Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

आपको मालूम है.. झारखंड जल रहा है!

$
0
0
-रूपेश कुमार सिंह
स्वतंत्र पत्रकार


"..इस बार वर्षों से झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के दिलों में दबे हुए शोले को चिंगारी देने का काम किया है मौजूदा भाजपा सरकार की नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव ने. वर्षों से इनकी जल-जंगल-जमीन की अवैधानिक व जबरन लूट को अब कानून बनाकर संस्थागत रूप देने का प्रयास किया जा रहा है.."

झारखंड सुलग रहा है और सुलग रहे हैं यहां के जल-जंगल-ज़मीन के रखवाले. बिरसा मुंडा, सिद्धू, कान्हू, चांद, भैरव व फुलो-झानो की संतानों ने बिगुल फूंक दिया है झारखंड के भाजपानीत रघुवर दास सरकार के खिलाफ. नगाड़ा बज रहा है झारखंड के गांवों में, जंगलों व पहाड़ों पर. लड़ाई का न्योता भेजा जा रहा है तमाम लड़ाकूओं के पास. पोस्टर चिपकाए जा रहे हैं, पर्चे बांटे जा रहे हैं और प्रत्येक गांवों, कस्बों और शहरों के नुक्कड़ों पर झारखंड की अस्मिता को बचाने का संकल्प दोहराया जा रहा है. आप सोच रहे होंगे कि अगर ऐसा है तो फिर ये हमारे टेलीविजन के सैकड़ों न्यूज चैनल और हमारे घरों में आनेवाले अखबार ये बात क्यों नहीं बताते? नहीं बताएंगे वे क्योंकि ये न्यूज चैनल और अखबार पूंजीपतियों व झारखंड के जल-जंगल-जमीन के लूटेरों के साथ मिल गई है व उनकी ही दलाली कर रही है, तो फिर ये झारखंड की आम जनता यानी कि आदिवासी-मूलवासी का सुलगना आपको कैसे बताएगी? वैसे तो आप ये जानते ही हैं कि झारखंड के आदिवासी-मूलवासी जब सुलगते हैं तो बड़ी से बड़ी ताकतें भी थर्रा उठती है, फिर चाहे वो 18वीं सदी के मध्य में हुआ तिलकामांझी का विद्रोह हो, 1830-32 का सारंडा से लेकर चतरा तक पसरा कोल विद्रोह हो, 1855 का संथाल हूल हो या फिर 1900 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुआ उलगुलान हो. कभी भी यहां के आदिवासी-मूलवासी लड़ाई में पीछे नहीं रहे हैं और लड़ाई में कुर्बानी देने का भी इनका अपना एक इतिहास रहा है.


इस बार वर्षों से झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के दिलों में दबे हुए शोले को चिनगारी देने का काम किया है मौजूदा भाजपा सरकार की नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव ने. वर्षों से इनकी जल-जंगल-जमीन की अवैधानिक व जबरन लूट को अब कानून बनाकर संस्थागत रूप देने का प्रयास किया जा रहा है. इसी कड़ी में झारखंड में मौजूदा सरकार ने 7 अप्रेल 2016 को नई स्थानीय नीति की घोषणा की और झारखंड राज्य के मूल चरित्र पर भीषण हमला कर दिया और फिर जो भी कसर बांकी रह गई थी उसे भी 3 मई 2016 को छोटा नागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट) में संशोधन का प्रस्ताव कैबिनेट से पास कराकर पूरी कर दी. ऐसी स्थिति में स्वाभाविक बात थी कि झारखंड की जनता का खून खौलना है और अब झारखंडी खून उबाल मारने लगा है.

क्यों मचा स्थानीय नीति पर हंगामा?

15 नवंबर 2000 को झारखंड को अलग राज्य का दर्जा मिलने के बाद तत्कालीन भाजपानीत सरकार के मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने स्थानीय नीति बनाने की कोशिश की. राज्य की इस पहली सरकार ने 22 सितम्बर 2001 को बिहार में प्रचलित स्थानीयता की परिभाषा को बिहार पुनर्गठन अधिनियम 2000 की धारा 85 के आलोक में अंगीकृत किया. संबंधित धारा में इसका उल्लेख अवश्य था कि 1931 के सर्वे सेटलमेंट में जिनका नाम दर्ज होगा वे स्थानीय कहलाएंगे. इससे इतर ऐसे व्यक्ति जिनका नाम सर्वे सेटलमेंट में नही था स्थानीय कहलाने के लिये उनके लिए भी मानक निर्धारित किए गए थे. शर्त बस इतनी सी थी कि संबंधित गांव अथवा शहर के स्थानीय पांच लोग यह प्रमाणित कर दें कि अमुक व्यक्ति के पूर्वज यहां वर्षों से रहते आए हैं. यह हुबहू अविभाजित बिहार में राज्य सरकार की अधिसूचना दिनांक 3 मार्च 1982 की नकल ही थी. तत्कालीन मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी के द्वारा 2002 में लाए गए डोमिसाइल नीति के विरोध में पूरा झारखंड रणक्षेत्र बन गया था. आदिवासी-मूलवासी और दिकूओं (गैरआदिवासी को आदिवासी दिकू नाम से ही बुलाते हैं) के बीच उस समय काफी हिंसक झड़प भी हुई. अंततः 27 नवंबर 2002 को झारखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय खंडपीठ ने सरकार की डोमिसाइल नीति को खारिज कर दिया और फिर से स्थानीय व्यक्ति के पहचान के निर्देश दिए. तब से जितनी भी सरकारें आई, सबके कार्यकाल में स्थानीयता की परिभाषा को तय करने के सवाल का हल नहीं निकल पाया. हां, कमिटियां बनती रही और रिपोर्ट भी सौंपे जाते रहे. 

नए-नए वादे व दावे के साथ झारखंड में पूर्ण बहुमत से बनी भाजपा सरकार के लिए स्थानीयता को परिभाषित करने का दबाव शुरु से ही रहा. क्योंकि अब तो केन्द्र और राज्य दोनों में एक ही सरकार थी. साथ ही साथ इस सरकार पर यह भी दबाव था कि जिस तरह से पहली बार झारखंड में कोई गैरआदिवासी मुख्यमंत्री बना है तो गैरआदिवासियों के हित के अनुरूप ही स्थानीय नीति घोषित की जाए. अंततः 7 अप्रैल 2016 को नई स्थानीय नीति की घोषणा की गई. इसके मूल प्रावधान इस प्रकार हैं-

  1. झारखंड की भौगोलिक सीमा में निवास करने वाले वैसे सभी व्यक्ति, जिनका स्वयं अथवा पूर्वज के नाम पर गत् सर्वे खतियान में नाम दर्ज हो एवं वैसे मूल निवासियों, जो भूमिहीन हैं, उनके संबंध में भी उनकी प्रचलित भाषा, संस्कृति एवं परेपरा के आधर पर ग्राम सभा द्वारा पहचान किये जाने पर स्थानीय की परिभाषा में उन्हें शामिल किया जाएगा.
  2. झारखंड के वैसे निवासी, जो व्यापार, नियोजन एवं अन्य कारणों से विगत 30 वर्षों या उससे अधिक से निवास करते हों यानी कि 1985 या उससे पहले से भी रहते हों एवं अचल संपत्ति अर्जित की हो या ऐसे व्यक्ति की पत्नी, पति, संतान हों.
  3. झारखंड राज्य सरकार अथवा राज्य सरकार द्वारा संचालित या मान्यता प्राप्त संस्थानों, निगमों आदि में नियुक्त एवं कार्यरत पदाधिकारी, कर्मचारी या उनकी पत्नी, पति, संतान हों.
  4. भारत सरकार के पदाधिकारियों, कर्मचारियों जो झारखंड राज्य में कार्यरत हों या उनकी पत्नी, पति, संतान हों.
  5. झारखंड राज्य में किसी संवैधानिक अथवा विधिक पदों पर नियुक्त व्यक्ति या उनकी पत्नी, पति, संतान हों.
  6. ऐसे व्यक्ति जिनका जन्म झारखंड राज्य में हुआ हो तथा जिन्होंने अपनी मैट्रिकुलेशन एवं समकक्ष स्तर की पूरी शिक्षा झारखंड राज्य में स्थित मान्यताप्राप्त संस्थानों से पूर्ण की हो.


सरकार की इस स्थानीय नीति में भी कई छेद हैं और साफ तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार ने भरपूर कोशिश की है कि यहां के नौकरियों और संसाधनों पर बाहरी लोगों का कब्जा बरकरार रहे और आदिवासियों-मूलवासियों को हाशिए पर धकेल दिया जाए. यही कारण है कि झारखंड की विपक्षी पार्टियां ही नहीं बल्कि सत्ता पक्ष यानी कि भाजपा के कई आदिवासी विधायक व मंत्री भी इसका विरोध कर रहे हैं. सरकार में भागीदार आजसू तो इसके विरोध में है ही. खासकर झारखंड के आदिवासी नेताओं को, वे चाहे जिस भी पार्टी में हो, स्थानीयता पर सरकार की नीति के खिलाफ खड़ा होना ही पड़ रहा है, भले ही दिखावटी ही सही. हां, कुछ बेशर्म आदिवासी नेता जरूर हैं, जो अपनी ही समुदाय से गद्दारी कर सरकार के पक्ष में खड़े हैं. सरकार भी अपने पक्ष में लोगों को करने में यानी कि जनता को भरमाने में कोई भी कोर-कसर बांकी नहीं छोड़ रही है. यही कारण है कि जब विपक्षी पार्टियों ने 14 मई 2016 को स्थानीय नीति के खिलाफ झारखंड बंद का आह्वान किया तो भाजपा सरकार ने भी 13 मई से 15 मई तक लगातार स्थानीय नीति के पक्ष में दो-दो पन्ने के विज्ञापन तमाम समाचारपत्रों में छपवाए, जिसमें स्थानीय नीति के पक्ष में झारखंड के बुद्धिजीवियों, पत्रकारों, अधिवक्ताओं व आंदोलनकारियों के लेख थे. जिसमें सबसे दुखदायी पक्ष ये था कि हमेशा झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों के हित के पक्षधर प्रसिद्ध आंदोलनकारी एवं जनजातीय एवं क्षेत्रीय भाषा विभाग रांची के पूर्व अध्यक्ष बी. पी. केसरी के लेख भी सरकार की नई स्थानीय नीति के पक्ष में थी. इस सबके बावजूद भी कुछ ऐसे सवाल तो हैं जो सरकार की नई स्थानीय नीति के सच को नंगा कर देती है, जिसे भाजपा के ही पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा ने रघुवर दास को पत्र लिखते हुए ध्यान दिलाया है-‘‘यदि किसी व्यक्ति ने अनुसूचित क्षेत्र में किसी तरह धोखेबाजी से 1985 से पहले जमीन खरीद ली हो, तो ऐसे मूलवासी को स्थानीय मानना उचित होगा? सिर्फ कट आॅफ डेट के अनुपालन से सदानों के साथ न्यायोचित निर्णय ना होने का खतरा बना रहेगा. इस प्रकार से स्थानीयता प्राप्त करना संविधान के अनुच्छेद 244 के अनुसार भी त्रुटिपूर्ण कहा जाएगा.’’

सीएनटी एक्ट-एसपीटी एक्ट में संसोधन के प्रस्ताव ने किया आग में घी का काम

अभी पूरे राज्य में नई स्थानीय नीति के खिलाफ आक्रोश पनपना शुरु ही हुआ था कि रघुवर दास की कैबिनेट ने 3 मई 2016 को सीएनटी-एसपीटी एक्ट के कुछ प्रावधानों में संसोधन का प्रस्ताव पास कर दिया और फिर क्रमशः जनजातीय परामर्शदातृ परिषद् (टीएसी) से भी मंजूरी करा ली और विधानसभा में इसपर बगैर व्यापक बहस कराए अध्यादेश पारित कर राष्ट्रपति के पास भेज दिया गया.

यह बात सभी जानते हैं कि झारखंड अन्य राज्यों की तरह सामान्य राज्य नहीं है, औपनिवेशिक समय से ही इस क्षेत्र को विशेष प्रावधानों के तहत शासित किया जाता रहा है. पांचवी अनुसूचि के द्वारा झारखंड की विशेष स्थिति को संविधान ने भी माना है. इसका गठन भी स्वायत्तता और अलग प्रांत के लम्बे राजनीतिक संघर्ष के बाद ही हुआ है. देश का यह पहला आदिवासी बहुल राज्य है, जिसने 1928 में झारखंड को अलग प्रशासनिक क्षेत्र बनाने का ज्ञापन साइमन कमीशन को दिया था. फिर भी झारखंडी जनता खासकर यहां के आदिवासी और मूलवासी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औपनिवेशिक लूट-शोषण और बर्बर जुल्म व दमन-अत्याचार के खिलाफ तथा अपने आर्थिक-राजनीतिक अधिकार और सही इज्जत-आजादी के लिए संघर्ष करते हुए अपने अस्तित्व की रक्षा करने और जल-जंगल-ज़मीन पर अपना अधिकार कायम करने में सफल हुई थी. झारखंडी जनता के साम्राज्यविरोधी ऐतिहासिक क्रांतिकारी संग्राम व विद्रोह के कारण ही ब्रिटिश साम्राज्यवाद झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों को जल-जंगल-ज़मीन पर हक देने को बाध्य हुआ था और इसी का परिणाम था आदिवासी बहुल क्षेत्र छोटानागपुर के लिए छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम (सीएनटी एक्ट) और संताल परगना के लिए संताल परगना काश्तकारी अधिनियम (एसपीटी एक्ट). इस अधिनियम के अनुसार मुख्यतः इन क्षेत्रों की जमीन और जंगल, जिनपर आदिवासियों का अधिकार है, उनके अधिकृत जमीन और जंगल पर कोई भी गैरआदिवासी व्यक्ति हस्तक्षेप व दखल नहीं दे सकता है, खरीद भी नहीं सकता है. इतना ही नहीं, उनकी अनुमति के बिना सरकार भी उनकी जमीन का अधिग्रहण नहीं कर सकती है. उसमें भी ये एक्ट दलितों, आदिवासियों और मूलवासियों के बीच ही जमीन की खरीद-बिक्री भी सीमित करता है. आदिवासी और दलित क्रमशः थाना और जिला के अंदर ही जमीन हस्तांतरण कर सकते हैं.

झारखंड सरकार के सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव के मूल बिंदु इस प्रकार हैं-

  1. सीएनटी की धारा 21 और एसपीटी की धारा 13 में संशोधन के तहत काश्तकार या रैयत को अपनी जमीन पर गैर कृषि काम का अधिकार होगा. पहले के प्रावधान के तहत सीएनटी की कृषि जमीन के रूप में चिन्हित थी. उसपर गैर कृषि कार्य करने की छूट नहीं थी. जबकि संशोधन के बाद जमीन की प्रकृति बदली जा सकती है.
  2. सीएनटी की धारा 43 के तहत उपायुक्त को अपने राजस्व न्यायालय द्वारा कृषक की जमीन उद्योग-खनन, बड़े सरकारी परियोजनाओं के लिए हस्तांतरित करने की अनुमति देने का अधिकार है. अब सरकार के संशोधन के बाद जमीन दूसरे सरकारी प्रयोजन के लिए भी देने का अधिकार होगा. संशोधन में इसका दायरा बढ़ाया गया है. 
  3. सीएनटी की धारा 71(अ) के तहत यदि किसी एसटी की जमीन गैर अनुसूचित जाति को हस्तांतरित की गई है, उसे पुनः एसआरए कोर्ट द्वारा दखल दिलाने अथवा मुआवजा दिलाकर रेगुल्यराइज करने की व्यवस्था है. वर्तमान संशोधन के तहत मुआवजा दिलाकर नियमित करने की व्यवस्था समाप्त कर दी गई है.
इस संशोधन के प्रस्ताव से साफ पता चलता है कि इसके तहत आदिवासियों व मूलवासियों की जमीन की किस तरह से लूट होगी. लूट तो अभी भी हो रही है लेकिन कानून बनाकर संस्थागत लूट का दरवाजा खोल दिया जाएगा. इस संशोधन की विभीषिका को देखते हुए ही केन्द्रीय जनजाति आयोग (एसटी कमीशन) ने राज्य सरकार के सीएनटी-एसपीटी एक्ट के संशोधन के प्रस्ताव को खारिज कर दिया है. आयोग ने अपनी रिपोर्ट केन्द्रीय गृह मंत्रालय और आदिवासी मामले के मंत्रालय को भेज दी है. रिपोर्ट की काॅपी राज्यपाल द्रोपदी मुरमू को भी दी गई है. केन्द्रीय जनजाति आयोग के अध्यक्ष डा. रामेश्वर उररांव का कहना है कि ‘‘ आदिवासी की जमीन नहीं बच पाएगी. आदिवासियों की जमीन सीएनटी-एसपीटी एक्ट के दायरे में कृषि कार्य के लिए तय है. अब अगर इसे गैर कृषि जमीन में परिवत्र्तित किया जाएगा तो सीएनटी-एसपीटी एक्ट के परिधि से बाहर हो जाएगी. उस जमीन को बेचने के लिए उपायुक्त के आदेश की भी जरूरत नहहीं होगी. सीएनटी-एसपीटी की जमीन पहले भी सरकारी या प्राइवेट कम्पनियां उद्योग और माइंस के लिए अधिग्रहित करती रही है. अब इसमें 12-14 नए प्रयोग जोड़ दिए जा रहे हैं. यह खतरनाक प्रयोग होगा. आदिवासी की जमीन बड़े पैमाने में बेची-खरीदी जाएगी.’’

तैयार होता एक और हूल व उलगुलान

झारखंड के आदिवासियों-मूलवासियों का साफ मानना है कि सीएनटी व एसपीटी एक्ट हमारे पूर्वजों के खून से लिखा गया है और यह हमारा रक्षा कवच भी है. इसलिए वे किसी भी हालत में ऐसे कानून को बर्दाश्त करने को तैयार नहीं है. केन्द्र की मोदी सरकार की इनके प्रति नीति भी इनके सामने है, वे जानते हैं कि नई स्थानीय नीति और सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव का मुख्य लक्ष्य यहां की खनिज संपदा है. क्योंकि इसके बिना इनका जीडीपी बढ़ नहीं सकता. मोदी सरकार झारखंड, ओड़िसा, छत्तीसगढ़ जैसे राज्य बड़े-बड़े उद्योगपतियों को देना चाहती है, जबकि आदिवासी इसके मालिक हैं. विकास का पर्व आदिवासियों की लाश पर मनाया जा रहा है. यहां 88 फीसदी झारखंडी है और इन नीतियों के लागू होते ही एक साल के अंदर बड़ा स्थानांतरण होगा. यह आदिवासियों का सांस्कृतिक संहार है, जिसमें अभी गोली-बंदूक नहीं कलम का प्रयोग किया जा रहा है और वक्त आने पर सरकार गोली-बंदूक का इस्तेमाल करने से भी पीछे नहीं हटेगी. एक बात और साफ है कि नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन दिल्ली में बैठे लोग देशी-विदेशी काॅरपोरेट घरानों के आदेश पर ही कर रही है.

नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ हो रहे आंदोलनों में इस बार कुछ खास बात भी देखने को मिल रही है कि यहां के आदिवासी-मूलवासी गद्दार नेताओं के झांसे में नहीं आ रही है. इसका प्रमाण है कि 15 सितम्बर को स्थानीय नीति व  सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ रांची के मोहराबादी मैदान में आयोजित आदिवासी महारैली में किसी भी राजनीतिक दलों के नेताओं को मंच पर चढ़ने नहीं दिया गया. क्योंकि झारखंड के आदिवासी-मूलवासी जानते हैं कि मंच पर चढ़कर बोलने वाले नेता ही उनके पीठ में खंजर घोंपने का काम करते हैं. 15 सितंबर की रैली की तैयारी भी अपने आप में बेमिसाल थी. इसी कारण लगभग 70-80 हजार लोग रैली में पहुंचे. इस आंदोलन का एक मुख्य पहलू ये भी है कि झारखंड के सुदूर क्षेत्रों में अपना जनाधार रखनेवाली प्रतिबंधित पार्टी भाकपा (माओवादी) ने भी नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ जंग का एलान कर दिया है एवं अपनी पूरी ताकत के साथ जनता के बीच पोस्टरिंग करके व पर्चे बांटकर आदिवासी-मूलवासी विरोधी सरकार, नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के प्रस्ताव के सच को सामने रख रही है. इस क्रम में 10 सितम्बर का भाकपा (माओवादी) का झारखंड बंद भी व्यापक रूप से सफल रहा था.


नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ लड़ाई के कई कोण हैं. झारखंड नामधारी वोटबाज पार्टियां भी लगातार अपने जनाधार को बनाए रखने के लिये आंदोलन कर रही है तो वहीं सत्ता पक्ष के नेता भी खुलकर सरकार की नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के पक्ष में नहीं बोल पा रहे हैं. कुछ तो इसके खिलाफ भी बोल रहे हैं. सरकार के मत से भिन्न मत रखने के कारण ही भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी को अपनक पद से हाथ धोना पड़ा. सरकार की सहयोगी पार्टी आजसू तो नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन के खिलाफ जन संदेश यात्रा ही कर रही है. इस लड़ाई का महत्वपूर्ण कोण झारखंड के आम आदिवासी-मूलवासी हैं, जो किसी भी चुनावी नेता के बगैर सच कहने की हिम्मत कररहे हैं. और इसमें उनके अपने सरना धर्म के नेताओं, महत्वपूर्ण चर्च के पादरियों, जाने-माने बुद्धिजीवियों व आंदोलनकारी ताकतों का साथ भी मिल रहा है. नई स्थानीय नीति व सीएनटी-एसपीटी एक्ट में संशोधन की खिलाफत करनेवालों में से एक विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन के झारखंड संयोजक दामोदर तुरी कहते हैं कि ‘‘इस बार तो लड़ाई आर-पार की होगी, विस्थापन विरोधी जन विकास आंदोलन से राज्य के लगभग 15 जनसंगठन जुड़े हुए हैं, जो अपनी पूरी ताकत से गांव-गांव में प्रचार अभियान चला रही है. स्थानीय स्तर पर कार्यक्रम भी किये जाएंगे और 25 अक्टूबर को रांची के मोहराबादी मैदान में आदिवासियों-मूलवासियों का महाजुटान होगा, जो वहां से चलकर राज्यपाल का घेराव करेंगे.’’

निष्कर्षतःकहा जा सकता है कि लड़ाई लम्बी चलेगी क्योंकि एक तरफ हैं झारखंड की खनिज संपदा को लूटने को बेताब देशी-विदेशी काॅरपोरेट लूटेरे, नए-नए हथियारों से लैस उनकी फौज, विधानसभा, संसद व कानून के रखवालों का भ्रष्ट गठजोड़ और दूसरी तरफ हैं बिरसा मुंडा, सिद्धु-कान्हू, चांद-भैरव व फुलो-झानो की संघर्षकारी विरासत को संभाले उनकी संतानें. जो लड़ना जानती है और लड़ते हुए शहादत देना भी जानती है लेकिन झुकना नहीं जानती है. जल-जंगल-जमीन पर टेढ़ी नजर रखनेवालों की आंख फोड़ देने की हिम्मत भी आदिवासी-मूलवासी जनता रखती है. अब देखना ये होगा कि कब ये लड़ाई एक और हूल व उलगुलान का रूप अख्तियार करती है. लेकिन एक बात तो सत्य है कि जब ये अपने रूप में आएगी तो एक नया इतिहास लिखा जाएगा.

Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles