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महेश चंद्र पुनेठा |
-महेश चंद्र पुनेठा
"...विदेशी भाषा श्रेणी के ऑस्कर अवार्ड्स ने पिछले 64 सालों में अपनी इस भूमिका को किस रूप में और किसके पक्ष में निभाया तथ्यों के साथ रामजी इसका विश्लेषण करते हैं। वह बताते हैं कि संवेदना ,कला और कथ्य के धरातल में कमतर होने के बावजूद 64 साल में 51 बार यह पुरस्कार यूरोपीय फिल्मों को दिया गया जबकि उनसे बेहतर एशियाई फिल्मों की उपेक्षा की गई। इसके पीछे लेखक का तर्क है कि इस अवार्ड्स के जरिए जहाँ पश्चिमी फिल्म इंडस्ट्री को लाभ पहुँचाना है वहीं उनके पक्ष में श्रेष्ठता बोध को अक्षुण्य रखना है।..."

इसपुस्तिका की विशेषता है कि यह ऑस्कर अवार्ड्स के बहाने न केवल विश्वभर की चर्चित फिल्मों की जानकारी देती है बल्कि विश्व राजनीति को समझने की गहरी दृष्टि हमें देती है। फिल्मों के साथ-साथ दो विश्व युद्धों के बाद विश्व के इतिहास,राजनीति तथा सामाजिक जीवन के द्वंद्व और उथल-पुथल को पकड़ने में सहायक होती है। रामजी विश्व समाज और राजनीति के मुख्य सवालों से टकराने से पहले हमें फिल्मों के स्वरूप और उद्देश्य के बारे में भी बताते हैं। वह तीन मॉडलों का उल्लेख करते हैं- पहला मॉडल लेनिन द्वारा दिखाया गया मॉडल है। इसके अनुसार ‘सिनेमा कला की सभी विधाओं में सबसे महत्वपूर्ण है और निश्चित तौर पर उनका उपयोग समाज के विकास के लिए किया जाना चाहिए।.......सिनेमा का दूसरा मॉडल तानाशाहों का भी रहा है। इसमें व्यक्ति,जाति,धर्म और नस्ल को महिमामंडित किया गया।......तीसरा मॉडल भी है जिसे हॉलिवुड ने विकसित किया है,और वह है -अधिक से अधिक पूँजी कमाने के हित में वाणिज्यिक और कॉर्पोरेट संस्थानों द्वारा सिनेमा का उपयोग। वह बताते हैं कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद तीसरे मॉडल पर ही अधिक जोर दिया गया। लेकिन अच्छी बात यह हुई कि यहीं से पूरी दुनिया के स्तर पर ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ एक आंदोलन के रूप में शुरू हुआ जिसने शोषण ,गैर बराबरी पर टिकी मौजूदा व्यवस्था ,सत्ता और उन सारी संरचनाओं पर सीधी चोट की।
रामजी प्रस्तुत पुस्तक में इस बात की पड़ताल भी करते हैं कि फिल्मों को बनाने और देखने के पीछे कौनसी मानसिकता कार्य करती है? मानसिकता परख के लिए वह कला की अपेक्षा कथ्य पर अधिक बल देते हैं। उनका स्पष्ट मानना है कि दुनिया में जिन रचनाओं को श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में रखा गया है उनकी श्रेष्ठता इस तथ्य की कसौटी पर कसी जाती है कि वे अंततः विचार व संवेदना के स्तर पर देती क्या हैं। उसका कलात्मक होना अच्छा तो है ,लेकिन बिना कथ्य के कलात्मकता कुछ समय बाद सड़ाँध पैदा करने लगती है। किसी फिल्म को देखने के लिए दर्शकों को सिनेमाघरों तक लाने में पुरस्कारों का महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
विदेशी भाषा श्रेणी के ऑस्कर अवार्ड्स ने पिछले 64 सालों में अपनी इस भूमिका को किस रूप में और किसके पक्ष में निभाया तथ्यों के साथ रामजी इसका विश्लेषण करते हैं। वह बताते हैं कि संवेदना ,कला और कथ्य के धरातल में कमतर होने के बावजूद 64 साल में 51 बार यह पुरस्कार यूरोपीय फिल्मों को दिया गया जबकि उनसे बेहतर एशियाई फिल्मों की उपेक्षा की गई। इसके पीछे लेखक का तर्क है कि इस अवार्ड्स के जरिए जहाँ पश्चिमी फिल्म इंडस्ट्री को लाभ पहुँचाना है वहीं उनके पक्ष में श्रेष्ठता बोध को अक्षुण्य रखना है। कभी-कभार भारतीय या अन्य एशियाई देशों की फिल्मों का ऑस्कर की सूची में नामाकिंत होने या उससे जुड़े किसी कलाकार को ऑस्कर मिलने की घटना को वह इस रूप में देखते हैं कि वह हमें ऐसे स्वप्न के छलावे में रखना जरूरी समझती है कि तुम भी सिंहासन पर बैठने वालों की उस स्वप्निल कतार में पहुँच सकते हो, यदि भाग्य तुम्हारा साथ दे। और वह ऐसा इसलिए करती है कि वर्ततान व्यवस्था को यह डर हमेशा सताता रहता है, कि आम जन के मन में इस व्यवस्था के प्रति जो आक्रोश और गुस्सा उत्पन्न हुआ है ,वह कहीं फूट न पड़े।
रामजीइस पुस्तक में विश्व इतिहास से ऑस्कर पुरस्कारों और ऑस्कर पुरस्कार से विश्व इतिहास में आवाजाही करते रहते हैं। वह पिछले 84वर्षों के दुनिया के इतिहास पर विहंगम दृष्टि दौड़ाते हुए अमरीकी वर्चस्व ,उसके साम्राज्यवादी मंसूबों ,कुटिल चालों और सैनिक-असैनिक हस्तक्षेप का संक्षिप्त जायजा लेते हैं। उत्तर और दक्षिण कारियाई युद्ध, वियतनाम युद्ध,इराक-ईरान युद्ध में अमेरिकी भूमिका को बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट करते हैं। वह इस बात को भी बताते हैं कि लोकतंत्र का अगुवा होने का दावा करने तथा मानवाधिकार का दावा करने वाला अमेरिका कैसे विश्व भर के तानाशाहों और अधिनायकों को पालता पोसता रहा । इससे उनके गहरे इतिहासबोध का परिचय मिलता है। वह बड़ी कुशलता से इस बात को बताते हैं कि ‘दुनिया जब जल रही थी’ तब आपको ऑस्कर विजेता फिल्मों में मानवता को शर्मसार करने वाली घटनाओं की पृष्ठभूमि लगभग गायब मिलेगी।उसी प्रकार अफ्रीका केन्द्रित फिल्मों में यह बात सिरे से गायब मिलेगी कि कैसे अमेरिका ने अफ्रीका को कबीलाई झगड़ों में उलझाकर वहाँ के खनिज उत्पादों को अपने देश की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को सौंप दिया है। यही बात चीन की साम्यवादी क्रांति को लेकर बनाई गई फिल्मों में मिलती है। इन फिल्मों में अमेरिका के पक्ष में एकांगी और अतिरेकपूर्ण व्यवहार दिखाई देता है। ऐसा नहीं कि इस दौरान विश्व युद्ध की वीभत्सताओं पर कोई फिल्म ही न बनी हो। लेखक यहाँ सोवियत संघ,जापान,जर्मनी,चीन में बनी उन महत्वपूर्ण फिल्मों का उल्लेख करता है जो विश्व युद्ध की विभीषिकाओं ,नाजी अत्याचारों,हिरोशिमा-नागासाकी की क्रूरता को दिखाती हैं। लेकिन ये फिल्में कभी भी ऑस्कर अवार्ड्स की सूची में शामिल नहीं हो पाई।
यह पुस्तिका इस बात पर भी प्रकाश डालती है कि ऑस्कर पुरस्कृत फिल्में न केवल अमेरिका और पूँजीवादी खेमे को महिमंडित करती आईं हैं बल्कि उन ताकतों की विकृत छवि प्रस्तुत करती हैं जो इनके खिलाफ खड़े रहे। वियतनाम युद्ध हो,इराक और अफगानिस्तान युद्ध हो, ईरान-इराक युद्ध हो, अरब-इसराइल युद्ध हो ,चाहे कोरियाई युद्ध इन फिल्मों से वहाँ की जमीनी हकीकत का पता नहीं चल पाता है। ये फिल्में उन कारणों को नजरअंदाज कर देती हैं जिन्होंने युद्ध को जन्म दिया। इनमें उन देशों की जनता को क्रूर और अमानवीय दिखाया गया है जिसके विपक्ष में अमेरिका खड़ा था अर्थात इन युद्धों को अमेरिकी नजरिए से दिखाया गया है। रामजी यह बात बिल्कुल सही कहते हैं कि ऑस्कर विजेता इन फिल्मों को देखने के बाद आप इस दुनिया और समाज की सामान्य समझ भी विकसित नहीं कर पाएंगे और न इनसे आप कोई ऐसी तसवीर ही बना पाएंगे,जिसे पिछली सदी ने अपने रंगों और खून के छींटों से भरा है। इस सूची में आत्ममुग्ध अमेरीका का चेहरा ही दिखता है।
यहाँ यह बात अच्छी है कि प्रस्तुत पुस्तिका में रामजी उन फिल्मों के बारे में बताना भी नहीं भूलते जो दूसरे पक्ष अर्थात गैर-अमरीकी और गैर-पूँजीवादी पक्ष को हमारे समाने रखती हैं जिसमें डॉक्युमेंट्री फ़िल्में मुख्य रूप से हैं। यह पुस्तिका कौनसी फिल्म देखनी है और क्यों देखनी है ? में हमारी बहुत मदद करती है। लेखक उन फिल्मों से हमारा परिचय कराता है जिनसे इस दुनिया की एक मुकम्मल तस्वीर बनती है।हम वहाँ के जीवन के यथार्थ को अधिक अच्छी तरह से समझ सकते हैं।‘सितारों के आगे जहाँ और भी है’ शीर्षक आलेख इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। इसमें सेनेगल ,ट्यूनेशिया ,माली, नाइजीरिया, कनाडा,मैक्सिको, लातिन अमरीका ,ईरान ,चीन आदि देशों में बनी फिल्मों का जिक्र है। लेखक इन फिल्मों में अपने इतिहास के पुनर्लेखन की चाह ,अपने साथ किए गए भेदभाव व ज्यादतियों पर मुखरता और कुल मिलाकर अपनी परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार लोगों की शिनाख्त करने की चाह देखता है। यही चाह है जो पश्चिम में इनके प्रति गहरे उपेक्षा भाव को जन्म देता है।
ऐसानहीं है कि लेखक ने इस पुस्तिका में ऑस्कर अवार्डस की सूची में शामिल फिल्मों की इकतरफा तौर पर केवल धज्जियां उड़ायी गई हैं बल्कि वह यह लिखते हुए भी नहीं हिचकते हैं कि इस सूची में बहुत कुछ ऐसा है जिस पर अकादमी गर्व कर सकती है। मसलन इटली और फ्रांस के साथ इस पुरस्कार को जीतने वाले देशों की लगभग 20 फिल्में इस सूची में दिखाई देती हैं ,जिनसे वैश्विक तसवीर की हमारी समझ का थोड़ा विस्तार होता है। .....इन फिल्मों को देखकर आप दुनिया के उन विविध रंगों से परिचित हो जाते हैं,जिनसे उसकी मुकम्मल तस्वीर बनती है।
यहपुस्तिका हमें रामजी तिवारी की दृष्टि का कायल तो बनाती है ही साथ ही उनके मेहनत के प्रति भी नतमस्तक कर देती है। बलिया जैसी छोटी जगह पर रहते हुए विश्वभर की इतनी अधिक फिल्मों को प्राप्त करना ,देखना और उनका गहरा विश्लेषण करना दाँतों तले अंगुली दबाने को विवश करता है। उनकी यह छोटी सी पुस्तिका विश्व सिनेमा के प्रति गहरी उत्सुकता जगाने और एक संतुलित दृष्टि बनाने में समर्थ है।साथ ही इस मिथक को तोड़ने में सफल रहती है कि ऑस्कर पुरस्कार से पुरस्कृत होना किसी फिल्म के सर्वश्रेष्ठ होने का मानक नहीं है तथा केवल हॉलीवुड में ही सर्वश्रेष्ठ फिल्म बनती है। भले ही ऑस्कर पुरस्कारों की राजनीति पर यह पुस्तिका संक्षेप में बात करती है लेकिन यह बात संपूर्णता में हैं। इस बात को साबित करने में पूरी तरह सफल रहती है कि ऑस्कर अवार्ड्स की कठपुतली को कौन नचाता है और इसके पीछे उसके क्या निहितार्थ हैं। यह बात पूरी तरह से ध्वनित होती है कि फिल्म निर्माण का संबंध केवल व्यवसाय से नहीं है बल्कि इसके पीछे एक राजनीतिक सोच काम करती है। यह लोकप्रिय होने के साथ-साथ एक गंभीर कला माध्यम भी है। इसलिए इस माध्यम से जुड़े कलाकारों से उनकी अपेक्षा है कि वे न सिर्फ उत्कृष्ट कला का निर्माण करें ,बल्कि उन्हें गंभीतरता के साथ देखने-समझने वाले दिमागों का निर्माण भी करें। किसी भी दौर में वही कला महान समझी जाती है जो अपने समय और समाज को विकसित करती है और उसे श्रेष्ठता प्रदान करती है।
यहखुशी की बात है कि उनके इस प्रयास का हिंदी में खूब स्वागत हो रहा है। इस तरह के विषयों पर गंभीर लेखन की हिंदी में बहुत कमी है। आशा है रामजी तिवारी अपने लेखन की निरंतरता को बनाए रखते इस दृष्टि से हिंदी पाठकों को और समृ़द्ध करेंगे। इस विषय के अभी अनेक अनछुए पहलू हैं जिस पर आगे हमें उनकी कलम से बहुत कुछ पढ़ने को मिलेगा। यह पुस्तक गतवर्ष पढ़ी गई मेरी उन किताबों में से एक है जो मुझे इस बात के लिए लगातार उकासाती रही कि इस पर जरूर कुछ लिखा जाना चाहिए। आज यह काम पूरा करते हुए मुझे कुछ संतोष की अनुभूति हो रही है क्योंकि यदि किसी के द्वारा कुछ अच्छा लिखा जा रहा है तो उसका उल्लेख किया जाना हम सभी की सामूहिक जिम्मेदारी का हिस्सा है।
महेश पुनेठा अभी के चर्चित कवि और समीक्षक हैं.हिंदी की प्रतिनिधि पत्रिकाओं में लगातार कविताऐं और कविता समीक्षाएं प्रकाशित.'भय अतल में'नाम से इनका एक कविता संग्रह काफी पसंद किया गया.इंटरनेट में इनसे punetha.mahesh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है .