पी साईनाथ |
-पी साईनाथ
अनुवाद- अभिनव श्रीवास्तव
अपने अनैतिक और गोलमोल कामों से खुद के प्रति लोगों का मोहभंग करने में यूपीए-2 को पांच वर्ष का समय लगा, लेकिन भाजपा ने सिर्फ पांच महीने के अन्दर ही सबको गलत साबित कर दिया। इस हफ्ते जिन 32 सीटों पर उपचुनाव हुआ, उनमें से 24 भाजपा के पास थीं। अभी मीडिया में मोदी सरकार के पहले सौ दिनों के पूरा होने वाले जश्न को ज्यादा दिन नहीं बीते थे कि इनमें से आधी सीटें भाजपा से छिन गयीं। इन नतीजों से चुनावी रूप से तो बहुत ज्यादा निष्कर्ष नहीं निकाले जाने चाहिये, लेकिन नतीजों के राजनीतिक सन्देश को पढ़ने की कोशिश अवश्य होनी चाहिये। हालांकि अब से एक महीने से भी कुछ कम समय में महाराष्ट्र में होने वाले चुनाव में भाजपा-शिव सेना के जीतने की उम्मीद की जा रही है, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इन नतीजों से कोई सबक नहीं लिया जाना चाहिये।
पहला सबक
भाजपा ने बहुत कम समय में देश भर में अल्पसंख्यकों को आतंकित करने में सफलता हासिल की। साल 2014 के चुनाव में अल्पसंख्यक वोट बुरी तरह विभाजित रहा था। इन उपचुनावों में राज्य दर राज्य अल्पसंखयकों के वोट भाजपा के अलावा सबसे बड़ी पार्टी को मिले हुये प्रतीत होते हैं। फिर चाहे वह असम की बात हो या फिर राजस्थान की या फिर उत्तर प्रदेश की।
लोकसभा चुनाव में साम्प्रदायिक तनाव के माहौल में और सरगर्मी पैदा करने के लिये नरेन्द्र मोदी ने अमित शाह, गिरिराज सिंह और बाबा रामदेव जैसे नामों को आउटसोर्स किया, जबकि स्वयं को महान विकास पुरुष के तौर पर पेश किया था। वैसे साम्प्रदायिकता की आंच को तेज करने वाले ये चेहरे अब अपने-अपने ठिकानों की ओर लौट आये हैं!
यहां तक कि पश्चिम बंगाल में जहां भाजपा राज्य विधान सभा में बहिर्सत दक्षिणी सीट पर अपना खाता खुलने का जश्न मना रही है, उसकी जीत का गणित दिलचस्प है। सीमा पर स्थिति इस इलाके में भाजपा ने लोकसभा चुनाव में बड़ा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करने में सफलता हासिल की थी। तब भाजपा ने तृणमूल कांग्रेस पर तीस हजार वोटों की प्रभावशाली बढ़त ली थी। इस हफ्ते भाजपा ने बड़ी गिरावट यानि सत्रह सौ से भी कुछ कम वोटों के अंतर से यहां से जीत दर्ज की।
दूसरा सबक
दूसरा सबक ये कि कांग्रेस के मुकाबले भाजपा से लोगों का मोहभंग कही तेजी से होते है। इन उपचुनावों से थोडा ही पहले भाजपा उत्तराखंड में हुये उपचुनावों में तीनों सीटें हार गयी थीं। ठीक इसी तरह लोकसभा चुनाव में अच्छा करने के बावजूद कर्नाटक और मध्य प्रदेश में उसने इन उपचुनावों में महत्वपूर्ण सीटें गंवा दीं।
इस उपचुनाव में जिन सीटों पर भाजपा हारी है, उनमें से ज्यादातर सीटें खाली थीं। ये सीटें खाली इसलिये हुयी थीं क्योंकि यहां के प्रतिनिधियों को भाजपा ने लोकसभा में प्रत्याशी बनाकर उतारा था और वे सभी जीत गये थे।राजस्थान, गुजरात और उत्तर प्रदेश में यही हुआ। स्वभाविक तौरपर पार्टी इन जगहों पर मजबूत थी। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की उन ग्यारह सीटों में से पार्टी आठ सीटें हार गयी, जो उसका गढ़ कही जाती हैं। चार महीनों के भीतर पार्टी को बड़े अंतर से हार का सामना करना पड़ा है। बाकी सीटों पर भी भाजपा के जीत के अंतर में गिरावट आयी है। इस चुनावी रेस में शुरुआत में पीछे रहने के बावजूद कांग्रेस राजस्थान में चार में से तीन सीटें जीतने में सफल रही, जबकि गुजरात में नौ में से तीन सीटें उसके खाते में गयी। इन सब जगहों पर भाजपा को नुकसान हुआ।
तीसरा सबक
भाजपा अब दिल्ली में चुनाव को लेकर बहुत ज्यादा अनिच्छुक होगी। हालांकि चुनाव टालने में उसे अब काफी मुसीबत का सामना करना पड़ सकता है। मीडिया ने इससे पहले भाजपा के एक स्थानीय नेता पर हुये स्टिंग को दिखने में आनाकानी की थी, लेकिन अब ऐसा करना मुश्किल होगा। मीडिया अब आगे होने वाली घटनाओं की अधिकाधिक जांच करने को बाध्य होगी।
चौथा सबक
चौथा सबक ये है कि गणित बेहद महत्वपूर्ण है। मैंने बीती मई में भी यह तर्क दिया था कि चुनाव में चल रही लहर आवश्यक रूप से कांग्रेस-विरोधी और यूपीए विरोधी लहर है। जिस राज्य में जो भी बड़ी कांग्रेस-विरोधी ताकत थी, उसे इस लहर का फायदा मिला। ज्यादा सीटों वाले राज्यों-उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और बिहार में यह पार्टी भाजपा थी। ओडीसा में यह पार्टी नवीन पटनायक का बीजू जनता दल था। पश्चिम बंगाल में यह तृणमूल कांग्रेस थी। दक्षिण में आंध्र प्रदेश में टी डीपी और तमिलनाडु में एआईडीएमके को इसका लाभ मिला।
मेरा यह भी तर्क था कि साल 2014 के चुनाव में फर्स्ट पास्ट दि पोस्ट सिस्टम (एफपीटीपी) ने जरुरत से ज्यादा गुल खिलाया है। सामान्यतः यह सिस्टम तब नुकसान पहुंचाता है जब मुकाबला त्रिकोणीय हो, लेकिन अगर किसी सीट पर चार या पांच मजबूत पार्टियों के बीच मुकाबला हो, तो यह सिस्टम और ज्यादा बेतुका हो जाता है।
इसलिए एआईडीएमके को कुल 44 फीसदी वोट मिलते हैं, लेकिन उसके खाते में 95 फीसदी से भी ज्यादा सीटें चली जाती हैं। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा को 31 फीसदी वोट मिले और उसे सीटें 282 मिली। 19।3 फीसदी वोट पाकर कांग्रेस को सिर्फ 44 सीटों से संतोष करना पड़ा। साल2009 में भाजपा को मोटे तौर पर इतने ही प्रतिशत वोट मिले जितने इस बार कांग्रेस को,लेकिन तब उसके खाते में 116 सीटें आयीं थीं। स्वभाविक तौर पर इस सिस्टम ने साल 2014 के आम चुनाव में कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभायी।
पांचवा सबक
उत्तर प्रदेश में हुये उपचुनावों में इस बार बसपा ने चुनाव नहीं लड़ा। पार्टी ने अपना एक भी प्रत्याशी मैदान में नहीं उतारा। इसका मतलब था कि समाजवादी पार्टी का भाजपा के खिलाफ प्रदर्शन नाटकीय तौर पर सुधरना चाहिये था और हुआ भी ऐसा ही। एक महीना पहले ही बिहार में हुये उपचुनावों में आरजेडी और जेडीयू के एक साथ मिलकर आने से भाजपा को चुनाव में6-4 के अंतर से हार का सामना करना पड़ा।
छठा सबक
जाति, जिसके खात्मे की घोषणा मीडिया और इसके पालतू विश्लेषकों ने कर दी थी, अब भी मायने रखती है। जाति के बराबर बने हुये महत्त्व को स्वीकार करने में इन विश्लेषकों ने आनाकानी दिखायी थी।
सातवां सबक
मीडिया को उपचुनावों के नतीजे ऐसे आने का अंदाजा नहीं लगा। मीडिया ने अपने आप को न सिर्फ इस बात के लिये आश्वस्त कर लिया था कि चुनाव में मोदी का जादू अचूक होकर काम करेगा, बल्कि इसी आश्वस्ति में उसने यह भी मान लिया था कि अमित शाह का चुनाव प्रचार कमाल कर देगा। ये कमाल हुआ भी लेकिन वैसा नहीं जिसकी उम्मीद थी।
कहा जा सकता है कि इन उपचुनाव के नतीजों का चुनावी से ज्यादा राजनीतिक सन्देश है। महाराष्ट्र में भाजपा मजबूत होगी। बाकी सब इन उपचुनाव के नतीजों से मिल रहे संकेतों से तय होगा।
http://www.indiaresists.com से साभार