भास्कर उप्रेती |
-भास्कर उप्रेती
"...सरकार के रुख को देखकर तो यही लग रहा है कि केंद्र ने जो १००० करोड़ की आपदा राशि राज्य को दी है, वह इसी तरह मंदिर और सम्बंधित निर्माणों में खर्च कर दी जाएगी. साफ है कि सरकार की प्राथमिकता में वे लोग नहीं हैं जो पहले चारधाम आने वाली भीड़ से आक्रांत थे और अब उनके गांवों को जोड़ने वाले पुल बाढ़ में बह गए हैं. इन गांवों में राशन, दवा और गैस का संकट खड़ा हो गया है. गर्भवती महिलाओं को सड़क तक लाने का विकल्प भी नहीं बचा..."
मानसून के पहले ही प्रहार से खंड-खंड हो चुके उत्तराखंड के लोग सरकार की आपदा से निपटने की तैयारियों को लेकर आशंकित हैं. भाजपा चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने केदारनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण की बात क्या कही, कांग्रेस के सुर भी बदल गए.मुख्यमंत्री बहुगुणा ने कहा है कि वे मंदिर के पुनर्निर्माण में सक्षम हैं. आपदा से बचाव के लिए मुख्यमंत्री ने विशाल हवन कराने का भी ऐलान किया है. वहीँ गृह मंत्री शिंदे ने बंद कमरे में शंकराचार्य से भेंट की है. बताया जा रहा है कि यहाँ भी मंदिर और चारधाम यात्रा के बारे में ही बातें हुईं. सरकार के रुख को देखकर तो यही लग रहा है कि केंद्र ने जो १००० करोड़ की आपदा राशि राज्य को दी है, वह इसी तरह मंदिर और सम्बंधित निर्माणों में खर्च कर दी जाएगी. साफ है कि सरकार की प्राथमिकता में वे लोग नहीं हैं जो पहले चारधाम आने वाली भीड़ से आक्रांत थे और अब उनके गांवों को जोड़ने वाले पुल बाढ़ में बह गए हैं. इन गांवों में राशन, दवा और गैस का संकट खड़ा हो गया है. गर्भवती महिलाओं को सड़क तक लाने का विकल्प भी नहीं बचा.
सेनाके प्रयास से कुछ दिन में जीवित श्रधालुओं और मारे गए लोगों को बाहर निकाल लिया जाएगा. और राष्ट्रीय मीडिया के कैमरे किसी और ‘शिकार’ की तलाश में यहाँ से दूसरी ओर घूम जाएंगे. ग्रामीणों को अपने दम पर पुनर्निर्माण के लिए जुटना होगा. यह हालत तब भी थी जब उत्तराखंड यूपी का हिस्सा था. यह हालत राज्य बनने के १३ साल बाद आज भी है. राज्य में हर साल आपदा आती है और हर साल आपदा राशि. कुछ दिन आपदा के ‘रोमांचक विजुअल’ सुर्खियाँ बटोरतेहैं, उसके बाद सन्नाटा पसर जाता है. ठेकेदारों, भ्रष्ट अफसरों और नेताओं की फ़ौज आपदा राशि को ठिकाने लगाने में जुट जाती है. क्योंकि निर्माण इस तरह होते हैं कि वे बचें ही नहीं और अगली आपदा उनको बहाकर साथ ले जाये, सो कोई नहीं पूछ सकता ये सड़क, येगूल, कल्मट और पुल बह कैसे गये. दैवीय आपदा, ‘दैवीय’ होती है, उसपर भला कोई कैसे सवाल उठा सकता है!
यह साबित तो हो चुका ही है कि इस आपदा से हुए में नुकसान में ‘मानवीय हस्तक्षेप’ का बड़ा हाथ है. नुकसान के जो दृश्य सामने आये हैं, वे बताते हैं कि नदियों के करीब के कस्बे ही सबसे पहला शिकार बने. इन कस्बों में बाबाओं के मठ-आश्रम, नेताओं-ठेकदारों के होटल और यात्रिओं की जेब पर डाका डालने के लिए सजाई बद्री-केदार और उत्तरकाशी से लेकर यमुनोत्री-गंगोत्री तक यहआम नज़ारा है. इन्हीं के ट्रक और अवैध जेसीबी रेता-बजरी निकालती हैं. गत दो वर्षों में भटवारी से उत्तरकाशी तक नदी ने ऐसे निर्माणों पर जबरदस्त प्रहार किये हैं. उधरबार १०० साल बाद श्रीनगर में हुई तबाही ने भी कुछ संकेत दिए हैं. रेड्डी बन्धुवों की कम्पनी यहाँ करीब ३०० मेगावाट की विद्युत् परियोजना लगा रही है. नगर के ठीक ऊपर विशाल झील बनायीं गयी है. १४-१५ जून को हुई भारी बारिश के कारण अलकनंदा अपने साथ भारी मात्रा में पानी ले आई. झील पहले से भरी हुई थी, औरअब दोगुना पानी बाहर निकलने लगा. इससे श्रीनगर में पानी २०-२५ मीटर ऊपर तक आ गया. जबकियहाँ नदी के पास पहले से ही विशाल तट मौजूद थे. पता नहीं ‘धारी देवी मंदिर’ अपलिफ्ट करने और‘केदारनाथ’ मंदिर के बच जाने के रहस्य में विश्वास करने वाले लोग स्वस्थ बहस के लिए तैयार होंगे कि नहीं.संवेदनशील पहाड़ोंऔर विस्मित कर देने वाली अलकनंदा से छेड़छाड़ न करने की चेतावनी स्थानीय लोग बार-बार देते रहे हैं. बद्रीनाथ मंदिर की जड़ में परियोजना न लगाने की मांग को लेकर धरना दे रही सुशीला भंडारी को मौजूदा कांग्रेस और पिछली भाजपा सरकार दोनों ने हवालात में डाला. अबये पार्टियाँ जोखिमपूर्ण परियोजनाओं की समीक्षा की बात किसकिस मुंह से कर रही हैं ?
तमामशोध, अनुभवों और सबकों के बावजूद दरअसलनीति-नियंताओं को यह समझाना बेहद दुष्कर है कि नदियाँ हमें पहले से जो दे रही हैं, उसका मूल्य अपरिमित है. उससे अधिक दोहन करने से नदी रूठ जाएगी. केवल उत्तराखंड से निकलने वाली गंगा और यमुना बंगाल तक की करीब ७० करोड़ आबादी के लिए पानी, सिंचाई और उर्वर मिट्टी का प्रबंध करती हैं. इस प्राकृतिक तंत्र से छेड़छाड़ का परिणाम क्या हुआ है ? राज्य में निर्माणाधीन २५० से अधिक छोटी-बड़ी परियोजनाओं से लाखों लोग विस्थापित हुए हैं. खेती के साथ रोजगार पर हमला हुआ है और लोगों के अपनी इच्छा से निवास करने की आज़ादी का हनन हुआ है. टिहरी शहर को डुबो देने वाली परियोजना को कई लोग जीता-जागता एटम बम बता रहे हैं.
प्रबलआशंका है कि सरकार और राजनीतिक दल अंततः अपना ही उल्लू सीधा करने का करतब करें, लेकिन हिमालय और इससे निकलने वाली नदियों के प्रति संवेदनशील, सजग और आंदोलित संगठनों,नागरिकों, पर्यावरण कार्यकर्ताओं को चाहिए कि इस घटना को बार-बार प्रश्नचिन्ह के रूप में उठायें.जो हुआ है वह आपराधिक श्रेणी का है. यह विकास के मौजूदा मॉडल की विफलता को दर्शाता है. हिमालय के बारे में यह बात अनिवार्य रूप से याद रखने की जरूरत है कि ये दुनिया के सभी पहाड़ों में सबसे कच्चे और नाज़ुक पहाड़ हैं. ये निर्माण की प्रक्रिया से गुजर रहे हैं. मानसून और दूसरी तरह की बारिश इनका अभिन्न हिस्सा है.मानसूनी बादलों की जोरदार टक्कर के बाद ही हिमालय परिपक्व होने की ओर बढ़ पाते हैं.
प्रतिवर्षजून से सितम्बर तक दूर समुद्र से अपनी पीठ पर तनाव लेकर आने वाले बादल इन्हीं पहाड़ों से टकराकर मुक्त होते हैं. इस क्रिया में देश के बड़े हिस्से को बारिश की सौगात मिलती है.नदियों में साल भर के लिए पानी आता है.जिस साल मानसून में अच्छी बारिश नहीं आती, उस साल सूखा आता है. हिमालय के शिखरों का योगदान इस रूप में भी है कि वे पश्चिम से आने वाली बर्फीली हवाओं को रोककर देश को असहनीय शीतलहर से बचाते हैं.
मुकाबलाउन भाग्यवादी लोगों से भी करना होगा, जो रहस्यमयी देवताओं की स्तुति के लिए प्रकृति और पहाड़ को कोसने पर तुल जाते हैं. यह सुनिश्चित किया जाना बेहद जरूरी है कि हिमालय का सही मूल्यांकन और सम्मान हो.पहाड़ के सामान्य जन,हिमालय की करवटपढना जानते हैं. यही वजह है कि तमाम विपदाओं के बीच वेसदियों से आज तक अपना वजूदबनाये हुए हैं. विकास की एकतरफा प्रक्रिया में जब तक उनकी राय नहीं शामिल की जाएगी, विनाश के अलावा कुछ हाथ नहीं लगेगा.
भास्करस्वतंत्र पत्रकार हैं.