Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

बाल अपराध से निपटने का प्रश्न

$
0
0
सुनील कुमार
-सुनील कुमार

"...सवाल यह है कि जो बच्चा 11 साल की उम्र में घर से बाहर आता है, वह हर अच्छे बच्चे की तरह संवेदनशील, दूसरों की इज्जत करने वाला और परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाला होता है। वह जब अपने परिवार से दूर शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आता है तो वह इतना क्रूर और हिंसक हो जाता है कि वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है- वह परिवार या हमारा समाज और हम?..."

हाल ही में मोदी सरकार के मंत्रिमंडल ने बाल अपराधियों की उम्र की सीमा को 18 वर्ष से कम करके 16 वर्ष कर दिया है। इसके बाद महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने लोकसभा में 12 अगस्त को ‘किशोर न्याय विधेयक’ पेश किया है। तर्क दिया जा रहा है कि ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2000’ के तहत मौजूदा व्यवस्था और प्रावधान इस आयु वर्ग के बाल अपराधियों से निपटने में पूरी तरह सक्षम नहीं है। दिल्ली सामूहिक बलात्कार (निर्भया कांड) के नाबालिग दोषी को हुये तीन साल की सजा के आधार पर तर्क दिया जा रहा है कि कोई भी नाबालिग जब बालिग जैसे अपराध (सेक्स, हत्या) करता है तो वह नाबालिग नहीं रहता है। उसे अपने अपराध के विषय में पता होता है, इसलिए उसका अपराध किशोर न्याय अधिनियम की श्रेणी में नहीं आता है। मंत्रिमंडल के फैसले में कहा गया है कि इस तरह के केस को जूवेनाइल कोर्ट चाहे तो अपराधिक कोर्ट में भेज सकता है जिसमें मृत्यु दण्ड या आजीवन करावास नहीं दिया जा सकता है।

इस तरह के कानून अमेरिका में है और भारत उसी माॅडल को अपना रहा है। अमेरिका में जेल जाने वाले किशोर जब जेल से बाहर आते हैं तो उनमें से 80 प्रतिशत अपराध करते हैं। भारत में इस तरह का कोई रिकाॅर्ड सरकार के पास नहीं है। लेकिन बाल अधिकारों के लिए काम करने वाले अधिवक्ता आनन्द आस्थाना के अनुसार उनके क्लांइट के मात्र 10 प्रतिशत ही बाद में चोरी और डकैती जैसे अपराध में लिप्त हुए हैं। उन्होंने तीन से चार हजार किशोर अधिनियम के तहत केस लड़े हैं।

भारत में बाल अपराध को हम तालिका 1 और 2 में देख सकते हैं:

तालिका 1
स्रोत : मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेटिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन, 2013
तालिका एक से स्पष्ट होता है कि भारत में ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2000’ सफल रहा है। दस सालों में बाल अपराध में मामूली बढ़ोतरी हुई है। अमेरिका में 10-17 वर्ष के ‘अपराधियों की संख्या 2010 में एक लाख व्यक्ति पर 225 थी, जबकि अगर उसी साल की हम भारत में बाल अपराधियों की संख्या देखें तो एक लाख आबादी पर मात्र दो का है। बाल अपराध में भी ज्यादातर घटनाएं चोरी और दंगे (तालिका 2 देखें) की है, जबकि बलात्कार और हत्या की संख्या कम रही है। हम जानते हैं कि दंगे समाज के किस वर्ग के द्वारा और किसलिए कराया जाता है। चोरी की घटनाएं भी ज्यादातर पेट की भूख को मिटाने के लिए ही होती हैं। भारत के जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों को रखा जाता है। ऐसे में अगर इन किशोरों को जेल भेजा जायेगा तो जेलों में कैदियों की  संख्या और बढ़ेगी। किशोर जब अपनी सजा पूरी करेंगे निकलेंगे तो अपराधों की संख्या भी बढ़ेगी। मोदी सरकार ‘किशोर न्याय अधिनियम, 2000’ में बदलाव करके किशोरों की उम्र 18 से 16 क्यों करना चाहती है? क्या इससे अपराध की संख्या में कमी आयेगी?

तालिका - 2
स्रोत : द रजिस्ट्रार जेनरल ऑफ इंडिया
इस कानून को बदलने के लिए जिस दिल्ली गैंग रेप के नबालिग सजायफ्त्ता का उदाहरण दिया जा रहा है वह कितना सही है? जब नाबालिग की मां से मिलने के लिए जब बीबीसी संवाददाता गई तो बिना लाग लपेट के उसने कहा- ‘‘हमारे घर में भी दो बेटीयां हैं; अगर मेरे बेटे ने किसी लड़की के साथ ऐसा किया है तो उसे कड़ी सजा होनी चाहिए। पता नहीं मैं उसे माफ कर सकती हूं या नहीं, लेकिन उसकी वजह से हमारी बहुत बदनामी हुई है। मुझे अब यह चिंता खाए जा रही है कि मेरी बेटियों से विवाह कौन करेगा?’’

जब उन्हें बताया गया कि वह नाबालिग है और सजा काट कर जल्द ही वापस गांव आ जायेगा तो गुस्से से उन्होंने कहा ‘‘इतनी बदनामी के बाद गांव वाले उसे यहां कदम भी नहीं रखने देंगे’’। ऐसे तबके में समाज में भी दंड देने का प्रावधान है जिससे अपराधी, अपराध करने से डरता है। इस तबके के पास इतना पैसा भी नहीं होता कि वो पैरवी करें या दूर कहीं मिलने के लिए जायें। अपने बच्चों की पैरवी करने, जेल या हवालात में सुविधा या राहत दिलाने का काम एक वर्ग विशेष ही कर पाता है। समाज का एक तबका उसको निर्दोष और भोला कहता है, जिसका लाभ उसको केस में भी मिलता है।

समाज की भूमिका

दिल्ली गैंग रेप का नाबालिग दोषी उत्तर प्रदेश के बंदायू जिले का रहने वाला है। वह 11 साल की उम्र में अपने परिवार का पेट भरने के लिए दिल्ली कमाने के लिए आ गया। मां बताती है कि ‘‘वह बहुत संवेदनशील बच्चा था और गांव में सभी से डरता था; मुझे लगता है कि वह दिल्ली जाकर बुरी संगत में पड़ गया जिसकी वजह से उसने यह घिनौना अपराध किया’’। वह बताती है कि ‘‘बेटे से अंतिम मुलाकात छह-सात साल पहले दिल्ली जाने के समय ही हुई थी। दिल्ली जाने से पहले आखिरी बार उसने हमसे कहा कि मैं अपना ख्याल रखूं और फिर वो बस पकड़ कर शहर के लिए रवाना हो गया। वहां जाने के बाद दो-तीन साल तक उसने अपनी कमाई का पैसा भेजा लेकिन उसके बाद उसका कोई पता नहीं चला, मुझे लगता था कि वह अब जिन्दा नहीं होगा।’’ 

सवाल यह है कि जो बच्चा 11 साल की उम्र में घर से बाहर आता है, वह हर अच्छे बच्चे की तरह संवेदनशील, दूसरों की इज्जत करने वाला और परिवार की जिम्मेदारी उठाने वाला होता है। वह जब अपने परिवार से दूर शहर में रोजी-रोटी की तलाश में आता है तो वह इतना क्रूर और हिंसक हो जाता है कि वह किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाता है। इसके लिए जिम्मेदार कौन है- वह परिवार या हमारा समाज और हम?

दूसरी घटना दिल्ली की मदनगीर इलाके की है। 15-17 साल उम्र के पांच बच्चे दिन-दहाड़े, बाजार में एक सचिन (उम्र 20 साल) नामक व्यक्ति को चाकू गोद को मार डालते हैं। यह घटना बाजार में लगे सीसीटीवी में आ जाती है जिसकी निशानदेही पर पुलिस इन अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लेती है। ये ‘अभियुक्त’ पुलिस के पूछ-ताछ में बताते हैं कि उनको इस हत्या का कोई अफसोस नहीं है, उन्होंने जो किया है वह अच्छा किया है। सचिन गली का बदमाश था, वह मौजमस्ती करने के लिए कम उम्र के बच्चों से चोरी, छिनौती करवाता था। इन ‘अभियुक्तों’ में से एक की गली में राशन की दुकान थी और सचिन इस पर दबाव डाल कर नमकीन के चार-पांच पैकेट मंगवाया करता था। दूसरे ‘अभियुक्त’ के पिता बिल्डर के पास लेबर का काम किया करते थे, उस पर सचिन पैसे चुराने का दबाव डालता था। यह सिलसिला करीब एक साल से चल रहा था और सचिन के शिकार ये सभी ‘अभियुक्त’ हो चुके थे। इन ‘अभियुक्तों’ ने रोज-रोज के झंझट से तंग आकर सचिन को ठिकाने लगाने का मन बना लिया। आखिर इस तरह के अपराध के लिए कौन जिम्मेदार है? क्या हमारा शासन-प्रशासन सही काम करता तो इन  ‘अभियुक्तों’ द्वारा हत्या करने की नौबत आती? सचिन, जिसकी उम्र 20 साल थी, इस तरह की मौज-मस्ती करने का तरीका कहां से सीखा? इसके लिए कौन दोषी है? क्या हम ऐसे अभियुक्तों को जेल भेज कर सुधार पाएंगे या अपराध की दुनिया में ढकेलेंगे?

अगर हम सचमुच बाल अपराधों की संख्या को कम करना चाहते हैं तो सबसे पहले बालश्रम को सख्ती से रोकना होगा और गरीब शोषित-पीडि़त तबकों के बच्चों के लिए बुनियादी सुविधाएं एवं उचित शिक्षा की व्यवस्था करनी होगी। सर्वोपरी शोषण-दमन एवं अन्याय पर आधारित आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था को बदलना करना होगा।

सुनील सामाजिक राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
समकालीन विषयों पर निरंतर लेखन.
संपर्क- sunilkumar102@gmail.com

Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles