उत्तराखंड में ट्रेकिंग के शौकीनों के लिए पिंडारी ग्लेशियर एक महत्वपूर्ण डेस्टिनेशन है. पिंडारी के साथ ही हिमालय के कई शिखरों, घाटियों में लम्बी-लम्बी यात्राओं का अनुभव बटोर चुके केशव भट्ट पिंडारी से सबसे नजदीक के क़स्बे बागेश्वर में रहते हैं. वे इस ट्रेक के लिए कुछ ख़ास टिप्स दे रहे हैं. पढ़ें पांचवी क़िस्त-
द्ववाली में रात में ही सुबह करीब साढ़े चार उठकर पांच बजे तक पिंड़ारी ग्लेशियर को चलने के लिए तय कर लें. आज फुर्किया होते हुए पिंड़ारी के दर्शन करने के बाद वापस द्ववाली या फुर्किया पहुंचने का लक्ष्य रखें. द्ववाली में आप स्थानीय दुकादार से अगले दिन दोपहर के लिए पराठे बनाने के लिए कह सकते हैं.
पराठों के साथ अचार पैक कर साथ में रख लें. ये आपका दोपहर का खाना है. सुबह अपनी तैयारी के साथ ही पानी की बोतल भर लें. द्ववाली लगभग 2575 मीटर की ऊंचाई पर है. द्ववाली से पिंडर नदी के किनारे धीरे-धीरे ऊंचाई लिए हुए रास्ता है. फुर्किया यहां से पांच किलोमीटर की पैदल दूरी पर है. आराम से चलने पर समय करीब दो घंटा मान कर चलें.
लगभग 3250 मीटर की उंचाई पर स्थित फुर्किया में पीडब्लूडी का रैस्ट हाउस है. यहां एक दुकान भी है जिसमें पर्यटक सीजन में चाय, खाना मिल जाता है. फुर्किया पहुंचने पर इस दुकान में चाय-नाश्ते का इंतजाम अकसर हो जाता है. नाश्ते के बाद आगे पिंडारी की ओर बढ़ चलें.
फुर्किया से लगभग साढ़े आठ किलोमीटर के बाद आपको 3660 मीटर की ऊंचाई पर पिंडारी ग्लेशियर के दर्शन होंगे. फुर्किया से कुछ पहले ट्री लाईन समाप्त हो जाती है. अब आगे बुरांश के साथ अन्य छोटे किस्म के नाना प्रकार के फूल-पौंधे रास्ते के दोनों ओर मिलते हैं. धीरे-धीरे चढ़ाई लिए हुए रास्ते के किनारे मखमली घास आपकी थकान भी मिटाते रहती है.
पिंडर नदी के पार उंची पहाड़ की चोटियों को चीरती हुई जल धाराएं बढ़ी ही मनोहारी दिखती हैं. पिंडारी घाटी में पहुंचते ही एक अलग ही दुनियां में पहुंचने का एहसास होता है. सामने छांगुच व नंदा खाट के हिम शिखर आकाश को चूमते से नजर आते हैं. इनके मध्य पसरा पिंडारी ग्लेशियर खींचता सा लगता है.
ग्लेशियर से पहले हरे मैदान में बनी कुटिया आकर्षित सी करती है. इस कुटिया में लगभग पच्चीस वर्षों से साधना कर रहे स्वामी धर्मानंद रहते हैं. वो पिंडारी ग्लेशियर के दर्शन को आने वाले हर पर्यटकों का हर हमेशा चाय के साथ हल्का नाश्ते के साथ गर्म जोशी से स्वागत करते हुए मिलते हैं.
कुछ पल उनके साथ बिताने के बाद पानी की बोतल में पानी भर लें और आगे भव्य दर्शन के लिए चल पड़ें. यहां से करीब किलोमीटर भर बाद चलने के बाद सामने पिंडारी ग्लेशियर के आप दर्शन कर सकते हैं. मौसम खुशगवार होने पर यहीं बुग्याली घास पर आराम से बैठकर अपने साथ लाए पराठों का लुफ्त अचार के साथ उठाएं.
पिंडारी से छांगूच, नंदा खाट, बल्जुरी के साथ ही नंदा कोट के भव्य दर्शन होते हैं. अंग्रेज शासक मि. ट्रेल के द्वारा खोज गए दर्रे का रास्ता जो कि पिंडारी ग्लेशियर से जोहार के मिलम घाटी के ल्वां गांव में मिलता है, ट्रेल पास के नाम से जाना जाता है, काफी अद्भुत और भयानक है. इस ट्रेल दर्रे को पार करने के लिए पर्वतारोही पिंडारी जीरो प्वाइंट को अपना बेस कैम्प बनाते हैं.
यहां से आगे एडवासं कैम्प एक स्थापित करने के बाद दो सौ मीटर की रोप फिक्स कर आगे तख्ता कैम्प के बाद एडवासं कैम्प लगाते हैं. ट्रेल दर्रा पार करने के बाद तीखा ढलान है जिसमें लगभग दो सौ मीटर की रोप से उतर कर नंदा देवी ईस्ट ग्लेशियर में कैम्प लगता है. आगे फिर ल्वां ग्लेशियर में हिम दरार, जिन्हें कैरावास भी कहा जाता है को परा कर ल्वां गांव होते हुए नसपुन पट्टी होते हुए मर्तोली, बोगड्यार होते हुए मुनस्यारी पहुंचा जाता है.
थोड़ा सा इस ट्रेल पास का इतिहास आपसे बांच लूं. पिंडारी ग्लेशियर के प्रसिद्ध ‘ट्रेल पास’ के साथ कुमाऊं के पहले सहायक आयुक्त जार्ज विलियम ट्रेल और सूपी निवासी साहसी मलक सिंह ‘बूढ़ा’ के जज्बे की कहानी जुड़ी हुई है। ट्रेल खुद तो यह दर्रा पार नहीं कर पाए लेकिन उनकी प्रबल इच्छा पर मलक सिंह ने 1830 में इस कठिन दर्रे को पार किया। हालांकि बाद में लोगों ने इस दर्रे को ‘ट्रेल पास’ नाम दे दिया।
पिंडारी ग्लेशियर के शीर्ष पर स्थित इस दर्रे के रास्ते पहले दानपुर और जोहार दारमा के बीच व्यापार होता था। कहा जाता है कि 17वीं सदी के अंत तक पिंडारी ग्लेशियर पिघलने से जगह-जगह दरारें पड़ गई और आवागमन बंद हो गया। अप्रैल 1830 मेें कुमाऊं के पहले सहायक आयुक्त जार्ज विलियम ट्रेल इस दर्रे को खोलकर आवागमन बहाल करने के मकसद से पैदल ही बागेश्वर होते हुए दानपुर पहुंचे। स्थानीय लोगों के साथ उन्होंने दरारों के ऊपर लकड़ी के तख्ते डालकर पिंडारी के इस दर्रे को पार करने का प्रयास किया। लेकिन बर्फ की चमक (रिफ्लैक्सन) से उनकी आंखें बंद हो गईं, वह आगे नहीं बढ़ सके।
सूपी निवासी 45 वर्षीय मलक सिंह टाकुली अकेले ही दर्रे को पार करके मुनस्यारी होते हुए वापस लौट आए। बाद में ट्रेेल की आंखेें ठीक हो गईं। उन्होंने मलक सिंह को बुलाकर बूढ़ा (वरिष्ठ) की उपाधि दी। उन्हें पटवारी, प्रधान और मालगुजार नियुक्त करने के साथ ही पिंडारी के बुग्यालों में चुगान कर वसूलने का भी हक उन्हें दिया। मलक सिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र स्व. दरबान सिंह बूढ़ा को यह अधिकार मिला। हांलाकि आजादी के साथ यह व्यवस्था खत्म हो गई। दर्रे से गुजरने वाले सामान्य लोगों में मलक सिंह आखिरी व्यक्ति थे। उनके बाद अभी तक सिर्फ प्रशिक्षित पर्वतारोहियों के 86 अभियानों में से 14 दल ही इसे पार कर कर सके हैं।
तो.... अब वापस चलें...
स्वामी धर्मानंद उर्फ बाबाजी के वहां नंदा देवी मंदिर के दर्शन के बाद उतार की ओर कदम खुद-ब-खुद चलते हैं. अब इसका एहसास तो वहीं महसूस होता है......
वापसी में आप और आपकी टीम में उर्जा बची है तो द्ववाली तक देर सायं तक पहुंचना बेहतर रहेगा. यदि थकान महसूस हो रही है तो रास्ते में फुर्किया पढ़ाव है ना....