रोहित जोशी |
-रोहित जोशी
"...यात्रादल द्वारा रखा गया यह विकल्प असल अर्थों में पहाड़, देश और दुनिया के समूचे विकास मॉडल के लिए चुनौती भरा है। इसके केंद्र में मुनाफे के बजाय असल अर्थों में उस जनता का विकास है जिसके विकास की हर जगह दुहाई दी जा रही है। पर दुनिया भर के विकास के मॉडल को चुनौती देते इस विकल्प के सामने खुद कुछ बड़ी चुनौतियां हैं। जिनसे उबरना अभी बाकी है।..."
उत्तराखंडके पहाड़ी भूगोल के इतिहास में रची-बसी दो कहानियां उठाते चलें और फिर एक तीसरी की भी बात करेंगे जो कि अभी लिखी ही जा रही है। पहली मिथकीय है जिसे पूरे देश की एक बड़ी आबादी इतिहास मानती है। दूसरी इतिहास है जिसमें कुछ-कुछ मिथक भी गुथा है और तीसरी कहानी अभी बहुत ताजा है अपने लिखे जाने के ही क्रम में।
भगीरथ ने युद्ध में परास्त अपने पुरखों के शवों के अंतिम संस्कार के लिए हिमालय में तप कर गंगा को पृथ्वी पर आने को विवश कर दिया। मिथक यही है कि गंगा पृथ्वी पर ऐसे ही आई और इसके लिए भगीरथ ने जो कठोर तप किया वह एक मिसाल बन गया और एक मुहावरा भी, ‘भगीरथ जतन’ या ‘भगीरथ प्रयत्न’।
दूसरीकहानी माधौ सिंह की है। देवप्रयाग से तकरीबन 30 किमी दूर बसे गांव मलेथा के माधौसिंह की। सत्रहवीं शताब्दी में गढ़वाल रियासत की सेना का सिपाही और फिर अधिकारी रहा माधौसिंह जब अपने गांव मलेथा लौटा उसकी पत्नी उदीना के पास उसे खिलाने/पिलाने के लिए न अनाज था और न पानी। कुछ देर पत्नी पर झल्लाया माधौ जब इसकी वजह समझा तो उसे रात भर नींद नहीं आई। पानी/सिंचाई के अभाव में गांव के बढि़या और विस्तृत खेतों में कुछ नहीं उगता था सिवाय सूखी घास के। गांव और पास बहती चंद्रभागा नदी के बीच में एक बड़ा पहाड़ था। माधौसिंह ने उसे खोद नहर बनाकर चंद्रभागा का पानी गांव में लाने की ठान ली। गांव वालों को इसके लिए उत्साहित कर उसने वाकई पहाड़ खोद डाला। और 5 फीट चैड़ी और 5 फीट गहरी सुरंग बना डाली। इस कहानी में एक छोटे मिथक का पुट यह भी है कि सुरंग तैयार हो जाने के बाद भी चंद्रभागा सुरंग में उतरने को तैयार नहीं हुई। रात में माधौसिंह के सपने में चंद्रभागा आई और उसने उसके इकलौते बेटे की बलि दिए जाने की शर्त पर ही सुरंग में उतरना स्वीकारा। कहते हैं कि माधौसिंह ने गांव के लिए अपने इकलौते बेटे गजै सिंह को कुर्बान कर दिया। संभवतः हुआ यह हो कि सुरंग बनाने के कठोर जतन के बीच युवा गजैसिंह ने दम तोड़ दिया हो और अत्यंत धार्मिक समाज की किंवदंतियों में यह कहानी चंद्रभागा को दी गई बलि के तौर पर प्रचार पाई हो। बहरहाल माधौसिंह के जीवट फैसले और ग्रामीणों के भगीरथ प्रयत्न से चंद्रभागा सुरंग में उतरी और मलेठा के खेतों और ग्रामीणों को यह सुरंग आज भी सिंचित कर रही है।
खैर!माधौसिंह की सुरंग वाले मलेथा गांव के पास से ही श्रीनगर से घनशाली/फलिंडा की तरफ बढ़ती एक सर्पीली सड़क में लाउड-स्पीकर लगी एक गाड़ी (बुलैरो) धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है। यह, जीवट निर्णय लेने की हमारी उपरोक्त दो कहानियों के बाद तीसरी कहानी का ‘एक अध्याय’ है। यह मिथक और इतिहास की उपरोक्त दो घटनाओं के बाद वर्तमान की कहानी है, जो अभी अपने लिखे जाने के ही क्रम में है। गाड़ी में लाउडस्पीकर से भूपेन हजारिका का गीत ‘‘गंगा बहती हो क्यों’’, गूंज-गूंज कर इनारे-किनारे सुबकती ‘गंगाओं’ से पूछ रहा है कि-
इतिहास की पुकार/करे हुंकारओ गंगा की धार/निर्बल जन कोसबल संग्रामी/समग्रोग्रामीबनाती नहीं हो क्यों?
इसगाड़ी के चालक लक्ष्मण सिंह पिछले सात दिनों में इसे अल्मोड़ा के जागेश्वर से कुमांऊ और गढ़वाल के प्रतिनिधि शहरों/कस्बों में घुमा लाए हैं। गाड़ी में विभिन्न जनसंगठनों के जो लोग सवार हैं ये उत्तराखंड को लेकर चिंतित हैं, हिमालय/पहाड़ को लेकर चिंतित हैं और यहां बसे लोगों को लेकर चिंतित हैं।
उपरोक्त दो कहानियों के बाद अब जो ये तीसरी कहानी है इसका प्रण भगीरथ के गंगा को पृथ्वी उतार लाने और माधौसिंह के सुरंग खोदकर चंद्रभागा से नहर निकाल लाने की तरह ही जटिल है। या कहें कि ज्यादा जटिल है। दुनिया भर में मुनाफे की होड़ में मानव और प्राकृतिक संसाधनों की लूट का जो विशाल पहाड़ खड़ा है अबके सुरंग इसे ही खोद कर बनानी है और उम्मीद की गंगा को वहीं बहाना है।
इधरदुनियाभर में विकास का जो मॉडल हमने चुना है इसकी ऊर्जा की हवस अंतहीन है। पृथ्वी के सारे प्राकृतिक संसाधन मिलकर भी इस हवस को नहीं मिटा सकते। भारत की ऊर्जा की मांग पिछले दो दशक में 350 गुना बढ़ी है और यह लगातार बढ़ती जा रही है। आने वाले समय में पूरे हिमालय को डुबो कर भी इस मांग की भरपाई कर पाना संभव नहीं है। बारहवीं पंचवर्षीय योजना 2012-17 के दौरान भारत ने अपनी ऊर्जा क्षमताओं में 1 लाख मेगावाट का इजाफा करने का लक्ष्य रखा है। अगर इस लक्ष्य को पाना होगा तो उत्तराखंड में प्रस्तावित सभी 558 परियोजनाओं और अन्य हिमालयी राज्यों की प्रस्तावित परियोजनाओं को भारतीय राज्य को बनाना ही होगा। उत्तराखंड समेत पूरे देशभर में गांवों से लोगों को शहरों की तरफ खदेडने की जो नीतियां सरकार ने अपनाई हुई हैं, इन्हें यूं ही तो नहीं स्वीकारा जा सकता। ऐसे में इस अस्थाई विकास के नाम पर अंतहीन ऊर्जा की हवस के लिए सिर्फ 30-35 साल तक ही चलने वाली एक परियोजना के लिए कितने टिहरी और डुबोए जाएंगे और जनता के हक में यह कितना वाजिब होगा यह सवाल चिंतनीय है।
इसी चिंतन से आंदोलित यह यात्रादल कुछ नए विकल्पों के साथ लोगों के पास पहुंचा था। इन विकल्पों में सबसे बड़ा नारा जो यात्रा के पर्चे में भी प्रमुखता से था कि ‘पानी हमारा है, बिजली भी हम बनाएंगे’। राष्ट्र की ऊर्जा जरूरतों की दुहाई देकर जनता/गांव/शहरों को डुबोने वाली सरकार के बरक्स यह यात्रा एक जनपक्षीय विकल्प सामने रख रही है। जिसमें प्रोड्यूसर्स कंपनी एक्ट 2002 के तहत ग्रामीणों की एक प्राड्यूसर्स कंपनी बनाकर 1 मेगावाट की एक परियोजना बनाई जाएगी। इस कंपनी के तकरीबन 100-200 सदस्य होंगे जिनके पास कंपनी का एक-एक शेयर होगा। यह शेयर वे किसी को बेच भी नहीं सकेंगे। वे इस शेयर के स्थाई मालिक रहेंगे। स्थानीय ‘घराट’(पनचक्की) की तकनीक का ही कुछ बड़ा स्वरूप बनाकर इसमें टरबाइन जोड़कर विद्युत प्राप्त की जा सकेगी। ऐसी दो कंपनियां एक कुमाऊं के पनार क्षेत्र की सरयू नदी पर और दूसरी गढ़वाल क्षेत्र के छतियारा में बालगंगा नदी पर परियोजना बनाने के लिए क्रमशः सरयू हाईड्रो इलैक्ट्राॅनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड और संगमन हाईड्रो इलेक्ट्रोनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड नाम से रजिस्टर कर दी गई हैं। अब ग्रामीण ही कंपनी के मालिक हैं और कंपनी के मुनाफे में उनका ही हक होगा।
इसपरियोजना के लिए बनाए गए बजट के अनुसार 1 मेगावाट की विद्युत इकाई से यदि र्सिफ 800 किलोवाट विद्युत का उत्पादन भी होता है तो र्वतमान बिजली के रेट 3.90 रूपया प्रति यूनिट के हिसाब से एक घण्टे में 3120.00 रूपये, 24 घण्टे में 74,880.00 रूपये और एक माह में 22,46,400.00 रूपये की इन्कम होगी। इसी तरह यह आंकडा, सालाना 2,69,56,800.00 रूपये हो जाएगा। ढाई करोड़ से ऊपर की इस सालाना कमाई से इन गांवों की आर्थिकी सुदृढ़ हो सकती है। ये गांव स्वावलम्बी बन सकते हैं। बजट के अनुसार लोन की 4 लाख प्रतिमाह की किस्तों को भरने के अलावा, परियोजना के 10 से 15 लोगों के स्टाफ की 3.25 लाख प्रति माह तन्ख्वाह, मेंटेनेंस के 2.50 लाख के साथ ही 200 शेयर धारकों को 5000 से 8000 रूपया प्रतिमाह शुद्ध लाभ भी होगा। एक बार हाइड्रो पावर परियोजनाओं का र्निमाण र्काय पूरा हो जाय तो उसके बाद इसर्से ऊजा प्राप्त कर लेना बेहद सस्ता होता है। नदियों में बहता पानी इसके लिए सहज प्राप्य कच्चा माल होता है।
यात्रादलद्वारा रखा गया यह विकल्प असल अर्थों में पहाड़, देश और दुनिया के समूचे विकास मॉडल के लिए चुनौती भरा है। इसके केंद्र में मुनाफे के बजाय असल अर्थों में उस जनता का विकास है जिसके विकास की हर जगह दुहाई दी जा रही है। पर दुनिया भर के विकास के मॉडल को चुनौती देते इस विकल्प के सामने खुद कुछ बड़ी चुनौतियां हैं। जिनसे उबरना अभी बाकी है। इस यात्रा के बाद मैं, टिस में माईक्रो हाईडिल के समाजशास्त्र पर अध्ययन कर रहे मेरे मित्र अंकुर, सरयू हाईड्रो इलेक्ट्रोनिक्स पावर प्रोड्यूसरर्स लिमिटेड के युवा अध्यक्ष राम सिंह और अन्य सदस्यों के साथ प्रस्तावित परियोजना वाले गांव रस्यूना भी गया। सिर्फ महिलाओं, बुजुर्गों और बच्चों वाले इस गांव में मुश्किल से दो युवकों से मुलाकात हुई। बाकी सारे युवक रूद्रपुर, देहरादून, दिल्ली आदि शहरों में नौकरी करते हैं। वहीं से वे जो कुछ खर्चा भेजते हैं वही इस गांव को जिलाए हुए है। सामने बहती नदी है। बस यूं ही बह कर चली जाती है। खेत हैं जिनमें कुछ अनाज उगता है। जो साल भर के खुद के लिए ही नहीं हो पाता। पेड़ों में आम और अन्य भतेरे फल लगते हैं। कुछ गांव वाले खाते हैं ज्यादा बरबाद चले जाते हैं। क्योंकि सात किमी पैदल और फिर गाड़ी से शहरों में बेचने जाने का ढुलान ही इतना पड़ता है कि उतना तो फलों को बेचकर मुनाफा भी नहीं हो पाता।
फलिंडा गाँव में सभा को संबोधित करते डॉ. शमशेर सिंह बिष्ट |
यहीं मैं एक घर के सामने बैठ इस परियोजना के एक सदस्य ग्रामीण से बात कर रहा था। उसे उम्मींद थी कि ये परियोजना जरूर इस गांव का नक्शा बदल देगी। लेकिन उसे एक खतरा सता रहा था। उसने मुझे कहा ‘‘इस परियोजना की लागत 4 करोड़ रूपया है। हम गरीब गांव वाले बैंकों से 10-20 हजार का कर्जा लेने से भी डरते हैं। इस परियोजना के लिए 4 करोड़ का कर्जा हम कैसे जुटाएंगे?‘‘ इस परियोजना का यही यक्ष प्रश्न है। इससे गांव वालों से ज्यादा उन आंदोलनकारियों को निपटना है जो चाहते हैं कि सरयू और बालगंगा नदी पर ये परियोजनाएं समूचे हिमालय के लिए मिशाल बनें। और पूरे हिमालय में जनता की मिल्कियत वाली ऐसी ही छोटी-छोटी कई परियोजनाएं बनें। जब्कि सरकारों का बड़ी परियोजनाओं के प्रति प्रेम बार-बार जाहिर होता जा रहा है। पिछले साल इस ही परियोजना के लिए सर्वे करने आए आजादी बचाओ आंदोलन और उत्तराखंड लोक वाहिनी के दो कार्यकर्ताओं को पुलिस माओवादी बता कर उठा कर 16 घंटों के लिए अंदर कर चुकी है। यूं तो सीधे सादे ग्रामीणों में दहशत फैलाने का यह बेहतरीन तरीका है। लेकिन ग्रामीण अब तक भी टूटे नहीं हैं। उनकी आंखों में परियोजना पूरी होने और बेहतर कल का सपना है। रस्यूना के ठीक सामने सरयू नदी के उस पार एक विशाल पहाड़ है। जैसा कि अभी 'पहाड़' के सामने भी हैं। लेकिन इस पहाड़ में चढ़ती छोटी-छोटी पगडंडियां हैं। ‘चुनौतियों के पहाड़’ से पार पा जाने की उम्मीदों से भरी पगडंडियां। माधौ सिंह की सुरंग जैसी पगडंडियां।