-सत्येंद्र रंजन
कश्मीर बहस-2
सत्येंद्र रंजन |
"...प्रश्न यह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?..."
संसद पर हमले के दोषी अफजल गुरु को फांसी दिए जाने के बाद बने हालात में कश्मीर के अलगावादी संगठन पुनर्जीवन पाने की कोशिश में हैं। चूंकि अफजल की फांसी लंबे समय तक लटकी रही और इस दौरान इस पर खूब राजनीति हुई, इसलिए यह महज एक न्यायिक-कानूनी घटना नहीं रह गई। जैसे सियासी सोच की एक धारा ने अफजल को आंतकवाद के प्रतीक के रूप में चित्रित किया, वैसे ही कश्मीर की अलगाववादी धारा और भारतीय राज्य के प्रति द्रोह का भाव रखने वाले समूहों/व्यक्तियों ने उसे संघर्ष के प्रतीक के रूप में रख कर देखा। भारत सरकार ने जिस तरह गुपचुप यह कार्रवाई की और अफजल के परिवार को पर्याप्त समय पहले सूचित न करने की एक अमानवीयता बरती, उससे भी एक न्यायिक-वैधानिक कार्य सवालों के घेरे में आ गया। इस कार्रवाई का एक और दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम यह हुआ कि उसके पहले कश्मीर में चर्चित हुई एक घटना पृष्ठभूमि में चली गई, जो अगर चर्चा में बनी रहती तो ‘आजादी’, ‘स्वायतत्ता’ और ‘आत्मनिर्णय के अधिकार’ जैसे शब्दों पर बेहतर समझ बनाने में मददगार बन सकती थी।
इसघटना में तीन युवतियों द्वारा बनाए गए म्यूजिक बैंड- प्रगाश- को बंद करवा दिया गया। यह बैंड दसवीं कक्षा की छात्राओं- नोमा नज़ीर, फराह दीबा और अनीका खालिद ने बनाया था। पिछले दिसंबर में श्रीनगर में अपने एक परफॉरमेंस से उन्होंने श्रोताओं को मुग्ध कर दिया था। लेकिन फरवरी के आरंभ में कश्मीर के मुफ्ती (मौलवी) ने फतवा जारी कर दिया कि उनका गाना गैर-इस्लामिक है। उसके साथ ही सोशल मीडिया पर उन्हें धमकियां मिलने लगीं। इस्लामी कट्टरपंथी महिला संगठन दुख्तराने मिल्लत ने तीन लड़कियों के सामाजिक बहिष्कार की धमकी दी। जो लोग कश्मीर के हालात से वाकिफ हैं, उन्हें मालूम है कि दुख्तराने मिल्लत के समाजिक बहिष्कार का क्या मतलब होता है। इन हालात में उन लड़कियों ने संगीत के सार्वजनिक कार्यक्रम पेश करना बंद कर देने में ही अपनी भलाई समझी। नतीजतन, प्रगाश बंद हो गया है। प्रश्न यह है कि कश्मीर की ‘आजादी’ का शोर मचाने वालों की नजर में उन लड़कियों की आजादी की क्या अहमियत है?
अबइस बहस को आगे बढ़ाए जाने की जरूरत है। “आजादी” की बात जम्मू-कश्मीर हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती रही है। बहरहाल, ये सभी नेता इस बात पर सहमत है कि कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।
अगरकश्मीरी पार्टियों और संगठनों के विमर्श पर गौर करें तो उनकी राय में कश्मीर समस्या के समाधान के संदर्भ में मुख्य रूप से दो शब्द उभर कर सामने आते हैं- “आजादी” और “स्वायत्तता”। कुछ साल पहले पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) ने “स्वशासन” शब्द भी इसमें जोड़ा था, लेकिन वह “स्वायत्तता” से किस अर्थ में अलग है, इसे स्पष्ट नहीं किया गया।? “आजादी” की बात हुर्रियत कांफ्रेंस के दोनों गुट करते हैं। कट्टर इस्लामी नेता सैयद अली शाह गिलानी और उनके समर्थकों के विमर्श पर गौर करें, तो “आजादी” का मतलब जम्मू-कश्मीर (या कम से कम कश्मीर घाटी) से भारत का हट जाना और फिर कश्मीर के लोगों को यह अधिकार मिलना है कि वे आजाद रहने या पाकिस्तान में मिल जाने के बारे में “आत्म-निर्णय” करें। वैसे गिलानी, मसरत आलम बट्ट, आसिया अंदराबी जैसे कट्टरपंथी भले ऐसे “आत्म-निर्णय” की बात करते हों, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा यही है कि कश्मीर को पाकिस्तान का हिस्सा होना चाहिए। दूसरी तरफ मीरवाइज उमर फारूक जैसे “उदारवादी” हुर्रियत नेता, और यासिन मलिक एवं शब्बीर शाह जैसे अलगाववादी नेता हैं, जो बात तो उसी शब्दावली में करते हैं, लेकिन उनकी सोच की अंतर्धारा में कश्मीर के “आजाद” रहने की मंशा ज्यादा जाहिर होती है। लेकिन इन सभी नेताओं में इस बात पर सहमति है कि कश्मीर समस्या का हल भारतीय संविधान के दायरे में नहीं निकल सकता।
जम्मू-कश्मीर नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी भारतीय संसदीय राजनीति का हिस्सा हैं, जाहिर है उनका विमर्श भारत के संवैधानिक दायरे में रहता है। नेशनल कांफ्रेंस का एजेंडा 1952 से पहले की स्थिति की बहाली है, जब कश्मीर के मामलों में भारतीय संसद, सुप्रीम कोर्ट और अन्य संवैधानिक संस्थाओं का न्यूनतम दखल था। पीडीपी ने “स्वशासन” या “आउट ऑफ बॉक्स” समाधान की अपनी धारणा की कभी विस्तृत व्याख्या नहीं की, लेकिन यह समझा जाता है कि उसकी सोच नेशनल कांफ्रेंस से बहुत अलग नहीं होगी। वैसे जम्मू-कश्मीर में पक्ष कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी और अन्य राजनीतिक समूह भी हैं। इनमें भारतीय जनता पार्टी की सोच उपरोक्त पक्षों द्वारा उठाई गई मांगों का पूर्णतः प्रतिवाद (एंटी-थीसीस) है। भाजपा तो संविधान की धारा 370 को भी खत्म करना चाहती है, जिससे जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा मिला हुआ है, लेकिन जिसके बारे में कश्मीरी पक्षों की शिकायत है कि गुजरते वर्षों के साथ जिसे बहुत कमजोर कर दिया गया है। इस धारा को कमजोर करने का आरोप अक्सर कांग्रेस पर रहा है। इसलिए वैचारिक तौर पर धर्मनिरपेक्ष-लोकतंत्र की समर्थक होने के बावजूद व्यवहार में यह पार्टी भी “कश्मीरी पक्ष” की एंटी-थीसीस के रूप में ही देखी जाती है।
कश्मीरमें पहल और इस मसले के हल की चर्चा करते समय उपरोक्त राजनीतिक संदर्भ को हमेशा ध्यान में रखना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस राजनीतिक संदर्भ में “कश्मीरी आकांक्षाओं” को पूरा किया जा सकता है? जाहिर है, इस सवाल के साथ यह अहम हो जाता है कि सबसे पहले इस बारे में ठोस समझ बनाई जाए कि आखिर ये “कश्मीरी आकांक्षाएं” हैं क्या? क्या “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” की शब्दावली में इन्हें समझा जा सकता है? यहां हमें इस सच का भी सामना करना चाहिए कि दशकों से कश्मीर में ये शब्द प्रासंगिक बने रहे हैं और इसलिए इन्होंने वहां आम जन मानस में जगह बना ली है। कश्मीर में शांति और आम हालत कायम करने के लिए भारतीय राष्ट्र को किसी न किसी रूप में इन शब्दों के दायरे में सोचना होगा और ऐसी पहल करनी होगी, जिससे इन शब्दों से जुड़ी आम कश्मीरी भावनाओं से संवाद कायम हो सके।
प्रश्नयह है कि क्या इन शब्दों से भारतीय संवैधानिक व्यवस्था का कोई विरोध है? क्या अपने सभी नागरिकों से “सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय”, “विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था और उपासना की स्वतंत्रता” और “व्यक्तिगत गरिमा” की सुरक्षा का वादा करने वाले “संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य” भारत में ऐसे शब्दों पर नए संदर्भ में सोचने और उस पर सारे देश में सहमति पैदा करने की क्षमता नहीं है?
यहांइस बहस में यह पहलू जोड़ने की जरूरत है कि किसी शब्द का अर्थ गतिरुद्ध नहीं होता। वह बदलते समय और मानव के विकासक्रम और समाज की उन्नत होती चेतना के साथ विकसित होता रहता है। अगर “आजादी”, “स्वायत्तता” और “स्वशासन” को आधुनिक रूप में परिभाषित किया जाए, तो असल में ये शब्द कश्मीर के नाराज तबकों से संवाद में भारतीय राष्ट्र का पक्ष होने चाहिए। सवाल यह है कि एक आम नागरिक के लिए अपनी जिंदगी पर खुद फैसले की “आजादी”, अपने रहन-सहन और पसंद-नापसंद को तय करने की “स्वायत्तता” और उसकी “व्यक्तिगत गरिमा” भारतीय संविधान जैसे आधुनिक दस्तावेज के तहत ज्यादा सुरक्षित हो सकती हैं, या किसी मजहबी व्यवस्था में जहां इंसान की इच्छाएं किसी धर्मग्रंथ और मजहबी रीति-रिवाजों के दायरे में कैद होती हैं? एक महिला के अधिकारों, अपने शरीर और मन पर उसके स्वनियंत्रण के सिद्धांत, आदि के प्रति आधुनिक संवैधानिक व्यवस्था ज्यादा संवेदनशील है, या दुख्तराने मिल्लत जैसे संगठनों के वो फतवे जो उनके पहनावे, उनके द्वारा इंटरनेट जैसे आज बेहद जरूरी हो गए माध्यम के इस्तेमाल, और सिनेमा जैसे मनोरंजन पर रोक लगाते हैं? “स्वायत्तता” आखिर किसे मिलनी चाहिए- सोपोर, बारामूला, उरी, पुंछ, लेह और लद्दाख के दूरदराज के गांवों में बैठे नागरिकों को, या श्रीनगर में बैठे सत्ताधीशों को? क्या इस बात की गारंटी है कि श्रीनगर को 1952 जैसी “स्वायत्तता” मिल जाने से राज्य के हर बाशिंदे को सुरक्षित जिंदगी, बुनियादी नागरिक अधिकार और अपनी संपूर्ण संभावनाओं को हासिल कर सकने की “आजादी” मिल जाएगी?
असलमें न सिर्फ कश्मीर के लिए, बल्कि आज पूरे भारत के संदर्भ में समूह, समुदाय और प्रांत की स्वायत्तता बनाम नागरिक की स्वायत्तता की बहस को छेड़े जाने की जरूरत है। लेकिन इस बहस की स्वीकार्यता बने, इसकी एक बहुत अहम शर्त है। वो शर्त यह है कि पहले भारत सरकार या देश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था अपनी एक साख कायम करे। नागरिक अधिकारों का उल्लंघन करते हुए और अन्याय के पक्ष में खड़ी दिखने वाली कोई सत्ता अपनी ऐसी नैतिक साख नहीं बना सकती है।
गौरतलबहै कि भारत सरकार संभवतः सिक्यूरिटी लॉबी और भाजपा की उग्रवादी प्रतिक्रियाओं से आशंकित होकर सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून पर वैसी पहल भी नहीं कर पाई है, जिसका वादा प्रधानमंत्री और गृह मंत्री दोनों ने किया था। इस कानून में संशोधन या इसे कुछ इलाकों से हटाने की मांग नेशनल कांफ्रेंस और पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) जैसी कश्मीर की मुख्यधारा पार्टियां भी करती रही हैं। वैसे भी सरकार के लिए जरूरी यह है कि वह इस मांग को व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखे। वो परिप्रेक्ष्य यह है कि इस कानून में संशोधन की मांग सिर्फ कश्मीर से नहीं उठी है। उत्तर पूर्व के राज्यों- खासकर मणिपुर- में यह पहले से एक बड़ा मुद्दा है। कुछ जानकारों की इस बात पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है कि देश की मौजूदा राजनीतिक संरचना के बीच इस कानून को रद्द करना नामुमकिन है, लेकिन इसकी उन धाराओं में संशोधन जरूर किया जा सकता है, जिनसे सेनाकर्मियों द्वारा ड्यूटी से इतर किए गए मानवाधिकारों के उल्लंघनों को भी इससे संरक्षण मिल जाता है। सरकार ने कश्मीरी आवाम से संवाद कायम करने के लिए तीन वार्ताकारों की नियुक्ति की थी। उनकी रिपोर्ट में भी सशस्त्र बल विशेष अधिकार कानून के मुद्दे पर विस्तार से चर्चा थी। हाल में दिल्ली में सामूहिक बलात्कार की घटना के बाद बनी जस्टिस वर्मा कमेटी ने भी सिफारिश की है कि महिलाओं पर यौन हिंसा के आरोपी सुरक्षाकर्मियों को इस कानून का संरक्षण नहीं मिलना चाहिए। इन सबके बावजूद अगर सरकार इस कानून में संशोधन को भी तैयार नहीं होती है, तो वह कश्मीरी आवाम से वास्तविक संवाद बनाने की आशा कैसे कर सकती है?
ढाई साल पहले कश्मीर में पथराव की घटनाओं का सिलसिला बना हुआ था, जिसमें सौ से ऊपर नौजवान मारे गए थे। तब लोकसभा में चर्चा के दौरान जब कुछ सदस्यों ने कश्मीरियों की उचित शिकायतों को दूर करने की मांग की थी। उस पर भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी ने यह पूछा था कि आखिर ये शिकायतें क्या हैं? फिर उन्होंने जोड़ा था कि कश्मीर में जो लोग सड़कों पर उतर कर पथराव कर रहे हैं, वे रोजगार या आर्थिक पैकेज के लिए नहीं, बल्कि भारत से अलग होने के लिए लड़ रहे हैं। डॉ. जोशी की उस बात में दम था और आज भी है। लेकिन वो बात अधूरी है। यह बात तब पूरी होगी, जब उसके साथ ही यह सवाल भी उठाया जाएगा कि आखिर कश्मीर के बहुत से लोग ऐसा करने पर क्यों मजबूर हुए? इसका एक जवाब यह है कि वे पाकिस्तान द्वारा संचालित संगठनों और इस्लामी कट्टरपंथियों के बहकावे में आ गए। लेकिन इसका एक और जवाब यह हो सकता है कि उन लोगों में भारतीय संविधान के प्रावधानों में भरोसा कमजोर हो गया है। उन्हें यह नहीं लगता कि भारतीय संविधान में नागरिकों की जिन मूलभूत स्वतंत्रताओं और बुनियादी अधिकारों की व्यवस्था की गई है, वो उनके लिए भी हैं। पथरीबल जैसी घटना, जिसमें सीबीआई जांच में सैन्य कर्मचारियों को पांच लोगों की हत्या का दोषी पाया गया, उनके खिलाफ दशक भर बाद सुप्रीम कोर्ट के दखल से कोर्ट मार्शल शुरू हो पाया। पहले मुकदमा इसलिए नहीं चल सका, क्योंकि सरकार ने इसकी इजाजत नहीं दी और ऐसा क्यों नहीं किया, यह भी नहीं बताया। अगर ऐसे उदाहरण हों तो क्या यह कहा जा सकता है कि कश्मीरी लोगों की शिकायत निराधार है?
आजादीके बाद जब नगालैंड का एक प्रतिनिधिमंडल “आजादी” की मांग करते हुए प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से मिला था, तो पंडित नेहरू ने कहा था कि भारत में जितना मैं आजाद हूं, उतना ही यहां का हर नागरिक और हर नगा आजाद है। पंडित नेहरू की इस बात में हम भारत की एकता का सूत्र देख सकते हैं। लेकिन अगर आजाद भारत में यह बात आज बहुत से लोगों और बहुत से इलाकों को सच नहीं लगती, तो इसका जवाब आखिरकार भारतीय राष्ट्र और राज्य-व्यवस्था को ही ढूंढना होगा कि आखिर ऐसा क्यों है? और क्या बिना ऐसा भरोसा हुए देश के सभी नागरिकों के साथ “आजादी” और “स्वायत्तता” पर पूरी साख के साथ बहस की जा सकती है?
भारतीयसंविधान में हर आधुनिक संविधान की तरह संप्रभु व्यवस्था की इकाई व्यक्ति को माना गया है। देश की स्वतंत्रता का मतलब हर व्यक्ति की मूलभूत स्वतंत्रता है। इस स्वतंत्रता पर आक्रमण चाहे राजसत्ता की तरफ से हो, या धर्मांध संगठनों या किसी चरमपंथी-उग्रवादी समूह की तरफ से- वह समान रूप से संविधान की मूल भावना का उल्लंघन है। जब धर्मांध या चरमपंथी संगठन इस स्वतंत्रता का हनन करते हैं, तो राजसत्ता से यह आशा होती है कि वह व्यक्तियों के बुनियादी अधिकारों की रक्षा करे। लेकिन ऐसा राज्य तभी कर सकता है, जब उन्हीं व्यक्तियों के मन में उसके प्रति भरोसा हो। दुर्भाग्य से कश्मीर में भारतीय राज्य के प्रति यह भरोसा कमजोर पड़ा हुआ है। अतः भारतीय राज्य के सामने पहली चुनौती इस भरोसे को बहाल करने की है, क्योंकि तभी भारतीय संविधान वहां के लोगों को एक सार्थक दस्तावेज लगेगा और वे इसके दायरे में समाधान के लिए तैयार हो सकेंगे। इसलिए भारत के सामने आज जो बड़ी चुनौतियां हैं, उनमें एक यह है कि संवैधानिक मूल्यों की व्यक्ति के संदर्भ न सिर्फ व्याख्या की जाए, बल्कि उन पर इसी संदर्भ में अमल भी किया जाए।
बहरहाल,यह भी उतना ही जरूरी है कि समूह, समुदाय आदि के अर्थ में स्वायत्तता और आजादी की बात करने वाले गुटों को वैचारिक चुनौती दी जाए। लेकिन यह प्रयास तभी सफल हो सकता है, जब हर व्यक्ति की सुरक्षा, उसकी जिंदगी की संभावनाओं को पूरी तरह हासिल करने का प्रबंध, और उसके नागरिक अधिकारों की हिफाजत को अउल्लंघनीय मूल्य के रूप में स्थापित किया जा सके।
सत्येंद्र रंजन वरिष्ठ पत्रकार एवं स्तंभकार हैं.
satyendra.ranjan@gmail.com पर इनसे संपर्क किया जा सकता है.
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