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शुरुआत ‘मासिक धर्म’ की या गुलामी की ?

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-उमेश पंत

"...13 साल के होते ही जब एक लड़की यौवन की दहलीज़ पर कदम रखती है, उसे घर दहलीज़ से बाहर निकलने की मनाही हो जाती है। मासिक धर्म की शुरूआत जैसे श्राप बनकर उसकी जिन्दगी में आती हो। पर सलमा भीतर से उन लड़कियों में नहीं थी जिनके लिये सहना ही जीवन हो। वो अन्दर से उस छोटे से गांव की इस छोटी सी सामंती सोच को रौंदने की इच्छाओं से भरी थी। उन खिड़कियों की सींखचों को तोड़ने के लिये मचल रही थी जिन्होंने उसकी उड़ान को एक कमरे में कैद कर लिया था। पर वो क्या कर सकती थी ? विकल्प ही क्या था ? वो गुस्से से भरी थी। इस पुरुषवादी समाज की स्याह सोच के बुरकों को जला देना चाहती थी। प्रतिरोध करना चाहती थी। आंखिर में उसने अपने लिये एक रास्ता चुना। शब्दों के जरिये अपने प्रतिरोध को आवाज़ देने का रास्ता। उसने अपने रोष को कविताओं में ढालना शुरु किया।... "

ल महिला दिवस का दिन। रात के तकरीबन दस बज रहे थे। दिल्ली के जेएनयू के माही-मांडवी छात्रावास के लॉन में अभी-अभी पत्रकार praxis द्वारा रोहित जोशी के सम्पादन में निकाली गई पुस्तक उम्मीदों की निर्भयाएं का लोकार्पण हुआ था। ये पुस्तक 16 दिसम्बर को हुई बलात्कार की घटना के बाद बलात्कार और उससे जुड़े विषयों पर हुए विमर्शों पर छपे लेखों का एक ज़रुरी संकलन है। मौजूदा समय में महिलाओं पर हो रहे अपराधों और उनके विभिन्न पहलुओं को समझने के क्रम में हिन्दी में हुई चुनिन्दा कोशिशों में से एक अहम कोशिश के रुप में इस पुस्तक को देखा जा सकता है। खैर ये लेख उस पुस्तक के बारे में नहीं है। ये लेख उस महिला पर बनी फिल्म के बारे में है जो उस पुस्तक का विमोचन कर रही थी। जिसका परिचय एक तमिल कवियित्री के रुप में कराया गया था जिसपर एक बनी एक फिल्म विमोचन के ठीक बाद दिखाई जाने वाली थी।
तुम्हारे द्वारा चीर कर
पैदा हुए
हमारे बच्चों का भविष्य
निर्भर करता है
मेरे अच्छे चाल-चलन
और सेवा वृत्ति पर…
राजथी सलमा
फिल्मएक व्यस्त सी सड़क से शुरु होती है और एक खिड़की पर कुछ देर ठिठकती है। वो एक खिड़की पूरे 9 सालों तक सलमा नाम की उस साधारण मुस्लिम महिला के लिये बाहर की दुनिया देख पाने का एकमात्र ज़रिया थी। उस छोटी सी खिड़की के भीतर जितना उजाला आ पाता था क्या वो उस 13 साल की लड़की के लिये काफी था जिसे इसलिये एक कमरे में बंद रखा गया क्योंकि उसने शादी करने से इनकार कर दिया था? उस तरह से शादी करने के लिये जिस तरह से दक्षिण भारत के त्रिची शहर से लगे उस गांव के एक आम मुस्लिम परिवार में रहने वाली उसकी जैसी हर तमिल लड़की को करनी पड़ती है। मजबूरन। अपनी इच्छा के खिलाफ।
13साल के होते ही जब एक लड़की यौवन की दहलीज़ पर कदम रखती है, उसे घर दहलीज़ से बाहर निकलने की मनाही हो जाती है। मासिक धर्म की शुरूआत जैसे श्राप बनकर उसकी जिन्दगी में आती हो। पर सलमा भीतर से उन लड़कियों में नहीं थी जिनके लिये सहना ही जीवन हो। वो अन्दर से उस छोटे से गांव की इस छोटी सी सामंती सोच को रौंदने की इच्छाओं से भरी थी। उन खिड़कियों की सींखचों को तोड़ने के लिये मचल रही थी जिन्होंने उसकी उड़ान को एक कमरे में कैद कर लिया था। पर वो क्या कर सकती थी ? विकल्प ही क्या था ? वो गुस्से से भरी थी। इस पुरुषवादी समाज की स्याह सोच के बुरकों को जला देना चाहती थी। प्रतिरोध करना चाहती थी। आंखिर में उसने अपने लिये एक रास्ता चुना। शब्दों के जरिये अपने प्रतिरोध को आवाज़ देने का रास्ता। उसने अपने रोष को कविताओं में ढालना शुरु किया।
शादी के बाद अपने उस नये परिवार में उसकी कविताओं का साथ देने वाला कोई नहीं था। पति के हाथ जब वो कागज आये जिसमें वो कविताओं लिखी जाती तो वो उन्हें फाड़कर फेंक देते। सलमा ये कागज़ छुपाकर रखने लगी। पर ये छिपाये हुए कागज़ भी दूसरे दिन गायब कर दिये जाते। रात को अपने पति के साथ बिस्तर पर लेटे हुए वो कविताओं की पंक्तियां सोचती और इस जद्दोजहद में रहती कि उन्हें याद कैसे रखेगी? उन्हें लिखना गुनाह जैसा था। कई कविताएं इस जद्दोजहद के चलते कागज पर उतर ही नहीं पाई। उनकी मौत हो गई।
परइच्छाएं जब प्रबल हों तो अपने लिये रास्ता खोज ही लेती हैं। बाथरुम के सेनिटरी नेप्किन में लिख-लिख कर वो कविताएं सलमा ने किसी तरह अपनी मां तक पहुंचाई। मां ने वो कविताएं एक पत्रिका में भेजी। पत्रिका में कविताएं छपी तो चर्चा में आ गई। पत्रिका से एक पत्रकार सलमा का पता लगाते हुए उसके गांव पहुंचा। सलमा छिपकर उससे मिलने गई। उसे साक्षात्कार दिया। सलमा बुरके में थी और पत्रकार को एक तस्वीर चाहिये थी। सलमा ने इधर-उधर देखा और जल्दी से अपना बुरका खोला। तस्वीर खिंची। कविता उस तस्वीर के साथ पत्रिका में छपी और हंगामा हो गया। पूरे गांव के लिये सलमा एक बुरी औरत हो गई। एक औरत जो लिखने लगी थी। औरत के उस दर्द को लिखने लगी थी जो अब तक होकर भी कहीं नहीं था।
वो कविताएं जब समाज के बीच में आई तो उन्होंने उन दकियानूसी रिवाज़ों की कलई खोल दी जिनकी आड़ में एक लड़की का जवान होना भर उसे अपना गुलाम बना लेने का अधिकार दे देता है। वो समाज जो एक लड़की को जवान होता देखकर ही उस पर बंदिशें डालने लगता है वो एक लड़की के खयालों को जवान होता आंखिर कैसे देख सकता है। वो समाज जिसे लड़कियों को परदे में रखने की आदत हो गई हो एक लड़की को ऐसी कविताएं लिखते हुए कैसे देख सकता है जिसमें उस योनि का जिक्र हो जो वो सब जानते खुलती है जो उसे जानना चाहिये।
सलमाअब दो बच्चों की मां थी। एक मां से जब उसके बेटे इसलिये दूर हो जाएं क्योंकि वो सच लिखती है, वो सच जो कट्टरपंथी समाज के लिये अश्लील हो जाता है। उस वक्त एक मां को कैसा महसूस होता होगा जब अपने बच्चे ही उसकी भावनाओं को ना समझें। फिल्म में एक दृश्य है जब सलमा अपने दो लड़कों के साथ बैठी है। वो उनसे पूछती है कि क्या उन्होंने उसकी कविताएं पढ़ी हैं? ज़ाहिर है उन्होंने वो कविताएं नहीं पढ़ी हैं। दोनों को उन्हें सुनने में कोई रुचि भी नहीं है। उन्हें अब तक यही लगता है कि मां को ये सब नहीं लिखना चाहिये क्योंकि लोगों को उनका इस तरह लिखना अच्छा नहीं लगता। क्योंकि उनके दोस्त उन्हें उनकी मां की इस नागवार हरकत के लिये चिढ़ाते हैं। पर वो अपनी कविताएं उन्हें सुनाती है। कविता पूरी होती है तो उनमें से एक कहता है कि एक बार फिर सुनाओ। ये शायद वो क्षण है जब बच्चे अपनी मां को समझने की पहली कोशिश करते हैं। पहली बार सुनकर वो उसे एक बार फिर सुनना चाहते हैं।
फिल्म कई परतों में एक ऐसी औरत को देखने की कोशिश करती है जो समाज की रुढि़यों के खिलाफ खड़ी होने का साहस बटोरती है। उस खिलाफत के दौर में उस लम्बे संघर्ष को फिल्म बखूबी दिखाती है जब समाज उसे बदचलन कहकर खारिज करने की कोशिश करता है। और फिर उस बदलाव को भी फिल्म देखती है जब ये संघर्ष अपने मुकाम पर पहुंचता है, उस औरत को एक पहचान मिलती है। वो मशहूर होती है और अब वही परिवार जो उसके खिलाफ था उसके इस तरह से मशहूर हो जाने पर उसके साथ खड़ा दिखाई देता है।
अपनीमर्जी से लिखना और जीना, बस इतनी सी बात एक औरत होने के नाते कितनी मुश्किल हो जाती है। इस मौलिक अधिकार को पाने की इच्छा के  चलते अपने ही परिवार के साथ रिश्तों में कितनी उलझनें पैदा हो जाती  हैं किम लौगिनोटो द्वारा निर्देशित ये फिल्म इस सच की जटिलता को सहजता से दिखा देती है। शायद इसीलिये फिल्म के तकनीकी पक्ष को पूरी तरह खारिज करके आप उन जटिलताओं में इतने खो जाते हैं कि तकरीबन एक घंटे की इस फिल्म को आप अपलक देख पाते हैं।
रिश्तों की पड़ताल करते हुए फिल्म उस मां का नज़रिया दिखाती है जो अपनी बेटी के इस विद्रोह को बखूबी समझती है, क्योंकि खुद इस दौर के दर्द को वो जी चुकी है। वो मां जो शायद अपनी उस बेटी की ही तरह होना चाहती थी पर हो नहीं पाई। तमाम आशंकाओं के बावजूद वो लुके छिपे ही सही अपनी बेटी का साथ देती है।
उस बहन का नजरिया भी फिल्म में देखने को मिलता है जो उन सांकलों को कभी नहीं तोड़ पाई जिन्हें खोलकर उसकी अपनी बहन ने अपने लिये पूरी दुनिया के रास्ते खोल लिये। जो अपने लड़के की खुशी के लिये अपने सिनेमा देखने के शौक को दबा देती है। एक दृश्य में बेटा बुरका क्यों पहनना चाहिये इस पर एक लम्बी तकरीर देता है। एक बेटा जिसे उसकी मां की इच्छाओं के दबे रहने में ही उसकी भलाई दिखती है क्योंकि उसे लगता है कि उसका धर्म उसे यही सीख देता है। मां अपने बेटे की खुशी के लिये एक ऐसी जिन्दगी स्वीकार करने को तैयार है जिसमें उसकी खुद की खुशी कहीं नहीं है। बेटा जब अपनी राय दे रहा है तो मां सुन रही है और उसके चेहरे के भाव लगातार बदल रहे हैं। उन भावों में एक घर में रहते हुए एक दूसरे को न समझ पाने का दर्द साफ झलक आता है। और फिल्म के इस हिस्से में उन भावों को बखूबी कैमरे पे कैद कर लिया गया है।
उन बच्चों का भी दृष्टिकोण फिल्म सामने रखती है जिन्होंने अपनी मां को हमेशा से गलत समझा, उसके साथ वक्त ही नहीं बिताया और अब जब मां विदेशों में जा रही है, जेएनयू में उस पर बनी फिल्म दिखाई जा रही है तो वो उसके साथ खड़े होकर वक्त में पीछे जाकर देखते हैं और अपनी मां को नहीं खुद को गलत पाते हैं।
वो पति जिसकी मनाही के चलते कई कविताएं लिखे जाने से पहले ही खत्म हो गई। वो अब अपनी पत्नी की प्रसिद्धि से ‘नाखुश‘ नहीं है। अब वो उससे कुछ ‘कम नाराज़‘ है। वो अपनी पत्नी को चुनाव लड़ने से मना नही कर पाता। उसे चुनाव जीतने से नहीं रोक पाता। उसे अपने फैसले लेने से नहीं रोक पाता। जब एक औरत दृढ़ इच्छाशक्ति के साथ कोई फैसला कर लेती है तो उसे कौन रोक पाता है ?
इस फिल्म में न बेहतरीन छायांकन है, न दृश्यों को फिल्माने में कैमरे की किसी तकनीकी कलाकारी का प्रयोग हुआ है। बहुत साधारण सा फिल्मांकन है, साधारण सी एडिटिंग। लेकिन फिल्म में जो संवाद है वो इतने मार्मिक हैं कि फिल्म का तकनीकी पहलू पूरी तरह नज़रअंदाज़ ही हो जाता है। अच्छी बात ये है कि फिल्म कहीं भी सलमा को एक पीडि़ता के रुप में नहीं दिखाती। जब वो ये बता रही होती है कि कैसे उसका पति एक बार उसे जलाने की सोचकर तेजाब लेकर आ गया था, तो वो ये बात भी हंसकर बता रही होती है। कभी कभी दर्द जब हंसकर बंया किया जाता है तो और गहराई से महसूस होता है। फिल्म के तकरीबन हर हिस्से में वो एक ऐसी औरत के रुप में नज़र आती है जो सहन करने में भरोसा नही रखती, जो हंसते हुए समाधान खोजने में भरोसा करती है।
फिल्म की स्क्रीनिंग के बाद खुद सलमा दर्शकों के सवालों का जवाब देती हैं। अफसोस भी जताती हैं कि वो पढ़ नहीं पाई। पर उनका बेटा आज उनके बगल में खड़ा होकर जब ये बात कहता है कि आज वो पहली बार अपनी मां के साथ ऐसे बाहर आया है, उसे अपनी मां पर गर्व है और वो उनके साथ और वक्त बिताना चाहता है तो ये सारे अफसोस बेमानी हो जाते हैं।
सलमापर बनी इस फिल्म को देखना उस खिड़की से भीतर झांकने जैसा है जहां से देखने पर एक बंद अंधेरा कमरा दिखाई देता है जिसमें देश की न जाने कितनी महिलाओं की इच्छाएं दफन है, जहां से वो चीखें सुनाई देती हैं जिन्हें न सुनने की हमें आदत हो गई है, जहां खड़ा होना थोड़ा असहज तो करता है पर ज़रुरी लगता है।
 तुम्हारे कानों में
न पड़ने के लिए
मेरी आवाज नहीं
मेरी चीखें हैं…
http://www.youtube.com/watch?v=u7Qrx7i9AKM
उमेश'लेखक हैं. कविता-कहानी से लेकर पत्रकारीय लेखन तक विस्तार.
सिनेमा को देखते, सुनते और पढ़ते रहे हैं. 
mshpant@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है. 

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