-Satyendra Ranjan
क्या 1947 में भारत के बंटवारे को रोका जा सकता था? अथवा, इसके लिए प्राथमिक रूप से कौन दोषी था? ये ऐसे सवाल हैं, जिन परपिछले 68 वर्षों में अनगिनत समझ, नजरिया, विचार और राय पेश किए गए हैं.
बंटवारापूरी तरह “फूट डालो-राज करो” की ब्रिटिश नीति का परिणाम था, अथवा कांग्रेसनेताओं की कथित अदूरदर्शिता और सत्ता पाने की बेसब्री की इसमें प्रमुखभूमिका रही? क्या मुस्लिम लीग महज ब्रिटिश हाथों का खिलौना थी, या वह किसीलंबी परिघटना का नेतृत्व कर रही थी, जिसका परिणाम 1930-40 के दशकों मेंआकर अपरिहार्य हो गया था? ये तमाम प्रश्न ऐतिहासिक विश्लेषण के दायरे मेंहैं.
हाल में आई दो किताबों ने इस बारे में अपने ढंग से रोशनी डालीहै. हालांकि दोनों किताबों का विषय अलग है, लेकिन वे अपने-अपने मकसदों सेसमान ऐतिहासिक दौर में पहुंचती हैं. दोनों उस समय के मुस्लिम समाज में जारीगतिविधियों और उन्हें संचालित करने वाली सोच को समझने के लिए महत्त्वपूर्णजानकारियां मुहैया कराती हैं.
इनमें एक किताब The Emergence of Socialist Thought Among North Indian Muslims (1917-47) है. नाम से ही साफहै कि इसका विषय मुस्लिम समुदाय से आए समाजवादी रुझान वालेनेताओं/बुद्धिजीवियों की पहचान और उनकी चर्चा करना है.
लेकिन इसक्रम में वह उन हालात और माहौल में पहुंचती है, जिनकी वजह से तब के मुस्लिमयुवाओं में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ भावनाएं फैली और मजबूत हुई.उन्हीं युवाओं का एक हिस्सा बाद में साम्राज्यवाद विरोध की सही रणनीति औरविचारधारा की तलाश करते-करते समाजवाद/साम्यवाद की वैचारिक एवं राजनीतिकधाराओं से जुड़ गया.
इस शोधपरक पुस्तक के लेखक खिज़र हुमायूं अंसारीहैं, जो लंदन विश्वविद्यालय में इस्लाम और सांस्कृतिक विभिन्नता विषयों केप्रोफेसर हैँ.
दूसरी किताब का तो विषय ही पाकिस्तान निर्माण कीपृष्ठभूमि है. Creating a New Medina: State Power, Islam, and the Quest for Pakistan in late Colonial North India नामक इस पुस्तक के लेखकयूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलीना (अमेरिका) में इतिहास के असिस्टैंट प्रोफेसरवेंकट धुलीपाला हैं.
नाम से जाहिर है कि यह किताब भारत बंटवारे केमें तत्कालीन राजसत्ता, इस्लाम से जुड़ी सियासत और पाकिस्तान के पक्ष मेंहुए प्रयासों और अलग इस्लामिक राष्ट्र के विचार के हक में दी गई दलीलों काविश्लेषण करती है.
यह अपनी चर्चा को महज 1937 के चुनावों, उन चुनावों केबाद संयुक्त प्रांत (उत्तर प्रदेश) में सत्ता साझा करने में कांग्रेस कीअनिच्छा, 1940 के पाकिस्तान प्रस्ताव, मोहम्मद अली जिन्ना की भूमिका अथवानेहरू-पटेल के कथित रूप से बदलते रुख तक सीमित नहीं रखती. बल्कि पाकिस्तानके उदय को बीसवीं सदी में वैश्विक इस्लाम (pan Islamism) की फैली भावनाओंके संदर्भ में रखने का प्रयास करती है. तुर्की में खिलाफत की पराजय ने ऐसीभावनाओं को और बल प्रदान किया था. इसके बाद एक ऐसी इस्लामी राजसत्ता कीआकांक्षा मुस्लिम समुदायों में जगी, जो वैश्विक इस्लाम का नेतृत्व कर सके.यह किताब भारत में इन भावनाओं को बढ़ाने में देवबंदी उलेमाओं की भूमिका पररोशनी डालती है. फिर इस निष्कर्ष पर पहुंचती है कि पाकिस्तान कोई ऐसाअस्पष्ट विचार नहीं था, जो स्वतंत्र भारत के भावी स्वरूप को लेकर ब्रिटिशराज, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस और मुस्लिम लीग के बीच चली संवैधानिकवार्ताओं के विफल होने के परिणामस्वरूप अचानक उठ खड़ा हुआ.
दोनोंकिताबों से साझा कथानक यह उभरता है कि भारत के बंटने या पाकिस्तान के बननेकी हकीकत को 19वीं और 20वीं सदी के समग्र घटनाक्रम- खास कर भारतीय मुस्लिमसमाज में तब मौजूद रहीं सोच की धाराओं- से अलग करके नहीं देखा जा सकता. इनघटनाक्रमों की शुरुआत हम 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की विफलता केतुरंत बाद से तलाश सकते हैँ. 1957 में पराजय के बाद मुस्लिम समुदाय मेंरही-सही यह उम्मीद जमींदोज हो गई कि ब्रिटिश शासकों से सत्ता फिर कभी उनकेहाथ में आ सकेगी. इसके बाद उनमें अपनी नई भूमिका और पहचान बनाने की भावनाएंजाग्रत हुई. यह वो दौर है, जब मुस्लिम समुदाय में आधुनिक शिक्षा काप्रसार बढ़ रहा था. यही वो दौर है, जब संचार के नए साधन उपलब्ध हुए, जिससेदेश-दुनिया में क्या हो रहा है, इसकी खबर अपेक्षाकृत अधिक तेजी और विस्तारसे मिलने लगी. इससे लोगों को नए विचारों से रू-ब-रू होने का भी मौका मिला.
उन्नीसवींसदी के आरंभिक दशकों में दुनिया के दूसरे हिस्सों की तरह भारतीय मुसलमानभी इस सच्चाई से परिचित हो चुके थे कि विश्व की प्रमुख राजनीतिक शक्ति केरूप में इस्लाम का पराभव हो गया है. प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अखिलइस्लाम (pan Islamism) की भावनाओं ने जड़ें जमाईं. इसके पीछे ओटोमनसाम्राज्य का बढ़ता बिखराव, उसके विभिन्न हिस्सों पर पश्चिमी देशों केबढ़ते हमलों आदि की भूमिका तो थी ही, 1911 में बंगाल के विभाजन को नाकामकराने में राष्ट्रवादियों की भूमिका (जिनके एक हिस्से पर हिंदू रंग गाढ़ाहोता गया था) तथा अलीगढ़ एवं कानपुर में मुस्लिम विश्वविद्यालय की स्थापनासे जुड़े मुद्दों पर ब्रिटिश शासन के विरोधी रुख की भी भूमिका थी. ओटोमनसाम्राज्य के पतन ने मुस्लिम समुदाय में विरोध भाव को नई ऊंचाइयों परपहुंचा दिया. खिज़र हुमायूं अंसारी ने ऐसी घटनाओं, उन पर मुस्लिम समाज कीप्रतिक्रिया और उनसे जुड़े व्यक्तित्वों की चर्चा कर अखिल इस्लाम कीपरिघटना पर विस्तृत प्रकाश डाला है.
इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखेंतो खिलाफत आंदोलन को समर्थन देने के पीछे महात्मा गांधी की (अनुमानित)रणनीति को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है. यह दीगर सवाल है कि ऐसा करनानैतिक था या नहीं, अथवा कहीं वह क्षणिक रणनीति लंबे समय में अधिक नुकसानदेहतो साबित नहीं हुई. यह तर्क दिया ही जा सकता है कि ऐसा कर उस भावना कोवैधता दी गई, जिससे खिलाफत आंदोलन संचालित था. क्या इससे आगे चल करपाकिस्तान के विचार को प्रोत्साहन मिला, यह अलग से शोध और चर्चा का विषय होसकता है. फिलहाल, प्रासंगिक तथ्य यह है कि 1930 का दशक आते-आते ऐतिहासिककारणों से मुस्लिम समुदाय के भीतर अपनी विशिष्ट सामुदायिक पहचान पर जोरडालने तथा अपने भौतिक एवं भावनात्मक हितों को अलग से समझने या परिभाषितकरने की धाराएं मजबूत हो चुकी थीँ. ऐसा होने का दौर खासा लंबा हो चुका था.
इससंदर्भ में यह उल्लेख भी प्रासंगिक होगा कि बीसवीं सदी के आरंभिक दशक हीवह काल है, जब भारत को हिंदू राष्ट्र के रूप में परिभाषित करने की कोशिशेंशुरू हुईं. धीरे-धीरे हिंदुत्व या हिंदू राष्ट्रवाद के विचार का न सिर्फउदय हुआ, बल्कि इसकी लोकप्रियता भी बढ़ी. कहा जा सकता है कि धर्म आधारितराष्ट्रवाद की इन दोनों परस्पर विरोधी विचारधाराओं ने एक-दूसरे को खाद पानीदेने का काम किया.
1940 में मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व मेंमुस्लिम लीग ने अलग इस्लामी देश के रूप में पाकिस्तान के निर्माण के पक्षमें लाहौर प्रस्ताव पारित कराया. वेंकट धुलीपाला ने इसके बाद इस बहस मेंडॉ. भीमराव अंबेडकर के महत्त्वपूर्ण हस्तक्षेप की विस्तार से चर्चा की है.डॉ. अंबेडकर ने “थॉट्स ऑन पाकिस्तान” नामक महत्त्वपूर्ण पुस्तिका लिखी.धुलीपाला कहते हैं कि मुस्लिम लीग का भी सारा विमर्श भावनात्मक और नारेबाजीके अंदाज में था, जबकि अंबेडकर ने तथ्यों, तर्कों और ठोस भावी स्वरूप केप्रस्तावों के साथ अपनी बात कही. उन्होंने पाकिस्तान के पक्ष में दिए गएतर्कों का ब्योरा दिया, उसके विरोध में मौजूद दलीलों की चर्चा की और अंतमें यह निष्कर्ष बताया कि मुस्लिम बहुल प्रांतों को लेकर अलग इस्लामी देशका निर्माण ही भारत की आजादी से जुड़े संवैधानिक उलझनों का हल है. वेंकटधुलीपाला का कहना है कि असल में यह अंबेडकर का बौद्धिकतापूर्ण विमर्श हीथा, जिसने पाकिस्तान के निर्माण संबंधी भ्रमों को दूर किया और अंततः 1947 में लगभग उनके फॉर्मूले के मुताबिक ही भारत का बंटवारा हुआ. अंबेडकर के इसहस्तक्षेप के पीछे मुख्य भावना क्या थी? इसका अंदाजा भी इस पुस्तक मेंमौजूद विमर्श से लगाया जा सकता है. संभवतः डॉ. अबेंडकर इस नतीजे पर थे किबात जहां तक पहुंच चुकी है, उसमें मुस्लिम लीग को साथ लेकरगणतांत्रिक-लोकतंत्र एवं मजूबत केंद्रीय सत्ता वाले नए राष्ट्रीय राज्य कानिर्माण का संभव नहीं है. सिर्फ मुस्लिम लीग को अलग देश देकर ही वैसेसंवैधानिक भारत की स्थापना हो सकती है, जो सामाजिक-आर्थिक न्याय के संकल्पपर आधारित हो.
यह इतिहास की विडंबना है कि इस्लामी राष्ट्र बनाने केलिए जोरदार सांप्रदायिक आंदोलन चलाने तथा उसमें “डायरेक्ट ऐक्शन” जैसेतरीके अपनाने के बाद जो पाकिस्तान जिन्ना ने हासिल किया, उसे“धर्मनिरपेक्ष” देश बनाने की इच्छा उन्होंने जताई. लेकिन पाकिस्तान जिनतर्कों बना, यह उसे नकारना था. जबकि तब तक उन तर्कों का अपना गतिशास्त्र बनचुका था. वे जिन्ना के नियंत्रण से बाहर हो चुके थे. वे उनकी इच्छा सेकाफी मजबूत बन चुके थे. आज पाकिस्तान जिस हाल में है, यह उन तर्कों की हीतार्किक परिणति है. जवाहर लाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल और कई दूसरे कांग्रेसनेताओं ने पाकिस्तान को स्वीकार करते हुए यह नकारात्मक तर्क दिया था किखराब हो गए अंग को काट डालना ही बेहतर होता है. पाकिस्तान में गए इलाकेखराब अंग थे या नहीं, इस पर अलग राय हो सकती है. लेकिन जिस विचार के कारणवे गए वह नकारात्मक विचार था, यह निर्विवाद है. उसके विपरीत भारत जिनसकारात्मक विचारों की बुनियाद पर बना, उसके परिणामस्वरूप उसने साढ़े छह दशकतक एक खुले, अपेक्षाकृत उदार और प्रगतिशील देश के रूप में यात्रा की.दुर्भाग्यपूर्ण है कि फिलहाल इस सफर की दिशा संकटग्रस्त हो गई है. कारण, उसविचार का राजनीतिक बहुमत तैयार करने में सफल हो जाना है, जो अखिल इस्लामके विरोध में, लेकिन उसी सिक्के (धर्म आधारित राष्ट्रवाद) के दूसरे पहलू केरूप में 20वीं सदी के आरंभिक दशकों में उभरने लगा था. वह धारा राजनीतिकबहुमत कायम रखने में सफल रही और उसके नुमाइंदे भारतीय राजसत्ता पर कायमरहे, तो यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि भारत पाकिस्तान केनक्शे-कदम पर चलते हुए उसी के परिणाम को प्राप्त करेगा.