jpgसंयुक्त राज्य और विश्व में अन्य कई जगहों में भी सार्वजनिक शिक्षा में सुधार के लिए चले रूढि़वादी आंदोलनों का प्रचलित तौर पर मानना है कि सार्वजनिक शिक्षा आपातकलीन स्थिति में है और अपनी आंतरिक विफलताओं के चलते इसके पुर्नगठन की जरूरत है। इसके विपरीत मेरा कहना है कि सार्वजनिक शिक्षा में ह्रास उन बाहरी विरोधाभासों के चलते हैं जो पूंजीवादी समाज में स्कूली शिक्षा में अंतर्निहित हैं और हमारे समय में परिपक्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक ठहराव और रूढि़वादी सुधार आंदोलनों के प्रभाव से ही बढ़ रहे हैं। जार्ज डब्लू बुश के नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड (एनबीसीएल) कानून में परिलक्षित छात्रों शिक्षकों और सार्वजनिक शिक्षण संस्थाओं का कार्पोरेट संचालित दमन अपने आप में स्कूलों की विफलता के रूप में उतना व्याख्यायित नहीं होता जितना कि पूंजीवादी व्यवस्था की बढ़ती हुई विफलताओं से, जो कि अपनी इस बड़ी समस्या का निदान सार्वजनिक षिक्षा के निजीकरण के रूप में देख रही है।
    

हमसंरचनात्मक संकट के दौर में जी रहे हैं जो पूंजीवाद के एक चरण ‘वित्तीय पूंजी एकाधिकार’ के साथ जुड़ा है। इस चरण की विशेषता हैः (1) विकसित पूंजीवादी अर्थव्यवस्थाओं में आर्थिक ठहराव (2) वित्तीयकरण की ओर नाटकीय रूख, उदाहरण के लिए आर्थिक विस्तार के लिए अटकलबाजियां (3) वैश्विक स्तर पर पूंजी का तेजी से संकेन्द्रण (और एकाधिकारिता).
विकसितअर्थव्यवस्थाओं में अंतर्निहित विकास की धीमी गति का परिणाम यह है कि आज की आर्थिक दुनिया में पूरी तरह हावी विशाल निगम (जायंट कार्पोरेशंस) निवेश के लिए अपनी पारंपरिक जगहों के बाहर नए बाजारों को ढूंढने के लिए मजबूर हैं। जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था के निर्णायक तत्वों का अधिग्रहण और निजीकरण हो रहा है। नवउदारवादी पुनर्गठन एकाधिकारवादी वित्तीय पूंजी का राजनीतिक साझीदार है जिसमें राज्य तेजी से निजी हितों की बलि चढ़ रहा है।

इनपरिस्थितियों में हमें इस बात पर मुश्किल से ही आश्चर्य होगा कि संयुक्त राज्य की सार्वजनिक शिक्षा को वित्तीय हलकों द्वारा एक अनछुए बाजार के तौर पर देखा जा रहा है या निजी शिक्षा उद्योग खरबों डालर के दुनिया भर के सार्वजनिक शिक्षा के बाजार को पूंजी संकेंद्रण के लिए और भी खोलने के लिए जोर दे रहा है।  क्योंकि शिक्षा कार्यबल के विकास के लिए एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है इसलिए नवउदारवादियों का इसमें  पुनर्गठन के लिए जोर बढ़ता जा रहा है।
 
सार्वजनिक शिक्षा में आपातकालीन स्थिति और इसके पुनर्गठन और निजीकरण की मांग को प्राथमिक तौर पर वर्तमान दीर्घकालिक आर्थिक और सामाजिक अस्थिरता के उत्पाद के रूप में देखा जाना चाहिए। मोटे तौर पर पूंजी का ढांचागत संकट, शिक्षा के लिए संघर्ष के रूप में परिलक्षित होता है जो कि वर्तमान व्यवस्था में आपवादिक नहीं है और इसमें अंतर्निहित देखा जा सकता है। परिणाम स्वरूप निहित स्वार्थों की लम्बी होड़ पैदा होती है जिसमें बाजार केंद्रित स्कूल व्यवस्था की स्थापना पर जोर दिया जाता है। प्रत्येक तरीके को इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए प्रयोग में लाया जाता है जिसमें नस्ल और वर्गों के अंतर्विरोध, अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा और आर्थिक अस्थिरता भी शामिल हैं।  

पूंजीवादी शिक्षा का राजनीतिक अर्थशास्त्र

1970के मध्य में अर्थशास्त्री सैम्युअल बावेल्स और हर्बर्ट जिंटिस ने अपनी बहुमूल्य रचना ‘स्कूलिंग इन कैपिटलिस्ट अमेरिका’ में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के विश्लेषण के लिए एक उपयोगी राजनीतिक-आर्थिक ढांचा दिया। यद्यपि शुरूआत में वामपंथी हलकों में लोकप्रिय रही ‘स्कूलिंग इन कैपिटलिस्ट अमेरिका’, अत्यधिक आर्थिक निर्णयवादी होने और व्यवस्था से छात्रों एवं शिक्षा प्रदाताओं के जटिल सांस्कृतिक संबोधनों पर ध्यान न देने के कारण 1980 तक वामपंथियों की पसंद नहीं रही। अन्य वामपंथियों ने बावेल्स और जिंटिस के तर्क की अत्यधिक प्रकार्यवादी और विश्लेषण में अद्वंद्ववादी होने के कारण आलोचना की है।  हांलाकि मेरा मानना है कि ‘स्कूलिंग इन कैपिटलिस्ट अमेरिका’ में वो आधार मौजूद है जहां से पूंजीवादी शिक्षण के राजनीतिक अर्थशास्त्र को समझा जा सकता है जैसा कि हमारे नवउदारवादी दौर में है।

बावेल्सऔर गिंटिस के अनुसार यदि पूंजीवाद के दबाव वाली शिक्षा को शक्तिशाली लोकतांत्रिक प्रतिरोध आंदोलनों द्वारा चुनौती नहीं दी गई तो इससे पूंजीपति वर्ग की अधिकारिता का विकास होगा जो कि उत्पादन और संकेंद्रण की आवश्यकताओं के अनुसार इसके साथ रहेगी। लेखकों का संबद्धता सिद्धांत ए जिसके अनुसार पूंजीवादी समाज शिक्षा के सामाजिक संबंध सामान्यतया उत्पादन के सामाजिक संबंधों से संवाद करते हैं, अपने आप में प्रामाणिक है। इसलिए शिक्षा सेवा उत्पादन के लिए है और उत्पादन व्यवस्था के श्रेणीबद्ध श्रमविभाजन को और ज्यादा बढ़ाती है। इस प्रकार पूंजीवादी समाज में प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दोनों प्रभावी उद्देश्यों- 1.उत्पादन के लिए श्रमिकों या श्रम शक्ति का निर्माण और 2.शिक्षा में शिक्षाकर्मियों की श्रमप्रक्रिया, को मूल रूप से वृहद अर्थव्यवस्था में उत्पादन संबंधों के अनुरूप ढाला जा रहा है।
   
इस दृष्टि से पूंजीवादी शिक्षण वैसी ही चेतना और व्यवहार विकसित करता है जो पूर्वस्थापित वर्ग और समूहों को ही पुनर्स्थापित करते हैं और इस तरह समग्र रूप में पूंजीवादी समाज में उत्पादन के सामाजिक संबंधों को मजबूती और वैधता मिलती है। श्रमजीवी और श्रमजीवी होने के लिए अभिशप्त वर्गों के विद्यार्थियों को नियमों के अनुसार व्यवहार करना सिखाया जाता है जबकि उच्चमध्यवर्ग या/और व्यावसायिक एवं प्रबंधकीय स्तर के लिए ही बने छात्रों को समाज के मूल्यों को आत्मसात करना सिखाया जाता है। (इन दोनों के बीच के लोगों को नियमों को मानने के साथ ही विश्वस्त होना भी सिखाया जाता है।)
  
प्रारंभिकएवं माध्यमिक स्तर पर शिक्षा कुछ ही हद तक वास्तविक कौशल विकास पर केंद्रित रहती है और भविष्य में रोजगार के लिए आवश्यक ज्ञान पर तो और भी कम, जो कि काम करते हुए ही या उत्तरमाध्यमिक शिक्षण (व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान और कॉलेजों) में प्राप्त की जा सकती है। इस प्रकार विद्यालय, शिक्षा के लिए कम जबकि व्यवहार संशोधन के लिए अधिक काम करते हैं ताकि बहुसंख्यक विद्यार्थियों को एकरस और मानकीकृत जीवन के लिए तैयार किया जा सके जिसमें अधिकांश आवश्यक रूप से अकुशल श्रमिक के रूप में रोजगार पाएंगे। दरअसल एकाधिकारी पूंजीवादी समाज के गिरे हुए कार्य वातावरण में अधिकांश रोजगार यहां तक कि स्नातक अर्हता वाले रोजगारों में भी औरपचारिक शिक्षा की कम ही आवश्यकता होती है।

संयुक्तराज्य में उच्चतम गुणवत्तायुक्त प्राथमिक एवं माध्यमिक शिक्षा सार्वजनिक विद्यालयों की जद से बाहर और बहुत कम संख्या वाले अतिसंभ्रांत निजी स्कूलों में ही प्राप्त हो सकती है। जो कि बहुत धनाड्य लोगों के बच्चों को ही समर्पित है और जिसका उद्देश्य शासक वर्ग को पैदा करना है। जैसे एनडोवर मैसाचुसेट्स में फिलिप्स ऐकेडमी, जहां जार्ज एच. डब्ल्यू. बुश और जार्ज डब्ल्यू. बुश दोनों ही पढ़े हैं, में एक साल की सिर्फ ट्यूशन फीस ही 32,000 डालर है। यहां प्रति 5 बच्चों में 1 शिक्षक है और एक संपूर्ण पाठ्यक्रम के साथ 73 प्रतिशत शिक्षक उन्नत डिग्रीधारी हैं। ऐसे स्कूल आईवी लीग के लिए रेड कार्पेट के रूप में देखे जा सकते हैं। 
 
इस तरह शिक्षा व्यवस्था को कई तरह से उत्पादन व्यवस्था के भीतर रोजगार की उठा-पटक, बढ़ती हुई असमानता और अलगाव से जुड़ा हुआ देखा जा सकता है। ‘स्कूलिंग इन कैपिटलिस्ट अमेरिका’ में विकसित यह तर्क असल में निर्णायकवादी नहीं है बल्कि यह वर्गसंघर्ष के मुद्दे को उठाता है। बावेल्स और जिंटिस के अनुसार,‘वह सीमा जिसमें पूंजीवादी व्यवस्था वास्तव में अपने लक्ष्यों को पूरा करती है समयावधि के अनुसार बदलती जाती है.... अधिकतर पूंजीवादी संबंधों को बढ़ाने और विस्तृत करने के लिए स्कूलों को प्रयोग करने की कोशिशों का शिक्षा व्यवस्था की आंतरिक गतिकी और लोकप्रिय प्रतिपक्ष दोनों के ही द्वारा विरोध हुआ है।’

इनकी किताब का ऐतिहासिक भाग विस्तृत रूप से, स्कूली छात्रों के हित में व्यवस्था के भीतर स्वायत्तता बनाए रखने के लिए मुख्यतया शिक्षकों के संघर्ष के रूप में दिखाई देने वाली शिक्षा व्यवस्था की आंतरिक गतिकी और शिक्षा प्रदाताओं, अभिवावकों और नागरिकों के अधिपत्य विरोधी आंदोलनों के रूप में उभरने वाले उन आंदोलनों की चर्चा करता है जो पूंजीवादी शिक्षण के खिलाफ समय-समय पर पैदा हुए हैं। फिर भी दोनों रूपों में संघर्ष केवल सतही लगता है क्योंकि इनके द्वारा कभी भी पूंजीवादी शिक्षण के आधारभूत सिद्धांतों पर जोरदार हमले नहीं किए गए। परिणाम स्वरूप सभी जगह कॉरपोरेट ऐजेंडा हावी है।         

एकाधिकारवादी पूंजी और शिक्षा के कॉरपोरेट ढांचे का उदय-

सार्वजनिकशिक्षा के प्रति इस प्रकार के वृहत राजनैतिक आर्थिक दृष्टिकोण का महत्व इस बात में है कि इससे संयुक्त राज्य में या और कहीं भी पूंजीवादी शिक्षण के विकास को संचालित करने वाले तर्कों को समझा जा सकता है। संयुक्त राज्य में सार्वजनिक शिक्षा की शुरूआत 19वीं शताब्दी में हुई। लेकिन जिस शिक्षा व्यवस्था को हम आज जानते हैं वह 19वीं सदी के आंखिरी और 20वीं सदी के प्रारंभ में उभरी। इसका आधुनिक विकास विशाल निगम अधिपत्य वाली एकाधिकारी पूंजीवादी व्यवस्था के उभार से जुड़ा हुआ है। अनुमान है कि केवल 1898 और 1902 के बीच विनिर्माण में अमेरिकी पूंजी का ‘एक चैथाई से एक तिहाई भाग’ विलय और अधिग्रहण के माध्यम से समेकित हुआ। इनमें 1901 में 170 अलग-अलग इकाइयों के विलय से  बने यूएस स्टील का निर्माण सबसे बड़ा है। जो कि स्टील उद्योग के 65 फीसदी को नियंत्रित करने वाला पहला एक अरब डालर का निगम था। यह वृहत व्यापारिक पूंजीवाद को दर्शाने वाले कॉरपोरेट संकेंद्रण के दौर का उदाहरण है।

संग्रहणके इस नए चरण के विकास और स्थितिकरण में एक निर्णायक तत्व इसमें निहित उस गुंजाइश में था जिसे मार्क्स ‘‘पूंजी के तहत श्रम के औपचारिक दोहन’’ के बजाय ‘‘वास्तविक दोहन’’ कहना पसंद करते थे।

19वीं शताब्दी के पूंजीवाद में श्रमिक इस स्थिति में थे कि वे कार्य किए जाने के तरीकों के ज्ञान के आधार पर अपने रेंक निर्धारित कर सकते थे और इस प्रकार श्रम प्रक्रिया में काफी हद तक उनका नियंत्रण था। इसलिए श्रमप्रक्रिया में मालिकों और प्रबंधकों का नियंत्रण औपचारिक अधिक था वास्तविक कम। एकाधिकारी पूंजीवाद के उदय के साथ निगम, कार्यबल और फैक्टरीयां बड़ी होती गई और यह संभव हुआ कि श्रम के विभाजन को बढ़ाया जा सके और इस प्रकार ऊपर से नीचे तक प्रबंधकीय नियंत्रण होने लगा। इसने संकेंद्रित उद्योग जगत में एक नए वैज्ञानिक प्रबंधन, ‘टेलरिज़्म’ का रूप ले लिया। श्रमप्रक्रिया में श्रमिकों का नियंत्रण व्यवस्थित ढंग से छिन गया और प्रबंधन द्वारा ही मनमाने ढंग से नियंत्रण किया जाने लगा। इस तरह प्रबंधकीय तर्क के अनुसार श्रमिक ऊपर से आने वाले आदेषों का पालन करने भर को रह गए और उनका प्रत्येक क्षण प्रबंधन द्वारा दिए गए छोटे-छोटे विवरणों से संचालित होने लगा।

अधिकतरश्रमिकों की कार्य करने की स्थितियों में हुए ह्रास को उद्योग जगत में वैज्ञानिक प्रबंधन की शुरूआत के मुख्य परिणाम के तौर पर हैरी ब्रेवरमैन ने 1974 में ‘लेबर एंड मोनोपोली कैपिटल’ में विश्लेषित किया है। एकाधिकरिक पूंजीवादी समाज मुख्य रूप से कौशल के ध्रुवीकरण के रूप में पहचाना जाता है जिसमें अधिक संख्या में अकुशल श्रमिकों की तुलना में कार्यकुशल श्रमिकों की कम मांग होती है।
   
कॉरपोरेटद्वारा बनायी गई शिक्षा व्यवस्था का लक्ष्य श्रमिकों का उत्पादन कर श्रम-बाजार के इन विभिन्न चरणों को भरना था। लेकिन साथ ही वैज्ञानिक प्रबंधन को भी श्रम प्रक्रिया को निर्देशित करने के लिए देखा गया ताकि स्कूलों के भीतर शिक्षक एक नए तरीके के कॉरपोरेट प्रबंधक बन जाएं।
 
संयुक्तराज्य में लूइस ब्रांडीस द्वारा 1910 में अंतर्राज्यीय कॉमर्स कमिशन में की गई उस पैरवी के बाद वैज्ञानिक प्रबंधन पहले पहल व्यापक तौर पर जाना गया जिसमें उन्होंने कॉरपोरेट लाभ बढ़ाने में कुशलता निर्माण की जादुई भूमिका की प्रशंशा की। इसे 1911 में फ्रैड्रिक विंस्लो की किताब ‘टेलर्स प्रिंसिपल्स ऑफ़ साइंटिफिक मेनेजमेंट’ ने विस्तार दिया जो कि शुरूआत में ‘अमेरिकन मैगजीन’ में किस्तों में छपी थी। वैज्ञानिक प्रबंधन और दक्षता विशेषज्ञ जल्द ही कॉरपोरेट कार्यकारियों के बीच और लोकाधिकारियों दोनों के बीच प्रसिद्ध हो गए और जल्द तेजी से सार्वजनिक स्कूलों के प्रबंधन तक पहुंच गए जहां मानक परीक्षण और टेलरीकृत स्कूल एक नए स्वप्नलोकीय कॉरपोरेट मॉडल स्कूल व्यवस्था के पारिभाषिक सिद्धांत बन गए।

इसप्रकार दक्षता विशेषज्ञ हैरिंगटन एमर्सन ने 1911 में न्यूयार्क के हाईस्कूल टीचर्स एशोशिएशन को एक भाषण दिया जिसे उन्होंने ‘साइंटिफिक मेनेजमेंट एंड हाईस्कूल इफीसिएंसी’ नाम दिया। उनके बारह में से अंतिम सात सिद्धांत मानक रिकार्ड्स, योजना, मानक स्थितियां, मानकीकृत ऑपरेशन्स, मानक निर्देष, मानक और योग्यता पुरस्कार थे। 1913 में शिकागो यूनिवर्सिटी में शिक्षा प्रशासन के विशेषज्ञ फ्रैंकलिन बॉबिट ने ‘द सुपरविजन ऑफ़ सिटी स्कूल्स’ में लिखा-
कार्यकर्ताओं को, किए जाने वाले कार्य के लिए विस्तृत दिशा निर्देश, लक्षित मानक, प्रयुक्त क्रियाविधियों और प्रयोग किए जाने वाले उपकरण के विषय में पूरी तरह परिचित किया जाना चाहिए..... अध्यापकों को कार्य में मौज उड़ाने की इजाजत नहीं दी जा सकती। जब कोई ऐसी विधि मिल जाए जो कि अन्य से स्पष्ट रूप से बेहतर है तो ऐसी ही विधि को प्रयोग में लाना चाहिए। इस क्रियाविधि की अनदेखी करना और अपनी उदासीनता को अध्यापकों की स्वतंत्रता के नाम पर जायज ठहरना शायद शुरूआती अनुभववाद के दौर में उचित था जब सर्वेक्षक अध्यापकों को केवल पदोन्नत करते थे और वस्तुगत् तौर पर वे मानकों और विधियों के विषय में पद और फाइलों से थोड़ी ही अधिक जानकारी रखते थे।

बॉबिटचाहते हैं कि मानकीकृत कुषल तरीकों की आवष्यकता के कारण,‘‘अध्यापकों की स्वतंत्रता आवष्य ही कुछ संकुचित की जानी चाहिए’’। बॉबिट तो ये सुझाव भी दे गए हैं कि इमला लेखन करते हुए विद्यार्थियों की स्टॉप वॉच से जांचना चाहिए ताकि लेखन सिखाने में प्रयुक्त साठ मिनट के समय को प्रयोग करने का सबसे बढि़या तरीका जाना जा सके।  इसी तरह एक प्रभावशाली शिक्षण प्रशासक और सेन फ्रैंसिस्को पब्लिक स्कूल के अधीक्षक एलवर्ट कबर्ले ने 1916 में पब्लिक स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन में लिखा ,‘‘एक तरह से हमारे स्कूल फैक्ट्रियां हैं जिनमें कच्चे माल (बच्चे) को आकार दिया जाता है और जीवन की विविध आवश्यकताओं के अनुसार उत्पादों में बदला जाता है।’’
न्यूयार्कशहर में स्कूलों के जिला अधीक्षक, जोसफ एस टेलर ने 1912 में लिखाः
(1) एक नियोक्ता के तौर पर राज्य को शिक्षकों के साथ सहयोग करना चाहिए क्योंकि शिक्षक हमेशा ही शिक्षा के विज्ञान को नहीं समझता है। (2) राज्य उन विशेषज्ञों को उपलब्ध कराए जो कि शिक्षकों का पर्यवेक्षण कर पाएं और सर्वाधिक कुशल और किफायती प्रक्रियांओं के बारे में सुझाव दें। (3) व्यावसायिक प्रतिष्ठानों की तरह की कार्य प्रणाली स्कूलों में भी अपनाई जाय जिसमें दिया गया कार्य निश्चित शर्तों के साथ पूरा किया जाय। (4) जो अध्यापक दिए गए कार्य को पूर्ण करे उसे बोनस दिया जाय जो कि पैसे के रूप में ना होकर एक रेटिंग के रूप में हो जो पैसे के रूप में बदला जा सके। (5) कार्य में अक्षम लोगों को निकाल दिया जाए।
इसपद्यति में शिक्षकों की कार्यकुशलता को प्राथमिक रूप से उनके छात्रों के परीक्षण के माध्यम से मापी जानी थी। इसलिए प्रथम विश्वयुद्ध से ठीक पहले मानकीकृत परीक्षणों के द्वारा मानक विकसित किए जाने पर बहुत अधिक जोर दिया गया। 1911 में नेशनल एजूकेशन एसोसिएशन (एनईए) ने स्कूलों में कुशलता की परीक्षा और मानकों पर एक कमेटी का गठन किया। जब आईक्यू टेस्टिंग और अन्य प्रच्छन्न नस्लवादी जांच के तरीकों के प्रचलन के समय ही हुआ।

कारपोरेटप्रभुत्व वाली मानकीकृत शिक्षाव्यवस्था के निर्माण के पहले प्रयास उस समय उभरे नए परोपकारी कर-मुक्त संगठनों द्वारा किए गए। एंड्रयू कार्नेगी, जॉन डी. राॅकेफेलर और हैनरी फोर्ड जैसे अरबपतियों ने निजी संगठन स्थापित किए जिनमें बड़े सामाजिक परिवर्तनों को गति देने के लिए सरकार की भूमिका को संकुचित करते हुए परोपकार के तौर पर वित्त की व्यवस्था की गई। कार्नेगी फाउण्डेशन टैस्टिंग एवं सुजननिकी दोनों में अग्रणी था। इसने 1954 के दौरान टैस्टिंग में 6,424,000 डालर का निवेश किया। 1965 में इसने नेशनल एसेसमेंट ऑफ़ ऐजूकेशनल प्रोग्राम के विकास की शुरूआत की। राॅकफेलर फाउण्डेशन ने 1930 और 1940 के दौरान ऐजूकेशनल टैस्टिंग सर्विस के निर्माण में भारी योगदान दिया।  

प्रारंभिक कॉरपोरेट शिक्षा आंदोलन की असफलता

लेकिन 19वीं शताब्दी में एकाधिकारी निगमों और परोपकारी फाउण्डेशनों के कठोर मानकों और टैस्टिंग वाले कॉरपोरेट मॉडल स्कूलों के विकास में किए गए अत्यधिक प्रयासों के बावजूद भी पब्लिक स्कूल कई तरीकों से उनके नियंत्रण के बाहर रहे। स्कूल अकसर ही प्रगतिशील शिक्षकों, अभिभावकों और समुदायों के बीच से उभरने वाले लोकतांत्रिक संघर्षों के केंद्र में रहे थे। शिक्षक काफी हद तक स्वायत्ता प्राप्त एवं स्वयं को कामगार तबके के बच्चों से जुड़ा पाने वाले और श्रम सघन क्षेत्र में कम वेतन पाने वाले पेशेवर थे। शिक्षकों के संगठन उभरे जिनके माध्यम से उन्होंने सार्वजनिक स्कूलों में वेतन और कार्यस्थितियों के बारे में न्यूनतम मोलभाव करने की स्थितियां बनाई।

पूंजीवादीशिक्षा की परिणामी व्यवस्था में बहुत गंभीर खामियां थी। एक गहरे रूप में बंटे हुए समाज के तौर पर संयुक्त राज्य संस्थागत रूप से नस्लवादी बना रहा। जैसा कि 2005 में आई जाॅनाथन कोजोल की किताब ‘द शेम ऑफ़ द नेशन’ में संयुक्त राज्य के स्कूलों में नस्लीय स्तरीकरण में दिखता है। 20  पाठ्यक्रम के स्तर को अकसर कॉरपोरेट्स के द्वारा की जाने वाली अकुशल और नम्य श्रमशक्ति की मांग के हिसाब से गिराया गया है। फिर भी, प्रगतिशील अध्यापक सभी बाधाओं के बावजूद बच्चों की वास्तविक जरूरतों के लिए व्यवस्था के बुरे पहलुओं के खिलाफ लडे़। अमेरिकन फेडरेशन ऑफ़ टीचर्स की पत्रिका ‘द अमेरिकन टीचर’ ने 1912 में स्कूलों में वैज्ञानिक प्रबंधन के खिलाफ एक आलेख छापा। जिसमें लिखा थाः
संगठनों और स्कूलों के तरीकों ने वाणिज्यिक उद्यमों का रूप ले लिया है जिनसे हमारा आर्थिक जीवन पहचाना जाता है। हमने ‘बड़े उद्योगपतियों’ के घमंड को स्वीकार लिया है, साथ ही उनके योग्यता के मानकों को भी बिना प्रश्न किए स्वीकारा है। हमने शिक्षा के क्षेत्र में किए गए प्रयासों के परिणाम का मानक ‘कीमत और उत्पाद’ के रूप में स्वीकार कर लिया है जैसे कि किसी फैक्ट्री या डिपार्टमेंट स्टोर में होता है। लेकिन चूंकि शिक्षा का वास्ता व्यक्तित्वों से है, इसलिए यह किसी मानकीकृत निर्माण प्रक्रिया की तरह नहीं है। शिक्षा की क्षमता को छात्रों के प्रति घंटे के वेतन के आधार पर नहीं बल्कि मानवतावाद, काम कर सकने और प्रोत्साहन करने को बढ़ाने की क्षमता के रूप में मापना चाहिए।

शिक्षाकी साख बनी रही क्योंकि शिक्षक, अभिवावकों और समुदाय के सदस्यों के द्वारा अकसर ही पूंजीवादी शिक्षण के जोर का विरोध किया है। बदलती परिस्थितियों ने प्रगतिशील शिक्षा आंदोलनों की कड़ी को उभारा।  जैसे कि 1920 और 30 के दशक में जॉन डेवी से जुड़ा हुआ लोकतांत्रिक और प्रायोगिक शिक्षा आंदोलन, सिविल राइट आंदोलन के दौर में स्कूल अलगाव विरोधी आंदोलन, 1960 और 70 के दशक मुफ्त शिक्षा आंदोलन। 1916 में ‘डैमोक्रेसी इन ऐजूकेशन’ में कहा ‘शिक्षा, किसी बड़े दायरे की सीखने की प्रणाली की अधीनस्थ जैसी कोई विशेषीकृत प्रक्रिया नहीं है। शिक्षण का सर्वोत्तम रूप जीवन से ही सीखने की प्रवृत्ति और उन परिस्थियों का निर्माण है जिससे कि सभी लोग जीवन की प्रक्रिया में ही सीख सकें।’

1916में रेडिकल न्यूयार्क टीचर्स यूनियन (टीयू) का अभ्युदय हुआ। अभिवावकों और समुदायों दोनों के साथ गठजोड़ बनाते हुए टीयू नस्लीयविभेद और गरीबी के खिलाफ, इन्हें विद्यार्थियों की सफलता में मुख्य बाधा मानते हुए लड़ा। इस प्रकार के शिक्षा दर्शन का लक्ष्य पूरे समाज के रूपांतरण की जरूरत पर जोर देना था। आज के ‘सामाजिक आंदोलन एकतावाद’ के समरूप शक्तिशाली विकल्प को प्रस्तुत करने वाले टीयू का अस्तित्व शीतयुद्ध के दौर में वामपंथियों के नाम पर खत्म कर दिया गया। इग्यारह सौ के करीब स्कूल कर्मचारियों को पूछताछ के लिए बुलाया गया और चार सौ से ज्यादा लोगों को बाहर निकाल दिया गया। 1950 में न्यूयार्क बोर्ड ऑफ़ ऐजूकेशन ने स्कूलों में टीयू की गतिविधि को प्रतिबंधित करने के लिए कुख्यात टीमोन रिज्योल्युशन अपनाया।

हालांकिइन प्रगतिशील शिक्षा आंदोलनों में से कोई भी अमेरिका में प्रारंभिक और माध्यमिक शिक्षा में वास्तविक उद्धार की दिशा में बदलाव करने में सफल नहीं हुआ और 20वीं शताब्दी के अंत में शिक्षा में व्याप्त असमानता, गरीबी, संस्थागत् नस्लवाद और आर्थिक मंदी के प्रभावों से शिक्षा को बचा पाने में सफल नहीं हुआ। लेकिन ये आंदोलन सार्वजनिक क्षेत्र में शिक्षा में बुनियादी लोकतांत्रिक मूल्यों को बनाए रखने और भविष्य में समतावादी शिक्षा की संभावनाओं की उमींदों को संरक्षित रखने में सफल हुए। 

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यूकी वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

… जारी

जगत मर्तोलिया और साथियों की गिरफ्तारी क्यों?

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तो कामरेड जगत मर्तोलिया अपने १० साथियों के साथ 
गिरफ्तार हो गए. ये वही जगत मर्तोलिया हैं जो लगातार उत्तराखंड के उन आपदा प्रभावित इलाकों की हकीकत हमें अपने आलेखों के मध्यम से बता रहे थे, जहाँ न कोई मीडिया पहुँच पाया था न ही सरकारी/गैरसरकारी राहत कर्मी. इस बीच एक आरटीआई के जरिये पता चला था कि उत्तराखंड सरकार ने आपदा के बाद राहत बाँटने के बजाय तकरीबन समूचे मीडिया को अपने विज्ञापनों की बाढ़ से डिगा डाला था. ऐसे में कुछ एक ही मीडियाकर्मी और राजनीतिक कार्यकर्ता जमीनी स्तर पर कार्य कर लगातार सरकारी राहत कार्य की पोल खोल रहे थे. जगत मर्तोलिया भी धारचूला के प्रभावित इलाकों में चल रही अनियमितताओं/अनदेखी पर लगातार लोगों को गोलबंद कर धरने दे रहे थे साथ ही इस पर लगातार आलेख भी लिख रहे थे. जिन्हें हमने praxis में लगातार प्रकाशित किया. (इन आलेखों को यहाँ क्लिक करके पढ़ा जा सकता है). २१ अक्टूबर को मुख्यमंत्री की धारचूला यात्रा में भी उनकी आपदा प्रभावितों के साथ मुख्यमंत्री से मिलने की उनकी योजना थी. लेकिन पुलिस ने उन्हें पहले ही गिरफ्तार कर लिया. हम praxis की ओर से अपने इस सहयोगी की गिरफ्तारी के लिए उत्तराखंड सरकार की भर्त्सना करते हैं और उनकी तत्काल रिहाई की मांग करते हैं...
यहाँ भाकपा माले के गढ़वाल सचिव इन्द्रेश मैखुरी ने इस संबंध में एक पत्र उत्तराखंड के मुख्यमंत्री को भेजा है. उसकी प्रति यहाँ प्रकाशित की जा रही है....
-सं. 

श्रीमान मुख्यमंत्री महोदय,  
उत्तराखंड शासन,  
देहरादून. महोदय, 
      कल दिनांक 21 अक्टूबर 2013 को आपके द्वारा आपदा प्रभावित क्षेत्र धारचुला का दौरा किया गया.लेकिन यह बेहद अफसोसजनक है कि आपदा प्रभावितों की मांगों को लेकर आपके समक्ष अपनी बात रखना चाह रहे भाकपा(माले) के पिथौरागढ़ जिला सचिव कामरेड जगत मर्तोलिया को प्रशासन द्वारा आपके धारचुला पहुँचने से पहले ही गिरफ्तार कर लिया गया और आपके वहाँ से लौट आने के बावजूद भी उनकी रिहाई नहीं हुई है.
महोदय,लोकतंत्र में अपनी बात कहने का हक़ सबको है. कामरेड जगत मर्तोलिया तो वो व्यक्ति हैं जो धारचुला के आपदा प्रभावित क्षेत्रों में राहत सामग्री लेकर तब पहुंचे जबकि शासन-प्रशासन तक, आपदा से तबाह हुए लोगों के सुध नहीं ले सका था. आपदा के बाद से पिथौरागढ़ में आपदा पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाने से लेकर उनकी दिक्कतों को प्रशासन के सामने लाने तक के लिए वे रात-दिन एक किये हुए थे. ऐसे व्यक्ति को क्या महज इसलिए गिरफ्तार कर लिया जाना चाहिए कि वह एक भिन्न राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्ध रखता है? महोदय,यदि पिथौरागढ़ के जिला प्रशासन के इस तर्क को मान भी लिया जाए कि कामरेड जगत मर्तोलिया के नेतृत्व में लोग आपके समक्ष आक्रोश प्रकट कर सकते थे, इसलिए उन्हें गिरफ्तार किया गया, तब भी यह तो आप स्वीकार करेंगे कि जो अभागे लोग प्राकृतिक आपदा में अपना सब कुछ गँवा चुके हैं, उनसे फूल-मालाओं और स्वागत में प्रशस्ति गान की अपेक्षा तो आपको भी नहीं रही होगी! महोदय,यदि आपका दौरा आपदा प्रभावित क्षेत्रों की जमीनी हकीकत जानने के लिए था तो क्या आपदा पीड़ितों का आक्रोश उस हकीकत का प्रकटीकरण नहीं होता? और राज्य का मुखिया होने के नाते क्या ऐसे किसी भी आक्रोश का शमन करने की आपसे अपेक्षा करना क्या गैर कानूनी या विधि विरोधी या आपके सम्मान को ठेस पहुंचाने जैसा आपराधिक कृत्य माना जाएगा?
महोदय,एक तरफ आपकी सरकार विभिन्न संचार माध्यमों के जरिये आपदा पीड़ितों के लिए विभिन्न उपाय करने का दावा कर रही है और दूसरी तरफ आपदा पीड़ितों के सवाल उठाने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आपकी पुलिस और प्रशासन सिर्फ इसलिए गिरफ्तार कर ले रहा है कि कहीं वे आपके समक्ष जमीनी हकीकत ना बयान कर दें.महोदय,तब प्रश्न यह खडा होता है कि ऐसे में असली तस्वीर क्या है-विज्ञापनों के जरिये की जा रही सरकारी घोषणाओं या फिर कामरेड जगत मर्तोलिया जैसे संघर्षशील और आपदा प्रभावितों के सवालों को मुखर हो कर उठाने वालों की गिरफ्तारी?
महोदय,धारचुला दौरे से पूर्व 21 अक्टूबर 2013 के समाचार पत्रों में ही आपका महिलाओं,मजदूरों और गरीबों पर दर्ज किये मुक़दमे वापस लेने का वक्तव्य प्रकाशित हुआ है और दूसरी तरफ आपदा पीड़ितों की बात आप तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे कामरेड जगत मर्तोलिया को आपका उक्त वक्तव्य प्रकाशित होने के दिन ही गिरफ्तार कर लिया गया,यह कैसा विरोधाभास है?
महोदय,उक्त तमाम बातों के आलोक में आपसे यह मांग है कि कामरेड जगत मर्तोलिया को अविलम्ब रिहा किया जाए,उन्हें आपदा पीड़ितों की समस्याएं आपके समक्ष रखने से रोक कर उनके संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार का हनन करने वाले पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ कठोर कार्यवाही की जाए.साथ ही यह भी सुनश्चित करवाने की कृपा करें कि भविष्य में किसी को भी मात्र इसलिए अपनी बात कहने से ना रोक जाए कि वह राजनीतिक रूप से भिन्न मत रखता है.                       सधन्यवाद,
सहयोगाकांक्षी,
इन्द्रेश मैखुरी,
गढ़वाल सचिव,
भाकपा(माले)
 

मर्तोलिया रिहा, कहा सरकार में आपदा प्रभावितों के सवालों का जवाब देने का नहीं है साहस

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-प्रैक्सिस प्रतिनिधि
डीडीहाट (उत्तराखंड)
प्रेस को संबोधित करते जगत मर्तोलिया और जोध सिह बोरा 

"...डीडीहाट में हुयी पत्रकार वार्ता में मर्तोलिया ने जेल से रिहा होने के बाद कहा कि मुख्यमंत्री की धारचूला की यात्रा पंचायत व लोकसभा चुनाव के लिए थी जो फ्लाप हो चुकी है। धारचूला की जनता दोनों चुनावों मे सरकार को इसका सबक सिखायेगी। पुर्नवास, मुआवजा वितरण, नदी किनारे स्थित गांवो के सुरक्षा सहित जिन 15 सवालों को हमने उठाया था उस पर मुख्सयमंत्री ने कोई ध्यान नही दिया।..."

भाकपा माले के जिला सचिव जगत मर्तोलिया को आज रिहा कर दिया गया. मर्तोलिया ने कहा कि मुख्यमंत्री के भीतर आपदा प्रभावितो के सवालो का जबाब देने पर नैतिक साहस नही था इसलिये उन्हें जेल भेजकर आन्दोलनकारियों के लोकतांत्रिक अधिकारों का हनन किया गया है।

डीडीहाट में हुयी पत्रकार वार्ता में मर्तोलिया ने जेल से रिहा होने के बाद कहा कि मुख्यमंत्री की धारचूला की यात्रा पंचायत व लोकसभा चुनाव के लिए थी जो फ्लाप हो चुकी है। धारचूला की जनता दोनों चुनावों मे सरकार को इसका सबक सिखायेगी। पुर्नवास, मुआवजा वितरण, नदी किनारे स्थित गांवो के सुरक्षा सहित जिन 15 सवालों को हमने उठाया था उस पर मुख्सयमंत्री ने कोई ध्यान नही दिया। यह वक्त जनजाति आयोग बनाने का नही था। आपदा प्रभावित परिवारो के लिये घर व गांव बनाने का था लेकिन मुख्यमंत्री ने आपदा प्रभावितों को पूर्ण रूप से निराश किया है। अब प्रभावित अपने संघर्षो के बल पर पुर्नवास को हासिल करेंगे। 

उन्होंने कहा कि पांचवां माह शुरू होने के बाद भी मकान, जमीन, फसल, मवेशी का मुआवजा तक नही मिला है। राहत आयुक्त दीपक रावत चहेरा दिखाकर धारचूला से चले गए, उन्होंने मुआवजे के एक भी चैक पर हस्ताक्षर नहीं किया। इसे उन्होंने क्षेत्रीय काग्रेसी विधायक का निक्कमापन बताया। उन्होने कहा कि जनता की आवाज को दबाने के लिये काग्रेस सरकार और विधायक के इशारे पर धारचूला मे सवैधानिक अधिकारों की हत्या हो रही है। इसके खिलाफ वे प्रत्येक गांवो के जाकर जन-जन तक इस बात को पहुंचा काग्रेस का सफाया करेगें। 

उन्होनेमुख्यमंत्री से 15 सवालो को पूछने के मामले में प्रशासन और पुलिस द्वारा काग्रेस विधायक के इशारे पर की गयी कार्यवाही को न्याय के सिद्धांत के खिलाफ बताया और कहा कि इसके खिलाफ राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और उच्च न्यायालय मे शिकायत की जायेगी। इस मौके पर राज्य आन्दोनकारी जोध सिह बोरा ने कहा कि जगत मार्तेलिया पर जो पुलिसिया कार्यवाही की गयी वह सरकार के इशारे पर की गयी है। और आपदा के लिये आन्दोलन करने वालो को दबाने व डराने का काम सरकार कर रही है जिसे बर्दाश्त नही किया जायेगा। 

पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : दूसरी क़िस्त

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http://www.laika-verlag.de/sites/default/files/JohnBellamyFoster.png
जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन  और सुनील

जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और चर्चित पुस्तक ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है।  इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ दे रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है... (पहली के लिए यहाँ क्लिक करें)
-सं.


आर्थिक ठहराव और सार्वजनिक शिक्षा पर हमले

1974-75के बीच शुरू हुई मंदी के साथ आर्थिक ठहराव की शुरूआत और अभूतपूर्व रूप से निरंतर गिर रहे आर्थिक विकास ने चीजों को निर्णायक रूप से बदतर कर दिया था। 1970 से संयुक्त राज्य में दशक दर दशक गिर रहे वास्तविक आर्थिक विकास से शिक्षा पर दबाव लगातार बढ़ता गया। 1960 और शुरूआती 1970 के दौर में के-12 शिक्षा पर जो खर्च लगातार बढ़कर कर 1975 में जीडीपी के 4.1 प्रतिशत तक पहुंचा, एक दशक बाद ही 1985 में गिर कर 3.6 प्रतिशत रह गया। स्थानीय सरकारों से सार्वजनिक स्कूलों को मिलने वाला राजस्व बड़े पैमाने पर हुए संपत्ति कर में हुए बदलाव के चलते 1965 में 53 प्रतिशत से घटकर 1985 में 44 प्रतिशत जा पहुंचा। नतीजतन राज्य स्तर पर फंडिंग और अधिक केंद्रीकृत हो गई।

इसबीच स्कूलों को वृहद समाज में बढ़ रहे घाटे को झेलने करने को मजबूर किया गया। संयुक्त राज्य में गरीबी में जी रहे बच्चों की संख्या 1973 में 14.4 प्रतिशत से 1993 तक 22.7 प्रतिशत हो गई जबकि इन गरीब बच्चों में अत्यधिक गरीब बच्चे जोकि आधिकारिक गरीबी दर में आधे हैं, का कुल अनुपात 1975 में 30 प्रतिशत से बढ़कर 1993 में 40 प्रतिशत से भी ऊपर पहुंच गया। सार्वजनिक स्कूलों में तेजी से गरीब बच्चों की बढ़ती संख्या का दबाव स्कूल के सीमित संसाधनों पर भी पड़ा।

नवउदारवादीदौर में स्कूलों की इन बिगड़ती दशाओं के बावजूद मानकों और मूल्यांकन पर जोर देते हुए सार्वजनिक क्षेत्र के खर्चो में कटौती की गई। स्कूलों को और अधिक बाजार और कॉरपोरेट के संचालन में ढकेला गया और वाउचर और चार्टर सहित कई रूढि़वादी विकल्पों की पहल कर तेजी से निजीकृत किया गया। स्कूल-वाउचर का प्रस्ताव पहले-पहल 1962 में मिल्टन फैडमैन की किताब कैपिटलिज्म एंड फ्रीडमसे लोकप्रिय हुआ जिसमें सरकार द्वारा अभिवावकों को उनके बच्चों की सार्वजनिक शिक्षा के मूल्य के बराबर के वाउचर देने का प्रस्ताव था जिससे वे अपने बच्चे को अपनी पसंद के स्कूल में भेज सकें। इसका मुख्य लक्ष्य निजी शिक्षा को सरकारी सब्सिडी मुहैया कराना था। यह सार्वजनिक शिक्षा पर सीधा हमला था। वहीं सार्वजनिक वित्तपोषित लेकिन निजी प्रबंधन वाले चार्टर स्कूल जोकि शिक्षा विभाग द्वारा न चलाए जाने के बावजूद भी तकनीकी रूप से सार्वजनिक स्कूल थे, 1980 तक शिक्षा के निजीकरण के सूक्ष्म तरीके के उदाहरण के तौर पर दिखाई दिए।

1980 में सार्वजनिक शिक्षा के विरुद्ध, कॉरपोरेट हितों का पैरोकार एक शक्तिशाली रूढि़वादी राजनीतिक गठबंधन खड़ा किया गया। रोनाल्ड रीगन ने कार्टर प्रशासन के दौरान कैबिनेट स्तर पर गठित यूएस सार्वजनिक विभाग को समाप्त करने की इच्छा बार-बार जताते हुए वाउचर शिक्षा के लिए जोर लगाया। रीगन ने शिक्षा पर एक राष्ट्रीय आयोग गठित किया जिसने ए नेशन एट रिस्कशीर्षक वाली अपनी रिपोर्ट 1983 में रखी। जिसका सार था कि यूएस शिक्षा व्यवस्था अपने स्वयं के अंतर्विरोधों के कारण असफल हो रही है। (धीमे आर्थिक विकास, बढ़ती हुई असमानता और गरीबी का इसमें कोई जिक्र नहीं था।) अ नेशन एट रिस्कके अनुसार ‘‘यदि किसी गैरहितैषी शक्ति ने अमेरिका में मौजूद वर्तमान औसत दर्जे की शिक्षण प्रणाली को थोपा होता तो हम इसे आसानी से एक युद्ध से जुड़ा हुआ कृत्य मान लेते। यह मौजूद है क्योंकि हमने इसे होने दिया है। हम वास्तव में विचारहीन, एकांगी शैक्षिक निरस्त्रीकरण का कृत्य कर रहे हैं।’’
          
बड़ेशीतयुद्ध सैन्य ढांचे की शुरूआत करने वाले रीगन प्रशासन ने अमीरों और निगमों को करों में छूट देते हुए, स्कूलों को मिलने वाली संघीय मदद की कटौती को, आसमान छूते हुए संघीय घाटे की लफ्फाजी के आधार पर सही ठहराया। इस कटौती में कम आय वाले विभागों को स्कूलों के लिए मिलने वाली मदद में 50 प्रतिशत कटौती भी सम्मिलित थी। 1980 के दशक अंत और 90 की शुरूआत में नाटकीय रूप से कठोर मानक, उत्तरदायित्व और मूल्यांकन प्रणाली की ओर एकाएक बदलाव देखा गया जिनका अनुसरण केनटुकी और टैक्सास जैसे राज्यों में (बाद में गवर्नर जार्ज डब्लू बुश के अधीन) जबरन किया गया। जार्ज एच डब्लू बुश और क्लिंटन प्रशासन के दौरान शिक्षा सुधारों की यही दिशा रही और जार्ज डब्लू बुश के राष्ट्रपति काल में यह प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के रूपांतरण के लिए विभाजक रेखा के रूप में स्थापित हो गई।
     
2001में शपथग्रहण के तीन दिन के बाद ही बुश ने अपने एनसीबीएल कार्यक्रम को जाहिर किया। 8 जनवरी 2002 को पास एनसीएलबी विधेयक सैकड़ों पेजों का है पर अवधारणागत् रूप में इसके सात मुख्य अवयव हैंः (1) प्रत्येक राज्य को अपने मूल्यांकन और प्रदर्शन के तीन स्तर (बुनियादी, प्रवीणता और आधुनिक) विकसित करने थे। जिसमें राज्यों को प्रवीणता के अपने मानक तय करने थे। (2) संघीय शिक्षा निधि को प्राप्त करने के लिए राज्यों को छात्रों का वार्षिक मूल्यांकन उनके वाचन और गणित में प्रवीणता के आधार पर तीन से आठ ग्रेड तक करना था और हासिल किए गए अंकों को निम्न आर्थिक स्तर, नस्ल, नृजातीयता, विकलांगता स्तर और अंग्रेजी की कम कुशलता के आधार पर विभाजित करना था। (3) प्रत्येक राज्य को एक समयरेखा देनी थी जिससे यह दिखाया जाय कि 2014 तक उसके 100 फीसदी छात्र कुशलता को प्राप्त कर लें। (4) सभी स्कूलों और विद्यालयी विभागों को प्रत्येक विभाजित उपसमूह में 2014 तक सौ प्रतिशत कुशलता प्राप्त करने संबंधी पर्याप्त वार्षिक प्रगति (एवाईपी) को प्रदर्षित करने के आदेश दिए गए। (5) जो विद्यालय सभी उपसमूहों के लिए पर्याप्त वार्षिक प्रगति प्राप्त नहीं कर पाएंगे उन पर आगामी प्रत्येक वर्ष में भारी दंड लगाया जाएगा। चौथे वर्ष में स्कूल में सुधार के कदम उठाए जाएंगे जिसके तहत पाठ्यक्रम परिवर्तन, स्टाफ परिवर्तन या सत्रावधि में वृद्धि की जाएगी। यदि स्कूल अब भी पर्याप्त वार्षिक प्रगति नहीं दे पाए तो पांचवे साल में उसे पुनर्गठित किया जाएगा। (6) पुनर्गठित किए जाने वाले स्कूल को पांच विकल्प दिए जाएंगे जिनका परिणाम अनिवार्य रूप से एक ही होगाः (ए) स्कूल को चार्टर स्कूल में बदल दिया जाएगा। (बी) प्रधानाचार्य और स्टाफ को बदल दिया जाएगा (सी) स्कूल का प्रबंधन निजी हाथों में दे दिया जाएगा। (डी) राज्य स्कूल का नियंत्रण छोड़ देगा (ई) विद्यालयी प्रशासन का व्यापक पुनर्गठन (अधिकांश स्कूल और स्कूली विभाग अपेक्षाकृत कम सुनिष्चित विकल्प होने के कारण आखिरी विकल्प को चुनने के लिए बाध्य थे ताकि अन्य विकल्पों को टाला जा सके।) (7) प्रत्येक राज्य को नेशनल एसेसमेंट ऑफ़ एजूकेशनल प्रोग्रेस नामक एक संघीय परीक्षा में प्रतिभाग करना था जो वैसे तो स्कूल और स्कूली विभागों पर कोई प्रभाव नहीं डालती थी परंतु राज्य की मूल्यांकन प्रणाली में बाहरी नियंत्रण के लिए बनाई गई थी।

एनसीएलबी के तहत पुनर्गठन का दबाव झेलने वाले स्कूलों की संख्या साल दर साल बढ़ती गई। 2007-08 में देश भर में पैंतीस हजार स्कूल पुनर्गठन की प्रक्रिया या योजना स्थिति में लाए गए। यह पिछले साल की तुलना में सीधे 50 फीसदी ज्यादा था। 2010 में संयुक्त राज्य में कई स्कूल एनसीएलबी के नियमों के तहत एवाईपी बनाने में असफल रहे और इनकी संख्या पिछले वर्ष के 33 प्रतिशत की तुलना में 38 प्रतिशत जा पहुंची।

एनसीएलबीने स्कूलों और अध्यापकों पर नए भार और अपेक्षाओं को तो बढ़ाया लेकिन यूएस सरकार द्वारा प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर खर्च होने वाले जीडीपी के प्रतिशत को नहीं बढ़ाया गया। यह खर्च 1990 के दशक में बढ़ाया गया था। 2001 में एनसीएलबी की ठीक शुरूआत के समय यह खर्च बढ़ते हुए जीडीपी का 4.2 प्रतिशत पहुंचा जो कि इसका अधिकतम था। यह खर्च एनसीएलबी के बाद के वर्षों में केवल घटता ही गया और 2006 में 4.0 तक पहुंच गया जो कि 1975 के खर्च के बराबर था।

एनसीएलबी विधेयक बिना बजट का आबंटन किए एक ऐसी व्यवस्था थोपता है जिसमें राज्य द्वारा संचालित सार्वजनिक स्कूल बिना संसाधनों के बड़ी अतिरिक्त लागत को झेलने के लिए विवश होते हैं। बाउल्डर, कॉलरेडो में स्थित नेशनल ऐजूकेशन पालिसी सेंटर के प्रबंध निदेशक और वरमान्ट में स्कूलों के पूर्व अधीक्षक विलियम मैथिसने यह आंकलन किया कि एनसीएलबी के के-12 शिक्षा के राष्ट्रीय बजट में अभी के मुकाबले 20-30 फीसदी की बढ़ोत्तरी करनी होगी। लेकिन शिक्षानिधि के मामूली तौर पर बढ़ने के बजाय यह या तो स्थिर रही या और भी गिरी और यह बात जीडीपी के प्रतिशत और नागरिक सरकार के खर्च दोनों में देखी गई।

राज्य संचालित बड़े शहरी स्कूलों में से न्यूयार्क शहर के मेयर माइकल ब्लूमबर्ग स्कूलमें एनसीएलबी शैली से किया गया सुधार सर्वाधिक चर्चित रहा। अरबपति ब्लूमबर्ग अपने 18 अरब डालरों के साथ 2011 के संयुक्त राज्य में व्यक्तिगत् धनाड्यों की सूची में तेरहवें स्थान पर है। इन्होंने यह अरबों डालर वित्तीय समाचार मीडिया के साम्राज्य के विकास से ब्लूमबर्ग एलपीके जरिए से कमाया।अपनी प्रचार अभियान सामग्री में ब्लूमबर्ग ने घोषणा की कि स्कूल आपातकाल की स्थितिमें हैं। मेयर के अपने चुनाव के दौरान उसने तेजी से के-12 शिक्षा को कॉरपोरेट वित्तीय दिशा की ओर बदलने की बात कही। वाचन और गणित की परीक्षाओं में अंक प्राप्ति की ओर मुख्य जोर था जब्कि पाठ्यक्रम के अन्य विषयों पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया गया। असफल रहे सार्वजनिक स्कूलों को चार्टर स्कूलों में तब्दील कर दिया गया। हालांकि ब्लूमबर्ग के स्कूलों के पुनर्गठन और निजीकरण के बावजूद संघीय एनएईपी परिक्षा से पता चलता है कि न्यूयार्क शहर में 2003 से 2007 के दौरान वाचन या गणित में कोई महत्वपूर्ण सफलता नहीं हासिल हुई।\             

साहसपूर्ण परोपकार और मूल्य-वर्धित शिक्षा

ब्लूमबर्गअकेला अरबपति नहीं था जिसे स्कूलों के सुधारों ने आकर्षित किया। वित्त और सूचना पूंजी के एकाधिकार की 21वीं सदी में उच्च कॉरपोरेट हलकों में यह विशवास पैदा हुआ है कि अब शिक्षा का वैज्ञानिक तकनीकी और वित्तीय क्षेत्रों के समान ही पूरी तरह से प्रबंधन किया जा सकता है, जिससे (1) शिक्षकों की श्रम प्रक्रिया का नियंत्रण (2) अधिक विभेदित और एकरस श्रमशक्ति के निर्माण के लिए अधीनस्थ शिक्षा और (3) सार्वजनिक शिक्षा का निजीकरण (जहां तक बिना गंभीर प्रतिरोधों के हो सके) संभव हो जाएगा। डिजिटल युग में नौकरशाहीकरण, ट्रैकिंग और परीक्षण पहले की तुलना में अधिक आसान हो गए थे। शिक्षण की श्रमप्रक्रिया का केंद्रीकरण ही इस प्रक्रिया का मकसद था ताकि शिक्षा विज्ञान को लागू करने का तरीका क्लासिक वैज्ञानिक प्रबंधन की तरह शिक्षकों से छीनकर उच्चाधिकारियों को सौंप दिया जाय।

सार्वजनिक स्कूलों को शिक्षकों के बजाय तकनीक पर अधिक ध्यान देने के लिए प्रोत्साहित किया गया यह उस टेलरवादी योजना के नए संस्करण के अनुरूप था जिसमें शिक्षकों को तेजतर्रार मषीनों के उपांगों के रूप में देखा गया था। 

वैज्ञानिकरूप से प्रबंधित शिक्षा का जो स्वप्न 20 वीं सदी में पूरी तरह हकीकत में नहीं बदल सका अंततः 21वीं सदी के डिजीटल पूंजीवाद में पहुंच के भीतर लग रहा था। जार्ज एच डब्लू बुश प्रशासन में सहायक शिक्षा सचिव रहे डिआन रेविच कहते हैं ‘‘तकनीकी विकास के चलते यह संभव हुआ है कि कई राज्य और जिले विशिष्ट छात्र के अंक और उससे संबंधित अध्यापक की जानकारी रख सकें और इसके आधार पर शिक्षक को छात्र की उन्नति और अवनति के लिए जवाबदेह बना सकें।’’ नए रूढि़वादी शिक्षा सुधार आंदोलन का मुख्य नारा मूल्यवर्धित शिक्षा था और छात्रों में वर्धित मूल्य के आधार पर शिक्षकों की क्षमता का मूल्यांकन और इसी गुण के आधार पर उनको भुगतान होना था। इस तरह मूल्यवर्धन, पूंजी के विकास के लिए छद्म रूप में परीक्षा में अंक बढ़ाने से अधिक कुछ नहींथा।  

इक्कीसवींसदी के कॉरपोरेट स्कूल सुधार आंदोलन का नेतृत्व, जिसने सरकार की भूमिका को हाशिये पर धकेल दिया, चार बड़े परोपकारी फाउंडेशनों से आया जो एकाधिकारी वित्तीय सूचना और खुदरा पूंजी के मुख्य प्रतिनिधि थे। ये चार फाउंडेशन हैंः (1) द बिल एंड मैलिंडा गेट्स फाउंडेशन (2) द वैल्टन फैमिली फाउंडेशन (3) द एली एंड एडिटी ब्राड फाउंडेशन और (4) द माइकल एंड सुसैन डैल फाउंडेशन। ये नए किस्म के फाउंडेशन हैं जिन्हें वैंचर परोपकार’ (ये नाम वैंचर कैपिटलिज्म से लिया गया है।) का नाम दिया गया और ‘‘परोपकारी पूंजीवाद‘‘ भी कहा गया। परोपकारी पूंजीवाद को उनकी आक्रामक निवेश केंद्रित तौर तरीकों के आधार पर पहले के फाउंडेशनों से अलग किया जाता है। पारंपरिक अनुदान से बचते हुए पैसे को सीधे चुने हुए प्रोजक्टों में डाला जाता है। एक मूल्यवर्धित कार्यप्रणाली अपनाई गई है जिसमें व्यापार के समान ही तुरंत परिणामों की अपेक्षा की जाती है। अपनी कर मुक्त स्थिति के बावजूद परोपकारी पूंजीवादीसरकारी नीतियों को सीधे प्रभावित करने के लिए व्यग्र दिखाइ देते हैं।

माइक्रोसॉफ्ट के बिल गेट्स द्वारा बनाए गए द गेट्स फाउंडेशनकी संपत्ति 2010 में 33 अरब अमेरीकी डालर थी जो कि वित्तीय पूंजीपति वारेन बफे से 30 अरब डालर के वार्षिक योगदान के साथ और बढ़ गई। 2008 में वॉलमार्ट स्टोर्स के मालिकों के वॉलटन फाउंडेशन के पास दो अरब डालर की संपत्ति थी। 1999 में अपने उद्यम सनअमेरीका (जो कि बाद में दिवालिया हुआ और जिसे 18 अरब डालर का बेलआउट पैकेज दिया गया) को बेचने वाले रियल एस्टेट वित्तीय अरबपति एली ब्राड द ब्राड फाउंडेशन के निदेशक हैं जिसकी 2008 में कुल संपत्ति 1.4 अरब डालर है। जबकि डैल के संस्थापक और सीईओ माइकल डैल के द माइकल एंड सुसैन डैल फाउंडेशन की संपत्ति 2006 में लगभग एक अरब डालर से अधिक थी।  

डैलफाउंडेशन के क्रियाकलाप डैल (कंपनी) की गतिविधियों से जुड़ी हुई रही जो कि सार्वजनिक स्कूलों को बाजार के तौर पर देखने वाली तकनीक आधारित कंपनियों में से प्रमुख है। डैल फाउंडेशन तीन अन्य परोपकारी पूंजीवादी संगठनों के साथ साथ ही काम करता है (गेट्स और बोर्ड फाउंडेशन इसके बड़े दानदाता हैं)। यह प्रदर्शन के प्रबंधन पर विशेष जोर देता है। जोकि सूचना तकनीकी को स्कूलों में जवाबदेही का आधार बनाने पर केंद्रित है।

यहसीधे तौर पर शिक्षा बाजार के डैल के अपने आर्थिक हितों से जुड़ा हुआ है। क्योंकि डैल, एप्पल के बाद के-12 स्कूलों में तकनीकी हार्डवेयर सुविधाएं मुहैया कराने वाली दूसरी कंपनी है। द डैल फाउंडेशन दावा करता है कि वो स्कूल के बेहतर प्रबंधन के लिए शहरी स्कूलों की, सूचना के एकत्रीकरण विश्लेषण और प्रतिवेदन में तकनीक के इस्तेमाल में मदद कर रहा है।

यहचार्टर स्कूलों में लाभ आधारित शिक्षा प्रबंधन संगठनों और चार्टर स्कूलों के रियल एस्टेट डेवलेपमेंट का बड़ा समर्थक है।

शिक्षणेत्तरक्षेत्रों (जैसे व्यापार, कानून, सेना आदि) से पेशेवरों की भर्ती करते हुए नवउदारवादी पूंजीवादी शिक्षा सुधार के लिए नए कैडर के प्रशिक्षण में ब्राड फाउंडेशन अव्वल है। इसका लक्ष्य उन्हें उस कैडर को स्कूल के उच्च प्रबंधन स्टाफ और स्कूल अधीक्षण में स्थान देना है। द ब्राड सेंटर फॉर द मेनेजमेंट ऑफ़ स्कूल सिस्टम्स के दो कार्यक्रम मुख्य हैः (1) द ब्राड सुपरिटेंडेंट्स ऐकेडमी, जिसमें स्कूल सुपरिटेंडेंट्स को प्रशिक्षण दिया जाता है और बड़े शहरों में औहदे दिलाए जाते हैं। (2)द ब्राड रेजीडेंसी इन अर्बन एजूकेशन जो कि अपने स्नातकों को स्कूली विभागों में उच्च स्तरीय प्रबंधकीय औहदे दिलाने के लिए स्थापित की गई है। ब्राड फाउंडेशन अपने स्नातकों को वेतन की पेशकश करते हुए और इस तरह उन्हें कठिन दौर से गुजर रहे स्कूलों के लिए आकर्षक बनाते हुए ऐसी नियुक्तियों में तेजी लाता है और स्कूल बोर्डों को उच्च कारपोरेट की सेवाओं को लेने के अवसर देता है। ब्राड के स्नातकों की सेवाएं लेकर स्कूली विभाग ब्राड फाउंडेशन से अतिरिक्त धन लेने के लायक बन जाते हैं। ब्राड इंस्टिट्यूट फॉर स्कूल बोर्ड्स का मिशन स्कूल बोर्ड के देश भर से चुने हुए सदस्यों को पुनः प्रशिक्षण देकर उन्हें स्कूलों के कॉरपोरेट प्रबंधन मॉडल के अनुरूप ढालना है।

इसकी आधिकारिक वैबसाइट के अनुसार 2009 में ब्राड ऐकेडमी के स्नातकों द्वारा शहरी स्कूलों के अधीक्षक के पदों में से 43 फीसदी पर नियुक्ति पाई गई। द ब्राड फाउंडेशन शिक्षा के निजीकरण का कट्टर समर्थक है। विशेष रूप से इसकी दिलचस्पी शिक्षक संघों को तोड़ने, शिक्षकों के लिए योग्यता भुगतान की व्यवस्था स्थापित करने और सामान्यतया शिक्षा को गैरपेषेवर रूप देने में है ताकि इसे शुद्ध व्यावसायिक तौर पर श्रमशक्ति का सर्वहाराकरण करते हुए चलाया जा सके। 2009 में ऐली ब्राड ने न्यूयार्क में एक भाशण के दौरान कहा हम पढ़ाने के तरीके और पाठ्यक्रम अथवा इनमें से किसी के बारे में कुछ भी नहीं जानते। परंतु हम प्रबंधन और शासन के बारे में जानते हैं।
        
नाओमीक्लेन के शब्दों में कहें तो सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का विध्वंस कर इसका निजीकरण करने की कोशिश द्वारा ब्रोड फाउन्डेशन झटका सिद्धांतको बढ़ावा दे रहा है, यह विनाशक पूंजीवादका ही एक रूप है।अप्रैल 2009 में सिएटल एज्युकेशन ने कैसे जानें कि आपके स्कूल में ब्रोड वाइरस आ चुका हैनाम से अपनी वेबसाइट पर अभिभावकों हेतु एक निर्देशिका प्रकाशित की। ब्रोड वाइरस के लक्षणों में से हैः

आपकेजिले में अचानक स्कूल बंद होने लगते हैं... जिला अभिलेखों तथा वक्तव्यों में औपलब्ध्कि असफलतातथा औपलब्धिक असफलता की भरपाईजैसे मुहावरों का प्रयोग बढ़ जाता है... अचानक से बाहरी वैज्ञानिक सलाहकारों की आमद बढ़ जाती है। निजी चार्टर स्कूलों में बदले गए सार्वजनिक स्कूलों की संख्या बढ़ जाती है... गणित की सरल किताब लागू की जाती है... शायद भाषा की भी सरल किताब लागू की जाए... जिला प्रशासन घोषित करता है कि जिले की इकलौती समस्या शिक्षक हैं। आपके बच्चों पर तरह-तरह की परीक्षाएं लाद दी जाती हैं... आपके स्कूल की परिषद स्टॉकहोम सिन्ड्रोम के लक्षण दिखाने लगती है। वे एक राय से सुपरिन्टेंडेंट के पीछे-पीछे मतदान करने लगते हैं। सुपरिंटेंडेंट तथा उसकी रणनीतिक योजनाके लिए ब्रोड तथा गेट्स फाउन्डेशन की ओर से मदद आने लगती है। गेट्स फाउन्डेशन आपके जिले की तकनीकी सामग्री या चार्टर स्कूलों में शिक्षकों की क्षमता बढ़ाने हेतु इमदाद मुहैया करवाती है।

वॉलमार्टकॉरपोरेशन ने अपना धंधा श्रमिकों को कम वेतन देकर फैलाया है। यह यूनियनों की विद्वेषपूर्ण विरोधी है तथा इसने खुदरा क्षेत्र में खुद को एकाधिकारी शक्ति बना लिया है- वाल्टन फाउण्डेशन इसी के नज़रिये को अभिव्यक्त करती है। यह हर संभव तरीके से शिक्षा पर सार्वजनक क्षेत्र के एकाधिकार को खत्म करना चाहती है। इसके तरीके हैं- शिक्षक संघों पर हमले करना, निजी चार्टरों को बढ़ावा देना, स्कूल चयन इत्यादि। रेविच कहते हैं- ‘‘वाल्टन परिवार फाउण्डेशन के योगदान की समीक्षा करने पर जाहिर होता है कि यह परिवार सार्वजनिक क्षेत्र के विकल्प पैदा करना, उन्हें मज़बूत करना तथा उन विकल्पों को बढ़ावा देना चाहता है। उनका एजेन्डा है चुनाव, प्रतिस्पर्ध और निजीकरण।’’

...अगली क़िस्त में जारी

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यू की वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : तीसरी क़िस्त

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जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन  और सुनील

जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और चर्चित पुस्तक ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है।  इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ दे रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है...
(पहली क़िस्त के लिए यहाँ और दूसरी क़िस्त के लिए यहाँक्लिक करें)
-सं.


Capitalism never solves it's crisis
दूसरी क़िस्तसे आगे...

पिछले कुछ सालों में गेटस फाउण्डेशन- जो कि इन परोपकारी फाउण्डेशनों में अब तक सबसे बड़ा निकाय है- ने ब्रोड फाउण्डेशन के समरूप एजेन्डा अपनाना शुरू कर दिया है, ये दोनों अक्सर मिलकर कार्य करते हैं। बिल गेटस ने तो घोषित भी कर दिया है कि प्रमाण-पत्र, अनुभव, ऊँची डिग्री अथवा किसी विषय के विषद ज्ञान तथा शैक्षणिक योग्यता में कोर्इ सीधा-सीधा संबंध नहीं है। गेटस फाउण्डेशन ने ऐसे समूहों के समर्थन में अरबों डालर खर्च किए हैं जिनका कार्य है सार्वजनिक नीतियों पर दबाव बनाना, ताकि सार्वजनिक शिक्षा की पुनर्संरचना हो सके, चार्टर स्कूलों को बढ़ावा मिले, निजीकरण की खुली वकालत हो तथा यूनियनों को खत्म किया जाए, इसने टीचर प्लस को अरबों डालर दिए हैं यह शिक्षा के पुनर्संरचनन का हिमायती है तथा कहता है कि अध्यापकों की सेवावधि मूल्यांकन (अंक प्रापित) के आधार पर तय की जानी चाहिए न कि वरिष्ठता के आधार पर, जैसा कि यूनियनें इसरार करती है। गेटस फाउण्डेशन टीच फार अमेरिका, नामक एक कार्यक्रम की भी मदद करती है जिसके अंतर्गत प्रत्याशियों को कालेज से सीधे भर्ती किया जाता है, उन्हें 5हफ़्ते के लिए प्रशिक्षण शिविर में रखा जाता है और उन्हें कम आय वाले स्कूलों में भेज दिया जाता है- अक्सर 2या 3साल के लिए- उन्हें अध्यापन-प्रशिक्षण के लाभ से या व्यवसायिक प्रमाण पत्र दिलवाने वाले प्रशिक्षण से महरूम करते हुए।

गेट्स फाउण्डेशन ने शिकागो 'रिनेसां 2010को 90मिलियन डालर की माली इमदाद दी थी। तब इस 'कायापलटकारी रणनीति का अध्यक्ष शिकागो सार्वजनिक स्कूल का सीर्इओ आर्ने डंकन था। डंकन का शिकागो झटका सिद्धांत पहलकदमी को गेटस फाउण्डेशन द्वारा वित्तपोषित 'कायापलटकारी चुनौती के अनुरूप व्यवसिथत किया गया था। डंकन अब अमेरीकी सेक्रेटरी आफ एज्युकेशन है तथा 'कायापलटकारी चुनौती को स्कूल पुनसंरचना की'बाइबिल बताता है। उसने इसे संघीय नीति के साथ समाकलित कर के इसे ओबामा की रेस टू द टाप नीति की बुनियाद बना दिया है। अपनी2009-2010की वार्षिक रिपोर्ट में ब्रोड फाउण्डेशन ने घोषित किया कि ''ओबामा के राष्ट्रपति पद पर चुनाव तथा उनके द्वारा शिकागो सार्वजनिक स्कूल्स के भूतपूर्व सीर्इओ आर्ने डंकन को अमेरिकी सेक्रेटरी आफ एज्युकेशन बनाए जाने से शैक्षणिक संशोधन संबंधी हमारी आशाएं एक नर्इ ऊँचार्इ पर पहुँच गर्इ है। आखिरकार नक्षत्र हमारे पक्ष में आ गए हैं। डंकन तथा ओबामा के भूतपूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार लारेंस सम्मटर्स फरवरी 2009तक ब्रोड फाउण्डेशन के शैक्षणिक निकाय के निदेशक मण्डल में शामिल थे।

पद संभालते ही डंकन ने सेक्रेटरी आफ एज्युकेशन दफ़्तर में परोपकारितापूर्ण कार्यकलापों हेतु निदेशक का एक पद स्थापित किया तथा घोषित किया कि शिक्षा विभाग, अक्षरश:, 'व्यवसाय’ हेतु खुला है। उसने विभाग में वरिष्ठ पदों पर गेटस तथा ब्रोड कर्मचारियों को भर दिया।  जोआन वेइस्स अब डंकन का विभागीय प्रमुख हैं। वह ओबामा के रेस टू द टाप कम्पीटिशन का निदेशक था। साथ ही वह न्यूस्कल्स वेंचर फण्ड का भी निदेशक रह चुका है- शिक्षा पुनर्संरचना संबंधी इस संगठन को ब्रोड तथा गेटस फाउण्डेशन से भारी मात्रा में धन मिलता है।

रेस टू द टाप के अंतर्गत ओबामा प्रशासन ने चुनिंदा राज्यों को अतिरिक्त वित्तीय राशि उपलब्ध करवार्इ (11राज्य तथा कोलमिबया जिला वियजी घोषित किए गए)। यहां सिर्फ उन्हीं राज्यों को चुना गया जिन्होंने मूल्यांकन, चार्टर, निजीकरण तथा अध्यापकों के सेवाकाल संबंधी प्रावधानों को निरस्त करने संबंधी पुनर्संरचनन योजना को स्वीकार कर लिया था। चयन प्रक्रिया के दौरान गेटस फाउण्डेशन ने हर राज्य में प्राथमिक सुधार योजना का मूल्यांकन किया तथा 15राज्यों को चुना, उनमें से प्रत्येक को इसने 250मिलियन डालर दिए ताकि ये रेस टू द टाप के लिए प्रस्ताव लिखवाने हेतु सलाहकार नियुक्त कर सकें। नतीज़तन शिक्षा प्रदाताओं ने शिकायत की कि गेटस संघीय योजना हेतु स्वयं विजेताओं और हारने वालों का चुनाव कर रहा है। तब गेटस फाउण्डेशन ने अपनी रणनीति बदली तथा कहा कि यह हर उस राज्य को इमदाद मुहैया करवाएगी जो इसके द्वारा निर्धारित आठों मानदण्डों पर खरा उतरता हो। इनमें से एक मानदण्ड था अध्यापकों के सेवाकाल को सीमित करना।

गेटसफाउण्डेशन की 'कायापलटकारी चुनौती योजना, जो कि ओबामा प्रशासन की अद्र्ध-प्रशासनिक नीति है, का केंद्रीय फलसफा है कि 'जनांकिकी तक़दीर का फ़ैसला नहीं करती या 'विद्यालाई गुणवत्ता जिपकोड को मात दे सकती है।'कोर्इ बहाना नहीं’ के फलसफे वाली यह दलील कारपोरेटीय शिक्षा आंदोलन द्वारा बार-बार दुहरार्इ जाती है। 1966में आर्इ कालमन रिपोर्ट ने पाया कि जब सामाजिक कारकों पर नियंत्रण पा लिया जाता है तो 'स्कूलों के बीच भिन्नता शिक्षार्थियों की उपलबिधयों पर बहुत कम असर डालती है। इस अनुसंधान को चलते लगभग चार दशक हो चुके हैं और रूढि़वादी शिक्षा सुधारक इसी तरह के तर्कोंको हवा में उछालते हुए 'औप्लाब्धिक असफलता से निवारण का पूरा उत्तरदायित्व स्कूलों पर डाल देते हैं।

दसअसल, यूनिवर्सिटी आफ नार्थ कैरोलाइना से संबद्ध रूढि़वादी सांखियकीविद विलियम सैन्डर्स, जो कि विद्यालयों में 'वैल्यू आडिट मूल्यांकन का पक्षपोषक हैं, ने दो टूक कहा कि ''जितने भी आंकड़ों का हम अध्ययन करते हैं- कक्षा का आकार नस्ल, स्थान, ग़रीबी- ये सब आध्यापकीय सक्षमता के सामने फीके पड़ जाते हैं। अगर मुददा सिर्फ विद्यार्थियों की औसत उपलबिधयों को सुधारने भर का होता, जो कि नि:संदेह अध्यापकों पर निर्भर है, तो ऐसे खयाल की महत्ता भी होती। इसके विपरीत मुददा है भिन्नतामूलक वर्ग-जातीय पृष्ठभूमियों (वे विधार्थी भी शामिल है जो अतिनिर्धन और आवासविहीन हैं) से आने वाले विद्यार्थियों के मध्य औसत उपलबिध संबंधी विभेदकों को कम करना। स्कूलों और अध्यापकों को सिर्फ अपने बूते पर यह कार्य करने को कहना असंभव की मांग करने के समान है।

असल में औपलबिधक भिन्नता के संदर्भ में रूढि़वादियों के 'बहानेबाज़ी नहीं’ वाले फलसफे को स्वीकारने का मतलब है एक स्पष्ट यथार्थ की तरफ़ से आंखें बंद कर लेना- वह यथार्थ है बाल-गरीबी। एरिजोना स्टेट यूनिवर्सिटी में शिक्षा के प्रोफेसर डेविड बर्लिनर का कहना है कि यह बाल-गरीबी ही वह ''600पाउण्ड का गोरिल्ला है जो अमेरिकी शिक्षा पर बुरा असर डालता है। जैसा कि अर्थशास्त्री रिचर्ड रोथस्टीन ने 'वर्ग तथा विद्यालय’ में लिखा है :

यहनिष्कर्ष कि औपलबिधक भिन्नता 'अवनतिशील विद्यालयों का कुसूर है... भ्रांत एवं ख़तरनाक है। यह इस तथ्य का नकार करती है कि हमारे समाज जैसे वर्गित समाज में वर्गीय सामाजिक लक्षण किस प्रकार स्कूलों में शिक्षण को प्रभावित कर सकते हैं... लगभग आधी सदी से अर्थशास्त्रियों, समाजशास्त्रियों तथा शिक्षाप्रदाताओं के मध्य यह तथ्य बिल्कुल स्पष्ट तौर पर मान्य है कि सामाजिक तथा आर्थिक प्रतिकूलताओं तथा औपलबिधक असफलता में संबंध है। फिर भी ज्यादातर लोग इसके स्पष्ट निहितार्थ से बचते रहते हैं- कि निम्नवर्गीय बच्चों की औपलबिधक भिन्नता कम करने के लिए उनकी सामाजिक तथा आर्थिक दशा में सुधार करना अनिवार्य है, स्कूल सुधार मात्र से कुछ न होगा।

फिरभी रूढि़वादी शैक्षणिक मत यह जिद पाले हुए है कि विद्यार्थियों के जीवन को प्रभावित करने वाले इन वृहत्तर सामाजिक पहलुओं को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। हालांकि वे कभी-कभी स्वीकार तो करते हैं कि गैर-बराबरी, नस्लीय भेदभाव तथा ग़रीबी शैक्षणिक उपलबिधयों पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं, लेकिन ये कारक, उनका अगला तर्क होता है, उसके निर्धारक कारक नहीं हैं। इस मत के हिसाब से ऐसे स्कूलों की स्थापना संभव है जो जरूरतमंद विद्यार्थियों की उपरोक्त समस्याओं का व्यवसिथत रूप से खात्मा कर सकते हैं। इस तरह से विद्यार्थियों की उपलबिधयों संबंधी असल अवरोधकों हेतु स्कूल खुद ही उत्तरदायी हैं: जैसे उत्तरदायिता तथा मूल्यांकन की कमी तथा ख़राब शिक्षण। वर्गीय अक्षमता, बाल-गरीबी, नगरीय अवह्रसन, नस्लीयता आदि को 1960के दशक के फलसफे 'अभाव की संस्कृति’ के अंतर्गत देखा जाना चाहिए: इसके अंतर्गत गरीब एवं अल्पसंख्यक विद्यार्थियों को 'श्रेष्ठ मध्यवर्गीय श्वेत मूल्यों/संस्कृति को सफलता की कंजी के तौर पर अपनाने की सलाह दी जाती थी। एक ठेठ पूंजीवादी मान्यता को अभिव्यक्त करते हुए गेटस फाउण्डेशन इसरार करती है कि स्कूल सब विद्यार्थियों का 'उद्धार कर सकते हैं, इससे फर्क नहीं पड़ता कि उन्हें कैसी-कैसी असुविधाओं का सामना करना पड़ता है।

'कायापलटकारीचुनौती ने अपनी शुरुआत में ही स्वीकार किया कि एनसीबीएल के अंतर्गत स्कूलों की एक बहुत बड़ी संख्या को पुनर्संगठन की जरूरत है। 2009-10में ही ऐसे स्कूलों की संख्या 5हजार तक तय की गर्इ, यह देशभर में सिथत स्कूलों का 5फीसदी है। बड़ी समस्या यह है कि देशभर में कुल विद्यार्थियों का 35फीसदी तथा अल्पसंख्यक वर्ग के विद्यार्थियों का 2तिहार्इ हिस्सा निर्धन स्कूलों में पढ़ता है, इनका प्रदर्शन निम्न स्तर का रहा है। रिपोर्ट का दावा है कि औपलबिधक भिन्नता को खत्म करने में गरीबी एक बड़ी बाधा तो है, लेकिन यह कोर्इ 'अलंघ्य अड़चन’ नहीं है। बहुत कम मुआमलों में ऐसा होता है, जैसा कि प्रकीर्ण-आरेखों की एक श्रृंखला से स्पष्ट हुआ, कि अधिक गरीबी वाले स्कूलों का प्रदर्शन भी ऊँचा रहा है (एचपीएचपी स्कूल)। 'कायापलटकारी चुनौती’ के नज़रिये से ये एचपीएचपी स्कूल बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि ये ग़रीबी और स्कूल की प्रगति के मध्य सादृश्यता को गलत साबित करते हैं। ऐसे बिरले एचपीएचपी स्कूलों को गेटस फाऊण्डेशन चार्टर स्कूल या 'चार्टर जैसे स्कूल मानती है: ये विद्यालयी परिषद, परंपरागत पाठयक्रम, प्रमाणित शिक्षकों तथा शिक्षक संघों से मुक्त हैं तथा उच्च उत्पादकता वैल्यू एडिड वाले व्यावसायिक सिद्धांतों के अनुरूप कार्य करते हैं। जवाब साफ है : ''असफल स्कूलों का चार्टरीकरण किया जाए। लेकिन चूंकि स्कूलों अथवा जिलों ने इस विकल्प को तुरंत स्वीकार नहीं कर लिया था, अत: यह जरूरी हो गया था कि उन्हें ''चार्टर-संबंधी प्रविषिट-अंक या जिला-प्रशासित स्कूलों में''चार्टर जैसे नियमों और नियंत्रण में से चुनाव करने के लिए तैयार किया जाए। इस तरह से यह प्रक्रिया 'सार्वजनिक स्कूलों को चार्टर स्कूलों में उच्च प्रदर्शन दिखाने वाली प्रक्रिया के अनुकूल ढालने का बहुप्रतीक्षित साधन बन जाएगी- और अंतत: उनका चार्टरीकरण कर देगी।

ओबामाप्रशासन ने गेटस फाउण्डेशन के इस फलसफे का पालन किया है, जिला प्रशासित सार्वजनिक स्कूलों के मुकाबिल चार्टर स्कूलों को बढ़ावा दिया जा रहा है और जिला स्कूलों को चार्टर जैसे अभिलक्षणों को अपनाने के लिए तैयार किया जा रहा है। इससे संघीय वित्तीय मदद में कमी का ख़तरा पैदा हो गया है जबकि चार्टर स्कूलों की संख्या बढ़ती जा रही है।

चार्टरस्कूल बस नाममात्र के ही सार्वजनिक स्कूल हैं : वे सार्वजनिक वित्तपोषण पर निर्भर है और उन्हें अपने पास आए हर विधार्थी को दाखिल करना होता है। ये स्कूल एक 'चार्टर या अनुबन्ध के अनुसार चलते हैं, जो सार्वजनिक प्राधिकरण तथा स्कूल के संचालकों के मध्य उत्तरदायित्व की व्यवस्था करता है। इस तरह से ये स्कूल असल में संविदा द्वारा हस्तांतरित स्कूल है, निर्वाचित स्कूल परिषद तथा जिला प्रशासन से स्वतंत्र रहकर कार्य करते हैं, साथ ही सार्वजनिक स्कूलों पर लागू होने वाले बहुत से नियम भी इन पर लागू नहीं होते। सिद्धांतत: चार्टर की स्थापना कोर्इ भी कर सकता है (अभिभावकगण, शिक्षकगण, सामुदायिक सदस्य, गैर-मुनाफाकांक्षी संगठन या मुनाफाकांक्षी संगठन), व्यवहार में लेकिन यह प्रक्रिया कारपोरेटिया प्रबंधन शैली तथा 'निवेशक-हितार्थ’ प्रभुत्व की दिशा में बढ़ी है। यह या तो बड़े निजी निगमों के वित्तीय समर्थन तथा निर्देशन द्वारा घटित हुआ है, जैसा कि बहुत से गैर-मुनाफा चार्टर संघों के मुआमले में हुआ, या फिर मुनाफाधारित र्इएमओज द्वारा स्कूलों का सीधे ही नियंत्रण संभाल लेने की वजह से हुआ।

2005में हरीकेन कैटरीना की तबाही के बाद न्यू आर्लियेंस तुरता-फुर्ती सार्वजनिक स्कूलों का चार्टरीकरण कर दिया। जैसा कि 2010में डैनी वेल ने 'आपदा पूंजीवाद : न्यू आर्लियेंस में शिक्षा के चार्टरीकरण तथा निजीकरण का पुनरीक्षण में स्पष्ट किया, ''19से भी कम महीनों के दौरान (कैटरीना के बाद) न्यू आर्लियेंस में ज्यादातर सार्वजनिक स्कूलों का चार्टरीकरण कर दिया गया था और न सिर्फ सभी सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों को नौकरी से निकाल दिया गया था बल्कि सामूहिक सौदेबाजी का अधिकार अथवा अन्य किसी भी अनुबंध को चिन्दी-चिन्दी कर दिया गया। 2008तक चार्टरीकृत स्कूलों में आधे से ज्यादा विद्यार्थियों का नामांकन हुआ, जबकि कैटरीना हादसे से पहले यह अनुपात मात्र 2फीसदी था। इनमें से ज्यादातर स्कूल मुनाफाकांक्षी र्इएमओज द्वारा चलाए जाते हैं।

'रिथिंकिंगस्कूल्स की प्रबंधक संपादक बारबरा माइनर लिखती हैं कि हालांकि चार्टर स्कूल आंदोलन की शुरूआत प्रगतिशील थी लेकिन आज यह उन लोगों को आकर्षित करता है जो कि 'मुक्त बाजार, निजीकरण एजेंडे से संबंधित हैं। पिछले दशक के दौरान इन निजीकरण-लाभार्थियों का चार्टर स्कूल आंदोलन में प्रभुत्व बढ़ गया है।‘ या, जैसा कि प्रतिष्ठित शिक्षा-अन्वेषक डेबोरा मेर्इयर अपनी पुस्तक 'इन स्कूल्स वी ट्रस्ट’ में लिखते हैं ''चार्टर स्कूलों ने शुरू में जो उम्मीदें दिखार्इ थीं वे जल्द ही ध्वस्तहो गई, ये स्कूल एक जैसे चेन-स्टोर्स में बदल गए, इनका नियंत्रण स्वतंत्रमना 'मम्मी-पापा’ के हाथ में न था, जैसा कि हमने सोचा था, बलिक दुनिया के सबसे ताकतवर खरबपति इनके मालिक थे।

हारलेम चार्टर स्कूल्स- जिन्होंने 2010में आर्इ प्रति-सार्वजनिक स्कूल, प्रति-शिक्षक संघ डाक्यूमेंट्री फिल्म 'वेटिंग फार सुपरमैन’ का कीर्तिगान किया था- कुछेक छत्र-चार्टर स्कूल निगमों द्वारा चलाए जा रहे हैं। इन्हीं में से एक, द सक्सेस चार्टर नेटवर्क के 9सदस्यीय बोर्ड में से 7हेज फण्ड तथा निवेशक कंपनियों के निदेशक हैं, 8वां न्यू स्कूल्स वेंचर फंड (इसे गेटस तथा ब्रोड फाउण्डेशन से भारी मात्रा में धन मिलता है) का प्रबंधकीय सहयोगी है और 9वां इंस्टीटयूट आफ स्टूडेण्ट अचीवमेन्ट (कारपोरेट प्रायोजित गैर मुनाफा सगठन जिसे एटी & टी से काफी धन मिलता है, स्कूल पुनर्संगठन विशेषज्ञ) का प्रतिनिधि है। इस बोर्ड में न तो कोर्इ अभिभावक शामिल है, न कोर्इ शिक्षक तथा न कोर्इ सामुदायिक सदस्य ही। जैसा कि न्यूयार्क टाइम्स ने अभिव्यक्त किया-न्यूयार्क में हेज़ फण्डस ही चार्टर आंदोलन का 'उत्केन्द्र है। वित्तीय पूंजी सहज ही चार्टर स्कूलों की ओर आकर्षित है क्योंकि ये (1) सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित है लेकिन इनका प्रबंधन निजिगत है तथा बड़े निकायों द्वारा इनकी स्थापना रणनीतिक रूप से अहम स्थलों पर की गर्इ है, (2) ज्यादातर यूनिहनहीन (और यूनियनद्वेषी) हैं, (3) मूल्यांकन, डाटा संग्रहण तथा तकनीकीकरण पोषी हैं, (4) कारपोरेट किस्म के प्रबंधन हेतु तत्पर हैं, और (5) वित्तीय प्रबंधनाधारित बड़ी इमदाद के संग्रहकोष हैं।

गैर-मुनाफाकांक्षी चार्टर स्कूल भी निजी मुनाफा-उत्सर्जक रणनीतियों में भागीदार बन सकते हैं। जैसा कि माइनर ने लिखा है: ''लोग हार्लेम्स चिल्ड्रन जोन से भी पैसा बनाएंगे (यह हार्लेम के दो सबसे बड़े चार्टर संगठनों में से एक है जिनकी ‘वेटिंग फार सुपरमैन’ में प्रशंसा की गर्इ है) :
संगठन की 2008की गैर-मुनाफा कर रिपोर्ट के अनुसार इसके पास 194मिलियन डालर की परिसंपत्ति है। लगभग 15मिलियन डालर बचत अथवा अल्पकालिक निवेश में लगाए गए थे और 128मिलियन डालर एक हेज़ फण्ड में निवेशित थे। अब चूंकि ज्यादातर हेज़ फण्ड 2-20के फीस सिद्धांत पर काम करते हैं (2फीसद प्रबंधन फीस तथा हर प्रकार के मुनाफे का 20फीसद), कुछेक सौभाग्यशाली हेज़ फण्ड हार्लेम चिल्ड्रन्स जोन से हर साल लाखों डालर कमाएंगे।

औपलबिधकभिन्नता खत्म करने में चार्टर स्कूलों की भूमिका के बारे में चाहे जितनी ही हवा बांधी गर्इ हो, अनुमानित शैक्षणिक नतीजे हासिल नहीं हुए। 2003में विद्यार्थियों के संघीय एनएर्इपी मूल्यांकन के अनुसार देश भर में चार्टर स्कूल विद्यार्थियों ने सार्वजनिक स्कूल के विद्यार्थियों के बरअक्स कोर्इ महत्वपूर्ण बढ़ोतरी नहीं दिखार्इ (एक समान जातिगतनस्लीय पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों की तुलना), जबकि गरीब चौथे दर्जे के सार्वजनिक स्कूलों के विद्यार्थियों ने पाठन तथा हिसाब में चार्टर विद्यार्थियों को पीछे छोड़ दिया। सो, प्रामाणिक मूल्यांकन के इसके अपने संकुचित पैमानों के हिसाब से भी चार्टर स्कूल आंदोलन असफल ही रहा है।

फिलाडेलिफया ने 2009में घोषित किया कि वहाँ के चार्टर स्कूल असफल हो चुके हैं। हालांकि निजिगत प्रबंधन वाले 28में से 6प्राथमिक तथा माध्यमिक स्कूलों ने सार्वजनिक स्कूलों से बेहतर प्रदर्शन किया था, लेकिन 10का प्रदर्शन सार्वजनिक स्कूलों के मुकाबले कमतर रहा। कम-अज-कम चार चार्टर वित्तीय कुप्रबंधन, हितों के टकराव तथा भार्इ-भतीजावाद के मुआमलों में संघीय आपराधिक जांच के दायरे में थे। पेनिसलवेनिया के कुछेक चार्टरों के प्रबंधकों ने अपने चार्टरों के उत्पाद बेचने हेतु कम्पनियां खड़ी कर ली थीं।

अगरचार्टर स्कूल अच्छा प्रदर्शन करते हैं तो भी उनके खिलाफ यह अभियोग तो रहता ही है कि वे जरूरतमंद बच्चों का तयशुदा संख्या तक नामांकन नहीं करते। यूएस शिक्षा विभाग के राष्ट्रीय शिक्षा सांखियकी केन्द्र के भूतपूर्व एवं वर्तमान कमिश्नर जैक बक्ली तथा मार्क श्नाइडर ने 2002-03में एक अध्ययन द्वारा यह पाया कि वाशिंगटन डीसी के 37चार्टरों में से 24चार्टरों ने विशिष्ट शिक्षा विद्यार्थियों का कोटा पूरा नहीं किया था, जबकि 28में अंग्रेजी सीखने वाले विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व न्यून पाया गया।

चार्टरस्कूलों का बहुप्रशस्त कार्यक्रम रहा है नालेज इज पावर प्रोग्राम (केआर्इपीपी) गेटस, वाल्टन तथा ब्रोड फाउण्डेशन्स से लगातार धन मिलता रहता है। बाकी सभी सफल चार्टरों की तरह ही केआर्इपीपी भी लाटरी द्वारा विद्यार्थियों का नामांकन करता है- इससे प्रोत्साहित परिवारों के प्रोत्साहित तथा बेहतर विधार्थी ही नामांकन पाते हैं। केआर्इपीपी चार्टरों के तकाजे भी ज्यादा रहते हैं, विशिष्ट तक़ाज़ों की पूर्ति हेतु विद्यार्थियों को यहां सार्वजनिक स्कूलों की अपेक्षा 60फीसद अधिक वक्त बिताना होता है। ये भारी तकाजे जरूरतमन्द तथा निम्न-प्रदर्शन करने वाले विद्यार्थियों को चार्टर छोड़ने तथा फिर से सार्वजनिक स्कूल में जाने पर मजबूर कर देते हैं। 2008में सैन फैंसिस्को में केआर्इपीपी स्कूलों के बारे में किए गए शोध ने दर्शाया कि पांचवें दर्जे में चार्टर में आए विद्यार्थियों में 60फीसद आठवें दर्जे में पहुँचने तक स्कूल छोड़ चुके थे। रैविच कहते हैं : ''सार्वजनिक स्कूलों को, केआर्इपीपी छोड़कर आए विद्यार्थियों समेत, प्रत्येक प्रार्थी को स्वीकार करना होता है। वे उन बच्चों को स्कूल से निकाल नहीं सकते जो मेहनत नहीं करते, या जिनकी गैर-हाजिरियां ज्यादा हैं, या जो सम्मान प्रदर्शित नहीं करते या जिनके अभिभावक या तो अनुपसिथत रहते हैं अथवा लापरवाह हैं। उन्हें तो उन विद्यार्थियों को भी पढ़ार्इ में रमाने की कोशिश करनी होती है जो स्कूल में आना भी नहीं चाहते। यही सार्वजनिक स्कूलों की दुविधा है।

न्यूआलियेन्स में चार्टर स्कूलों ने अपंग विद्यार्थियों की अवमानना की। नतीज़तन, सदर्न पावर्टी ला सेन्टर ने 4500विकलांग विद्यार्थियों की तरफ से चार्टरों के खिलाफ वैधानिक प्रबंधकीय शिकायत दजऱ् करा दी। शिकायत में न्यू आर्लियेन्स के चार्टरों पर क्रमबद्ध तरीके से विकलांग शिक्षा कानून के प्रावधानों की अवहेलना का अभियोग लगाया गया है।

चार्टरस्कूलों की एक और लाक्षणिकता यह है कि न सिर्फ उनके विद्यार्थियों की ही जरूरत से ज्यादा रगड़ार्इ होती है (जैसा कि केआर्इपीपी स्कूलों में होता है), बलिक शिक्षकों की भी अधिक रगड़ार्इ होती है। वे अक्सर काम की अधिकता तथा कम तनख्वाह के विरोध में हड़ताल कर अपनी असहमति दर्ज कराते हैं। 1997से 2006के बीच राष्ट्रव्यापी स्तर पर हुए चार्टर स्कूल संबंधी एक अèययन में पाया कि नए चार्टर स्कूल शिक्षकों की सालाना 40फीसदी अधिक रगड़ार्इ होती है, चार्टर स्कूलों में लगभग 25फीसदी शिक्षक सालाना स्कूल छोड़ जाते हैं, यह सार्वजनिक स्कूलों के मुकाबले लगभग दो गुना है। सामान्यत: चार्टर स्कूल शिक्षकों को सार्वजनिक स्कूल शिक्षकों से कम तनख्वाह मिलती है, परवर्ती श्रेणी को मिलने वाली दूसरी सुविधाएं अलग से रहीं। मिशिगन सार्वजनिक स्कूल संबंधी एक शोध ने पाया कि जहां चार्टर स्कूलों के शिक्षकों को सालाना 31, 185डालर मिलते हैं वहीं सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षकों को 47,315डालर मिलते हैं।


चार्टर स्कूलों की एक बहुत बड़ी संख्य र्इएमओज के हाथों में है। ये मुनाफाकांक्षी कंपनियां चार्टर स्कूलों का प्रबंधन पूंजी संचयन के मकसद से करती है। बहुत सी फर्मेंमुनाफा बढ़ाने हेतु कर्इ तरह की रणनीतियां अपना चुकी हैं, शुरूआत हुर्इ श्रम की दर घटाने से। चार्टर स्कूल सामान्यत: यूनियनहीन हैं तथा कम वेतन देते हैं। वहां कार्यरत शिक्षकों के पास, जैसे कि टीच फार अमेरिका द्वारा मुहैया करवाए गए शिक्षक, अक्सर व्यवसायिक अèयापकीय प्रशिक्षण नहीं होता है। र्इएमओज के लिए राजकीय सेवानिवृत्ति व्यवस्था को मानना जरूरी नहीं है। हालांकि वे प्रतिस्पर्धात्मक आय दरों के अनुसार नियुकितयां करते हैं, फिर भी लाभ बहुत कम हैं तथा वरिष्ठता के साथ वेतन में वृद्धि की संभावना तो दूर की कौड़ी है। कक्षा का आकार अक्सर ही बड़ा होता है। र्इएमओज विद्यार्थियों को मिलने वाली सहायक सेवाओं पर भी कैंची चलाने की कोशिश करते हैं, जैसे: स्कूल लंच कार्यक्रम, यातायात तथा पाठयक्रमेतर गतिविधियां। वे अधिक सीमाबद्ध पाठयक्रम निर्धारित करते हैं जिसका अधिक ध्यानबुनियादी-योग्यताओं के परीक्षण पर रहता है। ये सभी प्रावधान निर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने की प्रामाणिक विधियाँ मानी जाती हैं।बहुत-से ताजा तथा विश्वसनीय अèययनों ने सुझाया है कि र्इएमओज चालित चार्टर स्कूल नस्लीय पृथक्करण की ओर भी प्रवृत्त हैं।

...अगली क़िस्त में जारी

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यू की वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

पूंजी का संरचनात्मक संकट और शिक्षा : यूएस परिघटना : चौथी/अंतिम क़िस्त

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जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
 - जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर
अनुवादः रोहित, मोहन  और सुनील

जॉन बेलेमी फ़ॉस्टर मंथली रिव्यू के संपादक हैं। वे, यूनिवर्सिटी ऑफ़ ऑरेगोन में समाजशास्त्र के प्रवक्ता और चर्चित पुस्तक ‘द ग्रेट फाइनेंसियल क्राइसिस’(फ्रैड मैग्डोफ़ के साथ) के लेखक हैं। उक्त आलेख 11अप्रैल 2011 को फ्रैडरल यूनिवर्सिटी ऑफ़ सेंटा कैटेरिना, फ्लोरिआनोपोलिस, ब्राजील में शिक्षा एवं मार्क्सवाद पर पांचवे ब्राजीलियन सम्मेलन (ईबीईएम) में उनके द्वारा दिए गए आधार वक्तव्य का विस्तार है।  इस लम्बे आलेख को हम ४ किस्तों में यहाँ दे रहे हैं. यह दूसरी क़िस्त है... 
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-सं.

शिक्षा-उदयोग संकुल

स्कूलों की पुनर्संरचना की प्रक्रिया ने निजी शिक्षा उदयोग को बढ़ावा दियाइसे भारी मुनाफ़ा कमाने वाले विकासमान क्षेत्र के तौर पर देखा जा रहा है। CNNMoney.com ने अपनी 16 मर्इ 2011 की रिपोर्ट में कहा कि स्वास्थ्य क्षेत्र के बाद शिक्षा क्षेत्र, 2007 की महान मंदी के उपरांतसर्वाधिक रोज़गार उपलब्ध करवाने वाला क्षेत्र रहा है। शैक्षणिक सेवा क्षेत्र तथा सार्वजनिक कालेजों में 303000 नौकरियां उपलब्ध करवार्इ गई।

2000 में ब्लूमबर्ग बिजनेस वीक ने शिक्षा क्षेत्र में निवेश संबंधी रिपोर्ट में स्कूलों के बाज़ारीकरण तथा निजीकरण की बढ़ती प्रवृत्ति की ओर इंगित किया। लेग्ग मेसन (एक वैशिवक परिसंपत्ति प्रबंधन फर्म) से जुड़े शिक्षा अन्वेषक स्काट साफेन ने अभिव्यक्त किया कि ''निजी शिक्षा की सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी है सरकारऔर वक्त के साथ मुनाफ़ा-अर्जक क्षेत्र इस व्यवसाय में सरकार को पीछे छोड़ देगा।

निजी शिक्षा उद्योग स्वभावत: ही मूल्यांकन तथा परीक्षण की नर्इ पद्धतियों का समर्थक है। 2005 में थिकइविटी पार्टनर्स एलसीसी  ने 'नया उद्योगनए स्कूलनया बाज़ार : के-12 शिक्षा उद्योग आउटलुक, 2005 शीर्षक से एज्यूकेशन इंडस्ट्री एसोसिएशन के लिए एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इसने पाया कि 2005 में ''500 बिलियन डालर के के-12घरेलू बाज़ार में निजी शिक्षा उद्योग का हिस्सा 75 बिलियन डालर (या कुल व्यय का 15 फ़ीसद) था। राजकीय एवं संघीय सरकारों द्वारा अपनाए जा रहे नए पैमानोंपरीक्षण तथा उत्तरदायित्व के मानदण्डों तथा चार्टर स्कूलों की वृद्धि के परिणामस्वरूप अगले 10 सालों में निजी शिक्षा उद्योग का हिस्सा 163 बिलियन डालर; के-12  शैक्षणिक बाज़ार का 20 फीसद तक बढ़ जाने का अनुमान लगाया गया। 2005 में के-12 ने शिक्षा उद्योग से 6.6 बिलियन डालर का संरचनात्मक तथा हार्डवेयर का सामान ख़रीदा, 8 बिलियन डालर की निर्देशात्मक सामग्री तथा 2 बिलियन डालर का मूल्यांकन (परीक्षण व्यवस्था) संबंधी सामान ख़रीदा। तकनीक पर किया गया ख़र्च (चूंकि साफ्टवेयर को निर्देशात्मक सामग्री में शामिल किया गया था) अनुमानत: 8 बिलियन डालर था। शिक्षा उद्योग की रिपोर्ट निष्कर्षत: कहती है कि यह प्रवृत्ति ''शिक्षा और उद्योग के गहराते समन्वयन को दर्शाती है। पैसा बनाने के ''बहुत से रास्ते” खुल रहे थे।

वृद्धिमान शिक्षा-उद्योग से अर्जित मुनाफ़े का बड़ा हिस्सा विशाल निगमों के पास जाने की संभावना हैख़ासतौर से एप्पलडेलआर्इबीएमएचपी काम्पैकपाम और टेक्सस इन्स्ट्रूमेन्टस (तकनीक)पीयर्सनहारकार्टमैक्ग्रा-हिलथामसन और हाटन मिफिलन (निर्देशात्मक सामग्री)सीटीबी मैक्ग्राहारकार्ट असेसमेन्टथामसनप्लेटो और रिनेसां (मूल्यांकन)और स्कोलेसिटकप्लेटोरिनेसांसाइंटिफिक लर्निंग और लीपफ्राग (परिशिष्ट निर्देशात्मक सामग्री) को बड़ा हिस्सा मिलने की संभावना है। थिंकइकिवटी के-12 रिपोर्ट में छोटी तकनीकी कंपनियों तथा नव्य-स्थापित परिशिष्ट निर्देशात्मक सामग्री उपलब्ध करवाने वाली फर्मों के हस्तगन की प्रक्रिया की ओर इंगित किया गया था। दरअस्लनिर्देशात्मक सामग्री बनाने वाली बड़ी कंपनियों द्वारा छोटी कंपनियों के अर्जन की प्रक्रिया पहले से ही शुरू हो चुकी थी। 9 कंपनियों के पास परीक्षण बाज़ार का 87 फ़ीसद हिस्सा था। कंप्यूटर हार्डवेयर तथा परीक्षणदोनों ही द्रुत वृद्धि वाले क्षेत्र माने गए।

जाने-माने शिक्षा अनुसंधानकर्ता तथा आलोचक जेराल्ड डब्ल्यू ब्रेसी ने 2005 में 'नो चाइल्ड लैफ्ट बिहाइंड : पैसा जाता कहा है? शीर्षक से एक रिपोर्ट प्रकाशित करवार्इ थीउन्होंने बड़ी पूंजीभ्रष्टाचार तथा रिश्वतखोरी पर ख़ास ध्यान दिया था। निजी शिक्षा क्षेत्र के प्रभाव को स्पष्ट करने वाला तथ्य यह है कि जार्ज डब्ल्यू बुश ने व्हाइट हाऊस में अपने प्रवेश के पहले दिन ही (एनसीएलबी के उदघाटन से कुछेक दिन पहले) अपने नज़दीक पारिवारिक मित्र तथा अपनी संक्रमणकालीन टीम के सदस्य मैक्ग्रा तृतीय के साथ मीटिंग की थी। ये मैक्ग्रा हिल के सीर्इओ हैं। बिजनेस राउण्डटेबलजो कि यूएस के 200 सबसे बड़े निगमों का प्रतिनिधित्व करता हैने एनसीएलबी का दृढ़ समर्थन किया था। स्टेट फार्म इन्श्योरेन्स का सीर्इओ एडवर्ड रस्ट जूनियरजिसकी एनसीएलबी के लिए बिजनेस राउण्डटेबल का समर्थन जुटाने में महती भूमिका रही थीएक साथ कर्इ पदों पर कार्यरत था- वह बिजनेस राउण्डटेबल के एज्यूकेशन टास्क फोर्स का चेयरमैन थामैक्ग्रा-हिल का बोर्ड सदस्य था और बुश की संक्रमणकालीन टीम का भी सदस्य था। ब्रसी के मुताबिक एनसीएलबी के अंतर्गत मुनाफ़ा-केन्द्रित शैक्षणिक सेवाओं की वृद्धि की प्रक्रिया एक 'हैरानकुन दोगलापन दर्शाती है-' सार्वजनिक स्कूलों के ऊपर कमरतोड़ दबाव डाला गयाइसके विपरीत 'स्कूलों को सामग्री और सेवाएं मुहैया करवाने वाले निगमों के साथ शिथिलता बरती गर्इ।

पूंजी से परे शिक्षा

नवउदारवादी स्कूल संशोधन आंदोलन तथा कारपोरेट मीडिया द्वारा शिक्षकों और शिक्षक संघों की निरंतर दुर्भावनापूर्ण निंदा ही अमेरिका में शिक्षण के क्षेत्र संबंधी संघर्ष की वास्तविक प्रगति को उजागर कर देती है। रैविच (जिसने डब्ल्यू.एच.बुश और किलंटन दोनों ही प्रशासनों के अंतर्गत काम किया थावह एनसीएलबी का पक्का समर्थक है) ने घोषणा की:

''कारपोरेट स्कूल संशोधन तो असल मक़सद को ढकने का बहाना भर है उनका मक़सद है ट्रेड यूनियनों को उखाड़ फेंकना। कारपोरेट स्कूल संशोधन चाहता है कि सामूहिक सौदेबाजी की इस परंपरा को विधान द्वारा समाप्त कर दिया जाएताकि यूनियनों से छुटकारा पाया जाए। लेकिन यूनियानों के खत्म होते ही बच्चों और कार्य की दशा के बारे में बोलने वाला कोर्इ न रहेगा....”

स्कूलों के बंद होने से आखिर खुशी किस को मिलती हैवाल स्ट्रीट हेज़ फण्डसडेमोक्रेटस फार एजुकेशनल रिफार्म (भेड़ की खाल में भेडि़ये)स्टैण्ड फार चिल्ड्रन (जिसे गेटस फाउण्डेशन से लाखों डालर मिलते हैं)द बिल्योनेयर क्लब (गेटसवाल्टनब्रोड)वाशिंगटन डी.सी. में बैठे रणनीतिकार जिनमें से लगभग सभी को गेटस फाउण्डेशन से पैसा मिलता है। ये बहुत से संपादकीय मण्डलों में पैठ रखते हैं। यह कारपोरेट संशोधन आंदोलन पूरा चकरघिन्नी है। और मैं ज़ोर देकर कहना चाहता हूँ कि हम सही ही इस पूरे शैक्षणिक संशोधन आंदोलन को कारपोरेट संशोधन का लेबल देते हैं।

पूंजीपति-निर्देशित ये नए स्कूल संशोधन ख़ासतौर से एक वजह से स्कूल शिक्षकों और उनकी यूनियनों को निशाना बनाते हैं : कि शिक्षकगण (हालांकि वे अक्सर राजनीतिक रूप से अक्रिय रहते हैं) अपने विधार्थियों पर थोपे जा रहे नए कारपोरेट शिक्षण तथा उनकी अपनी कार्यदशाओं के टेयलरवादीकरण (टेयलरार्इजे़शन) का विरोध करते हैं। शिक्षक खुद को शैक्षणिक व्यवसायिकों के तौर पर देखते हैंलेकिन अब तेज़ी से उनका सर्वहाराकरण किया जा रहा है। सोवे स्कूल पुनर्संरचना योजना तथा बच्चों के वस्तुकरण की प्रक्रिया के सर्वाधिक संभावनाशील विरोधी हैं। इसी वजह से नर्इ परीक्षण विधियां सबसे पहले शिक्षकों को ही निशाना बनाती हैं। वे मूल्यांकन करती हैंसिर्फ विधार्थियों का ही नहींबल्कि मुख्यतया इस बात का कि किस हद तक शिक्षकगण टेयलरवाद (टेयलरर्इज्म) के सामने झुके हैं- ये शिक्षण-विधि का नियंत्रण शिक्षकों से छीनने वाला प्रमुख हथियार है। डंकन ने बाज़ मौकों पर घोषित किया है कि 'रेस टू द टॉप’ की प्रमुख उपलबिध यह रही है कि इसने राज्यों पर दबाव बनाया है कि वे विधार्थी - मूल्यांकन परीक्षाओं के आधार पर शिक्षकों का मूल्यांकन करना तज दें।  जैसा कि रैविच ने 'महान अमेरिकी स्कूल व्यवस्था की मौत और जीवन’ में सुझाया है:

'शिक्षक संघों के बहुत से आलोचक हैं। इनमें उनके अंदर के लोग भी शामिल हैं जिनकी शिकायत है कि उनके नेता कारपोरेट सुधारों के विरूद्ध शिक्षकों का बचाव नहीं कर पाते... लेकिन मीडिया में छाए रहने वाले आलोचक यूनियनों को शैक्षणिक सुधारों की राह में मुख्य बाध के तौर पर देखते हैं। वे यूनियनों को दोषी ठहराते हैं क्योंकि यूनियनें परीक्षा-परिणामों के आधर पर शिक्षकों का मूल्यांकन नहीं होने देना चाहती। वे (आलोचक) चाहते हैं कि प्रशासनों को स्वतंत्रता हो कि वे उन शिक्षकों को नौकरी से हटा सकें जिनके विधार्थियों के अंक नहीं बढ़ रहे हैं तथा नए शिक्षकों की भर्ती कर सकें जो शायद परिणाम सुधार सकें। वे परीक्षा परिणामों को मूल्यांकन का अहम पैमाना बनाना चाहते हैं।

और अब उसी मूल बिन्दु की ओर लौटना मौजूं रहेगा जो कि 1970 में बोवेल्स और जिनटिस ने 'पूंजीवादी अमेरिका में शिक्षण में प्रतिपादित किया था- कि किसी भी ऐतिहासिक समय-काल में उत्पादन के सामाजिक संबंधों तथा शिक्षा के सामाजिक संबंधों में अनुरूपता पार्इ जा सकती है। इस राजनीतिक-आर्थिक नजरिये के हिसाब से वर्तमान में शिक्षा पर बढ़ रहे नवउदारवादी हमले के कारकों में एकाधिकारी-वित्तीय पूंजी के विशिष्ट द्योतक आर्थिक गतिरोधवित्तीयकरण तथा आर्थिक पुनर्संरचना को माना जा सकता है। आर्थिक वृद्धि में गिरावट नेजो कि 1970 के दशक में शुरू हुर्इसिर्फ़ आर्थिक मक़सदों तक सीमित रहने वाले संघर्षों (श्रमिकों के) को कमज़ोर किया। साथ ही समाज पर रूढि़वादियों तथा कारपोरेट ताकतों की प्रभुसत्ता बढ़ने से श्रमिकों के राजनीतिक केंद्र भी कमज़ोर पड़े। वित्तीय और सूचना पूंजी की सापेक्षिक बढ़त नेजिसे उत्पादन में ठहराव से प्रोत्साहन मिलास्कूलों में डिजिटल आधारित टेयलरवाद तथा कठोर वित्तीय प्रबंधन को और गतिशीलता प्रदान की। इसके साथ ही विषमतागरीबी तथा बेरोज़गारी भी बढ़ी क्योंकि पूंजी ने आर्थिक हानियों का बोझ श्रमिकों तथा ग़रीबों पर डाल दिया। अल्पवृद्धिबढ़ती विषमता तथा बढ़ती बाल-दरिद्रता से उत्पन्न दबावों के साथ-साथ जब राजकीय व्यय पर लगे नए प्रतिबंधों का भार भी जुड़ गया तो स्कूल एक भंवर में फंसते चले गए। सार्वजनिक स्कूलजो कि बहुत से समुदायों तथा बच्चों हेतु सामाजिक सुरक्षा का एक बड़ा सहारा थेढहते सामाजिक तथा आर्थिक ताने-बाने हेतु भरपार्इ करने के लिए ज़बरन इस्तेमाल किए गए।

इसी दौरान उभरे 'समृद्धों के विद्रोह’ की वजह से स्कूलों को मिलने वाली स्थानीय इमदाद भी जो कि संपत्तिगत कराधन पर आधारित थी- घटी। राज्य तथा संघीय सरकारें स्कूलों को इमदाद मुहैया करवाने पर मज़बूर हुईस्थानीय नियंत्रण घटा और अपने परंपरागत कारपोरेट प्रबंधन के लक्ष्यों के साथ कारपोरेट वित्तीयकरण माडल प्रभावी हो गया। सुधार हेतु शुरू की गर्इ परीक्षण एवं उत्तरदायित्व की विधियों की विफलता नेभले ही उनके मानदण्ड संकीर्ण होंसमस्या की जड़ के तौर पर शिक्षकों ओर शिक्षक संघों को इंगित किया और उन पर दबाव बनाया। 2007 में वित्तीय बुलबुले के फूटने से तथा इसके बाद आर्इ महान मंदी ने स्कूलों तथा शिक्षक संघों को और अधिक हानि पहुँचार्इ और शिक्षा के क्षेत्र में आपात-संकट की सी स्थिति ला दी।

हालांकि बजट मे के-12 शिक्षा का हिस्सा थोड़ा-सा बढ़ा भी, 2009 में यह 4.3 फ़ीसद तक पहुँचा। यह लेकिन शिक्षा के प्रति उत्तरदायिता की किसी भावना को नहीं दर्शाता है बल्कि महान मंदी के संदर्भ में सरकारी इमदाद के बरखि़लाफ निजी अर्थव्यवस्था की कमज़ोरी ज़ाहिर करता है। सरकारी ख़र्च की गिरती दशा के सूचक ये तथ्य हैं कि अमरीकी प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा पर ख़र्च 2001 में कुल सरकारी व्यय का 22.7 फ़ीसद हो गया तथा 2009 में यह 21 फ़ीसद हुआ - यह साफ़ तौर पर इंगित करता है कि कुल सरकारी व्यय में इसका हिस्सा गिरता जा रहा है।

निरंतर अधोगमन की इस सिथति में शिक्षकों पर बढ़ते दबाव और उनका मनोधैर्य तोड़ने की कोशिशें सार्वजनिक शिक्षण व्यवस्था पर सांघातिक प्रहार है क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षकगण शिक्षा-प्रसार (सिर्फ शिक्षण ही नहीं) को अपना उत्तरदायित्व समझकर इस दिशा में प्रयासरत रहे हैं- व्यवस्था के खि़लाफ़ जाकर भी। शिक्षक प्रभुत्ववाद के विरोध में खड़े हुए और वे उस ढ़हती स्कूली व्यवस्था को थामे हुए हैं जो कि उनके असाधारण संघर्ष की अनुपसिथति में अब तक ढह ही चुकी होती। स्टेटस आफ़ द अमेरिकन पब्लिक स्कूल टीचर के ताज़ा सर्वेक्षण के मुताबिक़ अधिकांश शिक्षक हर हफ़्ते 10 घंटे बिना भुगतान के अतिरिक्त कार्य करते हैं (40 घंटा हफ़्ता के इलावा) और औसतन सालाना 443 डालर कक्षा के बजट संसाधनों पर अपनी जेब से ख़र्च करते हैं। शिक्षकों के मज़बूत सामाजिक उत्तरदायिता भाव के बगै़र सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था बहुत पहले ही अपने अंतर्विरोधों का ग्रास बन चुकी होती।

पिछले कुछ दशकों में शिक्षकों की अधिसंख्या आर्थिक संकट तथा वर्गीय-नस्लीय समस्याओं द्वारा बच्चों पर डाले जाने वाले दुष्प्रभावों से निपटने हेतु चलने वाले प्रयासों में हिरावल की भूमिका में शामिल रही है। राष्ट्रीय मूल्यांकन की व्यवस्थाजो कि मुख्यत: शिक्षकों तथा शिक्षक संघों को निशाना बनाने हेतु तैयार की गर्इ हैचाहती है कि शिक्षा का निजीकरण कर दिया जाए तथा विदयार्थियों को नीरस कार्यशैली का मज़दूर-दास बना दिया जाए। इन सब चीज़ों ने शिक्षा को व्यवस्थागत संकट के केंद्र में लाकर खड़ा कर दिया है। बहुत से शिक्षकों को नौकरी से निकाल दिया गयाबहुत से खुद ही मरणासन्न सार्वजनिक स्कूलों को छोड़कर चले गए।

सार्वजनिक शिक्षा पर अवनतिशील समाजार्थिक परिस्थितियों के प्रभावों को मददेनज़र रखते हुएशैक्षणिक लक्ष्यों की प्रापित हेतु सुझार्इ गर्इ कोर्इ भी योजना जो विस्तृत सामाजिक समस्याओं और उनके प्रभावों को ध्यान में नहीं रखती हैएक भददा मज़ाक होगी। 1995 में 'टीचर्स कालेज रेकार्ड’ में जीन अनयन ने दशकों की अपनी गवेषणा का निष्कर्ष सार रूप में प्रस्तुत करते हुए कहा था:

यह तो स्पष्ट हो चुका है कि पिछले कर्इ दशकों से चलता आ रहा स्कूली सुधार अमेरिका के अंदरूनी शहरों में कुछ खास हासिल नहीं कर पाया है। असफल स्कूली सुधार के हालिया अन्वेषण (तथा बदलाव के नुस्खे़) शैक्षणिकप्रबंधकीय या वित्तीय पहलुओं को अलग-थलग करते हैं तथा ये अंदरूनी शहरी स्कूलों को ग़रीबी तथा नस्ल आदि सामाजिक सन्दर्भों से भी काट देते हैं... अंदरूनी शहरों में शिक्षा व्यवस्था की असफलता के संरचनागत कारक राजनीतिकआर्थिक तथा सांस्कृतिक पहलू वाले हैं। इन समस्याओं को हल करने के बाद ही अर्थपूर्ण स्कूल संशोधन योजनाएं लागू की जा सकती हैं। समाज की ग़लतियों का ख़ामियाजा स्कूलों से नहीं भरवाया जाना चाहिए।

पिछले कुछ दशकों मेंसामाजिक पतन तथा इसके साथ ही स्कूलों पर बढ़ते हमलों का जवाब शिक्षकों ने विदयार्थियों का और बड़ा मददगार बनकर दिया है। साथ ही वे राजनीतिक गतिविधियों से भी बचते रहे हैं। लेकिन अब परिदृश्य बदल रहा है। आखि़रकार अमेरिका में शिक्षकोंअभिवावकोंविदयार्थियों तथा सामुदायिक सदस्यों का राजनीतिक प्रतिरोध उभार रहा है- हालांकि अभी से यह नहीं तय किया जा सकता कि यह इंगित क्या करता है।

2010 में एक हार्इस्कूल अध्यापिका तथा काकस आफ़ रैंक एण्ड फाइल एज्यूकेशन (कोर) की नेता कैरोन लुर्इस ने इससे पहले लगातार दो बार यह चुनाव जीत चुके अपने रूढि़वादी प्रतियोगी को हराकर शिकागो शिक्षक संघ के अध्यक्ष पद का चुनाव जीता। यह शिकागो (जो कि डंकन का गृहनगर है) के शिक्षकों की अपनी नौकरीकार्यदशाओं तथा बच्चों के भविष्य के लिए लड़ने की अभिलाषा से ही संभव हुआ। यह संगठन (कोर) शिकागों में डंकन की स्कूलबंदी तथा स्कूलों को राजपत्रित करने वाली ''कायापलटकारी परंपरा के विरूद्ध एक तृणमूल प्रतिरोध के रूप में उभरा।

अप्रैल 2011 में डेट्रायट में विदयार्थियों ने पुरस्कृत तथा सम्मानित कैथरीन फग्यर्ुसन अकादमी की तालाबंदी रुकवाने हेतु विरोध प्रदर्शन किया। यह अकादमी गर्भवती माताओं और कुमारियों के लिया बना एक राजकीय स्कूल है तथा उस जिले में 100 फ़ीसद कालेज दाखि़ले का रेकार्ड रखता है जहाँ एक-तिहार्इ विदयार्थी स्नातक कर ही नहीं पाते। जब शांतिपूर्वक धरने पर बैठे हुए विदयार्थियों तथा उनके समर्थकों को गिरफ़्तार कर लिया गया तो इसे पूरे राष्ट्र की तवज्जह मिली। डेट्रायट पब्लिक स्कूल के आपातकालीन मैनेज़र राबर्ट बाब के आदेश से बड़ी संख्या में स्कूल बंद किए जा रहे हैं। बाब ब्रोड सुपरिन्टेन्डेन्टस अकादमी से 2005 में स्नातक हुआ था। उसे ब्रोड और केलोग्ग फाउण्डेशन से 1.45 लाख डालर का वेतन मिलता है। यह हैरत की बात नहीं है कि बाब की प्रबंधन रणनीति को कुछेक लोग वित्तीय मार्शल ला भी कहते हैं। अप्रैल 2011 में डेट्रायट के सभी 5,466 शिक्षकों को निलंबन के नोटिस थमा दिए गए।

2011 में विस्कानिसन के गवर्नर स्काट वाकर द्वारा उस राज्य में सार्वजनिक क्षेत्र से यूनियनों का खात्मा करने की कोशिश ने वर्ग संघर्ष को और अधिक गहन कर दिया। यह श्रमिक-समुदाय और पूंजी के बीच संघर्ष को एक नया आयाम दे सकता है। वाकर की कार्यपद्धति के विरुद्ध एक आम विरोध के रूप में मर्इ 2011 में बाब पीटरसन को 8,000 सदस्यी मिलवाउकी शिक्षक शिक्षा संघ का अध्यक्ष चुना गया। बाब पांचवीं श्रेणी के अध्यापक हैं और 'रिथिंकिंग स्कूल्स’ के संस्थापक संपादक हैं।

पूरे मर्इ 2011 के दौरान राजकीय स्कूलों के सफ़ाए की प्रक्रिया के विरोध में चले राष्ट्रव्यापी गतिरोधों में अध्यापकोंविधार्थियों तथा अभिभावकों ने शिरकत की। 9 मर्इ 2011 को हज़ारों अध्यापकोंविधार्थियों तथा उनके समर्थकों ने सार्वजनिक शिक्षा के बचाव हेतु हफ़्ते भर चलने वाले 'आपद-काल की शुरूआत की। 9 मर्इ को कैलिफार्निया की राजधानी सैक्रामेन्टों में चल रहे विरोध प्रदर्शनों में शामिल 65 शिक्षकोंविधार्थियों तथा उनके समर्थकों को गिरफ़्तार कर लिया गया। 12 मर्इ को कैलिफार्निया शिक्षक संघ के अèयक्ष समेत 27 और लोगों को गिरफ़्तार किया गया। ये विरोध प्रदर्शन विदयार्थियों और शिक्षकों (जो कि खुद को कर्मचारी समझते हैं) के बीच एक गठजोड़ की ओर इशारा करते हैं जो कि सत्ता के लिए ख़तरे की घण्टी है।

कैलिफार्निया के गवर्नर जैरी बाऊन ने स्कूलों पर बढ़ते हमलों के विरोध में हुए इन प्रदर्शनों का संज्ञान लेते हुए मर्इ 2011 के बजटीय खाके में एक दूसरी ही राह पकड़ी तथा इंगित किया कि वह बेलगाम राजकीय परीक्षण पद्धति पर नियंत्रण लगाएगा ब्राउन ने कहा: ''शिक्षकों को टैस्ट हेतु पढ़ाने पर ज्यादा ध्यान लगाना पड़ता हैइस तरह से उनकी रचनाशीलता तथा विदयार्थियों के साथ उनका मेलजोल दब जाते हैं। राजकीय और संघीय प्रशासक क्लासरूम से बाहर रहकर ही शिक्षण पर अपने प्रभुत्व का केन्द्रीयकरण करते रहते हैं। ब्राउन का कहना है कि वह ''स्कूलों में राजकीय परीक्षण को दिए जाने वाले समय को घटाना चाहता है तथा ''नियंत्रण स्कूल प्रबंधकोंशिक्षकों तथा अभिभावकों को लौटाना चाहता है। ब्राउन स्टेट लांगिटयूडिनल डाटा फार एजयूकेशन (मौजूदा डाटाबेस को समाहित करते हुए विदयार्थी मूल्यांकन डाटा को लंबे समय तक एकत्रित करने की योजना) की फंडिंग स्थगित करने में प्रयासरत हैसाथ ही इसी तजऱ् पर बनने वाले शिक्षक डाटाबेस सिस्टम को भी ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी में है। उसने कैलिफार्निया के अटार्नी जनरल के तौर पर पहले भी कहा हे कि ''नतीज़ों की निम्नतर गुणवत्ता से ग्रसित स्कूलों की समस्याएं समुदायों की सामाजिक और आर्थिक परिसिथतियों में अवसिथत हैं।

सार्वजनिक स्कूलों के निजीकरण की प्रक्रिया की मुख़ालफ़त करने वाले प्रतिरोध आंदोलनों का रणनीतिक लक्ष्य सिर्फ़ मौजूदा स्कूल व्यवस्था को बचाना भर नहीं होना चाहिए। बल्कि इस आपातकाल का उपयोग शिक्षा के प्रति एक क्रांतिकारी नज़रिये की बुनियाद डालने के लिए किया जाना चाहिए- ऐसी शिक्षा व्यवस्था जो सामुदायिक स्कूलों पर आधारित हो। यह जेम्स और ग्रेस ली बोगस के 'डेट्रायट केंद्र’  के ''वैकलिपक शिक्षा संभव है” में प्रतिपादित लक्ष्यों के अनुसार किया जा सकता है। ग्रेस ली बोग्स के अनुसार हमें अपने बच्चों को शिक्षा के साथ-साथ सामुदायिक प्रतिभागिता की प्रक्रिया में लगाना चाहिएउसी तरह जिस तरह नागरिक अधिकार आंदोलन ने उन्हें अलगाववाद-विरोध में लगाया था। रैडिकल शिक्षा सिद्धांतकार बिल आयर्स में एनसीएलबी तथा रेस टू द टाप की मुख़ालफ़त में ''हर इंसान अतिशय महत्वपूर्ण है के सिद्धांत के आधार पर ''स्वतंत्रवादी शिक्षा तथा स्वतंत्र स्कूलों के पुनर्निर्माण के माडल का आहवान किया है। रैडिकल शिक्षाशास्त्री आत्म-समावेशी शिक्षण की प्रक्रिया का महत्व इंगित करते रहे हैं। मार्क्स और पाआलो फ्रेयरे की लाइन में वे स्वतंत्रतामूल अध्यापन का बुनियादी सवाल इस प्रश्न को मानते हैं कि ''शिक्षक को कौन शिक्षित करता हैइस पद्धति में विदयार्थियों को केन्द्रीय पात्र के तौर पर देखा जाता है।

हमें इसे एक रैडिकल संघर्ष के तौर पर लेना चाहिए। इसी तरह के कारपोरेट स्कूली सुधार की पूरी दुनिया में लागू किए जा रहे हैंब्राज़ील भी उन्हीं में से एक उदाहरण है।

बहुत कुछ दांव पर लगा है। मर्इ 1949 में मन्थली रिव्यू के पहले अंक में प्रकाशित अपने लेख 'समाजवाद क्यों’ में अल्बर्ट आइंस्टीन ने लिखा था:

“...व्यकित को पंगु बना डालना मेरे तईं पूंजीवाद का सबसे बदनुमा पहलू है। हमारी पूरी शिक्षा व्यवस्था इसी बुरार्इ से निकली है। विदयार्थियों में अतिशय प्रतिस्पर्धा की भावना भर दी जाती हैउन्हें कैरियर के तौर पर लालसा मूलक सफलता की पूजा करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। मेरे ख़्याल मेंएक समाजवादी अर्थव्यवस्था तथा सामाजिक लक्ष्यों द्वारा अनुप्राणित शिक्षा व्यवस्था की स्थापना के द्वारा ही इन बुराइयों को खत्म किया जा सकता है। ऐसी अर्थव्यवस्था में उत्पादन के साधनों का नियोजन समाज द्वारा किया जाता है तथा योजनाबद्ध तरीके से उनका इस्तेमाल किया जाता है। एक नियोजित अर्थव्यवस्था उत्पादन को समाज की जरूरतों के हिसाब से व्यवसिथत करेगीकार्य का सभी सक्षम लोगों के बीच बंटवारा करेगी तथा सभी मर्दोंऔरतों तथा बच्चों की जीविका की गारण्टी दे सकेगी। तब शिक्षा- हमारे वर्तमान समाज में सत्ता और सफलता के गुणगान के विपरीत-व्यकित की सहज योग्यताओं के विकसन के साथ-साथ उसमें अपने साथी मानवों के प्रति उत्तरदायिता की भावना का भी विकास करेगी।...”
आइंस्टीन के लिए शिक्षा तथा समाजवाद अंतरंग तथा द्वंदात्मक रूप से जुड़े हुए थे। सामाजिक परिवर्तन तथा नियोजन संबंधी यह नज़रिया मानता है कि शिक्षा हमारी जीवन-पद्धति का हिस्सा होनी चाहिएउसे सिर्फ शिक्षण तक महदूद न कर दिया जाना चाहिए।

मेरा मानना है कि हमें एक लंबे संघर्ष के लिए खुद को तैयार करना चाहिए जो अन्य चीज़ों के साथ-साथ समुदाय-सम्बद्ध शिक्षा की स्थापना करे तथा जो लोगों की असल तथा बुनियादी जरूरतों से पैदा हो। इस तरह की 'समुदाय-केन्द्रित तथा व्यकित आधरित शिक्षा- जिसकी शुरूआत तो स्कूल से हो किन्तु उसका विस्तार बृहत्तर समाज तक किया गया हो- शिक्षा के प्रति गहनतम सम्मान-भाव के द्वारा ही पार्इ जा सकती है। ऐसा सम्मान-भाव जो कि एक जीवन-पद्धति हो और स्थार्इ समता पर आधारित समाज के निर्माण की अपरित्याज्य पूर्व शर्त हो।

समाप्त.

अंग्रेजी में इस आलेख को मंथली रिव्यू की वेबसाईट में पढ़ा जा सकता है.

महिषासुर शहादत दिवस आयोजन और कुछ सवाल

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-अतुल आनंद 
अतुल आनंद 
विगत वर्षों में देश के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय जेएनयू में दलित और पिछड़े वर्गों के छात्रों के संगठन की तरफ से हुई एक चर्चित मुहीम ‘महिषासुर शहादत दिवस’, प्रसार पा कर देश के बहुत सारे इलाकों में फैली है. उसने समाज में व्याप्त ब्राह्मणवादी सोच और वर्चस्व के कारण कई जगह विरोध भी झेला. ब्राह्मणवाद के खिलाफ एक सांस्कृतिक प्रतिरोध के तौर पर शुरू हुई यह पहल, हिन्दू धर्म के भीतर व्याप्त अमानवीय ‘जाति व्यवस्था’ के खिलाफ एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया हो सकती है लेकिन यह ‘ब्राह्मणवादी संस्कृति’ पर कितनी चोट करेगी यह अभी संसय का विषय है. हिन्दू समाज मिथकीय इतिहास की जमीन पर खड़ा है. इसके भीतर पसरा ब्राह्मणवाद इन्हीं मिथकों से सिंचित होता है. संभवतः उक्त आन्दोलन की अपने नए मिथक गढ़ ब्राह्मणवाद को मात देने की समझदारी हो. लेकिन यह नए किस्म के मिथक नए किस्म के ब्राह्मणवाद का भी उभार करेंगे.  
अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि इतिहास की मिथकीय दृष्टि ने समूचे समाज को जितना नुक्सान पहुंचाया है अकेले इतना नुक्सान किसी और चीज ने नहीं पहुंचाया. इतिहास में ब्राह्मणवाद/हिन्दू धर्म को सबसे पहले और प्रभावी चुनौती ‘बुद्ध’ ने दी. ब्राह्मणवाद/हिन्दू धर्म के विकल्प के तौर पर उन्होंने जो दर्शन दिया वह पर्याप्त वैज्ञानिक और भौतिकवादी होने के बावजूद, अन्य धर्मों की तरह ही भ्रष्ट हुआ. उसकी वजह उनकी वह मजबूरी साबित हुई कि तत्कालीन समाज में जब धर्म के कोई विकल्प स्वीकार्य न होते उन्हें अपने दर्शन को धर्म की ही शक्ल में ही देने की मजबूरी थी. मूलतः यही बाद में ब्राह्मणवाद द्वारा इस धर्म को पतित करने का कारण बना. आज जब समाज में ब्राह्मणवाद को ज्यादा वैज्ञानिक और तार्किक ढंग से बेनकाब किये जाने के विचार मौजूद हैं और प्रगतिशील लोगों की एक बड़ी तादात इन विचारों से ब्राह्मणवाद के हजारों साल पुराने स्तम्भ को गिराने की कवायद में जुटी है. नए मिथकों को स्थापित कर दमित समाज को एक अँधेरे से निकाल दूसरे अँधेरे में धकेलने का क्या अर्थ होगा? बेशक उक्त आन्दोलन दलित और पिछड़े छात्रों/समाजों की स्वाभाविक गोलबंदी करने में सफल होगा. लेकिन इसका क्या हासिल? 
यहाँ हम अतुल आनंद का महिषासुर शहादत दिवसके इस तीन साला अनुभवों का विश्लेषण करता एक आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं. अतुल मूलतः महिषासुर शहादत दिवसके आयोजन को, praxis की इस सम्पादकीय टिपण्णी के इतर एक जायज आन्दोलन मानते हैं, पर उन्होंने विगत वर्षों में इस आन्दोलन में आई कुछ प्रवृत्तियों को पकड़ने की कोशिश की है जो इस आन्दोलन को प्रतिगामी दिशा में धकेल सकता है. यह आलेख पढ़ना इस टिपण्णी से सहमत-असहमत दोनों किस्म के पाठकों के लिए जरूरी होगा... 
-संपादक

वाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जेएनयू), दिल्ली से शुरू हुए महिषासुर शहादत दिवसआयोजन की यह तीसरी सालगिरह है। जेएनयू में एक पिछड़े वर्ग के छात्र संगठन द्वारा साल 2011 में शुरू किए गए इस राजनीतिक-सांस्कृतिक आंदोलन का असर इस साल उत्तरप्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल के भी कई हिस्सों में देखने को मिला जब इन जगहों पर पहली बार महिषासुर शहादत दिवस जैसे आयोजन किए गए। झारखण्ड और पश्चिम बंगाल में रहने वाले एक आदिवासी समुदाय का नाम असुर है जो महिषासुर को अपना पूर्वज मानते हैं और दुर्गा पूजा के दौरान शोक मनाया करते हैं। असुर आदिवासियों के अलावा भी दूसरे आदिवासी समुदायों के लोककथाओं के अनुसार महिषासुर एक आदिवासी सरदार था जिसे आर्यों ने दुर्गा को भेज छल से मरवा दिया था ताकि आर्य उस वन संपदा को लूट सके जिसकी रक्षा आदिवासी कर रहे थे। वहीं बिहार और उत्तरप्रदेश की पिछड़ी जातियों, खासकर यादव (ग्वाला, अहीर) जाति, द्वारा महिषासुर को गो-पालक यादवों के राजा के रूप में माना जा रहा है। उत्तरप्रदेश के यादव शक्तिपत्रिका में छपे एक लेख और फॉरवर्ड प्रेसमासिक पत्रिका के अक्टूबर 2011 अंक में प्रेमकुमार मणि के लेख किसकी पूजा कर रहे है बहुजन?” में भी महिषासुर को गोवंश पालक समुदाय का राजा बताया गया था। जेएनयू में शुरू हुए महिषासुर शहादत दिवस आयोजन के पीछे प्रेमकुमार मणि के लेख की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी।




ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतिरोध के इस आंदोलन की धमक देश के दक्षिणी हिस्से में भी देखने को मिली जब इस साल के सितंबर माह में इंग्लिश एंड फॉरेन लैंग्वेज यूनिवर्सिटी (ईएफएलयू), हैदराबाद के कुछ छात्रों द्वारा असुर सप्ताह’ (असुर वीक) का आयोजन किया गया। इस अवसर पर छात्रों ने भारतीय इतिहास की पुनर्विवेचना और विश्विद्यालयों में धर्मनिरपेक्षता की परिभाषापर परिचर्चा और दूसरे रचनात्मक आयोजन किए थे। इस आयोजन में समाज के सभी वर्ग से आनेवाले छात्रों ने हिस्सा लिया था। उनके इस प्रयास को विश्वविद्यालय के सामंती और ब्राह्मणवादी प्रशासन के दंडात्मक कारवाई को झेलना पड़ा। ईएफएलयू छात्र संघर्ष समिति पहले भी समाज के कमजोर तबके से आए छात्रों के प्रति विश्विद्यालय प्रशासन के भेदभावपूर्ण रवैये के खिलाफ संघर्ष करती आई है। समिति ने यह आरोप लगाया है कि विश्विद्यालय प्रशासन ने इस आयोजन को लेकर पहले तो कोई आपत्ति जाहिर नहीं की लेकिन आयोजन हो जाने के बाद बिना किसी सूचना के सीधे कानूनी कारवाई का रास्ता अपनाया। ऐसे मामलों में विश्विद्यालय स्तर पर पालन किए जाने वाले तमाम प्रक्रियाओं को दरकिनार कर विश्विद्यालय प्रशासन ने उस्मानिया थाने में भादवि की धारा 153 (A)  के अंतर्गत विभिन्न समूहों के बीच धर्म, नस्ल, जन्मस्थान, निवास, भाषा इत्यादि के आधार पर वैमनस्य फैलानेका गंभीर आरोप लगा प्राथमिकी दर्ज कर दी। इस मामले में छ: विद्यार्थियों को आरोपी बनाया गया है जिनमें से चार छात्र समाज के वंचित तबके से आते हैं और बाकि दो लड़कियाँ हैं। ईएफएलयू के छात्र अभी भी इस मामले को लेकर संघर्ष कर रहे हैं। वैसे विश्वविद्यालय प्रशासन इस मामले को लेकर अदालत जाता हुआ नहीं दिख रहा है। विश्वविद्यालय प्रशासन ने जिस तरह से इस मामले को लेकर प्रतिक्रिया की, उससे इसकी काफी किरकिरी भी हुई है। विश्वविद्यालय प्रशासन पर भारी दबाव है कि वह इस मामले को वापस ले।

कुछ इसी तरह का प्रशासनिक विरोध जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस आयोजन की शुरुआत करने वाले छात्रों को इस आयोजन के पहले साल में झेलना पड़ा था। हालांकि जल्द ही इस मामले को सुलझा लिया गया था। इस सांस्कृतिक आंदोलन से दक्षिणपंथी संगठनों के भवों पर भी बल पड़ा है जो कभी इस आंदोलन को हिन्दू धार्मिक भावना को आहत करने वाला प्रयास बता रहे हैं तो कभी इसे मूखर्तापूर्ण करार दे रहे हैं। जेएनयू में जब पहली बार महिषासुर शहादत दिवस आयोजन किया जाना था तब इस मुद्दे को लेकर एक दक्षिणपंथी छात्र संगठन ने तो आयोजन करने वाले छात्रों के साथ मार-पीट भी की थी।

लेकिन
 इस सांस्कृतिक आंदोलन के लिए सामंती एवं फासीवादी विरोध उतना बड़ा ख़तरा नहीं है जितना कि ब्राह्मणवाद के आदर्शों और कर्मकाण्डों द्वारा समाहित कर लिए जाने का ख़तरा। बुद्ध ने हिन्दू धर्म के कर्मकाण्डों और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के विरोध में बौद्ध दर्शन की व्याख्या की थी। उन्होंने बौद्ध धर्म को हिन्दू कर्मकाण्डों से बचाने की पूरी कोशिश की थी। उन्होंने खुद को भगवान की उपाधि देने से भी दूर रखा। लेकिन जब ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने पाया कि वह बुद्ध और उसके दर्शन से जीत नहीं सकती तो बुद्ध को हिन्दू धर्म का अवतार घोषित कर भगवान बना दिया गया।

महिषासुर शहादत दिवस आयोजन जैसे सांस्कृतिक प्रतिरोध के आंदोलन का भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के जाल में फँस जाने का खतरा है। खासकर जब इस प्रतिरोध की संस्कृति को विकसित करने के लिए ब्राह्मणवादी प्रतीकों का इस्तेमाल किया जा रहा हो। जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस आयोजन में महिषासुर के जिस चित्र का उपयोग किया जाता है वह चित्रकार लाल रत्नाकर द्वारा बनाया गया था। संभवत: अनजाने में ही इस चित्र को ब्राह्मणवाद के प्रतीकों से भर दिया गया है। इस चित्र में गोवंश पालक समुदाय के राजा महिषासुर को भगवान कृष्ण की तरह सिर पर मोरपंख लगाए दिखाया गया है। महिषासुर के पीछे किसी हिन्दू देवी-देवता की तरह आभामंडल भी बनाया गया है। हिन्दू मिथकों में वर्णित काले रंग वाले असुरों के विपरीत इस महिषासुर का रंग गोरा है और माथे पर तिलक है। हद तो यह है कि महिषासुर, जो की एक सामान्य मनुष्य रहा होगा, को किसी भगवान की तरह आशीर्वाद की मुद्रा में दाँया हाथ उठाए दिखाया गया है।

इन ब्राह्मणवादी प्रतीक चिन्हों के अलावा भी इस आंदोलन के वैचारिक स्तर पर कई ऐसी खामियाँ हैं जो इस प्रतिरोध के आंदोलन को असफल बना सकती है। टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान, मुंबई में इस साल 13 अक्टूबर को महिषासुर शहादत दिवस आयोजन के अवसर पर संस्थान के डेवलपमेंट स्टडीज विभाग में सहायक प्राध्यापक पार्थसारथी मंडल हिन्दू मिथकीय इतिहास और दलित-आदिवासी विमर्शविषय पर परिचर्चा में वक्ता थे। संयोग से मंडल जी जेएनयू के छात्र रह चुके हैं। इस विषय पर बोलते हुए मंडल जी ने कहा है कि यह दुर्भाग्य की बात है कि हम भारतीय खुद को आधुनिक और उत्तर-आधुनिक समझते हैं लेकिन खुद को और इस देश को समझने की हमारी क्षमता बस हिन्दू मिथकीय इतिहास तक ही सीमित है। हम इस मिथकीय इतिहास को परखने और इसके समानांतर चलने वाली दूसरी आदिवासी और क्षेत्रीय लोककथाओं को जानने की ज़हमत नहीं उठाते है। मंडल जी ने यह भी कहा कि देश में महिषासुर शहादत दिवस के रूप में ब्राह्मणवादी संस्कृति के विरोध के आंदोलन को समस्या के तत्क्षण इलाज के रूप में नहीं देखना चाहिए। हिन्दू धर्म की इन परम्पराओं की जड़ें काफी गहरी हैं। देश के बहुजन इन परम्पराओं से भावनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं। हिन्दू धर्म की तुलना इस्लाम या ईसाईयत जैसे धर्मों से नहीं बल्कि रोमन और ग्रीक सभ्यताओं से होनी चाहिए। हिन्दू धर्म की संस्थापक ब्राह्मणवादी शक्तियाँ बहुत ही दूरदर्शी रही थीं। उन्हें आने वाले समय में हिन्दू धर्म के समक्ष आने वाली समस्याओं का पहले से ही अनुमान था। इस वजह से हिन्दू धर्म को विरोधाभासों से भर दिया गया ताकि इसके खिलाफ़ होने वाले आन्दोलनों की लड़ाई मुश्किल हो जाए। एक तरफ़ तो हिन्दू धर्म वसुधैव कुटुम्बकमके जरिए समानता की बात करता है वहीं दूसरी तरफ़ इस धर्म की आत्मा जाति व्यवस्था के रूप में असमानता पर आधारित व्यवस्था है।

दुर्गा
 पूजा इस विरोधाभास का एक अच्छा उदाहरण है। जहाँ पुराणों के पहले वेद में नारी पूजा का कोई प्रावधान नहीं था, उलटे स्त्रियों को निकृष्ट समझा जाता था वहीं अचानक मार्कण्डेय पुराण ने पुरानी परम्पराओं के विपरीत शक्ति पूजा का प्रचलन शुरू किया। मंडल जी के अनुसार इस परिवर्तन के पीछे वजह यह रही थी कि चौथी से सातवीं सदी के दौरान, जिस वक्त मार्कण्डेय पुराण रचा गया, उस वक्त आर्यों का सामना उत्तर भारत की सभ्यताओं से हो रहा था जिनमें कई मातृ-सत्तात्मक थीं। आर्यों ने इन सभ्यताओं से मुकाबला करने के लिए मार्कण्डेय पुराण के माध्यम से दुर्गा के रूप में एक स्त्री की परिकल्पना की जो एक असुर पुरुष का वध करती है, लेकिन दुर्गा को स्त्रीवादी समझना भारी भूल होगी। मार्कण्डेय पुराण की कथा के अनुसार देवता असुरों के बल-पराक्रम से पराजित हो कर त्रिदेवों के पास मदद माँगने गए थे। त्रिदेव भी महिषासुर से लड़ने में अक्षम थे इस वजह से दुर्गा की रचना की गयी। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि जन्म देने का काम स्त्री का होता है, जबकि यहाँ तीन पुरुष देव मिलकर एक स्त्री का निर्माण करते हैं जो अंततः देवताओं के हाथ की कठपुतली साबित होती है। दुर्गा को नारी शक्ति समझना भूल है क्योंकि दुर्गा ने नारियों के हित के लिए कुछ नहीं किया। उसने हिन्दू धर्म की नारी विरोधी परम्पराओं के खिलाफ भी कुछ नहीं कहा। अगर हिन्दू धर्म स्त्रीवादी होता तो देवता त्रिदेवों की जगह पार्वती या किसी और देवी के पास मदद के लिए जाते। दुर्गा पूजा इस देश के निवासी असुरों के संहार को उचित ठहराने की एक साजिश है।

महिषासुर शहादत दिवस के रूप में ब्राह्मणवादी संस्कृति के प्रतिरोध के आंदोलन की एक वैचारिक समस्या यह भी है कि यह हिन्दू धर्मों के विरोधाभासों को समझने में बहुत हद तक नाकाम रही है। आन्दोलन में जिस ऊर्जा को ब्राह्मणवाद के विरोधाभासी तिकड़मों को समझने में लगाना चाहिए उस ऊर्जा को दुर्गा के चरित्र की जाँच-पड़ताल में खर्च किया जा रहा है। दुर्गा के बहाने स्त्री जाति को भी निशाना बनाया जा रहा है। दुर्गा पर हमला करने की आड़ में स्त्रियों के बारे में प्रचलित पूर्वाग्रहों को उद्धृत किया जा रहा है। जेएनयू में महिषासुर शहादत दिवस के अवसर पर आयोजित चर्चा में दुर्गा कुँवारी थी या नहीं? दुर्गा को सिंदूर क्यों चढ़ाया जाता है? जैसी बहस को प्रमुखता दी गयी थी। ब्राह्मणवादी अपने प्रतिरोध के आंदोलन की इस स्तिथि को देखकर खुश हो रहे होंगे कि दुर्गा पूजा के रूप में नारीवादी विरोधाभास को जिस उद्देश्य से रचा गया था उससे बहुजन के हित की बात करने वाले आन्दोलनकारी गच्चा खा गए हैं। कहा जाता कि अक्सर पीड़ितों में भी पीड़ित जनों के मुद्दे को नकार देना एक आंदोलन को सीमित और कमजोर बनाता है। सांस्कृतिक प्रतिरोध का यह आन्दोलन तब तक अधूरा और कमजोर रहेगा जब तक कि बहुजन पितृसत्ता की बुराइयों और स्त्रियों के समानता के अधिकार को स्वीकार नहीं करते।

महिषासुर शहादत दिवस के सांस्कृतिक आंदोलन की एक और प्रमुख समस्या इस आंदोलन में एक ख़ास पिछड़ी जाति की प्रमुखता है। अम्बेडकर ने कहा है कि जाति व्यवस्था एक सीढ़ी की तरह है जहाँ विभिन्न जातियाँ इसके पाएदान हैं। हर जाति ने अपने नीचे की जाति पर उतने ही अत्याचार किए हैं जितना की उसे अपने ऊपर वाली जाति से सहना पड़ा। इस सांस्कृतिक आन्दोलन के हित के लिए यह जरूरी है कि इस आंदोलन में एक ख़ास जाति के वर्चस्व को रोका जाए। बिहार और उत्तरप्रदेश में हुए महिषासुर शहादत दिवस आयोजनों के आयोजक मुख्य रूप से एक ख़ास पिछड़ी जाति (यादव जाति) से है। इस जाति के बारे में यह तथ्य भी है कि यह जाति स्वयं को अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों से श्रेष्ठ समझती आई है। यादवों के साथ उलझन की एक बात यह भी है कि कृष्ण को यादवों का भगवान मानने की जिस विचार को बढ़ावा दिया गया है उसको इस तरह के आंदोलन में किस रूप में लिया जाएगा। कृष्ण के साथ ही ब्राह्मणवादी गीता का भी सवाल आता है। इस आंदोलन में दलित और सभी पिछड़ी जातियों की सहभागिता के साथ ही आदिवासियों के सहभागिता का सवाल भी जरुरी है। बहुत संभव है की आगे चलकर इस आंदोलन में यादव जाति का ही वर्चस्व रहे और एक अभिजात्य संस्कृति विकसित हो जो ब्राह्मणवादी संस्कृति का ही प्रतिरूप बनी रहे।

ब्राह्मणवादी
 संस्कृति के प्रतिरोध के इस आंदोलन के भविष्य के लिए यह जरुरी है कि इस आंदोलन के अगुवाई कर रहे है लोग ब्राह्मणवादी संस्कृति में व्याप्त विरोधाभासों के साथ-साथ आंदोलन में स्त्रियों और सभी बहुजनों के सहभागिता के सवालों पर गंभीरता से मंथन करे। महिषासुर और दुर्गा के मिथक में उलझे बिना इस आंदोलन को एक मजबूत सांस्कृतिक आंदोलन का रूप दें।

अतुल, रांची से जनसंचार में स्नातक करने के बाद 
अभी टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान (TISS), मुंबई 
से मीडिया में स्नातकोत्तर कर रहे है.
इनसे संपर्क का पता है- thinker.atul@gmail.com

नेपाल संविधान सभा चुनाव : राजनीतिक भंवर में फंसा देश

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प्रेम पुनेठा
प्रेम पुनेठा

 "...सविधान सभा में माओवादियों ने कर्इ समझौते किए जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे। इससे पार्टी में असंतोष फैल गया। पार्टी में ही मोहन वैद्य ने नेतृत्व पर दक्षिणपंथी संसोधनवाद का आरोप लगाया और पार्टी से अलग हो गए। उन्होने नर्इ पार्टी बना ली। इस चुनाव में मोहन वैद्य की नेकपा माओवादी बहिष्कार कर रही है। उनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में संविधान सभा के जरिए संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। संविधान के निर्माण के लिए सभी राजनीतिक दलों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना  चाहिए।  मोहन वैद्य के साथ कर्इ 31 राजनीतिक दल भी चुनाव बहिष्कार में शामिल हैं। इनका बहिष्कार कितना प्रभावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन इसने चुनावों के हिंसा की आशंका से भर दिया है। चुनाव प्रचार के प्रारंभिक दौर मे ही जिस तरह से बहिष्कारवादियों ने चुनाव प्रचार सामग्री को लूटने और आक्रामक होने का परिचयय दिया हैउससे हिंसा होने की संभावना ज्यादा बलवती हो गर्इ है।..."

दुनिया के सबसे गरीब देशों में से एक नेपाल में संविधान बनाने के लिए पांच साल में दूसरी बार संविधान सभा के चुनाव हो रहे हैं। इससे पहले 2008 में संविधान सभा के चुनाव हुए थे। इस संविधान सभा को यह कार्यभार सौंपा गया था कि वह दो साल में नेपाल में संविधान का निर्माण करेगी लेकिन इसका कार्यकाल कर्इ बार बढ़ाया गया और कर्इ सरकारें बनीं । संविधान सभा चार साल तक काम करती रही फिर भी यह नेपाल को संविधान देने में असफल रही। नेपाल के राजनीतिक दलों के बीच इतने अधिक मतभेद हो गए थे कि संविधान बनने की कोर्इ संभावना नहीं रह गर्इ तो राष्ट्रपति को संविधान सभा को भंग करना पड़ा और नर्इ संविधान सभा के चुनाव की घोषणा करनी पड़ी।

पिछले दो दशक से नेपाल की राजनीति भंवर मे फंसी हुर्इ है। इससे बाहर आने का अभी भी कोर्इ रास्ता नहीं दिखार्इ दे रहा है। 1990 में राजतंत्र के आधीन संसदीय प्रजातंत्र लाने का प्रयोग किया गया। लेकिन वह जनता की अपेक्षाओं को पूरा करने में असमर्थ रहा । इस प्रयोग की परिणति 1996 में माओवादी द्वारा जनयुदध से हुर्इ। यह जनयुदध दस साल तक चला और अंत में राजशाही की समापित हुर्इ। तब माओवादियों और अन्य राजनीतिक दलों में समझौता हुआ। इसके तहत देश में नया संविधान बनाने के लिए समझौता हुआ। इसके तहत 2008 में संविधान सभा का चुनाव हुआ। नेपाल के राजनीतिक दलों के साथ माओवादियों के साथ समझौता होने के बाद भी उनके बीच कटुता कम नहीं हुर्इ। जनयुदध के दौरान नेपाल में राजतंत्र और माओवादी दो पक्ष रह गए थे। दोनों के बीच संघर्ष की सिथति में अन्य राजनीतिक दल अप्रासंगिक हो गए थे। उनकी गतिविधियां केवल बड़े शहरों तक ही सीमित थीं और गांव के स्तर पर वे कहीं नहीं थे। इसलिए जब राजतंत्र समाप्त हुआ तो माओवादियो के विरोध में पुराने राजनीतिक दल खड़े हो गए। इस तरह नेपाल की सारी राजनीति माओवादी बनाम अन्य में बदल गर्इ। यह राजनीति संविधान सभा में दिखार्इ दी।

पिछले संविधान सभा के चुनाव में माओवादियों की सफलता उनकी सांगठनिक स्थिति और विरोधियों की कमजोरी तो थी ही, साथ ही उनके प्रति सहानुभूति का कारण यह भी था कि उनके कारण ही राजतंत्र की समापित हुर्इ थी। फिर माओवादी हथियार छोड़कर मुख्यधारा में आने का प्रयास कर रहे थे और जनता लगातार हिंसा से परेशान थी और शांति चाहती थी, इसलिए उसने माओवादियों का साथ दिया। तमाम प्रयासो के बाद भी माओवादी संविधान सभा में बहुमत में नहीं आ पाए और इससे भी ज्यादा गलती यह हर्इ कि संसदीय राजनीति की पेचीदिगियों को वे समझ नहीं सके। यही कारण था कि राष्ट्रपतिउपराष्ट्रपति और संसद के अध्यक्ष के चुनाव में उनहें हार का मुख देखना पड़ा। इतना ही नहीं प्रधानमंत्री पद के चुनाव में नेपाली कांग्रेस के साथ 11 बार मतदान में जाना पड़ा। तब कहीं जाकर प्रचंड प्रधानमंत्री पद पर चुने जा सके। इसके बाद भी माओवादियों की सरकार ज्यादा समय नहीं चल सकी और प्रचंड इस्तीफा देकर बाहर आ गए।

सविधान सभा में माओवादियों ने कर्इ समझौते किए जो उनकी नीतियों के खिलाफ थे। इससे पार्टी में असंतोष फैल गया। पार्टी में ही मोहन वैद्य ने नेतृत्व पर दक्षिणपंथी संसोधनवाद का आरोप लगाया और पार्टी से अलग हो गए। उन्होने नर्इ पार्टी बना ली। इस चुनाव में मोहन वैद्य की नेकपा माओवादी बहिष्कार कर रही है। उनका मानना है कि वर्तमान परिस्थितियों में संविधान सभा के जरिए संविधान का निर्माण नहीं किया जा सकता है। संविधान के निर्माण के लिए सभी राजनीतिक दलों का एक गोलमेज सम्मेलन बुलाया जाना  चाहिए।  मोहन वैद्य के साथ कर्इ 31 राजनीतिक दल भी चुनाव बहिष्कार में शामिल हैं। इनका बहिष्कार कितना प्रभावी होगा कहा नहीं जा सकता लेकिन इसने चुनावों के हिंसा की आशंका से भर दिया है। चुनाव प्रचार के प्रारंभिक दौर मे ही जिस तरह से बहिष्कारवादियों ने चुनाव प्रचार सामग्री को लूटने और आक्रामक होने का परिचयय दिया हैउससे हिंसा होने की संभावना ज्यादा बलवती हो गर्इ है। मोहन वैध के बहिष्कार का सबसे ज्यादा प्रभाव माओवादियों पर ही होने वाला है। प्रारंभिक तौर पर पिछले संविधानसभा में जीते कर्इ सभासद मोहन वैध के साथ हैउन स्थानों पर पार्टी को नए  प्रत्याषी देने पड़े हैंसाथ ही इन लोगों के प्रभाव से पार्टी वंचित हो गर्इ। यह भी दिख रहा है कि बहिष्कारवादियों का प्रमुख निशाना प्रचंड की माओवादी पार्टी ही है। उसी को वे अपनी ताकत दिखाना चाहते हैं। जब प्रचंड सुदूर पश्चिमांचल के अछामबाजुरा और डोटी जिले में आए तो उन्होंने बंद का आह्वाहन  किया था। बहिष्कारवादियों ने 9 से 19 नवंबर तक देष भर में बंद का आहवान किया है। यह मतदान को कितना प्रभावित करेगा यह देखना बाकी होगा। वैसे नेपाली सरकार ने चुनावो को शांतिपूर्वक और निष्पक्ष तरीके से कराने के लिए सेना को भी लगाया है। इसके साथ ही आचार संहिता लागू कर और अपराधियों को चुनाव लड़ने रोकने के कानून बनाकर धनबल और बाहुबल से चुनावों को बचाने का प्रयास किया है।

बहिष्कारवादियों से अलग चुनाव में लड़ रहीं पार्टियां दो मुददों पर विपरीत घु्रवों पर दिखार्इ दे रही हैं। इनमें से एक है संघीयता का स्वरूप और दूसरा शासन का स्वरूप। इन्हीं दो मुददों पर संविधान सभा में आकर गतिरोध हो गया था और उसे अंत तक तोड़ा नहीं जा सका। पार्टियों के घोष्णापत्र में जिस तरह से इन मुददों पर जोर दिया जा रहा है उससे लगता नहीं ये गतिरोध टूट सकता है। सामान्य तौर पर चारों बड़ी पार्टियो एमाओवादीनेपाली कांग्रेसएमाले और मधेस पार्टी सभी देष को संधीय राज्य बनाने पर सहमत हैं। लेकिन उनके बीच प्रदेषो की संख्या और उनकी सीमाओं को लेकर मतभेद हैं। जहां कांग्रेस सात राज्य बनाना चाहती है तो एमाओवादी 11 राज्य चाहते हैंएमाले और मधेसी पार्टियां आठ राज्य बनाने के प़क्षधर हैं। कांग्रसे सात राज्य भौगोलिक आधार पर बनाना चाहती हैजिसमें नदियों केजल प्रवाह को ध्यान में रखा जाए। यह कमोवेष वर्तमान सात अंचलों में ही थोड़ा-बहुत फेरबदल होगा। यह विभाजन उत्तर से दक्षिण की ओर है। एमाले जातीय पहचान और भौगोलिक आधार पर विभाजन चाहती है। मधेसियों की सभी पार्टियां एक मधेस-एक प्रदेष के नारे की समर्थक हैं। मधेस से उनका अभिप्राय पूरा तरार्इ क्षे़त्र है। इसमें वे पूर्व के झापा से लेकर पषिचम मे कंचनपुर तक 23 जिलों का भारत के साथ लगा क्षेत्र षामिल करती हैं। मधेसियो की यह मांग बाकी तीन राजनीतिक दलों के लिए मानना संभव नहीं लगती है लेकिन मधेसी इससे बाहर किसी समझोते के पक्ष में नहीं हैं।

संघीयता के प्रश्न पर सबसे ज्यादा समस्या एमाओवादियो के समाने आ रही है। वे आठ प्रदेश पहाड़ में और तीन प्रदेश तरार्इ में चाहते हैं। उनके प्रदेश बनाने का आधार जातीय पहचान और आर्थिक एकरूपता है। दरअसल जनयुदध के दौरान माओवादियों ने विभिन्न जातीय पहचान वाले क्षे़त्रों को यह विशवास दिलाया था कि वे उपराष्ट्रीयताओं का सम्मान करते हुए  अलग प्रदेष का निर्माण करेंगे। इसलिए उनका जोर इस समय इन्हीं उपराष्ट्रीयताओं को पहचान देने का है। लेकिन इस प्रयास मे वे पिछली संविधानसभा में अलग-थलग पड़ गये थे। इतना ही नहीं सीमाओं को लेकर विवाद बढ़ते ही जा रहे हैं। केवल कंचनपुर-कैलाली जिलों को लेकर चार उपराष्टीयताओं में टकराव की सिथति आ गर्इ है। इन दो जिलो केा लेकर एक वर्ग सुदूर पश्चिमांचल में रखना चाहता है तो मधेसी पार्टियां इन्हें मधसे का हिस्सा बनाना चाहती हैंथारूवन के हिमायती इन दो जिलों को अपने प्रदेष का हिस्सा बनाना चाहते हैं। इस विवाद के बीच थारूओं की ही एक षाखा राना थारूओं ने मांग कर दी कि इसे अलग  से राना थारू स्वायत्त प्रदेश बनाया जाए। दरअसल यह तरार्इ का ऐसा जिला हैजिनमे 21 प्रतिशत आबादी थारूओं की है और बाकी पर्वतीय मूल के लोग यहां रहते हैं। इन दो जिलों को लेकर माओवादी नेताओं में भी मतभेद हैं। माओवादियों की योजना के अनुसार इन दो जिलो केा थारूवन का हिस्सा होना चाहिए लेकिन दो बड़े स्थानीय नेता टीकेंद्र प्रसाद भटट और लेखराज भटट जो पिछली संविधान सभा के सदस्य थे और वर्तमान में भी एमाओवादी से चुनाव लड़ रहे हैं इस योजना के विरोधी हैं और इन दो जिलों को सुदूर पश्चिमांचल का ही हिस्सा बनाने के पक्षधर हैं और अपनी बात को वे पार्टी और जनता के सामने रख चुके हैं।

सुदूर पश्चिमांचल के अलावा थारूवानकर्णाली और अन्य प्रस्तावित प्रदेशों में भी सीमाओं को लेकर विवाद हैं। इतना ही नहीं उपराष्टीयताओं की पहचान को लेकर राज्य बनने के प्रयासों के चलते कर्इ क्षेत्रीय दल असितत्व में आ गए हैं। मधेस में तो यह पिछले चुनाव में ही देखने को मिल गया था। जब मधेस के मतदाताओं ने राष्टीय दलो को छोड़कर मधेसी पार्टियों के पक्ष में मतदान किया था। इस चुनाव में सुदूर पश्चिमांचल में अखंड पश्चिमांचल पार्टीथारूवन की थारूवन कल्याण समितिवृहत्तर कर्णाली पार्टी चुनाव मैदान में हैं। ये प्रदेश और पहचान के मुददे पर कितना चुनाव को प्रभावित करेगी इसका आंकलन होना हैं लेकिन ये भावनात्मक रूप से लोगों को गोलबंद जरूर कर रही हैं। अगर सही तरीके से इस मुददे को संभाला नहीं गया तो आने वाले समय में भी यह नेपाली राजनीति को निश्चित तौर पर प्रभावित करने की क्षमता रखती हैं। 

संघीयता के साथ ही शासन के भावी स्वरूप पर भी पार्टियों में मतभेद हैं। एमाओवादी और मधेसी पार्टियां शासन की सारी ताकत राष्ट्रपति में रखना चाहती हैं। वे अमेरिका की तरह शक्तिशाली राष्ट्रपति प्रणाली की पक्षधर हैं। यह स्वरूप एमओवादियों के सांगठनिक स्वरूप  के ज्यादा नजदीक आता हैजहां पार्टी के महासचिव को सारी ताकत सौंप दी जाती है। इसके साथ ही चुनावी तौर पर माओवादियो को लगता है कि वे जन समर्थन के आधार पर  अपना राष्ट्रपति चुनवा सकते हैं और अपने एजेंडे को लागू कर सकते हैंजिसे वे संविधान सभा में दलीय सिथति के कारण नही करवा सके। अगर प्रधानमंत्री को शासन का प्रमुख बनाया गया और उसे संसद से चुना गया तो वे हमेशा अन्य दलों पर आश्रित रह जाएंगे और उनके काम कर्इ तरह की बाधाएं पहुंचार्इ जा सकती हैजैसा इस संविधान सभा मे हुआ और उन्होंने शासन चलाने को जिस तरह के समझौते किए उससे उनको राजनीतिक तौर पर नुकसान ही हुआ। इस तरह की स्थिति भविष्य में न आए इसलिए वे राष्ट्रपति प्रणाली के पक्षधर हैं। इसके विपरीत एमाले और नेपाली कांग्रेस संसदीय प्रजातंत्र और प्रधानमंत्री को शक्तिशाली बनाना  चाहते हैं। इन दोनों पार्टियो का जिस तरह का जनाधार हैउसको देखते हुए वे संसदीय प्रजातंत्र के हिमायती है।

सही तथ्य तो यह है कि पिछले संविधान सभा के चुनाव में जितने राजनीतिक अंतरविरोध थे और जिन अंतर विरोधों को खत्म करने के लिए चुनाव करवाए गए थेवे तो जस के तस हैं। इस संविधान सभा के चुनाव में कर्इ अतरविरोध पैदा हो गए हैं। इन अंतरविरोधों को लेकर बनने वाली संविधान सभा का स्वरूप क्या होगा और वह कैसे कार्य करेगी यह देखना होगा। खासकर तब जब इस संविधान सभा के चुने सदस्यों का कार्यकाल तो पांच वर्ष होगा लेकिन उन्हें संविधान का निर्माण एक वर्ष में ही करना होगा। एक साल में संविधान बनाने के बाद संविधान सभा चार साल के लिए संसद में बदल जाएगी। सवाल यही है कि क्या यह एक साल में संविधान का निर्माण कर पाएगी।


प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

नेपाल संविधान सभा चुनाव : माओवादियों के बंद पर, सबकी नजर

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प्रेम पुनेठा

प्रेम पुनेठा

"...वैसे नेपाली सरकार ने चुनाव कराने के लिए सेना को भी सुरक्षा कामों में लगाने का आदेश दिया है। आज हम महेंद्रनगर और धनगढ़ी में थे और वहां पुलिस सड़कों पर दिखाई दे रही थी। अलबत्ता सेना की मौजूदगी अभी तक कहीं दिखाई नहीं दी है। इस बात की संभावना है कि माओवादी अपनी ताकत का प्रदर्शन अवश्य करेंगे। वैद्य ग्रुप भी इस बात को समझता है कि अगर चुनाव बहिष्कार का असर नहीं दिखा तो वह राजनीतिक तौर पर खत्म हो जाएगा। इसलिए उसके लिए यह अस्तित्व का सवाल है कि बहिष्कार प्रभावी हो।..."

एनेकपा माओवादी का मतदान का आह्वान 
नेपाल में संविधान सभा का चुनाव अब अंतिम चरण में पहुंच चुका है। सभी राजनीतिक दलों ने प्रचार में ताकत झोंक रखी है। लेकिन इन सबके बाद भी मतदाताओं और राजनीतिक दलों में संशय मौजूद है कि अगले दस दिनों मे क्या होगा क्योंकि नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी माओवादी चुनाव का बहिष्कार कर रही है जिसके साथ 30 अन्य राजनीतिक संगठन भी हैं. इन्होंने 11 नवंबर से दस दिन का बंद का आह्वान किया है। इसके तहत एक दिन की आम हड़ताल और शेष दिन यातायात को बाधित रखने का कार्यक्रम है। इस तरह माओवादी चुनाव के इस चरण में यातायात को बाधित कर चुनाव को प्रभावित करना चाहते हैं। माओवादियों की रणनीति यह है कि किसी भी तरह से चुनाव में मतदान का प्रतिशत कम करवाया जाए और कुछ स्थानों पर हो सके तो पूर्ण बहिष्कार कर मतदान पेटियां खाली भिजवाई जाएं, जिससे चुनावों की वैधता की सवालों के घेरे में आ जाए।

वैसेनेपाली सरकार ने चुनाव कराने के लिए सेना को भी सुरक्षा कामों में लगाने का आदेश दिया है। आज हम महेंद्रनगर और धनगढ़ी में थे और वहां पुलिस सड़कों पर दिखाई दे रही थी। अलबत्ता सेना की मौजूदगी अभी तक कहीं दिखाई नहीं दी है। इस बात की संभावना है कि माओवादी अपनी ताकत का प्रदर्शन अवश्य करेंगे। वैद्य ग्रुप भी इस बात को समझता है कि अगर चुनाव बहिष्कार का असर नहीं दिखा तो वह राजनीतिक तौर पर खत्म हो जाएगा। इसलिए उसके लिए यह अस्तित्व का सवाल है कि बहिष्कार प्रभावी हो। अगर कहीं हिंसा ज्यादा होती है तो आम आदमी चुनाव की चुनाव में भागीदारी कम हो जाएगी। वैसे दो दिन पहले ही नेकपा माले की एक जनसभा में बम से हमला हुआ है और उसमें कुछ लोग घायल भी हुए है। वैसे यह काम किसने किया इस बारे में साफ तो कुछ नहीं मालूम लेकिन संदेह माओवादियों पर ही जा रहा है। अगर इस तरह की घटनाएं और होती हैं तो भय का वातावरण पैदा हो जाएगा। नेपाल की जनता दस साल के सशस्त्र आंदोलन में इस तरह की हिंसा को झेल चुकी है और वह अब किसी भी तरह की हिंसा से बचना चाहती है। आम आदमी राजनीतिक दलों से इस बात से खिन्न है कि चार साल में वे संविधान नहीं बना पाए। लेकिन बहिष्कार को भी समर्थन देने को तैयार नहीं है।

वैसेआम हड़ताल सफल भी हो जाए क्योंकि तोड़फोड़ के डर से लोग दुकानें बंद रख देंगे और यातायात भी बाधित हो जाए। नेपाल में सार्वजनिक परिवहन अधिकतर निजी हाथों में है वे अपने वाहनों को सड़क पर लाने का जोखिम उठाने के मूड में नहीं दिख रहे हैं। धनगढ़ी बाजार में जिन व्यापारियों और ठेली लगाने वालों से बात हुई उनका कहना था कि 'देखेंगे! जो सब करेंगे वही हम भी करेंगे।'फलों के ठेली लगाने वाला कह रहा था 'हम देखेंगे मौका मिला तो कहीं अदर जाकर ठेला लगा लेंगे।'मुख्य सड़क पर तो नहीं आ सकते। इससे इतना तो जाहिर है कि बंद चुनाव बहिष्कार के समर्थन में तो नहीं है वह किसी हिंसा और तोडफोड़ के भय से होगा। सबसे महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि राजनीतिक दलों की गतिविधियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि सभी दलो की रैलियां, सभाएं और प्रदर्शन हो रहे हैं। 

बंद की पूर्व संध्या पर चौराहों पर पुलिस

हमभी इंतजार कर रहे हैं कि कल माओवादी क्या करते हैं। वैसे हम तो माओवादियों के इस बंद की अपील से पहले दिन से ही जूझ रहे हैं। हमने बनबसा (भारत) से ही गाड़ी करने का विचार बनाया था लेकिन कोई भी अपनी गाड़ी लेकर नेपाल चलने को तैयार नहीं हुआ। सभी ने यही कहा कि वहां माओवादी तोड़फोड़ कर सकते हैं, ऐसे में वहां जाकर कौन मुसीबत मोल ले। हमने सोचा चलो महेंद्रनगर से ही वाहन की व्यवस्था कर लेंगे लेकिन यहां आकर पता चला कि हालत और भी खराब हैं। चुनाव के कारण बहुत सी गाडि़यां राजनीतिक दलों ने ले ली हैं और चुनाव में भी कई गाडि़यां पुलिस ने ली हैं। हमारे संपर्क के प़त्रकार मित्र ने भी एक राजनीतिक दल के लिए बनबसा से गाड़ी की व्यवस्था की लेकिन वह भी बनबसा और महेद्रनगर के दो प़त्रकारों की गारंटी पर। हमें तो महेंद्रनगर में वाहन नहीं मिला। हमारे लिए मित्रों ने जिस कार की व्यवस्था की वह उसे ठीक कराने टनकपुर चला गया और लगभग दो बजे तक नहीं लौटा तो हमने सार्वजनिक परिवहन से धनगढ़ी ही जाना उचित समझा। धनगढ़ी में भी वाहनों की हालत यही है और अभी आगे जाने की व्यवस्था नहीं हुई है। देखें कल क्या होता है।  

प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

जनादेशों के संदेश

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आशीष भारद्वाज
-आशीष भारद्वाज

"...इतनीसीटें और इतनी बातों के निकलने का सीधा मतलब ये है कि ये बात अब दूर तलक जायेगी. आम आदमी पार्टी की जीत ने संभावनाओं और सवालों का जो पिटारा खोला है, उनके जवाबों का एक बड़ा हिस्सा इस नयी पार्टी की आगामी राजनीति से ही मिलने वाली है. अगर ये भी संभावनाओं के वैसे ही तस्कर निकले, जो अब तक अन्य दूसरी पार्टियां होती आयीं हैं तो हश्र भी वही होगा जो अब तक होता आया है और अभी-अभी हुआ है..."

कार्टून साभार- सतीश आचार्य
http://cartoonistsatish.blogspot.in
चार राज्यों में विधानसभा चुनाव के परिणाम आ चुके है. बांकी तीन राज्यों में जो हुआ, वो कमोबेश अपेक्षित था लेकिन दिल्ली के परिणाम ने चुनावी चर्चाओं और समीकरणों का एक नितांत नया अध्याय खोल दिया है. एकदम नयी सी आम आदमी पार्टी ने इस मुल्क के सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस का सूपड़ा तकरीबन साफ़ कर दिया. लोग कांग्रेस से इस कदर खफ़ा हुए कि सूबे की मुख्यमंत्री को भी नहीं बख्शा और वे भारी अंतर से हार गयीं.


इसपरिघटना को यहाँ तक का सफ़र तय करने के लिए पिछले तीन सालों में बेहद मशक्कत करनी पड़ी है. याद करिए जनलोकपाल आंदोलन, जो अपनी तमाम कमी-कमजोरियों के बावजूद इस लगभग से अराजनीतिक शहर के “खाए-पिए-अघाए” मध्यवर्ग को सड़कों पर उतारने में कामयाब रहा था. इस “चली गयी सरकार” ने तब भी उसकी कद्र नहीं की थी. बाद हुए कुछ उठापटकों में अन्ना और केजरीवाल अलग हो गए और अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी. ये इस पार्टी के नयेपन का ही तकाज़ा था कि सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया. आप इसे कांग्रेस और भाजपा का मदांध अहंकार भी कह सकते हैं. एक पार्टी ने तो उसकी कीमत चुका दी है. जल्द ही शायद आपको ये भी देखने को मिले कि दूसरी पार्टी, जो इस वक़्त उत्सवमुद्रा में है, को भी ऐसी ही नियति से दो-चार होना पड़े.

आमआदमी पार्टी के इस उभार को केवल “कांग्रेस-विरोध” की परिणति मानना भी जल्दबाजी होगी. इस पूरी उभाररुपी मशीनरी के और भी कई कल-पुर्जे हैं जिनकी तसल्लीबख्श पड़ताल बहुत ज़रूरी है. मसलन क्या इस परिणाम को नव-उदारवादी विकास के मॉडल के एक बड़े केंद्र दिल्ली में हाशिये पर भेजे गए समूहों का पलटवार कहा जा सकता है? क्या पढ़े-लिखे नौजवानों और गरीब-गुरबों के साझा वोट करने से भविष्य में होने वाली राजनीति का एक नया रास्ता नहीं खुल गया है? क्या भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता केवल इनका निदान ही नहीं बल्कि पारदर्शी राजनीति के लिए भी वोट कर रही है? क्या वो दौर अब जाता नहीं दिखता जब जन-प्रतिनिधि पांच साल में एक बार दिखते थे? और सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या मध्यवर्ग और निचले समूहों की एक सकारात्मक और साझा पॉलिटिक्स “मंजे-मजाये, खेले-खाये” राजनीतिज्ञों और कॉरपोरेट्स को सबक सिखाने को तैयार है?

इसजनादेश के और भी ठोस संदेश पढ़े जा सकते हैं. मैं इसे दीवार पर लिखी इबारतों की तरह साफ़-साफ़ पढ़ पा रहा हूँ कि अगर जनता के पास कांग्रेस और भाजपा का विकल्प हो तो जनता इसे अपनाने को तैयार है. बांकी तीन राज्यों में संभवतः ये “ठोस विकल्पहीनता” ही रही जिनकी वजह से भाजपा पुनः सरकार में आई है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार की वापसी इसीलिए भी संभव हुयी क्यूंकि इनके मुख्यमंत्री तकरीबन साफ़-सुथरी छवि के हैं. ये और बात है कि इनके “छवि-निर्माण” के प्रोजेक्ट पर गरीब जनता का पैसा पानी की तरह बहाया गया है. राजस्थान ने अपने स्थापित पैटर्न को ही दुहराया है जहाँ हर पांच साल बाद ऊँट करवट बदल लेता है. दिल्ली का परिणाम भाजपा को अपनी आत्ममुग्धता का एहसास करवा पायेगा, इसकी गुंजाइश बनती दिख रही है. भाजपा के लिए 2014 की डगर कठिन हो सकती है अगर साफ़-सुथरी छवि वाली कुछ पार्टियां अपने प्रभाव-क्षेत्रों में कांग्रेस और भाजपा का विरोध करते हुए एक मोर्चे को बनाने की दिशा में आगे बढ़ें. पिछले दो दशकों के दुखद अनुभवों ने मुल्क की अवाम में एक ख़ास किस्म का अलगावबोध भरा है. वे समझते हैं कि दोनों बड़ी पार्टियों ने जन-विरोधी नीतियाँ आगे बधाई हैं और आम लोगों का जीवन मुश्किलों से भर गया है. उनकी मूक सी भाषा को अगर पढने की कोशिश की जाय लब्बोलुआब ये निकलेगा: वो कांग्रेस और भाजपा को समान रूप से दण्डित करना चाहती है. वो विकल्पहीनता से बाहर आकर नयी संभावनाओं में अपनी संभावनाएं देख रही है.

इतनीसीटें और इतनी बातों के निकलने का सीधा मतलब ये है कि ये बात अब दूर तलक जायेगी. आम आदमी पार्टी की जीत ने संभावनाओं और सवालों का जो पिटारा खोला है, उनके जवाबों का एक बड़ा हिस्सा इस नयी पार्टी की आगामी राजनीति से ही मिलने वाली है. अगर ये भी संभावनाओं के वैसे ही तस्कर निकले, जो अब तक अन्य दूसरी पार्टियां होती आयीं हैं तो हश्र भी वही होगा जो अब तक होता आया है और अभी-अभी हुआ है.

चर्चाका एक बिंदु यह भी है क्या इन परिणामों को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा जा सकता है. भाजपा निश्चित रूप से इस जीत को “एक तथाकथित सेमी-फाईनल” में जीत के बतौर प्रचारित-प्रसारित करेगी. संभवतः वो ये मान कर चले कि अगले साल होने वाले आम चुनाव में उसे एक निर्णायक बढ़त हासिल हो गयी है. वो इसे “नमो फैक्टर” के कारगर होने और जनप्रिय होने के सबूत होने की तरह देखना पसंद करेगी. लेकिन क्या असल में ऐसा है? एक बात जो हमें अपने ज़हन में साफ़ कर लेनी चाहिए कि ये चुनाव आम चुनाव का सेमी-फाईनल नहीं है. और आम चुनाव भी मुल्क की राजनीति का आई.पी.एल. नुमा कोई टूर्नामेंट नहीं है. मेरा मानना है कि ये सोचना इस पूरे विषय की गंभीरता को कम करता है. मीडिया में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे इन खिलंदर शब्दों को राजनीतिक वर्ग इसीलिए भी पसंद करता है क्यूंकि इसमें उन्हें अपने फायदे की संभावना दिखती है. आप ख़ुद देखिएगा कि आने वाले महीनों में भाजपा कितने उत्साह से “सेमी-फाईनल” जीत जाने को हर चैनल-अखबार और वेब पर छपती-छपवाती रहेगी. आम चुनाव भले ही ज़्यादा दूर ना हों पर इन चार राज्यों के परिणाम का आम चुनाव पर काफी असर होगा, ये मानना गलत है. उन्हें थोड़ा सा फुटेज अवश्य मिलेगा, इससे कोई इनकार भी नहीं है.

आमचुनाव के मुद्दे और विषय अलग होंगे. उनका स्कोप बहुत विस्तारित होगा. और जहाँ तक प्रश्नों की बात है, भाजपा के नए खेवनहार नरेन्द्र मोदी स्वयं एक ऐसे प्रश्न हैं जिसको सुलझाना उस वक़्त की सबसे बड़ी जरुरत होगी. फासीवाद के बढ़ते आहट को लोग ज़्यादा शिद्दत से महसूस कर पा रहे हैं. उन्हें समझ में आ रहा है मोदी का प्रधानमन्त्री बनना मुल्क की सेहत के लिए अच्छा नहीं है. राज्य-प्रायोजित दंगे, फर्ज़ी एनकाउंटर और क्रूर विकास के मॉडल के अलावा अब नरेन्द्र मोदी पर एक लड़की की दो महीने से ज़्यादा तक जासूसी करवाने का आरोप है. इस काम के लिए “साहेब” ने पूरी सरकारी मशीनरी एक मासूम लड़की की “अहर्निशं सेवामहे” टाइप की जासूसी में लगवा दी. अब पूरी भाजपा इसकी लीपापोती में लगी है और अपनी पार्टी और अपने “साहेब” को और भी सवालों के घेरे में ला रही है. सोचिये कि एक आम युवा महिला वोटर जब आम चुनाव में अपना वोट गिराने जायेगी तो क्या उसके मन में ये सवाल ना आयेंगे!

बहरहाल,ऐसे ही सवालों की तादाद बढती जायेगी जब आम चुनाव नज़दीक होंगे. और भाजपा के लिए तो सवालों की एक पूरी श्रृंखला है जिनका जवाब देने में पूरी पार्टी बहुत असहज हो जाती है. कांग्रेस की राह तो वैसे ही मुश्किल है. संभव है कि आम चुनाव में वे अपनी दुर्गति की नयी ऊंचाइयों को प्राप्त करें. इन परिणामों से कांग्रेस की आबरू तो जा ही चुकी है, संसद के कूचे से भी उन्हें ऐसा ही एग्जिट मिलने के आसार हैं. और मुल्क का चुप्पा सा आख़िरी वोटर शायद इसका चश्मदीद गवाह बने! वही तो नयी संभावनाएं गढ़ रहा है.

 आशीष स्वतंत्र पत्रकार हैं. कुछ समय पत्रकारिता अध्यापन में भी.
इनसे ashish.liberation@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.

दिल्ली में मोदी हारे हैं...

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Nikhil Bhushan
-Nikhil Bhushan
(फेसबुक वाल से साभार)
लीजिए माननीय नरेंद्र मोदी ने दिल्ली में प्रचार क्या किया भाजपा का वोट प्रतिशत ही गिर गया। पिछले चुनाव (2008) में जहां भाजपा को 36.84 प्रतिशत वोट मिले थे वहीं इस बार 2013 में बीजेपी को 32.76 (लगभग) प्रतिशत ही वोट मिला। यानि कुल गिरावट 4 प्रतिशत की रही। 

दिल्लीमें भले ही भाजपा ने सर्वाधिक सीटें (31) जीती हो लेकिन जनता ने उसके खिलाफ भी जनादेश दिया है। अरविंद केजरीवाल की पार्टी को लगभग 23 लाख 22 हजार के आस-पास वोट पड़े हैं। पहली बार चुनाव लड़ी आप पार्टी को 29.74 (लगभग) प्रतिशत वोट मिला है। 

कांग्रेसइस बात से खुश थी कि आप से सबसे ज्यादा नुकसान बीजेपी को होगा। दांव उल्टा पड़ गया। पिछले चुनावों में 40.31प्रतिशत वोट पाने पानी कांग्रेस पार्टी को इस बार मात्र 24.24 (लगभग) प्रतिशत वोट मिला। आप ने कांग्रेस के 17 फीसदी वोट झटके हैं। एक बात और साबित हुई जहां जनता को कांग्रेस और बीजेपी से अच्छा विकल्प मिलेगा वो उसे जरुर आजमाएंगे। पिछली बार अन्य दलों को 23 फीसदी वोट मिले थे लेकिन इस बार उन्हें मात्र 13 फीसद वोट मिला। 



कुल वोटर - 1 करोड़ 19 लाख
कुल मतदान - 78, 06, 821 ( लगभग) 
भाजपा -25, 57, 863
आप- 23, 22, 417
कांग्रेस-19,33,020
अन्य दल- 09,93,521

नोटः इस बार वाले सभी आंकड़ें लगभग में है। थोड़ी फेर-बदल की संभावना है।


निखिल भूषण पत्रकार हैं, 
इनसे nikhilbhusan@gmail.com पर 
संपर्क किया जा सकता है। 

वैश्विक अनुभवों से 'आप'की पड़ताल

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सत्येंद्र रंजन

-सत्येंद्र रंजन

"...राजनीतिक शब्दावली में ऐसी राजनीतिक शक्तियों को Populist कहा जाता है। भारत में राजकोष से जन-कल्याणकारी या लोकलुभावन कार्यक्रम चलाने की घोषणाओं या उन पर अमल को Populist कहा जाता है। मगर इस शब्द की वास्तविक परिभाषा के तहत वे दल आते हैंजो परंपरागत राजनीतिक व्यवस्था के बाहर से आकर स्थापित राजनीति को चुनौती देते हैं- मगर जिनके पास को कोई उचित विकल्प नहीं होता। जो भड़काऊ भाषणों और अव्यावहारिक वादों से लोगों को लुभाने की कोशिश करते हैँ। Populism को आम तौर पर संवैधानिक लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती माना जाता हैक्योंकि Populist पार्टियां व्यक्ति केंद्रित और अधिनायकवादी प्रवृत्ति लिए होती हैं।..."

कार्टून साभार- http://www.thehindu.com
दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की सफलता को समझने के लिए हाल के वर्षों में दुनिया के कई लोकतांत्रिक देशों में दिखी परिघटना मददगार हो सकती है। पहले निम्नलिखित उदाहरणों पर गौर करें-
·इटली के पिछले आम चुनाव में वहां फिल्मी कॉमेडियन बेपे ग्रिलो ने अपनी पार्टी फाइल स्टार मूवमेंट को उतारा। वह 25.55 प्रतिशत वोट हासिल कर संसद के निचले सदन चैंबर ऑफ डेपुटीज में दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। ऊपरी सदन सीनेट के चुनाव में भी 23.79 प्रतिशत वोट पाकर वह दूसरे नंबर पर रही।

·2012 में फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव में नेशनल फ्रंट की मेरी ला पां 17.9 प्रतिशत वोट पाकर तीसरे नंबर पर रहीं। उसके पहले 2002 के राष्ट्रपति चुनाव में तो उनके पिता और इसी पार्टी के उम्मीदवार ज्यां-मेरी ला पां पहले दौर के मतदान में सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार से भी अधिक वोट पाने में सफल रहे थे और दूसरे दौर में उनका मुकाबला तत्कालीन राष्ट्र यॉक शिराक से हुआ था।

·ग्रीस में 2012 के संसदीय चुनाव में गोल्डन डॉन पार्टी ने संसद में 21 सीटें जीत कर किसी दल को स्पष्ट बहुमत मिलने से रोक दिया था।

·  नीदरलैंड में गीर्त वाइल्डर्स की फ्रीडम पार्टी का हाल में तेजी से उदय हुआ है। हालांकि उसे अभी बड़ी चुनावी सफलता का इंतजार है।

· अमेरिका में 2009 से टी-पार्टी मूवमेंट ने राजनीतिक विमर्श- खासकर रिपब्लिकन पार्टी के अंदरूनी ढांचे पर गहरा असर डाला है। उसे खासा जन समर्थन मिला है। पिछले चुनाव में उम्मीदवार बनने के लिए इस पार्टी के नेता अधिक से अधिक इस आंदोलन का समर्थन पाने की होड़ में लगे रहे।

·        ऐसे रुझान अन्य देशों में भी हैं। लेकिन चूंकि वहां के दलों को अभी उल्लेखनीय चुनावी सफलता नहीं मिली है, इसलिए यहां उन्हें हम छोड़ सकते हैँ।

इन सभी दलों में आखिर समान बात क्या है? इसे हम इस तरह रेखांकित कर सकते हैं-

· ये दल मूल रूप से कंजरवेटिव, उग्र-राष्ट्रवादी, नस्लवादी, विदेशी विरोधी हैं। उनका मुख्य समर्थन आधार समाज के ऐसे ही तबकों में है।

· लेकिन पांच साल से जारी आर्थिक संकट और सरकारों की किफायत बरतने की नीति के कारण विभिन्न समाजों में पैदा हुए असंतोष एवं समस्याओं का उन्होंने खूब लाभ उठाया है।

· उनकी भाषा भड़काऊ, उग्रवादी- और अक्सर गाली-गलौच की हद तक जाने वाली होती है। यह नौजवानों को आकर्षिक करने में खास सहायक रही है।

·हालांकि ये दल मूल रूप से धुर दक्षिणपंथी हैं, लेकिन आर्थिक संकट से पैदा हुए हालात के बीच उन्होंने जो शब्दावली अपनाई है, उससे उनके वामपंथी होने का भ्रम हो सकता है। उन्होंने किफायत की नीतियों का विरोध किया है, बढ़ती बेरोजगारी का सवाल उठाया है, यूरोपीय संघ का विरोध करते हुए राष्ट्रीय संप्रभुता का मुद्दा उठाया है। उनकी भाषा ऐसी है, जिससे हर तरह के अंसतुष्ट लोग उनके पक्ष में गोलबंद हो सकते हैं और ऐसा वास्तव में हुआ है।

·  उन सभी दलों का एक खास एजेंडा सिस्टम को क्लीन करना है। उनके नेता खुद को ईमानदार और देशभक्त और बाकी सभी दलों के नेताओं के भ्रष्ट और जन-विरोधी बताते हैं।

· चूंकि ये दल स्थिति की जटिलताओं में नहीं जाते, तस्वीर को ब्लैक एंड व्हाइट में पेश करते हैं, इसलिए उनका नौजवानों और समाज के कई आम तबकों से सीधा संवाद बन गया है। उन्होंने खुद को परंपरागत दलों से त्रस्त लोगों के संरक्षक के रूप में पेश किया है।

·विंडबना यह है कि ये दल अपने अपने देशों के राजनीतिक एजेंडे को अधिक से अधिक दक्षिणपंथ की तरफ झुकाने में सहायक बने हैं, लेकिन बहुत से लोग उन्हें जन-पक्षीय मान रहे हैं। उन्हें न सिर्फ मध्य वर्ग, बल्कि श्रमिक वर्ग के कई हिस्सों का भी समर्थन मिला है।

राजनीतिक शब्दावली में ऐसी राजनीतिक शक्तियों को Populist कहा जाता है। भारत में राजकोष से जन-कल्याणकारी या लोकलुभावन कार्यक्रम चलाने की घोषणाओं या उन पर अमल को Populist कहा जाता है। मगर इस शब्द की वास्तविक परिभाषा के तहत वे दल आते हैं, जो परंपरागत राजनीतिक व्यवस्था के बाहर से आकर स्थापित राजनीति को चुनौती देते हैं- मगर जिनके पास को कोई उचित विकल्प नहीं होता। जो भड़काऊ भाषणों और अव्यावहारिक वादों से लोगों को लुभाने की कोशिश करते हैँ। Populism को आम तौर पर संवैधानिक लोकतंत्र के लिए बड़ी चुनौती माना जाता है, क्योंकि Populist पार्टियां व्यक्ति केंद्रित और अधिनायकवादी प्रवृत्ति लिए होती हैं।

विचारणीयहै- आप इस अर्थ में Populist है या नहीं?

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं. 
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.

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