बृजेश यादव |
-बृजेश यादव
"...स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज में दलित साहित्य कला केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित सभा में प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय ने कबीर, नाभादास, अश्वघोष और बुद्ध को याद करते हुए प्रतिरोध की उस साहित्यिक परंपरा को रेखांकित किया जिसकी बुनियाद पर ओमप्रकाश वाल्मीकि और विशेष तौर पर दलित रचनात्मकता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए।..."
गलदश्रु भावुकता और श्रृद्धालुओं की फूल मालाओं से ख़बरदार रहकर ही ओमप्रकाश वाल्मीकि की रचनात्मकता को समझा जा सकता है। मध्यवर्गीय अवसरवाद के खि़लाफ उनकी कहानियों में जो प्रतिरोध दर्ज हुआ है-उसे देखा जाना चाहिए। जवाहरलाल नेहरू विश्वविधालय में रविवार को आयोजित संयुक्त स्मृति सभा में ये विचार व्यक्त किये गए।
स्कूल ऑफ़ सोशल साइंसेज में दलित साहित्य कला केंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच की ओर से आयोजित सभा में प्रोफ़ेसर मैनेजर पांडेय ने कबीर, नाभादास, अश्वघोष और बुद्ध को याद करते हुए प्रतिरोध की उस साहित्यिक परंपरा को रेखांकित किया जिसकी बुनियाद पर ओमप्रकाश वाल्मीकि और विशेष तौर पर दलित रचनात्मकता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। वाल्मीकि की भाषा को उन्होंने उल्लेखनीय बताया। सभा को कुल 11 वक्ताओं ने संबोधित किया। अध्यक्षता करते हुए प्रो. विमल थोराट ने वाल्मीकि जी के साथ अपनी सुदीर्घ वैचारिक निकटता को भावपूर्ण शब्दों में याद किया।
इसके पहले बजरंग बिहारी तिवारी ने कहा कि मिथकों की फिसलनभरी राह के प्रति वाल्मीकि जी की रचनात्मक सचेतनता उनके प्रखर धर्मिक बोध का प्रमाण है। उन्होंने ओमप्रकाश जी की अप्रकाशित रचनाओं को एकत्र कर रचनावली प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया।'घुसपैठिए'समेत वाल्मीकि की तीन कहानियों पर अपनी बात को केन्द्रित करते हुए जेएनयू के शोध छात्र मार्तण्ड प्रगल्भ ने कहा कि मध्यवर्गीय दलित अधिकारी 'घुसपैठिए'के अंतर्द्वंद्व और मेडिकल के दलित छात्रा की आत्महत्या के बीच इस कहानी को जिस तरह रचा गया है वह मध्यवर्गीय विरोध-वादी नैतिकता के खि़लाफ लेखक के असंतोष की दास्तान बन जाती है। व्यकित और लेखक के विचार में अंतर भी हो सकता है और कर्इ बार रचना का अर्थ लेखक की घोषित मंशा से 'स्वतंत्र'भी हो सकता है। मार्तण्ड के मुताबिक, वाल्मीकि की कहानियों को जातिगत उत्पीड़न के सिंगिल फ्रेम में रखकर देखने के बजाय हमें हिंदी की अपनी आलोचनात्मक दृष्टि का विकास करना चाहिए और ओमप्रकाश जी की उस कथात्मक अंतर्दृष्टि को पहचानना चाहिए जो मध्यवर्गीय दलित व्यक्तिवाद के खि़लाफ निरंतर संघर्षरत रही है।
स्मृतिसभा को अनीता भारती, चित्रकार सवि सावरकर, कवि जयप्रकाश लीलवान, डा. रामचंद्र और प्रो. एसएन मालाकार ने भी संबोधित किया। प्रो. चमनलाल ने वाल्मीकि की कहानियों में अभिव्यक्त यथार्थ के स्वरूप की अर्थ गांभीर्य को रेखांकित करते हुए उन्हें सच्चा यथार्थवादी लेखक बताया। प्रो. तुलसीराम ने कहा कि हिंदी की रचनाओं में दलित पात्रों के लुम्पेनाइजेशन के विरोध में वाल्मीकि ने जिस साहस से लगातार संघर्ष किया, वह स्मरणीय है। इस प्रसंग में उन्होंने प्रेमचंद की 'कफन'कहानी को याद किया। सभा के अंत में एक मिनट का मौन रखा गया।