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एक दलदल में फंसा है कश्मीर!

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-प्रेम पुनेठा

कश्मीर बहस - 4


अन्तराष्ट्रीय कूटनीति के सबसे जटिलतम भूगोलों में से एक कश्मीरका राजनीतिक संकट फिर चर्चा के केन्द्र में आ गया है. अबकी बार इस चर्चा की वजह बनी है कश्मीर के एक नागरिक को भारतीय चुनावी राजनीति की उठा-पटक के लिए 'जनमानस की सामूहिक अंतरात्माकी दुहाई देकर फांसी के फंदे पर लटका दिया जाना. अफजल गुरू की फांसी के बाद अखबारोंचैनलोंइंटरनेट और फोन आदि पर रोक लगाते हुये भारतीय राज्य ने समूचे कश्मीर को भयंकर अन्धकार के कर्फ्यू में धकेल दिया. यह बताता है कि कश्मीर भारतीय लोकतंत्र के कवरेज एरिया से बाहर है. ऐसे में कश्मीर की आवाम की तरफ से उठती आज़ादी की मांग दुनिया भर के अमनपसंद लोगों को सहमत करती है. लेकिन यह बात इतनी ही सरल भी नहीं है. इसके पक्ष और विपक्ष में प्रगतिशील हलके में पर्याप्त बहस भी है.praxis में हम इस बहस को खोलना चाह रहे हैं. इसे हमने 'कश्मीर बहस'नाम दिया है. यह आलेख इस बहस की चौथी किस्त है...  
-मॉडरेटर
प्रेम पुनेठा

 

"...कश्मीर का मामला भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अस्तित्व का सवाल है। कश्मीर भारत की धर्मनिरपेक्षता का आधार है क्योंकि हिन्दू बहुल देश में यह मुस्लिम बहुल राज्य है, पाकिस्तान के लिए इसलिए कि उसकी सीमाओं से लगा एक मुस्लिम बहुल राज्य उसके पास नहीं है। इसलिए वह बार-बार कहता है कि पार्टिशन पूरा नहीं हुआ है।..."



श्मीर संयुक्त राष्ट्र में गए सबसे पुराने विवादों में से एक है। समय के साथ यह विवाद और पेचीदा, और गहरा हुआ है। अपनी शुरुआत में यह दो देशों भारत और पाकिस्तान के बीच तक सीमित था और झगड़ा था कि कश्मीर भारत में रहेगा या पाकिस्तान में लेकिन अब एक तीसरी धारा भी मौजूद है, जो कश्मीर को एक देश के रूप में देखना चाहती है। पिछले लगभग ढाई दशक से कश्मीर हिंसाग्रस्त है, विशेषकर घाटी। 
कश्मीरका मामला भारत और पाकिस्तान दोनों के लिए अस्तित्व का सवाल है। कश्मीर भारत की धर्मनिरपेक्षता का आधार है क्योंकि हिन्दू बहुल देश में यह मुस्लिम बहुल राज्य है, पाकिस्तान के लिए इसलिए कि उसकी सीमाओं से लगा एक मुस्लिम बहुल राज्य उसके पास नहीं है। इसलिए वह बार-बार कहता है कि पार्टिशन पूरा नहीं हुआ है।

कश्मीरके सवाल को देखा जाए तो यह कहीं न कहीं देश के अंदर उपराष्ट्रीयताओं के संघर्ष की तरह है। भारतीय राष्ट्रीयता सबसे नई परिकल्पना और अवधारणा है, जबकि उपराष्ट्रीयताएं कहीं पुरानी है। और भारत के एकीकरण से पहले यह उपराष्ट्रीयताएं उसकी पहचान रही हैं। यही कारण है कि भारतीय समाज में व्यक्ति अपनी उपराष्ट्रीयता की पहचान के लिए अत्यन्त दुराग्रही है। 

पहचानकी यही ललक कई बार उपराष्ट्रीयताओं को भारतीय राष्ट्रीयता के साथ संघर्ष में ले आती हैं। यह संघर्ष अलग-अलग स्थानों में अलग-अलग तरीके से दिखाई देता है। पूर्वोत्तर में यह अलग राज्य के साथ ही प्रभुसत्ता के लिए संघर्ष करता हुआ भी दिखता है। इसके अलावा देश के अन्य हिस्सों में जो पृथक राज्य के आंदोलन हैं उनके मूल में पहचान की ललक ही है। 

भारतीयराज्य व्यवस्था ने इसे सबसे पहले भाषाई आधार पर राज्य बनाकर सुलझाने का प्रयास किया लेकिन यह एक आयामी था और सबकी इच्छाओं को पूरा करने में असमर्थं साबित हुआ। यही कारण है कि अभी भी अलग राज्य के आंदोलन जारी है। इसके साथ ही केंद्र के खिलाफ क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का मजबूत होना उपराष्ट्रीयताओं के प्रति लोगों की इच्छाओं का ही प्रतिनिधित्व करता है।

कश्मीरकी समस्या भी कहीं न कहीं इसी उपराष्ट्रीयता से जुडी है। 1947 में कश्मीर के अंदर शेख अब्दुल्ला के रूप में ‘कश्मीरियत’ उपराष्ट्रीयता का प्रतिनिधत्व करने वाला एक व्यक्तित्व मौजूद था। लेकिन बाद में उनको राजनीतिक परिदृश्य से हटा दिया गया। इसके बाद कोई भी ऐसा राजनीतिक व्यक्त्वि नहीं उभरा जो कश्मीरियत का प्रतिनिधित्व करता हो। जो भी वहां पर चुनाव हुए, वह कांग्रेस का ही प्रतिनिधित्व करती रही। यानि एक तरह से दिल्ली। बाद में इंदिरा गांधी के समझौते के बाद शेख अब्दुल्ला की वापसी हुई। लेकिन वे लंबे समय तक जीवित नहीं रहे। वे कश्मीर में क्षे़त्रीयता की पहचान तक भी बने रहे। 

सहीबात तो यह है कि दिल्ली के राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ जो राजनीतिक स्पेस था उसे कश्मीर में शेख अब्दुल्ला ही भरते थे। उनके बाद आने वाले फारूक अब्दुल्ला उस तरह से कश्मीरियत की पहचान नहीं बन सके। जब उन्होने राजीव गांधी के दौर मे कांग्रेस के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो राज्य में विरोधी पक्ष का राजनीतिक स्पेस खाली हो गया। लोगों को लगा कि नेशनल कांफ्रेस और कांग्रेस तो एक ही हैं। 

तबघाटी में पैदा हुए राजनीति स्पेस को भरने के प्रयास शुरू हुए। कोई भी राजनीतिक दल नहीं था, जो इस जगह को ले पाता। तब इस स्पेस को उस विचार ने भरना शुरू किया जो कश्मीर की आजादी की बात करते थे। तब तक लोकतांत्रिक प्रक्रिया से चुनी सरकारें जनता की समस्याओं को सुलझाने में लगातार नाकाम साबित हो रही थीं। यह स्थिति सीधे-सीधे दिल्ली या भारतीय राज्य के खिलाफ जा रही थी क्योंकि जनता में यह बात पैठ कर गई कि उसकी समस्याओं की जड़ भारत सरकार है। 

वैसेअखिल भारतीय दलों की एक प्रवृत्ति रही है कि वे कभी नहीं चाहती कि उपराष्ट्रीयता की भावना मजबूत हो क्याकि यदि उपराष्ट्रीयता मजबूत हो गई तो वह एक क्षेत्रीय दल को भी पैदा कर देगी और केंद्र में वह कमजोर हो जाएगी। कश्मीर में भी कांग्रेस ने यही किया। उसने कश्मीरियत को कभी मजबूत नहीं किया। कश्मीरी भाषा के स्थान पर उर्दू को राजकाज की भाषा बनाकर कश्मीरी उपराष्ट्रीयता को उभरने ही नहीं दिया। 

कमजोरकश्मीरी उपराष्ट्रीयता का फायदा पाकिस्तान ने उठाया और लोगों की नाराजगी विशेषकर युवाओ को भारत विरोधी प्रचार से प्रभाव में लिया। जहां आजादी के नारे गूंजने लगे। लेकिन आजादी की यह मुहिम अपने शुरूआत में ही लड़़खड़ा गई। जिस मुहिम से कश्मीरियत को मजबूती मिलनी चाहिए थी उसने कश्मीरियत को ही खंडित कर दिया। इसका कारण अफगानिस्तान में सोवियत संघ के खिलाफ अमेरिका और पाकिस्तान का मिलकर चल रहा जेहाद था। 

इसीजेहादी विचारधारा का पाकिस्तान ने कश्मीर में भी निर्यात किया। उसने एक व्यवस्थित तरीके से धीरे-धीरे स्वतंत्र कश्मीर की मांग करने वाले संगठनों को किनारे कर दिया और पाक समर्थक संगठनों को मजबूत किया। कश्मीर के अंदर भी पाकिस्तानी और विदेशी जेहादी ज्यादा हो गए। इसका नतीजा यह निकला कि कश्मीरियत का एक प्रमुख हिस्सा रहे कश्मीरी पंडितों को इस मुहिम ने घाटी छोड़कर जाने के लिए मजबूर दिया। 

इससेपूरा संघर्ष उपराष्ट्रीयता न रहकर एक प्रतिक्रियावादी इस्लामिक आतंकी मुहिम बन गया। यह इसलिए हुआ कि पाक समर्थक हथियारबंद संगठनों के दबाव में कश्मीरियत की बात करने वाले नेता और तंजीमें पाकिस्तान पर निर्भर थे। पाकिस्तान को कश्मीरियत से कोई लेना देना नहीं है। उसके लिए कश्मीर का मतलब सिर्फ घाटी में रहने वाले मुसलमान ही हैं। आजादी का मतलब घाटी के मुसलमानों की अलगाववादी और पृथकतावादी मांग और उसका पाकिस्तान में विलय है। इस मांग से जिन नेताओं ने थोड़ा सा भी बाहर निकलने की कोशिश की उनकी हत्या हो गई। बाद में शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे संगठनों ने कश्मीरी पंडितों को वापस घाटी में बुलाने के जो थोड़े से प्रयास भी किए वे बेकार साबित हुए क्योंकि दोनों वर्गों के बीच संदेह बहुत गहरे हो गए थे। 

कश्मीरमें जितने भी राजनीतिक संगठन और पार्टियां है उनके लिए आजादी का मतलब अलग-अलग ही नहीं बल्कि एक दूसरे का विरोधी भी है। कोई इसका अर्थ भारत में रहकर अधिक स्वायत्ता चाहता है तो कोई पूरा प्रभुसत्ता संपन्न देश और कोई कश्मीर का पाकिस्तान में विलय। तब लाख टके का सवाल यही है कि कश्मीर समस्या का समाधान क्या होगा। 

तो भारत और न ही पाकिस्तान एक अलग कश्मीर देश के अस्तित्व को स्वीकार करने को तैयार होंगे। वैसे भी आजादी के मतलब अलग देश को मानने वालों के पास केवल घाटी में समर्थन है। फिर अंतरराष्टीय स्तर पर बंदूक के आंतंक से किसी राज्य का निर्माण अब संभव नहीं है। पाकिस्तान भी कश्मीरी जेहादियों को पहले की तरह समर्थन नहीं दे पाएगा। 

दूसरीओर भारत और पाकिस्तान अपने हिस्से के कश्मीर को किसी भी कीमत पर अपने हाथ से जाने नहीं देंगे। उनकी कोशिश तो दूसरे के हिस्से में गए भूभाग को अपने देश की सीमाओं में शामिल करने की होगी। लेकिन जनता के लिए आजादी का क्या मतलब होगा इसकी बात कोई नहीं करता। आजादी की मांग करने वाले नेताओं ने जनता की आकांक्षाओं को वहां पहुंचा दिया है कि वे कोई समझौता भी कर सकने की स्थिति में नहीं दिख रहे हैं। उनकी एकजुटता का आधार भारत विरोध है। अगर भारत विरोध न रहे तो उनका संगठन बिखर जाएगा। आज कश्मीर की हालत दलदल में फंसे हाथी की तरह हो गई है जो सहायता के लिए चिंघाड़ तो सकता है लेकिन बाहर नहीं आ सकता। दिल्ली की राजनीतिक निष्क्रियता ने कश्मीरी जनता को ज्यादा अलगाव में डाल दिया है। 


प्रेम पुनेठा वरिष्ठ पत्रकार और स्तंभकार हैं. 
मध्य-पूर्व के इतिहास और राजनीति पर निरंतर अध्ययन और लेखन. 
इनसे संपर्क के पते- prem.punetha@facebook.com और prempunetha@gmail.com

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कश्मीर बहसके पिछले आलेख/कविता यहाँ पढ़ें-



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