Quantcast
Channel: पत्रकार Praxis
Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

बॉम्बे टॉकीज और उठते-गिरते सिनेमा के सौ साल

$
0
0

अंकित फ्रांसिस
-अंकित फ्रांसिस

"...अनुराग की कहानी ख़त्म होने पर फिल्म भी शायद ख़त्म हो जाती है और बॉलीवुड के सौ साल पर आधारित एक लम्बा, बोझिल और बेसिरपैर का गाना आपको दिखाई पड़ता है. आपको चार कहानियों को देखने के बाद जो अभी तक लग रहा होता है कि इन सौ सालों में बोलीवुड कहीं तो पंहुचा ही है, कुछ तो हासिल ही किया है, वह अचानक आपके भीतर से मिटने लगता है. फिर वही मायालोक और सरसों के खेत में खड़ा ज़रूरत से ज्यादा एक्सप्रेशन देता आशिक आपको ज़ोरदार थप्पड़ मारकर नींद से जगा देता है..." 

भारतीय सिनेमा या कहें तो बोलीवुड के बारे में बात करना, वैसे भी उस दौर में जबकि चारों तरफ उसके सौ साल का होकर वयस्क होने का (हिम्मतवाला बनाते हुए भी) शोर मचा हो..दिल्ली के सीरी फोर्ट में एक आयोजन संपन्न हुआ हो, जिसमें मायालोक और सपनों का संसार करार देकर उसकी हत्या करने की कोशिशें लगातार जारी हों तो ऐसे में मेरे लिए यह दुविधाओं से गुजरने जैसा हो जाता है...आखिरकार क्यूँ लिखा जाये और क्या लिखा जाये..?

क्यामैं लिखूं... कि एक लम्बे अरसे से इस मायालोक की औरत किस पिंजरे में बंद हैं? जहाँ उसका किसी की माँ, बहन, बेटी, बीवी, प्रेमिका, रखैल या पत्नी होना आज भी कितना ज़रूरी बना हुआ है..जहाँ वो इन किरदारों में शामिल नहीं है तो वो बेहया, वैम्प या बुरी औरत है. जहाँ कॉकटेल की दीपिका को आज भी किसी लड़के के प्रेम में साड़ी पहनने या पूजा करने को मजबूर होना ही है. या इसकी कहानियों पर बात की जाये जो दुहरावो की इतनी शिकार हैं की आप ज्यादातर फिल्मों का ट्रेलर देखकर उसकी कहानी का अंदाजा लगा लेते हैं (जावेद अख्तर भी इसे मानते रहे हैं). इसके नायक जो आज भी (कुछ फिल्मों को छोड़ दें तो) राम और रामायण से आगे बढ़ने के लिए संघर्षरत हैं. यह नायक मानवीय भावनाओं को जीत चूका योगी है जो बस अपने सामंती चरित्र को नहीं त्याग पाया. किन फिल्मों की बात करें जिनमें सांवले या काले रंग की लड़कियों के लिए आज भी कोई ख़ास जगह नहीं है. उन फिल्मों की बात जहाँ आज भी हीरो का नाम किसी ऊंची जाति से ही न जाने क्यूँ ताल्लुक रखता है. यहाँ औरत होना असहाय होना (हाँ, दायरे के भीतर की आजादी है उसके हिस्से). और पुरुष होना कड़क, बहादुर, आशिक और मर्द होना है. वो दुनिया जहाँ मर्द को आज भी दर्द नहीं होता है. इस दुनिया में आज भी बच्चों की दुनिया शामिल ही नहीं है..वे खिलौने हैं..वे परदे पर आते हैं लेकिन किसी लॉन्ग शॉट में मौजूद परछाई की तरह...

चलिएमुद्दे पर आते हैं और बात करते हैं सौ साल के जश्न में आई फिल्म बोम्बे टाकीज पर. जोया अख्तर, दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप और करन जोहर ने इस फिल्म में चार कहानियां सामने रखी हैं (फिल्म के शुरू और अंत में जिस हैरेकी से डाइरेक्टर के नाम सामने आते हैं उसे ध्यान में रख इन्हें जान बूझकर इस तरह से रखा गया है). आपको करन का नाम अटपटा सा लग सकता है लेकिन इस फिल्म में करन का जो हिस्सा है वो मेरी देखी उनकी फिल्म मेकिंग का सबसे बेहतर पीस है. कहानी के इस हिस्से का नाम है ‘अजीब दास्ताँ है ये’. कहानी के पहले शॉट में एक युवक (शाकिब सलीम) धडधडाता हुआ अपने पिता के कमरे में घुसता है और अपने सोते हुए पिता को गिरेबान से पकड़कर उठाता है और कहता है की वह गे है छक्का नहीं है और गे हो या छक्का..कुछ भी होना बुरा नहीं है. करन की फिल्मों के बेटे ने शायद ही उनकी किसी पिछली फिल्म में ऐसा किया हो या आने वाली फिल्मों में ऐसा कर पाए. इसी कहानी में रानी मुखर्जी और रणदीप हुड्डा पति-पत्नी है. रणदीप न्यूज़ एंकर है और रानी एक अखबार के फिल्म सप्लीमेंट पर काम करती हैं. शाकिब रानी के ऑफिस में इंटर्न है और अपने पहले ही परिचय में अपने गे होने की घोषणा गर्व से करता है. कहानी रानी और रणदीप के रिश्ते की की सच्चाई सिर्फ बेड पर सोने और अलार्म बजने वाले सीन से बयां हो जाती है. कहानी के अंत से ज़रा पहले रणदीप के भी गे होने का पता चलता है. लेकिन करन का फिल्माया सबसे अच्छा शॉट रानी को सच्चाई पता चलने पर मेकअप उतारने वाला है. करन की फिल्मों में शायद ही कहीं आपको सच्चाई से रूबरू होने का ऐसा मेटाफर मिल पाए. रानी के एक्सप्रेशन आपका दिल खुश कर देते हैं.

दूसरीकहानी है दिबाकर बनर्जी की ‘स्टार’...कहानी दरअसल सत्यजीत रे की लघुकथा पर आधारित है. कहानी के पहले शॉट को देखकर ही आप दिबाकर को और पहले सीन को देखकर रे को महसूस कर सकते हैं. दिबाकर ने रे को निभाने के लिए जो मेहनत की है वह इस तीस मिनट की कहानी को एक एक्टर (हीरो और स्टारपुत्र नहीं) के लिए सीख और उम्मीद दोनों लेकर सामने आती है. कहानी में नवाज़ुद्दीन के पिता मराठी थियेटर एक्टर थे और वह उनके बीमार होने पर एक नाटक (नटसम्राट) में लीड रोल कर चूका है. उसकी मुंबई में किसी आम एक्टर जैसी ही हालत है. वह अपनी बेटी को फिल्मों की कहानियां सुनाया करता है लेकिन अब वे भी ख़तम हो गयी हैं. एक दिन वह सिक्युरिटी गार्ड का काम खोजने जाता है और उसे एक फिल्म में हीरो से धक्का खाने का एक सीन मिल जाता है. फिल्म में पिता का किरदार सदाशिव अमरापुरकर ने निभाया है. फिल्म का सबसे पॉलिटिकली बेहतर सीन नवाज़ और सदाशिव का ही है. जिसमें एक्टर, एक्टिंग, थियेटर सभी को लेकर दिबाकर की समझ और रे की दृष्टि मौजूद है. इसी सीन के अंत में सदाशिव एक डस्टबिन में खड़े हैं और और नवाज़ को पुकार कर कहते हैं, आजकल मैं यहीं रहता हूँ..अह्हा! थियेटर और खासकर लोककलाओं को साथ लेकर चलने वाले रीजनल थियेटर की मौजूदा हालत पर इससे बेहतर व्यंग्य शायद ही कोई कर पाए. दिबाकर ने फिल्म के आखिरी सीन को एक कविता की तरह रचा है. इसी सीन को देखकर आप नवाज़ुद्दीन को गले लगाकर थोडा रो लेना चाहते हैं. बाकि का काम दिबाकर के खिड़की से शहर में झांकते शॉट और फिल्म का अंतिम शॉट...जिसमें मुंबई की एक चाल में बेटी को कहानी सुनाता पिता, चाल को मुंह चिढाती एक लम्बी इमारत..एक फैक्ट्री की चिमनी..डूबता सा या शायद डूब चूका सूरज, रुका हुआ या शायद रुक रुक कर चलता हुआ समय... इन्हीं के साथ भीतर अटकता हुआ सा कुछ महसूस करते हैं..जीवन को महसूसते हैं.

तीसरीकहानी है जोया अख्तर की ‘शीला की जवानी’...फिल्म में एक बच्चा (नमन जैन) है जिसे आपने जान्घियाँ के रोल में ‘चिल्लर पार्टी’ में खिलखिलाते देखा है. इस कहानी में बारह साल का बच्चा कुछ ‘अलग’ है. उसका इंटरेस्ट फुटबॉल में नहीं डासिंग में है जो की उस के लिए उसके ‘मर्द’ पिता (रणवीर शौरी) की वजह से संभव नहीं है. जोया की कहानियां अपने सिक्वेंस में जीवित रहती और सांस लेती हैं. इसी घर में उसकी एक बड़ी बहन भी है (माफ़ कीजियेगा उसका नाम नहीं खोज पाया) जो उसे समझती है. वो समझती है कि उसके लड़कियों के कपडे पहनकर नाचने में आखिरकार ‘बुरा’ क्या है.. जोया की कहानी का असली प्रश्न रात में उस बच्चे के मुहं से जब फूटता है तो हॉल में बैठे ‘मर्दों’ को बगलें झांकनी पड़ती हैं. हालाँकि कहानी उतनी प्रभावी नहीं है लेकिन फिल्मांकन उसे निभा ले जाता है. कहानी की जान उसका एस्सेंस है जो कि फिल्म के आखिर में थोडा कमज़ोर पड़ने लगता है. अब तक फिल्मों में झगड़ते आये बच्चों के बरक्स ये एक-दुसरे के लिए ‘समझदार झूठ’ बोलते हैं जो की आपको सुहाता है. इस कहानी को देखते हुए आपको तहलका के फिल्म विशेषांक में छपी वह घटना याद आती है जब ‘लक बाई चांस’ की शूटिंग के दौरान शूटिंग टीम का एक ‘मर्द’ सारे शाट्स फरहान से ओके करा रहा था और जोया ने उसे सीधे शब्दों में अपने डायरेक्टर होने की याद दिलाई थी और साथ ही उसकी बहन होने से भी इनकार कर दिया था. जोया ने अपने जीए उसी औरत्व और उसकी गरिमा को इसमें उकेरने की बेहतरीन कोशिश की है.

फिल्मकी अंतिम कहानी है अनुराग कश्यप की ‘मुरब्बा’ कहानी है. इलाहाबाद जैसे शहरों के फिल्म प्रेमी लोगों की...दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन के स्टारडम की. कहानी तो खैर कुछ ख़ास नहीं है लेकिन उसका फिल्मांकन और चरित्र निर्माण इसे ख़ास बना देता है. इलाहबाद में कुम्भ को भी हीरो (विनीत कुमार) का सहज रूप से सिर्फ ‘मेला’ कहकर पुकारना चरित्र की डीटेलइंग को दिखाता है. विनीत का निभाया किरदार और उनकी सहजता ही कहानी में देखने लायक है. शायद अनुराग ने सौ साल वाले हो हल्ले पर कुछ ज्यादा ही ध्यान लगाया जिस वजह से बोलीवुड की हीरोइया भव्यता और उससे जुडी भावनात्मक सहजताओं पर पूरी कहानी खर्च कर दी. हाँ इलाहबाद में पैदाईशी इंटेलेक्चुअल होने और हर बात को उसकी हाईएस्ट फॉर्म में सुनाने के दृश्य अच्छे हैं.

अनुरागकी कहानी ख़त्म होने पर फिल्म भी शायद ख़त्म हो जाती है और बॉलीवुड के सौ साल पर आधारित एक लम्बा, बोझिल और बेसिरपैर का गाना आपको दिखाई पड़ता है. आपको चार कहानियों को देखने के बाद जो अभी तक लग रहा होता है कि इन सौ सालों में बोलीवुड कहीं तो पंहुचा ही है...कुछ तो हासिल ही किया है...वह अचानक आपके भीतर से मिटने लगता है. फिर वही मायालोक और सरसों के खेत में खड़ा ज़रूरत से ज्यादा एक्सप्रेशन देता आशिक आपको ज़ोरदार थप्पड़ मारकर नींद से जगा देता है. यहाँ स्क्रीन पर तैरते वही मर्द हीरो और दुपट्टों में लिपटी असहाय हीरोइनें हैं. इस दुनिया में विलेन का रोल निभाने वाले बेहतरीन एक्टरों की कोई जगह नहीं..यहाँ दादा साहब फाल्के हैं पर दादा साहब कोंडके की कोई जगह नहीं है..यहाँ बलराज साहनी को ‘दो बीघा ज़मीन’ नहीं बल्कि ओ मेरी जोहराज़बीं के लिए याद किया जाता है. आपको वही सिनेमा याद आता है जहाँ दो सौ करोड़ की दौड़ है. सेक्सुअलिटी, धर्म हव्वा है..जातियां तो हैं ही नहीं..इस गाने/दुनिया में खान, कपूर, कुमार हैं पर नवाज़, अभय, नसीर, दीप्ति, नंदिता की आज भी कोई जगह नहीं. 

यहाँयाद आते हैं उदय प्रकाश...वह डर गया है क्यूंकि उसे जहाँ जाना है वहां उसके क़दमों के निशान पहले ही बने हुए हैं...इन्हीं क़दमों के निशानों पर चलते हुए..बार बार उन्हीं पर दौड़ते हुए (विचलन भी हैं) सौ साल में बोलीवुड यहाँ पंहुचा है. जावेद अख्तर के शब्दों में, 'उन्हीं दस कहानियों को दोहराते हुए'. इस फिल्म में दिबाकर और जोया नए क़दमों और निशानों की उम्मीद हैं..एक लॉन्ग शॉट में उगते सूरज को देखने का एहसास..सिनेमा स्क्रीन से बहकर आप तक आती लहरें...जीवन की बूंदों की तरह...यही निशान, एहसास और बूँदें ही मेरे घर के रास्ते में धूप में बैठे बूढ़े मोची, और चाय की दुकान पर प्लेटे उठा रहे छोटू, और बर्तन धोकर स्कूल जा रही नीतू का संघर्ष है...

अंकित युवा पत्रकार हैं। थिएटर में भी दखल। 
अभी एक साप्ताहिक अखबार में काम कर रहे हैं।
इनसे संपर्क का पता francisankit@gmail.com है। 



Viewing all articles
Browse latest Browse all 422

Trending Articles