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रूढ़िवाद का पलटवार!

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सत्येंद्र रंजन
                                                                      -सत्येंद्र रंज

"...लेकिन बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। जिन लोगों ने आज स्त्रियों की हिफाजत का बीड़ा उठाया है, वे भी महिलाओं को -और प्रकारातंर में पूरे समाज को- कोई कम नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं। उन पर पितृ-संरक्षण देने का नजरिया इतना हावी है कि उन्हें इसका आभास भी नहीं होगा कि वे जो करना चाहते हैं, उनके कदमों का असल में उलटा असर होगा।..."

निर्भया बलात्कार कांड के खिलाफ जन प्रतिरोध से समाज में खुलेपन और स्त्री अधिकारों के प्रति नई जागरूकता की जो संभावना बनती दिखी, ऐसा लगता है कि उस पर रूढ़िवाद ने पलटवार किया है। पितृसत्तात्मक उसूलों में ढली मानसिकता आसानी से स्त्रियों पर अपने नियंत्रण और अपने संरक्षण की दीवारों से बाहर उन्हें निकलने देने को तैयार नहीं है। वरना, यह विडंबना ही है कि जो मुद्दा बलात्कार और यौन हिंसा के खिलाफ कानून बनाने और समाज में महिलाओं के लिए अधिक सुरक्षित माहौल बनाने से जुड़ा है, उसमें बहस का केंद्र यह बन गया कि लड़कियों के यौन संबंध बनाने की सहमति देने की सही उम्र क्या होनी चाहिए! बलात्कार विरोधी प्रस्तावित कानून में अगर यह उम्र 16 वर्ष रखने का प्रावधान किया गया, तो उसका सिर्फ इतना मतलब था कि उस उम्र में होने वाली भूल सख्त सज़ा का कारण न बन जाए, जिससे कि दो नौजवानों की जिंदगी तबाह हो सकती है। लेकिन इसे इस रूप में पेश किया गया है, जैसे सरकार 16 वर्ष के किशोरों को यौन संबंध बनाने के लिए प्रोत्साहित कर रही है। 


छत्तीसगढ़के मुख्यमंत्री रमन सिंह ने कहा कि इससे देश का सामाजिक एवं सांस्कृतिक तानाबाना ही नष्ट हो जाएगा। ...और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को इसमें बाल विवाह को प्रोत्साहन नजर आया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के समर्थक पार्टी के मुख्यमंत्री की राय तो फिर भी समझ में आती है, लेकिन यौन संबंध वैवाहिक रिश्ते के दायरे में ही रहने चाहिए, इस रूढ़िवादी मान्यता पर एक कम्युनिस्ट पार्टी अगर जोर दे, तो उससे समझा जा सकता है कि समाज में सामंती उसूल किस हद तक जड़ें जमाए हुए हैं।

डॉ.राम मनोहर लोहिया के सप्त-क्रांति के विचार में नर-नारी समता को प्रमुख स्थान प्राप्त है। लेकिन उनके विचारों पर चलने का दावा करने वाली समाजवादी पार्टी को आज भय है कि अगर प्रस्तावित कानून में (स्त्री का) पीछा करने या घूरने तथा अनुचित ढंग से स्त्री के निजी एवं अंतरंग क्षणों को देखकर सुख लेने की प्रवृत्ति अपराध बना दी गई, तो उसका पुरुषों को फंसाने के लिए दुरुपयोग हो सकता है। सपा नेताओं से यह जरूर पूछा जाना चाहिए कि क्या कोई भी ऐसा आपराधिक प्रावधान है, जिसका दुरुपयोग ना हो सकता हो? लेकिन जब सामाजिक मानसिकता में स्त्री को घूरना, उसका पीछा करना, उसके शरीर की नुमाइश और चरम स्थितियों में बलात्कार को पुरुष अपना हक समझते हों, तो यह स्वाभाविक ही है कि ऐसी क्रियाओं से महिलाओं को कानूनी संरक्षण देने की कोशिशों पर कई तरह के और कई कोणों से हमले किए जाएं। रुढ़िवाद का हमला कितना सशक्त है, यह इसी से साफ है कि आखिरकार सरकार को सहमति की उम्र और पीछा करने या घूरने संबंधी प्रावधानों पर कदम वापस खींचने पड़े हैं।

लेकिन बात सिर्फ यहीं तक नहीं है। जिन लोगों ने आज स्त्रियों की हिफाजत का बीड़ा उठाया है, वे भी महिलाओं को -और प्रकारातंर में पूरे समाज को- कोई कम नुकसान नहीं पहुंचा रहे हैं। उन पर पितृ-संरक्षण देने का नजरिया इतना हावी है कि उन्हें इसका आभास भी नहीं होगा कि वे जो करना चाहते हैं, उनके कदमों का असल में उलटा असर होगा। 28 फरवरी को अगले वित्त वर्ष का बजट पेश करते हुए वित्त मंत्री पी चिदंबरम ने महिलाओं के लिए अलग बैंक बनाने का एलान किया। आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के मौके पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी हरियाणा के सोनीपत जिले में सिर्फ महिलाओं के लिए बने मेडिकल कॉलेज का उद्घाटन कर आईं। अगर यह प्रवृत्ति आगे बढ़ी तो उसका अगला मुकाम सह-शिक्षा को खत्म कर लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग स्कूलों तक बात पहुंच सकती है! और फिर यह दीवार घरों, परिवारों और पूरे समाज में पुरुष और स्त्री के लिए अलग-अलग जगह और अलग-अलग दायरों को तय कर सकती है। लेकिन क्या समाज के आधुनिकीकरण की शुरुआत इसी दीवार को तोड़ने की कोशिशों से नहीं हुई थी? क्या नारी स्वतंत्रता का यह बेहद अहम मुद्दा नहीं है कि कैसे उनके लिए समाज में परंरागत रूप से तय अलग भूमिका को तोड़ा जाए और उन्हें पुरुषों के समकक्ष लाने एवं समान प्रतिस्पर्धा के लिए उनके तैयार होने की स्थितियां बनाई जाएं?

मनोविज्ञान की साधारण समझ रखने वाला व्यक्ति भी यह जनता है कि समाज में स्त्री को लेकर पुरुष कुंठाओं का एक बड़ा कारण इन दोनों का अलगाव है। ऐसी दूरी सहज संबंधों के विकासक्रम को अवरुद्ध कर देती है, जिसका परिणाम खुद पुरुष के व्यक्तित्व में विकृतियों के रूप में उभरता है। स्त्री-द्वेष और महिलाओं पर हिंसा का कारण एक कारण उन पर नियंत्रण एवं अधिकार जताने का भाव होता है, लेकिन सहज संबंध ना बनने से पैदा होने वाली कुंठा ऐसी मनोविकृतियां पैदा करती है, जिसका परिणाम घूरने, पीछा करने और दर्शन-रति (वॉयरिज्म) के रूप में हो सकता है। इस लिहाज से वर्जनाओं को तोड़ना, रोक-टोक के चलन को कम से कम करना, शरीर संबंधी जुगुप्साओं को खत्म करना, यौन को लेकर अतिरंजित धारणाओं से मुक्ति पाना और युवक-युवतियों में सहज मेल-जोल को बढ़ावा देना स्वस्थ समाज के निर्माण की अनिवार्य शर्त है। अगर समाज में स्त्री को ऐसे स्व-निर्भर व्यक्ति के रूप में देखने का नजरिया बने, जो खुद अपनी पहचान से जीने में सक्षम हो, तो वहां उसके लिए सुरक्षा और स्वतंत्रता की स्थितियां स्वतः बन जाएंगी। यह न सिर्फ सैद्धांतिक रूप से सच है, बल्कि अनुभव-सिद्ध भी है।

इसीलिएयौन संबंधों को लेकर रूढ़िवादी मान्यताओं को पुनर्स्थापित करने तथा स्त्रियों के प्रति पितृ-संरक्षण का नजरिया अपनाने को चुनौती दिए जाने की जरूरत है। हाल के बलात्कार विरोधी प्रतिरोध की यही खासियत थी कि उसमें बड़ी संख्या में महिलाएं सड़क पर उतरीं और उन्होंने अपनी मांगों एवं नारों से पितृसत्ता को ललकारा। भारत में इतने जोरदार ढंग से महिलाओं ने पहले यह कभी नहीं जताया था कि उनके शरीर पर सिर्फ उनका हक है। यह बात सार्वजनिक दायरे में इतने स्पष्ट ढंग पहले कभी नहीं कही गई थी कि बलात्कार पीड़िता की जिंदगी अपवित्र नहीं होती और वह जिंदा लाश नहीं बन जाती, क्योंकि उसका व्यक्तित्व यौनांगों की शुचिता नहीं, बल्कि मन और मस्तिष्क से बनता है। 

इसविमर्श ने मध्यवर्गीय परिवारों और समाज में एक नए खुलेपन की संभावना पैदा की। लेकिन यह साफ है कि पितृसत्ता ने अब हमदर्द और संरक्षक बन कर स्त्रियों के लिए बनते सार्वजनिक दायरे (पब्लिक स्पेस) पर पलटवार किया है। आवरण महिलाओं की हिफाजत का है, लेकिन असल में कोशिश उस संस्कृति एवं सोच को बचाने की है, जिसकी वजह से महिलाएं घरों की चाहरदीवारी में कैद रहती आई हैं। इसलिए स्वस्थ एवं समतामूलक समाज के निर्माण का यह तकाजा है कि ऐसी कोशिशों को न सिर्फ बेनकाब, बल्कि नाकाम भी किया जाए। स्त्रियों ने सदियों से पुरुष प्रधान समाज और संस्कृति को बचाए रखने की कीमत अपनी स्वतंत्रता से चुकाई है। इतिहास के इस मोड़ पर, जब महिलाओं की आज की पीढ़ी ने लैंगिक वर्चस्व को अस्वीकार करने की तैयारी दिखाई है, तो इस बोझ से फिर से उन्हें दबाने के प्रयासों को उन्हें सिरे से ठुकरा देना चाहिए। आधुनिक भारत को ऐसी संस्कृति की जरूरत नहीं है, जिसकी बुनियाद स्त्रियों की यौन-शुचिता और शारीरिक पवित्रता की धारणाओं पर टिकी हो। ऐसी पुरातन संस्कृति को ठुकराने का संघर्ष लंबा और कठिन है, लेकिन हाल के प्रतिरोध ने यह दिखाया कि यह असंभव नहीं है। 

सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
                                                                      satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है. 

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