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असल मुद्दा है बलात्कार की मानसिकता

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-सत्येंद्र रंजन
सत्येन्द्र रंजन

"...जबकि मृत्युदंड अगर बलात्कार सहित किसी भी अपराध को रोकने में सहायक होता, तो समाज को काफी पहले अपराध-मुक्त बनाने में सफलता मिल गई होती। अतीत में और आज भी दुनिया के बहुत से समाजों में बलात्कारियों को न सिर्फ मृत्युंदड देने का प्रावधान है, बल्कि ऐसा पत्थरों से मार कर करने की क्रूर व्यवस्थाएं भी हैं। दिल्ली की घटना निसंदेह अत्यंत बर्बर है। लेकिन हकीकत यह है कि बलात्कार की ज्यादातर घटनाओं में अपराधी इस हद नहीं जाते।..."



दिल्ली में तेइस वर्षीय छात्रा से बलात्कार की बेहद दुखद और आक्रोश पैदा करने वाली घटना के बाद जिस तरह लोग आंदोलित हुए हैं, उसे भारत के बेहतर भविष्य का संकेत माना जा सकता है। पिछले साल भ्रष्टाचार और अब बलात्कार के खिलाफ बड़ी संख्या में लोगों- खासकर नौजवानों- का स्वतः-स्फूर्त ढंग से सड़कों पर उतर आना यह संकेत देता है कि लोग अब सब कुछ चुपचाप सह लेने को तैयार नहीं हैं। कोई भी स्वस्थ लोकतंत्र ऐसे जन हस्तक्षेप से समृद्ध और स्पदंनशील बनता है। ताजा घटनाक्रम में लोगों की दिखी दृढ़-संकल्पशक्ति का ही यह नतीजा है कि सरकार और प्रशासन हरकत में आए हैं। इस बहुचर्चित घटना में फुर्ती से सभी छह आरोपियों की गिरफ्तारी, ड्यूटी में ढिलाई बरतने वाले एसीपी स्तर के बड़े अफसरों समेत कई पुलिसकर्मियों का निलंबन, न्यायिक जांच, फास्ट ट्रैक कोर्ट बनाने का फैसला, दिल्ली में महिलाओं की सुरक्षा के लिए घोषित अतिरिक्त उपाय, थानों में तुरंत शिकायत लिखने का निर्देश, और राजनीतिक स्तर मची हलचल- ये सब जन दखल का ही परिणाम हैं। अगर सचमुच इनमें से कुछ उपायों को संस्थागत रूप दिया गया, तो वह अपराध- खासकर यौन अपराधों- से महिलाओं को सुरक्षित बनाने की दिशा में एक टिकाऊ उपलब्धि होगी।

बहरहाल,इस आंदोलन ने राजनीतिक दलों की सीमा को फिर रेखांकित किया है। यह सचमुच हैरतअंगेज है कि इस जनाक्रोश को नेतृत्व देने के लिए आगे आने का साहस किसी दल ने नहीं दिखाया। इसी माहौल के बीच ही दोनों प्रमुख दलों- कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ने एक-एक राज्य का चुनाव जीत लिया, जो जाहिर है उनके लिए बड़े संतोष की बात होगी। चूंकि राजनीतिक पार्टियां अब सिर्फ चुनाव की मशीन में तब्दील हो गई हैं, इसलिए उनके नेताओं को जागरूक जनता के एक बड़े हिस्से को परेशान कर रही समस्याएं या मुद्दे स्पर्श तक तक नहीं करते। जब कोई बड़ी हलचल मच जाए तो बयानबाजी या फ़ौरी असर वाले एलान करके वे अपने कर्त्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। अपने इसी रवैये के कारण समाज को वैचारिक एवं वास्तविक नेतृत्व देने के लिहाज से ये दल अपनी प्रासंगिकता खो रहे हैं। दुखद यह है कि इन दलों को इस बात का अहसास तक नहीं है।
         
चूंकिसमाज में ऐसे नेतृत्व का अभाव है, इसलिए लोगों के आंदोलन का अराजक रुख अख्तियार कर लेना अस्वाभाविक नहीं है। नतीजा यह होता है कि एक बड़ी ऊर्जा या तो बेकार चली जाती है, या अपनी दिशा खो देती है या फिर उसका लाभ समाज को प्रतिगामी दिशा में ले जाने वाली ताकतें उठा लेती हैं। अगर बलात्कार विरोधी आंदोलन बलात्कार की मानसिकता एवं संस्कृति तक बहस को ले गए बिना महज एक घटना के अपराधियों को कठोरतम सजा दिलवाने की मांग तक सिमट कर रह गया, तो यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति होगी। किसी आंदोलन की ऊर्जा को बदलाव या समाज सुधार की कहीं जटिल एवं बारीक परिघटना में बदलने के लिए गहन वैचारिक विमर्श की जरूरत होती है। ऐसा नहीं कहा जा सकता कि मौजूदा संदर्भ में यह कोशिश बिल्कुल नहीं हुई है। अनेक महिला अधिकार कार्यकर्ताओं एवं बुद्धिजीवियों ने तथ्यों, तर्क एवं अनुभवजन्य यथार्थ को मीडिया के जरिए लोगों के सामने रखा है। लेकिन यह आक्रोश जता रहे जन-समुदायों के साथ संवाद का आधार बना है, यह कहना संदिग्ध है। नतीजतन, वहां बलात्कारियों को फांसी देने और पुलिस-सुरक्षा के इंतजाम सख्त करने के नारों से बात आगे नहीं बढ़ी है।

जबकिमृत्युदंड अगर बलात्कार सहित किसी भी अपराध को रोकने में सहायक होता, तो समाज को काफी पहले अपराध-मुक्त बनाने में सफलता मिल गई होती। अतीत में और आज भी दुनिया के बहुत से समाजों में बलात्कारियों को न सिर्फ मृत्युंदड देने का प्रावधान है, बल्कि ऐसा पत्थरों से मार कर करने की क्रूर व्यवस्थाएं भी हैं। दिल्ली की घटना निसंदेह अत्यंत बर्बर है। लेकिन हकीकत यह है कि बलात्कार की ज्यादातर घटनाओं में अपराधी इस हद नहीं जाते। तो क्या उससे यह माना जा सकता है कि वे घटनाएं मान्य या स्वीकार्य हैं? गौरतलब है कि पीड़ित महिलाओं की बहुसंख्या अपने परिजनों या परिचितों से जबरदस्ती का शिकार होती है। इसका कारण सिर्फ यह नहीं है कि पुलिस व्यवस्था भ्रष्ट या लापरवाह है- वह तो अपने देश में निश्चित रूप से है, जो आम जन की आम हिफाजत से जुड़ी अनेक दिक्कतों की जड़ है। मगर महिला उत्पीड़न के संदर्भ में उससे भी अधिक गंभीर समस्या घर, परिवार, समाज और हर मानवीय संस्था में स्त्रियों का निम्न दर्जा और उनके यौन-व्यक्तित्व (सेक्लुएलिटी) पर पुरुष नियंत्रण की परंपरा है। भारत में अभी भी विवाह संबंध के भीतर बलात्कार की बात लोगों को अटपटी लगती है। यह पहलू अभी बहस के दायरे में भी नहीं है। लेकिन हकीकत यही है कि अपने यहां वैवाहिक संबंध असमानता के आधार पर बनते हैं और उसमें महिला से सेवा एवं एक विशेष  कर्त्तव्य को निभाने की अपेक्षा की जाती है, इसलिए यौन संबंध में जबरदस्ती का पहलू सिरे से शामिल रहता है। जो संबंध किसी समाज की मूल इकाई है, अगर उसमें ही महिला एवं उसकी इच्छा का सम्मान नहीं है, तो सड़कों पर ऐसे सम्मान की अपेक्षा किसी ठोस आधार पर खड़ी नजर नहीं आ सकती।

स्त्रियों के प्रति असम्मान एवं अपमान के इस भाव का इजहार रोजमर्रा के स्तर पर घर से लेकर दफ्तर तक होता है। इसकी चरम परिणति बलात्कार के रूप में होती है। प्रतिरोध करने वाली स्त्री हिंसा का शिकार हो जाती है। यह हिंसा कभी-कभी उतनी बर्बर भी होती है, जिसका शिकार होकर वह तेइस वर्षीय युवती फिलहाल सिंगापुर के अस्पताल में मौत से संघर्ष कर रही है। यह अच्छी बात है कि इस बर्बरता ने लोगों की संवेदना को झकझोरा है। अगर इसके परिणामस्वरूप कानूनों में सुधार हुआ, पुलिसवालों की जवाबदेही तय करने का कोई सिस्टम बना और सरकारों की तंद्रा एवं उदासीनता टूटी- तो यह एक बड़ी बात होगी। इसके बावजूद मूल प्रश्न अपनी जगह बना रहेगा। स्त्रियों का निम्न दर्जा और यौन-शुचिता के आधार पर उनके मूल्यांकन की परंपरा पर अगर चोट नहीं हुई, तो बात कहीं आगे नहीं बढ़ेगी। अगर आंदोलित युवा यही बोलते रहे कि बलात्कार की शिकार स्त्री की जिंदगी मौत से भी बुरी होती है- तो वे पारंपरिक स्त्री/मानव विरोधी मान्यताओं को ही बल प्रदान करेंगे। आखिर जबरन किसी व्यक्ति के यौनांगों के उल्लंघन से उसकी इज्जत चली जाने की बात समाज में क्यों स्थापित रहनी चाहिए? स्त्री को आखिर सिर्फ शरीर के रूप में क्यों देखा जाना चाहिए? इसी मान्यता के जरिए सदियों से महिलाओं की स्वतंत्रता पर नियंत्रण रखा गया है।

इसलिएयह सवाल अहम है कि बलात्कार विरोधी आंदोलन बलात्कार को लेकर कैसी मानसिकता के साथ चल रहा है? अगर उसकी नजर में भी महिला एक वस्तु है, जिसकी पवित्रता उसके यौनांगों से जुड़ी है, तो यह आंदोलन एक तात्कालिक भावावेश से अधिक कुछ नहीं है। चूंकि यह स्त्री विरोधी पारंपरिक मूल्यों को बल देता नजर आएगा, इसलिए उसे प्रगतिशील नहीं कहा जा सकता। बहरहाल, युवा उत्साह एवं जज्बे को सही दिशा ना देना राजनीतिक एवं सामाजिक नेतृत्व की विफलता है। कुल मिलाकर आवश्यकता सिर्फ सड़कों पर नारेबाजी की नहीं, बल्कि मुद्दे को व्यापक परिप्रेक्ष्य में रख कर समग्र संवाद की है, ताकिसमाज की समझ सचमुच कुछ आगे बढ़े। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.  
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.



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