त्रेपन सिंह चौहान |
-त्रेपन सिंह चौहान
"...नरेंद्र मोदी और आरएसएस का गंगा के प्रति आस्था का असली चेहरा तब उजागर हो जाता है, जब एक तरफ गंगा की निर्मलता पर देश का हजारों करोड़ रुपए बहने का ऐलान हो चुका है और दूसरी ओर बड़े औद्योगिक घरानों के धंधों में किसी प्रकार की रुकावट न आये इसके लिए भी वह प्रतिबद्ध दिखती है। उनके लिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रहे बांधों को विकास के नाम पर खुली छूट दी जा रही है।..."
साभार- www.thehindu.com |
मोदी सरकार ने अपने पहले ही बजट में गंगा की सफाई के लिए बनाई गई योजना के तहत 2037 करोड़ रुपए का प्रावधान कर लिया है। मोदी सरकार ने इस बात पर खूब जोर दिया है कि गंगा की सुरक्षा और सफाई सरकार की प्राथमिक सूची में से एक है। गंगा को लेकर मोदी की दिलचस्पी का अंदाजा इस बात से भी लगा सकते हैं कि वाराणसी चुनाव प्रचार में एक प्रमुख नारा था; जब वह टीवी पर एक चुनावी विज्ञापन में कहते हैं कि ‘मैं यहां किसी के बुलाने पर नहीं आया हूं, मुझे तो मां गंगा ने बुलाया है।‘ मोदी के शब्दों और आवाज में यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का ही नारा है। अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा को पूरा करने के लिए कई धार्मिक प्रतीक चिन्हों के साथ इस तरह के धार्मिक नारों का बखूबी इस्तेमाल करने की इस संगठन की हमेशा एक रणनीति रही है।
नरेंद्र मोदी और आरएसएस का गंगा के प्रति आस्था का असली चेहरा तब उजागर हो जाता है, जब एक तरफ गंगा की निर्मलता पर देश का हजारों करोड़ रुपए बहने का ऐलान हो चुका है और दूसरी ओर बड़े औद्योगिक घरानों के धंधों में किसी प्रकार की रुकावट न आये। उनके लिए गंगा और उसकी सहायक नदियों पर बन रहे बांधों को विकास के नाम पर खुली छूट दी जा रही है।
प्राकृतिक संसाधनों की लूट के लिए जो पीपीपी यानी पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप (सार्वजनिक और निजी भागीदारी) का नारा इस बजट में बड़े स्तर पर उछाला गया है, वह भी कम आश्चर्य पैदा नहीं करता। मानो पीपीपी ही इस देश की सारी समस्याओं का समाधान हो।
बात गंगा सफाई की हो रही है। उत्तराखण्ड जो कभी गंगा-जमुनी संस्कृति के स्रोत होने पर गर्व करता था, आज यही नदियां यहां के लोगों के लिए अभिशाप बन गई हैं। ये नदियां बरसात में भूस्खलन और बाढ़ के कारण हजारों मौतों को बांटने वाली बन गई हैं। सरकार चाहे राज्य की हो या केन्द्र की, लोगों के बीच विकास के नाम पर विनाश को रोप रही है। लोगों के ऊपर जबरन थोपे जा रहे इस विकास से आज पहाड़ के मूल निवासियों की पीढ़ियों पर खतरा मंडराने लगा है।
टिहरी बांध जहां गरीबों के लिए विस्थापन और देश के लिए एक नया खतरा लेकर आया है, वहीं कई छोटे-बड़े निर्माणाधीन और प्रस्तावित बांध प्रदेश के भूगोल के प्रतिकूल पहाड़ों की छाती में गाड़े जा रहे हैं। खास बात तो यह है कि जो बिजली पहाड़ की छातियों को दल के बनेगी, वह भी इस अभागे राज्य के हिस्से नहीं आयेगी। जो थोड़ी-बहुत बिजली राज्य के हिस्से आयेगी, वह भी सेलाकुई, सिडकुल जैसे उद्योगों के लिए पहली प्राथमिकता में होगी। आम आदमी की हिस्सेदारी उसमें कहीं नहीं रहेगी। कह सकते हैं कि उद्योगपतियों द्वारा बनाई गई बिजली उद्योगपतियों के लिए ही होगी।
उत्तराखण्ड में गंगा की हितैषी पार्टी भाजपा ने अपने कार्यकाल में उत्तराखण्ड जल विद्युत नीति के तहत 40,000 मेगावाट विद्युत पैदा करने की योजना बनाकर केन्द्र सरकार के पास भेजी थी। अपने कार्यकाल के दौरान कांग्रेस सरकार के मुखिया नारायणदत्त तिवाड़ी ने जून 2004 को केन्द्र सरकार के ऊर्जा मंत्रालय को एक पत्र लिखा था कि उत्तराखण्ड प्रदेश में 18,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन की क्षमता है। कांग्रेस के जाने के बाद जब भाजपा की सरकार आई, तो सरकार के मुखिया भुवनचंद्र खण्डूड़ी ने इसे बढ़ाकर 20,000 मेगावाट विद्युत उत्पादन करने की क्षमता बता दी। भुवनचंद्र खण्डूड़ी को एक षड्यंत्र के तहत कुर्सी से विदा करने के बाद स्वयं मुख्यमंत्री बने रमेश पोखरियाल निशंक ने 40,000 हजार मेगावाट जल विद्युत उत्पादन का प्रस्ताव केन्द्र सरकार के पास भेज दिया।
उत्तराखण्ड जल विद्युत निगम लिमिटेड के यमुना नदी पर किए गए एक अध्ययन से सरकार की मंशा का पता भी चल जाता है। निगम अपनी रिपोर्ट में कहता है कि यमुना नदी में लगातार पानी घट रहा है, पानी कम होने के चलते विद्युत उत्पादन में दिक्कतें पैदा हो रही हैं। इसके लिए सबसे अच्छा तरीका यह है कि यमुना नदी पर काफी बांध बनाये जाएं, जिससे विद्युत उत्पादन ठीक से हो सके।
विद्युत उत्पादन के लिए बांध ज्यादा बनाये जाएं, यह बात सिर्फ यमुना के संदर्भ में ही नहीं हो रही है। यह बात उत्तराखण्ड की हर नदी पर लागू की जा रही है। उसके लिए केन्द्र सरकार ने पांच हेक्टेयर तक वन भूमि की क्लीयरेंस राज्य सरकार के हवाले कर अपनी मंशा भी जता दी है। राज्य सरकार जिसमें माफिया का बड़े स्तर पर हस्तक्षेप रहता है, वे अपने तथा अपने आकाओं के हितों के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। राज्य सरकार को पांच हेक्टेयर तक वन भूमि की अनुमति देकर केन्द्र सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों के लूट की संभावनाओं को और बढ़ा दिया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने पर्यावरणीय पहलू को ध्यान में रखते हुए उत्तराखण्ड की कई जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाई हुई है। जून 2013 में केदारनाथ त्रासदी के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने उचित ही जल विद्युत परियोजनाओं को त्रासदी के लिए जिम्मेदार मानते हुए 13 अगस्त 2013 को 24 अन्य जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगा दी थी। रोक को हटाने के लिए राज्य सरकार लगातार छटपटा रही है। वर्तमान सरकार जिस तरह से विकास को गति देने के नाम पर तमाम प्राकृतिक संसाधनों को लूटने के लिए विश्वभर के बड़े कॉरपोरेट घरानों को आमंत्रित कर रही है, उससे यह शंका भी होने लगी है कि देर-सबेर लोहारीनाग पाला, पाला मनेरी और भैरो घाटी जैसी विवादित एवं पर्यावरण के लिए खतरनाक हो चुकीं जल विद्युत परियोजनाओं पर से रोक हटा दी जाएगी।
विद्युत परियोजनाओं पर से जल्दी रोक हटे, इसके लिए राज्य में जोंक की तरह चिपके कुछ एनजीओ के स्वर भी सुनाई देने लगे हैं। लोगों के विकास के नाम पर बने ये मौकापरस्त एनजीओ मोदी की भाषा बोलते नजर आने लगे हैं। इन्हीं के साथ राज्य के कुछ बुद्धिजीवी भी पाला बदलते नजर आने लगे हैं।
राज्य के लोगों के खिलाफ और पूंजीपतियों के पक्ष में हमारे राजनेता कैसे पलटी मारते हैं, इसका ठोस उदाहरण आजकल केन्द्रीय मंत्री उमा भारती और मुख्यमंत्री हरीश रावत के बयानों और कार्यपद्धति में देखा जा सकता है। जब केन्द्र में भाजपा सरकार नहीं थी, उमा भारती बांधों के विरोध में दहाड़ा करती थीं और गंगा की अविरलता की बात पुरजोर ढंग से उठा रही थीं। वह गाहे-बगाहे धारीदेवी, श्रीनगर गढ़वाल की परिक्रमा कर जातीं और अपनी जान देकर भी गंगा में बांध न बनने देने की कसमें खाया करती थीं। जब कुछ पुरातनपंथी केदारनाथ त्रासदी को धारी देवी मंदिर के विस्थापन से जोड़ रहे थे, तो यही उमा भारती नदियों पर बन रहे बांधों को कोसते हुए उनके स्वर में अपना स्वर मिला रही थीं।
बांधों के विरोध में उमा भारती अपने समर्थक कई साधु-संतों के साथ 10 मई 2011 में हरिद्वार में बीस दिन तक भूख हड़ताल तक कर चुकी हैं। अब वह केन्द्र में जल संसाधन एवं गंगा पुनर्जीवन मंत्रालय संभाल रही हैं। मंत्रालय के नाम से ही समझ सकते हैं कि मृत गंगा को उमा भारती किस तरह का पुनर्जीवन प्रदान करेंगी। जून में गंगा दशहरे के दिन हरिद्वार में अपने पूर्व के बयानों एवं कर्मों से पलटी खाते हुए मैडम बयान देती हैं कि मैं कभी भी; किसी भी आकार के बांधों की विरोधी नहीं रही हूं। मेरी लड़ाई हमेशा गंगा की अविरलता को लेकर रही है, न की बांधों को रोकने की। अब हमें थोड़ा इंतजार करना होगा कि गंगा की अविरला की उमा भारती कौन-सी नई परिभाषा गढ़ती हैं? क्योंकि अब वह देश के विकास के लिए हर स्तर के बांधों की अनिवार्यता पर जोर दे रही हैं।
हमें भूलना नहीं चाहिए की उमा भारती गेरूए कपड़े पहनती हैं और उन्हीं कपड़ों के रंग से उन्होंने अपनी पहचान एक साध्वी की बनाई है। गंगा पर बन रहे बांधों के खिलाफ अब तक दिए गए उनके बयानों को लोग एक साध्वी की गंगा के प्रति तड़प के रूप में देखते थे, इसलिए उन पर विश्वास भी करते थे। मगर जिस तरह से इस साध्वी ने पलटी मारी है, उससे गेरूए रंग के गैंग के गंगा ढोंग को सामने आने में समय नहीं लगा है।
जब केंद्र में कांग्रेस सरकार लोहारी नागपाला और पाला मनेरी सहित कई जल विद्युत परियोजनाओं पर रोक लगाने का फैसला कर रही थी, तब उत्तराखण्ड के वर्तमान मुख्यमंत्री केंद्र में थे और इन फैसलों को हर स्तर पर जायज ठहरा रहे थे। उनका बयान था कि प्रदेश के पर्यावरणीय हितों के लिए इस तरह की परियोजनाओं पर रोक लगानी बहुत जरूरी है। जून 2011 में उच्च न्यायालय नैनीताल के न्यायमूर्ति सुधाशु धूलिया ने एक फैसले में पांच किलोवाट से ऊपर की सभी तरह की जल विद्युत परियोजनाओं पर बिना पर्यावरणीय अध्ययन के रोक लगा दी थी। उस फैसले से राज्य को यह फायदा हुआ की तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा के प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों को नीलाम करके पैसे बनाने की नीति पर रोक लग गई। इसने तत्कालीन राज्य सरकार और कॉरपोरेट सेक्टर के स्थानीय दलालों को परेशान कर दिया था।
इससे पहले जून 2013 में प्रदेश में आई भीषण तबाही के बाद सर्वोच न्यायालय ने तकरीबन 800 छोटी परियोजनाओं के साथ 24 अन्य बड़ी परियोजनाओं पर भी रोक लगा दी थी। इन्हें खोलने के लिए उच्चतम न्यायालय तक जाने के फैसले में हरीश रावत सरकार की बेचैनी साफ देखी जा सकती है। इस मामले में 22 मई 2014 को वह अपने मंत्रिमंडल से इस आशय का एक प्रस्ताव भी पास करा चुके हैं। वह यहीं पर नहीं रुके, उन्होंने 25 मेगावाट की स्वीकृति का अधिकार केन्द्र से राज्य को देने का प्रस्ताव भी केन्द्र सरकार को भेज दिया है। अगर केन्द्र ने राज्य सरकार की इस मांग को मान लिया तो उनको अपने चहेतों के साथ तथा कई अन्य लोगों को भी नदियों में उठा-पटक करने की कानूनी मान्यता मिल जाएगी।
नरेंद्र मोदी ने सत्ता में आने के बाद जो सबसे पहला काम किया वह सरदार सरोवर की ऊंचाई 121.92 मीटर बढ़ाने का था। सरदार सरोवर के खिलाफ आंदोलन कर रहीं मेधा पाटेकर गुजरात में इसी बात को लेकर खलनायिका घोषित कर दी गई थीं। सरदार सरोवर का पानी जो गुजरात के धनी किसानों और उद्योगपतियों को मिलना चाहिए था, वह मेधा पाटेकर के विरोध के कारण नहीं मिल पा रहा था। बांध की ऊंचाई बढ़ाने से कितने लोग विस्थापित होंगे, इसको लेकर मोदी सरकार की कोई चिंता नहीं दिखती। उनको किसी भी हाल में गुजरात के उस वर्ग को खुश करना है, जो हर स्तर पर चुनाव लड़ने के लिए उनको आर्थिक संसाधन उपलब्ध करवाता रहा है। सरदार सरोवर की ऊंचाई बढ़ाने और उत्तराखण्ड की नदियों पर उमा के बयान से जहां संकट और गहराता दिख रहा है, वहीं पांच हेक्टेयर वन भूमि को राज्य सरकार के हवाले कर स्थानीय निवासियों के जीवन में खतरे को और बढ़ा दिया है।
आगे जनता अपने ऊपर हो रहे हर स्तर के अन्याय के खिलाफ आवाज उठाये, उससे पहले केन्द्र सरकार की गुप्तचर एजेंसी आईबी सरकार को रिपोर्ट दे चुकी है कि जन आंदोलन चलाने वाले संगठन देश के विकास कार्यों के सबसे बड़े दुश्मन हैं। इस तरह की खबरों का सिलसिला अचानक तेज हो गया है, जो अच्छे लक्षण नहीं हैं। कुछ एनजीओ को छोड़ दिया जाए, तो इस देश में अपने जीवन यापन करने के प्राकृतिक संसाधनों पर हो रहे हमले के खिलाफ अक्सर स्वत:स्पूर्त आंदोलन खड़े होते आये हैं। फिर चाहे वह भट्टा परसोल हो या वेदांता के खिलाफ चल रहे उड़ीसा के लोगों का आंदोलन। आईबी की रिपोर्ट से स्पष्ट हो गया है कि आगे पूंजीपतियों के लूट के खिलाफ खड़े होने वाले किसी भी जनतांत्रिक आंदोलन के दमन की संभावनाएं काफी बढ़ गई हैं।