"...इस टेस्ट के परिणाम अगर सकारात्मक आ जायें तो बचाव पक्ष के वकील की चांदी हो जाती है। अब वो अदालत में साबित कर सकते हैं कि लड़की तो सेक्स की आदी थी और बलात्कार उसकी सहमति से हुआ है। अब सवाल शादी शुदा महिलाओं से जुड़ता है। यानी किसी विवाहित महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसकी मेडिकल रिपोर्ट और बचाव पक्ष के वकील तो यही कहेंगे कि मी लोर्ड महिला तो सेक्सुअली हेबिचुअल थी इसलिए सबकुछ सहमति से ही हुआ होगा। दूसरा कि ऐसे टेस्ट शादी क बाद पति द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की अवधारणा को ही नकार देता है।..."

दिल्लीगैंगरेप के बाद से बलात्कार के मुद्दे पर जोर-शोर से देशभर में बातचीत हो रही हैं। तमाम बहसों व एक बड़े आंदोलन के बाद भी कहीं कुछ बदलता नजर नहीं आ रहा। बलात्कार की ये घटनाएं थमने का नाम नहीं ले रही हैं। सरकार केवल बजट में लुभावने घोषणा कर निपट लेती है। और जस्टिस वर्मा की ज़रूरी सिफारशें ठंडे बस्ते में डाल दी गई हैं। लेकिन अब जरुरी है कि सामाजिक आंदोलनों के साथ ही सरकार को व्यवस्थागत खामियों को दूर करने के लिए मजबूर किया जाए। खासकर बलात्कार के बाद चलने वाली कानूनी जांच प्रक्रिया पर बहस बेहद जरुरी है।
बालात्कार पीड़ितों को पुरुषवादी समाज किस तरह से मानसिक व शारीरिक प्रताड़ना देता है यह किसी से छिपा नहीं है। पुलिसिया जांच प्रक्रियाओं पर भी पुरुषवादी सामंती नजरिया हावी रहता है। इसी में एक है टू-फिंगर टेस्ट । अभी तीन दिन पहले ही 17 अप्रैल को सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार के मामलों में अहम फैसला लेते हुए टू फिंगर टेस्ट को अमान्य घोषित कर दिया है। कोर्ट ने इस टेस्ट को पीडिता की शारीरिक और मानसिक अखंडता का उल्लंघन बताते हुए इसे मान्यता देने से मना किया है। यह बेदह जरुरी फैसला है। लेकिन चुनौती अब भी इसे पूरी तरह बंद कराए जाने की है। इसे पहले भी अमान्य बताया गया था पर ये टेस्ट धड़ल्ले से किये जा रहे हैं। जस्टिस वर्मा कमिटी ने भी अपनी रिपोर्ट में कहा था कि इस टेस्ट का बलात्कार के मामलों से कोई लेने देना नही होता है। इस कमिटी ने रेप पीड़ित के मेडिकल के लिए नया प्रोफार्मा बनाया था जिसमे टू फिंगर टेस्ट को निकाल दिया था लेकिन अभी तक इसपर कोई कार्यवाही नहीं हुई है। पुलिस धड़ल्ले से बलात्कार मामले में ये जांच करवा रही है।
सामंतीपुरुषवादी सोच ने बलात्कार के मामलों में भी महिलाओं को ही हमेशा से कटघरे में रखने की कोशिश की है। मसलन ऐसे मामलों में कोशिश की जाती है की पीडिता का चरित्र बस किसी तरह गलत साबित हो जाए। चरित्र मापने के पैरामीटर तो हमारे यहाँ पहले से ही तय किये जा चुके हैं । कानून की शीर्ष संस्थाओं में ऊँची कुर्सियों पर बैठे लोगों के लिए भी ये पैरामीटर बदलते नहीं हैं। उनके लिए भी बलात्कार और लड़की के चरित्र को जोड़ कर देखा जाना फैसला लेने के लिए बेहद जरुरी है। बलात्कार के उन मामलों में दोषी के हक़ में फैसला देना उनके लिए आसान हो जाता है जिसमे बचाव पक्ष का वकील साबित कर दे की लड़की का चरित्र ठीक नहीं था क्यूंकि उसका शीलभंग पहले से हुआ था,वो पहले से सक्रिय सेक्स लाइफ जी रही थी।
टू फिंगर टेस्ट से पता लगाने की कोशिश की जाती है की लड़की कुवांरी है या नहीं। इसके लिए डॉक्टर पीड़िता के योनि में ऊँगली प्रवेश कर इस आधार पर रिपोर्ट देता है कि उसकी दो उँगलियाँ योनि में आसानी से प्रवेश कर पाती हैं या उसे दिक्कत महसूस हुई, प्रवेश के दौरान खून निकला या नहीं।
इसटेस्ट के परिणाम अगर सकारात्मक आ जायें तो बचाव पक्ष के वकील की चांदी हो जाती है। अब वो अदालत में साबित कर सकते हैं की लड़की तो सेक्स की आदी थी और बलात्कार उसकी सहमति से हुआ है। अब सवाल शादी शुदा महिलाओं से जुड़ता है। यानी किसी विवाहित महिला के साथ बलात्कार होता है तो उसकी मेडिकल रिपोर्ट और बचाव पक्ष के वकील तो यही कहेंगे कि मी लोर्ड महिला तो सेक्सुअली हेबिचुअल थी इसलिए सबकुछ सहमति से ही हुआ होगा। दूसरा कि ऐसे टेस्ट शादी के बाद पति द्वारा किये जाने वाले बलात्कार की अवधारणा को ही नकार देता है।
फोटो- विजय कुमार |
इसजैसे तरीकों से कानून व्यवस्था बलात्कार के मामलों में लड़कियों की निजता को सरेआम नीलाम कर हर दिन उसका बलात्कार करती है। ऐसे परीक्षणों का केवल अमान्य घोषित करने से कुछ नहीं रुकेगा। जरुरत है इसे पूरी तरह बैन कर ऐसा करने वालों पर कठोर कानूनी कारवाई की जाये। इस टेस्ट को पूरी तरीके से बैन करने के मामले में सुप्रीम में एक रिट भी डाली गई है, जिसपर कोर्ट ने केंद्र सरकार से जवाबी मांगा है। जरुरी है कि इसपर तत्काल कदम उठाते हुए इसे पूरी तरह बैन किया जाए।
नेहापत्रकार हैं. फिलहाल एक दैनिक अखबार में काम.
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