"...फिक्शन फिल्म को यह छूट दी जा सकती है. मगर सच्ची तारीखों में गुथी एक कहानी को फिल्म में ढालने पर यह छूट यूं ही नहीं दी जा सकती. क्या रोम ओलंपिक में मिल्खा की हार की यही वजह रही इसकी व्यावहारिकता पर शक होता है. यह स्क्रिप्ट की जरूरत थी और इसे गढा गया या कि वाकई यह मिल्खा की उस आत्मकथा ‘दी रेस ऑफ माय लाइफ’ में दर्ज है जिस पर यह फिल्म आधारित है, यह एक पड़ताल का विषय जरूर है. शीघ्र प्रकाशित होने वाली इस आत्मकथा से शायद चीजें और खुलें..."
भरे पूरे परिवार का आँखों के सामने मरना. घर में जाकर उनके जिन्दा होने या मरने की तस्दीक करना. पर सभी घर वाले तो रहे नहीं, भारी मन से क्रंदन... माँ के हाथ को उठाना, और जिस हाथ का साया हमेशा सर पर रहता था उसी हाथ का निढाल होकर गिर जाना....7-8अपनों को हिला कर देखना, पर वो अपने तो लाश बन चुके हैं. सब ख़तम..... तकरीबन 12साल के रहे मिल्खा के साथ ऐसा ही हुआ था...
मिल्खा सिंह को कभी भागते हुए नहीं देखा, पता नहीं कैसा दौड़ते होंगे, लेकिन फरहान अख्तर को देखकर लगा कि मिल्खा साकार हो गए. ‘भाग मिल्खा भाग’ एक बड़े कैनवास की फिल्म है. इसका फलक व्यापक है. यह महज एक एथलीट की सफलता की कहानी नहीं है बल्कि व्यापक सन्दर्भों को उसके इतिहास के साथ खुद में पिरोती कहानी है. विभाजन, भारत-पाकिस्तान के साझे इतिहास का सबसे काला अध्याय है. और कहानी इसी से जुड़ आगे बढ़ती है. इसलिए इसकी पड़ताल में इतिहास-बोध भी महत्वपूर्ण मसला है.
‘भाग मिल्खा भाग’ की शुरुआत में ही एक कल्पना यह बुनी गई है कि आखिर 400 मीटर के रेस में करीब 250 मीटर तक सबसे आगे रहने के बाद मिल्खा 1960 के रोम ओलंपिक में पीछे दायीं तरफ दक्षिण अफ्रीका के मैल्कम स्पेन्स को मुड़कर क्यों देखते हैं?इस वजह से ये लड़ाका 45.73 सेकंड के साथ चौथे स्थान पर ठिठक जाता है? रोम में ओलंपिक से कुछ समय पूर्व फ़्रांस में उन्होंने 45.8 का समय निकला था, इस लिहाज से वह रोम में फेवरेट थे. (उस समय का ओलम्पिक रिकॉर्ड 45.2 सेकेंड था जोकि लॉस एंजलस (1956) में लो जोन्स ने बनाया था ). आखिर फाइनल इवेंट के दिन ऐसा क्या हुआ जो मिल्खा को चौथे स्थान पर ले आया और भारत महज दशमलव एक सेकंड से कांस्य पदक चूक गया..
फिल्म की शुरुआत में ही रोम ओलंपिक का दृश्य है. तेजी से सारे ही खिलाड़ियों को पीछे छोड़ता मिल्खा अचानक पीछे मुड़कर देखने लगता हैं. एक दूसरे में मर्ज करते दो दृश्य पर्दे पर दिखाई देते हैं. एक में रेस का ट्रेक है और दूसरे में किसी गाँव की पगडण्डी. फ्लेशबैक के लिए प्रयोग किये सेफिया मोड में एक सरदार बच्चा भाग रहा है, उसके पीछे घुड़सवारों का साया, काले-काले बादल, पीछे दौड़ते हुए न देखने की उसके पिता की ताकीद.. और जब पीछे मुड़कर वह बच्चा देखता है तो उसके पिता का सर धड़ से अलग गिर पड़ता है. रोम में फाइनल इवेंट के दिन भागते हुए यही मंजर उस 25 साल के युवक की स्मृतियों में तैर उठता है और जीत रहा मिल्खा अचानक हार जाता है.
फिक्शन फिल्म को यह छूट दी जा सकती है. मगर सच्ची तारीखों में गुथी एक कहानी को फिल्म में ढालने पर यह छूट यूं ही नहीं दी जा सकती. क्या रोम ओलंपिक में मिल्खा की हार की यही वजह रही इसकी व्यावहारिकता पर शक होता है?यह स्क्रिप्ट की जरूरत थी और इसे गढा गया या वाकई यह मिल्खा की उस आत्मकथा ‘दी रेस ऑफ माय लाइफ’ में दर्ज है जिस पर यह फिल्म आधारित है, यह एक पड़ताल का विषय जरूर है. शीघ्र प्रकाशित होने वाली इस आत्मकथा से शायद चीजें और खुलें.
आत्मकथा से कुछ चीजों की पड़ताल और की जानी होगी जो महत्वपूर्ण हैं. जैसा कि फिल्म में भारत के भीतर की पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को भरपूर मसाले के साथ कैश किया गया है (और इसके चलते ही फिल्म का सुपर हिट जाना अनिवार्य हो गया है). ऐसे में कुछ दृश्यों का आत्मकथा के साथ मिलान करना अनिवार्य हो जाता है. जैसे कि पाकिस्तानी खिलाड़ी अब्दुल खालिद और उनके कोच जावेद को खलनायक गढ़ने के लिए फिल्माया गया, उनके बीच का संवाद क्या आत्मकथा का हिस्सा है? या आत्मकथा में पकिस्तान से भारत लौटते मिल्खा ने सिखों के साथ हुई ज्यादती को तो तफसील से और सटीक बुना है मगर क्या यहाँ से पाकिस्तान जाते मुसलामानों की झेली वैसी ही त्रासदी का जिक्र उन्होंने कहीं नहीं किया? यदि आत्मकथा में यही वस्तुस्थिति है, तब तो संभवतः यह फिल्म की अनिवार्यता होगी. मगर यदि इसे सिर्फ पाकिस्तान विरोधी भावनाओं को कैश करने के मकसद से ऐसा किया गया है तो यहाँ फिल्म की विश्व-दृष्टि की संकीर्णता पर एक सवाल जरूर खड़ा होता है.
दूध और बढ़िया खुराक का आकर्षण लाया एथलेटिक्स के करीब
फरहान अख्तर, मिल्खा सिंह के रोल में कहीं भी नकली नहीं लगे हैं. इसके लिए उन्होंने मेहनत भी भरपूर की है. वह चाहे उनका पंजाबी बोलने का स्टाइल रहा हो या उनका एथलीट जिस्म. फिल्म का एक सीन कुछ देर के लिए रोकता है, इसको देख पान सिंह तोमर याद आती है. जिसका जिक्र आगे किया गया है, एक सीन में सिकंदराबाद (हैदराबाद) में उनका ट्रेनर क्रॉस कंट्री के बारे में बताता है, जिसमे जीतने वाले को २ अंडे और एक गिलास दूध देने की बात कही जाती है.
...तो मिल्खा सिंह स्पोर्ट्स में इसलिए आये क्योंकि उन्हें दूध बहुत पसंद था. फिल्म में उनके बचपन के रोल में भी उन्हें दूध पीने का मुरीद दिखाया गया है. (इससे पहले आई फिल्म पान सिंह तोमर में भी स्टेपल चेस करने वाले पानसिंह की खुराक ज्यादा थी इसलिए वह दौड़ में आ गये, उन्हें मेस में सभी के बराबर ही खुराक मिलती थी ) दोनों फिल्मों से सवाल भी सामने आया कि जिन दो एथलीट खिलाडियों पर हाल में फिल्म बनी है दोनों की खेल में आने की वजह फ़ौज में स्पोर्ट्स के खिलाडियों को मिलने वाली बेहतर खुराक थी. तो क्या वाकई दोनों की खेल में कोई रूचि नहीं थी ? मिल्खा सिंह ने भी इस बात को हाल में छपे इंटरव्यू में माना है कि उन्हें एथलेटिक के बारे में फ़ौज में में आने के बाद पता चला. तो क्या मिल्खा सिंह दूध की पसंद एथलेटिक में ले आया? हालांकि ये इस बात का एक पक्ष हो सकता है .
1960 में रोम में 45.73सेकंड का रिकॉर्ड बनाकर भले ही चौथे स्थान पर रहे हों पर उनका ये रिकॉर्ड चार दशक तक राष्ट्रीय रिकॉर्ड रहा . जिसे तकरीबन 38साल बाद परमजीत सिंह ने महज .03सेकंड के अंतराल से तोडा था. ओलिंपिक मैडल जीतना निश्चित ही बड़ी उपलब्धि होती है . लेकिन काल के कपाल से निकली वे यादें ही थी जिन्होंने इस जीवट खिलाडी को राकेश ओमप्रकाश से ७० मिमी के परदे पर उतारने पर मजबूर कर दिया .
ये है कहानी –
कहानी 1947से 1960की है, 1947में एक दूसरे का हिस्सा रहे भारत और पाकिस्तान अलग हो रहे थे . कुछ लोगों के लिए ये ख़ुशी का पल था तो कईयों के लिए ऐसी हकीकत थी जिसे वे याद नहीं रखना नहीं चाहते थे . गोविन्दपुरा (लायलपुर तब फैसलाबाद) के मिल्खा और उसके परिवार के लिए अजीब सा दौर था. जिस मिटटी में पले बड़े थे वो अचानक अपनी नहीं थी , वह पराई हो चुकी थी. लेकिन पूरा परिवार इस बात को मानने के लिए तैयार नहीं था. मिल्खा सिंह की आँखों के सामने उनके पूरे परिवार को मार दिया गया था . इसके बाद वह किसी तरह दिल्ली पहुंचे थे . यहाँ उन्हें रेफूजी कैंप में उनकी बहन इश्वर कौर (दिव्या दत्ता) मिली , जिसने उन्होंने बड़ा किया. छोटी उम्र में उन्हें चाकूबाजी की, चलती ट्रेन से कोयला चुराया (जैसा की फिल्म में दिखाया गया है). लेकिन वह इसे नहीं करना चाहते थे. लेकिन ये सही मायनों में वह नहीं करना चाहते थे. इसलिए वह फ़ौज में आ गये (हालांकि फिल्म में उनका ये कचोटपन कहीं नजर नहीं आया). फिल्म में एक चूक दिकती है वह यह की वो फ़ौज में कैसे आते हैं, असल में इस पक्ष को दिखाना चाहिए था, दरसल मिल्खा सिंह की फ़ौज में भरती ले-देकर हुयी थी (एक मैगजीन के हवाले से). जबकि आप मेलबर्न में स्टेला के साथ रोमांस को खूब दिखा रहे हैं तब आपको इस पक्ष को भी छूना चाहिए था. हालांकि राकेश ओमप्रकाश के एक समाचार पत्र को दिए गये इंटरव्यू की बात मानी जाए तो उन्होंने आर्मी के लिए 2बार अटेम्प्ट किया था और तीसरी बार चुने गये थे.
रोम में चौथे स्थान पर रहने के बाद मिल्खा खुद को अलग-थलग कर लिया था (जैसा फिल्म में दिखाया है, फिल्म की शुरूआत में). इसी बीच पाकिस्तान से कलचरल गेम के लिए बुलावा आता है. पर मिल्खा जाने को तैयार नहीं थे, इसके लिए बाकयदा उनके पुराने कोच गुरुदेव और भारतीय टीम के कोच उन्हें बुलाने के लिए चंडीगढ़ जाते हैं. इसी ट्रेन के सफ़र के दौरान बैकग्राउंड पाकिस्तान में मिल्खा के साथ आई दिक्कते दिखाई जाती है.
पंडित नेहरु (दिलीप ताहिल) ने मनाया तब वह माने.फिल्म में फरहान का संवाद है- ‘पंडित नेहरु को संबोधित करते हुए, “सर मैं सांस नहीं ले पाऊंगा, मेरे पैर नहीं उठने हैं वहां, मेरे अपनों का खून है उस हवा में.” इस सीन में पंडित नेहरू राष्ट्रकुल खेलों और एशियाई खेलों में बेहतरीन प्रदर्शन के लिए मिल्खा को सम्मानित करते हैं तभी वह उन्हें पाकिस्तान जाने के लिए कहते हैं.
रोम में रेस करते हुए उनके पीछे देखने की वजह (उनकी हार) का कारण भी पाकिस्तान की धरती पर उनका सब कुछ गंवाना था,फिल्म में यही स्थापित किया गया है. रोम वाली रेस अगर जीतते तो वह भारत का ओलंपिक में पहला गोल्ड होता. लेकिन जिस धरती पर पैर न पड़ने की बात मिल्खा ने कही उस धरती पर वे ऐसा दौड़े कि पाकिस्तानी अब्दुल खालिद को 10-20 मीटर दूरी से हराया. इस जीत के बाद अयूब खान ने उन्हें फ़्लाइंग सिख की उपाधि दी थी. फिल्म ख़त्म हो रही थी, लेकिन 3 घंटे से ज्यादा की फिल्म अपनी बुनावट में इतनी कसी हुई है कि ख़तम होने के बाद भी लग रहा था कि नहीं,यहाँ ये ख़तम नहीं हो सकती. इसके साथ कुछ और देर रहने का दिल करता है. कुछ एक दिक्कतों के बावजूद भी बौलीवुड में ये सिनेमा दुर्लभ है. फिल्म का मूल यही था कुछ ‘गोल्ड’ ओलंपिक गोल्ड से ज्यादा जरूरी होते हैं.
अभिनय –
अभिनय के लिहाज से करेक्टर में रमना बेहद जरूरी होता है, यही करना बेहद जरूरी भी हो जाता जब किसी लीजेंड के रोल परदे पर उतारा जा रहा हो. फरहान की निश्चित तौर पर तारीफ करनी पड़ेगी कि उन्होंने इस रोल के साथ पूरा न्याय किया. बीरो (सोनम कपूर) का रोल छोटा है, लेकिन 50 के दशक के रोल की लड़की में बेहद जबरदस्त रही हैं. मिल्खा पर फिल्म का केंद्र होने के कारण यह अखरता भी नहीं है. उनकी शादी भारत की वॉलीबाल कप्तान से हुयी है, इस विषय को भी छूना भी चाहिए था .
छोटे मिल्खा (मास्टर जपतेज सिंह) का फिल्म का बचपन में ‘मिल्खा दी टोई’ याद रखा जाएगा. इश्वर कौर (दिव्या दत्ता) पंजाबी बैकग्राउंड की फिल्मों में बेहतर करती रहीं हैं, ‘वीर जारा’ इसका उदाहरण रही है, इस फिल्म में भी उन्होंने ये बात साबित की है. गुरुदेव सिंह (पवन मल्होत्रा, मिल्खा के फ़ौज में कोच) रहे हैं. फिल्म में फरहान का उनके साथ एक सीन आँखे नम कर देता है जिसमे फरहान उनकी गले में मैडल डालतें हैं. फिल्म में युवराज सिंह के पिताजी योगराज सिंह (भारतीय एथलेटिक टीम के कोच ) भी नजर आये हैं. उनका रोल बेहद नैसर्गिक रह है , असल में कोच होने की भूमिका को फिल्म में भी बेहतर तरीके से उतारा है. फिल्म के अन्य कलाकारों में मिल्खा के फ़ौज में ट्रेनर (प्रकाश राज) सख्त और खडूस के रोले में खूब फवें हैं .
स्टेला (रेबेका शीड्स, ऑस्ट्रेलिया टेक्निकल कोच की पोती ) भी फिल्म में ग्लैमरस लगी हैं. हालांकि नशे में डूबने के बाद ‘वन नाईट स्टैंड’ के दृश्य के बाद मिल्खा को खुद को थप्पड़ मारने वाला सीन कुछ देर के लिए सोचने पर मजबूर करता है. असल में द्रश्य शायद उनके भटकाव को सही करने का जरिया दिखाया गया है. इसके बाद मिल्खा का सारा ध्यान स्पोर्ट्स पर फोकस हो जाता है. ये दिखाता है कि उन्हें बहुत पछतावा है. भारतीय तैराक दिखाई गयी पेरिजियाद (पाकिस्तानी अभिनेत्री मीशा शफी) भी मिल्खा की तरफ आकर्षित होती हैं लेकिन वह यह कहकर उन्हें दूर कर देते हैं कि- ‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ, पर मेरा ध्यान अब खेल पर है’. यह दृश्य मिल्खा के मन की टीस बयां करता है जो शराब के नशे में स्टेला के साथ हुआ होता है, वह उन्हें कचोटता है. एक सामंती पृष्ठभूमि से आने वाले व्यक्ति का यह दृष्टिकोण फिल्माया जाना व्यवहारिक है.
संवाद –
फिल्म में प्रसून जोशी ने अपनी ख्याति के अनरूप ही काम किया है, शायद यह उनकी पहली फिल्म होगी जिसमें उन्होंने पंजाबी में संवादों को रचा है. फिल्म में फरहान का हाँ की प्रतिक्रिया में कहा जवाब “आहो” जीवंत लगा है. लेकिन इस तरह की फिल्मों की अपनी सीमाएं होती हैं उस लिहाज से इस छूने की भरपूर कोशिश हुयी.
सम्पादन –
फिल्म की एडिटिंग इतनी शार्प है की आपको कहीं भी जर्क नजर नहीं आएगा, एक सीन को दूसरे सीन के साथ इतनी सहजता के साथ जोड़ा गया है, इसे देख आपको बीच-बीच में ‘रंग दे बसंती’ की याद आएगी. इस तरह का प्रयोग उस फिल्म में भी राकेश कर चुके हैं. सीफिया मोड में दर्शाने से दृश्य और जानदार हो गये हैं.
निर्देशन-
राकेश ओमप्रकाश मेहरा की इस फिल्म की ख़ास बात इसका असलीपन है. बिना किसी ड्रामेबाजी के फिल्म की कहानी को यथार्थ के बिल्कुल करीब उतारा गया है. यहाँ दिव्या दत्ता यानि मिल्खा की बहन और उनके जीजा के बीच का एक दृश्य है, जो एक बड़े विमर्श का हिस्सा है. यह हालिया किसी फिल्म में नहीं दिखाई देता. इस दृश्य में मिल्खा का जीजा उसकी दीदी से जबरन बर्बर तरीके से सम्बन्ध बनाता है. यह शादी संस्था के भीतर होने वाले बलात्कार की मार्मिक अभिव्यक्ति है. यहाँ फिल्म एक छोटा सा विषयान्तर कर एक बहुत बड़ा सत्य अपनी पक्षधरता के साथ रचती है. यह हिस्सा बहुत सफल रहा है. 1960 के बाद का फिल्म में न दिखाया जाना अखरता है, कुछ लोगों के लिए टाइम एक फैक्टर हो सकता है.
जैसा कि पहले भी कहा गया है कि फिल्म का कैनवास व्यापक है. मोटे तौर पर फिल्म तमाम आयामों में एक साथ सफल नजर आती है. लेकिन फिर भी कुछ हिस्सों पर अधिक आलोचकीय दृष्टि की ज़रूरत है. जिनकी ओर ऊपर इशारा किया गया है.