जीवन चन्द्र 'जेसी' |
-जीवन चन्द्र 'जेसी'
"...इको सेन्सटेटिव जोन बनाने से नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र में निवास करने वाले ग्रामीणों का जीवन यापन मुश्किल ही नहीं असम्भव हो जायेगा। क्योंकि वे ना तो पशुपालन ही कर पायेंगे और ना ही खेती या अपना घर बनाने के लिए ईमारती लकड़ी व पत्थरों की व्यवस्था ही कर पायेंगे। जीवन यापन करने के लिए वनों पर आधारित व्यवसायिक गतिविधियां भी नहीं कर पायेंगे।..."
सन् 2004 गोवा फाउण्डेशन द्वारा दायर रिट पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा 4 दिसम्बर 2006 को जारी आदेश में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को निर्देषित किया गया था कि वह राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों से 27 मई 2005 के मंत्रालय के पत्र के सन्दर्भ में नेश्नल पार्कों व वन्य जीव अभ्यारण्य (सैन्चुरी) लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेंसटिव जोन' घोषित किये जाने का प्रस्ताव लें अन्यथा न्यायालय, 21 जनवरी 2002 के प्रस्तावों को लागू करने का निर्देश देता है। अर्थात नेश्नल पार्को और सेन्चुरियों से लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेन्सेटिव जोन घोषित माना जायेगा।
सात जनवरी 2013 को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी पत्र में पूरे देश के 650 राष्ट्रीय पार्को व सेन्चुरी से लगे 10 किमी क्षेत्र को ईको सेन्सटिव जोन घोषित किये जाने के सन्दर्भ में सभी राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों को निर्देषित किया गया है। पत्र में कहा गया है कि प्रत्येक राज्य को 15 फरवरी 2013 तक नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्रों को ‘इको सेन्सेटिव जोन’ घोषित किये जाने का प्रस्ताव मंत्रालय को भेजे जाने का अन्तिम अवसर दिया जाता है। प्रस्ताव नहीं मिलने पर वन्य जीव संरक्षण रणनीति-2002 के तहत अधिसूचित एवं 2011 के दिशानिर्देष लागू माने जायेंगें। अर्थात नेश्नल पार्को एवं वन्य जीव अभ्यारण्यों (सेन्चुरीयों) से लगे 10 किमी क्षेत्र को इको सेन्सेटिव जोन घोषित माना जाएगा।
पूरे उत्तराखण्ड में नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र की जनता में इस फैसले का विरोध शुरू हो गया है। उत्तराखण्ड राज्य में 6 नेश्नल पार्क व 7 सेन्चुरी (वन्य जीव अभ्यारण्य) हैं तथा उत्तराखण्ड में 65 फीसदी भूमि पर वन हैं। और मात्र 13फीसदी भूमि ही कृषि भूमि है, जिसके कारण ग्रामीणों का जंगलों व वन भूमि पर ही निर्भरता है। राज्य के पहाड़ी क्षेत्र के ग्रामों में ग्रामीणों के पास नाप भूमि के अतिरिक्त ग्राम समाज की कोई भूमि नहीं है इसलिए अस्पताल हों या स्कूल वह सभी नाप भूमि पर बनते हैं। उत्तराखण्ड के पहाड़ी क्षेत्रों में नाप भूमि के अलावा समस्त भूमि वन भूमि है, जिसके कारण नाप भूमि वन भूमि से जुड़ी हुई है। कहीं-कहीं पर नाप भूमि वन भूमि से घिरी हुई है। पशुओं के लिए घास चारा पत्तियों से लेकर जलावन लकड़ी तक आवास बनाने के लिए ईमारती लकड़ी से लेकर पत्थरों के लिए ग्रामीणों की निर्भरता जंगलों व वन भूमि पर है। इसलिए वन संरक्षण अधिनियम 1980 का प्रतिगामी प्रभाव हुआ है।
पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा इको सेंसटिव जोन बनाये जाने के लिए जो दिशा निर्देश जारी हुए हैं उससे साफ जाहिर है कि प्रदेश व केन्द्र की सरकारों द्वारा उत्तराखण्ड की विशिष्ट स्थितियों, भौगोलिक परिस्थितियों व भूमि बन्दोबस्त व्यवस्था की अनदेखी की गयी है। प्रदेश व केन्द्र की सरकारों को चाहिए की वह उत्तराखण्ड की विशिष्ट स्थितियों और भौगोलिक परिस्थितियों को उच्चतम न्यायालय में रखे जिससे इको सेन्सटिव जोन बनाये जाने की प्रक्रिया को रोका जा सके। लेकिन राज्य व केन्द्र की सरकारें तो यहां की ग्रामीण जनता को जमीन से जंगल से उजाड़ने पर तुली हुईं हैं। इको सेन्सटेटिव जोन बनाने से नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्र में निवास करने वाले ग्रामीणों का जीवन यापन मुश्किल ही नहीं असम्भव हो जायेगा। क्योंकि वे ना तो पशुपालन ही कर पायेंगे और ना ही खेती या अपना घर बनाने के लिए ईमारती लकड़ी व पत्थरों की व्यवस्था ही कर पायेंगे। जीवन यापन करने के लिए वनों पर आधारित व्यवसायिक गतिविधियां भी नहीं कर पायेंगे।
शताब्दियों से ग्रामीणों का जंगलों से अटूट सम्बन्ध रहा है ग्रामीणों ने बिना सरकार की सहायता से जंगलों को पाला पोसा है उनका संवर्द्धन किया है और अपने लिए उसका उचित दोहन किया है। परन्तु पारिस्थितिकी सन्तुलन (इको सिस्टम) कभी असन्तुलित नहीं हुआ वहीँ पारिस्थितिकी सन्तुलन को सरकार की जनविरोधी नीतियों, खनन माफियाओं और वन माफियाओं-तस्करों ने बिगाड़ा है। माफियाओं व तस्करों ने ही पहाड़ के जंगलों को तबाह किया है, सरकारें माफियाओं, तस्करों पर तो रोक नहीं लगाती उल्टा ग्रामीणों पर ही काले वन कानूनों व पारिस्थितिकी सन्तुलन के नाम पर इको सेन्सटिव जोन घोषित किये जाने जैसे जनविरोधी फैसले थोप रही है।
पहाड़ी क्षेत्रों के ग्रामीणों का जंगलों से जो सम्बन्ध और निर्भरता है इको सेन्सटिव जोन बनाये जाने से काश्तकारों व मजदूरों का जीना मुश्किल हो जायेगा और नेश्नल पार्को और वन्य जीव विहार(सेन्चुरियों) से लगे आबादी वाले क्षेत्रों के ग्रामीणों के लिए अपनी जमीन व जंगल से बेदखल होने का संकट बढ़ गया है। नन्दादेवी नेश्नल पार्क, विनोक माउन्टेन क्लेव वन्य जीव विहार, नन्दौर वन्य जीव अभ्यारण्य से लगे क्षेत्रों को इको सेन्सेटिव बनाये जाने का प्रस्ताव 2 फरवरी 2013 को शासन को भेज दिया गया है। सीमा विवाद, जनाक्रोश व विरोध को देखते हुए कुछ नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों को विवादित माना गया है। लेकिन देर सबेर सभी नेश्नल पार्को व सेन्चुरियों से लगे 10 किमी के क्षेत्रों को इको सेन्सटिव जोन बनाया जाना है। इस जनविरोधी फैसले के खिलाफ नेश्नल पार्कों व सेन्चुरियों से लगे क्षेत्रों की जनता को एक जुटता के साथ इको सेंसटिव जोन बनाये जाने के खिलाफ अपने विरोध-प्रतिरोध को और ज्यादा धारदार बनाना होगा।
जीवन चन्द्र उत्तराखंड के सक्रिय जन-आंदोलनकारी और पत्रकार हैं.
उत्तराखंड से निकलने वाले अखबार 'प्रतिरोध के स्वर' का संपादन
इनसे संपर्क का पता है- jivan.jc@facebook.co m
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