सत्येंद्र रंजन |
"...यह तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान और चीन- दोनों सीमाओं पर तनाव बढ़ेगा। गोली के बदले मोर्टार दागने की नीति से पाकिस्तान का सैन्य-खुफिया तंत्र विचलित होगा, यह मानना कठिन है। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर सीज़फायर के उल्लंघन के पीछे पाकिस्तान की कोशिश जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ कराने के साथ-साथ इस मसले को अंतरराष्ट्रीय रूप से जीवित रखने की भी होती है। सिर्फ ऐसा करके ही वह भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध का खतरा दुनिया को दिखा सकता है, जिससे उसे उम्मीद होती है कि अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र इस मसले में दखल देंगे।..."
नरेंद्र मोदी ने देश की सत्ता संभालने के साथ पड़ोसी देशों से दोस्ताना दौर शुरू होने का जो माहौल बनाया, वह अब तिरोहित हो चुका है। कम से कम पाकिस्तान और चीन के संदर्भ में तो यह बात पूरी तरह लागू होती है। बल्कि हकीकत यह है कि पिछले साढ़े चार महीनों में इन दोनों देशों के साथ संबंध पहले की तुलना में ज्यादा बिगड़ गए हैँ। देश में युद्धकारी (hawkish) नीतियों के समर्थक तबके इसे नरेंद्र मोदी सरकार की सफलता के रूप में देखें, तो इसमें कोई अचरज नहीं है। असल में इन दोनों मोर्चों पर भारत अब जिस तरह पेश आ रहा है, उसे लेकर देश में संतोष का भाव पैदा करने के प्रयास होते हम देख सकते हैं। इसे क्रमिक दबाव वृद्धि (graduated escalation)की नीति कहा जा रहा है। यानी भारत स्थिति के मुताबिक सीमा पर दबाव बढ़ाएगा और दूसरी तरफ से की जाने वाली भड़काऊ कार्रवाइयों का उससे अधिक नुकसान पहुंचाने के उद्देश्य से जवाब देगा।
पाकिस्तान के संदर्भ में दलील दी गई है कि उसके साथ भारत की शांति वार्ता वहां की सेना को सीमा गोलीबारी और आतंकवादी हमलों के लिए प्रोत्साहित करती है। इसलिए मोदी सरकार ने गोली के बदले मोर्टार दागने की नीति अपनाई है। इसके साथ ही 2003 से भारत ने पाकिस्तान के “तुष्टिकरण”की जो नीति अपना रखी थी, उसका अंत हो गया है। आक्रामक नीतियों के जाने-माने पैरोकार ब्रह्म चेलानी ने लिखा है- “मोदी यह दिखा रहे हैं कि वे वाजपेयी नहीं हैं, जिनकी पाकिस्तान के बारे में घुमावदार नीति लाहौर, करगिल, कंधार, आगरा, संसद पर हमले और इस्लामाबाद से होते हुए गुजरी, जिसका परिणाम सीमा-पार से ज्यादा आतंकवादी हमलों को आमंत्रित करने के रूप में सामने आया। स्पष्टतः मोदी मनमोहन सिंह नहीं हैं, जिनकी हर कीमत पर पाकिस्तान के साथ शांति की नीति इस भोले विश्वास पर आधारित थी कि आतंक के जवाब में कुछ ना करने का अकेला विकल्प युद्ध करना है।”तात्पर्य यह कि मोदी काल में पाकिस्तान को जवाब देने के तरीके में बदलाव आया है, यह बात देश को बताई जा रही है। हाल के अनुभवों के आधार पर कहा जा सकता है कि यह एक तथ्य है। लेकिन इसके साथ यह प्रश्न खड़ा होता है कि आखिर इस नीति के परिणाम क्या होंगे? क्या यह अपने वृहत्तर लक्ष्यों को पाने में भारत के लिए मददगार बनेगी?
माहौल चीन के साथ भी बदला है। मोदी के प्रधानमंत्री बनते ही चीन के प्रधानमंत्री ली किच्यांग ने भारत की यात्रा की थी। उस समय जो जोश दिखा, वह चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा होते-होते काफूर हो चुका था। चीनी राष्ट्रपति की यात्रा पर चुमार (लद्दाख) में चीनी फौज की घुसपैठ से बिगड़े माहौल का साया पड़ा रहा। अब हालात ये हैं कि चीन ने पूर्वी सीमा पर दूर-दराज तक सड़क बनाने की भारत की योजना पर चिंता व्यक्त की है और “ये उम्मीद जताई है कि भारत जारी मतभेदों को और जटिल नहीं बनाएगा।”पिछले महीने भारत ने अरुणाचल प्रदेश में सीमा से 100 किलोमीटर के दायरे में सड़क और सैनिक सुविधाएं बनाने पर लगी पाबंदियों को हटा लिया। चीनी प्रतिक्रिया उसी निर्णय पर है। निहितार्थ यह कि भारत ने चीन से लगी “विवादित”सीमा पर भी ‘क्रमिक दबाव वृद्धि’की नीति अपना ली है।
जाहिर है, देश में एक बड़ा तबका इसे ‘मर्दाना नीति’के रूप में चित्रित करेगा। बहरहाल, इसके क्या परिणाम होंगे, इसका अंदाजा लगाने से पहले यह उचित होगा कि इस नीति के और व्यापक पहलुओं पर एक नजर डाल ली जाए। वो पहलू वैश्विक स्तर पर भारत को अमेरिका नेतृत्व वाली धुरी का हिस्सा बनाने से जुड़ता है। इसके स्पष्ट संकेत हाल में प्रधानमंत्री की अमेरिका यात्रा के दौरान मिले, जब वहां उनकी इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतनयाहू से मुलाकात हुई। इस भेंट के कार्यक्रम को अंतिम वक्त तक गोपनीय रखा गया। उस यात्रा से पहले मोदी जापान गए थे। उसके बाद ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री टोनी एबॉट भारत आए। इनसे दोनों देशों के साथ भारत के संबंध प्रगाढ़ हुए। इसके बीच रक्षा एवं परमाणु सहयोग की बनी नई स्थितियां ध्यानार्थ हैं। जापान और ऑस्ट्रेलिया एशिया-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी धुरी के खास अंग हैं। इजराइल पश्चिम एशिया में इसका हिस्सा है। जापान की भूमि से मोदी ने कुछ देशों के 18वीं सदी की ‘विस्तारवादी मानसिकता’में जकड़े रहने का वक्तव्य दिया था, जिसे चीन पर साधा गया निशाना माना गया। नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा कितनी सफल रही, अभी इस बारे में कुछ पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता। इसलिए कि अमेरिका से संबंध में सुरक्षा और सामरिक पहलू तो महत्त्वपूर्ण होते हैं, लेकिन उसका बड़ा नाता आर्थिक मसलों से होता है। हालांकि मोदी वहां बौद्धिक संपदा अधिकारों के बारे में संयुक्त कार्यदल बनाने पर सहमत हो गए, इसके बावजूद इस मुद्दे तथा परमाणु रिएक्टरों की खरीद और विश्व व्यापार संगठन में खाद्य सब्सिडी से जुड़े मसलों पर सहमति नहीं बन सकी। बहरहाल, इससे यह तथ्य धूमिल नहीं होता कि साढ़े चार महीनों की छोटी अवधि में मोदी सरकार भारत की विदेश नीति में उल्लेखनीय बदलाव ले आई है। अब प्रश्न है कि इसका नतीजा क्या होगा?
यह तो सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि पाकिस्तान और चीन- दोनों सीमाओं पर तनाव बढ़ेगा। गोली के बदले मोर्टार दागने की नीति से पाकिस्तान का सैन्य-खुफिया तंत्र विचलित होगा, यह मानना कठिन है। दरअसल, अंतरराष्ट्रीय सीमा और नियंत्रण रेखा पर सीज़फायर के उल्लंघन के पीछे पाकिस्तान की कोशिश जम्मू-कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ कराने के साथ-साथ इस मसले को अंतरराष्ट्रीय रूप से जीवित रखने की भी होती है। सिर्फ ऐसा करके ही वह भारत और पाकिस्तान के बीच परमाणु युद्ध का खतरा दुनिया को दिखा सकता है, जिससे उसे उम्मीद होती है कि अमेरिका या संयुक्त राष्ट्र इस मसले में दखल देंगे। दूसरे सीमा पर तनाव पाकिस्तानी सैन्य-खुफिया तंत्र के माफिक बैठता है, क्योंकि तब वह वहां की निर्वाचित सरकार को हाशिये पर रखने में ज्यादा कामयाब हो सकता है। तीसरे, अगर साथ-साथ भारत और चीन के बीच भी तनाव बढ़ता है, तो पाकिस्तान के लिए इससे अच्छी स्थिति और कुछ नहीं हो सकती। सवाल है कि इन हालात के बीच अमेरिका या उसके नेतृत्व वाली धुरी भारत के कितने काम आएगी?
अमेरिका की भू-राजनीतिक और सामरिक प्राथमिकताओं में पाकिस्तान कभी पूर्णतः महत्वहीन हो जाएगा, यह उम्मीद फिलहाल लगाना बेबुनियाद है। फिर प्रश्न को दरकिनार नहीं किया जा सकता कि सुरक्षा मामलों में अमेरिकी समर्थन जुटाने के लिए आर्थिक मामलों में भारत को कितनी कीमत चुकानी होगी?और आखिरी यह कि क्या भारत को यह मान लेना चाहिए चीन और पाकिस्तान दोनों के साथ विवादों का कभी स्थायी हल नहीं निकलने वाला है?मोदी समर्थक जिस विश्वास को ‘भोलापन’या जिन नीतियों को ‘अधिक आतंकवाद को आमंत्रित करने वाली’बता रहे हैं, उनके पीछे मंशा दीर्घकालिक हल निकालने की थी। समझ यह थी कि आज की दुनिया में शक्ति का पर्याय ऐसा विकास है, जिससे देश में सभी लोगों की जिंदगी सुधरे और उनकी मूलभूत स्वतंत्रताओं में विस्तार हो। ‘मर्दाना नीतियां’हथियारों की होड़ और निरंतर तनाव या युद्ध की मानसिकता जारी रहने की तरफ ले जाती हैं, जबकि दुनिया भर का अनुभव है कि उनसे कोई समाधान नहीं होता। इसकी आखिरी कीमत आम जन को चुकानी पड़ती है.