"दिल्ली की पाशविक घटना ने सभ्य समाज के सामने एक बड़ा प्रश्नचिन्ह खड़ा कर दिया है | हम सब स्तब्ध हैं , और दुखी भी | इस मुतल्लिक उपजे कुछ विचारों को मैंने जैसे-तैसे कल रात ही कलमबद्ध किया है, और जिन्हें इस उम्मीद के साथ यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ , कि आप सब भी मिलकर इस बहस को किसी सार्थक अंत तक पहुंचाएंगे |.........................
-रामजी तिवारी
फोटो - विजय |
कहा जाता है , कि प्रकृति ने समाज का विभाजन पुरुष और महिला के आधार पर लगभग आधा-आधा किया है | लेकिन इतिहास के लम्बे दौर में पितृसत्ता ने तमाम तरीको से इस विभाजन को इतना गहरा और असंतुलित कर दिया है , कि इसमें पुरुष होने मात्र से आपको बहुत कुछ हासिल हो जाता है , और महिला होने मात्र से आपका बहुत कुछ छीन जाता है | हम पुरुष होने के कारण बहुत कुछ तो जान भी नहीं सकते , जो एक महिला होने के नाते किसी स्त्री को भोगना पड़ता है | इन बड़ी घटनाओं के अलावा , हजारों-लाखों की संख्या में ऐसी अव्यक्त रह गयी घटनाएं प्रतिदिन घटती रहती हैं , जो एक रूटीन की तरह से सह ली जाती हैं , और जिन्हें दर्ज करने के लिए समाज के पास कोई ‘खाता-बही’ होता ही नहीं है | हालाकि गौर से देखने पर ये घटनाएं इतनी छोटी या नगण्य होती नहीं हैं | उनका असर कुल मिलाकर स्त्री जाति पर पड़ता है , और प्रकारांतर से वह अपने को कमजोर और असहाय मानने लगती है | फिर यह ‘मानना’ एक तरह के ‘चेन’ में बदल जाता है , जिससे स्त्रियों का बाहर निकल पाना लगभग असंभव हो जाता है |
लेकिनहम जैसे लोगों के लिए पुरुष होने का भी अपना दुःख है | जब भी ऐसी कोई घटना घटित होती है , परिवार में , मित्र-रिश्तेदारी में और कुल मिलाकर समाज में स्त्रियों से आँख मिलाना कठिन हो जाता है | यह दुःख , उस दुःख से कहीं बड़ा और गहरा होता है , जो पुरुष समाज को कोसने के कारण पैदा होता है | जब आप अपने पड़ोस में , अपने मित्र के यहाँ , अपनी रिश्तेदारी में और अपने समाज में ‘वाच’ किये जाने लगते हैं , तो ऐसा लगता है , कि ईश्वर ने आपको पुरुष बनाकर बहुत बड़ी सजा मुक़र्रर कर दी है | इस पर आप किसी को सफाई भी नहीं दे सकते , क्योंकि आप ही जैसा भाई, पिता , पुत्र या मित्र इस दुनिया में आये दिन ऐसा कारनामा रच देता है , जो पुरुष-जाति पर अविश्वास के अनेकानेक कारण पैदा करता है |
खैर .... | मैं दुनिया को देखने के लिए लालायित रहने वाला इंसान हूँ , और मुझे घूमने से अच्छा काम और दूसरा कुछ नहीं लगता | पिछले बारह-पंद्रह सालों से देश को देखने के लिए प्रतिवर्ष निकलता हूँ , और ‘यात्रा’ से वापसी के बाद अगली की तैयारी में अपने को व्यस्त कर लेता हूँ | लेकिन मुझसे आप दुनिया के सबसे सुन्दर चित्र के बारे में पूछेंगे , तो मैं आपको हिमालय की ऊँचाई , सागर की गहराई , रेगिस्तान की नीरवता या जंगलों की सघनता नहीं बताऊंगा | मेरे लिए तो बच्चों की किलकारी , माँ का दुलार , पिता की उंगली पकड़कर स्कूल जाते हुए बच्चे और बूढ़े लोगों की देखभाल करती संताने ही सबसे अच्छे चित्र के रूप में उभरती हैं | और इस सवाल को दरकिनार करते हुए कि, मैंने किसी से प्रेम किया है या नहीं , मुझे सबसे अच्छा दृश्य वह लगता है , जब एक प्रेमी-युगल एक दूसरे के विश्वास को थामे आगे बढ़ता दिखता है |
इसीतरह दुनिया में मेरे लिए सबसे बुरे दृश्यों की भी सूची है | वह किसी प्रियजन की मृत्यु से अधिक भयावह और दुखद है, जो मुझे आदमी होने पर शर्मसार करती है, मुझे भीतर तक कचोटती है और छीलती है | किसी के सामने अपनी जरूरतों के लिए हाथ फैलाए हुए लोग, काम पर जाते हुए बच्चे, असहाय छोड़ दिए गए बूढ़े, अपनी अस्मिता को बेचती औरत, दहेज के लिए जलाई जाने वाली और कोख में ही मार दी जाने वाली अजन्मी बेटियों का दृश्य मेरे लिए इस दुनिया में बहुत ख़राब दृश्य है | लेकिन सबसे भयावह और बुरा दृश्य मेरे लिए बलात्कार-पीड़ित स्त्री का है , जो सिर्फ शरीर के स्तर तक सीमित नहीं रहता, वरन दिलो-दिमाग से होता हुआ समूची स्त्री जाति की चेतना और अस्तित्व को भी बींध देता है |
दिल्लीकी यह घटना इसलिए और भी सालने वाली है, क्योंकि इसमें दुनिया के सबसे सुन्दर चित्र को सबसे घृणित और गंदे दृश्य में बदल दिया गया है | अपनी मित्र के हाथों को थामकर चलता हुआ युवक, जिन्दगी के सबसे हसीन लम्हों को जी रहा होता है, और उसी तरह अपने दोस्त के काँधे से सिर टिकाये चलती हुयी युवती के लिए भी, दुनिया में इससे हसीन पल, कोई और नहीं हो सकता | ऐसे में कोई उन्हें हैवानियत के जंगल में ले जाकर नोच डाले, यह सोचकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं | दुनिया के सबसे हसीन सपने का ऐसे बदतरीन तरीके से टूटना, दिल में हूक पैदा करता है | भीतर से क्रोध और घृणा की एक लहर सी उठती है, जो बार-बार हमें भी उसी वहशियाना तरीके की तरफ जाने को उकसाती है, जैसा कि उस अपराध की तासीर है | फिर इसका समाधान क्या है ?
यहठीक है, कि सख्त कानूनों की अपनी एक भूमिका होती है | मसलन गुवाहाटी की घटना के बाद देखने में यह आया कि मुजरिमों को अधिकतम तीन साल की ही सजा सुनायी गयी, और ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि क़ानून में यही अधिकतम सजा निर्धारित ही थी | भारतीय क़ानून में बलात्कार के लिए सात साल की सजा का प्रावधान है | जिस घटना के जख्म जीवन भर रिसते रहें , उसकी सजा सात सालों में कैसे बाँधी जा सकती है ? फिर हमारे देश में न्याय की प्रक्रिया इतनी लचर और बेजान है, जिसमें से बचकर निकल जाने के अनगिनत रास्ते फूटते हैं | उस पर यदि आरोपित रसूखदार हुआ, तब तो उसके बचकर निकल जाने के रास्ते-ही-रास्ते हैं | इन जघन्य अपराधियों के लिए न तो कोई फास्ट-ट्रैक कोर्ट हैं, और न ही समय बद्द न्याय प्रक्रिया | फिर राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी और नेतृत्व की अक्षमता/उदासीनता का मुद्दा तो है ही | इसका सबसे बड़ा प्रमाण कल उस समय देखने को मिला, जब संसद में इस मुद्दे पर बहस चल रही थी, और उसकी दो तिहाई कुर्सियां खाली पड़ी हुयी थी | उस पर चढ़ा हुआ बड़ा सवाल यह भी है, कि यही राजनीतिक वर्ग अपने हितों के लिए ऐसे अपराधियों को संरक्षण देता है, बचाता है | बचा प्रशासनिक अमला, तो वह झुकने के आदेश के सामने लेट जाने के लिए कुख्यात ही है | सो भारतीय परिप्रेक्ष्य में वह कोई क्रांतिकारी समाधान ढूंढ पाए, असंभव ही लगता है |
अबसमाज की बारी आती है , जो भारत में न सिर्फ संवेदनशून्य होता चला गया है , वरन उसके सामूहिक प्रतिरोध की क्षमता भी धीरे-धीरे कुंद होती चली गयी है | गलत और अनैतिक तरीके से भी समाज में आगे बढ़ने वाले लोगों के लिए, आज कोई विरोध नहीं है , वरन इसके विपरीत लोग उनकी चकाचौंध और ऐश्वर्य को देखकर लार टपकाते फिर रहे हैं | संवेदनशीलता , नैतिकता और सामूहिक प्रतिरोध से रहित समाज में आप ऐसी घटनाओं के बाद नारे तो गढ़ सकते हैं , लेकिन किसी सार्थक समाधान तक नहीं पहुँच सकते | जो लोग इस समय ‘न्याय के तालिबानी सिद्धांतों ’ की वकालत कर रहे हैं , वे शायद यह नहीं जानते कि इन सिद्धांतों की सबसे बड़ी मार स्त्री पर ही पड़ती है , और अंततः वही उसकी सबसे आसान शिकार भी होती है |
चूकिसमस्या भी बहुस्तरीय है , और अपराध की प्रकृति भी सामान्य नहीं है , इसलिए इसका समाधान भी विशेष तरीके से और उसी बहुस्तरीय तरीके को अपनाकर ही ढूँढा जा सकता है | कानून का सख्त होना बहुत आवश्यक है | लेकिन उससे भी जरुरी है न्याय का समय बद्द होना और उसका दिखाई देना | हमारे जैसे लोकतंत्र में प्रशासनिक संवेदनशीलता और राजनीतिक इच्छा शक्ति के बिना इसे सम्पादित ही नहीं किया जा सकता , सो वह भी अपरिहार्य ही है | और इन सबसे बढ़कर सामाजिक भागीदारी वाला मसला तो है ही , जिसके बिना लोकतंत्र में कुछ भी हासिल नहीं किया जा सकता | बच्चों की नैतिक शिक्षा घर से ही आरम्भ होती है , और स्कूल से होते हुए वह समाज तक पहुँचती है | हम अपने बच्चों को डाक्टर, इंजीनियर और ‘क्या-क्या’ तो बनाना चाहते हैं , लेकिन ‘इंसान’ बनाना रह जाता है | यदि हम अपने समाज के इन दागों को जड़ से मिटाना चाहते हैं , तो यह अवसर हम सबके लिए उस संकल्प को लेने का है , जिसमें हम अपनी जिम्मेदारियों को निभाने का वादा स्वयं से करते हैं , अन्यथा यह गंभीर मसला भी इस देश में अन्य गंभीर मसलों की तरह ही शोर और नारों में दबकर मर जाएगा |
इसवीभत्सकारी घटना की निंदा करते हुए हम शर्मिंदा हैं , दुखी हैं और आहत है | इसलिए यही, वह सही वक्त है , जब हम इस पर न सिर्फ बात कर सकते हैं , वरन उसे अमली जामा भी पहना सकते हैं , अन्यथा ‘बाद में’ छोड़ने पर तो बहुत देर हो जायेगी |