"...इतनीसीटें और इतनी बातों के निकलने का सीधा मतलब ये है कि ये बात अब दूर तलक जायेगी. आम आदमी पार्टी की जीत ने संभावनाओं और सवालों का जो पिटारा खोला है, उनके जवाबों का एक बड़ा हिस्सा इस नयी पार्टी की आगामी राजनीति से ही मिलने वाली है. अगर ये भी संभावनाओं के वैसे ही तस्कर निकले, जो अब तक अन्य दूसरी पार्टियां होती आयीं हैं तो हश्र भी वही होगा जो अब तक होता आया है और अभी-अभी हुआ है..."
कार्टून साभार- सतीश आचार्य http://cartoonistsatish.blogspot.in |
इसपरिघटना को यहाँ तक का सफ़र तय करने के लिए पिछले तीन सालों में बेहद मशक्कत करनी पड़ी है. याद करिए जनलोकपाल आंदोलन, जो अपनी तमाम कमी-कमजोरियों के बावजूद इस लगभग से अराजनीतिक शहर के “खाए-पिए-अघाए” मध्यवर्ग को सड़कों पर उतारने में कामयाब रहा था. इस “चली गयी सरकार” ने तब भी उसकी कद्र नहीं की थी. बाद हुए कुछ उठापटकों में अन्ना और केजरीवाल अलग हो गए और अस्तित्व में आई आम आदमी पार्टी. ये इस पार्टी के नयेपन का ही तकाज़ा था कि सत्ताधारी और विपक्षी पार्टियों इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया. आप इसे कांग्रेस और भाजपा का मदांध अहंकार भी कह सकते हैं. एक पार्टी ने तो उसकी कीमत चुका दी है. जल्द ही शायद आपको ये भी देखने को मिले कि दूसरी पार्टी, जो इस वक़्त उत्सवमुद्रा में है, को भी ऐसी ही नियति से दो-चार होना पड़े.
आमआदमी पार्टी के इस उभार को केवल “कांग्रेस-विरोध” की परिणति मानना भी जल्दबाजी होगी. इस पूरी उभाररुपी मशीनरी के और भी कई कल-पुर्जे हैं जिनकी तसल्लीबख्श पड़ताल बहुत ज़रूरी है. मसलन क्या इस परिणाम को नव-उदारवादी विकास के मॉडल के एक बड़े केंद्र दिल्ली में हाशिये पर भेजे गए समूहों का पलटवार कहा जा सकता है? क्या पढ़े-लिखे नौजवानों और गरीब-गुरबों के साझा वोट करने से भविष्य में होने वाली राजनीति का एक नया रास्ता नहीं खुल गया है? क्या भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता केवल इनका निदान ही नहीं बल्कि पारदर्शी राजनीति के लिए भी वोट कर रही है? क्या वो दौर अब जाता नहीं दिखता जब जन-प्रतिनिधि पांच साल में एक बार दिखते थे? और सबसे बड़ा सवाल ये कि क्या मध्यवर्ग और निचले समूहों की एक सकारात्मक और साझा पॉलिटिक्स “मंजे-मजाये, खेले-खाये” राजनीतिज्ञों और कॉरपोरेट्स को सबक सिखाने को तैयार है?
इसजनादेश के और भी ठोस संदेश पढ़े जा सकते हैं. मैं इसे दीवार पर लिखी इबारतों की तरह साफ़-साफ़ पढ़ पा रहा हूँ कि अगर जनता के पास कांग्रेस और भाजपा का विकल्प हो तो जनता इसे अपनाने को तैयार है. बांकी तीन राज्यों में संभवतः ये “ठोस विकल्पहीनता” ही रही जिनकी वजह से भाजपा पुनः सरकार में आई है. मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा सरकार की वापसी इसीलिए भी संभव हुयी क्यूंकि इनके मुख्यमंत्री तकरीबन साफ़-सुथरी छवि के हैं. ये और बात है कि इनके “छवि-निर्माण” के प्रोजेक्ट पर गरीब जनता का पैसा पानी की तरह बहाया गया है. राजस्थान ने अपने स्थापित पैटर्न को ही दुहराया है जहाँ हर पांच साल बाद ऊँट करवट बदल लेता है. दिल्ली का परिणाम भाजपा को अपनी आत्ममुग्धता का एहसास करवा पायेगा, इसकी गुंजाइश बनती दिख रही है. भाजपा के लिए 2014 की डगर कठिन हो सकती है अगर साफ़-सुथरी छवि वाली कुछ पार्टियां अपने प्रभाव-क्षेत्रों में कांग्रेस और भाजपा का विरोध करते हुए एक मोर्चे को बनाने की दिशा में आगे बढ़ें. पिछले दो दशकों के दुखद अनुभवों ने मुल्क की अवाम में एक ख़ास किस्म का अलगावबोध भरा है. वे समझते हैं कि दोनों बड़ी पार्टियों ने जन-विरोधी नीतियाँ आगे बधाई हैं और आम लोगों का जीवन मुश्किलों से भर गया है. उनकी मूक सी भाषा को अगर पढने की कोशिश की जाय लब्बोलुआब ये निकलेगा: वो कांग्रेस और भाजपा को समान रूप से दण्डित करना चाहती है. वो विकल्पहीनता से बाहर आकर नयी संभावनाओं में अपनी संभावनाएं देख रही है.
इतनीसीटें और इतनी बातों के निकलने का सीधा मतलब ये है कि ये बात अब दूर तलक जायेगी. आम आदमी पार्टी की जीत ने संभावनाओं और सवालों का जो पिटारा खोला है, उनके जवाबों का एक बड़ा हिस्सा इस नयी पार्टी की आगामी राजनीति से ही मिलने वाली है. अगर ये भी संभावनाओं के वैसे ही तस्कर निकले, जो अब तक अन्य दूसरी पार्टियां होती आयीं हैं तो हश्र भी वही होगा जो अब तक होता आया है और अभी-अभी हुआ है.
चर्चाका एक बिंदु यह भी है क्या इन परिणामों को एक राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखा-समझा जा सकता है. भाजपा निश्चित रूप से इस जीत को “एक तथाकथित सेमी-फाईनल” में जीत के बतौर प्रचारित-प्रसारित करेगी. संभवतः वो ये मान कर चले कि अगले साल होने वाले आम चुनाव में उसे एक निर्णायक बढ़त हासिल हो गयी है. वो इसे “नमो फैक्टर” के कारगर होने और जनप्रिय होने के सबूत होने की तरह देखना पसंद करेगी. लेकिन क्या असल में ऐसा है? एक बात जो हमें अपने ज़हन में साफ़ कर लेनी चाहिए कि ये चुनाव आम चुनाव का सेमी-फाईनल नहीं है. और आम चुनाव भी मुल्क की राजनीति का आई.पी.एल. नुमा कोई टूर्नामेंट नहीं है. मेरा मानना है कि ये सोचना इस पूरे विषय की गंभीरता को कम करता है. मीडिया में धड़ल्ले से इस्तेमाल हो रहे इन खिलंदर शब्दों को राजनीतिक वर्ग इसीलिए भी पसंद करता है क्यूंकि इसमें उन्हें अपने फायदे की संभावना दिखती है. आप ख़ुद देखिएगा कि आने वाले महीनों में भाजपा कितने उत्साह से “सेमी-फाईनल” जीत जाने को हर चैनल-अखबार और वेब पर छपती-छपवाती रहेगी. आम चुनाव भले ही ज़्यादा दूर ना हों पर इन चार राज्यों के परिणाम का आम चुनाव पर काफी असर होगा, ये मानना गलत है. उन्हें थोड़ा सा फुटेज अवश्य मिलेगा, इससे कोई इनकार भी नहीं है.
आमचुनाव के मुद्दे और विषय अलग होंगे. उनका स्कोप बहुत विस्तारित होगा. और जहाँ तक प्रश्नों की बात है, भाजपा के नए खेवनहार नरेन्द्र मोदी स्वयं एक ऐसे प्रश्न हैं जिसको सुलझाना उस वक़्त की सबसे बड़ी जरुरत होगी. फासीवाद के बढ़ते आहट को लोग ज़्यादा शिद्दत से महसूस कर पा रहे हैं. उन्हें समझ में आ रहा है मोदी का प्रधानमन्त्री बनना मुल्क की सेहत के लिए अच्छा नहीं है. राज्य-प्रायोजित दंगे, फर्ज़ी एनकाउंटर और क्रूर विकास के मॉडल के अलावा अब नरेन्द्र मोदी पर एक लड़की की दो महीने से ज़्यादा तक जासूसी करवाने का आरोप है. इस काम के लिए “साहेब” ने पूरी सरकारी मशीनरी एक मासूम लड़की की “अहर्निशं सेवामहे” टाइप की जासूसी में लगवा दी. अब पूरी भाजपा इसकी लीपापोती में लगी है और अपनी पार्टी और अपने “साहेब” को और भी सवालों के घेरे में ला रही है. सोचिये कि एक आम युवा महिला वोटर जब आम चुनाव में अपना वोट गिराने जायेगी तो क्या उसके मन में ये सवाल ना आयेंगे!
बहरहाल,ऐसे ही सवालों की तादाद बढती जायेगी जब आम चुनाव नज़दीक होंगे. और भाजपा के लिए तो सवालों की एक पूरी श्रृंखला है जिनका जवाब देने में पूरी पार्टी बहुत असहज हो जाती है. कांग्रेस की राह तो वैसे ही मुश्किल है. संभव है कि आम चुनाव में वे अपनी दुर्गति की नयी ऊंचाइयों को प्राप्त करें. इन परिणामों से कांग्रेस की आबरू तो जा ही चुकी है, संसद के कूचे से भी उन्हें ऐसा ही एग्जिट मिलने के आसार हैं. और मुल्क का चुप्पा सा आख़िरी वोटर शायद इसका चश्मदीद गवाह बने! वही तो नयी संभावनाएं गढ़ रहा है.
आशीष स्वतंत्र पत्रकार हैं. कुछ समय पत्रकारिता अध्यापन में भी.
इनसे ashish.liberation@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.