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लाल किला और बहुमत का 'प्रधान सेवक'

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अभिनव श्रीवास्तव
-अभिनव श्रीवास्तव

"...दरअसल प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नरेंद्र मोदी कई अवसरों पर ‘छद्म उदारता’ से पेश आकर अपने राजनीतिक विरोधियों के सामने असमंजस की स्थिति पैदा करते रहे हैं। इसी कोशिश में उन्होंने अपने भाषण में पूर्ववर्ती सरकारों के योगदान को स्वीकारा और ‘बहुमत’ के बजाय ‘सहमति’ से चलने की बात कही। हैरानी की बात थी कि ये ऐसा उस सरकार का प्रधानमंत्री कह रहा था जिसके शासन के शुरुआती कार्यकाल में ‘सत्ता के सकेन्द्रण’ के नये रिकार्ड बने और नीति-निर्माण के स्तर पर लोकतांत्रिक कायदे-कानूनों के साथ जमकर खेल हुआ। इसके बावजूद ये समझने की आवश्यकता है कि नरेंद्र मोदी इस छद्म तरीके से स्वयं को उदार पेश कर क्या सन्देश देना चाहते हैं?..."

अगर ये कहा जाये कि स्वतंत्रता दिवस पर लाल-किले से दिया गया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भाषण उनकी चुनावी रैलियों का विस्तार था, तो ये बात उनके समर्थक तबकों को कुछ अटपटी लग सकती है। खासकर, ऐसे माहौल में जब उनके भाषण और संवाद शैली को लोगों की कल्पनशीलता को सीधे छूने वाला और बनी-बनायी परम्पराओं को तोड़ने वाला बताया जा रहा हो। गौर से देखें तो नरेंद्र मोदी ने चुनावी रैलियों से लेकर शपथ ग्रहण समारोह और अपनी नेपाल यात्रा के दौरान भी ‘उत्सवधर्मिता’ का ऐसा ही माहौल तैयार करने में सफलता हासिल की थी। इसके पीछे संभवतः एक बड़ा कारण उपरोक्त अवसरों का ‘अनुष्ठानों’ में बदलना रहा है। ध्यान दें कि ऐसे हर अवसर पर मीडिया और मुख्य धारा विमर्श द्वारा तैयार किये जाने वाले माहौल और सन्देश में काफी हद तक समानता है।    

मोदी के भाषण पर बात की जाये उससे पहले ये सवाल उठाना जरूरी है कि बतौर ‘प्रधानमंत्री’ लाल किले की प्राचीर से बोलते हुये वह कैसे उस व्यक्ति से अलग थे, जिसे भाजपा ने अपने प्रधानमंत्री पद का ‘उम्मीदवार’ घोषित किया था। उनको सुनने वाला कोई भी व्यक्ति यह आसानी से बता सकता था कि अपने भाषण में उन्होंने उन्हीं नारों, प्रतीकों और संकेतों का इस्तेमाल किया जिनकी सफलता को वह लोकसभा चुनाव प्रचार में आजमा चुके थे। इतना जरूर है कि एक ऐतिहासिक अवसर पर उन्होंने कुछ प्रतीकों को विस्तार दिया। चुनावी रैलियों में वह ‘गरीब के बेटे’ थे, लेकिन स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र को संबोधित करते हुये वह ‘प्रधान सेवक’ बन गये! यह अस्वभाविक नहीं था कि नरेंद्र मोदी ने अपने भाषण की शुरुआत स्वयं को लोगों का ‘प्रधान सेवक’ बताकर की। यह उनकी और भाजपा की उस नीति के अनुरूप था जिसके तहत नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव के दौरान अपनी जातीय पृष्ठभूमि को केंद्र में रखकर और खुद को ‘गरीब’ परिवार से आया व्यक्ति बताकर नये चुनावी समीकरण बनाये और भाजपा के बुनियादी विचार को को अपने गैर-परंपरागत समर्थक तबकों में भी स्वीकार्य बना दिया।


कहा जा सकता है कि भाजपा के सत्ता में आ जाने और स्वयं प्रधानमंत्री बन जाने के बाद इस ‘छवि’ को बरकरार रखने का कोई औचित्य नहीं था, लेकिन गुजरात दंगों से जुड़े अपने अतीत के संदर्भ में नैतिक वैधता का संकट नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के साथ स्थायी रूप से जुड़ा हुआ है। अपनी जातिगत और जमीनी पृष्ठभूमि का केंद्र में रखने के सियासी दांव का महत्त्व सिर्फ इस बात में नहीं है कि उसके दम पर नरेंद्र मोदी ने भाजपा के लिये आवश्यक जनमत जुटा लिया, बल्कि इस सियासी दांव से उन्हें जो नैतिक और लोकतांत्रिक वैधता हासिल हुयी, उसका महत्त्व उनके लिये आज भी कहीं ज्यादा है। निश्चित तौर पर लाल किले से ‘प्रधान सेवक’ और ‘मैंने गरीबी देखी है’ जैसे जुमलों को दोहराकर उन्होंने अपनी इस नैतिक वैधता को ही निरंतरता प्रदान की।


दरअसल प्रधानमंत्री बन जाने के बाद नरेंद्र मोदी कई अवसरों पर ‘छद्म उदारता’ से पेश आकर अपने राजनीतिक विरोधियों के सामने असमंजस की स्थिति पैदा करते रहे हैं। इसी कोशिश में उन्होंने अपने भाषण में पूर्ववर्ती सरकारों के योगदान को स्वीकारा और ‘बहुमत’ के बजाय ‘सहमति’ से चलने की बात कही। हैरानी की बात थी कि ये ऐसा उस सरकार का प्रधानमंत्री कह रहा था जिसके शासन के शुरुआती कार्यकाल में ‘सत्ता के सकेन्द्रण’ के नये रिकार्ड बने और नीति-निर्माण के स्तर पर लोकतांत्रिक कायदे-कानूनों के साथ जमकर खेल हुआ। इसके बावजूद ये समझने की आवश्यकता है कि नरेंद्र मोदी इस छद्म तरीके से स्वयं को उदार पेश कर क्या सन्देश देना चाहते हैं? वास्तव में, पुरानी सरकारों के योगदान को स्वीकार करने की बात कहना आजादी के बाद के भारत की सम्पूर्ण विकास यात्रा पर अपनी दावेदारी पेश करने और पूर्ववर्ती सरकारों को अपनी ओर से प्रमाण पत्र जारी करने का प्रयास होता है। मोदी जानते हैं कि जिस परिघटना के परिणामस्वरूप वह प्रधानमंत्री बने हैं, वहां ऐसे सन्देश देने की वैधता उन्हें हासिल है। हालांकि आज ये बात सिर्फ सन्देश देने तक सीमित नहीं हैं। उनके नेतृत्व में देश की ऐतिहासिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विरासत को संघ और भाजपा के बुनियादी एजेंडे के अनुसार बदल डालने और गड़प करने का कार्य जितना योजनाबद्ध तरीके से चल रहा है, वह सबके सामने है।


योजना आयोग को खत्म करना भी इस लिहाज महज एक औपचारिक घोषणा भर नहीं है। यह उस विच्छेद बिंदु (Exclusionary point)  का ‘ठोस प्रतीक’ है, जो भाजपा के सत्ता में आ जाने के बाद भारतीय राज्य व्यवस्था के भीतर बना है। नरेंद्र मोदी और एनडीए सरकार के लिये योजना आयोग को खत्म करना वैचारिक और रणनीतिक दोनों उद्देश्यों को पूरा करता है। वैचारिक नजरिये से नेहरूवादी विचार की विदाई जिससे एक विशेष राजनीतिक सन्देश जाता है और रणनीतिक नजरिये से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को समाप्त कर ‘विकास’ के उस रास्ते को तैयार करना जिसे मोदी ने अपने भाषण के अगले हिस्से में ‘मेक इन इण्डिया’ और ‘मेड इन इण्डिया’ के जुमलों के साथ उछाल दिया।


इन जुमलों के माध्यम से नरेंद्र मोदी ने ‘विकास’ के अपने माडल को बेहद आक्रामक अपील के साथ लागू करने का आह्वान किया। ये बात गौर करने वाली है कि कामकाज और नीति-निर्माण के स्तर पर मोदी सरकार पहले ही अपने चुने गये इस रास्ते पर कदम बढ़ा चुकी है। रक्षा सौदों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को मंजूरी, बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की सीमा को बढ़ाना और श्रम कानूनों में संशोधन की प्रक्रिया की शुरुआत ऐसे फैसले हैं जो ‘मेक इन इण्डिया’ की सोच को ध्यान में रखकर ही लिये जा रहे हैं। कई मायनों में ‘मेक इन इण्डिया’ और ‘मेड इन इण्डिया’ की अपील एक ऐसे ‘घरेलू’ पूंजीवादी माडल की वकालत करती है, जो भगवा रंग में रंगी हुयी हो। भले ही इसके लिये कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को जमींदोज और श्रम कानूनों के वास्तविक औचित्य को खत्म करना पड़े। यही नरेंद्र मोदी के ‘विकास’ के नारे की वास्तविकता है कि उन्होंने पिछले एक दशक में तैयार हुये मध्य वर्ग को ‘हिन्दू श्रमिक वर्ग’ के रूप में गोलबंद करने में सफलता हासिल की है। उनके खास व्यक्तित्व और पृष्ठभूमि ने इस वर्ग के भीतर वह असीमित सांस्कृतिक आजादी मिल जाने का भरोसा पैदा किया है, जिसको आधार बनाकर संघ और भाजपा आजादी के पहले से लेकर अब तक अपनी राजनीति करते रहे हैं।


नरेंद्र मोदी के भाषण के उस हिस्से को काफी सराहा गया है जिसमें उन्होंने बलात्कार और महिलाओं के लिये शौचालय नहीं होने जैसी बातों को उठाया। सामाजिक मुद्दों को एक महत्वपूर्ण अवसर पर अपने भाषण का विषय बनाने के लिये भी उनकी तारीफ की जा रही है। वास्तव में अगर इन दोनों मुद्दों पर प्रधानमंत्री द्वारा कही गयी बातों पर गौर करें तो पता चलता है कि इतने संजीदा विषयों का इस्तेमाल भी उन्होंने अपने भाषण में सिर्फ तड़का लगाने के लिये किया। वह सामाजिक मुद्दों पर बोल जरुर रहे थे, लेकिन भारत के सामाजिक यथार्थ से एक सचेत दूरी बरतकर। वरना उन्हें अवश्य मालूम होता है कि लड़कियों के अधिकांश बलात्कार घर की चारदीवारियों की भीतर होते हैं। वह एक ‘प्रधानमंत्री’ की भूमिका में मंच पर थे लेकिन बलात्कार की घटनाओं पर सिर्फ अफ़सोस और शर्म से गर्दन नीचे झुकाकर रह गये। जहां उन्हें एक प्रशासक और नीति-निर्माता के तौर पर बात करनी चाहिये थी, वहां वह कोरी भावुकता में बात कर रहे थे। यही वजह थी कि उनकी बात ‘लड़को पर नियंत्रण’ लगाने की अपील से ज्यादा आगे नहीं बढ़ पायी। महिलाओं के सशक्तिकरण से जुड़ी किसी भी नीति पर उन्होंने कोई टिप्पणी नहीं की। शौचालयों की राजनीति को गांधी के प्रतीक से जोड़कर उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से पहले भी वाह-वाही हासिल की है, आज जब नीति-निर्माण का समय आया तो उन्होंने इसे एक ऐसी योजना-सांसद ग्राम सड़क योजना का नाम दिया, जिसका व्यवहारिक मतलब कुछ भी नहीं है। सांसदों के पास पहले ही  सांसद निधि के रूप में मुहैया राशि शौचालय, सड़क आदि निर्माण कार्यों के लिये होती है। कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी के लाल किले से दिये गये भाषण में भी वही अंर्तविरोध और सन्देश गुथा हुआ था, जो रोज देश में मीडिया के बड़े हिस्से द्वारा छिपाया और प्रचारित किया जा रहा है। ये विडम्बना ही है कि स्वयं को प्रशासक और विकास पुरुष कहने वाले प्रधानमंत्री ने महंगाई जैसे मुद्दे पर कोई टिप्पणी नहीं की। एक ऐसी सरकार से देश के बिगड़ते साम्प्रदायिक माहौल पर कोई संतुलित टिप्पणी करने की अपेक्षा अनुचित ही थी जिसके मुखिया की नैतिक वैधता स्वयं संदिग्ध हो। बतौर प्रधानमंत्री लाल किले से बोलते हुये नरेंद्र मोदी ने इस बात को सही साबित किया।  


जिस ख़ास पृष्ठभूमि और परिघटना ने भाजपा और नरेंद्र मोदी को सत्तासीन किया, आज भले ही उसके प्रभाव के चलते मोदी की जय-जयकार हो रही हो, लेकिन ये अनुभवसिद्ध है कि एक सीमा के बाद जुमलों, नारों और प्रतीकों की ठोस व्याख्या की जरुरत पड़ती है। देर-सबेर मोदी को भी ये सीमा लांघनी पड़ेगी।  

अभिनव शोधार्थी और पत्रकार हैं. पत्रकारिता की शिक्षा आईआईएमसी से.
राजस्थान पत्रिका (जयपुर) में कुछ समय काम.
इन्टरनेट में इनका पता  abhinavas30@gmail.com है.

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