-डॉ. मोहन आर्या
अन्तराष्ट्रीय कूटनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीर, का राजनीतिक संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार इस चर्चा की वजह बनी है कश्मीर के एक नागरिक को भारतीय चुनावी राजनीति की उठा-पटक के लिए 'जनमानस की सामूहिक अंतरात्मा' की दुहाई देकर फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना. अफजल गुरू की फांसी के बाद अखबारों, चैनलों, इंटरनेट और फोन आदि पर रोक लगाते हुये भारतीय राज्य ने समूचे कश्मीर को भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया. यह बताता है कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर है. ऐसे में कश्मीर की आवाम की तरफ से उठती आज़ादी की मांग दुनिया भर के अमनपसंद लोगों को सहमत करती है. लेकिन यह बात इतनी ही सरल भी नहीं है. इसके पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में पर्याप्त बहस भी है. praxisमें हम इस बहस को खोलना चाह रहे हैं. इसके लिए praxisके पुराने पन्नों को पलट कर एक आलेख फिर आपके सामने रख रहे हैं. जो इस विषय के विस्तार में जाकर इससे जुड़े ज़टिल प्रश्नों को सामने रखता है. उम्मींद है कश्मीर और अन्य राष्ट्रीयताओं के सवाल पर एक स्वस्थ बहस इस आलेख की बुनियाद में खुल सकेगी. इस क्रम में हमारी कोशिश है कि प्रतिक्रियाओं और आलेखों से हम इसे आगे बढ़ाएं. praxisके पाठक ही इसके लेखक भी हैं. आपको ही टिप्पणियों और प्रतिक्रिया आलेखों से इसे आगे बढ़ाना है...
-मॉडरेटर
-डॉ. मोहन आर्या
'कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा।'
-अरुंधती राय
'राष्ट्र एक ऐसा जन समुदाय होता है जिसका गठन ऐतिहासिक प्रक्रिया में होता है। सामान्य भाषा भौगोलिक क्षेत्र आर्थिक जीवन और मनोवैज्ञानिक संरचना उसकी सामान्य संस्कृति के आवयविक तत्व होते हैं'
-जोसेफ स्टालिन
'आखिर विभाजन है क्या? भारत का विभाजन अपनी जातियों मध्यवर्ग और जनता के बीच संपर्क की कमी की स्थिति का एक तरह से कानूनी दस्तावेज है।'
-डा0 राम मनोहर लोहिया
'इन मूलभूत सिद्धांतों की सच्चाई को समय ने कम करने के स्थान पर सुदृढ़ ही किया है- समाज का अनिवार्यतः संघीय चरित्र, प्रसव पीड़ा से गुजर रही विष्व अर्थव्यवस्था के साथ संप्रभु राज्यों की संगति न बैठना, उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् स्वामित्व के अधिकारों और लोकतांत्रिक विचारों के बीच विरोध, समता विहीन स्वतंत्रता के निरर्थक होने की अवधारणा, मात्र औपचारिक होने के कारण कानून को वैध मानने से इनकार किसी समाज में गंभीर आर्थिक स्थितियों में शासन का प्रभाव धनी लोगों के पक्ष में ही रहना चाहे वह सार्वजनिक मताधिकार पर ही आधारित क्यों न हो।'
-हेराल्ड जे0 लास्की
जहां तक इस लेख के प्रविषय की बात है तो उपर्युक्त चार टिप्पणियां, यदि हम ढेर सारी रियायतें चाहें तो मुख्यतः दो अलग-अलग चिंतनधाराओं का प्रतिनिधित्व करती हैं। अरुंधती द्वारा उठाए गए मुद्दे का हल इस मुद्दे की प्रकृति की तरह सामयिक नहीं हो सकता। यदि कोई तात्कालिक उपाय निकल भी आए तो आत्मनिर्णय जो किसी भी तरह की अस्मिता उत्पीड़न और अलगाव से वैधता ग्रहण करके संप्रभुता में बदला है ऐतिहासिक रूप से समग्रतया मानवता के लिए हानिकारक तो रहा ही है साथ ही उन मानव समूहों के लिए भी कुछ खास लाभदायक नहीं रहा है जिन्होंने इसकी मांग की थी। अपने आप को विश्व नागरिक मानने वाली अरुंधती और उनके जैसे दूसरे मानवाधिकारवादी इस बात से इनकार नहीं कर सकते हैं।
तथ्यात्मक रूप से अरुंधती की बात एकदम सही है परंतु तथ्य तो यह भी है कि उत्तराखंड राज्य भी भारतीय राष्ट्रराज्य जैसी किसी अवधारणा से हमशा ही ताल्लुक नहीं रखता था। इसे स्थानीय राज्यवंशों से पहले गोरखाओं ने जीता फिर गोरखाओं से अंग्रेजों ने। यही बात कई अन्य राज्यों के लिए भी कही जा सकती है। तथ्य जो कुछ कहते हैं वह सटीक तो हो सकता है परंतु समीचीन भी हो आवश्यक नहीं।
अब प्रश्न यह है कि यह तथ्य कश्मीर के लिए ही इतना प्रासंगिक नजर क्यों आता है। और इस तथ्य पर आधारित किसी विचार प्रणाली के कार्यान्वयन के स्वाभाविक और तार्किक परिणाम क्या हो सकते हैं। कश्मीर कभी भी भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं रहा यह बात कश्मीरियों के ‘आजादी’ के संघर्ष को वैधता प्रदान करती है। इस ‘आजादी’ की लड़ाई के मूलआधार क्या हो सकते हैं?
·भारतीय राज्य द्वारा 'एएफएसपीए' द्वारा उत्पीड़न।
·कश्मीरी जनता का अन्य भारतीयों से अलगाव।
·विलय के समय की स्थितियों व शर्तों से गैर इत्तेफाक।
·कश्मीरी जनता का एक जमात, जो मुख्य रूप से इस्लामी जमात ही है 'के रूप में पृथक राष्ट्रीयता का दावा।
·पृथक राष्ट्रीयता के आधार पर आत्मनिर्णय की मांग।
·आत्मनिर्णय से संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का लक्ष्य।
अगर बात यहीं पर समाप्त हो जाए तो शायद विवेकशील और निष्पक्ष मनुष्य संतुष्ट भी हो जाएं। परंतु इससे आगे भी कुछ होगा।
संप्रभु राष्ट्र की स्थापना का मतलब है एक और नई सीमा, नए वीजा कानून, नई सेना, नई सीक्रेट सर्विस, नया अविश्वास और हो सकता है नया परमाणु बम! विश्व का और अधिक असुरक्षित होना और हथियारों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों का और अधिक मुनाफा। जनता की वास्तविक आवश्यकताओं के बजाय राज्य सेना बार्डर बम कूटनीति पर अधिक ध्यान देता है क्योंकि बहुराज्यीय विश्व में किसी भी राष्ट्र-राज्य का यही चरित्र होना है।
कश्मीर या देश के अन्य हिस्सों में भी पृथकतावादी आंदोलनों की समस्या वास्तव में राज्य की आंतरिक संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या है। और इनका समाधान नए आंतरिक संप्रभुओं को पैदा करके नहीं किया जा सकता। ब्रिटिश शासन के समय मुस्लिम जनता के सांस्कृतिक अलगाव हिन्दुओं द्वारा उत्पीड़न और चुनावी लोकतंत्र में हमेशा के लिए मुस्लिमों के अल्पसंख्यक रह जाने के भय के आधार पर पृथक मुस्लिम राष्ट्रराज्य का जन्म हुआ। जो कि वास्तव में संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या का तदर्थ उपाय ही साबित हुआ है। क्योंकि भाषाई व सांस्कृतिक आधार पर राष्ट्रीयता और पंजाबी लोगों के बांग्ला लोगों पर वर्चस्व के विरुद्ध नए संप्रभु बांग्लादेश का जन्म हुआ। बलूच संप्रभुता के लिए संघर्ष अभी जारी ही है। इस विखंडन और विभाजन की क्या कोई सीमा भी है?
कोईभी निष्पक्ष व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि ब्रिटिश शासित भारतीय उपमहाद्वीप में तीन संप्रभुताओं के पैदा हो जाने से यहां की जनता की समस्याओं को सुलझा लिया गया है। वास्तव में तो जनता को अनचाहे युद्धों धार्मिक उन्माद उग्रराष्ट्रवाद और सांप्रदायिक दंगों का सबसे अधिक शिकार होना पड़ा है। सबसे गंभीर बात यह है कि एक कड़वाहट मौजूद हो गई है जिसका इतिहास पुराना नहीं है और जिसकी उम्र अभी बहुत लंबी होगी।
पृथक कश्मीर की अवधारणा में जो सबसे खतरनाक बात है, वह है राष्ट्रीयता को आधार बनाए जाने वाले सिद्धांत। यह आत्मनिर्णय वहां की बहुसंख्यक मुस्लिम जनता का आत्मनिर्णय है। धार्मिक आधार पर पृथक राष्ट्रीयता को जायज ठहराना कहां तक उचित है। चाहे कितने भी लोकतांत्रिक दावे किए जाएं धार्मिक अस्मिता के आधार पर वैधता ग्रहण करने वाली राष्ट्रीयता लोकतांत्रिक मूल्यों के विरुद्ध ही खड़ी नजर आती है।
यादकीजिए 'कायदे आजम' मुहम्मद अली जिन्नाह का पाकिस्तान की स्थापना पर दिया गया भाषण जिसमें उन्होंने जोर दिया ‘अब जब पाकिस्तान बन ही गया है तो यह धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनेगा।’ जिन्नाह गलत साबित हुए और कश्मीर के मामले में तो जिन्नाह जैसा कोई धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर विशवास रखने वाला नेतृत्व कम से कम हुर्रियत कांफ्रेस के पास तो नजर नहीं आता। जिन्नाह, गिलानी और उनके जैसे नेताओं से साठ सत्तर साल पहले हुए हैं। परंतु विचारों के लिहाज से कहीं अधिक आधुनिक और प्रगतिशील हैं।
जिन्नाहके बावजूद पाकिस्तान की परिणति को देखते हुए जिन्नाह जैसों की गैरमौजूदगी में कश्मीर की परिणति की कल्पना की जा सकती है। क्या पृथक कश्मीर इतना लोकतांत्रिक भी होगा जितना वर्तमान में भारत है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर इस्लामिक कट्टरवाद के उभार के इस दौर में संदेह होता है। विवेकशील को संदेह का अधिकार होना ही चाहिए।
तो धार्मिक आधार पर आत्मनिर्णय तो तर्कसंगत नहीं लगता। अब बात करें उत्पीड़न की। 'एएफएसपीए' निसंदेह एक उत्पीड़क अधिनियम है। भारतीय राज्य को जितना लोकतांत्रिक (कम से कम पारिभाषिक रूप से) बताया जाता है यह अधिनियम उससे बिल्कुल भी संगति नहीं रखता। 'एएफएसपीए' और इसके जैसे तमाम कानून सच्चे लोकतंत्र में मौजूद नहीं होने चाहिए। इनकी मौजूदगी भारतीय राज्य के लोकतांत्रिक होने पर प्रश्नचिन्ह लगाती है तथा बताती है कि हमारा लोकतंत्र वास्तव में अधूरा है।
सशस्त्रसेनाओं को नागरिकों की हत्याओं की खुली छूट नहीं दी जा सकती। उत्पीड़न से अलगाव पैदा होना स्वाभाविक ही है। परन्तु प्रश्न इस अधूरे लोकतंत्र को पूरा बनाने का है। पृथक संप्रभु उत्पीड़न के खिलाफ कारगार उपाय नहीं होगा। क्योंकि नया संप्रभु भी किसी न किसी आधार पर उत्पीड़क ही हो जाएगा क्योंकि वर्तमान वैश्विक व्यवस्था में संप्रभुता जिस रूप में है उसे तो उत्पीड़क ही होना है। लड़ाई संप्रभुता के इस स्वरूप को बदलने के लिए होनी चाहिए न कि उसी ढांचे के नए संप्रभुओं को पैदा करने की।
साथ ही यदि अलगाव और उत्पीड़न के आधार पर पृथक संप्रभुत्व को वैधता प्रदान की जाय तो भारत के भीतर पृथक राष्ट्रीयता का दावा करने का पहला अधिकार दलितों का है। याद कीजिए डा0 अम्बेडकर का भाषण जिसमें उन्होंने धर्मान्तरण की अपर्याप्तता एवं देषांतरण के विकल्प पर बात की है। कम्यूनल अवार्ड 1932 के दलितों के पृथक निर्वाचन संघ का तार्किक परिणाम पृथक राष्ट्रीयता ही हो सकता था। परंतु तत्कालीन दलित जनता का इस तरह का राजनीतिकरण हुआ ही नहीं था। ना ही दलित नेतृत्व मुस्लिम नेतृत्व की तरह संपत्तिशाली था और उतने सशक्त दबाव गुट के रूप में काम नहीं कर सकता था। दलित पृथक राष्ट्र की ओर नहीं बढ़े इसके जो भी कारण रहे हों परन्तु यह ऐतिहासिक रूप से समग्रतया अच्छा ही है। क्योंकि पृथक दलित संप्रभु के बीच से अन्य आधारों पर पृथक राष्ट्रीयताओं की मांग नहीं उठती ऐसा सोचना इतिहास को नकारना ही होगा।
यह तो रही उत्पीड़न और अलगाव की बात। अब ‘जोसेफ स्टालिन’ की राष्ट्र की परिभाषा की ओर ध्यान दें तो मार्क्सवादियों को सबसे अधिक प्रिय यह परिभाषा कई मायनों में अपर्याप्त है। स्वयं स्टालिन ने अपने वचनों का मोल नहीं रखा था। कौन कह सकता है कि चेचन विद्रोहियों की सामान्य संस्कृति, भाषा, भौगोलिक क्षेत्र, मनोवैज्ञानिक संरचना नहीं है। तो राष्ट्र बनने की इनकी प्रक्रिया की ऐतिहासिकता को किसने तोड़ा था? स्वाभाविक उत्तर है ‘स्टालिन’ ने।
द्वितीयविश्वयुद्ध में चेचन ‘विश्वासघात’ का बदला लेने के लिए स्टालिन ने चेचन्या के साथ जो किया वह सब करते हुए वे एक निष्ठ ुर तानाशाह अतिकेंद्रीयता में विश्वास करने वाली संप्रभुता के प्रवक्ता नजर आते हैं। यदि वह राष्ट्र की अपनी परिभाषा पर कुछ भी विश्वास करते तो चेचन्या को आत्मनिर्णय का अधिकार भले ही न देते लेकिन चेचन राष्ट्रीयता की बात करने वालों को साइबेरिया में निष्कासित तो ना ही करते। परन्तु यह बात ध्यान रखने की है कि पृथक राष्ट्र के संघर्ष में चेचन द्वारा अंजाम दी गई बेसलान स्कूल के नृशंश हत्याकांड को किसी भी तरह से औचित्यपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
यहइस बात का सबूत है कि एक पक्षीय स्वार्थी हित अच्छे और बुरे के बीच में फर्क करने में असफल होते हैं यह बात स्टालिन और चेचन दोनों पर लागू होती है। यहां भी मूल समस्या तो संप्रभुता के केंद्रीकरण की समस्या ही थी। कम्युनिस्ट चीन ने तिब्बत की राष्ट्रीयता के साथ जो किया है चह राष्ट्र की मार्क्सवादी परिभाषा से मेल नहीं खाता।
भारतके विभाजन पर मार्क्सवादियों के रुख को देखकर लोहिया ने कहा था ‘अपने स्वभाव से कम्युनिस्ट दांव पेंच का स्वरूप ही ऐसा है..... जब यह शक्तिहीन रहता है अपने शत्रु को कमजोर करने के लिए यह सशक्त राष्ट्रीयता का सहारा लेता है। जब यह राष्ट्रीयता का प्रतिनिधित्व करता है तब वह पृथकवादी नहीं रहता। साम्यवाद कोरिया और वियतनाम में एकतावादी है और जर्मनी में पृथकतावादी।...’
अब तक के अनुभवों से ऐसा लगता है कि जब साम्यवादी कमजोर होते हैं तो उपराष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय का समर्थन करते हैं और जब सत्ता में होते हैं तो उनका दमन करते हैं। यूएसएसआर की इकाई सदस्यों के पृथक होने के औपचारिक अधिकार का क्रियान्वयन कितना अव्यावहारिक था अंतर्राष्ट्रीय कूटनीति के अध्येता अच्छी तरह समझते हैं। जबकि रणनीतिक तौर पर भी बहुराष्ट्रीय राज्य के भीतर मार्क्सवादियों का आंदोलन उन राष्ट्रराज्यों की तुलना में अधिक आसान होना चाहिए जिन्होंने धर्म भाषा या जातीय उत्पीड़न के आधार पर आत्मनिर्णय प्राप्त किया हो। क्योंकि ऐसे राष्ट्रराज्यों में शासकवर्ग जनता को धर्म, भाषा या जातीय राष्ट्रवाद के आधार पर अधिक भुलावे में रखता है। क्या कारण है कि पाकिस्तान में मार्क्सवादी, भारत के मार्क्सवादियों की तुलना में कमजोर हैं। तो कुलमिलाकर ऐसा लगता है कि राष्ट्र को लेकर मार्क्सवादी अवधारणा का केवल अकादमिक महत्व ही है।
अब बढ़ें लोहिया की ओर। लोहिया की यह बात कि भारत का विभाजन, शासक व शासित के बीच जनता, मध्यवर्ग और विभिन्न जातियों के बीच संपर्क के अभाव का कानूनी दस्तावेज है। उपराष्ट्रीयताओं के उद्भव और उनके आत्मनिर्णय में परिणत होने की प्रक्रिया का यह उत्कृष्ट विश्लेषण लगता है। यद्यपि यह सामान्यीकरण प्रतीत होता है परन्तु वास्तविकता तो यही है कि संप्रभु और जनता के बीच खाई और जनता के विभिन्न हिस्सों के बीच संवादहीनता से ही अलगाव पैदा होता है। उस पर संप्रभु की यह अकड़ कि वह संप्रभुता को अपने ही पास रखेगा (भले ही संप्रभुता जनता में केंद्रित मानी जाय परंतु वास्तव में एक वर्ग विभाजित समाज में वह कुछ खास लोगों के पास ही रहती है।) खास सामाजिक रूप से वर्चस्वशाली तबकों की स्थिति जब निर्णायक की होती है तो स्थिति और गंभीर हो जाती है।
एकनिश्चित सीमा के बाद इसे संरक्षणात्मक भेदभाव जैसे उपाय नहीं संभाल सकते। रंगनाथ मिश्र कमेटी और सच्चर आयोग बहुत देरी से की गई पहलें हैं। और इनकी सिफारिशें भी अभी क्रियान्वित नहीं की गई हैं। हालांकि इस तरह के उपायों से प्रारंभ (1950-60) में काफी मदद मिल सकती थी। हालांकि यह कल्पना की उड़ान ही लगेगी परंतु यदि कैबिनेट मिशन द्वारा लागू की गई योजना के ‘गुट संबंधी खंडों’ को उसी रूप में क्रियान्वित किया जाता जैसा कि कैबिनेट मिशन योजना का सिद्धांत था तो शायद भारत का विभाजन टल सकता था।
इनखंडों में केंद्र को कम शक्तियां थी। वह व्यवस्था हमारी वर्तमान व्यवस्था से अधिक संघीय होती। परन्तु इन खंडों का निर्वचन लीग और कांग्रेस द्वारा अलग अलग तरह से किया गया। वास्तव में कांग्रेस नेतृत्व, लीग की ही तरह साझी संप्रभुता बांटने को तैयार नहीं था। ब्रिटिश साम्राज्यवादी इसी ताक में थे क्योंकि उन्हें विभाजन से एशिया में सोवियत रूस के प्रभाव को कम करने के लिए पाकिस्तान के रूप में अधिक विश्वस्त सहयोगी मिलने वाला था। नतीजा था विभाजन।
साम्राज्यवादी ताकतें अपनी संप्रभुता को छोड़ने की मुद्रा में दिखाई देने के बावजूद भी ऐसा जाल बिछाती हैं कि वे भविष्य के लिए अपने राष्ट्रीय हित(आंतरिक संप्रभु हित) सुरक्षित रख पाएं। पाकिस्तान की समस्या ही नहीं श्रीलंका की तमिल समस्या के मूल में कहीं ना कहीं उपनिवेशवादी ताकतों का गहरा हित रहा है। दूसरी धुरी की समाजवादी विश्व ताकतें जिन्होंने बिना शर्त उपनिवेशों को मुक्त किया था के बारे में ऐसा लगा था कि वे चूंकि सैद्धांतिक रूप से मार्क्सवादी हैं जिनका अंतिम लक्ष्य राज्यविहीन समाज बनाना है। अतः वे संप्रभुता के विरूद्ध कुछ वैचारिक संघर्ष चलाएंगे। परंतु जब लेनिन ने यह कहा ‘हम आदर्शवादी नहीं हैं और राज्य की आवश्यकता बनी रहेगी’ तो एक तरह से कार्ल मार्क्स को उन्होंने स्वप्नदर्शी घोषित कर दिया। साथ ही साम्यवाद के रास्ते से अराजकता को प्राप्त करने की आशाऐं भी धूमिल हो गई। ‘अराजकता को प्राप्त करने की आशा’ से भ्रम में ना पड़ें। समानता स्वतंत्रता और नैसर्गिक भाईचारे से युक्त अराजक समाज ही मनुष्य की आंखों से देखा गया अब तक का सबसे खूबसूरत स्वप्न है।
साम्यवादके रास्ते से या ज्यादा स्पष्ट कहना चाहिए साम्यवादियों के रास्ते से आंतरिक संप्रभुता नष्ट नहीं होगी। यह यूएसएसआर और जनवादी चीन के कृत्यों ने दिखा ही दिया है। 1960 के बाद जब यूएसए और यूएसएसआर करीब आए तो कहा जाने लगा कि तकनीकी रूप से विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बीच विचारधाराओं के आधार पर संघर्ष के बिंदु उत्पन्न नहीं होते। तो संघर्ष किन बिंदुओं पर उभरते हैं? उनके-अपने राष्ट्रीयहितों(आंतरिक संप्रभुता) के कारण। पूरे शीतयुद्ध का इतिहास विचारधाराओं का कम और राष्ट्रीयताओं के संघर्ष का इतिहास अधिक है। तत्कालीन रूस और चीन के मतभेदों को भी इसी प्रकाश में देखना चाहिए।
अबजबकि यूएसएसआर नहीं रहा और चीन भी मार्क्सवाद को त्याग ही चुका है तो यह पहले से कहीं अधिक स्पष्ट है कि राष्ट्रराज्यों के लिए उनके अपने हित ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं। अमेरिकी साम्राज्यवाद की मौजूदगी और इसके विरुद्ध सैद्धांतिक रूप से वैध होने के बावजूद भी आंतरिक संप्रभुता ही विश्व की असुरक्षा का सबसे बड़ा खतरा है। क्योंकि एक तरफ तो यह साम्राज्यवाद के विरूद्ध औचित्य ग्रहण करती हुई दिखती है तो दूसरी तरफ इसके स्वाभाविक परिणाम हथियारों की होड़ के माध्यम से साम्राज्यवाद को बढ़ावा देने वाले होते हैं। दुनिया आज भी आतंक के संतुलन पर चल रही है।
लास्की कहते हैं कि समाज अनिवार्य रूप से बहुलात्मक है। तो राज्य को भी बहुलात्मक होना चाहिए क्योंकि प्रसव पीड़ा से गुजर रही विश्व अर्थव्यवस्था की राष्ट्रराज्यों से असंगति है। उत्पादन के साधनों पर व्यक्तिगत् अधिकार और लोकतांत्रिक विचारों के बीच अनिवार्य विरोध है। कानून का स्वरूप औपचारिक है। सार्वजनिक मताधिकार के बावजूद शासन वर्चस्वशाली लोगों के हाथों में है।
तो इन दशाओं में यदि कहीं पृथक संप्रभुत्व की मांग उठती है तो इसे समाधान नहीं मान लेना चाहिए। पृथक संप्रभु समाधान नहीं एक नई समस्या होगा और इस समस्या की कोई सीमा नहीं होगी। कम से कम ‘इतिहास का विवेक’ तो यही बताता है। समाधान तो यही होगा कि संप्रभुता को जनता में बिखेर दिया जाय और यह उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण किये बगैर संभव नहीं होगा।
एकवर्ग विभाजित समाज में आर्थिक संप्रभु ही राजनीतिक संप्रभु भी होता है। परंतु उत्पादन के साधनों का सामुहिकीकरण और उससे आंतरिक संप्रभुत्व का विनाश ‘सर्वहारा की तानाशाही’ से होना मुश्किल है। क्योंकि पहले तो जिस पैमाने पर आज ‘बुर्जुआ’ स्वतंत्रता फैल चुकी है उसे लपेटा नहीं जा सकता, दूसरे सर्वहारा की तानाशाही व्यवहार में एक पार्टी की तानाशाही साबित हुई है। इस शासक वर्ग का भी अपनी जनता के साथ अंतर्विरोध हो सकता है। जिससे पुनः अलग संप्रभुत्व की मांग उठ सकती है। याद करें चीन में हान राष्ट्रवाद और उइगर समुदाय के बीच संघर्ष और उइगरों का दमन।
कुल मिला कर ऐसा लगता है कि उत्पीड़न, अलगाव, राष्ट्रीयता आत्मनिर्णय व संप्रभुता की समस्याएं ऊपर से देखने पर चाहे धार्मिक, प्रजातीय, क्षेत्रीय, भाषाई, सांस्कृतिक, जातीय अस्मिताओं के आधार पर खड़ी हुई प्रतीत हों वास्तव में ये संप्रभुता के केंद्रीयकरण की समस्याएं हैं। इनका समाधान एक विश्व संसद या विश्व समाज जिसमें आंतरिक संप्रभुताएं नष्ट हो चुकी होंगी, उत्पादन के साधनों का सामाजीकरण हो चुका होगा में ही है। पुनरावृत्ति के साथ कहुंगा कि नई संप्रभुताएं नई समस्याएं होंगी। संप्रभुता को जनता में बिखेर देना ही समाधान है। इसी दिशा में संघर्ष करना होगा।
‘मोहन’ स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।
इनसे mohanmanuarya@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।
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