"...हमारी घसियारी हमारे पारिस्थितिक तंत्र का वह हिसा है, जो जीवन यापन के पूरे चक्र से जुडा हुआ है। घसियारी होने की पहली शर्त है पशुओं से जुड़ा रहना। पशु पालन के लिए सिर्फ घास ही नहीं काटना होता। उन्हें घास के बाड़ो का संरक्षण करना होता है। जहां परिन्दों से लेकर तमाम तरह के सरीसृप और कीट पंतगों को फलने फूलने का मौका मिलता है। बांज, बुरासं, रियोंस, कणदी, सहित चौड़ी पत्तियों, के जंगलों की सुरक्षा करनी होती है; जिससे पशुओं और खेतों के लिए चारा के साथ पानी का समुचित संसाधन उपलब्ध हो सकें।..."
बात 1983 की है। गर्मियों के दिन थे। चिपको आन्दोलन का समाज में काफी असर था। टिहरी गढ़वाल के बालगंगा रेंज मुख्यालय में नई टिहरी से डीएफओ को आना था। सिल्यारा, चमियाला और आस-पास के गांव की सैकड़़ों महिलायें एक जुलूस की शक्ल में रेंज आॅफिस पहुंची। सिल्यारा की श्रीमती जुपली देवी एक मूठ चीड़ के छिलकों को जला कर ले आई थी। इस सम्बन्ध में उसने कुछ महत्वपूर्ण बातें कही। पहली बात 'जंगलात विभाग हमारे बीच में अंधेरा बांट रहा है। उजाला बाल के उनको अक्ल दिखाना बहुत जरूरी है। हम घसियारी हैं हम जब घास काटती हैं तो ध्यान रखते हैं कि गलती से भी पेड़ों का कोई नवजात पौधा घास के साथ न कट जाय। अगर हम घास काटते समय तमाम पेड़-पौधों को नहीं बचाते तो जंगल कहां बच पाता। फिर जंगलात विभाग कहां होता? जंगल हम घसियारियों से बनाता है, जंगल के नाम से वन विभाग खाता है। यह तो सरासर अंधेर है।’इस मूल बातों का सार काफी व्यापक जाता है। संक्षेप में कह सकते हैं कि घसियारी सिर्फ घसियारी नहीं है। वह जहां पारिस्थितिकी तंत्र की सबसे बड़ी विशेषज्ञा हैं वहीं पर्यवरण के क्षेत्र में पर्यवरणविदों से भी आगे जाती हुई दिखती है।उपनिवेश सत्ता के कुछ महत्वपूर्ण हथियार रहे हैं। उनमें प्रमुख है अगर किसी समाज को गुलाम बनाना है तो उसकी भाषा, संस्कृति और इतिहास खत्म कर दो। तब वह समाज बेपेन्दी का लौटा हो जाता है, उसके बाद उपनिवेशिक सता जो शिक्षा, भाषा और संस्कृति गढ़ती है, ऐसा समाज बिना सवाल किये उसे स्वीकार करता जाता है। कुछ जीवन यापन के जो साधन उपनिवेश सत्ता के फायदे से जुडा़ होता है; उसे अपने हित में वह बखूबी इस्तेमाल करता आया है। अगर फायदे से नहीं जुडा़ हो तो उसकी इतनी उपेक्षा की गई कि लोग उससे खुद ही उखड़ते चले गये और विकास के नाम पर गड़े गये उनके पैमाने पर फिट होने का संघर्ष शुरू हो गया, जो तब से लेकर आज तक निरन्तर जारी है।
गांव के समाज में उनके जीवन यापन करने के साधनों पर गौर करेंगे तो पायेंगे आजादी के बाद भी इस देश में जितनी भी सरकारें आई उन्होंने उनकी घोर उपेक्षा की है। चाहे वह ठेठ पहाड़ी हो या आदिवासी समाज हो। आजादी के बाद सत्ता प्रतिष्ठान जिन लोगों के हाथों में आया हैं उन्होंने भी गांव को उपनवेशी सत्ता की तरह ही इस्तेमाल किया है। घास काटने वालों का दूसरा उपेक्षित रूप उपनिवेशिक सत्ता द्वारा पोषित कथित सभ्य समाज इस तरह से रखता है जैसे घसियारी या घसियारा का मतलब अनपढ़, जाहिल, गंवार, अनाड़ी होना हो। ’मुझे भी जीवन का काफी अनुभव है, मैंने कोई घास नहीं छिला।’ इस तरह के मुहबरों का जो मतलब निकाला जाता है जैसे घास काटना सबसे बड़ा निकृष्टतम काम हो। इस तरह की उपेक्षा श्रमजीवी समाज का सबसे बड़ा उपहास है और उस समाज के काम को सम्मान न देने की उपनवेशिक मानसिकता का दम्भ ।
आज के दौर में घसियारी यानी घास काटने वाली। एक बेहद उपेक्षित नाम और व्यवसाई बन गया है। जब हम गौर से इसे उत्तराखण्ड़ के संदर्भ में देखते हैं तो एक विराट जीवन पद्यति नजर आती है। घास यानी उत्तराखण्ड के गाॅंव का अर्थशास्त्र। जो जीवन चलाने हेतु हमारे परम्परा का एक महत्वपूर्ण साधन रहा है। घसियारी यानी हमारी सांस्कृतिक विरासत का संभाग, हमारी धार्मिक आस्थाओं का केन्द्र बिन्दु, और सबसे महत्वपूर्ण पारस्थितिकी तंत्र की सबसे बड़ी विशेषज्ञा।
हमारी घसियारी हमारे पारिस्थितिक तंत्र का वह हिसा है, जो जीवन यापन के पूरे चक्र से जुडा हुआ है। घसियारी होने की पहली शर्त है पशुओं से जुड़ा रहना। पशु पालन के लिए सिर्फ घास ही नहीं काटना होता। उन्हें घास के बाड़ो का संरक्षण करना होता है। जहां परिन्दों से लेकर तमाम तरह के सरीसृप और कीट पंतगों को फलने फूलने का मौका मिलता है। बांज, बुरासं, रियोंस, कणदी, सहित चौड़ी पत्तियों, के जंगलों की सुरक्षा करनी होती है; जिससे पशुओं और खेतों के लिए चारा के साथ पानी का समुचित संसाधन उपलब्ध हो सकें। घसियारियों के उपर ही पशु पालने की जिम्मेदारी है, जिसमें दुधारू पशुओं के साथ हल चलाने के लिए बैल और भेड़ बकरियों तक शामिल है। जो खेतों के लिए पर्याप्त मात्रा में मोळ (गोबर की खाद) उपलब्ध करा सकें। उत्तराखण्ड़ में घसियारी ही किसान है। एक किसान को पानी, पशु और मेहनत ही जिन्दा रख सकता है। तभी वह अपने खेतों को उपजाऊ बनाकर अच्छी पैदावार ले पाता है। घसियारियों की जिन्दगी सामुहिकता के बिना चलना संम्भव नहीं है। क्योंकि खेती, जंगल से पंजार आदि जीवन को चलने वाले काफी सारे कामों को समाज के सामुहिक सहयोग के बिना संपादित नहीं किये जा सकते। सामुहिकता भी पहाड़ी समाज की समृद्व सांस्कृतिक परम्परा है। घासियारियों के दम पर हमारे पहाड़ की सांस्कृतिक एवं सामाजिक विरासत जिंदा है और यह पहाड़ उन्ही के बूते पर सांस ले रहा है।
हम जब घसियारियों को अपने सांस्कृतिक धार्मिक परम्परा से जोड़ कर देखते हैं, तो बाजूबंद, न्योली जैसे गीतों को गाने के लिए जंगल का होना नितान्त जरूरी है। ये गीत मुख्यतः एकान्त में ही गाये जाते हैं। कई सारे विरह के गीत घसियारियों के दिमाग एवं कंठों से रचे एवं गाये जाने के कारण ही हमारे सांस्कृतिक श्रोतों की समृद्वि में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। दूसरा पक्ष घर गांव सहित प्रदेश गये अपने प्रियजन, अपने धन चैन (पशुओं) की सुख समृद्वि के लिये पहाड़ की चोटियों पर आस्थाओं के कई मंदिर गडे़ गये और पूजे जाते हैं। यहां तक की अपने जंगल एवं घास के बाडों सहित विसम भूगोल में चरते पशुओं की सुरक्षा की जिम्मेदारी भी इन्ही देवताओं के भरोसे छोड़े जाने की रही है।
अपने जीवन यापन के साधनों की घनघोर उपेक्षा के चलते राज्य बनने के बाद पहाड़ के 831 गांव खाली हो चुके हैं। पहाड़ के गांव से जिस अनुपात में पलायन हो रहा है आने वाले कुछ सालों में अगर पहाड़ आबादी विहीन हो जाय तो आश्चार्य नहीं है। इन खाली हो रहे़ गांव को कुछ समय बाद इको टूरिज्म और अन्य किसी बहाने हमारे राजनेता बाहर के पूंजीपति के हाथों न बेच दें यह शंका भी बनने लगी है।
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि इन्ही घसियारियों या उनकी सन्तानों के बड़े बलिदान से उत्तराखंड राज्य अस्तित्व में आया है। आज भी इन घसियारियों के बेटे मुख्यमंत्री से लेकर बड़े अधिरकारियों की कुर्सियों की शोभा बढ़ा रहे हैं। इन सब के वावजूद वह आज भी उपेक्षित और अपमानित है। घसियारी होना सम्मानजनक पेशा नहीं रह गया है। आज इस राज्य में ’मजबूरी का नाम घसियारी’ है। अब वक्त आ गया है कि हमें एक बार अपने समाज संस्कृृति एवं परम्परा के रूप में उस घसियारी को सम्मानित करें जिसके दम पर यह पहाड़ जिन्दा है। और उनके बलिदान से ही यह राज्य अस्थित्व में आया है।