अंकित फ्रांसिस |
-अंकित फ्रांसिस
"...फिल्मअच्छी है तो है लेकिन कहीं-कहीं बेहद कमज़ोर है. जैसे डायरेक्शन पर बात की जाए तो एक दृश्य में राजकुमार राव मजदूरी (मतलब सीमेंट के बोरा ढोने जैसी) कर खांसते हुए लौटते हैं और जब वे शर्ट उतारते हैं तो उनका बनियान सफेदी की चमकार के साथ बाहर आता है. मेरी समझ से तो बाहर यह भी है कि कैसे रोज़ कई किलोमीटर साइकिल चलाने वाला व्यक्ति एक दिन मजदूरी करने से हांफ जाता है? खैर यहां साफ़ हो जाता है कि शहरी किस्म के नज़रिए से बचना बेहद ज़रूरी होता है खासकर जब मजदूरी और गरीबी से जुड़े किसी दृश्य को दिखाया जाना हो…"
येपरिंदे बड़ी दूर से उड़कर यहां पहुंचते हैं और जानते हो ये हमेशा साथ-साथ क्यूं रहते हैं..ताकि यह शहर इन्हें अकेला समझकर निगल ना जाए. बिहारी है, नेपाली है, पहाड़ी है, चाइनीज़ है, मद्रासी है..इन सब सवालनुमा पहचानों का जवाब यह फिल्म स्पष्ट तौर पर नहीं लेकिन टुकड़ों में देती है. यह पहचान आपको दिल्ली, मुंबई, बंगलुरु और हैदराबाद जैसे बड़े शहरों के कोनों में सिमटी मिल जायेगी. दिल्ली में तो इन नामों के मोहल्ले और सोसायटी भी इजाद हो चुकी हैं. फिल्म मूलतः उसी सपने का पीछा करती है जो 90 के दशक ने हमें उधार दिया है. फिल्म उसी सपने की सच्चाई को दिखाने का दावा करती नज़र आती है लेकिन यह दावा इतनी आसानी से मान लेना संभव नज़र नहीं आता खासकर अगर आप फिम के अंत पर गौर फरमाए.
दरअसलसिटीलाइट्स जैसी फिल्मों से हिंदी फिल्म जगत भरा पड़ा है. गांव से शहर पहुंचा नायक और उसकी कुल जमापूंजी (चाहे वो भावनात्मक हो या अर्थ के रूप में) को लूटता कोई दैत्य शहर. इसमें कुछ भी झूठ नहीं है. इस तरह की फिल्मों पर कई तरह के सवाल किए जा सकते हैं मसलन 'अपनों'के बीच में सुरक्षित समझने का भाव जो शहर के कोनों को आबाद करता है यह तो गांव के कई जाति आधारित टोलों को भी आबाद करता ही है. यहां टीवी से उपजे गांव की बात नहीं की जा रही है जिसे शहरों ने अक्सर दिल बहलाने के लिए देखा है. यह वह गांव है जहां जन्संख्याँ बढ़ते जाने से आज भी टोले भले ही ख़त्म हो रहे हों लेकिन पंचायती चौपालें तक जाति-धर्म आधारित हैं. फिल्म बिना शक एक कमज़ोर कहानी है. वही एक लंबे अरसे से शहर आया गांव का एक युवक जो लुटता है, रोता है, सीखता है, आदर्शों को लेकर दृढ़ता दिखाते हुए चोरी के लिए राजी होता है और उसी दौरान मारा जाता है लेकिन आखिर में सब खोकर पा लेने जैसा बेबुनियादी और चालकी से भरा फिल्मी प्रसंग. हिंदी सिनेमा की जानी-मानी होप जो आपको अगली हिंदी फिल्म तक ले जायेगी..बहरहाल..
'शाहिद'जैसी फिल्म बनाने वाले हंसल मेहता की इस फिल्म की कई चीज़ों पर कई सारी बातें की जा सकतीं हैं. यह फिल्म घोषित तौर पर अमेरिकी-फिलीपिन फिल्म ‘मेट्रो मनीला’ की हिंदी रीमेक है. फिल्म दीपक (राज कुमार राव) उसकी पत्नी राखी (पत्रलेखा)और राव के दोस्त और सहकर्मी विष्णु (मानव कौल) की कहानी है. राजस्थान के रहनेवाले दीपक और राखी अपनी गरीबी मिटाने के लिए मुंबई आते हैं. यहां गरीबी के चलते राखी को बार डांसर का काम करना पड़ता है और दीपक एक सिक्योरिटी एजेंसी में काम करता है. फिल्म का संगीत अच्छा है, गाने भी सुने जा सकते हैं. अदाकारी के मामले में राजकुमार राव अपने पिछले सभी किरदारों पर इक्कीस ही हैं. मानव कॉल इतना सहज नज़र आते हैं कि उनकी एक्टिंग देखना सुखद लगता है. पत्रलेखा के एक्सप्रेशन देखकर आप उनके अच्छे भविष्य की कामना करने को मजबूर होंगे.
फिल्मअच्छी है तो है लेकिन कहीं-कहीं बेहद कमज़ोर है. जैसे डायरेक्शन पर बात की जाए तो एक दृश्य में राजकुमार राव मजदूरी (मतलब सीमेंट के बोरा ढोने जैसी) कर खांसते हुए लौटते हैं और जब वे शर्ट उतारते हैं तो उनका बनियान सफेदी की चमकार के साथ बाहर आता है. मेरी समझ से तो बाहर यह भी है कि कैसे रोज़ कई किलोमीटर साइकिल चलाने वाला व्यक्ति एक दिन मजदूरी करने से हांफ जाता है? खैर यहां साफ़ हो जाता है कि शहरी किस्म के नज़रिए से बचना बेहद ज़रूरी होता है खासकर जब मजदूरी और गरीबी से जुड़े किसी दृश्य को दिखाया जाना हो. फिल्म आपको अपने नज़दीक महसूस होगी अगर आप किसी छोटे शहर/गांव से किसी मैट्रो शहर आएं हैं और पढ़ लिख कर नौकरी कर रहे हैं भले ही प्राइवेट या छोटी-मोटी लेकिन जिनकी कहानी यह फिल्म दिखाने की कोशिश कर रही हैं वहां यह पूरी तरह असफल और नासमझ नज़र आती है. फिल्म मध्यवर्गीय किस्म के संघर्षों के बने बनाए नज़रिए से माइग्रेटेड मजदूर की कहानी दिखाने लगती है. कोई शक नहीं कि फिल्म संघर्ष ही दिखा रही है लेकिन यहां पूरी दिक्कत सिर्फ प्वाइंट ऑफ़ व्यू की नज़र आती है.
कई बार गरीबी देखना-दिखाना भी फिल्म बनाने वाले के किसी पर्सनल नोस्टेल्जिया से ग्रसित हो जाता है. हो सकता है मेरी यह बात सिर्फ एक शक हो..सिर्फ एक बेबुनियाद किस्म का शक. फिल्म उन्हें ज़रूर देखनी चाहिए जो ज़मीन के किसी टुकड़े को पूंजी आधारित शासन में ज्यादा अहमियत दिए जाने से उपजे असमान विकास पर रीझ कर उसी ज़मीन के किसी दूसरे टुकड़े से रोटी तलाशते आए लोगों को सवालियां नज़रों से घूरते हैं. उन लोगों को भी देखनी चाहिए जिन्हें लगता है कि छोटे शहरों से हर रोज महानगरों में रोजी-रोटी की चाह में आने वालों की वजह से उनके शहर का तथाकथित विकास रुक रहा है. इतनी सारी बातों के बाद आखिर में इतना ही की हंसल मेहता प्रभाव फिल्म में है चाहे हज़ार कमियां हों और फिल्म देखी जानी चाहिए..
अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल।
इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है।