सत्येंद्र रंजन |
-सत्येंद्र रंजन
"...अर्मत्य सेन के विचारों के संदर्भ में जीडीपी वृद्धि दर बनाम सामाजिक विकास का अंतर्विरोध खड़ा करने की कोशिश को तथ्यों की अनदेखी ही माना जाएगा। बहरहाल, जीडीपी विकास दर, खुले बाजार, आर्थिक मामलों में सरकार की भूमिका को निरंतर सीमित करने और निवेशकों की ‘एनिमल स्पीरिट’ (निवेश भावना) को प्रोत्साहित करने की नीतियों के पक्ष में जुनून इस हद तक पहुंच जाए कि समाज की बाकी जरूरतें और पिछड़े तबकों के हित रडार से गायब हो जाएं (जिस प्रवृत्ति को सेन-द्रेज ने मार्केट मैनिया कहा है) या कुछ लोगों का विकास बाकी लोगों के लिए विनाश बनने लगे तो क्या उस पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए?..."
अगर गंभीर एवं जटिल विमर्श के बीच भी सनसनीखेज हेडलाइन निकालने की बेताबी नहीं होती तो मीडिया अमर्त्य सेन और ज्यां द्रेज की नई किताब (ऐन अनशर्टन ग्लोरीः इंडिया एंड इट्स कॉन्ट्राडिक्शन्स)आने के मौके पर भारत की विकास यात्रा की उपलब्धियों और विफलताओं पर गंभीर बहस छेड़ सकता था। लेकिन मीडिया (खासकर इलेक्ट्रनिक मीडिया) में अधिकांश चर्चा नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें या नहीं- इस सवाल पर सेन की प्रतिक्रिया या इससे थोड़ा आगे बढ़ते हुए सेन बनाम (जगदीश) भगवती की सरलीकृत बहस तक सीमित रह गई है। जबकि विकास की समझ और इसके चुने गए रास्ते से जुड़ी बहस पर भारत का कहीं बड़ा दांव लगा हुआ है।
सेनके बौद्धिक हस्तक्षेप ने दुनिया भर में विकास की समझ को प्रभावित किया है। विकास का मतलब क्या है, जिस संदर्भ में सेन विकास की बात करते हैं उसमें भारत किस मुकाम पर है, और उस दिशा में प्रगति के लिए क्या किया जाना चाहिए- इन मुद्दों पर सबकी अपनी राय हो सकती है, लेकिन विकास संबंधी बहस में आज इन प्रश्नों को नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है। इसलिए कि आज दुनिया में किसी देश की पहचान और प्रतिष्ठा सिर्फ इससे नहीं बनती कि उसने सकल घरेलू उत्पाद की कितनी वृद्धि दर हासिल की है। बल्कि उसके साथ ही मानव विकास सूचकांक, भूख सूचकांक, बहुआयामी गरीबी सूचकांक आदि ऐसी कसौटियां हैं, जिनके आधार पर देशों की प्रगति मापी जाती है।
इनतमाम सूचकांकों को तैयार करने की प्रक्रिया पर सेन के विकास संबंधी विचारों का गहरा प्रभाव है। इसलिए सेन के विचारों का संबंध सिर्फ किसी नैतिकता या अंतर्चेतना से नहीं है, बल्कि ये ठोस सामाजिक और आर्थिक प्रश्न हैं, जिनका उत्तर ढूंढे बिना आधुनिक मानदंडों पर विकसित या प्रगतिशील होने का दावा कोई देश नहीं कर सकता।
अर्मत्य सेन के विचारों के संदर्भ में जीडीपी वृद्धि दर बनाम सामाजिक विकास का अंतर्विरोध खड़ा करने की कोशिश को तथ्यों की अनदेखी ही माना जाएगा। बहरहाल, जीडीपी विकास दर, खुले बाजार, आर्थिक मामलों में सरकार की भूमिका को निरंतर सीमित करने और निवेशकों की ‘एनिमल स्पीरिट’ (निवेश भावना) को प्रोत्साहित करने की नीतियों के पक्ष में जुनून इस हद तक पहुंच जाए कि समाज की बाकी जरूरतें और पिछड़े तबकों के हित रडार से गायब हो जाएं (जिस प्रवृत्ति को सेन-द्रेज ने मार्केट मैनिया कहा है) या कुछ लोगों का विकास बाकी लोगों के लिए विनाश बनने लगे तो क्या उस पर सवाल नहीं उठाया जाना चाहिए?
दूसरीतरफ मुश्किल तब आती है, जब मार्केट मैनिया पर उठाए जाने वाले सवाल मार्केट फोबिया (बाजार से भय) की हद तक पहुंच जाते हैं। ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो बाजार की उपयोगिता या औचित्य को ही स्वीकार नहीं करते। हालांकि उनके पास इसका कोई उत्तर नहीं होता कि अगर संसाधन नहीं होंगे, या धन पैदा नहीं होगा तो गरीबी और पिछड़ेपन को मिटाने का क्या जरिया हो सकता है?धन और संसाधन पैदा करने और इस प्रक्रिया को टिकाऊ बनाने में बाजार की सर्व-प्रमुख भूमिका है, जिसका कोई व्यावहारिक विकल्प अब तक सामने नहीं आया है।
अतःसमस्या बाजार नहीं, बल्कि मार्केट-मैनिया है और ठीक उसी तरह की एक समस्या मार्केट-फोबिया भी है। इन दोनों समस्याओं का समाधान यही है कि बाजार का विवेकपूर्ण विनियमन हो और बाजार की प्रक्रियाओं से पैदा होने वाले संसाधनों का समाज में न्यायपूर्ण बंटवारा हो। लोकतांत्रिक व्यवस्था में सरकार की भूमिका इसे ही सुनिश्चित करने की एजेंसी की होनी चाहिए। अगर सरकारें ऐसा नहीं करतीं, तो उनकी जन-वैधता (लेजिटिमेसी) को कठघरे में जरूर खड़ा किया जाना चाहिए।
तोराजनीतिक व्यवस्था ऐसा किस तरह कर सकती है?अमर्त्य सेन के विचारों के मुताबिक ऐसा भौतिक एवं सामाजित बुनियादी ढांचों का विकास करते हुए किया जा सकता है। बिजली, परिवहन, दूरसंचार आदि भौतिक बुनियादी ढांचे का हिस्सा हैं, जिनके बिना किसी आधुनिक समाज की कल्पना मुमकिन नहीं है। इन ढांचों के विकास का जीडीपी वृद्धि दर के साथ-साथ आम जन के लिए आवश्यक सुविधाओं से भी सीधा नाता है।
अगरविकास प्रक्रिया का लाभ समाज के सभी तबकों तक ना पहुंचे तो उस विकास के औचित्य पर अवश्य प्रश्न उठना चाहिए। ऐसा कोई विकास टिकाऊ नहीं हो सकता, जो समाज में विभाजन और विषमता पैदा करता हो। अगर भारत की विकास कथा के हालिया दौर पर नजर डालें तो यह बात स्वयंसिद्ध लगती है। आज अगर भारत की आर्थिक वृद्धि दर 8-9 से गिर कर 5 फीसदी पर आ गई है, तो इसके कुछ कारण अवश्य अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों से जुड़े हैं, मगर उससे कहीं बड़ी वजह देश में भूमि अधिग्रहण की न्यायपूर्ण व्यवस्था ना होने जैसे पहलू हैं।
इसीलिएयह आवश्यक है कि भौतिक बुनियादी ढांचे के साथ-साथ सामाजिक बुनियादी ढांचे के विकास पर भी समान जोर दिया जाए। सबको भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य देखरेख की सुविधाएं मुहैया कर और पर्यावरण रक्षा करते हुए सामाजिक बुनियादी ढांचे के विकास के रास्ते पर आगे बढ़ा जा सकता है। केवल यही वो रास्ता है, जिससे देश की आबादी विकास में सहभागी और उसके लाभ में समान रूप से भागीदार बन सकती है। और सिर्फ तभी विकास टिकाऊ बन सकता है।
वहविकास- जिसे अमर्त्य सेन ने स्वतंत्रता के विस्तार के रूप में देखा है। विकास वह है, जो समाज में सभी व्यक्तियों की स्वतंत्रता को विस्तृत करे- यानी जिसके परिणामस्वरूप व्यक्तियों के सामने उपलब्ध चयन के विकल्पों का विस्तार हो। व्यक्ति की स्वतंत्रताओं को सीमित करने वाले पहलू क्या हैं?निसंदेह आर्थिक संसाधनों का अभाव इसका एक बड़ा पहलू है, लेकिन जातिवाद, सांप्रदायिकता, लैंगिक भेदभाव, अंधविश्वास और अन्य प्रकार के सांस्कृतिक पिछड़ापन भी वो कारण हैं जो व्यक्तियों को अपने में निहित क्षमताओं और संभावनाओं को संपूर्ण रूप से प्राप्त नहीं करने देते। अगर विकास को समग्र संदर्भ में देखें तो ऐसी तमाम रुकावटों और विवशताओं को क्रमिक रूप से हटाना विकास प्रक्रिया का हिस्सा बन जाता है।
अतीतमें विकास की ऐसी समग्र समझ ना रखने के कारण स्वतंत्रता एवं गणतांत्रिक संविधान अपनाने के साढ़े छह दशक बाद भी हालत यह है कि मानव विकास के तमाम सूचकांकों पर भारत की सूरत बदहाल है। पिछले दो दशकों में उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल करने के बाद भौतिक बुनियादी ढांचे के विकास में देश ने अवश्य अपेक्षाकृत बेहतर प्रगति की है। पिछले एक दशक में सामाजिक बुनियादी ढांचे में भी निवेश की स्वगातयोग्य शुरुआत हुई है।
लेकिनस्थिति कतई संतोषजनक नहीं है। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि सार्वजनिक बहसों में यह महत्त्वपूर्ण प्रश्न हाशिये पर बना हुआ है। इसीलिए सेन-द्रेज ने लोकतंत्र के भविष्य और सार्वजनिक तर्क-वितर्क में सीधा संबंध बताते हुए जोर दिया है कि अब वह वक्त आ चुका है जब समग्र विकास की मांग और उसमें योगदान के लिए भारत के लोग बेसब्र हो जाएं। क्या इससे असहमत होने की गुंजाइश है? लेकिन जिस तरह पिछले कुछ दिनों में बहस को भटकाने की कोशिश हुई, उससे यह साफ है कि ये रास्ता आसान नहीं है। खासकर यह देखते हुए कि जब राजनीतिक चर्चाओं में राष्ट्रवाद को धार्मिक आधार पर पुनर्परिभाषित करने की कोशिश फिर तेज हो रही हों और जातीय एवं क्षेत्रीय अस्मिताएं सिर उठा रही हों, तो यह चुनौती और भी विकराल नजर आने लगती है।
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सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.