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'एक सैनिक की मौत' : अशोक कुमार पाण्डेय की कविता

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Ashok Kumar Pandey
अशोक कुमार पाण्डेय

 

 कल सीमा पर दो सैनिकों की बर्बर ह्त्या और उसके बाद आई भिन्न-भिन्न प्रतिक्रियाओं के दौरान मुझे अपनी एक काफी पुरानी कविता 'एक सैनिक की मौत' याद आई जो पहले प्रो लाल बहादुर वर्मा द्वारा संपादित इतिहासबोध और फिर शिरीष कुमार मौर्य के ब्लॉग 'अनुनाद' में छपी थी. युद्धोन्माद जगा कर निरपराध सैनिकों की कीमत पर अपनी "देशभक्ति' के मुजाहिरे के इस दौर में शायद यह थोड़ी असुविधा पैदा करे. लेकिन बकौल प्रेमचंद लेखक बिगाड़ के डर से सच बोलना बंद नहीं कर सकता...
- कवि की ही कलम


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तीन रंगो के 


लगभग सम्मानित से कपड़े में लिपटा 


लौट आया है मेरा दोस्त 

अखबारों के पन्नों 

और दूरदर्शन के रूपहले परदों पर 

भरपूर गौरवान्वित होने के बाद 


उदास बैठै हैं पिता 

थककर स्वरहीन हो गया है मां का रूदन 

सूनी मांग और बच्चों की निरीह भूख के बीच 

बार-बार फूट पड़ती है पत्नी 

कभी-कभी 

एक किस्से का अंत 

कितनी अंतहीन कहानियों का आरंभ होता है 

और किस्सा भी क्या? 

किसी बेनाम से शहर में बेरौनक सा बचपन 

फिर सपनीली उम्र आते-आते 

सिमट जाना सारे सपनो का 

इर्द-गिर्द एक अदद नौकरी के 

अब इसे संयोग कहिये या दुर्योग 

या फिर केवल योग 

कि देशभक्ति नौकरी की मजबूरी थी 

और नौकरी जिंदगी की 

इसीलिये 

भरती की भगदड़ में दब जाना 

महज हादसा है 

और फंस जाना बारूदी सुरंगो में 

’शहादत! 

बचपन में कुत्तों के डर से 

रास्ते बदल देने वाला मेरा दोस्त 

आठ को मार कर मरा था 

बारह दुश्मनों के बीच फंसे आदमी के पास 

बहादुरी के अलावा और चारा भी क्या है? 

वैसे कोई युद्ध नहीं था वहाँ 

जहाँ शहीद हुआ था मेरा दोस्त 

दरअसल उस दिन 

अखबारों के पहले पन्ने पर 

दोनो राष्ट्राध्यक्षों का आलिंगनबद्ध चित्र था 

और उसी दिन ठीक उसी वक्त 

देश के सबसे तेज चैनल पर 

चल रही थी 

क्रिकेट के दोस्ताना संघर्षों पर चर्चा 

एक दूसरे चैनल पर 

दोनों देशों के मशहूर शायर 

एक सी भाषा में कह रहे थे 

लगभग एक सी गजलें 

तीसरे पर छूट रहे थे 

हंसी के बेतहा’शा फव्वारे 

सीमाओं को तोड़कर 

और तीनों पर अनवरत प्रवाहित 

सैकड़ों नियमित खबरों की भीड़ मे 

दबी थीं 

अलग-अलग वर्दियों में 

एक ही कंपनी की गोलियों से बिंधी 

नौ बेनाम ला’शों 

अजीब खेल है 

कि वजीरों की दोस्ती 

प्यादों की लाशों पर पनपती है 

और 

जंग तो जंग 

’शाति भी लहू पीती है!

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अशोक कुमार पाण्डेय कवि और लेखक हैं. 
इनकी तीन किताबें,  'मार्क्स-जीवन और विचार' (संवाद प्रकाशन),
'शोषण के अभयारण्य- भूमण्डलीकरण और उसके दुष्प्रभाव' 
तथा कविता संकलन 'लगभग अनामंत्रित'  (शिल्पायन) से प्रकाशित हुई हैं.


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