-अरविंद शेष
"...इसलिएकम से कम यह न कहा जाए कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत ने साबित किया है कि जाति की राजनीति खत्म हो गई। जाति या अस्मिता की राजनीति खत्म नहीं हुई। बल्कि वह ज्यादा बड़ी अस्मिता में विलीन हुई है और उसमें घुल-मिल जाने के बाद जो अस्मिता की राजनीति मुखर होगी, वह ज्यादा खतरनाक साबित होगी, जिसकी गाज आखिरकार वंचित और कमजोर जातियों पर ही गिरनी है।..."
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नरेंद्र मोदी के देश के प्रधानमंत्री के रूप शपथ-ग्रहण के बाद अब शायद यह कहना अप्रासंगिक होगा कि खुद भाजपा को भी इतनी सशक्त जीत की उम्मीद नहीं थी। इसके बावजूद अगर भाजपा ने चुनावों से पहले से ही खुद को एक तरह से जीते हुए पक्ष के रूप में पेश करना शुरू कर दिया था तो इसकी क्या वजहें रही होंगी, सोचने का मसला यह है। सवाल है कि आखिर भाजपा किस भरोसे यह दावा कर रही थी। क्या वह इस बात को लेकर आश्वस्त थी कि सियासी शतरंज पर उसने जो बिसात बिछाई है, उसमें नतीजे उम्मीद के हिसाब से ही आएंगे? वह बिसात बिछाते हुए आरएसएस या भाजपा ने किन-किन चुनौतियों को ध्यान में रखा और उसके बरक्स कौन-से मोर्चे मजबूत किए? उसके सामने चुनौतियों की शक्ल में जितनी भी राजनीतिक ताकतें थीं, उनके लिए यह अंदाजा लगाना क्या इतना मुश्किल था कि वे आरएसएस की चालों को भांप तक नहीं पाए? आम अवाम के पैमाने पर क्या ऐसा किया गया कि अब तक भाजपा के लिए चुनौती रहा एक साधारण वोटर एक खास तरह के "हिप्नोटिज्म"की जद में आकर भाजपा के पाले में जा खड़ा हुआ? क्यों ऐसा हुआ कि यह सब विकास लगभग बिना किसी सवाल या रोकटोक के अपने अंजाम तक पहुंचा?
इसीजगह पर जवाब की तरह यह सवाल सामने आता है कि भारत जैसे देश में सामाजिक विकास फिलहाल जिस पायदान पर है, उसमें उसे अपने पक्ष में खड़ा करने के लिए आखिर कौन-कौन से रास्ते अख्तियार किए जाने चाहिए? इस सवाल से अब तक सबसे बेहतर तरीके से कांग्रेस निपटती आई है। अब शायद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि आज भाजपा जिस बुनियाद पर अपना महल खड़ा कर सकी है, वह बुनियादी तौर पर कांग्रेस की ही तैयार की हुई है। क्या वजह है कि आजादी के बाद लगभग पूरे समय सत्ता में रहते हुए भी उसने आम जनता की समझदारी को मूल्यांकन या विश्लेषण आधारित बनाने की अपनी जिम्मेदारी की आपराधिक स्तर की न केवल अनदेखी की, बल्कि संवैधानिक तकाजों को भी ताक पर रखते हुए उसने यथास्थितिवाद की जमीन को और मजबूत ही किया? यह यथास्थितिवाद आखिर किस खास व्यवस्था के लिए खाद-पानी का काम कर सकता है, करता रहा है? यह समझने के लिए कोई बहुत ज्यादा मंथन करने की जरूरत शायद नहीं है कि कांग्रेस ने जिस खेल की जमीन तैयार की थी, उसमें भाजपा एक ज्यादा ताकतवर खिलाड़ी के रूप में इस बार सामने आई है। और पता नहीं, यह रिवायत किन हालात में शुरू हुई होगी कि अकेले भारत में नहीं, शायद समूची दुनिया की आम जनता आखिर विजेता के पक्ष में खड़ी होती है, बिना इस बात पर विचार किए कि युद्ध में किसने, किसी को पराजित करने के लिए कौन-सा तरीका आजमाया।
अपनेपिछले दो शासनकाल में कांग्रेस ने जिस घनघोर स्तर पर सबसे जरूरतमंद वर्गों की उपेक्षा की, उन्हीं आस्थाओं का नरम कारोबार किया, जिस पर भाजपा एक स्पष्ट चेहरे के साथ लोगों के सामने थी, वैसी हालत में अभाव में मरते-जीते लोगों को उनके ‘मूल’ और उनकी ‘परंपरागत’ भावनाओं और सपनों का पोषण करके बड़ी आसानी से अपने पक्ष में किया जा सकता था। यों सपनों को जमीन पर उतारना और जीवन की भूख का हल करना इस देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी की जवाबदेहियों-जिम्मेदारियों में शामिल नहीं रहा है। पिछली बार मजबूरी में वामपंथी दलों के सहयोग के चलते उसने जनता के सामने अपने सरोकार की सरकार का दावा किया भी था, लेकिन इस बार सच यही रहा कि कुल मिला कर अपने बीते एक दशक के रिकार्ड के हिसाब से कांग्रेस जनता के सामने यह पांसा भी फेंक सकने की हालत में नहीं थी। दूसरी ओर, उसकी मुख्य प्रतिद्वंद्वी के रूप में भाजपा के पास ‘जड़ों'की खुराक भी थी और अभाव में पलते समाज के सामने ‘विकास’ के मिथकों से लैस सपने भी थे। इससे भी ज्यादा महत्त्वपूर्ण यह कि इन दोनों हथियारों के बेहतर इस्तेमाल के लिए उसके पास एक सुचिंतित तंत्र भी था जो एक ओर आरएसएस के स्वयंसेवकों के रूप में तमाम परंपरागत अवधारणाओं के औजार से लोगों के ‘मूल’ को ‘जगा’ रहा था, तो दूसरी ओर अपने कार्यकर्ताओं से लेकर मीडिया के रूप में उसे हर स्तर पर बने-बनाए कार्यकर्ता मिल गए थे, जो दिन-रात उसकी खेत की सिंचाई कर रहे थे। नतीजा सामने है।
सवालहै कि भाजपा के बरक्स जितनी भी राजनीतिक ताकतें थीं, क्या उन्हें इस बात का अंदाजा नहीं था कि उनका समर्थक वर्ग जिस समाज का हिस्सा है, पिछले दो-ढाई दशकों के दौरान सचेत तौर पर उसकी चेतना में किन-किन तरीकों से किस तरह की व्यवस्था घोल दी गई है? वह व्यवस्था ज्यादातर लोगों के लिए एक नियति की तरह है, जिस पर वे सोचना नहीं चाहते। किसी भी राजनीतिक पार्टी ने शहरों से लेकर दूरदराज के इलाकों तक में छोटे-बड़े जागरण टाइप के उन धार्मिक आयोजनों या पूजा-पाठ की सार्वजनिक गतिविधियों पर गौर करना जरूरी नहीं समझा, जिसके जरिए समाज के हिंदू मानस को तुष्ट किया गया, उसके राजनीतिक दायरे को लगातार छोटा करके एक केंद्र में समेटने की कोशिश की गई, सांप्रदायीकरण किया गया और इस तरह आखिरकार ध्रुवीकरण की राजनीति की जमीन तैयार हुई। यह ध्रुवीकरण बहुत छोटी-छोटी बातों से सक्रिय की जा सकती थी। सामाजिक चेतना के बरक्स धार्मिक चेतना को खड़ा करके उस पर हावी करने के लिए आस्था को बतौर हथियार इस्तेमाल किया गया और उसका सबसे आसाना जरिया रहा नरेंद्र मोदी के रूप में एक प्रतीक को उसी "तैयार की गई"जनता के सामने खड़ा कर देना। ये नरेंद्र मोदी "गुजरात-2002"की छवि वाले मोदी थे, जो एक आम हिंदू मानस को सहलाता है। इसमें आरएसएस पूरी तरह कामयाब रहा।
धर्मनिरपेक्षऔर सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों के सामने इस जटिल चुनौती से निपटने का क्या कोई रास्ता नहीं था? जब अपने ही राजनीतिक आदर्शों को ताक पर रख दिया जाता है तब ऐसे हालात का सामना एक स्वाभाविक परिणति होती थी।
मैदानमें खड़ा होकर सामना करने का एकमात्र रास्ता था कि शासक अस्मिताओं के बरक्स शासित अस्मिताओं को सीधे संबोधित किया जाए। इसके कामयाब प्रयोग का उदाहरण बहुत पुराना नहीं है। करीब ढाई दशक पहले जब मंडल आयोग की रिपोर्ट पर अमल की घोषणा हुई तो उसके बाद यह हुआ भी। तभी पहली बार यह लगा कि एक सहज-सी दिखने वाली व्यवस्था के जरिए जिस यथास्थितिवाद का पालन-पोषण होता आ रहा था, उसकी परतों के नीचे कितने विद्रूप पल रहे हैं।
उसी दौर में मंडल आंदोलन ने शासित सामाजिक वर्गों की अस्मिता की लड़ाई के जरिए एक ऐसे नेतृत्व वर्ग की शृंखला खड़ी की, जो पहले से चली आ रही शासन और समाज व्यवस्था के ढांचे में सीधे-सीधे तोड़-फोड़ थी। इसका अहसास उसी समय सत्ताधारी तबकों को हो गया था और प्रतिक्रिया भी बहुत तीखी शक्ल में सामने आई थी, लेकिन वह बाद में बहुत सोच-समझकर किसी दीर्घकालिक योजना का हिस्सा साबित हुई। तब मेरिट की शक्ल में आसानी से "पॉपुलर"होने वाले जुमलों से लैस सवाल उछाले गए, आरक्षण के खिलाफ आत्मदाही ‘आंदोलन’ या दूसरे प्रतिगामी प्रचारों से जब काम नहीं चलता लगा तब लालकृष्ण आडवाणी की ‘रथयात्रा’ चल पड़ी, जिसने शासित अस्मिताओं के उभार को रोकने और आखिरकार इस चुनाव में अपने हिंदू अस्मिता में समाहित कर लेने में कामयाबी हासिल कर ली। आरएसएस और भाजपा को इस "प्रोजेक्ट"को ताजा निष्कर्ष तक लाने में महज सवा दो या ढाई दशक का वक्त लगा।
जिन अस्मिताओं से हिंदुत्व के मूल ढांचे को नुकसान हो सकता था, उनके बीच से कुछ हिम्मती चेहरे सामने तो आए, लेकिन एक ओर सत्ता और तंत्र के बीच फर्क समझ सकने में नाकामी और अदूरदर्शिता के साथ-साथ दूसरी ओर इनके बीच से ही कुछ स्वार्थी, महत्त्वाकांक्षी और अवसरवादी तत्त्वों ने सत्ता में पहुंचने के लिए उस समूचे आंदोलन का बेड़ा गर्क करने में अपनी पूरी भूमिका निबाही। अस्मिता के संघर्ष का मकसद जहां इसके जरिए ऐतिहासिक रूप से छीने गए अधिकारों को हासिल करके भेदभाव पर आधारित एक व्यापक पहचान, यानी हिंदुत्व के ढांचे को तोड़ना था, वहां अस्मिता ही राजनीति का एक हथियार बन गया। ऐसी स्थिति में जो होना था, वही हुआ। संघर्ष मुक्ति के लिए होना था, लेकिन उसने अपने लिए ऐसे दायरे पैदा किए, जिसके भीतर ही उसे गोल-गोल घूमना था। जबकि मकसद उसी दायरे को तोड़ कर आगे का रास्ता अख्तियार करना होना चाहिए था। क्या इस दायरे की दीवार इतनी मजबूत है कि उससे पार न पाया जा सके? यह शायद आखिरी सच नहीं है। लेकिन किसी दबाव से उपजे संघर्ष की दिशा कई बार भ्रम का शिकार हो जाती है। जबकि यही संघर्ष अगर किसी सुचिंतित योजना का हिस्सा हो तो नई व्यवस्था की जमीन तैयार कर सकता है।
जातिकी अस्मिता धर्म की व्यापक अस्मिता के दायरे के भीतर की चीज थी। इसलिए जब अधिकारों के लिए खड़ी हुई अस्मिताएं संघर्ष का रास्ता छोड़कर वैचारिक रूप से भी जातिगत दायरे में सिमटने लगीं तो ऐसे में उस पर उसकी व्यापक अस्मिता का हावी होना लाजिमी था। हिंदुत्व की व्यवस्था चलाने वाले एक सक्षम समूह के रूप में आरएसएस को यह बहुत अच्छे से मालूम है कि अगर उसकी व्यवस्था के मूल ढांचे को खतरा हो तो उसे समान हथियार से ही वापस मोड़ा जा सकता है। तो जिस तरह सामाजिक वंचना के नतीजे में छीने गए अधिकारों को हासिल करने के लिए जाति की अस्मिता आंदोलन की शक्ल में खड़ी हुई, उसी जाति को मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के बाद आरक्षण विरोधी आंदोलन के साए में आरएसएस ने उसकी व्यापक अस्मिता, यानी हिंदुत्व में समाहित करने के लिए रथयात्रा से अपना अभियान शुरू किया और फिर गुजरात जनसंहार से लेकर हिंदू-मुसलिम तनाव को एक मुद्दे के रूप में जिंदा रखने की कामयाब कोशिश की।
लेकिनयह अगर आरएसएस की राजनीति का प्रत्यक्ष और हावी पहलू रहता तो देश से लेकर दुनिया भर में यह साबित करना मुश्किल होता कि उनकी यह राजनीति ‘प्रतिगामी’ नहीं है। इसलिए गुजरात जनसंहार के बाद कट्टर हिंदुत्व के नायक के चेहरे के रूप में उभरे नरेंद्र मोदी नेतृत्व में ही विकास के ‘गुजरात मॉडल’ का मिथक खड़ा किया गया, ठीक उसी तरह जिस तरह धर्म और पारलौकिक मिथकों के सहारे सामाजिक सत्ताएं अपना शासन बनाए रखती हैं, शासित तबकों के सोचने-समझने, विश्लेषण करने के दरवाजों को बंद रखती हैं।
इनसबको जमीनी स्तर पर पहुंचाने के लिए जहां आरएसएस के पास अपने स्वयंसेवक थे, वहीं इस सामाजिक सत्ता-तंत्र में पहले से ही एक ‘इम्यून सिस्टम’ की तरह काम करने वाले वाचाल तंत्र को सिर्फ शह की जरूरत थी। इसके अलावा, आज दूरदराज के इलाकों तक अपनी मजबूत पहुंच और दखल बना चुके मीडिया ने अपने सामाजिक ढांचे और कारोबारी क्षमता का अपूर्व प्रदर्शन करते हुए आरएसएस की तमाम परोक्ष कवायदों को स्थापना दी। मूल तत्त्व हिंदुत्व की व्यापक अस्मिता में जातीय अस्मिताओं को समाहित करना था, लेकिन उस पर विकास के ‘गुजरात मॉडल’ की चमकीली चादर टांग दी गई। यानी ‘प्रतिगामी’ होने के तमाम आरोप अब ‘अग्रगामी’ संदेशों में तब्दील हो गए। इसके बाद इस ढांचे से लड़ने की चुनौती इस रूप में खड़ी हुई कि अस्मिता के संघर्ष को राजनीति में झोंकने वालों की जमीन खिसक गई और उस पर हिंदुत्व की अस्मिता का महल खड़ा हो गया।
इसलिएकम से कम यह न कहा जाए कि लोकसभा चुनावों में भाजपा की जीत ने साबित किया है कि जाति की राजनीति खत्म हो गई। जाति या अस्मिता की राजनीति खत्म नहीं हुई। बल्कि वह ज्यादा बड़ी अस्मिता में विलीन हुई है और उसमें घुल-मिल जाने के बाद जो अस्मिता की राजनीति मुखर होगी, वह ज्यादा खतरनाक साबित होगी, जिसकी गाज आखिरकार वंचित और कमजोर जातियों पर ही गिरनी है। इस वंचना की सबसे बड़ी त्रासदी की तुलना पारलौकिक अंधविश्वासों में डूबी उस गुलाम चेतना से लैस समाज के अंत से की जा सकती है जिसमें कोई व्यक्ति कुछ मनचाहे की कामना पूरी होने के लालच में किसी पत्थर की मूर्ति के सामने हाथ जोड़ने के बाद अपने ही हाथों से अपनी गर्दन काट लेता है।
बहरहाल, भारतीय राजनीति में भारतीय जनता पार्टी के एक सक्षम सत्ताधारी ताकत के तौर पर उभरने के बाद अब इसके पीछे कॉरपोरेट, पूंजी-जगत, सत्ता-तंत्र, हजारों करोड़ रुपए खर्च कर तैयार की गई चुनावी ‘परियोजना’ के सूत्रधारों की खोज और व्याख्या की जाएगी और की जानी चाहिए। लेकिन भारत जैसे देश में आग्रहों-पूर्वाग्रहों-दुराग्रहों, भक्ति, व्यक्ति पूजा, प्रचार, अफवाहों पर मारने-मरने पर उतर जाने वाले समाज में एक अर्धविकसित मतदाता अगर दक्षिणपंथ के लिए अपना हाथ उठाता है तो यह किसी भी विकासमान समाज की नाकामी है। वह मतदाता विकास नहीं समझता। उसे विकास का ‘गुजरात मॉडल’ समझाया जाता है, जो दरअसल एक नफरत की एक अनदेखी बुनियाद पर खड़ा होता है। लेकिन उस अनदेखी बुनियाद पर परदा उतारने का जिम्मा आखिर किसका है?
अब चुनौती उन ताकतों के सामने है जो हिंदुत्व की मौजूदा धारा के खिलाफ एक तरह से व्यवस्था विरोधी प्रतीक के रूप में खड़े हुए थे, लेकिन बाद में उन्होंने भी नरम कार्ड खेलना शुरू किया था। बिना इस सच को समझे कि उनकी मूल ताकत और चुनौती क्या है और कौन है...! नब्बे के दशक में राजनीति की एक वैकल्पिक जमीन तैयार करने के साथ-साथ विचारधारा के स्तर पर व्यवस्था-विरोधी प्रतीक के रूप में देखे जाने वाले राजनीतिक समूहों के सामने अब खुद को बचाए रखने का सवाल सबसे अहम है। अगर वे पहचान सकें कि इस प्रतीक के रूप में उन पर कहीं व्यवस्था के एजेंट तो हावी नहीं है और उन्हें दूर करना उनका सबसे पहला मकसद होना चाहिए, तो शायद बचने-बढ़ने और एक विकल्प की उम्मीद को जमीन पर उतारा जा सकता है...!
अरविंद शेष पत्रकार हैं.
अभी जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी.
अभी जनसत्ता (दिल्ली) में नौकरी.
संपर्क- arvindshesh@gmail.com
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