इन्द्रेश मैखुरी |
-इन्द्रेश मैखुरी
"...भारत में जिस तरह चुनाव लड़ने के लिए भारी भरकम नामांकन शुल्क तय कर दिया गया है और खर्च करने की सीमा भी बढ़ा दी गयी है, उससे लगता है कि लोकतंत्र को कुछ धनाड्य महाप्रभुओं के हाथ सौंपने की तैयारी चुनाव आयोग कर रहा है.यह प्रक्रिया वैसे टी.एन.शेषन के ही समय से शुरू हो गयी थी,जब अगंभीर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए नामांकन शुल्क को विधानसभा के लिए 500 रुपये से बढ़ाकर 5000 रुपये कर दिया गया था और लोकसभा के लिए 1000 से बढ़ाकर दस हज़ार रुपये कर दिया गया था..."
साभार: http://aminarts.com/ |
लोकसभा के चुनावों की घोषणा के साथ ही चुनाव आयोग ने घोषणा की कि बाहुबल पर काबू पाने के बाद अब उसकी प्राथमिकता धनबल पर काबू पाने की है. बूथ लूटने जैसी घटनाएं रुकने के बावजूद चुनाव आयोग के इस दावे पर बहस हो सकती है कि क्या वाकई चुनावों में बाहुबल पर काबू पा लिया गया है? संसद और विधानसभाओं में अपराधी पृष्ठभूमि के लोगों की बहुतायत तो चुनाव आयोग के दावे के ठीक विपरीत बैठती है. लेकिन धनबल के मामले में सीधा प्रश्न चुनाव आयोग पर ही खड़ा होता है कि वाकई अपने दावे के अनुरूप, चुनाव आयोग,चुनावों में धनबल का प्रभाव रोकना चाहता है? लोकसभा चुनावों के नामांकन का शुल्क चुनाव आयोग ने कर दिया है 25 हजार रुपये और अधिकतम खर्च की सीमा कर दी है 70 लाख रुपये. 2009 में नामांकन शुल्क था 10 हज़ार रुपये और अधिकतम खर्च की सीमा थी 25 लाख रुपये. तो क्या चुनाव आयोग द्वारा खर्च की सीमा और नामांकन शुल्क में यह वृद्धि धनबल पर रोक लगाने के लिए की गयी है? ऐसा लगता है कि यह वृद्धि तो इसलिए है कि सिर्फ धनबल वाले ही चुनाव लड़ सकें. हालांकि चुनाव आयोग द्वारा घोषित अधिकतम खर्च सीमा की भी धज्जियाँ उडती रही हैं.पिछले दिनों भाजपा नेता गोपीनाथ मुंडे ने तो खुलेआम ऐलान किया कि उन्होंने चुनाव में 8 करोड़ रुपये खर्च किये. आज तक ऐसा भी नहीं सुना गया कि तय सीमा से अधिक खर्च करने वाले किसी प्रत्याशी पर कोई कार्यवाही हुई हो.
सबकोवोट डालने का हक़ मिले,इसके लिए दुनिया में बड़े संघर्ष हुए. सिर्फ धनवानों को ही चुनाव में खड़े होने का हक़ ना हो,यह अधिकार सबको हासिल हो,इसके लिए भी दुनिया में काफी संघर्ष हुए. ब्रिटेन का हॉउस आफ कॉमंस इसका उदहारण है. सबको चुनाव लड़ने के अधिकार की लड़ाई तेज हो गयी पर ब्रिटेन का सामंत-अभिजात्य-धनाड्य तबका आम लोगों को अपने साथ कैसे बैठाता? इसलिए सामंत-अभिजात्य-धनाड्य तबके के सदन-हाउस ऑफ लार्डस यानि प्रभुओं के सदन से इतर, आम लोगों के लिए अलग सदन अस्तित्व में आया,जिसका नाम रखा गया- हॉउस आफ कॉमंस यानि साधारण लोगों का सदन.
भारतमें जिस तरह चुनाव लड़ने के लिए भारी भरकम नामांकन शुल्क तय कर दिया गया है और खर्च करने की सीमा भी बढ़ा दी गयी है, उससे लगता है कि लोकतंत्र को कुछ धनाड्य महाप्रभुओं के हाथ सौंपने की तैयारी चुनाव आयोग कर रहा है.यह प्रक्रिया वैसे टी.एन.शेषन के ही समय से शुरू हो गयी थी,जब अगंभीर प्रत्याशियों को चुनाव लड़ने से रोकने के लिए नामांकन शुल्क को विधानसभा के लिए 500 रुपये से बढ़ाकर 5000 रुपये कर दिया गया था और लोकसभा के लिए 1000 से बढ़ाकर दस हज़ार रुपये कर दिया गया था. यानि यह समझदारी तब भी और आज भी काम कर रही है कि जिनके पास अकूत धन संपदा है वो ही गंभीर प्रत्याशी हैं और जो धनहीन-साधनहीन है, वह लोकतंत्र को गंभीरता से ले,ना ले पर लोकतंत्र उन्हें गंभीरता से लेने लायक नहीं समझता.यह भी अजीब विडम्बना है कि वोट देने के लिए लम्बी-लम्बी कतारों में खड़े होने वाले यही गरीब और साधनहीन लोग हैं,जिन्हें धनाभाव में गंभीर प्रत्याशी समझने को चुनाव आयोग जैसे संस्थाएं तैयार नहीं हैं.जो अकूत धनसंपदा के दम पर गंभीर माने जा रहे हैं, उनके लिए वोट देने के लिए क्या, किसी भी लाईन में खड़ा होना शान के खिलाफ है.वे तो सीधे सत्ता प्रतिष्ठान को अपनी दूकान में तब्दील कर रहे हैं और जो चाहे करवा ले रहे हैं.जैसा कि मुकेश अम्बानी ने अटल बिहारी वाजपेयी के दत्तक दामाद रंजन भट्टाचार्य से कहा कि "यार रंजन कौंग्रेस भी अब अपनी दूकान हो गयी है".या जैसे 2009 में टाटा ने ए.राजा को दूरसंचार मंत्री बनवा दिया और मंत्रिमंडल गठन से चार दिन पहले टाटा की ओर से नीरा राडिया ने ए.राजा को यह खबर सुना भी दी थी.
दुनियाका सबसे बड़ा लोकतंत्र होने का दम भरने वाले देश में यह अनोखे किस्म का श्रम विभाजन किया जा रहा है कि गरीब,साधानहीनों की लोकतंत्र में वोट देने मात्र की हिस्सेदारी होगी और गांठ के पूरे चाहे अक्ल के अंधे ही क्यूँ ना हों,जनता के प्रतिनिधि होने का हक़ या यूँ कहिये कि हुकूमत करने का हक़ उनके लिए आरक्षित किया जा रहा है !
इन्द्रेश 'आइसा' के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे हैं. और अब भाकपा-माले के नेता हैं. indresh.aisa@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.