Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

पुराने नेताओं की नई पार्टी का ख़याल

$
0
0

सत्येंद्र रंजन

सत्येंद्र रंजन

"...इन नेताओं में (कथित रूप से) बनी इस सहमति का भी जिक्र हुआ कि मंडलवादी राजनीति की सीमाएं साफ हो गई हैंअतः प्रस्तावित नई पार्टी जन-समर्थन जुटाने के लिए दूसरे मुद्दों की तलाश करेगी। अगर यह सच है तो यही माना जाएगा कि जमीनी हकीकत को समझने की क्षमता इन नेताओं में अभी बची हुई है।..."

नए साल में नई पार्टी बनाने के इरादे से जनता परिवार के नेता पिछले दिनों जब इकट्ठे हुए तो इस खबर के इस पहलू ने ध्यान खींचा कि फिलहाल उनकी पार्टियां नए भूमि अधिग्रहण कानून को बदलने और मनरेगा (महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी कानून) को सीमित करने की भारतीय जनता पार्टी सरकार की कोशिशों को प्रमुख मुद्दा बनाएंगी। 

इन नेताओं में (कथित रूप से) बनी इस सहमति का भी जिक्र हुआ कि मंडलवादी राजनीति की सीमाएं साफ हो गई हैं, अतः प्रस्तावित नई पार्टी जन-समर्थन जुटाने के लिए दूसरे मुद्दों की तलाश करेगी। अगर यह सच है तो यही माना जाएगा कि जमीनी हकीकत को समझने की क्षमता इन नेताओं में अभी बची हुई है। बहरहाल, अगर नई पार्टी खुद को प्रासंगिक बनाना चाहती है, तो उसके लिए इतनी समझ पर्याप्त नहीं होगी। बल्कि इसके लिए इन नेताओं को इस बात की पड़ताल करनी होगी कि संभावनाओं से भरी सामाजिक न्याय की राजनीति को उन्होंने कैसे बंद गली में पहुंचा दिया?

ना तो सामाजिक न्याय से जुड़े सवाल सुलझे हैं, और ना ही इस राजनीति की संभावनाएं खत्म हुई हैं। फिर भी बात चूक गई तो इसलिए कि सामाजिक न्याय की अवधारणा को विकसित और परिवर्द्धित करने के बजाय इस सियासत की झंडाबरदार ताकतें इसे लगातार संकुचित करती गई हैं। 

1990 में मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने से उत्तर भारत की राजनीति में जो अभूतपूर्व नई ऊर्जा प्रकट हुई, उसे समूचे इंसाफ और समता की दिशा में ले जाने के बजाय उन्होंने इसे महज आरक्षण और जातीय गोलबंदी में समेट दिया। उसका मकसद भी संबंधित जातियों में वर्ग चेतना को मजबूत करना नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक महत्त्वाकांक्षाओं को साधना रह गया। 
हर नेता (या दल) के लिए न्याय का मतलब सिर्फ अपनी जाति के लिए इंसाफ रह गया। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार आदि जिस समाजवादी धारा से निकलने का दावा करते हैं, क्या उसमें पूरे बहुजन (यानी सभी शोषित-उत्पीड़ित जातियों/वर्गों) की एकता का उद्देश्य शामिल नहीं थाऔर क्या डॉ. राम मनोहर लोहिया ने नर-नारी समता को अपनी सप्त क्रांति में समान दर्जा नहीं दिया था? 

ऐसे में इन नेताओं और उनके साथी देवगौड़ा पिता-पुत्र और चौटाला परिवार को यह उत्तर ढूंढना चाहिए कि आखिर वे बहुजन एकता क्यों नहीं बना पाए, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी का बहुजन समाज पार्टी से रिश्ता दुश्मनी भरा क्यों हो गया, हरियाणा में जाट-दलित का अंतर्विरोध दूर करने के लिए उन्होंने क्या किया, महिलाओं के जुड़े मुद्दों पर ये नेता (नीतीश कुमार अपवाद हैं) अत्यंत प्रतिगामी रूप में क्यों सामने आते रहे, और यौन अल्पसंख्यकों के सवाल पर वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरे महजबी कट्टरपंथी संगठनों जैसी राय क्यों जताते रहे? और फिर यह प्रश्न तो अपनी जगह है ही कि क्या शोषण और अन्याय से मुक्ति बिना किसी आर्थिक कार्यक्रम और विचारधारा के मिल सकती है? बदलते वक्त के मुताबिक ऐसा कौन-सा कार्यक्रम इन दलों ने सामने रखा?
क्या यह अफसोसनाक नहीं है कि शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार के मोर्चों पर प्रगति की जो सीमित संभावना यूपीए के शासनकाल में उसके सामाजिक एजेंडे से बनी, अपने-अपने राज्यों में उसका लाभ उठाने में इन दलों की सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं ली? 
ऐसे में यह पूछना तो निरर्थक ही है कि इन सरकारों ने अपने राज्यों में उत्पीड़ित वर्गों के लिए सबसे अलग या खास कौन-सी कल्याणकारी योजना लागू की। (ये तमाम सवाल बहुजन समाज पार्टी पर भी लागू होते हैं। चूंकि एकता के वर्तमान प्रयास में वह शामिल नहीं है, इसलिए उसका जिक्र ऊपर नहीं किया गया है।) 
इसलिए इसमें कोई हैरत की बात नहीं कि जब विकास के गुजरात मॉडल का स्वांग पिछले चुनाव में प्रस्तुत किया गया, तो जनता परिवार समर्थक मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भी उस बह गया। जनता परिवार के दल और नेता असहाय होकर यह देखते रहे, क्योंकि उनके पास पेश करने के लिए व्यापक अर्थों में विकास और आर्थिक बेहतरी का अपना कोई मॉडल नहीं था। (नीतीश कुमार के पास सीमित अर्थों में ऐसा मॉडल था, लेकिन उसे उन्होंने भाजपा के साथ मिल कर लागू किया था। अतः बदली राजनीतिक परिस्थितियों में चुनावी रूप से वह अक्षम और अप्रभावी सिद्ध हुआ।)

आज देश विकट स्थिति में है। विकास और अच्छे दिन के शोर की आड़ में धुर नव-उदारवाद और बहुसंख्यक वर्चस्ववाद के पक्ष में जनादेश जुटाने में सफलता प्राप्त कर ली गई है। विपक्षी ताकतें हताश हैं। ऐसे में प्रगति और स्वतंत्रता संग्राम से उपजे उन तमाम मूल्यों के लिए गहरा संकट खड़ा है, जो भारतीय संविधान की मूल आत्मा हैं।
अतः आज की सत्ताधारी पार्टी के खिलाफ हर राजनीतिक ध्रुवीकरण की एक विशिष्ट प्रासंगिकता है। इसीलिए जनता परिवार में संभावित एकता के प्रति एक बड़े वर्ग में दिलचस्पी है। यह एकता सचमुच आज एक बड़ी भूमिका निभा सकती है, बशर्ते इससे जुड़े दल सामाजिक न्याय की राजनीति का पुनर्आविष्कार कर सकें। अगर वे अपनी राजनीति को आरक्षण की मांग से आगे ले जा सकें। 
जाति आधारित आरक्षण आज भी प्रासंगिक है, लेकिन संपूर्ण न्याय सुनिश्चित करने के लिहाज अपर्याप्त है। गरीब और नव-मध्य वर्ग की रोजमर्रा की आर्थिक जरूरतों से जुड़े मसलों को अगर राजनीतिक कार्यक्रम में जगह नहीं मिलती है, तो सामाजिक न्याय की राजनीति में अब दो दशक पहले जैसा आकर्षण नहीं जुड़ सकता।
इसलिए जनता परिवार के नेता सचमुच उदार, सर्व-समावेशी, न्याय आधारित भारतीय राष्ट्रवाद के समक्ष उपस्थित चुनौती का मुकाबला करना चाहते हैं, तो उन्हें अपनी सियासत और आचार-व्यवहार में पुरानी समाजवादी परंपरा के दूसरे पहलुओं को भी लाना होगा। उन्हें उन संकीर्णताओं और स्वार्थों से उबरना होगा, जिनकी वजह से उनकी राजनीति बंद गली में पहुंच गई। 
बेशक इस प्रयत्न में डॉ. लोहिया और चौधरी चरण सिंह के अनेक विचार और विश्लेषण सहायक हो सकते हैं। मगर उन्हें एक और उदाहरण से सीखने की जरूरत है। देश के बंटवारे के साथ आई स्वतंत्रता के समय सांप्रदायिक भावनाओं का ज्वार उठा हुआ था। इसके बीच भी धर्म-आधारित राष्ट्रवाद के सफल होने की आशंकाएं यथार्थ बन गई थीं। तब जवाहर लाल नेहरू ने धर्मनिरपेक्षता का सकारात्मक रूप सामने रखा था। उन्होंने घोषणा की थी कि भारत उन सबका देश है, जिसने इस भूमि पर जन्म लिया। 
मगर ये घोषणा इसलिए जन-समर्थन और स्वीकृति पा सकी, क्योंकि इसके साथ ही उन्होंने विकास और प्रगति की रूपरेखा भी देश के सामने रखी। उस दिशा में वे देश को ले गए, तो भारत का वह विचार विश्वसनीय बना, जो दादा भाई नौरोजी-महात्मा गांधी- रवींद्र नाथ टैगोर- बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर और अनेक साम्यवादी-समाजवादी चिंतकों के योगदान से अस्तित्व में आया था। आज वही विचार खतरे में है। इसे बचाने के ऐतिहासिक संघर्ष में जनता परिवार अपनी कितनी प्रासंगिकता बनाता है, यह देखने पर निगाहें लगी रहेंगी।

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल जामिया मिल्लिया 
यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.

Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles