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मेरे कौमार्य से कीमती मेरा जीवन है : सोहेला अब्दुलाली

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-पुष्यमित्र

(इस आलेख के दो हिस्से हैं. लेखक ने पहले हिस्से में कन्फ्यूशियस के एक तीखे बयान के बहाने बलात्कार के प्रति समाज की पित्रसत्तात्मक मनःस्थिति को कठघरे में खड़ा किया है और दूसरे हिस्से में उन्होंने मुंबई में बलात्कृत हुई महिला सोहेला अबुदाली के आलेख का अनुवाद शामिल किया है जिनका सपष्ट मानना है कि "...हालांकि तीन साल पहले भी जब मेरे साथ यह हुआ था, मैं रेप, रेप के अभियुक्तों और पीड़ितों को लेकर लोगों में फैली गलत धारणाओं के बारे में समझती थी. मुझे उस ग्रंथि का भी पता था जो पीड़ित के मन के साथ जुड़ जाती हैं. लोग बार-बार यह संकेत देते हैं कि अमूल्य कौमार्य को खोने से कहीं बेहतर मौत है. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. मेरा जीवन मेरे लिए सबसे कीमती है...." यह आलेख दिल्ली गैंग रेप केस के बाद बलात्कार और उसके इर्द-गिर्द उठ खड़ी हुई बहसों को एक सटीक दिशा देता है. पढ़ें... 
पुष्यमित्र
-मॉडरेटर)

प्रसिद्ध चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस बलात्कार के बारे में कहा है कि अगर कोई स्त्री बलात्कारियों के चंगुल में फंस जाये तो पहले तो उसे उन बलात्कारियों का विरोध करना चाहिये. पर जब लगे कि विरोध करने से भी उनके इरादे बदले नहीं जा सकते, तो फिर स्त्री को बलात्कार का मजा लेना चाहिये. निश्चित तौर पर यह एक बहुत क्रूर सलाह है. क्योंकि मजा तो स्त्रियां अपने पति की जबरदस्ती का भी नहीं ले पातीं. हालांकि वे अनिच्छा से बरसों इसे झेलती रहती हैं. अधिकांश मामलों में मना भी नहीं करतीं और पति समझ भी नहीं पाता कि इतने सालों तक उसने अपनी पत्नी के साथ जो किया वह प्रेम नहीं बल्कि शारिरिक अत्याचार था. खैर, वह अलग संदर्भ है, यहां संदर्भ दूसरा है. अत्यधिक क्रूर होने के बावजूद मेरे मन में कंफ्यूशियस की यह उक्ति सालों से चक्कर खा रही है. हाल की घटनाओं के बाद छिड़ी बहस में कई दफा मैंने चाहा कि इन पंक्तियों को अपने मित्र समुदाय के बीच सोशल मीडिया में साझा करूं मगर हर बार कुछ सोच कर अपना इरादा बदल देता. पर दो दिन पहले एक बलात्कार पीड़ित युवती का आलेख पढ़ने को मिला. सोहेला अब्दुलाली, उनके साथ 1983 में गैंगरेप हुआ था. बाद में मानुषी नामक पत्रिका में उन्होंने एक आलेख लिखा जिसमें उन्होंने गैंगरेप के अपने अनुभव और रेप से संबंधित दूसरी बातों के बारे में लिखा है. कई मित्रों की तरह मैं भी मानता हूं कि यह मस्ट रीड टाइप आलेख है. इसलिए मूलतः अंग्रेजी में लिखे गये इस आलेख का मैंने हिंदी में अनुवाद किया है.

मगरइस आलेख से पहले कुछ अपनी बात भी कहना चाहूंगा. खास तौर पर कंफ्यूशियस की उस उक्ति के संदर्भ में. कंफ्यूशियस को चीन में कमोबेस वही स्थान हासिल है जो अपने देश में चाणक्य और पश्चिमी देशों में मैकियावेली को. वे सीधी सपाट और बेलाग शब्दों में समाधान पेश करते हैं. अगर मुझे उनकी उस उक्ति पर कुछ कहना हो तो सिर्फ इतना कहूंगा कि मजा लेने के बदले अगर उन्होंने झेल लेना लिखा होता यह और भी सटीक होता. क्योंकि मेरे हिसाब से बलात्कार कतई एक क्षुद्र किस्म की क्षति से अधिक नहीं है. इतनी भी नहीं कि इसे आपकी कानी उंगली के कटने के बराबर माना जाये. हालांकि मैं यहां स्पष्ट करना चाहूंगा कि मैं यह बात क्षति के संदर्भ में कह रहा हूं, न तो यंत्रणा के संबंध में और न ही अपराध के मसले पर नहीं.

किसीभी व्यक्ति की यौन स्वतंत्रता के अतिक्रमण को एक सर्वाधिक घृणित अपराध के रूप में देखा जाना चाहिये, और उसके लिए कड़ी से कड़ी सजा होनी ही चाहिये. मगर साथ ही इस क्षति के आकलन पर पुनर्विचार भी करने की जरूरत है. क्योंकि यह पुनर्विचार उसके लिए अपराध का सामना करते वक्त और उसके बाद के जीवन के लिए महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. अधिकांश पीड़ित महिलाएं विरोध करते वक्त बड़ा शारिरिक नुकसान झेलती हैं, जैसा कि इस केस में हमने देखा कि उस युवती को जान तक गंवानी पड़ी. कई पीड़ित बाद में जान दे देती हैं, क्योंकि उनकी और समाज की नजर में बलात्कार का अर्थ उनकी इज्जत का चला जाना है. और इसके बाद जीना निर्रथक होता है. मगर क्या सचमुच यह इतना निर्रथक है. इस दुनिया में स्टीफन हाकिंग्स जैसा शारिरिक तौर पर अक्षम व्यक्ति अपनी हर महत्वाकांक्षा की पूर्ति करते हुए जी सकता है, वहां एक दफा किसी यौन कुंठित अपराधी के हमले के बाद कोई भला ऐसा क्या हो जाता है कि कोई व्यक्ति जीने लायक नहीं बचता है.

इज्जत,यह जो शब्द है. बहुत पुराना और सर्वव्यापी शब्द है. हमारी दुनिया में बलात्कार ही एकमात्र ऐसा अपराध है जिसमें दोषी की इज्जत का तो पता नहीं, पीड़ित की इज्जत निश्चित तौर पर चली जाती है. देश में चल रहे महिला आंदोलनों ने कभी इस सवाल को बहुत गंभीरता से नहीं देखा, आज भी वे बलात्कार के बाद पीड़ित को हुई मानसिक क्षति को काफी बड़ा मानकर उसके लिए सजा की मात्रा बढ़ाने की मांग कर रही हैं. मगर वे कतई यह नहीं सोचतीं कि इस अपराध को सबसे पहले इज्जत के ठप्पे से मुक्त करने की जरूरत है. यह जो इज्जत इस अपराध के बाद जाती है, वह किसकी है? उस औरत की कतई नहीं जो शादी के बाद इस इज्जत को अपने पति को समर्पित कर देती है. यह इज्जत उस पुरुष की है, जिसे समाज पिता-भाई और पति के तौर पर स्त्री का स्वामी समझता है. इस समाज में औरतों का यौन संक्रमण उसकी इज्जत से जुड़ा है, जबकि पुरुषों का यौन संक्रमण हाल-हाल तक घर की औरतों द्वारा ही नजरअंदाज कर दिया जाता रहा है.

सबसेपहले तो इज्जत के इस दोहरे मानदंड को खत्म करने की जरूरत है. रेप एक हादसा है इससे अगर किसी की इज्जत जाने की संभावना होनी चाहिये तो उस रेपिस्ट की जो किसी स्त्री के साथ दुर्व्यवहार करता है. ठीक उसी तरह जैसे एक चोर, एक पाकेटमार, एक घोटालेबाज की इज्जत चली जाती है. एक बार यह तथ्य स्थापित हो जाये तो फिर स्त्री जाति के लिए बलात्कार के हमले का सामना और उसके बाद का जीवन आसान हो जायेगा. फिर स्त्रियां यौन हमलों का सामना दृढ़ता से कर पायेंगी. 

अब आपके सामने पेश है सोहेला का यह आलेखः

“मैं अपनी जिंदगी के लिए लड़ी... और जीत हासिल की”-सोहेला अब्दुलाली


तीनसाल पहले मेरा गैंगरेप हुआ था, उस वक्त मैं 17 साल की थी. मेरा नाम और मेरी तसवीर इस आलेख के साथ प्रकाशित हुए हैं. 1983 में मानुशी पत्रिका में. मैं बंबई में पैदा हुई और आजकल यूएसए में पढ़ाई कर रही हूं. मैं बलात्कार पर शोधपत्र लिख रही हूं और दो हफ्ते पहले शोध करने घर आयी हूं. हालांकि तीन साल पहले भी जब मेरे साथ यह हुआ था, मैं रेप, रेप के अभियुक्तों और पीड़ितों को लेकर लोगों में फैली गलत धारणाओं के बारे में समझती थी. मुझे उस ग्रंथि का भी पता था जो पीड़ित के मन के साथ जुड़ जाती हैं. लोग बार-बार यह संकेत देते हैं कि अमूल्य कौमार्य को खोने से कहीं बेहतर मौत है. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. मेरा जीवन मेरे लिए सबसे कीमती है.

मैंनेमहसूस किया है कि कई महिलाएं इस ग्रंथि के कारण चुप्पी साध लेती हैं, मगर अपने मौन के कारण उन्हें अपार वेदना का सामना करना पड़ता है. पुरुष पीड़ितों को कई वजहों से दोषी ठोहराते हैं और हैरत की बात तो यह है कि कई दफा महिलाएं भी पीड़ितों को ही दोषी ठहराती हैं, संभवतः आंतरिक पितृसत्तात्मक मूल्यों के कारण, संभवतः खुद को ऐसी भीषण संभावनाओं से बचाये रखने के लिए.

यहघटना जुलाई की एक गर्म शाम की घटी. उस साल महिलाओं का समूह रेप के खिलाफ कानून में संशोधन की मांग कर रहा था. मैं अपने दोस्त राशिद के साथ थी. हम लोग घूमने निकले थे और बंबई की उपनगरी चेंबूर स्थित अपने घर से करीब डेढ़ मील दूर एक पहाड़ी के पीछे पहुंच गये थे और वहां बैठे थे. हम पर चार लोगों ने हमला किया, वे लोग दरांती से लैस थे. उन्होंने हमारे साथ मारपीट की, पहाड़ी पर चढ़ने के लिए मजबूर किया और वहां हमें दो घंटे तक बिठाये रखा. हमें शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताड़ित किया गया, और जैसे ही अंधेरा गहराया, हमें अलग कर दिया गया और अठ्ठाहस करते हुए उन्होंने राशिद को बंधक बनाकर मेरे साथ रेप किया. हममें से कोई प्रतिरोध करता तो दूसरे को वे चोट पहुंचाते. यह एक प्रभावी तरीका था.

वेतय नहीं कर पा रहे थे कि वे हमारी हत्या करें या नहीं. हमें अपने दम भर वह सब कुछ किया जिससे हम जिंदा बच जायें. मेरा जिंदा बचना था और वह हर चीज से अधिक महत्वपूर्ण था. मैं पहले उन लोगों का शारीरिक रूप से प्रतिरोध किया और जब मुझे गिरा दिया गया तो मैं शब्दों से प्रतिरोध करने लगी. गुस्से और चीखने-चिल्लाने का कोई असर नहीं हो रहा था, इसलिए मैंने बड़बड़ाना शुरू कर दिया, मैं उन्हें प्रेम, करुणा और मानवता के लिए प्रेरित करने लगी, क्योंकि जिस तरह मैं इंसान थी, वे भी तो इंसान ही थे. इसके बाद उनका रवैया नर्म पड़ने लगा, खास तौर पर उनका जो उस वक्त मेरे साथ बलात्कार नहीं कर रहे थे. मैंने उनमें से एक से कहा कि अगर मुझे और राशिद को जिंदा छोड़ दिया गया तो मैं अगले दिन उनसे मिलने आउंगी. हालांकि इन शब्दों के बदले मुझे कहीं अधिक भुगतना पड़ा, मगर दो जिंदगियां दांव पर थीं. यही एकमात्र तरीका था कि मैं वहां से लौट पाती और अगली दफा खुद को रेप से बचा पाती.

जिसेबरसों की पीड़ा कहा जा सकता है उसे झेलने के बाद(मुझे लगता है मेरा 10 बार बलात्कार किया गया और कुछ देर बाद मैं यह समझना भूल गयी कि क्या हो रहा है), हमें जाने दिया गया. जाते वक्त उन लोगों ने हमें एक नैतिक उपदेश के साथ विदा किया कि मेरा एक लड़के के साथ इस तरह घूमना अनैतिक था. इस बात ने उन्हें सबसे अधिक नाराज किया था. उन्होंने ऐसा मेरे हित में ही किया था, वे मुझे एक पाठ पढ़ाना चाहते थे. यह बड़ी कट्टर किस्म की नैतिकता थी. उन्होंने हमें पहाड़ के नीचे छोड़ दिया और हम लड़खड़ाते हुए अंधेरी सड़क पर चलते रहते, एक-दूसरे पर टगते हुए और धीरे-धीरे चलते हुए. वे कुछ देर तक हमारा पीछा करते रहे, दरांती हिलाते हुए, और वह संभवतः सबसे बुरा पहलू था कि भागना इतना आसान था मगर मौत हमारे उपर ठहल रही थी. अंततः हम घर पहुंचे, टूटे हुए, क्षत-विक्षत, चूर-चूर. यह बच कर आने का एक अतुलनीय अनुभव था, अपने जीवन के लिए मोलभाव करना, हर शब्द तोलकर बोलना क्योंकि हम उन्हें नाराज करने की कीमत जानते थे, दरांती का वार कभी भी हमारे जीवन को समाप्त कर सकती थी. हमारी हड्डियों और हमारी आंखों में राहत दौड़ रही थी और हम ऐतिहासिक विलाप के साथ ढेर हो गये.

मैंनेबलात्कारियों से वादा किया था कि मैं इस बात को किसी और से नहीं बताउंगी, मगर घर पहुंचते ही सबसे पहले मैंने अपने पिता से कहा कि वे पुलिस को बुलाएं. वे इस बात को सुनकर चिंतित हो गये. मैं परेशान थी कि किसी और को उस अनुभव से नहीं गुजरना पड़े जिससे मुझे गुजरना पड़ा था. पुलिस असंवेदनशील थी, घृणित भी और वह किसी तरह मुझे दोषी साबित करने पर तुली थी. जब मैंने कहा कि मेरे साथ क्या हुआ, तो मैंने सीधे-सीधे कह डाला और इस बात को उन्होंने मुद्दा बना लिया कि अपने साथ हुए इस हादसे को बताने में मैं शर्मा नहीं रही थी. जब उन्होंने कहा कि इस बात का प्रचार हो जायेगा तो मैंने कहा, कोई बात नहीं. मैं इमानदारी से कभी यह सोच नहीं सकी थी कि मुझे या राशिद को दोषी माना जायेगा. जब उन्होंने कहा कि मुझे मेरी सुरक्षा किशोर रिमांड होम भेजा जायेगा. मुझे बलात्कारियों और दलालों के बीच रहना होगा ताकि मुझ पर हमला करने वालों को न्याय के सामने लाया जा सके.

बहुतजल्द मैंने समझ लिया कि इस कानून व्यवस्था के तहत महिलाओं के लिए न्याय मुमकिन नहीं है. जब उन्होंने पूछा कि हम पहाड़ी के पीछे क्या कर रहे थे तो मैं क्रुद्ध हो गयी. जब उन्होंने राशिद से पूछा कि वह क्यों निष्क्रिय हो गया, तो मैं चीख पड़ी. क्या वे यह नहीं समझते थे कि राशिद का प्रतिरोध मेरे लिए और पीड़ा का कारण बन सकता था. वे ऐसे सवाल क्यों पूछते थे कि मैंने कैसे कपड़े पहने थे, राशिद के शरीर पर कोई चोट का निशान क्यों नहीं है (पेट पर लगातार हमले के कारण उसे इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी), मैं दुख और निराशा में डूबने लगी, और मेरे पिता ने उन्हें घर से बाहर भगा दिया यह कहते हुए कि वे उनके बारे में क्या सोचते हैं. यह वह सहायता थी जो मुझे पुलिस से मिली. पुलिस ने बयान दर्ज किया कि हम टहलने गये थे और लौटते वक्त देर हो गयी.

उसबात के तीन साल हो गये हैं, मगर ऐसा एक दिन भी नहीं बीता जब मुझे इस बात ने परेशान नहीं किया कि उस दिन मेरे साथ क्या हुआ. असुरक्षा, भय, गुस्सा, निस्सहायपन- मैं उन सब से लड़ती रही. कई दफा, जब मैं सड़क पर चलती थी और अपने पीछे कोई पदचाप सुनायी पड़ती तो मैं पसीने-पसीने होकर पीछे देखती और एक चीख मेरे होठों पर आकर ठहर जाती. मैं दोस्ताना स्पर्श से परेशान हो जाया करती, मैं कस कर बंधे स्कार्फ को बर्दास्त नहीं कर पाती, ऐसा लगता कि मेरे गले को हाथों ने दबा रखा है. मैं पुरुषों की आंखों में एक खास भाव से परेशान हो जाती- और ऐसे भाव अक्सर नजर आ जाते.

इसके बावजूद कई दफा मैं सोचती कि मैं अब मजूबत इंसान हूं. मैं अपने जीवन की सराहना पहले से अधिक करती. हर दिन एक उपहार था. मैंने अपने जीवन के लिए संघर्ष किया था और मैं जीती थी. कोई भी नकारात्मक भाव मुझे यह सोचने से रोकती कि यह सकारात्मक है.

मैंपुरुषों से घृणा नहीं करती. ऐसा करना सबसे आसान था, और कई पुरुष ऐसे विभिन्न किस्म के दबाव के शिकार थे. मैं जिससे नफरत करती वह पितृसत्ता थी और उस झूठ की विभिन्न परतों से जो कहती कि पुरुष महिलाओं से बेहतर होते हैं, पुरुषों के पास अधिकार हैं जो महिलाओं के पास नहीं, पुरुष हमारे अधिकार संपन्न विजेता हैं. मेरी नारीवादी मित्र सोचतीं कि मैं महिलाओं के मसले पर इसलिए चिंतित हूं क्योंकि मेरा रेप हुआ है. मगर ऐसा नहीं है. रेप उन तमाम प्रतिक्रियाओं में से एक है जिसकी वजह से मैं नारीवादी हूं. रेप को किसी खाने में क्यों डाला जाये? ऐसा क्यों सोचा जाये कि रेप ही अकेला अवांछित संभोग है? क्या हर रोज गलियों में गुजरते वक्त हमारा रेप नहीं होता? क्या हमारा रेप तब नहीं होता जब हमें यौन वस्तु के तौर पर देखा जाता है, हमारे अधिकारों से इनकार कर दिया जाता है, कई तरीकों से दबाया जाता है? महिलाओं के दमन को किसी एक नजरिये से नहीं देखा जा सकता है. उदाहरण के लिए, वर्ग विश्लेषम आवश्यक है, मगर क्यों बहुत सारे बलात्कार अपने ही वर्ग में किये जाते हैं.

जबतक महिलाएं विभिन्न तरीकों से दमित की जाती हैं. सभी महिलाएं लगातार बलात्कार के खतरे में हैं. हमें रेप को पेचीदा बनाने से रोकना पड़ेगा. हमें समझना पड़ेगा कि यह हमारे चारो तरफ अस्तित्व में है, और इसके विभिन्न स्वरूप हैं. हमें इसे गुप्त तौर पर दफन करना बंद कर देना होगा और इसे अपराध के एक रूप के तौर पर देखना होगा- इसे हिंसात्मक अपराध मानना होगा और बलात्कारी को अपराधी के तौर पर देखना होगा. मैं उत्साहपूर्वक जीवन जी रही हूं. बलात्कार का शिकार होना बहुत खौफनाक है, मगर जिंदा रहना कहीं अधिक महत्वपूर्ण है. मगर जब एक औरत को इसे महसूस करने से रोका जाता है, इसे तो हमारे तंत्र की गड़बड़ी माना जाना चाहिये. जब कोई बेवकूफ बनकर जिंदगी के एवज में खुद पर हमले को झेल लेती है तो किसी को ऐसा नहीं सोचना चाहिये कि वह स्वेच्छा से मार खाना चाहती थी. बलात्कार के मामले में एक औरत से पूछा जाता है कि उसने ऐसा क्यों होने दिया, उसने प्रतिरोध क्यों नहीं किया, कहीं उसने इसका मजा तो नहीं लिया.

रेपकिसी खास समूह की औरतों के साथ नहीं होता और न ही रेपिस्ट एक खास तरह के पुरुष होते हैं. रेपिस्ट एक क्रूर पागल भी हो सकता है और पड़ोस में रहने वाला लड़का भी या एक दोस्ताना अंकल भी. हमें अब रेप को किसी अन्य महिला की समस्या के तौर पर देखना बंद करना होगा. इसे हमें सार्वभौमिक तरीके से देखना होगा और एक बेहतर समझ की तरफ बढ़ना होगा. जब तक रिश्तों का आधार शक्तियां होंगी, जब तक महिलाओं को पुरुषों की संपत्ति के तौर पर देखा जाता रहेगा, हम लगातार अपनी इज्जत गंवाने के खतरे में रहेंगे. मैं बचकर निकली हूं. मैं रेप किये जाने के लिए नहीं कहती और न ही मैंने इसका मजा लिया. यह एक सबसे बुरा किस्म का टार्चर है. मगर यह महिलाओं की गलती नहीं है.

आज सोहेला लिखती हैं, पढ़ती हैं और घूमती हैं. उसके दो उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं. द मैडवुमन ऑफ जोगर एंड इयर ऑफ टाइगर, बच्चों की तीन किताबें, और कई छोटी कहानियां, लेख, खबरें, ब्लाग, कॉलम, मैनुअल आदि वे लिख चुकी हैं. उनके लिखित सामग्रियों को उनकी साइट www.sohailaink.com पर देखा जा सकता है.

पुष्यमित्रवरिष्ठ पत्रकार हैं। 
अभी रांची से प्रकाशित "पंचायतनामा" में कार्यरत हैं।
इनसे संपर्क का पता pushymitr@gmail.com है

(एक स्पष्टीकरण- मूलतः कन्फ्यूशियस की महिलाओं के प्रति समझदारी बहुत ही सामंती और पुरुषसत्तात्मक रही है. मूलतः उनका दर्शन महिला विरोधी दर्शन रहा है जिसने चीन में महिलाओं के प्रति शोषण व्यवस्था को हजारों सालों तक लगातार मजबूती दी. उनके दर्शन से हम इत्तेफाक नहीं रखते हैं. संभवतः उनकी इस समझदारी की वजह उनके दौर के चिंतन की दरिद्रता ही रही हो. लेकिन उपरोक्त आलेख में कन्फ्यूशियस के 'जिस' कोट को 'जिस' तरह लिया गया है, यहाँ प्रगतिशीलता का पुट है और यह असल में महिला मुक्ति की ओर संकेत करता है.  -मॉडरेटर)


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