सत्येन्द्र रंजन |
-सत्येन्द्र रंजन
नरेंद्र मोदी सरकार कैसी है, यह साफ होने में एक हफ्ते का वक्त भी नहीं लगा। नई सरकार को शपथ लिए एक सप्ताह सोमवार को पूरा होगा। इस बीच उसके स्वच्छ प्रशासन के दावे, सामाजिक चरित्र और वैचारिक रुझान को स्पष्ट करने वाले कई उदाहरण सामने हैं। भारतीय जनता पार्टी 2014 के जनादेश को किस रूप में समझा, यह भी जाहिर हो चुका है। इसके बावजूद अगर कुछ लोग मानते हों कि हालिया जनादेश आर्थिक विकास के लिए था, तो उनकी समझ उन्हें मुबारक हो!
इसजनादेश के पीछे मुख्य शक्ति के रूप में जिस कथितApparitional (ऊंची आकांक्षाओं वाले) वर्ग की कल्पना की गई उसकी सच्चाई भी अब धीरे-धीरे सामने आ रही है। तो उदाहरणों और तथ्यों से बात आगे बढ़ाते हैँ।
साभार - www.cartoonistsatish.blogspot.in/ |
- नरेंद्र मोदी ने राव इंदरजीत सिंह को मंत्री बनाया। ये वही इंदरजीत सिंह है, जो मनमोहन सिंह सरकार में मंत्री थे। उन पर भाजपा नेता किरिट सोमैया ने (जो अब भाजपा सांसद हैं) ने भ्रष्टाचार के आरोपलगाए थे। सोमैया अब चुप क्योंहैं?भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करते हुए सत्ता मे आए मोदी ने इन्हें अपनी टीम में क्यों चुना?
-कुछ रोज पहले सुब्रह्मण्यम स्वामी की शिकायत पर ये सामने आया था कि प्रियंका गांधी और कार्ति चिदंबरम (पी चिदंबरम के बेटे) के पास दो डायरेक्टर आइडेन्टीफिकेशन नंबर (DIN) हैं। किसी कंपनी में डायरेक्टर बनने पर यह नंबर लेना पड़ता है, ताकि यह मालूम रहे कि कोई व्यक्ति कितनी कंपनियों में डायरेक्टर है। ऐसा नियम कंपनी फ्रॉड से बचने के लिए बनाया गया। इसके उल्लंघन की सजा जुर्माना और जेल दोनों है। प्रियंका गांधी ने दोष मानते हुए जुर्माना देने की पेशकश की थी। तब स्वामी ने इसे अपनी बड़ी जीत बताया था। लेकिन अब सामने आया है कि मोदी सरकार में मंत्री बने पीयूष गोयल के पास भी दो दिन हैं। यानी कानून का उल्लंघन करने वाला व्यक्तिअब मंत्री है। स्वामी ये मामला नहीं उठाएंगे। लेकिन क्या ऐसे व्यक्ति को देश का मंत्री रहना चाहिए?
-एक संदेह ग्रामीण विकास मंत्री गोपीनाथ मुंडे की डिग्री को लेकर भी उठा है। उनके बारे में आरोप है कि उनके पास 1978 में बने कॉलेज से 1976 में पास होनेकी डिग्री है। क्या इस आरोप पर केंद्रीय मंत्री को स्पष्टीकरण नहीं देना चाहिए?वैसे याद कर लें कि इन्हीं मुंडे ने पिछले साल जुलाई में यह कह कर हलचल मचा दी थी कि 2009 के आम चुनाव में उन्होंने आठ करोड़ रुपए खर्च किए। (हालांकि बाद में वे इस बयान से पलट गए)।
-अब एक नजर मुकुल रोहतगी के रिकॉर्ड पर जिन्हें मोदी सरकार ने अपना अटार्नी जनरल बनाया है। उनके बारे में वेबसाइट ट्रूथ ऑफ गुजरात ने यह टिप्पणी की है- CBI lawyer in Sohrabuddin encounter case replaced. Public Prosecutor in Sadiq Jamal encounter quits. Accused police officers GL Singhal and Dinesh MN reinstated! Abhay Chudasama and Rajkumar Pandian waiting for their turn. Advocate who successfully defended Gujarat government in riot cases and fake encounter cases, Mukul Rohatgi appointed Attorney General of India.
सामाजिक चरित्र
-नरेंद्र मोदी ने चुनाव अभियान के दौरान अपने पिछड़ी जाति से आने की चर्चा बार-बार की। घोषणा की कि अगला दशक दलित-पिछड़ों का होगा। लेकिन उन्होंने जो सरकार बनाई उसमें किसका दबदबा है? 46 सदस्यीय मंत्रिपरिषद में उत्तर भारत की सवर्ण जातियों ब्राह्मण, राजपूत, कायस्थ, वैश्य, दक्षिण भारत की लिंगायत और वोक्कालिगा जैसी दबंग जातियों और महाराष्ट्र में दबदबा रखने वाले मराठों को मिला कर 20 मंत्री हैं। ओबीसी के 13 मंत्री हैं, आदिवासी छह और दलित सिर्फ तीन हैं। मुस्लिम के नाम पर अकेली नजमा हेपतुल्ला हैं, जो मुसमानों को अल्पसंख्यक मानती ही नहींहैं। बहरहाल, जब भाजपा और संघ परिवार में हालिया जनादेश के बारे में यही समझ बनी है कि उसकी जीत बिना मुसलमानों का वोट पाए संभव हुई और इसकी पृष्ठभूमि सवर्ण जातियों ने बनाई तो यह उदाहरण अकारण नहीं है।
वैचारिक रुझान
-प्रधानमंत्री बनने से नरेंद्र मोदी ने राजघाट जाकर महात्मा गांधी को श्रद्धांजलि दी। 28 मई को उन्होंने विनायक दामोदर सावरकर को उनके जन्म दिन पर श्रद्धांजलि दी। मोदी सावरकर को श्रद्धांजलि दें, इसमें कोई आश्चर्यजनक बात नहीं है। जब उन्होंने पीएमओ (प्रधानमंत्री कार्यालय) की वेबसाइट पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से अपने संबंध पर गर्व व्यक्त किया है औरइस संगठन की प्रशंसाकी है, तो इसके वैचारिक प्रेरणा-स्रोत सावरकर को श्रद्धांजलि देना उचित ही है। संघ ने ताजा जनादेश को अपने अपनी विचारधारा की जीत माना है, और मोदी भी ऐसा ही मानते होंगे, तो इसमें कोई अस्वाभाविक बात नहीं है। मगर अस्वाभाविक बात यह है कि इसके साथ ही वे गांधीजी को भी श्रद्धांजलि देँ।सावरकर गांधी हत्याकांड में संदेह के घेरे में आए थे। नाथूराम गोडसे उनसे प्रेरणा लेता था। उनका गोडसे के साथ संपर्कथा। क्या गांधी और गोडसे दोनों के लिए एक साथ सम्मान भाव रखना संभव है?
-ऐसा मुमकिन नहीं है। इसलिए बेहतर होगा कि मंत्रिमंडल के गठन से जो स्वरूप नई सरकार का उभरा है, उसे भाजपा खुल कर कहे। गांधी और सावकर (या गोडसे) की विचारधारा में समन्वय नहीं हो सकता। इन दोनों विचारों का संघर्ष तकरीबन 9 दशकों से जारी है। आज वक्त यह तय करने का है इसमें कौऩ कहां खड़ा है?
- बेहतर यह होगा कि नई सरकार बनने के बाद उसकी प्रशंसा के तर्क गढ़ कर उसमें अपने लिए जगह की तलाश कर रहे बुद्धिजीवी यह भ्रम बनाने की कोशिश ना करें कि हाल के चुनाव में हिंदुत्व विचारधारा की जीत नहीं हुई है। इस चुनाव में जाति-संप्रदाय या सामाजिक आर्थिक विभाजन रेखाएं खत्म नहींहुईं। बल्कि वे और स्पष्ट हुई हैं। भाजपा की सफलता यह है कि वह इन विभाजन रेखाओं के दूसरी तरफ के लोगों को भी विकास का सपना दिखा कर अपने खेमे में खींचने में सफल रही। लेकिन यही तो सांप्रदायिक राजनीति की रणनीति है। मुख और मुखौटे का फर्क रखते हुए बहुमत निर्माण की ये रणनीति नई नहीं है, लेकिन इस बार इसे अभूतपूर्व सफलता मिली। चुनाव प्रणाली के दोष की वजह से एक तिहाई से कुछ अधिक वोट पाकर ही ये विचारधारा निर्णायक जीत पाने में सफल रही है।
- लेकिन यह स्पष्ट है कि इस घटना को सामाजिक और आर्थिक प्रति-क्रांति के रूप में ही देखा जा सकता है। 19वीं और 20वीं सदी में सामाजिक न्याय और आर्थिक समता के पक्ष में जो मूल्य विकसित हुए यह उसका प्रतिवाद है। यह प्रतिगामी सरकार है। जिन प्रगतिशील शक्तियों और व्यक्तियों को के खतरे समझ में आते हैं, उनके लिए यह वक्त लंबे संघर्ष की रणनीति बनाने का है।
(ऊपर जिन खास प्रसंगों का जिक्र है, उनके विस्तार में जाने के लिए हाइपर लिंक पर क्लिक कर सकते हैं।)
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
स्वतंत्र लेखन के साथ ही फिलहाल
जामिया मिल्लिया यूनिवर्सिटी के एमसीआरसी में
बतौर गेस्ट फैकल्टी पढ़ाते हैं.