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यौन हिंसा का साम्प्रदायीकरण और न्याय का सवाल

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गुफरन सिद्दीकी
-गुफरन सिद्दीकी

"...तो क्या निर्भया कांड के बाद हम एक समाज के बतौर बिल्कुल ही नहीं बदले हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता। हम संवेदनशील तो हुए हैं लेकिन हमारी संवेदना की अपनी सीमाएं भी उजागर हुई हैं जो हमारी, धार्मिक और जातीय अस्मिता से संचालित होने वाली  राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं  की बंधक बन गई हैं। इसीलिए मौनी बाबा के हवस की शिकार लड़की की पहचान जब मुस्लिम की निकलती है तब, समाज का बहुसंख्यक हिस्सा और मीडिया उदासीन दिखने लगता हैै।..."

मेठी के कथित तांत्रिक की हवस की शिकार एक नाबालिग बच्ची से पुलिस अधिक्षक द्वारा अपने साथ हुए बलात्कार के मामले में आरोपियों का नाम पूछने पर बच्ची जब मौनी बाबा का नाम लेती है तो उसे डांट कर भगाते हुए यह भी धमकी दी जाती है कि वह अगर मौनी बाबा का नाम लेगी तो उसके पूरे परिवार को वे झूठे मामले में फंसा देंगे। पीडि़ता को यही बातें उसकी मेडिकल जांच करने वाले डाॅक्टर से भी सुनने को मिलती है और न्यायिक मजिस्ट्रेट से भी। अंत में थक-हार कर पीडि़ता और उसके पूरे परिवार को अपना घर छोड़ कर लखनऊ में अपने किसी परिचित के घर शरण लेनी पड़ती है। यह घटना निर्भया कांड के बाद की है जब पूरे प्रशासनिक तंत्र को बलात्कार के मामलों में पहले से ज्यादा मुस्तैद और संवेदनशील बनाने की प्रतिवद्धता हमारी सरकारें दोहराती रही हैं।


तो क्या निर्भया कांड के बाद हम एक समाज के बतौर बिल्कुल ही नहीं बदले हैं? ऐसा नहीं कहा जा सकता। हम संवेदनशील तो हुए हैं लेकिन हमारी संवेदना की अपनी सीमाएं भी उजागर हुई हैं। जो हमारी, धार्मिक और जातीय अस्मिता से संचालित होने वाली  राजनीतिक और वैचारिक प्रतिबद्धताओं  की बंधक बन गई हैं। इसीलिए मौनी बाबा के हवस की शिकार लड़की की पहचान जब मुस्लिम की निकलती है तब, समाज का बहुसंख्यक हिस्सा और मीडिया उदासीन दिखने लगता हैै। ठीक जिस तरह वह मुजफ्फरनगर की साम्प्रदायिक हिंसा में बलात्कार की शिकार मुस्लिम महिलाओं के सवाल पर दिल्ली में मोमबत्ती जलाने नहीं निकलता। यानी, एक समाज के बतौर हम महिलाओं के साथ बलात्कार जैसी घटननाओं को जाति या धर्म निरपेक्ष नजरिए से नहीं देख पाते।  

दरअसल दिक्कत समाज के ही ताने-बाने में है जब हम धर्म, जाति और लिंग के आधार पर दूसरों से घृणा करेंगे या स्वयं को उससे श्रेष्ठ समझेंगे तो हमारे अंदर के घोर सामंती मूल्य हमें हिंसा की तरफ ही ले जाएंगे। धर्म के नाम पर हिंसा करने वाले उसके मूल्यों और सन्देश को समझने का प्रयास ही नहीं करते और क्रियाकलापों को मदभेद का आधार बना कर आसानी से हिंसक हो जाते हैं। कई बार हिंसा करने का कारण भी लोगों को पता नहीं होता है। हिंसा में सबसे पहले महिलाओं पर ही हमले किए जाते हैं, गुजरात दंगों के बाद तो और भी वीभत्स रूप में यह हमारे सामने आ रहा है। जहाँ पर गर्भवती महिलाओं के पेट चीर कर भ्रूण तक को जला दिया गया था। 

लेकिन कितनी महिलाओं को इन्साफ मिला? शायद इसीलिए इस तरह के आकड़े तेजी से बढ़ रहे हैं। यहाँ तक की न्यायाधीशों तक पर आरोप लगने लगे हैं। उत्तर प्रदेश के मेरठ की एसआई अरुणा राय, इंडिया टीवी की एंकर तनु शर्मा जैसी महिलाओं के लिए बड़ा सवाल बना ही रह गया कि क्या इनको कभी इन्साफ मिल पाएगा। 

दरअसल न्याय का सवाल हमेशा से राजनीति सापेक्ष रहा है। किसे न्याय मिलेगा किसे नहीं यह राजनीतिक रूप से प्रभुत्व वाली विचारधारा के मानकों से तय होता है और उसी अनुपात में अपराध की घटनाओं में भी इजाफा होता है। मसलन हम देख सकते हैं कि मोदी के नेतृत्व में भाजपा के पूर्ण बहुमत से सत्ता में आते ही सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं बढ़ जाती हैं या तुलसी प्रजापति फर्जी मुठभेड़ कांड के आरोपी भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के अदालत में पेश न होने पर जब न्यायाधीश सवाल उठाते हैं तो दूसरे ही दिन उनका तबादला कर दिया जाता है। 
दरअसल एक न्यायोन्मुख व्यवस्था सिर्फ अदालती सक्रीयता से नहीं सम्भव नहीं होती। समाज में न्याय के लिए भूख और जनमत तैयार किया जाना उसकी पहली शर्त होती है। मसलन, अगर जमर्नी में नाजीवाद का उभार हिटलर के बाद दुबारा नहीं हो सका तो इसकी वजह वहां की अदालतों द्वारा नाजीवादी विचारों के प्रति कठोरता प्रदर्शित करना ही नहीं था बल्कि एक समाज के बतौर पूरे जमर्नी द्वारा ‘नेवर अगेन’ यानी ‘अब दुबारा कभी नहीं’ का नारे को आत्मसात किया जाना था। जिसने तय किया कि अब वह कभी भी ऐसा नहीं होने देंगे। 

लेकिन इसके विपरीत अगर भारतीय परिप्रेक्ष्य में इस सवाल को देखें तो यहां साफ विरोधाभास देखा जा सकता है। जैसे किसी भी राजनीतिक पार्टी के उदय की सबसे बड़ी वजह उसके द्वारा एक न्यायपूर्ण समाज और सत्ता का निमार्ण का दावा होता है। उसका तर्क होता है कि दूसरी पार्टियों ने जनता के साथ न्याय नहीं किया है इसलिए जनता उसे चुने। लेकिन हम अपने यहां राजनीति के इस बुनियादी अवधारणा पर भी बहुत सारी पार्टियों को खरा उतरते नहीं देख सकते। मसलन जब बीजेपी विपक्ष में थी तब उसके सारे बड़े नेता आरएसएस के साथ मिल कर बेटी बचाओ मुहीम चला रहे थे और गली-मोहल्लों में बलात्कार जैसे अपराधिक कृत्य का सम्प्रदायिकरण करते हुए पूरे देश में एक धर्म विशेष और उनकी महिलाओं से प्रतिशोध लेने की बात करते फिर रहे थे। जबकि दूसरी तरफ कुकर्मी आशाराम बापू और उसके पुत्र पर जब हिंदु महिलाओं के साथ ही बलात्कार का आरोप लगा तब सुषमा स्वराज से लेकर बीजेपी के बड़े नेता आशाराम के पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे थे। वहीं उनके तरफ से संघ परिवार और भाजपा नेताओं द्वारा अपने ही कार्यकर्ताओं के साथ अप्राकृतिक यौनाचार की घटनाओं जैसे कि मध्यप्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री राघव जी या पिछले दिनों भिंड में संघ कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में वरिष्ठ प्रचारक समेत कई वरिष्ठ कार्यकर्ताओं पर लग चुका है, पर एक शब्द भी नहीं बोला। जाहिर है, संघ और भाजपा को यहां बेटी-बेटों के लिए न्याय की जरूरत महसूस नहीं हुई।   

गुफरन सिद्दीकी
ghufran.j@gmail.com 


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