सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"...वॉरसा में तय यह होना था कि धरती के वातावरण को पिछले ढाई सौ साल में मुख्य रूप से प्रदूषित करने वाले देश कार्बन कटौती के किसी निर्धारित वैधानिक लक्ष्य के लिए खुद को वचनबद्ध करेंगे या नहीं। अब इसका जवाब मिल गया है। वे ऐसा नहीं करेंगे।..."
वॉरसा में दो दशक से जारी रवायत दोहराई गई। संबंधित पक्षों की 19वीं जलवायु वार्ता में आखिरकार सभी देशों की सरकारें सहमत हो गईं कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन की कटौती में वे योगदान देंगी, मगर किसी ने इसके लिए खुद को वचनबद्ध नहीं किया। पिछले कई मौकों की तरह इस बार भी वार्ता टूटने के कगार पर थी। तभी ‘कमिटमेंट’ शब्द को बदल कर ‘कंट्रीब्यूशन’ कर दिया गया। इससे सभी देशों को रास्ता मिल गया। अब धरती को गरम होने से बचाने के उपाय करने में वे स्वेच्छा से यथासंभव योगदान करेंगे। उससे तापमान वृद्धि को (1750 की तुलना में) 2 डिग्री से नीचे सीमित रखना मुमकिन हो या नहीं, यह संभवतः उनकी चिंता नहीं है। अगर इस दिशा में प्रगति नहीं हुई, तो जिम्मेदारी दूसरों के माथे मढ़ दी जाएगी।
यह सहमति ऊपरी तौर पर सभी देशों के हक में दिखती है, जबकि हकीकत ऐसी नहीं है। वास्तविक कथा यह है कि धनी देश अपनी पुरानी वचनबद्धता और धरती को गरम करने में अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी की कीमत चुकाने से बच निकले हैं। दुर्भाग्यपूर्ण है कि विकासशील देशों ने ऐसा होने दिया। परिणाम यह होगा कि 1992 में रियो द जनेरो में हुई धरती सम्मेलन के साथ जलवायु परिवर्तन रोकने की शुरू हुई प्रक्रिया की दिशा परिवर्तित हो गई है। जलवायु परिवर्तन रोकने के लिए हुई संधि (यूनाइडेट नेशन्स फ्रेमवर्क कन्वेशन ऑन क्लाइमेट चेंज- यूएनएफसीसी) के आधार सिद्धांत बदल गए हैं। तब जलवायु न्याय को इस प्रयास का मूलभूत सिद्धांत माना गया था। सहमति हुई थी कि जलवायु परिवर्तन रोकने की जिम्मेदारी तो सबकी है, मगर इसकी मात्रा अलग-अलग होगी। अर्थ यह था कि जिन देशों में पहले औद्योगिकरण हुआ, उन्होंने ग्रीनहाउस गैसों- खासकर कार्बन डायऑक्साइड का अधिक उत्सर्जन धरती के वातावरण में किया है। इन्हीं गैसों के वहां परत बनाकर जम जाने से धरती का तापमान बढ़ना शुरू हुआ, जिसके परिणामस्वरूप जलवायु परिवर्तन का खतरा पैदा हुआ।
उपरोक्तसिद्धांत के तहत तब धनी देशों ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती के पूर्व-निर्धारित एवं अनिवार्य लक्ष्य को स्वीकार किया था। 1997 में क्योतो प्रोटोकॉल के तहत इस लक्ष्य के ब्योरे तय किए गए। अमेरिका तो उसी वक्त इस सहमति से हट गया, लेकिन जिन यूरोपीय देशों ने लक्ष्य स्वीकार किए उन्होंने भी निर्धारित लक्ष्य के अनुरूप कटौती नहीं की। क्योटो प्रोटोकॉल की अवधि 2012 में खत्म हो गई। तब नई संधि की प्रक्रिया शुरू हुई। वॉरसा में तय यह होना था कि धरती के वातावरण को पिछले ढाई सौ साल में मुख्य रूप से प्रदूषित करने वाले देश कार्बन कटौती के किसी निर्धारित वैधानिक लक्ष्य के लिए खुद को वचनबद्ध करेंगे या नहीं। अब इसका जवाब मिल गया है। वे ऐसा नहीं करेंगे।
क्योतो प्रोटोकॉल के बाद की संधि के सिलसिले में धनी देशों का तर्क है कि पिछले दो दशक में चीन, भारत और अन्य विकासशील देशों की अर्थव्यवस्थाएं तेजी से विकसित हुई हैं। अब चीन सबसे अधिक कार्बन उत्सर्जन करने वाला देश है और भारत चौथे नंबर पर है। मगर यह दलील इस तथ्य की अनदेखी करके दी जाती है कि ऐतिहासिक रूप से सकल उत्सर्जन में इन दोनों देशों का योगदान अब भी बहुत कम है। फिर अगर प्रति व्यक्ति उत्सर्जन देखें तो चीन और भारत आज भी अमेरिका और यूरोप से बहुत पीछे हैँ। अमेरिका और यूरोप ने उपभोग का जो जीवन स्तर हासिल किया है, वह अभी इन दोनों देशों की पहुंच से बहुत दूर है।
बहरहाल, वॉरसा सम्मेलन से पहले विकासशील देशों ने यह मान लिया था कि उत्सर्जन कटौती में वे भी योगदान करेंगे। भारत सरकार ने इस नीति को मंजूरी दी थी। मगर भारत समेत विकासशील देशों की मांग थी कि सभी देश यह घोषित करें कि वे कितनी कटौती करेंगे। उसके बाद देखा जाए कि क्या वह तापमान वृद्धि को 2 डिग्री से नीचे रखने के लिहाज से पर्याप्त है। अगर ऐसा नहीं है, तो जो कमी रह जाएगी उसकी पूर्ति धनी देश करें। वे इसके लिए तय लक्ष्य के प्रति खुद को वचनबद्ध करें। चीन के वार्ताकार सु वेई ने वॉरसा में इसी बात पर जोर दिया। कहा कि वचनबद्धता सिर्फ धनी देशों की होनी चाहिए। विकासशील देशों का योगदान स्वैच्छिक होना चाहिए। मगर धनी देश अड़े रहे। अंततः विकासशील देशों ने झुक कर यह समझौता कर लिया कि सभी देश सिर्फ योगदान करेंगे, कोई उत्सर्जन में कटौती के पूर्व-निर्धारित लक्ष्य के प्रति खुद को वचनबद्ध नहीं करेगा। कुछ देशों का इस समझौते पर राहत जताना हैरतअंगेज है। मुद्दा यह है कि अगर इससे धरती को गरम (ग्लोबल वॉर्मिंग) होने से बचाने का लक्ष्य पूरा नहीं होगा, तो इसका अर्थ क्या है?
1992 के धरती सम्मेलन में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज बुश सीनियर ने बेलाग कहा था कि अमेरिकी नागरिकों की जीवनशैली पर कोई समझौता नहीं किया जाएगा। जाहिर है, जलवायु वार्ता में आज भी धनी देश इसे अपना बुनियादी सिद्धांत बनाए हुए हैं। मगर मुश्किल यह है कि उपभोग में कटौती के बिना कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाना नामुमकिन है। अमेरिका के विपरीत यूरोपीय देशों ने अतीत में जलवायु वार्ता में अधिक सकारात्मक रुख अपनाया। मगर हाल के आर्थिक संकट के बीच उनकी प्राथमिकता भी यही है कि किसी तरह ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने की जिम्मेदारी अधिक से अधिक उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों पर डाल दी जाए। मगर इस रणनीति की नाकामी तय है, क्योंकि भारत जैसे देशों की मुख्य समस्या गरीबी और पिछड़ापन है। इन देशों में आबादी के बहुत बड़े हिस्से को अभी बिजली उपलब्ध नहीं है, जबकि ऊर्जा उत्पादन की प्रक्रिया का धरती को गरम करने में संभवतः सबसे ज्यादा योगदान होता है। फिर इन देशों में पर्यावरण (अथवा ग्रीन) तकनीक उपलब्ध नहीं है, जिससे वे पर्यावरणसम्मत से अपना औद्योगीकरण कर सकेँ। यह तकनीक भी धनी देशों के पास है। यूएनएफसीसीसी में यह जिम्मेदारी धनी देशों की मानी गई थी कि वे ग्रीन टेक्नोलॉजी को पेटेन्ट से मुक्त कर गरीब देशों को उपलब्ध कराएंगे। लेकिन इस वचनबद्धता से भी वे मुंह मोड़ चुके हैं। यानी ग्लोबल वॉर्मिंग रोकने में वे कोई ऐसा योगदान नहीं करना चाहते, जिससे उन पर आर्थिक बोझ पड़े या जिस कारण उनके यहां उपभोग को नियंत्रित करना पड़े।
विकसितदुनिया के औद्योगीकरण के कारण जलवायु परिवर्तन से जो नुकसान गरीब देशों को उठाना पड़ रहा है, उसकी क्षतिपूर्ति में योगदान के जो वादे अतीत में धनी देशों ने किए- उससे भी एक तरह से वे पीछे हटते दिखते हैँ। वॉरसा बैठक से पहले सबसे कम विकसित देशों की तरफ से ‘क्षति एवं क्षतिपूर्ति’ का मुद्दा जोरशोर से उठाया गया। मांग यह है कि ग्लोबल वॉर्मिंग के कारण समुद्र के जलस्तर में वृद्धि तथा मौसम का मिजाज बदलने से उन्हें जो नुकसान हो रहा है, उसे नियंत्रित करने के लिए धनी देश उन्हें वित्तीय मदद दें। मगर यह मांग स्वीकार करना तो दूर धनी देश आज तक उस हरित कोष में योगदान की रूपरेखा भी तय नहीं कर पाए, जिसका खूब धूम-धड़ाके के साथ अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने 2009 में कोपेनहेगन में हुई संबंधित पक्षों की बैठक में एलान किया था। 100 अरब डॉलर का यह कोष 2011-12 तक के लिए था। लेकिन आज तक इसमें कोई अनुदान नहीं आया। अब इसे 2020 तक के लिए टाल दिया गया है। इसके बावजूद यह तय नहीं है कि इसमें कौन देश कितना योगदान करेगा।
वॉरसासम्मेलन में वचनबद्धता की जगह योगदान शब्द को लाकर वार्ता को टूटने से तो बचा लिया गया, लेकिन उपरोक्त मुद्दों पर तस्वीर और भी धुंधली होती दिखी। क्योतो प्रोटोकॉल के बाद नई संधि के पूरी होने लिए 2015 की समयसीमा तय है। ये संधि 2020 से लागू होगी। वॉरसा में तय हुआ कि सभी देश उत्सर्जन कटौती में अपने योगदान की मात्रा की घोषणा 2015 की पहली तिमाही या दिसंबर 2015 में पेरिस में होने वाली संबंधित पक्षों की बैठक के पहले कर देंगे। जो लक्ष्य वे घोषित करेंगे, उस पर निगरानी, रिपोर्टिंग और उसे सत्यापित करने की व्यवस्था की जाएगी। मतलब यह कि घोषित लक्ष्य पर पालन हो, इसे अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के तहत सुनिश्चित कराया जाएगा। मगर इसके बीच जो बात गायब हो गई, वो वह कि आखिर 2020 तक ये देश क्या करेंगे?
पिछलेसाल संबंधित पक्षों की बैठक में सहमति बनी थी कि इस बीच की अवधि के लिए भी उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय किया जाएगा। इसका ब्योरा वॉरसा में सामने नहीं आया। यह कहा गया कि चरम मौसमी दुर्घटनाओं से पीड़ित गरीब देशों की मदद के लिए एक तंत्र बनेगा और ये देश जलवायु परिवर्तन के असर को झेल सकें इसके लिए धनी देश सहायता की मात्रा बढाएंगे। साथ ही जंगल कटने से रोकने के लिए एक अरब डॉलर के ग्रीन क्लाइमेंट फंड की स्थापना की जाएगी। लेकिन ये तीनों बातें अत्यंत अस्पष्ट हैं। ये अच्छे इरादे जताने से अधिक कुछ नहीं हैं, क्योंकि इनमें विवरण का अभाव है। कहा जा सकता है कि इन इरादों को अगले दो साल में व्यावहारिक रूप देने की योजना तैयार की जाएगी। मगर पिछले दो दशकों का अनुभव इसके लिए बहुत उम्मीद नहीं बंधने देता।
जयवायु परिवर्तन का मुद्दा किस तरह देशों की प्राथमिकता में लगातार नीचे जा रहा है, इसकी एक मिसाल जापान का रुख है। उसने साफ कह दिया कि क्योतो प्रोटोकॉल के तहत उत्सर्जन कटौती के लक्ष्य को वह 2020 तक पूरा नहीं करेगा। जापान उन देशों में था, जिन्हें 1990 के स्तर की तुलना में 25 प्रतिशत कटौती करनी थी। मगर जापान ने कहा कि असल में 2020 तक उस स्तर में 3 फीसदी की बढ़ोतरी होगी। उधर ऑस्ट्रेलिया ने किसी निर्वाचित प्रतिनिधि को वॉरसा भेजने की जरूरत महसूस नहीं की। धनी देश इस पर अड़े रहे कि क्योटो प्रोटोकॉल की तरह कटौती के अनिवार्य लक्ष्य को वे स्वीकार नहीं करेंगे। हालात यहां तक पहुंचे कि एक दिन विकासशील देशों के प्रतिनिधि बैठक से वॉकआउट कर गए। एक मौके पर गैर-सरकारी संगठनों के प्रतिनिधियों को भी यही रास्ता अख्तियार करना पड़ा।
निष्कर्षयह कि जलवायु परिवर्तन रोकने के नाम पर 195 देशों के प्रतिनिधि इस बार वॉरसा में जुटे और धरती तथा भविष्य की पीढ़ियों के प्रति चिंता जताने की रस्म-अदायगी की। मगर इससे बात कहीं आगे बढ़ी, कहना कठिन है। वार्ता को टूटने से बचा लेना अगर अपने-आप में कोई उपलब्धि हो, तो धरती के भविष्य की कीमत इसे जरूर हासिल किया गया। यहां ये बात जरूर ध्यान में रखनी चाहिए कि इस बैठक से कुछ ही समय पहले जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र की समिति (आईपीसीसी) ने हाल ही में अपनी पांचवीं आकलन रिपोर्ट में दुनिया को फिर से याद दिलाया था कि जलवायु परिवर्तन मानव-गतिविधियों का परिणाम है। उसने चेतावनी दी थी कि अगर कॉर्बन डायऑक्साइड उत्सर्जन में तेजी से कटौती नहीं हुई तो धरती पर ऐसे परिवर्तन होंगे, जिन्हें फिर पुरानी स्थिति में नहीं लाया जा सकेगा। स्पष्ट है सरकारों- खासकर धनी देशों की सरकारों ने इसकी अनदेखी कर दी है। तात्कालिकता दीर्घकालिक तकाजे पर फिर भारी पड़ी है।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.