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पीयूष पन्त |
-पीयूष पन्त
"...इस नाउम्मीदी के बावजूद ११ मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव को 'ऐतिहासिक' बताया जा रहा है। ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्यूंकि पाकिस्तान के ६५ साल के राजनीतिक सफ़र में यह पहली बार हो रहा है कि लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा कर पायी और उसका स्थान लोकतान्त्रिक तरीके से ही चुनी जाने वाली दूसरी सरकार लेने जा रही है. इसके पहले पाकिस्तान में चुनी गयी सरकारों को सैन्य तख्ता पलट का शिकार होते रहना पड़ा है।..."

बहरहाल ११ मई केआम चुनाव के टलने संबंधी कयासों पर सेना अध्यक्ष अशफाक परवेज़ कयानी के इसबयान के बाद विराम लग गया कि पाकिस्तान में चुनाव तय तारीख़ को हीहोंगे क्योंकि देश में वास्तविक लोकतांत्रिक मूल्यों के दौर को आरम्भ करनेका यह सुनहरा मौक़ा है। कयानी ने देश में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव करानेकी सेना की प्रतिबद्धता की बात भी कही। यह आम जानकारी है कि पाकिस्तान में जो कुछ भी घटित होता है वो सेना के इशारे पर ही होता है।
फिलहालतो राजनीतिक दलों और उनके नेताओं द्वारा आरोप-प्रत्यारोप का सिलसिला जारी है। चूंकि चुनावी सर्वेक्षणों में नवाज शरीफ की पार्टी को बढ़त मिलते दिखाया जा रहा है इसलिए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान तहरीके इन्साफ दोनों ने ही नवाज़ शरीफ पर आक्रमण तेज कर दिए हैं। शरीफ के प्रभाव क्षेत्र लाहौर में ६ मई को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान पीपीपी के नेता और आतंरिक मसलों के पूर्व मंत्री रहमान मलिक ने शरीफ बंधुओं पर देश का पैसा विदेशी खातों में जमा कराने के आरोप लगाए और कहा कि उनके पास इस बात के दस्तावेज़ी सबूत हैं।
उधरलाहौर ही में एक आम सभा को संबोधित करते हुए पीटीआई अध्यक्ष इमरान खान ने कहा कि देश का अरबों रूपिया शरीफ परिवार को सुरक्षा मुहय्या कराने में ही खर्च कर दिया गया जबकि लाहौर के पूर्व मुख्यमंत्री शाहबाज़ शरीफ अपने शासन के पांच साल के दौरान केवल सत्ता का सुख भोगते रहे और अपने प्रिय नौकरशाहों को सुरक्षा प्रदान करते रहे।लिहाजा प्रांत के लोगों के हालात बाद से बदतर हो गए। इमरान खान ने कहा कि हज़ारों लोग मारे जाते रहे और न जाने कितने अगवा कर लिए गए लेकिन पंजाब पुलिस के अधिकारी शरीफ के परिवार की सुरक्षा पर ही बने रहे. पलटवार करते हुए इस्लामाबाद की एक सभा में नवाज़ शरीफ ने इमरान खान की खिंचाई करते हुए कह डाला-" देश जल्दी ही बदलाव नहीं देखेगा बल्कि क्रांति देखेगा।" इन सब लफ्फाजियों को दर किनार करते हुए कनाडा निवासी इस्लामी विद्वान तथा पाकिस्तानी धार्मिक नेता ताहिरुल क़ादरी ने ब्रिटेन के बिर्मिंघम शहर में विदेश में बसे पाकिस्तानियों की एक बड़ी सभा को संबोधित करते हुए तो कह डाला कि ११ मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव कोई बदलाव नहीं लायेंगे, यहाँ तक कि व्यवस्था चलाने वाले चेहरे भी वही रहेंगे। उन्होंने कहा की चुनाव से कोई नयी चीज़ उभर कर आने की उन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही है।
इसनाउम्मीदी के बावजूद ११मई को पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव को 'ऐतिहासिक' बताया जा रहा है।ऐसा इसलिए कहा जा रहा है क्यूंकि पाकिस्तान के ६५ साल के राजनीतिक सफ़र मेंयह पहली बार हो रहा है कि लोकतान्त्रिक तरीके से चुनी गयी सरकार अपना पांचसाल का कार्यकाल पूरा कर पायी और उसका स्थान लोकतान्त्रिक तरीके से ही चुनीजाने वाली दूसरी सरकार लेने जा रही है. इसके पहले पाकिस्तान में चुनी गयीसरकारों को सैन्य तख्ता पलट का शिकार होते रहना पड़ा है। सच कहा जाय तोपाकिस्तान को हमेशा ही सैन्य शासन के अलावा सेना अध्यक्षों, न्यायधीशों और अफसरशाही के प्रभाव के साये में जीने को अभिशप्त रहना पड़ा है। अयूब खानसे लेकर जिया उल हक जैसे सैन्य शासकों ने पकिस्तान में लोकतंत्र का गलाघोंटने में कसर नहीं छोडी। जिया उल हक ने तो बकायदा लोकतंत्र को सीमित करनेवाले ढांचे खड़े किये और संविधान तथा कानून व्यवस्था में इस तरह के बदलावकर डाले जिनसे पार पाना आज तक संभव नहीं हो पाया है। पाकिस्तान के नेता यहकहते नहीं थकते कि पिछले कई सालों से पाकिस्तान में जो साम्प्रदायिक एवंजातीय हिंसा तथा धार्मिक अतिवाद पनपा है वो जिया द्वारा कानूनों के साथकिये गए शरारत पूर्ण खिलवाड़ के ही नतीजे हैं। ऐसे में पाकिस्तान पीपुल्सपार्टी की सरकार द्वारा पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा कर पाना निश्चितरूप में लोकतंत्र की विजय गाथा के रूप में देखा जाना चहिये। और ११ मई केआम चुनाव को इस गाथा का अगला अध्याय।
निसंदेहपाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की गठबंधन सरकार ने पांच साल केशासन के दौरान कुछ ऐसे क़दम अवश्य उठाये जो पाकिस्तान में लोकतान्त्रिकसंस्थाओं की मजबूती की दिशा में मील का पत्थर कहे जा सकते हैं। इसमें उसेविपक्ष का भी पूरा सहयोग मिला। दरअसल यह अकेले ज़रदारी सरकार की उपलब्धि नमानकर पूरी विधायिका की ही उपलब्धि मानी जायेगी। पाकिस्तान के सांसदों ने नकेवल १९७३ के संविधान के संसदीय चरित्र को पुनर्स्थापित करने का काम कियाबल्कि १८ वें संविधान संशोधन से शुरू कर अनेक ऐसे संशोधनों को अंजाम दियाजिसके चलते पंजाबी वर्चस्व के स्थान पर संघीय ढांचे को मजबूती मिली, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता में इजाफा हुआ, एक शक्तिशाली चुनाव आयोग कीस्थापना हुयी और लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव करने की प्रक्रिया की शुरुवातहुयी, एक ऐसी प्रक्रिया जिसके तहत चुनाव अभियान के दौरान एक अंतरिमप्रधानमंत्री को नियुकत करने का प्रावधान रखा गया। संविधान की अवमानना कोद्रोह माना गया। राष्ट्रपति के अधिकारों में कटौती कर उन्हें प्रधानमंत्रीको हस्तांतरित किया गया। प्रान्तों को ताक़तवर बनाने की दिशा में भी अनेकक़दम उठाये गए और साथ ही महिलाओं के सशक्तीकरण के प्रावधान भी किये गए। लेकिन इन कदमों का फायदा पकिस्तान की जनता को नहीं मिल पाया। और मिलता भीकैसे क्योंकि यह एक चाल थी सभी राजनीतिक दलों की सेना के वर्चस्व औरहस्तक्षेप को कम करने की दिशा में। पहले होता ये था कि राजनीतिक दलों केनेता एक दूसरे की काट के लिए सेना का सहारा लेते थे लेकिन अब उन्हें महसूसहो चुका है कि ऐसा करना आत्मघाती होता है।
निसंदेहपाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की गठबंधन सरकार ने पांच साल केशासन के दौरान कुछ ऐसे क़दम अवश्य उठाये जो पाकिस्तान में लोकतान्त्रिकसंस्थाओं की मजबूती की दिशा में मील का पत्थर कहे जा सकते हैं। इसमें उसेविपक्ष का भी पूरा सहयोग मिला। दरअसल यह अकेले ज़रदारी सरकार की उपलब्धि नमानकर पूरी विधायिका की ही उपलब्धि मानी जायेगी। पाकिस्तान के सांसदों ने नकेवल १९७३ के संविधान के संसदीय चरित्र को पुनर्स्थापित करने का काम कियाबल्कि १८ वें संविधान संशोधन से शुरू कर अनेक ऐसे संशोधनों को अंजाम दियाजिसके चलते पंजाबी वर्चस्व के स्थान पर संघीय ढांचे को मजबूती मिली, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता में इजाफा हुआ, एक शक्तिशाली चुनाव आयोग कीस्थापना हुयी और लोकतान्त्रिक तरीके से चुनाव करने की प्रक्रिया की शुरुवातहुयी, एक ऐसी प्रक्रिया जिसके तहत चुनाव अभियान के दौरान एक अंतरिमप्रधानमंत्री को नियुकत करने का प्रावधान रखा गया। संविधान की अवमानना कोद्रोह माना गया। राष्ट्रपति के अधिकारों में कटौती कर उन्हें प्रधानमंत्रीको हस्तांतरित किया गया। प्रान्तों को ताक़तवर बनाने की दिशा में भी अनेकक़दम उठाये गए और साथ ही महिलाओं के सशक्तीकरण के प्रावधान भी किये गए। लेकिन इन कदमों का फायदा पकिस्तान की जनता को नहीं मिल पाया। और मिलता भीकैसे क्योंकि यह एक चाल थी सभी राजनीतिक दलों की सेना के वर्चस्व औरहस्तक्षेप को कम करने की दिशा में। पहले होता ये था कि राजनीतिक दलों केनेता एक दूसरे की काट के लिए सेना का सहारा लेते थे लेकिन अब उन्हें महसूसहो चुका है कि ऐसा करना आत्मघाती होता है।
लोकतंत्रकी सफलता का आभास इसलिए भी होता रहा कि ज़रदारी सरकार पर भ्रष्टाचार केगंभीर आरोप लगने के बावजूद विपक्ष के नेता नवाज़ शरीफ चुप्पी साधे रहे और 'दोस्ताना विपक्ष' की भूमिका में बने रहे। एक अन्य प्रभावी कारण था सरकारद्वारा राष्ट्रीय बजट का एक बड़ा हिस्सा सेना को आबंटित करना और अफ़ग़ानिस्तानव परमाणु कार्यक्रम संबंधी नीतियों में सेना को वर्चस्व प्रदान करना।इसके अलावा ज़रदारी सरकार ने सैन्य अधिकारीयों को अपने धन्धे करने की छूट देरखी थी। खासकर भवन निर्माण के क्षेत्र में सैन्य आधारित धंधे मुनाफा कमानेके ज़रिये हैं, ऐसे में सेना नागरिक सरकारों को सत्ता से बेदखल करने कासंकट क्यों लेगी।
शायदयही कारण है कि पाकिस्तान की अवाम का लोकतंत्र से कभी प्यार और कभी घृणा कारिश्ता रहा है। इस्लामिक दुनिया में पाकिस्तान अकेला ऐसा देश है जहाँतानाशाह कभी भी सत्ता में दस साल से ज्यादा नहीं टिक पाए हैं। नागरिक शासनके अनेक दौर आये हैं,यहाँ तक कि अवाम को संतुष्ट करने के लिए तानाशाहों तकको आंशिक रूप में परिपक्व लोकतान्त्रिक ढांचों को लेकर आना पड़ा है। फिर भीतानाशाही की तरह ही लोकतंत्र भी आम पाकिस्तानी को राहत नहीं पहुंचा पायाहै। हर चुनाव में मतदाताओं का प्रतिशत गिरता ही जा रहा है और युवा पीढी तोचुनावी प्रक्रिया से विरक्त सी ही दिखाई देती है। लेकिन इस बार युवा पीढी, खासकर शहरी, इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-इ-इंसाफ की ओर आकर्षित होतीदिखाई दे रही है। यह आकर्षण कितने फीसदी वोट में तब्दील हो पायेगा यह मतदानवाले दिन ही साफ़ हो पायेगा। फिलहाल तो इमरान खान की सभाओं में भारी भीड़ जुट रही है जिसमें युवाओं की संख्या बहुतायत में रहती है।
यह दुर्भाग्यपूर्ण है किपाकिस्तान को विरासत में एक ऐसी राजनीतिक संस्कृति मिली है जिसके तहतसामंत,अमीर, उद्योगपती और संसाधन पूर्ण व्यक्ति ही चुनाव लड़ते और जीततेहैं। राजनेताओं ने कभी इस संस्कृति को बदलने का प्रयास भी नहीं कियाक्योंकि यह संस्कृति उनके अपने हित में ही है। जैसा कि कीथ कैलार्ड ने अपनीपुस्तक 'पाकिस्तान, अ पोलिटिकल स्टडी' में लिखा है-"पाकिस्तान में राजनीतिऐसे अनेक अग्रणी लोगों से ही जानी जाती है जो अपने राजनीतिक आश्रितों केचलते सत्ता हासिल करने और उसे बनाये रखने के लिए लचीले समझौते करते हैं।"वो आगे लिखता है कि पाकिस्तानी राजनेताओं को इस बात का बिलकुल भी डर नहींहोता कि अपनी अनियमितताओं, और सहानुभूति तथा दल बदलने की प्रवृति के लिएउन्हें चुनाव में हार का सामना करना पड़ सकता है। जानकारों का कहना है कि इसतरह की राजनितिक संस्कृति के चलते २०१३ के आम चुनाव में बदले हुए चेहरेदेखने की उम्मीद कम ही रखनी चाहिए बशर्ते कोई बड़ा उलटफेर ना हो जाये।
इसपृष्ठभूमि के बाद आइये आमचुनाव के परिणामों की संभावनाओं का भी जायजा लिया जाये। पकिस्तान मेंबहुदलीय प्रणाली है। पडोसी देश भारत की तरह यहाँ भी छोटे-बड़े इतने अधिकराजनितिक दल है कि उनकी गिनती कर पाना मुश्किल है। छोटे दलों को किसी भीचुनाव में ज्यादा सीटें कभी नहीं मिली लेकिन उन्होंने मतदाताओं को विभाजितकर वोट कटुआ का काम ज़रूर किया है। परिणाम यह होता रहा है कि अंत में बड़े दलही सरकार बनाने में सफल हो जाते हैं फिर चाहे वो गठबंधन की सरकार ही क्योंना हो। सन १९८८ से ही पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिमलीग(नवाज़} पाकिस्तान के सबसे बड़े और सर्वाधिक लोकप्रिय राजनीतिक दल मानेजाते हैं, खासकर केंद्र में। हाल में भंग की गयी संसद में पीपीपी के ४१सदस्य थे। मार्च २००८ से मार्च २०१३ तक यह सत्ता में काबिज दलों के गठबंधनका नेतृत्त्व कर रहा था। सिंध प्रान्त में इसी दल की सरकार थी और पंजाबप्रान्त में यह मुख्य विपक्ष की भूमिका में था। यहाँ तक कि मुशरफ केशासनकाल में संपन्न हुए २००२ के चुनाव में भी पीपुल्स पार्टी प्रमुख दल केरूप में उभर कर आई लेकिन मुशर्रफ ने चुनाव के परिणाम अस्वीकार कर मुस्लिमलीग (क्यू) गठित कर दोयम दर्जे के राजनीतिक नेतृत्त्व को सत्ता सौंप दी।नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग ७ सीटो के साथ भंग संसद में दूसरी बड़ीपार्टी थी, पंजाब प्रान्त में इसकी सरकार चल रही थी।
प्रेक्षकों का मानना है किअगर चले आ रहे ढर्रे पर ग़ौर किया जाये तो २०१३ के चुनाव में भी पाकिस्तानपीपुल्स पार्टी और शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग को ही रेस में माना जायेगा। हालांकि कुछ लोंगों का मानना है कि पाकिस्तान तहरीक-ए-इन्साफ रेसका असली घोडा साबित हो सकता है। जहाँ तक मुस्लिम लीग(शुजात ग्रुप), अवामीनेशनल पार्टी ,जमीयात-आइ-उलेमा इस्लाम(फजलुर रहमान ग्रुप), जमात-ए-इस्लामीऔर मुह्तीदा क्वामी मूवमेंट जैसे दलों का सवाल है तो इनकी भूमिका सहयोगीदलों के रूप में ही सामने आयेगी। इनकी भूमिका प्रांतीय चनावों में मुखर होसकती है लेकिन केंद्र में कुछ सीटों से ही इन्हें तसल्ली करनी होगी।
आमचुनाव के लिए पी पीपी ने पी एम् एल(क्यू) के साथ गठबंधन किया है जबकि नवाज़ की पी एम् एल ने पीएम् एल(ऍफ़) और सुन्नी तहरीक जैसे दलों के साथ गठबंधन किया है। वहीं इमरानखान की पार्टी पीटीआई ने इस्लामिक जमात-ए-इस्लामी और बहावलपुर नेशनल अवामीपार्टी के साथ गठजोड़ किया है। उधर धार्मिक दलों ने मुताहिदा मजलिस-ए-अमलनाम से अपना एक गठबंधन बनाया है। क्षेत्रीय दलों में से जो दल राष्ट्रियविधायिका सेनेट की कुछ सीटें हासिल कर सकते हैं उनमें प्रमुख हैं सिंध कीएम्क्यूएम् और खैबर पख्तुन्ख्वा की अवामी नेशनल पार्टी।
दुबईमें स्वयं हीनिर्वासित जीवन बिता रहे मुशर्रफ पाकिस्तान को दोबारा रस्ते पर लाने कीहुंकार भरते हुए २४ मार्च को पाकिस्तान पहुंचे लेकिन एअरपोर्ट परचंद समर्थकों को देख उनके बडबोलेपन की हवा निकल गयी। रही-सही हवा तब निकलगयी जब उनके द्वारा चार जगहों से भरे गए नामांकनों में से तीन जगह केनामांकन रद्द कर दिए गए।बाद में चौथी जगह से भरे गए नामांकन को भी रद्द कर दिया गया। बाद में पाकिस्तानी कोर्ट ने उनके चुनाव लड़ने पर आजीवन प्रतिबन्ध लगा दिया।
जहांतक इमरान खान की पीटीआई का सवाल है वो इस चुनाव में बड़े उलट फेर कर सकतीहै। जानकारों का कहना है कि पारंपरिक राजनीतिक दलों से त्रस्त पाकिस्तानीअवाम बदलाव के रूप में इमरान खान की पार्टी को चुन सकती है। हालांकि कहा जारहा है की पीटीआई का प्रभाव ग्रामीण इलाकों में न होकर शहरी युवाओं तक हीसीमित है लेकिन चुनावी सर्वेक्षणों में यह बात सामने आयी है कि इमरान खानका जनाधार सभी वर्गों और क्षेत्रों में फैला है। जनवरी २०१३ में पब्लिकजजमेंट नामक संस्था द्वारा ऑन लाइन मतदान कराया गया जिसके ये परिणाम सामनेआये - पाकिस्तान तहरीक-ए- इन्साफ कुल सीटों में से ६६.१ फीसदी सीटेंजीतेगी जबकी २९.३ फीसदी सीटें जीत कर श नवाज़ शरीफ की पार्टी दूसरे स्थान पररहेगी। अगर इसे सीटों में तब्दील किया जाय तो मतलब हुआ कि २२५ सीटों केसाथ पीटीआई को संसद में स्पष्ट बहुमत मिल जायेगा।
लेकिनकुछ राजनीतिक विश्लेषक सर्वेक्षण के परिणाम को ज़मीनी हकीकत से कोंसो दूरमानते हैं.उनका कहना है कि इमरान खान की लोकप्रियता लगातार घट रही है।उनका यह भी कहना है कि इमरान की पार्टी का ज़मीनी आधार नहीं है उसकेज्यादातर नेता अन्य दलों को छोड़ कर आये हैं या फिर पुराने अफसरशाह हैं। ठीकहै कि युवाओं का उन्हें समर्थन हासिल है लेकिन ये युवा ज़्यादातर सोशलमीडिया में ही सक्रीय हैं और इनमें से बहुतेरे हैं जिन्होंने कभी अपना मतही नहीं डाला या फिर जिनका नाम मतदाता सूची में है ही नहीं।
लेकिनइमरान खान अपनी पार्टी की जीत के प्रति आशावान हैं। शनिवार ६ अप्रैल कोकराची एयरपोर्ट पर मीडिया को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा -"१९९२ केविश्व कप की तरह ही एक अनजान पार्टी ११ मई के चुनाव में बड़ी जीत हासिलकरेगी और वो पार्टी होगी पाकिस्तान तहरीक -ए - इन्साफ". आगे उन्होंने कहाकी उनकी पार्टी का असली इम्तिहान पंजाब प्रांत में होगा। अगर हम वहां जीतदर्ज कर लेते हैं तो केंद्र में सरकार बनाने से हमें कोइ नहीं रोक सकता। अपनी पार्टी की नीतियों पर बोलते हुए इमरान ने कहा कि उनकी पार्टी अकेलीऐसी पार्टी है जिसका नेतृत्व युवाओं के हाथों में है। और यह बात २३ मार्चको लाहौर के मीनार -ए - पाकिस्तान मैदान में पीटीआई की सभा से भी साफ़ होगया जिसमें खराब मौसम के बावजूद एक लाख लोग शिरकत करने पहुञ्चे और इनमेयुवाओं की तादाद कहीं ज़्यादा थी।
अबज़रा पारंपरिक रूप से पाकिस्तान में सत्ता में काबिज़ रहने वाले दो बड़े दलोंपाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग का भीजायजा लिया जाए। इन दोनों ही दलों में राजनीतिक कार्यकर्ताओं की लम्बीश्रृंखला व बड़ी फ़ौज है। इनके नेतृत्त्व के सामंती रवैये के बावजूद ज़मीनीस्तर पर इनकी उपस्थिती दर्ज है। पीपुल्स पार्टी की ताक़त सिंध प्रांत मेंदेखी जा सकती है, खासकर ग्रामीण इलाकों में। हाल में यह भी चर्चा रही है किपीपुल्स पार्टी ने पंजाब के दक्षिण जिलों में भी अपना प्रभाव बढ़ाया है, खासकर मुल्तान और भवालपुर इलाकों में। चूँकि पूर्व प्रधानमंत्री युसूफ राजागिलानी भी इसी इलाके से आते हैं इसलिए इस विशवास को बल मिलता है कि इस बारपीपुल्स पार्टी दक्षिण पंजाब में बेहतर प्रदर्शन कर सकती है। वहीं इस बातपर सवाल उठाये जा रहे हैं कि पीपुल्स पार्टी सिंध के ग्रामीण इलाकों में भीबेहतर प्रदर्शन करेगी। आलोचकों का कहना है कि पार्टी अपने शासन केदौरान सिंधियों के लिए कुछ ख़ास नहीं कर पायी। लेकिन त्रासदी यह है कि एम्क्यू एम् समेत किसी भी अन्य दल की पैठ ग्रामीण सिंध में है ही नहीं। इसलिएमजबूरन लोगों को पीपुल्स पार्टी को वोट देना पडेगा। वैसे सिंध का कराचीजिला एम् क्यू एम् के पक्ष में वोट डालता नज़र आ रहा है। इसकी वज़ह है ठोसमुजाहिर वोट बैंक। बड़ी तादाद में पश्तून जनसंख्या की मौजूदगी के चलते अवामीनेशनल पार्टी ने भी कराची में अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ा लिया है। पीपुल्सपार्टी के लिए मुश्किल दो आध्यात्मिक समूहों -हूर जमात और गौसिया जमात नेगठबंधन बना कर खडी कर दी है। ये दोनों समूह अलग-अलग राजनीतिक दलों काप्रतिनिधित्व करते हैं। इन्होने एक-दूसरे के प्रत्याशियों को समर्थन देनेका फैसला लिया है। पीपुल्स पार्टी की मुश्किलें इसलिए भी बढ़ गयी हैं किउसके पास कोई स्टार कैम्पेनर नहीं है। भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते ज़रदारीसे लोग नाराज़ हैं अब तो उनका पुत्र बिलावल भुट्टो भी उनसे नाराज़ है औरचुनाव अभियान में भाग ना लेने की बात तक उसने कह डाली। वो अब सुरक्षा कारणों से पाकिस्तान छोड़ कर चला गया है।
दूसरेबड़े दल पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) द्वारा पंजाब में बेहतर प्रदर्शनकरने की उम्मीद की जा रही है। पिछले पांच सालों के दौरान शरीफ बन्धुराजनीतिक रूप से बहुत सक्रिय रहे हैं और ज़रदारी सरकार के खिलाफ चलाये गएआन्दोलनो तथा प्रदर्शनों का उनहोंने कभी प्रत्यक्ष और कभी परोक्ष रूप मेंसमर्थन ही किया। इसके चलते पूरी उम्मीद है कि पंजाब, खासकर उत्तरी इलाकेनवाज़ शरीफ को ही वोट देंगे। हालांकि पीपुल्स पार्टी और पीएम्एल-क्यूपंजाब के दक्षिणी जिलों में बेहतर प्रदेशन करने की उम्मीद कर रहे हैं लेकिनयहाँ उनके लिए जीत आसन नहीं होगी। नवाज़ की पार्टी अपनी ताक़त बनाए रखेगी।
आजकलकोइ भी चुनावी चर्चा चुनावी सर्वेक्षणों की बात किये बिना अधूरी ही मानीजाती है। हालांकि चुनावी सर्वेक्षणों की विश्वनीयता पर सवाल भी खड़े कियेजाते हैं और कभी-कभी तो एक सिरे से उन्हें खारिज भी कर दिया जाता है फिर भीयह तो माना ही जाता है कि वे जनता के मूड को भांपने का काम करते हैं।पाकिस्तान में होने वाले आम चुनाव पर अब तक किये गए विभिन्न सर्वेक्षणों परनज़र दौडाएं तो नवाज़ शरीफ की पार्टी बढ़त हासिल करती दिखाई दे रही है। १२ अगस्त २०१२ को नेशन में प्रकाशितत्वरित सर्वेक्षण में कहा गया कि नवाज़ शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग देशकी सबसे अधिक लोकप्रिय पार्टी है और इसका वोट बैंक २० फीसदी से बढ़ कर ३३फीसदी हो गया है वहीं पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की लोकप्रियता १० फीसदी घट गयी है। सर्वेक्षण के अनुसार लोकप्रियता के स्तर पर पीटीआई दूसरे नंबर पर है। २९ सितम्बर २०१२ को द एक्सप्रस ट्रिबुन में प्रकाशित इन्टरनेशनलरिपब्लिक इन्स्त्युत के सर्वेक्षण में २८ फीसदी लोगों ने पीएम्एल-एन कोवोट देने की बात कही। २४ फीसदी पीटीआई के पक्ष में थे और केवल १४ फीसदीपीपीपी के पक्ष में। २८ जनवरी २०१३ को द न्यूज़ में छपे सर्वेक्षण केअनुसार नवाज़ शरीफ की लोकप्रियता २८ फीसदी से बढ़ कर ३२ फीसदी हो गयी वहींइमरान खान की लोकप्रियता २४ फीसदी से घटकर १८ फीसदी हो गयी और ज़रदारी की मात्र १४ फीसदी रह गयी। लेकिन ९ फरवरी २०१३ को डान में छपे सर्वेक्षण में स्थितीउलटी थी। इस्लामाबाद स्थित सस्टनेबल डेवेलपमेंट पॉलिसी इन्स्तीतूत के साथमिल कर हेराल्ड द्वारा कराये गए सर्वेक्षण में २९ फीसदी लोगों ने पीपीपी कोवोट देने का इरादा व्यक्त किया, २४.७ ने नवाज़ शरीफ की पार्टी को और २०.३ने इमरान खान को।
पिछलेएक हफ्ते का जायजा लिया जाए तो सबसे अधिक भीड़ इमरान खान की सभाओं में होरही है, उसके बाद नवाज़ शरीफ की सभाओं में। शहरी मतदाताओं के बीच बढ़ती इमरानखान की लोकप्रियता को देख कर नवाज़ शरीफ ने भी अपने भाषणों का रुख बदल दियाहै। वे अब शहरी मतदाताओं को रिझाने के लिए जिताने पर बुलेट ट्रेन, चौड़ीसड़कें, लन्दन माफिक भूमिगत परिवहन सुविधाएँ और मेट्रो बस सेवाओं जैसे तोहफों की झड़ी लगा रहे हैं। उधरनवाज़ शरीफ पर छींटाकसी करते हुए इमरान खान अपनी सभाओं में लोगों से कह रहेहैं की कोई भी राष्ट्र अपनी सड़कों और विकास के दूसरे कार्यों से नहींपहचाना जाता बल्कि वो अपनी न्यायसंगत ईमानदार व्यवस्था के कारण जाना जाताहै क्योंकि न्याय लोगों को अपनी जान-माल की सुरक्षा के प्रति आश्वस्त करताहै।
असलमें कौन दल कहाँ खडा दिखाई देता है ये तो चुनाव परिणाम आने पर ही पता लग सकता है। अभी तो बस यही कहा जा सकता है कि किसीभी दल को स्पष्ट बहुमत मिलते नहीं दिख रहा है। एक मिली-जुली सरकार बनने कीसंभावना नज़र आ रही है, बशर्ते चुनाव निष्पक्ष हों और सेना एवम उसकीपिछलग्गू आईएसआई कोइ खेल ना खेलें।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं विदेश मामलों के जानकार हैं
इनसे panditpant@gmail.com पर संपर्क कर सकते हैं)